दि लाईफ ऐंड टीचिंग ऑफ श्री गोविंदान्द भारती-(नान एक शिवपुरी बाबा)
ओशो की प्रिय पुस्तके
कभी-कभी किसी सिद्ध पुरूष के बारे में ऐसा घटता है कि उनकी देशना से भी अधिक प्रभावशाली होता है उनका जीवन। जो पहुंचे वे बात तो एक ही कहते है क्योंकि सबका अंतिम अनुभव एक जैसा होता है। लेकिन जिस राह से सयाने पहुँचे है वे राहें अलग होती है। शिवपुरी बाबा इसी कोटि के योगी है जिनके जीवन का वर्णन करने के लिए एक ही शब्द काफी है: ‘’अद्भत’’
केरल प्रांत, सन् 1826, एक ब्राह्मण परिवार में जुड़वाँ बच्चे पैदा हुए उनमें एक लड़का और एक लड़की। यह परिवार नंबुद्रीपाद ब्राह्मण था। याने कि उसी जाति का जिसके आदि शंकराचार्य थे। वह लड़का पैदा होते ही मुस्कुराया, रोया नहीं। उसके दादा उच्युत्म विख्यात ज्योतिषी थे। उन्होंने बालक की कुंडली देखकर बताया कि कोई बहुत बड़ा योगी पैदा हुआ है। उसका नाम रखा गया गोविन्दा। जब वह 18 साल का हुआ तो उसके दादा ने संन्यास लिया और वे वन की और प्रस्थान करने को तैयार हुए। उस समय गोविन्दानंद ने उनके साथ जाने की तैयारी की।
जाने से पहले अपने हिस्से की पूरी जायदाद बहन के नाम कर दी और दादा के साथ चल दिया। दोनों ही मिलकर नर्मदा नदी के किनारे विंध्य पर्वत के अंचल में रहने लगे। जब वृद्ध अच्युतम की मृत्यु करीब आई तो उन्होंने गोविंदानंद से कहा, ‘’मैंने तेरे लिए भरपूर हीरे-जवाहरात छोड़े है। हम शंकराचार्य की परंपरा के है और हमारे लिए उन्होंने बनाया हुआ नियम है कि हर संन्यासी विश्व परिक्रमा करे। उनका अभिप्राय था पूरे भारत वर्ष का भ्रमण, लेकिन मैं चाहता हूं कि तू सचमुच पूरे विश्व की परिक्रमा करे। और संन्यासी यह परिक्रमा पैदल ही करता है।
दादा की मृत्यु के बाद गोविंदानंद और भी घने जंगल में जाकर एकांत में तपस्या करने लगा। कंद-मूल, जंगली अनाज खाकर गुजारा करने लगा। उस बियाबान में उनके संगी-साथी थे तो सिर्फ जंगली जानवर। वे ऋतंभरता प्रज्ञा जगाने में लीन थे। मन के एक-एक विकल्प को हटा कर मन को खाली करने की साधना कर रहे थे। 1857 की जंग कब हुर्इ, उन्हें कोई पता न चला। इस प्रकार 25 वर्ष उनहोंने ध्यान-समाधि में बीताये। जब तक कि उनके भीतर निर्विकार समाधि का विस्फोट नहीं हुआ।
अब तक वे पचास वर्ष के हो चुके थे। अब उन्हें दादा को दिये हुए वचन को पूरा करना था। एकांतवास को छोड़कर गोविंदानंद बड़ौदा आये जहां सयाजी राव राज कर रहे थे। बड़ौदा में उनकी मुलाकात श्री अरविंद से हुई। लोकमान्य तिलक भी वहां आये थे। उन्हें गोविंदानंद ने ज्योतिष के कुछ पाठ पढ़ाये। भारत का भ्रमण करते हुए वे कलकता राम कृष्ण परमहंस के पास पहुँचे। रामकृष्ण उनसे आठ साल छोटे थे।
भारत भ्रमण के बाद वे खैबर दर्रे से निकल कर अफग़ानिस्तान होते हुए मक्का पहुंचे। मक्का से जेरूसलेम 800 मील की दूरी पर है। बीच में रेगिस्तान पड़ता है। जिसे पार कर वे जीसस की जन्मस्थली पहुंचे।
शिवपुरी बाबा ने एक बार स्वयं बेनेट को बताया कि पृथ्वी पर जितनी जमीन है उसका अस्सी प्रतिशत वे पैदल धूम चूके है। विश्व परिक्रमा करने में उन्हें चालीस साल लगे—1875 से 1915 तक। विषुववृत के पास धरती का पूरा गोल 25,000 मील है। उससे कहीं अधिक दूरी उन्होंने पैदल नापी है।
विश्व परिक्रमा को आगे बढ़ाये—
एशिया मायनर से होते हुए बाबा ग्रीस और रोम पहुंचे। वहां से पूरे यूरोप की भूमि पर घूमना सुगम था। बाबा के साथ एक संयोग रहा कि वे जहां भी गये वहां के शास्ताओं से उनकी भेंट होती रहती थी। एक तो लोग उनकी आवभगत करते थे। और दूसरे उनका तेज ऐसा था कि उस देश के शासक व राज परिवार भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते थे।
