नौवां प्रवचन
दोत्तीन
बातें इस संबंध में समझ लेनी उपयोगी होंगी।
माटी कहै कुम्हार सूं
बीते
दो दिनों की चर्चाओं के संबंध में मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं। उनमें से
कुछ पर अभी विचार हो सकेगा।
किसी
ने पूछा है: कल मैंने कहा कि आश्चर्य, विस्मय
और रहस्य की भावना जितनी तीव्र और गहरी होगी मनुष्य के जीवन में ईश्वर का संपर्क
उतना ही ज्यादा हो सकता है। उन्होंने पूछा है, विस्मय
का यह भाव कैसे गहरा हो?
कैसे तीव्र हो? आश्चर्य की यह दृष्टि कैसे मिले? हम कैसे जीवन को रहस्य की भांति देख सकें?
पहली
बात, जीवन तो रहस्य है। यह मत पूछिए कि हम जीवन
के रहस्य को कैसे देख सकें?
यह पूछिए कि हमने जीवन के
रहस्य को कैसे देखना बंद कर दिया है।
एक
आदमी आंख बंद किए हुए खड़ा है और पूछता है मैं प्रकाश को कैसे देख सकूं? पूछना चाहिए यह कि मैंने प्रकाश को देखना
किस भांति बंद कर दिया है। प्रकाश तो है, आंख भी
है। प्रकाश को कहीं से लाना नहीं है, आंख को
भी कहीं से लाना नहीं है,
लेकिन हम आंख बंद किए खड़े
हैं। हम आंख बंद किए हुए हैं। हम कैसे आंख बंद किए हुए हैं, हमने किस भांति आंख बंद कर ली है। अगर हम यह
समझ लें, तो आंख कैसे खुल सकती है, इसे समझने में कोई कठिनाई नहीं रह जाएगी।
जीवन
के रहस्य को हमने किस भांति बोथला कर दिया है, किस
भांति हमने देखना बंद कर दिया है। हम कैसे अंधे हो गए हैं?
कुछ
बातों के कारण। उनमें पहली बात,
एक आदमी आज सुबह बगीचे में
जाए और गुलाब के खिले हुए एक फूल को देखे। वह फूल को देख कर फौरन उन गुलाब के
फूलों के संबंध में सोचने लगता है जो उसने पहले देखे थे, उसे यह खयाल आता है कि मैं तो गुलाब के
फूलों को जानता हूं। इसमें कुछ भ्रम हो रहा है, कोई
फैलेसी हो रही है, कोई भूल हो रही है। उसने जिन फूलों को जाना
था ये फूल वे फूल नहीं हैं। यह फूल बिलकुल नया और अलग है। उसने जो फूल जाने थे वे
और थे। प्रत्येक फूल का अपना व्यक्तित्व है, अपनी
प्रतिभा है, अपनी क्षमता, अपनी
निजता है, अपनी इंडिविजुअलिटी है।
लेकिन
हम ये माने बैठे हैं कि गुलाब का फूल यानी गुलाब का फूल। गुलाब का फूल जैसी कोई
चीज होती नहीं। यह गुलाब का फूल होता है, वह
गुलाब का फूल होता है। लेकिन गुलाब का फूल जैसी कोई चीज नहीं होती। आदमी जैसी कोई
चीज नहीं होती। यह आदमी होता है,
वह आदमी होता है। आदमी जैसी
चीज बिलकुल भी नहीं होती। प्रत्येक मनुष्य का अपना व्यक्तित्व है। हम एक मनुष्य को
जान लेते हैं, हम सोचते हैं, हमने
मनुष्य को जान लिया। एक मनुष्य को पहचान लेते हैं; सोचते
हैं मनुष्यता को पहचान लिया। मिस्ट्री नष्ट हो जाती है, क्योंकि हम प्रत्येक व्यक्ति को उसका
व्यक्तित्व छीन लेते हैं। व्यक्तित्व के छीन लेने से जीवन का रहस्य नष्ट हो जाता
है और जीवन की प्रत्येक चीज का अपना व्यक्तित्व है। अपना ही व्यक्तित्व है। और जब
हम चारों तरफ आंख उठा कर देखेंगे और हर चीज में व्यक्तित्व को अनुभव करेंगे--तो
हमें रहस्य के दर्शन शुरू हो जाएंगे।
तब हम
गुलाब के फूल के पास खड़े होकर यह नहीं कह सकते हैं कि मैं गुलाब को जानता हूं।
मैंने जिन फूलों को जाना था वह यह फूल नहीं, यह फूल
बिलकुल नया है। यह फूल पहली बार मेरी चेतना के समक्ष उपस्थित हुआ है। यह एनकाउंटर, यह मुलाकात बिलकुल पहली है और यह मुलाकात
दुबारा फिर कभी नहीं होगी,
क्योंकि सांझ तक यह फूल विदा
हो जाएगा। और अगर यह फूल विदा भी न हो तो भी बदल जाएगा और अगर यह फूल न भी बदले तो
सांझ तक मैं बदल जाऊंगा। यह मुलाकात दुबारा नहीं होनी है। जीवन में प्रत्येक पल
अनूठा है और दुबारा नहीं लौटता है। रिपिटीटिव पुनरुक्ति से जीवन का रहस्य नष्ट हो
जाता है।
और
हमने सारे जीवन को एक पुनरुक्ति बना रखा है। हम सोचते हैं चीजें दोहरती हैं, कोई चीज कभी नहीं दोहरती। जीवन कभी पीछे
नहीं लौटता, जीवन फिर कभी वैसा नहीं होता जैसा था। जो था
अब कभी नहीं होगा। प्रतिपल सब नया होता चला जाता है।
बुद्ध
के पास सुबह-सुबह एक दिन एक व्यक्ति मिलने आया। घंटे भर बाद जब वह जाने लगा तो उस
व्यक्ति ने कहा कि मुझे बहुत आनंद हुआ एक घंटा आपसे मिल कर, मैं जा रहा हूं मैं फिर कभी मिलने आऊंगा।
बुद्ध ने कहा, जाते समय एक बात तुमसे मैं और कह दूं, तुम जो आए थे घंटे भर पहले तुम वही नहीं जा
रहे हो और तुम जब दुबारा आओगे तो तुम्हीं नहीं आ सकते। उसने कहा, आप क्या कहते हैं। मैं ही आया था घंटे भर
पहले मैं ही जा रहा हूं।
बुद्ध
ने कहा कि नहीं, घंटे भर पहले तुम जो आए थे वह तुम अब नहीं
हो, घंटे भर में गंगा का बहुत पानी बह गया। घंटे
भर में तुम्हारे व्यक्तित्व की भी धारा बहुत बह गई--उसने नये किनारे छू लिए, नये आकाश देख लिए। तुम्हारा चित्त भी, तुम्हारी चेतना भी घंटे भर में बहुत बह गई, तुम वही नहीं हो जो आए थे और मैं भी वही
नहीं हूं, जो तुम आए थे तब मैं मिला था। मेरी चेतना
धारा भी बह गई। और अब तुम दुबारा जब आओगे तब तुम फिर नये आदमी। तुम फिर बिलकुल नवीन।
बुद्ध
ने कहा, सांझ को हम एक दीया जलाते हैं। सुबह हम कहते
हैं, हम उसी दीये को बुझा रहे हैं। झूठ है यह
बात। सांझ जो दीया जलाया था वह ज्योति तो रात भर बदलती चली गई है, वह ज्योति रात भर दूसरी होती चली गई है।
सुबह जिस दीये को हम बुझाते हैं यह वही दीया नहीं है जो सांझ जलाया गया। जीवन
प्रतिपल नया है और हमने सोच रखा है कि जीवन एक पुनरुक्ति है जहां पुनरुक्ति है।
वहां रहस्य नहीं होगा। जहां पुनरुक्ति है वहां आश्चर्य का भाव नहीं होगा। और जहां
पुनरुक्ति नहीं है, जहां रिपिटीटिव सर्किल नहीं है, जहां जीवन प्रतिक्षण नई दिशा को छूता है, नये आकाश में प्रवेश करता है नये सूरज से
मिलता है, नई रातों को पार करता है, नये किनारे, नये
सागर। वहां जीवन अगर विस्मय न होगा तो और क्या होगा?
