पांचवां प्रवचन
माटी कहै कुम्हार सूं
जीवन क्या है?
मेरे
प्रिय आत्मन्!
जीसस
से कोई पूछ रहा था कि आपका जन्म कब हुआ? तो
जीसस ने जो उत्तर दिया वह बहुत हैरानी का है। यहूदियों का एक बहुत पुराना पैगंबर
हुआ है इब्राहिम, जीसस से कोई दो हजार साल पहले। इब्राहिम
यहूदियों के इतिहास में पुराने से पुराना नाम है। जीसस ने कहा कि इब्राहिम था, उसके भी पहले मैं था। विश्वास नहीं हुआ होगा
सुनने वाले को। क्योंकि विश्वास हमें केवल उसी बात का होता है, जिसका हमें अनुभव हो। बात पहेली ही मालूम
पड़ी होगी, क्योंकि इब्राहिम के पहले जीसस के होने की
कोई संभावना नहीं मालूम होती। शरीर तो हो ही नहीं सकता, लेकिन जीसस जैसा आदमी व्यर्थ ही झूठ बोले यह
भी संभव नहीं है।
लाओत्से
से किसी ने एक दिन पूछा कि तुम्हारा जन्म कब हुआ? तुम्हारे
जन्म की तिथि कौन सी है?
तो लाओत्से ने कहा, जहां तक मैं जानता हूं, मेरा जन्म कभी नहीं हुआ और मेरे जन्म के
संबंध में अगर दूसरे कहें,
तो उनका भरोसा मत करना, क्योंकि अपने जन्म के संबंध में जितना मैं
जानता हूं, उतना कोई दूसरा नहीं जान सकता।
लेकिन
हम सब तो दूसरे जो हमें बताते हैं,
उस पर भरोसा करते हैं। यह
बहुत ही मजाक की बात है लाओत्से ने जो कही, क्योंकि
आपको भी अपने जन्म का कोई पता नहीं है, सिवाय
दूसरों की बताई हुई बात के। दूसरे कहते हैं कि आप कभी पैदा हुए। समझें कि दूसरे न
कहें, समझें कि एक बच्चे को न बताया जाए कि वह कभी
पैदा हुआ। तो क्या कोई भी उपाय है कि बच्चा अपनी तरफ से पता लगा ले कि वह पैदा हुआ
है? अगर बाहर से सूचना न दी जाए, तो आपको कभी पता भी चलता है कि आप कभी जन्मे? और बड़े मजे की बात है कि जन्मे आप हैं और
सूचना बाहर से दी गई है। और जिन्होंने सूचना दी है, उन्हें
भी अपने जन्म की कोई खबर नहीं;
उनको भी उनके जन्म की खबर दूसरों
ने दी है। और ऐसा ही और भी आगे है।
जन्म
एक झूठी बात है, लोकोक्ति है। लोग कहते हैं कि आप पैदा हुए।
कोई आदमी कभी पैदा नहीं होता। फिर इसी तरह लोग कहते हैं कि मर गए। जिन्होंने अपना
जन्म भी नहीं जाना, वे अपनी मृत्यु कैसे जान सकेंगे? लेकिन जन्म हमें दूसरे बता देते हैं कि कभी
पैदा हुए, फलां तिथि, फलां
तारीख में। और फिर कोई मरता है चारों तरफ और हम सोचते हैं कि शायद हम भी मरेंगे।
दूसरों के मरने की घटना को देख कर हम अपने बाबत भी विचार कर लेते हैं कि हम भी
मरेंगे। स्वयं के जन्म की खबर दूसरों से दी गई सूचना, और मरना एक अनुमान, इन्फरेंस--चूंकि और कोई मरा है, इसलिए मैं भी मरूंगा। लेकिन जब हम किसी आदमी
को मरते देखते हैं, तब हम क्या देखते हैं? सच में हम क्या देखते हैं?
दक्षिण
में एक संन्यासी था ब्रह्मयोगी। उसने आक्सफोर्ड, रंगून
और कलकत्ता विश्वविद्यालय में तीन बार एक बहुत अदभुत प्रयोग किया--उसने मरने का
प्रयोग किया। वह दस मिनट के लिए मर जाता था, मर
जाता था मेडिकली, जिसे चिकित्सक कह सकें कि मौत हो गई।
कलकत्ता यूनिवर्सिटी में जब उसने प्रयोग किया, तो दस
बड़े चिकित्सक मौजूद थे। कलकत्ता यूनिवर्सिटी के सबसे बड़े चिकित्सक, सर्जन, सब
मौजूद थे। और जब ब्रह्मयोगी दस मिनट के लिए मर गया, तो उन
दसों ने दस्तखत किए हैं सर्टिफिकेट पर कि यह आदमी मर गया है, इसकी हम गवाही देते हैं। सांस खो गई, हृदय की धड़कनें खो गईं, खून की गति खो गई, मरने की सारी की सारी लक्षण पूरी हो गई। दस
मिनट बाद वह आदमी वापस लौट आया,
और उस आदमी ने कहा कि अगर यह
तुम्हारा सर्टिफिकेट सही है,
तो मैं वापस नहीं लौट सकता।
और अगर मैं वापस लौट आया हूं,
तो तुमने अब तक जितने मृत्यु
के सर्टिफिकेट दिए सब झूठे थे। क्योंकि इन दो के सिवाय और क्या मतलब होगा? और उन दस डाक्टरों ने दूसरी बात भी लिख कर
दी है और उन्होंने लिख कर यह दिया है कि जहां तक हम समझते हैं और जहां तक हमारा
विज्ञान जानता है, हम समझते हैं कि यह आदमी मर गया था। लेकिन
हम अपनी आंखों को झूठा नहीं कह सकते, और यह
आदमी फिर जिंदा है।
और इस
घटना ने सारी दुनिया के चिकित्सकों को चिंता में डाल दिया था। क्योंकि इसका मतलब
क्या होता है? जिसको हम मृत्यु कहते हैं, वह कुछ कामों का बंद हो जाना है। श्वास नहीं
चलती, खून नहीं बहता, हृदय नहीं धड़कता।
अगर
जिंदगी इन्हीं चीजों का जोड़ है,
तो जरूर मौत इनके बंद हो जाने
से घटित हो जाती। लेकिन किसने कहा कि जिंदगी इनका जोड़ है? जिंदगी इससे बहुत बड़ी बात है। जन्म पर जो
शुरू होता है, मौत पर बंद हो जाता है। लेकिन न तो जन्म पर
जिंदगी शुरू होती है और न मौत पर जिंदगी समाप्त होती है। लेकिन हम तो अपने शरीर की
धड़कन, खून की गति, नाड़ी
का चलना, इनको ही अपना होना समझते हैं। इससे बड़ी
जटिलता पैदा हो जाती है।
इसलिए
दो झूठ के बीच हम जीते हैं--एक जन्म का झूठ और एक मृत्यु का झूठ। पृथ्वी पर इनसे
बड़े झूठ नहीं हैं। लेकिन ये सबसे बड़े सत्य मालूम पड़ते हैं, क्योंकि अधिकतम लोग, कहना चाहिए सभी, इन्हें स्वीकार करते हैं। और जो असत्य भी
स्वीकृत हो जाता है, वह सत्य मालूम पड़ने लगता है। लेकिन कभी-कभी
कोई संदेह पैदा कर देता है। कभी-कभी कोई संदेह पैदा कर देता है।
सिकंदर
