अमृत की दशा-ओशो
प्रवचन—सातवां
कुछ प्रश्न हैं।
सबसे
पहले, पूछा है कि धर्मशास्त्र इत्यादि पाखंड हैं, तो वेद-उपनिषद में जो बातें हैं, वे सत्य माननी चाहिए या नहीं?
शास्त्रों
में जो है, उसे ही आप कभी नहीं पढ़ते हैं। शास्त्र में
जो है, उसे नहीं; आप जो पढ़ सकते हैं, उसे ही पढ़ते हैं।
इसे थोड़ा
समझ लेना जरूरी होगा।
यदि आप
गीता को पढ़ते हैं, या उपनिषद को पढ़ते हैं, या बाइबिल को, या
किसी और शास्त्र को, तो क्या आप सोचते हैं, जितने लोग पढ़ते हैं वे सब एक ही बात समझते
हैं? निश्चित ही जितने लोग पढ़ते हैं, उतनी ही बातें समझते हैं। शास्त्र से जो आप
समझते हैं, वह शास्त्र से नहीं, आपकी ही समझ से आता है। स्वाभाविक है। जितनी
मेरी समझ है, जो मेरे संस्कार हैं, जो मेरी शिक्षा है, उसके माध्यम से ही मैं समझ सकूंगा।
तो जब
आप गीता को समझ लेते हैं,
तो यह मत समझना कि कृष्ण के
वचन आपने समझे। आपने अपने ही वचन समझे हैं। इसीलिए शास्त्र में भला सत्य हो, लेकिन शास्त्र के पढ़ने से सत्य उपलब्ध नहीं
होता। इसे समझ लेना ठीक से। शास्त्र में भला सत्य हो, लेकिन शास्त्र समझने से सत्य उपलब्ध नहीं
होता। हां, सत्य उपलब्ध हो जाए तो शास्त्र समझ में आ
जाता है। क्यों?
कृष्ण
ने जिस चेतना की स्थिति में वचन कहे हों गीता में, जब तक
वैसी चेतना की स्थिति उपलब्ध न हो,
कृष्ण के वचन नहीं समझे जा
सकते हैं। जो भी आप समझेंगे,
वह आपका अपना ही होगा। यही
वजह है कि शास्त्रों पर इतना विवाद है। गीता पर हजार टीकाएं हैं। या तो कृष्ण पागल
रहे होंगे, अगर उनके एक ही साथ हजार अर्थ हों; या उनका एक ही अर्थ रहा होगा। लेकिन जो
हजार-हजार टीकाएं हैं, वे तो कहती हैं, हजार-हजार अर्थ हैं। निश्चित ही ये टीकाएं
कृष्ण की गीता पर नहीं, इनके लिखने वालों की बुद्धि की सूचनाएं हैं।
ये उनके अपने विचार का प्रतिफलन हैं। अन्यथा हजार अर्थ नहीं हो सकते कृष्ण की गीता
में। सच तो यह है कि जितने लोग गीता पढ़ेंगे, उतने
ही अर्थ हो जाएंगे। तो जो अर्थ आप समझ रहे हैं, वह
गीता का है, इस भूल में मत पड़ना। वह आपका अपना है।
तो जब
आप शास्त्र को पढ़ते हैं,
आपको सत्य उपलब्ध नहीं होता, जो आप जानते हैं, उसका ही कोई अर्थ उपलब्ध होता है। और वह
सत्य नहीं है। कोई सत्य को जान ले तो शास्त्र को समझ सकता है, लेकिन शास्त्र को समझ कर सत्य को नहीं समझ
सकता। यही वजह है कि दुनिया के ये सारे धर्मग्रंथ एक ही सत्य को कहते हैं, लेकिन इनके मानने वाले आपस में लड़ते हैं, इनके मानने वालों में विरोध है। दुनिया में
सत्य के नाम पर इतने संप्रदाय हैं। सत्य एक है और संप्रदाय अनेक हैं। क्या इससे यह
समझ में नहीं आता कि संप्रदाय हम बनाते हैं, सत्य
नहीं बनाता? और जैसे-जैसे दुनिया में विचार बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे उतने संप्रदाय हो जाएंगे जितने लोग
हैं। क्योंकि विचार हरेक व्यक्ति को अपना मत पैदा करवा देता है।
तो
मैंने जो कहा कि शास्त्रों के पढ़ने से सत्य नहीं मिलेगा, उसका अर्थ आप समझ लेना। आप उतना ही समझ सकते
हैं जितनी आपकी चेतना की स्थिति है,
उससे ज्यादा नहीं। इसलिए
शास्त्र पढ़ कर आप अपना ही अर्थ जानते हैं, शास्त्र
का अर्थ नहीं जानते। शास्त्र में भला सत्य हो, शास्त्र
के अध्ययन से सत्य नहीं मिलेगा।
इसीलिए
मैंने कहा कि सत्य को जानने का उपाय अध्ययन नहीं है, ध्यान
है। कोई बातें पढ़ कर मस्तिष्क में संगृहीत करके जो स्मृति बन जाती है, वह सत्य नहीं है। वरन सारे विचारों को छोड़
कर जब कोई व्यक्ति निर्विचार हो जाता है, उसके
चित्त में कोई विचार नहीं होते,
उस निर्विचार अवस्था में उसे
जो दिखाई पड़ता है, वही सत्य है। और वह सत्य एक बार अनुभव में आ
जाए तो शास्त्रों का कोई प्रयोजन भी नहीं रह जाता। हम उसे स्वयं ही जान लेते हैं, जो कि कोई शास्त्र कहता हो।
मैं
समझता हूं कि मेरी बात आपको स्पष्ट हुई होगी।
मैं
यहां बोल रहा हूं। मैं बोलने वाला तो एक हूं। मैं जो कह रहा हूं, उसमें भी मेरा प्रयोजन एक ही अर्थ से है।
लेकिन क्या आप सोचते हैं,
आप जो सुनने वाले हैं, वही सुन रहे हैं जो मैं बोल रहा हूं? अगर आप वही सुन रहे हों और आप सबसे पूछा जाए
कि मैंने जो कहा है, क्या कहा है? तो आप
सोचते हैं, आप सबका मत एक होगा? वह मत अनेक हो जाएगा। निश्चित ही इसका अर्थ
हुआ कि मैंने जो कहा, वही आपने नहीं सुना। मैंने जो कहा, उससे बहुत भिन्न आपने सुना है। आप भिन्न
सुनेंगे ही। क्योंकि आपके विचार और आपके संस्कार इतने भिन्न हैं कि मेरी बात आपके
भीतर जाकर बिलकुल भिन्न अर्थ ले लेगी। और वह जो भिन्न अर्थ होगा, आप मेरे ऊपर थोपेंगे कि मैंने कहा है। वैसे
ही हम कृष्ण के ऊपर अपना अर्थ थोपते हैं, उपनिषद
के ऊपर, क्राइस्ट के ऊपर अपना अर्थ थोपते हैं और
कहना चाहते हैं कि उन्होंने यह कहा है। इस भ्रम में कभी न पड़ें। आप जो भी कहेंगे, वह आप ही कह रहे हैं, किसी दूसरे के नाम पर उसे न थोपें। और अगर
आप सत्य जानने की स्थिति में हैं,
तो शास्त्र पढ़ने की कोई जरूरत
नहीं। और अगर सत्य जानने की स्थिति में नहीं हैं, तो
शास्त्र पढ़ने से कुछ भी नहीं होगा।
इसलिए
मैंने कहा, एक आदमी जीवन भर पढ़ता रह सकता है। कितने ही
शास्त्र पढ़ता रहे, उससे कुछ भी नहीं होगा। हां, उसके पास बहुत विचार इकट्ठे हो जाएंगे। अगर
वह उपदेश देना चाहे तो उपदेश दे सकेगा। और उपदेश देने का जो अहंकार है, जो रस है, वह ले
सकेगा। दुनिया में उपदेश देने से बड़ी अहमता और कुछ भी नहीं है। जो रस और जो आनंद
उपदेश देने में है, वह किसी और बात में नहीं है। तो शास्त्र पढ़
कर आप उपदेश दे सकेंगे। शास्त्र पढ़ कर चाहें तो दूसरे शास्त्र पैदा कर सकेंगे, दूसरे शास्त्र लिख सकेंगे। यह हो सकता है।
लेकिन सत्य से आपका कोई साक्षात नहीं होगा। सत्य के साक्षात के लिए विचार का
संग्रह नहीं, विचार का अपरिग्रह, विचार का त्याग, विचार का छोड़ देना जरूरी है। सत्य तो हमारे
भीतर है। सत्य तो चारों तरफ मौजूद है, लेकिन
हमारे पास देखने की आंख नहीं है।
बुद्ध
के जीवन में उल्लेख है। एक गांव में वे गए, कुछ
लोग एक अंधे आदमी को लेकर उनके पास आए और उन लोगों ने कहा, यह हमारा मित्र है, इसके पास आंखें नहीं हैं। हम इसे समझाते हैं
कि प्रकाश है, सूरज है, लेकिन
यह मानता नहीं। यह इनकार करता है। यह अस्वीकार करता है। न केवल यह अस्वीकार करता
है बल्कि यह हमें समझाता है कि तुम्हीं गलत हो और प्रकाश नहीं है। और यह ऐसे-ऐसे
तर्क और प्रमाण देता है कि हम हार जाते हैं और यह जीत जाता है। तो सुन कर कि बुद्ध
का गांव में आगमन हुआ है,
हम इसे आपके पास लाए हैं। आप
इसे समझा दें कि प्रकाश है।
बुद्ध
ने कहा, मैं इसे कुछ न समझाऊंगा। कुछ मैं तुम्हें
समझाऊंगा।
वे
मित्र हैरान हुए, उन्होंने कहा, हमें
क्या समझाना है? उन मित्रों ने कहा, हम तो इसे कहते हैं, प्रकाश है। तो यह कहता है, मैं उसे छूकर देखना चाहता हूं। क्योंकि जिस
चीज की भी सत्ता है, उसे छूकर देखा जा सकता है। हम कहते हैं, प्रकाश है। तो यह कहता है, उसे बजाओ, मैं
उसकी आवाज सुनना चाहता हूं। क्योंकि जो भी है, उसे
किसी चीज से ठोंका और बजाया जा सकता है। और हम असमर्थ हो जाते हैं।
बुद्ध
ने कहा, भूल तुम्हारी है। जिसके पास आंख नहीं है, उसे प्रकाश समझाने की बात ही पागलपन है।
प्रकाश समझाया नहीं जाता,
प्रकाश देखा जाता है। कोई
प्रकाश को समझा नहीं सकता। प्रकाश को देखना होता है। प्रकाश का विचार नहीं होता, प्रकाश का दर्शन होता है। प्रकाश की धारणा
नहीं बनानी होती, प्रकाश की अनुभूति होती है। तो तुम इसे
समझाते हो, इस बात को जानते हुए कि इसके पास आंखें नहीं
हैं, तुम्हीं पागल हो, यह तो ठीक ही कहता है। उचित है कि इसे किसी
विचारक के पास नहीं, किसी वैद्य के पास ले जाओ। और इसे उपदेश की
नहीं, उपचार की जरूरत है। इसे समझाओ मत, इसकी आंखों का इलाज करो। अगर इसके पास आंखें
होंगी, तो तुम्हारे बिना समझाए यह जानेगा कि प्रकाश
है। और अगर इसके पास आंखें नहीं हैं, तो
तुम्हारे लाख समझाने से भी यह नहीं जान सकता है कि प्रकाश है।
वे उसे
वैद्य के पास ले गए। उसकी चिकित्सा हुई। और थोड़े ही दिनों में उसकी आंख की जाली कट
गई और वह देखने में समर्थ हुआ। उसने अपने मित्रों से कहा, मुझे क्षमा कर दें। प्रकाश तो था, आंख नहीं थी। तुम कहते थे, वह व्यर्थ हो जाता था। क्योंकि जिसका मुझे
अनुभव नहीं था, उस संबंध में कहे गए कोई भी शब्द मेरे लिए
सार्थक नहीं हो सकते थे। तुम्हारी बातें मुझे व्यर्थ लगती थीं और मुझे ऐसा लगता था
कि तुम प्रकाश की बातें केवल इसलिए करते हो, ताकि
तुम मुझे अंधा सिद्ध कर सको। तुम मुझे अंधा सिद्ध करने के लिए प्रकाश की बातें
करते हो, यह मेरी समझ में आता था। अब मैं जानता हूं
कि प्रकाश है, क्योंकि आंख है।
सत्य
का भी विचार नहीं होता, दर्शन होता है। सत्य का भी अध्ययन नहीं होता, अनुभूति होती है। सत्य के लिए भी एक तरह की
आंख खोलनी होती है भीतर,
तब उसकी प्रतीति होती है। कुछ
शास्त्र के पढ़ने से नहीं। एक अंधे आदमी को कितना ही प्रकाश के संबंध में पढ़ाओ और
समझाओ, क्या होगा? हो
सकता है वह भी उन बातों को दोहराने लगे, लेकिन
उससे आंख थोड़े ही खुलेगी! उससे कोई अनुभव थोड़े ही होगा! उससे कोई साक्षात थोड़े ही
होगा!
