तीसरा--प्रवचन
जिज्ञासा
और खोज
बहुत
से प्रश्न मेरे सामने आए हैं। सबसे पहले, सुबह
मैंने कहा, जो हम नहीं जानते हैं, भलीभांति जानना चाहिए कि हम नहीं जानते हैं।
इस संबंध में पूछा है कि हम अपने बच्चों को न बताएं कि ईश्वर है? क्या धर्म के संबंध में उन्हें कुछ भी न
कहें? आत्मा के लिए कोई उन्हें विश्वास न दें? ऐसे कुछ प्रश्न पूछे हैं।
जिसे
हम नहीं जानते हैं, उसे हम देना भी चाहेंगे, तो क्या दे सकेंगे? और जो हमें ही ज्ञात नहीं है, क्या उस बात की शिक्षा, हमारे संबंध में बच्चे के मन में आदर पैदा करेगी? क्या यह असत्य की शुरुआत न होगी? और क्या असत्य पर भी ईश्वर का ज्ञान कभी खड़ा
हो सकता है?
और क्या असत्य के ऊपर हम सोच सकते हैं कि
बच्चा कभी धार्मिक हो जाएगा?
यह दुनिया अधार्मिक इसी तरह
हो गई है। यह दुनिया धार्मिक हो सकती थी। लेकिन जिन लोगों ने स्वयं बिना जाने
शिक्षाएं दी हैं, उन्होंने इस दुनिया को अधर्म के अंधकार में
भेज दिया है।
दो ही
परिणाम होते हैं उस शिक्षा के। बच्चा आज नहीं कल बड़ा हो जाएगा और भलीभांति जानेगा
कि उसके पिता ने, उसके गुरु ने जो उसको कहा था, वह झूठ था। वे खुद भी नहीं जानते थे। इस
सत्य को कब तक छिपाए रखिएगा कि आप नहीं जानते हैं। आपका जीवन कह देगा, आपका आचरण कह देगा। सब तरफ से खबर मिल जाएगी
बच्चों को कि पिता भी नहीं जानते हैं कि ईश्वर है। तब ईश्वर पर तो श्रद्धा पैदा
नहीं होगी, हां, पिता
पर जरूर अश्रद्धा पैदा हो जाएगी। यह बच्चों की जो श्रद्धा उठती चली गई है मां में, पिता में, गुरु
में, यह अकारण नहीं है। आप इसके लिए जिम्मेवार
हैं। आपने ऐसे झूठ उन्हें सिखाए हैं, जो
थोड़े दिनों में वे समझ जाते हैं कि झूठ हैं। और तब आपके प्रति सारा आदर, सारा सम्मान तिरोहित हो जाता है।
यह जो
इस खयाल से हम शिक्षा देते हैं कि शायद ईश्वर के संबंध में न बताएंगे तो फिर बच्चा
ईश्वर को न जान सकेगा, तो क्या आप समझते हैं, आपके बताने से वह ईश्वर को जान लेता है? तो अब तक सारे लोगों ने ईश्वर को जान लिया
होता। क्योंकि सभी के मां-बाप तो बच्चों को बता देते हैं कि ईश्वर है, आत्मा है।
नहीं, इससे जानने का कोई संबंध नहीं है। बल्कि
इससे जीवन में एक झूठ की शुरुआत होती है, जिसका
फिर कोई अंत नहीं होता। जिस झूठ को आपने अपने बच्चों से दोहराया है, आपके बच्चे भी अपने बच्चों से दोहरा देंगे
बस, इतना हो सकता है। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं
हो सकता। और क्या कोई ईश्वर ऐसी चीज है कि आप किसी को सिखा सकते हैं?
मैं एक
अनाथालय में गया था। वहां के संयोजकों ने मुझसे कहा कि हम अपने बच्चों को धर्म की
शिक्षा देते हैं! तो मैंने उनसे कहा कि यह बड़े आश्चर्य की बात होगी, क्योंकि मैं तो आज तक समझ ही नहीं पाया कि
धर्म की भी शिक्षा हो सकती है! धर्म की साधना तो हो सकती है, लेकिन शिक्षा नहीं हो सकती। फिर भी आप कहते
हैं, तो मैं समझना चाहूंगा कैसी शिक्षा देते हैं? हां, हिंदू
होने की शिक्षा हो सकती है,
मुसलमान होने की शिक्षा हो
सकती है, लेकिन धर्म की शिक्षा नहीं हो सकती। बच्चे
को हिंदू बनाया जा सकता है,
मुसलमान, जैन और ईसाई बनाया जा सकता है, लेकिन धार्मिक नहीं।
तो
मैंने उनसे कहा कि मैं समझना चाहूंगा कि धर्म की क्या शिक्षा आप देते हैं? और अब तक दुनिया में बच्चों के साथ धर्म के
नाम पर यही किया गया है--उनको हिंदू बनाया जाता है, मुसलमान, ईसाई, जैन
बनाया जाता है। और इस बनाए जाने से जितना अधर्म जमीन पर फैला है, किसी और बात से फैला है? हिंदू होना, मुसलमान
होना, जैन होना कितनी कुरूपता की बात है, कितनी अग्लीनेस की बात है? कोई आदमी आदमी न हो, हिंदू हो, मुसलमान
हो, जैन हो, यह कोई
सौंदर्य की बात है? और यह जो खंडित आदमी है, जो एक समूह से बंध जाता है, इस बंधे हुए आदमी ने कितने उपद्रव किए हैं, इसका कुछ पता है? कितनी हत्याएं की हैं, कितना रक्त बहाया है, इसका कोई पता है?
अगर
मां-बाप अपने बच्चों को प्रेम करते हैं, तो वे
कभी उनको हिंदू, मुसलमान और ईसाई होने की शिक्षा न देंगे।
क्योंकि जमीन पर इतना उपद्रव हुआ है, इन
शिक्षाओं के कारण कि अब कोई मां और कोई बाप यह नहीं चाह सकता है कि उसका बच्चा भी
हिंदू होकर कटे, या मुसलमान होकर कटे, या किसी को काटे, या मंदिर जलाए, या मस्जिद गिराए।
जो
मां-बाप अपने बच्चों को प्रेम करते हैं, उनके
प्रेम का पहला लक्षण यह होगा कि बच्चे को मनुष्य की भांति बड़ा करें, हिंदू-मुसलमान की भांति नहीं। क्योंकि ये
महामारियां, ये बड़े-बड़े रोग आदमी को कितने खड्डों में और
अंधकार में ले गए हैं!
तो
मैंने उनसे कहा कि यह तो हो सकता है कि आप हिंदू बनाते हों, मुसलमान बनाते हों, लेकिन धार्मिक होने की क्या शिक्षा देते
होंगे? उन्होंने कहा कि नहीं, आप देख कर प्रसन्न होंगे। मैं उनके बच्चों
को देखने गया। सौ के करीब बच्चे थे। उन्होंने खुद ही उन बच्चों से पूछा कि बताओ, ईश्वर है? उन सभी
बच्चों ने हाथ ऊपर उठा दिए कि ईश्वर है। उनको सिखाया गया था। उन्होंने पाठ सीख
लिया था और हाथ उन्होंने ऊपर उठा दिए। और उन्होंने पूछा कि ईश्वर कहां वास करता है? तो उन सबने अपने हृदय के ऊपर हाथ रख दिए कि
यहां। यह जो उनको सिखाया गया था,
जैसे हम बच्चों को कवायद करना
सिखा देते हैं और लेफ्ट टर्न और राइट टर्न सिखा देते हैं! बाएं घूमो, दाएं घूमो, रुको, ठहरो! वैसे ही उनको यह भी सिखा दिया गया था
कि ईश्वर कहां है? उन्होंने सबने हाथ उठा दिए यहां।
मैंने
एक छोटे से बच्चे से पूछा कि हृदय कहां है? उसने
कहा, यह तो हमें बताया नहीं गया, यह तो हमारी किताब में भी नहीं लिखा हुआ है।
उसे हृदय का कोई पता नहीं था,
लेकिन जब उससे पूछा गया कि
ईश्वर कहां है, तो उसने बताया, यहां। स्वभावतः जो उसे बताया गया था, जो उसे सिखाया गया था वह उसने बता दिया था।
लेकिन क्या वह जानता है कि यहां क्या है?
नहीं, परीक्षा उत्तीर्ण हो जाएगा, धर्म की शिक्षा पा लेगा। हो सकता है, प्रथम भी आ जाए, पुरस्कार भी पा जाए, खुश होता हुआ घर लौट जाए और शिक्षक भी खुश
हों, संयोजक भी खुश हों कि बच्चा धर्म की शिक्षा
लेकर घर आ गया। और बच्चा क्या लेकर घर आया? बच्चा
धर्म लेकर घर नहीं आया है,
कुछ शब्द लेकर घर आ गया है।
और वे शब्द इतने खतरनाक सिद्ध होंगे कि धर्म को कभी भीतर प्रवेश न करने देंगे।
क्योंकि जिंदगी में जब भी प्रश्न उठेगा, ईश्वर
है? तो वह बचपन में सीखी गई बात जो मन के गहरे
तल में प्रविष्ट हो गई होगी,
वह कहेगी, है। और जब प्रश्न उठेगा, कहां? तो वह
मन के गहरे तल में बैठ गई बात कहेगी, यहां।
और यह हाथ भी झूठा होगा,
यह गेस्चर झूठ होगा और यह
उत्तर भी झूठ होगा कि ईश्वर है,
क्योंकि यह सीखा हुआ है।
धर्म
के संबंध में जो भी सीखा हुआ है वह झूठा होता है। और जिंदगी भर, वह बूढ़ा हो जाएगा, फिर भी वह बचपन में जो सीख लिया था, उसका पीछा करेगा। और जब भी कोई पूछेगा, ईश्वर है? वह
कहेगा, है। वह वही छोटा बच्चा, बूढ़ा हो गया है। कोई फर्क नहीं पड़ा। वही
उत्तर जिंदगी भर उसी तरह का उत्तर दोहराता रहेगा। और जब उत्तर मिल गया तो खोजेगा
क्यों? उसे जब मालूम हो गया है, ईश्वर है, तब वह
खोज क्या करेगा? दुर्भाग्य हो गया यह उत्तर, क्योंकि उसने खोज बंद कर दी है।
दुनिया
में ईश्वर की खोज बंद हो गई है,
क्योंकि धार्मिक पुरोहितों और
पंडितों ने इतनी शिक्षा--इतनी शिक्षा दे दी है कि सभी मान गए हैं कि ईश्वर है, इसलिए खोज बंद हो गई है। कोई नहीं खोजता।
खोजते हम उसे हैं--खोजते ही हम उसे हैं, जो
हमारे सामने प्रश्न बन कर खड़ा हो जाता है, उत्तर
बन कर नहीं। जो उत्तर बन जाता है,
उसकी खोज बंद हो जाती है।
ईश्वर होना चाहिए एक प्रश्न,
एक उत्तर नहीं। आत्मा होनी
चाहिए एक प्रश्न, एक उत्तर नहीं।
तो
मैंने उनको कहा कि बच्चों को प्रश्न सिखाएं, उत्तर
नहीं--अगर बच्चों को धार्मिक बनाना है। आपको पता नहीं है कि ईश्वर है, तो अपने बच्चे को मत सिखाएं कि ईश्वर है।
बच्चे को कहें कि मैं भी खोज रहा हूं, लेकिन
अब तक मुझे कुछ पता नहीं चला। मेरे प्राण भी प्यासे हैं कि मैं जानूं कि यह क्या
है जीवन। लेकिन मुझे पता नहीं है। तुम भी खोजना। हो सकता है, मैं न खोज पाऊं। तुम मेरी खोज को पूरा करना।
तुम भी पूछना, तुम भी जिज्ञासा करना।
तो
बच्चे को सिखाएं जिज्ञासा,
बच्चे को सिखाएं प्रश्न, बच्चे को सिखाएं इंक्वायरी। बच्चे को उत्तर
न सिखाएं। अगर बच्चे को कभी धार्मिक बनाना है, तो
उसको ऐसी जिज्ञासा सिखाएं कि जब तक वह खुद न जान ले, तब तक
मानने को कभी राजी न हो। उसको इतना साहस सिखाएं कि जब तक वह न जान ले, तब तक दुनिया की कोई ताकत उसको मानने के लिए
न झुका सके। वह चाहे मर जाए,
लेकिन वह यह कहे कि मैं खोज
लूंगा--तभी स्वीकार करूंगा,
तभी मानूंगा--उसके पहले नहीं।
क्योंकि उसके पहले जो मान लेता है,
उसकी खोज बंद हो जाती है।
जिसकी खोज बंद हो जाती है,
वह कभी ज्ञान को उपलब्ध नहीं
होता।
तो
बच्चे को सिखाएं न कि ईश्वर है। बल्कि बच्चे के मन में जिज्ञासा और खोज, और इस खोज के लिए आप कहें अपने हृदय को खोल
कर कि मैं भी नहीं जानता हूं। मैं भी खोज रहा हूं। और जब बच्चा बड़ा होगा और अपने
पिता और गुरु के बाबत यह बात जानेगा कि कितने विनम्र हृदय लोग थे, कि उन्होंने अहंकार नहीं किया जानने का। एक
छोटे से बच्चे के सामने भी उन्होंने धोखा नहीं देना चाहा। उन्होंने सचाई और
ईमानदारी से कहा कि हम भी खोजते हैं; अभी
रास्ते पर हैं, अभी वहीं पहुंचे नहीं हैं। ऐसे पिता और गुरु
के प्रति आदर से भर जाना बहुत स्वाभाविक है, बहुत
सहज है।
गुरु
और पिता अहंकार के कारण सिखाते हैं,
कोई बच्चे के हित के कारण
नहीं। बच्चे के सामने यह स्वीकार करने में उनके अहंकार को चोट लगती है कि मैं नहीं
जानता हूं। बच्चे के सामने तो वे सर्वज्ञ बन जाते हैं कि मैं सब कुछ जानता हूं।
छोटा सा बच्चा है, उसके सामने कोई भी सर्वज्ञ बन सकता है!
लेकिन बच्चा कल बड़ा हो जाएगा और आपके सर्वज्ञता की सब धूल उड़ जाएगी। और वह जानेगा
कि आप भी वैसे ही अज्ञानी हो,
जैसा वह है। तब क्या होगा? तब उसके मन से आपके प्रति अगर अनादर उठे, तो इसमें क्या आश्चर्य? इसमें कोई आश्चर्य नहीं।
आप इन
बातों को सिखा कर बच्चे को धार्मिक नहीं बना रहे हैं। बच्चे को खोज सिखाइए और खोज
का पहला सूत्र है--संदेह,
डाउट। संदेह सिखाइए। उससे
कहिए कि तू संदेह कर। जल्दी से मान मत ले किसी बात को, सोच-विचार कर, साहसपूर्वक, निर्भयता से खोज कर। यह गुण सिखाइए। साहस, अभय, फियरलेसनेस, सिखाइए। क्योंकि जो बच्चा भय सीख लेता है, वह कभी खोज नहीं कर सकेगा। लेकिन हम तो
धार्मिक बनाने के लिए बच्चे को भय सिखाते हैं। हम कहते हैं, अगर ईश्वर को न माना तो नरक में डाल देंगे।
भगवान जो हैं, वह नरक में भेज देते हैं। आग है वहां, आग में जलाते हैं! छोटा सा बच्चा है, आप क्या कर रहे हैं उसके साथ?
पूरी
मनुष्य-जाति के साथ यह पाप हुआ है कि धर्म के नाम पर भय सिखाया गया है--नर्क का भय, पाप का भय। और सिखाया गया है--प्रलोभन
स्वर्ग का, प्रलोभन पुण्य का, अच्छे जन्मों का। प्रलोभन और भय दोनों
संगी-साथी हैं। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
तो हम
सिखाते हैं भय और सिखाते हैं प्रलोभन। प्रलोभन कि अगर अच्छे बनोगे, तो स्वर्ग जाओगे। और भय कि अगर भगवान को
नहीं माना, अस्वीकार किया, नास्तिक बने, संदेह
किया, तो नरक जाओगे। बच्चे को हम धर्म थोड़े ही
सिखा रहे हैं। हम सिखा रहे हैं फियर। और क्या आपको पता है, दुनिया में सबसे ज्यादा अधार्मिक वृत्ति कौन
सी है? सबसे ज्यादा अधार्मिक, सबसे ज्यादा इररिलीजस भय है, फियर है। क्योंकि जो भयभीत है, वह कभी परमात्मा को नहीं जान सकेगा, सत्य को नहीं जान सकेगा। जो भयभीत है वह
यात्रा ही नहीं करता है अज्ञात की तरफ। वह तो जो ज्ञात है, उसी के घेरे में चलता है। जहां-जहां उजाला
है और जहां-जहां साफ-साफ रास्ते हैं, वहीं-वहीं
जाता है।
अंधेरे
मार्गों पर, अनजान, अपरिचित
रास्तों पर जो भयभीत है,
वह कभी जाता नहीं। और भगवान
है सबसे ज्यादा अनजान, सबसे ज्यादा अपरिचित, सबसे ज्यादा अंधकार से भरा हुआ। वहां तो
भयभीत कभी कदम नहीं रखता है। तो जब उसे भगवान की तरफ जाना होता है, तो गांव के पुजारी ने जो मंदिर बनाया हुआ है, वह उसमें चला जाता है। क्योंकि भगवान तो है
अपरिचित यह मंदिर बिलकुल परिचित है। यह आदमी का बनाया हुआ है, बिलकुल परिचित है। और भगवान है बिलकुल
अपरिचित। आदमी का बनाया हुआ नहीं है। इसलिए उस अपरिचित भगवान को तो छोड़ देता है यह
परिचित जो मंदिर है, मस्जिद है, इसमें
चला जाता है। और तृप्ति कर लेता है कि मैं धार्मिक हो गया।
आदमी
भी कहीं भगवान का मंदिर बना सकता है? और
आदमी जो बनाएगा, वह भगवान का मंदिर हो सकता है?
एक
छोटी सी कहानी आपको कहूं। एक रात एक चर्च के द्वार पर एक नीग्रो आदमी ने आकर
दरवाजे पर दस्तक दी, दरवाजा हिलाया। दिन के प्रकाश में भी आ सकता
था, लेकिन वह चर्च था गोरी चमड़ी वालों का, वहां काली चमड़ी के लोग नहीं आ सकते थे। तो
दिन में तो डर था कि उसे कोई घुसने न देगा। लेकिन सोचा, रात के अंधेरे में हो सकता है पादरी भी दया
खा जाए, ऐसे पादरी कभी किसी पर दया खाता नहीं है!
सोचा, लेकिन रात के अंधेरे में अकेला देख कर, कोई भी न हो; रोऊं, गिड़गिड़ाऊं, आंसू
बहाऊं तो शायद दया खा जाए। ऐसे,
जैसा मंदिर का भगवान पत्थर का
होता है, मंदिर का पुजारी उससे भी ज्यादा पत्थर का
होता है। वह कभी दया नहीं खाता। लेकिन फिर भी आशा तो आदमी की बड़ी थी। सोचा, शायद दया खा जाए, किसी कमजोर क्षण में और भीतर आ जाने दे।
उस
गांव में एक ही चर्च था--सफेद चमड़ी के लोगों का चर्च था। नीग्रो और काले लोगों के
पास चर्च नहीं था, क्योंकि उनके पास पैसे ही नहीं थे कि भगवान
का निर्माण कर सकें! जिनके पास पैसे होते हैं, वे
भगवान को बना लेते हैं; जिनके पास नहीं होता, वह बिना भगवान के रह जाता है। क्योंकि भगवान
तो एक बनावट है, आदमी की तो पैसा हो तो बन सकता है। न पैसा
हो, तो कैसे बनेगा? इसलिए जिनके पास ज्यादा होता है पैसा, उनके भगवान बड़े होते हैं, उनके मंदिर बड़े होते हैं। जिनके पास नहीं
होता है, उनके छोटे भगवान होते हैं। भगवान भी एक
कमोडिटी है, जो पैसे से खरीदी जाती है--सामान, जो बाजार में बिकता है!
सोचा
कि शायद दया खा जाए, एक गरीब के रोने पर, तो वह रात के अंधेरे में गया। लेकिन पादरी
को धोखा देना बहुत मुश्किल है,
चाहे दिन हो, चाहे रात। पादरी हमेशा चमड़ी को बहुत गौर से
पहचान लेता है। फिर उसके हिसाब से दया-ममता रखता है। देखा कि नीग्रो है। तो उसने
कहा, कैसे आए इतनी रात? उस नीग्रो ने कहा, मैं भी भगवान की प्रार्थना करना चाहता हूं।
मैं भी भगवान के दर्शन करना चाहता हूं। पादरी ने कहा...। अगर कोई पुराना जमाना
होता, तो वह कहता, हट
शूद्र यहां से! यहां आने की तेरे लायक जगह नहीं। जैसा कि पुराने जमाने के पंडित और
मंदिर के पुजारी कहते। लेकिन जमाना बदल गया है और जमाने की हवा बदल गई है, और अब किसी को इस भांति कहना खतरनाक भी हो
सकता है। अदालत तक भी ले जा सकता है।
उस
चर्च के पादरी ने होशियारी की बात कही। और यह तो आप जानते ही हैं कि पादरी, पुरोहित सबसे ज्यादा होशियार और कनिंग और
चालाक लोग हैं। इसलिए सबसे ज्यादा चालाक लोग हैं, कि आप
तो कपड़ा बेचते होंगे, सोना बेचते होंगे, कोई और तरह की दुकान करते होंगे। पादरी और
पुरोहित भगवान को बेचने का धंधा करते हैं। ये सबसे ज्यादा चालाक लोग हैं। इन्होंने
भगवान का व्यवसाय बना लिया है। इनसे ज्यादा होशियार और कौन हो सकता है? और एक ऐसा व्यवसाय बनाया है, जो कभी नहीं चुकेगा, हमेशा चलेगा।
उस
चालाक पादरी ने उस नीग्रो को कहा कि मेरे मित्र, मंदिर
में आकर क्या होगा? जब तक तुम्हारा हृदय पवित्र न हो, मन शांत न हो, तब तक
मंदिर में जाने से क्या होगा?
भगवान के दर्शन नहीं हो सकते।
हालांकि और भी लोग आते थे,
लेकिन वे सफेद चमड़ी के लोग
होते थे और उनसे उसने यह शर्त कभी नहीं बताई थी कि मन शांत करो, पवित्र करो, तब
मंदिर में आओ। लेकिन इसको बताई है।
वह
नीग्रो वापस लौट गया। उसने सोचा,
मन को शांत और पवित्र करूं, फिर आऊंगा। कोई तीन महीने बीत गए, वह नहीं आया। चर्च के पादरी ने, एक दिन रास्ते पर उसे रोका। रोकने का कारण
भी मालूम था और एक नई वजह आ गई थी। रास्ते पर चलते उस नीग्रो को देखा, वह पादरी हैरान हुआ। उसकी आंखें किसी बहुत
गहरी शांति से भरी हुई मालूम पड़ती थीं। उसके चेहरे पर कोई नई रौनक, कोई नई चमक आ गई थी। उसके पैरों में कोई नई जागरूकता
मालूम पड़ती है। वह कुछ दूसरा ही आदमी हो गया था।
उसने
रोका और कहा कि मेरे मित्र,
आए नहीं तुम फिर वापस? उसने कहा, मैं
कैसे आता! बड़ी मुश्किल में पड़ गया। तुमने कहा था, मैं
मान कर मन को पवित्र और निर्दोष करने में लग गया, और रात
रोता था और प्रार्थना करता था। तीन महीने बीत जाने पर, एक दिन रात सपने में भगवान आए और उन्होंने
मुझसे पूछा कि तू किसलिए रोता है?
किसलिए प्रार्थनाएं करता है? तो मैंने कहा, वह जो
हमारे गांव का मंदिर है,
जो चर्च है, उसमें मैं जाना चाहता हूं। इसलिए अपने मन को
पवित्र कर रहा हूं।
भगवान
हंसने लगे और उन्होंने कहा,
तू बिलकुल पागल है। उस मंदिर
में तू न पहुंच पाएगा। बहुत कठिन है वहां पहुंचना। मैं खुद दस साल से घुसने की
कोशिश कर रहा हूं, वह पादरी घुसने नहीं देता! तो जब मैं ही हार
गया, थक गया, तू
कैसे जा पाएगा? बहुत कठिन है। तू यह आशा छोड़ दे। मुझको पाना
आसान है, उस पादरी के मंदिर में घुसना बहुत कठिन है।
और मैं
आपसे कहता हूं कि दस साल तो भगवान ने इसलिए कहे होंगे कि कहीं वह बेचारा नीग्रो
घबड़ा न जाए। सचाई तो यह है कि दस हजार साल से वे घुसने की कोशिश कर रहे हैं, और उस चर्च में नहीं, दुनिया के किसी मंदिर में अब तक नहीं घुस
पाए। और कभी घुस भी नहीं सकेंगे।
पादरी
बहुत होशियार है, पंडित बहुत होशियार है, पुरोहित बहुत होशियार है। वह भीतर नहीं
घुसने देगा। क्यों? क्यों नहीं घुसने देगा? क्योंकि जहां परमात्मा का प्रवेश हो जाए, वहां प्रेम आ जाता है। और जहां प्रेम आ जाए, वहां से व्यवसाय विलीन हो जाता है। और भगवान
को वह घुसने भी दे, तो भी भगवान न घुस पाएंगे, क्योंकि आदमी का बनाया हुआ मंदिर बहुत छोटा
है भगवान बहुत बड़े हैं। आदमी का मंदिर है बहुत छोटा सा और परमात्मा है बहुत विराट
और अनंत। वह कैसे उसमें प्रवेश कर पाएगा?
यह जब
हमारा सीखा हुआ धर्म भय पर खड़ा होता है, तो हम
मंदिर में जाकर तृप्ति कर लेते हैं,
मुक्त हो जाते हैं समझते हैं
कि धर्म उपलब्ध हो गया। नहीं,
धर्म तो बहुत बड़ा एडवेंचर है, अज्ञात सागर में ही यात्रा के जैसा। अज्ञात
पर्वतों के शिखरों पर चढ़ने जैसा--अंधेरे मार्गों पर, अपरिचित
मार्गों पर--राजपथों पर नहीं--अंधेरे और अकेले मार्गों पर चलने जैसा। उसके लिए
चाहिए साहस, उसके लिए चाहिए अभय, उसके लिए चाहिए अदम्य जिज्ञासा, उसके लिए चाहिए प्राणों को दांव पर लगाने का
साहस। अपने बच्चे को यह सिखाएं। ईश्वर की बातें न सिखाएं। यह गुण दें, तो निश्चित ही आपका बच्चा किसी दिन खोज
पाएगा।
धर्म
की शिक्षा नहीं हो सकती,
लेकिन धार्मिक गुणों के विकास
के लिए अवसर हो सकते हैं। धर्म तो खुद ही जानना होता है। लेकिन अवसर जुटाए जा सकते
हैं, जिनके बीच एक धार्मिक व्यक्तित्व का जन्म हो
जाए। धार्मिक व्यक्तित्व का लक्षण होगा--अभय, साहस, जिज्ञासा, खोज।
लेकिन हम तो उलटी बातें सिखाते हैं। हम तो सिखाते हैं--विश्वास।
विश्वास
से आदमी काहिल और कमजोर हो जाता है। उसकी खोज बंद हो जाती है। वह इंपोटेंट हो जाता
है। उसके जीवन में कोई बल नहीं रह जाता।
हम तो
सिखाते हैं भय। हम तो कहते हैं,
भगवान से डरो। हम तो कहते हैं, गॉड फियरिंग बनो। इससे ज्यादा बेहूदी बात
क्या कोई और हो सकती है कि कोई भगवान से डरे? और
जिससे हम डरेंगे, क्या उसको हम कभी प्रेम कर सकते हैं? जिससे हम डरते हैं, उसको हम घृणा करते हैं। जिससे हम डरते हैं, उससे घृणा स्वाभाविक है।
जिससे
हम प्रेम करते हैं, उससे तो हम कभी भी नहीं डरते। यह सारी
दुनिया में भगवान को भय करो,
भगवान से डरो, इसका यह परिणाम हुआ है कि सारी दुनिया आज
भगवान के खिलाफ खड़ी हो गई है। यह उस घृणा का इकट्ठा विस्फोट है, जो हजारों साल से मनुष्य के मन में इकट्ठी
होती रही है, क्योंकि जिसको हम भय करते हैं उसके प्रति
घृणा पैदा हो जाती है। जिसको हम भय करते हैं, उसको
हम कभी प्रेम तो कर ही नहीं सकते। प्रेम और भय का कोई नाता नहीं है। लेकिन ये
बातें हम सिखाते हैं और हम सोचते हैं कि हम कुछ सिखा रहे हैं।
और हम
सिखाते हैं जो कि खुद कुछ भी नहीं जानते। तो अगर इससे जीवन उलझता गया हो, तो आश्चर्य नहीं। इसको मैं जघन्य से जघन्य
अपराधों में से एक कहता हूं,
जो कोई मां-बाप अपने बच्चों
के साथ कर सकते हैं, अगर वे इस तरह की शिक्षाएं दें। अगर वे
बच्चे जीवन में भटक जाएं,
तो आप जिम्मेवार होंगे। और
बच्चे भटक गए हैं और आप जिम्मेवार हैं।
सब कुछ
गलत है। सब कुछ गलत है धर्म के नाम पर जो भी हम सिखाते हैं, वह गलत है। नहीं, लेकिन कुछ और बातें जरूर जीवन में खड़ी की जा
सकती हैं, उनमें हम सहयोगी हो सकते हैं। और अगर हम उन
बातों में सहयोगी हो जाएं और बच्चे को एक जिज्ञासा दे सकें, तो उसके जीवन में जरूर वह शायद जानने में
समर्थ हो जाए। और हम भी उसको जिज्ञासा देने में अपने ज्ञान के अहंकार से मुक्त हो
सकेंगे और शायद हम भी जानने में समर्थ हो सकेंगे।
तो मैं
नहीं कहता हूं कि आप बच्चों को सिखाएं कि ईश्वर है या कि ईश्वर नहीं है; आत्मा है या कि आत्मा नहीं है। यह कुछ भी
सिखाने की जरूरत नहीं है। न आस्तिकता और न नास्तिकता, जिज्ञासा सिखाएं। और जिज्ञासा जब अदम्य हो
जाती है, तब मनुष्य जरूर सत्य की यात्रा कर पाता है।
पूछा
है, संदेह मेरे मन को सताते हैं। जीवन का क्या
अर्थ है? इस संबंध में संदेह उठते हैं और संदेह से
उदासी आती है, विषाद आता है।
एक बात
तो सबसे पहली जाननी जरूरी है। हम संदेह करना जानते ही नहीं, इसीलिए संदेह आते हैं। संदेह करना हम जानते
ही नहीं। और जब संदेह आते हैं,
तो जो हमें विषाद पैदा होता
है, उदासी पैदा होती है, वह संदेह के कारण नहीं होती। वह होती है, हमने पहले से जो विश्वास कर रखे हैं, उनके कारण। संदेह से घबड़ाहट लगती है क्योंकि
हमारे विश्वास हिलते हैं और डगमगाते हैं, और हम
चाहते हैं कि विश्वास न डगमगाएं।
मैं
अपने गांव जाता था। कभी वहां दिन,
दो दिन रुकता था। एक बार वहां
कोई आठ दिन रुका। बचपन में जिन्होंने मुझे पढ़ाया, अब तो
वे बूढ़े हुए, मेरे एक शिक्षक, उनके घर रोज जाता था। आठ दिन रुका था, दो दिन उनके घर गया। तीसरे दिन सुबह उनका
लड़का आया और एक चिट्ठी लाया और उसमें उन्होंने लिखा कि कल से मेरे घर मत आना। आते
हो, तो मुझे बहुत खुशी होती है। लेकिन नहीं, अब इस खुशी को मुझे छोड़ना पड़ेगा और मैं
प्रार्थना करता हूं कि मेरे घर अब दुबारा मत आना। क्योंकि कल तुमसे जो बातें हुईं, उसके बाद जब मैं सुबह भगवान की प्रार्थना को
बैठा, तो मुझे शक आने लगा, संदेह आने लगा कि पता नहीं, ये भगवान हैं भी या मैं मिट्टी की मूर्ति
रखे हुए बैठा हूं! तो शक और संदेह ने मेरा चित्त बहुत अशांत कर दिया। रात भर मैं
सो नहीं सका। अब कृपा करके मेरे घर मत आना। मैं बहुत दुख से यह लिख रहा हूं। लेकिन
नहीं, यह संदेह अगर बढ़ जाए मेरे इस बुढ़ापे में, अस्सी वर्ष की मेरी उम्र हुई, मरते वक्त संदेह पकड़ ले, तो भटक जाएगी सारी यात्रा। जीवन भर
प्रार्थना करता हूं चालीस वर्ष से मैं, पूजा
करता हूं। और तुमने आकर मेरी सारी पूजा और प्रार्थना गड़बड़ कर दी, मेरी सारी शांति खंडित कर दी!
मैंने
उनको पत्र लिखा कि एक बार तो मैं और आऊंगा, चाहे
आप कुछ भी करें। एक बार आना मेरा बहुत जरूरी भी है। अशांति इसलिए नहीं आ रही है कि
संदेह आ गया है, अशांति इसलिए आ रही है कि संदेह अधूरा है।
मैं उसे पूरा कर दूं, फिर अशांति नहीं आएगी। वह जो थोड़ा सा
विश्वास अटका रह गया है,
वह अशांति पैदा कर रहा है। संदेह
अशांति पैदा नहीं कर रहा। मैं गया। वे बहुत घबड़ाए हुए थे। मैंने उनसे कहा कि चालीस
वर्ष पूजा की, प्रार्थना की, मूर्ति
को भगवान जाना। चालीस वर्ष,
तीनत्तीन घंटे रोज, और एक घंटा मैंने बात की और चालीस वर्ष की
पूजा और प्रार्थना सब डांवाडोल हो गई? ऐसी
पूजा प्रार्थना का मूल्य कितना है,
अर्थ कितना है?
मैंने
उनसे कहा कि मैं कुछ भी करूं,
आपको संदेह में नहीं ला सकता।
संदेह आपके भीतर रहा होगा। चालीस वर्ष ही रहा होगा। लेकिन आपने जबरदस्ती उसे भीतर
छिपा दिया। ऊपर से विश्वास के वस्त्र ओढ़ लिए होंगे। जिस दिन यह मूर्ति पहले दिन
रखी थी, उस दिन भी आपके मन में संदेह रहा होगा। असल
में, संदेह जा कैसे सकता है, बिना ज्ञान के? बिलीफ से, विश्वास
से, श्रद्धा से संदेह जा कैसे सकता है? हां, छिप
सकता है, जा नहीं सकता।
तो
आपने विश्वास कर लिया होगा कि यह भगवान है। और जिस दिन विश्वास किया होगा, उस दिन भी भीतर संदेह कह रहा होगा कि अरे, इस मिट्टी की मूर्ति को भगवान! लेकिन दबा
दिया होगा उसको कि संदेह भटकाता है,
जो संदेह करता है, वह भटक जाता है। विश्वास करो, विश्वास फलदायी है। ऐसा कह-कह कर मन को समझा
लिया होगा फिर रोज-रोज पूजा करते-करते। आखिर मन की भी सामर्थ्य है। कब तक वह संदेह
करता! धीरे-धीरे जब आपने नहीं सुना होगा, उसने
आवाज देनी बंद कर दी होगी। संदेह भीतर पड़ा हुआ सो गया होगा और आप निश्चिंत हो गए।
क्या आप समझते थे संदेह समाप्त हो गया? मैंने
फिर से आपसे बात की। सोए हुए संदेह को फिर एक मौका मिला। वह बाहर वापस निकल आया और
उसने आपकी नींद खराब कर दी।
लेकिन
यह संदेह का कसूर नहीं है कि आपने चालीस साल व्यर्थ गंवा दिए।
वह तो
पहले ही दिन खड़ा हो रहा था कि मत इसकी यात्रा पर जाओ। लेकिन आपने उसको दबा दिया।
वह अभी भी आपका साथ देने को तैयार है। चालीस साल के बाद भी। और चालीस साल जिन
विश्वासों को पोसा वे आज भी इनकार करने को तैयार हैं, साथ छोड़ने को तैयार हैं। चालीस साल के पोषण
के बाद भी विश्वास साथ छोड़ सकते हैं। चालीस साल दमन के बाद भी संदेह वापस जीवित हो
सकता है।
तो
मैंने कुछ इस संबंध में उनसे कहा,
मैंने उनसे कहा कि जो विश्वास
से शुरू करता है, वह संदेह पर समाप्त होता है। और जो संदेह से
शुरू करता है, वह ज्ञान पर समाप्त होता है। जो संदेह करना
से शुरू करेगा, और जितना संदेह किया जा सकता है, करेगा जीवन में, एक दिन वह ऐसी जगह पहुंच जाएगा, जहां संदेह असंभव हो जाता है। और तब संदेह
समाप्त हो जाता है और ज्ञान का जन्म होता है। और जो आदमी पहले से ही संदेह को दबा
देता है, वह कभी ऐसी जगह नहीं पहुंचता, जहां संदेह समाप्त हो जाए। दबा हुआ संदेह
किसी भी मौके पर वापस खड़ा हो सकता है। वह भीतर हमेशा मौजूद है।
तो
आपको अगर संदेह सताते हैं,
उसका मतलब यह है कि आप
विश्वास से पीड़ित होंगे,
नहीं तो संदेह सताता नहीं।
अगर कोई विश्वास न हो, तो संदेह सताता नहीं। संदेह तो एक मुक्ति बन
जाती है, खोज बन जाती है। लेकिन अगर कोई विश्वास हो, तो संदेह एक कांफ्लिक्ट बन जाती है, एक द्वंद्व बन जाता है। भीतर विश्वास होता
है और संदेह उस विश्वास को तोड़ने लगता है। हम विश्वास को सम्हालना चाहते हैं, संदेह विश्वास को गिराने लगता है। एक
द्वंद्व खड़ा हो जाता है। द्वंद्व से घबड़ाहट होती है, बेचैनी
होती है, अशांति होती है। हम कोशिश करते हैं कि
विश्वास आ जाए, संदेह मिट जाए, तो शांति हो जाएगी।
मैं
आपसे निवेदन करता हूं, ऐसी शांति झूठी होगी, जो संदेह को दबा कर लाई जाती है। शांति तो
वह सच्ची है, जो संदेह के पूरे प्रयोग से आती है। उस
शांति को तोड़ने के लिए फिर संदेह कभी वापस नहीं लौटता। वह हमेशा के लिए चला गया
होता है।
संदेह
तो मित्र है। जब तक ज्ञान का आलोक न आ जाए, तब तक
संदेह साथी की तरह ज्ञान की यात्रा पर ले जाता है। संदेह तो मित्र है, जो कहता है, ज्ञान
की तरफ चलो। और जब आप किसी विश्वास को पकड़ते हैं, तो वह
कहता है, मत पकड़ो। यह तो विश्वास है, यह आपका जानना नहीं है। यह संदिग्ध है।
लेकिन मित्र को आप इनकार करते हैं और विश्वास को पकड़ते हैं। विश्वास शत्रु है, क्योंकि वह ज्ञान तक जाने से रोकता है।
संदेह मित्र है, क्योंकि वह यह कहता है कि ज्ञान के पहले
किसी बात को मानने को मैं राजी नहीं हूं। लेकिन हजारों वर्ष की शिक्षा का यह
परिणाम हुआ है कि संदेह मित्र नहीं मालूम होता है और विश्वास मित्र मालूम होता है।
विश्वास
तो जहर है, नशा है। संदेह तो बड़ा मित्र है। वह तो यह
कहता है, कि मानना मत, जब तक
तुम न जान लो। वह तो उसी समय शांत होगा, जब मैं
जान लूंगा। उस वक्त संदेह कहेगा,
ठीक है, आ गई मंजिल। अब मैं विदा होता हूं। अब मेरा
काम समाप्त हो गया। तुम वहां पहुंच गए, जहां
असंदिग्ध कुछ उपलब्ध हो गया है,
जिस पर संदेह नहीं किया जा
सकता है।
तो
संदेह तो निरंतर साथ देना चाहता है और आप कहते हैं, तकलीफ
दे रहा है! तकलीफ देगा तभी,
जब आपने विश्वास पकड़ लिए
होंगे। कृपा करें, विश्वासों को छोड़ दें। संदेह के साथी हो
जाएं। खोजें, खोजें! उस दिन तक संदेह का साथ जरूरी है, जब तक कि संदेह खुद कहे कि बस आ गया है
मुकाम, अब यहां मेरा कोई भी काम नहीं है। अब वह चीज
आपने जान ली है, जिसको आप मानते थे, तो मैं खड़ा हो जाता था और संदेह करता था कि
नहीं, अभी मानना मत। अब तो वह जगह आ गई है, जहां मेरी कोई जरूरत नहीं। अब आप जानते हैं, मानना जब तक होता है, तब तक संदेह खड़ा होता रहता है। जिस दिन
जानना आ जाता है, उस दिन संदेह विलीन हो जाता है।
तो
संदेह कष्ट नहीं दे रहा है। कष्ट दे रहे हैं आपके विश्वास। संदेह बढ़ता है, तो विश्वास की नींव डगमगा जाती है। तो हमारे
प्राण कंपते हैं। कि सारा जीवन हमने विश्वास पर खड़ा किया हुआ है। संदेह से घबड़ाएं
न। अगर ज्ञान की यात्रा पर ही जाना है, तो
संदेह की नौका पर ही वह यात्रा करनी होगी। जो ठीक से संदेह करना सीख लेता है, वह ठीक से यात्रा करना सीख जाता है।
और
जीवन का अर्थ खोजना है, तब तो विश्वास करना ही मत, नहीं तो न मालूम किस प्रोपेगेंडा के चक्कर
में आप पड़ जाएंगे। विश्वास है क्या?
एक तरह का प्रोपेगेंडा है। एक
आदमी हिंदू घर में पैदा हो गया है,
तो बचपन से वह एक तरह का
प्रोपेगेंडा सुन रहा है। एक तरह की बातें सुन रहा है। ये धर्मग्रंथ हैं, ये भगवान हैं, यह
मंदिर है, यह पूजा है, यह
मंत्र है--यह सुन रहा है! बचपन से उसके दिमाग को कंडीशन किया जा रहा है, उसको समझाया जा रहा है कि यह है।
व्यापारियों
को बहुत बाद में पता चला,
प्रोपेगेंडा, एडवरटाइजमेंट का रहस्य। सबसे पहले धार्मिक
पुरोहितों को पता चल गया था। अभी तो व्यापारी अब कहना शुरू करते हैं कि बस, लक्स टायलेट साबुन ही सबसे अच्छा है!
धार्मिक बहुत दिन पहले से ही कहते हैं कि हमारी किताब ही सबसे अच्छी है। और एक बात
अगर बहुत बार दोहराई जाए,
तो मनुष्य के मन पर उसका
संस्कार बैठ जाता है। अडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ऐसा कोई असत्य नहीं है जिसे बार-बार दोहरा
कर सत्य न बनाया जा सके। ठीक लिखा है, अनुभव
से लिखा है। ऐसा गैर-अनुभव से नहीं लिखा है। उसने जिंदगी भर यही किया। कोई भी
असत्य बोला और ठीक से उसका प्रोपेगेंडा किया थोड़े दिनों में लोगों ने मान लिया।
उन्नीस
सौ सत्रह में रूस में क्रांति हुई। उसके बाद जो लोग वहां हुकूमत में आए, उन्होंने पूरे मुल्क को समझाना शुरू किया, ईश्वर नहीं है, आत्मा नहीं है। धर्म अफीम का नशा है। पहले
लोग हंसे होंगे। फिर धीरे-धीरे,
सुनते-सुनते आदी हो गए होंगे।
कोई पंद्रह-बीस साल बाद,
बीस करोड़ का मुल्क यह मानने
लगा कि न कोई ईश्वर है, न कोई आत्मा है। बीस करोड़ का मुल्क यह
स्वीकार कर लिया कि कोई आत्मा,
ईश्वर कुछ भी नहीं, बस शरीर शरीर है और मृत्यु पर सब समाप्त हो
जाता है।
आप
कहेंगे, बड़े नासमझ लोग हैं कि बीस साल का प्रचार
किया और मान लिया! और आप जो मान रहे हैं, वह
क्या है? वह दो हजार साल का प्रचार है, तीन हजार साल का प्रचार है। और क्या है? कोई हिंदू है, यह
क्या है? कोई मुसलमान है, यह क्या है? एक तरह
का प्रचार है। जो बच्चे के मन पर हम बचपन से डालते हैं, वह उसी तरह का मानने के लिए राजी हो जाता
है। मरने के लिए राजी हो सकता है,
मानने की तो बात दूर। एक
मूर्ति टूट जाए, तो एक आदमी मरने को राजी हो सकता है कि
मूर्ति मेरे भगवान की है। मैं अपनी जान लगा दूंगा, लेकिन
इसको बचाऊंगा। यह क्या है?
यह मस्तिष्क को संस्कारित
करना है, कंडीशन करना है।
पावलोव
नाम का एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक हुआ। उसने जीवन भर कुत्तों पर प्रयोग किए। कुछ
अनूठे नतीजे निकाले। और बड़ा नतीजा तो यह निकाला कि आदमी का दिमाग भी कुत्तों के
दिमाग की भांति ही संस्कारित किया जा सकता है।
एक
कुत्ते पर जिस पर वह प्रयोग करता था। उसको वह रोज रोटी देता था तो रोटी सामने आते
ही कुत्ते की जीभ बाहर निकल आती थी और लार टपकने लगती थी। रोटी देने के साथ जब लार
टपकती थी, तभी वह घंटी भी बजाता था। फिर पंद्रह दिन के
बाद रोटी तो नहीं दी, सिर्फ उसने घंटी बजाई। कुत्ते की जीभ से लार
टपकने लगी। अब घंटी और कुत्ते की जीभ से लार टपकने का कोई भी संबंध नहीं है। रोटी
दी जाए, तब कुत्ते की जीभ से लार टपके, यह समझ में आता है। लेकिन घंटी बजाई जाए, और लार टपके, यह
बिलकुल समझ में नहीं आता। लेकिन पंद्रह दिन तक रोटी दी गई, लार टपकी तभी घंटी बजाई। तो घंटी का बजना और
रोटी मिलना संयुक्त हो गया उसके मन में। अब सिर्फ घंटी बजाई गई, लार टपकने लगी!
अब यह
जो लार टपक रही है, यह पंद्रह दिन की कंडीशनिंग का परिणाम है।
आप एक मंदिर के सामने से निकलते हैं और आपके हाथ ऐसे जुड़ जाते हैं! आपको पता नहीं
चलता कि हाथ कैसे जुड़ गए। आपको बचपन से बताया गया है कि ये भगवान हैं। ये भगवान
हैं, ये भगवान हैं--यह कहता ही चला गया आपका
समाज। आपके हाथ भी उठने लगे कि ये भगवान हैं। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है वहां।
आपके मस्तिष्क में प्रचारित कर दी गई है एक बात।
और
जैसे एक घंटी के बजने से लार टपकने का कोई संबंध नहीं है, वैसे ही एक पत्थर की मूर्ति से हाथ जुड़ने का
भी कोई संबंध नहीं है--कोई संबंध ही नहीं है किसी तरह का। लेकिन एक कंडीशनिंग हो
गई, दिमाग राजी हो गया। दिमाग ने प्रचार पकड़
लिया। पकड़ लिया और कहने लगा,
करने लगा।
एक
मेरे मित्र हैं, मेरी बातें सुनते-सुनते उनको ऐसा खयाल आया
कि यह बात तो ठीक है। वह तो किसी भी मंदिर के सामने से निकलते थे, तो हाथ जोड़ते थे। भयभीत इतने थे कि न मालूम
कौन सा भगवान नाराज हो जाए। जिस मंदिर के सामने से निकलें, उसी का...! कहीं हनुमान जी का मंदिर है, कहीं शंकर जी का है! न मालूम कौन नाराज हो
जाए और न मालूम कौन इनमें ताकतवर है, कुछ
पक्का पता नहीं, इसलिए सभी को हाथ जोड़ते थे। जितना भयभीत
आदमी होता है, उतना ही ज्यादा यह मुश्किल हो जाता है। यह
सब फियर कांप्लेक्स का धर्म से,
पूजा से कोई संबंध नहीं है।
भय है भीतर।
मेरी
बातें सुनते थे, तो उन्होंने एक दिन बड़ी हिम्मत की और एक
मंदिर के सामने से बिना हाथ जोड़े निकल गए। लेकिन दो सौ कदम के बाद वापस लौटना पड़ा।
रात में आकर मुझसे कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई थी। मुझे ऐसा लगा कि न मालूम क्या हो
जाएगा। चला तो गया, हिम्मत किए दो सौ कदम। लेकिन फिर मैंने
सोचा--अरे! छोड़ो भी, किसकी बातचीत में पड़े हो? पता नहीं भगवान नाराज हो जाएं! इतने दिन से
हाथ जोड़ते थे! तो मैंने सोचा,
कोई देख भी नहीं रहा, कोई मतलब भी नहीं। मैं वापस लौट आया। मैंने
हाथ जोड़े। तब मुझे शांति मिली,
जब मैंने हाथ जोड़े। नहीं तो
मेरा मन बड़ा अशांत हो गया था।
यह आप
रोज सुबह पूजा करते हैं,
एक दिन नहीं करते हैं तो कहते
हैं, आज मन बड़ा अशांत है, पूजा नहीं की। तो आप सोचते होंगे, पूजा से शांति मिलती थी? नहीं, मन एक
चीज के लिए कंडीशंड हो गया,
संस्कारित हो गया। एक चीज जड़
आदत की तरह पकड़ गई। और कोई भी चीज पकड़ाई जा सकती है। कोई भी चीज पकड़ाई जा सकती है।
हजारों साल का प्रचार है,
चीजें पकड़ जाती हैं। हमारा मन
उनको पकड़ लेता है और उनके अनुसार हम जीने लगते हैं और हम सोचते हैं कि यह धर्म हो
रहा है।
इसी
भांति हमारे सारे विश्वास हैं,
जो प्रचारित किए गए हैं। उनको
हमने पकड़ लिया है। विचार और विश्वास हैं दूसरों के, संदेह
है मेरा। मेरे प्राण संदेह करते हैं। और विश्वास मुझे नीचे दबाते हैं कि नहीं, संदेह मत करो, तो
बेचैनी पैदा होती है। इस बेचैनी में आपका मन होता है, अगर संदेह समाप्त हो जाए, तो बेचैनी समाप्त हो जाए।
मैं
आपसे कहता हूं: संदेह इस भांति कभी समाप्त हो ही नहीं सकता है बेचैनी कभी समाप्त
नहीं हो सकती। लेकिन हां,
विश्वासों को छोड़ दें और
संदेह को पूरी तरह जगने दें और संदेह का अनुसरण करें और संदेह जहां ले जाए, हिम्मत से जाएं।
संदेह
कभी गलत जगह नहीं ले जा सकेगा। क्यों? क्योंकि
गलत जगह अगर पहुंच भी गए,
तो संदेह फिर संदेह करेगा कि
यह ठीक नहीं है। संदेह कभी गलत जगह किसी को नहीं ले जा सकता, अगर संदेह पूरा हो। क्योंकि गलत जगह जाते से
ही संदेह कहने लगेगा कि यह तो ठीक नहीं है। जिसने संदेह को जगाया है अपने भीतर, वह कभी गलत जगह नहीं पहुंच सकता। वह तो
परमात्मा पर ही पहुंच जाए,
तभी संदेह समाप्त होगा, नहीं तो संदेह उसका पीछा करेगा। लेकिन जिसने
विश्वास किया है, वह कभी भी गलत जगह पर पहुंच सकता है, क्योंकि कभी भी गलत चीज पर विश्वास किया जा
सकता है। और जो विश्वास करने वाले लोग हैं, वे
किसी भी चीज पर विश्वास कर सकते हैं। सिर्फ उनके विश्वास को थोड़ा सा बदलने की
जरूरत होती है। वे किसी भी चीज पर विश्वास कर लेते हैं!