मनुष्य
ने जीवन के विस्मय को नष्ट करने की जो पहली तरकीब, जो
पहली टेक्नीक उपयोग की है वह यह है,
उसने जीवन को एक पुनरुक्ति
मान रखा है। जीवन को बासा और पुराना मान रखा है। इससे सारा रहस्य नष्ट हो जाता है
दिखाई नहीं पड़ता है।
पहली
बात, प्रत्येक घटना के व्यक्तित्व को अनुभव करें।
प्रत्येक व्यक्ति के, प्रत्येक फूल के, प्रत्येक पत्ते के, प्रत्येक पत्थर के, अगर हम खोजने जाएं एक पत्थर जैसा दूसरा
पत्थर तो सारी पृथ्वी पर हम खोज नहीं सकेंगे। एक पत्थर अपने ही जैसा है उस जैसा
कोई पत्थर कहीं भी नहीं। एक व्यक्ति भी अपने जैसा है उस जैसा कोई दूसरा व्यक्ति भी
कहीं नहीं।
एक
घटना भी अपने जैसी है, उस जैसी घटना कभी नहीं घटी और कभी नहीं
घटेगी। अगर यह अभिनय का भाव,
अगर यह नयेपन का; यह ताजगी का; यह
जीवंतता का; यह परिवर्तन का बोध स्पष्ट हो जाए तो आपके
दरवाजे पर विस्मय खड़ा हो जाएगा,
आपको उसे खोजने कहीं जाना
नहीं पड़ेगा। लेकिन हम, हम इस विस्मय को द्वार पर खड़े नहीं होने
देते। कल रात जब आप सोए थे,
तो जिस पत्नी से आपने विदा ली
थी, सुबह वही पत्नी आपके घर में नहीं है, वही व्यक्ति आपके घर में नहीं है--गंगा का
बहुत पानी बह गया। लेकिन सुबह आप उससे ऐसे ही मिल रहे हैं जैसे यह वही व्यक्ति है
जो रात था। आप जीवन को कोई मुर्दा ढांचा समझे हुए हैं, तो फिर इस पत्नी में सुबह कोई रस नहीं रह
जाता, कोई विस्मय नहीं रह जाता। जो पुराना है
उसमें कोई रस और विस्मय कैसे हो सकता है?
चीन
में एक विचारक था--च्वांगत्से। वह एक ही गांव में कोई तीस वर्ष तक रहा। उसके
मित्रों ने जो कि देश के दूर-दूर कोनों को छू आए। उसके कुछ मित्र परदेश हो आए।
उन्होंने लौट कर च्वांग्त्से को कहा कि तुम एक ही गांव में तीस वर्ष से रह रहे हो
तुम घबड़ा नहीं गए। उसने कहा,
गांव अगर एक ही होता तो मैं
घबड़ा जाता, लेकिन गांव रोज बदल जाता है। मैं रोज नये
गांव में हूं और फिर मैं भी रोज बदल जाता हूं। नये गांव में, मैं भी नया आदमी हूं। तुम नये को खोजने कहां
गए थे नया तो यहां घटित हो रहा है इसी गांव में।
वह
सामने जो वृक्ष पर पत्ते लगे हैं पिछले वर्ष नहीं थे। पुराने पत्ते गिर गए हैं
वृक्ष नया हो गया। यह जो गांव में तुम्हें बूढ़े दिखाई पड़ रहे हैं ये तीस वर्ष पहले
बूढ़े नहीं थे ये जवान थे। यह गांव में तुम्हें जवान दिखाई पड़ रहे हैं ये तीस वर्ष
पहले बिलकुल नहीं थे, ये कहीं भी नहीं थे, ये बिलकुल नये हैं। नये मकान गिर गए हैं, पुराने मकान टूट गए हैं, नये मकान बन गए हैं। यह सब कुछ बदल गया है।
और च्वांग्त्से ने कहा, मैं तो हैरान हूं। मैंने एक भी सुबह नहीं
देखी जो वही हो जो पहले हो चुकी है। मैंने एक भी चांद नहीं देखा जो वही हो जो पहले
निकल चुका है। रोज सब कुछ नया है। इस नये की स्मृति, इस नये
की रिमेंबरिंग जीवन में विस्मय का द्वार खोल देगी।
तो
पहली बात है, जीवन में नये का बोध। जीवन की प्रत्येक घटना
को व्यक्तित्व का अनुभव,
जीवन के सतत प्रवाह का स्मरण
कि जीवन एक सतत प्रवाह है,
रोज सब नया होता चला जा रहा
है। कल सुबह जब उठें, आज सांझ जब घर जाएं, तो थोड़ा देखें, खोजें--पुराना है कुछ या सब बदल गया। रास्ते
से निकलें तो थोड़ा रुकें,
देखें वृक्षों को, रात तारों को देखें, सुबह सूरज को वही है सब या बदल गया। सब रोज
बदल जाता है। लेकिन आदमी पुराने में जीए चला जाता है, और वह सोचता है कि कुछ भी नहीं बदला।
इसलिए
मिस्ट्री, इसलिए रहस्य का बोध नहीं होता। मनुष्य की
स्मृति बाधा देती है विस्मय के बोध में, वह जो
मेमोरी है। जगत में पुराना कुछ भी नहीं है, लेकिन
आदमी की स्मृति में सब कुछ पुराना है आदमी की स्मृति में नया कुछ भी नहीं। स्मृति
नये की हो ही नहीं सकती। नये का अनुभव होता है, पुराने
की स्मृति होती हैं, स्मृति नये की नहीं हो सकती। जो नया है उसकी
स्मृति कैसे होगी? जो जाना नहीं गया है उसकी स्मृति कैसे होगी? जो पहले जीया नहीं गया है उसकी स्मृति कैसे
होगी? स्मृति तो होगी पुराने की जो जान लिया गया, पहचान लिया गया, जी लिया गया, जहां
से हम गुजर गए हैं उसकी स्मृति होगी।
गंगा
निकलती है गंगोत्री से, उसे हिमालय की स्मृति होगी। लेकिन मैदानों
का अनुभव, वह उसकी स्मृति कैसे हो सकती है? फिर वह मैदानों से गुजरती है, उसे मैदानों की स्मृति होगी। लेकिन सागर से
मिलन का अनुभव, वह उसकी स्मृति कैसे हो सकती है? जो घट चुका उसकी स्मृति होती है। और जीवन
प्रतिक्षण अनघटा हुआ है,
जो अभी नहीं घटा है, जो अभी घटने को है, जो अभी नहीं हुआ है, जो अभी होने को है। स्मृति के द्वार से हम
इस अनहोने को देखते हैं तो विस्मय नष्ट हो जाता है। स्मृति को हटा दें, क्योंकि स्मृति नये को देखने के लिए कोई भी
मार्ग नहीं बन सकती है।
कल
मैंने जो फूल देखे आज जब नये फूल को देखूं तो उन कल के फूलों की स्मृति बीच में
नहीं आनी चाहिए। अगर बीच में आएगी तो मैं इस फूल को नहीं देख पाऊंगा जो मेरे द्वार
पर आज खिल आया है। कल आपने मुझे गाली दी थी या कल मेरा अपमान किया था, अगर आज मिलते समय कल की स्मृति बीच में आ
जाती है तो मैं आपको नहीं देख पाऊंगा जो आप अभी इस क्षण हैं। बस कल बीच में आ
जाएगा। मैं कल बीते हुए आदमी को देखता रहूंगा जो अब कहीं भी नहीं है। चौबीस घंटे
में आपकी जीवन धारा बहुत बह गई है। लेकिन हम इसी भांति देखते हैं यह हमारे देखने
का ढंग एकदम भ्रांत है। इसलिए विस्मय नष्ट हो जाता है।
तो यह
मत पूछें कि विस्मय के द्वार कैसे खुलेंगे? यह
पूछें कि हमने बंद कैसे कर रखे हैं। नये को, जीवंत
को, अनघटे को, जो अभी
नहीं हुआ उसके लिए, उसके लिए देखने वाली आंख स्मृति के पास कैसे
हो सकती है? इसलिए स्मृति को विदा कर दें। बिना स्मृति के
देखें जीवन को तो जीवन बहुत विस्मय से भरा हुआ है। जीवन बहुत विस्मय से भरा हुआ
है।
बुद्ध
बारह वर्ष अपने घर के बाहर रहे साधना के लिए, तपश्चर्या
के लिए, सत्य की खोज में, फिर बारह वर्षों बाद वे वापस लौटे अपनी, अपनी राजधानी में। सारा नगर उन्हें लेने गया, लेकिन उनकी पत्नी उन्हें लेने नहीं गई।
क्योंकि पत्नी ने सोचा कि यह वही व्यक्ति जो बारह वर्ष पहले मुझे कष्ट में छोड़ कर
चला गया था। उसे पता नहीं कि बारह वर्षों में इस व्यक्ति की जीवनधारा बदल गई यह
कोई और होकर आया है। अब यह किसी का पति नहीं है। अब यह किसी का पिता नहीं है, अब यह किसी का बेटा नहीं है। लेकिन उसकी
पत्नी बारह वर्ष पुरानी स्मृति में रुकी बैठी है। वह घर के बाहर नहीं गई, उसके प्रियजनों ने कहा कि चलो, बुद्ध आते हैं, उनके स्वागत को सारा नगर जाता है तुम नहीं