सत्य
के लिए भी आंख चाहिए। विचार नहीं,
अध्ययन नहीं; साधना, योग।
इसलिए कोई शास्त्र सत्य देने में समर्थ नहीं है। और जो शास्त्र नहीं दे सकता, वही साधना से उपलब्ध होता है। इससे यह मत
समझ लेना कि मैं कह रहा हूं कि सब शास्त्र गलत हैं। इससे यह मत समझ लेना कि मैं कह
रहा हूं कि शास्त्रों में कोई सत्य नहीं है। मैं जो कह रहा हूं वह यह कि शास्त्रों
से सत्य उपलब्ध नहीं हो सकता है। मैं जो कह रहा हूं वह यह कि आप उनको पढ़ कर सत्य
को नहीं पा सकते हैं। प्रकाश के बाबत ग्रंथ हैं, लेकिन
अंधे के लिए व्यर्थ हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि उन ग्रंथों में प्रकाश के संबंध
में जो लिखा है वह गलत है। लेकिन उससे कोई आंख नहीं खुलती। आंख खोलने का और ही
उपचार है। इस बात को ध्यान में रखेंगे तो मेरी बात समझ में आ सकेगी।
आपको
कुछ भी पढ़ने से सत्य नहीं मिलेगा। अगर पढ़ने से सत्य मिलता होता तो सत्य के
विद्यालय खोले जा सकते थे। कोई कठिनाई न थी। वहां सत्य मिल जाता। लोग पढ़ते और खोज
लेते।
विज्ञान
अध्ययन से मिल सकता है, धर्म अध्ययन से नहीं मिलता। इसलिए विज्ञान
के शास्त्र सहायक हैं और धर्म के शास्त्र बाधक हो जाते हैं। विज्ञान बिना अध्ययन
के नहीं मिल सकता। जो भी जड़ के संबंध में है, वह
अध्ययन से मिल जाएगा। उसके शास्त्र हो सकते हैं। लेकिन जो चैतन्य के संबंध में है, वह अध्ययन से नहीं मिलेगा। उसकी सिर्फ
अनुभूति होती है।
साथ ही
इसके और पूछा है कि मनुष्य जन्म से ही ज्ञानी नहीं होता है, उसे तो अध्ययन करना पड़ता है। फिर वह कौन सा
अध्ययन कर जीवन सफल बना सकता है?
अभी
मैंने जो कहा, उसे अगर आप समझे होंगे, तो मैं कहना चाहूंगा, शास्त्र के अध्ययन से नहीं, जीवन के अध्ययन से जीवन सफल बनता है। जीवन
से बड़ा भी कुछ और अध्ययन करने को है? क्या
सारे शास्त्र जीवन के अध्ययन से ही नहीं निकले हैं? जिस
जीवन के अध्ययन से सबका जन्म होता है, सब
विचार का, क्या उचित नहीं है कि उसी जीवन को हम अध्ययन
करें, और सेकेंड हैंड, दूसरों के हाथ से आई हुई सूचनाओं को ग्रहण न
करें? क्या मुझे प्रेम के संबंध में कोई कुछ कह
देगा, तो मैं प्रेम को जान लूंगा? क्या मुझे प्रेम को स्वयं ही नहीं जानना
होगा ताकि मैं जान सकूं?
क्या मैं किसी दूसरों के
प्रेम-अनुभवों से कोई अनुभूति पा सकता हूं? और जब
जीवन उपलब्ध है, तो क्या उचित न होगा कि मैं प्रेम को करके
ही जानूं? जब जीवन मुझे मिला है, तो मैं जीवन को ही अध्ययन करूं।
तो हम
जीवन को तो अध्ययन नहीं करते,
हम शास्त्रों को अध्ययन करते
हैं। जो कि बिलकुल मृत हैं,
जो कि बिलकुल डेड हैं। जीवन
सामने है और हम शास्त्रों का अध्ययन करते हैं।
रवींद्रनाथ
के जीवन में एक उल्लेख है। वे सौंदर्यशास्त्र का अध्ययन करते थे। एस्थेटिक्स का
अध्ययन करते थे। सौंदर्य क्या है,
इसकी खोज में थे। बहुत खोजा, बहुत शास्त्र पढ़े। सौंदर्य के बाबत कोई
स्पष्ट धारणा नहीं हो पाती थी। एक रात बजरे में थे। पूरी चांद की रात थी, पूर्णिमा थी। नाव पर बजरे में थे। अपनी छोटी
सी झोपड़ी में बैठ कर अध्ययन करते थे। सौंदर्यशास्त्र को पढ़ते थे। फिर रात कोई दो
बजे थक गए। किताब बंद की,
दीया बुझाया और अपनी कुर्सी
पर लेट रहे। लेटते ही बाहर खिड़की के दृष्टि गई। खिंचे हुए खिड़की पर आकर खड़े हो गए
और कहने लगे: मैं कैसा पागल हूं,
सौंदर्य बाहर मौजूद है और मैं
शास्त्र में उसका अध्ययन कर रहा हूं! सौंदर्य बाहर मौजूद था और मैं उसका शास्त्र
में अध्ययन कर रहा था।
सौंदर्य
निरंतर मौजूद है, लेकिन कुछ पागल हैं, जो शास्त्र में उसका अध्ययन करने जाते हैं।
प्रेम निरंतर मौजूद है, लेकिन कुछ पागल हैं, जो प्रेम का भी अध्ययन शास्त्र में करने
जाते हैं। परमात्मा निरंतर मौजूद है, लेकिन
कुछ पागल हैं, जो कि उसका अध्ययन करने शास्त्र में जाते
हैं। जीवन चारों तरफ जो है,
वह क्या है? क्या प्रतिक्षण वहां परमात्मा और प्रतिक्षण
वहां सत्य और सत्ता नहीं है?
वहां है। लेकिन हम उसे देखने
को न तो तैयार हैं, न देखने की इच्छा है, न देखने की भीतर भूमिका है।
मैं
आपसे कहूं कि आप जीवन को देख ही नहीं पाते और जीवन से गुजर जाते हैं।
आप
कहेंगे, कैसी बात मैं कर रहा हूं? दिन-रात जीते हैं; सुबह से शाम तक जीते हैं; शाम से सुबह तक जीते हैं; चौबीस घंटे जीते हैं। और मैं कह रहा हूं कि
आप जीवन को बिना जाने निकल जाते हैं!
निश्चित, मैं आपसे कह रहा हूं, आप जीवन को बिना जाने निकल जाते हैं। और
इसीलिए तो सारे सवाल उठते हैं कि ईश्वर है या नहीं? अगर
जीवन से परिचित हो जाते तो ईश्वर मिल जाता। इसीलिए सवाल उठते हैं कि आत्मा है या
नहीं? इसलिए सवाल इसमें पूछा हुआ है कि पुनर्जन्म
होता है या नहीं? जो जीवन को जान लेगा, उसके लिए मृत्यु विलीन हो जाती है। मृत्यु
हो ही नहीं सकती। लेकिन हम जीवन को जानते नहीं। क्या आप सारे लोग, क्या हम सारे लोग मृत्यु से घबड़ाए हुए नहीं
हैं? अगर हम जीवन को जान लेते तो मृत्यु से कैसे
घबड़ाते? जीवन की क्या कोई मृत्यु हो सकती है? और जिसकी मृत्यु हो जाए, उसे क्या हम जीवन कहेंगे? जो जीवन है, उसकी
कोई मृत्यु नहीं है। जो जीवन है,
उसका कोई अंत नहीं है। लेकिन
हम जीवन से परिचित भी नहीं हैं।
और हम
जीवन से परिचित क्यों नहीं हैं?
हम
जीवन से इसलिए परिचित नहीं हैं कि जीवन हमेशा वर्तमान में होता है, और हम? हम या
तो अतीत में होते हैं या भविष्य में होते हैं। जीवन हमेशा वर्तमान में है। समय के
ये तीन खंड हैं--अतीत है,
जो बीत गया; भविष्य है, जो अभी
नहीं आया; और वर्तमान का छोटा सा क्षण है, जो मौजूद है। वह जो लिविंग प्रेजेंट है, वह जो जीवित वर्तमान का क्षण है, उसमें हम कभी नहीं होते। वह बहुत छोटा सा
क्षण है। इसके पहले कि हम होश में आएं, वह
अतीत हो जाएगा। लेकिन हमारा चित्त या तो अतीत में होता है, या तो हम पीछे की बातें सोचते रहते हैं, या हम आगे की बातें सोचते रहते हैं। इसलिए
उससे वंचित रह जाते हैं,
जो है, जो इसी क्षण है।
मैं एक
अपने मित्र को लेकर, एक नाव पर उन्हें बिठा कर पहाड़ियों को दिखाने
और नदी की यात्रा को ले गया। वे दूर से बाहर के मुल्कों से घूम कर लौटे थे। बड़े
कवि थे। बहुत उन्होंने यात्रा की है। बहुत नदियां, बहुत
पहाड़ देखे हैं। बहुत प्रकार के सुंदर स्थानों में वे घूमे हैं। मैं उन्हें घुमाने
ले गया। वे मुझसे बोले, वहां क्या होगा? मैं तो बहुत झीलें, बहुत सुंदर पहाड़, बहुत प्रपात देखा हूं। मैंने कहा, फिर भी चलें। क्यों? क्योंकि मेरी मान्यता है कि हर चीज का अपना
सौंदर्य है और किसी सौंदर्य की किसी दूसरे सौंदर्य से कोई तुलना नहीं हो सकती।
क्योंकि इस जगत में हर चीज अनूठी है और कोई चीज दूसरी चीज जैसी नहीं है। एक छोटा
सा कंकड़ का टुकड़ा भी अपने में यूनीक है, बेजोड़
है। आप सारी जमीन खोज लें,
तो उस जैसा दूसरा टुकड़ा नहीं
मिलेगा। एक छोटा सा फूल भी अपने में बेजोड़ है। वैसा दूसरा फूल पूरी जमीन पर खोजने
से नहीं मिलेगा। लेकिन, मैंने उनसे कहा, चलें। जो छोटी सी पहाड़ियां हैं और छोटी सी
नदी है, उसको ही देख लें।
मैं
उन्हें लेकर गया। दो घंटे तक हम उन पहाड़ियों में, उस नदी
के किनारे पर, नाव में सब तरफ घूमे। वे स्विटजरलैंड की
झीलों की बातें करते रहे। कश्मीर की झीलों की बातें करते रहे। मैं सुनता रहा। फिर
जब हम वापस लौटे दो घंटे बाद,
तो उन्होंने कहा, बड़ी सुंदर जगह थी। मैंने उनके मुंह पर हाथ
रख दिया। मैंने कहा, मत कहें। क्योंकि वहां मैं अकेला ही गया था।
आप वहां नहीं गए। आप वहां नहीं थे,
मैं ही वहां था, आप वहां नहीं थे। बोले, यह क्या आप बात कर रहे हैं? मैं आपके साथ हूं और दो घंटे वहां घूमा।
मैंने कहा, आप मेरे साथ दिखाई पड़ते थे। आप मेरे साथ
नहीं थे। आपका चित्त स्विटजरलैंड में रहा होगा, कश्मीर
में रहा होगा, लेकिन ये जो छोटी सी पहाड़ियां हैं, यह जो छोटी सी नदी है, इसमें नहीं था। आप मौजूद नहीं थे। जो आपके
सामने था, वह आपको दिखाई नहीं पड़ रहा था। स्मृति पीछे
चल रही थी और स्मृति की फिल्म के कारण, जो
मौजूद था, वह छिप गया था। फिर मैंने उनसे कहा, और अब मैं यह भी समझ गया कि स्विटजरलैंड की
झीलों के बाबत जो आप कहते हैं,
वह भी झूठ होगा। क्योंकि जब
आप उन झीलों पर रहे होंगे,
तो मन कहीं और रहा होगा।
क्योंकि मैं आपके मन की आदत को समझ गया।
यह
हमारे सबके मन की आदत है। हम जहां हैं, मन
वहां नहीं है। जहां हम नहीं हैं,
वहां मन है। इस भांति हम जीवन
से वंचित रह जाते हैं। या तो हम अतीत के संबंध में सोचते रहते हैं और या भविष्य के
संबंध में सोचते रहते हैं। दोनों ही स्थितियों में, जो
मौजूद है, वह हमसे चूक जाता है। उससे हम वंचित हो जाते
हैं।
और
मैंने कहा, जीवन सदा वर्तमान में है। न तो अतीत में कोई
जीवन है और न भविष्य में कोई जीवन है।
यह जो
हमारा चित्त है, यह जो हमारा मन है, यह जो निरंतर अतीत में और भविष्य में घूमता
है, इसके कारण हम जीवन की जो निरंतर, जो निरंतर धारा है, उससे अपरिचित रह जाते हैं। तो जीवन का
अध्ययन करिए। मन को अतीत में मत जाने दीजिए। मन को व्यर्थ भविष्य में मत भटकने
दीजिए। उसे लाइए। जो मौजूद है,
वहां मौजूद करिए। अगर चांद के
पास नीचे बैठे हैं, तो थोड़ी देर को चांद के पास ही रह जाइए और
मन के सारे अतीत और भविष्य के चिंतन को छोड़ दीजिए। अगर फूल के पास बैठे हैं, तो थोड़ी देर फूल के पास ही रह जाइए और मन के
सारे चिंतन को छोड़ दीजिए। जीवन को देखिए और चिंतन को छोड़ दीजिए। और आप हैरान हो
जाएंगे, जिसे शास्त्रों में खोजते हैं, वह निरंतर हाथ के पास मौजूद है। जिसे
शास्त्रों में नहीं पा सकेंगे,
वह निरंतर निकट है। लेकिन हम
अनुपस्थित हैं। स्मरण रखें,
सत्य सदा उपस्थित है, हम अनुपस्थित हैं। परमात्मा निरंतर उपस्थित
है, लेकिन हम उसके प्रति उन्मुख नहीं हैं। हमारी
आंखें बंद हैं या कहीं और भटकी हुई हैं।
मैं
कहूंगा, अध्ययन जरूर करिए, लेकिन जीवन का। और जीवन के अध्ययन की शर्त
है: विचार को छोड़ कर जीवन को देखिए।
कभी
आपने किसी चेहरे को देखा है बिना विचार के? कभी
आपने कोई आंखें देखी हैं बिना विचार के? कभी
आपने आंख उठा कर ऊपर सूरज को देखा है बिना विचार के? कभी
आपने सागर को देखा है बिना विचार के? कोई
पहाड़, कोई पर्वत, कोई
फूल, कोई दरख्त, कोई
सड़क, राह पर चलते हुए लोग, कोई कभी देखे हैं बिना विचार के? अगर नहीं देखे तो जीवन से कैसे परिचित होंगे? आप अपने विचार से घिरे रहेंगे। जीवन बहा जाता
है।
विचार
को छोड़ दें और देखें; विचार को तोड़ दें और देखें; विचार को रुक जाने दें और देखें; तब जो आपको दिखाई पड़ेगा, वह जीवन है। और वह जीवन, उससे बड़ा कोई अध्ययन नहीं, उससे बड़ा कोई शास्त्र नहीं। सब शास्त्र मिट
जाएं, सब शास्त्र नष्ट हो जाएं, तो भी सत्य नष्ट नहीं होगा। वह तो निरंतर
मौजूद है। और शास्त्र ही शास्त्र बढ़ जाएं...और बहुत बढ़ रहे हैं। मैं सुनता हूं कि
सारी दुनिया में कोई पांच हजार ग्रंथ हर सप्ताह छप जाते हैं। हर सप्ताह पांच हजार
ग्रंथ! थोड़े दिनों में तो क्या स्थिति होगी! आदमी का रहना मुश्किल हो जाएगा, इतनी किताबें होंगी। और इन सारी किताबों के
बावजूद क्या हो रहा है? आदमी कहां है? आदमी
रोज गिरता जा रहा है। किताबें बढ़ती जा रही हैं और आदमी सिकुड़ता जा रहा है। किताबें
बढ़ती जाएंगी, आदमी छोटा होता जाएगा। धीरे-धीरे किताबों के
पहाड़ हो जाएंगे और आदमी का ज्ञान?