जब वे योरोप में थे तो इंग्लैड की महारानी विक्टोरिया न उन्हें निमंत्रित किया। 1896 से 1901 तक वे लंदन में रानी के मेहमान बनकर रहे। उनकी मुलाकात विंस्टन चर्चिल और बर्नाड शॉ से भी हुई। बाबा की धारा प्रवाह अंग्रेजी और बोलने की कुशलता उन्हें पशिचम में बहुत उपयोगी रही। बर्नार्ड शॉ से जब वे मिले तो उसके कहा, ‘’आप भारतीय साधु बिलकुल बेकार होते है। आपको समय की कोई कद्र नहीं है।‘’
बाबा ने कहा, आप समय के गुलाम है। हम तो समयातित में जीते है।‘’
1901 में रानी विक्टोरिया का देशंत हुआ और बाबा अटलांटिक महासागर पर कर अमेरिका पहुँचे चुकी थी। वहां कई निमंत्रण उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। स्वामी विवेकानंद शिकागो की धर्म परिषद ऐ अभी-अभी वापस गये थे। भारतीय अध्यात्म में अमरीकी लोगों का रस जगा था। बाबा का वहां बहुत अच्छा स्वागत हुआ। वे राष्ट पति रूजवेल्ट से भी मिले।
उतर अमरीका में तीन साल रह कर वे चलते-चलते मेक्सिको और फिर दक्षिण अमेरिका पहुंच। लंबे-चौड़ दक्षिण अमेरिका को पार कर वे जहाज से न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया होते हुए जापान पहुंच। इस समय तक पहला विश्व युद्ध शुरू हो चुका था। इसलिए जापान से चीन होते हुए बाबा भारत आये और बनारस रुके। बनारस में पं मदन मोहन मालवीय हिंदू विद्यापीठ बनाने की तैयारी कर रहे थे। उसके लिए बाबा ने पचास हजार रूपये दिये। पंडित मालवीय ने बाबा का प्रगाढ़ ज्ञान देखकर उन्हें कुलपति बनने का अनुरोध किया लेकिन बाबा ने इंकार किया क्योंकि संन्यासी कुलपति कैसे बन सकता है।
दादा को दिया वचन पूरा हुआ। अब बाबा हिमालय के जंगल में बसना चाहते थे। लेकिन उससे पहले अंतिम बार वे केरल जाकर अपने घर के स्वजनों से मिलना चाहते थे। इस बीच सत्तर साल गुजर चुके थे। वे अपने गांव गये तो न उनका घर था, न परिवार को कोई सदस्य। उनके दादा की भविष्यवाणी सच हुई: ‘’बाबा के साथ ही उनका वंश समाप्त होगा।‘’ बाबा फिर नर्मदा के जंगल में आये। दादा ने दी हुई अमानत में से जो बचा खुचा धन था उसे मिट्टी में गाड़ कर वे नेपाल की और प्रस्थान कर गये। उस समय उनकी आयु थी सिर्फ नब्बे वर्ष।
काठमांडू के पास हिमालय का एक शिखर है शिवपुरी। उस पर बाबा ने अपनी कुटिया बना ली। तब से गोविंदानंद शिवपुरी बाबा कहलाने लगे। नेपाल से लेकर श्रीलंका, बर्मा तक ‘’शिवपुरी शिखर के वृद्ध योगी। की सुगंध फैलने लगी, लेकिन वे किसी तरह के शिष्य, यात्री या दर्शनार्थी नहीं चाहते थे। वे न तो महात्मा बने, न गुरु। वे बस एकांत वासी मुनि ही बने रहे। बेनेट उनकी जीवनी लिखना चाहते थे। इसलिए जब वे बाबा से उनके जीवन के प्रसंगों के बार में पूछने लगे तो बाबा ने कहा, ‘’वह गैर जरूरी है। तुम मेरी देशना के बारे में लिखो, मेरे बारे में नहीं।‘’
इस समय बाबा सौ साल के थे। वे कुछ 132 साल तक जीयें। नेपाल में उन्होंने अंतिम 38 वर्ष बीताये। सौ वर्ष की आयु में उन्हें मसूड़ों का कैंसर हो गया था। देश विदेश के काफी डॉक्टरों ने उनका इलाज किया लेकिन वे ठीक नहीं कर सके। आखिर बाबा ने यौगिक प्रक्रिया से कैंसर का इलाज किया।
राजनेताओं और शासकों के साथ शिवपुरी बाबा का कोई जोड़ था। जो आखिर तक बना रहा। 1956 में भारत के राष्ट्रपति डाक्टर राधाकृष्णन भी बाबा से मिलने गये थे। उनके बीच जो वार्ता लाप हुआ वह इस प्रकार है।
राधाकृष्णन—‘’आपकी देशना क्या है?’’
बाबा—‘’मैं तीन अनुशासन सिखाता हुं: आत्मिक, नैतिक और शारीरिक।‘’
राधाकृष्णन—‘’संपूर्ण सत्य केवल इतने थोड़े शब्दों में?’