हिंदुस्तान आया और जब वह वापस लौट रहा था, तो
हिंदुस्तान की सीमा को पार करते समय उसे खयाल आया कि यूनान में उसके मित्रों ने
उससे कहा था कि लौटते समय एक संन्यासी को भी ले आना भारत से। और सब तो लाओगे ही, लेकिन धन, हीरे-जवाहरात, मोती, वे सब
यूनान में भी हैं, एक संन्यासी भी ले आना। सिकंदर ने और सब तो
लूट की, संन्यासी की याद न रही, आखिरी क्षण में याद आई, तो उसने कहा, जाओ, किसी संन्यासी को पकड़ लाओ।
सिपाही
गांव में गए, उन्होंने गांव के लोगों से पूछा, तो गांव के लोगों ने कहा, संन्यासी तो गांव में एक है, लेकिन तुम ले जा सकोगे, इसकी हमें उम्मीद नहीं है! उन्होंने कहा, इसकी तुम फिक्र छोड़ो। हम सिकंदर के सिपाही
हैं। हम अगर पहाड़ों को कहें कि चलो,
तो पहाड़ भी चलते हैं। ये नंगी
तलवारें देखी हैं? संन्यासी क्या कर सकेगा? उन्होंने कहा, इसीलिए
हम चिंतित हैं कि तुम्हारी तलवारें संन्यासी के साथ कुछ कर सकेंगी या नहीं कर
सकेंगी! खैर, तुम जाओ एक कोशिश कर लो।
वे गए।
गांव के बाहर नग्न एक संन्यासी तीस वर्षों से नदी के तट पर था। यूनानी इतिहासकारों
ने उसका नाम दंडामी लिखा है। पता नहीं, उसका
नाम क्या होगा? यूनानी नाम उन्होंने दंडामी दिया है। हो
सकता है दंडी साधु या ऐसा कुछ;
दंडी स्वामी ऐसा कुछ उस आदमी
का नाम रहा हो। डंडे वाला साधु,
ऐसा कुछ नाम रहा हो।
उन
सिपाहियों ने जाकर दंडामी को घेर लिया और उससे कहा कि सिकंदर की आज्ञा है कि हमारे
साथ चलो। वह फकीर नंगा हंसने लगा। उसने कहा कि हमने उसी दिन से आज्ञाएं माननी छोड़
दीं जिस दिन से हम संन्यासी हुए। हम आज्ञाएं तब तक मानते थे, जब तक हम डरते थे। जो नहीं डरता, उससे आज्ञा नहीं मनवाई जा सकती। पर उन्होंने
कहा, तुम्हें पता नहीं है, नंगी तलवारें देखते हो, हम तुम्हारी गर्दन काट देंगे! तो उस
संन्यासी ने कहा कि तुम काट दोगे वह बहुत ठीक है, तुम
काट सकते हो। हम कोई एतराज भी न करेंगे। लेकिन तुम्हारी गर्दन काटने से डरेंगे
नहीं। क्योंकि गर्दन काटने से केवल वही डरता है, जो
गर्दन कटने को मृत्यु समझता है।
ऐसे
आदमी के सामने पहली दफा तलवारों पर जंग खा गई! नंगी तलवारें हाथ में थीं, लेकिन हाथ एकदम सुस्त हो गए। जो आदमी ऐसे
मरने से राजी हो, इतनी मौज से, उसे
मारना बिलकुल बेकार है। और जो आदमी इतनी मौज से मरने को राजी न हो, उसको जिंदा रखना भी बिलकुल बेकार है। लेकिन
वह दूसरी बात फिर सिकंदर से जाकर उन्होंने कहा कि वह आदमी ले जाया नहीं जा सकेगा।
बड़ा अजीब आदमी है! हमने बहुत लोग देखे मरने वाले, मारने
वाले, लड़ने वाले, भाग
जाने वाले। यह कुछ तीसरे तरह का है। न तो वह भागता है, न वह लड़ता है। उसके पास लड़ने को कुछ है ही
नहीं। लेकिन वह भयभीत भी नहीं होता है। सिकंदर ने कहा, मैं खुद चलूंगा। और सिकंदर ने कहा कि हम
तुम्हें स्वागत देंगे, सम्मान देंगे, शाही
व्यवस्था देंगे--जो तुम चाहोगे देंगे। उस फकीर ने कहा, तुम कुछ न दे सकोगे, क्योंकि हम कुछ चाहते नहीं हैं।
बहुत
बार भिखारी सम्राटों के सामने अपमानित हुए, बहुत
बार भिखारी सम्राटों के सामने अपमानित हुए क्योंकि भिक्षा देने से सम्राटों ने
इनकार कर दिया। ये कभी-कभी ऐसे मौके आते हैं कि सम्राट भिखारियों के सामने अपमानित
हो जाते हैं, क्योंकि भिखारी कुछ लेने से इनकार कर देता
है!
उसने
कहा, तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, क्योंकि हमें कुछ चाह ही नहीं। सिकंदर ने
कहा, तब भी कोई बात नहीं। चलना तो पड़ेगा ही, अन्यथा यह तलवार तुम्हारी गर्दन पर रखता
हूं। उस फकीर ने कहा, रखो। सिकंदर ने कहा, तुम नासमझ हो, गर्दन
कटेगी और नीचे गिर जाएगी! उस संन्यासी ने कहा कि हम संन्यासी उसी दिन हुए, जिस दिन हमने देख लिया कि गर्दन कट जाए और
नीचे गिर जाए, तो भी हम नहीं कटते हैं। अन्यथा हम संन्यासी
ही नहीं होते। गर्दन गिरेगी,
तो तुम भी देखोगे कि गर्दन
गिर रही है, और मैं भी देखूंगा कि गर्दन गिर रही है।
हालांकि तुम मुझे न देख पाओगे। मैं तुम्हें देखता रहूंगा।
सिकंदर
ने अपने इतिहासकारों को कहा है कि लिख ली जाए यह बात--संन्यासी नहीं ले जाया जा
सका। क्योंकि आखिरी उपाय था कि मौत से डरा दिया जाए।
जन्म
और मृत्यु हमारी जिंदगी के छोर हैं,
इसलिए हमारे पास जिंदगी जैसी
कोई चीज नहीं है। सिर्फ जिंदगी का एक भ्रम। ऐसा लगता है कि जी रहे हैं! जन्म से
मौत की तरफ सरक जाते हैं और ऐसा लगता है कि जी लिए हैं। एक क्षण भी जिंदगी की किरण
नहीं फूटती, और एक क्षण भी जिंदगी के फूल नहीं खिलते, और एक क्षण भी जिंदगी का संगीत नहीं बजता, और एक क्षण भी पता नहीं चलता कि हम क्या थे, क्या हैं। इस क्षण भी पता नहीं है।
हम सब
यहां जिंदा हैं, कोई भी यहां मरा हुआ नहीं है। हम सब जिंदा
हैं। लेकिन जिंदगी का हमको पता क्या है? और अगर
हमको पता है, तो बुद्ध और महावीर पागल थे। फिर वे किस
जिंदगी को खोज रहे थे! और अगर हमें पता है, तो फिर
ये कृष्ण और क्राइस्ट, ये किस जिंदगी को खोज रहे थे! या तो जिसे हम
जिंदगी कहते हैं, वह जिंदगी नहीं है, और या फिर ये कृष्ण, क्राइस्ट, बुद्ध, महावीर विक्षिप्त हैं, पागल हैं। हम बुद्धिमान हैं!
