कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

गॉड स्‍पीक्‍स—मेहर बाबा-064


गॉड स्‍पीक्‍स—मेहर बाबा

ओशो की प्रिय पुस्तके

यह एक अदभुत किताब है जो मौन से प्रगट हुई है। जो व्‍यक्‍ति आजीवन निःशब्द में डूबा हुआ था उसने उस परम मौन को और परात्‍पर की अनुभूति को शब्‍दों में ढाला है।

यह जिक्र हो रहा है बीसवीं सदी के प्रारंभ में हुए विश्‍व विख्‍यात संत मेहर बाबा का। उनकी किताब ‘’गॉड स्‍पीक्‍स’’ ओशो की मनपसंद किताबों में शामिल है।


मेहर बाबा जबान से कभी नहीं बोले, लेकिन उंगलियों से हमेशा बोलते थे। उनके पास ए, बी, सी के अक्षरों का एक तख्‍ता था। और उस तख्‍ते पर बिजली की तरह नाचती हुई उनकी उंगलियां उनका आशय लोगों तक पहुंचा देती। काश उस जमाने में कम्‍पयूटर होता। मेहर बाबा का संदेश वे खुद ही टाइप कर के संप्रेषित कर देते। जो भी हो, जिस ढंग से यह किताब संकलित और संपादित की गई है वह अपने आप में एक आश्‍चर्य है। किताब के संपादक आइ वी डयूस और जॉन स्‍टीवन्‍स खुद हैरान है कि यह असंभव काम उन्‍होंने कैसे कर लिया। अक्षर-तख्‍त पर द्रुत गति चलती हुई मेहर बाबा की उंगलियों के शब्‍दों को समझकर साथ ही साथ वे उन्‍हें टाइप करते गये। उनकी पांडुलिपि को बाद में स्‍वयं मेहर बाबा ने संपादित किया।


परमात्‍मा के गर्भ से निकली हुई इस मौन वाणी का नाम अत्‍यंत सार्थक है: गॉड स्‍पीक्‍स—परमात्‍मा बोलता है। सृष्टि की उत्पती, उसका उद्देश्‍य आत्‍मा की अधोगति, ऊर्ध्व गति और परमात्‍मा का स्‍वरूप—यह मूलत: इस किताब की रूप रेखा है। दस परिच्‍छेदों में मेहर बाबा उनके अपने दर्शन को शब्‍दांकित करते है। उनके दर्शन को सुस्‍पष्‍ट करने के लिए उन्‍होंने स्‍वयं कुछ नक्‍शे बनाकर पुस्‍तक में जोड़े है।

पहले परिच्छेद में चेतना के विभिन्‍न तल वर्णित कर बाबा दूसरे परिच्‍छेद में बताते है कि इस संपूर्ण चेतना को आकार में उतरने की इच्‍छा कैसे हुई। स्‍वयं को जानने की इच्‍छा से सृष्‍टि उत्‍पन्‍न हुई। यह ठीक ऐसे ही है जैसे वेदों में या उपनिषदों में उत्‍पत्‍ति की प्रक्रिया कही गई है। ‘’एकोअहम बहुस्‍याम’’ चेतना के मूल रूप को ये वे अन लिमिटेड को सीमित होने की इच्‍छा हुई और वह सीमित बन गया, तो इसका अर्थ हुआ कि सीमित भी इच्‍छा करके वापिस असीम बन सकता है। तो हर आत्‍मा के गर्भ में परमात्मा बनने की स्‍वाभाविक इच्‍छा स्‍फुरित होती रहती है। वह अकारण नहीं है।

तीसरे परिच्‍छेद में बाबा कहते है कि मनुष्‍य देह में चेतना को पूर्ण विकसित होने के लिए सात तलों से गुजरना पड़ता है। वे तल है; पत्‍थर से खनिज, खनिज से वनस्‍पति, वनस्‍पति से कीटक, कीटक से मछली, मछली से पक्षी, पक्षी से पशु, पशु से मनुष्‍य। चेतना जब स्‍थूल तल पर जीने से ऊब जाती है तब उच्‍च तलों पर उठने की चेष्टा करती है। यही उसकी आध्‍यात्‍मिक यात्रा का प्रारंभ है।