बाबा—‘’हां’’ (डॉ राधाकृष्णन ने अपने साथियों की और देखा और मुड़ कर कहा—‘’संपूर्ण सत्य इतने थोड़े शब्दों में।‘’
बाबा बोले—‘’हां’’
राधाकृष्णन जब आये तब उन्होंने बाबा को सिर्फ नमस्कार किया था। इन दो शब्दों को उनके अचेतन में इतना प्रभाव या भय कह लीजिए की गये तो बाबा के पैरों पर सिर रखकर गये।
इस घटना को स्मरण करते हुए बाबा ने बेनेट को बताया, ‘’मेरा जवाब सुनकर राधाकृष्णन के चेहरे पर पहले तो शर्म और बार में भय उभरा। शर्म इसलिए कि उनकी प्रकांड विद्वत्ता के बावजूद उन्हें जीवन का सार निचोड़ समझ में नहीं आया। और भय, इसलिए क्योंकि एक लंबी उम्र एक मान्यता में बिताने के बाद अब अपनी जीवन शैली बदलना असंभव था।‘’
28 जनवरी 1963 को शिवपुरी बाबा की 132 साल चली काया विसर्जित हुई। शरीर छोड़ने के लिए कुछ बहाना चाहिए था, तो वह हुआ न्युमोनिया का। थोड़ी सी बीमारी और यह अद्भुत योगी भौतिक तल से अदृष्य हुआ।
तीन अनुशासन--
भारत के राष्ट्रपति के ऊपर शिवपुरी बाबा के तीन अनुशासनों के सिद्धांतों का जो असर हुआ वह पाठकों को याद होगा। जब बाबा ने उन की देशना की चर्चा मेरे साथ की तब मैं गहन रूप से प्रभावित हुआ। लेकिन मैं यह नहीं बता सकता कि मैं उनकी बातों से प्रभावित हुआ या उनकी शख्सियत की खूबसूरती से। मुझे लगता है कि उनके शब्दों में जो ताकत थी वह इसलिए थी कि वे उनके द्वारा कहे गये थे। बाद में उनके शब्दों पर मनन करने लगा तो मुझे महसूस हुआ कि उनकी ताकत व्यक्तिगत नहीं थी बल्कि इसलिए थी क्योंकि वे शब्द वर्तमान जगत के लिए बहुत उपयोगी थे। वे खुद भी बार-बार इस पर जोर देते थे। ‘’मेरा व्यक्तित्व महत्वपूर्ण नहीं है, मेरी देशना महत्वपूर्ण है।‘’
मुझसे वे यही कहते थे। ‘’यदि तुम चाहते हो कि तीन अनुशासनों वाली तुम्हारी किताब लोगों के लिए उपयोगी हो, तो मेरी देशना पर जोर दो, मेरे जीवन पर नहीं।‘’ शिवपुरी बाबा की बुनियादी देशना है: Right Life; जिसे वह सर्वधर्म कहते थे। मैं तो मानता हूं कि किसी अन्य भारतीय महात्मा की अपेक्षा शिवपुरी बाबा की देशना अधिक व्यापक है। क्योंकि वह चालीस सल तक विश्व भ्रमण करते रहे। ऐसा कोई एशियाई गुरु नहीं है जिसकी शिक्षा पाश्चात्य मनुष्य के भौतिक जीवन पर बिना किसी परिवर्तन के लागू होगी।
बाबा कहते है: ‘’मनुष्य की संरचना तीन तल पर है। एक तो शरीर और उसके विभिन्न कार्य और शक्तियां, उसका मन और उसके विभिन्न संवेग, गुण-अवगुण, और उसकी आत्मा। मनुष्य के समग्र जीवन में ये तीनों अलग-अलक ढंग से काम करते है। शरीर बुद्धि का पाठ है और उसकी गतिविधियों का क्षेत्र है। अंत: शरीर के साथ उनके अन्य कार्य भी सम्मिलित है जैसे विचार, भाव और संवेदना।
बाबा हमेशा कहते थे कि मन शक्तिशाली होना चाहिए जो कि आत्मा-अनुशासन से ही हो सकता है। वह मन के बारे में इस तरह बात करते थे जैसे मन एक पात्र हो जिसे स्वच्छ करके कार्य सक्षम रखना चाहिए। वे मन का संबंध विचारों से नहीं जोड़ते थे, बल्कि ‘’बीइंग’’ से अंतराल से।
मनुष्य का तीसरा तल है जिसे संस्कृत में पुरूष कहते है।
ये तीन अनुशासन मनुष्य की तीन प्रकार की नियति से संबंधित है। इन तीन नियतियों को शिवपुरी बाबा कहते थे। ‘’विश्व–बोध, आत्म बोध, और परमात्म बोध।‘’ तीन अनुशासन को वे तीन मूलभूत तत्वों से जोड़ते है: समझ, संकल्प, और ऊर्जा।
दूसरा अनुशासन है मानसिक। मन अच्छे और बुरे चरित्र का स्थान है। मन शक्तिशाली और विशुद्ध होना चाहिए। ये परस्पर विरोधी तत्व है, इसलिए इनमें एक समस्वरता होनी चाहिए। अनेक लोगों का मन सशक्त लेकिन अशुद्ध होता है। वे अपने शरीर और उसकी ऊजाओं को नियंत्रित कर लेते है लेकिन उनका उदेश्य साफ नहीं होता। ध्यान के लिए जो शांति आवश्यक है उसे वे नहीं पा सकते। इसके उल्टा, ऐसे लोग है। जिनका मन शुद्ध है। लेकिन उसमें सहनशीलता नहीं है, इसलिए वे कमजोर बने रहते है। कमजोर मन, चाहे कितना ही शुद्ध हो, सफलता पूर्वक ध्यान नहीं कर पायेगा। क्योंकि उसमें साहस और लगन नहीं होगी।