आदमी का ज्ञान शून्य होता जा
रहा है। शास्त्र से नहीं,
शब्द से नहीं, जीवन के प्रति सजग होने से, जागने से।
तो
मैंने कहा, मैं समझता हूं, मेरी बात समझ में आई होगी। अध्ययन ही करना
है, तो जीवन का करें। जीवन तो परमात्मा की खुली
किताब है। लोग कहते हैं,
परमात्मा ने वेद लिखे। लोग
कहते हैं, परमात्मा ने कुरान भेजी। लोग कहते हैं, परमात्मा ने अपना पुत्र भेजा और क्राइस्ट ने
बाइबिल लिखवाई। ये सब पागलपन की बातें हैं। परमात्मा ने तो एक ही किताब लिखी है, वह जिंदगी की किताब है। और तो कोई किताब
परमात्मा की लिखी हुई नहीं है। और सब किताबों पर आदमी के हस्ताक्षर हैं। और सब
किताबें आदमी के हाथ की हैं। एक ही किताब है जीवन की, जो परमात्मा की है। अगर वेद ही कहना है तो
उसे कहें; अगर कुरान ही कहना है तो उसे कहें; अगर बाइबिल ही कहनी है तो उसे कहें। वह जो
जीवन, जो परमात्मा की किताब है, उसे अध्ययन करें, उसे जानें, उसे
पहचानें और बीच में किताबों को न आने दें। बीच में किताबें आ जाएंगी, तो जीवन को अध्ययन करने से आप वंचित हो
जाएंगे। बीच में कोई किताब न आने दें और सीधे जीवन को देखें। परमात्मा के पास जाना
है तो किताबें लेकर जाने की कौन सी जरूरत है? वह कोई
स्कूल थोड़े ही है? वहां किताबों का भार ले जाने की क्या जरूरत
है?
लेकिन
कोई आदमी रामायण को लिए खड़ा है परमात्मा के बीच में; कोई
बाइबिल को लिए; कोई कुरान को लिए; कोई वेद को लिए। यह किताब काफी मोटी है, यह परमात्मा से नहीं मिलने देगी। इसे
फेंकें। परमात्मा सीधा मिल सकता है तो किताब को क्यों बीच में लिए हैं? यह किताब को क्यों बीच में डाल रहे हैं? बीच में किसी को भी लेने की कोई जरूरत नहीं
है--न किताब को, न गुरु को, न
तीर्थंकर को, न अवतार को, न
ईश्वर-पुत्र को--किसी को बीच में लेने की जरूरत नहीं है। जो बीच में ले लेगा, वह वंचित हो जाएगा।
एक
छोटी सी कहानी मुझे स्मरण आती है।
एक
सूफी फकीर हुआ। उसने एक रात स्वप्न देखा। उसने एक रात स्वप्न देखा कि वह अचानक
स्वर्ग में पहुंच गया है। परमात्मा की बस्ती में पहुंच गया है। और वहां बड़े जोर से
कोई उत्सव मनाया जा रहा है। रास्तों पर बड़ी भीड़ें हैं, बड़े प्रकाश हैं, बड़ी झंडियां हैं, बड़ा आलोक है, रास्ते
बड़े सजाए गए हैं, कुछ हो रहा है, कोई बड़ा उत्सव है। वह राह के किनारे खड़ा हो
गया और उसने पूछा, यह क्या हो रहा है? जो भीड़ वहां इकट्ठी थी, करोड़ों-करोड़ों लोगों की भीड़ थी, उस भीड़ में उसने किसी से पूछा, यह क्या हो रहा है? उन्होंने कहा, परमात्मा
की सवारी निकल रही है, आज उसका जन्म-दिन है। उसने कहा, बड़े भाग्य कि मैं यहां आ गया और आज मुझे यह
अवसर मिल गया कि मैं इसे देख लूं।
फिर एक
बहुत बड़ी भीड़, एक बहुत बड़ा जुलूस निकला और एक घोड़े पर
भगवान बुद्ध बैठे हुए थे और करोड़ों-करोड़ों लोग उनके पीछे थे। उसने पूछा, क्या भगवान की सवारी आ गई? उन्होंने कहा, नहीं, यह तो बुद्ध की सवारी है और उनके अनुयायी
उनके पीछे हैं। फिर राम की सवारी थी; फिर
महावीर की थी; फिर क्राइस्ट की थी; फिर कृष्ण की थी; फिर मोहम्मद की थी और सबके पीछे
करोड़ों-करोड़ों लोग थे। और वह आदमी बोला, भगवान
की सवारी कहां है? लोगों ने कहा, ये तो
अभी उनके अवतारों की सवारियां निकल रही हैं, उनके
प्रेमी जा रहे हैं। उसने सोचा: जब इनकी सवारियों में करोड़ों-करोड़ों लोग हैं, तो भगवान की सवारी में क्या नहीं होगा हाल? आखिर में जब कि सारा जलसा निकल गया और कोई
नहीं दिखाई पड़ता था, तो एक बिलकुल मरे से घोड़े पर एक बूढ़ा आदमी
बैठा है। और उसने कहा कि अभी तक भगवान की सवारी नहीं आई? लोगों ने कहा, यह जो
आ रही है, भगवान की सवारी है। इनके साथ कोई भी नहीं
है। ये बिलकुल अकेले पड़ गए हैं,
क्योंकि बाकी सारे लोग--कोई
राम के साथ है; कोई कृष्ण के साथ है; कोई महावीर के; कोई बुद्ध के; कोई
क्राइस्ट के; कोई मोहम्मद के--इनके साथ कोई भी नहीं है, ये बहुत अकेले पड़ गए हैं। इनकी सवारी अकेली
ही जा रही है। वह जन्म-दिन उन्हीं का है, उनकी
सवारी बिलकुल अकेली है।
ऐसा ही
हुआ है। किताबें और गुरु और अवतार और ईश्वर-पुत्र बीच में आ गए हैं। जब कि
परमात्मा से कोई भी संपर्क अगर हो सकता है तो सीधा हो सकता है। प्रेम का कोई भी
संपर्क सीधा हो सकता है। बीच में कोई आदमी नहीं हो सकता प्रेम में।
अब मैं
किसी को प्रेम करूं और एक आदमी बीच में हो, प्रेम
कैसे होगा? और मैं प्रार्थना करूं और एक आदमी बीच में
हो, तो प्रार्थना कैसे होगी? मैं किसी को प्रेम करूं और कोई बीच में एक
आदमी हो, एजेंट हो, तो
कैसे प्रेम होगा? प्रेम तो सीधा होगा। वहां बीच में कोई नहीं
हो सकता। प्रार्थना भी प्रेम है। वह अपरिसीम प्रेम है। वह भी सीधी होगी। वहां भी
कोई बीच में नहीं हो सकता--न कोई किताब, न कोई
शब्द, न कोई गुरु। जो भी बीच में है, उसे हटा दें। कृपा करें, उसे हटा दें। अगर परमात्मा तक या सत्य तक
पहुंचना है, तो बीच से सबको हटा दें। आप काफी हैं। अकेले
काफी हैं। और जीवन को अध्ययन करें,
और जीवन को जानें। और जीवन से
जो मिलेगा, वही सत्य है। और जीवन से जो मिलेगा, वही जीवंत है। जीवन से जो मिलेगा, वही मुक्त करता है।
एक
प्रश्न पूछा है कि हठयोग से समाधि लेकर साधना की जाए या राजयोग को लेकर या किसी और
को लेकर?
समाधि
भी कोई बहुत प्रकार की होती है?
कि हठयोग की समाधि कोई अलग
होती है और राजयोग की समाधि कोई अलग होती है?
हम तो
हर चीज में विभाजन किए हुए हैं और हर चीज में लेबल लगाए हुए हैं। हर चीज में
ग्रेडेशन किए हुए हैं। वह दुकान की आदत है न दिमाग में। बाजार की आदत है। वहां हर
चीज पर लेबल है। हर चीज का अलग-अलग डिब्बा है। हर चीज का अलग-अलग खांचा है। वही
हमारा धर्म के बाबत भी है। वही हमारा हर चीज के बाबत है। हर चीज में हम सोचते हैं
कि चीजें अलग-अलग होंगी।
एक
बाउल साधु हुआ बंगाल में। वह वैष्णव साधु था। बाउल तो प्रेम की बात करते हैं। वे
तो कहते हैं कि प्रेम ही सब कुछ है। वही परमात्मा है। एक बहुत बड़ा पंडित उसके पास
गया। उस पंडित ने कहा कि कितने प्रकार का प्रेम होता है मालूम है?
उस
बाउल ने कहा, प्रेम और प्रकार! मैंने कभी सुना नहीं।
प्रेम तो हम जानते हैं, प्रकार हम नहीं जानते।
तो
उसने कहा, कुछ भी नहीं जाना। जीवन तुम्हारा व्यर्थ
गया। हमारे शास्त्र में प्रेम पांच प्रकार का लिखा हुआ है। और तुम्हें यह भी पता
नहीं है कि कितने प्रकार का प्रेम होता है, तो तुम
प्रेम क्या जानोगे!
वह
साधु बोला, जब शास्त्र में लिखा है तो ठीक ही लिखा होगा।
मैं ही गलत होऊंगा। लेकिन मैं तो प्रेम को ही जानता हूं, प्रकार को नहीं जानता। फिर भी तुम कहते हो
तो मैं सुन लूं। तुम्हारे शास्त्र को मुझे सुना दो।
तो उस
पंडित ने अपने शास्त्र को खोला और बताया कि कितने प्रकार का प्रेम होता है। सब
समझाया। जब वह पूरी बात समझा चुका,
तो उसने फकीर से पूछा कि समझे
कुछ? क्या प्रभाव पड़ा?
