चौथा प्रवचन
मेरे
प्रिय आत्मन्!
बीती
चर्चाओं में जो बहुत सी बातें मैंने आपसे कहीं, उनके संबंध में अनेक प्रश्न आए हैं। कुछ
थोड़े से प्रश्नों पर आज की अंतिम रात हम और बात कर सकेंगे।
एक प्रश्न जो बहुत से मित्रों ने पूछा है, बहुत-बहुत रूपों में पूछा है, उसे मैं सबसे पहले ले लूं:
उन्होंने पूछा है कि मैं शब्दों, सिद्धांतों और शास्त्रों के
विरोध में मालूम पड़ता हूं। क्या परमात्मा की खोज में सिद्धांत और शास्त्र सहयोगी
नहीं हैं?
क्या
वे हमारे और प्रभु के बीच में बाधा बनते हैं?
प्रभु
और मनुष्य के बीच में ही नहीं, जीवन
के सभी अनुभवों के बीच में शास्त्र और शब्द बाधा बनते हैं। जीवन के किसी भी अनुभव
के बीच में,
जो
हमने सीख रखा है,
वह
बाधा बनता है। एक फूल के पास आप खड़े हैं। उस फूल के संबंध में आप जो भी जानते
हैं--वह किस जाति का फूल है,
छोटा
है या बड़ा,
सुंदर
है या असुंदर,
पहले
देखे गए फूलों जैसा है या नहीं--ये जितनी बातें आप जानते हैं, उस फूल के संबंध में, ये आपके और फूल के बीच में
खड़ी हो जाती हैं। वह जो फूल सामने है, वह ओझल हो जाता है। फूल के संबंध में जो आप
पीछे से जानते हैं, वह आंख
के आगे आ जाता है। उस जानकारी के कारण फूल का सीधा साक्षात, सीधा एनकाउंटर नहीं हो पाता।
उससे सीधी मुलाकात नहीं हो पाती, सीधा
मिलन नहीं हो पाता।
मैंने
कल आपके संबंध में जो समझ लिया था, अगर आज आप मुझे मिलें और कल का स्मरण बीच
में आ जाए,
तो मैं
आपको नहीं देख सकूंगा, जो आप
आज हैं। वह कल की ही बात मेरे सामने खड़ी हो जाएगी।
एक
आदमी एक सुबह बुद्ध के ऊपर थूक गया। क्रोध में था। बहुत गुस्से में था। उसने बुद्ध
के मुंह पर थूक दिया। बुद्ध ने चादर से थूक पोंछ लिया और उससे कहा कि मेरे दोस्त, तुम्हें कुछ और भी कहना है? उसने नहीं सोचा था कि थूकने
का और यह प्रत्युत्तर मिलेगा कि तुम्हें कुछ और कहना है! बुद्ध के पास बैठे
भिक्षुओं को भी आशा नहीं थी।
उनके
एक भिक्षु आनंद ने कहा, वह थूक
रहा है और आप पूछते हैं, और कुछ
कहना है?
बुद्ध
ने कहा,
जहां
तक मैं समझता हूं,
वह
इतने क्रोध से भर गया है कि उस क्रोध को प्रकट करने के लिए शब्द असमर्थ हैं। इसलिए
थूक कर उसने क्रोध को प्रकट किया है। क्यों मेरे मित्र! मैं गलत तो नहीं समझा? उन्होंने उस आदमी को पूछा।
वह
आदमी तो हतप्रभ हो गया और वापस लौट गया। रात भर सो नहीं सका--बेचैन, परेशान! कि उसने कैसे आदमी पर
थूक दिया है,
भूल हो
गई है। पश्चात्ताप से भरा हुआ, सुबह
फिर भागा हुआ बुद्ध के चरणों में आकर सिर रख दिया और कहा, क्षमा कर दें मुझे। मैं कल
थूक गया था,
भूल हो
गई। मैं रात भर रोता रहा, पछताता
रहा। मुझे खयाल आया कि जिस बुद्ध का इतना मुझे प्रेम मिला, अब वह प्रेम मिलना बंद हो
जाएगा। मैंने अपने हाथ से वह प्रेम की धारा खो दी। मैंने वह खजाना खो दिया।
बुद्ध
हंसने लगे। उन्होंने कहा, तू
पागल है। कल तू थूक गया था। वह आदमी कल था, आज कहां है? जिस पर तूने थूका था, वह भी कल था। जिसने थूका था, वह भी कल व्यतीत हो गया। गंगा
का बहुत पानी तब से बह चुका। अब तू कहां है वह? अब मैं कहां हूं? मैं अब वह कहां हूं वह, जो कल था? अब तू कहां है वह, जो कल था?
रात हम
दीये को जलाते हैं, सुबह
तक कितनी धारा ज्योति की बह चुकी, धुआं
हो चुकी। सुबह हम कहते हैं, कि वही
ज्योति जल रही है,
जो रात
हमने जलाई थी। गलत कहते हैं। वह ज्योति तो बहुत-बहुत बह गई, बह गई। अब तो बिलकुल नई धारा
जल रही है। गंगा को देख आए थे पिछले वर्ष, वही नहीं है अब वह, सब बह गया। आदमी भी प्रतिक्षण
बहा जा रहा है। जीवन भी प्रतिक्षण बहा जा रहा है।
बुद्ध
ने कहा,
कल को
पकड़ कर बैठ जाऊं,
तो फिर
मैं तुझे देख ही न सकूंगा। अगर मुझे यह खयाल रहे कि यह वही आदमी है जो थूक गया था, और यह भाव मेरे बीच खड़ा हो
जाए, तो मैं तुझे देख ही नहीं
सकूंगा। मैं देखूंगा कि वही आदमी आ गया जो थूक गया था। और आज तू वही आदमी नहीं है, क्योंकि कल तू क्रोध से भरा
आया था,
आज
क्षमा मांगने के लिए आया है। आज तू प्रेम से भरा आया है, पश्चात्ताप से भरा आया है। तू
वही आदमी नहीं है। फिर तू क्षमा क्यों मांगता है? उस आदमी ने कहा, इसलिए कि मुझे लगा कि जो
प्रेम मुझे मिलता था, शायद
अब नहीं मिलेगा।
बुद्ध
हंसने लगे। उन्होंने कहा, पागल!
क्या तू सोचता है कि मैं तुझे इसलिए प्रेम करता था कि तू मेरे ऊपर थूकता नहीं था? क्या इसलिए प्रेम करता था कि
तू थूकता नहीं था अगर इसलिए प्रेम करता होता, तो तेरे थूकने से प्रेम बंद हो जाता। मैं तो
प्रेम इसलिए करता हूं कि मैं प्रेम ही कर सकता हूं, और कुछ नहीं कर सकता हूं। जैसे
दीये से रोशनी गिरती है, और
जैसे फूल से सुवास बहती है, वैसे
ही मुझसे प्रेम बहता है। तू थूके या न थूके, तू क्या करता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
ये जो
बुद्ध ने दो बातें कहीं, इनमें
से पहली बात कि हम जीवन से जो-जो रोज सीख लेते हैं, जो-जो हमारा ज्ञान बन जाता है, उसे जीवन के नये अनुभव के
सामने हम खड़ा न करें, अन्यथा
वह बाधा बन जाएगी।
एक
बहुत बड़े भक्त के संबंध में मैंने सुना है--नाम उनका नहीं लूंगा, क्योंकि नाम से बड़ी बेचैनी
होती है,
लोगों
के घाव छू जाते हैं। कल एक-दो नाम मैंने ले दिए, उससे बड़ी परेशानी हो गई। बड़े
ही क्रोध से भरे हुए पत्र आ गए, तो नाम
छोड़ देता हूं,
शायद
आप नाम समझ ही जाएंगे! क्योंकि किसी को चोट पहुंचाने की मेरी क्या मर्जी है! किसी
के नाम से मेरा क्या झगड़ा है?
एक बड़े
संत को,
जिनकी
किताब घर-घर में पढ़ी जाती है, एक
कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया। उन्होंने कृष्ण को हाथ जोड़ने से इनकार कर दिया।
और उन्होंने कहा कि जब तक धनुष-बाण हाथ में नहीं लोगे, मैं तुम्हें नमस्कार करने
वाला नहीं हूं! वे राम के भक्त हैं, वे कृष्ण को कैसे नमस्कार कर सकते हैं? राम की तस्वीर बीच में हो, तो ही भगवान भी स्वीकार हो
सकता है?
अन्यथा
भगवान भी अस्वीकृत हो जाएगा! राम, मेरे
राम सामने हों तो ठीक, अन्यथा
सब गड़बड़ है।
वह जो
हमने कल तक पकड़ रखा है, वह
हमेशा सामने लेकर हम जीवन को देखेंगे, तो जीवन दिखाई नहीं पड़ेगा। हमारे आग्रह का
चश्मा ही हमें दिखाई पड़ेगा। वे ही रंग दिखाई पड़ेंगे, वे ही शक्लें दिखाई पड़ेंगी।
यह
जीवन को देखने की बात न हुई, यह
जीवन का दर्शन न हुआ, यह
सत्य की आकांक्षा न हुई। यह तो जीवन के ऊपर भी अपने को थोप देना हुआ। अपने को
इम्पोज कर देना हुआ, आरोपित
कर देना हुआ। और हम सब ऐसे ही देखते हैं, यह देखना गलत है।
जीवन
के दर्शन के लिए खाली जाएं--बिना सिद्धांतों के, बिना शब्दों के, बिना शास्त्रों के। जीवन को
सीधा आमने-सामने आने दें और फिर देखें। फिर जो दिखाई पड़ेगा, वह वह है, जो है। और जब तक आप कहते हैं
कि मैं इस भांति देखूंगा, इस
ज्ञान से देखूंगा,
तब तक
आप वही देख रहे हैं, जो
देखना चाहते हैं;
वह
नहीं जो है।
एक
घटना से आपको समझाऊं।
चीन के
एक बड़े गांव में,
एक
बहुत बड़ा मेला लगा हुआ था। हजारों, लाखों लोग इकट्ठे हुए हैं मेले में। एक छोटा
सा कुआं है,
और उस
कुएं के ऊपर दीवाल नहीं है। एक आदमी भीड़ में उस कुएं में गिर गया। वह चिल्ला रहा
है, कुएं के भीतर से कि मुझे बचाओ, मैं मरा जा रहा हूं। लेकिन
इतना शोरगुल है बाजार में, मेले
में कि कौन सुनता है। लेकिन तभी एक बौद्ध भिक्षु, पानी पीने के लिए रुका है, उस कुएं पर। नीचे देखा है, तो वह आदमी चिल्ला रहा है कि
मुझे बचाओ! उसने भिक्षु को देखा, तो
उसने हाथ जोड़े,
कहा, मुझे जल्दी निकालें। मैं मरा
जा रहा हूं। मैं तैरना नहीं जानता हूं। मेरे हाथ कंप रहे हैं, मैं किसी तरह ईंटों को पकड़े
हुए रुका हूं।
उस
भिक्षु ने कहा,
मेरे
दोस्त! तुम्हें पता नहीं, भगवान
बुद्ध ने क्या कहा है? भगवान
बुद्ध ने कहा है कि जीवन तो दुख है, बच कर भी क्या करोगे? जीवन तो दुख है, जीवन तो असार है, जीवन तो व्यर्थ है। जीवन से
तो छूट जाने की कोशिश करनी है। तो बच कर भी क्या करोगे? दुख से निकल कर जाओगे कहां? जीवन तो खुद एक बड़ा कुआं है।
इसलिए व्यर्थ की वासना छोड़ो, जीने
की वासना छोड़ो। यह जो लस्ट फॉर लाइफ है, यह जो जीवन की तीव्र वासना है, यही तो पाप का मूल है। मोक्ष
की कामना करो,
जीवन
की क्यों कामना करते हो?
वह
आदमी चिल्लाने लगा कि यह समय उपदेश का नहीं, मुझे बाहर निकाल लें। फिर मैं आपकी बातें
सुनूंगा। लेकिन उस भिक्षु ने कहा, तुम
समझे नहीं। भगवान ने शास्त्रों में यह भी कहा है कि आदमी को जो भी भोगना पड़ता है, अपने पिछले जन्मों के कर्मों
कारण। तुमने कभी किसी को कुएं में गिराया होगा, इसलिए गिरे हो। स्वभावतः जो तुमने किया है, वह भोग रहे हो। जो जैसा करता
है, वैसा भोगता है। नहीं लिखा है
शास्त्र में?
तो अब
निकल कर क्यों कोशिश कर रहे हो? अब
भोगो। अब पूरे कर्म को भोग लो, तो
कर्म से मुक्त हो जाओगे। और मैं तुम्हें बीच में निकाल कर क्यों झंझट में पड़ूं? क्योंकि भगवान ने यह भी कहा
है कि तुम जो करते हो, सब
आगा-पीछा सोच लेना, अन्यथा
तुम भी कहीं पाप में भागीदार न हो जाओ। मैं तुम्हें निकाल लूं और कल तुम चोरी कर
लो, तो मैं भी जिम्मेवार हुआ! मैं
तुम्हें बचा लूं,
परसों
तुम किसी की हत्या कर दो, तो मैं
भी पापी हुआ। क्षमा करो, मैं
मोक्ष की कोशिश में लगा हूं। मैं झंझट में, मैं कोई इनवाल्वमेंट में, मैं किसी उपद्रव में नहीं
पड़ना चाहता। नमस्कार! भगवान तुम्हारी रक्षा करे!
वह
भिक्षु आगे बढ़ गया। वह आदमी तो हैरान रह गया। लेकिन उस भिक्षु ने जो भी कहा, सब शास्त्रों में लिखा हुआ
है। हंसें मत। क्योंकि आप भिक्षु पर नहीं हंस रहे हैं, शास्त्रों पर हंसना हो जाएगा।
यह सब लिखा हुआ है। इसमें शब्द भी उसने नहीं कहा, जो उसका अपना हो। शास्त्र उसे
कंठस्थ हैं,
वही
उसने कहा है!
वह
भिक्षु गया है कि कनफ्यूशियस को मानने वाला एक दूसरा फकीर, एक दूसरा मांक कुएं पर आ गया।
उसने भी नीचे झांक कर देखा। वह आदमी चिल्लाया कि बचाओ। अब मेरी ज्यादा संभावना
नहीं है बचने की,
रुकने
की। जल्दी मुझे नहीं निकाला गया, तो मैं
मर जाऊंगा। उस आदमी ने कहा कि देखो, यही तो कनफ्यूशियस ने कहा है अपनी किताब में
कि हर कुएं के ऊपर दीवाल जरूर होनी चाहिए, पाट होना चाहिए। जिस राज्य के कुएं की
दीवालें नहीं होतीं, जिस
राज्य के कुएं पर पाट नहीं होते, वह
राज्य अन्यायी है। तुम घबड़ाओ मत। मैं आंदोलन चलाऊंगा। हर कुएं पर पाट बंधवा दूंगा।
मैं एक मूवमेंट पैदा करूंगा समाज सेवा का, और मैं जाकर लोगों को कहूंगा कि हर कुएं पर
पाट होना चाहिए। तुम बिलकुल बेफिक्र रहो।
उस
आदमी ने कहा,
क्या
बातें कर रहे हैं! बेफिक्र! मैं मर जाऊंगा, ये पाट कब बनेंगे? मैं तो गिर ही चुका हूं, अब पाटों के बनने से क्या
होगा? कृपा कर मुझे पहले बाहर निकाल
लो। उसने कहा,
इतनी
फुर्सत कहां एक-एक आदमी की फिक्र करने की? मैं पूरे समाज का ही परिवर्तन चाहता हूं।
सामाजिक क्रांति,
सोशल
रिवोल्यूशन चाहिए। एक आदमी के बनने-मिटने से क्या होता है? तुम शहीद हो जाओ। तुम फिक्र
मत करो। तुम्हारा नाम किताबों में लिखा जाएगा। और शहीदों के मजारों पर जुड़ेंगे
मेले। तुम घबड़ाओ मत, शहीदों
की तो मजारों पर मेले भरते हैं, तुम्हारी
मजार पर भी मेले भरेंगे। लोग हजारों साल तक याद रखेंगे कि एक आदमी ने कुएं में गिर
कर सब कुओं पर पाट बंधवा दिए थे! बेफिक्र रह तू, मैं अभी जाता हूं और आंदोलन
खड़ा करता हूं।
वह
आदमी चिल्लाता रहा। वह भिक्षु चला गया भीड़ में और मंच पर खड़ा हो गया। और लोगों को
समझाने लगा कि देखो, जब तक
कनफ्यूशियस की बात नहीं सुनी जाएगी, तो दुनिया में इसी तरह के कष्ट होते रहेंगे।
देखो, वह आदमी कुएं में पड़ा है! यह
आदमी भी एक सबूत बन गया है कनफ्यूशियस की बात को सिद्ध करने का, एक प्रूफ, एक प्रमाण बन गया!
मत
हंसें उस आदमी पर। वह आदमी वही कर रहा है, जो दुनिया के सब समाज-सुधारक करते हैं। लेकिन
वह आदमी मरा जा रहा है, वह
घबड़ाया जा रहा है,
उसके
प्राण निकले जा रहे हैं। आज उसे पहली दफा पता चला है कि अच्छी बातें करने वाले लोग
क्या कर सकते हैं!
तभी एक
ईसाई मिशनरी भी आ गया, उस
कुएं पर। उसने भी झांक कर देखा। आदमी बोल भी नहीं पाया था कि उसने कहा, मत घबड़ा। उसने अपने झोले से
रस्सी निकाली। वह झोले में हमेशा रस्सी साथ ही रखता है। कब कोई कुएं में गिर पड़े, मौका मिल जाए बचाने का! उसने
रस्सी नीचे फेंकी,
कुएं
में उतरा,
उस
आदमी को बाहर निकाला। वह आदमी कहने लगा, धन्य हैं आप! आप सच्चे आदमी मिले एक। बाकी
दो भिक्षु आए थे,
उन्होंने
मुझे उपदेश दिया। आपकी बड़ी कृपा है, जो आपने मुझे बचाया!
उस
मिशनरी ने कहा,
क्षमा
करो। तुम गलत मत समझ लेना। मैंने तुम्हें नहीं बचाया। वह तो जीसस क्राइस्ट ने कहा
है कि जो सेवा करता है, वह
भगवान का प्यारा हो जाता है। सो हम सेवा कर रहे हैं, ताकि भगवान के प्यारे हो
जाएं। हमें तुमसे क्या लेना-देना है। यह तो हम स्वर्ग की खोज कर रहे हैं। और हम तो
खुश होते हैं,
जब कोई
कुएं में गिरा दिखाई पड़ जाता है, क्योंकि
हमें सेवा का मौका मिल जाता है! हम तो ऑपरच्युनिटी, अवसर की खोज में हैं कि कहीं
सेवा का कोई मौका मिल जाए, तो हम
किसी को बचा लें। इसलिए हम रस्सी हमेशा पास रखते हैं, जहां मौका आ जाए...! मकान में
आग लग जाए,
हम कूद
कर अंदर हो जाते हैं। कोई पानी में कूदने लगे, डूबने लगे...। तुम बड़े अच्छे हो, तुमने हमारे स्वर्ग की एक
सीढ़ी बना दी। अपने बच्चों को भी समझाना कि कुओं में गिरते रहें, तो हम बचाते रहें। सर्विस, सेवा--सेवा का मौका भी तो
मिलना चाहिए!
सेवा
का जो मौका देते हैं, वे
स्वर्ग की सीढ़ियां बनते हैं। उनके कंधों पर पैर रख-रख कर कुछ लोग स्वर्ग चले जाते
हैं। बीमारों की सेवा करके, गरीब
की सेवा करके,
कुएं
में गिरे की सेवा करके कुछ लोग स्वर्ग की यात्रा तय करते हैं!
इन
तीनों आदमियों पर आपको हंसी क्यों आती है? गलती क्या है इन तीनों की? ये तीनों किताबों को बीच में
ले लेते हैं,
मरते
हुए जीवित आदमी को, तथ्य
को, वह जो फैक्ट है, वह जो सामने घटित हो रहा है, वह उन्हें उतना मूल्यवान नहीं, जितनी वह किताब, जो उन्होंने पढ़ी है। इसलिए वह
मरता हुआ आदमी,
वह
टूटती हुई श्वास,
वह
सामने एक जीवन के दीये का बुझ जाना, उन्हें दिखाई नहीं पड़ता है। उन्हें अपनी
किताब दिखाई पड़ती है। हम सबको भी यही होता है।
एक
आदमी को हम गरीब देखते हैं, भूखा
मरते देखते हैं,
सड़क पर
भीख मांगते देखते हैं--हम क्या कहते हैं? हम कहते हैं कि यह तो अपने-अपने कर्मों का
फल है। किताब आ गई बीच में। आपको पता है कर्मों का फल, कि सामाजिक शोषण, बेईमानी और चालाकी? लेकिन किताब आ जाती है बीच
में। वह एक गरीब को भुला देती है फिर। क्योंकि तब हम एक एक्सप्लेनेशन, एक शाब्दिक सिद्धांत बीच में
ले आते हैं--अपना-अपना फल है। कोई अमीर पैदा होता है, कोई गरीब पैदा होता
है--अपना-अपना कर्म, अपने-अपने
फल!
चार
हजार वर्षों में भारत में इसी व्याख्या के कारण गरीब को नहीं मिटाया जा सका है। और
जब तक यह व्याख्या नहीं मिट जाती तब तक, तब तक गरीब मिटाया भी नहीं जा सकता है। इस
व्याख्या पर सारी गरीबी खड़ी है। लेकिन शास्त्र बीच में आ जाता है। और तब, तब सब बात वहीं की वहीं रुक
जाती है,
क्योंकि
शास्त्र पर शक करना पाप है। शास्त्र को आंखों से हटाना पाप है। शास्त्र को तो
हमेशा छाती से बांध कर रखना जरूरी है। चाहे आदमी डूब जाए शास्त्रों के वजन से! डूब
जाए, लेकिन शास्त्र छाती से कभी मत
छोड़ना।
तो मैं
कोई शास्त्रों का विरोधी नहीं हूं। मैं केवल इतना कह रहा हूं कि जीवन का साक्षात, जीवन का सीधा, इमीजिएट साक्षात केवल उनको हो
सकता है,
जो बीच
से शब्दों,
सिद्धांतों
को हटा दें,
सीधा
देख सकें,
आंखों
पर शब्द और सिद्धांत न रह जाएं। लेकिन आदमी? आदमी बिना शब्दों के किसी को देखता ही नहीं।
एक स्त्री को देखता है, तो उसे
खयाल आ जाता है कि स्त्री नरक का द्वार है, फलां-फलां संत कह गए हैं! स्त्री नहीं दिखाई
पड़ती, नरक का द्वार दिखाई पड़ता है, जो एक सिद्धांत है, एक कोरा और थोथा सिद्धांत है।
लेकिन
हम जीवन को देखते ही इस भांति हैं--जीवन पीछे और सिद्धांत पहले। यह दृष्टि आमूल
गलत है। जीवन पहले है, जीवन
प्रथम। और जो जीवन को देखने में समर्थ हो जाता है, उसके लिए सत्य का उदघाटन हो
जाता है,
उसके
लिए सिद्धांतों का कोई सवाल ही नहीं रह जाता है।
श्री
अरविंद को कोई पूछता था, डू यू
बिलीव इन गॉड?
क्या
आप ईश्वर में विश्वास करते हैं? श्री
अरविंद ने कहा कि,
नो, आई डू नाट बिलीव, आई नो। मैं विश्वास नहीं करता, मैं जानता हूं।
जब कोई
जीवन को देखता है,
तो वह
यह नहीं कहता है कि मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। वह कहता है, मैं ईश्वर को जानता हूं। जब
कोई जीवन को सीधा देखता है, तो
शास्त्रों की गवाही नहीं रह जाती, तब
अपने अनुभव की गवाही खड़ी हो जाती है। तब वह खुद साक्षी हो जाता है किसी सत्य का।
लेकिन जीवन को देखने से यह गवाही मिलती है। लेकिन हम तो जीवन को देखते ही नहीं।
हमारा जीवन सब बासा और उधार देखने का ढंग हमने पकड़ रखा है।
इसलिए
मैं कहता हूं: पढ़ें शास्त्रों को, पढ़ें
किताबों को,
लेकिन
किसी किताब को आंखों पर बोझ न बन जाने दें। हटा दें; पढ़ लें, और भूल जाएं। जान लें और भूल
जाएं। आंख हमेशा ताजी और नई हो, धूल न
भर जाए उसमें। देखने में हमेशा समर्थ रहे। और यह मैं किन्हीं औरों की किताबों के
बाबत ही नहीं कह रहा हूं, अपनी--मेरी
किताबों के बाबत भी यही सच है।
एक मित्र ने यह भी पूछा कि आप कहते हैं सब किताबें छोड़ दें, लेकिन आपकी किताबें?
जब मैं
कहता हूं: सब किताबें छोड़ दें, तो
उसमें मेरी किताब आ गई। मेरी किताब कोई अलग किताब नहीं है। सब किताब यानी सब
किताब। सब शब्द यानी मेरे शब्द भी। और सब सिद्धांत यानी मेरे सिद्धांत भी। आपकी
आंख सबसे मुक्त होनी चाहिए, ताकि
आपकी आंख सीधे साक्षात को उपलब्ध हो सके।
कुछ और
मित्रों ने,
अनेक
रूपों में एक दूसरा प्रश्न भी, बहुत
तरह से पूछा है। वह भी आपसे बात कर लेनी जरूरी है।
उन्होंने
पूछा है कि जीवन में संयम, नियम, ब्रह्मचर्य, इनका कोई स्थान है कि नहीं? क्योंकि आप तो इनकी कोई बात
ही नहीं कहते?
इनका
कोई भी स्थान नहीं है, इसलिए
इनकी बात नहीं कह रहा हूं। लेकिन इससे बड़ी घबड़ाहट होगी। क्योंकि संयम, नियम--अगर इनका स्थान नहीं तो
फिर? फिर क्या करेंगे हम? एक अंधा आदमी एक लकड़ी के
सहारे चलता है। वह एक चिकित्सक के पास गया है। उसकी आंखें ठीक करने को हैं। वह
अंधा आदमी पूछता है कि मेरी आंखें ठीक हो जाएंगी, फिर मैं ये लकड़ी का मेरे जीवन
में कोई स्थान है कि नहीं? वह
चिकित्सक कहता है,
फिर
लकड़ी का कोई स्थान नहीं है जीवन में, क्योंकि जब आंख ठीक होगी, तो फिर लकड़ी के टेकने की, सहारे की जरूरत क्या है? आंख नहीं है इसलिए लकड़ी का
स्थान है। और आंख है, तो
लकड़ी का हाथ में कोई स्थान नहीं है। लेकिन अंधा बड़ा डरता है। वह कहता है, लकड़ी के बिना मैं चल कैसे
पाऊंगा! क्योंकि लकड़ी न होगी, तो बड़ी
अराजकता हो जाएगी। मैं कहीं भी टकरा जाऊंगा। उसके खयाल में नहीं आता कि लकड़ी केवल
आंख की कमजोर परिपूरक है, सब्स्टीटयूट
है। और जिस दिन आंख है, उस दिन
लकड़ी की कोई जरूरत नहीं है।
संयम
और नियम अंधी चेतना की लकड़ियां हैं। जिस दिन चेतना के पास शांत, अपनी आंख होती है, उस दिन संयम-नियम की कोई
गुंजाइश,
कोई
जगह नहीं रह जाती। चूंकि आदमी के पास चेतना नहीं है, होश नहीं है, जागृति नहीं है, ध्यान नहीं है, इसलिए हम उसे संयम और नियम
में बांध-बांध कर रखते हैं। हालांकि संयम और नियम में बंधने से उसकी आंख पैदा नहीं
हो जाती। सिर्फ जिंदगी का कामचलाऊ काम चल जाता है।
सारा
संयम और नियम है क्या? संयम
और नियम का बुनियादी अर्थ सिवाय सप्रेशन और दमन के क्या हो सकता है? संयम और नियम सिवाय पाखंड के
और क्या पैदा करता है? सिवाय
डिसेप्शन के,
आत्मवंचना
के और क्या फलित होता है!
जब हम
कहते हैं,
एक
आदमी ने अपने क्रोध पर संयम कर लिया, तो उसका मतलब क्या है? उसका मतलब यह है कि उसने अपने
क्रोध को दबा लिया, अपने
भीतर। वह क्रोध को पी गया, क्रोध
के ऊपर बैठ गया। उसने क्रोध को नीचे कर लिया; वह उसकी छाती पर सवार हो गया।
लेकिन
आपको पता है क्रोध की छाती पर सवार होने का क्या मतलब है? वह आदमी चौबीस घंटे भीतर
क्रोध में जीने लगा। बाहर क्रोध की अभिव्यक्ति बंद हो गई। बाहर निकास बंद हो गया।
बाहर क्रोध नहीं बहने देता, तो
भीतर क्रोध सरकने लगा, उसकी
चेतना में। इसलिए जिनको आप सज्जन कहते हैं, अच्छे आदमी कहते हैं, संयमी आदमी कहते हैं, कभी आपने खयाल किया कि उनका
जीवन चौबीस घंटे क्रोध से भरा हुआ होता है। जिनको आप मंदिर जाने वाले, पूजा करने वाले, प्रार्थना करने वाले लोग कहते
हैं, आपने कभी खयाल किया कि उनका
जीवन क्रोध का जीवन है!
क्रोध
को दबा लेने का मतलब यह नहीं कि आप क्रोध से मुक्त हो गए। क्रोध को दबा लेने का
मतलब यह है कि जो जहर बाहर फिंक सकता था, वह आपके ही खून में फैलना शुरू हो गया।
एक
आदमी दफ्तर में है। उसका बास, उसका
मालिक उसको गाली देता है। वह बेचारा नौकर क्या कर सकता है? क्रोध को पी जाता है, दबा लेता है। क्रोध भीतर कर
लेता है। होंठों पर मुस्कुराहट, होंठों
से हंसता है और कहता है, आप
बिलकुल ठीक कह रहे हैं! और भीतर जानता है कि मौका मिल जाए, तो गर्दन दबा दूं। लेकिन
गर्दन दबाने का भाव भीतर जोर पकड़ लेता है। मुट्ठी भिंच जाती है, लेकिन ऊपर से मुस्कुराता रहता
है।
फिर घर
लौट आता है। क्रोध ऊपर की तरफ नहीं चढ़ता, जैसे कि नदी ऊपर की तरफ नहीं चढ़ती। नीचे की
तरफ जाती है,
ऐसे ही
क्रोध नीचे का रास्ता खोजता है। तो मालिक की तरफ नहीं चढ़ सकता है, तो वह घर आ जाता है। वहां आते
से ही पांच-दस मिनट के भीतर कोई न कोई बहाना मिल जाएगा कि वह अपनी पत्नी पर टूट
पड़ेगा। रोटी जल गई है आज, या
कपड़े ठीक से लोहे नहीं किए गए हैं, या घर गंदा पड़ा है, या उसकी चाय ठंडी है, या कोई और पच्चीस बहाने हैं।
कल भी चाय ऐसी थी,
कल भी
रोटी ऐसी थी,
लेकिन
कल क्रोध नहीं था। आज भीतर क्रोध तैयार है, मौजूद है। खोज कर रहा है निकल जाए। कोई
कमजोर मिल जाए,
तो
निकल जाए। तो पत्नी पर टूट पड़ता है।
पत्नी
हैरान हो जाती है कि ऐसी तो खास बात न हुई थी। कुछ समझ में नहीं पड़ता कि क्या हो
गया! दबाया गया क्रोध दूसरे रास्ते खोजता है। वह पत्नी पर चिल्लाता है। गालियां बक
सकता है,
मार
सकता है। क्योंकि पुरुषों ने ही सारी किताबें लिखी हैं और उन्होंने अपने हिसाब से
किताबें लिखी हैं। स्त्रियों को मारने से कोई पाप नहीं लगता।
चीन
में तो यह हालत रही तीन हजार वर्षों तक कि अपनी स्त्री की हत्या कर देने से भी
अदालत में मुकदमा नहीं चल सकता, क्योंकि
अपनी स्त्री! स्त्री-धन तो हम भी कहते रहे हैं। टूट पड़ता है। स्त्री क्या करे
बेचारी! पति परमात्मा है।
पतियों
ने ही जो किताबें लिखी हैं, उनमें
यह लिखा हुआ है कि पति परमात्मा है। और इस पति परमात्मा पर क्रोध कैसे किया जाए।
लेकिन क्रोध पी जाती है वह। उसका छोटा सा बच्चा स्कूल से निकले, तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
और आते ही बहाना मिल जाएगा कि किताब फट गई, बस्ता टूट गया, कपड़े गंदे हो गए, गंदे लड़कों के साथ खेल रहे
थे! और बच्चे की पिटाई शुरू हो जाएगी।
उसको
खयाल भी नहीं होगा कि यह दबाया हुआ क्रोध दूसरा रास्ता खोज रहा है। बच्चा पिट
लेगा। बच्चा क्या कर सकता है! बच्चे को प्रतीक्षा करनी पड़ती है, जब मां-बाप बूढ़े हो जाते हैं, तब बदला निकाल पाता है। लंबी
प्रतीक्षा है। फिर मां-बाप को समझ में नहीं आता है कि यह वही प्रतीक्षा किया हुआ, दबा हुआ निकल रहा है। लेकिन
तत्काल भी बच्चे को कुछ उपाय करना पड़ता है, क्योंकि पिया क्रोध कष्ट देने लगता है, घूमने लगता है भीतर, चक्कर खाने लगता है। कुछ न
कुछ रास्ता निकालना पड़ता है, जाकर
अपनी गुड़िया की टांग तोड़ देता है। किताब फाड़ डालता है। क्या कर सकता है और!
क्रोध
को दबाए जाने की जो शिक्षा है, जिसको
हम संयम और नियम कहते हैं। इसी तरह सेक्स को दबाए जाने की शिक्षा है, जिसको हम ब्रह्मचर्य कहते
हैं। और जो आदमी कामवासना को दबा लेगा, उससे ज्यादा अब्रह्मचर्य में दुनिया में कोई
भी नहीं जीता है। चौबीस घंटे उसके मन में सिवाय सेक्स और सेक्सुअलिटी के और
कामुकता के कुछ भी नहीं घूमता है--चौबीस घंटे! श्वास-श्वास में, जिसको आप ब्रह्मचारी कहते हैं, उसके चित्त में सिवाय वासना
के और कुछ भी नहीं घूमता।
मैं
मुल्क के कोने में सैकड़ों-हजारों साधुओं से मिला हूं। जब वे साधु मुझे सबके सामने
कुछ पूछते हैं,
तब वे
आत्मा-परमात्मा की बात पूछते हैं। जब अकेले में पूछते हैं, तो सिवाय सेक्स के और किसी
चीज की बात नहीं पूछते!
वह प्राणों
को खाए जा रहा है,
जो
दबाया गया है। मन के कुछ सूत्र हैं, कुछ नियम हैं। मन का कोई विज्ञान है। मन के
नियम, मन के सूत्रों में, मन के विज्ञान में पहली बात
यह है कि मन को आप जिस बात का निषेध करेंगे, मन उसी तरफ आकर्षित हो जाएगा। निषेध
निमंत्रण है। इनकार बुलावा है।
यहां
जूनागढ़ के किसी मकान के ऊपर लिख दें कि यहां झांकना मना है। फिर आप जानते हैं, जूनागढ़ में ऐसा एकाध भी संयमी
आदमी होगा,
जो
वहां बिना झांके निकल जाए! और अगर कोई डर के मारे निकल गया कि इलेक्शन में अभी खड़ा
होना है,
कहीं
लोग न देख लें कि यह ऐसे मकान में झांक रहा है जहां लिखा है, यहां झांकना मना है, या कोई इसलिए निकल जाए कि वह
गेरुवे वस्त्र पहने हुए है, कोई
देख लेगा तो क्या कहेगा! कोई अगर निकल गया उस दरवाजे से बिना झांके, तो उसकी मुसीबत का आपको पता
नहीं है। वह आगे चला जाएगा, लेकिन
मन पीछे ही पीछे भागेगा। वह घर पहुंच जाएगा, लेकिन उदास-उदास, एब्सेंट-एब्सेंट, अनुपस्थित-अनुपस्थित। मन उसका
वहां है,
उस
दरवाजे के पास जहां लिखा है कि यहां झांकना मना है। और अगर वह हिम्मतवर हुआ, तो किसी न किसी तरह
चोरी-चपाटी से जाकर झांक ही लेगा, कोई
रास्ता खोज लेगा। और अगर बिलकुल कमजोर हुआ हिम्मत नहीं जुटा पाया, तो फिर उसकी जिंदगी बर्बाद हो
गई। रात भर सपने एक ही बात के देखेगा कि वह उसी दरवाजे के सामने खड़ा है और पर्दे
को उठा कर देख रहा है कि भीतर क्या है। उसके सारे सपनों में वही मकान दिखाई पड़ेगा, जो वह बिना देखे छोड़ आया है!
जब हम
मन को निषेध करते हैं, तो मन
वहीं-वहीं घूमने लगता है। जिन मुल्कों ने सेक्स की निंदा की है, और उन अभागे मुल्कों में से
हमारा मुल्क अग्रणी है। जिन मुल्कों ने काम की निंदा की है, सेक्स की निंदा की है, यौन की निंदा की है, वे मुल्क उतने ही सेक्सुअल हो
गए हैं।
इस बात
को बताने के लिए किसी से पूछने जाना पड़ेगा कि अपने चारों तरफ आंख डाल लेनी काफी
है। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक, एक ही
चीज के इर्द-गिर्द हमारा मन घूमता रहता है, और उसका कारण यह नहीं है कि कोई सेक्स ऐसी
चीज है कि चौबीस घंटे घूमे। उसका कारण कुल इतना है कि हमने आब्सेशन बना लिया है, हमने सेक्स पर जो संयम करने
की कोशिश की है,
जबरदस्ती
जो की है,
रोकने
की जो कोशिश की है, उससे
चित्त में घाव बन गया है और वहीं-वहीं, वहीं-वहीं हमारा चित्त घूमता रहता है।
एक
फकीर था नसरुद्दीन। एक सांझ अपने घर से निकलता था कि एक मित्र घर के सामने हाजिर
हो गया। मित्र परदेश से आ रहा है, दूर से
आ रहा है,
उसी से
मिलने आ रहा है। नसरुद्दीन ने कहा कि तुम ठहरो। मैं जरा तीन जगह मिलने जा रहा हूं।
बहुत जरूरी है मेरा मिलना वहां, और समय
दे चुका हूं और तुम तो बिना खबर किए आ गए हो। तो तुम रुको, मैं अभी आता हूं।
उस
मित्र ने कहा कि अच्छा होगा कि मैं भी तुम्हारे साथ चला चलूं। रास्ते में कुछ बात
हो लेगी,
फिर
जल्दी मुझे लौट जाना है। लेकिन एक काम करो। मेरे कपड़े गंदे हो गए हैं, धूल से भर गए हैं रास्ते की।
तुम्हारे पास अच्छे कपड़े हों, तो
मुझे दे दो। नसरुद्दीन ने कहा कि ठीक है।
मन तो
उसका नहीं हुआ,
क्योंकि
फकीर दिखाई भर पड़ते हैं कि उनके पास कपड़े कम हैं, लेकिन फकीर का मन जितना कपड़ों
से जुड़ा रहता है,
उतना
उन लोगों का नहीं,
जिनके
पास कपड़े बहुत हैं। कम करने की कोशिश कपड़ों से ही जोड़ देती है, ज्यादा करने की कोशिश भी
कपड़ों से ही जोड़ देती है--चौबीस घंटे।
एक
जोड़ी थी बहुत अच्छी उसके पास, जो
सम्हाल कर रखी थी। कभी सभा, मीटिंग
में जाता था,
तो पहन
कर जाता था। वही थी तैयार। मजबूरी में, बहुत मन हुआ कि रहने दें, कह दें कि नहीं है। लेकिन हां
भर दी थी। फिर किसी तरह निकाल कर कई बार रखा निकाला, फिर निकाल कर बाहर आया। फिर
कहा कि यह पहन लें। बहुत शानदार कोट था, पगड़ी थी। उस मित्र ने पहन ली। फिर वे दोनों
गए।
रास्ते
भर मित्र से बात तो करता था, लेकिन
बार-बार देख लेता था अपने कपड़ों को। क्योंकि आज खुद तो साधारण पहने था और मित्र, जो उसके ही कपड़े थे, अच्छे पहने था और शानदार
मालूम हो रहा था। बड़ी गलती हो गई। जिसके घर मिलने गया था, वहां गया। वहां जाकर परिचय
दिया कि ये हैं मेरे मित्र जमाल। ये फलां-फलां गांव में रहते हैं, और रह गई कपड़ों की बात, सो कपड़े मेरे हैं!
वह
जमाल तो बहुत हैरान हो गया कि यह क्या मामला है। कपड़े की बात कहने की क्या जरूरत
थी! नसरुद्दीन भी घबड़ाया। कह कर पता चला कि यह तो गलती हो गई। यह तो कहने की बात न
थी कुछ। लेकिन मन में वही कपड़े घूम रहे थे, तो निकल गए। जो मन में घूमता है, वह रास्ता खोज लेता है। जो मन
में घूमता है,
वह
रास्ता खोज लेता है। बाहर निकल कर क्षमा मांगने लगा मित्र से कि माफ करना, माफ करना। मित्र ने कहा, माफ करने की बात, तुम पागल हो गए हो! यह कोई
कहने की बात थी कि कपड़े किसके हैं! नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं गलती हो गई। क्षमा
करें!
फिर
दूसरे घर में मिलने गए। वहां जाकर फिर उसने परिचय दिया और कहा, ये मेरे मित्र जमाल हैं।
फलां-फलां गांव से आए हैं। रही कपड़ों की बात, सो कपड़े इनके ही हैं। कौन कहता है कि मेरे
हैं?
वह
मित्र तो हैरान हो गया कि यह हो क्या गया इसको? यह कपड़ों का...? अब उसके मन में यह खयाल पकड़ा
रहा कि बड़ी गलती हो गई, बड़ी
गलती हो गई। यह कपड़ों की बात उठाई, तो गलती हो गई। अब किस तरह क्षमा मांगूं, क्या करूं! उसने सोचा कि उलटा
कर गुजरो। फिर निकल गई थी बात। तो उसने कहा, कौन कहता है कि मेरे हैं। कपड़े इन्हीं के
हैं। और घरवालों को तो कुछ पता ही नहीं था। वे कुछ हैरान ही हुए कि मामला क्या है!
फिर बाहर निकले,
तो उस
मित्र ने कहा,
मैं
जाता हूं। तुम्हारे साथ जाना खतरनाक मालूम पड़ता है। नहीं, उसने कहा, बिलकुल क्षमा कर दो। अब मैं
इसकी बात ही नहीं उठाऊंगा। इनका खयाल ही छोड़ दूंगा।
लेकिन
जिस चीज का कोई खयाल छोड़ना चाहता है, वही चीज पीछा पकड़ लेती है। देख लें किसी भी
चीज का खयाल छोड़ कर। फिर फंस गए आप उसी चक्कर में। फिर वे तीसरे मित्र के घर गए और
जाकर...। अब तो जमाल निश्चिंत हो गया है कि यह कह चुका, दो दफे भूल हो गई। हर बार भूल
नहीं होती। फिर उसने परिचय दिया कि ये रहे मेरे मित्र जमाल। फलां-फलां गांव में
रहते हैं। रह गई कपड़ों की बात, तो
करना फिजूल है;
करनी
ही नहीं चाहिए। कौन करता है, कोई
नहीं करता है! कपड़ों की बात करनी ही नहीं चाहिए। मैं कपड़ों की बात करना ही नहीं
चाहता हूं। किसी के भी हों, इससे
क्या लेना-देना है? अरे
कपड़े-कपड़े हैं। फिर मुझे पता नहीं। वे चौथे घर में शायद गए ही नहीं। उस मित्र ने
कहा, क्षमा कर दो, काफी हो गया। यह हो क्या गया
है तुम्हें?
आप भी
अपने से पूछ लेना। जो बात बार-बार मन में घूमती हो, कहीं आपने भी कोई ऐसी गलती तो
नहीं कर ली?
यह
ब्रह्मचर्य के नाम पर यही हो गया है। यह तीन-चार हजार वर्षों की रट कि स्त्री नरक
है, पाप का द्वार है, फलां है, ये सारी बेवकूफी की बातें, यह आदमी के मन में गहरी हो गई
हैं। और बच्चे को हम बचपन से ही रुग्ण कर देते हैं, स्त्री और पुरुष के बीच फासला
खड़ा कर देते हैं। दूरी खड़ी कर देते हैं। छोटे-छोटे बच्चों के बीच जहर बो देते हैं।
और फिर यह जहर जिंदगी भर उनका पीछा करता है।
स्त्री
से मुंह चुराना चाहते हैं; स्त्री
पुरुष से मुंह चुराना चाहती है। एक-दूसरे को देखने से बचना चाहते हैं। और इस सारे
बचने की कोशिश में कपड़ों वाली हालत हो जाती है कि सारे बचने की कोशिश करते हैं और
बार-बार पुरुष को स्त्री दिखाई पड़ जाती है, स्त्री को पुरुष दिखाई पड़ जाता है। जितना
भागते हैं एक-दूसरे से, पाते
हैं, उतनी ही थोड़ी दूर भाग कर फिर
मिलना हो जाता है। यह जो रोग हमने पैदा कर लिया है, किस बात से पैदा कर लिया है?
यह कोई
बुनियादी भूल हो गई है हमारी साइकोलाजी में, हमारे मनोविज्ञान में, कोई लोकमानस में कोई बुनियादी
भूल की बात खड़ी हो गई है। वह भूल यह हो गई है कि सेक्स से ज्यादा पवित्र, सेक्स से ज्यादा डिवाइन, सेक्स से ज्यादा भागवत और
ईश्वरीय कोई तथ्य नहीं है संसार में, क्योंकि उससे ही जीवन पैदा होता है। उससे ही
जीवन विकसित होता है। उससे ही सारे जीवन के फूल खिलते और जगत निर्मित होता है।
उसको जो जीवन में केंद्र है और जो जीवन का आधार है और जो परमात्मा की प्रक्रिया है, जीवन को जन्म देने की, उस प्रक्रिया की ही हम निंदा
कर रहे हैं। तो उस निंदा का फल यही हो सकता है कि हम उस निंदा करके डूब जाएं, उलझ जाएं और आब्सेशन बन जाए, रोग बन जाए। चित्त रुग्ण हो
जाए और सेक्स के आस-पास ही घूमने लगे, घूमने लगे, घूमने लगे। यह जो भूल हमने कर
ली है,
यह भूल
तब तक दूर नहीं होगी, जब तक
सेक्स के प्रति सम्मान का भाव पैदा नहीं होगा--रेवरेंस का भाव।
परमात्मा
के प्रेमी परमात्मा की जीवन प्रक्रिया के विरोधी नहीं हो सकते हैं। और मैं आपसे
कहता हूं कि जिस आदमी के मन में, यौन के
प्रति,
जो कि
परमात्मा की प्रक्रिया का सूत्र है, क्रिएटिविटी का राज और रहस्य है, जिसके मन में उसके प्रति
सम्मान है,
आदर है, मंदिर जैसी पवित्रता का भाव
है, वह आदमी सेक्स से मुक्त हो
सकता है। निंदा करने वाला कभी मुक्त नहीं हो सकता। वह आदमी मुक्त हो सकता है, वह आदमी मुक्त हो सकता है, लेकिन जो आदमी निंदा के भाव
से भरा है वह कभी मुक्त नहीं हो सकता।
लेकिन
यह निंदा का भाव हमारे भीतर गहरा है। और यह भाव हमें खाए जा रहा है, परेशान किए जा रहा है। फिर
इसको दबा लिया है सब तरफ से, तो
अनेक रूपों में निकलता है। अनेक रूपों में निकलता है। फिल्म बनती है, तो अश्लील और गंदी। और तब देश
भर के नेता,
देश भर
के गुरु,
देश भर
के विचारक चिल्लाने लगते हैं गंदी फिल्म नहीं बननी चाहिए। गंदी फिल्म बनती किसलिए
है? यह कोई नहीं पूछता। गंदी
फिल्म देखता कौन है, क्यों
देखता है?
