दिनांक 21 सितम्बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
सारसूत्र:
मन
बनिया बान न छोड़ै।।
पूरा
बांट तरे खिसकावै, घटिया को टकटोलै।
पसंगा
मांहै करि चतुराई, पूरा कबहुं न तौले।।
घर
में वाके कुमति बनियाइन, सबहिन को झकझोलै।
लड़िका
वाका महाहरामी, इमरित में विष घोलै।।
पांचतत्त
का जामा पहिरे, एंठा-गुइंठा डोलै।
जनम-जनम
का है अपराधी, कबहूं सांच न बोलै।।
जल
में बनिया थल में बनिया, घट-घट बनिया बोलै।
पलटू
के गुरु समरथ साईं, कपट गांठि जो खोलै।।
जहां
कुमति कै बासा है, सुख सपनेहुं नाहीं।।
फोरि
देति घर मोर तोर करि, देखै आपु तमासा है।।
कलह
काल दिन रात लगावै, करै जगत उपहासा है।।
निर्धन
करै खाए बिनु मारै, अछत अन्न उपवासा है।।
है
कोई सखिया सयानी, चलै पनिघटवा पानी।
सतगुरु
घाट गहिर बड़ा सागर, मारग है मोरी जानी।।
लेजुरी
सुरति सबदि कै घैलन, भरहु तजहु कुलकानी।।
निहुरिके
भरै घैल नहिं फूटै, सो धन प्रेम-दिवानी।।
चांद
सुरुज दोउ अंचल सोहैं, बेसर लट अरुझानी।।
चाल
चलै जस मैगर हाथी, आठ पहर मस्तानी।।
पलटूदास
झमकि भरि आनी, लोकलाज न मानी।।
मन
बनिया बान न छोड़ै।
पलटू ने बार-बार मन को बनिया कहा है
और कहा है कि मन का यह बनिया अपनी आदत नहीं छोड़ता। क्यों मन को बनिया कहा है?
मन जीता है हिसाब-किताब में। मन जीता
है गणित में, तर्क में। मन जीता है अपनी होशियारी में, चतुराई में। और मन को पता ही नहीं कि एक और भी बुद्धिमत्ता है जो मन के
पार है। मन अपने सब हिसाब बिठाता है, लेकिन उसके सब हिसाब
अंततः गलत हो जाते हैं। उसके सब गणित गिर जाते हैं। धन के पीछे दौड़ता है, निर्धन मरता है। पद के पीछे दौड़ता है, पद यहीं रह
जाते हैं। मृत्यु के पार उन्हें साथ नहीं ले जाया जा सकता। प्रतिष्ठा का दीवाना
है। अहंकार की मदिरा पीए है।
और सब धूल-धूसरित हो जाना है। देह
मिट्टी में मिल जाएगी। जिस सिर को अकड़ा कर चले थे बहुत, उसका पता भी न चलेगा, कहां खाद बन जाएगी! लोगों के
पैरों के नीचे दबेगी वह धूल, जो आज तुम्हारा सिर बनी है।
लेकिन मन इन्हीं सब दौड़ों में संलग्न
रहता है और असली धन से वंचित रह जाता है। ऐसे धन इकट्ठा कर लेता है, तिजोरियां भर लेता है और आत्मा खाली रह जाती है। और वहीं है वास्तविक धन।
इसलिए बनिया ऊपर से तो बहुत होशियार
दिखता है; भीतर बहुत नासमझ। ठीक ही मन को बनिया कहा है। पलटूदास
संन्यस्त होने के पहले स्वयं भी बनिया थे, इसलिए बनिया की
भाव-दशा को समझते हैं। संत वही भाषा बोलते हैं जिस भाषा को उन्होंने संसार में
सीखा है। कबीर ऐसे बोलते हैं जैसे जुलाहा बोलेगा। स्वाभाविक। जुलाहे की भाषा होगी:
झीनी-झीनी बीनी रे चदरिया! यह बुद्ध नहीं कह सकते; कभी चादर
बुनी ही नहीं। मन बनिया बान न छोड़ै! यह भी बुद्ध नहीं कह सकते, महावीर नहीं कह सकते। बनिए के मन से परिचय ही नहीं है। यह पलटूदास ही कह
सकते हैं; कबीर नहीं कह सकते, नानक
नहीं कह सकते।
नानक युवा हुए तो माता-पिता चिंतित थे
कि वे दिन-रात राम की धुन में लीन, साधु-संग में लगे।
पिता ने बहुत समझाया कि एक उम्र होती है साधु-सत्संग की। अभी मैं भी साधु-सत्संग
में नहीं पड़ा हूं--पिता ने कहा--और तू पड़ गया! यह कोई वक्त है? अभी जवान है। अभी जिंदगी के मजे ले। अभी जिंदगी की प्रतिष्ठा, सफलता अभियान पर निकल। कुछ धंधा कर, कुछ कमा। ऐसे
समय मत गंवा।
पिता ने कहा तो नानक ने कहा, ठीक है, तो कुछ कमाऊंगा।
पिता खुश हुए। बहुत से रुपये देकर
भेजा कि पास के बड़े नगर से कंबल खरीद ला; सर्दी के दिन आ रहे
हैं, अच्छी बिक्री हो जाएगी। और तेरे लिए कमाई का पहला पाठ
हो जाएगा।
नानक रुपये लेकर गए और सात दिन बाद जब
वापस आए तो उनकी मस्ती देखने लायक थी, जैसे रुपये दस गुने
हो गए हों! आए खाली हाथ, रुपये तो थे ही नहीं, कंबल भी नहीं लाए थे! पूछा पिता ने, क्या हुआ?
खुश तो ऐसे नजर आते हो जैसे बहुत कमाई कर ली! क्या कमा कर लाए?
नानक ने कहा, आपकी कृपा से, आपके आशीष से खूब कमाई हुई। कंबल लेकर
आ रहा था, रास्ते में साधुओं की एक जमात मिल गई। सर्दी आ गई
है। साधु बिना कंबलों के थे। बांट दिए कंबल। दिन दो दिन खूब सत्संग भी चला और
चित्त प्रसन्न हुआ। उन सबको कंबलों में सर्दी से बचते हुए देख कर ऐसा आनंद हुआ
जैसा कभी न हुआ था। कमा कर आ रहा हूं, आनंद कमा कर आ रहा हूं,
उत्सव कमा कर आ रहा हूं।
बाप ने सिर पीट लिया। बाप का गणित
बनिए का था। बेटे का गणित कुछ और था। बाप ने कमाई से कुछ और चाहा था, बेटा कमाई से कुछ और समझा था। बाप बाहर की कमाई की बात कर रहा था, बेटा भीतर की कमाई करके लौटा था। बाप भीतर की कमाई देखने में असमर्थ था,
अंधा था; अन्यथा उसी दिन नानक को पहचान जाता।
वह मस्ती पारलौकिक थी। वे आंखें किसी और ही लोक के प्रकाश से ज्योतिर्मय थीं। वह
हृदय किसी अदभुत संगीत से भरा था। लेकिन बाप सोचता था कि हजार रुपये दिए थे,
दस हजार होने चाहिए। वह रुपये गिन रहा था। हजार भी हाथ से गए! उसे
भारी हानि हो गई थी। बेटा कुछ और गिन रहा था। बाप मन में अटका था, बेटा आत्मा में उतर गया था।
ऐसे बहुत प्रयास किए, सब व्यर्थ गए। फिर आखिर सोचा--दुकानदारी इससे न हो सकेगी, नौकरी लगा देनी चाहिए। गांव के ही सूबेदार के यहां नौकरी लगा दी। सूबेदार को
भी नानक के बाप ने कहा, ध्यान रखना इसका। कोई बहुत
जिम्मेवारी का काम देकर मत भेज देना। और रुपये तो इसके हाथ में देना ही मत,
नहीं तो यह कुछ कमा कर आ जाएगा जो हमारे लिए तो गंवाना है और यह
समझता है कमाना है। हमारा-इसका गणित बैठता नहीं। तो मैं आपको पहले सावधान कर दूं,
नहीं तो पीछे मैं झंझट में पडूंगा कि कहां का बेटा हमें लाकर दे
दिया!
स्वस्थ था, सुंदर था, प्रतिभाशाली था; सूबेदार
ने रख लिया। उसने काम भी ऐसा दिया कि जिसमें कुछ गंवाने का सवाल ही नहीं था। उसके
सिपाही थे बहुत, उनको रोज भोजन के लिए गेहूं, चावल, दाल तौल कर देने पड़ते थे। सूबेदार ने नानक को
कहा कि तू यही काम कर। बस इनको तौल कर दे दिए। ये जो पर्ची लाएं कि किसको कितना
पसेरी चावल चाहिए, किसको कितना पसेरी गेहूं चाहिए, उतना तौल कर दे देना और इनकी चिट्ठियां रखते जाना। तुझे चिंता भी नहीं कोई;
न कम देना है, न ज्यादा; न पैसा लेना है।
नानक ने काम शुरू कर दिया, लेकिन दूसरे ही दिन गड़बड़ हो गई। एक दिन भी कैसे ठीक चल गया, यह भी आश्चर्य है। पहले दिन तो ठीक चला। पिता भी खुश थे जब नानक घर लौटे,
कुछ गड़बड़ न हुई थी। सूबेदार ने भी खबर भेजी: निश्चिंत रहो, बेटा होशियार है। और ठीक से काम किया। व्यवस्थित काम किया। पर दूसरे दिन
ही सब गड़बड़ हो गया। तौलते थे। पहले दिन गड़बड़ नहीं हुई, उसका
कारण केवल इतना था कि किसी को केवल पांच पसेरी चाहिए था, किसी
को छह पसेरी, किसी को सात पसेरी, किसी
को दस पसेरी। दूसरे दिन सिपाहियों की एक टुकड़ी को बीस पसेरी चावल चाहिए था। बस
वहीं गड़बड़ हो गई। नानक ने तौला। हिंदी में तो शब्द तेरह है, पंजाबी
में शब्द है तेरा। बस वह "तेरा' में उपद्रव हो गया। आठ,
नौ, दस, ग्यारह, बारह तक सब ठीक रहा और जब तेरा आया, बस ईश्वर की याद
आ गई, उसकी याद आ गई। "तेरा' शब्द
और बस नानक ने सुध-बुध खो दी। लोगों के हिसाब से सुध-बुध खो दी, अपने हिसाब से तो सुध-बुध पा ली। बस फिर पसेरी पर पसेरी भरते गए। और
"तेरा' से आगे तो कुछ है ही नहीं संख्या। "तेरा'
आ गया तो अब इसके आगे और क्या! चौदह आया ही नहीं। सिपाही भी चौंके,
वे तौले ही जाते हैं--और "तेरा!' सुबह से
सांझ हो गई, भीड़ लग गई। अंततः सूबेदार को खबर पहुंची कि वह
तुम्हारा सारा भंडार लुटाए दे रहा है और तेरा पर अटका है। कहां के आदमी को रखा है!