हमारा
मुल्क हजारों साल से विश्वास का अनुसरण करता रहा है। जब इस मुल्क पर पश्चिमी जीवन
का प्रभाव आया, तो हम एकदम पश्चिमी जीवन से प्रभावित हो गए।
लोग सोचते हैं कि यह पश्चिमी जीवन से प्रभावित हो जाना बड़ा बुरा है। लेकिन आपको
पता नहीं है, जिस कौम को तीन हजार साल तक विश्वास के
अंतर्गत पाला गया हो, वह कौम किसी भी चीज से प्रभावित हो सकती है।
उसके विचार करने की और संदेह करने की क्षमता नष्ट हो जाती है। इसलिए पश्चिम का
प्रवाह आया, तो हम उसमें बह गए। कोई भी बेवकूफी आ जाए
हमारे ऊपर, तो हम संदेह करने में असमर्थ हो गए हैं, हम उसको मान लेंगे। एक ही बात होनी चाहिए, बेवकूफी करने वाला मालिक होना चाहिए, ताकतवर होना चाहिए। बस, फिर हम मान लेंगे। क्योंकि कभी ताकतवर लोग, धनी लोग, राजा
लोग, शक्तिशाली लोग थोड़ी गलती करते हैं? बस, फिर हम
मान लेंगे, हम उनके पैरों में हाथ जोड़ कर पड़ जाएंगे।
कहेंगे कि जो तुम कहते हो,
ठीक है।
तीन
हजार साल के विश्वास का यह परिणाम हुआ कि पश्चिमी संस्कृति जब हमारे ऊपर आनी शुरू
हुई, तो हम संदेह करने में असमर्थ हो गए। संदेह
हमने कभी किया ही नहीं था। हम पहले अपने पंडित-पुरोहितों को मानते थे, अब उनके सफेद चमड़ी के पुजारियों को मानने
लगे। उन पर विश्वास कर लिए। विश्वास करने वाली कौम की संदेह करने की क्षमता नष्ट
हो जाती है।
इस देश
में संदेह को वापस जगाना है,
नहीं तो यह कौम करीब-करीब मर
चुकी है। और यह कौम कुछ भी विश्वास कर सकती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, इसको कोई भी चीज विश्वास करवाई जा सकती है।
क्योंकि हम विश्वास करने में पाले गए हैं। हमसे जो भी कहा जाएगा, हम मान लेंगे कि ठीक है।
क्योंकि
संदेह की हमें कोई शिक्षा नहीं दी गई। संदेह की शिक्षा न होने से ही इस देश में
विज्ञान का जन्म नहीं हो पाया। दूसरे मुल्कों ने विज्ञान में इतना विकास किया, संदेह के कारण। हम पिछड़ गए, क्योंकि हमने तो विश्वास किया। विश्वास किया, तो वहीं हम ठहर गए, बैलगाड़ी पर। तो बैलगाड़ी पर ठहर गए, आगे जाने का कोई सवाल नहीं था। क्योंकि मेरे
पिता बैलगाड़ी में चलते थे,
उनके पिता भी बैलगाड़ी में
चलते थे। मैं कौन हूं जो संदेह करूं कि बैलगाड़ी से बेहतर भी कोई वाहन हो सकता है? नहीं-नहीं यह कभी नहीं हो सकता। मेरे पिता
क्या नासमझ थे, जो बैलगाड़ी में चलते थे? अगर हो सकता, तो
इतने बुद्धिमान मेरे पिता थे,
जगतगुरु थे, वे तो और कुछ अच्छा बना लेते। लेकिन संदेह, संदेह कैसे किया जा सकता है! इसलिए हम एक
डबरे की भांति हो गए। संदेह की यात्रा होती है, सरिता
की भांति, वह सागर तक जाती है। और विश्वास एक डबरे की
भांति बंद हो जाता है, सड़ता है, लेकिन
गति नहीं करता।
तो मैं
तो कहूंगा, संदेह शुभ है। घबड़ाएं न, उसके आमंत्रण को स्वीकार करें। वह आपकी
आत्मा को ऊंचाइयों तक ले जाएगा। लेकिन एक ही बात याद रखें, संदेह हो पूरा। फिर कहीं भी बीच में रुकने
को राजी न हों, जब तक कि, जब तक
कि ज्ञान का ही क्षण न आ जाए,
तब तक रुकने को राजी न हों।
इसीलिए तो जैसे-जैसे हम बूढ़े होते जाते हैं और कमजोर होते जाते हैं, हम धार्मिक होते जाते हैं। क्योंकि संदेह की
क्षमता हमारी कम होती जाती है। डर लगने लगता है कि मौत करीब आ रही है, अब संदेह किया तो बहुत मुश्किल हो जाएगी।
इसलिए तो मंदिरों में, मस्जिदों में, चर्चों
में बूढ़े लोग दिखाई पड़ते हैं,
जवान दिखाई नहीं पड़ता।
क्योंकि जब आदमी बूढ़ा होता है,
तब संदेह की हिम्मत नहीं रह
जाती और विश्वास की कमजोरी आ जाती है।
लेकिन
सचाई यह है कि धर्म है उन लोगों के लिए, जिनके
चित्त संदेह करने में समर्थ हैं। युवा है जिनका चित्त उनके लिए ही धर्म है। और
युवा चित्त का कोई संबंध उम्र से नहीं है। एक आदमी बुढ़ापे में भी युवा हो सकता है।
और एक आदमी जवान होकर भी बूढ़ा हो सकता है।
मैं एक
जगह गया ग्वालियर में। एक मित्र ने मुझे खबर की कि मेरी मां भी आपके व्याख्यान
सुनने आना चाहती है। लेकिन उसकी उम्र है नब्बे वर्ष की और इधर पचास वर्षों से वह
निरंतर पूजा में लगी रहती है,
चौबीस घंटे माला फेरती रहती
है। कहीं आपकी बात सुन कर उसका चित्त अशांत न हो जाए! कहीं उसका चित्त परेशानी में
पड़ जाए, तो मैं उसे लाऊं या न लाऊं? उन्होंने मुझे पत्र लिखा।
मैंने
उनसे कहा कि जरूर लिवा लाएं।
वे
अपनी मां को लेकर आए। पता नहीं मीटिंग में क्या हुआ! दूसरे दिन वे फिर आए मेरे पास
और बोले कि मैं बहुत हैरान हूं। रास्ते में मैं डरा हुआ था कि मेरी मां के मन पर
पता नहीं कैसा प्रभाव पड़े। लौटते में मैंने अपनी मां से पूछा कि चित्त में अशांति
तो नहीं हुई आपको? मेरी मां ने कहा, मेरी माला, जिसे
मैं हमेशा साथ रखती थी, वहीं छोड़ आई। क्योंकि वे जो कह रहे थे, पचास साल का मेरा अनुभव भी कहता है कि यह
व्यर्थ है। पचास साल मैंने इसको फेर कर देखा है। पचास साल का मेरा अनुभव भी कहता
है, यह व्यर्थ है। लेकिन मुझमें हिम्मत नहीं
जुटा पा रही थी कि मैं इसको छोडूं कि नहीं छोडूं। मैंने बात सुनी और मैंने कहा, अब एक क्षण को भी पोस्टपोन करना ठीक नहीं है, क्योंकि जितने दिन गए, गए। जो बचा है समय, उसमें कुछ किया जा सकता है। तो मैंने वहीं
छोड़ दी है माला, उस मीटिंग में ही छोड़ आई हूं। उसको वापस
लेकर नहीं आई।
इस
बूढ़ी स्त्री को कौन बूढ़ा कहेगा?
यह जवान है। यह युवा है। तो
मैंने उनसे कहा कि तुम बूढ़े हो,
तुम्हारी मां जवान है।
क्योंकि तुम डरते थे कि मां को लाएं या नहीं लाएं। मां को लाने में तुम डरते थे और
मां पचास साल की माला छोड़ने में नहीं डरी है। तुम बूढ़े आदमी हो!
और
हमारा दुर्भाग्य यही है कि हमारे देश में जवान आदमी पैदा होना बहुत दिन से बंद हो
गए हैं। बस, बूढ़े ही बूढ़े लोग हैं। बच्चे से सीधे बूढ़े
हो जाते हैं; जवान होने का मौका ही नहीं आता। क्योंकि यंग
माइंड का, जवान चित्त का पहला लक्षण है--संदेह, खोज।
तो मैं
तो कहूंगा, शुभ है यह कि संदेह उठता है। भगवान न करे, यह उठना कहीं बंद न हो जाए, नहीं तो आप मर गए। यह अभी उठता है, इस बात की सूचना है कि अभी कुछ भीतर खोज के
लिए गुंजाइश है। अभी पूरी तरह नहीं मरे, थोड़ी
जिंदगी भीतर है। थोड़ी चिंगारी है,
तो वह राख को उड़ा-उड़ा कर बाहर
निकल आती है। उससे घबड़ाएं न। चिंगारी को पूरा निकाल लें, सारी राख को उड़ा दें। एक विश्वास को भी न
टिकने दें मन में। और तब संदेह एक मुक्ति लाता है, एक
स्वतंत्रता और खोज की एक ऊर्जा पैदा होती है और खोज शुरू होती है।
इतना
जरूर सच है कि अगर पूरे चित्त से कोई संदेह करने को इसी वक्त राजी हो जाए, इसी क्षण--टोटल डाउट अगर हो, तो इसी क्षण सत्य उपलब्ध हो सकता है।
क्योंकि टोटल डाउट, पूरा संदेह, सारे
विश्वासों को गिरा देता है,
सारे ज्ञान को गिरा देता है, जिसकी मैं सुबह आपसे बात कर रहा था, सारा ज्ञान झड़ जाता है। और तब, स्टेट ऑफ नाट नोइंग पैदा होती है, न जानने की भावदशा पैदा होती है। और वह न
जानने की भावदशा इतनी सरल,
इतनी शांत, इतनी मौन होती है कि उसी में जाना जाता है, वह जो है। धीरे-धीरे संदेह करेंगे, तो कभी जानेंगे और अगर पूरा संदेह कर सकते
हैं, तो अभी और यहीं जान सकते हैं।
बस, एक छोटा प्रश्न और, फिर जो प्रश्न बचेंगे, वह रात में लूंगा।
एक
प्रश्न छोटा सा पूछा है,
कि बुद्ध का परिवार छोड़ना
क्या कमजोरी था?