जाओगी। लेकिन उसकी आंखों में क्रोध है, उसकी
आंखों में गुस्सा है। बारह वर्ष पहले यह आदमी से उसे छोड़ कर चला गया था।
वहीं
रुक गई है स्मृति, बारह वर्ष फिर कुछ नहीं हुआ। बारह वर्ष की
बात वहीं अटकी रह गई है,
वह स्त्री बारह वर्ष पहले खड़ी
है। बुद्ध के पिता लेने गए लेकिन वे भी क्रोध से भरे हुए हैं, उनका लड़का बारह वर्ष पहले उन्हें छोड़ कर चला
गया। अकेला लड़का था, राज्य का अधिकारी वही था। पिता बूढ़े हो गए
हैं, जीवन की संध्या आ गई है। वे बारह वर्ष पहले
के खयाल से भरे हैं। वे गए हैं बुद्ध को लेने। लेकिन बुद्ध को लेने नहीं गए हैं, वे समझाने गए हैं अपने बेटे को कि तू वापस
लौट आ, अभी भी मेरे द्वार खुले हैं मैं तुझे क्षमा
कर सकता हूं। बारह वर्ष में उनका लड़का कहां चला गया, क्या
हो गया? उसकी चेतना ने कौन से रूप लिए हैं, उसकी चेतना ने कौन से आकाश छू लिए, कौन से अनजाने अपरिचित लोक छू लिए, इसका बुद्ध के पिता को कोई भी खयाल नहीं, वे वहीं रुके हैं बारह वर्ष पहले। वे जाकर
बुद्ध के सामने खड़े हो गए हैं और बुद्ध से कहने लगे हैं कि मैं तुझे क्षमा कर
दूंगा, तूने मुझे बहुत चोट पहुंचाई है इस बुढ़ापे
में, लेकिन मैं माफ कर दूंगा, मेरे पास पिता का हृदय है। तू वापस लौट चल
मेरे द्वार अभी भी खुले हैं मैं क्षमा कर सकता हूं।
बुद्ध
हंसने लगे और उन्होंने कहा,
शायद आप देख नहीं रहे कि आप
किससे बात कर रहे हैं, जो बारह वर्ष पहले आपके घर को छोड़ कर गया था
वह अब कहीं भी नहीं है। मैं बिलकुल दूसरा व्यक्ति होकर वापस लौटा हूं। मैं वही
नहीं हूं, आप आंखों को पोंछें, क्रोध को हटाएं और मुझे देखें कि मैं कौन
हूं? आप किससे कह रहे हैं? आप किसको लौटाने की बात कह रहे हैं? आप मुझे देखें, आप मुझे पहचानें। बुद्ध के पिता को स्वभावतः
क्रोध आ गया कि मैं तुझे नहीं पहचानता हूं। मेरा खून तेरे खून में बह रहा है।
मैंने तुझे पैदा किया और मैं तुझे नहीं पहचानता हूं।
बुद्ध
फिर हंसने लगे, उन्होंने कहा, भूल
करते हैं आप। जरूर आपसे मैं पैदा हुआ लेकिन आपने मुझे पैदा नहीं किया है। आप एक
रास्ते की भांति थे जिस पर से मैं आया। एक मार्ग थे जिसको मैंने पार किया और मैं
जीवन में प्रविष्ट हुआ। लेकिन अभी जिस रास्ते पर गुजर कर मैं आ रहा हूं सैकड़ों मील
चल कर के अब वह रास्ता कह सकता है कि मुझे जानता है? क्योंकि
मैं सैकड़ों मील उस पर चला। थोड़ी सी यात्रा मैंने आपके रास्ते से की है लेकिन उससे
आप मुझे कैसे पहचान सकते हैं,
मुझे कैसे जान सकते हैं? दूर हूं मैं, आप स्वयं
अपने को पहचानते हैं? मुझे पहचानना तो बहुत कठिन है। मैं इसी
यात्रा पर गया था अपने को पहचानने की और मैं बिलकुल दूसरा व्यक्ति होकर लौटा हूं।
क्योंकि
जो अपने को नहीं पहचानता था वह बिलकुल दूसरा व्यक्ति था। वैसा ही जैसे एक अंधा
आदमी जो रोशनी को नहीं जानता है। और जो अपने को पहचानता है वह बिलकुल दूसरा
व्यक्ति है, वैसा ही जैसे अंधे की आंख खुल गई और उसे
रोशनी दिखाई पड़ गई। ये दोनों दो व्यक्तित्व हैं, ये
बिलकुल अलग घटनाएं हैं। ये बिलकुल दोनों दो अलग अनुभव हैं। पता नहीं बुद्ध के पिता
को सुनाई पड़ी यह बात या नहीं सुनाई पड़ी। शायद वे फिर भी बारह वर्ष पहले के खयाल
में ही उलझे रहे हों। उन्हें ये बातें बड़ी बेबूझ मालूम पड़ी होंगी कि यह लड़का क्या
कह रहा है? हम सब की भी दशा यही है। हम हमेशा पीछे ही
ठहरे रह जाते हैं। इसलिए जीवन रोज-रोज क्या कहता है हमें सुनाई नहीं पड़ता है। हम
हमेशा पीछे ही अटके रह जाते हैं। इसलिए नई कौन सी खबरें जीवन लाता है, वे हमें दिखाई नहीं पड़तीं। यह जो पीछे अटक
जाना है स्मृति में; यह विस्मय के लिए सबसे बड़ी बाधा है।
आश्चर्य
को लाना हो, तो स्मृति को बीच से हटाने की क्षमता पैदा
करनी जरूरी है। जब भी देखें किसी को; स्मृति
को हटा दें और देखें। फिर आप पाएंगे, शायद
आप अनुभव करेंगे एक रिविलेशन कि यह तो व्यक्ति मैंने कभी नहीं देखा था जो आज मेरे
सामने खड़ा है। जो आपको बिलकुल परिचित मालूम हो रहे हैं वे भी बिलकुल अपरिचित हैं।
रोज-रोज पास गुजर जाने से कोई परिचित नहीं हो जाता। रोज-रोज निकट होने से कोई
ज्ञात नहीं हो जाता। जीवन बहुत गहरा है, जीवन
के रहस्य बहुत गहरे हैं। उन गहरे रहस्यों को देखने के लिए यह स्मृति से धुंधली हो
गई आंखें काम नहीं देती हैं। यह तो पहला स्मरण रखना जरूरी है।
दूसरा
स्मरण, दूसरा स्मरण भी रखना जरूरी है कि जितना हम
देखते हैं वह हमेशा अंश है,
वह हमेशा एक पार्ट है। जितना
हम जानते हैं वह एक छोटा सा खंड है। समग्र, समग्र
का बोध, एक टोटेलिटी का बोध बहुत रहस्यपूर्ण है।
लेकिन हम समग्र को देखते नहीं,
हम खंड-खंड को, टुकड़ों-टुकड़ों को देखते हैं। और हमें पता
नहीं कि जब भी हम चीजों के टुकड़े-टुकड़े करते हैं तभी उनका रहस्य नष्ट हो जाता है।
अगर
मैं एक गीत गाऊं और उस गीत के शब्दों को आप टुकड़े-टुकड़े कर लें और कहें कि क्या है
इस गीत में, इतने शब्दों का जोड़ है ये। तो आप बिलकुल ही
ठीक कहते हैं। शायद इतने ही शब्दों का जोड़ है लेकिन गीत शब्दों के जोड़ से कुछ
ज्यादा है।
एक
चित्र आपके सामने ले आऊं और आप कहें कि क्या है इस चित्र में थोड़े से रंग हैं।
थोड़े से रंग हैं जरूर, लेकिन चित्र रंगों से ज्यादा है। चित्र
रंगों के जोड़ से ज्यादा है। एक आदमी के व्यक्तित्व को हम तोड़ लें टुकड़ों-टुकड़ों
में तो कुछ हड्डियां मिलेंगी,
कुछ मांस मिलेगा, कुछ मज्जा मिलेगी, कुछ खून मिलेगा। और क्या मिलेगा? लेकिन मनुष्य का व्यक्तित्व हड्डी, मांस-मज्जा के जोड़ से कुछ ज्यादा है। अगर
जीवन के रहस्य को नष्ट करना हो तो चीजों को तोड़ कर देखने की तरकीब सीखनी चाहिए और
अगर जीवन के रहस्य को बड़ा करना हो तो चीजों को जोड़ कर देखने की तरकीब विकसित करनी
चाहिए। और इतना स्मरण रखिए कि चीजें जुड़ी हुई हैं, चीजें
टूटी हुई नहीं हैं। चीजें एक अबूझ इंटीग्रेशन में खड़ी हैं, एक अबूझ जोड़ में खड़ी हैं, एक अबूझ अखंडता में खड़ी हैं। चीजें अलग-अलग
नहीं हैं।
एक फूल
खिला है, हम तो फूल को देखते हैं सिर्फ; लेकिन हम यह नहीं देखते कि फूल खिल नहीं
सकता था अगर नीचे पत्ते न होते,
शाखाएं न होतीं। लेकिन पत्ते
और शाखाएं भी नहीं हो सकती थीं अगर जड़ जमीन के नीचे छिपी हुई रूट्स न होतीं जड़ें न
होतीं। लेकिन जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं। फूल दिखाई पड़ता है। लेकिन फूल बिना जड़ों के
कहां है?
फूल इस
समय भी फूले हुए पन में,
जड़ों से जुड़ा है। जो नहीं
दिखाई पड़ता वह पीछे मौजूद है। और जड़ें भी नहीं हो सकती थीं अगर पृथ्वी से रस न
मिलते। सूरज से रोशनी न मिलती। अगर रात चांद अमृत न बरसाता। अगर आकाश की बदलियां
पानी न गिरातीं, जड़ें भी नहीं हो सकती थीं।
तो
जड़ें भी और दूर से जुड़ी हैं--वहां सूरज से जुड़ी हैं, वहां
आकाश के बादलों से जुड़ी हैं,
यहां पृथ्वी से जुड़ी हैं। अगर
सूरज आज सुबह न निकलता यह फूल नहीं खिल सकता था फिर कि खिल सकता था? यह फूल कभी भी नहीं खिलता, अगर सूरज आज सुबह न निकलता तो यह फूल न
खिलता। तो जब आप फूल को देख रहे हैं तब आपको पता नहीं है कि सूरज की मौजूदगी फूल
के प्राणों का हिस्सा है। नहीं तो फूल कभी भी नहीं हो सकता। सूरज से जुड़ा है फूल, वह जो करोड़ों मील दूर सूरज है उससे किसी
अंतरिक्ष यात्रा में फूल के प्राण संयुक्त हैं। फूल नहीं हो सकता है बिना सूरज के, लेकिन कौन कह सकता है कि अगर फूल न हो तो
सूरज भी न हो सके।
यह भी
संभव है, यह भी जीवन के रहस्यों का हिस्सा है। अगर
सूरज से फूल जुड़ा है तो यह कैसे हो सकता है कि सूरज भी फूल से न जुड़ा हो। सब जोड़ म्युचुअल
होते हैं पारस्परिक होते हैं। अगर मैं आपसे जुड़ता हूं तो आप मुझसे जुड़ जाते हैं।
कौन जानता है कि अगर फूल न खिल सकते तो सूरज भी नहीं हो सकता था। इतना तो हम जानते
हैं कि सूरज नहीं होगा तो फूल नहीं खिल सकेंगे। लेकिन जीवन के सब अंतर्संबंध
पारस्परिक होते हैं। सारी चीजें जुड़ी हैं, संयुक्त
हैं, इकट्ठी हैं। लेकिन हम तो चीजों को तोड़ कर
देखते हैं। फूल को देख लेते हैं बात समाप्त हो जाती है। फूल के सारे विस्तार को
नहीं देखते, फूल के पूरी आत्मा को नहीं देखते, फूल की आत्मा में जड़ें भी होंगी, पृथ्वी भी होगी, सूरज भी होगा और कौन कह सकता है कि और दूर
के तारे नहीं होंगे।
अगर हम
एक छोटे से घास के फूल के प्राणों में भी प्रवेश करेंगे तो परमात्मा में प्रवेश हो
जाएगा। चीजें इतनी संयुक्त हैं। लेकिन हम तो फूल को तोड़ कर अपनी जेब में लगा कर घर
आ जाते हैं। हम उस आदमी को कहते हैं फूलों का प्रेमी जो फूल को देख कर जल्दी से
तोड़ कर खीसे में लगा लेता है। यह आदमी फूलों का प्रेमी कतई नहीं है। इसे फूल के
अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। और जो प्रेम करता है वह तोड़ कैसे सकता है? एक बच्चा आपको बहुत प्रिय मालूम होता है, उसकी गर्दन तोड़ कर आप घर में गुलदस्ते में
नहीं सजा लेते हैं। यह बच्चा हमें बहुत प्यारा लगा तो इसकी गर्दन तोड़ कर हमने
गुलदस्ते में सजा ली।
लेकिन
ऐसे लोग भी हुए हैं--नादिर,
या चंगीज, या तैमूरलंग। नादिर जिस नगर में जाता वहां
छोटे-छोटे खूबसूरत बच्चों की गरदनें कटवा देता, भालों
में छिदवा देता। जुलूस निकलवाता,
खुद चलता आगे, दस हजार बच्चों की गरदनें भालों में छिदी
हुई चलतीं। वह बच्चों को प्रेम करने वाला था। अगर आप फूल को प्रेम करने वाले हैं
तो वह बच्चों को प्रेम करने वाला था। लेकिन आप जानते हैं कि यह बच्चों को प्रेम
करने वाला आदमी नहीं है। आप भी फूल को प्रेम करने वाले आदमी नहीं हैं।
फूल को
प्रेम वह करता है जो फूल की आत्मा में प्रविष्ट हो जाता है और जो फूल की आत्मा में
प्रविष्ट होगा वह पाएगा धीरे-धीरे फूल तो विलीन हो गया और गहरा जगत प्रकट होने
लगा--जड़ें दिखाई पड़ने लगीं,
फिर जड़ें भी विलीन हो गईं, पृथ्वी दिखाई पड़ने लगी, फिर पृथ्वी भी विलीन हो गई और सूरज दिखाई
पड़ने लगे, फिर सूरज भी विलीन हो गया और सारा ब्रह्मांड
एक फूल के द्वार से चेतना को घेर लिया।
एक फूल
परमात्मा का द्वार बन सकता है। किसी की आंख में झांक कर कोई परमात्मा तक पहुंच
सकता है। किसी एक व्यक्ति को प्रेम करके कोई समग्र परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है।
कोई गीत की एक छोटी सी कड़ी,
संगीत का कोई छोटा सा स्वर, वीणा पर किसी के हाथ की छोटी सी झनक, सारे जगत को अपने में समाए हुए है। एक वीणा
पर जिसने जरा सी चोट कर दी,
तार झनझना कर शांत हो गए हैं।
इस झनझनाहट में सारे ब्रह्म का साथ है, सारे
ब्रह्मांड का साथ है अन्यथा यह झनकार नहीं हो सकती थी। यह झनकार कभी नहीं होती।
लेकिन यह हमें नहीं दिखाई पड़ता। हम चीजों को उनके खंडों में पकड़ते हैं इसलिए जीवन
का रहस्य व्यर्थ हो जाता है।
दूसरा
सूत्र है: जीवन को उसकी अखंडता में,
जीवन को उसकी टोटेलिटी में, उसकी होलनेस में, उसकी पूर्णता में जितना आप देखने में समर्थ
होने लगेंगे उतना ही आप पाएंगे कि जीवन अत्यंत विस्मय के मार्गों पर ले जाता है।
सब विस्मय हो जाता है, चकित खड़े रह जाते हैं, हैरान हो जाते हैं। क्योंकि फिर समझ के पार
हो जाती है बात बियांड अंडरस्टैंडिंग हो जाती है बात। एक फूल को तो हम समझ सकते
हैं, एक वनस्पति शास्त्री से पूछें कि फूल क्या
है? वह कहेगा, फूल, कुछ थोड़े से केमिकल्स, कुछ थोड़े से खनिज पदार्थ इनका जोड़ है। यह
एनालिसिस हुई यह विश्लेषण हुआ। एक कवि से पूछें, तो वह
कहेगा, फूल फूल मुझे अपनी प्रेयसी की आंखों की याद
दिलाता है। यह काव्य हुआ,
फूल यहां सिंबल हो गया।
एक
धार्मिक व्यक्ति से पूछें,
वह कहेगा फूल, फूल मेरे लिए समग्र है, फूल मेरे लिए परमात्मा है। यहां फूल का न तो
विश्लेषण हुआ, न तो फूल खनिज और केमिकल्स रह गया, न फूल सिंबालिक प्रतीक बन गया अपनी प्रेयसी
की आंखों का। फूल यहां अपनी पूरी वास्तविकता में अपनी पूरी एक्चुअलिटी में, अपनी पूरी सचनेस में, फूल जैसा है अपनी परिपूर्णता में प्रकट होगा; तो फूल समग्र परमात्मा बन जाएगा। न तो उसका
विश्लेषण होगा, न तो वह कुछ खनिज होगा, न केमिकल्स, न वह
कोई प्रतीक होगा किसी की स्मृति का;
वह समग्र जीवन का द्वार बन
जाएगा।
वैज्ञानिक
चीजों को तोड़ कर देखता है,
इसलिए वैज्ञानिक के हाथ में
चीजों की आत्मा पकड़ में नहीं आती है। कवि चीजों को प्रतीक बना लेता है, इसलिए कवि के हाथों में भी जीवन की आत्मा
पकड़ में नहीं आती। लेकिन उसे मैं धार्मिक, उसे
मैं रिलिजस माइंड कहता हूं जो चीजों को उनकी समग्रता में, वह जो एक इनर करसपांडेंस है, वे जो चीजें भीतर से कहीं जुड़ी हैं, जुड़ी हैं, जुड़ी
हैं एक बड़ा जोड़ है, उस जोड़ में जो देख पाता है उस व्यक्ति के
सामने संपूर्ण रहस्य प्रकट होता है। तो चीजों को खंड-खंड में देखने की आदत रहस्य
की शत्रु है।
अगर
रहस्य को विकसित हुआ देखना है तो चीजों को अखंड देखने की क्षमता, विस्तार में अखंड। दो तरह की अखंडताएं, समझने के लिए दो तरह की, एक ही तरह की होगी लेकिन समझने के लिए दो
रूप हैं--एक तो विस्तार में एक्सटेंशन में--जैसा मैंने कहा, एक फूल आकाश के तारों से जुड़ा है, सूरज से जुड़ा है, पृथ्वी से जुड़ा है--यह तो विस्तार हुआ, यह तो स्पेस में क्षेत्र में जोड़ हुआ। दूसरा
जोड़ टाइम में है पीछे और आगे,
आप हैं आप सिर्फ इसीलिए हैं
कि आपके पहले कोई था--आपके पिता थे आपकी मां थी। आपके पिता और मां नहीं होते तो आप
नहीं होते, आपके होने में आपके पिता और मां का होना
अंतर्गर्भित है, वह मौजूद है--जैसे फूल के होने में जड़ें
मौजूद हैं। जड़ें दिखाई नहीं पड़ रहीं।
और आपके
मां और पिता भी नहीं होते अगर उनके मां और पिता नहीं होते और अगर हम इस पीछे की
यात्रा में उतर जाएं तो हम कहां पहुंचेंगे? हम
पाएंगे एक अनंत शृंखला पीछे की तरफ चली गई है जिसका कोई छोर नहीं है। आपके होने
में वह सारी अनंत शृंखला मौजूद है उसमें एक भी कड़ी खो जाएगी तो आप नहीं हो सकेंगे।
तो जब
मैं आपको देखता हूं, अगर आपके भीतर उतरूं, तो जैसे फूल के भीतर हम उतरें, तो हम चांदत्तारों तक पहुंच गए। अगर आपके
भीतर हम उतरें, तो एक अनंत, सारा
इतिहास, सारी हिस्ट्री, जीवन का सारा अतीत सब जो बीत गया वह एक
अनिवार्य शृंखला में जुड़ा हुआ दिखाई पड़ेगा और ज्ञात होगा वह सब आपके भीतर मौजूद
हैं, क्योंकि उसके बिना आप नहीं हो सकते थे। आप
उस सब को अपने भीतर समेटे हुए हैं। तब एक छोटा सा आदमी भी, छोटा सा आदमी नहीं रह जाता--एक अनंत इतिहास
का हिस्सा हो जाता है। यह आदमी नहीं हो सकता था अगर राम और कृष्ण नहीं होते; अगर बुद्ध और महावीर नहीं होते तो यह आदमी
नहीं हो सकता था।
दुनिया
जैसी थी अगर उसमें जरा सा फर्क होता तो यह आदमी नहीं हो सकता था। इस आदमी के पीछे
सारा इतिहास जुड़ा है। एक-एक टुकड़े के पीछे सारा अनंत इतिहास जुड़ा है और इस टुकड़े
के साथ अनंत भविष्य भी जुड़ा है,
इस टुकड़े के भीतर अनंत भविष्य
भी छिपा है। एक बीज मैं आपको भेंट कर दूं, बीज
क्या है? एक अनंत संभावना है, उसे आप घर जाकर बो देंगे और एक वृक्ष
निकलेगा, और वृक्षों में फूल आएंगे और फूलों में बीज
लग जाएंगे; एक बीज में अनंत बीज निकल आएंगे। फिर उन
अनंत बीजों को हम बो दें,
तो एक-एक बीज में फिर पौधे
होंगे। एक-एक पौधे में फिर अनंत बीज होंगे। इस एक छोटे से बीज में कितने बीजों की
संभावना छिपी है। कोई कैलकुलेशन कोई गणित कभी बता सकेगा? कभी भी नहीं बता सकेगा। एक छोटे से बीज में
अनंत बीजों की संभावना छिपी है। एक छोटे से आदमी में सारी मनुष्यता छिपी है। एक
छोटे से रेत के टुकड़े में सारे जगत के पर्वत छिपे हैं। एक छोटी सी पानी की बूंद
में सारे जगत के अनंत सागर छिपे हैं। लेकिन ये हमें नहीं दिखाई पड़ता, इसलिए हमें रहस्य का बोध नहीं होता है।
दूसरी
दिशा है: पीछे-आगे, समय की, काल की, टाइम की। इस दूसरी दिशा में भी अनंत शृंखला
है। सब चीजें संयुक्त हैं। सारा अतीत सिकुड़ कर आ गया है वर्तमान में और सारा
भविष्य छिपा है वर्तमान के गर्भ में, वह सब
प्रकट होगा। अनफोल्डमेंट होता रहेगा। अगर हम चीजों को इस भांति देख सकें, अगर चीजों को हम इस भांति आंख खोल सकें, तो क्या आप सोचते हैं कि रहस्य के द्वार
नहीं खुल जाएंगे?
एक
छोटी सी घटना से मैं समझाने की कोशिश करूं।
एक
छोटे से गांव में एक बूढ़ा किसान था। उस बूढ़े किसान के पास एक बहुत कीमती घोड़ा था।
उस घोड़े की दूर-दूर तक प्रशंसा थी। दूर-दूर से बड़े-बड़े सम्राट भी उस घोड़े को
मांगने आए और उन्होंने कहा,
जो भी दाम लेना हो ले लो। यह
घोड़ा राजमहलों में रहने के योग्य है। तुम किसान, तुम्हारे
झोपड़े में इसे क्यों बांध रखा?
तुम जो भी मांगोगे वह मूल्य
हम देंगे। लेकिन उस किसान ने कहा,
प्रेम बेचा नहीं जाता, इस घोड़े से मुझे प्रेम है। और उस किसान ने
कहा, जहां प्रेम है वहां महल है और जहां प्रेम
नहीं पैसा है वहां महल कहां?
यह झोपड़ा इस घोड़े के लिए महल
है। क्योंकि मेरे हृदय में इसके लिए प्रेम है और मैं इसे बेचने में असमर्थ हूं।
क्योंकि प्रेम को बेचा कैसे जा सकता है? अगर
दुनिया में कोई एक चीज है और नहीं बेची जा सकती तो वह प्रेम है और सब कुछ बेचा जा
सकता है खरीदा जा सकता है। अब ऐसे आदमी से क्या करते राजा थक गए और उस घोड़े की
फिक्र छोड़ देनी पड़ी।
वह
बूढ़ा अस्सी साल का बूढ़ा था। उसका एक जवान लड़का था वही बुढ़ापे में उसकी सेवा करता
है। लेकिन दूर-दूर से यात्री उस घोड़े को देखने जरूर आते हैं वह ऐसा ही शानदार
जानवर था। उसकी जवानी, उस घोड़े की परुषता, उसका बल, वह
देखने ही जैसा था। लेकिन एक रात वह घोड़ा पता होता है कहीं खो गया या चोरी चला गया।
अस्तबल सुबह पाया तो खाली था। जब वह बूढ़ा सुबह उठ कर पहुंचा तो अस्तबल खाली था।
घोड़ा वहां मौजूद नहीं था। गांव के लोगों को बिजली की तरह खबर दौड़ गई, लोग सुबह ही सुबह इकट्ठे हो गए और कहने लगे, यह तो बहुत बुरा हुआ, यह तो बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण हुआ; जिस घोड़े के लाखों रुपये मिल सकते थे वह
चोरी चला गया। वे उस बूढ़े को सांत्वना देने लगे कि दुख न करो। अब जो हुआ सो हुआ, भाग्य की बात है। लेकिन वह बूढ़ा कहने लगा, दुख की बात इसमें कहां? और कौन कहता है कि बुरा हुआ, हम कुछ भी नहीं जानते हैं कि बुरा हुआ कि
भला हुआ। तथ्य, फैक्ट केवल इतना है कि घोड़ा रात अस्तबल में
था अब अपने अस्तबल में नहीं है। इससे ज्यादा कुछ भी कहना उचित नहीं है। जीवन बड़ा
रहस्यपूर्ण है। यह अच्छा हुआ कि बुरा हुआ यह परमात्मा जानता होगा जो पूरे जीवन को
जानता है। पूरे जीवन के अतीत को जानता है और पूरे जीवन के भविष्य को, अगर कहीं कोई ऐसा परमात्मा है तो वह जानता होगा
कि बुरा हुआ कि भला हुआ। हम कुछ भी नहीं कह सकते कि क्या हुआ?
