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शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

सिद्धार्थ—हरमन हेस-006

सिद्धार्थ—हरमन हेस-(ओशो की प्रिय पुस्तकें) 


Siddhartha - Hermann Hes
     हरमन हेस की सिद्धार्थ बहुत ही विरल पुस्‍तकों में से एक है। वह पुस्‍तक उसकी अंतर्तम गहराई से आयी है। हरमन हेस सिद्धार्थ से ज्‍यादा सुंदर और मूल्‍यवान रत्‍न कभी नहीं खोज पाया। जैसे वह रत्‍न तो उसमें विकसित ही हो रहा था। वह इससे ऊँचा नहीं जा सका। सिद्धार्थ हेस की पराकाष्‍ठा है।

      सिद्धार्थ बुद्ध भगवान से कहता है, आप जो कुछ कहते है सच है। इससे विपरीत हो ही कैसे सकता है। आपने वह सब समझा दिया है। जिसे पहले कभी नहीं समझाया गया था। आपने सभी कुछ स्‍पष्‍ट कर दिया है। आप बड़े से बड़े सदगुरू है। लेकिन आपने संबोधि स्‍वयं के असाध्‍य श्रम से ही उपलब्‍ध की है। आप कभी किसी के शिष्‍य नहीं बने। आपने किसी का अनुसरण नहीं किया; आपने अकेले ही खोज की। आपने अकेले ही यात्रा करके संबोधि उपलब्‍ध की है। आपने किसी का अनुसरण नहीं किया।
      मुझे आपके पास चले जाना चाहिए। सिद्धार्थ गौतम बुद्ध से कहता है, आप से ज्‍यादा बड़े सदगुरू को खोजने के लिए नहीं, क्‍योंकि आपसे बड़ा सदगुरू तो कोई है ही नहीं। बल्‍कि इसलिए कि सत्‍य की खोज मुझे स्‍वयं ही करनी है। केवल आपकी इस देशना के साथ मैं सहमत हूं.....
      सिद्धार्थ उदास है बुद्ध को छोड़ कर जाना उसके लिए बड़ा कठिन रहा होगा; लेकिन उसे जाना ही होगा—क्‍योंकि उसे सत्‍य को खोजना है, सत्‍य को जानना है, या फिर मर जाना है। उसे अपना मार्ग खोजना है।
      इसीलिए तो मुझे अपने ही ढंग से चलते जाना है—किसी दूसरे और बेहतर सदगुरू की तलाश नहीं करनी। क्‍योंकि कोई और बेहतर है ही नहीं....
      फिर वह आगे कहता है, आप उपलब्‍ध हो चुके है। मैं आप से दूर इसलिए नहीं जा रहा हूं कि आपके प्रति मुझे कुछ संदेह है। नहीं मुझे आपके प्रति बिलकुल संदेह नहीं है। मेरी आप पर श्रद्धा है। मैंने आपके सान्‍निध्‍य में, आपके चरणों में कुछ अज्ञात की झलक मिली है। आपके माध्‍यम से मैनें यथार्थ को देखा है। सचाई का साक्षात्‍कार किया है। मैं आपके प्रति अनुगृहीत हूं, लेकिन फिर भी मुझे जाना होगा।
      सिद्धार्थ का व्‍यक्‍तित्‍व ही ऐसा नहीं है जो शिष्‍यत्‍व ग्रहण कर सकता हो। इसके बाद वह संसार में वापस चला जाता है। और वह संसार में जीने लगता है। कुछ समय तक सिद्धार्थ एक वेश्‍या के साथ रहता है। उसके साथ रहकर वह यह जानने समझने की कोशिश करता है कि भोग का आसक्‍ति का, मोह का, बंधन का रंग-ढंग और रूप क्‍या होता है। उसके साथ रहकर वह संसार के रंग-ढंग और पाप-पुण्‍य की प्रक्रिया को जानता है। समझता है, जीता है। इस तरह से संसार को भोगते हुए, बहुत सी पीड़ाओं, निराशाओं, हताशाओं से गुजरकर उसमें बोध का उदय होता है। उसका मार्ग लंबा है, लेकिन वह बिना किसी भय के निर्भीकता पूर्वक , थिर मन से आग बढ़ता चला जाता है। इसके लिए चाहे उसे कोई भी कीमत क्‍यों ने चुकानी पड़े। वह तैयार है। या तो मरना है या पाना है। सिद्धार्थ ने अपने स्‍वभाव को पहचान लिया है और वह उसी के अनुरूप चल पड़ता है।