चेतना जब उर्ध्‍व गति करती है तो वह भी सात तलों से गुजरती है। ये सात तल स्‍थूल से सूक्ष्‍म की और बढ़ते चले जाते है। लेकिन चेतना जो कि सातवें तल पर याने कि उसके मूल रूप में अपरिसीम है, उसे विकसित होने के लिए मनुष्‍य की देह ही धरनी होती है। मनुष्‍य देह में मन और बुद्धि की संभावना है, इसलिए बुद्धत्‍व भी वहीं संभव है।

नौवें परिच्‍छेद में मेहर बाबा ईश्‍वर की भी दस अवस्‍थाएं प्रस्‍तुत करते है। यह उनकी विराट वैशिवक अनुभूति का परिणाम है कि वे देह में बंधी हुई मनुष्‍य कि आत्‍मा को भी ईश्‍वर की ही एक अवस्‍था मानते है। पुनर्जन्‍म की प्रक्रिया में संलग्‍न आत्‍मा, विकास करती हुई आत्‍मा, प्रगत आत्‍मा—सभी उसी परमात्‍मा की अवस्‍थाएं है। और दसवीं अवस्‍था है: मैन—गॉड। ‘’गॉड एज मैन गॉड’’ अर्थात मानवीय परमात्‍मा के रूप में ईश्‍वर। उनका इशारा परिपूर्ण सदगुरू की और है। वह भी परमात्‍मा का ही एक रूप है।

दसवें और अंतिम परिच्‍छेद में वे इस गहन चर्चा का निष्‍कर्ष निकालते है। यह परिच्‍छेद आश्‍चर्य जनक रूप से छोटा है। यह परिच्छेद मेहर बाबा के शब्‍दों में ही पढ़े:---

‘’परमात्‍मा को समझाया नहीं जा सकता। उसके संबंध में तर्क नहीं किया जा सकता। उसका सिद्धान्त नहीं बनाया जा सकता। न ही उसकी चर्चा की जा सकती है। या उसे समझा जा सकता है। परमात्‍मा को सिर्फ जिया जा सकता है।

तथापि यहां जो कहां गया है। और आदमी के मन की बौद्धिक हलचल को शांत करने के लिए जो भी समझाया गया है उसमें बहुत से शब्‍द और स्‍पष्‍टीकरण जोड़ने बाकी है। क्‍योंकि सत्‍य यह है कि सच को अनुभव किया जाना चाहिए और ईश्‍वर की दिव्‍यता को स्‍वयं पाना और जीना चाहिए।

अनंत की यह शाश्‍वत सत्‍य को समझना सृष्‍टि के भ्रम में उलझे हुए व्‍यक्‍ति रूप आत्‍माओं का लक्ष्‍य नहीं है। क्‍योंकि सत्‍य को समझा नहीं जा सकता उसे होश पूर्ण अनुभवों के द्वारा बोधगम्‍य किया जा सकता है।

इसलिए लक्ष्‍य है: सत्‍य को अनुभव करें और मनुष्‍य देह में रहते ‘’अहं ब्रह्मास्‍मि’’ को उपलब्‍ध हो।‘’

इस परिच्‍छेद में मेहर बाबा जो कहना चाहते थे। वह पूरा हो जाता है। लेकिन इसके बाद 77 पृष्‍ठों का परिशिष्‍ट जोड़ा गया है जो संपादकों के अनुरोध पर मेहर बाबा के द्वारा किये गये कुछ स्पष्टीकरणों का संकलन है। 177 से लेकर 249 तक यह परिशिष्‍ट अपने आप में एक अलग पुस्‍तक बन सकती है। सधना पथ पर उठने वाले विभिन्‍न प्रश्नों के बारे में मेहर बाबा यहां चर्चा करते है।

इसमें एक छोटा सा आलेख संन्‍यास पर भी है। आज से पचास-साठ साल पहले संन्‍यास की जो स्‍थिति थी उसके बारे में मेहर बाबा की टिप्‍पणी सोचने जैसी है। उसे पढ़ कर लगता है आज भी क्‍या बदलाहट हुई है?