गांव
के लोगों ने कहा, इसमें इतनी, इतनी
दर्शन की जोड़ने की कोई जरूरत नहीं है, सीधी
सी बात है कीमती घोड़ा था चोरी चला गया और बुरा हुआ। लेकिन पंद्रह दिन बाद ही गांव
के लोगों को क्षमा मांगनी पड़ी,
वह घोड़ा वापस लौट आया वह जंगल
भाग गया था। और उसके साथ पंद्रह जंगली घोड़े भी वापस लौट आए। गांव के लोगों में फिर
खबर पहुंच गई कि घोड़ा वापस आ गया पंद्रह जंगली घोड़े भी वापस आ गए। वे पंद्रह जानवर
भी एक से एक शानदार जानवर थे। उन्होंने बूढ़े से कहा, तुम
ठीक कहते थे हमारी गलती थी हम माफी मांगते हैं, यह तो
बहुत अच्छा हुआ।
बूढ़े
ने कहा, तुम फिर गलती कर रहे हो। यह मत कहो कि अच्छा
हुआ क्योंकि हमें कुछ भी पता नहीं कि क्या हुआ, इतना
ही कहो कि घोड़ा आ गया, पंद्रह घोड़े साथ आ गए। इतने दूर तक तो तथ्य
है, इसके बाद कल्पना शुरू हो जाती है। कल्पना मत
जोड़ो! मत कहो कि अच्छा हुआ। कौन जाने, क्या
हो, क्या छिपा हो इनके आने में? लोगों ने कहा, अब
व्यर्थ की बातें मत करो,
नगद फायदा है पंद्रह घोड़े भी
साथ आ गए हैं, शानदार जानवर हैं, थोड़े दिन में चलना सीख जाएंगे बिकने के
योग्य हो जाएंगे।
लेकिन
पंद्रह दिन बाद गांव के लोगों को फिर क्षमा मांगनी पड़ी। जंगली घोड़े को चलाने के
लिए बूढ़े का जवान लड़का कोशिश कर रहा था चाल सिखाने की--उस पर से गिर पड़ा उसके
दोनों पैर टूट गए। उस लड़के की शादी होने वाली थी। लड़की वाले ने इनकार कर दिया कि
पैर टूटे लड़के से शादी नहीं हो सकेगी। बूढ़ा बहुत बूढ़ा था। वह लड़का ही सहारा था, वह ही सेवा करता था। उलटी स्थिति हो गई कि
बूढ़े को लड़के की सेवा करनी पड़ेगी और लड़के के पैर ठीक होंगे कि नहीं होंगे; नहीं कहा जा सकता, चोट भारी थी। गांव के लोगों ने कहा, तुम ठीक कहते थे, यह तो बहुत बुरा हुआ, यह तो दुर्भाग्य हुआ। ये घोड़े क्या आए
तुम्हारे जीवन का सहारा टूट गया,
लड़का लंगड़ा हो गया। अब क्या
होगा?
बूढ़े
ने कहा, तुम मानते ही नहीं, तुम पुरानी आदत दोहराए चले जाते हो। इतना ही
कहो कि कल तक लड़के के पैर ठीक थे अब पैर टूट गए, इतना
तो ठीक है, इसके आगे मत कहो कि क्या अच्छा हुआ, क्या बुरा हुआ। हम कुछ भी नहीं जानते। जीवन
बहुत मिस्टीरियस है। जीवन बहुत रहस्यपूर्ण है। कुछ पता नहीं कि क्या हुआ? क्या होगा? लोगों
ने कहा, अब तो कुछ गुंजाइश ही नहीं कहने की जवान
लड़के के पैर टूट गए हैं और तुम दर्शन की बातें करते हो।
लेकिन
पंद्रह दिन बाद गांव के लोगों को फिर क्षमा मांगनी पड़ी। पंद्रह दिन बाद ही गांव के
ऊपर हमला हो गया पड़ोस के राजा का। और गांव के सब जवान लड़के जबरदस्ती मिलिट्री में
भर्ती कर लिए गए, सिर्फ उस बूढ़े का लड़का छोड़ दिया गया। लंगड़े
की क्या जरूरत थी वहां। गांव के लोग इकट्ठे हुए और कहने लगे, यह तो बहुत, बहुत
ही अच्छा हुआ तुम्हारा सौभाग्य कि लड़के के पैर टूट गए। लड़का घर में तो है, लंगड़ा है तो क्या हुआ। हमारे लड़के तो गए और
उनके लौटने की कोई संभावना नहीं है। युद्ध भयानक है, शत्रु
मजबूत है, लड़के वापस नहीं लौट सकेंगे उनकी मृत्यु निश्चित
है। यह तो तुम्हारे लिए बहुत ही अच्छा हुआ।
वह
बूढ़ा कहने लगा, खूब हंसने लगा और कहने लगा कि तुम बाज नहीं
आते। तुम अपनी आदत से बाज नहीं आते,
तुम यही कहे चले जाते हो।
इतना ही कहो कि तुम्हारे लड़के चले गए युद्ध पर मेरा लड़का नहीं गया। लेकिन अच्छा
हुआ कि बुरा हुआ कोई भी नहीं जानता है।
जीवन
के रहस्य को केवल वे ही अनुभव कर सकते हैं--जो जीवन की यह जो अनंत शृंखला
है--अज्ञात, अनजान इसके प्रति जिनका बोध सजग हो जाए।
जीवन के तथ्य कोई भी हमें ज्ञात नहीं हैं। कोई उपाय ही नहीं है कि जीवन के सारे
तथ्यों की अनंत शृंखला को हम कभी भी जानने में समर्थ हो सकेंगे। कोई मार्ग भी नहीं
है। कब क्या बुरा हुआ और कब क्या भला हुआ, नहीं
कहा जा सकता इस सारी अनंत टोटेलिटी में।
गांधी
का होना अच्छा था कि गोडसे का होना,
कहना बहुत मुश्किल है। जीसस
क्राइस्ट के उपदेश अच्छे थे कि सूली पर लगा देने वाले लोग। इस जीवन की अनंत शृंखला
में कहना बहुत मुश्किल है। साधुओं के द्वारा जगत में भली बातें उतरती हैं कि ये
बेईमानों के द्वारा कहना बहुत मुश्किल है। जजमेंट सब अधूरे और बचकाने हैं, जजमेंट सब, निर्णय
सब बहुत ऊपर से लिए गए हैं। घोड़ा चोरी चला गया तो बुरा हो गया। पंद्रह घोड़े वापस
लौट आए तो अच्छा हो गया। लड़के की टांग टूट गई तो बुरा हो गया। लड़का सेना में जाने
से बच गया तो भला हो गया। सब निर्णय, सारी
मनुष्यता के सारे निर्णय इतने ही ओछे और थोथे और व्यर्थ हैं।
कोई भी
नहीं जानता कि इस जगत में जो भी सौंदर्य है, जो भी
सुख है वह किनके कारण है?
वह राम के कारण है या रावण के
कारण, कोई भी नहीं जानता! कोई भी नहीं जानता किसकी
पूजा करो राम की कि रावण की। कौन जाने राम भी इसलिए हो पाते हैं क्योंकि रावण है, नहीं तो राम भी न हो पाएं। कौन जाने कि
गांधी इसलिए हो पाते हैं कि गोडसे है, नहीं
तो गांधी भी न हो पाएं। कोई भी नहीं जानता है। नहीं जानते हैं हम इस बात की जितनी
गहरी और प्रगाढ़ हमारी स्थिति होगी उतना ही जीवन हमारे लिए रहस्यपूर्ण हो जाएगा।
निर्णय लेना बंद हो जाएगा। अनिर्णय,
बिना निर्णय के जीवन को हम
देखने में समर्थ हो जाएंगे।
और जिस
दिन जीवन को हम बिना निर्णय के,
बिना जजमेंट के, बिना न्यायाधीश बने--हम रोज जीवन के
न्यायाधीश बन जाते हैं बिना किसी के पूछे, किसने
हमें जीवन का न्यायाधीश बनाया?
किसने हमें कहा कि तुम जीवन
का निर्णय लो? किसने हमें जीवन की अदालत में बिठाया? हम सब अपने ही हाथों स्वनिर्मित न्यायाधीश
बन जाते हैं, जीवन का निर्णय लेते हैं और यह सब निर्णय
जीवन के रहस्य को नष्ट कर देते हैं। केवल वे ही लोग रहस्य को जान सकते हैं--वह जो
मिस्टीरियस है। वह केवल उन्हीं प्राणों को आंदोलित करेगा जिनके पास कोई निर्णय
नहीं है। जो जीवन को मौन,
चुप उसकी अनंत अज्ञातता में
देखने को तत्पर और तैयार हो जाते हैं।
एक
छोटी सी घटना और मैं अपनी बात पूरी करूं।
जीसस
क्राइस्ट एक गांव के बाहर ठहरे हुए हैं। एक छोटी सी नदी है, नदी के किनारे पर पत्थर ही पत्थरों का ढेर
है, वे रेत में बैठे हैं, शायद बहती हुई नदी को देखते हों या सांझ
सूरज को डूबते हुए को देखते हों या कुछ भी न करते हों मौन बैठे हों, और तभी गांव से एक बड़ी भीड़ चली आई। और वह
भीड़ बड़ा शोरगुल कर रही है और बड़े अपशब्द बोल रही है। और साथ में एक जवान स्त्री को
घसीट रही है। फिर वह भीड़ आ गई है जीसस क्राइस्ट के पास और कहने लगी है जीसस से कि
सुनते हैं, इस स्त्री ने व्यभिचार किया है। और हमारी
पुरानी किताब कहती है, धर्म की पुरानी किताब कहती है कि जो स्त्री
व्यभिचारिणी हो उसे पत्थर मार-मार कर मार डालना चाहिए। आपकी क्या आज्ञा है?
वे लोग
बड़े मतलब से आए हैं। वे उस स्त्री को भी मारना चाहते हैं और जीसस को भी फंसाना
चाहते हैं। वे यह सोच कर आए हैं कि अगर जीसस कहेंगे कि नहीं-नहीं, स्त्री को पत्थर से मत मारना क्योंकि जीसस
तो यह कहते हैं कि बुराई का प्रतिरोध मत करो। रेसिस्ट नाट ईविल। जीसस तो यह कहते
हैं कि बुराई से भी मत लड़ो। जीसस तो यह कहते हैं कि तुम्हारे गाल पर जो एक चांटा
मारे, दूसरा गाल भी उसके सामने कर देना। और जीसस
तो यह कहते हैं कि अगर कोई तुमसे कहे कि अपना कोट दे दो तो कमीज भी दे देना। जीसस
तो यह कहते हैं कि कोई तुमसे कहे कि मेरा बोझ एक मील ढो कर चलो तो तुम दो मील तक ढो
देना।
तो जो
आदमी यह कहता है यह आदमी किसी स्त्री को पत्थर मार-मार कर मार डालने की आज्ञा नहीं
देगा। और अगर इसने यह आज्ञा न दी,
तो हम कहेंगे, तुम हमारी पुरानी किताब के खिलाफ हो। तुम
धर्म के शत्रु हो क्योंकि यह धर्म की किताब है और इसमें लिखा है कि जो तुम्हारी एक
आंख फोड़े, उसकी तुम दोनों फोड़ देना। इसमें लिखा है कि
जो तुम्हें ईंट मारे, तुम पत्थर से जवाब देना। और इसमें लिखा है
कि जो व्यभिचार करे, उसे पत्थरों से ठोंक-ठोंक कर उसके प्राण ले
लेना। तो या तो तुम कहो कि यह ठीक है किताब और अगर यह ठीक है तो तुम्हारे सारे
उपदेश व्यर्थ। और या तुम कहो कि तुम जो कहते हो वह ठीक है, तो यह किताब गलत।
तो
हमारे सारे पैगंबर पागल थे,
गलत थे, नासमझ थे। तुम ही एक समझदार पैदा हुए हो।
पुरानी किताबों के मानने वाले हमेशा यह कहते हैं। कि तुम ही एक समझदार पैदा हुए
हो। हमारे सब पैगंबर, तीर्थंकर गलत थे नासमझ थे। जीसस थोड़ी देर
उनकी तरफ देखे और उन्होंने कहा,
ठीक है मैं भी कहता हूं, अगर इस स्त्री ने व्यभिचार किया है तो इसे
पत्थरों से मार डालो। लेकिन एक शर्त और है मेरी, पत्थर
मारने के अधिकारी केवल वे ही हैं जिन्होंने व्यभिचार कभी न किया हो और कभी
व्यभिचार करने का विचार भी न किया हो। पत्थर उठा लें वे लोग जिनके मन में व्यभिचार
नहीं आया है कभी, वे इसे पत्थरों से मार डालें।
वे लोग
पत्थर उठाए हुए खड़े थे लेकिन जो भीड़ के सामने खड़े थे वे धीरे-धीरे पीछे सट गए।
लोगों ने पत्थर हाथ से नीचे छोड़ दिए। भीड़ पीछे से खिसकनी शुरू हो गई। क्योंकि वहां
एक भी आदमी नहीं था जिसने व्यभिचार न किया हो या व्यभिचार के सपने न देखे हों या
व्यभिचार की कामना न की हो। धीरे-धीरे भीड़ विदा हो गई।
सांझ
उतर आई, वह औरत अकेली बैठी रह गई, उसने जीसस के पैरों पर सिर रख दिया और उसने
कहा कि मुझे सजा दें मैंने पाप किया है। जीसस ने कहा, मैं सजा देने वाला कौन, मैं निर्णय करने वाला कौन, मैं कैसे निर्णय करूं कि जो हुआ है वह पाप
है या नहीं पाप है। तू जान,
तेरा परमात्मा जानता है। इसके
बीच मुझे आने की कोई भी जरूरत नहीं। तू अपने घर जा।
यह जो
आदमी है, ऐसा आदमी तो जीवन के रहस्य को जान सकता है।
जो कहता है, मैं निर्णय लेने वाला कौन? मैं कौन हूं जो निर्णय लूं? जिस आदमी ने यह निर्णय ले लिया कि मैं कौन
हूं कि निर्णय लूं, उस आदमी ने जीवन के रहस्य को जानने का
निर्णय ले लिया, उसके लिए द्वार खुल जाएंगे। उसके लिए कोई
अनजाने मार्ग प्रकट हो जाएंगे। वह तैयार हो गया, उसकी
रिसेप्टिविटी उपलब्ध हो गई,
उसकी ग्राहकता आ गई, उसकी पात्रता भर गई--अब वह तैयार है अब जीवन
कहीं से भी उसके लिए बच नहीं सकता। वह जीवन के भीतर प्रवेश कर जाएगा।
लेकिन
हम सारे लोग तो बिलकुल उलटे लोग हैं। हमने तो हर चीज पर निर्णय ले रखे हैं। और
जिनको हम साधु-संत कहते हैं और जिनको हम अच्छे आदमी कहते हैं, वे लोग सबसे कम रहस्य को जान पाते हैं।
क्योंकि वे सबसे बड़े निर्णायक हैं। वे जीवन में हर चीज का निर्णय कर रहे हैं।
जिनको हम साधु-संत कहते हैं उनसे ज्यादा कठोर, उनसे
ज्यादा दुष्ट आदमी जमीन पर खोजने कठिन हैं। क्योंकि वे सब के निर्णायक हैं। वे सब
का कंडेमनेशन, सबकी निंदा, सबके
पाप का हिसाब-किताब उनके पास है।
एक
पादरी एक चर्च में लोगों को समझा रहा था कि तुम येऱ्ये पाप करोगे तो तुम्हें नरक
में येऱ्ये सजाएं भोगनी पड़ेंगी। तेल के कढ़ाओं में जलाए जाओगे, कीड़े-मकोड़े तुम्हारे शरीर को छेद-छेद कर
देंगे। प्यास से तड़पोगे,
नदी सामने होगी लेकिन पानी
नहीं पी सकोगे, मुंह बंद होगा। सब तरह के कष्टों का वर्णन
कर रहा था।
फिर
उसने आखिर में यह कहा, इतनी कड़क सर्दी होगी वहां कि तुम्हारे दांत
कड़कड़ाएंगे, इतनी पीड़ा होगी वहां कि तुम्हारे दांत
किसमिसाएंगे। तो एक आदमी ने खड़े होकर कहा, माफ
करिए, मेरे दांत सब टूट गए हैं मेरा क्या होगा? उस पादरी ने कहा, बेफिक्र रहो, नकली
दांत प्रोवाइड किए जाएंगे,
वहां नकली दांत दिए जाएंगे, ताकि उनको तुम पहन लो किड़किड़ाओ, घबड़ाओ। नरक का इंतजाम कर रखा है। नरक का
जिन्होंने इंतजाम किया है और नरक की जिन्होंने कल्पना की है, ये कैसे लोग होंगे? ये लोग धार्मिक हो सकते हैं, ये लोग रिलीजस हो सकते हैं। और फिर अधार्मिक
कौन होगा?