      अपने सहज-स्‍वभाव को पहचान लेना आध्‍यात्‍मिक खोज में सर्वाधिक आधारभूत और महत्‍वपूर्ण बात है। अगर व्‍यक्‍ति इस बात को लेकर दुविधा में है कि उसका स्‍वभाव या स्‍वरूप किस प्रकार का है--
      ‘’ओ श्रेष्‍ठतम, असीम प्रतिष्‍ठा के स्‍वामी, निस्‍संदिग्‍ध रूप से में आपकी देशनाओं पर श्रद्धा करता हूं। आपके द्वारा बताई हुई हर बात एकदम स्‍पष्‍ट और स्‍वयं सिद्ध है। आप संसार को समग्र अटूट शृंखला के रूप में बताते है। जो पूर्णरूपेण सुसंगत है। और बड़े और छोटे, सभी को एक ही धारा-प्रवाह में आबद्ध किए हुए है। एक क्षण को भी मुझे आपके बुद्ध होने के प्रति संदेह नहीं है। आप उस परम अवस्था को उपलब्‍ध हो चुके है। जहां पहुंचने के लिए न जाने कितने लोग प्रयासरत है। आपने स्‍वयं के असाध्‍य श्रम और खोज से बुद्धत्‍व को हासिल किया है। आपके किन्‍हीं भी धर्म-देशनाओं द्वारा कुछ भी नहीं सीखा है। और इसीलिए मैं सोचता हूं, ओ श्रेष्‍ठतम, असीम, प्रतिष्‍ठा के स्‍वामी, कि कोई भी व्यक्ति धर्म देशनाओं द्वारा मुक्‍ति नहीं पा सकता है। आप अपनी देशनाओं के माध्‍यम से किसी को यह नहीं बता सकते कि आपको संबोधि के क्षण में क्‍या धटित हुआ—वह रूपांतरण जिसे बुद्ध ने स्‍वयं अनुभव किया। वह गुह्मातम रहस्‍य क्‍या है—जिसे लाखों-लाखों में सिर्फ बुद्ध ने अनुभव किया।‘’
      सिद्धार्थ का बुद्ध से मिलना हुआ। उसने बुद्ध को सुना। जो कुछ बुद्ध कह रहे थे उस सौंदर्य को उसने अनुभव किया।
उसकी उपलब्‍धि उनकी संबोधि को सिद्धार्थ ने महसूस किया। बुद्ध की ध्‍यान की उर्जा ने सिद्धार्थ के ह्रदय को छुआ।
      वह बुद्ध को छोड़ कर अपने किसी अहंकार के कारण नहीं जा रहा। वह किसी और बड़े गुरु में नहीं जा रहा। बाद में सिद्धार्थ एक नाविक बन जाता है। लोगों को नदी पर करते-करते वह नदी के भावों में बह जाता है। कब नदी उदास होती है, कब नदी शांत होती है, कब उसमें उत्‍तेजना आती है, कब वह प्रसन्‍न होती है। कब वह क्रोध में उफनती है। ये सारे बोध वह पीता रहता है आपने अंतस में। वह अपने उद्वेग भी देखता रहता है। धीरे-धीरे वह शांत हो जाता है। और वह उस सब को पा लेता है। जिस के लिए उसने जीवन दाव पर लगया था। उसकी सुवास, उसकी सुगंध नदी पार जाने वाले महसूस करने लगते है। उसकी आंखे नदी की गहराई से भी गहरी और शांत हो जाती है।
      हरमन हेस ने सिद्धार्थ लिखा नहीं है....वह एक जर्मन लेखक था। वह भारत के धर्म संप्रदाय के विषय में भी ज्‍यादा नहीं जान पाया। पर उसका पात्र जो उसने अपनी कलम से पैदा किया सच में जीवित हो उठा है। उपन्‍यास के खत्‍म होते-होते आदमी उसमें खो जाता है।
ओशो
पतंजलि का योग सूत्र—4


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