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मंगलवार, 29 जनवरी 2013
ओशो: भगवान या आम आदमी ?

मंगलवार, 22 जनवरी 2013
05--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)
(दसघरा की दस कहानियां )
बढ़ी अम्माँ बैल गाड़ियों की लीक के किनारे बैठी हुई, को दूर से देखने पर ऐसी लग रही थी, जैसे कोई मूर्ति बैठी हो। उसका शरीर एक दम थिर था, वह बिना हलचल के शांत मौन मुद्रा लिए हुए। कितनी-कितनी देर तक बिना हीले-डुले, बिना अपनी मुद्रा बदले वह इसी तरह बैठी सामने वाले मार्ग की और निहारती रहती थी। उसकी आंखों में, उसके चेहरे की झुर्रियां में, दुख, पीड़ा और संताप की लकीरें साफ दिखाई दे रही थी। सालों से अम्माँ इसी तरह नितांत अकेली यहाँ आकर रोज बैठती थी। वह वहां बैठ कर दूर उन धुँधली आँखों से जाने क्या देखती रहती थी। मानों उसे कुछ दिखाई देता था या नहीं कहा नहीं जा सकता। परंतु उसके देखने मात्र से ऐसा लगता मानो क्षितिज का पोर-पोर निहार रही हो। अचानक दूर कहीं पर जब कोई आहट होती या किन्हीं बेलों के पैरो से उड़ती धूल उसे दिखाई दे जाती तब वह अपना दायां हाथ आँखों पर रख अपनी मुद्रा बदल लेती थी। तब अपने आप को सहज समेट कर तैयार हो जाती था। मानों वह आ रहा है जिसकी राह तक रही थी, वो आने वाला है। न ही कोई आने वाला था न ही आ रहा था। परंतु उसकी ये कोशिश सालो से बेकार जा रही थी। क्योंकि अब अम्मा की आँखें इतनी कमजोर ओर धुँधली हो गई थी, दूर का तो आप छोड़ो शायद वह पास का भी नहीं देख पाती होगी। वह अंदर और बाहर से एक समान हो गई थी। मानो कोई जीवित आदमी किसी मूर्ति का रूप ले कर यहां विराजमान हो गया है। वह मूर्ति अपनी जैसे अपनी अपूर्णता को पूर्णता में बदलने के लिए, आने वाले किसी कलाकार की राह तक रही हो।
विज्ञान भैरव तंत्र विधि—112 (ओशो)
सोमवार, 21 जनवरी 2013
विज्ञान भैरव तंत्र विधि—110 (ओशो)

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—111 (ओशो)
बुधवार, 16 जनवरी 2013
विज्ञान भैरव तंत्र विधि—109 (ओशो)

सोमवार, 14 जनवरी 2013
विज्ञान भैरव तंत्र विधि—108 (ओशो)

शनिवार, 12 जनवरी 2013
04--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)
फूल वाला-कहानी
(दसघरा की दस कहानियां)-
फजलू मियां की पान की दुकान मोहल्ले की नाक थी। उसी के सामने एक बड़ा सा खुला चौक पसरा पड़ा था। जो भविष्य के गावस्कर, कपिल, सचिन, लाला अमरनाथ तैयार होने की नर्सरी का काम करता था। अब इस नर्सरी से चाहे सारा मोहल्ला परेशान क्यो न हो परन्तु मजाल क्या कोई उन्हें ड़ाटे-डप्टे या कुछ कहने की हिम्मत कर सकता था। ये मोहल्ले के लिए ही नहीं, पूरे देश के साथ भी गद्दारी समझी जाती। अरे भाई किसे पता है, कल कोई निकल जाये यहीं से सहवाग, गौतम गम्भीर, या धोनी जो दूर दराज मोहल्ले का नाम रौशन करेगा। तब आप उस पर ताली कैसे बजा सकेंगे आपको अपने पर तब शर्म नहीं आयेगी। पूरे मोहल्ले को एक आस थी, की एक दिन जरूर यहां से एक ऐसा खिलाड़ी निकलेगा की सारा देश जान जायेगा इसे गांव को इस मोहल्ले को। फिर इस गांव को ही नहीं पूरे देश को उस पर नाज होगा। उस महान विभूति के साथ इस मोहल्ले को भी अपने पर बहुत गर्व होगा। देखो आस उम्मीद तो रखनी ही पड़ेगी आपको। परन्तु इस आस उम्मीद के देखते-देखते ये तीसरी पीढ़ी चली गई। बड़े नवाब पटौदी से लेकर धोनी जी क्या अब तो विराट कोहली जी सम्हाल चुके है बाग डोर भारत की। पर मजाल है आज तक ये साध पूरी हुई हो। पर एक आस है भविष्य के इन दुलारो से आज नवाब रजवाड़ों से क्रिकेट निकल कर गली मोहल्ले में तो आ गई है। सो भविष्य के इन जुगनुओं से उम्मीद है एक दिन मोहल्ले का नाम चमकायेंगे। इसलिए वो कितना भी शोर मचाये, कैसा ही चौका-छक्का मारे, बीच में खुदा ना खासता आप आ गये और बाल ने आपकी मूंह पीठ या गाल तक की भी चुम्बन ले ली तो आपको केवल मुस्कराना है। किसी किस्म का कोई प्रतिरोध नहीं करना है। भले ही मोना लिसा जैसी आपकी मुस्कान न हो, आपकी हंसी की। इसके अलावा शाबाशी के लिए अगर आप ने ताली भी बजा दी तो ये हुई न सोने पे सुहागे वाली बात पूरी, ‘गुड़ शाँट .... बैल प्लेयड़ सर’ कह कर तो आप चार कदम और भी आगे चले गए। ये तो भला हो फटा-फट क्रिकेट का जो टेनिस के बाल से बच्चे खेलते है, वरना तो न किसी का सर होता न खिड़कियों पर कांच।
विज्ञान भैरव तंत्र विधि—107 (ओशो)

गुरुवार, 10 जनवरी 2013
03--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)
बाँझ -कहानी
(दसघरा की दस कहानियां)
घर क्या था, एक भुतिया बंगला ही समझो। घर बनता है परिवार से, बच्चों की किलकारीयों से, इतनी बड़ी हवेली नुमा मकान के अंदर रहने को जिसमें मात्र एक पाणी हो, उसे घर कहना कुछ अनुचित सा लगता है। रहने के नाम पर इस समय उस मकान में एक बूढ़ी अम्मा ही थी। कितने चाव से उस हवेली को उसके ताऊ ने बनवाया था। उसकी ऊंची अट्टालिकाएं, जाली दार मेहराब। बरांडा जो मकान की शोभा के साथ बरसात को कमरों में झाँकने भी नहीं देता था। उस बरामदे के मुहाने पर चारों और करीने से खड़े पाये प्रहरी जैसे दिखाई देते थे। वे पाये उसकी रक्षा ही नहीं करते थे अपितु कैसे उसकी शोभा और मजबूती ही बढ़ा रहे थे। बल्कि वे उसके चारों और प्रहरी से खड़े अति सुंदर लगते थे। किलेनुमा उसकी शानदार नक्काशी, शीशम और दार का बना लकड़ी के दरवाजे। जिसमें पीतल की कील, कुंडे, कड़े, और सांकल लगी थी। उस बड़े मुख्य गेट का तो बस क्या कहना वो तो उस हवेली के सर का ताज ही था। जब पचास साल पहले उसे खीमूं खाती बना रहा था तब, कैसे आस पास के दस गांव के लोग उसे देखने के लिए आए थे।
खीमूं खाती महीनों उस दरवाजे पर काम करता रहा, उस पर नक्काशी निकालता रहा फूल फूम्मन बनाता रहा। लाल शीशम की लकड़ी के बने वो दरवाजे, उस पर काम करते-करते खीमूं खाती के हाथ रह जाते थे। थक कर वह एक लम्बी सांस लेता और फिर रंदा चलाने लग जाता था। आराम करने के बहाने जब वह थक जाता तो कहता: ‘’देखना चौधरी अगर सौ साल तक भी इसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। ये लकड़ी नहीं है यह तो लोहा है, तूने भी किस जन्म का बेर मुझ से निकला है। इसे छिलते-छिलते तो मैं बूढ़ा ही जाऊँगा। और हां श्याम को दो सेर दूध और पाव भर घी जरूर ले कर जाऊँगा। वरना तो कल की नागा ही समझो।
विज्ञान भैरव तंत्र विधि—106 (ओशो)
‘हर मनुष्य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अंत: आत्मचिंता को त्यागकर प्रत्येक प्राणी हो जाओ।’
बुधवार, 9 जनवरी 2013
विज्ञान भैरव तंत्र विधि—105 (ओशो)
