मेरे
प्रिय आत्मन्!
मैं
अत्यंत आनंदित हूं कि जीवन के संबंध में और उसके परिवर्तन के लिए थोड़ी सी बातें
आपसे कह सकूंगा। इसके पहले कि मैं कुछ बातें आपको कहूं, एक छोटी सी कहानी से चर्चा को प्रारंभ
करूंगा।
एक
बहुत अंधेरी रात में एक अंधा आदमी अपने एक मित्र के घर मिलने गया था। जब वह वापस
लौटने लगा, तो रास्ता अंधेरा था और अकेला था। उसके
मित्र ने कहा कि मैं एक लालटेन हाथ में दिए देता हूं ताकि रास्ते पर साथ दे।
वह
अंधा आदमी बोला, मेरे लिए लालटेन का क्या उपयोग होगा? मेरे लिए तो हाथ में लालटेन हो तो और न हो
तो, दोनों हालतों में रास्ता अंधेरा है।
फिर भी
उसके साथी ने कहा, लालटेन लेते ही जाओ। तुम्हारे लिए तो प्रकाश
नहीं होगा, लेकिन कम से कम दूसरे लोग समझ सकेंगे कि तुम
रास्ते पर हो और वे टकराने से बच जाएंगे।
वह
अंधा आदमी उस लालटेन को लेकर गया। लेकिन थोड़ी देर बाद ही एक दूसरा आदमी उससे टकरा
गया। उस अंधे आदमी ने पूछा,
क्या बात है? क्या मेरी लालटेन बुझ गई है?
वह
दूसरा व्यक्ति बोला, मुझे कुछ दिखाई नहीं पड़ता। लालटेन तो मैं भी
लिए हुए हूं। मैं अंधा हूं।
वे
दोनों ही अंधे थे और दोनों के हाथ में लालटेन थी, लेकिन
दोनों टकरा गए और गिर गए।
हमारी
दुनिया की स्थिति करीब-करीब ऐसी हो गई है। सबके पास अच्छे विचार हैं। सबके पास
अच्छे खयाल हैं। सभी को पता है कि ठीक क्या है। लेकिन आंखें न होने से हम सब टकरा
जाते हैं और गिर जाते हैं। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जिसे यह पता न हो कि ठीक
क्या है। सदविचार सभी को पता हैं। लेकिन आंखें न होने से उनका कोई मूल्य नहीं है, और वे अंधेरे में अंधे के हाथ में प्रकाश की
तरह सिद्ध होते हैं।
दुनिया
में सदपुरुषों की भी कोई कमी नहीं है। वे भी हमेशा पैदा होते हैं। उनके विचार भी
लोगों को उपलब्ध होते हैं। लेकिन हमारे पास आते-आते वे विचार निष्प्राण हो जाते
हैं, और हमारे लिए उनका कोई उपयोग नहीं हो पाता।
उसका एक ही कारण है। और उसका कारण यह है कि अगर हमारे पास आंखें न हों तो प्रकाश
का कोई अर्थ नहीं होता है।
इसलिए
आज की इस दोपहर मैं आपको कोई अच्छे विचार दूं, इसका
कोई मतलब न होगा। अच्छे विचार तो बहुत हैं। और मैंने एक अरबी कहावत सुनी है। बड़ी
अदभुत कहावत है, जिसमें यह कहा गया है कि नरक का रास्ता
अच्छे विचारों से पटा हुआ है। मैं बहुत हैरान हुआ। नरक का रास्ता अच्छे विचारों से
पटा हुआ है! यह बात बड़ी अजीब मालूम होती है। लेकिन यह सच है। जो लोग अच्छे विचार
ही करते रहते हैं, उनका जीवन नरक की तरफ ही चला जाता है। अच्छे
विचार पर्याप्त नहीं हैं। अच्छे विचारों का कोई मूल्य नहीं है। अच्छे विचारों का
मूल्य तो तभी है, जब हमारे पास ऐसी आंख हो कि वे विचार हमारे
आचरण और जीवन में फलित हो जाएं।
यह भी
लोग कहते हैं कि अच्छे विचारों को हमें जीवन में उतारना चाहिए, आचरण करना चाहिए। लेकिन यह भी करीब-करीब
वैसी ही बात है, जैसे हम किसी बीमार आदमी से यह कहें कि तुझे
अपनी बीमारी छोड़ देनी चाहिए। बीमार आदमी को यह कहने से क्या फायदा होगा कि तुम
अपनी बीमारी छोड़ दो? बीमारी छोड़ी नहीं जाती। बीमारी का तो उपाय
होता है, औषधि होती है, उपचार
होता है। वैसे ही बुरे जीवन के आचरण को छोड़ा नहीं जाता, बल्कि अंतस चेतना का उपचार किया जाता है तो
बुरा आचरण अपने आप छूट जाता है।
एक बात
मैं आपको कहूं। अच्छे विचारों को सोच-सोच कर कोई आचरण में नहीं ला सकता। आचरण
विचारों से पैदा नहीं होता है। आचरण बहुत ही अलग बात है और उसके पैदा होने का
रास्ता बहुत दूसरा है। अगर अच्छे विचारों से आचरण पैदा होता हो, तो दुनिया सब आचारवान बन गई होती, क्योंकि अच्छे विचारों की कहां कमी है! वे
तो अतिशय हैं। वे तो बहुत ज्यादा हैं। लेकिन उनसे कोई मतलब नहीं है। अगर हम
बीमारों को यह समझाएं कि तुम अपनी बीमारी छोड़ दो, और अगर
चिकित्सक केवल इतना समझाने का काम करें कि सबको अपनी बीमारी छोड़ देनी चाहिए, तो दुनिया बीमारों से भर जाएगी। उपदेश बहुत
होंगे, लेकिन बीमारियां दूर नहीं होंगी। बीमारी को
उपदेश से दूर नहीं किया जाता। यह तो बीमार भी जानता है कि बीमारी बुरी है और अलग
होनी चाहिए। लेकिन बीमारी छूटती नहीं है। उसकी तो औषधि होती है, उसका तो मार्ग होता है, उसका तो उपचार होता है। वैसे ही, जिसे हम बुरा आचरण कहते हैं, वह भी बीमारियों की तरह है। बुरा आचरण भी
हमारे आंतरिक मन की बीमारियां हैं। और इन बीमारियों को भी छोड़ने का उपाय नहीं है।
इन बीमारियों का भी इलाज हो सकता है, औषधि
हो सकती है, ऐसी विधि हो सकती है कि ये विलीन हो जाएं।
मेरा
देखना यही है। मैं आपसे यह नहीं कहता कि आप बुरे काम छोड़ दें, बुरा आचरण छोड़ दें, जीवन से बुरी वृत्तियां छोड़ दें। मैं आपको
यह कहता हूं, जैसे कि यहां अंधकार भरा हो, तो मैं यह नहीं कहूंगा कि अंधकार को निकाल
कर बाहर कर दें। मैं कहूंगा,
प्रकाश जलाएं, दीया जलाएं। अंधकार अपने से दूर हो जाएगा।
जैसे अंधकार दूर हो जाता है प्रकाश के जलाने से, वैसे
ही मनुष्य के आंतरिक जीवन में भी प्रकाश को जलाने का उपाय है। उसके जलते ही आचरण
की बुराइयां दूर होनी शुरू हो जाती हैं। आज तक किसी मनुष्य ने बुराइयों को छोड़ा
नहीं है, बुराइयां अपने से विलीन हो जाती हैं और गिर
जाती हैं।
ऐसा
मनुष्य के आंतरिक जीवन में प्रयोग किया जा सकता है। मनुष्य की अंतस चेतना को इस
भांति प्रज्वलित किया जा सकता है,
इस भांति प्रकाश से भरा जा
सकता है कि उसका सारा जीवन परिवर्तित हो जाए।
यह जो
मैं कह रहा हूं, यह जो मेरी दृष्टि है कि मनुष्य के भीतर कोई
क्रांति और परिवर्तन हो सकता है,
जिससे उसका सारा आचरण बदल जाए, इसे विचार कर समझ लेना जरूरी है। अगर यह
हमारी समझ में न आए तो यह होगा कि हम जीवन भर अच्छे विचार करेंगे और सोचेंगे अपने
को बदलने की बात, लेकिन अपनी बदलाहट संभव नहीं होगी। अधिक लोग
सारे जीवन पीड़ित होते हैं कि वे शुभ बन जाएं, भले बन
जाएं। और वे जैसे थे वैसे ही समाप्त हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें पता नहीं होता कि
शुभ कैसे बना जाए। और जो लोग उपदेश देते हैं शुभ बनने का, वे भी केवल उपदेश देते हैं कि आपको शुभ हो
जाना चाहिए! और अगर आप नहीं होते तो आप ही को कसूरवार ठहराते हैं, आपको ही दोषी ठहराते हैं और उनकी लांछना यही
होती है कि लोग हमारे विचारों को आचरण में नहीं लाते।
मैं
आपसे यह नहीं कहूंगा। आपका कोई कसूर नहीं है अगर आप विचारों को आचरण में न ला पाते
हों। कसूर इस बात का है कि आपको ठीक से पता नहीं, आपको
इस बात का पता नहीं है कि आचरण के बदलने की कीमिया और कुंजी विचार नहीं है। आचरण
को बदलने की कीमिया और कुंजी कुछ और है। वह विचार न होकर, उसका नाम योग है। वह आपके सोच-विचार से
संबंधित नहीं, बल्कि आपकी अंतस चेतना को बदलने का एक
विज्ञान है। वह विज्ञान अगर थोड़ा सा समझ में आ जाए तो आप अपने में क्रांतिकारी
फर्क होते अनुभव करेंगे। अचानक आपको दिखाई पड़ेगा कि आपका जीवन दूसरा होने लगा।
कुछ
दिन हुए एक व्यक्ति मेरे पास आए और उन्होंने मुझे कहा कि मैं कुछ बातें छोड़ना
चाहता हूं जीवन भर से, लेकिन छोड़ नहीं पाता हूं। मैंने उनसे कहा, कभी ऐसे लोग, जो कुछ
छोड़ना चाहते हैं, वे लोग कभी कुछ नहीं छोड़ पाए हैं। इसलिए आप
बहुत परेशान न हों। वे बोले,
लेकिन ये बातें ऐसी हैं कि
मुझे छोड़ना ही हैं, मेरा सारा जीवन नष्ट हुआ जाता है। उन्होंने
मुझे कहा कि मुझे तो इतनी परेशानी है, लेकिन
मैं शराब पीए चला जाता हूं। मैं इसे छोड़ना चाहता हूं; और आज दस वर्षों से लड़ रहा हूं। और जितना
लड़ता हूं उतना ही मैंने पाया कि यह बढ़ती चली जाती है, यह छूटती नहीं है। मैंने उनसे कहा, इस जीवन में पूरे लड़ते रहे, तब भी यह छूटेगी नहीं। इसकी फिकर छोड़ दें।
कुछ और करें।
मैंने
उन्हें अपने निकट बुलाया और मैंने उनसे कहा, कुछ
प्रयोग करें अपने मन पर। क्योंकि मैंने कहा कि वह आदमी शराब पीता है, जो आदमी अशांत होता है, दुखी और पीड़ित होता है। जो आदमी आनंदित है
वह कभी नशा नहीं करेगा। असंभव है। दुनिया जितनी दुखी होती जाएगी, उतना ही दुनिया में नशा बढ़ता चला जाएगा। दुख
होगा, नशा स्वाभाविक है। उसका परिणाम है। आनंद
होगा, नशा असंभव है। उसका कोई कारण, उसकी कोई जरूरत नहीं रह जाती। मैंने उनसे
कहा, नशे को छोड़ने की फिकर छोड़ दें, शांत और आनंदित होने का उपाय करें।
उन्होंने
कुछ साधना शुरू की शांत होने के लिए। और तीन महीने बाद उन्होंने मुझे आकर कहा, मैं तो हैरान हूं। आज मुझे कोई कहे कि पीओ, तो मेरी समझ में नहीं आता कि मैं पहले कैसे
पीता रहा! अब तो मैं नहीं पी सकता हूं, अब तो
शराब छूना भी मुझे असंभव है।
सारी
दुनिया पीड़ित है इस बात से। हम कुछ चीजों को छोड़ना चाहते हैं, लेकिन हम इस बात को नहीं समझ पाते कि उनकी
जड़ें कहां हैं। उन्हें छोड़ने के लिए उनके मूल कारणों को तोड़ने की हम बात नहीं
विचार कर पाते और हम करीब-करीब ऊपर सारी चेष्टा करते हैं। जैसे कोई व्यक्ति किसी
पौधे को नष्ट करना चाहता हो--उसकी शाखाओं को काट दे, पत्तों
को गिरा दे, तो क्या होगा? कोई
शाखाएं काट देने से और पत्ते गिरा देने से वृक्ष नष्ट नहीं होगा, बल्कि जितना वह काटेगा उतनी नई शाखाएं
निकलने लगेंगी, उतनी ज्यादा शाखाएं निकलने लगेंगी। और तब वह
घबड़ाएगा कि मैं रोज वृक्ष को काटता हूं और यह तो वृक्ष है कि बढ़ता चला जाता है।
बुराई
का वृक्ष इस तरह बढ़ता है कि हम उसकी शाखाएं काटते हैं और उसकी जड़ों को नहीं जानते।
इसलिए पूरे जीवन कोशिश करने के बाद भी आदमी बुराई से मुक्त नहीं हो पाता।
मैं
कुछ उन जड़ों की बात आपसे करूं,
जिनको काटने से बुराई गिर
जाती है, जिनको काटने से बुराई रह ही नहीं सकती। और
उसमें से प्रधान जो जड़ है: जो मनुष्य अपने अंतस में जितना दुखी होता है, उतना उसका जीवन बुरा होता चला जाता है। और
जो मनुष्य अपने अंतस में जितने आनंद को उपलब्ध होता है, उतना उसका जीवन शुभ होता चला जाता है। लोग
सोचते हैं कि शुभ होने से आनंद उपलब्ध होगा। और मैं सोचता हूं कि आनंद उपलब्ध होगा
तो जीवन शुभ हो जाता है। जो व्यक्ति भीतर आनंदित है, उसके
लिए असंभव होता है कि वह किसी को दुख दे सके। और पाप का कोई अर्थ नहीं है। पाप का
एक ही अर्थ है: ऐसे काम जिनसे दूसरों को दुख पहुंच जाता हो। और पुण्य का एक ही
अर्थ है: ऐसे काम जिनसे दूसरों के जीवन में सुख पहुंच जाता हो।
क्राइस्ट
ने एक बहुत अदभुत वचन कहा है। उन्होंने कहा है: जो तुम नहीं चाहते कि दूसरे लोग
तुम्हारे साथ करें, वह तुम दूसरे लोगों के साथ मत करना। और इस
छोटे से वचन में सारे धर्म का सार आ जाता है। अब तक मनुष्यों ने जो भी श्रेष्ठतम
विचार किए हैं, जो भी श्रेष्ठतम अनुभूतियां की हैं, वे इस छोटे से वचन में आ जाती हैं: तुम
दूसरों के साथ वह मत करना जो तुम नहीं चाहते कि दूसरे तुम्हारे साथ करें।
मैं
नहीं चाहता कि कोई मेरा अपमान करे,
तो मुझे दूसरों का अपमान नहीं
करना चाहिए। मैं नहीं चाहता कि कोई मेरे ऊपर क्रोधित हो, तो मुझे दूसरे पर क्रोधित नहीं होना चाहिए।
अगर इतनी सी बात, इतनी सी व्यवस्था जीवन में सध जाए, तो जीवन बहुत सुगंध से, बहुत शांति से, बहुत संगीत से भर जाता है। लेकिन यह कैसे
संभव होगा? यह कैसे संभव होगा कि जो मैं चाहता हूं कि
मेरे साथ कोई न करे, वह मैं दूसरे के साथ न करूं? यह तभी संभव होगा जब मुझे यह अनुभव हो जाए
कि जो मेरे भीतर बैठा है,
वही दूसरे के भीतर भी
विराजमान है। उसके पहले यह संभव नहीं हो सकता। यह तभी संभव होगा कि जितना प्रेम
मुझे अपने प्रति है, उतना ही प्रेम मुझे दूसरे के प्रति भी पैदा
हो जाए। यह तभी हो सकता है जब मैं सब लोगों के भीतर एक ही परमात्मा के निवास को
अनुभव कर लूं। इसके पूर्व यह असंभव है।
क्राइस्ट
के जीवन में एक उल्लेख है। वे एक गांव के बाहर ठहरे हुए थे। और कुछ लोग एक स्त्री
को लेकर उनके पास गए और उन लोगों ने कहा, इस
स्त्री ने व्यभिचार किया है। हम इसे क्या सजा दें? पुरानी
किताब में लिखा हुआ है, पुरानी धर्म की किताब में लिखा हुआ है--इसे
पत्थर मारो और मार डालो।
उन्होंने
क्राइस्ट से इसलिए यह पूछा कि इससे दो बातें साफ हो जाएंगी। एक तो यह बात साफ हो
जाएगी, अगर क्राइस्ट यह कहेंगे कि इसे पत्थरों से
मार डालो, तो हम कहेंगे, आप तो
कहते थे कि जो एक गाल पर चांटा मारे उसके सामने दूसरा कर देना चाहिए। और आप तो
कहते थे, जो घृणा करे उसको प्रेम करना चाहिए। और आप
तो कहते थे कि जो चोट पहुंचाए उसको क्षमा कर देना चाहिए। तो फिर आप यह क्या कह रहे
हैं? और अगर क्राइस्ट ने कहा कि इसे पत्थर मत
मारो, यह बुरा है। तो हम कहेंगे, यह तो धर्मग्रंथ के विरोध में आप कह रहे हैं, आप तो धर्मशास्त्र के विरोध में हैं।
इस वजह
से वे एक स्त्री को लेकर क्राइस्ट के पास गए और उन्होंने क्राइस्ट से कहा कि हम इस
स्त्री के साथ क्या करें?
इसने व्यभिचार किया है।
क्राइस्ट
ने कहा, जो पुरानी किताब में लिखा है, वही करो। सारे लोग पत्थर उठा लो और इसे मार
डालो।
वह
स्त्री तो बहुत घबड़ा गई। उसने सोचा था कि क्राइस्ट के पास जाने से शायद जीवन बच
जाए, क्योंकि वे शायद ही इस बात के लिए कहेंगे कि
मार डाला जाए। लेकिन जब उन्होंने कहा कि सारे लोग पत्थर उठा लो और इसे समाप्त कर
दो, तो वह स्त्री घबड़ा गई। सारे लोगों ने पत्थर
उठा लिए और वे सारे लोग मारने को थे, तब
क्राइस्ट ने कहा, एक क्षण ठहरो। वह आदमी सबसे पहले पत्थर मारे
जिसने कभी व्यभिचार न किया हो या व्यभिचार का विचार न किया हो।
उस
पूरी भीड़ में एक भी आदमी ऐसा नहीं था जिसने व्यभिचार न किया हो या व्यभिचार का
विचार न किया हो। क्राइस्ट ने कहा,
वह आदमी पत्थर मारने का हकदार
नहीं होगा। वे पत्थर नीचे गिर गए और वे लोग वापस लौट गए। और उन्होंने उस स्त्री से
कहा, कोई व्यक्ति इस जगत में किसी दूसरे का
निर्णायक नहीं हो सकता। अदभुत उन्होंने उस स्त्री से बात कही: इस जगत में कोई
व्यक्ति किसी दूसरे का निर्णायक नहीं हो सकता।
नासमझ
जो हैं, वे इस जगत में दूसरों का विचार करते रहते
हैं और निर्णय करते रहते हैं। और जो समझदार हैं, वे
अपना विचार करते हैं और अपना निर्णय करते हैं। वे अपने संबंध में सोचते हैं: मैं
कहां हूं और क्या हूं? वे इस संबंध में विचार करते हैं कि मेरी
जीवन-स्थिति कैसी है और क्या है?
और वे इस संबंध में विचार कर
सकते हैं कि क्या मैं उस सारी संभावनाओं को अपने भीतर विकसित कर सका हूं, जिसके कि बीज मेरे भीतर थे? या कि मैंने जीवन को व्यर्थ खो दिया है? जो जानते हैं, जो
थोड़ा विचार करते हैं, जिनमें थोड़ा विवेक है, वे अपना निर्णय और विचार करते हैं। वे अपनी
जीवन-दशा पर चिंतन करते हैं। और जो अज्ञानी हैं, जो
नहीं जानते, वे दूसरों की जीवन-दशाओं पर चिंतन और विचार
करते हैं।
पहली
बात, जिस व्यक्ति को जीवन-परिवर्तन करना हो, उसके लिए पहला सूत्र है: उसे दूसरों का
निर्णय और विचार छोड़ देना चाहिए। इस जगत में आपके लिए कोई भी विचारणीय नहीं है
सिवाय आपके। आप अकेले ही विचारणीय हो अपने लिए। प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए ही
विचारणीय है, और इस जगत में कोई भी विचारणीय नहीं है। और
अगर कोई अपने पर विचार करना शुरू करेगा, तो उसे
दिखाई पड़ेगा: जिन बुराइयों की उसने दूसरों में निंदा की है, वे बहुत बड़ी मात्रा में उसमें मौजूद हैं। और
जिन भलाइयों की उसने दूसरों में आकांक्षा की है, उनका
उसके भीतर कोई पता नहीं है। उसे दिखाई पड़ेगा कि जिन भलाइयों की उसने दूसरे में
अपेक्षा की है, उनका उसके भीतर कोई प्रमाण नहीं है होने का; और जिन बुराइयों की उसने सदा दूसरों में
निंदा की है, उनकी भीड़ की भीड़ उसके भीतर मौजूद है।
जब ऐसा
दिखाई पड़ता है तो घबड़ाहट पैदा होती है, तब
संताप पैदा होता है, तब वह बेचैनी पैदा होती है जो मनुष्य को
धार्मिक बनाने में धक्का देती है। उसके पहले कोई आदमी धार्मिक नहीं बनता। इसे
स्मरण रखें, वही व्यक्ति केवल धार्मिक बन सकता है जिसे
यह बेचैनी पैदा हो गई हो कि सारी दुनिया की बुराइयां उसके भीतर हैं, और भलाइयों का कोई पता नहीं है। तब घबड़ाहट
होना बहुत स्वाभाविक होगा। और इसी घबड़ाहट से बचने के लिए सारे लोगों ने यह तरकीब
ईजाद की है कि वे अपनी भलाइयां देखते हैं और दूसरों की बुराइयां देखते रहते हैं।
जो लोग
धार्मिक नहीं होना चाहते,
जो जीवन में कोई क्रांति और
परिवर्तन नहीं करना चाहते,
उनके लिए एक ही तरकीब और
रास्ता है कि वे दूसरों की बुराइयों का विचार करते रहें। इस भांति अपनी बुराइयां
दिखनी बंद हो जाती हैं, उनका विस्मरण हो जाता है। हमारा चिंतन
दूसरों की बुराइयों में लग जाता है,
खुद की बुराइयां उपेक्षित और
दबी हुई रह जाती हैं। यही भूल है। अगर मैं कहूं, यही
एकमात्र भूल है जो मनुष्य अपने साथ कर सकता है।
तो
पहली बात स्मरणीय है, हम अपना निर्णय, अपना विचार, अपने
संबंध में इस चिंतन को जन्म दें कि हम कहां खड़े हैं? और किस
स्थिति में और किस दशा में खड़े हैं?
और जब हम इस दशा को देखेंगे
तो हमें कुछ बातों में सबसे पहली बात तो यह दिखाई पड़ेगी कि हमारे पल्ले में, हमारे पास भलाई के नाम पर कुछ भी नहीं है।
फूलों के नाम पर हमारे पास कुछ भी नहीं है सिवाय कांटों के। और कोई व्यक्ति कांटों
के साथ रह कर आनंद को कैसे उपलब्ध हो सकता है? और कोई
व्यक्ति सारी बुराइयों को अपने भीतर रख कर शांति को और संगीत को कैसे उपलब्ध हो
सकता है? स्वाभाविक होगा कि उसका जीवन नष्ट होता चला
जाए। उसका जीवन दुख से दुख में गिरता चला जाए। उसका जीवन अंधकार से और अंधकार में
विलीन होता चला जाए। और एक दिन वह पाए कि उसने सारा अवसर, जिसमें कि प्रकाश मिल सकता था, खो दिया है; जिसमें
कि आलोक मिल सकता था, खो दिया है;
जिसमें कि कुछ होने की संभावना थी,
वह मौका उसके हाथ से निकल गया
है; जब कि बीज बोए जा सकते थे और फसल काटी जा
सकती थी, वह मौसम उसके हाथ से निकल गया है। और तब
बहुत गहन पश्चात्ताप मनुष्य को घेर लेता है। मृत्यु के समय जो दुख होता है, वह मृत्यु का नहीं होता। क्योंकि मरने के
पहले मृत्यु का कैसे पता चलेगा?
मृत्यु के समय जो पीड़ा पकड़ती
है, वह पीड़ा पकड़ती है जीवन के उस अवसर के खो
जाने की, जिसमें हम कुछ भी नहीं कमा पाए, जिसमें हम किसी संपत्ति को पैदा नहीं कर
पाए।
इसलिए
जिन लोगों को कुछ संपत्ति मिल जाती है, वे
मरते समय दुखी नहीं देखे जाते। केवल थोड़े से लोग इस जमीन पर मरते समय आनंद से भरे
होते हैं, जिन्होंने कुछ संपत्ति कमाई होती है, जिन्होंने भीतर का कोई संगीत पैदा किया होता
है, जिन्होंने आलोक के कोई दर्शन किए होते हैं।
एक बहुत प्राचीन फकीर ने कहा है कि मृत्यु के समय पता चल जाता है कि जीवन कैसा था।
मृत्यु उघाड़ देती है कि जीवन कैसा था। जिसकी मृत्यु आनंद से भरी हो, जानना चाहिए, जीवन
सार्थक हुआ। और जिसकी मृत्यु दुख से भरी हो, जानना
चाहिए, जीवन व्यर्थ गया।
यह तो
अभी हम पहचान सकते हैं। अगर इसी क्षण आपकी मृत्यु हो तो क्या होगा? अगर आप यह विचार करें कि इसी क्षण मेरी
मृत्यु हो जाए तो क्या होगा?
क्या उस समय आपके हाथ में कुछ
होगा? क्या आपकी कोई संपदा होगी? कोई उपलब्धि होगी? कुछ होगा जो आपको लगेगा कि मेरे साथ है, मैंने कुछ कमाया है? अगर नहीं कुछ होगा तो बहुत दुख घेर लेगा।
मृत्यु का दुख नहीं है वह,
वह आंतरिक दरिद्रता का दुख
है। और जो आंतरिक रूप से समृद्ध होते हैं, उन्हें
वह दुख नहीं घेरता।
नानक
एक गांव में एक दफा मेहमान हुए थे। वे यात्रा में थे और एक गांव में ठहरे। एक बहुत
बड़े धनपति ने उनको आकर कहा कि मेरे पास बहुत संपत्ति है और मरने का समय मेरा करीब
आ गया, इस सारी संपत्ति को मैं धर्म में लगा देना
चाहता हूं। नानक ने नीचे से ऊपर तक उस व्यक्ति को देखा और कहा, तुम तो बहुत दरिद्र मालूम होते हो। तुम्हारे
पास कोई संपत्ति नहीं दिखाई पड़ती है।
वह
आदमी बोला, मैं सीधे-सादे लिबास में हूं, इसलिए आप समझे नहीं। मेरे पास बहुत है।
नानक
ने कहा, मुझे तो कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। मेरे पास
हजारों लोग आते हैं, मैं उनकी आंखों में देख कर समझ जाता हूं कि
उनके पास कुछ है या नहीं। तुम्हारे पास कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।
वह
बोला, आप मुझे आज्ञा दें तो पता चले कि मेरे पास
कुछ है या नहीं। कोई काम मुझे बताएं जिसमें मैं अपनी संपत्ति को लगा दूं।
नानक
ने एक छोटी सी सुई उसे दे दी और कहा, इसे
मरने के बाद मुझे वापस लौटा देना!
यह तो
बिलकुल पागलपन की बात हो गई। अगर मैं आपको एक सुई दे दूं--छोटी सी चीज है, छोटी से छोटी चीज है, इस जगत में उससे छोटा और क्या होगा? वह आपको मैं दे दूं और कहूं कि मरने के बाद
मुझे वापस लौटा देना। तो सुई तो बहुत छोटी है, काम
बहुत बड़ा हो गया। वह आदमी वहां तो कुछ भी नहीं कह सका, क्योंकि उसने खुद काम मांगा था; लेकिन वह रास्ते भर सोचते लौटा कि यह नानक
या तो पागल है या इसने खूब मजाक किया! रात भर उसने सोचा कि इस सुई को मरने के बाद
कैसे ले जाएंगे? लेकिन कोई उपाय उसे समझ में नहीं आया। उसने
बहुत तरह से मुट्ठी बांधने का विचार किया, लेकिन
सब तरह की बांधी हुई मुट्ठियां मृत्यु के इसी पार रह जाती हैं, उस पार कोई मुट्ठी नहीं जाती। उसने सब तरह
के उपाय सोचे, लेकिन कोई उपाय कारगर नहीं होता था। वह सुबह
चार बजे लौटा और नानक के पैर पड़े और कहा, यह सुई
वापस ले लें। कहीं उधारी मेरे ऊपर न रह जाए। इसे मैं मृत्यु के बाद वापस नहीं लौटा
सकूंगा।
नानक
ने कहा, तुम्हारी संपत्ति का क्या हुआ? साथ नहीं पड़ती? तुम्हारी शक्ति का क्या हुआ? साथ नहीं देती?
वह
व्यक्ति बोला, इस सुई को मृत्यु के पार ले जाने में मेरी
संपत्ति सहयोगी नहीं है।
नानक
ने उससे कहा कि संपत्ति केवल वही है जिसे मृत्यु नष्ट न कर पाए। और जिसे मृत्यु
छीन लेती हो, उसे नासमझ संपत्ति समझते हैं; समझदार उसे विपत्ति मानते हैं, संपत्ति नहीं। और इसलिए जिन लोगों ने उस
संपत्ति को छोड़ दिया, उन्होंने कोई त्याग नहीं किया; विपत्ति मान कर उससे अलग हो गए। नानक ने कहा, जो मृत्यु के पार साथ न जा सके वह विपत्ति
हो सकती है।
दो ही
तरह के लोग हैं दुनिया में। कुछ हैं जो विपत्ति को कमाते हैं और कुछ हैं जो
संपत्ति को कमाते हैं। विपत्ति को कमाने वाले बहुत लोग हैं, इसलिए दुनिया विपत्ति से विपत्ति में गिरती
चली जाती है। संपत्ति को कमाने वाले बहुत थोड़े लोग हैं। संपत्ति को कमाने वाला
बनना चाहिए। और संपत्ति का मेरा मतलब हुआ कि जो मृत्यु के पार साथ जा सके।
क्या साथ
जा सकता है? निश्चित ही बाहर की कोई उपलब्धि साथ नहीं जा
सकती। निश्चित ही शरीर के माध्यम से जो भी पैदा हुआ हो, वह साथ नहीं जा सकता। निश्चित ही इंद्रियों
के द्वारा जो जाना और पाया गया हो,
वह साथ नहीं जा सकता। इनके
पीछे अगर कोई घटना घटती हो तो वह साथ जा सकती है। उस घटना के घटने में ही सारे
जीवन के परिवर्तन और क्रांति के मूल आधार और जड़ें होती हैं। उसके लिए जरूरी है कि
हम अपने सारी इंद्रियों के द्वार बंद करके भीतर देखना सीखें। उसके लिए जरूरी है कि
हम सारे शरीर से पीछे हटना सीखें। उसके लिए जरूरी है कि हम उसको पहचानना सीखें जो
आंखों से देखता है, कानों से सुनता है। हम कान और आंख पर रुक
जाते हैं तो बड़े नासमझ हैं। अगर मैं आपकी आंख पर लगे चश्मे को आपकी आंख समझ लूं तो
मुझे लोग पागल कहेंगे। क्योंकि चश्मा आंख नहीं है, आंख
चश्मे के पीछे है। लेकिन अगर हम आंख को ही देखने वाला समझ लें तो और गलती हो जाएगी, क्योंकि देखने वाली आंख नहीं है, देखने वाला आंख के भी पीछे है।
ऐसे
अपने भीतर जो निरंतर प्रवेश करने की कोशिश करता है कि मैं उस जगह पहुंचूं, उसको पहचानूं जो सबके पीछे मेरे भीतर खड़ा है, वह उस संपदा को उपलब्ध हो जाता है। और जो
आंखों के और इंद्रियों के बाहर के जगत में खोजता है वह केवल विपत्ति को उपलब्ध
होता है।
तो
धर्म का मूल जन्म मनुष्य को उस क्षण में अनुभव होता है, जब वह अपनी सारी इंद्रियों को बंद करके, सारे शरीर को दूर छोड़ कर भीतर प्रवेश करता
है। इसका रास्ता है। इसका रास्ता है कि हम अपनी इंद्रियों के भीतर प्रवेश कर सकें।
और जो लोग परमात्मा को जाने हैं,
उन्होंने किसी मंदिर में जाकर
परमात्मा को नहीं जाना है। उन्होंने अपने भीतर जाकर परमात्मा को जाना है।
जो
व्यक्ति अपने भीतर जाना सीख जाता है, उसे सब
घर मंदिर हो जाते हैं। और जो व्यक्ति अपने भीतर जाना, अपने भीतर प्रवेश करना नहीं जानता, उसे कोई मंदिर मंदिर नहीं है, सब मंदिर मकान हैं। क्योंकि जो अपने भीतर
नहीं जा सकता, वह मंदिर में कैसे जा सकेगा? जो अपने भीतर की सत्ता को नहीं जानता, वह इस जगतसत्ता को नहीं जान सकता है। वह कुछ
भी नहीं जान सकता है जो स्वयं को नहीं जानता है।
तो
मनुष्य के सामने सबसे बड़ी साधना और सबसे बड़ा लक्ष्य और जीवन के सामने सबसे परम
दृष्टि एक ही है कि किसी भांति वह अपने भीतर प्रवेश कर जाए और स्वयं को जान ले।
अपने
भीतर प्रवेश करने के लिए दो मार्ग हैं। एक तो जरूरी है अपने भीतर प्रवेश करने के
लिए कि हम सारी इंद्रियों को बंद करना सीख जाएं।
हम
कहेंगे, हम इंद्रियों को बंद करना जानते हैं। रात
आंख बंद कर लेते हैं तो आंख बंद हो जाती है।
आंख तो
बंद हो जाती है, लेकिन स्वप्न चलते रहते हैं। और जो स्वप्न
चलते रहते हैं, वे आंख से ही उत्पन्न हुए संवेदन हैं। इसलिए
आंख ठीक से बंद नहीं हुई।
एक
व्यक्ति ने निश्चय किया कि वह साधु हो जाए। तो वह एक गुरु की तलाश में गया। और एक
आश्रम में पहुंचा, जहां कि उसने सुना कि एक अदभुत साधु रहता है, उससे दीक्षित हो जाऊं। उसके मित्र उसे वहां
तक छोड़ने गए। उसके प्रेमी उसे वहां तक छोड़ने गए। उसने आश्रम के द्वार पर उनसे कहा, अब आप मुझे विदा कर दें, अब मैं अकेला जाऊं, आप कब तक मेरे साथ जाएंगे? और मैंने तो एक ऐसा रास्ता चुना है जिस पर
कोई मेरे साथ नहीं हो सकता। वह अकेला भीतर गया। उसने साधु को प्रणाम किया। वहां कोई
भी न था उस कक्ष में, वह अकेला था और साधु था। उस साधु ने उस युवक
को कहा, किसलिए आए हो?
उस
युवक ने कहा कि मैं साधु होना चाहता हूं, साधना
में लगना चाहता हूं।
वह
गुरु बोला, लेकिन अकेले होकर आओ, तुम तो बहुत लोगों को साथ लेकर आ गए हो।
वह
आदमी बोला, यह क्या बात आप कर रहे हैं? मैं बिलकुल अकेला हूं। यहां तो आस-पास कोई
नहीं दिखाई पड़ता।
उस
साधु ने कहा, आस-पास नहीं, भीतर
देखो। जिन लोगों को तुम आश्रम के द्वार पर छोड़ आए हो, वे सब वहां मौजूद हैं। वे सारी तस्वीरें, वे सारे चेहरे, उन्होंने जो शब्द कहे वे, उनकी आंखों में जो आंसू आ गए वे, वे सब वहां भीतर मौजूद हैं।
उस
युवक ने आंख बंद कीं, सच में ही वह आश्रम के बाहर खड़ा हुआ था। उस
युवक ने आंख बंद कीं, उसने देखा कि वह आश्रम के बाहर खड़ा है, मित्रों को विदा दे रहा है, आश्रम के भीतर नहीं है।
तो उस
साधु ने कहा, इन सबको बाहर छोड़ कर आओ।
इंद्रियों
को बंद करने का अर्थ है: इंद्रियों से जो भी उपलब्ध होता है, उसे क्षीण करना, उसे विलीन करना, उसे शून्य कर देना। अगर निरंतर इस बात का
स्मरण रहे, अगर आंख बंद करके हम इस बात का स्मरण रखें
कि हम सपना नहीं देखेंगे। आंख बंद करके अगर इस बात का स्मरण रहे कि जिन चेहरों पर
आंख बंद कर ली है उनको भीतर नहीं देखेंगे। अगर इस बात का स्मरण रहे कि आंख का कोई
उपयोग आंख बंद करने के बाद हम भीतर नहीं करेंगे। और अगर कोई उपयोग होने लगे तो हम
सजग हो जाएं और जानें कि उपयोग शुरू हो गया। जैसे ही हम सजग होंगे और हमें पता
चलेगा कि उपयोग शुरू हो गया,
सपना टूट जाएगा और बंद हो
जाएगा।
सपने
को देखने के लिए जरूरी है कि हम बिलकुल भूले हुए हों, मूर्च्छित हों, हमें होश न हो। अगर हमें होश आ जाए, तो भीतर का कोई भी सपना तत्क्षण टूट जाएगा।
अगर कोई व्यक्ति अपने भीतर निरंतर धीरे-धीरे होश को और चेतना को साधने लगे, अगर वह इस बात को साधने लगे कि वह देखता रहे
भीतर स्मरणपूर्वक कि इंद्रियों के द्वारा पैदा किए हुए संस्कार, इंद्रियों के द्वारा पैदा की हुई बातें उसके
भीतर तो नहीं चलती हैं? तो वह धीरे-धीरे क्रमशः साधने से, उनको क्षीण करने में समर्थ हो जाता है। एक
दिन आता है, इंद्रियों के सारे संवेदन शून्य हो जाते
हैं। एक दिन आता है, भीतर वह परिपूर्ण शांति को उपलब्ध हो जाता
है।
जब वह
भीतर परिपूर्ण शांत होता है,
जब भीतर कोई हलचल, कोई आंदोलन नहीं रह जाते, जब भीतर कोई तरंगें नहीं रह जाती हैं, उस शांति में, उस परम
निर्जन शांति में, उस निस्तब्धता में उसे पता चलता है, वह कौन है। उसे दिखाई पड़ता है अपना होना, अपनी सत्ता, अपनी
आत्मा का उसे अनुभव शुरू होता है।
और
आत्मा की एक किरण मिल जाए,
तो सारे जीवन से बुराई गिर
जाती है। आत्मा का जरा सा अनुभव मिल जाए, तो
जीवन का सब असद आचरण गिर जाता है। आत्मा की जरा सी खबर मिल जाए, तो सारा आचरण तत्क्षण परिवर्तित हो जाता है।
जैसे ही व्यक्ति भीतर के उस तत्व को जान ले, बाहर
उसके जीवन में सब सुंदर,
सब शुभ हो जाता है। जो जीवन
की कला को जानते हैं, वे उस सत्य को जानने की चेष्टा करते हैं। जो
जीवन की कला को नहीं जानते,
वे बाहर से फूल चिपकाने की
कोशिश करते हैं।
दो ही
रास्ते हैं फूल लगाने के--एक तो कागज के फूल हैं, जिनको
हम ऊपर से लगा लें; और एक असली फूल हैं, जो पौधे के प्राणों में से भीतर से आते हैं।
जो लोग अच्छी-अच्छी बातें ऊपर से सीख लेते हैं और अच्छे-अच्छे काम ऊपर से करने
लगते हैं, उनका जीवन कागज के फूलों का जीवन हो जाता
है। उनमें कोई जान नहीं होती। उन फूलों में कोई सुगंध भी नहीं होती। और वे फूल ऊपर
होते हैं, नीचे दुर्गंध होती है।
मैं
नहीं कहता कि कोई व्यक्ति इस तरह कागज के फूल अपने जीवन में लगाए। मैं तो यह कहता
हूं कि असली फूल लाने हैं तो इतने जल्दी नहीं होगा, असली
फूल जरा मुश्किल से आते हैं। बीज बोने पड़ते हैं। वर्षों प्रतीक्षा करनी होती है।
वर्षों उन पर पानी डालना होता है। धूप की व्यवस्था करनी होती है। बाड़ लगानी होती