शक्ति शाली और विशुद्ध मन निर्मित करने का उपाय है सदगुणों को सतत बढ़ाना। स्वयं के भीतर जो अशुभ तत्व है उन्हें हटाकर शुभ को पोषित करते रहने से एक आंतरिक संघर्ष पैदा होता है। यह संघर्ष मन को सशक्त बनाता है। इसी को मैं आत्मा अनुशासन कहता हूं।‘’
शिवपुरी बाब का संदेश एक शब्द में कहना हो तो वह है: ‘’स्वधर्म।‘’ प्रत्येक मनुष्य स्वधर्म का पालन करे तो पूरा समाज धार्मिक होगा। मनुष्य जीवन का लषय एक ही है। परमात्मा की उपलब्धि । और उसके लिए जीवन में एक अनुशासन होना जरूरी है। जीवन सुव्यवस्थित हो; इसका मतलब है हम तीन व्यवस्थाओं का पालन करें। वे है: आध्यात्मिक व्यवस्था, नैतिक व्यवस्था, और बौद्धिक व्यवस्था। अभी तो हम अव्यवस्थित ढंग से जी रहे है। जब तक हम अपने जीवन को अपने हाथ में नहीं लेते, उसे अनुशासन में नहीं बाँधते तब तक संसार से पार नहीं हो सकते।
ओशो का नज़रिया—
यह किताब एक अंग्रेज लेखक ने लिखी है। एक सच्चा अंग्रेज जिसका नाम है: बेनेट। यह किताब एक बिलकुल अज्ञात भारतीय रहस्यदर्शी के बारे में है जिनका नाम है शिवपुरी बाबा। बेनेट की किताब की वजह से ही दुनिया उनके बारे में जान गई।
शिवपुरी बाबा अनूठे फूल थे—खास कर भारत में, जहां इतने सारे मूढ़ लोग महात्मा होने का दिखावा कर रहे है। भारत में शिवपुरी बाबा जैसे आदमी को पा लेना या तो सौभाग्य है या बहुत लंबी खोज का फल है। भारत में पाँच लाख महात्मा है। और यह नंबर सही है। इस भीड़ में असली आदमी खोजना लगभग असंभव है।
ऐसा दो बार हुआ....कुछ सालों बाद फिर से। पूरब में इस संप्रेषण कहते है। एक लौ से दूसरी लौ में ऊर्जा छलांग लगा सकती है जो बुझने को है। बेनेट को इतने गहन अनुभव हुए फिर भी वह विचलित था। हालांकि वह ऑस्पेन्सकी जितना अस्थिर और धोखेबाज नहीं था। लेकिन जब गुरूजिएफ मर गया उसके बाद वह दूसरे गुरु को खोजने लगा। कैसा दुर्भाग्य, बेनेट के लिए दुर्भाग्य है। बाकी लोगों के लिए अच्छा है। क्योंकि इस तरह वह शिवपुरी बाबा के पास आया। लेकिन शिवपुरी बाबा कितने ही महान क्यों न हो। गुरूजिएफ के सामने कुछ भी नहीं थे। मुझे बेनेट पर विश्वास नहीं होता। बेनेट वैज्ञानिक था, गणितज्ञ था...ओर इससे मुझे सूत्र मिलता है। जितने भी वैज्ञानिक है, उनके क्षेत्र के बाहर मूढ़ता पूर्ण आचरण करते है। वे बचकानी बातें करते है।
बेनेट एक जाना माना वैज्ञानिक था, गणितज्ञ था, लेकिन डांवाडोल हुआ, चुक गया। वह गुरूजिएफ के पास था लेकिन गुरूजिएफ के मरने के बाद दूसरा गुरु खोजने लगा। और ऐसा नहीं है कि वह शिवपुरी बाबा के पास रहा। जब बेनेट शिवपुरी से मिला तब वे बहुत बूढ़े हो चुके थे....129 साल के। वे सचमुच लौह पुरूष थे। वे 132 साल जीयें। सात फिट लंबे थे। और 132 साल में भी उनके मरने के कोई आसार नहीं थे। उन्होंने शरीर छोड़ने का निर्णय लिया। यह उनका अपना निर्णय था।
शिवपुरी मौन में डूबे हुए थे। उन्होंने कभी किसी को सिखाया नहीं। अब विशेष रूप से जो व्यक्ति गुरूजिएफ जैसे व्यक्ति को जानता हो, उसकी महान शिक्षा को जानता हो। उसके लिए शिवपुरी बाबा एक सामान्य व्यक्ति ही थे। बेनेट ने उन पर किताब लिखने के दौरान ही अन्य गुरु की तलाश शुरू कर दी।
फिर उसने इंडोनेशिया में मोहम्मद सुबुध को खोजा जो कि सुबुध आंदोलन का संस्थापक था। सुबुध संक्षिप्त नाम है, ‘’सुशिल-बुद्ध धर्म’’ का।
बेनेट ने मोहम्मद सुबुध को एक बहुत अच्छे व्यक्ति की तरह प्रस्तुत किया न कि गुरु की तरह.....परन्तु इसकी कोई तुलना शिवपुरी बाबा से नहीं की जा सकती और उसकी गुरूजिएफ से तुलना करने का तो सवाल ही नहीं उठता। बेनेट मोहम्मद सुबुध को पश्चिम ले गया और गुरूजिएफ का उतराधिकार बताने लगा। अब यह तो अव्वल दर्जे की बेवकूफी है।
शिवपुरी बाबा बेनेट की श्रेष्ठतम किताब है। बेनेट सुंदर ढंग से, गणित की तरह सुव्यवस्थित लिखता है। यद्यपि वह मूर्ख था। अब यदि आप एक बंदर को भी टाइपराइटर के सामने बैठा दे तो वह भी सिर्फ टाइपराइटर के बटनों को इधर-उधर दबा देने से कुछ सुंदर बात कह सकता है—शायद ऐसी बात जो कोई बुद्ध ही कह सकते है। परन्तु वह उस बात का मतलब नहीं समझ सकता।