वह
बाउल हंसने लगा और उसने कहा,
क्या प्रभाव पड़ा? जब तुम शास्त्र को पढ़ने लगे तो मुझे ऐसा लगा, मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि कोई सुनार सोने के
कसने के पत्थर को लेकर फूलों की बगिया में आ गया है और फूलों को उस पत्थर पर कस-कस
कर देख रहा है कि कौन सा फूल असली,
कौन सा फूल नकली। मुझे ऐसा
लगा। उसने कहा, पागल! प्रेम के कहीं प्रकार हुए हैं? और जहां प्रकार हैं, वहां कोई प्रेम होगा?
प्रेम
तो बस एक है। समाधि भी बस एक है। कोई पच्चीस तरह की समाधि नहीं होती। बीमारियां बहुत
तरह की होती हैं, खयाल रखें, स्वास्थ्य
एक ही प्रकार का होता है। अशांतियां बहुत प्रकार की होती हैं, शांति एक ही प्रकार की होती है। तो असमाधान
बहुत प्रकार के होते हैं,
लेकिन समाधि एक ही प्रकार की
होती है। लेकिन जो किताबी जिनके दिमाग हैं, वे
विभाजन कर लेते हैं। वे विश्लेषण कर देते हैं कि यह इस प्रकार की--यह राजयोग की, यह हठयोग की, यह
फलां योग की, यह भक्तियोग की। कोई योग-वोग नहीं है। सिर्फ
एक ही योग है। यह सारा का सारा पंडित का विभाजन है, यह कोई
साधक की दृष्टि नहीं है। और पंडित को मजा आता है विश्लेषण करने में। अगर शास्त्रों
को पढ़िए, तो कैसे बारीक विश्लेषण हैं। हवा में सारी
की सारी बातें हैं और उनके खूब विश्लेषण हैं, खूब
विभाजन हैं। पर कुछ पागल होते हैं जो विभाजन और विश्लेषण से बहुत प्रभावित होते
हैं और समझते हैं कि यह कोई खास बात है।
जीवन
में कोई विभाजन नहीं है,
कोई विश्लेषण नहीं है। जीवन
इकट्ठा है। और समाधि भी एक है। क्या है समाधि का अर्थ? समाधि का अर्थ है: चित्त का इतना शांत हो
जाना कि वहां कोई असमाधान न रह जाए,
वहां कोई अशांति न रह जाए।
चित्त का ऐसा शून्य हो जाना कि चित्त में कोई क्रिया न रह जाए, चित्त में कोई विकार न रह जाए, कोई असंतोष न रह जाए। चित्त ऐसी समता की
स्थिति को पा जाए कि वहां कोई हलन-चलन, कोई
मूवमेंट, कोई गति न हो। तो उस परम शांत स्थिति में जो
जाना जाएगा, वह सत्य होगा। समाधि सत्य का द्वार है।
समाधि
के कोई प्रकार नहीं होते और न योग के कोई प्रकार होते हैं। लेकिन हमारे विभाजन हैं, बंटे हुए, शास्त्रों
के। उनको हम पकड़ लेते हैं और सोचते हैं ये प्रकार होंगे।
कोई
प्रकार नहीं हैं। उसकी मैं चर्चा कल करूंगा। जब हम चित्त की शून्यता का विचार
करेंगे तो समाधि का भी विचार करेंगे। तब समझाने की मैं कोशिश करूंगा कि मेरी बात
आपके खयाल में आ जाए।
जीवन
में ये चीजें एक ही हैं। और अगर अनेक दिखती हों, तो
जरूर हमारी कोई देखने में भूल है। जरूर हमारी कोई भूल है। और इन अनेकों के नाम से
फिर अनेक पंथ बनते हैं और संप्रदाय बनते हैं। उनके समर्थक खड़े होते हैं और विरोधी
खड़े होते हैं। और एक कोलाहल मच जाता है सारी दुनिया में। और सत्य तो दूर रह जाता
है, सत्य के संबंध में जो मत होते हैं, उनके विवाद घेर लेते हैं।
एक
साधु को किसी ने जाकर पूछा था कि मैं सत्य को जानना चाहता हूं। तो उस साधु ने कहा, तुम सत्य को जानना चाहते हो या सत्य के संबंध
में? उसने पूछा कि तुम सत्य को जानना चाहते हो या
सत्य के संबंध में? अगर सत्य के संबंध में जानना है तो कहीं और
जाओ। बहुत हैं बताने वाले,
जो सत्य के संबंध में बता
देंगे। और अगर सत्य को जानना है तो फिर यहां रुक जाओ। लेकिन सत्य के संबंध में
दुबारा प्रश्न मत पूछना।
वह तो
बहुत घबड़ा गया। एक तो रास्ता यह है कि सत्य के संबंध में जानना हो तो कहीं और जाओ।
बहुत हैं बताने वाले। लेकिन सत्य को ही जानना हो तो फिर यहां रुक जाओ। फिर दुबारा
मत पूछना सत्य के बाबत। उसने कहा,
मैं राजी हूं। मैं तो सत्य को
ही जानने को आया हूं। रुक जाता हूं।
उस
साधु ने कहा, इस आश्रम में पांच सौ भिक्षु हैं। इनका रोज
चावल बनता है। तुम जाओ और किचन के पीछे के झोपड़े में जीवन गुजारो, और रोज चावल कूटो, और कुछ मत करना। न तो किसी से ज्यादा बात
करने की जरूरत है, न चीत करने की जरूरत है। और न तुम्हें हम
वस्त्र देंगे साधु के। तुम तो सिर्फ चावल कूटो। और एक ही बात का खयाल रखना कि
चित्त जब चावल कूटे तो सिर्फ चावल कूटे, और कुछ
न करे। बस चावल ही कूटो। जब थक जाओ तो सो जाओ, जब जाग
जाओ तो चावल कूटो। और दुबारा मेरे पास मत आना। जरूरत होगी तो मैं आ जाऊंगा।
वर्ष
बीते, दो वर्ष बीते, तीन
वर्ष बीते। वह आदमी चावल कूटता था,
कूटता ही रहा। कोई आश्रम में
पता भी नहीं कि वहां भी कोई चावल कूट रहा है। आश्रम में लोग विचार कर रहे हैं कि
समाधि क्या है? सत्य क्या है? चर्चाएं
हो रही हैं। शास्त्र पढ़े जा रहे हैं। और एक आदमी है जो सिर्फ चावल कूट रहा है वहां
पीछे। उसे कोई शास्त्र से मतलब नहीं है। वह किसी से बात नहीं करता। उसे सारे आश्रम
के पांच सौ भिक्षु हैं, वे एक मूढ़ समझते हैं कि मूढ़ है, पागल है। वह अपने चावल ही कूटता है। वह कोई
नौकर-चाकर है, क्या है, धीरे-धीरे
लोग उसको भूल गए। ऐसे आदमी को कौन याद रखता है? जो
कोलाहल करें, उपद्रव करें, उन्हें
कोई याद रखता है। वह बेचारा शांत वहां पीछे चावल कूटता था। उसे कौन याद रखता? उसे सारे लोग भूल गए। वह है भी, यह भी खयाल में नहीं रहा। जैसे और सब चीजें
थीं, वैसा वह भी था।
ऐसे
कोई दस वर्ष बीत गए। न वह किसी से बात करता है, न वह
किसी से चीत करता है। वह अपना चावल कूटता है, सो
जाता है। कुछ दिन तक पुराने विचार मन में घूमते रहे। तो चावल कूटता था, नये विचारों की उत्पत्ति नहीं होती थी। नये
विचार इकट्ठे नहीं करता था। पुराने विचार कब तक घूमते? वह तो अपना चावल कूटता। ध्यान उसी पर रखता
कि उसका मूसल ऊपर गया तो ऊपर चित्त जाता, मूसल
नीचे गया तो चित्त नीचे जाता। चावल को उठाता तो चित्त चावल को उठाता; चावल को रखता तो चित्त चावल को रखता। भोजन
करता तो चित्त भोजन करता;
सो जाता तो सो जाता। ऐसे बारह
वर्ष बीत गए। और बारह वर्षों में उस आश्रम में न मालूम कितने पंडित हो गए लोग, बारह वर्षों में कितना ज्ञान इकट्ठा कर लिया
और वह बेचारा अज्ञानी वही अज्ञानी बना रहा।
बारह
वर्षों के बाद गुरु वृद्ध हुआ और उसने कहा कि अब मैं दो-चार दिनों में अपना जीवन
छोड़ दूंगा, तो मैं चाहता हूं कि किसी को मैं अपनी जगह
बिठा दूं। तो जो योग्य हो,
वह मेरी जगह बैठ जाएगा। तो
उसने कहा कि ऐसा करो, परीक्षा के लिए तुम आकर मुझे एक कागज पर चार
पंक्तियों में, सत्य क्या है, लिख कर
दे जाओ। जिसका उत्तर मुझे ठीक लगेगा, अनुभव
से आया है, उसको मैं बिठा दूंगा। वह मेरी जगह होगा। और
याद रखना, मुझे धोखा नहीं दे सकते हो। शास्त्र के
उत्तर को मैं पहचान लूंगा कि शास्त्र से कौन सा उत्तर आ रहा है और स्वयं से कौन सा
उत्तर आ रहा है। धोखा देने की कोशिश मत करना।
उस
गुरु को लोग जानते थे कि वह जानता है, उसे
धोखा नहीं दिया जा सकता। बहुत मुश्किल से एक आदमी ने हिम्मत की, जो वहां सर्वाधिक ज्ञानी समझा जाता था आश्रम
में, उसने हिम्मत की। लेकिन उसकी भी हिम्मत न हुई
कि सीधा जाकर गुरु को दे दे। वह भी चोरी से रात में उसके झोपड़े की दीवाल पर लिख
आया। उसने चार पंक्तियां लिखीं। उसने लिखा...चार पंक्तियां उस दीवाल के ऊपर वह लिख
आया और भाग आया, अपने दस्तखत भी नहीं किए। क्योंकि हो सकता
है वे शास्त्र से ही हों। शक तो उसे खुद भी था, क्योंकि
अनुभव तो उसे कुछ था नहीं। उसने लिखा कि चित्त एक दर्पण की भांति है, जिस पर विकार की और विचार की धूल जम जाती
है। उस धूल को हम झाड़ दें,
सत्य के दर्शन हो जाएंगे।
ठीक ही
लिखा। लेकिन गुरु ने सुबह से ही उठ कर कहा कि यह किस पागल ने दीवाल खराब कर दी?
हम भी
कहते कि यह ठीक ही लिखा। लेकिन उस गुरु ने कहा, यह किस
पागल ने दीवाल खराब कर दी?
पकड़ो, किसने यह लिखा है! वह तो अपने दस्तखत भी
नहीं कर गया था। वह तो छिप रहा कि कोई कह न दे कि मैंने लिखा है। क्योंकि गुरु ने
कहा, यह सब शास्त्र की बकवास है। यह किसी किताब
से सीख लिया है इस आदमी ने।
यह खबर
पूरे आश्रम में फैल गई। वह जो चावल कूटने वाला था, उसके
पास से भी दो भिक्षु निकलते थे। उन्होंने कहा कि देखा, कितना अदभुत वचन लिखा! लिखा कि मन दर्पण की
तरह है, धूल जम जाती है विकार की और विचार की। उसे
झाड़ दें, तो दर्पण में सत्य दिखाई पड़ने लगेगा। इतना
अदभुत वचन लिखा और गुरु उसको भी इनकार कर दिया। अब क्या होगा? क्या गुरु की जगह खाली रहेगी?
वह
आदमी चावल कूट रहा था। वह चावल कूटते से हंसा।
उसे तो
कभी किसी ने हंसते भी नहीं देखा था। तो उन्होंने पूछा, तुम क्यों हंस रहे हो?
उसने
कहा, यूं ही हंसी आ गई।
फिर भी
कोई हंसने की वजह?
उसने
कहा, गुरु ने ठीक ही कहा है। दीवाल खराब कर दी।
उसे तो
कभी किसी ने बोलते नहीं सुना था। उसने कहा, पागल, क्या तुमको भी पता है कि क्या ठीक है?
उसने
कहा, मैं लिखना भूल गया हूं। मैं बोले देता हूं, तुम लिख दो।
उसने
बोला। उसने कहा: मन का कोई दर्पण ही नहीं, धूल
जमेगी कहां? जो इस सत्य को जानता है, वह सत्य को जानता है। उसने कहा: मन का कोई
दर्पण ही नहीं, धूल जमेगी कहां? जो इस सत्य को जानता है, वह सत्य को जानता है। लिख दो।
और
गुरु भागा आया और उसके पैरों पर गिर पड़ा कि ठीक इस दिन की प्रतीक्षा थी। आशा केवल
तुमसे थी।
यह
समाधि को उपलब्ध हुआ व्यक्ति। वे शास्त्र को पढ़ने वाले लोग शास्त्र पढ़ रहे हैं। यह
व्यक्ति समाधि को उपलब्ध हुआ।
समाधि
तो एक ही है कि किसी भी भांति विचार धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
शून्य हो जाएं। मन धीरे-धीरे,
धीरे-धीरे विलीन हो जाए। और
जो शेष रह जाएगा मन के विलीन हो जाने पर, वही
है। कहीं से और किसी भी भांति कोई सत्य पर पहुंच जाए, वह समाधि को उपलब्ध हो गया। पर समाधि का मूल
सार इतना है कि विचार और मन शून्य हो जाए और तब जो शेष रह जाए वही, वही है आत्मा, वही है
सत्य, वही है परमात्मा, वही है समाधि। और जो नाम देना चाहें दें।
नाम देने से कोई अंतर नहीं पड़ता है।
ज्ञान, सत्य-दर्शन, ईश्वर-दर्शन, क्या इन सबका एक ही अर्थ है?
बिलकुल
एक ही अर्थ है। लेकिन अगर पंडितों से पूछिएगा, वे
कहेंगे, बिलकुल अलग-अलग अर्थ हैं। वे कहेंगे, ईश्वर? जैन
कहेगा, ईश्वर तो होता ही नहीं। आप कहेंगे, आत्मा। बौद्ध कहेंगे, आत्मा? आत्मा
तो होती ही नहीं। आप कहेंगे,
सत्य। कोई कहेगा, सत्य? सत्य
तो कहा ही नहीं जा सकता। आत्मा या सत्य या ईश्वर, ऐसा
लगेगा अलग-अलग हैं। जो है उसका कोई नाम नहीं है। नाम तो कामचलाऊ हैं। कोई भी नाम
हम दे दें।
आपका
जो नाम है, आप समझते हैं, वह
आपका नाम है? किसी भी चीज का जो नाम है, आप समझते हैं, वह
उसका नाम है? नाम तो दिया हुआ है। लगाया हुआ है। कामचलाऊ
है। आपको अगर राम किसी ने कह दिया है मां-बाप ने, तो आप
राम हो गए हैं। तो आप सोचते हैं,
राम आपका नाम है? आप कोई नाम लेकर पैदा हुए हैं? आप कोई नाम लेकर मरेंगे? यह लेबल तो लगाया हुआ है ऊपर से। बिलकुल
साधारण है। जरा भी इसमें चिपकान नहीं है। जरा ही खींच दें, निकल जाएगा। इसमें कोई दिक्कत नहीं है।
चाहें अदालत में जाएं, एक रुपया जमा करें, नाम बदल लें।
नाम
कोई अर्थ नहीं रखता। किसी का कोई भी नाम नहीं है। सब अनाम हैं। नाम मनुष्य की ईजाद
है। मनुष्य की कुछ ईजादें हैं,
उनमें नाम भी उसकी ईजाद है।
और सबसे खतरनाक ईजाद है,
लेकिन बड़ी जरूरी है। इसलिए
उसको करना पड़ता है। किसी का कोई भी नाम नहीं है। तो जो है, वह जो टोटेलिटी है, वह जो समग्र सत्ता है, सारे जगत की जो सत्ता है, उसका भी कोई नाम कैसे होगा?
तो हम
अपने बच्चों के नाम रखते हैं। बुद्धि हमारी गड़बड़ है। नाम रखने की आदत है। अब तो हम
मकानों के भी नाम रखते हैं। भगवान का भी नाम रखते हैं। वही आदत। बच्चों का नाम
रखते हैं; मकानों का नाम रखते हैं; सड़कों का नाम रखते हैं; चौगड्डों का नाम रखते हैं; भगवान का भी नाम रखते हैं। नाम रखने की आदत
हमारे मन में है, क्योंकि बिना नाम के हम कैसे पहचानेंगे किसी
को भी! इसलिए उसका भी कोई नाम रखते हैं। और फिर नामों पर लड़ते हैं, क्योंकि दूसरा कोई दूसरा नाम रख देता है, तीसरा कोई तीसरा नाम रख देता है।
वह ऐसा
ही मामला है कि एक बच्चा हो और तीन-चार उसके बाप हों और तय न हो कि कौन उसका बाप
है, और वे सब उसका एक-एक नाम रख दें। और सारे
लोग लड़ने लगें कि इसका नाम यह है और इसका नाम यह है। ऐसी परमात्मा की गति है। वह
आपका पुत्र तो नहीं है, लेकिन बाप है, और
बहुत उसके लड़के हैं, और वे सब उसका नाम रखे हुए हैं। और हरेक नाम
वाला दावा करता है कि यही नाम सत्य है।
कोई
नाम नहीं है। जो है, उसका कोई नाम नहीं है। उसे सत्य कहें, उसे आत्मा कहें, उसे ईश्वर कहें। लेकिन इनमें ध्वनियां
अलग-अलग हैं, क्योंकि हमने उन शब्दों को अलग-अलग ध्वनियां
दे दी हैं। इसलिए उचित है कि सत्य कहें या उचित है कि कहें कि जो है वही। फिर अगर
प्रेम मन में आता है, ईश्वर कहें, आत्मा
कहें। लेकिन स्मरण रखें,
उसका कोई नाम नहीं है। अगर
दुनिया में कोई मनुष्य न हो,
तो किसी भी चीज का कोई नाम
नहीं होगा। मनुष्य की ईजाद है नाम। और नाम ने बड़ी दिक्कत खड़ी कर दी है। बहुत
दिक्कत खड़ी कर दी है। बहुत कठिनाई खड़ी कर दी है। नाम पर कितने लोग लड़ गए और मर गए!
और नाम पर कितनी हत्या हो गई! क्योंकि कोई उसे अल्लाह कहता है, कोई उसे राम कहता है, वे लड़ जाएंगे। नाम के पीछे कितना पागलपन हुआ
है! और इस पागलपन को विचार करें तो बड़ी हैरानी होती है कि यह दुनिया कैसे धार्मिक
हो सकती है जो नामों पर लड़ जाती हो?
यह कितनी नासमझ दुनिया है कि
जो नामों पर लड़ जाती हो!
एक
मित्र मेरे घर मेहमान थे। वे एक साधु थे। सुबह-सुबह मुझसे बोले कि मैं मंदिर जाना
चाहता हूं। मैंने कहा, किसलिए जाना चाहते हैं? उन्होंने कहा कि थोड़ा एकांत में शांति से
वहां बैठूंगा। कुछ परमात्मा का स्मरण करूंगा। मैंने कहा, देखें, मंदिर
तो यहां का बाजार में है। वहां बड़ी भीड़-भाड़, शोरगुल
है। चर्च मेरे पास में है। तो यहीं चले जाएं। यहां बड़ी शांति है, बड़ा एकांत है। यहां कोई भी नहीं है, कोई गड़बड़ नहीं है। वे बोले, चर्च? आप
कहते क्या हैं? मैंने कहा कि सिवाय नाम के और क्या फर्क है? कल आप खरीद लें, इस चर्च को हटा दें, इसकी जगह मंदिर का नाम रख दें, तो मंदिर हो जाएगा। यह मकान ही है न! इसमें
कोई नाम का फर्क है?
अभी
कलकत्ते में मेरे मित्रों ने एक चर्च खरीद लिया और उसको मंदिर बना लिया, तो वह मंदिर हो गया। कल तक उसमें ईसाई जाते
थे, अब कोई ईसाई नहीं जाता। अब उसमें जैनी जाते
हैं, कल तक कोई जैनी नहीं जाता था। ऐसा पागलपन
है। वह नाम! वह मकान वही का वह है,
दीवालें वही की वह हैं, मिट्टी वही की वह है, सब वही का वह है; लेकिन अब वह मंदिर है, तब वह चर्च था। तब वह किसी दूसरे भगवान का
डेरा था, अब वहां किसी दूसरे भगवान का डेरा है। जैसे
भगवान बहुत हैं।
लेकिन
हमारी नाम की बड़ी गहरी पकड़ है। बहुत बचकानी, बहुत
इम्मैच्योर, एकदम बालबुद्धि से भरी हमारी पकड़ है। और उस
पर हम तलवारें उठा लेते हैं और उस पर हम कत्ल करेंगे और मुल्कों को नष्ट कर देंगे
और आग लगा देंगे और तबाह कर देंगे।
दुनिया
में धार्मिक लोगों ने जितनी दुष्टता की है और जितनी मूर्खता की है, उतनी किसी और ने नहीं की। और सिर्फ नामों की
वजह से। और फिर भी आंखें नहीं खुलतीं। फिर भी नाम को हम लेकर चिल्लाते हैं और
पकड़ते हैं। और नाम पर हम न मालूम क्या-क्या करते रहे हैं।
मैं
आपको कहूं, नाम बड़ी भ्रामक बात है। नाम का कोई अर्थ
नहीं है। सच्चाई को देखें। नाम को मत देखें। अन्यथा नाम पर अटक जाएंगे और सच्चाई
नहीं देख पाएंगे। नाम को छोड़ दें और देखें कि मतलब क्या है। इसीलिए मैं सबका
इकट्ठा प्रयोग करता हूं। मैं कहता हूं कि ईश्वर-दर्शन, आत्म-दर्शन या सत्य-दर्शन; इसीलिए ताकि वे अलग-अलग नामों वाले लोग
समझें कि मैं किसी एक ही चीज की चर्चा कर रहा हूं। अगर मैं कहूं ईश्वर-दर्शन, तो बहुत से हैं जो समझेंगे कि मैं तो न
मालूम हिंदू धर्म का आदमी हूं या क्या है। अगर मैं कहूं आत्म-दर्शन, तो कुछ समझेंगे कि पता नहीं ये कौन से धर्म
के हैं कि ईश्वर की बात नहीं करते। मैं जान कर सबका इकट्ठा प्रयोग करता हूं ताकि
आपको खयाल में आ सके कि जो है,
उसका कोई नाम नहीं है, और उसका ही विचार करना है; उसको ही अनुभव करना है; उस पर ही प्रवेश करना है; उसका ही साक्षात करना है। सब नाम छोड़ दें और
अनाम के प्रति जागें। वह जिसका कोई नाम नहीं है, उसके
प्रति जागें। जिसका कोई रूप नहीं है, उसके
प्रति जागें। जो कहीं भी,
किसी सीमा में आबद्ध नहीं है, उसके प्रति जागें। वह जो सीमा में नहीं है, नाम में नहीं है, रूप में नहीं है, वही है। फिर चाहे उसे परमात्मा कहें, चाहे आत्मा कहें, चाहे सत्य कहें।
मन पाप
क्यों करता है और पाप का बाप कौन है?
जरा
मुझे कहने में दिक्कत होगी। बाप तो आप ही हैं। कोई और तो कैसे बाप होगा? तबीयत यह होती है, कोई और हो। कोई और बता दिया जाए कि कोई और
बाप है पाप का। आप ही हैं। और जब मैं कह रहा हूं आप ही, तो बिलकुल आपसे कह रहा हूं। आपके पड़ोसी आदमी
से नहीं कह रहा। बिलकुल आपसे ही कह रहा हूं, आपके
बगल वाले से नहीं कह रहा हूं। और पाप क्यों करता है? सच तो
यह है कि इस दुनिया में कोई भी पाप नहीं करता। पाप होता है। पाप किया ही नहीं जा
सकता और न पुण्य किया जा सकता है। पुण्य भी होता है और पाप भी होता है।
इसे
थोड़ा समझ लेना पड़ेगा। क्योंकि सामान्यतः हम ऐसा ही कहते हैं: फलां आदमी पाप करता
है, फलां आदमी पुण्य करता है। यानी हमें खयाल
कुछ ऐसा है, जैसे कि आदमी के वश में है--वह चाहे तो
पुण्य करे, चाहे तो पाप करे। जब आप पाप करते हैं, कभी आपने विचार किया--क्या आपके वश में था
कि आप चाहते तो न करते? और अगर वश में था, तो रुक ही क्यों न गए? जब आप क्रोध में आते हैं, तो क्या आप जानते हैं कि आपके वश में था कि
आप क्रोध में न आते? जब कोई आदमी किसी की हत्या करता है, तो आप सोचते हैं कि उसके वश में था कि वह
हत्या न करता? तो क्या आप सोचते हैं कि वश में होते हुए
उसने हत्या की है?