हिटलर
को हम अधार्मिक कहते हैं। क्योंकि उसने कनसनट्रेशन कैंप बनाए। उसने कैदियों को बंद
किया, उसने गैस चैंबूर बनाए। उसने हजारों लोगों को
एक-एक मकान में बंद करके गैस से जला दिया। इसको हम कहते हैं यह बड़ा पापी था। लेकिन
जिन धर्म गुरुओं ने नरक की योजना की है उनके सामने हिटलर भी फीका पड़ जाएगा। वहां
हिटलर बहुत बचकाना मालूम पड़ेगा उसके गैस चैंबूर बहुत छोटे मालूम पड़ेंगे।
नरक की
योजना करने वाले चित्त निर्णय लेने वाले चित्त हैं। वे अपने लिए तो स्वर्ग की
व्यवस्था कर लेते हैं बड़ी सस्ते में। वे कहते है, चूंकि
हम रोज सुबह उठ कर नमोकार मंत्र पढ़ते हैं, हम रोज
सुबह उठ कर अल्लाह-अल्लाह कहते हैं,
हम रोज सुबह उठ कर राम-राम
जपते हैं इसलिए हमको स्वर्ग मिलेगा। और जो अल्लाह-अल्लाह नहीं कहता, नमोकार नहीं पढ़ता, राम-राम नहीं जपता यह नरक जाएगा और ये सारी
योजना में भटकेगा।
अपने
लिए उन्होंने बड़े सस्ते इंतजाम कर लिए, क्योंकि
हम उपवास करते हैं, क्योंकि हम कपड़े खादी के पहनते हैं, क्योंकि हम नंगे पैर चलते हैं धूप में, क्योंकि हम बाल उखाड़ कर तोड़ते हैं उस्तरों
का उपयोग नहीं करते, क्योंकि हम पानी छान कर पीते हैं, क्योंकि हम यह करते हैं, क्योंकि हम वह करते हैं इसलिए स्वर्ग के
सारे सुख हमें उपलब्ध होंगे और जो लोग यह नहीं करते, उनके
लिए नरक की सारी पीड़ाएं इंतजाम कर रखी हैं।
लेकिन
सबसे अदभुत बात यह है कि धार्मिक आदमी वह है जो निर्णय नहीं लेता किसी के ऊपर, जो किसी का निर्णायक नहीं बनता वह तो रिलीजस
माइंड है।
एक
सूफी फकीर औरत थी राबिया। कुरान में कहीं एक वचन आता होगा कि शैतान को घृणा करो।
राबिया ने वह वचन काट दिया कुरान से। एक फकीर "हसन' उसके घर मेहमान था। सुबह ही उठा कि कुरान
पढ़ने लगा, देखा कुरान में वचन कटा हुआ है। अब इससे बड़ा
पाप, इससे बड़ा क्रुफ्र और क्या हो सकता है कि कोई
धर्मग्रंथों में सुधार कर दे। उसने कहा, राबिया, यह किसने पागलपन किया है? किताब को काटा है। धर्मग्रंथ का संशोधन नहीं
किया जा सकता।
राबिया
ने कहा, मैं मजबूरी में पड़ गई। जब तक मैं धार्मिक
नहीं थी, मैं इस वाक्य को पढ़ जाती थी मुझे पता भी
नहीं चलता था कि इसमें कोई भूल है। लेकिन जब से मेरे चित्त में परमात्मा की थोड़ी
झलक आनी शुरू हुई, जब से मेरे जीवन में प्रार्थना और प्रेम का
स्पर्श हुआ, जब से मैंने चारों तरफ फैले हुए जगत को आंख
खोल कर देखा, तब से मैं मुश्किल में पड़ गई। यह वाक्य एक
कांटे की तरह मुझे छिदने लगा। इसलिए मेरे मन में कांटे की तरह छिदने लगा कि मैं
कौन हूं किसी को शैतान मानने का निर्णय लेने वाली, मैं
कौन हूं कि मैं निर्णय करूं कि यह शैतान है? अगर
शैतान भी है कहीं तो परमात्मा की मर्जी के बिना नहीं हो सकता।
इस
टोटेलिटी की मर्जी होगी। इस समग्रता के भीतर वह भी पैदा होता है। गुलाब के पौधे में
फूल लगते हैं और कांटे भी। फूल के प्राणों में कांटों की भी कोई जगह होगी फूल के
साथ ही साथ अन्यथा कांटे नहीं लगते फूल ही फूल लगते। फूल के प्राण कांटों को भी
भेजते हैं और फूल को भी। फूल की समग्रता में, फूल के
पौधे की समग्रता में कांटों का भी अपना स्थान, अपनी
जगह, अपनी जरूरत है। तो मैं नहीं जानती कि कौन
शैतान है और कौन शैतान नहीं?
पहली
बात, मैं निर्णय लेने वाली कौन? और दूसरी बात, शैतान
भी मेरे सामने हो जाएं तो मैं घृणा करने में असमर्थ हो गई हूं, मैं घृणा नहीं कर सकती हूं। मेरे भीतर प्रेम
है। और घृणा तो मैं तभी कर सकती हूं जब मेरे भीतर घृणा हो, बिना घृणा हुए मैं घृणा कैसे करूं? शैतान भी मेरे सामने होगा तो मैं प्रेम ही
करने को मजबूर हूं, मैं प्रेम ही कर सकती हूं। चाहे परमात्मा
सामने हो और चाहे शैतान,
मैं प्रेम ही कर सकती हूं। और
मैं यह भी कह देना चाहती हूं,
उसने कहा कि प्रेम को पता
नहीं चलता कि कौन-कौन है। प्रेम को पता ही नहीं चलता कि कौन-कौन है।
मजा है
जीवन का बहुत, आश्चर्य है बहुत। हम इसलिए घृणा नहीं करते
किसी को कि वह शैतान है,
असल में, हम घृणा करना चाहते हैं इसलिए किसी को शैतान
होने का निर्णय ले लेते हैं। हम इसलिए किसी को प्रेम नहीं करते कि वह प्यारा है, हम प्रेम करना चाहते हैं इसलिए प्यारा होने
का निर्णय ले लेते हैं। उसके प्यारे होने के पहले हमारा प्रेम बहना शुरू हो जाता
है। उसके शैतान होने के पहले हमारी घृणा बहनी शुरू हो जाती है। हमारी घृणा पहले है
उसका शैतान होना बाद में है,
वह हमारे घृणा का निर्णय है।
और किसी का प्यारा होना पीछे है वह हमारे प्रेम का निर्णय है। लेकिन जिसके हृदय
में प्रेम ही प्रेम हो, उसके लिए कोई निर्णय नहीं रह जाता, उसके लिए कोई शैतान नहीं रह जाता, कोई परमात्मा नहीं रह जाता।
धार्मिक
व्यक्ति उसे मैं कहता हूं जो निर्णायक की पद पर नहीं बैठता, जो जज होने से इनकार कर देता है, जो न्यायाधीश होने से इनकार कर देता है।
उसके जीवन में रहस्य का अवतरण हो सकता है।
ये दो
बातें मैंने कहीं, एक--जीवन की ताजगी, नयापन, जीवन
का परिवर्तन, जीवन का रोज-रोज बदल जाना, प्रत्येक चीज का व्यक्तित्व, इसका बोध चाहिए। दूसरी बात मैंने कही, जीवन की अनंतता, जीवन का विस्तार, जीवन की समग्रता का बोध चाहिए। तीसरी बात
मैंने कही, निर्णय का अभाव, निर्णय नहीं। तो फिर जहां निर्णय आया वहीं
हम रुक जाते हैं उसके आगे जाना बंद हो जाता है। जहां कोई निर्णय नहीं, वहां कोई सीमा नहीं, वहां हम गहरे, और
गहरे, और गहरे जा सकते हैं। और जीवन में इतनी
गहराई है कि आप कितने ही गहरे चले जाएं आप जीवन की तलहटी पर कभी नहीं पहुंच
पाएंगे।
जीवन
में इतनी गहराई है कि आप कितने ही दूर चले जाएं आप यही पाएंगे कि मैं अभी दो-चार
कदम ही चला हूं, अभी अनंत कदम चलने को शेष है। कोई मनुष्य
कभी भी वहां नहीं पहुंच सकता जहां वह कह सके कि जीवन का अंत आ गया, मैंने सब जान लिया। ऐसा कहीं भी कोई जगह
नहीं है।
यही है
जीवन की अनंतता, यही है परमात्मा का असीम होना, यही है सत्य का विस्तार, इसीलिए तो हम इस सारे सत्य को ब्रह्म कहते
रहे हैं। ब्रह्म का एक ही अर्थ होता है, विस्तार, अनंत विस्तार। ब्रह्म कोई व्यक्ति नहीं, ब्रह्म कहीं कोई बैठी हुई शक्ति नहीं।
ब्रह्म का अर्थ है, इनफिनिट एक्सटेंशन। उसका अर्थ है: अनंत
विस्तार। विस्तार, और विस्तार, और
विस्तार कोई सीमा नहीं, कोई सीमा नहीं, कहीं कोई जगह नहीं जहां समाप्त हो जाता हो।
सब जगह प्रारंभ है और अंत कहीं भी नहीं है। सब जगह केंद्र है और परिधि कहीं भी
नहीं है। इसका जो बोध होगा,
इस तरफ जो यात्रा होगी तो
विस्मय में प्रतिष्ठा मिलती है और विस्मय धार्मिक व्यक्ति का अनिवार्य लक्षण है।
और
बहुत से प्रश्न रह गए कुछ कि कल सुबह हम बात कर सकेंगे। प्रश्न छूट जाते हों किसी
के तो उसे नाराज नहीं होना चाहिए,
इसलिए कि मैं जो उत्तर देता
हूं उनसे भी कोई उत्तर तो नहीं मिल जाएगा। मेरा उत्तर तो आपके मन में और प्रश्न
पैदा कर सकेगा तो सफल है,
अगर उत्तर मिल गया तो निर्णय
पूरा हो गया बात खत्म हो गई। तो मेरे सारे उत्तर की चेष्टा यह है कि और प्रश्न, और प्रश्न खड़े हो जाएं। एक दिन आप इतने
प्रश्नों से घिर जाएं कि उत्तर एक न रह जाए और प्रश्न ही प्रश्न हो जाएं। तो
विस्मय उपलब्ध हो जाएगा। तो मिस्ट्री खड़ी हो जाएगी। तो रहस्य खड़ा हो जाएगा।
मेरी
बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे
बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। सबके भीतर छिपे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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