ओशो
बुक्स आय हैव लव्ड
(लेखक के विषय में: जे. जी. बेनेट गणितज्ञ है और लंदन के इंडस्ट्रियल रिसर्च का निर्देशक रहा है। इसके साथ ही वह एशियाई भाषाओं और धर्मों का अध्ययन करता रहा। एशियाई देशों में उसने बहुत यात्राएं की और बहुत से अंजान आध्यात्मिक गुरूओं से साक्षात्कार किये। विज्ञान और धर्म का समन्वय करते हुए उसने कई दार्शनिक पुस्तकें लिखी है। शिवपुरी बाबा जब 129 साल के थे तब पहली बार बेनेट उनसे मिला था। उनके अदभुद जीवन से प्रभावित होकर उसने बाबा से उनके जीवन और उनकी देशना पर एक किताब लिखने की इच्छा जाहिर की।)
ओशो की प्रिय पुस्तके
कभी-कभी किसी सिद्ध पुरूष के बारे में ऐसा घटता है कि उनकी देशना से भी अधिक प्रभावशाली होता है उनका जीवन। जो पहुंचे वे बात तो एक ही कहते है क्योंकि सबका अंतिम अनुभव एक जैसा होता है। लेकिन जिस राह से सयाने पहुँचे है वे राहें अलग होती है। शिवपुरी बाबा इसी कोटि के योगी है जिनके जीवन का वर्णन करने के लिए एक ही शब्द काफी है: ‘’अद्भत’’
केरल प्रांत, सन् 1826, एक ब्राह्मण परिवार में जुड़वाँ बच्चे पैदा हुए उनमें एक लड़का और एक लड़की। यह परिवार नंबुद्रीपाद ब्राह्मण था। याने कि उसी जाति का जिसके आदि शंकराचार्य थे। वह लड़का पैदा होते ही मुस्कुराया, रोया नहीं। उसके दादा उच्युत्म विख्यात ज्योतिषी थे। उन्होंने बालक की कुंडली देखकर बताया कि कोई बहुत बड़ा योगी पैदा हुआ है। उसका नाम रखा गया गोविन्दा। जब वह 18 साल का हुआ तो उसके दादा ने संन्यास लिया और वे वन की और प्रस्थान करने को तैयार हुए। उस समय गोविन्दानंद ने उनके साथ जाने की तैयारी की।
जाने से पहले अपने हिस्से की पूरी जायदाद बहन के नाम कर दी और दादा के साथ चल दिया। दोनों ही मिलकर नर्मदा नदी के किनारे विंध्य पर्वत के अंचल में रहने लगे। जब वृद्ध अच्युतम की मृत्यु करीब आई तो उन्होंने गोविंदानंद से कहा, ‘’मैंने तेरे लिए भरपूर हीरे-जवाहरात छोड़े है। हम शंकराचार्य की परंपरा के है और हमारे लिए उन्होंने बनाया हुआ नियम है कि हर संन्यासी विश्व परिक्रमा करे। उनका अभिप्राय था पूरे भारत वर्ष का भ्रमण, लेकिन मैं चाहता हूं कि तू सचमुच पूरे विश्व की परिक्रमा करे। और संन्यासी यह परिक्रमा पैदल ही करता है।
दादा की मृत्यु के बाद गोविंदानंद और भी घने जंगल में जाकर एकांत में तपस्या करने लगा। कंद-मूल, जंगली अनाज खाकर गुजारा करने लगा। उस बियाबान में उनके संगी-साथी थे तो सिर्फ जंगली जानवर। वे ऋतंभरता प्रज्ञा जगाने में लीन थे। मन के एक-एक विकल्प को हटा कर मन को खाली करने की साधना कर रहे थे। 1857 की जंग कब हुर्इ, उन्हें कोई पता न चला। इस प्रकार 25 वर्ष उनहोंने ध्यान-समाधि में बीताये। जब तक कि उनके भीतर निर्विकार समाधि का विस्फोट नहीं हुआ।
अब तक वे पचास वर्ष के हो चुके थे। अब उन्हें दादा को दिये हुए वचन को पूरा करना था। एकांतवास को छोड़कर गोविंदानंद बड़ौदा आये जहां सयाजी राव राज कर रहे थे। बड़ौदा में उनकी मुलाकात श्री अरविंद से हुई। लोकमान्य तिलक भी वहां आये थे। उन्हें गोविंदानंद ने ज्योतिष के कुछ पाठ पढ़ाये। भारत का भ्रमण करते हुए वे कलकता राम कृष्ण परमहंस के पास पहुँचे। रामकृष्ण उनसे आठ साल छोटे थे।
भारत भ्रमण के बाद वे खैबर दर्रे से निकल कर अफग़ानिस्तान होते हुए मक्का पहुंचे। मक्का से जेरूसलेम 800 मील की दूरी पर है। बीच में रेगिस्तान पड़ता है। जिसे पार कर वे जीसस की जन्मस्थली पहुंचे।
शिवपुरी बाबा ने एक बार स्वयं बेनेट को बताया कि पृथ्वी पर जितनी जमीन है उसका अस्सी प्रतिशत वे पैदल धूम चूके है। विश्व परिक्रमा करने में उन्हें चालीस साल लगे—1875 से 1915 तक। विषुववृत के पास धरती का पूरा गोल 25,000 मील है। उससे कहीं अधिक दूरी उन्होंने पैदल नापी है।
विश्व परिक्रमा को आगे बढ़ाये—