मालूम होता है उसे इससे ज्यादा संख्या नहीं आती, चौदह नहीं
आता उसे, पंद्रह नहीं आता उसे। कल तो सब ठीक चला, क्योंकि तेरह के नीचे की संख्याएं थीं, आज सब गड़बड़
हो गई।
लोग यही समझे कि इसे गणित नहीं आता।
इसे कोई और गणित आता था। इसे पारलौकिक गणित आता था। इसे तो "तेरा' शब्द ने ही रूपांतरित कर दिया। इसकी तो भाव-दशा बदल गई। यह तो एक मस्ती से
भर गया। और हर बार कहे "तेरा' और हर बार डाले अनाज और
हर बार उसकी मस्ती बढ़ती जाए। सांझ जब सूबेदार आया, वह
"तेरा' का काम चल रहा था, सारा
गांव इकट्ठा हो गया था। किसी की हिम्मत भी न पड़ रही थी कि नानक को रोके। उन क्षणों
में नानक की आभा ऐसी मालूम हो रही थी, बल ऐसा मालूम हो रहा
था। न कोई थकान थी, दिन भर तौलते रहे--एक अपूर्व ऊर्जा थी,
एक अदभुत नृत्य था! सूबेदार भी खड़ा रह गया। यह "तेरा' की धुन प्रार्थना बन गई थी। यह मंत्र था। यह मंत्र किसी शास्त्र से उधार
नहीं लिया था, यह आविष्कृत हुआ था। यह अपना था, यह अपने प्राणों से आया था।
सूबेदार चरणों में गिर पड़ा। उसने कहा
कि मैं देख सकता हूं। मैं कोई बनिया नहीं हूं। तेरा पिता नहीं देख सकेगा। मैं
क्षत्रिय हूं। मैं देख सकता हूं, क्या तुझे घट रहा है! लेकिन
हमारे काम का तू नहीं है, तू उसके ही काम का है, तू उसके ही काम में लग! मैं तेरे पैर छूता हूं, क्योंकि
जो आज मैंने तुझमें देखा है, किसी में कभी नहीं देखा। जो
ज्योति आज तुझमें झलकी है, वह मैंने कभी किसी में नहीं देखी।
बड़े फकीर देखे, बड़े संत-महात्मा देखे, मगर
सब उधार। तू नगद है। और तेरा यह स्वर, "तेरा' की तेरी यह पुकार, इससे बड़ा कोई महामंत्र नहीं हो
सकता। पर हमारे किसी काम न आएगा, हम तो बरबाद हो जाएंगे। ऐसे
तूने अगर तौला तो हम तो कहीं के न रहेंगे; हमें इस दुनिया
में रहना है।
लेकिन सूबेदार समझा जरूर। एक बात समझ
गया कि हमारा गणित अलग है, इसका गणित अलग है। मन का एक गणित है, उसको पलटू बनिया कह रहे हैं: मन बनिया बान न छोड़ै।
और यह गणित पुराना है। यह
सदियों-सदियों पुराना है। तुम न मालूम कितने जन्मों से इस गणित को मान कर चल रहे
हो। यह गणित रच-पच गया है। यह तुम्हारे रोएं-रोएं में समा गया है। तुम इससे अन्यथा
सोच ही नहीं सकते। तुम्हारे सोचने की आधारशिला यही है। तुम जब सोचते हो तब धन, पद, प्रतिष्ठा। तुम जब सोचते हो तब अहंकार, मान, अभिमान। ऊपर से चाहे तुम विनम्र ही क्यों न हो
जाओ, लेकिन भीतर विनम्रता में भी अहंकार ही छिपा होता है।
सुनी है मैंने एक कहानी--तीन ईसाई
फकीर एक रास्ते पर मिले। तीनों अपने-अपने आश्रम की प्रशंसा में लग गए। पहले ने कहा
कि और कुछ हो या न हो, लेकिन जैसा त्याग हमारे संन्यासियों का है वैसा किसी
का भी नहीं। त्याग में तो हम अप्रतिम हैं। हमारी कोई तुलना ही नहीं है। दूसरे तो
बहुत पीछे छूट जाते हैं।
अब यह त्याग त्याग न रहा; अब तो यह त्याग भी अहंकार हो गया।
दूसरे ने कहा, त्याग शायद तुम ठीक कहते हो। मगर त्याग में रखा क्या है? असल सवाल है ज्ञान। जिस तरह का पांडित्य हमारे संन्यासियों में है,
शास्त्रों में जैसी उनकी गति है, जैसे मछली
सागर में तैरे, प्रयास नहीं करना पड़ता--ऐसे हमारे संन्यासी
ज्ञान के सागर में तैरते हैं--अप्रयास, हाथ-पैर भी नहीं
चलाने होते। और कुछ भी हो, और कुछ में है भी नहीं सार,
ज्ञान में हम गौरीशंकर हैं, हम से ऊंचा कोई
नहीं।
अब यह ज्ञान भी अहंकार की ही घोषणा हो
गया। त्याग भी! ज्ञान भी! और तीसरे ने तो हद्द कर दी। तीसरे ने कहा कि न हमें
त्याग में कुछ रस है, न ज्ञान में। हमारी साधना तो विनम्रता की है। और
विनम्रता में तुम सब दो कौड़ी के हो। जहां तक विनम्रता का सवाल है, सरलता का सवाल है, हमारी विनम्रता चांदत्तारों से
ऊपर है। तुम हमारे पैर भी नहीं छू सकते, इस योग्य भी नहीं
हो। रखे रहो अपने शास्त्र और करते रहो तुम्हारा त्याग, विनम्रता
में हम सर्वप्रथम हैं!
त्यागी को भी माफ कर दो, ज्ञानी को भी माफ कर दो, मगर विनम्रता वाला भी कह
रहा है कि विनम्रता में हम सर्वप्रथम हैं! हम से आगे कोई नहीं, हम चांदत्तारों से ऊपर हैं! तुम हमारे पैर की धूल हो! यह कैसी विनम्रता
हुई? मगर यही है।
मन बनिया बान न छोड़ै।
त्यागी हो जाए बनिया, तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। ज्ञानी हो जाए, तो भी
फर्क नहीं पड़ता। निरभिमानी हो जाए, तो भी फर्क नहीं पड़ता।
भीतर उसकी बान जारी रहती है। और तब यह मन बनिया तुम्हें नरक की तरफ घसीटता रहता
है। इसकी अंतिम परिणति नरक है।
मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन पर्वतारोहण के अभ्यास के लिए एक महीने की छुट्टी लेकर
गया। लौटने पर आफिस के मित्रों ने पूछा, नसरुद्दीन, पर्वतारोहण कैसा रहा? मजा आया?
हां, मजा क्यों नहीं
आया--नसरुद्दीन बोला--मैंने एक दिन पहाड़ पर लगभग दस फीट चढ़ाई की थी।
सिर्फ एक दिन? और वह भी केवल दस फीट! बाकी उनतीस दिन क्या करते रहे?
बाकी उनतीस दिन अस्पताल में रहा।
संसार में तुम हो या कि अस्पताल में? तुम्हारे जीवन का हिसाब-किताब क्या है? तुम्हारी
उपलब्धि क्या है? पीड़ा और पीड़ा के अंबार। बहुत-बहुत तरह के
दुख, अलग-अलग तरह के दुख, कीमती दुख,
सस्ते दुख, महंगे दुख--दुखों का बाजार है और
लोग दुख खरीद रहे हैं। और बड़ी मेहनत से खरीद रहे हैं, बड़ा
श्रम करते हैं।
मन बनिया की बुनियादी आदत क्या है? दुख पैदा करने की कला उसे आती है। सुख की आशा देता है, और बड़ा होशियार है, सुख के आश्वासन देता है और दुख
पकड़ा देता है। और यह बार-बार हुआ। मन ने कभी सुख का आश्वासन पूरा न किया। हर बार
सुख का प्रलोभन दिया और हाथ में दुख आया, फिर भी तुम जागते
नहीं? बान बड़ी पुरानी है, जगने नहीं
देती। आदत ऐसी हो गई है कि आदतवश ही किए चले जाते हो; तय भी
कर लेते हो कि अब ऐसा नहीं करेंगे।
जीवन भर क्रोध किया और जीवन भर दुख
पाया। और कितनी बार संकल्प नहीं कर लिया कि अब क्रोध नहीं, बहुत हो गया, आखिर हर चीज की सीमा है! और समझ की
कभी-कभी बिजली तुममें भी कौंधती है, क्योंकि समझ तुम्हारी
आत्मा का स्वभाव है। लाख आदतों में दब जाओ, लेकिन कहीं-कहीं
से समझ फूट पड़ती है, उसका झरना टूट पड़ता है। कहीं मौके पाकर
समझ बिजली की भांति कौंध जाती है। एक क्षण को सब रोशन हो जाता है, सब साफ दिखाई पड़ने लगता है। उस क्षण में तुमने निर्णय भी कर लिया कि अब
क्रोध नहीं। और तुमने सोचा है कि अब सच में ही क्रोध नहीं हो सकेगा। इतना साफ तो
दिखाई पड़ गया कि क्रोध करना अपने ही हाथ अपनी गर्दन दबाना है; अपने ही हाथ अपने चारों तरफ आग लगाना है।
बुद्ध ने कहा है: क्रोध करने से बड़ी
मूढ़ता नहीं है। दूसरे के कसूर के लिए अपने को दंड देना, इससे बड़ी और क्या मूढ़ता होगी! किसी ने गाली दी, तुम
क्रोधित हो गए। गाली तो उसने दी और क्रोधित तुम हो गए। अंगारे तुमने अपनी छाती में
भभका लिए। लपटें तुमने लगा लीं। कसूर उसका, दंड अपने को दे
रहे हो! इससे बड़ी मूढ़ता और क्या होगी!
मन की सबसे बड़ी जो कला है, जिसमें वह कुशल है--बड़ा कुशल विक्रेता है मन!
मैंने सुना है, एक आदमी घबड़ाया हुआ भागा हुआ अपने मालिक के पास आया और उसने कहा, बड़ी मुश्किल हो गई। उनका धंधा था जमीन लेना, जमीन
बेचना। मालिक ने पूछा, क्या गड़बड़ हो गई? वह नया-नया एजेंट था, दलाल था, जो उनका काम करता था। उसने कहा कि हमने वह जो नई जमीन बेची थी, वह दस फीट पानी में डूबी हुई है। और हमने चकमा दिया उस आदमी को। जमीन और
दिखाई थी, बेची और। लेकिन आखिर असलियत एक दिन खुलेगी न
खुलेगी! अब उसको पक्का पता चल गया है कि यह जमीन मिली है और वह दस फीट पानी में दबी
है। तो वह बहुत नाराज है। वह पैसे वापस चाहता है।
मालिक ने कहा कि तू अभी सिक्खड़ है।
उसको ला! आया वह आदमी, बड़ा भनभनाता हुआ आया। मालिक ने उसकी भनभनाहट सुनी,
उसे प्रेम से बिठाया, पान-सिगरेट, स्वागत-सत्कार...। और आखिर में जब वह आदमी गया तो एक मोटरबोट भी खरीद कर
ले गया। मालिक ने कहा, यूं धंधा किया जाता है। जमीन तो बेची
ही बेची, अब दस फीट पानी में डूबी है तो मोटरबोट भी बेच दो।
ऐसे घबड़ा कर लौट नहीं आना पड़ता। हर मौके का उपयोग करो।
एक आदमी एक कपड़े की दुकान में
गया--रेडीमेड कपड़ों की दुकान। उसे एक जैकेट बहुत पसंद आई। जैकेट पहन कर वह आईने के
सामने खड़ा हुआ। जैकेट इतनी चुस्त कि उसके प्राण निकले जा रहे। दुकानदार से उसने
कहा कि भई जैकेट है तो देखने में सुंदर, मगर बहुत चुस्त है,
मेरे प्राण निकले जा रहे हैं।
दुकानदार ने कहा, घबड़ा मत, यह कोट तो पहन!
उस आदमी ने कहा, कोट पहनने से क्या होगा?
उसने कहा, तू पहले कोट पहन।
कोट और भी चुस्त था। उस आदमी ने कहा, क्या मुझे मार डालोगे?
उस दुकानदार ने कहा, जरा ठहर, यह तू पतलून तो पहन। पतलून ऐसा है चुस्त कि
तू कोट-जैकेट सब भूल जाएगा।
बड़े दुख के सामने छोटा दुख भूल जाता
है।
मैंने एक कहानी और सुनी है कि एक आदमी
एक प्रसिद्ध दर्जी के मकान से बाहर निकला। उसकी चाल बड़ी अजीब थी। एक हाथ ऊंचा किए
हुए था, एक टांग भीतर सिकोड़े हुए था। गर्दन तिरछी थी। यह आदमी
अभी जब भीतर गया था तो बिलकुल ठीक-ठाक था। लोगों ने देखा कि इसको क्या हो गया!
उन्होंने पूछा कि भई, क्या हो गया? यह
तुम्हारी हालत कैसी? और कपड़े बहुत सुंदर तुमने पहन रखे हैं!
उस आदमी ने कहा, इन्हीं कपड़ों की बदौलत। इस दर्जी ने, इस दुष्ट ने
कोट पहनाया, उसका एक हाथ छोटा और एक बड़ा था। तो उसने मुझसे
कहा कि जो हाथ छोटा है उसको जरा लंबा कर और जो हाथ बड़ा है उसको जरा भीतर खींच ले।
इसमें क्या लगता है? तो मैंने उसकी बात मान ली। फिर यही
पतलून की हालत हुई। अब अगर इन कपड़ों को पहनना है तो इसी अवस्था में रहना होगा। और
कपड़ों पर बहुत खर्च किया। और यह महंगी चीज है, इंपोर्टेड
कपड़ा है! और दर्जी ने कहा, अब जो हो गया सो हो गया। अब चीज
जैसी बन गई सो निभा लो। अरे संतोष रखो, संतोष बड़ी चीज है!
काहे होत अधीर! थोड़े दिन में अभ्यास हो जाएगा इसी तरह जीने का।
मन भी तुम्हें तरहत्तरह से तिरछा कर
जाता है और आश्वासन देता रहता है: काहे होत अधीर! समझाता रहता है: संतोष बड़ी चीज
है। यह गर्दन तिरछी है, यह हाथ लंबा है, यह पैर आड़ा
है--यह सब ठीक हो जाएगा। यह धीरे-धीरे अभ्यास हो जाएगा, भूल
ही जाओगे।
ऐसे ही तो लोग तिरछे हो गए हैं, अपंग हो गए हैं। ऐसे ही तो लोग पक्षाघात से घिर गए हैं। ऐसे ही तो लोगों
को लकवा मार गया है। यह लकवा बाहर से नहीं आया है, यह लकवा
उनके ही मन की ईजाद है।
तो मन का पहला तो अनिवार्य नियम है कि
जो आदत बन गई है, वह उससे भिन्न नहीं जाने देता; वह
हमेशा तुम्हें आदत के भीतर बांध कर रखता है। अगर तुम एक जगह से छूटते हो, वह दूसरी जगह से आदत को आरोपित कर देता है।
मन का दूसरा नियम है कि वह तुम्हें
सदा भिखारी बनाए रखता है। कितना ही तुम्हारे पास हो, मगर मन कभी यह नहीं
अनुभव करने देता कि अब बहुत हुआ, अब कुछ और करें। जीने के
कोई और नये आयाम खोजें। बहुत हो गया धन, अब थोड़ा ध्यान में
उतरें। बहुत हो गया संसार, अब थोड़े संन्यास में डूबें।
मन पुनरुक्ति करवाए चला जाता है और
भिखारी बनाए रखता है। मन कहता है: थोड़ा और! थोड़ा और! मन जीता है और में। और मन का
भोजन है।
एक भिखारी मुल्ला नसरुद्दीन से भीख
मांग रहा था। मुल्ला नसरुद्दीन ने पहले तो उसे एक अच्छा-खासा भाषण पिलाया और फिर
डांटते हुए कहा, शर्म नहीं आती भीख मांगते हुए! कोई मेहनत का काम
क्यों नहीं करते?
भिखारी बोला, क्या कभी आपने भीख मांगी है?
मुल्ला ने उत्तर दिया, नहीं तो। मैंने कभी भीख नहीं मांगी।
भिखारी बोला, तो फिर आपको क्या पता कि मेहनत क्या होती है! अरे मियां, इससे ज्यादा मेहनत का काम दुनिया में दूसरा कोई है ही नहीं।
और वह भिखारी ठीक कह रहा है। भीख
मांगने से ज्यादा मेहनत का और क्या काम होगा? क्योंकि कितनी ही
मांगो, मिलती नहीं है! यह उसकी बड़ी अंतहीन दौड़ है। जितना
मांगो उतनी बढ़ती है; जितना पानी पीओ, प्यास
बढ़ती है; जैसे कोई आग में घी डालता हो! भिखमंगापन बड़ी मेहनत
का काम है। मौत आ जाती है, मगर भिखमंगा मांगता ही रहता है,
मांगता ही रहता है, मांगता ही चला जाता है।
भिखमंगे ही लोग जीते हैं, भिखमंगे ही लोग मरते हैं।
जब तक वासना है तब तक भिखमंगापन है।
वासना का दूसरा नाम ही भिखमंगापन है। और वासना से मुक्त हो जाने का नाम ही मालकियत
है। इसलिए हमने संन्यासियों को स्वामी कहा है--मालिक! हमने संन्यासियों को सम्राट
कहा है, शहंशाह कहा है।
स्वामी राम ने एक किताब लिखी है, उस किताब को नाम दिया है: बादशाह राम के छह हुक्मनामे। किसी ने पूछा कि आप
और अपने को बादशाह मानते हैं? आपके पास कुछ दिखाई तो पड़ता
नहीं!
रामतीर्थ ने कहा, इसीलिए! क्योंकि मुझे किसी चीज की कोई जरूरत नहीं। मेरी सारी जरूरतें गईं,
मेरा भिखमंगापन गया। जरूरतों के साथ ही मेरा भिखमंगापन चला गया। अब
मैं मालिक हूं। ये सब चांदत्तारे मेरे हैं। यह सारा अस्तित्व मेरा है। मैंने एक
आंगन क्या छोड़ा, सारा आकाश मेरा हो गया है!
लेकिन मन बहुत से तर्क देगा। अगर तुम
मन से हटना चाहोगे, जगना चाहोगे, तो आसान मत समझना
काम को। मन बहुत तर्क देगा। और तर्क ऐसे कि भा जाएं। तर्क ऐसे कि जंच जाएं। मन
तर्क में बहुत निष्णात है। आत्मा के पास तो कोई तर्क नहीं है। आत्मा तो अतक्र्य
है। वहां तो केवल दीवाने ही प्रवेश कर पाते हैं, जो तर्क
इत्यादि को छोड़ कर जाते हैं। वहां तो मस्तों की दुनिया है। वह तो अलमस्तों का लोक
है। वह तो पियक्कड़ों के लिए ही द्वार खुलता है।
मन बिलकुल तार्किक है। हर चीज का
उत्तर है मन के पास। और उत्तर से तुम बैठ जाते हो तृप्त होकर, हालांकि उत्तर से कुछ होता नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन नाई की दुकान
पर पहुंचा और नाई से बोला, भाई जरा जल्दी में हूं, जरा
फ्रंटियर मेल की स्पीड से दाढ़ी बना दो।
नाई दाढ़ी बनाने लगा। दाढ़ी बनाते-बनाते
उसने कई जगह के बाल छोड़ दिए। जल्दबाजी जो थी! मुल्ला ने बड़ी नाराजगी से कहा कि यह
क्या बेहूदगी है! तुमने यह क्यों किया? ये बाल क्यों छोड़ दिए
जगह-जगह?
नाई बोला, भाईजान, फ्रंटियर मेल छोटे-छोटे स्टेशनों पर कभी
नहीं रुकती।
बात तो ठीक है। नाई की बात में है तो
तर्क। मुल्ला को फिर कुछ सूझा नहीं बोलते। जब फ्रंटियर मेल की रफ्तार से बनेंगे
बाल तो जगह-जगह छोटे स्टेशन तो छूट ही जाएंगे।
मन तर्क दे देता है और तुम्हें चुप कर
देता है। मन जानता है कैसे तुम्हें चुप करे। तुम अगर कहो कि धन व्यर्थ है, तो मन कहता है: तो सारी दुनिया पागल है? ये
करोड़ों-करोड़ों लोग जो धन के लिए जा रहे हैं, ये पागल हैं?
यह तुम्हारा एकाध महावीर, एकाध बुद्ध, एकाध मोहम्मद, इनकी गिनती क्या है? होंगे प्यारे लोग, उनकी बातें होंगी मधुर, उनके गीत होंगे सुंदर, उनके पास होगा व्यक्तित्व
सम्मोहक कि उनके पास जो लोग आए होंगे सम्मोहित हो गए होंगे। लेकिन क्या सारी
दुनिया पागल है? और फिर यह तो देखो, कौन
उनकी मानता है? जो उनकी पूजा करते हैं, वे भी उनकी कहां मानते हैं! कोई उनकी नहीं मानता। पूजा करने वाले भी कहां
मानते हैं! पूजा भी वे इसीलिए करते हैं कि हे भइया, क्षमा
करो। यह पूजा लो, मगर हमारा पीछा छोड़ो। पूजा एक तरह की
रिश्वत है कि हमें सताओ मत, हमें ज्यादा जगाओ मत। हम अभी
मधुर सपने देख रहे हैं, तुम बीच-बीच में हमारे सपनों में आओ
मत। तुम नाहक शोरगुल न मचाओ यहां। तुम जंगल-पहाड़ पर अपना ध्यान करो। और आएंगे हम
कभी-कभी, तुम्हारे चरण छू जाएंगे, दो
फूल चढ़ा जाएंगे। बस इतना हमारा तुमसे नाता होगा।
अगर संख्या से तय होता हो सत्य, तो महावीर, बुद्ध और कृष्ण सब गलत हैं। संख्या तो
तुम्हारी है। करोड़ों-करोड़ों अरबों-अरबों लोग कैसे गलत हो सकते हैं? और लोकतंत्र ने और एक लोगों को भ्रांति दे दी है कि जहां भीड़ है, जहां अधिक लोगों के हाथ हैं, वहां सत्य है।
मन कहता है: जब इतने लोग धन इकट्ठा
करने में लगे हैं तो पागल नहीं हो सकते। ज्यादा संभावना तो यही है कि महावीर और
बुद्ध पागल रहे हों। और गणित ठीक मालूम पड़ता है, तर्क उचित मालूम पड़ता
है। तर्क में भ्रांति नहीं दिखाई पड़ती। और मन कहता है कि तुम प्रभावित हो गए,
यह ठीक है, लेकिन प्रभावित होने से कुछ नहीं
होता। प्रभावित तो लोग फूल से हो जाते हैं। एक कमल का फूल देखते हो, तो क्या तुम कमल का फूल होने की कोशिश करने लगते हो? प्रभावित तो लोग चांदत्तारों से हो जाते हैं, तो
क्या चांदत्तारे बनने की कोशिश करने लगते हैं? ये प्यारे लोग
रहे, चलो इतना स्वीकार। इनको देख कर इन जैसा होने का मन
तुममें होता है, यह भी स्वीकार। मगर इन जैसे बनने की झंझट
में मत पड? जाना, नहीं तो मुश्किल में
डालोगे अपने को और जीवन के गणित के विपरीत चले जाओगे।
इसलिए लोगों ने बड़ी होशियारी कर ली
है। वह भी मन बनिया की ही तरकीब है। मन बनिया जब बुद्ध और महावीर जिंदा होते हैं
तो उनके विपरीत होता है, विरोध में होता है। हर तरह से उनकी निंदा करता है। और
जब वे मर जाते हैं तो यही मन बनिया उनकी पूजा करता है। जब जिंदा होते हैं तो यह मन
बनिया डरता है कि कहीं उनका प्रभाव मुझे खींच ही न ले आत्मा की तरफ! कहीं परिधि से
केंद्र की तरफ मैं चल ही न पडूं! कहीं उनकी वाणी, कहीं उनकी
गरिमा, कहीं उनके व्यक्तित्व का बल, कहीं
उनका चुंबकीय आकर्षण मुझे संसार से छुड़ा ही न दे! इस भय से बचने के लिए उनकी निंदा
करता है, गालियां देता है; अपने और
उनके बीच जितना फासला बना सकता है उसको बनाने की कोशिश करता है। ये गालियां,
निंदा, ये पत्थर, ये
सूलियां अपने और उनके बीच फासला, पहाड़ खड़े करने के उपाय हैं,
और कुछ भी नहीं। खूब निंदा करके अपने को समझा रहा है कि प्रभावित
होने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसे आदमियों से कोई प्रभावित होता है! खूब निंदा करके
मन यह कह रहा है कि जाना ही मत ऐसे लोगों के पास।
मैंने सुना है, महावीर के समय की एक प्यारी घटना है। एक बड़ा चोर था श्रावस्ती में। महावीर
श्रावस्ती आए थे। उस चोर को सबसे ज्यादा भय महावीर से था, पुलिसवालों
से नहीं। पुलिसवाले क्या करेंगे? चोर-चोर मौसेरे भाई! कुछ
सरकारी चोर हैं, कुछ गैर-सरकारी चोर हैं, बस इतना फर्क है। पुलिसवाले क्या करेंगे? उसे सम्राट
से भी भय नहीं था, क्योंकि सम्राट यानी बड़े चोर। वे अपनी ही
पंक्ति में खड़े हुए जरा आगे लोग हैं। उन्होंने भी छीना-झपटी की, जबरदस्ती की, डकैती डाली, लूटा
है। उनकी लूट जरा बड़ी है कि दिखाई नहीं पड़ती।
इतिहास में तुम जिनकी कहानियां पढ़ते
हो, वे लुटेरे हैं। चंगीजखां और नादिरशाह और अकबर और सिकंदर, ये सब लुटेरे हैं। लेकिन इतने बड़े लुटेरे हैं कि तुम्हारी समझ में नहीं
आता। और ये बड़े लुटेरे छोटे लुटेरों के खिलाफ हैं। छोटे लुटेरे इनसे डरते नहीं;
वे जानते हैं कि बड़े लुटेरे छोटे लुटेरे; हैं
हम सब एक ही दुनिया के हिस्से।
उसे डर नहीं था किसी से। सच तो यह है
कि सम्राट उससे डरता था, क्योंकि वह बड़ा कुशल चोर था। जब महावीर का गांव में
आगमन हुआ तो उसने अपने बेटे को बुला कर कहा कि एक बात ध्यान रखना, इस महावीर से बचना। इस तरह के लोग हमेशा हमारे धंधे के खिलाफ रहे हैं। इस
तरह के लोग हमारे जानी दुश्मन हैं। सुनने भी मत जाना। अगर महावीर किसी रास्ते से
गुजरते हों, उस रास्ते से मत गुजरना। अगर अचानक महावीर
रास्ते पर मिल जाएं तो आस-पास के गली-कूचे में निकल भागना। अगर महावीर कहीं प्रवचन
देते हों, अपने कान में अंगुलियां डाल कर घर की तरफ भाग खड़े
होना, सुनना ही मत।
बाप ने समझाया तो बेटे ने ऐसा ही किया, महावीर से बचता रहा। लेकिन जब तुम किसी से बचोगे तो एक आकर्षण भी पैदा
होता है--कि बात क्या है? बाप सम्राट से नहीं डरता, बड़े-बड़े पुलिस के अधिकारियों से नहीं डरता, सेनापतियों
से नहीं डरता, तलवारों-बंदूकों से नहीं डरता, जेल-जंजीरों से नहीं डरता, इन नंग-धड़ंग महावीर से
क्यों डरता है? इसमें बात क्या है? तो
कभी-कभी खिंचा चला जाता था। मगर फिर बाप की आज्ञा भी माननी थी। देखने का मन भी
होता था तो आंख की कोरों से देखता था। एक दिन गुजर रहा था रास्ते से, धीरे-धीरे गुजर रहा था, क्योंकि महावीर बोल रहे थे,
सोचा कि चलो एकाध शब्द कान में पड़ जाए--है क्या मामला? क्या बोलते हैं जिससे बाप इतना डरा हुआ है? तो जरा
धीरे-धीरे चला। कुछ ही शब्द उसके कान में पड़े। और उसी रात वह पकड़ा गया चोरी करते
वक्त।
लड़का पकड़ा गया है, तो सम्राट बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा इससे इसके बाप का भी राज खुलवा
लेंगे। बाप तो काइयां है, सिद्धहस्त है; लड़का अभी सिक्खड़ है। इससे बाप के भी राज खुलवा लेंगे। मगर कैसे खुलवाना?
तो उसके वजीरों ने एक बड़ा इंतजाम किया। उसे खूब शराब पिलाई। उसे
इतनी शराब पिलाई कि वह बिलकुल बेहोश होकर गिर पड़ा। और जब वह बेहोश होकर गिर पड़ा तो
महल का जो सबसे सुंदर कक्ष था सम्राट का, जो सिर्फ दिखाने के
काम में लाया जाता था, कोई उसका उपयोग नहीं करता था। मेहमान
आते थे, उनको दिखाया जाता था। सोना ही सोना था, चांदी की दीवालें थीं, हीरे-जवाहरात जड़े थे। पलंग
सोने का था, हीरे-जवाहरात जगमग हो रहे थे। सुंदर से सुंदर
कालीन थे, कीमती से कीमती फानूस थे। ऐसा लगता था जैसे इस लोक
का न हो, परलोक का हो। स्वर्ग का जैसा वर्णन है वैसा था।
उस बेहोश युवक को उस पलंग पर जाकर
सुला दिया। और सुंदरतम स्त्रियां जो महल में थीं, उन सब को परियों जैसे
वस्त्र पहनाए, जैसे वे अप्सराएं हों! और उन सबको उसकी सेवा
में रत कर दिया। और उनसे कहा, जब इसे होश आए तो यह पूछेगा कि
मैं कहां हूं? स्वभावतः, एकदम चौंकेगा।
इसने कभी ऐसा तो देखा नहीं होगा महल और इतनी सुंदर स्त्रियां भी नहीं देखी होंगी।
यह पूछेगा--मैं कहां हूं? तो कहना कि तुम स्वर्ग और नरक के
मध्य में हो। और यहां से तय होगा कि अब तुम्हें स्वर्ग ले जाया जाए या नरक। तुम
अपने सारे पापों का अगर प्रायश्चित्त कर लो तो तुम स्वर्ग जाओगे।
उसके सारे पापों का प्रायश्चित्त
करवाने का यह आयोजन था। था तो चोर का बेटा ही। तभी उसे महावीर का वचन याद आया। जब
उसे होश आया, उसने पूछा--मैं कहां हूं? उन
अप्सराओं जैसी स्त्रियों ने कहा कि तुम ठीक मध्य-लोक में हो अब। और यहीं से निर्णय
होना है। चौराहे पर हो। स्वर्ग या नरक, सब तुम पर निर्भर है।
अगर पश्चात्ताप कर लोगे, अपने सारे पाप खोल कर कह दोगे,
खुली किताब की तरह, तो स्वर्ग जाओगे; अगर छिपाओगे तो नरक में सड़ोगे। वह कहने ही जा रहा था, अपने पापों का प्रायश्चित्त करने--क्योंकि बात साफ लग रही थी कि कहीं
चौराहे पर है, स्वर्ग के बहुत करीब है, ज्यादा दूर नहीं--तभी उसे महावीर का वचन याद आया जो उसने आज ही सुबह सुना
था। महावीर अपने भिक्षुओं को कह रहे थे कि स्वर्ग में देवताओं की छाया नहीं बनती।
यह एक केवल प्रतीक है और महत्वपूर्ण
प्रतीक है। छाया तो ठोस चीज की बनती है--शरीर की बनती है; आत्मा की नहीं बन सकती। अगर बिलकुल शुद्ध कांच हो--शुद्ध कांच हो, पारदर्शी-- तो उसकी छाया नहीं बनेगी। या बनेगी भी तो बहुत झीनी-झीनी
बनेगी। है वह भी पदार्थ, लेकिन पारदर्शी होगा तो छाया नहीं
बनेगी। आत्मा तो पदार्थ नहीं है, चेतना है; आत्मा की कोई छाया नहीं बन सकती। देह तो यहीं छूट जाती है; परलोक में तो सिर्फ आत्मा होती है। आत्मा की कैसी छाया!
यह महावीर समझा रहे थे कि आत्मा की
छाया नहीं बनती। बस इतना ही उसने सुना था। चोर तो था ही, तत्क्षण उसने गौर से देखा कि ये जो अप्सराएं हैं, इनकी
छाया बन रही है या नहीं?
सब की छाया बन रही थी। समझ गया कि कोई
चालबाजी है। पापों का प्रायश्चित्त तो एक तरफ छोड़ा, अपने पुण्यों की कथा
कहने लगा कि मैंने क्या-क्या पुण्य किए हैं! और मैंने ही नहीं, मेरे बाप ने भी क्या-क्या पुण्य किए हैं!
वजीर हैरान हुए, सम्राट हैरान हुआ कि हमारी आयोजना व्यर्थ हो गई। उससे पूछा कि तू सच-सच
बता, हमारी सारी आयोजना कैसे व्यर्थ हो गई?
उसने कहा, इतना मैं जरूर कहूंगा कि सारी आयोजना व्यर्थ हो गई, क्योंकि
महावीर का एक वचन मेरे कान में पड़ गया। और अब मैं सीधा वहीं जा रहा हूं, यहां से छूटा कि सीधा वहीं जा रहा हूं। अब पिता की नहीं सुनूंगा। जिसके एक
वचन ने बचा लिया, काश मैं उसकी पूरी वाणी समझ लूं! और जिसका
वचन बचा सकता है, वाणी बचा सकती है, काश
मैं उसके व्यक्तित्व को समझ लूं तो शायद मेरा उद्धार हो जाए! और मैं तुम्हें भी
निमंत्रित करता हूं कि आओ! क्योंकि हैं तो हम सब मौसेरे भाई-भाई। मैं भी चोर,
तुम भी चोर। हम छोटे चोर, तुम बड़े चोर। पाप हमारे
हैं, पाप तुम्हारे हैं। हमारे छोटे, तुम्हारे
बड़े। मैं तुमसे भी कहता हूं कि आओ, जिसके एक वचन ने नौका बन
कर मुझे आज बचाया है वह तुम्हें भी बचा सकता है।
और कहानी कहती है कि सम्राट भी महावीर
को सुनने गया। दीक्षित हुआ। वह चोर भी दीक्षित हुआ। फिर उसके पीछे उसका पिता भी
दीक्षित हुआ।
मन सुनने नहीं देगा। मन बचाता है। मन
कहता है: ऐसी बात ही मत सुनना जो मन के पार ले जाने वाली हो। और मन समझता है कि
बड़ा चतुर है। मन चतुर नहीं है। यह चतुराई मूढ़ता का आवरण है।
मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा उससे पूछ
रहा था, पापा, मुझे स्कूल के नाटक में
मूर्ख का पार्ट करना है, इसके लिए मैं क्या तैयारी करूं?
मुल्ला नसरुद्दीन बोला, बेटा, कुछ भी नहीं, कुछ तैयारी
की जरूरत नहीं। जैसे हो ऐसे ही स्टेज पर चले जाना।
मूढ़ तो मनुष्य है ही।
एक ईसाई पादरी समझा रहा था अपने
अनुयायियों को कि जब तुम लोगों को समझाओ और जब तुम स्वर्ग का वर्णन करो तो
तुम्हारे चेहरे पर एकदम प्रफुल्लता आ जानी चाहिए, एकदम मुस्कुराहट फैल
जानी चाहिए, तुम्हारा चेहरा एकदम दैदीप्यमान हो जाना चाहिए।
तभी लोग समझेंगे कि स्वर्ग क्या है। स्वर्ग शब्द ही--और तुम्हें आह्लादित कर देना
चाहिए। हाथ उठाना, आंख ऊपर की तरफ उठाना, आकाश की तरफ देखना। एकदम क्षण भर को ठहरे खड़े रह जाना।
किसी एक शिष्य ने खड़े होकर पूछा कि
ठीक है, स्वर्ग को तो ऐसे समझा देंगे। और नरक को?
तो उस पादरी ने कहा, नरक को समझाने की कोई जरूरत नहीं। तुम जैसे हो बस ऐसे ही खड़े रहना। तुम्हें
देख कर ही नरक का पता चल जाएगा।
आदमी मूढ़ है। उसे देख कर ही मूढ़ता पता
चल रही है। उसके दुख उसकी मूढ़ता का प्रमाण हैं। आदमी नरक है। उसकी आंखों में झांको, अंधेरा ही अंधेरा--अमावस का अंधेरा! उसके प्राणों में झांको, एक दीया भी नहीं जलता। उसके जीवन में देखो, कहीं कोई
सुगंध नहीं है। और यह सब कैसे हुआ है? किसके द्वारा हुआ है?
कौन मनुष्य को इस दशा में पहुंचा गया? कोई और
नहीं--मन बनिया बान न छोड़ै!
पूरा बांट तरे खिसकावै...
पूरा बांट तुम्हारे पास भी है, जैसे बनिया के पास है। ऐसा नहीं कि बनिया के पास पूरा बांट नहीं होता।
उसके पास भी पूरा बांट है। जब कोई चीज खरीदता है तो पूरे बांट से खरीदता है। सच तो
यह है, उसके पास पूरे से भी बड़ा बांट है। वह जब दूसरे से
खरीदता है तो उससे खरीदता है। और उसके पास घटिया बांट भी है। जब वह बेचता है तो
घटिया बांट से बेचता है।
पूरा बांट तरे खिसकावै, घटिया को टकटोलै।
वह अपनी गद्दी के नीचे दोनों तरह के
बांट रखे रहता है। जब बेचना है तो घटिया को टटोलता है और जब खरीदना है तो पूरे को
टटोलता है। जब दूसरे को लूटना है तब उसके पास एक तरह के बांट हैं। और जब बेचना है
तब भी वह लूट रहा है, तब उसके पास दूसरी तरह के बांट हैं।
तो मन की दूसरी बात पलटू कह रहे हैं
कि मन के पास दो तरह के बांट हैं। मन हमेशा दो तरह के मूल्य मान कर चलता है--अपने
लिए और, दूसरों के लिए और।
मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा अपने बाप से
पूछ रहा था कि अगर कोई मुसलमान हिंदू हो जाए, तो उसे क्या कहोगे?
तो मुल्ला ने कहा, गद्दार! भ्रष्ट! पापी! काफिर!
और उसके बेटे ने पूछा, पापा, और कोई हिंदू अगर मुसलमान हो जाए?
तो उसने कहा, बुद्धिमान! समझदार! प्रतिभाशाली! सोच-विचारशील! सम्मानयोग्य! पुण्यधर्मा!
बहिश्त उसका है।
हिंदू मुसलमान हो जाए तो एक बांट; मुसलमान हिंदू हो जाए तो दूसरा बांट! जैन हिंदू हो जाए तो भ्रष्ट और हिंदू
अगर जैन हो जाए तो महात्मा!
मन हमेशा दोहरे बांट रखे हुए है। हर
चीज के संबंध में दोहरे मूल्यांकन हैं। तुम्हारी पार्टी से कोई दूसरी पार्टी में
चला जाए--दलबदलू! धोखेबाज! और दूसरी पार्टी से तुम्हारी पार्टी में आ जाए तो इसको
होश आया, समझ आई, बुद्धि लौटी, नासमझी छूटी! और यह हम रोज करते हैं। हम दूसरों को एक ढंग से तौलते हैं,
अपने को और ढंग से तौलते हैं। अगर दूसरा बेईमानी करे तो बेईमान;
अगर हम बेईमानी करें तो बेईमानी नहीं है--क्या करें, सारी दुनिया बेईमान है! करना ही पड़ती है। जीवन की व्यवस्था है। अगर हम झूठ
बोलें तो वह सिर्फ व्यावहारिक है और दूसरा अगर झूठ बोले तो उसको हम व्यावहारिक
नहीं कहते। वह पाप कर रहा है, नरक में सड़ेगा। हम अगर झूठ
बोलें तो वह तो यूं ही बात-बात में बोल दिया था और दूसरा अगर झूठ बोले तो वह झूठा
है। उसका झूठ बोलना उसके पूरे व्यक्तित्व को झूठ कर देता है। हमारा झूठ बोलना
सिर्फ गपशप थी।
अगर मन से बचना हो तो ये दोहरे बांट
छोड़ने होंगे। और ये दोहरे बांट हम सब जगह उपयोग करते हैं, हर जगह उपयोग करते हैं।
पूरा बांट तरे खिसकावै, घटिया को टकटोलै।
और जब तक तुम पूरे बांट को नहीं जीवन
में लाओगे और घटिया से ही काम चलाते रहोगे, घटिया रहोगे। पूरा
बांट प्रतीक है परमात्मा का--जो पूरा है! मन तो हमेशा अधूरा है, कभी पूरा नहीं। घटिया बांट है। और तुम सारी चीजें मन से ही तौल रहे हो।
संसार को परमात्मा से तौलो, मन से नहीं। संसार को परमात्मा की आंख से देखो, मन
की आंख से नहीं। मन की आंख से देखोगे तो अपना-पराया; और
परमात्मा की आंख से देखोगे तो न कुछ अपना है, न कुछ पराया।
मन की आंख से देखोगे तो सारी चीजें मन के रंग में रंग जाएंगी। मन की बेईमानी,
मन की धोखाधड़ी चीजों पर आरोपित हो जाएगी। परमात्मा की, साक्षी की आंख से देखोगे, चीजें स्वच्छ और निर्मल
होकर प्रकट होंगी; जैसी हैं वैसी प्रकट होंगी।
पूरा बांट तरे खिसकावै, घटिया को टकटोलै।
पसंगा मांहै करि चतुराई, पूरा कबहुं न तौले।।
तुमने मन से कभी पूरा नहीं तौला। लोग
अपनों को भी धोखा दे जाते हैं। लोगों को मौका लगे तो खुद को भी धोखा दे जाते हैं, औरों की तो बात ही छोड़ दो! पसंगा मारते रहते हैं; जिस
तरह भी बने, कम तौलते रहते हैं।
पसंगा मांहै करि चतुराई...