मेरी
दृष्टि ऐसी नहीं है। मनुष्य अगर मूर्च्छित है तो उससे पाप होगा ही। पाप मूर्च्छा
का सहज परिणाम है। कोई पाप करता नहीं है, मूर्च्छा
में पाप होता है। इसलिए किसी पापी के प्रति मेरे मन में कोई निंदा नहीं है।
और यह
जो आप कहते हैं कि पाप करता है,
यह असल में निंदा करने का रस
लेना चाहते हैं। दुनिया के सभी साधु और सज्जन दूसरे को पापी कह कर मजा लेना चाहते
हैं, रस लेना चाहते हैं। क्योंकि जितने जोर से वे
आपको पापी सिद्ध कर दें,
उतने ही ज्यादा वे पुण्यात्मा
सिद्ध हो जाते हैं। इसलिए दुनिया में निंदा का रस है, कंडेमनेशन का रस है। दूसरे आदमी की निंदा
करो और कहो कि वह पापी है और पाप करता है। और इस दुनिया में जो बहुत गहरे पाप में
हैं, वे अपने पाप को छिपाने के लिए चिल्लाते
फिरते हैं कि फलां-फलां पाप है,
और फलां-फलां लोग पाप कर रहे
हैं, और पाप से बचो। क्योंकि जो चिल्लाने लगता है
कि पाप से बचो, आपको यह खयाल पैदा हो जाता है, यह आदमी तो कम से कम पाप से बचा ही होगा।
अगर किसी आदमी ने खुद ही चोरी की हो और वह जोर से चिल्लाने लगे कि चोरी हो गई है, पकड़ो चोर को! तो आप कम से कम उसको तो छोड़ ही
देंगे। क्योंकि वह तो बेचारा कम से कम, खुद ही
चिल्ला रहा है, तो उसने थोड़े ही चोरी की होगी। वह खुद ही
चिल्ला रहा है कि चोरी हो गई,
चोर को पकड़ो। उसको कौन पकड़ेगा? उसको लोग छोड़ देंगे। इसलिए दुनिया में जो
बहुत होशियार हैं, वे दूसरों को चिल्लाते हैं कि फलां-फलां
पापी हैं। ये-ये पापी हैं,
ये-ये काम पाप हैं।
मैं
आपसे कहना चाहता हूं, कोई भी मनुष्य पाप नहीं करता है। पाप होता
है। और होने का अर्थ मेरा यह है कि चेतना की एक दशा है, मूर्च्छित दशा। चेतना की एक अवस्था है, जब होश नहीं है उसे। हम क्या कर रहे हैं, इसका भी हमें कोई होश नहीं है। कुछ काम हमसे
होते हैं। आप जरा स्मरण करें,
आपने जब भी क्रोध किया है, वह आपने किया था? आपने विचारा था? आपने तय किया था कि मैं क्रोध करूंगा? आपने संकल्प किया था कि अब मैं क्रोध करता
हूं? आपने कुछ भी नहीं किया था। आपने अचानक पाया
कि आप क्रोध में हैं।
गुरजिएफ
नाम का यूनान में एक फकीर था। वह एक गांव से निकलता था। एक बाजार में उसके कुछ
दुश्मन थे, वह वहां से निकला, उन्होंने उसे पकड़ लिया और उसे बहुत गालियां
दीं। उस पर बड़ा गुस्सा हुए,
बहुत अपमान किया। जब वे सारी
गालियां दे चुके, अपमान कर चुके, गुरजिएफ ने कहा, मित्रो, मैं कल
फिर आऊंगा इसका उत्तर देने। वे लोग एकदम हैरान हो गए। उन्होंने गालियां दीं, अपमान किया, बड़े
अभद्र शब्द कहे। गुरजिएफ ने कहा कि मैं कल आऊंगा इसका उत्तर देने। उसने कहा, मित्रो, मैं कल
आऊंगा इसका उत्तर देने।
उन्होंने
कहा, क्या पागल हो? हम
गालियां दे रहे हैं, अपमान कर रहे हैं। कहीं गालियां, अपमान का उत्तर कल दिया जाता है? जो देना हो, अभी दो।
गुरजिएफ
ने कहा कि हम मूर्च्छा में कुछ भी नहीं करते। हम तो विवेक करते हैं; विचार करते हैं। सोचेंगे, अगर जरूरी समझेंगे कि क्रोध करना है तो
करेंगे। अगर नहीं समझेंगे तो नहीं करेंगे। हो सकता है तुम जो कह रहे हो, वह ठीक ही हो। इसमें भी कोई कठिनाई नहीं है
कि तुम जो गालियां दे रहे हो,
वे सच ही हों। तो हम फिर
आएंगे ही नहीं। हम कहेंगे,
ठीक है। उन्होंने जो कहा, ठीक ही था। तो हम उसको अपने चरित्र का बखान
समझेंगे, उसको हम निंदा ही नहीं समझेंगे। सच्ची बात
कह दी। अगर समझेंगे कि क्रोध करना जरूरी है, तो
क्रोध करेंगे।
उन
लोगों ने कहा, तुम बड़े गड़बड़ आदमी हो। कोई कभी सोच-विचार कर
क्रोध किसी ने किया है? क्रोध तो बिना विचार के, अविचार में ही होता है। कभी क्रोध सोच-विचार
कर नहीं होता।
कोई
पाप सोच-विचार कर नहीं किया जा सकता है। किसी पाप को कांशसली, सचेत रूप से नहीं किया जा सकता है। इसलिए
मैं कहता ही नहीं कि पाप किया जाता है। मैं तो कहता हूं, पाप होता है। फिर मैं क्या कहूं आपको? आप कहेंगे, इसका
तो मतलब यह हुआ कि अब हमारे हाथ में ही नहीं है। जब पाप होता है तो हम क्या करें? हत्यारा कहेगा, हम क्या करें? हत्या
होती है। क्रोध होता है,
हम क्या करें?
सच है।
उसके करने का नहीं है सवाल। इस तल पर कुछ भी नहीं करना है। पाप का होना इस बात की
सूचना है कि आत्मा सोई हुई है। पाप के तल पर कोई परिवर्तन न हो सकता है, न करना है, न किया
जा सकता है। यह तो केवल खबर है इस बात की कि भीतर आत्मा सोई हुई है। पाप बाहर है, इस बात की खबर है कि भीतर आत्मा सोई हुई है।
इस आत्मा को जगाने का सवाल है। पाप को बदलने का सवाल नहीं है। इस आत्मा को जगाने
का सवाल है। उसकी मैं चर्चा कर रहा हूं कि वह आत्मा कैसे जग जाए। और वह आत्मा जग
जाए तो आप पाएंगे--पाप तो विलीन हो गया, उसकी
जगह पुण्य शुरू हो गया। और पुण्य भी होता है, वह भी
नहीं किया जाता। अगर आप सोचते हों कि महावीर, जैसा
लोग कहते हैं कि महावीर को लोगों ने पत्थर मारे, उन्होंने
बड़ी क्षमा की। बिलकुल झूठी बात कहते हैं। महावीर क्या क्षमा कर सकते हैं? क्षमा भी होती है, की नहीं जाती। महावीर जागी हुई स्थिति में
हैं। कोई पत्थर मारे, गाली दे, उनसे
क्षमा होती है। इसमें करना क्या है?
आपसे क्रोध होता है, उनसे क्षमा होती है। यानी उनसे क्षमा निकलती
है, अब वे क्या करेंगे?
एक
फूलों भरे दरख्त पर हम पत्थर मारें,
तो फूल नीचे गिरेंगे; और एक कांटों वाले दरख्त पर हम पत्थर मारें, तो कांटे नीचे गिरेंगे। जो होता है वह
निकलता है, जो होता है वह गिरता है। अब महावीर के भीतर
प्रेम ही प्रेम भरा है। आप गए,
आपने उनको दो गालियां दीं, वे क्या करेंगे? वे प्रेम ही बांट देंगे। जो देने को है, वही तो दे सकते हैं। जो निकल सकता है, वही निकलता है।
जीवन
में चीजें निकलती हैं, होती हैं। करना नहीं होतीं। तो जो लोग कहते
हैं, महावीर ने क्षमा की। बिलकुल झूठी बात कहते
हैं। जो कहते हैं, महावीर ने अहिंसा की। बिलकुल झूठी बात कहते
हैं। जो कहते हैं, बुद्ध ने करुणा की। झूठी बात कहते हैं। किया
नहीं, हुआ। वे चेतना की उस अवस्था में हैं, जहां बस करुणा ही हो सकती है।
क्राइस्ट
को लोगों ने सूली पर चढ़ा दिया। और जब सूली पर चढ़ा कर उनसे कहा कि कोई अंतिम बात
कहनी है? तो क्राइस्ट ने कहा, हे परमात्मा, इनको
क्षमा कर देना। ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। आप कहोगे, क्राइस्ट ने बड़ी क्षमा की। नहीं, बस क्राइस्ट यही कर सकते थे। क्राइस्ट जैसी
चेतना की अवस्था में हैं,
उससे यही निकल सकता था, और कुछ नहीं निकल सकता था।
मेरी
आप बात समझ रहे हैं? कर्म का मूल्य नहीं है। एक्शन का कोई मूल्य
नहीं है। बीइंग का, आपकी सत्ता का मूल्य है। आप कर्म को पकड़ेंगे, चक्कर में पड़ जाएंगे। आप सोचेंगे, कर्म को बदलें। यह पाप है, इसको बदलें, उसको
करें। आप कुछ नहीं कर सकेंगे। जिसकी भीतर चेतना सोई है, वह कोई पुण्य कभी नहीं कर सकता। तो आप शायद
सोचेंगे, दोपहर को ही मैं कह रहा था, अगर एक आदमी है, जिसकी चेतना सोई हुई है, तो भी तो लोग कहते हैं कि उसने धर्मशाला
बनाई, मंदिर बनाया; पुण्य
किया। बिलकुल झूठी बात है। क्योंकि जिसकी चेतना सोई है, वह मंदिर मंदिर नहीं बना रहा है, वह अपने बाप के लिए स्मारक बना रहा है। अपने
नाम के लिए स्मारक बना रहा है। मंदिर-वंदिर नहीं बना रहा है। मंदिर से उसको क्या
मतलब? वह जो भी बना रहा है, उसकी सोई हुई चेतना, उसमें जो काम कर रही है, उसमें जरूर पाप होगा।
मेरा
मानना है कि सोया हुआ आदमी जो भी करेगा, वह पाप
है। पाप की परिभाषा मेरी जो होगी--सोए हुए आदमी से जो भी होता है, वह पाप है। जागे हुए आदमी से जो भी होता है, वह पुण्य है। अगर सोया हुआ आदमी पुण्य की
नकल भी करे, तो भी पाप है; और अगर
जागे हुए आदमी का कोई काम आपको पाप भी मालूम पड़े, तो
जल्दी निर्णय मत लेना, वह भी पुण्य होगा, वह भी पुण्य है। अब उससे पाप हो नहीं सकता
है। उससे पाप का कोई प्रश्न नहीं है।
मेरी
दृष्टि शायद आपको समझ में आ जाए। पाप और पुण्य के तल पर नहीं, चेतना के तल पर--सोई चेतना और जागी चेतना, जाग्रत आत्मा और प्रसुप्त आत्मा, मूर्च्छित आत्मा और अमूर्च्छित आत्मा--उस तल
पर सारी बात है। और दोनों स्थितियों में जिम्मेवार आप हैं--कर्म के लिए नहीं, अपनी चेतना की अवस्था के लिए। मेरा फर्क समझ
लें। ज्यादा गहरे तल पर परिवर्तन करना है। ऊपरी तल पर कोई परिवर्तन नहीं होता है।
कर्म के तल पर कोई परिवर्तन नहीं,
व्यक्तित्व की पूरी प्राण के
तल पर, पूरी आत्मा के तल पर परिवर्तन होता है।
इसलिए
जब कोई कहता है कि फलां काम पाप है,
फलां काम पुण्य है, तो मुझे हैरानी होती है। काम पाप और पुण्य
नहीं होते। यह हो सकता है कि वही काम पाप हो और वही काम पुण्य हो। यह तब हो सकता
है, जब कि चेतना में भेद हो। जब चेतना बिलकुल
भिन्न हो। जागी हुई चेतना वही काम करे और सोई हुई चेतना वही काम करे। काम वही होगा
और तल-भेद हो जाने से पाप और पुण्य का फर्क हो जाएगा।
कर्म
नहीं होते पाप और पुण्य,
चेतना की अवस्था होती है।
स्टेट ऑफ माइंड होता है। वह जो स्टेट ऑफ माइंड है, वह जो
चित्त की दशा है, अवस्था है, वह जो
स्थिति है, वह बात है। वह विचारणीय है। वहीं कुछ करणीय
है, वहीं कोई क्रांति, वहीं कोई क्रांति, कोई ट्रांसफार्मेशन, कोई परिवर्तन, वहां
करने की बात है।
लेकिन
हम इसी तल पर सोचते रहते हैं हमेशा कि यह काम पाप है, वह काम पुण्य है। तो पापी सोचता है कि चलो, हम भी काम करें--पुण्य का काम करें, तो पुण्यात्मा हो जाएं। तो दिन-रात पाप करता
है, फिर एक मंदिर बना देता है। सोचता है, हम भी पुण्य का काम करें। दिन-रात पाप करता
है, फिर गंगा-स्नान कर आता है। सोचता है, चलो, पुण्य
का काम करें।
रामकृष्ण
से एक आदमी ने आकर पूछा कि क्या गंगा में जाने से पाप नहीं धुल जाएंगे?
रामकृष्ण
सीधे-सादे आदमी थे। उन्होंने कहा कि अब मैं क्या कहूं? अगर मैं कहूंगा कि नहीं धुलेंगे, तो गंगा के प्रति व्यर्थ की निंदा हो जाएगी।
मुझे प्रयोजन क्या कि गंगा की निंदा करूं? अगर
मैं कहूं कि धुल जाएंगे,
तो यह बेईमान यही समझेगा कि
जाकर नहा आए और पाप धुल गए। पुण्य हो गया। रामकृष्ण बड़े सीधे आदमी थे। उन्होंने
कहा कि अब मैं क्या करूं?