यह कोई
नहीं पूछता। अश्लील पोस्टर नहीं लगने चाहिए। आंदोलन चलते हैं कि अश्लील पोस्टर
हटाओ। लेकिन यह कोई नहीं पूछता कि अश्लील पोस्टर को जो लोग देखने को तैयार हैं, उनके मन में कहीं कोई
बुनियादी भूल हो गई, अन्यथा
अश्लील पोस्टर को देखने को तैयार कौन होता?
और कोई
अश्लील पोस्टर आज बनाए जा रहे हैं? फिल्म आज बन रही है? दुनिया की पुरानी से पुरानी
किताबें अश्लील हैं और दुनिया के पुराने से पुराने मंदिरों के ऊपर इस तरह के चित्र
हैं, जो कोई फिल्म आज भी नहीं बना
सकती है। जाओ खजुराहो देखो, जाओ
पुरी और कोणार्क देखो, और
पूछो अपने से कि फिल्में अश्लील हैं कि इन मंदिरों को बनाने वाले लोग अश्लील रहे
होंगे?
तो कौन
अश्लील है और क्यों अश्लील है? सवाल
यह है।
पोस्टर
मिटाने से कुछ भी न होगा और खजुराहो के मंदिर गिरा देने से कुछ भी न होगा। फिर
आदमी नया तैयार कर लेगा। अगर मन की मांग है, तो आप कुछ रोक नहीं सकते। कालिदास और भवभूति
जैसे बड़े-बड़े साहित्यकारों का सारा साहित्य सेक्स से भरा हुआ है। क्या करोगे? ऐसे अश्लील कि पता न चले! यह
जो सारा का सारा रोग पैदा हुआ है, यह हुआ
क्यों है?
यह
सारा साहित्य,
यह
सारा संगीत,
ये
सारे नृत्य,
ये
सारे चित्र,
ये
सारी मूर्तियां,
ये
क्यों सेक्स के आस-पास खड़ी हो गई हैं? यह आदमी के बुनियादी जीवन में कोई भूल हो गई
है, इसलिए।
अगर एक
गांव को कुछ दिनों तक भूखा रखा जाए, तो उस गांव में आपको पता है, सपने लोग किस चीज के देखेंगे? औरतों के? नहीं। रोटी के, राजभोज के, महलों के, जहां राजा ने बुलाया है भोजन
के लिए। अगर एक गांव को निरंतर भूखा रखा जाए, तो उस गांव के साहित्यकार किस चीज के गीत गाएंगे--स्त्रियों
के? नहीं, रोटी के। वह गांव रोटी ही
रोटी के पास घूमने लगेगा। उस सारे गांव की चेतना रोटी से ही पकड़ जाएगी।
एक
जर्मन कवि हेन ने लिखा है कि एक बार मुझे तीन दिन भूखा रह जाना पड़ा। जब तक मेरा
पेट भरा था,
तो
चांद में मुझे अपनी प्रेयसी की तस्वीर दिखती थी। जब तीन दिन भूखा रहा, तो चांद मुझे ऐसा लगा जैसे
रोटी आकाश में लटकी हुई है। तब मुझे पहली दफा पता चला कि चांद न तो प्रेयसी का
चेहरा है,
न रोटी
है। मन में जो होता है, वह
वहां दिखाई पड?ने लगता है।
मनुष्य
के चित्त के संबंध में सेक्स के बाबत सबसे बड़ी भूल हो गई है। और यह भूल अच्छे लोग, ऋषि-मुनि करवाते रहे हैं।
इसका जिम्मा और पाप किन्हीं के ऊपर है, तो उनके ऊपर है। अब तक आदमी को सेक्स के
संबंध में स्वस्थ,
विज्ञानयुक्त
दृष्टि नहीं मिल सकी है। अब तक हम घबड़ाए हुए और भागे हुए हैं और हम भागे हुए
रहेंगे।
मैं
आपसे यह कहना चाहता हूं: धार्मिक व्यक्ति वह है, जो जीवन के सारे तथ्यों को
स्वीकार करता है। उनके मूल्य को समझता है और समझने की कोशिश करता है कि किसी चीज
का जीवन में क्या स्थान है।
सेक्स
जीवन में केंद्रीय तथ्य है। आपकी निंदा से केंद्र से नहीं हट जाएगा। सिर्फ इतना
होगा कि आप रुग्ण हो जाएंगे। सेक्स जीवन में केंद्रीय तथ्य है। इस केंद्रीय तथ्य
को किसने स्थापित कर दिया है केंद्र में? शैतान ने? पश्चिम के वैज्ञानिकों ने? फिल्म इंडस्ट्री के मालिकों
ने? अश्लील किताबें लिखने वालों
ने? किसने स्थापित कर दिया बीच
में? वह है।
परमात्मा
की यह सारी प्रकृति...। फूल भी पैदा होते हैं, पक्षी भी पैदा होते हैं, पौधे भी पैदा होते हैं, सारे पैदा होने की प्रक्रिया, यौन-प्रक्रिया है। जीवन उसी
धारा से बहता है,
उसी
गंगोत्री से बहता है। तो जहां से जीवन निकलता है, उस मूल स्रोत की निंदा करेंगे
तो रुग्ण हो जाएंगे, अस्वस्थ
हो जाएंगे,
परेशान
हो जाएंगे और फिर वह दमन दूसरे रास्ते खोजेगा, नये-नये रास्ते खोजेगा, नये-नये रास्ते खोजेगा।
मैं
आपसे क्या कहना चाहता हूं? मैं
आपसे यह कहना चाहता हूं कि पहली तो बात यह कि सेक्स के प्रति अत्यंत सम्मान, समादर का भाव चाहिए--निंदा और
शत्रुता का नहीं। सेक्स को उसी भांति लेना चाहिए, जैसे परमात्मा को--उतनी ही
पवित्रता से,
क्योंकि
स्रष्टा कहते हैं हम, परमात्मा
को। सेक्स सृष्टि है, उतने
ही सम्मान और आदर से...। और जब आपकी पत्नी, जिसे आप प्रेम करते हैं, वह जब आपके लिए इतनी सम्मान की
पात्र हो जाएगी--नर्क का द्वार नहीं...। क्योंकि नरक का द्वार कहने वाले लोग
अधार्मिक लोग रहे होंगे। जब वह इतने सम्मान का भाव ले लेगी, तो आप पाएंगे कि सेक्स खिलवाड़
नहीं रह गया,
क्योंकि
जिस बात को हम जितने सम्मान और श्रद्धा से देखते हैं, वह बात उतनी ही गुरु-गंभीर हो
जाती है। वह खेल नहीं रह गया, वह भोग
नहीं रह गया। वह पवित्रतम घटना है। वह प्रभु की प्रक्रिया में प्रविष्ट होना है।
तो उसकी तैयारी चाहिए। उसके लिए पवित्र और शांत और मौन हृदय चाहिए।
संभोग
की घटना उतनी ही मूल्यवान है, जितनी
ध्यान और समाधि की घटना, जितनी
प्रार्थना की घटना। जो व्यक्ति संभोग की प्रक्रिया में इतनी शांति और पवित्रता से
जाता है,
जैसे
मंदिर में,
वह
आदमी जान पाता है कि सेक्स क्या है। और जो सेक्स को जान पाता है, वह जिस दिन चाहे उसी दिन उससे
मुक्त हो सकता है,
एक
क्षण भी रुकने की कोई जरूरत नहीं।
और फिर
यह भी स्मरण रखें कि इतनी निंदा के बावजूद भी सेक्स हटता तो नहीं है और इतनी निंदा
के बावजूद सेक्स से जो बच्चे पैदा होते हैं, अगर वे बच्चे दीनऱ्हीन, कुरूप, अस्वस्थ, रुग्ण, मन से विक्षिप्त पैदा होते
हों, तो आश्चर्य नहीं है। क्योंकि
उनके मां-बाप दोनों ने ही जन्म की प्रक्रिया की निंदा की है और दुश्मन की तरह भाव
से देखा है। लेकिन अगर मां-बाप ने--दोनों ने पवित्रता के भाव से सेक्स को देखा हो, पूज्य भाव से, परमात्मा के भाव से, तो शायद ये बच्चे बिलकुल
दूसरे ढंग के पैदा होते।
यह जो
सारी मनुष्यता रुग्ण होती जा रही है--बीमार और अस्वस्थ और परेशान और बेचैन और
विक्षिप्त होती जा रही है, उसका
और कोई कारण नहीं है। सेक्स के प्रति अपमान का भाव उसका बुनियादी कारण है। एक नया
मनुष्य पैदा हो सकता है, जिस
दिन हम यौन के प्रति, काम के
प्रति पवित्रता की दृष्टि और प्रार्थना के भाव को अपना लेंगे। एक प्रेयरफुल मूड
चाहिए। और जो व्यक्ति उतने पवित्रता से देखता है, उस पवित्रता में ही--निंदा
में दमन पैदा होता है, पवित्रता
में मुक्ति पैदा होती है--और उतनी पवित्रता से देखने पर एक ट्रांसफार्मेशन, एक मन के भीतर एक बुनियादी
रूपांतरण होता है। वह रूपांतरण यह है कि सेक्स की सारी ऊर्जा प्रेम में परिवर्तित
हो जाती है। सेक्स की सारी ऊर्जा प्रेम में परिवर्तित हो जाती है।
जैसे
किसी घर के पास किसी आदमी ने कचरे का, खाद का ढेर लगा रखा हो और गंदगी फैल रही हो, और सारे घर में दुर्गंध भर गई
हो, पास-पड़ोस के लोगों का निकलना
मुश्किल हो गया हो, राहगीर
घबड़ा जाते हों। और वही आदमी उस खाद को अपनी बगिया में डाल दे और बीज बो दे फूलों
के, तो थोड़े ही दिनों में बगिया
हरियाली से भर जाएगी, फूलों
से भर जाएगी नाचते हुए, और राह
पर सुगंध बिखर जाएगी। यह सुगंध भी उस खाद की दुर्गंध का रूपांतरण है। लेकिन खाद को
घर में रख लें,
तो
दुर्गंध फैल जाती है। और खाद फूल बन जाए, तो सुगंध बन जाती है। वही खाद सुगंध की तरह
छितरा जाती है,
चारों
तरफ। जो भी निकलता है, धन्यवाद
देता जाता है,
इतनी
सुगंध!
ब्रह्मचर्य
सेक्स का विरोध नहीं, रूपांतरण
है। वह ट्रांसफार्मेशन है। सेक्स ही जब पवित्रतम भाव ले लेता है, सम्मान और प्रार्थनापूर्ण हो
जाता है,
ध्यानयुक्त
हो जाता है,
मेडिटेटिव
हो जाता है,
तब एक
क्रांति होती है भीतर और वह क्रांति यह होती है कि सेक्स प्रेम में बदल जाता है।
ये जो दुनिया में इतने बड़े-बड़े प्रेमी हुए हैं बुद्ध या क्राइस्ट जैसे लोग, इनका क्या हुआ है? इनके भीतर जो सेक्स था, वही रूपांतरित हुआ है। जितनी
ज्यादा सेक्स की शक्ति है मनुष्य के भीतर, उतने ही उसके जीवन में प्रेम के रूपांतरण की
संभावना है।
सेक्स
तो संपदा है। उससे लड़ कर उसको नष्ट मत कर लेना। उसे प्रेम से और आहिस्ता से बदलने
की कीमिया है। खोजना है, उसकी
केमिस्ट्री कि वह कैसे बदल जाए। और मैं कहता हूं, उस कीमिया के दो सूत्र
हैं--पहला सूत्र,
सम्मान
का भाव। और दूसरा सूत्र है, प्रेम
का निरंतर विकास। जितना प्रेम बढ़ेगा, उतनी सेक्स की शक्ति प्रेम के मार्गों से
प्रवाहित होने लगेगी और धीरे-धीरे आप पाएंगे--सारा प्रेम, सारा सेक्स, सारी सेक्स की शक्ति प्रेम के
फूल बन गई है,
और
जीवन प्रेम के फूलों से भर गया है।
सिर्फ
प्रेम को उपलब्ध व्यक्ति ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है। जितना बड़ा प्रेम--उतना बड़ा
ब्रह्मचर्य। लेकिन जिनको हम ब्रह्मचारी कहते हैं, वे तो प्रेम से ऐसे भागते हैं, जैसे कि कोई जंगली जानवर से
या भूत-प्रेत से भागता हो।
एक
छोटी सी घटना,
फिर
मैं अपनी बात पूरी करूं।
रामानुज
एक गांव में ठहरे थे। एक आदमी उनके पास आया और उसने कहा कि मैं परमात्मा को पाना
चाहता हूं। मैं क्या साधना करूं? रामानुज
ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा। शायद वे पहचान गए। और उन्होंने कहा कि इसके पहले कि
मैं तुझे कुछ बताऊं, तुझसे
मैं पूछता हूं--तूने कभी किसी को प्रेम किया? वह आदमी बोला, आप भी कहां की बातें पूछते
हैं! कहां की फिजूल बातें! छोड़िए। मैं ईश्वर को पाना चाहता हूं, प्रेम-व्रेम से क्या
लेना-देना?
मैंने
कभी किसी को प्रेम नहीं किया। उसने समझा होगा कि अगर मैं कहूं मैंने प्रेम किया, तो यह एक डिसक्वालिफिकेशन, एक अयोग्यता होगी, धर्म की दुनिया में। वहां
प्रेम-व्रेम करने वालों की कहां सुविधा है! वहां तो रूखे-सूखे लोग चाहिए, पत्थर की तरह, जिनके जीवन में कभी प्रेम का
अंकुर न खिला हो,
वही
लोग वहां जा सकते हैं।
उस
आदमी ने कहा कि नहीं नहीं, प्रेम
वगैरह से मेरा कोई संबंध-नाता नहीं रहा। आप तो मुझे प्रभु का रास्ता बताइए!
रामानुज ने कहा,
मैं
फिर पूछता हूं एक बार। कभी भी किसी को भी प्रेम किया हो? उस आदमी ने कहा, नहीं, सच मानिए, मैंने कभी किसी को प्रेम नहीं
किया है। मुझे प्रभु का रास्ता बताइए। रामानुज ने कहा, मैं तीसरी बार पूछता हूं
तुझसे,
न किया
हो प्रेम,
कभी
किसी के प्रति सिर्फ अनुभव किया हो भाव में? उसने कहा कि नहीं। मैं तो ईश्वर को खोजना
चाहता हूं।
रामानुज
उदास हो गए और उन्होंने कहा, फिर तू
कहीं और जा। अगर तूने किसी को भी प्रेम किया होता, तो उसी प्रेम को और बड़ा बनाया
जा सकता था,
कि वह
प्रार्थना बन जाए,
वह
प्रभु की यात्रा बन जाए। लेकिन तू कहता है, प्रेम तूने किया ही नहीं। तो तेरे पास बीज
ही नहीं है,
वृक्ष
कैसे बन सकता है?
मुझे
क्षमा कर,
तू
कहीं और जा। तूने किसी को भी प्रेम किया होता, तो उस प्रेम को और बड़ा किया जा सकता था, और विराट किया जा सकता था, अनंत किया जा सकता था। लेकिन
तू कहता है,
प्रेम
है ही नहीं मेरे भीतर, तो फिर
मैं असमर्थ हूं। फिर कुछ भी नहीं किया जा सकता है।
एक
व्यक्ति को भी जो प्रेम करता है, एक
क्षुद्रतम व्यक्ति को भी जो प्रेम करता है, उसने भी परमात्मा की तरफ पहला कदम उठा लिया।
हां, यहीं रुक जाए, तो पहले कदम से कोई यात्रा
पूरी नहीं होती। प्रेम किया है एक को, वह एक पर किया गया प्रेम धीरे-धीरे अनेक पर
फैलता चला जाए,
अनंत
पर फैलता चला जाए। प्रेम जितना विराट होता चला जाएगा, उतना ही भीतर सेक्स और काम
रूपांतरित होगा। और धीरे-धीरे आप पाएंगे, जिस दिन प्रेम की सुगंध चारों तरफ आपके
बरसने लगी,
उस दिन
आपके भीतर कोई वासना नहीं रह गई।
ब्रह्मचर्य
ऐसा आंखें फोड़ने से नहीं उपलब्ध होता। और ब्रह्मचर्य ऐसा जंगलों में भाग जाने से
नहीं उपलब्ध होता। और ब्रह्मचर्य स्त्रियों की तरफ पीठ कर लेने से या स्त्रियों के
पुरुषों की तरफ पीठ कर लेने से उपलब्ध नहीं होता। और ब्रह्मचर्य राम-राम के जप से
उपलब्ध नहीं होता। अपने को भुलाने की कोशिश मत करिए।
आदमी
को ठंड लगती है,
नदी
में नहाता है,
तो
जोर-जोर से कहने लगता है, हरे
राम, हरे राम! वह ठंड को भुलाने की
कोशिश कर रहा है। किसी आदमी को गली में, अंधेरे में डर लगता है, तो वह कहता है, जय हनुमान, जय हनुमान! वह डर को भुलाने
की कोशिश कर रहा है। ये जितने लोग सेक्स को भुलाने के लिए राम-राम-राम जप रहे हैं, ये सिर्फ भुलाने की कोशिश कर
रहे हैं;
ये
कहीं भी नहीं पहुंच सकते। ये कभी भी नहीं पहुंच सकते, पहुंचने का कोई इनके लिए कोई
उपाय नहीं है।
एक
अंतिम बात,
जो और
बहुत मित्रों ने पूछी है, वह मैं
कह दूं। फिर हम ध्यान के लिए बैठें। वह यह राम-राम के जप से मुझे खयाल आ गया।
अनेक मित्रों ने पूछा है कि क्या जप का कोई भी स्थान नहीं है? कि हम ओम को जपते हैं, हम गायत्री को जपते हैं, कोई राम-राम, कोई नमोकार, कोई कुछ, कोई कुछ। इनका क्या कोई उपयोग
नहीं है?
आप तो
इनके जप की कोई बात नहीं कहते!
इनका
उपयोग तो कोई भी नहीं है, लेकिन
इनसे पैदा होने वाली बाधा बहुत बड़ी है। किसी भी शब्द की पुनरुक्ति, किसी भी शब्द को बार-बार
रिपीट करना,
दोहराना
मनुष्य के मन में जड़ता पैदा करता है; ज्ञान नहीं, स्टुपिडिटी पैदा करता है; बुद्धिहीनता पैदा करता है; मंद बुद्धि पैदा करता है; मन की चैतन्य शक्ति को क्षीण
करता है,
शिथिल
करता है। यह हम सबको अनुभव है, लेकिन
खयाल नहीं।
अगर
यहां बैठ कर मैं एक ही शब्द को घंटे भर तक दोहराता रहूं, तो आपके भीतर क्या होगा? दो बातें होंगी--कुछ लोग तो
बहुत ऊब जाएंगे,
उठ कर
चले जाएंगे। कुछ लोग ऊब जाएंगे, लेकिन
शिष्टतावश उठेंगे नहीं तो सो जाएंगे। बस दो ही बातें हो सकती हैं, तीसरी कोई बात नहीं हो सकती।
एक मां
को अपने बच्चे को सुलाना होता है, तो
उसके पास बैठ जाती है। कहती है, राजा
बेटा सो जा,
राजा
बेटा सो जा,
राजा
बेटा सो जा। वह गायत्री का प्रयोग कर रही है! राजा बेटा घबड़ा जाता है, थोड़ी देर में कि क्या बकवास
लगा रखी है राजा बेटा सो जा, राजा
बेटा सो जा,
राजा
बेटा सो जा! अब राजा बेटा उठ कर कहीं जा भी नहीं सकता है! छोटा सा बच्चा है, कहां भागेगा? एक ही रास्ता है उसका भागने
का कि वह नींद में भाग जाए। सो जाए कि यह बकवास बंद हो, इससे छुटकारा हो। मां समझती
है कि हमारी लोरी की बहुत मधुरता की वजह से राजा बेटा सो गए हैं। राजा बेटा बोर्डम
की वजह से,
ऊब की
वजह से सो गए हैं। राजा बेटा तो अलग, राजा बेटा के बाप के साथ भी यही किया जाए, वे भी सो जाएंगे।
आदमी
ऊबता है रिपीटीशन से। पुनरुक्ति से ऊब पैदा होती है, घबराहट पैदा होती है, बेचैनी पैदा होती है, नींद आ जाती है। एक आदमी बैठा
हुआ राम-राम,
राम-राम, राम-राम, राम-राम कर रहा है। सिर्फ
नींद खोज रहा है,
आटो-हिप्नोसिस
खोज रहा है,
सम्मोहन
खोज रहा है,
खुद को
सुलाने की तरकीब खोज रहा है। थोड़ी देर के लिए तंद्रा पैदा हो जाएगी, अगर ऐसा दो-चार-छह महीने जपते
रहें तो। लेकिन तंद्रा ध्यान नहीं है और तंद्रा परमात्मा तक जाने का मार्ग नहीं
है। इसीलिए,
जिन
मुल्कों में इस तरह की रटंत की प्रक्रिया रही, उन मुल्कों की बुद्धि क्षीण हो गई।
भारत
में कोई विज्ञान पैदा नहीं हो सका--यह राम-राम के जप जैसी प्रक्रियाओं की वजह से।
भारत की सारी प्रतिभा नष्ट हो गई, क्योंकि
पुनरुक्ति से प्रतिभा नष्ट होती है। दोहराएं और प्रतिभा नष्ट होगी। प्रतिभा चाहती
है नया,
प्रतिभा
चाहती है नवीन। और पुराने, पुराने, पुराने को दोहराने से घबड़ाहट
पैदा होती है और नींद पैदा होती है।
कोई जप
कहीं नहीं ले जा सकता। मौन ले जाता है; और जप मौन नहीं है। शून्य भाव, मौन भाव, सायलेंस, चुप हो जाना प्रभु तक ले जाता
है। यह जप वगैरह सब बकवास है। एक ही शब्द को बार-बार दोहराएं या अनेक शब्दों को
अलग-अलग दोहराएं,
कोई भी
स्थिति में मौन नहीं होता, हर
हालत में मौन टूट जाता है। मौन पहुंचाएगा। मौन है प्रार्थना, मौन है द्वार, मौन है मार्ग--जप नहीं।
और अब
तो सारी दुनिया इस तथ्य को अनुभव कर रही है। नया मनोविज्ञान नई-नई खोजें कर रहा है, और उन खोजों में, सबसे महत्वपूर्ण खोजों में से
एक यह है कि पुनरुक्ति मनुष्य की चेतना को क्षीण करती है, डल करती है, शिथिल करती है, विकसित नहीं करती। इसीलिए
धार्मिक लोग जगत में कोई प्रतिभा का लक्षण नहीं प्रकट कर पाते। होना तो यह चाहिए
कि धार्मिक मनुष्य के भीतर ऐसी प्रतिभा का जन्म हो कि सारा जगत आलोकित हो, लेकिन यह नहीं हो पाता। यह
नहीं हो पाने का कारण है।
किसी
नाम का मैं विरोध नहीं कर रहा हूं। मुझे राम से कोई विरोध नहीं है। आप यह मत समझ
लेना कि मैं राम-राम जपने को नहीं कह रहा हूं, तो मैं राम का विरोधी हूं। नहीं, कोई भी शब्द--राम हो, अल्लाह हो, ओंकार हो, ओम हो, कुछ भी हो। और शब्द कोई भी
काम कर सकता है। अगर बैठ कर आप कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी कहें, तो भी वही फल होगा, जो राम-राम कहने से होता है।
उसका जो फल है चेतना पर, वह
शब्द की पुनरुक्ति का परिणाम है। इसलिए कोई भी शब्द की पुनरुक्ति कर लें।
अल्लाह-अल्लाह कर लें, राम-राम
करें, कुछ भी करें, कुछ भी! और उससे वही फल हो
जाएगा। यह फल कोई चेतना का ध्यान नहीं है। यह फल कोई प्रार्थना नहीं है। यह फल कोई
मुक्ति का मार्ग नहीं है।
ध्यान
या प्रार्थना का अर्थ मेरे लिए मौन है, सायलेंस है।
तो घड़ी, आधा घड़ी को चौबीस घंटे में
बिलकुल मौन होकर रह जाएं और चुपचाप जीवन के साथ एकता का अनुभव करें, वही प्रभु-स्मरण है। यह
नाम-जप वगैरह प्रभु-स्मरण नहीं है। फिर प्रभु का कोई नाम है जो आप उसका नाम जप
करेंगे?
नाम तो
आदमियों के भी झूठे हैं। आप पैदा हुए, तब आपको नाम दिया गया। आए आप बिना नाम
के--अनाम। फिर मां-बाप काम चलाने के लिए नाम दे देते हैं कि इनका नाम राम है, इनका नाम विष्णु है, इनका नाम कृष्ण है। ये नाम सब
कामचलाऊ हैं,
झूठे
हैं, ऊपर से चिपकाए गए हैं।
कोई
आदमी का कोई नाम नहीं है। यह सामने वृक्ष खड़ा है, इसका कोई नाम है? वृक्ष का कोई नाम नहीं है। सब
नाम आदमियों के दिए हुए हैं।
अगर
पृथ्वी पर आदमी समाप्त हो जाए, तो
किसी चीज का कोई नाम रह जाएगा? किसी
चीज का कोई नाम नहीं रह जाएगा। फिर भी दरख्त होंगे, आम होगा; फिर भी होगा। चांदत्तारे
होंगे,
लेकिन
नाम नहीं होगा। नाम अभी भी नहीं है उनका।
नाम
कहीं है ही नहीं जगत में, सिर्फ
आदमी की ईजाद है। और हम इतने होशियार हैं कि हमने चीजों के भी नाम रख लिए हैं, और परमात्मा का भी नाम रख
लिया है। नाम जैसी चीज बिलकुल मिथ, बिलकुल कल्पना है। तो परमात्मा का कोई नाम
नहीं है। सिवाय मौन के, शून्य
भाव के उससे कहीं मिलन नहीं हो सकता। इसलिए शून्य भाव को, मौन भाव को ही मैं ध्यान कहता
हूं।
और
बहुत से प्रश्न रह गए हैं। प्रश्न तो हमेशा रह जाते हैं। मेरी इच्छा भी नहीं है कि
मैं सारे प्रश्नों का उत्तर दूं। मेरी इच्छा तो इतनी है कि आप सोचने-विचारने में
समर्थ हो जाएं। मैंने इतने जो प्रश्नों के उत्तर दिए, उसका यह मतलब नहीं कि मैं जो
उत्तर दे रहा हूं,
वही
उत्तर है। यह मतलब नहीं है। यह मैं अपने उत्तर दे रहा हूं। यह आपके भी उत्तर बनें, यह जरूरी नहीं है। आप इन पर
विश्वास करें,
यह
बिलकुल आवश्यक नहीं है। आप इन पर सोचें, विचार करें, तो आपके सोचने और विचारने से
आपके भीतर वह विवेक पैदा होगा, जो
आपके जीवन-पथ पर दीया बन जाएगा और आपको ले जाएगा।
मेरे
उत्तर का कोई सवाल नहीं है, कोई
मूल्य नहीं है। आपका प्रश्न मूल्यवान है। और जिस दिन आपके भीतर अपना उत्तर आएगा, उसी दिन वह उत्तर भी मूल्यवान
होगा। लेकिन वह उत्तर आएगा कैसे? जब तक
आप दूसरों के उत्तर पकड़ते रहेंगे, तब तक
आपका अपना उत्तर नहीं आ सकता है। जिस दिन आप सब उत्तर छोड़ देंगे और अपने उत्तर की
तलाश में शांत और शून्य होकर खोज करेंगे, उस दिन वह उत्तर आएगा, जो आपके जीवन का समाधान बन
जाता है।
तो
मेरी बातों पर विश्वास कर लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसलिए मेरी बातों से
क्रुद्ध होने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। मेरी बातों पर सिर्फ आप सोच सकें, विचार कर सकें, चिंतन कर सकें--वे फिजूल
मालूम पड़ें,
फेंक
दें उन्हें फिर। और अगर उनमें से कोई चीज आपको अपने विचार से ठीक मालूम पड़ी, तो फिर वह मेरी नहीं रह गई, वह आपकी अपनी हो गई।
जो
आपके विचार से आपको ठीक मालूम पड़ी, वह आपकी अपनी हो जाती है। और वही सत्य मूल्य
का है,
जो
आपका अपना है। जो उधार और दूसरे का है, वह व्यर्थ है। अपने सत्य की इस खोज में
प्रभु आपको ले जाए, यह
अंतिम कामना करता हूं। इसके बाद हम ध्यान के लिए बैठेंगे।
इन तीन
दिनों में मेरी इतनी बातें सुनीं, इतने
प्रेम से,
इतनी
शांति से उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को
प्रणाम करता हूं,
मेरे
प्रणाम स्वीकार करें।
साधना शिविर, जूनागढ़; २१ मई, १९६८; रात्रि.
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