एशिया मायनर से होते हुए बाबा ग्रीस और रोम पहुंचे। वहां से पूरे यूरोप की भूमि पर घूमना सुगम था। बाबा के साथ एक संयोग रहा कि वे जहां भी गये वहां के शास्ताओं से उनकी भेंट होती रहती थी। एक तो लोग उनकी आवभगत करते थे। और दूसरे उनका तेज ऐसा था कि उस देश के शासक व राज परिवार भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते थे।
जब वे योरोप में थे तो इंग्लैड की महारानी विक्टोरिया न उन्हें निमंत्रित किया। 1896 से 1901 तक वे लंदन में रानी के मेहमान बनकर रहे। उनकी मुलाकात विंस्टन चर्चिल और बर्नाड शॉ से भी हुई। बाबा की धारा प्रवाह अंग्रेजी और बोलने की कुशलता उन्हें पशिचम में बहुत उपयोगी रही। बर्नार्ड शॉ से जब वे मिले तो उसके कहा, ‘’आप भारतीय साधु बिलकुल बेकार होते है। आपको समय की कोई कद्र नहीं है।‘’
बाबा ने कहा, आप समय के गुलाम है। हम तो समयातित में जीते है।‘’
1901 में रानी विक्टोरिया का देशंत हुआ और बाबा अटलांटिक महासागर पर कर अमेरिका पहुँचे चुकी थी। वहां कई निमंत्रण उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। स्वामी विवेकानंद शिकागो की धर्म परिषद ऐ अभी-अभी वापस गये थे। भारतीय अध्यात्म में अमरीकी लोगों का रस जगा था। बाबा का वहां बहुत अच्छा स्वागत हुआ। वे राष्ट पति रूजवेल्ट से भी मिले।
उतर अमरीका में तीन साल रह कर वे चलते-चलते मेक्सिको और फिर दक्षिण अमेरिका पहुंच। लंबे-चौड़ दक्षिण अमेरिका को पार कर वे जहाज से न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया होते हुए जापान पहुंच। इस समय तक पहला विश्व युद्ध शुरू हो चुका था। इसलिए जापान से चीन होते हुए बाबा भारत आये और बनारस रुके। बनारस में पं मदन मोहन मालवीय हिंदू विद्यापीठ बनाने की तैयारी कर रहे थे। उसके लिए बाबा ने पचास हजार रूपये दिये। पंडित मालवीय ने बाबा का प्रगाढ़ ज्ञान देखकर उन्हें कुलपति बनने का अनुरोध किया लेकिन बाबा ने इंकार किया क्योंकि संन्यासी कुलपति कैसे बन सकता है।
दादा को दिया वचन पूरा हुआ। अब बाबा हिमालय के जंगल में बसना चाहते थे। लेकिन उससे पहले अंतिम बार वे केरल जाकर अपने घर के स्वजनों से मिलना चाहते थे। इस बीच सत्तर साल गुजर चुके थे। वे अपने गांव गये तो न उनका घर था, न परिवार को कोई सदस्य। उनके दादा की भविष्यवाणी सच हुई: ‘’बाबा के साथ ही उनका वंश समाप्त होगा।‘’ बाबा फिर नर्मदा के जंगल में आये। दादा ने दी हुई अमानत में से जो बचा खुचा धन था उसे मिट्टी में गाड़ कर वे नेपाल की और प्रस्थान कर गये। उस समय उनकी आयु थी सिर्फ नब्बे वर्ष।
काठमांडू के पास हिमालय का एक शिखर है शिवपुरी। उस पर बाबा ने अपनी कुटिया बना ली। तब से गोविंदानंद शिवपुरी बाबा कहलाने लगे। नेपाल से लेकर श्रीलंका, बर्मा तक ‘’शिवपुरी शिखर के वृद्ध योगी। की सुगंध फैलने लगी, लेकिन वे किसी तरह के शिष्य, यात्री या दर्शनार्थी नहीं चाहते थे। वे न तो महात्मा बने, न गुरु। वे बस एकांत वासी मुनि ही बने रहे। बेनेट उनकी जीवनी लिखना चाहते थे। इसलिए जब वे बाबा से उनके जीवन के प्रसंगों के बार में पूछने लगे तो बाबा ने कहा, ‘’वह गैर जरूरी है। तुम मेरी देशना के बारे में लिखो, मेरे बारे में नहीं।‘’
इस समय बाबा सौ साल के थे। वे कुछ 132 साल तक जीयें। नेपाल में उन्होंने अंतिम 38 वर्ष बीताये। सौ वर्ष की आयु में उन्हें मसूड़ों का कैंसर हो गया था। देश विदेश के काफी डॉक्टरों ने उनका इलाज किया लेकिन वे ठीक नहीं कर सके। आखिर बाबा ने यौगिक प्रक्रिया से कैंसर का इलाज किया।
राजनेताओं और शासकों के साथ शिवपुरी बाबा का कोई जोड़ था। जो आखिर तक बना रहा। 1956 में भारत के राष्ट्रपति डाक्टर राधाकृष्णन भी बाबा से मिलने गये थे। उनके बीच जो वार्ता लाप हुआ वह इस प्रकार है।
राधाकृष्णन—‘’आपकी देशना क्या है?’’
बाबा—‘’मैं तीन अनुशासन सिखाता हुं: आत्मिक, नैतिक और शारीरिक।‘’
राधाकृष्णन—‘’संपूर्ण सत्य केवल इतने थोड़े शब्दों में?’
