प्रवचन-दूसरा -अमृत की दशा
आज की
संध्या आपके बीच उपस्थित होकर मैं बहुत आनंदित हूं। एक छोटी सी कहानी से आज की
चर्चा को मैं प्रारंभ करूंगा।
बहुत
वर्ष हुए, एक साधु मरणशय्या पर था। उसकी मृत्यु निकट
थी और उसको प्रेम करने वाले लोग उसके पास इकट्ठे हो गए थे। उस साधु की उम्र सौ
वर्ष थी और पिछले पचास वर्षों से सैकड़ों लोगों ने उससे प्रार्थना की थी कि उसे जो
अनुभव हुए हों, उन्हें वह एक शास्त्र में, एक किताब में लिख दे। हजारों लोगों ने उससे
यह निवेदन किया था कि वह अपने आध्यात्मिक अनुभवों को, परमात्मा के संबंध में, सत्य के संबंध में उसे जो प्रतीतियां हुई
हों, उन्हें एक ग्रंथ में लिख दे। लेकिन वह हमेशा
इनकार करता रहा था। और आज सुबह उसने यह घोषणा की थी कि मैंने वह किताब लिख दी है
जिसकी मुझसे हमेशा मांग की गई थी। और आज मैं अपने प्रधान शिष्य को उस किताब को
भेंट कर दूंगा।
हजारों
लोग उत्सुक होकर बैठे थे कि वह किताब भेंट की जाएगी जो कि मनुष्य-जाति के लिए
हमेशा के लिए काम की होगी। उसने एक किताब अपने प्रधान शिष्य को भेंट की और उससे
कहा, इसे सम्हाल कर रखना, इससे बहुमूल्य शास्त्र कभी भी लिखा नहीं गया
है, इससे महत्वपूर्ण कभी कोई किताब नहीं लिखी गई
है और जो लोग सत्य की खोज में होंगे उनके लिए यह मार्गदर्शक प्रदीप सिद्ध होगी।
इसे बहुत सम्हाल कर रखना। इसे मैंने पूरे जीवन के अनुभव से लिखा है।
उसने
वह किताब अपने शिष्य को दी और सारे लोग धन्यवाद में सिर झुकाए। लेकिन उस शिष्य ने
क्या किया? सर्दी के दिन थे और वहां आग जलती थी, उसने उस किताब को आग में डाल दिया। वह तो आग
ने उस किताब को पकड़ लिया और वह तो राख हो गई। और सारे लोग हैरान हो गए कि यह क्या
किया? लेकिन लोग देख कर हैरान हुए, वह मरता हुआ साधु अत्यंत प्रसन्न था। उसने
उठ कर उस शिष्य को गले लगा लिया और उससे कहा, अगर
तुम किताब को बचा कर रख लेते तो मैं बहुत दुखी मरता, क्योंकि
मैं समझता कि एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है मेरे पास जो यह जानता हो कि सत्य
शास्त्रों में उपलब्ध नहीं हो सकता है। तुमने किताब को आग में डाल दिया, इससे मैं प्रसन्न हूं। कम से कम एक व्यक्ति
मेरी बात को समझता है। यह बात कि सत्य शास्त्रों में उपलब्ध नहीं हो सकता, कम से कम एक के अनुभव में है। और उसने कहा, और यह भी स्मरण रखो, अगर तुम उस किताब को आग में न डालते और मेरे
मरने के बाद देखते तो बहुत हैरान हो जाते। उसमें कुछ लिखा हुआ नहीं था, वे कोरे कागज थे।
और मैं
आपसे कहूंगा कि आज तक धर्मग्रंथों में कुछ भी लिखा हुआ नहीं है, वे सब कोरे कागज हैं। जो लोग उनमें कुछ पढ़
लेते हैं, वे गलती में पड़ जाते हैं। जो गीता में कुछ
पढ़ लेगा, या कुरान में कुछ पढ़ लेगा, या बाइबिल में कुछ पढ़ लेगा, वह गलती में पड़ जाएगा।
स्मरण
रखना, उन शास्त्रों में कुछ भी लिखा हुआ नहीं है।
और जो आप पढ़ रहे हैं, वह आप अपने को पढ़ रहे हैं, उन शास्त्रों को नहीं। और तब जिन संप्रदायों
को आप खड़े कर लेते हैं और सत्य के जिन पंथों को आप निर्मित कर लेते हैं, वे क्राइस्ट के और कृष्ण के बनाए हुए नहीं हैं, वे बुद्ध और महावीर के बनाए हुए नहीं हैं, वे आपके निर्माण हैं, वे आपकी बुद्धि और आपके विचार से उत्पन्न
हुए हैं। इन सारे पंथों का निर्माण,
इन सारे पंथों का जन्म आपसे
हुआ है, जिन्होंने सत्य को जाना है उनसे नहीं।
क्योंकि जो सत्य को जानता है,
वह किसी संप्रदाय को जन्म
कैसे दे सकता है? और जो सत्य को जानता है, वह मनुष्य के भीतर विभाजन की रेखाएं कैसे
खड़ी कर सकता है? और जिसने सत्य को जाना हो, उसके लिए तो सारे भेद और सारी दीवालें गिर
जाती हैं। लेकिन सत्य के नाम पर खड़े हुए ये संप्रदाय तो दीवालों को और भेदों को
खड़े किए हुए हैं। ये सारे भेद मेरे और आपके निर्मित किए हुए हैं।
आज की
संध्या मैं आपसे यह कहना चाहूंगा कि जो व्यक्ति सत्य की खोज करना चाहता हो--और ऐसा
कोई भी व्यक्ति इस जमीन पर खोजना मुश्किल है जो किसी न किसी रूप में सत्य की खोज
में न लगा हो--उस व्यक्ति को इन सारे शास्त्रों को, इन
सारे संप्रदायों को, इन सारे विचार के पंथों को छोड़ देना होगा।
इन्हें छोड़ कर ही कोई सत्य के आकाश में गति कर सकता है। जो इनसे दबा है, इनके भार से बंधा है, जिसके ऊपर इनका बोझ है, वह पर्वत पर नहीं चढ़ सकेगा। वह इतना भारी है
कि उसका ऊपर उठना असंभव है। सत्य को पाने के लिए निर्भार होना जरूरी है। सत्य को
पाने के लिए निर्भार होने की अत्यंत आवश्यकता है। जो लोग भारग्रस्त हैं, वे लोग सत्य की ऊंचाइयों पर नहीं उठ सकेंगे।
उनके पंख टूट जाएंगे और वे नीचे गिर जाएंगे।
हम यदि
उत्सुक हैं, और यदि हम चाहते हैं कि सत्य का कोई अनुभव
हो...और मैं आपको यह कहूं कि जो व्यक्ति सत्य के अनुभव को उपलब्ध नहीं होगा, उसके जीवन में न तो संगीत होता है, न उसके जीवन में शांति होती है, न उसके जीवन में कोई आनंद होता है। ये इतने
लोग दिखाई पड़ते हैं--अभी रास्ते से मैं आया, और
हजारों रास्तों से निकलना हुआ है,
लाखों लोगों के चेहरे दिखाई
पड़ते हैं--पर कोई चेहरा ऐसा दिखाई नहीं पड़ता कि उसके भीतर संगीत का अनुमान होता
हो। कोई आंखें ऐसी दिखाई नहीं पड़तीं कि भीतर कोई शांति हो। कोई भाव ऐसे प्रदर्शित
नहीं होते कि भीतर आलोक का और प्रकाश का अनुभव हुआ हो। हम जीते हैं--इस जीवन में
कोई आनंद, इस जीवन में कोई शांति और कोई संगीत अनुभव
नहीं होता।
सारी
दुनिया इस तरह के विसंगीत से भर गई है, सारी
दुनिया के लोग ऐसी पीड़ा और संताप से भर गए हैं कि उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा है, जो ज्यादा विचारशील हैं उन्हें दिखाई पड़ता
है कि इस जीवन का तो कोई अर्थ नहीं है, इससे
तो मर जाना बेहतर है। और बहुत से लोगों ने पिछले पचास वर्षों में, बहुत विचारशील लोगों ने आत्महत्याएं की हैं।
वे लोग नासमझ नहीं थे जिन्होंने अपने को समाप्त किया है।
जीवन
की यह जो स्थिति है, आज जीवन की यह जो परिणति है, आज जीवन का यह जो दुख और पीड़ा है, इसे देख कर कोई भी अपने को समाप्त कर लेना
चाहेगा। ऐसी स्थिति में केवल नासमझ जी सकते हैं। ऐसी पीड़ा और तनाव को केवल अज्ञानी
झेल सकते हैं। जिसे थोड़ा भी बोध होगा, वह
अपने को समाप्त कर लेना चाहेगा। इसका तो अर्थ यह हुआ कि जिनको बोध होगा, वे आत्महत्या कर लेंगे?
लेकिन
महावीर ने और बुद्ध ने आत्महत्या नहीं की। और क्राइस्ट ने आत्महत्या नहीं की।
कनफ्यूशियस ने और लाओत्से ने आत्महत्या नहीं की। दुनिया में ऐसे लोग हुए हैं
जिन्होंने आत्महत्या के अतिरिक्त एक और मार्ग सोचा और जाना। मनुष्य के सामने दो ही
विकल्प हैं--या तो आत्महत्या है,
या आत्मसाधना है। जो व्यक्ति
इन दो में से कोई विकल्प नहीं चुनता, उसे
जानना चाहिए कि वह एक व्यर्थ के बोझ को ढो रहा है। वह जीवन को अनुभव नहीं कर
पाएगा। वह करीब-करीब मृत है। उसे जीवित भी नहीं कहा जा सकता।
क्राइस्ट
के जीवन में एक उल्लेख है। वे एक गांव से गुजरते थे। और एक मछुए को उन्होंने
मछलियां मारते देखा। वे उसके पीछे गए, उसके
कंधे पर हाथ रखा और उन्होंने उस मछुए से कहा, तुम कब
तक मछलियां मारने में ही जीवन गंवाते रहोगे? मछलियां
मारने के अलावा भी कुछ और है।
और क्राइस्ट
हमारे कंधे पर भी हाथ रख कर यही पूछ रहे हैं कि हम कब तक मछलियां मारते रहेंगे? मछलियां मारने के अलावा कुछ और भी है।
उन्होंने उस मछुए से पूछा कि कब तक मछलियां मारते रहोगे? उसने लौट कर देखा उनकी आंखों में और उसे
प्रतीत हुआ कि जीवन में मछलियां मारने से ज्यादा भी कुछ पाया जा सकता है। उसकी
गवाही वे क्राइस्ट की आंखें थीं। उसने कहा, मैं
तैयार हूं। जिस रास्ते पर आप ले चलना चाहें, मैं
चलूंगा। क्राइस्ट ने कहा,
मेरे पीछे आओ। उसने जाल को
वहीं फेंक दिया और वह क्राइस्ट के पीछे गया। वह गांव के बाहर भी नहीं निकल पाया था
कि किसी ने आकर खबर दी कि तुम्हारा पिता, जो
बीमार था, उसकी अभी-अभी मृत्यु हो गई है। तुम घर लौट
चलो। उसका अंतिम संस्कार करके फिर जहां भी जाना हो चले जाना। उस व्यक्ति ने, उस मछुए ने क्राइस्ट को कहा कि मैं जाऊं और
अपने पिता की अंत्येष्टि कर आऊं,
फिर मैं लौट आऊंगा। तो
क्राइस्ट ने एक बड़ी अदभुत बात कही। उन्होंने कहा: लेट दि डेड बरी देयर डेड।
उन्होंने कहा: मुर्दों को मुर्दे को दफना लेने दो, तुम
मेरे पीछे आओ।
यह वचन
बहुत अदभुत है। उन्होंने यह कहा कि मुर्दे मुर्दे को दफना लेंगे, तुम मेरे पीछे आओ। हम सबकी गिनती उन्होंने
मुर्दों में की है। और इस सारी जमीन पर बहुत कम लोग जीवित हैं, अधिक लोग मुर्दे हैं। तीन अरब लोग हैं अभी, इनमें अधिक लोग मुर्दे हैं। मुश्किल से कोई
आदमी जीवित है।
यह मैं
क्यों कह रहा हूं आपसे कि हम मुर्दे हैं? हम तब
तक मुर्दे ही हैं, तब तक हम मरे हुए लोग हैं जो किसी भांति जी
रहे हैं और चल रहे हैं; हम लाशों की भांति हैं जो चल रही हैं; हम तब तक लाशों की भांति होंगे, जब तक हमें वास्तविक जीवन का पता न चल जाए।
वह व्यक्ति जीवित कैसे हो सकता है जिसे जीवन के मूलस्रोत का कोई पता न हो? वह व्यक्ति जीवित कैसे कहा जा सकता है जिसे
अपने भीतर जो जीवन की धारा बह रही है, उसमें
जिसकी कोई प्रतिष्ठा न हो?
वह व्यक्ति जीवित कैसे हो
सकता है या कैसे जीवित कहा जा सकता है जिसे उस तत्व का पता न हो जिसकी कोई मृत्यु
नहीं होती है?
मेरे
भीतर, आपके भीतर, सबके
भीतर वह तत्व भी मौजूद है जिसकी कोई मृत्यु नहीं होती। हमारे भीतर दोहरे तरह का
व्यक्तित्व है--एक जो मर जाएगा और एक जो शेष रहेगा। जो व्यक्ति अपने को इतना ही
मानते हों कि मरण पर उनकी समाप्ति हो जाती है, वे
जीवित नहीं हो सकते, वे जीवित नहीं कहे जा सकते हैं। अपने भीतर
उस जीवन को अनुभव करने के बाद ही कोई व्यक्ति जीवित होता है, जिसकी कोई मृत्यु नहीं होती। और ऐसे तत्व के
अनुसंधान का नाम सत्य की खोज है। सत्य की खोज कोई बौद्धिक, तार्किक खोज नहीं है कि हम कुछ विचार करें
और गणित करें। सत्य की खोज किन्हीं शास्त्रों के अध्ययन, किन्हीं विद्याओं के सीख लेने की बात नहीं
है। सत्य की खोज अपने भीतर अमृत की खोज है।
जो
व्यक्ति अपने भीतर अमृत को उपलब्ध होता है, वही
केवल सत्य को जानता है। और जो व्यक्ति अमृत को उपलब्ध नहीं होता, उसके जीवन में सब असत्य है, सब झूठ है। उसके जीवन में कुछ भी सार्थक
नहीं है।
तो हमारी
दिशा, हमारे सोचने-विचारने की, हमारी साधना की, हमारे जीवन की दिशा यदि अमृत की तलाश में
संलग्न होती हो, अगर हम उस दिशा में थोड़े चलते हों, अगर हमारे कदम उस रास्ते पर थोड़े पड़ते हों
और हमारे चरण उस मार्ग पर जाते हों,
तो जानना चाहिए कि हम जीवन की
तरफ विकसित हो रहे हैं। अन्यथा हमारी प्रति घड़ी हमारी मौत को करीब लाती है और हम
मर रहे हैं।
मैं
जिस दिन पैदा हुआ, उसी दिन से मरना शुरू हो गया हूं। मैं रोज
मरता जा रहा हूं। और अगर मैं कुछ जीवन के ऐसे सत्य को अनुभव न कर लूं जो इस मरने
की क्रिया के बीच भी थिर हो,
जो इस मरने की क्रिया के बीच
भी मर न रहा हो, तो मेरे जीवन का क्या मूल्य हो सकता है? या मेरे जीवन में कौन सा अर्थ और कौन सा
आनंद उपलब्ध हो सकता है?
जो लोग
मृत्यु पर केंद्रित हैं,
या जो लोग अपने भीतर केवल उसे
जानते हैं जो मरणधर्मा है,
वे आनंद को अनुभव नहीं कर सकेंगे।
आनंद की अनुभूति अमृत की अनुभूति की उत्पत्ति है। अमृत को जान कर ही कोई केवल आनंद
को जानता है। इसलिए हमने अपने देश में, या जिन
लोगों ने कहीं भी जमीन पर कभी जाना है, उन्होंने
परमात्मा को आनंद का स्वरूप माना है।
परमात्मा
कोई व्यक्ति नहीं है, जिसको आप खोज लेंगे। परमात्मा एक आनंद की
चरम अनुभूति है। उस अनुभूति में आप कृतार्थ हो जाते हैं। और सारे जगत के प्रति
आपके मन में एक धन्यता का बोध पैदा हो जाता है। आपमें कृतज्ञता पैदा होती है। उस
कृतज्ञता को ही मैं आस्तिकता कहता हूं। ईश्वर को मानने को नहीं, वरन अपने भीतर एक ऐसे आनंद को अनुभव करने को
कि उस आनंद के कारण आप सारे जगत के प्रति कृतज्ञ हो जाएं। वह जो कृतज्ञता, वह जो ग्रेटीटयूड का अनुभव है, वही परम आस्तिकता है। और ऐसी आस्तिकता की
खोज, ऐसी कृतज्ञता की खोज जो मनुष्य नहीं कर रहा
है, वह अपने जीवन के अवसर को व्यर्थ खो रहा है।
यह चिंतनीय और विचारणीय है। और यह हर मनुष्य के सामने एक प्रश्न की तरह खड़ा हो
जाना चाहिए। यह असंतोष हर मनुष्य के भीतर पैदा हो जाना चाहिए कि वह खोजे और जीवन
को गंवा न दे। वह खोजे।
लेकिन
हम दो तरह के लोगों में सारी दुनिया में लोग बंट गए हैं। एक तो वे लोग हैं, जो मानते ही नहीं कि कोई आत्मा है, कोई परमात्मा है। एक वे लोग हैं, जो मानते हैं कि परमात्मा है और आत्मा है।
ये दोनों ही लोगों ने खोजें बंद कर दी हैं। एक ने स्वीकार कर लिया है कि परमात्मा
नहीं है, आत्मा नहीं है, इसलिए खोज का कोई प्रश्न नहीं है। दूसरे
वर्ग ने स्वीकार कर लिया है कि आत्मा है, परमात्मा
है, इसलिए उन्हें भी खोज का कोई कारण नहीं रह
गया।
आस्तिक
और नास्तिक दोनों ने खोज बंद कर दी है। विश्वासी भी खोज बंद कर देता है। अविश्वासी
भी खोज बंद कर देता है। खोज तो केवल वे लोग करते हैं जिनकी जिज्ञासा मुक्त होती है
और जो किसी विश्वास से, किसी पंथ से, किसी
विचार की पद्धति से, किसी आस्तिकता से, किसी नास्तिकता से अपने को बांध नहीं लेते
हैं। वे लोग धन्य हैं, जिनकी जिज्ञासा मुक्त हो, जिनका संदेह मुक्त हो, जो सोच रहे हों और जिन्होंने दूसरों के
सोच-विचार को स्वीकार न कर लिया हो।
मैं
अभी एक गांव में था। और अपने एक मित्र के साथ वहां गया। बहुत धूप थी और रास्ते
बहुत गर्म थे। वे अपने जूते को कहीं खो गए, कोई
चुरा ले गया। तो मैंने उनसे कहा कि दूसरी चप्पल पहन लें। वे बोले, दूसरे की पहनी हुई चप्पलें मैं कैसे पहनूं? मैंने उनसे कहा कि दूसरे के पहने हुए जूते
कोई पहनना पसंद नहीं करता,
दूसरे के पहने हुए कपड़े कोई
पहनना पसंद नहीं करता, लेकिन दूसरों के अनुभव किए हुए विचार सारे
लोग स्वीकार कर लेते हैं। दूसरे के बासे कपड़े और दूसरे का बासा भोजन कोई स्वीकार
नहीं करेगा, लेकिन हम सारे लोगों ने दूसरों के बासे
विचार स्वीकार कर लिए हैं। फिर चाहे वे विचार बुद्ध के हों और चाहे महावीर के हों, चाहे किसी के हों, कितने ही पवित्र पुरुष के वे विचार क्यों न
हों, अगर वे दूसरे के अनुभव हैं, और उनको हमने स्वीकार कर लिया है, तो हम स्वयं सत्य को जानने से वंचित हो
जाएंगे।
इस जगत
में केवल वे ही लोग, केवल वे ही थोड़े से लोग सत्य को अनुभव कर
पाते हैं जो किसी के विचार को स्वीकार नहीं करते हैं। जो किसी की उधार चिंतनाओं को
अंगीकार नहीं करते हैं। और जो अपने मन के आकाश को, जो
अपने मन की चिंतना को मुक्त रख पाते हैं।
बहुत
कठिन है अपनी चिंतना को मुक्त रख पाना। अगर अपने भीतर आप देखेंगे तो शायद ही एकाध
विचार मालूम होगा जो आपका अपना है। वे सब संगृहीत मालूम होंगे, वे सब दूसरों से लिए हुए मालूम होंगे। और
ऐसी विचार-शक्ति जो दूसरों के लिए हुए विचारों से दब जाती है, सत्य के अनुसंधान में असमर्थ हो जाती है।
जितने ज्यादा कोई व्यक्ति दूसरों के विचार स्वीकार कर लेता है, उतनी उसकी विचार-शक्ति नीचे दब जाती है। जो
व्यक्ति जितना दूसरों के विचार अस्वीकार कर देता है, उतनी
उसके भीतर की विचार-शक्ति जाग्रत होती है और प्रबुद्ध होती है।
सत्य
को पाने के लिए स्मरणीय है कि किसी का विचार, कितना
ही सत्य क्यों न प्रतीत हो,
अंगीकार के योग्य नहीं है।
किसी का भी विचार अंगीकार के योग्य नहीं है। और जो व्यक्ति इतना साहस करता है कि
सारे विचारों को दूर हटा देता है,
उसके भीतर, जैसे कोई कुआं खोदे और सारी मिट्टी और
पत्थरों को अलग कर दे तो नीचे से जल के स्रोत उत्पन्न हो जाते हैं, वैसे ही कोई व्यक्ति अगर अपने भीतर से सारे
पराए विचारों को अलग कर दे,
दूर हटा दे, तो उसके भीतर विचार-शक्ति का, विवेक का, प्रज्ञा
का जन्म होता है। उसके भीतर जल-स्रोत उपलब्ध होते हैं। उसकी स्वयं की शक्ति जागती
है। और उस स्वयं की शक्ति के जागरण में ही केवल सत्य के अनुभव की संभावना है।
एक दफा
ऐसा हुआ, बुद्ध के पास कुछ लोग एक अंधे को लेकर गए और
उन्होंने कहा, इस अंधे आदमी को हम बहुत समझाते हैं कि
प्रकाश है, लेकिन यह मानने को राजी नहीं होता।
बुद्ध
ने कहा, धन्य है यह अंधा आदमी। इसकी संभावना है कि
यह कभी आंख को खोज ले।
लोगों
ने कहा, आप यह क्या कहते हैं? हम इसे समझाते हैं हजार तरह से कि प्रकाश है, लेकिन यह मानने को राजी नहीं होता।
बुद्ध
ने कहा, धन्य है यह अंधा आदमी। इसकी संभावना है कि
यह कभी प्रकाश को खोज ले। अगर इसने प्रकाश को मान लिया, दूसरों की आंखों के अनुभव को मान लिया, इसकी अपनी आंख की खोज बंद हो जाएगी।
और
बुद्ध से उन्होंने कहा कि आप इसे समझाएं कि प्रकाश है।
बुद्ध
ने कहा, यह पाप मैं नहीं करूंगा। मैं इसे यह नहीं
समझा सकता कि प्रकाश है,
मैं इसे यह जरूर बता सकता हूं
कि आंखें खोलने का उपाय है। और बुद्ध ने कहा, मेरे
पास इसे मत लाओ। किसी विचारक की इसे जरूरत नहीं है, इसे
किसी वैद्य के पास ले जाओ। और इसे विचार मत दो, उपदेश
मत दो। इसे उपचार की जरूरत है,
इसे चिकित्सा की जरूरत है।
वह
अंधा आदमी एक वैद्य के पास ले जाया गया। और भाग्य की बात, कुछ ही महीनों के इलाज से उसकी आंखें ठीक हो
गईं। वह नाचता हुआ आया और बुद्ध के पैरों में गिर पड़ा और उसने कहा, प्रकाश है, क्योंकि
मेरे पास आंख है! उसने कहा,
प्रकाश है, क्योंकि मेरे पास आंख है। आंख ही प्रकाश का
प्रमाण है, और कोई भी प्रमाण नहीं है। और जो दूसरे की
आंखों पर निर्भर हो जाएंगे,
उनकी संभावना बंद हो जाएगी कि
वे स्वयं की आंखों को उपलब्ध हो सकें।
इस समय
जमीन पर सत्य की शोध बंद है। उसका कारण यह नहीं है कि लोग सत्य के विपरीत चले गए
हैं, उसका कारण यह है कि लोग शास्त्रों के बहुत
पीछे चले गए हैं। उसका कारण यह नहीं है कि लोगों में सत्य की...सत्य की दिशा में
उनकी प्यास समाप्त हो गई है,
बल्कि उसका कारण यह है कि वे
यह भूल गए हैं कि दूसरों के बहुत ज्यादा विचारों का बोझ उनकी स्वयं की विवेक की
ऊर्जा को पैदा नहीं होने देता है,
उनकी स्वयं की अंतःशक्ति जाग
नहीं पाती।
सत्य
की खोज में जो लोग उत्सुक हैं,
उनके लिए पहली बात होगी कि वे
सारे पराए विचारों को अस्वीकार कर दें, वे
इनकार कर दें। खाली और शून्य होना बेहतर है बजाय दूसरों के उधार विचारों से भरे
होने के। नग्न होना बेहतर है बजाय दूसरों के वस्त्र पहन लेने के। अंधा होना बेहतर
है बजाय दूसरों की आंखों से देखने के। यह संभावना, पहली
बात है। इस भांति व्यक्ति की जिज्ञासा मुक्त होती है और विचार-शक्ति जागती है।
विचार-शक्ति का जागरण, पहली शर्त तो यह मानता है। और दूसरी एक बात
बहुत जरूरी है, जो कि विचारशील लोगों को समझनी चाहिए, और वह यह है कि विचार की शक्ति बड़ी अदभुत
है। और वह अदभुत शक्ति बड़े विपरीत मापदंडों से, बड़ी
विपरीत परिस्थितियों में पैदा होती है। साधारणतः लोग सोचते हैं कि जो आदमी जितना
विचार करेगा, उतनी ज्यादा विचार की शक्ति जाग्रत होगी। यह
गलत है। जो आदमी जितना निर्विचार होने की साधना करेगा, उतनी उसकी विचार की शक्ति जाग्रत होती है।
जो व्यक्ति जितना विचार करेगा,
वह सोचता हो कि उतनी विचार की
शक्ति जाग्रत होगी, तो वह गलती में है। विचार आप क्या करेंगे? जब भी आप विचार करेंगे तब आप दूसरों के
विचारों को दोहराते रहेंगे। जब भी आप विचार करेंगे तब आपकी स्मृति, आपकी मेमोरी उपयोग में आती रहेगी। और अधिक
लोग स्मृति को ही ज्ञान समझ लेते हैं, अधिक
लोग स्मृति को ही विचार समझ लेते हैं। जब आप सोचते हैं तो आपके भीतर गीता बोलने
लगती है। जब आप सोचते हैं तो आपके भीतर महावीर-बुद्ध बोलने लगते हैं। जब आप सोचते
हैं तो आपका धर्म, आपकी शिक्षाएं, जो आपको सिखाई गई हैं, आपके भीतर बोलने लगती हैं। तब सचेत हो जाना
चाहिए, यह विचार नहीं है। यह बिलकुल यांत्रिक
स्मृति है, यह बिलकुल मेकेनिकल मेमोरी है, जो भर दी गई है और जो बोलना शुरू कर रही है।
इसको जो विचार समझ लेगा वह गलती में पड़ जाएगा। जो इसका अनुसंधान करेगा वह विचार से
विचार में भटकता रहेगा और समाप्त हो जाएगा। उसे सत्य का कोई अनुभव नहीं होगा।
फिर
विचार के लिए क्या करना होगा?
विचार की शक्ति को जिसे जगाना
है, उसे विचार करना छोड़ना होगा और उसे निर्विचार
में ठहरना होगा। हम इस निर्विचारणा की स्थिति को हमारे मुल्क में समाधि कहते हैं।
जो निर्विचार में ठहर जाता है,
जो थॉटलेसनेस में, जहां कोई विचार नहीं है, ऐसी निष्कंप अवस्था में ठहर जाता है, जैसे किसी भवन में कोई दीया जलता हो और कोई
हवाएं न आती हों और दीये की बाती बिलकुल ठहर जाए, ऐसे ही
जब कोई व्यक्ति अपनी चेतना को,
अपनी कांशसनेस को, अपनी अवेयरनेस को, अपने होश को ठहरा लेता है और उसमें कोई कंपन
नहीं आते, उस निर्विचार, निष्कंप
क्षण में उसके भीतर विचार की चरम शक्ति का जागरण होता है। और तब वह देख पाता है, उसे आंखें मिलती हैं। समाधि से आंखें मिलती
हैं और व्यक्ति सत्य को देख पाता है। सत्य सोचा नहीं जाता, देखा जाता है।
इसलिए
पश्चिम में जिसे फिलासफी कहते हैं,
भारत में हम उसे दर्शन कहते
हैं। दर्शन और फिलासफी पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। और जो लोग समझते हैं कि फिलासफी
और दर्शन एक ही बातें हैं,
उनका जानना बिलकुल गलत है।
दर्शन का कोई संबंध चिंतन से नहीं है। दर्शन का संबंध तो अचिंत्य हो जाने से है।
दर्शन का संबंध तो समाधि से है,
तर्क से नहीं है, विचार से नहीं है, निर्विचार हो जाने से है। और पश्चिम की
फिलासफी का संबंध चिंतन से है,
विचार से है। पश्चिम की
फिलासफी विचार है, भारत का दर्शन निर्विचार होना है।
हमने
अपने मुल्क में एक अदभुत बात साधी थी और हमने एक बहुत अदभुत प्रयोग किया। हमने यह
प्रयोग किया कि अगर मनुष्य की सारी चिंतना बंद हो जाए तो क्या होगा? जब मनुष्य के सारे विचार बंद हो जाएंगे तो
क्या होगा? जब मनुष्य कुछ भी नहीं सोच रहा होगा तब क्या
होगा? यह बड़ी अदभुत बात है। जब आप कुछ भी नहीं सोच
रहे हैं, तब आपको दिखाई पड़ना शुरू होता है। जब चिंतन
बंद होता है तो दर्शन उपलब्ध होता है। जब विचार की लहरें बंद होती हैं तो आंखें
इतनी स्वच्छ हो जाती हैं कि वे देख पाती हैं। और जब विचार चलते रहते हैं तो देखना
मुश्किल हो जाता है। हम इतने विचार से भरे हैं कि हम करीब-करीब अंधे हैं, हमको कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
एक
मेरे मित्र सारी दुनिया का चक्कर लगा कर लौटे। उन्होंने बहुत झीलें देखीं, बहुत प्रपात देखे। फिर वे मेरे गांव में आए।
और मैंने उनसे कहा कि गांव के पास भी एक प्रपात है, वह मैं
दिखाने ले चलूं। वे बोले,
मैंने बहुत बड़े-बड़े प्रपात
देखे हैं और अब इसको देखने से क्या होगा? मैंने
कहा कि अगर उन प्रपातों का विचार आप छोड़ दें, तो यह
प्रपात भी देखने में अदभुत है। अगर उन प्रपातों का विचार आप छोड़ दें और वे आपकी
आंख में तैरते न रहें, तो आपको यह प्रपात भी दिखाई पड़ेगा, और यह बहुत अदभुत है।
वे
मेरे साथ गए। दो घंटे हम उस प्रपात पर थे। लेकिन उन्होंने एक क्षण भी उस प्रपात को
नहीं देखा। वे मुझे बताते रहे,
अमरीका में कोई प्रपात कैसा
है, स्विटजरलैंड में कोई प्रपात कैसा है।
उन्होंने कहां-कहां प्रपात देखे,
उनकी चर्चा करते रहे। दो घंटे
के बाद जब हम वापस लौटे तो वे मुझसे बोले, बड़ा
सुंदर प्रपात था।
मैंने
कहा, आप यह बिलकुल झूठ कह रहे हैं, इस प्रपात को आपने देखा नहीं। यह प्रपात
आपको दिखाई नहीं पड़ा और मुझे अनुभव हुआ कि मैं एक अंधे आदमी को लेकर आ गया हूं।
वे
बोले, मतलब?
मैंने
कहा कि आप इतने उन प्रपातों के विचार से भरे थे, आपकी
आंखें इतनी बोझिल थीं, आपका चित्त इतना कंपित था, आपके भीतर इतनी स्मृतियां घूम रही थीं कि उन
सबके पार इस प्रपात को देखना असंभव था। इस प्रपात को देखने की जरूरत अगर अनुभव
होती तो उन सारी स्मृतियों को,
उन सारे विचारों को, उन सारे खयालों को छोड़ देने की जरूरत थी। जब
वे छूट जाते तो वह स्थान मिलता खाली और स्वच्छ, जहां
से इसके दर्शन हो सकते थे।
केवल
वे ही लोग जगत में दर्शन को उपलब्ध होते हैं जो निर्विचार देखना सीख जाते हैं।
जिनमें देखने की एक ऐसी क्षमता पैदा होती है जो विचार में नहीं, निर्विचार में है। और तब ऐसे लोगों ने ही यह
कहा है कि यह सारा जगत परमात्मा से आच्छन्न है, ऐसे
लोगों ने। ऐसे लोगों ने जब दरख्तों को देखा होगा, जिनकी
आंखें स्वच्छ और निर्मल हैं और जिनके चित्त विचार से ग्रसित नहीं हैं, तो दरख्त ही दिखाई नहीं पड़ता, दरख्त के भीतर जो प्राण की सत्ता है, वह अनुभव में आ जाती है। और जब वे आपको
देखेंगे, तो आपकी देह दिखाई नहीं पड़ती, बल्कि देह के पीछे जो आत्मा छिपी है, वह भी दिखाई पड़ जाती है।
जिनकी
आंखें निर्मल हैं और स्वच्छ हैं,
और जिनके चित्त निर्विचार हैं
और शांत हैं, उन्हें इस जगत के प्रत्येक कण-कण में
परमात्मा का अनुभव होना शुरू हो जाता है। जितनी गहरी दृष्टि उनकी होती जाती है, जितनी स्वच्छ और निर्मल, उतना ही यह जगत मिटता चला जाता है और इसकी
जगह परमात्मा का अनुभव शुरू हो जाता है। एक घड़ी आती है जब इस जगत में जगत नहीं रह
जाता, केवल ईश्वर शेष रह जाता है। वह घड़ी आनंद की
घड़ी है। वह घड़ी परम धन्यता की घड़ी है। उस घड़ी के बाद आपके भीतर संगीत बजना शुरू
होता है। उसके बाद फिर आप भिखमंगे नहीं रह जाते, उसके
बाद आप सम्राट हो जाते हैं। उसके बाद आप दरिद्र नहीं रह जाते। दुख और पीड़ाएं आपकी
गिर जाती हैं और भीतर अत्यंत वैभव की उपलब्धि होती है। उसको हम स्वर्ग कहें, उसे हम मोक्ष कहें, उसे हम निर्वाण कहें, उसे हम जो भी नाम देना पसंद करें, हम दे सकते हैं। मात्र इतनी ही घटना घटती है
कि आपको अपने भीतर सच्चिदानंद का अनुभव शुरू हो जाता है।
और यह
अनुभूति यदि मनुष्य को न हो पाए और ऐसी सभ्यता और संस्कृति जो इस अनुभूति की तरफ न
ले जाती हो, वह झूठी है, वह
मनुष्य-विरोधी है, वह घातक है, वह
विषाक्त है। और उसका जितनी जल्दी अंत हो जाए उतना बेहतर है। हमने अपने ही हाथों एक
ऐसी सभ्यता और संस्कृति को धीरे-धीरे जन्म दिया है, जो
हमें इस अनुभूति में ले जाने में बाधा बन रही है। उस अनुभूति तक ले जाने में
सहयोगी नहीं रह गई है। वह अनुभूति जिस संस्कृति से पैदा हो, वही संस्कृति मानवीय हो सकती है, वही संस्कृति मनुष्य के हित में हो सकती है, वही संस्कृति कल्याण और मंगलदायी हो सकती
है।
तो
मैंने ये थोड़ी सी बातें आपसे कही हैं। ये थोड़ी सी बातें इस आशा में मैंने कही हैं
कि आप चाहें तो अपने माध्यम से उस संस्कृति को जन्म देने में सहयोगी हो सकते हैं।
प्रत्येक मनुष्य सहयोगी हो सकता है। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य एक घटक है इस सारे
समाज का, सारी मनुष्यता का। जब मैं अपने को बनाता और
बिगाड़ता हूं, तो मैं साथ ही सारी मनुष्यता को बना और
बिगाड़ रहा हूं। जब मैं अपने भीतर शांति के आधार रखता हूं, तो मैं सारी मनुष्यता के लिए शांति का मार्ग
खोल रहा हूं। और जब मैं अपने भीतर अशांति और विषाद के बीज बोता हूं, तो मैं सारी मनुष्यता के लिए वही कर रहा
हूं। जो मैं अपने साथ कर रहा हूं,
वह अनजाने में सारे मनुष्य के
साथ कर रहा हूं, यह स्मरण होना जरूरी है। क्योंकि हम सारे
लोग घटक हैं, इकाइयां हैं। और हम बनाते हैं इस विश्व को।
हम अपने को निर्मित करके इस सारे जगत को बनाते हैं।
आज यह
दुनिया इतनी युद्ध, इतनी हिंसा, इतनी
घृणा, इतने वैमनस्य से भरी हुई है, इसके लिए कौन जिम्मेवार है? इसके लिए वे लोग जिम्मेवार हैं, जिन्होंने परमात्मा का अनुसंधान छोड़ दिया
है। इसके लिए वे लोग जिम्मेवार हैं,
जिन्होंने अंतरात्मा का
अनुसंधान छोड़ दिया है। क्योंकि मेरा मानना यह है, और मैं
समझता हूं यह बात आपकी समझ में आ सकेगी, कि जो
व्यक्ति अपने भीतर आनंद से भरा हुआ नहीं होगा, वह
व्यक्ति दूसरों को दुख देने में आनंद लेने लगता है। जो व्यक्ति अपने भीतर आनंद से
भरा हुआ नहीं होता, वह व्यक्ति दूसरे लोगों को दुख देने में
आनंद लेने लगता है। यह दुनिया इतनी दुखी है, क्योंकि
इतने दुखी लोग हैं, आनंद-शून्य और रहित, कि उनका एक ही आनंद रह गया है कि वे दूसरों
को पीड़ित करें, परेशान करें, दुखी
करें। जब वे दूसरे को दुखी देखते हैं तो उन्हें अपने सुखी होने का थोड़ा सा भ्रम
पैदा होता है। और अगर ऐसा होता रहा,
तो युद्ध बढ़ते जाएंगे, हमारे हाथ एक-दूसरे के गले पर कसते जाएंगे, और हमारे हृदय कठोर और पत्थर होते जाएंगे।
और शायद इसका अंतिम परिणाम यह हो कि हम सारे मनुष्य को समाप्त कर लें। हम उसकी
तैयारी में हैं।
पिछले
दो महायुद्धों में दस करोड़ लोगों की हमने हत्या की है। और कोई आदमी मुझे दिखाई
नहीं पड़ता जिसको यह खयाल हो कि इन दस करोड़ लोगों की हत्या में हमारा हाथ है। और
अभी हम तैयारी कर रहे हैं और बड़ी हत्या की। शायद सामूहिक आत्मघात, एक युनिवर्सल स्युसाइड की हम तैयारी में लगे
हैं। यह कोई राजनैतिक वजह नहीं है इसके पीछे, और न
इसके पीछे कोई आर्थिक वजह है। इसके पीछे बुनियादी वजह आध्यात्मिक है। जो लोग अंतस
में आनंद को अनुभव नहीं करेंगे,
उनका अंतिम परिणाम दूसरों को
दुख देना, दूसरों की मृत्यु में आनंद लेना होगा। वे
अंततः युद्ध में सुख लेंगे।
यह
शायद आपको पता न हो, पिछले दो महायुद्धों के समय एक अदभुत बात
सारे यूरोप में अनुभव हुई। और वह यह थी कि जब युद्ध चलते थे, तो लोगों ने आत्मघात बिलकुल नहीं किए। जब
युद्ध चलते थे, तो लोगों ने हत्याएं बहुत कम कीं। जब युद्ध
चलते थे, तो डाकेजनी और चोरी यूरोप में कम हो गई।
मनोवैज्ञानिक हैरान हुए कि यह क्या वजह है? युद्ध
चलता है तो लोग आत्महत्या क्यों नहीं करते? युद्ध
चलता है तो लोग एक-दूसरे की हत्या क्यों नहीं करते? युद्ध
चलता है तो डाकेजनी और चोरियां और अनाचार कम क्यों हो जाता है? तो पता चला, युद्ध
में इतनी हिंसा होती है कि उन सारे लोगों को काफी आनंद मिल जाता है, दूसरी हिंसा करने की जरूरत उन्हें नहीं रह
जाती।
जो लोग
दुखी होंगे, वे लोग दुख का संसार निर्मित करेंगे।
क्योंकि यह कैसे संभव है कि जो मेरे भीतर हो, उसके
अलावा मैं कुछ निर्मित कर सकूं?
आज दुनिया में अगर घृणा दिखाई
पड़ती है, वैमनस्य दिखाई पड़ता है, तो ये कोई ऊपरी बातें नहीं हैं, ये केवल लक्षण हैं कि भीतर आनंद नहीं है।
अगर भीतर आनंद हो तो आनंदित आदमी के जीवन में एक घटना घटती है, जो व्यक्ति जितने आनंद से भरता जाता है, उतना ही वह दूसरों को आनंदित करने की
प्रेरणा से भी भर जाता है। आनंदित व्यक्ति किसी को दुखी नहीं कर सकता। आनंदित
व्यक्ति के लिए असंभव हो जाता है कि वह दूसरे को पीड़ा दे और उसमें सुख माने। उसका
तो सारा जीवन आनंद को बांटना बन जाता है।
ब्लावट्स्की
सारी दुनिया में यात्रा की। वह भारत थी, और
दूसरे मुल्कों में थी। लोग उसे हमेशा देख कर हैरान हुए। वह एक झोला अपने साथ रखती
थी और जब गाड़ियों में बैठती,
तो उसमें से कुछ निकाल कर
बाहर फेंकती रहती। लोग उससे पूछे कि यह क्या है? उसने
कहा, कुछ फूलों के बीज हैं। अभी वर्षा आएगी, फूल खिलेंगे, पौधे
निकल आएंगे। लोगों ने कहा,
लेकिन तुम इस रास्ते पर
दुबारा निकलोगी, इसका तो कुछ पता नहीं। उसने कहा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फूल खिलेंगे, कोई उन फूलों को देख कर आनंदित होगा, यह मेरे लिए काफी आनंद है। उसने कहा, जीवन भर बस एक ही कोशिश की; जब से मुझे फूल मिले हैं, तब से फूल सबको बांट दूं, बस यही चेष्टा रही है। और जिस व्यक्ति को भी
फूल मिल जाएंगे, वह उनको बांटने के लिए उत्सुक हो जाएगा।
आखिर बुद्ध या महावीर क्या बांट रहे हैं? चालीस
वर्ष तक बुद्ध जीवित रहे। क्या बांट रहे हैं? किस
चीज को बांटने के लिए भाग रहे हैं और दौड़ रहे हैं? कोई
आनंद उपलब्ध हुआ है, उसे बांटना जरूरी है।
साधारण
आदमी, दुखी आदमी सुख को पाने के लिए दौड़ता है और
जो व्यक्ति प्रभु को अनुभव करता है वह सुख को बांटने के लिए दौड़ने लगता है। साधारण
आदमी सुख को पाने के लिए दौड़ता है और जो व्यक्ति प्रभु को अनुभव करता है वह सुख को
बांटने के लिए दौड़ने लगता है। एक की दौड़ का केंद्र वासना होती है, दूसरे की दौड़ का केंद्र करुणा हो जाती है।
आनंद करुणा को उत्पन्न करता है। और जितना आनंद भीतर फलित होता है, उतनी आनंद की सुगंध चारों तरफ फैलने लगती
है। आनंद की सुगंध का नाम प्रेम है। आनंद की सुगंध का नाम प्रेम है। जो व्यक्ति
भीतर आनंदित होता है, उसका सारा आचरण प्रेम से भर जाता है।
व्यक्ति अंतस में आनंद को उपलब्ध हो, तो
आचरण में प्रेम प्रकट होने लगता है। आनंद का दीया जलता है, तो प्रेम की किरणें सारे जगत में फैलने लगती
हैं। और जब दुख का दीया भीतर हो,
तो सारे जगत में अंधकार फैलता
है--वह घृणा का हो, वैमनस्य का हो।
यह
संस्कृति, यह सभ्यता जिसमें हम जी रहे हैं, अत्यंत जराजीर्ण है और अत्यंत मृत्यु के
कगार पर खड़ी है। जिनको थोड़ा भी होश है, वे इस
पर विचार करेंगे। और अगर वे विचार करेंगे, तो
मेरी बातों में उन्हें कोई सार्थकता दिखाई पड़ सकती है। और तब उनके सामने एक ही
कर्तव्य होगा, एक ही कर्तव्य, वह मनुष्य-जाति के बदलने का नहीं; उनके सामने एक ही कर्तव्य होगा, स्वयं को बदलने और परिवर्तित करने का। उनके
सामने एक ही कर्तव्य होगा कि वे अपने भीतर दुख को विलीन कर दें, विसर्जित कर दें और आनंद को उपलब्ध हो जाएं।
मैंने
बताया, कैसे वे आनंद को उपलब्ध हो सकेंगे। यदि वे
निर्विचारणा को साधते हैं,
तो उन्हें दर्शन उपलब्ध होगा।
और यदि उन्हें दर्शन उपलब्ध होगा,
तो यह जगत उन्हें पदार्थ
दिखाई नहीं पड़ेगा, प्रभु दिखाई पड़ने लगेगा। और अगर यह जगत सारा
प्रभु से आंदोलित दिखाई पड़ने लगे,
अगर यहां मुझे सारे लोगों के
भीतर परमात्मा का अनुभव होने लगे,
तो मेरे जीवन का आनंद, उसकी क्या सीमा रह जाएगी? क्योंकि जब किसी व्यक्ति को किसी दूसरे
व्यक्ति में परमात्मा का अनुभव होता है और जब किसी व्यक्ति को स्वयं में परमात्मा
का अनुभव होता है, तो सारी जगतसत्ता से एक हो जाता है। उसके
प्राण सारी जगतसत्ता से मिल जाते हैं। वह सारी जगतसत्ता के संगीत का एक स्वर हो
जाता है। और तब उसका जीवन,
तब उसकी चर्या, तब उसका उठना और बैठना, तब उसका सोचना और विचारना, तब उसके समस्त जीवन-उपक्रम आनंद को बांटने
लगते हैं, विस्तीर्ण करने लगते हैं।
सत्य
की खोज, इसलिए मैंने कही, कोई बौद्धिक जिज्ञासा मात्र नहीं है, बल्कि प्रत्येक मनुष्य के प्राणों के
प्राणों की प्यास है। और जो व्यक्ति इस प्यास को अनुभव नहीं कर रहा है या इस प्यास
की उपेक्षा कर रहा है, वह अपनी मनुष्यता का अपमान कर रहा है। वह
अपनी सबसे गहरी प्यास को,
अपनी सबसे गहरी भूख को अधूरा
छोड़ रहा है। और इसके दुष्परिणाम उसे भोगने पड़ेंगे।
हम
सारे लोग, अंतरात्मा की जो प्यास है, उसकी उपेक्षा करने का दुष्परिणाम भोग रहे
हैं। और यह दुष्परिणाम मिट सकता है। थोड़े विवेक के जागरण से, थोड़े विवेक के अनुकूल जीवन की साधना को
उपलब्ध होने से, थोड़ा विवेक के अनुकूल और प्रकाश के अनुकूल
अपने को व्यवस्थित करने से यह दुर्भाग्य विलीन हो सकता है।
ये
थोड़ी सी बातें मैंने कही हैं। इस आशा में नहीं कि मैं जो कहूं वह आप मान लें, क्योंकि मैं आपका कोई शत्रु नहीं हूं कि कुछ
विचार आपके मस्तिष्क में डाल दूं। इस आशा में मैंने ये बातें कही हैं कि इन बातों
को आप देखेंगे, मान नहीं लेंगे। इन बातों के प्रति जाग्रत
होंगे, इन्हें स्वीकार नहीं कर लेंगे। इन बातों की
सच्चाई अगर आपको अनुभव हो,
तो उसे अनुभव करेंगे, लेकिन इन विचारों को अपने भीतर नहीं रख
लेंगे। कोई विचार कितना ही मूल्यवान हो, फेंक
देने जैसा है। हां, उसमें जो अंतर्दृष्टि है, अगर वह आपके भीतर जग जाए, तो काम हो गया।
तो मैं
ये जो थोड़ी सी बातें कहा हूं,
आपको इनकी सच्चाई अगर अनुभव
हो तो ये आपके काम की हो जाएंगी,
और अगर ये विचार आपके भीतर
बैठ गए तो मैं और आपका बोझ बढ़ाने में सहयोगी हुआ। वह बोझ वैसे ही बहुत काफी है। वह
बोझ बहुत ज्यादा है। और उस बोझ से आप इतने दबे हैं कि अब उस बोझ को बढ़ाने की और
कोई जरूरत नहीं है। दुनिया को अब किसी पैगंबर की, किसी
तीर्थंकर की, किसी अवतार की कोई जरूरत नहीं है। वे काफी
हैं। दुनिया को किसी नये शास्त्र की, नये
संप्रदाय की, नये धर्म की कोई जरूरत नहीं है। वे जरूरत से
ज्यादा हैं। उनका बोझ बहुत है। अब दुनिया को जरूरत है कि आपके बोझ को उतारने का
कोई विचार हो सके। आपको निर्मुक्त और निर्बंध करने का कोई विचार हो सके। आपकी
यात्रा चित्त की सरल और सहज बनाने का कोई उपाय हो सके।
उस
संबंध में ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। हो सकता है कोई बात आपके भीतर अंतर्दृष्टि
बन जाए। और अंतर्दृष्टि बन जाए तो वह फिर आपकी हो जाती है, फिर वह मेरी नहीं रह जाती। अंतर्दृष्टि बन
जाए तो वह फिर आपकी हो जाती है,
फिर वह किसी और की नहीं रह
जाती। ऐसी अंतर्दृष्टि की कामना करता हूं, ऐसे
विचार की, ऐसी साधना की। और मनुष्य के इस दुर्भाग्य को
दूर करने की आपमें धारणा पैदा हो,
आपमें खयाल आए कि मनुष्य का
यह दुर्भाग्य दूर हो सके। और यह सामूहिक आत्मघात की जो तैयारी चलती है, हिंसा और घृणा का यह जो विकास चलता है, यह प्रेम से परिवर्तित हो सके।
लेकिन
वह प्रेम कोई जबरदस्ती आरोपित नहीं हो सकता कि आप सोचें कि हम प्रेम करें या किसी
से हम कहें कि तुम प्रेम करो,
तो उसका क्या मतलब होगा? और इस भांति जो कोई प्रेम भी करेगा, वह प्रेम तो झूठा होगा, उसमें कोई सच्चाई नहीं हो सकती। प्रेम किया
नहीं जा सकता और जबरदस्ती उसे रोपा नहीं जा सकता। प्रेम तो तब उत्पन्न होगा जब आप
आनंद को उपलब्ध होंगे। जब आपके भीतर आनंद होगा, आपके
बाहर प्रेम होगा। आनंद के फूल लगेंगे तो प्रेम की सुगंध आपसे फैलनी शुरू हो जाएगी।
वही सुगंध धार्मिक आदमी का लक्षण है। भीतर आनंद हो, बाहर
जीवन में सुगंध हो, प्रेम की सुगंध हो। ईश्वर करे आपको भीतर
आनंद उपलब्ध हो और बाहर प्रेम उपलब्ध हो जाए। उससे हम जगत को और स्वयं को बदलने
में और एक नई मनुष्यता को जन्म देने में समर्थ और सफल हो सकते हैं।
मेरी
इन बातों को प्रेम से सुना है,
उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत
हूं। अपने भीतर बैठे हुए परमात्मा के लिए अंत में मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
प्रश्न:
एक प्रश्न और ले लें।
हां, और कोई हों तो इकट्ठे ले लें, इकट्ठे ही चर्चा हो जाएगी।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
कोई
दूसरा प्रश्न पूछिए, वे तीनों एक ही हैं।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
अच्छी
बात है। करीब-करीब एक ही बात पूछी गई है, उसकी
मैं चर्चा कर लेता हूं। और सच में बहुत बातें पूछने को हैं भी नहीं। प्रश्न तो एक
ही है कि मनुष्य आनंद को कैसे खोजे?
आत्मा को कैसे खोजे? सत्य को कैसे खोजे?
और
मैंने आपसे कहा कि उस खोज का जो माध्यम है वह निर्विचार होना है। समाधि के माध्यम
से सत्य का अनुभव होता है या आत्मा का अनुभव होता है। समाधि का अर्थ है: सारे
विचारों का शून्य हो जाना। ये विचार कैसे शून्य हों, इसके
दो रास्ते हैं। एक रास्ता तो है कि हम अपने भीतर विचार का पोषण न करें। हम सारे
लोग विचार का पोषण करते हैं और संग्रह करते हैं। सुबह से सांझ तक हम विचार को
इकट्ठा करते हैं। और इस इकट्ठा करने में हम कभी यह भी ध्यान नहीं रखते कि हम कचरा
इकट्ठा कर रहे हैं? हम फिजूल का कचरा इकट्ठा कर रहे हैं या कोई
सार्थक बात भी इकट्ठा कर रहे हैं?
अगर
मेरे घर में कोई कचरा फेंक जाए तो मैं झगड़ा करूंगा। लेकिन अगर कोई आदमी आकर दो
घंटे मेरे दिमाग में कोई विचार फेंक जाए, मैं
कोई झगड़ा नहीं करता। दुनिया में एक-दूसरे के मस्तिष्क में विचार फेंकने की पूरी
स्वतंत्रता है। इससे खतरनाक और कोई स्वतंत्रता नहीं हो सकती। क्योंकि मनुष्य का
जितना घात ये विचार कर सकते हैं,
उतनी और कोई चीज नहीं कर
सकती। हम इस भांति जाने-अनजाने बिलकुल मूर्च्छित अवस्था में विचारों को इकट्ठा
करते रहते हैं। इन विचारों की पर्त पर पर्त हमारे भीतर पूरे चेतन-अचेतन मन पर
इकट्ठी हो जाती हैं। उनकी इतनी गहरी दीवालें बन जाती हैं कि उनके भीतर प्रवेश करना
मुश्किल हो जाता है। जब भी आप भीतर जाएंगे, ये ही
विचार आपको मिल जाएंगे, आत्मा तक पहुंचना संभव नहीं होगा। ये विचार
बीच में ही आपको रोक लेंगे,
भीतर नहीं जाने देंगे। हर
विचार अटकाता है और रोकता है। क्योंकि विचार आपको उलझा लेता है। जब भी आप भीतर
अपने प्रवेश करेंगे, तभी कोई न कोई विचार आपको रोक लेगा, आप उसी के अनुसरण में लग जाएंगे। जब तक
विचार बीच में रहेंगे, तब तक आपको पीछे नहीं जाने देंगे, वे ही रोक लेंगे।
निर्विचार
होने का इसीलिए आग्रह है कि जब तक आप निर्विचार न हो जाएं, तब तक भीतर गति नहीं हो सकती; आप बीच में जाएंगे, कोई विचार आपको अटका लेगा, आप उसी को सोचने में लग जाएंगे। सोचने में
लग जाएंगे, बाहर आ जाएंगे। वह विचार आपको बहुत दूर ले
जाएगा। उसके एसोसिएशंस होंगे,
वह आपको दूर ले जाएगा, आप वहीं भटक जाएंगे। आप पूरे भीतर प्रवेश
नहीं कर पाएंगे। हर आदमी भीतर जाता है, जितना
ज्यादा विचारवान आदमी होता है,
विचार से भरा होता है, उतने बाहर से ही लौट आता है। उतने ही जल्दी
कोई विचार उसको पकड़ लेता है,
वह वापस लौट आता है।
ब्रिटिश
विचारक डेविड ह्यूम ने लिखा है कि मैंने यह सुन कर कि भीतर प्रवेश करना चाहिए, बहुत बार भीतर प्रवेश करने की कोशिश की।
लेकिन जब भी मैं भीतर गया,
तो मुझे आत्मा तो नहीं मिली, कोई विचार मिल जाता था, कोई कल्पना मिल जाती थी, कोई स्मृति मिल जाती थी। मुझे कोई आत्मा
नहीं मिली। मैं बहुत बार भीतर गया,
ये ही मुझे मिले।
उसने
ठीक लिखा। उसका अनुभव गलत नहीं है। आप भी अपने भीतर जाएंगे तो यही मिल जाएंगे; और ये आपको बाहर ले आएंगे।
तो
जिसको भीतर जाना हो, पूरे भीतर जाना हो, उसे बीच की इन सारी बाधाओं को अलग कर देना
जरूरी है।
तो
पहली तो बात यह है कि जिसे निर्विचार होना हो, उसे
व्यर्थ के विचारों को लेना बंद कर देना चाहिए, पहली
बात।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
हां, मैं बात कर रहा हूं। मैं उसकी बात कर रहा
हूं।
उसे
व्यर्थ के विचारों को लेना बंद कर देना चाहिए। इसकी सजगता उसके भीतर होनी चाहिए कि
वह व्यर्थ के विचारों का पोषण न करे, उन्हें
अंगीकार न करे, उन्हें स्वीकार न करे और सचेत रहे कि मेरे
भीतर विचार इकट्ठे न हो जाएं। इसे करने के लिए जरूरी होगा कि वह विचारों में जितना
भी रस हो, उसको छोड़ दे।
हमें
विचारों में बहुत रस है। अगर आप एक धर्म को मानते हैं, तो उस धर्म के विचारों में आपको बहुत रस है।
जिसे
निर्विचार होना है, उसे विचारों के प्रति विरस हो जाना चाहिए।
उसे किसी विचार में कोई रस नहीं रह जाना चाहिए। उसे यह सोचना चाहिए कि विचार से
कोई प्रयोजन नहीं, इसलिए उसमें कोई रस रखने का कारण नहीं।
कैसे
वह विरस होगा? उन्होंने वहां पूछा कि कैसे यह संभव होगा?
यह
संभव होगा विचारों के प्रति जागरूकता से। अगर हम अपने विचारों के साक्षी बन
सकें--और यह बन सकना कठिन नहीं है--अगर हम अपने विचारों की धारा को दूर खड़े होकर
देखना शुरू करें, तो क्रमशः जिस मात्रा में आपका साक्षी होना
विकसित होता है, उसी मात्रा में विचार शून्य होने लगते हैं।
बुद्ध
का एक शिष्य था, श्रोण। वह राजकुमार था। मुझे उसकी कथा इतनी
प्रिय रही कि मैंने सारे मुल्क में बार-बार उसे कहा। और मुझे उसके मुकाबले कोई बात
भी नहीं दिखाई पड़ती। वह राजकुमार था, वह
दीक्षित होकर भिक्षु हो गया,
साधु हो गया। पहले दिन जब वह
भिक्षा मांगने जाने लगा तो बुद्ध ने उसे कहा कि अभी तुझे भिक्षा मांगने का कुछ पता
नहीं, कल तक राजकुमार था, आज भिक्षा के पात्र को लेकर जाएगा, पता नहीं कैसा तुझे लगे। इसलिए मैंने अपनी
एक श्राविका को कहा है कि जब तक तू भिक्षा के मांगने में निष्णात न हो जाए, तब तक भोजन वहीं कर लेना। तो अभी तू भिक्षा
मत मांग, वहां जाकर भोजन कर आ।
वह
राजकुमार श्रोण जो कि संन्यासी हो गया था, उस
श्राविका के घर भोजन करने गया,
उस महिला के घर भोजन करने
गया। कोई दो मील का फासला था,
वह रास्ते पर बहुत बातें
सोचने लगा। उसे खयाल आया उन भोजनों का जो उसे प्रिय थे। और उसने आज सोचा: आज पता
नहीं क्या अप्रिय भोजन मिले,
क्या अरुचिकर भोजन मिले, क्या रूखा-सूखा मिले। उसे जो-जो प्रिय भोजन
थे वे सब स्मरण आए और यह भी खयाल आया कि अब उनके मिलने की संभावना इस जीवन में
दुबारा नहीं है। लेकिन जब वह श्राविका के घर पहुंचा और भोजन के लिए बैठा, तो देख कर हैरान हुआ, उसकी थाली में वे ही भोजन थे जो उसे प्रिय
थे। उसे बड़ी हैरानी हुई! उसे बहुत अचंभा हुआ! फिर उसने सोचा, शायद यह संयोग की ही बात होगी कि आज ये भोजन
बने हैं। उसने चुपचाप भोजन किया।
जब वह
बीच में भोजन कर रहा था,
उसे यह खयाल आया कि अभी भोजन
करने के बाद एकदम फिर दो मील दोपहरी में रास्ता तय करना है। और आज तक मैंने ऐसा
कभी नहीं किया, भोजन के बाद तो मैं विश्राम करता था।
वह
श्राविका पंखा करती थी, उसने कहा कि भंते, अगर भोजन के बाद थोड़ी देर विश्राम करेंगे तो
मुझ पर बड़ी कृपा होगी।
वह फिर
थोड़ा हैरान हुआ, उसे लगा कि मैंने तो कहा नहीं, मन में सोचा था। लेकिन सोचा, शायद संयोग की बात होगी, मैंने सोचा, उसी
वक्त उसने प्रार्थना की है।
एक
चटाई डाल दी गई, वह उस पर लेटा। वह लेटते से ही उसे खयाल आया, आज अपना न तो कोई साया है, न कोई शय्या है, आज अपने पास कुछ भी नहीं।
वह
श्राविका पीछे थी, उसने कहा, भंते, शय्या न तो आपकी है, न मेरी है; न साया
आपका है, न मेरा है; किसी
का भी कुछ नहीं है।
अब
संयोग को मान लेना कठिन था। वह घबड़ा कर बैठ गया। उसने कहा, बात क्या है? क्या
मेरे विचार पढ़ लिए जाते हैं?
उस
श्राविका ने कहा कि ध्यान का अभ्यास करते-करते, पहले
तो अपने विचार दिखाई देने शुरू हुए,
फिर अपने विचार तो समाप्त हो
गए, अब दूसरे के विचार भी दिखाई देने शुरू हो गए
हैं।
वह उठ
कर बैठ गया। उसने कहा कि मैं जाऊं?
उस श्राविका
ने कहा कि आप अभी विश्राम कहां किए,
लेटे ही थे।
लेकिन
वह भिक्षु रुका नहीं। उसने जाकर बुद्ध को कहा कि मैं कल से उस श्राविका के यहां
भोजन करने नहीं जा सकूंगा।
बुद्ध
ने कहा, क्या बात है?
वह
युवक कहने लगा कि बात...मेरा कोई अपमान नहीं हुआ, बहुत
स्वागत हुआ, बहुत सम्मान हुआ, लेकिन मैं नहीं जाऊंगा, आप छोड़ दें उस बात को, उस श्राविका के यहां मैं नहीं जाऊंगा।
बुद्ध
ने कहा, बिना जाने मैं कैसे छोड़ सकता हूं?
वह
युवक बोला, जानने की बात यह है कि मैं उसके घर गया; वह विचार पढ़ने में समर्थ है। और मुझे तो उस
सुंदर युवती को देख कर विकार और वासना भी मन में उठी थी, वह भी पढ़ ली गई होगी। अब मैं कल उसके द्वार
पर कैसे जा सकता हूं? और किस मुंह को लेकर जाऊंगा?
