18 जनवरी
को सायं 9:30 अपने
प्राइम स्लॉट
पर प्रमुख न्यूज
चैनल ए बी पी
ने ओशो की ‘पुण्य
तिथि’—19
जनवरी—के अवसर
पर एक विशेष
कार्यक्रम
प्रस्तुत
किया। इससे
पहले कि हम इस
कार्यक्रम की
विषय वस्तु
पर बात करें, यह स्पष्ट
हो जाना जरूरी
है कि ओशो की
कोई पूण्य
तिथि नहीं है।
ओशो के लिए
सभी तिथियां
पुण्य है क्योंकि
उनकी देशना के
अनुसार इस अस्तित्व
में पुण्य के
अतिरिक्त और
कुछ है ही
नहीं। जन्म-मरण
की तिथियां
ओशो पर लागू
नहीं होती।
अपना शरीर
छोड़ने के
चालीस दिन
पूर्व ही
लिखवा दिया था—ओशो:
जिसका न कभी
जन्म हुआ न
मृत्यु,जो
केवल इस पृथ्वी
ग्रह की
यात्रा पर
आये।कुल पेज दृश्य
मंगलवार, 29 जनवरी 2013
ओशो: भगवान या आम आदमी ?
18 जनवरी
को सायं 9:30 अपने
प्राइम स्लॉट
पर प्रमुख न्यूज
चैनल ए बी पी
ने ओशो की ‘पुण्य
तिथि’—19
जनवरी—के अवसर
पर एक विशेष
कार्यक्रम
प्रस्तुत
किया। इससे
पहले कि हम इस
कार्यक्रम की
विषय वस्तु
पर बात करें, यह स्पष्ट
हो जाना जरूरी
है कि ओशो की
कोई पूण्य
तिथि नहीं है।
ओशो के लिए
सभी तिथियां
पुण्य है क्योंकि
उनकी देशना के
अनुसार इस अस्तित्व
में पुण्य के
अतिरिक्त और
कुछ है ही
नहीं। जन्म-मरण
की तिथियां
ओशो पर लागू
नहीं होती।
अपना शरीर
छोड़ने के
चालीस दिन
पूर्व ही
लिखवा दिया था—ओशो:
जिसका न कभी
जन्म हुआ न
मृत्यु,जो
केवल इस पृथ्वी
ग्रह की
यात्रा पर
आये।मंगलवार, 22 जनवरी 2013
05--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)
(दसघरा की दस कहानियां )
बढ़ी अम्माँ बैल गाड़ियों की लीक के किनारे बैठी हुई, को दूर से देखने पर ऐसी लग रही थी, जैसे कोई मूर्ति बैठी हो। उसका शरीर एक दम थिर था, वह बिना हलचल के शांत मौन मुद्रा लिए हुए। कितनी-कितनी देर तक बिना हीले-डुले, बिना अपनी मुद्रा बदले वह इसी तरह बैठी सामने वाले मार्ग की और निहारती रहती थी। उसकी आंखों में, उसके चेहरे की झुर्रियां में, दुख, पीड़ा और संताप की लकीरें साफ दिखाई दे रही थी। सालों से अम्माँ इसी तरह नितांत अकेली यहाँ आकर रोज बैठती थी। वह वहां बैठ कर दूर उन धुँधली आँखों से जाने क्या देखती रहती थी। मानों उसे कुछ दिखाई देता था या नहीं कहा नहीं जा सकता। परंतु उसके देखने मात्र से ऐसा लगता मानो क्षितिज का पोर-पोर निहार रही हो। अचानक दूर कहीं पर जब कोई आहट होती या किन्हीं बेलों के पैरो से उड़ती धूल उसे दिखाई दे जाती तब वह अपना दायां हाथ आँखों पर रख अपनी मुद्रा बदल लेती थी। तब अपने आप को सहज समेट कर तैयार हो जाती था। मानों वह आ रहा है जिसकी राह तक रही थी, वो आने वाला है। न ही कोई आने वाला था न ही आ रहा था। परंतु उसकी ये कोशिश सालो से बेकार जा रही थी। क्योंकि अब अम्मा की आँखें इतनी कमजोर ओर धुँधली हो गई थी, दूर का तो आप छोड़ो शायद वह पास का भी नहीं देख पाती होगी। वह अंदर और बाहर से एक समान हो गई थी। मानो कोई जीवित आदमी किसी मूर्ति का रूप ले कर यहां विराजमान हो गया है। वह मूर्ति अपनी जैसे अपनी अपूर्णता को पूर्णता में बदलने के लिए, आने वाले किसी कलाकार की राह तक रही हो।