हम
अपने को बुद्धिमान भी नहीं कह पाते,
नहीं कह सकते। क्योंकि
बुद्धिमानी का अगर कोई अंतिम मापदंड हो सकता है, तो
हमारे जीवन का आनंद हो सकता है। जो बुद्धिमानी आनंद तक न ला पाए, वह और क्या ला सकेगी? और तब मैं कहता हूं, कि अगर बुद्ध और महावीर पागल भी रहे हों, तो उनका पागलपन स्वीकार कर लेने जैसा है, क्योंकि वह अपरिसीम आनंद से और जीवन के अभय
से भर जाता है।
यह मैं
क्यों कह रहा हूं? यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि जन्मदिन के
बहाने हम यहां इकट्ठे हुए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह किस आदमी के नाम के
बहाने से इकट्ठे होते हैं। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता कि अ का जन्मदिन है, कि ब का जन्मदिन है, कि स का जन्मदिन है। असल में, जन्मदिन को हम उत्सव क्यों बना लेते हैं? उत्सव बना लेते हैं इसीलिए कि जीवन का तो
हमें कोई पता नहीं। अगर जीवन का हमें पता हो, तो
प्रतिपल हमारा उत्सव हो जाए,
फेस्टिवल हो जाए। जीवन का तो
कोई पता नहीं है, क्योंकि जीवन महोत्सव है। अगर उसका हमें पता
हो जाए, तो मैं समझता हूं कि जन्म का उत्सव फिर हम न
मनाएं, क्योंकि जन्म तो सिर्फ एक शुरुआत है। और जिस
जीवन में हम जी रहे हैं,
अगर वह आनंद नहीं है, तो उस जीवन की शुरुआत कैसे आनंद हो सकती है!
गंगोत्री आनंद हो सकती है और काशी के घाट पर बहती हुई गंगा में कोई आनंद नहीं है।
काशी की गंगा अगर आनंदित नहीं है,
तो गंगोत्री को कौन सा आनंद
होगा? यही गंगा और सिकुड़ी होकर और छोटी होकर।
जिसको
हम जन्म कहते हैं, वह है क्या? वह
हमारा यही जीवन बिलकुल प्राथमिक। इस जीवन में जब कि गंगा पूरी फैल गई है, कोई आनंद नहीं है, तो जन्म में क्या आनंद हो सकता है? सिर्फ जन्म जाना कोई आनंद हो सकता है? नहीं, लेकिन
हम झुठलाने में कुशल हैं। जीवन में दुख है, तो हम
झूठे सुख कल्पित करते हैं कि जन्म में बड़ा सुख है, जन्मदिन
में बड़ा सुख है! अगर हम कहें,
जीवन में बड़ा सुख है, तो हमारी आंखें कह देंगी कि कहां है! अगर हम
कहें, जीवन में बड़ा आनंद है, तो हमारे पैर बता देंगे कि नृत्य कहां है? अगर हम कहें जीवन ही खुशी है, तो हमारे हृदय की धड़कनें कह देंगी कि कहां
है? तो हम कहते हैं, जन्म बड़ा खुशी का दिन है। अब कोई जन्म तो आज
नहीं है, कभी था। उसको पकड़ा भी नहीं जा सकता, जांचा भी नहीं जा सकता, पहचाना भी नहीं जा सकता।
फिर हम
सब एक-दूसरे को भी धोखा देने में भी सहयोगी होते हैं। यह जो हमारी दुनिया है झूठ
की यह बहुत म्युचुअल अंडरस्टैंडिंग,
या म्युचुअल मिस-अंडरस्टैंडिंग
पर खड़ी हुई है। इसमें हम एक-दूसरे को सहारा देते हैं। इसमें हम सब एक-दूसरे के
जन्म पर इकट्ठे होकर उत्सव मना लेते हैं। फिर वे ही लोग हमारे जन्म के उत्सव पर भी
आ जाएंगे। हमने उन्हें धोखा दिया,
वे हमें भी दे जाएंगे। और ऐसे
हम जीते हैं! इधर जन्म खुशी हो जाती है, तो
मृत्यु दुख हो जाता है। वह उसी की कोरोलरी है, वह उसी
तर्क का दूसरा हिस्सा है। जिसकी दुनिया में भी जन्म सुख है, उसकी दुनिया में मृत्यु दुख होगी। और ध्यान
रखें, जन्म तो हो चुका, मृत्यु होने को है। इसलिए जन्म की खुशी तो न
कुछ है, मृत्यु का दुख भारी है। शायद यह भी कारण है
कि हम मृत्यु के दुख को भुलाने के लिए जन्म के उत्सव मनाए चले जाते हैं।
ऐसे
प्रत्येक जन्मदिन जन्म की कम याद दिलाता है, आने
वाली मौत का ज्यादा स्मरण कराता है। लेकिन हम पीछे की तरफ देखते हैं, हम आगे की तरफ नहीं देखते हैं। हर जन्मदिन
का मतलब सिर्फ यह है कि एक वर्ष और आदमी मरा, एक
वर्ष मरने की और पूरी हुई। जिंदगी से एक वर्ष और रिक्त हुआ और चुका और समाप्त हुआ।
लेकिन हम पीछे देखते हैं। और पीछे देख कर हम आगे देखने से बच तो नहीं रहे हैं? यह कोई शुतुरमुर्ग का उपाय तो नहीं है कि
रेत में सिर घपा कर खड़े हो गए हैं,
ताकि आगे दिखाई न पड़े? लेकिन हम कितनी ही जन्मों की बातें करें, मौत चली आती है। हर जन्म के ऊपर पैर रख कर
मौत चली आती है। हर जन्म को सीढ़ी बना कर मौत चली आती है। हर जन्म के पीछे मौत की
छाया खड़ी है। इसलिए जो जन्म में खुश है, वह
ध्यान रखे कि वह मौत में दुखी होगा। असल में, वह मौत
के दुख को भुलाने के लिए जन्म की खुशी मनाए चले जा रहा है।
यह
आत्मवंचना है। लेकिन यह जीवन इतना दुखी है कि हम इसमें कहीं कोई ओएसिस, इस मरुस्थल में कहीं कोई मरूद्यान खोज लेना
चाहते हैं, झूठा ही सही, सपना