बुद्ध
ने कहा, मैंने जान कर तुम्हें वहां भेजा है, यह तुम्हारी साधना का हिस्सा है। कल भी
तुम्हें वहीं जाना होगा,
और परसों भी तुम्हें वहीं
जाना होगा, और उसके बाद के दिनों में भी तुम्हें वहीं
जाना होगा। उस दिन तक जिस दिन तक उस द्वार से तुम निर्विचार होकर न लौट आओ।
मजबूरी
थी, उस भिक्षु को वहां जाना पड़ा। बुद्ध ने कहा
कि एक स्मरण रखना, किसी विचार से लड़ना मत। किसी विचार से संघर्ष
मत करना। किसी विचार के विरोध में खड़े मत होना। एक ही काम करना कि जब तुम रास्ते
से जाओ, तो अपने भीतर सजगता को रखना और जो भी विचार
उठते हों उनको देखते हुए जाना। सिर्फ मात्र देखते हुए जाना, और कुछ भी मत करना। तुम्हारा निरीक्षण, तुम्हारा ऑब्जर्वेशन बना रहे। तुम देखते रहो, अनदेखा कोई विचार न उठे, बेहोशी में कोई विचार न उठे। तुम्हारी आंख
भीतर गड़ी रहे और तुम देखते रहो कि कौन विचार उठ रहे हैं। सिर्फ निरीक्षण करना, लड़ना मत।
वह
युवक गया। जैसे-जैसे उस महिला का द्वार करीब आने लगा, मकान करीब आने लगा, उसकी घबड़ाहट और बेचैनी बढ़ने लगी। उसको
परेशानी बढ़ने लगी। जैसे-जैसे बेचैनी बढ़ने लगी, वैसे-वैसे
वह सजग होने लगा। जैसे-जैसे भय का बिंदु करीब आने लगा, जैसे-जैसे लगने लगा कि अब वह महिला करीब ही
होगी जो पढ़ सकती है, वैसे-वैसे वह अपनी आंख को भीतर खोलने लगा।
जब वह सीढ़ियां चढ़ता था, उसने पहली सीढ़ी पर पैर रखा, उसने अपने भीतर देखा, वह हैरान हो गया, भीतर कोई विचार ही नहीं है! उसने दूसरी सीढ़ी
पर पैर रखा, भीतर बिलकुल सन्नाटा मालूम हुआ। उसने तीसरी
सीढ़ी पर पैर रखा, उसे वह दिखाई पड़ा अपने आर-पार देख रहा है, वहां एकदम खालीपन है, वहां कोई विचार नहीं है। वह बहुत घबड़ाया, ऐसा उसने कभी अनुभव नहीं किया था कि बिलकुल
विचार ही न हों। और जब विचार बिलकुल नहीं थे तो उसे ऐसा लगा कि जैसे वह बिलकुल हवा
हो गया, हलका हो गया।
वह गया, उसने भोजन किया, वह नाचता हुआ वापस लौटा। उसने बुद्ध के पैर
पकड़ लिए और उसने कहा कि अदभुत अनुभव हुआ है। जब मैं उसकी सीढ़ियों पर पहुंच कर भीतर
बिलकुल सजग हो गया था, सचेत हो गया था, होश से भर गया था, तो मैं हैरान हो गया, एक भी विचार नहीं था, सब विचार शून्य हो गए थे।
बुद्ध
ने कहा, विचार को शून्य करने का उपाय है विचार के
प्रति पूर्ण सजग हो जाना। जो व्यक्ति जितना सजग हो जाएगा विचारों के प्रति, उतने ही विचार उसी भांति उसके मन में नहीं
आते, जैसे घर में दीया जलता हो तो चोर न आएं। और
घर में अंधकार हो तो चोर झांकें और अंदर आना चाहें।
भीतर
जो होश को जगा लेता है, उतने ही विचार क्षीण होने लगते हैं। जितनी
मूर्च्छा होती है भीतर, जितना सोयापन होता है भीतर, उतने ज्यादा विचारों का आगमन होता है। जितना
जागरण होता है, उतने ही विचार क्षीण होने लगते हैं।
निर्विचार
होने का उपाय है: विचारों के प्रति साक्षी-भाव को साधना। कोई एक क्षण में सध जाएगा, यह नहीं कहता। कोई एक दिन में सध जाएगा, यह भी नहीं कह रहा हूं। लेकिन अगर निरंतर
प्रयास हो, तो थोड़े ही दिनों में आपको पता चलेगा कि
जैसे-जैसे आप विचारों को देखने लगेंगे...कभी घंटे भर को किसी एकांत कोने में बैठ
जाएं और कुछ भी न करें, सिर्फ विचारों को देखते रहें। कुछ भी न करें
उनके साथ, कोई छेड़-छाड़ न करें, सिर्फ उन्हें देखते रहें। और देखते-देखते ही
धीरे-धीरे आपको पता चलेगा,
वे कम होने लगे हैं। देखना
जैसे-जैसे गहरा होगा, वैसे-वैसे वे विलीन होने लगेंगे। जिस दिन
देखना पूरा हो जाएगा, जिस दिन आप अपने भीतर आर-पार देख सकेंगे, जिस दिन आपकी आंख बंद होगी और आपकी दृष्टि
भीतर पूरी की पूरी देख रही होगी,
उस दिन आप पाएंगे--कोई विचार
का कोलाहल नहीं है, वे गए। और जब वे चले गए होंगे, उसी शांत क्षण में आपको अदभुत दृष्टि, अदभुत दर्शन, अदभुत
आलोक का अनुभव होगा। वह अनुभव ही सत्य का दर्शन है। और वही अनुभव स्वयं का दर्शन
है। स्वयं के माध्यम से ही सत्य जाना जाता है। और कोई द्वार नहीं है।
स्वयं
के द्वार से ही सत्य को जाना जाता है। और सत्य को जान लेना आनंद में प्रतिष्ठित हो
जाना है। असत्य में होना दुख में होना है। अज्ञान में होना दुख में होना है। और
सत्य की उस ज्ञान-दशा में आनंद उपलब्ध होता है।
आनंद
और आत्मा अलग न समझें। आनंद और सत्य अलग न समझें। स्वयं और सत्य अलग न समझें। ऐसी
जो प्रक्रिया का उपयोग क्रमशः अपने जीवन में करेगा, वह कभी
निर्विचार को अनुभव कर लेता है। निर्विचार को जो अनुभव कर लेता है, उसकी पूरी विचार की शक्ति जाग्रत हो जाती है, उसे चक्षु मिल जाते हैं।
जैसे
किसी ने अंधेरे में प्रकाश कर दिया हो या जैसे किसी ने अंधे को आंख दे दी हों, ऐसा उसे अनुभव होता है। यह अगर क्रमिक साधना
इसकी हो तो निश्चित ही उपलब्ध हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अधिकारी है और हकदार
है। जो अपने अधिकार को मांगेगा,
उसे मिल जाता है। जो उसे छोड़े
रखता है, वह खो देता है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
बिलकुल
ही ठीक कह रहे हैं, कि अगर हमें इंजीनियरिंग सीखनी हो, टेक्नोलॉजी सीखनी हो, तो हमें दूसरों का विचार स्वीकार करना होगा।
लेकिन अगर हमें प्रेम सीखना हो,
तो हमें दूसरों का विचार नहीं
लेना होगा। टेक्नोलॉजी में और धर्म में यही अंतर है। जो चीज सीखी जा सकती है, वह पदार्थ से संबंधित होती है। और जो चीज
नहीं सीखी जा सकती, वह परमात्मा से संबंधित होती है। परमात्मा
को सीखा नहीं जा सकता; नहीं तो फिर स्कूल-कालेज खोल लेंगे और सब
मामला आसान हो जाएगा।
इस बात
को स्मरण रखिए, साइंस सीखी जा सकती है, साइंस दूसरों के अनुभव का निचोड़ है; धर्म नहीं, धर्म
अपना अनुभव है। और यहीं धर्म और साइंस बड़ी विभिन्न दिशाएं हैं। साइंस हमेशा परंपरा
है; धर्म परंपरा नहीं है। साइंस पर एक वैज्ञानिक
दूसरे वैज्ञानिक के कंधे पर खड़ा होता है। धर्म पर अपने ही पैरों पर खड़ा होना होता
है; किसी का कंधा सहारा नहीं बन सकता। न्यूटन को
हटा दें तो आइंस्टीन के खड़े होने की जगह न रह जाएगी। महावीर-बुद्ध हो हटा दें, फिर भी मैं खड़ा हो सकता हूं।
सवाल
यह नहीं है। धर्म निजी और वैयक्तिक अनुभव है। साइंस सामाजिक अनुभव है। इसलिए साइंस
सीखी जाती है, उसके कालेज हो सकते हैं, संस्थाएं हो सकती हैं। सत्य नहीं सीखा जा
सकता। सत्य को तो स्वयं साधा जा सकता है, सीखा
नहीं जा सकता। वह हमेशा निजी है। और निजी है इसलिए अदभुत है। निजी है इसलिए अदभुत
है। साइंस की दिशा अलग है और धर्म की दिशा अलग है।
मैं
समझता हूं--समय नहीं है,
अन्यथा मैं उस पर और विस्तार
से आपसे बात करता--फिर भी मैं सोचता हूं शायद मेरी बात थोड़ी-बहुत साफ हो सकी होगी।
एक-दो
छोटे से प्रश्न और हैं।
एक तो
पूछा है कि हाथी विचार नहीं करता,
तो क्या वह आनंद को और
आत्मज्ञान को उपलब्ध हो जाता है?
यह
बहुत ही अच्छी बात पूछी है।
आपको
जो यह विचार उठा, मुल्क में बहुत लोग मुझसे यह पूछते हैं।
लेकिन निर्विचार होने में और विचारहीन होने में अंतर है। विचारहीन होने में और
निर्विचार होने में अंतर है। निर्विचार का अर्थ है: जिसने विचारों का परित्याग
किया हो। जो विचारों का परित्याग करने में समर्थ होता है, उसकी विचार-शक्ति जाग्रत हो जाती है। और
विचारहीन होने का अर्थ है: जिसमें विचार का कोई होना ही नहीं है। वह विचार का अभाव
है, एक। एक विचार-शक्ति का सदभाव है। निर्विचार
होने से विचारहीन नहीं हो जाते आप,
परिपूर्ण विचार को उपलब्ध
होते हैं।
मैंने
कहा कि निर्विचारणा जो है विचार-शक्ति के परिपूर्ण जागरण का उपाय है। विचारहीन
होने को नहीं कह रहा हूं,
निर्विचार होने को कह रहा
हूं। अविवेक के लिए नहीं कह रहा हूं, पूरे
विवेक को जगाने के लिए कह रहा हूं।
तो
पशुओं में विचारणा नहीं है;
वह विचार से भी नीचे की दशा
है। मनुष्यों में विचार है;
वह विचारहीनता से ऊपर की दशा
है। संतों में निर्विचार है;
वह विचार से भी ऊपर की अवस्था
है। अविचार, विचार और निर्विचार, ये तीन सीढ़ियां हैं। और अक्सर जो नीचे की
सीढ़ी है, वह ऊपर की सीढ़ी से मिलती-जुलती होती है।
वहां वृत्त पूरा होता है। इसीलिए एकदम अबोध व्यक्ति और परिपूर्ण साधु में कुछ
समानताएं मालूम होंगी। एकदम अज्ञानी में और परमज्ञानी में कुछ समानताएं मालूम
होंगी। उनका व्यवहार कुछ एक सा लगेगा। और अनेक दफा भूल हो जाएगी। उसका कारण है कि
दो परिपूर्णताएं एक जगह जाकर मिलती हैं। वह भी अबोध मालूम होगा, परमज्ञानी जो है बिलकुल अबोध मालूम होगा।
अत्यंत बोध के कारण अबोध मालूम होगा। बहुत प्रकाश हो जाए तो आंख अंधी हो जाती है।
यहां इतना प्रकाश हो तो आंख बंद हो जाती है। बिलकुल प्रकाश न हो तो अंधकार हो जाता
है। बहुत प्रकाश हो जाए तो भी अंधकार हो जाता है। लेकिन बहुत प्रकाश से जो पैदा
हुआ अंधकार है उसकी गरिमा अलग है और प्रकाश के न होने से जो अंधकार होता है उसका
पतन अलग है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें