हज़रत इनायत खान—(ओशो की प्रिय पुस्तकें)
(The Mysticism Of Sound And Music)
अपनी मनपसंद किताबों के खुशबूदार गुलशन से हुए कभी तो ओशो उन किताबों का जि़क्र करते है जो उन्हें कीमती मालूम हुई और कभी उन लेखकों को अपने काफिले में शरीक करना चाहते है जिनकी किताबें उन्हें सार्थक लगी हों। खलील जिब्रान जैसे लेखकों का तो समूचा साहित्य ही अपना लिया।
हज़रत इनायत खान का जन्म सन 1882 के जुलाई महीने में बड़ौदा में हुआ। उनके खानदान में संगीत और सूफीवाद हाथ से हाथ मिला कर चलते थे। इनायत खान के दादा मौला बख्श, वालिद रहमत खान धुपद गाते और वीणा बजाते थे। स्वभावत: इन दोनों धाराओं का संगम इनायत खान में भी हुआ। बड़ौदा के महाराज संगीत और अन्य कलाओं के बड़े कद्रदान थे। उनके संरक्षण में वहां संगीत खूब पल्लवित और कुसुमित हुआ।
इनायत खान बचपन में ही संगीत में दीक्षित हुए लेकिन उनका संगीत सिर्फ साज तक ही सीमित नहीं था। एक और रूहानी संगीत जो पूरे ब्रह्मांड में झंकारित होता रहता है, उसकी उन्हें तलाश थी। उन्हें अस्तित्व का अनुभव भी संगीत की तरंगों के मानिंद होता था। पूरा विश्व उनके लिए परम तत्व की एक झनकार था। उनके प्रवचनों में वे संगीत के उदाहरण देकर अस्तित्व के रहस्यों को समझाते थे।
सूफी फकीर अपनी साधना में ध्वनियों का इस्तेमाल बहुत करते है। इसके पीछे कुरान की एक मीठी कहानी है। कहते है, अल्लाह ने रूहें बनाईं और उनके लिए मिट्टी के पुतले बनाये। लेकिन वह परवाज रूहें इन मिट्टी के पुतलों में कैद होने के लिए तैयार न थी। तो अल्लाह ने संगीत पैदा किया जिसे सुनने के लालच में रूहें मिट्टी की मूर्तियों में प्रवेश कर गई।
इस कहानी के सीने में सच्चाई भरी हुई है। मनुष्य के भाव, मन, विचार सब कुछ अलग-अलग गति से थिरकती हुई तरंगों के सिवाय और कुछ भी नहीं। इनायत खान कहते थे, किसी तंतु वाद्य के या ढोल के चमड़े में भी प्राण उर्जा होती है। वादक अगर अपनी प्राण ऊर्जा वादन में उँड़ेलता है तो वह संगीत श्रोताओं के प्राण झंकृत करता है।
यद्यपि इनायत खान का पेशा संगीतकार का था, भीतर से उनकी चेतना विकास के ऊंचे से ऊंचे सोपान चढ़ रही थी। कई सूफी फकीर और मुर्शिद उनकी आध्यात्मिक तैयारी करवा रहे थे। किस्मत ने उनके लिए एक खास काम लिख रख था: उन्हें पश्चिम जाकर सूफी विचार का प्रसार करना था। सो सन 1910 में वे न्यूयॉर्क के लिए रवाना हुए। उनके लिए वह पूरी तरह अज्ञात में छलांग थी। बड़ौदा की रियासत में खानदानी गवैयों और रईसों के बीच पले इस सूफी फकीर के लिए अमेरिका की अजनबी तहजीब में जाकर काम करना कितना कठिन था इसे वे खुद बयान करते है।
‘’पश्चिम में काम करना मेरे लिए इतना मुश्किल था कि मैंने कभी इसके बारे में सोचा भी नहीं था। मैं कई मिशनरी नहीं था। जिसके पीछे चर्च के सारे सदस्य हों। न ही मुझे किसी संप्रदाय का प्रचार करने के लिए किसी महाराजा ने भेजा था। मैं सिर्फ मेरी अंदर की आवाज सुनकर पश्चिम आया था और इस अजनबी धरती पर मेरे काम को सहारा दे सके ऐसा कोई भी न था। इस नई भूमि में न तो मेरी कोई जान-पहचान थी, न किसी के लिए मेरे पास कोई सिफारिशी खत थे। न तो मुझे अंग्रेजी आती थी। न मैं यह जानता था कि मैं क्या सिखाऊंगा, किसको सिखाऊंगा।‘’
शुरू-शुरू में तो इनायत खान एक हिंदुस्तानी संगीतकार बनकर न्यूयॉर्क में रहे। संगीत ही उनकी रोजी रोटी का जरिया था। धीरे-धीरे संगीत पेश करने से पहले उन्होंने संगीत के बारे में बोलना शुरू किया। उस दौरान वे उस संगीत की बात करते जो गाने-बजाने से निर्मित नहीं होता, जो अनहत है। यह उनकी शख्सियत का असर जानिये कि जो इनायत खान के प्रशंसक और मुरीद बढ़ते चले गये। यहां तक कि हेनरी फोर्ड भी उनसे प्रभावित था। वह कहता था, ‘’मैं जिस बात को खोज रहा था उसे इनायत खान ने पा लिया।‘’
पूर्णतया भौतिकवादी, वैज्ञानिक बुद्धि के पाश्चात्य मनुष्य को पूरब की प्रज्ञा से अवगत कराने का कठिन काम हज़रत इनायत खान ने अपने जीवन के अंत तक—1927 तक किया। उनके रोम-रोम में बसा हुआ संगीत स्त्री-पुरूषों से संबंधित होने में बहुत मदद गार साबित हुआ। उनके लिए हर व्यक्ति एक सुर था। और हर समाज इन सुरों को स्वर मेल, एक सिंफनी। वे बड़ी संवेदनशीलता के साथ व्यक्तियों से संबंध बनाते थे। सूफी जिसे ‘’मुरव्वत’’ कहते है, ‘’उस गुण का प्रयोग वे अपने शिष्यों को सिखाते। बोलने-चालने के शिष्टाचार का आडंबर करने वाले पश्चिम के मनुष्य को उन्होंने असली शिष्ट–आचरण सिखाया। वे कहते, आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई, इसे यंत्रवत कहने से कहीं अच्छा होगा यदि आप उस व्यक्ति की पसंदगी-नापसंदगी का सम्मान करें। उसे सिगरेट पसंद नहीं है तो उसके सामने न पिये। उसे जो व्यक्ति प्रिय है उसकी बुराई न करें। उसकी पसंद का संगीत बजाये। शिष्टाचार संवेदनशील आचरण में है, न कि चिकने-चुपड़े शब्दों में।
सत्रह साल तक वे अमेरिका और इंग्लैड में काम करते रहे। उनके प्रवचनों और लेखों को उनके शिष्यों ने संकलित किया। यह संकलन 12 किताबों में, ‘’दि सूफी मैसेज ऑफ हज़रत इनायत खान’’ शीर्षक से प्रकाशित हुए।
लंदन में इनायत खान की भेंट रवीन्द्र नाथ टैगोर से हुई। टैगोर ने उन्हें अपने मित्रों से मिलने के लिए आमंत्रित किया। उस मित्र मंडली में एक हिंदुस्तानी बैरिस्टर भी था जो आगे चल कर महात्मा गांधी के नाम से विख्यात हुआ। टैगोर और इनायत खान कई बार मिले। उन दोनों की छवि बहुत कुछ एक दूसरे से मिलती थी।
अमेरिका और यूरोप में इनायत खान को जो सफलता मिली उसकी वजह यही है कि अध्यात्मिक ज्ञान को वे रोजमर्रा की जिंदगी में उतारने के गुर सिखाते थे। पूरी तरह काम करो, और जब सफलता हासिल हो तब फल का त्याग करो। ऐसा करने से तुम अपने ही बनाये हुए रेकार्ड को तोड़ देते हो, प्रतिपल खुद से आगे बढ़ जाते हो। शायद इसीलिए हेनरी फोर्ड जैसे सफल उद्योगपति उनकी और आकर्षित हुए।
5 फरवरी, 1927 को मुर्शिद इनायत खान शरीर छोड़ दिये। उससे पहले वे हिंदुस्तान लौट आये थे। शरीर छोड़ने से पहले उन्होंने अजमेर जाकर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के दरगाह पर हाज़िरी लगाई जो तेरहवी शताब्दी में सूफीवाद को हिंदुस्तान लाये थे। वे मुरशिदों के मुर्शिद कहलाते थे। उन्होंने इनायत खान के मुर्शिद ख्वाजा अबू हाशिम मदानी को आदेश दिया था कि वे इनायत खान को सूफी संदेश लेकर पश्चिम भेजे। मरने से पूर्व हर सूफी मुर्शिद अपने मुरीदों( शिष्यों) से माफी मांगता है। जाने अनजाने किसी को दिल दु:खाया हो तो वे माफ कर दें। इनायत खान ने भी वह रिवाज निभाया। पूरी पृथ्वी पर फैले हुए शिष्यों के लिए इनायत खान का अंतिम संदेश यह था:
तुम्हारे मस्तिष्क की भूमि में मैंने अपने विचारों के बीज बोये है
मेरा प्यार तुम्हारे दिलों को भेद चुका है
मेरे लफ्ज तुम्हारी जबान पर है
मेरी रोशनी तुम्हारी रूह को रोशन कर गई है
मेरा काम मैंने तुम्हारे हाथों में सौंपा है।
--हजरत इनायत खान
किताब की एक झलक:--
लोकतंत्र:
लोकतंत्र की धारणा को बहुत समझा जाता है। लोकतंत्र का सिद्धांत: ‘’दो व्यक्ति एक जैसे है।‘’ बहुत गलत सिद्धांत है। उससे विनम्रता, सौम्यता, और ऊंचे आदर्श बिलकुल विदा हो जाते है। यह सोच कितनी बचकानी है कि कपूर और हड्डी, खड़िया और शक्कर, एक जैसे हे। यह ख्याल कि सब एक समान है, बड़ा सह्रदय लगता है। लेकिन अगर पियानो की सभी पट्टियों को एक ही स्वर में मिलाया जाये तो संगीत पैदा नहीं होगा। लोकतंत्र की गलत धारणा पियानो में एक ही स्वर रखने जैसी है। ऐसा करने से रूहानी संगीत बेजान हो जाता है। यह धारणा लोकतंत्र की हवस अधिक है। लोकतंत्र कम। वास्तविक लोकतंत्र है खुद को ऊपर उठाना और उस उठने में जो आदर्श नजर आते है उनका सम्मान करना।
आनंद की अल्केमी:
संस्कृत में रूह को आत्मा कहते है। जिसका अर्थ है: आनंद। ऐसा नहीं है कि आनंद आत्मा का गुण है, वरन आनंद ही आत्मा है। आज कल हम सुख को आनंद समझ लेते है। लेकिन सुख आभास मात्र है। वह सुख को ढूँढ़ता रहेगा और कभी भी संतुष्ट नहीं होगा। हिंदू कहावत है कि इंसान सुख को खोजता रहता है और बदले में दुःख पाता है। प्रत्येक सुख बहार से आनंद दिखाई देता है। वह आनंद का आश्वासन देता है क्योंकि वह आनंद की छाया है; लेकिन जिस तरह व्यक्ति की छाया खुद व्यक्ति नहीं है उसी तरह सुख आनंद का प्रतिनिधित्व तो करता है लेकिन आनंद नहीं है।
इस दृष्टि के अनुसार इस दुनिया में मुश्किल से ऐसी आत्मा होंगी जो जानती होंगी कि आनंद क्या है—लोग निरंतर एक के बाद एक निराशा ही अनुभव करते रहते है। यहीं संसारी जीवन है। यह ऐसी भटकन है कि इंसान हजारों बार निराश होने के बावजूद फिर उसी रास्ते से जायेगा क्योंकि उसे दूसरा रास्ता ही मालूम नहीं है।
जो आदमी आनंद का राज नहीं जानता वह अक्सर लोभ से भर जाता है। उसे हजारों रूपए चाहिए, लेकिन जब वे मिल जाते है तब फिर उसे लाखों चाहिए होते है। लाखों मिलने के बाद भी उसकी संतुष्टि नहीं होती। तुम अपना सब कुछ लुटा दो उन पर लेकिन वे संतुष्ट नहीं होते। क्योंकि वे गलत दिशा में खोज रहे है।
आनंद न तो खरीदा जाता है न बेचा जाता है; न किसी को दान दिया जा सकता है। आनंद है तुम्हारा अंतरतम, तुम्हारी आत्मा। वह जीवन में सबसे बहुमूल्य चीज है। सारे धर्म, सारी दार्शनिक प्रणालियां, इंसान को भिन्न-भिन्न मार्गों से यही सिखाती है कि इस आनंद को कैसे पा ले।