ही सही, कहीं तो हम अपने सुख, कहीं अपनी खुशी को अटका लें! लेकिन अटकाई
हुई खुशियां काम नहीं पड़ सकतीं। इसलिए मैंने उचित समझा कि आपको कहूं कि जब तक जीवन
का पता न चल जाए...।
और
जीवन का पता चल सकता है,
क्योंकि जीवित हम हैं। अगर
कुछ भी हमारे निकटतम है,
तो वह जीवन है। अगर कुछ भी
हमारे ठीक हाथ में है, तो वह जीवन है। अगर कुछ भी इस वक्त धड़क रहा
है, तो वह जीवन है। अगर कुछ भी इस वक्त बोल रहा
है, सुन रहा है, तो वह
जीवन है। श्वास भीतर आ रही है,
बाहर जा रही है, वह जीवन है। जीवन निकटतम है, हम जीवन हैं। लेकिन उससे हमारा कोई परिचय
नहीं, उससे हमारी कोई पहचान नहीं। और हम न मालूम
किन-किन बातों में इस मौके को गंवाते चले जाते हैं, इस
परिचित होने के मौके को गंवाते चले जाते हैं। नहीं, पीछे
लौट कर देखने का कोई प्रयोजन नहीं है।
जन्म
के दिन से कुछ अर्थ है नहीं है। अर्थ तो अभी जो है, उससे
अर्थ है। अगर कुछ भी जानने,
पाने जैसा है, तो वह जो अभी है, वही जानने-पाने जैसा है। लेकिन मन की एक
तरकीब है कि जो मौजूद है,
उसको चूकते चले जाओ और जो
मौजूद नहीं है, उसे सोचते चले जाओ। इसलिए जो मैंने कहा कि
हम सब जन्मे हैं, लेकिन हमें जन्म का पता क्यों नहीं है? हो सकता है, मैं
कहता हूं; हो सकता है आपकी तरफ से...। अपनी तरफ से तो
कहता हूं, ऐसा है।
असल
में, जब आप जन्म ले रहे होते हैं, तब पिछली मृत्यु की याद आपके मन पर गहरी
होती है और चूक जाते हैं मौका। पिछली मौत, इस
जन्म के पहले जहां आप मरे हैं अभी,
वह इतनी गहरी होती है मन पर
कि मन वहीं अटका रहता है और जन्म का क्षण आप देखने से चूक जाते हैं। उसका भी कारण
यही है, जो कारण अभी है। अभी जीवन देखने से चूक रहे
हैं, क्योंकि मन पीछे अटका है। फिर मौत आ जाएगी, मौत भी देखने से चूक जाएंगे, क्योंकि मन फिर पीछे अटका होगा; बाजार में होगा, दुकान में होगा। मकान में, मित्रों में, प्रियजनों
में, दुश्मनों में, कहीं
और होगा, जिंदगी में होगा।
अब यह
बड़े मजे की बात है कि जो आदमी जिंदगी भर जी रहा था, वह
जिंदगी को कभी न जाना, जब वह मरने लगता है, तब उसका मन जिंदगी में है, और तब मौत सामने आ रही है। वह उसको चूके जा
रहा है। अगर वह मौत को जान ले,
अगर वह जन्म को जान ले। अगर
वह जीवन को जान ले, तो एक बात भर पक्के रूप से पता चल जाती है
कि जो भी हमारे भीतर है,
उसका न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। लेकिन उसका यह मतलब मत समझ
लेना...क्योंकि मैं सदा डरता हूं। जब मैं कहता हूं, उसका
कोई जन्म नहीं है, उसकी कोई मृत्यु नहीं है, और आपकी तरफ देखता हूं, तो मैं डर जाता हूं। क्योंकि आपको लगता है
कि आपका कोई जन्म नहीं है,
आपकी कोई मृत्यु नहीं है। यह
मैं नहीं कह रहा हूं। आप तो मरेंगे ही, मैं जो
यहां दिखाई पड़ रहा हूं, वह तो मरेगा ही। इसलिए जब मैं कहता हूं, उसका कोई जन्म नहीं है, उसकी कोई मृत्यु नहीं है, तो आपकी बात नहीं कर रहा हूं। हां आपके भीतर
कोई है, उसकी बात कर रहा हूं, जिसका आपको भी कोई पता नहीं है।
इसलिए
हम बड़े आश्वस्त हो जाते हैं सुन कर कि नहीं कोई मृत्यु, नहीं कोई जन्म, तो हम सोचते हैं कि ठीक है, बचेंगे। आप नहीं बचेंगे, आपके बचने का कोई उपाय नहीं है। आप तो
जाएंगे ही। आप तो जा ही रहे हैं। यह भी कहना गलत है कि जाएंगे। यह हमारी भाषा की
भूलें हैं, इसलिए हम ऐसे शब्द उपयोग करते हैं। जा ही
रहे हैं, जाएंगे इसमें तो ऐसा लगता है कभी भविष्य में
कोई घटना घटने वाली है। नहीं,
यह ठीक ऐसा ही है, जैसा हम कहते हैं, नदी है। कहना नहीं चाहिए नदी है। कहना चाहिए
नदी हो रही है। क्योंकि नदी प्रतिपल हुई चली जा रही है। है की हालत में नदी कभी
होती नहीं। इज़ की हालत में दुनिया में कोई चीज कभी नहीं होती। सभी चीजें बह रही
हैं। हम कहते हैं, फलां आदमी जवान है। है नहीं। कहना चाहिए
जवान हो रहा है या बूढ़ा हो रहा है। कुछ हो रहा होगा। है की हालत में कुछ ठहरता
नहीं है।
इसलिए
जब मैं कहता हूं कि आप तो जा ही रहे हैं, तो
कारण है। कारण सिर्फ इतना ही है कि आप प्रफुल्लित न हों, इस बात को जान कर कि नहीं, मरना नहीं है। धार्मिक लोग बहुत दिनों से
बहुत प्रफुल्लित हैं इस बात को जान कर कि मरना नहीं है। इससे ऐसा नहीं है कि कुछ
उनको पता चल गया है। इससे कुल इतना ही मतलब है कि वह सोचते हैं कि जब मरना ही नहीं, तो ठीक है, जैसे
जी रहे हैं, वैसे ही जीए चले जाना है!
नहीं, आप तो जाएंगे, मैं
जाऊंगा। मैं और तू के नाम से जिन्हें हम जानते हैं, वे तो
पानी पर खींची गई रेखाओं से मिट जाएंगे। इधर खिंच भी नहीं पाते और मिटना शुरू हो
जाते हैं। लेकिन फिर भी पीछे कुछ है, जो बच
रहता है। उस दि रिमेनिंग,
वह जो पीछे शेष रह जाता है, उसकी खोज ही धर्म है। उसकी खोज ही सत्य है।
उसकी खोज ही मनुष्य को आत्मवान बनाती है। उसे पहली दफा पता चलता है कि कुछ और भी
है, जो नहीं बदलता। जिस दिन उस न बदलने वाले पर
हमारे पैर पड़ जाते हैं, उसी दिन हम किसी चट्टान पर खड़े होते हैं। उसके
पहले सब रेत है। हम आंख कितनी ही बंद करें, अपने
को समझाएं कितना ही, उससे बहुत अंतर नहीं पड़ता; वह सब रेत की तरह खिसकता चला जाता है। लेकिन
याद ही नहीं आता। याद ही नहीं आता। स्मरण ही नहीं आता।
जुंग
ने कहीं कहा है कि ऐसा मालूम पड़ता है कि आदमी मृत्यु से इतना घबड़ा गया है कि उसने
मृत्यु को अपने चेतन मन से बाहर कर दिया है। वह उसकी बात ही नहीं करता, उस पर चिंतन नहीं करता, उसको सोचता नहीं, उसको खयाल में नहीं लाता। क्योंकि उसके सारे
हाथ-पैर कंप जाएंगे। वह अभी यहीं खड़ा-खड़ा गिर पड़ेगा। उसके भीतर कोई चीज कंपने
लगेगी और डोलने लगेगी। उसका सारा आश्वासन खो जाएगा। उसका सब पक्की मंजिलें, सब एकदम ताश के पत्ते हो जाएंगे। जरा से हवा
के झोंके, और सब गिरने लगेगा।
यह डर, शायद इसलिए हम मृत्यु को बाहर रखते हैं और
जन्म को भीतर रखते हैं। जन्म हमारे चित्त में बड़ा गहरा होकर बैठा रहता है। जन्म है
मित्र का, तो हम फूल भेंट देते हैं। अभिनंदन कर आते
हैं। सब भलीभांति जानते हुए कि कोई अभिनंदन काम नहीं पड़ेगा, कोई फूल काम नहीं करेंगे, कोई शुभकामनाएं काम नहीं पड़ेंगी।
नहीं, यह नहीं कह रहा हूं कि ऐसा मत करें। जिंदगी
आपके शुभकामनाओं के बिना ही काफी बुरी है। उनको और घटा दें तो कुछ अच्छा नहीं हो
जाएगा, यह नहीं कह रहा हूं। यह भी नहीं कह रहा हूं
कि फूल मत भेज दें किसी के जन्मदिन पर। फूल के अलावा भेजने को और हो भी क्या सकता
है! ऐसे फूल है बड़ा सुंदर प्रतीक। वह खबर ले जाता है कि आया नहीं कि कुम्हलाना
शुरू हो गया! जन्मदिन पर फूल भेजना ही चाहिए, क्योंकि
वह खबर भी लाता है साथ में। बड़ी से बड़ी भेंट फूल की हो सकती है। कीमती से कीमती
भेंट फूल की हो सकती है। क्योंकि साथ खबर भी लाता है। सुबह आया नहीं कि सांझ उसे
फेंक देना पड़ेगा। सुबह वह जन्मदिन की खबर लेकर आया था, सांझ मृत्यु के दिन की खबर लेकर जा चुका है।
नहीं, फूल तो जरूर भेजते जाएं। अभिनंदन भी जरूर
करें, शुभकामना भी जरूर करें। लेकिन इससे किसी
भ्रांति को जन्म न दें। ये हमारी शुभकामनाएं ऐसी ही हैं, जैसा मैंने सुना कि जब भगतसिंह को फांसी की
सजा हुई, तो उसके और दो-चार मित्र भी बंद थे, जिनको फांसी की सजा थी। वे रोज सुबह उठ कर
एक-दूसरे को शुभकामना करते थे। अब जिनको फांसी की सजा हुई हो, सेंटेंस टु डेथ, रोज सुबह सूरज का उग आना और फिर...। लेकिन
शुभकामना भी तो सीधी नहीं कर सकते थे। हम भी नहीं कर पाते। अपनी-अपनी कोठरियों में
बंद सिर्फ दीवालों को खटखटा कर नियम बना लिया था कि इतने खटके, तो समझना कि अभी हम जिंदा हैं, और शुभकामना भेजते हैं कि परमात्मा तुम्हें
जिलाए। तो वे नियम के खटके बना लिए थे, वे
खटके बजाते थे। फिर कोठरियों में खुशी फैल जाती थी कि अभी सब साथी जिंदा हैं।
लेकिन कैसी विडंबना कि वह जीना सिर्फ मरने के लिए है। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, फांसी तो होने ही वाली है। वह जीना सिर्फ कल
मरने के लिए है। फिर भी एक दिन और तो खुशी की लहर फैल जाती है। गीत गाने लगते हैं, क्योंकि अभी कोई साथी मरा नहीं, सब दरवाजों से खटके की आवाज आ गई, अभी सब साथी जिंदा हैं। सबने एक-दूसरे को
शुभकामना पहुंचा दी कि हम जीवित हैं, परमात्मा
का धन्यवाद है!
लेकिन
किसलिए जीवित हैं? वह फांसी कल, कल
नहीं परसों, वह फांसी राह देखती है। सिर्फ मरने के लिए? हमारी हालत भी बहुत भिन्न नहीं है भगतसिंह
से और उनके साथियों से। थोड़ा सा फर्क है। वह फर्क यह है कि वे कम से कम अपनी मौत
के प्रति आश्वस्त भी थे। हम उतने आश्वस्त भी नहीं, वह भी
पक्का नहीं है।
लेकिन
हम जिस जगह खड़े हैं, वहां करीब-करीब हालत वैसी है, जैसे किसी कारागृह में फांसी पर जाने वाले
लोग क्यू में खड़े हों। लेकिन कितना उपद्रव मचा लेते हैं उस थोड़े से क्षणों में, कितना फैलाव कर लेते हैं, कितना विस्तार कर लेते हैं! कितना क्या कुछ
कर डालते हैं उन थोड़े से क्षणों में! सिर्फ एक चीज छोड़ जाते हैं कि वह थोड़े से
क्षण में हम उस तत्व को जान सकते थे, जो आया
था और जाएगा, उसको नहीं जान पाते। बस, उससे वंचित रह जाते हैं।
तो आप
शुभकामनाएं लाए, उसके लिए धन्यवाद। लेकिन उस शुभकामना से आप
अपने जीवन के प्रति आश्वस्त होकर मत चले जाना। मुझे उससे कोई आश्वासन मिलने की बात
नहीं है। लेकिन आप मत सोचते हुए चले जाना कि जीवन है, जन्म है। मृत्यु को अलग काट कर मत रख देना।
अच्छी दुनिया हो, तो मैं मानता हूं हमें मृत्यु-दिन ही मनाना
चाहिए। लेकिन हम तो मृत्यु-दिन तब मनाते हैं, जब
आदमी मर जाता है। तब मनाने का कोई मतलब नहीं रह जाता। हमें मनाना ही ऐसा चाहिए, आदमी पांच साल का हो गया, तो कहना चाहिए कि मृत्यु पांच साल करीब आ
गई। दस साल का हुआ, तो दस साल करीब आ गई। बीस साल का हुआ, तो बीस साल करीब आ गई।
और
मृत्यु का ही दिन मनाना चाहिए। वह ज्यादा रियलिस्टिक है, यथार्थ है। और शायद हम मृत्यु के दिन मनाने
लगें, तो शायद हमारे जीवन में अंतर पड़े, क्योंकि हर वर्ष हमें याद आए कि मौत एक वर्ष
करीब आ गई। तो हम वही न हो सकें,
जो हम बने रहते हैं।
हम
मरघटों को, कब्रिस्तानों को गांव के बाहर बनाए हुए हैं, इसी डर से कि वे दिखाई न पड़ जाएं। मेरा वश
चले, तो गांव के बीच में ही होने चाहिए। हम दिन
में दस बार निकलें, हमें मरघट दिखाई पड़े। दस बार खयाल आए कि मौत
है। क्योंकि बड़ी दुख की बात है कि मौत ही अकेला एक तत्व है, जिसकी पीड़ा हममें घनी हो जाए, तो हमारा जीवन परिवर्तित हो सकता है, अन्यथा नहीं। मौत ही एकमात्र दंश है, कांटा है, जो
गहरा हमारी छाती में चुभ जाए,
तो शायद कोई ट्रांसफार्मेशन, कोई क्रांति घटित हो जाए, अन्यथा नहीं। मौत ही हमें घेर ले और जोर से
पकड़ ले, तो शायद हम कोई छलांग लगाएं, अन्यथा नहीं।
इसलिए
बुद्ध के पास जब कोई भिक्षु आता था और कहता कि मैं परमात्मा की खोज पर आया हूं, सत्य की खोज पर आया हूं, आत्मा को जानना चाहता हूं, तो बुद्ध कहते, बंद करो, बंद
करो ये बातें। पहले मैं तुमसे पूछता हूं, मौत को
खोजने का कोई खयाल है? वह आदमी कहता, मौत से
क्या लेना-देना? मुझे आत्मा खोजनी है। परमात्मा खोजना है।
बुद्ध कहते, नहीं पहले मौत खोज लो। क्योंकि जो मौत को
जान लेगा, वह परमात्मा को भी जान लेगा। लेकिन जो मौत
को नहीं जानेगा, वह परमात्मा को भी नहीं जान सकता।
मौत
जिंदगी की जरूरी सिचुएशन है,
वह जरूरी स्थिति है, जिसमें से हमारे भीतर सब कुछ पैदा होता है।
तो बुद्ध उससे कहते कि तू जाकर कुछ दिन मरघट पर रह कर आ, फिर लौट आ। फिर अगर तू ब्रह्म की जिज्ञासा
करेगा, तो मैं उत्तर दूंगा। फिर तू आत्मा की पूछेगा, तो हम बात करेंगे। पहले तू मरघट पर रह आ।
अक्सर
भिक्षुओं को वे मरघट पर भेज देते कि तुम वहीं चौबीस घंटे रहो। अब चौबीस घंटे मरघट
पर रहना। फिर कोई मुर्दा आया,
फिर कोई जला। फिर कोई मरा, फिर कोई रोता हुआ आया। दिन भर, रात, आधी
रात भी, सुबह भी, सांझ
भी, न कोई समय, न कोई
असमय, लोग मरते ही चले जाते हैं, मरघट पर आते ही चले जाते हैं! वह आदमी कब तक
देखेगा, कितनी देर तक देखेगा! अंततः उसे खयाल आ जाता
है कि मैं भी इस क्यू में कहीं खड़ा हूं। यह ज्यादा देर की बात नहीं है।
वह तो
मरघट हमारी चेतना के बाहर है। इसलिए हमें कभी पक्का पता नहीं चलता। और जब एक आदमी
मरता है, तो हम कहते हैं, बेचारा! हमें पता नहीं लगता कि हम क्यू में
थोड़े से आगे बढ़ गए। उस आदमी ने जगह खाली कर दी।
हर मौत, हमारी ही मौत है। हर मौत, हमारी ही मृत्यु का स्मरण है। और अगर यह
स्मरण बन सके, गहरा हो सके, तो
शायद हम जीवन को भी जानने में सफल हो सकते हैं।
तो
दोत्तीन बातें अंत में आपसे कह दूं। एक जिसे जन्म कहते हैं, उसे जन्म मत समझ लेना। वह सिर्फ एक सोशल मिथ, एक सामाजिक पुराणकथा है। जिसे मृत्यु कहते हैं, उसे मृत्यु मत समझ लेना, वह केवल हमारे अज्ञान का दूसरा नाम है। जिसे
जीवन कहते हैं, उसे जीवन मत समझ लेना, क्योंकि रोज सुबह उठ आना और रोज सांझ सो
जाना; रोज वही भोजन, वही
कमाना, वही मित्र, वही
शत्रु, वही सारा जाल, उसकी
निरंतर पुनरुक्ति, अंतहीन पुनरुक्ति...! बड़ी आश्चर्यजनक बात है
कि उसकी अंतहीन पुनरुक्ति भी हम करते चले जाते हैं, ऊबते
भी नहीं हैं।
कामू
ने अपनी एक किताब का प्रारंभ एक अजीब से वाक्य से किया है। कहा है कि दि ओनली
मेटाफिजिकल प्रॉब्लम बिफोर मैन इज़ स्युसाइड। एक ही आध्यात्मिक समस्या मनुष्य के
सामने, आत्महत्या है। और जब उससे किसी ने पूछा कि
यह तुमने क्या लिखा है! तो उसने कहा कि जब से मैं थोड़े होश से भरा, तब से मैं पूछ रहा हूं अपने से कि अगर यही
जिंदगी है, तो आत्महत्या में बुराई क्या है? अगर यही जिंदगी है, जो मैं कल जीया था, परसों जीया था, इसी को कल फिर दोहराना है, परसों फिर दोहराना है, तो यह सोच कर ही कि इसी को दोहराए चले जाना
है, मैं सोचता हूं, आत्महत्या में बुराई क्या है? अगर यही जिंदगी जिंदगी है...।
लेकिन
हममें से कितनों ने सोचा है यह कभी?
कि जिसे हम जिंदगी कहते हैं, अगर यही जिंदगी है...। हमें तो अगर कोई
भगवान मिल जाए और कहे कि यही जिंदगी हम तुम्हें दुबारा देते हैं, तो हम कहेंगे, बिलकुल
हम राजी हैं। साठ साल और फिर यही करेंगे। दि सेम डेड रूटीन, फिर यही करेंगे। लेकिन इसका मतलब सिर्फ इतना
है कि हमारे पास कोई संवेदनशील चिंतन नहीं है, कोई
सेंसिटिविटी नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं। इसलिए आप चकित न होना कि दुनिया में
जो लोग आत्महत्या कर लेते हैं,
अनिवार्य नहीं कि कायर हों, इसकी भी संभावना है कि आपसे ज्यादा
संवेदनशील हों। और आप यह मत समझ लेना कि आत्महत्या नहीं करते हैं, तो बड़े बहादुर हैं। संभावना बहुत यह है कि
मरने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाते,
जीने की तो बात अलग है। इसलिए
जीए चले जाते हैं। मरने के लिए भी तो कुछ सोचना पड़ेगा, कुछ डिसीजन लेना पड़ेगा। और जिंदगी है, तो सिर्फ बहते चले जाते हैं, बहते चले जाते हैं।
कभी
बैठ कर थोड़ा सा लेखा-जोखा कर लेना चाहिए। कभी बैठ कर थोड़ा लेखा-जोखा करना चाहिए कि
पचास साल जीया, इस पचास साल में कितने क्षण हैं, जो जीवन के क्षण हैं। जिनको मैं फिर से अगर
परमात्मा हो, तो मांगना चाहूं, तो हाथ से रेत खिसकती मालूम पड़ेगी। एक क्षण
भी ऐसा नहीं लगेगा, जिसे दुबारा मांगने का मन हो। इतना बासा है
जीवन! इतना स्टेल! लेकिन हम बासी जिंदगी पर, जैसे
सड़ी हुई मछली पर कोई टमाटर सॉस ऊपर से डाल कर खाए चला जा रहा हो! ऐसे हम सड़ी हुई
जिंदगी पर, बस रोज आशाओं के सॉस डालते हुए चले जाते
हैं।
कल कुछ
होगा, परसों कुछ होगा! और मजा यह है कि आप ही कल
भी होंगे। तो आप तो कल भी थे। कल आपने क्या किया? परसों
भी आप थे, परसों आपने क्या किया? आप ही कल भी होंगे। और ध्यान रहे, आज से कमजोर होंगे। रोज शक्ति चुकती चली
जाती है, रोज क्षण कम होते चले जाते हैं। समय क्षीण
होता चला जाता है, अवसर क्षीण होते चले जाते हैं, शक्ति दीन होती चली जाती है। अगर कल आप नहीं
पा सके, तो आने वाले कल आप बिलकुल भी नहीं पा
सकेंगे। इससे यह मत समझ लेना कि मैं आपको निराश कर रहा हूं। इससे यह मत समझ लेना
कि मैं कोई निराशावादी हूं,
दुखवादी हूं कि कुछ भी नहीं
हो सकेगा। मैं आपसे सिर्फ इतना कह रहा हूं कि जिस आशा में आप जी रहे हैं, उस आशा में जीने से कभी कुछ न हो सकेगा। अगर
आपको निराशा भी पकड़ ले, तो कुछ हो सकता है।
ध्यान
रहे, इस पृथ्वी पर सिवाय बुद्धुओं के और कोई बहुत
आशावान नहीं हो सकता है। नहीं,
जिंदगी ऐसा मौका नहीं देती, जिंदगी ऐसा मौका नहीं देती है। जिंदगी को जो
भी देखेगा, वह निराश होगा, होना चाहिए। और निराशा जब इतनी गहरी हो जाती
है कि जिंदगी बिलकुल बेकार मालूम पड़ती है, तभी
पहली दफा छलांग लगाने का मन होता है कि हम कोई और जिंदगी खोजें।
बुद्ध
एक आदमी से कह रहे हैं कि तू अब छोड़ यह सब। वह कहता है कि कुछ देर और रुक जाएं।
अगले वर्ष लड़की की शादी कर लेनी है,
फिर मैं आता हूं। बुद्ध ने
कहा कि समझ कि साल बीता,
लड़की की शादी हो गई। पक्का है, आएगा? उसने
कहा, साल तो बीत जाने दें! बुद्ध ने कहा, सोच कि साल बीता, लड़की की शादी हो गई। क्या खयाल है? उसने कहा, लेकिन
अभी कैसे कह सकता हूं! साल भर बाद हजार सवाल उठ सकते हैं। बुद्ध ने कहा, मैं बचा तो अगले वर्ष आऊंगा।
बुद्ध
उस गांव से फिर निकले। वह आदमी सुनने बुद्ध को नहीं आया, क्योंकि वह डरा। उसने सोचा कि पता नहीं, वह आदमी फिर पहचान ले! और ऐसे आदमी भूलते
नहीं, पहचान लेते हैं। और पकड़ लेते हैं, पहचान लें; साल तो
बीत गया! लेकिन कहीं वे फिर कहें...! सवाल तो कुछ भी हल नहीं हुए। सवाल और बढ़ गए, क्योंकि एक साल में सवाल और पैदा किए। आदमी
तो वही है, जो सवाल पैदा कर ले।
बुद्ध
बैठे हैं, लोग आ गए हैं और बुद्ध किसी की राह देख रहे
हैं। लोगों ने कहा, अब आप शुरू करिए, समय बीता जाता है! बुद्ध ने कहा, एक आदमी ने वायदा किया था आपके गांव में, वह कहां है? उन्होंने
कहा, बड़ी मुश्किल है, वह आपसे बच रहा है! उसको बुला लाओ, बुद्ध ने कहा। क्योंकि पता नहीं, अगले साल मैं बचूं या न बचूं। उसका तो मामला
अगले साल तक टल ही गया होगा। उस आदमी को लाया गया। उसने कहा, माफ करिए। बड़ी गलती हो गई। मगर हम समझ नहीं
पाते न इतने दूर के बहुत सवाल उठ गए हैं। अब लड़का भी बड़ा हो गया है, मां की तबीयत ठीक नहीं रहती, पिता बूढ़े हैं, घर में बहुत काम हैं--लेकिन अगले वर्ष जब आप
आएंगे...!
बुद्ध
ने और लोगों से कहा कि देखते हो इस आदमी को! असल में, इस आदमी के मन में अब तक जगत के प्रति कोई
निराशा नहीं जनमी है। अभी इसे ऐसा नहीं लग रहा है कि जगत में आग लगी है, तो यह पोस्टपोन कर सकता है, स्थगन कर सकता है? अगर इस मकान में आग लग जाए, तो यहां एक आदमी नहीं मिलेगा, जो कहेगा कि मैं थोड़ी देर, दस मिनट बाद में आता हूं! आग लगी तो यहां जो
होड़ होगी, वह यह होगी कि कौन पहले निकल जाए। कोई पीछे
होने को राजी नहीं होगा।
लेकिन
जीवन के सत्य की तरफ ऐसी कोई होड़ नहीं दिखाए पड़ती। सच तो यह है कि जीवन के सत्य की
खोज अकेला एकमात्र क्षेत्र है,
जहां कोई काम्पिटीशन, कोई प्रतियोगिता नहीं है। आप चले जाइए अकेले
और बिलकुल अकेले नंबर एक आ जाइए,
तो कोई रोकने वाला नहीं है।
कोई दूसरा होता ही नहीं!
निराशा।
जीवन जैसा है उसे देख लें,
तो निराशा पकड़ेगी। क्या है
हमारा प्रेम? क्या है हमारी मित्रता? प्रेम को बहुत तलाश करेंगे, तो दो-चार आंसुओं के सिवाय भीतर कुछ मिलता
नहीं। और जब आंसू खुद के अनुभव में आते हैं, तो
जैसा सागर का पानी तिक्त और कडुवा है, वैसे
ही होते हैं। मित्रता! क्या है मित्रता? जिसे
हम जानते हैं, वह क्या है--मित्रता!
रवींद्रनाथ
ने एक कविता लिखी है। लिखा है कि एक बौद्ध भिक्षु एक गांव से निकल रहा है, संन्यासी। एक वेश्या उस पर मोहित हो गई है।
और उसने नीचे उतर कर उस भिक्षु को कहा कि आओ। यह पहला मौका है कि मैं किसी को
निमंत्रण देती हूं। अब तक लोगों ने मुझे निमंत्रण दिया है और मेरे द्वार पर दस्तक
दी है। सभी के लिए द्वार नहीं खुलते हैं।
सम्राज्ञी
थी एक अर्थ में वह। सारा नगर उसके लिए दीवाना था, नगर
वधू थी। सुंदरतम थी। सभी सम्राट भी उससे मिल पाएं, यह
आवश्यक नहीं था। भिक्षु खड़ा हो गया,
उसने कहा कि जब जरूरत होगी तब
मैं आऊंगा, जब जरूरत होगी तो मैं आ जाऊंगा।
पर उस
स्त्री ने कहा कि जरूरत! मैं तुम्हें प्रेम का निमंत्रण दे रही हूं। तो उस भिक्षु
ने कहा, निमंत्रण मैंने सुन लिया और स्वीकार कर
लिया। लेकिन अभी उनको आने दो,
जो तुम्हारे मित्र हैं, तुम्हारे प्रेमी हैं। कल ऐसा क्षण भी आ
जाएगा, न मित्र मिलेगा, न प्रेमी। तब मेरी जरूरत हो, तो मैं आ जाऊंगा। मैं तब तक प्रतीक्षा कर
सकता हूं।
बात आई-गई हो गई। वेश्या दुखी और पीड़ित...। फिर
वर्ष बीत गए। फिर जो होना था,
जो होता है, वह हुआ। वह वेश्या कोढ़ग्रस्त हो गई। गांव ने
उसे निकाल कर बाहर फेंक दिया। उसके शरीर गल-गल कर अंग उसके गिरने लगे। कोई उसके
पास न आता, दूर तक उसकी बदबू पहुंचती। उस रास्ते से लोग
न निकलते कि वह किसी को पुकार न दे दे, क्योंकि
ये वे ही लोग थे, जिन्होंने कभी उसके द्वार पर दस्तक दी थी, आधी रात।
अमावस
की रात है, वह तड़प रही है। उसे प्यास लगी है, कोई पानी देने वाला भी नहीं है। और तभी कोई
हाथ उसके माथे पर पहुंच गया। कोई पानी उसके मुंह में डालने लगा। उसने पूछा आंख खोल
कर, पानी पीकर कि तुम कौन हो? तो उसने कहा, मैं
वही भिक्षु हूं जो कई वर्ष पहले तुम्हारे द्वार से गुजरा था। एक मैत्री तुमने जानी
थी, एक मैत्री मैं भी जानता हूं।
पर उस
वेश्या ने कहा, अब व्यर्थ ही आए, अब तो मेरे पास देने को कुछ भी नहीं है! उस
भिक्षु ने कहा, जो मैत्री लेने को आती है, वह मैत्री नहीं है। मैं लेने को कुछ नहीं
आया।
लेकिन
हमने कोई ऐसी मैत्री जानी है,
जो लेने को न आई हो?
असल
में, हमने दो तरह की शत्रुताएं जानी हैं--अपनों
की और परायों की। अपनों की शत्रुता को हम मैत्री कहते हैं, परायों की शत्रुता को हम शत्रुता कहते हैं।
दोनों ही हमसे लेने को आतुर हैं। अपनों के ढंग जरा प्रीतिकर हैं, परायों के ढंग जरा क्रोध से भरे हैं। ये
दोनों ही लेने को तत्पर हैं।
मैत्री
हमने जानी नहीं, प्रेम हमने जाना नहीं, जीवन हमने जाना नहीं। शांति और आनंद की हमें
कोई खबर नहीं है। यद्यपि खोज उसी की है। और वह खोज तब तक पूरी न होगी, जब तक जो व्यर्थ है वह व्यर्थ न दिखाई पड़
जाए।...तब तक सार्थक की खोज नहीं हो सकती। जो गलत है, गलत न दिखाई पड़ जाए तब तक जो ठीक है उसकी
खोज शुरू नहीं होती। दि फाल्स मस्ट बी नोन एज फाल्स। एक दफा बिलकुल साफ हो जाना
चाहिए कि यह गलत है। लेकिन कितने दिनों में साफ होगा? कितने जन्मों में साफ होगा? पचास साल, साठ
साल, गलत को गलत नहीं बता पाते। एक जिंदगी को
गिनें तो।
जो
जानते हैं वे तो अनेक जिंदगी को गिनेंगे और कहेंगे अनेक जिंदगियां भी नहीं बता
पातीं कि गलत क्या है। जैसे कि हमने तय ही कर रखा है कि हम गलत को गलत नहीं
देखेंगे। हम उसको ठीक देखते ही चले जाएंगे। हमने कसम ही खा रखी है।
यह कसम
तोड़नी जरूरी है। यह कसम जिस दिन से टूटनी शुरू हो जाए मैं रहूंगा उस दिन से आपका
जन्म शुरू हुआ जिस दिन से यह जिंदगी व्यर्थ दिखाई पड़नी शुरू हो जाए, उस दिन मैं कहूंगा आपकी असली जिंदगी शुरू
हुई। आपका असली जन्म शुरू हुआ। और इस तरह के आदमी को ही द्विज, ट्वाइस बॉर्न। जनेऊ डालने वाले को नहीं।
क्योंकि जनेऊ तो किसी को भी डाला जा सकता है।
द्विज
हम कहते रहे हैं उस आदमी को जो इस दूसरी जिंदगी में प्रवेश कर जाता है। एक जन्म है
जो मां-बाप से मिलता है वह शरीर का ही हो सकता है। कि और जन्म है जो स्वयं की खोज
से मिलता है वही जीवन की शुरुआत है। इस जन्मदिन पर, मेरे
तो नहीं कह सकता। क्योंकि मैं तो जीसस, बुद्ध
और लाओत्से से राजी हूं। लेकिन इस जन्मदिन पर जो कि अ, ब, स, द किसी का भी हो सकता है। आपसे इतना ही कहना
चाहता हूं कि एक और सत्य भी है। उसे खोजें। एक और जीवन भी है यहीं पास, जरा मुड़ें तो शायद मिल जाए। बस किनारे पर, कोने पर ही। और जब तक वह जीवन न मिल जाए, तब तक जन्मदिन मत मनाएं। तब तक सोचें मत
जन्म की बात। क्योंकि जिसको आप जन्म कह रहे हैं, वह
सिर्फ मृत्यु का छिपा हुआ चेहरा है। हां, जिस
दिन जिसको मैं जन्म कह रहा हूं,
उसकी आपको झलक मिल जाए, उस दिन मनाएं। उस दिन फिर प्रतिपल जन्म है, क्योंकि उसके बाद फिर जीवन ही जीवन
है--शाश्वत, अनंत; फिर
उसका कोई अंत नहीं है। ऐसे जन्म की यात्रा पर आप निकलें, ऐसी परमात्मा से प्रार्थना करता हूं।
मेरी
बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे
अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
वुडलैंड
निवास स्थान--बंबई; ११ दिसंबर १९७०, प्रातः
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