बह्म संन्‍यास याने सारे भौतिक सुखों और जुड़ावों का त्‍याग करना। प्रारंभिक चरणों में यह सहयोगी है यदि उसमे आतंरिक त्‍याग और परमात्‍मा की अभीप्‍सा जगती है। भारत में ऐसे हजारों हजार संन्‍यासी पाये जाते है जिन्‍होंने बह्म संन्‍यास एक व्यवसाय के रूप में अपना लिया है। ताकि वे एक आलसी और अनुत्‍पादक जिंदगी जीयें। अगर बह्म संन्‍यास सच्‍चा हो तो वह आंतरिक संन्‍यास में रूपांतरित होगा।

पश्‍चिम के लिए बह्म संन्‍यास गैर व्‍यावहारिक है और सुझाया नहीं जा सकता। उनका संन्‍यास आंतरिक होगा। और मन का त्‍याग। व्‍यक्‍ति अपने कर्तव्‍यों का पालन करते हुए दुनियां में रहे और संसार में न उलझे।

सूफी कहते है: ‘’दिल बा यार, दस्‍त बे कर।‘’

दिल यार के साथ लगा रहे और हाथ काम करते रहें।

ओशो का नजरिया:--

यह किताब ऐसे व्‍यक्‍ति ने लिखी है। जिसे जुन्‍नैद जरूर पसंद करता—मेहर बाबा। वह तीस साल मौन रहे। कोई दूसरा व्‍यक्‍ति इतने लंबे अरसे तक मौन नहीं रहा। महावीर सिर्फ बारह साल मौन रहे। यह रेकार्ड था। मेहर बाबा ने सारे रिकार्ड तोड़ दिये। तीस साल मौन रहना। वे अपने हाथों की मुद्राएं बनाते थे—जैसे में बनाता हूं। क्‍योंकि कुछ बातें है जो केवल मुद्राओं से ही कही जा सकती है। मेहर बाबा ने शब्‍द छोड़ दिये लेकिन वे मुद्राएं नहीं छोड़ सके। और यह हमारा सौभाग्‍य है कि उन्‍होंने मुद्राएं नहीं छोड़ी। उनके जो निकटवर्ती शिष्‍य थे। उन्‍होंने उनकी मुद्राओं को समझाकर लिखना शुरू किया। और तीस साल बाद जो किताब प्रकाशित हुई उसका शीर्षक बड़ा अजीब था—जैसा कि होना चाहिए था—उसका शीर्षक था: गॉड स्‍पीक्‍स। ईश्‍वर बोलता है।

मेहर बाबा मौन में जिये और मौन में मरे। उन्‍होंने कभी बात नहीं की। लेकिन उनका मौन ही प्रखर वक्‍तव्‍य था—उनकी अभिव्‍यक्‍ति, उनका गीत। इस अर्थ में किताब का शीर्षक अजीब नहीं है—ईश्‍वर बोलता है।

एक झेन किताब है: फूल बोलते नहीं। यह बिलकुल गलत है। फूल भी बोलता है। वह उसकी सुगंध से बोलता है। निश्‍चित ही, वह अँगरेजी जापनी या संस्‍कृत नहीं बोलता लेकिन वह फूलों की भाषा बोलता है। लेकिन मैं जानता हूं क्‍योंकि मुझे सुगंध की एलर्जी है। मैं मीलों से फूल की जबान सुन सकता हूं। इसलिए मैं अपने अनुभव से यह कह रहा हूं। यह कोई प्रतीक नहीं है। ईश्‍वर भी बोलता है—आवाज कैसी भी हो। यह मेहर बाबा के लिए एकदम सही लागू होता है। वह बिना बोले बोलते थे।

ओशो

बुक्‍स आय हैव लव्‍ड

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें