एक
छोटी सी कहानी से आज की चर्चा प्रारंभ करूंगा।
ऐसी ही
एक सुबह की बात है। एक छोटे से झोपड़े में एक फकीर स्त्री का आवास था। सुबह जब सूरज
निकलता था और रात समाप्त हो रही थी,
तो वह फकीर स्त्री अपने उस
झोपड़े के भीतर थी। एक यात्री उस दिन उसके घर मेहमान था। वह भी एक साधु, एक फकीर था। वह झोपड़े के बाहर आया और उसने
देखा कि बहुत ही सुंदर प्रभात का जन्म हो रहा है। उसने देखा कि बहुत ही सुंदर
प्रभात का जन्म हो रहा है और बहुत ही प्रकाशवान सूर्य उठ रहा है। इतनी सुंदर सुबह
थी और पक्षियों का इतना मीठा संगीत था, इतनी
शांत और शीतल हवाएं थीं कि उसने भीतर आवाज दी उस फकीर स्त्री को। उस स्त्री का नाम
राबिया था। उस साधु ने चिल्ला कर कहा, राबिया, भीतर क्या कर रही हो, बाहर आओ! परमात्मा ने एक बहुत सुंदर सुबह को
जन्म दिया है!
उस
राबिया ने भीतर से कहा, मेरे मित्र, क्या
मैं तुमसे कहूं कि तुम्हीं भीतर आ जाओ। बाहर बहुत दिन रह चुके। और क्या मैं तुमसे
कहूं कि जिस सूरज को उसने जन्म दिया है और जिस सुबह को उसने जन्म दिया है, उनमें उतना सौंदर्य कभी नहीं हो सकता। मैं
तो भीतर उसको देख रही हूं जिसने जन्म दिया है उस सारे सौंदर्य को। उस राबिया ने
कहा, तुम बाहर जिस सौंदर्य को देख रहे हो, उसके जन्म देने वाले को भीतर मैं देख रही
हूं। बेहतर हो कि तुम ही भीतर आ जाओ।
और
दुनिया में दो ही तरह के लोग हुए हैं--एक जो बाहर के सौंदर्य को देख कर जीवन
समाप्त कर देते हैं और एक वे जो भीतर के सौंदर्य को भी देख पाते हैं। और दुनिया
में दो ही तरह के समाज हैं;
दो ही तरह के धर्म हैं; दो ही तरह के वर्ग हैं। और जब सारे वर्ग मिट
जाएंगे, सारे समाज मिट जाएंगे, सारे संप्रदाय मिट जाएंगे, और जब गरीब-अमीर के बीच फासला नहीं होगा, मालिक और गुलाम के बीच कोई फासला नहीं होगा, तब भी ये दो वर्ग बने रहेंगे। ये कभी भी
मिटने वाले नहीं हैं। ये दो वर्ग बहुत बुनियादी हैं। एक जो बाहर देखने वाले लोग
हैं वे और एक जो भीतर देखने वाले लोग हैं वे। जो बाहर देखते हैं, वे केवल संसार को देख पाते हैं; और जो भीतर देखते हैं, वे सत्य को भी देख पाते हैं।
तो उस
फकीर स्त्री ने सुबह-सुबह उस साधु को कहा, तुम्हीं
भीतर आ जाओ, बहुत दिन बाहर रह लिए।
भीतर
आने का यह आमंत्रण ही धर्म है। भीतर आने का यह बुलावा धर्म है। जिन लोगों ने भीतर
जाकर देखा है, उन्होंने वे सारी चीजें उपलब्ध कर ली हैं, जो बाहर खोजने वाले उपलब्ध नहीं कर सके हैं।
बाहर कोई कितना ही खोजे,
न तो शांति मिलती है, न सत्य मिलता है, न आनंद मिलता है। बाहर भ्रम होता है कि मिल
जाएगा, लेकिन मिल नहीं पाता। बाहर चलना तो बहुत
होता है, लेकिन पहुंचना कभी नहीं होता।
आज तक
पूरे मनुष्य के इतिहास में एक भी मनुष्य ऐसा नहीं हुआ जो बाहर चला हो और जिसने अंत
में कहा हो, मुझे कृतार्थता मिल गई, मुझे धन्यता मिल गई; जिसने अंत में कहा हो, मुझे आनंद उपलब्ध हुआ है। करोड़ों-करोड़ों लोग
इस जमीन पर रहे हैं और मिट गए हैं,
लेकिन एक भी गवाही इस बात की
नहीं है कि किसी मनुष्य ने यह कहा हो--मैंने बाहर खोजा और मुझे आनंद मिला। एक भी
गवाही जिस बात की नहीं है,
एक भी आदमी जिस पक्ष में नहीं
है, फिर भी हम न मालूम कैसे अंधे हैं कि उसी
दिशा में खोजेंगे जिस दिशा में कभी उपलब्ध नहीं हुआ है।
हां, ऐसी कुछ गवाहियां हैं जिनका कहना है कि भीतर
आनंद उपलब्ध होता है। और मैं आपको यह भी कह दूं कि ऐसा एक भी आदमी नहीं हुआ जमीन
पर, जिसने भीतर झांका हो और कह दिया हो कि वहां
आनंद नहीं है। ऐसा भी एक भी आदमी नहीं हुआ। निरपवाद रूप से जिन्होंने भीतर झांका
है, उन्होंने कहा है कि वहां आनंद है। एक भी
मनुष्य पूरे मनुष्य के इतिहास में ऐसा नहीं है जिसने भीतर झांक कर कहा हो, वहां आनंद नहीं है।
ऐसा जो
प्रमाणित सत्य हो, उस तरफ हमारी आंखें न हों, तो बड़ा आश्चर्य होता है। और ऐसा प्रमाणित जो
असत्य हो, उसी तरफ हमारी दौड़ हो, तो बड़ी हैरानी होती है। जरूर हमारी बनावट
में कोई भूल है। जरूर हमारे ढांचे में, दिमाग
में कोई गड़बड़ है। जरूर कोई प्राकृतिक ऐसी गड़बड़ है कि सब जानते हुए भी हम बाहर की
तरफ जाते हैं और भीतर नहीं आ पाते।
और अगर
मैं आपको कहूं, तो ऐसी भूल आपको स्पष्ट दिखाई पड़ेगी। मनुष्य
के साथ एक दुर्घटना है, और वह दुर्घटना यह है कि उसकी सारी
इंद्रियों के द्वार बाहर खुलते हैं। कोई इंद्रिय भीतर की तरफ नहीं खुलती। उसका
स्वयं का होना भीतर है और उसके सारे द्वार बाहर खुलते हैं। हम एक ऐसे मकान में रह
रहे हैं जिसका कोई दरवाजा भीतर की तरफ नहीं खुलता, सब
दरवाजे बाहर की तरफ खुलते हैं। तो जब भी हम आंख खोलते हैं, बाहर आंख खुलती है। जब भी कान खोलते हैं, बाहर कान सुनता है। जब भी हाथ फैलाते हैं, बाहर की चीज पकड़ में आ जाती है। हमारी सारी
इंद्रियां बहिर्मुखी हैं। उनका निर्माण ऐसा है कि वे बाहर की तरफ खुलती हैं, वे भीतर की तरफ नहीं खुलतीं। और चूंकि वे
भीतर की तरफ नहीं खुलतीं इसलिए जब हम में प्यास जगती है आनंद को पाने की, जब हमारे प्राण आनंद को पाने के लिए प्यासे
होते हैं, और जब हमारे भीतर अभीप्सा सरकती है, अगर हमारे भीतर कण-कण, रोआं-रोआं दुख के ऊपर उठना चाहता है और
शांति पाना चाहता है, तो स्वभावतः हम बाहर खोजने लगते हैं।
एक और
छोटी कहानी कहूं, मुझे बड़ी प्रीतिकर रही है। और उसी फकीर
स्त्री के संबंध में है,
जिसके बाबत मैंने कहा, जिसने उस साधु को कहा कि तुम्हीं भीतर आ
जाओ।
एक दिन
सांझ लोगों ने देखा--वह फकीर स्त्री अपने दरवाजे के बाहर कुछ ढूंढ़ती है। कुछ लोगों
ने पूछा, क्या ढूंढ़ती हो? वह अत्यंत वृद्ध थी और लोगों ने सोचा उसकी
सहायता कर दें। उस स्त्री ने कहा,
तुम सहायता तो करोगे, लेकिन जो मैं खोजती हूं, तुम शायद ही पा सको। क्योंकि मैं भी नहीं पा
सकूंगी। लोगों ने कहा, फिर भी। फिर भी तुम खोज रही हो, तो हम कुछ सहायता कर दें, शायद मिल जाए। उस स्त्री ने कहा, मेरी कपड़ा सीने की एक सुई खो गई है, उसे खोजती हूं। उन लोगों ने भी खोजना शुरू
किया। रात घिर गई थी, लेकिन थोड़ा सा प्रकाश जलता था एक रास्ते के
लैंप पर और उसकी रोशनी पड़ती थी। वे उसे ढूंढ़ते रहे।
फिर एक
आदमी ने पूछा, सुई बहुत छोटी चीज है, हम यह तो पता लगा लें कि सुई गिरी कहां? कहां खोई? तो हम
वहां खोज लें।
तो वह
बुढ़िया कहने लगी, यह मत पूछो। यह मत पूछो।
लोगों
ने कहा, यह न पूछेंगे तो खोजना मुश्किल है। रास्ता
बड़ा है। सुई बहुत छोटी। प्रकाश बहुत कम।
वह
बूढ़ी स्त्री कहने लगी, सुई तो मेरे भीतर के कमरे में गुमी है।
तो उन
लोगों ने कहा, फिर तुम पागल हो जो उसे बाहर खोजती हो!
वह
स्त्री बोली, जब मैं सीती थी, मेरी सुई गिरी, तो भीतर सूरज डूबने के करीब था। मैं इतनी
गरीब स्त्री हूं कि मेरे पास कोई दीया तो है नहीं, कोई
प्रकाश तो है नहीं। अंधेरा हो गया तो मैं खोजती हुई बाहर की दहलान में आ गई, वहां थोड़ी रोशनी थी। फिर वह रोशनी भी चली गई
तो बाहर सड़क पर आ गई, यहां लैंप जलता है, यहां खोजने में आसानी होगी।
उन
लोगों ने कहा, तुम बिलकुल पागल हो! जो चीज जहां गुमी है
वहीं खोजी जा सकती है।
तो उस
फकीर स्त्री ने कहा कि मैं तुम सबको भी ऐसे ही खोजते देख रही हूं। तुम सब वहां खोज
रहे हो जहां चीज गुमी ही नहीं।
और
चूंकि मनुष्य की इंद्रियों का प्रकाश बाहर पड़ता है इसलिए आदमी बाहर खोजने लगता है।
हमें पूछना जरूरी है कि हम जिस बात की तलाश कर रहे हैं उसे खोया कहां है? और यह स्मरण रखें, तलाश केवल उसकी होती है जिसे खोया हो, अन्यथा हमें पता भी नहीं हो सकता।
मनुष्य
आनंद को खोजता है, यह इस बात का सबूत है कि आनंद खोया गया है।
अन्यथा आनंद का पता भी नहीं हो सकता था। मनुष्य सत्य को खोजता है, यह इस बात की सूचना है कि सत्य खोया गया है।
अन्यथा सत्य का कोई पता भी नहीं हो सकता था। हम प्राणों के किसी तल पर जानते हैं
कि सत्य को हमने खोया है,
आनंद को हमने खोया है, इसलिए उन्हें खोजते हैं। लेकिन हम यह नहीं
पूछते कि उसे खोया कहां है?
और जो यह न पूछेगा उसकी सारी
खोज व्यर्थ हो जाएगी।
सबसे पहले
यह जानना जरूरी है कि हमने आनंद को खोया कहां है? क्या
हमने उसे बाहर के जगत में खोया है,
तो हम उसे बाहर खोजें?
आप
कहेंगे, हमें कुछ भी पता नहीं हमने उसे कहां खोया।
तब भी
मैं यह कहूंगा कि यह पता न हो कि कहां खोया, तो जो
समझदार है वह सबसे पहले अपने मकान में खोजेगा। इसके बाद बाहर निकलेगा। अगर वहां न
मिले तो फिर इस बड़ी दुनिया में खोजने निकलना चाहिए। सबसे पहले जो चीज खो गई है, उसे भीतर खोज लेना चाहिए। अगर वहां न मिले
तो फिर इस सारी बड़ी दुनिया में खोजने निकलना चाहिए।
लेकिन
हम वहां नहीं खोजते और बाहर खोजने निकल जाते हैं। और फिर यह दुनिया बहुत बड़ी है।
और इसके छोर बहुत अनंत हैं। और जीवन बहुत अल्प है। हम खोजते समाप्त हो जाते हैं और
दुनिया के छोरों तक नहीं पहुंच पाते हैं। इसलिए यह भ्रम बना रहता है कि अभी कुछ
खोजने को बाकी दुनिया थी,
शायद वहां मिल जाता। इसलिए
जन्म-जन्म हम खोजते हैं। हमारे हजारों जन्म चुकता हो जाएंगे, दुनिया समाप्त नहीं होगी। उसके रास्ते बहुत
अनंत हैं।
जहां
इंद्रियां ले जाती हैं हमें,
वहां कोई अंत नहीं है, वहां कितना ही खोजा जाए, कभी आप अंत पर नहीं पहुंचेंगे। इस दुनिया के
अंत पर अभी कोई नहीं पहुंचा,
और कभी कोई नहीं पहुंचेगा।
ऐसी कोई जगह ही नहीं हो सकती जहां दुनिया अंत होती हो, क्योंकि फिर क्या होगा? ऐसी कोई जगह नहीं जहां दुनिया अंत होती हो।
इसका अर्थ हुआ कि इंद्रियां एक ऐसी यात्रा पर मनुष्य को ले जाती हैं जिसका कोई अंत
नहीं है। और जिसका कोई अंत नहीं है वहां उपलब्धि कैसे हो सकती है? जिसका कोई अंत नहीं है वहां पहुंचना कैसे हो
सकता है? और जिसका कोई अंत नहीं है वहां पूर्णता कैसे
हो सकती है?
सबसे
पहले, जिनका विवेक और जिनका विचार जाग्रत है, वे अपने भीतर खोजेंगे। उसके बाद, उसके बाद ही बाहर निकलेंगे। लेकिन मैंने
आपसे कहा, जो भीतर खोजता है, उसे बाहर निकलने की जरूरत नहीं रह जाती।
क्योंकि जिसकी तलाश थी, उसे वह मिल जाता है।
यह
भीतर खोजने के विज्ञान का नाम ध्यान है। कैसे हम अपने भीतर खोजेंगे, उसकी पद्धति का नाम ध्यान है। ध्यान से मेरा
अर्थ प्रार्थना नहीं है। प्रार्थना किसी और से की जाती है, ध्यान किसी और से नहीं किया जाता। प्रेयर और
मेडिटेशन में जमीन-आसमान का भेद है। प्रार्थना और ध्यान में जमीन-आसमान का भेद है।
प्रार्थना किसी से की जाती है,
ध्यान किसी से किया नहीं
जाता। ध्यान का दूसरे से कोई संबंध नहीं है।
ध्यान
तो स्वयं का परिवर्तन है। ध्यान तो स्वयं के चित्त को इतना निर्दोष, इतना शांत, इतना
शून्य बना लेने का नाम है कि वहां चित्त की झील इतनी शांत हो जाए कि उस पर कोई लहर
का कंपन न उठता हो। तो उस शांत दर्पण जैसी झील में सत्य के प्रतिबिंब को पकड़ा जा
सकता है।
प्रार्थना
ध्यान नहीं है। और प्रार्थना मूल अर्थ भी नहीं रखती साधना का। प्रार्थना तो अक्सर
हमारी वासनाओं का ही रूपांतरण है। क्योंकि प्रार्थना में अक्सर हम मांगते हैं।
ध्यान में कुछ मांगा नहीं जाता। और प्रार्थना में हम परमात्मा की स्तुति करते हैं।
हम बड़े नासमझ हैं। हम सोचते हैं कि परमात्मा प्रशंसा से आनंदित होता होगा। हम
परमात्मा की कल्पना उन्हीं छोटे-छोटे लोगों की तरह करते हैं, जो प्रशंसा से प्रशंसित होते हैं और निंदा
से निंदित हो जाते हैं। हमने परमात्मा की कल्पना आदमी की शक्ल में ही कर ली है और
हम सोचते हैं कि जिन-जिन बातों से आदमी प्रशंसित होता है, आनंदित होता है, उनसे परमात्मा भी होता होगा।
सारी
दुनिया में परमात्मा की प्रार्थना परमात्मा की स्तुति में की जाती है, जो कि बिलकुल नासमझी की बात है। परमात्मा की
प्रार्थना करने से कोई अर्थ नहीं है, कोई
प्रयोजन नहीं है। हां, ध्यान करने से व्यक्ति जरूर परमात्मा को
उपलब्ध होता है। ध्यान करने से जरूर व्यक्ति परमात्मा को उपलब्ध होता है, प्रार्थना करने से नहीं।
परमात्मा
को खुश नहीं किया जा सकता। क्योंकि जिसे दुखी नहीं किया जा सकता, उसे खुश भी नहीं किया जा सकता। जिसे परेशान
नहीं किया जा सकता, उसे प्रसन्न भी नहीं किया जा सकता। उसे किसी
के पक्ष में आंदोलित नहीं किया जा सकता, क्योंकि
उसे किसी के विपक्ष में नहीं किया जा सकता। जो लोग प्रार्थना करते हों और सोचते
हों कि वे लोग डूब जाएंगे जो प्रार्थना नहीं करते हैं, तो बड़े नासमझ हैं। परमात्मा आपकी
प्रार्थनाओं से आंदोलित नहीं होता। आपकी क्षुद्र कामनाओं से आंदोलित नहीं होता।
लेकिन
अगर आपके भीतर परिवर्तन हो जाए,
आपकी चेतना समग्रीभूत रूप से
परिवर्तित हो जाए, ट्रांसफार्मेशन हो जाए, तो आप परमात्मा से जरूर संबंधित हो जाते
हैं। क्योंकि उस क्षण में आप और परमात्मा के बीच कोई फासला और दूरी नहीं रह जाती।
क्योंकि उस क्षण में आप जानते हैं कि आप स्वयं परमात्मा के हिस्से हैं। और यह दुखद
है कि जो परमात्मा का हिस्सा है वह परमात्मा के चरणों पर सिर टेके। यह परमात्मा को
ही परमात्मा की प्रार्थना करवाना बिलकुल नासमझी है।
प्रार्थना
इसलिए ध्यान नहीं है। ध्यान बड़ी दूसरी बात है। उस संबंध में आज मैं सुबह आपसे कुछ
कहना चाहता हूं।
ध्यान
क्या है?
इसके
पहले कि मैं कहूं कि ध्यान क्या है,
मैं कुछ बातें बता दूं कि
ध्यान क्या नहीं है।
मैंने
पहली बात कही कि प्रार्थना ध्यान नहीं है। दूसरी बात आपसे कहूं, एकाग्रता ध्यान नहीं है, कनसनट्रेशन ध्यान नहीं है। साधारणतः यही
समझा जाता है कि चित्त को एकाग्र कर लेना ध्यान है। एकाग्रता ध्यान नहीं है।
एकाग्रता बड़ी छोटी बात है। एकाग्रता में भी बाहर एक बिंदु शेष रह जाता है, जिस पर हम मन को एकाग्र करते हैं। एकाग्रता
में भी हम बाहर ही होते हैं,
भीतर नहीं होते। क्योंकि
एकाग्रता में किसी नाम पर,
किसी प्रतिमा पर, किसी विचार पर, किसी शब्द पर, किसी
मंत्र पर, किसी रूप पर हम अपने को एकाग्र करते हैं।
एकाग्रता का मतलब ही है,
चित्त अब भी बाहर से जुड़ा है।
एकाग्रता संसार का हिस्सा है,
साधना का हिस्सा नहीं है।
ध्यान
बड़ी दूसरी बात है। इसलिए जो सोचते हों कि हम चित्त को एकाग्र कर लेंगे तो ध्यान हो
गया, तो गलत सोचते हैं। ध्यान का अर्थ है: बाहर
से कोई संबंध न रह जाए। बाहर से असंबंधित हो जाने का नाम ध्यान है। एकाग्रता तो
बाहर से संबंध है। तो ध्यान का अर्थ हुआ कि चित्त की बाहर के जगत में कोई गति न रह
जाए। चित्त बाहर न जाता हो। चित्त का व्यापार बाहर न चलता हो। चित्त का कोई
व्यापार न चलता हो। चित्त बिलकुल निस्पंद हो जाए, चित्त
बिलकुल शून्य हो जाए। चित्त की कोई गति न रह जाए, चित्त
अगति को उपलब्ध हो जाए। उस अवस्था को पतंजलि ने निरोध कहा है। चित्त अगति को
उपलब्ध हो जाए। कोई गति,
कोई व्यापार, कोई स्पंदन न रह जाए। उस निस्पंद क्षण में, उस ठहरे हुए क्षण में, उस रुके हुए क्षण में जब सब रुक गया हो, भीतर कोई चीज चलायमान न हो, सब ठहर गई हों बातें, सब ठहर गया हो, थम गया हो--उस अवस्था का नाम ध्यान है।
ध्यान
एकाग्रता नहीं, ध्यान शून्यता है। शून्यता में कोई बिंदु
नहीं रह जाता जहां हम टिकते हों,
कोई आधार नहीं रह जाता। सब
निराधार हो जाता है।
एकाग्रता
को जो लोग ध्यान समझ लेते हैं,
उनके लिए ध्यान एक तरह का दमन, एक तरह का सप्रेशन, एक तरह की जबरदस्ती हो जाती है। वे अपने मन
को जबरदस्ती कहीं लगाने की कोशिश करते हैं। और ऐसे लोग बड़े असफल हो जाते हैं।
जबरदस्ती मन को जो कहीं लगाने की कोशिश करेगा, वह मन
को जीत नहीं पाता, मन से ही हार जाता है। और तब उसे ऐसा लगता
है कि मेरे पापों के कारण,
न मालूम क्यों मेरी स्थिति
खराब है, इसलिए मुझे ध्यान उपलब्ध नहीं होता। वह गलत
रास्ते से चल रहा है, इसलिए ध्यान उपलब्ध नहीं हो रहा।
वह
अपने हाथ से ही गलत कर रहा है। मन के भीतर जो व्यक्ति द्वंद्व करेगा, कांफ्लिक्ट करेगा, लड़ेगा, वह
अपने को दो हिस्सों में तोड़ रहा है। जिससे लड़ रहा है, वह भी वही है; और जो
लड़ रहा है, वह भी वही है। अगर मैं अपने इन दोनों हाथों
को लड़ाऊं, तो कौन जीतेगा? अगर मेरे ये दोनों हाथ लड़ें और मैं अपनी
सारी ताकत लगा दूं इन दोनों हाथों को लड़ाने में, तो कौन
जीतेगा? कोई जीतेगा? इन
दोनों हाथों में से कोई नहीं जीत सकता, क्योंकि
ये दोनों हाथ मेरे हैं। और इन दोनों के लड़ाने में इतना होगा कि मेरी शक्ति ह्रास
होगी और मैं कमजोर होता जाऊंगा। ये हाथ तो हारेंगे-जीतेंगे नहीं, मैं हार जाऊंगा।
जो
व्यक्ति मन के भीतर लड़ाई शुरू कर देता है, मन के
किसी हिस्से से स्वयं लड़ने लगता है,
मन को दो हिस्सों में बांट कर
लड़ाने लगता है, वह दो हाथ लड़ा रहा है अपने। उन दोनों में से
तो कोई नहीं जीतेगा, वह क्षीण और कमजोर हो जाएगा और ह्रास हो
जाएगा।
तिब्बत
में एक साधु था, मिलारेपा। वह एक मंदिर में ठहरा हुआ था। वह
बड़ा शांत और सीधा साधु था। लेकिन उसके बाबत लोगों में यह प्रचार था कि उसको बड़ी
सिद्धियां उपलब्ध हैं और अगर वह आशीर्वाद भी दे दे किसी को, तो उसे भी सिद्धियां उपलब्ध हो जाती हैं। वह
तो बड़ा शांत और सीधा आदमी था। उसे सिद्धियों का कोई पता भी नहीं था। लेकिन एक आदमी
उसके पास आया एक रात और उसने उसके पैर पकड़ लिए और उसने कहा कि मुझे कुछ सिद्धि
चाहिए। मैं बहुत दुखी और पीड़ित हूं। मुझे कोई मंत्र चाहिए जो सिद्ध हो जाए तो मेरी
सारी दुख-पीड़ा अलग हो जाए।
उस
साधु ने कहा, मैं तो कुछ जानता नहीं। मंत्र, जब मैं साधु नहीं हुआ था तो याद भी थे, जब से साधु हुआ, वह भी भूल गया। पहले भगवान का नाम भी जानता
था, जब से साधु हुआ, वह भी भूल गया। पहले कुछ मन में चिंतन भी
चलता था, जब से साधु हुआ, वह भी पुंछ गया। पहले कुछ धर्मशास्त्र भी
बांध कर चलता था, जब साधु हुआ, उनको
नदी में डाल दिया। अब तो मेरे पास कुछ भी नहीं है, मैं
खाली आदमी हूं। मुझे कहो तो मैं तुम्हारे साथ चलूं, बाकी
और कुछ भी देने को मेरे पास नहीं है।
वह
व्यक्ति पीछा नहीं छोड़ा। वह बोला कि मैं यहीं बैठा रहूंगा, रात भर जागा रहूंगा, कल भूखा रहूंगा, और तब तक नहीं हटूंगा जब तक कि कुछ मुझे
मंत्र न दे दें।
वह
साधु बड़ा हैरान हुआ। अंततः उसने एक कागज पर चार पंक्तियां लिख कर दीं और उसको कहा
कि इन्हें ले जाओ और रात एकांत में बैठ कर पांच दफे इनका पाठ कर लेना। जैसे ही तुम
इनका पांच दफा पाठ पूरा कर लोगे,
तुममें कुछ शक्तियां जाग
जाएंगी। फिर तुम उन शक्तियों से जो चाहो करा लेना।
वह
आदमी कागज लेकर भागा। वह पैर छूना भी भूल गया जाते वक्त, धन्यवाद देना भी भूल गया। उसे कुछ खयाल भी न
रहा कि इसे धन्यवाद भी देना है।
लेकिन
जब वह सीढ़ियां आधी उतरा था तो उस साधु ने कहा, ठहरो!
ठहरो! दो भूलें हो गईं। तुमने मुझे धन्यवाद नहीं दिया और एक शर्त मुझे बतानी थी वह
मैं नहीं बता पाया। तुम मुझे धन्यवाद नहीं दे पाए और एक शर्त मुझे बतानी थी वह मैं
नहीं बता पाया। एक शर्त मुझे मेरे गुरु ने कही थी कि इस मंत्र को पढ़ते वक्त बंदर
का स्मरण नहीं आना चाहिए। तो पांच दफे पढ़ना है, लेकिन
बंदर का स्मरण न आए।
वह
आदमी बोला, मुझे कभी जीवन में बंदर का स्मरण नहीं आया।
इसको पांच दफे पढ़ने में क्यों आएगा?
वह भागा।
लेकिन
वह पूरी सीढ़ियां भी नहीं उतर पाया कि बंदर का स्मरण आना शुरू हो गया। मंदिर की बड़ी
सीढ़ियां थीं। वह जब नीचे उतर कर आया तो उसने देखा कि उसके मन में तो बंदर का खयाल
और चित्र आ रहा है। वह बहुत घबड़ाया। उसने उसे बहुत छिटकने की, हटाने की कोशिश की। लेकिन जैसे-जैसे वह
हटाने लगा, और भी बंदर उसके साथ आने लगे। वह घर
पहुंचते-पहुंचते बंदरों की भीड़ से घिर गया। उसके मन में बंदर ही बंदर हो गए। वह
बहुत घबड़ाया। उसने कहा, यह क्या पागलपन किया! इस साधु ने कैसी
नासमझी की! भूल गया था तो भूल ही जाता। उस शर्त को न बताता।
उसने
रात भर कोशिश की। बार-बार स्नान किया। बार-बार भगवान की प्रार्थना की। बार-बार
बैठा। कोई प्रयोजन हल न हुआ। उसके मन में बंदर ही बंदर हो गए।
वह
सुबह वापस आया। उसने वह मंत्र का कागज लौटा दिया साधु को और कहा, इस जन्म में अब असंभव है। अब अगले जन्म में
ही संभव हो सकता है। वह भी तब जब शर्त न बताई जाए।
और यह
है, और यह सच है। उसको यह कैसे हुआ? ऐसा ही आप सबको होता है, रोज होता है। जिन विचारों को आप निकालना
चाहते हैं, वही विचार आने लगते हैं। यह स्वाभाविक है।
जिनको आप धक्के देते हैं,
उनको आप आमंत्रण दे रहे हैं।
जिसको न बुलाना हो, उसे कभी धक्का मत देना। जिसे धक्का दिया, वह आएगा। यह नियम है। जितने जोर से धक्का
देंगे, उतने तीव्र वेग से वह लौटेगा।
अभी हम
एक पहाड़ पर थे। मेरे साथ कुछ मित्र थे, कुछ
बहनें थीं। वहां एक जगह देखने गए। एक ईको-पॉइंट था। वहां हम जो आवाज करते, पहाड़ से वह उतने ही वेग से वापस लौट आती।
किसी ने रास्ते में मुझे कहा,
बहुत सुंदर जगह थी। मैंने कहा, पूरी दुनिया ऐसी जगह है। हम जो आवाज करते
हैं, वही लौट आती है। और जितने जोर से आवाज करते
हैं, उतने ही जोर से लौट आती है। और धीरे-धीरे हम
अपनी ही आवाजों से भर जाते हैं और परेशान और हैरान हो जाते हैं।
हर
आदमी पीड़ित है उन विचारों से जिनको उसने धक्के दिए हैं, और हर आदमी उन वासनाओं से पीड़ित है जिनको
उसने हटाया है और कोशिश की है कि दूर हट जाओ। हम जितने जोर से धकाते जाते हैं, उतने ही हम उन्हीं से घिरते चले जाते हैं।
एक दिन हम पाते हैं, अपने हाथों फांसी लगा ली है। चारों तरफ वे
ही शत्रु इकट्ठे हैं जिन-जिन को हमने अलग करना चाहा था और उन मित्रों का कोई पता
नहीं चलता जिनको हमने चाहा था कि वे रुक जाएं।
जिसको
आप रोकना चाहते हैं, वह विलीन हो जाता है। जिसको आप हटाना चाहते
हैं, वह चला आता है। नियम जीवन के चित्त का यही
है--जिसको हटाना है उसे रोक लें और देखें; और
जिसको बुलाना हो उसको धक्के दें और हटाएं। विचारों को विसर्जित करना हो, चित्त को खाली करना हो, तो विचारों को धक्के न दें, रोकें और देखें। जिस विचार से मुक्त होना हो, उसको रोक लें पकड़ कर और पूरी ताकत से उसे
देखें। और आप पाएंगे, जैसे-जैसे आपकी दृष्टि गहरी होगी और तीक्ष्ण
होगी, वह विचार पिघल जाएगा। जैसे सूरज के उगने पर
घास के ऊपर पड़े हुए ओस के कण विलीन हो जाते हैं, जैसे
उत्ताप ओस को भाप बना देता है,
वैसे ही दृष्टि की तीक्ष्णता
विचारों को हवा कर देती है। उनको वाष्पीभूत कर देती है। वे एवोपरेट हो जाते हैं।
न
एकाग्रता करनी है, न संघर्ष करना है। दृष्टि को पैना और तीखा
करना है। दर्शन की क्षमता को विकसित करना है। अगर हम विचारों के प्रति दर्शन की
क्षमता को विकसित कर सकें,
अगर हम उनको देखने में समर्थ
हो जाएं, अगर कोई विचार पूरा का पूरा आमूल देख लिया
जाए, तो वह विचार तत्क्षण मर जाता है। दर्शन
विचार की मृत्यु है और दर्शन ध्यान का प्राण है। एकाग्रता नहीं, दर्शन ध्यान का प्राण है। अपने सारे विचारों
को उघाड़ लें। एक घंटा, आधा घंटा चौबीस घंटे की दौड़ में रुक जाएं, एकांत में ठहर जाएं। द्वार बंद कर लें, अकेले हो जाएं और अपने सारे विचारों को कहें, आओ! उनको निमंत्रण दे दें कि आओ और अपने को
संयत कर लें कि मैं लडूंगा नहीं,
किसी विचार के पीछे नहीं
जाऊंगा, किसी विचार का अनुगमन नहीं करूंगा, किसी विचार का विरोध नहीं करूंगा, मात्र दर्शक की भांति बैठा और देखता रहूंगा।
कुछ भी नहीं करूंगा, बस देखता रहूंगा बैठ कर। जो भी विचार आएंगे
उनको देखता रहूंगा।
धीरे
से यह बात सधेगी, क्योंकि हमारी आदतें खराब हैं। हमें सिखाया
जाता है कि बुरे विचार अलग करो और भले विचार पकड़ो। हमारी नैतिक शिक्षा यह है कि
बुरे विचार को मत पकड़ना,
भले विचार को पकड़ लेना। यह
ऐसे ही है जैसे कोई कहे: सिक्के के एक पहलू को रख लेना और दूसरे पहलू को फेंक
देना। तो एक पहलू को पकड़ेंगे और दूसरे को फेंकेंगे, बड़ी
दिक्कत में पड़ जाएंगे। सिक्का या तो पूरा बचता है, या
पूरा फेंका जाता है। उसमें से आधा बचाया नहीं जा सकता। बुरे और भले विचार एक ही
सिक्के के दो पहलू हैं। इनमें से एक को बचाना और दूसरे को फेंकना संभव नहीं है। जो
बुरे को हटाएगा और भले को रोकेगा,
वह बुरे से पीड़ित रहेगा, वह बुरे से मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि वह
काम ही गलत कर रहा है। वे तो अनिवार्य हिस्से हैं, एक-दूसरे
से जुड़े हैं। पूरे विचार को फेंका जा सकता है। पूरे विचार को फेंका जा सकता है।
शुभ-अशुभ दोनों चले जाएंगे। और तब जो शेष रह जाता है वह दिव्य है। वह न शुभ है, न अशुभ है; वह
भागवत है, वह डिवाइन है। उसका शुभ-अशुभ से कोई नाता
नहीं। वह स्थिति धर्म की है जब कोई शुभ-अशुभ नहीं रह जाता और दोनों से शून्य चित्त
रह जाता है। उसकी जो चर्या है वैसे शून्य चित्त की, वही
पुण्य है।
यह जो
मैंने आपसे कहा--शुभ विचार उठे,
अशुभ विचार उठे, कुछ विचार न करें कि क्या शुभ है, क्या अशुभ है और दोनों को चुप देखें। तो
ध्यान का पहला अंग है: दर्शन को विकसित करना, देखने
को विकसित करना, गहरी दृष्टि विकसित करना। हम तो ऐसे लोग हैं, दृष्टि हमारी इतनी फीकी है, हमें उसे गहरा करने का कोई पता नहीं कि वह
कैसे गहरी हो जाए। हम तो इस जगत को भी बहुत उथला-उथला देखते हैं।
मेरे
पास मैं लोगों को देखता हूं। आप दरख्तों के नीचे से निकल जाएंगे, वे आपको दिखाई नहीं पड़ेंगे। फूलों के पास से
निकल जाएंगे, वे आपको दिखाई नहीं पड़ेंगे। लोगों में से आप
निकल जाएंगे, वे आपको दिखाई नहीं पड़ेंगे। आपकी दृष्टि बड़ी
उथली है। आप देखते ही कहां हैं?
किसी तरह भागे जा रहे हैं। जो
दिख जाता है, दिख जाता है। देखना बड़ी दूसरी बात है। उसके
लिए ठहरना, रुकना जरूरी है। उस अभ्यास को करने के लिए
कि हमें देखना संभव हो पाए,
बाहर के जगत में भी देखने की
क्षमता को विकसित किया जा सकता है।
कभी
दस-पांच क्षण को किसी फूल के पास बैठ जाएं और चुपचाप देखते रहें। सोचें न कि गुलाब
का है, कि जुही का है, कि किसका है। सोचें न, सिर्फ देखते रहें। कुछ न करें, सिर्फ देखें। और इतना ही खयाल रखें कि मुझे
सिर्फ यह गुलाब दिखाई पड़ रहा है,
और मैं कुछ भी नहीं कर रहा
हूं। कभी चांद को देखें और चुपचाप देखते रह जाएं। कभी आकाश को देखें और चुपचाप
देखते रह जाएं। कभी किसी व्यक्ति के चेहरे को देखें और चुपचाप देखते रह जाएं। कभी
समुद्र के किनारे बैठें और चुपचाप देखते रह जाएं। कुछ सोचें न, कुछ विचारें न, सिर्फ देखें। धीरे-धीरे देखने की क्षमता
आपमें विकसित होगी।
फिर
वैसे ही अपने भीतर आंख बंद करके विचार को देखें। जैसे पदार्थ को देखा है वैसे ही
विचार को देखें। विचार भी पदार्थ की ही प्रतिध्वनि है। वह भी बाहर के जगत में जो
कोलाहल है उसका ही सुना हुआ स्वर है। जो हमारी इंद्रियां बाहर के जगत में मांगती
हैं निरंतर, जो उन्हें उपलब्ध नहीं होता, उसकी आकांक्षाएं विचार में हैं। जो उपलब्ध
हो जाता है, उसकी प्रतिछवियां विचार में हैं। बाहर
इंद्रियों का जो कोलाहल है,
उसके ही रिफ्लेक्शंस, उसके ही संस्कार, उसकी ही ध्वनियां भीतर इकट्ठी हो गई हैं, वे ही विचार हैं।
मैंने
सुना है, एक भवन में एक कुत्ता और बिल्ली दोनों एक
साथ पाल लिए गए थे। एक सुबह उस बिल्ली ने उठ कर कहा, आज रात
तो अदभुत हुआ, मैंने स्वप्न देखा कि इस वर्ष वर्षा में
पानी नहीं, चूहे गिरेंगे।
वह
कुत्ता बोला, बिलकुल नासमझी की बात है। न किसी शास्त्र
में कभी लिखा है यह, न पुराणों में कभी इसकी कथा सुनी है, न किसी इतिहास में इसका उल्लेख है कि कभी
चूहे गिरे हों। हां, ऐसे उल्लेख जरूर हैं जब वर्षा में हड्डियां
गिरीं और पानी नहीं गिरा। उसने कहा,
मैं भी स्वप्न देखता हूं, कभी यह नहीं देखा कि चूहे गिरते हों।
हड्डियां गिरती हैं।
उस
कुत्ते ने ठीक ही कहा। उसकी जो प्रतिध्वनियां हैं जगत के प्रति, वे हड्डियों की हैं। बिल्ली ने ठीक ही देखा।
उसकी जो प्रतिध्वनियां हैं जगत से,
वे चूहों की हैं।
हमारी
इंद्रियों का जो बाहर के जगत में व्यापार चल रहा है, उनकी
ही सारी प्रतिध्वनियां इकट्ठी होकर भीतर विचार बन जाती हैं, स्वप्न बन जाती हैं। यह सारा का सारा जो
भीतर कोलाहल है, इसको भी बाहर के जगत का हिस्सा समझें। इसको
भी वैसे ही देखें जैसे बाहर के जगत को देखते हैं। जैसे यह खंभा है, और मकान है, और
रास्ते हैं, और लोग हैं, वैसे
ही अपने भीतर भी जानें कि इस खंभे की छाया है, लोगों
की छायाएं हैं, सड़कों की छायाएं हैं, वे भी बाहर के जगत के प्रतिफलन हैं। वहां भी
चुप बैठ जाएं और देखें। एक असली दुनिया बाहर है। एक उस असली दुनिया ने आघात कर-कर
हमारे भीतर एक नकली दुनिया पैदा कर दी। उस नकली दुनिया का नाम विचार है। वह जो
विचार भीतर पैदा हुआ है,
वही बाधा है। यह बाहर का जगत
बाधा नहीं है परमात्मा को पाने में। वह जो भीतर प्रतिध्वनि पैदा हुई है इस जगत की, वह बाधा है।
अब कुछ
नासमझ हैं जो इस बाहर के जगत को छोड़ने को संन्यास समझ लेते होंगे। वे गलती में
हैं। यह बाहर के जगत को छोड़ कर तो जाओगे कहां? इस
बाहर के जगत को छोड़ कर जाओगे कहां?
ऐसी कोई जगह नहीं जहां बाहर
का जगत न हो। जो भी जगह होगी वह जगत के भीतर होगी। बाहर के जगत को छोड़ने को जो
संन्यास और साधना समझ लेता हो,
वह गलती में है। इसे छोड़ कर
जाएंगे कहां? इसे नहीं छोड़ा जा सकता। हां, भीतर का जो जगत है, उसे छोड़ा जा सकता है।
तो मैं
यह नहीं कहता कि जिसने संसार को छोड़ दिया, वह
संन्यासी है। मैं कहता हूं,
जिसके भीतर संसार नहीं, वह संन्यासी है। जिसके भीतर यह संसार नहीं
है विचार का, वह संन्यासी है। जिसने भीतर इस जगत को गिरा
दिया, जो भीतर अकेला है, और बाहर जगत है, और बीच में दोनों के कुछ भी नहीं है, वह आदमी संन्यासी है। जिसके और संसार के बीच
में कुछ भी नहीं है, वह आदमी संन्यासी है। और जब दोनों के बीच
में कुछ भी नहीं रह जाता तो यह संसार संसार नहीं रह जाता, परमात्मा का रूप हो जाता है। तब उस खाली
स्थान में से दिखाई पड़ता है कि यह तो स्वयं परमात्मा है। यह तो सारा जगत तब
प्रभु-चैतन्य से व्याप्त,
तब यह कण-कण उसके ही आनंद से
आंदोलित, और तब ये हवाएं उससे ही प्रवाहित, और यह सारा प्रकाश उससे ही उदभूत, और यह सारा जगत उसका ही आनंदमग्न नृत्य हो
जाता है। यह उसके ही संगीत की स्फुरणा हो जाता है। लेकिन तब, जब भीतर हमारे कोई जगत न हो।
वह जो
भीतर जगत है, उसे नष्ट करना है, उसे विलीन करना है। उसे विलीन करने का जो
उपाय मैंने कहा, पहली बात तो उपाय के लिए यह है कि हम अपने
विचार के साक्षी, दर्शक, द्रष्टा, उसके देखने वाले बनें। और दूसरी बात यह है, जो सहयोगी और उपयोगी है--एक तो यह करें, चौबीस घंटे में थोड़े समय को विचार के दर्शक
हो जाएं। क्रमशः थोड़े दिनों के अभ्यास में दिखाई पड़ने वे शुरू होंगे। और थोड़े
अभ्यास में वे गिरते हुए दिखाई पड़ेंगे। और थोड़े अभ्यास में वे शून्य होते मालूम
होंगे। एक तो यह करें। और उतनी ही थोड़ी देर को एक दूसरा प्रयोग भी साथ में चलाएं।
तो एक घंटे के माध्यम से,
आधा घंटा दर्शन का प्रयोग और
आधा घंटे को मैं कहता हूं मृत्यु का प्रयोग।
जिस
व्यक्ति को ध्यान साधना हो उसे मरना सीखना होता है। मरते सारे लोग हैं, लेकिन सीख कर बहुत कम लोग मरते हैं। और जो
मरने को सीख लेते हैं, अदभुत होता है, उन्हें घटना घटती है। जो मरने को सीख लेते
हैं, फिर मृत्यु उनकी नहीं होती। जो अपने हाथ से
मृत्यु को सीख लेता है, वह जान जाता है कि उसके भीतर कोई तत्व है
जिसकी कोई मृत्यु नहीं है। और जो अपने हाथ से मृत्यु को नहीं साधता, उसे मृत्यु बार-बार घटित होती है और अमृत से
वह परिचित नहीं हो पाता।
ध्यान
एक तरह की मृत्यु साधना है। अपने हाथ से मरना। आधा घड़ी को कभी रात के किसी एकांत
कोने में मर जाएं।
आप
कहेंगे, यह हमारे वश में कैसे है कि हम मर जाएं?
मैं
आपको कहूं, यह हमारे वश में है। मरा जा सकता है। मरने
के लिए ऐसा करें--द्वार बंद कर लें। सब तरफ से द्वार बंद कर लें, लेट जाएं, शरीर
को ढीला छोड़ दें, आंख बंद कर लें और यह कल्पना करें कि आप समझ
लें कि मर गए हैं। समझ लें कि आप मर गए हैं। आपकी अंतिम घड़ी आ गई। आपके प्राण निकल
गए। और तब सोचें कि जब आप सच में मरेंगे तो कौन से लोग आपके आस-पास इकट्ठे हो
जाएंगे--आपके मित्र और आपके प्रेम करने वाले, आपके
संबंधी, आपके पड़ोसी--वे सब आने लगे हैं। आप मर गए
हैं, मोहल्ले में, पड़ोस
में खबर फैल गई कि आप मर चुके,
लोग आने शुरू हो गए हैं। वे
लोग आ जाएंगे, कमरे में उनकी कल्पना की भीड़ आने लगेगी।
आपको उनके चेहरे दिखाई पड़ने लगेंगे।
जब
सारे लोग आ जाएं तो फिर आपकी अरथी उठेगी। उसे भी उठते हुए देखें कि लोगों ने आपकी
लाश को बांध दिया। वे आपकी अरथी को कंधों पर ले चले। रास्ते से आपका गुजरना शुरू
हो गया। और उस मरघट तक पीछा करें अपनी इस लाश का। अब मरघट पर पहुंच गए और चिता जला
दी गई और आपकी लाश उस पर रख दी गई और सब राख हुआ जा रहा है।
इसका
निरंतर अभ्यास करने पर एक दिन आप पाएंगे, सब जल
गया है और आप बिना शरीर के अपने को अनुभव करेंगे। निरंतर अभ्यास करने से किसी दिन
आप अचानक होश से भर जाएंगे और पाएंगे, सब जल
गया है और आप बिना शरीर के हैं। और जब शरीर पूरा जल जाएगा तो आप अचानक पाएंगे कि
आपके सारे विचार शून्य हो गए हैं। क्योंकि सारे विचारों को जन्म इस शरीर के माध्यम
से मिलता है। इन इंद्रियों के द्वार से सारे विचार बाहर से आते हैं। अगर ये सब राख
हो गईं, तो इनका सारा संसार भीतर गिर जाता है। उनके
उस संसार के प्राण इन इंद्रियों के भीतर हैं। और तब आप अपने को विदेह अनुभव करेंगे
और निर्विचार अनुभव करेंगे।
इन दो
प्रयोगों को अगर क्रमशः साधते चले जाएं तो आप ध्यान को साध रहे हैं--दर्शन की
साधना और मृत्यु की साधना। और जिस दिन दर्शन और मृत्यु की पूर्णता आपको अनुभव होगी, उस दिन आपको परम सत्य का साक्षात हो जाएगा।
उस दिन आप पाएंगे: जो भी आप में मरणधर्मा था, वह मर
गया है; और जो भी अमृत था, वही केवल शेष रह गया है। विचार सब शून्य हो
जाएंगे, दर्शन शेष रह जाएगा। उस दर्शन में जब अमृत
का अनुभव होता है, तो व्यक्ति सत्य का साक्षात करता है।
मैं प्रार्थना
को नहीं कहता। इस तरह के ध्यान को कहता हूं। और अगर एक दफा आपको अपने भीतर स्वयं
की सत्ता में किसी अमृत,
किसी चैतन्य, किसी परम सत्ता का बोध हो जाए, तो तत्क्षण सारे लोगों के भीतर आपको उसका
बोध होना शुरू हो जाता है। जब तक आप अपने को शरीर जानते हैं, तब तक दूसरे लोग भी आपको शरीर दिखाई पड़ रहे
हैं, तब तक यह सारा संसार प्रकृति दिखाई पड़ रहा
है। जिस दिन आप अपने शरीर के भीतर उसे जानेंगे जो कि शरीर नहीं, आत्मा है, उस दिन
सारे शरीरों के भीतर आपको आत्मा दिखाई पड़ने लगेगी। उस दिन सारी प्रकृति के भीतर
आपको परमात्मा दिखाई पड़ने लगेगा। जितनी गहरी हमारी अपने भीतर पहुंच होती है, उतनी ही गहरी हमारी समस्त के भीतर पहुंच हो
जाती है, उतनी ही गहरी हमारी पहुंच समस्त के भीतर हो