है कि कोई उन्हें नष्ट न कर दे। और तब बड़ी मुश्किल और बड़ी प्रतीक्षा से, बड़ी मुश्किल और बड़ी प्रतीक्षा से अंकुर आते
हैं, पौधे बड़े होते हैं, उनमें कलियां लगती हैं, और तब कहीं फूल बनते हैं। ये जड़ों से आए हुए
फूल होते हैं।
जो
व्यक्ति अपनी इंद्रियों को पीछे छोड़ कर, शरीर
को पीछे छोड़ कर भीतर प्रवेश करने की चेष्टा करता है, वह एक
तरह की बागवानी कर रहा है असली फूल लाने की। जब उसे भीतर की किरण मिलेगी, जब उसे अंतस का दर्शन होगा, जब उसे वहां आलोक का स्रोत उपलब्ध होगा, तब बीज फूटेगा और अंकुर निकलेंगे। और उसके
बाहर के जीवन में असली फूल आने शुरू हो जाएंगे। असली फूल आ जाएं तो जीवन आनंद हो
जाता है। और वैसा आनंद पाए बिना जो व्यक्ति इस जगत को छोड़ देता है, उसके दुर्भाग्य का अंत नहीं है। वे लोग बहुत
अभागे हैं, बहुत दुर्भाग्य से भरे हुए हैं, जिन्होंने इस जगत को असली फूलों को पाए बिना
छोड़ दिया। वे खुद भी कोई सुगंध और सुवास नहीं जान सके और उनके द्वारा दूसरों को भी
कोई सुवास और सुगंध नहीं मिल सकी। जिस व्यक्ति को अपने मनुष्य की थोड़ी गरिमा है, जिस व्यक्ति को अपने भीतर की मनुजता का थोड़ा
सा गौरव है, उसे यह संकल्प कर ही लेना चाहिए कि मृत्यु
के पहले असली फूलों की सुगंध उपलब्ध कर लेना आवश्यक है।
जो
बहुत गहरा संकल्प करता है,
जो बहुत...
एक
बहुत बड़ा फकीर हुआ, उसकी कहानी कहूंगा और बात पूरी कर दूंगा। वह
अपने शिष्यों को एक दिन बोला कि मुझे कुछ बात तुम्हें संकल्प के संबंध में बतानी
है। वह उन्हें एक खेत में ले गया। उसके शिष्यों ने कहा, बात बतानी है तो यहीं बता दें। उस फकीर ने
कहा कि उस खेत में बताना आसान होगा। तुम चलो। वह अपने सारे शिष्यों को लेकर एक खेत
में गया। वहां शिष्य देख कर हैरान हुए। बहुत बड़ा खेत था, उसमें कई बड़े-बड़े गङ्ढे थे। उस फकीर ने पहले
गङ्ढे के पास ले जाकर बताया कि इस खेत का मालिक बिलकुल पागल है। उसने कुआं खोदना
चाहा, उसने दस-पंद्रह हाथ गहरी जमीन खोदी, और यह देख कर कि पानी नहीं निकलता, उसने दूसरा गङ्ढा खोदा। दस-पंद्रह हाथ जमीन
उसने फिर खोदी, और यह देख कर कि पानी नहीं निकलता, उसने तीसरा गङ्ढा खोदा। ऐसे आठ गङ्ढे खोदे
जा चुके हैं। मालिक अब नौवां गङ्ढा खोद रहा है।
उस
फकीर ने कहा, यह संकल्पहीन आदमी का लक्षण है। अगर उसने एक
ही गङ्ढा खोदा होता, और इतनी सारी शक्ति उसमें लगा दी होती, तो पानी कितना ही गहरा क्यों न होता, मिल जाना सुनिश्चित था।
हम में
से अधिक लोग जीवन के खेत में अलग-अलग छोटे-छोटे गङ्ढे खोदते रहते हैं और अंत में
पाते हैं कि कोई पानी उपलब्ध नहीं हुआ। कैसे पानी उपलब्ध होगा? पानी उपलब्ध होगा, सारी शक्तियां एक ही बिंदु पर इकट्ठी लग
जाएं और खुदाई शुरू हो, तो होगा। अगर कोई व्यक्ति सारी शक्तियों को
एक ही बिंदु पर लगा दे और खुदाई शुरू कर दे, तो
पानी तत्क्षण उपलब्ध हो सकता है। उतनी शक्ति की ऊर्जा में पानी दूर नहीं रह जाता।
और जिसकी प्यास गहरी होती है,
परमात्मा उसके निकट आ जाता
है।
मैं एक
सूत्र आपको अंत में कहूं,
जो परमात्मा की ओर पूरी प्यास
से एक कदम चलते हैं, परमात्मा उनकी तरफ हजार कदम चलता है। जो
सत्य की तरफ गहरे रूप से प्यासे होते हैं, सत्य
उनकी तरफ प्रवाहित होने लगता है।
प्यास
खींचती है प्रभु को। और प्यास हो,
संकल्प हो, तो जीवन में कुछ हो सकता है। भीतर प्रवेश का
उपाय हो, तो जीवन परिवर्तित हो सकता है। और अत्यंत
सुवासित जीवन को पा लेने से ज्यादा धन्यता और कुछ भी नहीं है। प्रभु करे आपके जीवन
में कोई ऐसी बात घटे कि वह सच्चे फूलों से, असली
फूलों से भर जाए, यही कामना करता हूं।
सबके
भीतर बैठे हुए परमात्मा को मेरे प्रणाम दें। और इतनी बातों को इतने प्रेम से सुना
है, उसके लिए इतना आपका अनुग्रह मानता हूं।
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