बड़ी दिक्कत में पड़ गया हूं।
उन्होंने कहा, भई, गंगा
में तो पाप जरूर धुल जाते हैं,
क्योंकि गंगा बिलकुल पवित्र
है। उसमें तो पाप धुल जाते हैं। लेकिन किनारे पर जो दरख्त खड़े हैं, पाप उन पर बैठ जाते हैं। और जब तुम लौटे, वे फिर सवार हो जाएंगे। आखिर तुम निकलोगे तो
हो ही। तुम नदी के तो बाहर निकलोगे ही न, कब तक
डूबे रहोगे? तो जब तक डूबे रहोगे, नहीं होगा। फिर बाहर, क्या होगा?
तो कोई
ऐसा रास्ता नहीं है कि आप गंगा में नहा आए, कि
मंदिर बना लिया, कि कुछ दान कर दिया, कि कुछ यह कर दिया, कि कुछ वह कर दिया, कि कुछ सेवा कर दी, कि कोई अस्पताल खोल दिया, कि कोई स्कूल खोल दिया, इससे आप यह मत सोचना कि आप कोई पुण्य कर रहे
हैं। यह कोई पुण्य नहीं है। क्योंकि आपकी चेतना की जो दशा है, वह पाप की है। उससे निकले हुए सारे कृत्य
पाप होंगे। ये ऊपरी ढोंग से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। और एक आदमी हो सकता है, जिसकी चेतना की दशा परिवर्तित हो गई, उससे कोई ऐसा काम भी आपको दिखाई पड़े जो लगे
कि अरे, यह क्या किया?
गांधीजी
ने एक बछड़े को जहर दे दिया। सारा मुल्क, जो कि
हमारा अहिंसा का चिंतन करता है,
वह कहने लगा, पाप हो गया। निश्चित ही, अगर ठीक से समझें तो एक बछड़े को मार डालना
पाप है। इसमें क्या शक-शुबहा है?
गांधी ने काहे को मार डाला? आखिर गांधी को भी आपके बराबर तो बुद्धि थी।
वे भी तो यह सोच सकते थे कि यह पाप है। इतनी बुद्धि तो कम से कम थी, जितनी आपके पास है। जितनी उनके पास है, जो कहते हैं, गांधी
ने पाप किया, इतनी बुद्धि तो थी। लेकिन फिर मामला क्या हो
गया? पर गांधी का कृत्य पाप नहीं है। दिखता तो
बिलकुल ही पाप है। लेकिन गांधी का प्रेम! गांधी से लोगों ने कहा कि अगर इसको जहर
देंगे तो सारे मुल्क में विरोध होगा और इसको मारने का पाप भी लग सकता है, नरक भी जाना हो सकता है। तो गांधी ने कहा कि
मेरा प्रेम कहता है कि मैं नरक चला जाऊं। बाकी यह इतने कष्ट में है कि मैं इसे
नहीं बचा सकता तो इसे मैं मारने का जिम्मा लेता हूं। यह इतनी पीड़ा में है कि मैं
इसकी पीड़ा नहीं देख सकता। तो मैं इसे मारने का जिम्मा लेता हूं। पाप ही लगेगा न!
हम नरक चले जाएंगे। बछड़ा तो मुक्त हुआ।
अब यह
जो गांधी का प्रेम है, जिस तल पर यह है, उस तल पर आपकी अहिंसा नहीं समझ पाएगी। आपकी
अहिंसा कहेगी, यह क्या बात कर रहे हैं आप?
कृष्ण
ने अर्जुन से कहा कि तू मार,
डर मत। क्योंकि न कोई मरता है, न कोई मर सकता है। न हन्यते हन्यमाने शरीरे।
वह कोई मरेगा नहीं। छेद देगा तलवार से, कोई
छिदेगा नहीं।
अब
कृष्ण जो कह रहे हैं, बिलकुल ही ठीक कह रहे हैं। लेकिन हम अगर
सोचेंगे तो कहेंगे कि यह क्या कह रहे हैं? किसी
को मार डालो, तो कोई मरेगा नहीं? तो मार डालेंगे, तो पाप नहीं हो जाएगा? लेकिन कृष्ण यह कह रहे हैं कि कोई मर ही
नहीं सकता। तेरा यह खयाल कि मैं मार रहा हूं, पागलपन
है, अज्ञान है, नासमझी
है। इसका कोई यह मतलब नहीं है कि कोई मार डाले। लेकिन उस तल पर, चेतना के उस तल पर एक बात है, कृष्ण अगर मार डालें, तो कोई पाप नहीं है। और आप अगर दस आदमियों
को सेवा करके जिंदा भी कर लें,
तो भी पाप है। क्योंकि जिंदा
करके आप फौरन अखबार के दफ्तर में भागे जाएंगे कि मेरा नाम छापो, दस आदमियों को मैंने बीमारी से ठीक कर दिया।
सवाल यह नहीं है कि आपने क्या किया?
सवाल यह है कि आप क्या हैं? सवाल यह नहीं है कि आपने क्या किया? सवाल यह है कि आप क्या हैं? उस पर विचार करें कि आप क्या हैं? अगर आपका चित्त सोया हुआ है, सब कर्म पाप हैं। अगर चित्त जाग्रत है, तो कोई कर्म पाप नहीं है। परिभाषा मेरी यही
है कि जागे हुए मनुष्य से निकला हुआ कर्म पुण्य है, सोए
हुए मनुष्य से निकला हुआ कर्म पाप है।
छोटे-छोटे
प्रश्न हैं।
पूछा
है: अंतःसंघर्ष का अहसास है। वह मिटाने की इच्छा है, पर धैर्य नहीं है। क्या करें?
पहली
बात तो यह कि अगर कोई आदमी आग में गिर पड़ा हो और हम उससे कहें कि आग है, निकल आओ, जल
जाओगे। वह कहे, आग का तो अहसास है, लेकिन निकलने का मन नहीं। तो उससे हम क्या
कहेंगे? वह कहे कि आग का तो अहसास है, लेकिन निकलने का मन नहीं।
यहां
इस भवन में आग लग जाए, तो आप मुझसे यह पूछोगे कि हमको पता तो चल
रहा है कि भवन जल रहा है,
लेकिन बाहर निकलने का मन नहीं
हो रहा? नहीं, आप कोई
मुझसे पूछने को नहीं रुकोगे। कोई किसी से पूछने को नहीं रुकेगा। इस मकान में कोई
रुकेगा ही नहीं। आप सब बाहर नजर आओगे।
तो जब
हम कहते हैं: अंतःसंघर्ष का अहसास तो है। तो मैं आपसे कहूंगा, अभी है नहीं। नहीं तो प्रश्न पूछने की
गुंजाइश नहीं है। आप बाहर आ जाओगे। अंतःसंघर्ष का अहसास है नहीं आपको। हां, लोग कहते हैं, इसलिए
आप भी सोचते हो कि जरूर अंतःसंघर्ष है। लोग समझाते हैं, किताबें कहती हैं, तत्ववेत्ता कहते हैं, तो आपको लगता है अंतःसंघर्ष है। आपको अहसास
है? अगर आपको अहसास है, तो कौन पैदा कर रहा है अंतःसंघर्ष को? अगर आपको अहसास है, तो रोज कौन उसे बनाए जा रहा है? अगर आपको अहसास है, तो कौन रोक रहा है कि छलांग लगा कर बाहर न आ
जाएं?
लेकिन
आप कहते हैं, धैर्य की कमी है, इच्छा भी है।
सबसे पहली
बात तो बुनियाद में यह है कि आपको ठीक से पता नहीं कि क्या है अंतःसंघर्ष। अभी
आपने अपने अंतःकरण को देखा भी है या किताबों में पढ़ा है? कभी अपने भीतर गए हैं और पहचाना है, वहां क्या है? या कि
अपने आपको कुछ समझ बैठे हैं और वही समझे जा रहे हैं?
हर
आदमी के भीतर कम से कम तीन व्यक्तित्व हो जाते हैं। एक तो जैसा वह है, लेकिन उसे उसका कोई पता नहीं। एक दूसरा, जैसा वह अपने को समझता है। और एक वैसा, जैसा वह लोगों को स्वयं को समझाना चाहता है।
कोई तीन तल पर आदमी बंट जाता है। एक तो वह, जैसा
वह है, लेकिन उसे खुद भी पता नहीं है। एक वह, जैसा कि वह अपने को समझता है कि मैं हूं। और
एक वह, जैसा कि वह लोगों को समझाना चाहता है कि मैं
हूं। ऐसा तीन तल पर आदमी बंटा रहता है। असली आदमी वह है, जो आप हैं। लेकिन आप अपने को समझते होंगे कि
मैं तो बहुत विनीत हूं, और भीतर अहंकार भरा होगा। और आप समझते होंगे
कि मैं तो बहुत धार्मिक हूं,
और भीतर अधर्म भरा होगा। और
आप समझते होंगे कि मैं तो बड़ी सेवा की वृत्ति वाला आदमी हूं, और निरंतर सेवा ही लेना चाहने की इच्छा भीतर
बनी रहती होगी। आप जो अपने को समझ रहे हैं, वह हैं? अगर आप उसी पर रुके रहे तो आप अपने वास्तविक
अंतःकरण को कभी नहीं जान सकेंगे।
हर
आदमी को, इसके पहले कि वह अपने को जान सके, नग्न होना होता है, उसे कपड़े छोड़ देने होते हैं। हम ऊपर से ही
कपड़े नहीं पहने हैं, भीतर मन पर भी बहुत कपड़े पहने हुए हैं। और
हम केवल ऊपर ही नंगे होने से नहीं डरते हैं, भीतर
तो बहुत ही ज्यादा डरते हैं। बहुत घबड़ाते हैं कि कहीं नग्न हम खुद अपने को ही न
देख लें। जो हम हैं कहीं वही हमें दिखाई न पड़ जाए। नहीं तो हम अपने से ही घबड़ा
जाएंगे, अपने से ही डर जाएंगे। इसलिए बहुत सी अपनी
शक्लें बना लेते हैं; बहुत प्रकार से अपने को सजा लेते हैं; बहुत प्रकार से अपनी व्यवस्था कर लेते हैं
कि अपना असली अंतःकरण दिखाई न पड़े। इसके पहले कि कोई अपने अंतःकरण को जानना चाहता
हो, ये सारे लिबास उतार देने जरूरी हैं। वे
जो-जो मुखौटे आपने पहन रखे हैं,
वे जो-जो चेहरे और नकाब आपने
लगा रखी है, वह अलग कर देना जरूरी है। और तब आप अपने को
देख सकेंगे और तब पहचान सकेंगे। उस समय, उस समय
जो अंतःसंघर्ष, जो इनर कांफ्लिक्ट, जो तकलीफ, जो
बेचैनी, जो कलह भीतर मालूम होगी, उस कलह से निकलने में देर नहीं लगती। उस कलह
से बाहर आने में कठिनाई नहीं होती। उस कलह के बाहर आना एकदम आसान है, क्योंकि उसे हमने ही खड़ा किया है। उसे किसी
और दूसरे ने खड़ा नहीं किया। हमें साफ दिख जाता है कि हम किन-किन कारणों से यह कलह
को खड़ा किए हैं और उन-उन कारणों के प्रति पोषण बंद हो जाता है।
अगर
मुझे दिखाई पड़ जाए कि मेरे घर में एक झाड़ पैदा हो रहा है, जिसमें कांटे लग रहे हैं और सारे घर में
कांटे फैलते जा रहे हैं;
और रोज मैं उसी झाड़ की जड़ में
पानी भी डालता हूं, खाद भी डालता हूं। मैं खाद भी डालता हूं, पानी भी डालता हूं, बागुड़ भी लगाता हूं कि कोई जानवर झाड़ को न
खा जाए; और झाड़ में से कांटे निकल रहे हैं, और सारे घर में विषाक्त कर रहे हैं, और सारे घर में कांटे फैल रहे हैं, और मैं परेशान हो गया हूं। और मैं बाहर जाऊं
और किसी से पूछूं कि बड़ी मुश्किल है, घर में
एक झाड़ पैदा हो गया है जिसमें कांटे ही कांटे निकलते हैं, सारे घर में फैल रहे हैं। और वह आदमी आए और
देखे कि सुबह से मैं खाद भी देता हूं, पानी
भी देता हूं, बागुड़ भी लगाता हूं कि कोई जानवर न खा जाए, कोई नुकसान न कर दे। तो वह आदमी मुझसे क्या
कहेगा? कि क्या मामला क्या है? बात क्या है? मस्तिष्क
ठीक है कि खराब हो गया है?
क्योंकि जिस कांटे का तुम
विरोध कर रहे हो, उसी कांटे को रोज पानी दिए जा रहे हो!
लेकिन
हमको पता ही नहीं, हम कांटे का तो विरोध करते हैं और हमें पता
नहीं कि उसी की जड़ों में पानी देते हैं। यह पता इसलिए नहीं है कि कांटे को पकड़ कर
हमने प्रवेश नहीं किया कि हम जड़ तक पहुंच जाएं। कांटे को पकड़ कर अगर हम प्रवेश कर
जाएं, तो अंततः हम जड़ पर पहुंच जाएंगे और जड़ हमें
दिखाई दे जाएगी। फिर उसमें पानी नहीं दे सकते। फिर बागुड़ तोड़ देंगे, पानी देना बंद कर देंगे, वह खाद देना बंद कर देंगे। झाड़ अपने से सूख
जाएगा और मर जाएगा। जड़ें नहीं होंगी, कांटे
भी नहीं होंगे। लेकिन कांटे तो हमको चुभते हैं और जड़ों का हमें पता नहीं कि इन
कांटों की जड़ें क्या हैं?