बाबा—‘’हां’’ (डॉ राधाकृष्णन ने अपने साथियों की और देखा और मुड़ कर कहा—‘’संपूर्ण सत्य इतने थोड़े शब्दों में।‘’
बाबा बोले—‘’हां’’
राधाकृष्णन जब आये तब उन्होंने बाबा को सिर्फ नमस्कार किया था। इन दो शब्दों को उनके अचेतन में इतना प्रभाव या भय कह लीजिए की गये तो बाबा के पैरों पर सिर रखकर गये।
इस घटना को स्मरण करते हुए बाबा ने बेनेट को बताया, ‘’मेरा जवाब सुनकर राधाकृष्णन के चेहरे पर पहले तो शर्म और बार में भय उभरा। शर्म इसलिए कि उनकी प्रकांड विद्वत्ता के बावजूद उन्हें जीवन का सार निचोड़ समझ में नहीं आया। और भय, इसलिए क्योंकि एक लंबी उम्र एक मान्यता में बिताने के बाद अब अपनी जीवन शैली बदलना असंभव था।‘’
28 जनवरी 1963 को शिवपुरी बाबा की 132 साल चली काया विसर्जित हुई। शरीर छोड़ने के लिए कुछ बहाना चाहिए था, तो वह हुआ न्युमोनिया का। थोड़ी सी बीमारी और यह अद्भुत योगी भौतिक तल से अदृष्य हुआ।
तीन अनुशासन--
भारत के राष्ट्रपति के ऊपर शिवपुरी बाबा के तीन अनुशासनों के सिद्धांतों का जो असर हुआ वह पाठकों को याद होगा। जब बाबा ने उन की देशना की चर्चा मेरे साथ की तब मैं गहन रूप से प्रभावित हुआ। लेकिन मैं यह नहीं बता सकता कि मैं उनकी बातों से प्रभावित हुआ या उनकी शख्सियत की खूबसूरती से। मुझे लगता है कि उनके शब्दों में जो ताकत थी वह इसलिए थी कि वे उनके द्वारा कहे गये थे। बाद में उनके शब्दों पर मनन करने लगा तो मुझे महसूस हुआ कि उनकी ताकत व्यक्तिगत नहीं थी बल्कि इसलिए थी क्योंकि वे शब्द वर्तमान जगत के लिए बहुत उपयोगी थे। वे खुद भी बार-बार इस पर जोर देते थे। ‘’मेरा व्यक्तित्व महत्वपूर्ण नहीं है, मेरी देशना महत्वपूर्ण है।‘’
मुझसे वे यही कहते थे। ‘’यदि तुम चाहते हो कि तीन अनुशासनों वाली तुम्हारी किताब लोगों के लिए उपयोगी हो, तो मेरी देशना पर जोर दो, मेरे जीवन पर नहीं।‘’ शिवपुरी बाबा की बुनियादी देशना है: Right Life; जिसे वह सर्वधर्म कहते थे। मैं तो मानता हूं कि किसी अन्य भारतीय महात्मा की अपेक्षा शिवपुरी बाबा की देशना अधिक व्यापक है। क्योंकि वह चालीस सल तक विश्व भ्रमण करते रहे। ऐसा कोई एशियाई गुरु नहीं है जिसकी शिक्षा पाश्चात्य मनुष्य के भौतिक जीवन पर बिना किसी परिवर्तन के लागू होगी।
बाबा कहते है: ‘’मनुष्य की संरचना तीन तल पर है। एक तो शरीर और उसके विभिन्न कार्य और शक्तियां, उसका मन और उसके विभिन्न संवेग, गुण-अवगुण, और उसकी आत्मा। मनुष्य के समग्र जीवन में ये तीनों अलग-अलक ढंग से काम करते है। शरीर बुद्धि का पाठ है और उसकी गतिविधियों का क्षेत्र है। अंत: शरीर के साथ उनके अन्य कार्य भी सम्मिलित है जैसे विचार, भाव और संवेदना।
बाबा हमेशा कहते थे कि मन शक्तिशाली होना चाहिए जो कि आत्मा-अनुशासन से ही हो सकता है। वह मन के बारे में इस तरह बात करते थे जैसे मन एक पात्र हो जिसे स्वच्छ करके कार्य सक्षम रखना चाहिए। वे मन का संबंध विचारों से नहीं जोड़ते थे, बल्कि ‘’बीइंग’’ से अंतराल से।
मनुष्य का तीसरा तल है जिसे संस्कृत में पुरूष कहते है।
ये तीन अनुशासन मनुष्य की तीन प्रकार की नियति से संबंधित है। इन तीन नियतियों को शिवपुरी बाबा कहते थे। ‘’विश्व–बोध, आत्म बोध, और परमात्म बोध।‘’ तीन अनुशासन को वे तीन मूलभूत तत्वों से जोड़ते है: समझ, संकल्प, और ऊर्जा।
दूसरा अनुशासन है मानसिक। मन अच्छे और बुरे चरित्र का स्थान है। मन शक्तिशाली और विशुद्ध होना चाहिए। ये परस्पर विरोधी तत्व है, इसलिए इनमें एक समस्वरता होनी चाहिए। अनेक लोगों का मन सशक्त लेकिन अशुद्ध होता है। वे अपने शरीर और उसकी ऊजाओं को नियंत्रित कर लेते है लेकिन उनका उदेश्य साफ नहीं होता। ध्यान के लिए जो शांति आवश्यक है उसे वे नहीं पा सकते। इसके उल्टा, ऐसे लोग है। जिनका मन शुद्ध है। लेकिन उसमें सहनशीलता नहीं है, इसलिए वे कमजोर बने रहते है। कमजोर मन, चाहे कितना ही शुद्ध हो, सफलता पूर्वक ध्यान नहीं कर पायेगा। क्योंकि उसमें साहस और लगन नहीं होगी।
शक्ति शाली और विशुद्ध मन निर्मित करने का उपाय है सदगुणों को सतत बढ़ाना। स्वयं के भीतर जो अशुभ तत्व है उन्हें हटाकर शुभ को पोषित करते रहने से एक आंतरिक संघर्ष पैदा होता है। यह संघर्ष मन को सशक्त बनाता है। इसी को मैं आत्मा अनुशासन कहता हूं।‘’