अगर
बुद्ध ने परिवार छोड़ा हो तो जरूर कमजोरी था। लेकिन, मेरा
निवेदन यह है कि कुछ लोग परिवार छोड़ते हैं और कुछ लोगों से परिवार छूट जाता है।
जिनसे छूट जाता है, वह कमजोरी नहीं होती। जो छोड़ते हैं, वह कमजोरी होती है। छोड़ना कमजोरी है, छूट जाना कमजोरी नहीं है। जैसे सूखे पत्ते
वृक्षों से गिर जाते हैं,
वृक्ष को वे पत्ते छोड़ते नहीं, बस छूट जाते हैं। ऐसे ही जीवन में
जितना-जितना बोध विकसित होता है,
कुछ चीजें छूटनी शुरू हो जाती
हैं, उन्हें छोड़ना नहीं पड़ता। जिन चीजों को छोड़ना
पड़ता है, वे तो कच्चे पत्तों की भांति टूटती हैं और
पीछे उनका घाव छूट जाता है।
एक
छोटी सी कहानी कहूंगा, उससे समझ में बात आ जाएगी।
एक
गांव में एक दंपति रहता था--पति और पत्नी। वे दोनों बड़े सरल, सीधे-सादे चरित्र व्यक्ति थे। रोज लकड़ियां
काट लाते थे, जो पैसा होता था, सांझ खाना खा लेते थे। जो बचता था, वह बांट देते थे। रात उनके पास कुछ भी नहीं
होता था। अपरिग्रही होकर सो जाते थे। सुबह फिर लकड़ियां काट लाते थे। लेकिन एक दफा
वर्षा गिरी, सात दिन तक, अनायास
बेमौसम में, और वे लकड़ियां नहीं काटने जा सके। उन्होंने
भिक्षा मांगनी भी उचित न समझी,
किसी के ऊपर भार बनना भी ठीक
न समझा। तो वे भूखे रहे,
उन्होंने उपवास किया।
फिर
सात दिन बाद सूरज निकला,
वे लकड़ियां काटने गए। सात दिन
के भूखे, उन्होंने लकड़ियां काटीं, मौरियां बांधीं और घर की तरफ चलते थे। पति
आगे था, पत्नी पीछे थी। थोड़ा फासला था। पति रास्ते
से निकलता था जंगल के। देखा कि पास में किनारे पर पगडंडी के एक राहगीर की थैली गिर
गई है, अशर्फियों से भरी। कुछ अशर्फियां बाहर पड़ी
हैं, कुछ थैली में हैं। उसके मन को हुआ कि मैंने
तो स्वर्ण को छोड़ दिया, मैंने तो स्वर्ण को जीत लिया है। मैं तो हूं
विजेता। मेरे मन को तो लोभ नहीं पकड़ता, लेकिन
पत्नी का क्या भरोसा?
एक तो
पुरुष ने कभी स्त्री का भरोसा किया ही नहीं है। और पति ने पत्नी का भरोसा तो कभी
किया ही नहीं है। उसने भी नहीं किया। क्या भरोसा! उसका मन डांवाडोल हो जाए! इसलिए
पुरुषों ने जो शास्त्र लिखे हैं,
उसमें स्त्रियों को मोक्ष
जाने का अधिकार नहीं दिया। कोई भरोसा नहीं है स्त्रियों का। पुरुष भरोसा कर ही
नहीं सकता। अगर स्त्रियां शास्त्र लिखतीं, तो वे
भी पुरुष का भरोसा न कर सकती थीं,
वे भी नहीं भेजतीं उसको। वे
भी नियति बना देतीं कि जब तक स्त्री पर्याय में पैदा नहीं होओगे, तब तक मोक्ष नहीं जा सकते!
तो यह
सोच कर कि कहीं स्त्री का मन न डोल जाए, कहीं
उसके मन में कमजोरी न आ जाए--सात दिन की भूख, परेशानी!
उसने जल्दी से एक गङ्ढे में उस थैली को सरका दिया और मिट्टी से ढंक दिया। वह ढंक
भी न पाया था कि पीछे से आ गई स्त्री। और उसने पूछा कि क्या कर रहे हैं? अब बड़ी मुश्किल हो गई। सत्य बोलने का नियम
लिया हुआ था। झूठ बोल सकते नहीं थे। जिद्द के पक्के थे। नियम था, उसको तोड़ नहीं सकते थे और बताना भी कठिन हो
गया, लेकिन बताना पड़ा। तो कहा कि मेरे मन में
खयाल आया कि मैंने तो स्वर्ण को जीत लिया। मैंने तो छोड़ दिया संपत्ति का मोह, और यहां पड़ी थी थैली। स्वर्ण की अशर्फियां
थीं, सोचा कि कहीं तेरा मन उनके ऊपर लालच न खा
जाए, इसलिए उनको गङ्ढे में डाल कर मिट्टी से
ढंकता हूं। उसकी पत्नी ने कहा,
तुम्हें स्वर्ण अभी दिखाई
पड़ता है? और तुम्हीं मिट्टी के ऊपर मिट्टी डालते हुए
शर्म नहीं आती!
पति ने
स्वर्ण छोड़ा था, पत्नी से स्वर्ण छूट गया था, इतना फर्क था।
बुद्ध
ने परिवार कभी नहीं छोड़ा। महावीर ने परिवार कभी नहीं छोड़ा। परिवार छूट गया। वह
अर्थहीन हो गया। उसमें कोई भी अर्थ न रहा, जैसे
सांप अपनी केंचुली को छोड़ देता है,
निकल जाता है उसके बाहर, वैसे ही कुछ छूट गया, कुछ व्यर्थ हो गया। छोड़ने का और छूट जाने का
बुनियादी फर्क है और फर्क बाद में भी काम करता है। बुद्ध ने अपने पूरे जीवन में, बाद के कभी यह नहीं कहा कि मैंने राज्य छोड़ा, मैंने पत्नी छोड़ी, मैंने धन छोड़ा, यह कभी नहीं कहा।
एक
साधु के पास था मैं। उन्होंने कहा कि मैंने लाखों रुपये छोड़े हैं। मैंने पूछा, यह कब छोड़े थे? उन्होंने कहा, कोई
बीस-पच्चीस वर्ष हो गए; लात मार दी थी मैंने उन पर। मैंने कहा, वह लात ठीक से नहीं लग पाई। क्योंकि तीस
वर्षों तक उनकी याद! उसकी याद,
उसकी स्मृति कि मैंने छोड़ी थी, मैंने लाखों पर लात मार दी थी! उसकी स्मृति
क्यों बनी है? अगर लात पूरी लग गई होती, तो स्मृति नहीं होती। स्मृति है, तो जब लाखों रुपये रहे होंगे, तब यह खयाल रहा होगा, मेरे पास लाखों हैं और अब तीस वर्ष से
अहंकार दूसरा मजा ले रहा है। वह यह मजा ले रहा है कि मैंने लाखों छोड़ दिए हैं!
छोड़ता
है जब कोई, तो अहंकार में कोई फर्क नहीं पड़ता। अहंकार
फिर से उस छोड़ने को पकड़ लेता है और कहता है, मैं
त्यागी हूं, मैंने छोड़ा! लेकिन जब चीजें छूट जाती हैं, तो पता भी नहीं चलता, वे कब छूट गईं। और उनके पीछे त्याग का भाव
भी पैदा नहीं होता कि मैंने त्यागा,
मैंने छोड़ा। चीजें व्यर्थ हो
गईं और चली गईं।
आप
अपने घर के बाहर रोज कचरा फेंक देते हैं, तो आप
अखबार में जाकर खबर छपाते हैं कि आज मैंने घर का कचरा छोड़ दिया? धन्य हूं मैं और मेरा स्वागत करो और सम्मान
करो। नहीं, आप कचरा फेंक आते हैं और भूल जाते हैं। एक
दिन जीवन में ऐसा भी होता है कि जिसको हम बहुत मूल्यवान समझ रहे हैं, बोध के, विकास
के साथ-साथ वह कचरे जैसा हो जाता है। उसे छोड़ना नहीं पड़ता बस छूट जाता है। उसके
पीछे कोई याद ही नहीं रह जाती।
तो अगर
बुद्ध ने छोड़ा हो, तो वे जरूर कमजोर रहे होंगे। अगर महावीर ने
छोड़ा हो, तो वे जरूर कमजोर रहे होंगे। जैसा उनके भक्त
कहते हैं कि उन्होंने महान त्याग किया। अगर यह सच है, तो वे कमजोर रहे होंगे।
लेकिन
मैं तो यह कहता हूं कि उन्होंने कभी छोड़ा नहीं। उनको त्याग का पता भी नहीं था। यह
भक्तों भर को पता है कि बुद्ध ने त्याग किया और महावीर ने त्याग किया। उन्होंने
कभी नहीं छोड़ा था। चीजें व्यर्थ हो गई थीं, वे
उनके बाहर निकल गए थे, वैसे ही जैसे रोज सुबह आप कचरा फेंक आते हैं
घर के बाहर; ऐसे ही जो कचरा हो गया था, उसके वे बाहर आ गए थे। इसमें कौन सा छोड़ना
है, कौन सा त्याग है? त्याग किया है सिर्फ अज्ञानियों ने; ज्ञानियों ने कभी कोई त्याग नहीं किया।
अज्ञानी त्याग कर सकता है,
ज्ञानी कभी त्याग नहीं करता
है, उससे चीजें छूट जाती हैं, उससे त्याग का कोई संबंध ही नहीं है।
कुछ और
प्रश्न हैं, वह रात मैं आपसे बात करूंगा।
साधना
शिविर, जूनागढ़; १९ मई, १९६८; दोपहर.
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