और सोचते हैं कि बहुत चतुराई कर रहे
हैं, बड़ी बुद्धिमानी से जी रहे हैं। यहां जिससे पूछो वही
सोचता है कि बुद्धिमानी से जी रहा है; जीने की कला उसे आती
है। न केवल खुद वैसे जीना चाहता है, अपने बच्चों को भी चाहता
है कि वे भी वैसे ही जीएं; उनको भी वही शिक्षा दे जाता है।
पूरा कबहुं न तौले।
तुमने जीवन को कभी पूर्णता की दृष्टि
से नहीं देखा। अपूर्ण मन को देखते हो, इसलिए तुम्हें सब
अपूर्ण दिखाई पड़ता है। पूर्ण दृष्टि से देखोगे तो सब पूर्ण दिखेगा। और जिसको सब
पूर्ण दिखेगा--कहां अतृप्ति! कहां पीड़ा! कहां दुख! कहां नरक!
शादी के पहले तुम मुझे कितने कीमती
उपहार देते थे, वस्त्र भेंट देते थे और कितने मीठे-मीठे पत्र लिखते
थे! अब तुम ऐसा क्यों नहीं करते चंदूलाल?
गुलाबो, तुम वाकई कितनी भोली
हो! चंदूलाल ने जवाब दिया। क्या तुमने कभी ऐसा सुना है कि कोई मछुआ मछली पकड़ने के
बाद उसे आटा खिलाता है?
पत्नी ने कहा, तो क्या तुम मुझे मछली समझते हो और खुद को मछुआ समझते हो?
चंदूलाल ने कहा, नहीं-नहीं, तुम्हें मछली नहीं समझता और न ही मैं
मछुआ हूं। मैं मारवाड़ी हूं।
लेकिन हमारे जीवन को देखने के ढंग यही
हैं--मछली और मछुए के! एक-दूसरे को फांसने की चेष्टा चल रही है। एक-दूसरे के शोषण
की चेष्टा चल रही है। और जब तक तुम दूसरे के शोषण में संलग्न हो, कैसे देख पाओगे उसमें परमात्मा को? और परमात्मा को
देख लोगे तो शोषण कैसे कर पाओगे? फिर तो सेवा ही कर सकोगे।
घर में वाके कुमति बनियाइन, सबहिन को झकझोलै।
कुमति को पलटू ने कहा कि वह बनियाइन
है। मन तो है बनिया और भीतर बैठी है कुमति।
सुमति और कुमति का भेद समझ लो। सुमति
कहते हैं उस मति को जो सत्य की तरफ ले जाए। और कुमति कहते हैं उस मति को जो असत्य
की तरफ ले जाए। कुमति बहिर्गामी होती है और सुमति अंतर्गामी। कुमति वस्तुओं में रस
लेती है और सुमति स्वयं में। कुमति सांसारिक होती है, सुमति आध्यात्मिक।
मन अगर बनिया है तो कुमति बनियाइन है; कुमति से उसका विवाह हुआ है।
तुम जरा सोचना, खोजना--तुम्हारा चित्त सदा बाहर की तरफ दौड़ रहा है या नहीं? जब भी सोचते हो तभी बाहर के सोच में पड़े रहते हो। रात सपने भी बाहर के
देखते हो। तुम्हारा चित्त सदा ही बाहर की तरफ जा रहा है। अपने घर कब आओगे? अपने घर कैसे आओगे? अपने घर से तो दूर निकलते जाते
हो--और दूर! और दूर! घर तो तुम बहुत पीछे छोड़ आए हो। घर को पाना हो तो अपने स्रोत
की तरफ चलना पड़ेगा। घर को पाना हो तो गंगा को गंगोत्री की तरफ बहना पड़ेगा। और गंगा
भागी जा रही है गंगोत्री से दूर। स्वरूप से हम दूर भागे जा रहे हैं। स्वरूप में जो
ले जाए, वह सुमति।
मगर हम अपनी कुमति के लिए काफी
सुरक्षा करते हैं। हम कहते हैं: यह जरूरी है। नहीं तो संसार में टिकेंगे कैसे?
टिक कर भी क्या होगा? और टिकोगे कितनी देर? टिक भी लिए थोड़ी देर, तो भी पैर उखड़ जाने हैं। मगर बड़ी चतुराई मानती है कुमति! आदमी गङ्ढे खोदता
है औरों के लिए; उसे पता नहीं कि उन्हीं गङ्ढों में खुद
गिरेगा। आदमी कांटे बोता है औरों के लिए; उसे पता नहीं कि
इन्हीं कांटों में खुद उलझेगा। क्योंकि तुम जो देते हो जगत को, वही तुम पर लौट आता है। तुम गालियां देते हो तो गालियां लौट आती हैं--हजार
गुना होकर। तुम फूल बांटोगे तो फूल लौट आएंगे--हजार गुना होकर।
मगर फूल तो बांटोगे कैसे, फूल तुम्हारे भीतर अभी पैदा नहीं हुए! भीतर तो कांटे ही कांटे उग रहे हैं।
लोग कैक्टस हो गए हैं--कांटे ही कांटे! और तुम उन कांटों को खूब पानी दे रहे हो।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी बीबी के
जन्मदिन पर उसे एक चप्पल लाकर भेंट दी। सिर्फ एक चप्पल बाएं पैर की। बीबी बहुत
नाराज हुई: क्या तुम मुझे पागल समझते हो जो सिर्फ एक पैर की चप्पल लाकर दे दी? इससे भला होता तुम कुछ न देते। क्यों मेरी बेइज्जती करते हो नसरुद्दीन?
कैसी बात करती हो गुलजान--मुल्ला
बोला--क्या तुम चाहती हो कि मैं तुम्हें दो चप्पलें देकर तुम्हारी दोगुनी बेइज्जती
करूं?
अगर एक चप्पल से बेइज्जती होती है तो
दो चप्पल से दोगुनी हो जाएगी। गणित तो ठीक, हिसाब तो ठीक,
हिसाब में तो कोई चूक नहीं है। मगर बुनियाद ही गलत है, आधार ही गलत है। तर्क के हम बड़े भवन खड़े कर लेते हैं--बिना यह सोचे कि रेत
पर खड़े कर रहे हैं। तर्क बहुत कुशल है, लेकिन प्रतिभावान
नहीं।
घर में वाके कुमति बनियाइन, सबहिन को झकझोलै।
और वह कुमति है कि सबसे झगड़ती रहती
है। झगड़ा मन का स्वभाव है। तुम देखते हो, मन हमेशा झगड़ने को
आतुर। नहीं झगड़ते हो तो उसका कारण यह नहीं होता कि तुम नहीं झगड़ना चाहते हो;
नहीं झगड़ते हो तो इसलिए कि सामने जो है उससे झगड़ना खतरे से खाली
नहीं है। लोग कमजोर से झगड़ना चाहते हैं, जहां जीत पक्की हो।
ताकतवर के सामने पूंछ हिलाने लगते हैं, कमजोर के सामने
भौंकने लगते हैं। दफ्तर में अगर तुम्हारा मालिक उलटा-सीधा बोलता है तो भी तुम जी
हजूर, जी हजूर कहते रहते हो। मगर आग जल रही है भीतर। उस आग
को तुम कहीं न कहीं निकालोगे। हो सकता है घर आकर अपनी पत्नी पर निकालो; हालांकि पत्नी का कोई कसूर न होगा। पत्नी शायद तुम पर न निकाल सके,
क्योंकि तुम पति हो--पति यानी परमात्मा! अपने बच्चे पर निकालेगी।
बच्चा मां पर नहीं निकाल सकता; अपनी गुड़िया की टांग तोड़
देगा। और ऐसे सरकता जाता है क्रोध और फैलता जाता है जहर।
सबहिन को झकझोलै।
यह जो कुमति है, यह बुरी तरह झकझोरती है--और सबहिन को, सबको। एक की
कुमति न मालूम कितने झंझावात पैदा करती है।
कहानी है कि अकबर एक दिन गुस्से में आ
गया। कुछ बीरबल ने ऐसी बात कह दी। कही तो थी मजाक में ही, लेकिन मजाक जरा गहरा हो गया कि अकबर ने आव देखा न ताव, एक चांटा बीरबल को रसीद कर दिया! बीरबल भी कोई चुप रह जाने वाला तो था
नहीं, लेकिन अकबर को चांटा मारना तो महंगी बात हो जाए। सो
उसने पास में खड़े एक दरबारी को और भी करारा चांटा मार दिया। दरबारी तो बहुत चौंका,
उसने कहा, यह कैसा न्याय? अकबर ने तुम्हें मारा, तुम मुझे क्यों मारते हो?
बीरबल ने कहा, तू क्यों फिक्र करता है? अरे और किसी को तू मार!
चलने दे, कभी न कभी अकबर के पास पहुंच जाएगा। देता चल। आगे
बढ़ाओ। रोकने की जरूरत नहीं है। पहुंच जाएगा अकबर तक, घबड़ाओ
मत। दुनिया गोल है।
और हर चीज पहुंच जाती है--शायद आज
नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों। कर्म का सारा सिद्धांत इतना ही है
कि हर चीज एक दिन तुम पर लौट आएगी। सोच-समझ कर देना।
लड़िका वाका महाहरामी...
मन की पत्नी है कुमति--बहिर्गामी
यात्रा। लड़का कौन है? तर्क है उसका पुत्र। और तर्क तुम्हारे जीवन को गलत
सुझाव देता रहता है, गलत दिशाएं देता रहता है, गलत इशारे देता रहता है। ठीक इशारे प्रेम से मिलते हैं; गलत इशारे तर्क से मिलते हैं। ठीक राह प्रीति की राह है; गलत राह तर्क की राह है।
लेकिन सभी लोग तर्क को पकड़े बैठे हैं।
तर्क सिखाया जाता है--स्कूल में, कालेज में, विश्वविद्यालय में। यह सारा समाज तर्क पर जीता है। प्रेम झुठलाया जाता है।
प्रेम भुलाया जाता है। प्रेम विस्मृत किया जाता है और तर्क की शिक्षा दी जाती है।
तर्क हिंसात्मक है; खंडन उसका लक्ष्य है। तर्क एक तरह की तलवार है, जिससे
दूसरे की गर्दन काटो। और जिस तलवार से तुम दूसरे की गर्दन काट रहे हो, याद रखना, आज नहीं कल इसी तलवार से आत्महत्या करोगे।
यही तलवार आत्मघात बनेगी।
तर्क से थोड़े सावधान रहना। तर्क की
कोई निष्ठा नहीं होती। तर्क वेश्या है। आज तुम्हारे साथ है, कल किसी और के साथ हो सकता है। इसलिए भूल कर भी अपने भवन को तर्क पर खड़ा
मत करना। तर्क में बुनियाद के पत्थर मत रखना। तुम्हारे तर्क खंडित किए जा सकते
हैं। ऐसा कोई तर्क ही नहीं है जो खंडित न किया जा सके। सिर्फ प्रेम अखंड है और
प्रेम को खंडित नहीं किया जा सकता।
रामकृष्ण के पास केशवचंद्र गए और बहुत
तर्क करने लगे कि ईश्वर नहीं है। और जानते थे कि रामकृष्ण को तो क्षणों में परास्त
कर देंगे, क्योंकि रामकृष्ण तो बेपढ़े-लिखे थे, केवल दूसरी कक्षा तक पढ़े थे--क्या तर्क करेंगे! और केशवचंद्र तो
महातार्किक थे। लेकिन रामकृष्ण को हरा न पाए। प्रेम को हराना संभव ही नहीं है। हार
कर लौटे। प्रेम से हारना ही पड़ेगा। केशवचंद्र तर्क देते ईश्वर के विरोध में और
रामकृष्ण उठ-उठ कर केशवचंद्र को गले लगाते और कहते: वाह! खूब रही! खूब कही!
यह तो कुछ उलटा ही होने लगा। जो लोग
इकट्ठे हुए थे देखने, वे भी थोड़े बेचैन हो गए। सोचा था कि कुछ तर्क होगा,
रामकृष्ण कुछ जवाब देंगे। जवाब तो देते नहीं, उलटे
कहते हैं: वाह! खूब! खूब कही! क्या कही! क्या महीन बारीक बात कही! और जब बहुत
बारीक बात हो जाती, तो उठ कर गले लगा लेते।
केशवचंद्र भी बड़ी मुश्किल में पड़ गए, उदास होने लगे। आखिर उन्होंने कहा, यह मामला क्या है?
आप जवाब क्यों नहीं देते?
रामकृष्ण ने कहा, मैं जवाब ही दे रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि मैंने जो जान लिया है,
उसे खंडित करने का कोई उपाय नहीं। तुम्हारे तर्क बड़े प्यारे हैं,
लेकिन अज्ञानियों को ही राजी कर पाएंगे। हां, किसी
अंधे के सामने तुम अगर प्रकाश के खिलाफ बोलोगे तो वह तुमसे राजी हो जाएगा। असल में,
अंधे को प्रकाश के पक्ष में राजी करना मुश्किल है। प्रकाश के विपक्ष
में राजी करने में क्या कठिनाई है? तुम अगर प्रकाश के खिलाफ
तर्क दोगे अंधे को, राजी हो जाएगा। मगर मेरी आंख खुल गई,
मैं क्या करूं! तुम जरा देर से आए केशव! अगर तुम दस-पंद्रह साल पहले
आए होते, जब मेरी भी आंख बंद थी, तो
शायद मैं तुमसे राजी हो गया होता। तुम जीत गए होते। मगर अब जीतने का कोई उपाय
नहीं।
केशवचंद्र ने पूछा, चलो यह भी सही। मगर उठ-उठ कर मुझे गले क्यों लगाते हैं? और यह वाह-वाह और यह प्रशंसा!
तो रामकृष्ण कहने लगे, इसलिए कि तुम जैसी प्रखर प्रतिभा मैंने कभी नहीं देखी! तुम्हारी प्रतिभा
की मैं प्रशंसा करता हूं। लेकिन जरा और खींचो, जरा और धार
दो। और तुम्हें देख कर मुझे परमात्मा पर और भी भरोसा आता है--कि जहां जगत में ऐसी
प्रतिभा हो सकती है, वह जगत परमात्मा से खाली नहीं हो सकता।
इसीलिए तुम्हें गले लगाता हूं कि अहा! खूब आए! तुम आखिरी प्रमाण होकर आए। मुझे तो
फूलों को देख कर परमात्मा का प्रमाण मिलता है, चांदत्तारों
को देख कर परमात्मा का प्रमाण मिलता है। तुम्हारी प्रतिभा को देख कर भी उसका
प्रमाण मिलता है। मुझे तो उसके प्रमाण ही प्रमाण मिलते हैं। लेकिन तर्क खेल है।
केशव, इससे ऊपर उठो। खिलौने हैं बच्चों के। आओ मेरे पास,
बैठो मेरे पास! ले चलूंगा तुम्हें उस द्वार से--प्रीति के द्वार से!
और प्रीति का द्वार ही परमात्मा का द्वार है।
केशव ने अपनी आत्मकथा में लिखवाया है
कि अपने जीवन में मैं पहली दफा हारा--और उस आदमी से हारा, जिसने एक भी तर्क मेरे विपरीत न दिया।
लड़िका वाका महाहरामी...
तर्क उसका बेटा है।
इमरित में विष घोलै।
अगर अमृत भी दे दो तर्क को तो वह
उसमें भी विष घोल देगा। अगर किसी को परमात्मा की याद दिलाना चाहो तो तर्क उसमें भी
बाधा डालेगा--कैसा परमात्मा? कहां का परमात्मा? न देखा, न सुना। और जिन्होंने देखा है, सुना है, वे भी सच कहते हों क्या पता! कि झूठ बोलते
हों, कि धोखा देते हों; या खुद धोखा खा
गए हों।
इमरित में विष घोलै।
बुद्धों के पास बैठ कर भी तर्क अमृत
को नहीं पीता; उसमें भी विष घोल देता है। इसके पहले कि तुम तक
पहुंचे, विष घोल देता है। हर चीज में अश्रद्धा पैदा कर देता
है। अश्रद्धा विष है। अगर श्रद्धा अमृत है तो अश्रद्धा विष है। हर चीज में संदेह
जगा देता है। और एक दफा संदेह जगा दिया कि तुम झंझट में पड़ गए। संदेह जगा कि
तुम्हारा जीवन गतिमान नहीं हो सकता। संदेह जगा कि तुम ठहर जाओगे, ठिठक जाओगे, कि पहले तय तो हो जाए तब आगे बढूं। तय
हो जाए तो दिशा चुनूं।
और तर्क कभी कुछ तय नहीं होने देता।
तुम कुछ भी तय करो, उसमें संदेह की छाया बनी ही रहती है--कौन जाने,
ऐसा हो, ऐसा न हो! अनुमान है तर्क। अनुमान श्रद्धा
कैसे बन सकता है?
इमरित में विष घोलै।
तुम जरा जाग कर देखना, तुम्हारे भीतर भी यह काम चल रहा है रोज। अगर तुम जरा जग जाओ तो तुम
पहचानने लगोगे कि कब-कब यह कुमति का बेटा किस-किस तरकीब से जहर घोल देता है।
पांचतत्त का जामा पहिरे, एंठा-गुइंठा डोलै।
हो क्या तुम? मिट्टी-पानी के जोड़! पांच तत्व के पुतले हो! आत्मा उड़ जाएगी, पिंजड़ा पड़ा रह जाएगा।
पांचतत्त का जामा पहिरे, एंठा-गुइंठा डोलै।
और कैसे अकड़ कर चल रहे हो! कैसे एंठ
कर! कैसे गुइंठ कर! कैसे डोल रहे हो! क्षण भर में मिट्टी हो जाओगे। सब एंठ पड़ी रह
जाएगी। रोज देखते हो तुम यह घटना घटते--कोई चला गया, कोई विदा हो गया। मगर
फिर भी तर्क तुमसे कुछ कहता रहता है कि कोई गया, दूसरा मरता
है सदा, मैं थोड़े ही मरता हूं। मैं तो देखो अभी जिंदा हूं।
मैं मरने वाला नहीं हूं। यह मृत्यु का नियम औरों पर लागू होता होगा, मुझ पर लागू नहीं होता। देखो कितने मर गए, मैं अभी
भी जिंदा हूं!
यही तर्क वे मरने वाले भी अपने को
देते रहे थे। यही तर्क तुम भी दे रहे हो। यह अकड़ छोड़ो। तर्क तुम्हारे अहंकार को
पोषित करता है।
जनम-जनम का है अपराधी, कबहूं सांच न बोलै।
तर्क कभी सत्य नहीं बोलता--बोल नहीं
सकता, क्योंकि सत्य को तर्क की जरूरत नहीं है। जहां सत्य है
वहां तर्क व्यर्थ है। तर्क की तो जरूरत ही वहां होती है जहां असत्य होता है।
क्योंकि असत्य को तर्क का सहारा न मिले तो वह असत्य की भांति प्रकट हो जाता है।
तर्क का सहारा लेकर सत्य का ढोंग रच पाता है। सत्य को किसी तर्क की कोई आवश्यकता
नहीं है। सत्य तो नग्न खड?ा हो सकता है--तो भी सत्य है,
तो भी सुंदर है, तो भी गरिमायुक्त है। असत्य
को कपड़ों की जरूरत होती है।
तो तुमने देखा, खेत में लोग झूठा आदमी बना देते हैं! एक डंडा गड़ा दिया, एक हंडी लगा दी, ऊपर एक गांधी टोपी लगा दी। एक और
बांस बांध दिया, वे दो हाथ हो गए, उसमें
कुरता पहना दिया--शुद्ध खादी का! और चूड़ीदार पाजामा! और कहीं मिल गए जूते पड़े हुए,
वे जूते भी पहना दिए। जो और जरा शौकीन तबीयत के हैं, मुंह में सिगरेट भी दबा देते हैं। हंडी पर नाक-नक्शा भी उभार देते हैं। अब
इन सज्जन के अगर तुम कपड़े उतार लो तो सब गड़बड़ हो जाए, तो
भीतर एक डंडा मिले और एक हंडी मिले। ये तो कपड़े में ही शोभायमान होते हैं। ये नग्न
नहीं हो सकते। ये तो कपड़े के भीतर ही जंचते हैं।
ऐसा ही असत्य है। भीतर कुछ भी नहीं, बस कपड़े सुंदर। शास्त्र ओढ़ लो, सिद्धांत ओढ़ लो,
दर्शनशास्त्र ओढ़ लो और अपने चारों तरफ खूब जाल बुन लो तर्क का। मगर
भीतर? भीतर कुछ है--कोई सत्व? कोई सत्य?
अगर नहीं है तो व्यर्थ समय गंवा रहे हो। मौत जल्दी आएगी, एक धक्के में यह झूठा पुतला गिर जाएगा, हंडी फूट
जाएगी, सारा तिलिस्म मिट जाएगा।
जनम-जनम का है अपराधी, कबहूं सांच न बोलै।
जल में बनिया थल में बनिया, घट-घट बनिया बोलै।
और यह जो तुम्हारा मन है, हर जगह तुम्हें पकड़े हुए है--जल में, थल में,
घट-घट में। यह बनिया बोल रहा है।
पलटू के गुरु समरथ साईं, कपट गांठि जो खोलै।
मिल जाए कोई सदगुरु तुम्हें--पलटू
कहते हैं, जैसा मुझे सदगुरु मिला--समर्थ, साईं!
ये शब्द समझने जैसे हैं। कौन है समर्थ
सदगुरु? जिसने स्वयं जाना हो वह समर्थ है। जो उधार शास्त्रों
को दोहरा रहा है वह समर्थ नहीं है। साईं का अर्थ होता है: स्वामी, मालिक। जिसने मालिक को जाना है वह मालिक हो जाता है। उपनिषद कहते हैं: उसे
जो जानता है वही हो जाता है।
जो सदगुरु है, समर्थ है, साईं है, वही
तुम्हारी कपट की गांठ खोल सकता है। वही उतारेगा तुम्हारी अचकन, तुम्हारा कोट और बताएगा कि डंडा भीतर है। वही तुम्हारा नाक-नक्शा, तुम्हारे मुखौटे अलग करेगा और दिखाएगा भीतर की हंडी और कहेगा: कब तक इससे
धोखा खाओगे? असली आदमी की तलाश करो! कब तक कपड़े बदलते रहोगे?
कब तक चेहरे बदलते रहोगे? अपने मूल को खोजो!
अपने स्वरूप को पहचानो!
जिसने खुद की कपट की गांठ खोल ली हो
वही तुम्हारी कपट की गांठ खोल सकता है।
जहां कुमति कै बासा है, सुख सपनेहुं नाहीं।
जब तक कुमति है तब तक न सुख है, न सुख की कोई संभावना है--सपने में भी संभावना नहीं!
फोरि देति घर मोर तोर करि, देखै आपु तमासा है।
और यह जो कुमति है, हमेशा हर चीज को तोड़ देती है--मेरे में, तेरे में;
द्वंद्व खड़ा कर देती है।
फोरि देति घर मोर तोर करि, देखै आपु तमासा है।
तुम तमाशे हो जाते हो। तुम्हारी
जिंदगी एक तमाशा है। तुम्हारी जिंदगी में सत्य नहीं है तब तक, बस सर्कस है।
कलह काल दिन रात लगावै, करै जगत उपहासा है।
और इसी कुमति के कारण रोज झगड़ा हो रहा
है और जगत में उपहास हो रहा है। जागो! बहुत सोए, जागो!
निर्धन करै खाए बिनु मारै, अछत अन्न उपवासा है।
यह कुमति तुम्हें निर्धन बनाए हुए है, भिखमंगा बनाए हुए है।
निर्धन करै खाए बिनु मारै...
तुम्हें खाती भी नहीं और धीरे-धीरे
मार डालती है।
अछत अन्न उपवासा है।
और सब होते हुए तुम्हें भूखा रखती है।
तुम्हारे पास धनों का धन है। मालिक का मालिक तुम्हारे भीतर बैठा हुआ है। प्रभु का
साम्राज्य तुम्हारा है। सब तुम्हारे पास है और फिर भी तुम भूखे मर रहे हो; जैसे कोई सरोवर के बीच में और प्यासा! मरुस्थल में होते और प्यासे होते तो
क्षम्य भी थे। तुम सरोवर के बीच प्यासे हो, क्षमा नहीं किए
जा सकते हो।
पलटूदास कुमति है भोंड़ी, लोक परलोक दोउ नासा है।
इस भोंड़ी कुमति से जागो, पलटूदास कहते हैं। इसने दोनों ही लोक नष्ट कर दिए हैं।
है कोई सखिया सयानी, चलै पनिघटवा पानी।
सुनी तुमने मेरी बात--पलटूदास कहते
हैं--अब है किसी की तैयारी कि चले मेरे साथ?
कबीर कहते हैं कि है किसी की हिम्मत
कि अपने घर को जलाए और हमारे साथ चले?
कबिरा खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर बारै आपना, चलै हमारे साथ।।
कबीर कहते हैं: लट्ठ लिए हुए बाजार
में खड़ा हूं। है किसी की हिम्मत कि अपने घर में आग लगा दे और हमारे साथ चले?
किस घर की बात कर रहे हैं? इसी कुमति का घर। इसी मन बनिया ने जो घर बनाया है, उसी
घर की बात कर रहे हैं। और किस लट्ठ की बात कर रहे हैं? लिए
लुकाठी हाथ! यही तुम्हारी जो हंडी जैसी खोपड़ी है, तोड़ देने
जैसी है। कबीर के हाथ पड़ जाओ तो तुम्हारी खोपड़ी तोड़ी उन्होंने!
है कोई सखिया सयानी...
पलटू कहते हैं, है तुममें कोई सयाना?
चलै पनिघटवा पानी।
तो मैंने पनघट देख लिया है, जहां प्यास बुझ जाती है। आओ, चलो मेरे साथ।
सतगुरु घाट गहिर बड़ा सागर, मारग है मोरी जानी।
और मैं तुम्हें ले चलूं सदगुरु के
पास। मार्ग मेरा जाना हुआ है, उसमें मैं चला हूं।
जब भी कोई सदगुरु बोलता है तो इतनी
प्रामाणिकता से बोलता है। वह यह नहीं कहता कि ऐसा उपनिषद में लिखा है, इसलिए मानो; कि ऐसा महावीर ने कहा है, इसलिए मानो; कि ऐसा बुद्ध ने कहा है, इसलिए मानो। जब कोई सदगुरु बोलता है तो वह कहता है: ऐसा मैंने जाना है। यह
मेरा अनुभव है।
सतगुरु घाट गहिर बड़ा सागर...
तुम प्यासे मरे जा रहे हो और सदगुरु
के घाट पर बड़ा गहरा सागर है।
मारग है मोरी जानी।
और घबड़ाओ मत। मार्ग मेरा जाना हुआ है।
है कोई सखिया सयानी, चलै पनिघटवा पानी।
ले चलूं तुम्हें पनघट पर, पिला दूं तुम्हें जल!
लेजुरी सुरति सबदि कै घैलन...
रस्सी ले आओ सुरति की, स्मृति की, ध्यान की, बोध की,
प्रभु-स्मरण की।
लेजुरी सुरति सबदि कै घैलन...
और शून्य में जो शब्द सुना जाता है, अनाहत जो नाद सुना जाता है, उसका घड़ा ले चलो। ध्यान
की रस्सी, ध्यान में सुने गए संगीत का घड़ा।
लेजुरी सुरति सबदि कै घैलन, भरहु तजहु कुलकानी।
और फिर छोड़ो सब कुल की मान-मर्यादा।
फिर मत कहो कि मैं हिंदू हूं, कि मुसलमान, कि ब्राह्मण, कि शूद्र। अरे जब पनघट पर आ गए तो दिल
भर कर पीओ! अब छोड़ो सब लोकलाज! बनाओ अंजुरी अपने हाथों की और जी भर कर पी लो! अब
कोई अड़चन, बाधा मत डालने देना।
यहां मेरे पास लोग आते हैं। कोई पूछता
है कि मैं कैथलिक ईसाई हूं; आपकी बातें तो जंचती हैं, मगर
मैं ईसाई हूं, कैसे संन्यासी हो जाऊं?
ईसाई हो, इसलिए पनघट पर पानी न पीओगे?
कोई जैन पूछता है कि मैं जैन हूं। बात
तो आपकी पकड़ में आती है, मगर कुल-मर्यादा, वंश-परंपरा
कैसे छोड़ दूं?
तुम्हारी मर्जी। पनघट पर पहुंच कर भी
तुम जैन ही बने रहना, हिंदू बने रहना, मुसलमान बने
रहना! तुम्हें प्यास नहीं बुझानी है?
तुम्हें तो जब तक कोई जैन कुआं न मिले
तब तक तुम न पीओगे! और जैन कुएं होते नहीं। कुएं तो बस कुएं हैं--न हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई। पानी तो बस पानी है। सिर्फ
हिंदुस्तान के स्टेशनों पर हिंदू पानी और मुसलमान पानी होता है, बाकी तो...। बड़ी मजेदार दुनिया है! स्टेशनों पर चलता है...चिल्लाते हुए
लोग--हिंदू पानी, हिंदू चाय! चाय भी हंसती होगी, पानी भी हंसता होगा--कि आदमी भी कितना मूरख! पानी तो बस पानी है।
ठीक कहते हैं: लेजुरी सुरति सबदि कै
घैलन, भरहु तजहु कुलकानी।
छोड़ो सब कुल की, परंपरा की बातें। दिल भर कर पी लो।
निहुरिके भरै घैल नहिं फूटै...
मगर एक बात खयाल रखना, झुक कर भरना तो घड़ा फूटेगा नहीं। और अगर झुक कर न भरा तो घड़ा फूट जाएगा।
झुकना कला है--समर्पण।
निहुरिके भरै घैल नहिं फूटै, सो धन प्रेम-दिवानी।
और जो झुक कर भर लेती है और बिना घड़े
को फोड़े भर लेती है--सो धन प्रेम-दिवानी! वह प्रेम-दीवानी धन्य है।
अचानक तुम देखते हो, भक्तों की वाणी में यह घटता है बार-बार, पुरुष-वचन
से हट जाते हैं, स्त्री-वचन का उपयोग करने लगते हैं! क्योंकि
भक्ति का मार्ग स्त्रैण है। प्रेम का मार्ग स्त्री का मार्ग है।
निहुरिके भरै घैल नहिं फूटै, सो धन प्रेम-दिवानी।
धन्य है वह प्रेम की दीवानी, जो भूल जाती है कुल-मर्यादा और झुक कर भर लेती है।
चांद सुरुज दोउ अंचल सोहैं, बेसर लट अरुझानी।
फिर उसके आंचल में चांदत्तारे चमकने
लगते हैं। सिर तो खो जाता है, लेकिन आकाश की घटाएं उसके केश बन
जाती हैं!
चाल चलै जस मैगर हाथी...
और उसकी चाल--जैसे मस्ताना हाथी चले!
चाल चलै जस मैगर हाथी, आठ पहर मस्तानी।
और जिसने प्रभु के पनघट से पानी पिया
उसकी मस्ती घटती नहीं, कम नहीं होती; उसकी मस्ती बढ़ती
ही जाती है। क्षणभंगुर नहीं है उसकी मस्ती कि अभी है और अभी नहीं; चौबीस घंटे बनी रहती है।
चाल चलै जस मैगर हाथी, आठ पहर मस्तानी।
पलटूदास झमकि भरि आनी, लोकलाज न मानी।
पलटूदास कहते हैं: मेरी सुनो। ऐसी
चिंता मुझे भी पकड़ सकती थी, नहीं पकड़ी।
झमकि भरि आनी...
मैंने तो जैसे ही पनघट पाया, सदगुरु पाया कि झमक कर भर लिया था!
झमकि भरि आनी, लोकलाज न मानी।
फिर मैंने सोचा ही नहीं कि लोग क्या
कहेंगे; वेद क्या कहता है; प्रतिष्ठा
होगी, अप्रतिष्ठा होगी; पागल समझा
जाऊंगा, दीवाना समझा जाऊंगा। फिर मैंने चिंता ही न की थी।
पलटूदास झमकि भरि आनी, लोकलाज न मानी।
तुम भी ऐसा कर सको तो मन बनिया से
छुटकारा हो सकता है। और मन बनिया से छुटकारा चाहिए ही चाहिए! यही भटका रहा है
जन्मों-जन्मों से।
मन से जो मुक्त है, वह परमात्मा से युक्त हो जाता है। मन से जो शून्य है, वह परमात्मा से पूर्ण हो जाता है।
आज इतना ही।
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