विज्ञान भैरव तंत्र विधि—112 (ओशो)
सोमवार, 21 जनवरी 2013
विज्ञान भैरव तंत्र विधि—110 (ओशो)
यह दूसरी विधि लीला के आयाम पर आधारित है। इसे समझे। यदि तुम निष्क्रिय हो तब तो ठीक है कि तुम गहन रिक्तता में, आंतरिक गहराइयों में उतर जाओ। लेकिन तुम सारा दिन रिक्त नहीं हो सकते और सारा दिन क्रिया शून्य नहीं हो सकते। तुम्हें कुछ तो करना ही पड़ेगा। सक्रिय होना एक मूल आवश्यकता है। अन्यथा तुम जीवित नहीं रह सकते। जीवन का अर्थ ही है सक्रियता। तो तुम कुछ घंटों के लिए तो निष्क्रिय हो सकते हो। लेकिन चौबीस घंटे में बाकी समय तुम्हें सक्रिय रहना पड़ेगा।विज्ञान भैरव तंत्र विधि—111 (ओशो)
बुधवार, 16 जनवरी 2013
विज्ञान भैरव तंत्र विधि—109 (ओशो)
अपने निष्क्रिय
रूप को त्वचा
की दीवारों का
एक रिक्त
कक्ष मानो—लेकिन
भीतर सब कुछ
रिक्त हो। यह
सुंदरतम
विधियों में
से एक है।
किसी भी ध्यानपूर्ण
मुद्रा में,
अकेले, शांत होकर
बैठ जाओ। तुम्हारी
रीढ़ की हड्डी
सीधी रहे और
पूरा शरीर विश्रांत,
जैसे कि सारा
शरीर रीढ़ की
हड्डी पर टंगा
हो। फिर अपनी
आंखें बंद कर
लो। कुछ क्षण
के लिए
विश्रांत, से
विश्रांत
अनुभव करते
चले जाओ।
लयवद्ध होने
के लिए कुछ
क्षण ऐसा करो।
और फिर अचानक
अनुभव करो कि
तुम्हारा
शरीर त्वचा
की दीवारें
मात्र है और
भीतर कुछ भी
नहीं है। घर
खाली है, भीतर कोई
नहीं है। एक
बार तुम
विचारों को
गुजरते हुए देखोंगे,
विचारों के मेघों
को विचरते
पाओगे। लेकिन
ऐसा मत सोचो
कि वे तुम्हारे
है। तुम हो ही
नहीं। बस ऐसा
सोचो कि वे रिक्त
आकाश में घूम
हुए आधारहीन
मेध है, वे
तुम्हारे
नहीं है। वे
किसी के भी
नहीं है। उनकी
कोई जड़ नहीं
है।सोमवार, 14 जनवरी 2013
विज्ञान भैरव तंत्र विधि—108 (ओशो)
पहली बात, मार्गदर्शक
तुम्हारे
भीतर है, पर तुम उसका
उपयोग नहीं
करते। और इतने
समय से, इतने जन्मों
से तुमने उसका
उपयोग नहीं
किया है। कि
तुम्हें पता
ही नहीं है कि
तुम्हारे
भीतर कोई विवेक
भी है। मैं
कास्तानेद
की पुस्तक
पढ़ रहा था।
उसका गुरु डान
जुआन उसे एक
सुंदर सा
प्रयोग करने
के लिए देता
है। यह
प्राचीनतम
प्रयोगों में
से एक है।शनिवार, 12 जनवरी 2013
04--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)
फूल वाला-कहानी
(दसघरा की दस कहानियां)-