जाती है। जो अपने भीतर अंतिम बिंदु को पकड़ लेता है, वह
सर्वसत्ता के भीतर अंतिम बिंदु को पकड़ने में समर्थ हो जाता है।
इसलिए
मैं कहता हूं, स्वयं के भीतर द्वार है परम सत्य को अनुभव
करने का। और यह शून्य और मृत्यु,
दर्शन और परिपूर्ण इंद्रियों
के मर जाने की जो क्षण-स्थिति है,
उसमें बोध उत्पन्न होता है।
ऐसा
मैं वैज्ञानिक मानता हूं कि ऐसी वैज्ञानिक विधि से अगर कोई प्रयोग करे तो शीघ्रतम
वह उस सत्य को अनुभव कर पाएगा जिसकी शास्त्र दुहाई देते हैं, लेकिन जिसे शास्त्र पढ़ कर नहीं समझा जा
सकता। जिसके सदगुरु प्रवचन करते हैं, लेकिन
जिसे प्रवचन से नहीं समझा जा सकता। जिसकी सारी दुनिया के जाग्रत पुरुष साक्षी देते
हैं, लेकिन उनकी साक्षी से नहीं समझा जा सकता।
जिसके लिए स्वयं ही साक्षी बनना होगा। स्वयं के अनुभव पर ही प्रमाणित करना होगा।
स्वयं को देकर और विसर्जित करके ही उसे पाया जाता है। अपनी ही मृत्यु पर अमृत का
अनुभव होता है। उस अनुभव के बाद सारा जीवन परिवर्तित हो जाएगा। उस अनुभव के बाद
जीवन में बुराई असंभव हो जाएगी। उस अनुभव के बाद जीवन में हिंसा असंभव हो जाएगी।
उस अनुभव के बाद जीवन में घृणा असंभव हो जाएगी। उस अनुभव के बाद जीवन में जो भी
सुगंध है, जो भी शुभ है, जो भी
सत्य है, जो भी सुंदर है, उसकी सहज अभिव्यक्ति शुरू हो जाती है।
जो व्यक्ति
भीतर सत्य को अनुभव करता है,
उसका सारा जीवन सौंदर्य से, शांति से और संगीत से भर जाता है। उसका सारा
जीवन उन प्रतिध्वनियों को,
उन तरंगों को प्रवाहित करने
लगता है, जो सारे जगत के लिए शांति की और शीतलता की
छाया बन सकती हैं।
यही
प्रार्थना करूंगा परमात्मा से,
प्रत्येक व्यक्ति को शांति और
शीतलता की छाया का बड़ा वृक्ष बनाए। उसे खुद छाया मिले और अनेक लोग उसकी छाया से
आंदोलित हों। अनेक लोग उसके आनंद से प्रभावित हों। अनेक लोग उसके सौंदर्य से
प्रभावित हों। अनेक लोग उसके अंतःसंगीत से आंदोलित हों और उनके भीतर भी प्यास पैदा
हो।
एक
अंतिम कहानी और चर्चा को पूरा करूंगा।
बुद्ध
जब पहली दफा सत्य को उपलब्ध हुए,
तब उनके पास कोई भी नहीं था।
वे अकेले थे। वे यात्रा करते थे। अनजान, भिखमंगे
फकीर थे। तब उन्हें कोई भी नहीं जानता था। वे काशी के बाहर आकर एक वृक्ष के नीचे
विश्राम किए। संध्या को जब सूरज ढलता था, तब वे
एक झाड़ के नीचे फटे कपड़ों में लेटे हुए थे। काशी का जो नरेश था, वह कुछ दिनों से बहुत दुखी, बहुत चिंतित, बहुत
पीड़ित था। उसने अनेक बार आत्मघात करने का भी उपाय किया, लेकिन असफल रहा। वह उस सांझ को अपना मन
बहलाने को रथ को लेकर गांव के बाहर निकला। सूरज ढलता था, उसकी अंतिम किरणें बुद्ध की मुखमुद्रा को
प्रकाशित करती थीं। वे एक वृक्ष के नीचे टिके आंख बंद किए लेटे थे। सारथी रथ को
हांके जाता था। अचानक उस राजा की दृष्टि इस भिखमंगे पर पड़ी। उसने सारथी को कहा, रथ रोक लो! यह कौन व्यक्ति यहां लेटा हुआ है? जिसके पास कुछ भी मालूम नहीं होता, उसके पास सब कुछ कैसे दिखाई पड़ रहा है? उस राजा ने कहा, जिस भिखमंगे के पास कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, उसके पास सब कुछ कैसे दिखाई पड़ता है? रथ रोको! मेरे पास सब कुछ है और मुझे कुछ भी
दिखाई नहीं पड़ता!
वे उतर
कर गए। और उन्होंने बुद्ध को कहा कि क्या मैं यह पूछूं कि यह अदभुत समृद्ध-भिखमंगा
कौन है? जो शब्द हैं, वे यह
कि यह अदभुत समृद्ध-भिखमंगा कौन है?
बुद्ध
ने कहा, एक दिन मैं भी दरिद्र-समृद्ध था। जो तुम हो, एक दिन मैं भी वही था। बहुत मेरे पास था और
मेरे भीतर कुछ भी नहीं था।
उस
राजा ने कहा, मैं बहुत पीड़ित हूं। क्या यह कभी मुझे भी
संभव हो सकता है जो तुम्हें संभव हुआ?
बुद्ध
ने कहा, जो एक बीज के लिए संभव है, वह हर दूसरे बीज के लिए संभव है। हर बीज
वृक्ष बन सकता है। जो मुझे फलित हुआ, वह
तुम्हें फलित हो सकता है। क्योंकि मनुष्य की आंतरिक एकता समान है। और मनुष्य की
आंतरिक संभावना समान है। लेकिन कुछ करना होगा।
उस
राजा ने बुद्ध को कहा, मैं कुछ भी करने को तैयार हूं और मैं कुछ भी
खोने को तैयार हूं, क्योंकि सच तो यह है कि जो भी मेरे पास है, उसका अब मुझे कोई मूल्य मालूम नहीं होता।
बुद्ध
ने कहा, और कुछ खोने से वह नहीं मिलता है; जो स्वयं को खोने को तैयार होता है, उसे ही वह मिलता है।
उस
स्वयं को खोने को मैंने मृत्यु कहा। जो स्वयं को खोने को राजी हो जाता है, वह स्वयं की परम सत्ता को उपलब्ध हो जाता
है। यही सूत्र है। जो बीज मिट्टी में अपने को गलाने के लिए राजी नहीं होता, वह बीज कभी अंकुर नहीं बनता। वह बीज सड़
जाएगा। जिसने कोशिश की कि अपने को बचा लूं, वह बीज
सड़ जाएगा, उसमें अंकुर पैदा नहीं होगा। और जो बीज अपने
को तोड़ देता और मिटा देता और मिट्टी में गल जाता है कि उसका कोई पता भी नहीं चलता
कि कहां गया, वह बीज अंकुर हो जाता है।
अंकुरित
होने का सूत्र है: गल जाना और मिट जाना। और जो जीवन में इस भांति मरने लगे, गलने लगे और मिटने लगे और जो अपने को खो दे, वह एक दिन पाएगा कि उसने स्वयं को पा लिया
और विराटतर रूपों में। बूंद बूंद की तरह खो जाती है और सागर बन जाती है। व्यक्ति
जब व्यक्ति की तरह अपने को खो देता है तो वह परमात्मा हो जाता है।
इसी
सूत्र-विचार के साथ अपनी चर्चा को पूरा करूंगा। बूंद जब बूंद की तरह अपने को खो
देती है तो वह सागर हो जाती है और व्यक्ति जब व्यक्ति की तरह अपने को मिटा देता है
तो वह परमात्मा हो जाता है। ईश्वर आपको यह सौभाग्य दे कि आप मर सकें। मरने के पहले
जो मर जाते हैं, वे लोग धन्यभागी हैं।
मेरी
बातों को इतने प्रेम से सुना है,
उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत
हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा के लिए मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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