रहस्यदर्शी और ऋषि इस प्रक्रिया को अल्केमी, रसायन शास्त्र कहते है।
व्यक्तित्व की कला:
कुछ लोग सोचते है कि कला कुदरत से निकृष्ट है लेकिन ऐसा नहीं है। कला कुदरत को संपूर्णता देती है। कला में कुछ दिव्य है, क्योंकि स्वयं परमात्मा मनुष्य के माध्यम से कुदरत के सौंदर्य को पूर्णता देता है—और उसे ही कला कहते है। दूसरे शब्दों में, कला कुदरत की नकल नहीं है, कला कुदरत को बेहतर बनाती है। फिर चित्रकला हो, कविता हो या संगीत है। लेकिन सभी कलाओं में श्रेष्ठतम है व्यक्तित्व की कला। उसे सीखना जरूरी है, ताकि जीवन के हर क्षेत्र में उसका उपयोग किया जा सके।
जरूरी नहीं है कि हर आदमी संगीतज्ञ या चित्रकार बने, लेकिन हर आदमी के लिए व्यक्तित्व ओर निजता में फर्क कर पाते है। निजता वह है जो हम जन्म के साथ ले कर आते है। हम एक अलग हस्ती की तरह पैदा होते है। निजता का अर्थ है आत्मा को अपने होने का अहसास।
व्यक्तित्व निजता का निखार है। व्यक्ति बनने से भीतर पडा हुआ सौंदर्य विकसित होता है। निजता के इस विकास को व्यक्तित्व कहते है। निजता कुदरती हे, जबकि व्यक्तित्व एक कला है। उसे पाना होता है। निर्मित करना होता है। हम उसे लेकर नहीं आते।
प्राचीन समय में व्यक्तित्व की कला बच्चों की शिक्षा का हिस्सा थी। आज विद्यार्थी परीक्षा पास कर लेते है और सोचते है कि अब वे दुनिया का सामना करने के लिए तैयार है। लेकिन इतनी बहारी गुणवत्ता काफी नहीं है। आंतरिक विकास, भीतरी संस्कृति असली है और जो व्यक्तित्व का विकास करने से आती है।
व्यक्तित्व के चार वर्ग है: खजूर, अखरोट, अनार, अंगूर।
खजूर जैसा व्यक्तित्व बाहर मुलायम होता है और भीतर कठोर। खजूर को जैसे ही मुंह में डाला जाये, उसकी गुठली अटक जाती है।
अखरोट जैसे व्यक्तित्व के बाहर सख्त पर्त होती है, लेकिन जब तुम उसे तोड़ते हो तब भीतर गुदा पाते हो।
तीसरा व्यक्तित्व अनार नुमा। बाहर से सख्त और भीतर से भी कठिन—बीज ही बीज।
चौथा अंगूर की मानिंद व्यक्तित्व बाहर से भी नर्म, और भीतर से भी नर्म—रस भर मधुर।
यह चौथा व्यक्तित्व बहुत चुंबकीय होता है। आध्यात्मिक व्यक्ति का व्यक्तित्व ऐसा ही होता है।
ओशो का नजरिया:
सातवां रिंझाई जैसा बुद्ध पुरूष नहीं है। लेकिन बहुत करीब है—हजरत इनायत खान। वह आदमी जिसने पश्चिम को सूफीवाद से परिचित कराया। उसने काई किताब नहीं लिखी लेकिन उसके सभी व्याख्यान 12 भागों में संकलित किये गये है। कहीं-कहीं वे सुंदर है। क्षमा करें, मैं यह नहीं कह सकता कि वे सभी अच्छे है, लेकिन इधर-उधर, कहीं-कहीं.....खास कर जब वे सूफी कहानी कहते है तब वे बेजोड़ है।
वे संगीतज्ञ भी थे। उस विधा में वे उस्ताद थे। वे आध्यात्मिक जगत में पहुंचे हुए पीर नहीं थे। लेकिन संगीत के क्षेत्र में निःसंदेह थे। कभी-कभी वे आध्यात्मिक ऊँचाई छू लेते—बादलों के पार।
ओशो
बुक्स आय हैव लव्ड
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