फजलू मियां की पान की दुकान मोहल्ले की नाक थी। उसी के सामने एक बड़ा सा खुला चौक पसरा पड़ा था। जो भविष्य के गावस्कर, कपिल, सचिन, लाला अमरनाथ तैयार होने की नर्सरी का काम करता था। अब इस नर्सरी से चाहे सारा मोहल्ला परेशान क्यो न हो परन्तु मजाल क्या कोई उन्हें ड़ाटे-डप्टे या कुछ कहने की हिम्मत कर सकता था। ये मोहल्ले के लिए ही नहीं, पूरे देश के साथ भी गद्दारी समझी जाती। अरे भाई किसे पता है, कल कोई निकल जाये यहीं से सहवाग, गौतम गम्भीर, या धोनी जो दूर दराज मोहल्ले का नाम रौशन करेगा। तब आप उस पर ताली कैसे बजा सकेंगे आपको अपने पर तब शर्म नहीं आयेगी। पूरे मोहल्ले को एक आस थी, की एक दिन जरूर यहां से एक ऐसा खिलाड़ी निकलेगा की सारा देश जान जायेगा इसे गांव को इस मोहल्ले को। फिर इस गांव को ही नहीं पूरे देश को उस पर नाज होगा। उस महान विभूति के साथ इस मोहल्ले को भी अपने पर बहुत गर्व होगा। देखो आस उम्मीद तो रखनी ही पड़ेगी आपको। परन्तु इस आस उम्मीद के देखते-देखते ये तीसरी पीढ़ी चली गई। बड़े नवाब पटौदी से लेकर धोनी जी क्या अब तो विराट कोहली जी सम्हाल चुके है बाग डोर भारत की। पर मजाल है आज तक ये साध पूरी हुई हो। पर एक आस है भविष्य के इन दुलारो से आज नवाब रजवाड़ों से क्रिकेट निकल कर गली मोहल्ले में तो आ गई है। सो भविष्य के इन जुगनुओं से उम्मीद है एक दिन मोहल्ले का नाम चमकायेंगे। इसलिए वो कितना भी शोर मचाये, कैसा ही चौका-छक्का मारे, बीच में खुदा ना खासता आप आ गये और बाल ने आपकी मूंह पीठ या गाल तक की भी चुम्बन ले ली तो आपको केवल मुस्कराना है। किसी किस्म का कोई प्रतिरोध नहीं करना है। भले ही मोना लिसा जैसी आपकी मुस्कान न हो, आपकी हंसी की। इसके अलावा शाबाशी के लिए अगर आप ने ताली भी बजा दी तो ये हुई न सोने पे सुहागे वाली बात पूरी, ‘गुड़ शाँट .... बैल प्लेयड़ सर’ कह कर तो आप चार कदम और भी आगे चले गए। ये तो भला हो फटा-फट क्रिकेट का जो टेनिस के बाल से बच्चे खेलते है, वरना तो न किसी का सर होता न खिड़कियों पर कांच।
विज्ञान भैरव तंत्र विधि—107 (ओशो)
अतीत में
वैज्ञानिक
कहा करते थे
कि केवल पदार्थ
ही है और कुछ
भी नहीं है।
केवल पदार्थ
के ही होने की
धारणा पर
बड़े-बड़े
दर्शन के
सिद्धांत
पैदा हुए।
लेकिन जिन लोगों
की यह मान्यता
थी कि केवल
पदार्थ ही है
वे भी सोचते
थे कि चेतना
जैसा भी कुछ
है। तब वह क्या
था? वे कहते थे
कि चेतना
पदार्थ का ही
एक
बाई-प्रोडेक्ट
है, एक उप-उत्पाद
है। वह परोक्ष
रूप में, सूक्ष्म
रूप में
पदार्थ ही था।गुरुवार, 10 जनवरी 2013
03--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)
बाँझ -कहानी
(दसघरा की दस कहानियां)
