विश्व की महान कृतियों में जो श्रेष्ठ कोटि का साहित्य है उनमें ‘’लाइट ऑफ एशिया’’ का स्थान बहुत ऊँचा है। अंग्रेज पत्रकार और कवि सर एडविन अर्नाड न सन 1879 में इस सुमधुर काव्य सलिला की रचना की। सर अर्नाल्ड का जीवन बहुत अनूठा है। वे सन् 1861 में भारत आये और सीधे पूना आकर बसे। उनकी विद्वता को देखते हुए उन्हें यहां के डेक्कन कॉलेज का प्रिंसिपल बनाया गया। भारत में उन्होंने संस्कृत भाषा सीखी ओर उनके लिए संस्कृत साहित्य के समृद्ध और विस्मयकारी भंडार के द्वार खुल गये। वे भारतीय दर्शन, चिंतन और प्रगल्भता और साहित्य से इतने अभिभूत हुए कि अपने अंग्रेज देशवासियों तक उसका ऐश्वर्य पहुंचाने की अभीप्सा से भर उठे। उनहोंने अनेक संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद किया। गौतम बुद्ध के जीवन से वह अत्यंत प्रभावित हुए और उनके कवि ह्रदय ने बुद्ध की जीवनी को काव्य रस में डुबोकर एक अद्भुत माला बनाई जिसमें कल्पना विलास और यथार्थ का खूबसूरत संमिश्रण किया।
उन्नीसवीं शताब्दी में बुद्ध का जीवन यूरोप और अमरीका के लिए अपरिचित था। इस किताब ने प्रेम रस आपूरित बुद्ध कथा को पश्चिम की धरती पर पहुंचाया। देखते ही देखते यह किताब अमेरिका और इंगलैंड में आग की तरह फैल गई। यहां तक कि इंग्लैंड में इसके साठ संस्करण और अमरीका में अस्सी संस्करण कुछ ही वर्षों में प्रकाशित हुए और इसकी लाखों प्रतियां बिकी।
‘’लाइट ऑफ एशिया’’ अर्थात एशिया का प्रकाश। प्रश्न उठता है कि इस किताब में ऐसी क्या खास बात है जो पाश्चात्य पाठकों ने इसे सिर पर उठा लिया। एक तो बुद्ध का अद्भुत चरित्र और उसके बाद सर अर्नाल्ड की असाधारण काव्य प्रतिभा: इन दोनों के संगम के कारण यह काव्य निरंतर कल्पना और तथ्यों के बीच डोलता रहा। यथार्थ का एक प्रसंग लेकिन कवि उसमें मानवीय संवेदनाओं के रंग भरता है। और पढ़ने वाले को लगता है, हां, बिलकुल यही, ऐसा ही घटा होगा। फिर बुद्ध चरित्र धार्मिक नहीं, बहुत आत्मीय, बहुत मानवीय बन जाता है।
अर्नाल्ड की खूबी यह है कि उन्होंने सिद्धार्थ के जन्म से लेकिर उसके बुद्ध बनकर महल में वापिस आने तक का जीवन ही चितेरा है। बुद्ध के दर्शन या धर्म चक्र प्रवर्तन से उन्हें कोई लेना देना नहीं है। इसलिए बुद्ध की प्रतिमा की प्रतिमा आखिर तक मानवीय बनी रहती है। उसके पारिवारिक संबंध और उन संबंधों की धूप-छांव हमें बहुत अपनी लगती है।
दूसरे परिच्छेद में कथा है कि सिद्धार्थ के अठारह वर्ष पूरे करने के पश्चात महाराज शुद्घोदन उसकी रंगरलियों का इंतजार करते है ताकि उसे संन्यास या तपश्चर्या का ख्याल ही न आये। अपने अमात्यों को बुलाकर वे सिद्धार्थ के लिए तीन विलास महल बनाने का आदेश देते है।
इस घटना को सर अर्नाल्ड ने जिस प्रकार गूंथा है उसका नमूना देखें:--
‘’अब जबकि हमारे प्रभु अठारह वर्ष के हुए।
राजा ने आदेश दिया कि बनाए जाएं तीन शानदार महल
जिनमें देवदार की हों दीवारें, जो शीतकाल में रहे गर्म
एक हो संगमरमर का जो बचाएँ ग्रीसम की तपीस से
और एक भुनी हुई ईंटों का, जिस पर हों नीले कवेलु
जो चंपक की कलियों के चटकने के समय सुहाने हों
’शुभ’ ‘सुरम्य’ और रम्य थे उनके नाम
मनोहारी वाटिकाएं कुसुमित हुए उनके आसपास
निर्झर बहते उच्छृंखल, और सुगंधित दूब का विशाल कालीन
इन सके बीच सिद्धार्थ टहलता मनमौजी
नई-नई ख़ुशियाँ प्रहर दर प्रहर
सुख में सराबोर घटिकाएं, समृद्ध था जीवन
प्रवल वेग से बहता हुआ यौवन का रक्त
फिर भी उसके ध्यान की छायाएं झाँकती रही
मानों तैरते हुए मेघों से म्लान होता तालाब की चाँदी।‘’
सिद्धार्थ और उसके पिता शुद्घोदन, इनका जीवन दो समानांतर पटरियों पर चलता रहता है। सिद्धार्थ की कुंडली में बनी हुई संन्यास की प्रखर संभावना छाया की भांति शुद्घोदन का पीछा करती है। अहर्निश। और दूसरी तरफ भोग विलास के समस्त साधनों के बावजूद सिद्धार्थ के आलय विज्ञान में छापा हुआ ध्यान का संचित सिद्धार्थ को त्याग की और खींचता रहता है। पिता-पुत्र के बीच यह निःशब्द रस्सी खेंच सर अर्नाल्ड ने अति सह्रदयता से लिखा है।
सभी भोग विलास के साधनों के बावजूद सिद्धार्थ की प्रबल नियति उसे महलों में से निकालकर जंगलों में पहुंचा देती है। वहां भूखा प्यासा, तप से क्षीण काया को लेकिर सत्य की खोज में भटकता हुआ सिद्धार्थ एक रात बोधि वृक्ष के नीचे ध्यान निमज्जित बैठा हुआ था। वह सिद्धार्थ का अंतिम दिन होता है। क्योंकि उसके बाद बुद्ध का जन्म होता है। इस घटना के लिए निमित्त बनती है। सुजाता नामक ग्रामीण स्त्री और उसने श्रद्धा पूर्वक चढ़ायी हुई खीर।
यह सर्वविदित कहानी जब सर अर्नाल्ड के हाथों से गुजरती है तो देखें कितना रसपूर्ण हो उठती है:
उन नदी के किनारे रहता था एक गृहस्थ
पवित्र और संपन्न, कई गोशालाओं का स्वामी
भला नायक, गरीबों का मित्र
प्रसन्न चित, शांति से जीवन बिताता हुआ
सुजाता, उसकी पत्नी सुन्दरत्म
गांव की सभी सुंदरियों में श्रेष्ठ
अपने घर पति के साथ सुख शांति से रहती हुई
लेकिन उनका वैवाहिक प्रेम सुफल नहीं था
अनगिनत बार उसने देवता लक्ष्मी का मनुहार किया
कितने शिवलिंगों को चावल
जवा कुसुम और चंदन-तेल चढ़ाया
पुत्र प्राप्ति की आशा में मन्नत मांगी कि
यदि ऐसा हुआ तो वह वृक्ष देवता को
स्वर्ण पात्र में भोजन अर्पित करेगी।
और सचमुच उसे तीन माह पूर्व पुत्र हुआ था।
मनौती पूर्ण करने के हेतु
गोद में लेकिर कोमल शिशु को, सुजाता
एक हाथ में अपनी लाल साड़ी में नन्हें अंकुर को लपेटे
अपने मांसल वक्ष के पास
और दूसरे हाथ से माथे पर रखे
बर्तन को सम्हालते हुए, अनुगृहीत कदमों से,
वृक्ष देवता की दिशा में चलते हुए..
लेकिन राधा, जिसे वृक्ष का परिसर
साफ करने और वृक्ष को लाल धागा बांधने हेतु भेजा था
दौड़ती हुई आई, ‘’मालकिन देखो।‘’
वहां वृक्ष-देवता बैठा है
अपने घुटनों पर हाथ मोड़कर
देखो, उसके माथे पर चमकता प्रकाश
कितना सौम्य, कितना महान, स्वर्गीय आंखे
सुना है, देवताओं से मिलना पर सौभाग्य
यह मानकर कि वह दिव्य पुरूष है,
सुजात ने पृथ्वी को चुमकर, कांपते हुए कहा,
’’है पवित्र वृक्ष-निवासी, कल्याणकारी
कृपा कर हम गरीबों की भेंट स्वीकार करें
एक स्वर्ण पात्र में, हस्तिदंत समान शुभ्र दूध को डालकर
उसने बुद्ध को दिया
गुलाबों के ह्रदय से निकला हुआ इत्र
बुद्ध निःशब्द उस दूध को पीते रहे
और देखते ही देखते बुद्ध की क्षीण काया में
शक्ति प्रविष्ट हुई; वे तेजस्वी व कांतिमान देखने लगे
बुद्ध के जीवन को देखने वाली सर अर्नाल्ड की आँख प्रेम की आँख है। वे बुद्ध के भक्त या शिष्य नहीं है। और न ही उन्हें बौद्ध भिक्षु बनने का शौक है। एक चक्रवर्ती राजकुमार का ऐश्वर्य को त्याग कर राह का भिक्षु बनना इस घटना की नाटकीय संवेदनशीलता से वे आप्लावित हुए। इसीलिए किताब का अंत भी उस घटना से हाता है जहां पर बुद्ध के पारिवारिक जीवन का अंतिम धागा टूटता है।
शुद्घोदन जब खबरें सुनता है कि उसका पुत्र सिद्धार्थ अब बुद्ध बन गया है। और हजारों भिक्षुओं का स्वामी हो गया है। वह गांव-गांव घूमकर, भीख माँगकर भोजन लेता है। तो राजा का पितृ ह्रदय व्यथित हो उठा। महाराज के आत्म सम्मान को बहुत ठेस लगी। उन्होंने दूतों को भेजकर बुद्ध को महल आने का निमंत्रण दिया। बुद्ध को भी अपना हिसाब पूरा करना था। वे आये।
मुंडा हुआ सिर, पीत वस्त्र, हाथ में भिक्षा पात्र लेकर आनेवाले उस फकीर को देखकर शुद्घोदन की आंखों में आंसू बहने लगे। उसने पूछा, ‘’यह क्या स्थिति है वत्स?’’
