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मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

अमृत की दशा-(प्रवचन-08)



अमृत की दशा-ओशो 
प्रवचन—आठवां 


वह वस्तुतः जिसे हम जीवन जानते हैं, वह जीवन नहीं है। जिसे हम जीवन मान कर जी लेते हैं और मर भी जाते हैं, वह जीवन नहीं है। बहुत कम सौभाग्यशाली लोग हैं जो जीवन को अनुभव कर पाते हैं। जो जीवन को अनुभव कर लेते हैं, उनकी कोई मृत्यु नहीं है। और जब तक मृत्यु है, मृत्यु का भय है, और जब तक प्रतीत होता है कि मैं समाप्त हो जाऊंगा, मिट जाऊंगा, तब तक जानना कि अभी जीवन का कोई संधान, जीवन का कोई संपर्क, जीवन का कोई अनुभव नहीं उपलब्ध हुआ है।
एक छोटी सी कहानी से आज की चर्चा को मैं प्रारंभ करना चाहूंगा। बहुत बार उस कहानी को देश के कोने-कोने में अनेक-अनेक लोगों से कहा है। फिर भी मेरा मन नहीं भरता और मुझे लगता है उसमें कुछ बात है जो सभी को खयाल में आ जानी चाहिए।

जीसस क्राइस्ट यात्रा पर थे। जो उन्हें मिला था उसे लुटाने की यात्रा पर थे। और आनंद का स्वभाव है कि वह मिल जाए तो उसे लुटाना अनिवार्य हो जाता है। दुख मनुष्य को सिकोड़ता है और आनंद मनुष्य को फैला देता है। दुख में मनुष्य चाहता है, मैं अपने में बंद हो जाऊं; और आनंद में मनुष्य चाहता है, मैं सब तक पहुंच जाऊं और सब तक फैल जाऊं। इसीलिए आनंद को ब्रह्म कहा है। दुख अहंकार की अंतिम सीमा है; आनंद निर-अहंकारिता की, ब्रह्म होने की।
शायद आपने खयाल किया हो, महावीर और बुद्ध या क्राइस्ट जब दुख में हैं, तब वे जंगल में भाग गए हैं; और जब उन्हें आनंद उपलब्ध हुआ है, वे बस्ती में वापस लौट आए हैं। आनंद बंटना चाहता है, दुख सिकुड़ना चाहता है। दुख अपने में बंद होना चाहता है, आनंद दूसरे तक फैलना चाहता है।
क्राइस्ट को जब आनंद उपलब्ध हुआ, वे उसे बांटने की यात्रा पर निकल गए। वे एक गांव में पहुंचे। सुबह-सुबह ही उस गांव को वे पार करते थे--एक झील के किनारे उन्होंने एक मछुए को मछली मारते देखा। उसने अपना जाल फेंका था और मछलियों की प्रतीक्षा करता था। उसे पता भी नहीं था कि पीछे से कौन गुजरता है। क्राइस्ट ने जाकर उसके कंधे पर हाथ रखा और उससे कहा, मित्र, मेरी ओर देखो! कब तक मछलियां ही मारते रहोगे?
और जो क्राइस्ट ने उससे कहा, मैं हरेक आदमी के कंधे पर हाथ रख कर मेरा भी मन होता है कि पूछूं कि कब तक मछलियां ही मारते रहोगे? इससे क्या फर्क पड़ता है कि रोटियां मार रहे हैं या मछलियां मार रहे हैं! सब मछलियां मारना है। जीवन अधिक लोगों का मछलियां मारने में ही नष्ट हो जाता है।
क्राइस्ट ने उससे पूछा कि कब तक मछलियां मारते रहोगे?
उसने लौट कर देखा, एक झील सामने थी और पीछे इस आदमी की आंखें थीं जो झील से भी ज्यादा गहरी थीं। उसने सोचा कि अब इस जाल को वहीं फेंक दूं और इन आंखों में एक जाल को फेंकूं। उसने जाल वहीं फेंक दिया और क्राइस्ट के पीछे हो लिया। उसने कहा, मैं साथ चलता हूं। अगर कुछ और पकड़ा जा सकता है, उसे पकड़ने को मैं तैयार हूं। यह जाल यहीं फेंक दिया, ये मछलियां यहीं छोड़ दीं।
जिसे धर्म की खोज करनी हो, उसे इतना साहस होना चाहिए कि समय पड़े तो जाल को और मछलियों को फेंक दे।
वह क्राइस्ट के पीछे गया। वे गांव के बाहर भी नहीं निकल पाए, एक आदमी ने आकर उस मछुए को खबर दी कि तुम कहां जा रहे हो? तुम्हारे पिता जो बीमार थे, उनकी रात्रि में मृत्यु हो गई। अभी-अभी वे समाप्त हो गए हैं। लौटो, हम तुम्हें खोजते हुए सब तरफ घूम आए हैं!
वह युवा मछुआ क्राइस्ट से बोला, क्षमा करें, मैं जाऊं और अपने पिता का अंतिम संस्कार करके दो-चार दिन में वापस लौट आऊंगा।
क्राइस्ट ने उसका हाथ पकड़ा और उससे कहा, तुम तो मेरे पीछे आओ। एंड लेट दि डेड बरी देयर डेड। और वे जो गांव के मुर्दे हैं, वे मुर्दे को दफना लेंगे। तुम मेरे पीछे आओ। क्राइस्ट ने कहा, वे जो गांव में बहुत मुर्दे हैं, वे मुर्दे को दफना लेंगे। तुम्हें जाने की कौन सी जरूरत है?
बहुत ही अजीब बात उन्होंने कही और बहुत अर्थपूर्ण भी। निश्चित ही जिन्हें अभी जीवन का पता नहीं है, वे मृत ही हैं। और हमें जीवन का कोई भी पता नहीं है। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह तो क्रमिक मृत्यु का ही नाम है। वह वस्तुतः जीवन नहीं है। हम जिस दिन पैदा होते हैं और जिस दिन हम मर जाते हैं, इन दोनों के बीच में जो फैला हुआ है, वह जीवन नहीं है, वह तो धीमे-धीमे मरते जाने का नाम है। हम रोज मरते जा रहे हैं। जिसे हम जीवन कह रहे हैं, वह रोज मरते जाना है। वह ग्रेजुअल डेथ है।
मौत कोई आकस्मिक घटना थोड़े ही है, वह जन्म के दिन ही शुरू हो गई। जो जन्म का दिन है, वही मृत्यु का दिन भी है। उसी दिन हम मरना शुरू हो जाते हैं। जन्मते नहीं कि मरना शुरू हो जाता है। फिर मौत धीरे-धीरे बड़ी होती जाती है, एक दिन पूरी हो जाती है। जिस दिन पूरी होती है, हम कहते हैं, मौत आ गई। मौत रोज आ रही थी, अन्यथा अचानक कैसे आ जाती? मौत रोज आती गई, एक दिन पूरी हो गई।
जन्म मृत्यु का प्रारंभ है और मृत्यु मृत्यु की परिपूर्णता है। जन्म जीवन की शुरुआत नहीं है और न मृत्यु जीवन का अंत है। जीवन तो जन्म के भी पहले है और मृत्यु के भी बाद है। बस यह जो मृत्यु है और जन्म है, इसके बीच ही जो जीता है, वह जीवित नहीं है। इसके पीछे और पार के जीवन से जो संबंधित हो जाता है, वही केवल जीवित है। और धर्म का संबंध उसी संपर्क, उसी सत्य, जिसका कोई जन्म नहीं होता और कोई मृत्यु नहीं होती, उससे जोड़ने से है। ये दो चरणों की हमने चर्चा की उस जीवन की तरफ जाने के लिए।
मैंने कहा पहले चरण में कि समस्त शास्त्रों से, समस्त सिद्धांतों से, समस्त विचारों से मुक्त हो जाएं। जो विवेक शास्त्र के भार से दबा रहता है, वह विवेक स्वयं की निजता को उपलब्ध नहीं हो पाता। जो विवेक दूसरों के विचार से बोझिल रहता है, वह कभी अपनी विचार-शक्ति को जगा नहीं पाता। जो विवेक दूसरों की संपत्ति को अपनी संपत्ति मान लेता है--महावीर की, कृष्ण की या राम की--उसकी अपनी संपत्ति अनजानी और अपरिचित पड़ी रह जाती है। इसलिए मैंने कहा कि समस्त विचारों से, वे चाहे कैसे भी हों, किन्हीं महापुरुषों के हों, किन्हीं ग्रंथों के हों, किन्हीं शास्त्रों के हों, कितने ही पवित्र शास्त्रों के हों, वे विचार आपके लिए पराए हैं। जो उन विचारों को अपना मान कर जीने की कोशिश करेगा, वह उस विचार-शक्ति से वंचित रह जाएगा जो निरंतर उसके भीतर मौजूद है और प्रकट होना चाहती है, लेकिन बाहर के आए हुए विचार उसे प्रकट नहीं होने देते।
इसके पहले कि किसी का अपना विचार जगे, उसे निर्विचार हो जाना जरूरी है। इसके पहले कि उसे अपनी संपत्ति का पता चले, उसे दूसरों की संपत्ति से खाली हो जाना जरूरी है। स्वाभाविक ही है, स्वाभाविक ही है कि अगर हम दूसरों की संपत्ति को अपनी संपत्ति मानें, तो अपनी संपत्ति की खोज बंद हो जाए। बहुत से लोग शास्त्रों, सत्य के संबंध में कही गई बातों और सिद्धांतों में इस भांति भटक जाते हैं कि उनकी खुद की खोज समाप्त हो जाती है, शून्य हो जाती है।
और स्मरण रखें, मैंने जैसा कहा, सत्य को खोजना हो तो स्वयं ही खोजना होगा। कोई दूसरा उसे किसी को दे नहीं सकता है। सत्य ट्रांसफरेबल नहीं है। सत्य जो है वह एक हाथ से दूसरे हाथ में नहीं दिया जा सकता। अगर दिया जा सकता होता, अब तक सारे लोगों को सत्य मिल गया होता। सत्य दिया नहीं जा सकता, सत्य पाना होता है। सत्य खुद ही पाना होता है। वह स्वयं के श्रम से ही उपलब्ध होता है। और जो दूसरों के श्रम पर विश्वास कर लेते हैं, वे अपने जीवन को गंवा देते हैं। उन्हें कुछ भी उपलब्ध नहीं हो पाता है। इसलिए दूसरों से अपने को मुक्त कर लें, यह मैंने कहा। यह आपका विवेक स्वतंत्र होगा, चित्त मुक्त होगा।
चित्त जिसका परतंत्रता में है, वह सत्य को कैसे जानेगा? यह मैंने पहले चरण में विस्तार से बात की। दूसरे चरण में मैंने कहा कि चित्त सरल हो। और सरलता का मैंने अर्थ नहीं किया कि आप कम कपड़े पहनें या कम भोजन करें तो आप सरल हो जाएंगे। या कि आप घर-द्वार छोड़ दें तो आप सरल हो जाएंगे। सरलता बहुत गहरी बात है। इन छोटी सी बातों से सरलता का कोई विशेष संबंध नहीं है। और यह भी हो सकता है कि बहुत जटिल लोग, जिनका चित्त बहुत जटिल, बहुत कठिन है, जिनका चित्त बहुत कठोर और पत्थर की तरह ग्रंथियों से भरा है, वे लोग भी इस तरह के वेशभूषा के परिवर्तन को कर लें। वे लोग भी कम खाएं, कम कपड़े पहनें, घर-द्वार छोड़ दें। कोई जटिल मनुष्य भी इस भांति की सरलता को थोप सकता है। इस सरलता का कोई मूल्य नहीं है।
सरलता का मैंने अर्थ किया: चित्त द्वंद्व-शून्य हो जाए और चित्त के खंड-खंड हिस्से विलीन हो जाएं और चित्त अखंड हो जाए, इंटीग्रेटेड हो जाए, समग्र हो जाए। मेरे भीतर बहुत से व्यक्ति न रहें, एक व्यक्ति का जन्म हो जाए। मैं इंडिविजुअल हो जाऊं। मेरे भीतर एक स्वर रह जाए। मेरे भीतर प्रेम हो तो घृणा न रहे। घृणा और प्रेम जिसके साथ-साथ हैं, उस आदमी का चित्त सरल नहीं हो सकता। जिस आदमी के भीतर शांति और अशांति दोनों हैं, उस आदमी का चित्त सरल नहीं हो सकता। दोनों में से एक रह जाए तो चित्त सरल हो सकता है। अगर मात्र अशांति रह जाए तो भी चित्त सरल हो जाएगा या मात्र शांति रह जाए तो भी चित्त सरल हो जाएगा।
आप जानते हैं, अगर कोई आदमी इतना अशांत हो जाए कि उसके भीतर शांति का कण भी न रहे, तो भी क्रांति हो जाएगी। उतनी अशांति में भी क्रांति हो जाएगी। उस क्लाइमेक्स पर भी, उस चरम बिंदु पर भी अशांति की अंतिम सीमा पर पहुंच कर एकदम से सब विलीन हो जाएगा और वह चित्त एकदम शांत हो जाएगा। जैसे कोई तीर को चलाता है तो प्रत्यंचा को पीछे खींचता है। तीर को फेंकना तो आगे है, खींचते पीछे हैं। उलटा दिखेगा। कोई आदमी कहेगा, तीर को फेंकना तो आगे है और खींचते पीछे हैं! आगे फेंकना है तो आगे फेंकें, पीछे क्यों खींचते हैं? उलटा क्यों कर रहे हैं? लेकिन अपनी प्रत्यंचा को धनुर्धारी खींचता चला जाता है। एक सीमा आती है अंतिम कि और आगे नहीं खींचा जा सकता। खींचने का अंतिम बिंदु आता है और प्रत्यंचा छूट जाती है, और तीर जो कि पीछे गया था, वह विपरीत दिशा में गति कर जाता है। ठीक वैसे ही अगर चित्त पूरा अशांत हो, तो अशांति के अंतिम बिंदु पर पहुंच कर तीर छूट जाता है और शांति की दिशा में गति हो जाती है।
धन्य हैं वे जो पूरे अशांत हैं, क्योंकि शांति उनका भाग्य होगी। लेकिन हम बहुत अधूरे लोग हैं। हम अशांत पूरे नहीं हैं। हम काफी संतुष्ट हैं और काफी शांत हैं। यह जो बीच का मन है, यह कठिन मन है, यह जटिल मन है। इसमें दोनों हैं। इसमें शांति भी, अशांति भी; प्रेम भी, घृणा भी; और सारी बातें। यह जो द्वंद्व है, यह द्वंद्व सत्य तक नहीं जाने देता। या चित्त पूरा शांत हो जाए, तो जीवन में सत्य का अनुभव हो सकता है।
अतियों पर क्रांति होती है, एक्सट्रीम पर क्रांति होती है। बीच में कोई क्रांति नहीं होती। इसलिए जो मध्य में है, वह हमेशा सत्य से दूर बना रहता है। अति पर क्रांति होती है। दुख का अति मनुष्य को दुख के बाहर फेंक देता है। लेकिन हम कभी अति तक दुखी नहीं होते। हम हर दुख को भुला लेते हैं और हर दुख को समझाने का कोई मार्ग निकाल लेते हैं।
किसी का पुत्र मर गया, वे मेरे पास आए और उन्होंने कहा, मैं बहुत दुखी हूं।
मैंने कहा, और दुखी हो जाएं। पूरे दुखी हो जाएं, क्रांति हो जाएगी।
नहीं, लेकिन वे बोले कि क्या आप बताएंगे मुझे कि मेरा जो लड़का मर गया उसकी आत्मा अमर है?
मैंने कहा, आप तरकीबें खोज रहे हैं, जिससे कि दुख जो है वह क्षीण हो जाए। अगर कोई आपको विश्वास दिला दे कि पुनर्जन्म होता है, लड़का मरा नहीं, कोई घबड़ाने की बात नहीं, आत्मा उसकी अमर है, उसका दूसरी जगह जन्म हो गया, आप निश्चिंत हो जाएंगे। दुख बीच में रुक जाएगा और कोई क्रांति नहीं होगी। दुख को आप समझा लेंगे। समझौता कर लेंगे।
अनेक लोग पूछते फिरते हैं कि पुनर्जन्म है क्या? वे इसलिए नहीं पूछ रहे हैं कि पुनर्जन्म में उन्हें कोई उत्सुकता है। वे इसलिए पूछते हैं, रोज जो मरते हुए देखते हैं लोगों को, तो उनको डर लगता है कि कहीं मुझे भी न मरना पड़े। तो वे पूछते आते हैं कि पुनर्जन्म है क्या? अगर विश्वास दिला दें तो वे आपके पैर छुएंगे, कहेंगे कि आप बड़े महात्मा हैं, बड़े साधु हैं। आपने मेरा चित्त शांत किया।
चित्त शांत नहीं किया। इस आदमी ने अपने भीतर समझौता कर लिया। यह मृत्यु को देख कर दुखी हो सकता था। उस दुख से बच गया। वह दुख क्रांति ला सकता था। यह पुनर्जन्म का सिद्धांत कोई क्रांति नहीं लाएगा।
हम जीवन में हमेशा बीच में रुक जाते हैं। किसी चीज को उसकी अति तक नहीं पहुंचने देते। मैं आपसे कहता हूं, क्रोध ही करना है तो पूरा कर लें। देखें, पूरे क्रोध में एक क्रांति हो जाएगी। पूरे क्रोध के बिंदु पर आप पाएंगे कि क्रोध तो विलीन हो गया। वाष्पीकरण के बिंदु होते हैं। जैसे कोई पानी को गरम करे तो वह सौ डिग्री पर जाकर भाप हो जाता है। लेकिन पचास ही डिग्री पर रुक जाए, तो न तो पानी पानी रहा और न भाप हो पाया, वह केवल उत्तप्त होकर रह गया।
तो मैंने कहा कि जीवन की सरलता पैदा होती है किसी एक बिंदु के केंद्र पर सारे जीवन के आ जाने से, एक अद्वंद्व की स्थिति आ जाने से। उसकी मैंने चर्चा की कि जीवन अखंड हो। वह कैसे हो सकता है, उसको मैंने आपको दूसरे चरण में समझाया। और आज मैं तीसरे चरण पर आपसे बात करना चाहता हूं कि चित्त, जो चित्त स्वतंत्र हो गया है और जो चित्त सरल हो गया है, वह चित्त अगर शून्य भी हो जाए, तो सरलता, स्वतंत्रता और शून्यता के मिलने से समाधि उपलब्ध हो जाती है। कैसे हमारा चित्त शून्य हो सकता है? और शून्य का क्या अर्थ है? शून्य का क्या अर्थ है?
शून्य का अर्थ है: हम अपने भीतर अपने होने से बहुत भरे हुए हैं। हम अपने मैं से, अपने अहंकार से बहुत भरे हुए हैं। चौबीस घंटे उसी से भरे हुए हैं। कभी अपने भीतर खोज करें। आपके उठने में आपका अहंकार है; आपके वस्त्र पहनने में आपका अहंकार है; आपके चलने में आपका अहंकार है; आपके मकान बनाने में आप केवल छाया के लिए थोड़े ही मकान बनाते हैं, उसमें भी अहंकार है। वह बगल वाले का मकान छोटा करने को भी मकान बनाते हैं। आप वस्त्र कोई शरीर को ढंकने को थोड़े ही पहनते हैं, उसमें भी अहंकार है, दूसरों के वस्त्रों को फीका करने के लिए पहनते हैं। आप जो भी कर रहे हैं चौबीस घंटे, आपकी अहमता उससे विकीर्ण हो रही है। चौबीस घंटे आपका मैं...
यहां तक हद हो जाती है, एक आदमी धन इकट्ठा करता है, इसलिए कि उसके अहमता की पुष्टि मिल जाए। आखिर कौन, धन इकट्ठा करने में कौन सा रस होगा? हां, धन की एक उपयोगिता है, वहां तक भी समझ में आता है। लेकिन धन तो उस सीमा पर भी इकट्ठा किया जाता है, जहां उसकी कोई उपयोगिता नहीं है।
मैं कल ही बात करता था। एंड्रू कारनेगी मरा। अमरीका का एक करोड़पति मरा। तो कोई तीन अरब की संपत्ति छोड़ गया। तीन अरब की क्या उपयोगिता हो सकती है? यानी क्या करेगा तीन अरब का कोई आदमी? जरूर धन की उपयोगिता है--वस्त्र के लिए, भोजन के लिए, जीवन को चलाए जाने के लिए उसकी उपयोगिता है। लेकिन तीन अरब की क्या उपयोगिता है? फिर भी आप हैरान होंगे। कारनेगी दुखी मरा। क्योंकि वह सोचता था, केवल तीन ही अरब तो! दस के उसके इरादे थे। उसने मरते वक्त कहा, जो उसका चरित्र लिख रहा था, उस लेखक को उसने कहा। लेखक ने उससे पूछा कि आप तो संतुष्ट मरते होंगे? कारनेगी ने कहा, संतुष्ट? मेरे दस के इरादे थे, मात्र तीन ही मैं इकट्ठा कर पाया और जीवन बीत गया।
और यह पक्का समझिए कि इसे दस भी मिल जाते तो इसके इरादे सौ के हो गए होते और यह कहता कि बस केवल दस! वह जो दस रुपये जिसके पास हैं, वह जैसा कहे कि केवल दस रुपये! वैसा ही वह भी कहता है जिसके पास दस अरब रुपये हैं। वह कहता है, केवल दस अरब! लेकिन इसकी उपयोगिता क्या है?
रुपये की उपयोगिता थोड़ी दूर के बाद समाप्त हो जाती है और अहंकार की उपयोगिता शुरू हो जाती है। फिर रुपये का उपयोग नहीं है, फिर अहंकार के भरने के लिए रुपया सहयोगी है। जितना मेरे पास है, उतना मैं बड़ा आदमी हो जाता हूं। उतना मेरा मैं बड़ा हो जाता है, विराट हो जाता है, मजबूत हो जाता है। बड़े पद की खोज अहंकार की खोज है, और क्या है? जीवन में प्रथम होने की खोज अहंकार की खोज है, और क्या है? हैरान होंगे आप, धन की खोज अहंकार की खोज है और अनेक बार त्याग की खोज भी अहंकार की खोज ही होती है। वह जिस आदमी के पास बहुत है, वह अगर उसको छोड़ दे, तो वह यह कहना शुरू कर देता है कि मैंने इतने बहुत को छोड़ा। मैं एक साधु के पास था। वे मुझसे कहते थे, मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी। मैंने दो-चार दफा उनसे सुना। फिर थोड़ा मैंने कहा कि मैं पूछूं कि यह लात कब मारी? तो मैंने उनसे पूछा। वे बोले, कोई बीस साल हो गए। मैं थोड़ा हैरान हुआ। मैंने कहा, बीस साल हो गए और यह बात भूलती नहीं है, तो लात ठीक से नहीं लग पाई। यह बात अब याद रखने की कौन सी जरूरत है? इसका क्या प्रयोजन है, कि आप इस बात को रखे रहें मन में कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी है? क्या यह वह पुराना अहंकार ही नहीं है जो कहता था मेरे पास लाखों हैं, अब वह कह रहा है कि मैंने लाखों को लात मार दी? क्या वही अहमता, वही मैं, क्या वही मैं जो रुपये से भरता था, वही मैं रुपये के त्याग से नहीं भर गया है? और अगर भर गया है तो बीस साल व्यर्थ चले गए। उनका कोई उपयोग नहीं हुआ।
मैंने कहा, यह लात पूरी लग नहीं पाई। स्मरण में आपको लगता है कि रुपयों को मैंने लात मारी। निश्चित रुपये का मूल्य आपको अभी भी मालूम हो रहा है!
अब जो रुपया पास में नहीं है, उसका क्या मूल्य होगा? उसकी क्या उपयोगिता होगी? यानी एक आदमी के पास लाख रुपये हैं, तो हम समझ भी सकते हैं कि उसके लिए कोई उपयोगिता होगी। एक आदमी कहता है कि मैंने लाखों पर लात मार दी। अब तो उसके पास रुपये नहीं हैं। लेकिन जो रुपया नहीं है उसकी स्मृति का अब क्या लाभ है? उसका भी लाभ है। उसका लाभ है, अहंकार की परिपूर्ति उससे हो रही है। मैंने! मैंने लाखों पर लात मारी है! और मैं उन लोगों से बड़ा हो गया जो लाखों को पकड़े बैठे हैं! इसलिए हम साधु को बड़ा कहते हैं गृहस्थ से, क्योंकि वह लात मारता है। और साधु भी अपने को समझ ले कि मैं बड़ा हूं, तो भूल हो जाती है। क्योंकि वह तो मामला गृहस्थ हो गया। वापस वह वही का वही आदमी हो गया। क्योंकि उसकी बुद्धि का केंद्र तो वही अहंकार हो गया।
तो सवाल धन का और पद का ही नहीं, सवाल धन और पद के त्याग का भी है। प्रश्न असल में, आपके पास क्या है, इसका नहीं है। प्रश्न असल में यह है कि आप उस क्या से अपने अहंकार को तो नहीं भर रहे हैं? जो है उससे और जो नहीं है उससे, दोनों से अहंकार भर सकता है। जो आपने पाया उससे और जो आपने छोड़ा उससे, दोनों से अहंकार भर सकता है।
शून्य का अर्थ है: इस अहंकार से शून्य हो जाना। इसलिए दुनिया में धन के त्याग को मैं त्याग नहीं कहता। घर के त्याग को मैं त्याग नहीं कहता। पद के त्याग को मैं त्याग नहीं कहता। क्योंकि ये सब त्याग होकर भी यह हो सकता है कि जिस चीज की ये पूर्ति करते थे, उसी की पूर्ति इनका त्याग भी करता हो। सिर्फ एक चीज के त्याग को मैं त्याग कहता हूं और वह अहमता है। और किसी चीज के त्याग को मैं त्याग नहीं कहता। सिर्फ अहमता के त्याग को मैं त्याग कहता हूं। सिर्फ अहमता के न हो जाने को मैं त्याग कहता हूं।
लेकिन क्या करेंगे? समझ में यह बात आ जाए कि अहंकार बुरा है। कितने दिनों से यह शिक्षा दी गई है कि अहंकार बुरा है और अहंकार पाप है और अहंकार छोड़ना चाहिए। क्या करेंगे? अगर यह समझ में भी आ जाए कि अहंकार बुरा है तो क्या करेंगे? आप छोड़ने में लग जाएंगे कि मैं अहंकार को छोडूं। यह बड़ा पागलपन हो जाएगा। कौन अहंकार को छोड़ेगा? अहंकार ही न, वही मैं। तो आप उस भूल में पड़ जाएंगे जैसे एक कुत्ता अपनी पूंछ को पकड़ने की कोशिश में लगा हो। वह उचकता है और पूंछ उचक जाती है। वह फिर उचकता है। फिर वह बड़ा हैरान हो जाता है कि मैं अपनी पूंछ को नहीं पकड़ पाता, क्या बात है? जितना वह नहीं पकड़ पाता है, उतना ही दौड़ता है, उतनी ही मुश्किल हो जाती है। कुत्ता अपनी पूंछ को नहीं पकड़ सकता, अहंकार अहंकार को नष्ट नहीं कर सकता है।
अहंकार को विनाश करने के लिए अनेक लोग उत्सुक होते हैं कि अहंकार चला जाए। लेकिन जितनी वे चेष्टा करते हैं, अहंकार उनके डर के कारण उतना सूक्ष्म होता चला जाता है, पीछे सरकता जाता है। ऊपर से विलीन हो जाता है, भीतर बैठ जाता है। और ऊपर का अहंकार बेहतर, भीतर का अहंकार बहुत घातक। क्योंकि ऊपर का दिखता है, भीतर का दिखता नहीं। वह बहुत भीतर सरकता जाता है। साधु में, संन्यासी में, जिसको हम कहते हैं, उसमें जो अहंकार की सूक्ष्मता है, वह सामान्यजन में भी नहीं होती। इसीलिए दुनिया के साधु एक-दूसरे से नहीं मिल पाते। उनके बीच दीवाल खड़ी है। कौन सी दीवाल? गृहस्थ के बीच तो मकानों की दीवालें हैं, समझ में आता है। लेकिन साधुओं के बीच कौन सी दीवाल है जिनके कोई मकान नहीं हैं? गृहस्थों के बीच तो खैर मकानों की दीवालें हैं। पड़ोसी के पास कैसे जाएं? बीच में दीवाल है। लेकिन साधुओं के पास कौन सी दीवालें हैं?
लेकिन साधुओं के पास और सूक्ष्म दीवालें हैं। उनके अहंकार की दीवालें हैं। तो ये मिट्टी की दीवालें तो खोद कर फेंक दी जाएं आधा घंटे में, लेकिन अहंकार की दीवालों को खोदने में जन्म-जन्म लग जाते हैं। वे बहुत सूक्ष्म होकर पकड़ लेती हैं।
अहमता को सीधा नष्ट नहीं किया जा सकता। और जो अहंकार को सीधा नष्ट करने में लगेगा, वह भूल में पड़ जाएगा। अहंकार सूक्ष्म हो जाएगा, अचेतन हो जाएगा, अनकांशस हो जाएगा, भीतर बैठ जाएगा। उसके रास्ते ऊपर से दिखाई पड़ने बंद हो जाएंगे और उसकी जड़ें भीतर प्रविष्ट हो जाएंगी और वह पूरी आत्मा को ग्रसित कर लेगा, पूरी आत्मा को पकड? लेगा।
एक छोटी सी कहानी कहूं। उससे समझ में आएगा कि निर-अहंकारी आदमी से मेरा क्या अर्थ है। और फिर मैं समझाऊं कि कैसे निर-अहंकार उत्पन्न हो सकता है। तो शून्यता समझ में आ जाएगी।
एक गांव के बाहर एक युवा संन्यासी बहुत दिन तक ठहरा था। युवा सुंदर था। बहुत लोग उसे प्रेम करते और बहुत लोग उसे आदर करते। बहुत उसका सम्मान था और उसके विचार का बहुत प्रभाव था। बड़ी क्रांति की उसकी दृष्टि थी और जीवन में बड़ा बल था। और अचानक एक दिन सब बदल गया। वे ही लोग, जो गांव के उसे आदर करते थे, उन्हीं ने जाकर उसके झोपड़े में आग लगा दी; और वे ही लोग, जो उसके पैर छूते थे, उन्होंने ही जाकर उसके ऊपर चोटें कीं; और जिन्होंने उसे सम्मान दिया था, वे ही उसे अनादर देने को तैयार हो गए।
अक्सर ऐसा होता है। जो सम्मान देते हैं, वे सम्मान देने का बदला किसी भी दिन अपमान करके ले सकते हैं। इसलिए सम्मान करने वाले से बहुत डरना पड़ता है, क्योंकि वे उसका बदला चुकाएंगे किसी दिन। सम्मान देने में उनके अहंकार को चोट लगी है। किसी को सम्मान दिया है; किसी को ऊपर माना है। उनके बहुत गहरे तल पर तो उन्हें बहुत चोट लगी है। इसका बदला वे किसी भी दिन ले सकते हैं। कोई छोटी सी बात; इसका बदला वे ले सकते हैं। इसलिए उस आदमी से बहुत डरना पड़ता है जो सम्मान देता हो, क्योंकि किसी दिन वह पोटेंशियल अपमान करने वाला है। किसी भी दिन वह अपमान कर सकता है। वह किसी भी दिन बदला लेगा इस बात का।
एक व्यक्ति मेरे पास आए और उन्होंने मेरे पैर छुए। मैंने उनसे कहा, पैर मत छुएं, इसमें खतरा है।
वे बोले, क्या बात है?
खतरा केवल इतना है कि किसी दिन इसका बदला ले सकते हैं। आज पैर छुआ है, कोई छोटा सा मौका मिल जाए तो मेरे सिर को तोड़ने के लिए लकड़ी भी उठा सकते हैं।
उस युवा को बहुत सम्मान दिया था गांव के लोगों ने। फिर एक दिन सुबह जाकर उसका अपमान किया। बात यह हो गई, गांव में एक लड़की को बच्चा हो गया और उसने कहा कि वह संन्यासी का बच्चा है। स्वाभाविक था कि वे अपमान करते। स्वाभाविक था कि वे अपमान करते। बिलकुल ही स्वाभाविक था। अब इसमें कौन सी गड़बड़ थी? यह तो वे ठीक ही कर रहे थे गांव के लोग। वे उस बच्चे को ले गए और जाकर उस युवा संन्यासी के ऊपर पटक दिया। उस संन्यासी ने पूछा कि बात क्या है? क्या मामला है?
वे बोले कि मामला हमसे पूछते हो? यह बच्चे के चेहरे को देखो और पहचानो कि मामला क्या है! मामला तुम जानते हो। तुम नहीं जानोगे तो कौन जानेगा? यह बच्चा तुम्हारा है।
उस संन्यासी ने कहा, इज़ इट सो? ऐसी बात है? बच्चा मेरा है?
वह बच्चा रोने लगा तो वह संन्यासी उसको, उस बच्चे को चुप कराने में लग गया। गांव के लोग आए और गए। वे उस बच्चे को वहीं छोड़ गए। अभी सुबह थी। फिर उस बच्चे को लेकर वह गांव में भिक्षा मांगने गया, जैसे रोज गया था। लेकिन आज उसे कौन भिक्षा देता? वे जो सम्मान में करोड़ों दे सकते हैं, अपमान में रोटी का एक टुकड़ा भी नहीं दे सकते। कौन उसे रोटी देता? जहां वह गया, द्वार बंद कर दिए गए। जिस द्वार पर उसने आवाज दी, वह दरवाजा बंद हो गया और लोगों ने कहा, आगे हो जाओ। और पीछे भीड़ थी।
एक बच्चे को लेकर किसी संन्यासी ने शायद जमीन पर कभी भीख न मांगी होगी। वह बच्चा रोता था और वह भीख मांग रहा था। वह बच्चा रो रहा था और वह संन्यासी हंस रहा था, उन लोगों पर जिनका इतना आदर था और जिनका इतना प्रेम था। वह उस द्वार पर भी गया, जिस घर का वह बच्चा था, जिस घर की बच्ची का वह लड़का था। उसने वहां भी आवाज दी और उसने कहा कि मेरी फिकर छोड़ दें, कसूर भी होगा तो मेरा होगा, इस बच्चे का कौन सा कसूर है? इसे कुछ दूध मिल जाए।
उस लड़की को सहना मुश्किल हो गया जिसका वह बच्चा था। उसने अपने पिता से कहा, मुझे क्षमा करें। मैंने झूठ बोला। उस संन्यासी का तो मुझसे कोई परिचय भी नहीं है। उस बच्चे के असली बाप को बचाने के लिए मैंने ऐसा कह दिया। मैंने सोचा था कि थोड़ा कुछ कहा-सुनी करके आप वापस लौट आएंगे। बात यहां तक पहुंच जाएगी, यह मेरी कल्पना के बाहर था।
घर के लोग घबड़ा गए कि यह क्या हुआ? यह तो बड़ी भूल हो गई। यह तो बड़ा मुश्किल हो गया। वे नीचे भागे आए, वे उसके पैर पर फिर गिर पड़े, उसके पैर पड़ने लगे, बच्चे को उसके हाथ से लेने लगे। उसने कहा, क्या मामला है? बात क्या है?
उन्होंने कहा, यह बच्चा आपका नहीं है।
उसने कहा, इज़ इट सो? ऐसी बात है कि बच्चा मेरा नहीं? आप ही तो सुबह कहते थे कि बच्चा आपका है!
यह आदमी है निर-अहंकार। लोगों ने उससे कहा, तुम कैसे पागल हो? सुबह क्यों नहीं कहा कि बच्चा मेरा नहीं है?
उसने कहा, क्या फर्क पड़ता था? बच्चा जरूर किसी का होगा! मेरा भी हो सकता है! यानी यह बच्चा किसी का तो होगा ही! कोई न कोई इसका बाप होगा ही! अब तुम मुझे तो गाली दे ही चुके, अब एक और आदमी को गाली दोगे। क्या फायदा? मेरा मकान जला ही चुके, अब एक आदमी का और जलाओगे। क्या फायदा है? तो मैंने कहा कि इसमें फर्क भी क्या पड़ता है! और अच्छा ही हुआ। तुम्हारे सम्मान, तुम्हारी श्रद्धा की भी मुझे गहराई पता चल गई। तुम्हारी बातों का भी मुझे मूल्य पता चल गया। अच्छा ही हुआ। इस बच्चे ने मुझ पर बड़ी कृपा की। मुझे कुछ बातें दिखाई पड़ गईं।
उन्होंने कहा, तुम बिलकुल ही पागल हो! इतना इशारा भर कर देते कि मेरा नहीं है, तो सब मामला बदल जाता।
उसने कहा, क्या फर्क पड़ता था? मेरी इज्जत ही बिगड़ रही थी न! तो क्या मैं इज्जत के लिए साधु हूं? रिसपेक्टबिलिटी के लिए? तुम्हारा आदर मिले इसलिए? तुम्हारे आदर-अनादर का भाव छोड़ा, उसी से तो मैं साधु हूं। तुम्हारे आदर-अनादर को विचार करके मैं कुछ करूं तो फिर मैं कैसा साधु हूं?
असल में भीतर मैं का भाव जिसका विलीन हो जाए, वही साधु है। और मैं का भाव विलीन हो जाना सीधा नहीं होता। कुछ और रास्ते से परोक्ष होता है, इनडायरेक्ट होता है। कैसे इनडायरेक्ट होता है? मैं के भाव को विलीन करने के लिए सबसे पहली साधना का अंग है--हम मैं को खोजें कि वह कहां है?
महर्षि रमण ने कहा है कि तुम पूछो कि मैं कौन हूं? मैं कहता हूं, यह मत पूछना। मैं यह कहता हूं कि पूछना कि मैं कहां हूं? अपने चित्त में खोजें हम कि मैं कहां है? अपनी देह में हम खोजें कि मैं कहां है? आपको कहीं भी मिलेगा नहीं। अगर आप शांत बैठ कर खोजें कि मैं कहां हूं? तो आप खोजते रहेंगे और कोई बिंदु नहीं मिलेगा जहां आपको लगे कि यहां मैं हूं। अपने भीतर खोज लेने पर कहीं मैं उपलब्ध नहीं होगा।
चीन में एक राजा था, वू। और भारत से एक संन्यासी चीन गया, बोधिधर्म। जब बोधिधर्म चीन पहुंचा तो वू उसका स्वागत करने को राज्य की सीमा पर आया। और उस वू ने कहा कि मैंने इतने-इतने विहार बनवाए; इतने मंदिर, भगवान की इतनी मूर्तियां प्रतिष्ठित की हैं; इतने-इतने संन्यासी, इतने-इतने भिक्षु मैंने तैयार किए; इतने विद्यालय खोले; इतना दान किया; इतना पुण्य किया; इस सबका क्या फल होगा?
बोधिधर्म ने कहा, फल पूछा, सब निष्फल हो गया। फल की कामना की, सब व्यर्थ हो गया। न वह दान है, न वह कुछ है; वह सब अधर्म हो गया। जहां फल की कामना है, वहीं अधर्म है, वहीं पाप है। यह पूछा कि सब निष्फल हो गया। चुप रह जाते, न पूछते, न भीतर भाव उठता, तो बहुत फल था।
वू ने कहा, बोधिधर्म आदमी अदभुत मालूम होता है। शायद इससे कुछ हो। उसने कहा, मेरा मन बहुत अशांत है। क्या कोई रास्ता हो सकता है कि मेरा मन शांत हो जाए?
बोधिधर्म ने कहा, सुबह चार बजे आ जाना अकेले में। शांत कर देंगे।
और भी हैरान हुआ कि अजीब संन्यासी है। बहुत से संन्यासियों से पूछा, तो वे बातचीत तो बहुत करते हैं, कोई यह नहीं कहता कि शांत कर ही देंगे। जब वह उतर कर जाने लगा, सीढ़ियों पर था, तो बोधिधर्म ने कहा कि सुन, मन को खयाल से साथ ले आना, घर मत भूल आना! और नहीं तो अकेले खाली हाथ आ जाओ तो मैं किसको शांत करूंगा? मन को साथ ले आना तो मैं शांत कर दूंगा। नहीं तो बस सुबह आ जाओ। कई पागल मेरे पास आते हैं कि मन शांत करना है। मैं उनसे कहता हूं आ जाना, तो वे खाली हाथ आ जाते हैं। वे मन को लाते ही नहीं। देख, मन को साथ लेते आना।
वह वू और भी हैरान हुआ। कि मैं जब आऊंगा तो मन तो आएगा ही। इसमें पूछने और कहने की क्या बात है?
सुबह वह बहुत सोचा-विचारा और आया। जब वह आया तो आते से ही बोधिधर्म ने कहा, लाए? मन ले आए?
वह बोला, आप कैसी बातें करते हैं? मन तो मेरे साथ है।
तो उसने कहा, आंख बंद करो और खोजो--कहां है? अगर वह स्थान मिल जाए जहां मन है, तो मैं शांत कर दूंगा। अब तुम मन को ही न पकड़ सको, तो मैं क्या करूंगा?
उसने बहुत खोजा। जैसे ही उसने आंख बंद की और वह खोजने में लगा, उसने पाया, वहां तो कोई मन मिलता नहीं। उसने बहुत खोजा, बहुत खोजा, वहां कोई मन न था और एकदम सन्नाटा था। उसने आंख खोली, उसने कहा, मैं बड़ी मुश्किल में हूं, वहां तो कुछ मिलता नहीं।
तो बोधिधर्म ने कहा, हो गया शांत। जो मिलता ही नहीं वह अशांत कैसे होगा?
असल में तुमने कभी भीतर जाकर नहीं देखा। तुम्हारा बाहर होना ही तुम्हारे मन की उत्पत्ति है और अगर तुम भीतर जाकर खोजो तो वहां कोई मन नहीं है। हमारा बाहर होना हमारे मैं की उत्पत्ति है। अगर हम भीतर जाकर खोजें, वहां कोई मैं नहीं है, वहां कोई अहमता नहीं है। हमारे बाहर होने की छाया से, शैडो, चूंकि हम चौबीस घंटे बाहर दौड़ रहे हैं, तो एक छाया उत्पन्न होती है और उस छाया से मैं का पता चलता है।
आपने देखा होगा, रास्ते पर आप जाएं तो एक छाया आपके पीछे दौड़ती हुई मालूम पड़ेगी। लेकिन आपको पता है क्या कि जिस क्षण आपने पहला कदम सड़क पर रखा, जो छाया आपके पीछे चली, वही छाया घंटे भर बाद भी आपके पीछे है? वही छाया पीछे नहीं है। छाया प्रतिक्षण दूसरी बनती जा रही है। छाया कहां आपके पीछे जाएगी? छाया तो प्रतिक्षण दूसरी किरणें आप पर पड़ रही हैं, इसलिए दूसरी छाया बनती जा रही है। आप एक इंच हटते हैं कि दूसरी छाया बनती है। वही छाया नहीं है जो आपने पहली दफा देखी। घंटे भर आप यात्रा करते हैं तो हर क्षण दूसरी छाया बनती जाती है। लेकिन घंटे भर बाद आप कहते हैं कि मेरी छाया मेरा पीछा कर रही है। बिलकुल झूठी बात। छाया वह है ही नहीं। छाया हर क्षण नई होती जा रही है। कोई छाया आपका पीछा नहीं कर रही है। वह तो आप धूप में खड़े हैं इसलिए हर क्षण छाया बन रही है। आप आगे हट जाएंगे, दूसरी छाया बन जाएगी; और आगे हटेंगे, तीसरी छाया बनेगी। आप बढ़ते जाते हैं, छाया बनती जाती है। छाया आपका पीछा नहीं कर रही है।
ऐसे ही जीवन के व्यवहार में और बाहर के जगत में हम निरंतर सक्रिय हैं। उस सक्रियता से एक छाया बनती है जो प्रतिक्षण बदलती जा रही है। लेकिन उसका प्रतिक्षण बदलना हमें दिखाई नहीं पड़ता और हमें एक भ्रम पैदा होता है कि मैं हूं। मैं होने का भ्रम, मैं होने का भाव, बाहर के जगत में हमारा जो संबंध है उससे पैदा हुई छाया है। यह मैं हम पकड़ लेते हैं। इसे भीतर खोजें, भीतर कोई मैं नहीं मिलेगा। भीतर कितना ही खोजें, कोई मैं नहीं मिलेगा। वहां कोई छाया नहीं है। वहां कोई क्रिया नहीं है। वहां किसी से कोई संबंध नहीं है। वहां कोई सूर्य नहीं है जिससे कि छाया बन जाए। घर के बाहर निकलते हैं, छाया बन जाती है। घर के भीतर आते हैं, छाया विलीन हो जाती है।
एक आदमी घंटे भर बाहर घूमता रहे, फिर घर में आकर किसी से कहे, एक छाया मेरा पीछा कर रही है। तो वह कहेगा कि बताओ कहां है? घर के भीतर कोई छाया नहीं है। घर के बाहर छाया है। दूसरों से संबंधित होने से जो छाया पैदा होती है, रिलेशनशिप से जो छाया पैदा होती है, वही मैं का भाव है।
जब मैं आपको देखता हूं, तो मुझे लगता है, आप हैं। जब मैं आपको देखता हूं, मुझे लगता है, आप हैं। जब मैं सारी दुनिया को देखता हूं, मुझे दिखता है कि यह सब है। इस सबकी वजह से मुझे लगता है, मैं हूं। मैं का जो छायाभाव है, वह तू की वजह से पैदा हो जाता है। जहां तू है, वहां मैं है। लेकिन अगर मैं भीतर जाऊंगा, वहां तो कोई तू नहीं है, तो वहां मैं कैसे हो सकता है? मेरी आप बात समझ रहे हैं? जब मैं तू के सामने खड़ा हूं तो तू की वजह से मैं का भाव पैदा हो रहा है कि मैं हूं। और जब मैं भीतर जाऊंगा तो वहां तो कोई तू नहीं है। तो वहां जब कोई तू नहीं है तो मैं कैसे पैदा होगा? तू के न होने से मैं पैदा नहीं होता। वहां मैं नहीं है। लेकिन हम जीवन भर बाहर बिता देते हैं। इसलिए लगता है कि मैं हूं।
और फिर यह जो मैं बिलकुल ही काल्पनिक है, यह जो मैं तू की वजह से तू के रिएक्शन में, उसकी प्रतिक्रिया में पैदा हुआ; यह जो बाहर के संबंधों से पैदा हुई छाया है, इस छाया को हम बढ़ाने में लग जाते हैं। इसे बड़े पद पर होना चाहिए, बहुत धन होना चाहिए, इसके पास बड़ा मकान होना चाहिए, इसके पास यह होना चाहिए, वह होना चाहिए। इस मैं को, जो कि बिलकुल काल्पनिक और झूठा है, जो कि केवल एक प्रतिध्वनि है तू की, उस प्रतिध्वनि को सम्हालने में जीवन लगा देते हैं। निश्चित ही आप असफल हो जाएंगे। कोई आदमी अपनी छाया को वस्त्र पहनाने में लग जाए; कोई आदमी अपनी छाया के लिए मकान बनाने में लग जाए; कोई आदमी अपनी छाया के लिए धन इकट्ठा करने में लग जाए; आखिर में पाएगा कि सब पड़ा रह गया, छाया नहीं है। और तब जो दुख और पीड़ा मन को पकड़ती है, वही संताप है, वही असंतोष है, वही असफलता है, वही फ्रस्ट्रेशन है।
मैं यह जो कह रहा हूं कि यह जो तू से पैदा हुई मैं की छाया है, इसको भीतर जाएं और देखें। यह मत पूछें कि मैं कौन हूं? यह पूछें कि मैं कहां हूं? आप बहुत खोजेंगे और पाएंगे कि मैं तो कहीं भी नहीं है। और अगर मैं कहीं भी नहीं है तो आपके जीवन में एक क्रांति हो जाएगी। मैं को भरने के सब उपाय व्यर्थ मालूम होने लगेंगे। मैं के लिए पद और मैं के लिए धन और मैं के लिए त्याग व्यर्थ हो जाएंगे। जो है नहीं, उसके लिए कुछ भी करना व्यर्थ हो जाएगा। मैं से ज्यादा असत्य, मैं से ज्यादा झूठ, मैं से ज्यादा भ्रामक और कोई बात नहीं है। उससे ज्यादा इल्यूजरी और कुछ भी नहीं है। मैं ही एकमात्र माया है। और अगर मैं शून्य हो गया, नहीं पाया गया, तो क्या होगा? तो जिसके दर्शन होंगे, वही सत्य है, वही आत्मा है, वही परमात्मा है। मैं की छाया के विलीन हो जाने पर जिसके दर्शन होंगे, वही है--वही है सत्य; वही है मेरा स्वरूप; वही है आत्यंतिक रूप से मेरा होना, मेरा बीइंग, मेरा आथेंटिक बीइंग, मेरी वास्तविक सत्ता, मेरी आत्मा। और यह मैं शून्य करने के लिए आपको धन छोड़ने की, वस्त्र बदलने की नहीं, आपको खोजने की जरूरत है कि मैं है भी? जिस मैं को आप छोड़ने जा रहे हैं, अगर वह है ही नहीं, तो पागलपन हो जाएगा।
जानना है कि मैं है? अगर मैं नहीं है, तो छोड़ने का कोई प्रश्न नहीं है। इसलिए मैंने कहा, अहंकार छोड़ने का कोई प्रश्न नहीं है। छोड़ने वाला और अहंकार से भर जाएगा। वह तो छाया से लड़ रहा है। वह तो जो नहीं है, उससे लड़ रहा है। जो नहीं है, उसको हराया नहीं जा सकता लड़ कर। जो नहीं है, उससे तो हारना ही पड़ेगा। मेरी आप बात समझ लें। जो नहीं है, अगर उससे लड़ने चले, तो हारना ही पड़ेगा। क्योंकि जो नहीं है, उसे हराया तो जा ही नहीं सकता। अंत में आप पाएंगे कि आप हार गए हैं। जो नहीं है, उससे लड़ना व्यर्थ है। असल में जानने की जरूरत है कि है भी? इसके पहले कि मैं सोचूं कि मैं निर-अहंकार हो जाऊं, मुझे जानना चाहिए: अहंकार कहां है? है कहीं?
जो शांत होकर भीतर खोजते हैं, वे पाते हैं, नहीं है। ध्यान में, शांति में, सरल चित्तता में कोई अहंकार नहीं पाया जाता है। और इसलिए जब नहीं पाया जाता है तो जीवन में एक क्रांति हो जाती है। जो चर्या अहंचर्या थी, वही चर्या ब्रह्मचर्य बन जाती है। जहां अहंकार पर केंद्रित होकर हम सब करते थे, वहीं विलीन हो गया वह केंद्र, दुनिया बदल गई, हम दूसरे आदमी हो गए, दूसरे व्यक्ति का जन्म हो गया। अब जो चर्या होगी, वह ब्रह्मचर्य होगी। अब अहं उसका केंद्र नहीं होगा, अब ब्रह्म, आत्मा, परमात्मा उसका केंद्र होगा। और अब हम जो कर रहे हैं, वह किसी अहंकार की पूर्ति के लिए नहीं होगा, अब तो वह केवल आत्म-दान है, अब तो केवल वह विसर्जन है, बांटना है।
अहंकार इकट्ठा करता है, निर-अहंकार बांटता है। इसलिए निर-अहंकारिता में जो भी कृत्य हैं, उन सबको मैं दान कहता हूं। और अहंकार से भरे हुए जो कृत्य हैं, उनमें कोई भी दान नहीं हो सकता। वह सब मांग है। वह सब मांग रहा है आदमी। अहंकार वाला मांगता है, निर-अहंकार वाला देता है।
इसलिए जब तक अहंकार आपको प्रतीत होता है, तब तक आप दान नहीं कर सकते। तब दान में भी मांग बनी ही रहेगी। एक मंदिर बनाएंगे तो खयाल रहेगा कि शायद स्वर्ग में इसका कोई प्रतिफल। एक साधु को भोजन करा देंगे, एक भिक्षु को दान दे देंगे तो मन में होगा कि इसका कोई पुण्य, इसका कोई फल अगले जन्म में वसूल करना है। फिर आप जो भी करेंगे। अगर आप त्याग करेंगे तो भी मन में यह भाव रहेगा कि मोक्ष पाना है। यानी आपका जब तक अहंकार शेष है, तब तक आप कुछ भी करें, उसके पीछे मांग मौजूद बनी रहेगी, उसके पीछे लाभ की दृष्टि बनी रहेगी, उसके पीछे पाना बना रहेगा।
अहंकार के बिना हुए कोई व्यक्ति किसी तरह का दान नहीं करता। और निर-अहंकार हो जाने पर सिवाय दान के कुछ हो ही नहीं सकता है। जो भी होगा, वह दान ही होगा। क्योंकि मांगने वाला मौजूद ही नहीं रहा। अब सिर्फ विसर्जन है और बांटना है। इसे मैं शून्यभाव कहता हूं। शून्यभाव ही संन्यास है। मैं का शून्य हो जाना ही तीसरा चरण है। और मैं को आप खोजें, तो आप पाएंगे कि मैं नहीं है, मैं शून्य हो जाता है।
ऐसे तीन चरणों की मैंने आपसे बात की: चित्त की स्वतंत्रता, चित्त की सरलता और चित्त की शून्यता।
अगर इन तीनों को, अगर इन तीन रत्नों को जीवन में जगह मिल जाए तो इन तीनों से जो इकट्ठा रूप पैदा होता है, उसका नाम समाधि है। और समाधि सत्य का द्वार है। समाधि स्वयं का द्वार है। और समाधि परम जीवन का द्वार है। उससे ही अमृत के और आलोक के और आनंद के दर्शन होते हैं। उसे पाकर ही व्यक्ति कृतार्थ होता है और धन्य होता है। उसे जिसने नहीं पाया, वह समझे कि वह मृत है। उसे जिसने नहीं पाया, वह समझे कि वह कब्र में है। उसे जिसने नहीं पाया, तो वह समझे कि उसका कोई जीवन नहीं है। वह व्यर्थ है। उसका जीवन बिलकुल व्यर्थ है। उसमें कोई अर्थ नहीं, कोई सार्थकता, कोई कृतार्थता नहीं।
अपने जीवन को सार्थकता और कृतार्थता तक ले जाने का जो मार्ग है, उसको ही मैं धर्म कहता हूं।
धर्म समाधि का अर्थ रखता है। धर्म और समाधि एक ही बात है। क्योंकि धर्म वही है जो मेरा स्वरूप है और समाधि से उसका दर्शन, उसका साक्षात, उसकी प्रतीति होती है।
धन्य हैं वे थोड़े से लोग जो समाधि को उपलब्ध होते हैं। वे ही हैं, बाकी हम नहीं हैं। हम छायाएं मात्र हैं। जिसका विश्वास छाया में है, शैडो में है, वह छाया मात्र है। जिसका विश्वास प्रतिध्वनि में है, दंभ में, अहंकार में है, वह छाया मात्र है। उस छाया में विश्वास मत कर लेना। उस छाया को मत पकड़ लेना।
और छाया को पकड़ने के दो ढंग हैं--एक तो भोगी छाया को पकड़ता है, वह छाया के लिए भोग की तलाश करता है। और फिर भोगी की प्रतिक्रिया में त्यागी है, वह छाया के लिए त्याग की व्यवस्था करता है। दोनों पागल हैं। क्योंकि जो छाया है, न उसका कोई भोग सार्थक है, न उसका कोई त्याग सार्थक है।
छाया को जान लेने से छाया विसर्जित हो जाती है। वहां न कोई भोग है, न कोई त्याग है; न कोई पकड़ है, न कोई छूट है। उस स्थिति को ही वीतराग कहा है। जहां राग है, वहां भी छाया पर विश्वास है; जहां विराग है, वहां भी छाया पर विश्वास है। जो आदमी धन को इकट्ठा कर रहा है, वह भी धन को मानता है; जो धन को छोड़ रहा है, वह भी धन को मानता है। जो स्त्री के पीछे जा रहा है, वह भी स्त्री को मानता है; जो स्त्री को छोड़ कर भाग रहा है, वह भी स्त्री को मानता है। ये दोनों ही मानते हैं। एक रागी है, एक विरागी है। एक छाया के पीछे जा रहा है, एक छाया से भाग रहा है। लेकिन दोनों का विश्वास छाया में, शैडो में है। उस मैं में है, जो कि है नहीं। और इसलिए दोनों गलत हैं। सही तो वीतराग है।
वीतराग का अर्थ है: जहां न राग है, न विराग है। वहां छाया विसर्जित हो गई है। न किसी के पीछे जाना है, न किसी से भागना है। जो आदमी किसी के पीछे जा रहा है, वह भी अपने से दूर जा रहा है। जो आदमी किसी से भाग रहा है, वह भी अपने से दूर भाग रहा है। जो न किसी के पीछे जा रहा है और न किसी से भाग रहा है, वह अपने में है। अपने में होना सत्य है; अपने में होना धर्म है; अपने में होना आत्मा में होना है; अपने में होना परमात्मा को पा लेना है।
ये थोड़ी सी बातें इन तीन दिनों में मैंने कही हैं। हो सकता है कोई बात आपके भीतर बीज बन जाए। हो सकता है कोई बात आपके भीतर कोई अंकुर लाए। हो सकता है कोई बात आपके लिए दृष्टि बन जाए। वह दृष्टि बने, इसके लिए परमात्मा से प्रार्थना करता हूं।

मेरी बातों को इतने प्रेम से, इतनी शांति से सुना है, उसके लिए जितना अनुग्रह मानूं, उतना थोड़ा है। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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