घर क्या था, एक भुतिया बंगला ही समझो। घर बनता है परिवार से, बच्चों की किलकारीयों से, इतनी बड़ी हवेली नुमा मकान के अंदर रहने को जिसमें मात्र एक पाणी हो, उसे घर कहना कुछ अनुचित सा लगता है। रहने के नाम पर इस समय उस मकान में एक बूढ़ी अम्मा ही थी। कितने चाव से उस हवेली को उसके ताऊ ने बनवाया था। उसकी ऊंची अट्टालिकाएं, जाली दार मेहराब। बरांडा जो मकान की शोभा के साथ बरसात को कमरों में झाँकने भी नहीं देता था। उस बरामदे के मुहाने पर चारों और करीने से खड़े पाये प्रहरी जैसे दिखाई देते थे। वे पाये उसकी रक्षा ही नहीं करते थे अपितु कैसे उसकी शोभा और मजबूती ही बढ़ा रहे थे। बल्कि वे उसके चारों और प्रहरी से खड़े अति सुंदर लगते थे। किलेनुमा उसकी शानदार नक्काशी, शीशम और दार का बना लकड़ी के दरवाजे। जिसमें पीतल की कील, कुंडे, कड़े, और सांकल लगी थी। उस बड़े मुख्य गेट का तो बस क्या कहना वो तो उस हवेली के सर का ताज ही था। जब पचास साल पहले उसे खीमूं खाती बना रहा था तब, कैसे आस पास के दस गांव के लोग उसे देखने के लिए आए थे।
खीमूं खाती महीनों उस दरवाजे पर काम करता रहा, उस पर नक्काशी निकालता रहा फूल फूम्मन बनाता रहा। लाल शीशम की लकड़ी के बने वो दरवाजे, उस पर काम करते-करते खीमूं खाती के हाथ रह जाते थे। थक कर वह एक लम्बी सांस लेता और फिर रंदा चलाने लग जाता था। आराम करने के बहाने जब वह थक जाता तो कहता: ‘’देखना चौधरी अगर सौ साल तक भी इसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। ये लकड़ी नहीं है यह तो लोहा है, तूने भी किस जन्म का बेर मुझ से निकला है। इसे छिलते-छिलते तो मैं बूढ़ा ही जाऊँगा। और हां श्याम को दो सेर दूध और पाव भर घी जरूर ले कर जाऊँगा। वरना तो कल की नागा ही समझो।
विज्ञान भैरव तंत्र विधि—106 (ओशो)
‘हर मनुष्य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अंत: आत्मचिंता को त्यागकर प्रत्येक प्राणी हो जाओ।’
बुधवार, 9 जनवरी 2013
विज्ञान भैरव तंत्र विधि—105 (ओशो)
वे विभक्ति
दिखाई पड़ते
है, लेकिन हर
रूप दूसरे
रूपों के साथ
संबंधित है।
वह दूसरों के
साथ अस्तित्व
में है—बल्कि
यह कहना अधिक
सही होगा कि
वह दूसरे
रूपों के साथ
सह-अस्तित्व
में है—बल्कि
यह कहना अधिक
सही होगा कि
वह दूसरे
रूपों के साथ
सह-अस्तित्व
में है। हमारी
वास्तविकता
एक सह सही अस्तित्व
है। वास्तव
में यह एक
पारस्परिक
वास्तविकता
है। पारस्परिक
आत्मीय ता है।
उदाहरण के लिए,
जरा सोचो कि
तुम इस पृथ्वी
पर अकेले हो।
तुम क्या
होओगे? पूरी मनुष्यता
समाप्त हो गई
हो, तीसरे विश्वयुद्ध
के बाद तुम्हीं
अकेले बचे हो—संसार
में अकेले, इस
विशाल पृथ्वी
पर अकेले। तुम
कौन होओगे?