शिवपुरी बाब का संदेश एक शब्द में कहना हो तो वह है: ‘’स्वधर्म।‘’ प्रत्येक मनुष्य स्वधर्म का पालन करे तो पूरा समाज धार्मिक होगा। मनुष्य जीवन का लषय एक ही है। परमात्मा की उपलब्धि । और उसके लिए जीवन में एक अनुशासन होना जरूरी है। जीवन सुव्यवस्थित हो; इसका मतलब है हम तीन व्यवस्थाओं का पालन करें। वे है: आध्यात्मिक व्यवस्था, नैतिक व्यवस्था, और बौद्धिक व्यवस्था। अभी तो हम अव्यवस्थित ढंग से जी रहे है। जब तक हम अपने जीवन को अपने हाथ में नहीं लेते, उसे अनुशासन में नहीं बाँधते तब तक संसार से पार नहीं हो सकते।
ओशो का नज़रिया—
यह किताब एक अंग्रेज लेखक ने लिखी है। एक सच्चा अंग्रेज जिसका नाम है: बेनेट। यह किताब एक बिलकुल अज्ञात भारतीय रहस्यदर्शी के बारे में है जिनका नाम है शिवपुरी बाबा। बेनेट की किताब की वजह से ही दुनिया उनके बारे में जान गई।
शिवपुरी बाबा अनूठे फूल थे—खास कर भारत में, जहां इतने सारे मूढ़ लोग महात्मा होने का दिखावा कर रहे है। भारत में शिवपुरी बाबा जैसे आदमी को पा लेना या तो सौभाग्य है या बहुत लंबी खोज का फल है। भारत में पाँच लाख महात्मा है। और यह नंबर सही है। इस भीड़ में असली आदमी खोजना लगभग असंभव है।
ऐसा दो बार हुआ....कुछ सालों बाद फिर से। पूरब में इस संप्रेषण कहते है। एक लौ से दूसरी लौ में ऊर्जा छलांग लगा सकती है जो बुझने को है। बेनेट को इतने गहन अनुभव हुए फिर भी वह विचलित था। हालांकि वह ऑस्पेन्सकी जितना अस्थिर और धोखेबाज नहीं था। लेकिन जब गुरूजिएफ मर गया उसके बाद वह दूसरे गुरु को खोजने लगा। कैसा दुर्भाग्य, बेनेट के लिए दुर्भाग्य है। बाकी लोगों के लिए अच्छा है। क्योंकि इस तरह वह शिवपुरी बाबा के पास आया। लेकिन शिवपुरी बाबा कितने ही महान क्यों न हो। गुरूजिएफ के सामने कुछ भी नहीं थे। मुझे बेनेट पर विश्वास नहीं होता। बेनेट वैज्ञानिक था, गणितज्ञ था...ओर इससे मुझे सूत्र मिलता है। जितने भी वैज्ञानिक है, उनके क्षेत्र के बाहर मूढ़ता पूर्ण आचरण करते है। वे बचकानी बातें करते है।
बेनेट एक जाना माना वैज्ञानिक था, गणितज्ञ था, लेकिन डांवाडोल हुआ, चुक गया। वह गुरूजिएफ के पास था लेकिन गुरूजिएफ के मरने के बाद दूसरा गुरु खोजने लगा। और ऐसा नहीं है कि वह शिवपुरी बाबा के पास रहा। जब बेनेट शिवपुरी से मिला तब वे बहुत बूढ़े हो चुके थे....129 साल के। वे सचमुच लौह पुरूष थे। वे 132 साल जीयें। सात फिट लंबे थे। और 132 साल में भी उनके मरने के कोई आसार नहीं थे। उन्होंने शरीर छोड़ने का निर्णय लिया। यह उनका अपना निर्णय था।
शिवपुरी मौन में डूबे हुए थे। उन्होंने कभी किसी को सिखाया नहीं। अब विशेष रूप से जो व्यक्ति गुरूजिएफ जैसे व्यक्ति को जानता हो, उसकी महान शिक्षा को जानता हो। उसके लिए शिवपुरी बाबा एक सामान्य व्यक्ति ही थे। बेनेट ने उन पर किताब लिखने के दौरान ही अन्य गुरु की तलाश शुरू कर दी।
फिर उसने इंडोनेशिया में मोहम्मद सुबुध को खोजा जो कि सुबुध आंदोलन का संस्थापक था। सुबुध संक्षिप्त नाम है, ‘’सुशिल-बुद्ध धर्म’’ का।
बेनेट ने मोहम्मद सुबुध को एक बहुत अच्छे व्यक्ति की तरह प्रस्तुत किया न कि गुरु की तरह.....परन्तु इसकी कोई तुलना शिवपुरी बाबा से नहीं की जा सकती और उसकी गुरूजिएफ से तुलना करने का तो सवाल ही नहीं उठता। बेनेट मोहम्मद सुबुध को पश्चिम ले गया और गुरूजिएफ का उतराधिकार बताने लगा। अब यह तो अव्वल दर्जे की बेवकूफी है।
शिवपुरी बाबा बेनेट की श्रेष्ठतम किताब है। बेनेट सुंदर ढंग से, गणित की तरह सुव्यवस्थित लिखता है। यद्यपि वह मूर्ख था। अब यदि आप एक बंदर को भी टाइपराइटर के सामने बैठा दे तो वह भी सिर्फ टाइपराइटर के बटनों को इधर-उधर दबा देने से कुछ सुंदर बात कह सकता है—शायद ऐसी बात जो कोई बुद्ध ही कह सकते है। परन्तु वह उस बात का मतलब नहीं समझ सकता।
ओशो
बुक्स आय हैव लव्ड
(लेखक के विषय में: जे. जी. बेनेट गणितज्ञ है और लंदन के इंडस्ट्रियल रिसर्च का निर्देशक रहा है। इसके साथ ही वह एशियाई भाषाओं और धर्मों का अध्ययन करता रहा। एशियाई देशों में उसने बहुत यात्राएं की और बहुत से अंजान आध्यात्मिक गुरूओं से साक्षात्कार किये। विज्ञान और धर्म का समन्वय करते हुए उसने कई दार्शनिक पुस्तकें लिखी है। शिवपुरी बाबा जब 129 साल के थे तब पहली बार बेनेट उनसे मिला था। उनके अदभुद जीवन से प्रभावित होकर उसने बाबा से उनके जीवन और उनकी देशना पर एक किताब लिखने की इच्छा जाहिर की।)
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