बुद्ध ने कहा, ‘’मेरी जाति का यह चलन है।‘’
‘’तुम्हारी जाति,’’ यह तो सिंहासनों और राज घरानों की जाति है।‘’
‘’नहीं’’ शांति में डूबे हुए स्वर में बुद्ध बोले, ‘’मैं उस अदृश्य परंपरा की बात कर रहा हूं जिसका मैं वंशज हूं। जहां राज वस्त्र पहना हुआ सम्राट अपने पीत वस्त्र धारी भिक्षु राजपुत्र से मिलता है। मेरी संपदा के पहले फल मैं आपको अर्पित करता हूं।‘’
‘’कौन सी संपदा?’’ राजा अभी भी आश्चर्य चकित था।
बुद्ध राज हस्त को अपने हाथ में थाम भीड़ में उमड़ते रास्ते पर चल पड़े। एक तरफ सम्राट, दूसरी तरफ यशोधरा—बुद्ध बातें करते रहे शांति की, पवित्रता की; उन चार आर्य सत्यों की जो समूची प्रज्ञा को सम्माहित करते है जिसे कि किनारे समुंदर को उन आठ सम्यक नियमों की—जिनका पालन करने पर हर कोई निर्वाण को उपलब्ध हो सकता है।
सारी रात बुद्ध बोलते रहे, धम्म सिखाते रह
अंत में सिंहासन से उठा सम्राट, नंगे पाँव
चूमते हुए उसके चीवर को, कहा उसने
‘’मुझे ले चल मेरे पुत्र
तेरे संध का सबसे छोटा और कमजोर साधक मैं
और प्यारी यशोधरा अब संतुष्ट, आनंदित बोली
‘’हे धन्यता प्राप्त, राहुल को उसकी विरासत दें--
आपके ज्ञान साम्राज्य की संपदा।‘’
इस प्रकार तीनों बुद्ध के मार्ग पर चल पड़े।
यह पर लाइट ऑफ एशिया समाप्त होती है। इसके बाद कुछ पंक्तियों में सर अर्नाल्ड बुद्ध-प्रेम से ओतप्रोत अपने ह्रदय को उँड़ेलता है।
‘’यहां समाप्त होता है मेरा लेखन
जो गुरु को प्रेम करता है उसके प्रेम के लिए
थोड़ी सी जानकारी, थोड़ा सा मैंने कहा है
शिक्षक को, उसके शांति-पथ को स्पर्श किया
उसके बाद पैंतालीस वर्षा ऋतुऐ
वह आशियाँ के अनेक प्रदेशों में
अनेक लोगों को दिखाता रहा प्रकाश
बुद्ध का निधन हुआ, उस महान तथागत का
मनुष्यों के बीच जो मनुष्य था,
सबको संतुष्ट करते हुए
तब से करोड़ो-करोड़ो उस पथ पर चलते रहे
जो ले जाता है, जहां वह गया—
निर्वाण में, जहां मौन बसता है।
ओशो का नजरिया:
एडविन अर्नाल्ड ने बुद्ध के जीवन पर एक किताब लिखी है। ‘’दि लाइट ऑफ एशिया’’ जो बुद्ध पर लिखी गई सुंदरतम किताबों में से एक है। उसकी कुछ पंक्तियां:
यह शांति
स्व को प्रेम और जीने की तृष्णा को जीतने के लिए
छाती में गहरी जड़ें जमाये बैठी वासना को उखाड़ने
आंतरिक संघर्ष को शांत करने
ताकि प्रेम शाश्वत सौंदर्य का आलिंगन करे
गौरव आत्मा का स्वामी बने
सुख, देवताओं के पार जीयें
असीम धन दूसरों की सेवा करने को
दान में खर्च करे, सौम्य भाषण और निष्कलुष दिन
यह ऐश्वर्य ने तो जीवन में क्षीण होगा,
न मृत्यु उसे छीनेगी
वह शांति है—स्व का प्रेम ओर जीने की तृष्णा पर
विजय पाने के लिए
ओशो
दि डिसिप्लिन ऑफ ट्रांसडेंस
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