तो
अपने चित्त में भीतर जाएं। जहां-जहां कलह दिखाई पड़ती है, भीतर घुसें, भीतर
जाएं, पहुंचें कि कलह कहां है?
अभी
मैं आया। उसी दिन एक व्यक्ति ने आकर मुझसे कहा, एक
युवक ने आकर कहा कि मेरा मन बड़ा अशांत है। मेरे मन को किसी भांति शांत करने का
उपाय बता दें।
मैंने
कहा, शांत किसलिए करना चाहते हो?
उसने
कहा, आई ए एस की परीक्षा में बैठ रहा हूं। उसमें
मैं चाहता हूं कि मैं प्रथम आ जाऊं। उसमें मैं प्रथम आ जाऊं इसीलिए शांत होना है।
मैंने
कहा कि देखो, जड़ को पानी दोगे और कांटे को इनकार करोगे, कठिन हो जाएगा। जहां प्रतियोगिता का भाव है, वहीं अशांति है। जहां मैं दूसरों को पीछे
छोड़ना चाहता और खुद आगे जाना चाहता हूं, अशांति
मैं खुद पैदा कर रहा हूं। और फिर मैं कहता हूं कि मैं अशांत नहीं होना चाहता, लेकिन आगे जाना चाहता हूं। यह तो गड़बड़ हो
गया न। यह तो कंट्राडिक्ट्री हो गया।
वही
आदमी शांत हो सकता है, जो पीछे खड़े होने के लिए राजी हो, जो आगे जाने की फिकर छोड़ दे। नहीं तो फिर
अशांति को वरण करें। फिर घबड़ाते क्यों हैं? जब आगे
जाने की प्रतियोगिता करनी है,
तो फिर अशांति तो उसका फल है, वह होगी ही। फिर उसको स्वीकार कर लें कि
अशांत होंगे, प्रतियोगिता करेंगे। लेकिन प्रतियोगिता करना
चाहते हैं और शांत रहना चाहते हैं ताकि प्रतियोगिता ठीक से कर सकें। तब बड़ी गड़बड़
बात हो गई।
क्राइस्ट
ने कहा है: धन्य हैं वे लोग,
जो अंतिम होने का सामर्थ्य
रखते हैं। टु बी दि लास्ट। सबसे पीछे खड़े होने का जो सामर्थ्य रखते हैं, धन्य हैं वे लोग। क्योंकि परमात्मा की
दृष्टि में वे प्रथम खड़े हो गए।
सवाल
यह है कि जो आदमी पीछे होने का साहस रखता है, इतने
साहस के लोग बहुत कम हैं। आगे आकर खड़े होने का साहस बड़ी बात नहीं। वह तो नार्मल है, सबमें है। सभी आगे आकर खड़े होना चाहते हैं।
आगे आकर खड़े होने का साहस कोई मूल्यवान नहीं है। किसी मुल्क का राष्ट्रपति हो जाने
में कोई साहस नहीं है, बिलकुल सामान्य बात है। हरेक आदमी होना
चाहता है। कोई भी अदना आदमी होना चाहता है। आखिर कोई न कोई अदना आदमी हो ही जाता
है। उसमें कोई मूल्य नहीं है। मूल्य तो अंतिम खड़े होने का साहस है, क्योंकि वह आदमी मुश्किल से कोई कर पाता है।
क्राइस्ट
ने कहा: धन्य हैं वे लोग,
जो अंतिम खड़े होने का साहस
करते हैं। वे परमात्मा की दृष्टि में प्रथम खड़े हो गए।
तो जब
हम प्रतियोगिता कर रहे हैं और प्रतियोगिता को पोषण दे रहे हैं, और फिर हम कहते हैं कि हम शांति चाहते हैं।
तो फिर आपको पता नहीं कि अशांति का कांटा प्रतियोगिता की जड़ में से लग रहा है। तो
अपने चित्त में जाएं। यह मैंने एक उदाहरण के लिए कहा। अपने चित्त में जाएं। अपने
चित्त को समझें।
तो आप, जहां-जहां आपको दिखाई पड़ रहा है कि कठिनाई
है, उसी के पीछे आपको दिखाई पड़ेगा, मैं ही पानी दे रहा हूं। और जब आपको दिख
जाएगा कि मैं ही पानी दे रहा हूं,
तो फिर आपके हाथ में है। अगर
कांटे रखना हो तो पानी और दें;
अगर कांटे न रखना हो तो पानी
देना बंद कर दें। किसी और का निर्णय नहीं लेना है, आपका
निर्णय है। अपने अंतःकरण को ठीक से जानें। किसी से पूछने की कोई जरूरत नहीं रह
जाएगी। कोई जरूरत किसी से पूछने की नहीं है। लेकिन चूंकि अंतःकरण को हम नहीं जानते, इसलिए हम पूछते हैं। जड़ों को बचाए रखना
चाहते हैं, कांटों को अलग करना चाहते हैं। इससे सारी
कांफ्लिक्ट, सारी परेशानी खड़ी होती है।
किसी
मनुष्य के लिए कोई कठिनाई नहीं है,
एक ही कठिनाई है कि अपने
अंतःकरण को पूरा नहीं जानता। और दो तरह का यह काम चलता है। कांटों को हटाना चाहते
हैं, जड़ों को पानी देते हैं। जिन फूलों को लाना
चाहते हैं, उनकी जड़ों को पानी नहीं देते। उन्हीं फूलों
को ला-ला कर लगाने की कोशिश करते हैं। ऐसा दोहरा आपका काम है। अच्छे गुण लाना
चाहते हैं तो उनकी जड़ों का पता नहीं लगाते कि अच्छे गुण की जड़ें कहां होती हैं? अच्छे गुणों को ऊपर से चिपका लेना चाहते
हैं। जो बुराइयां हैं, उन्हें अलग करना चाहते हैं, उनकी जड़ें नहीं देखते, जिनमें पानी दिए जा रहे हैं। और फिर जितनी
आप ऊपर से कलम करते हैं--पता होना चाहिए, साधारण
सा बगीचे का माली जानता है कि जिस-जिस चीज की कलम की जाती है, उसका झाड़ और घना हो जाता है। तो ऊपर से जिस-जिस
की आप कलम करेंगे, उसका झाड़ और घना हो जाएगा, उसकी जड़ें और मोटी हो जाएंगी। ऊपर से कलम
करते हैं, नीचे पानी देते हैं। जीवन असुविधा में, कलह में, कांफ्लिक्ट
में पड़ जाता है।
इसको
समझें। कोई दूसरा आदमी, कोई तंत्र-मंत्र नहीं है कहीं कि आपको कोई
दे दिया और आपने एक ताबीज बांध लिया और आप शांत हो गए। या आपने राम-राम जप लिया
आधा घंटे और आप शांत हो गए। या आप मंदिर गए, भगवान
के सामने कुछ आपने आरती हिलाई और आप शांत हो गए। या आप कहीं गए, कहीं कोई गाय दान कर दी और आप शांत हो गए।
इस पागलपन में मत पड़ना। कोई इस भांति शांत नहीं होता। शांत होने के लिए तो भीतर के
अंतःकरण के सारे विरोधाभास मिटाने होंगे। असली साधना वहां है। ये कपड़े छोड़ कर भाग
गए और रंग लिए कपड़े और यह कर लिया और वह कर लिया, इससे
कोई साधना नहीं है। इससे कोई शांत नहीं होता और न अंतःकरण शुद्धता को उपलब्ध होता
है।
जीवन
की वास्तविक समस्याओं को हल करना है तो समस्याओं से भागने का मत सोचें। समस्याओं
को पकड़ें, पहचानें, उनमें
प्रवेश करें, जानें, उनकी
अंतिम जड़ तक खोज करें। यही विज्ञान है। जीवन को परिवर्तित करने का यही रास्ता है।
जीवन को ऊर्ध्व करने का यही रास्ता है। उसकी समस्याओं के भीतर प्रवेश करके जड़ों को
पकड़ कर, जड़ों को पहचानते ही क्रांति शुरू हो जाएगी।
तब निर्णय साफ हो जाएगा। कांटे रखने हैं तो पानी दें; कांटे नहीं रखने हैं तो पानी देना बंद कर
दें। इतना ही सरल है। निश्चित ही,
इतनी ही सरल बात है। लेकिन
थोड़ा सा श्रम तो होगा ही। थोड़ा सा भीतर जाने का श्रम तो लेना ही पड़ेगा। थोड़ा सा तो
निर्भय होकर प्रवेश करना ही पड़ेगा। और ऐसी स्थिति है कि लोग अनजान, अकेले रास्ते पर जाने में जितने नहीं डरते, उतने अपने भीतर जाने में डरते हैं। और डरने
का कारण है। क्योंकि अपना झूठा चेहरा बना रखा है। जैसे ही भीतर जाएंगे, चेहरे का रंग-रोगन सब उड़ने लगेगा। वहां जो
आदमी दिखाई पड़ेगा, वह बहुत घबड़ाने लगेगा।
एक
आदमी साधु बना बैठा है। उसे हजारों लोग मानते हैं कि वह साधु है। अब वह भीतर कैसे
जाए? भीतर जाए तो असाधु के दर्शन होते हैं। तो
घबड़ाहट लगती है, भीतर कैसे जाए? भीतर जाए तो पापी बैठा दिखाई पड़ता है; बाहर पुण्यात्मा है। तो वह यह सोचता है कि
भीतर की फिकर छोड़ो। कोई भांति बाहर ही बाहर रहे आओ और गुजारा कर लो। तो बाहर-बाहर
रहने का उपाय करता है। हम सारे लोग इसीलिए बाहर-बाहर रहने का उपाय करते हैं। भीतर
जाने में डर है, क्योंकि भीतर के असली आदमी को देखने में
घबड़ाहट हो सकती है। अगर सच में आंतरिक कलह को मिटाना है, तो कलह के भीतर प्रवेश करना जरूरी है।
और कुछ
बात होगी इस संबंध में, तो कल सुबह मैं करूंगा। मैं समझता हूं कुछ न
कुछ बात आपको साफ हुई होगी।
बहुत
से प्रश्न रह गए। कुछ प्रश्न रह ही जाने चाहिए। क्योंकि मैं कौन हूं कि सारे
प्रश्नों का आपको उत्तर दूं?
कोई भी नहीं है कि सारे
प्रश्नों का उत्तर दे। मैं भी प्रश्नों के जो उत्तर दे रहा हूं तो यह मत खयाल आप
लेना कि आपके प्रश्न का उत्तर दे दिया तो आपका कोई प्रश्न हल हो जाएगा। मैं तो
केवल अपनी दृष्टि साफ कर रहा हूं। शायद मेरी दृष्टि की बात आपको पकड़ में आ जाए। वह
प्रश्न और उसका उत्तर मूल्यवान नहीं है। प्रश्न प्रश्न है, उत्तर उत्तर है। उसका कोई मूल्य नहीं है।
लेकिन जिस दृष्टि से मैं उस उत्तर को दे रहा हूं, उत्तर
न पकड़ लेना आप, उस दृष्टि पर थोड़ा सा आपका खयाल आ जाए कि
किस कोण से, किस दृष्टि से मैं देख रहा हूं जीवन को, वह आपके खयाल में आ जाए तो उत्तर मिल गया।
उनका भी, जो मैंने नहीं दिया; और उनका भी, जो
मैंने दिया। और अगर वह दृष्टि खयाल में न आए। आप मेरा उत्तर तैयार कर लें। यह कोई
परीक्षा नहीं है स्कूल की। वह बच्चों पर छोड़ दें कि वे उत्तर तैयार कर लेते हैं और
लिख देते हैं। असल में तो वह भी शिक्षा नहीं है जहां उत्तर तैयार कर लिए जाएं और
लिख दिए जाएं। सब अशिक्षा है। लेकिन उसको छोड़ दें।
जीवन
में कोई उत्तर नहीं सीखे जाते,
जीवन में दृष्टि सीखी जाती
है। तो मैं जो सारी कोशिश कर रहा हूं, वह
इसलिए नहीं कि आपको कोई बंधा-बंधाया, रेडीमेड
फार्मूला कोई आपको दे दूं,
वह आपको याद हो जाए। वह तो
मैं अपना ही उलटा कर लूंगा। क्योंकि मैं वही तो कह रहा हूं कि रेडीमेड फार्मूला
आपको बहुत से मालूम हैं,
वे छोड़ दें। दृष्टि को देखें
कि जीवन को देखने की क्या दृष्टि हो सकती है। और अगर वह दृष्टि आपके खयाल में आ
जाए, तो फिर मेरा उत्तर नहीं होगा, फिर आपकी दृष्टि आपको उत्तर देगी। वही उत्तर
वास्तविक है जो आपकी दृष्टि आपके भीतर उत्पन्न कर देती है। शेष सब उत्तर व्यर्थ
हैं।
मैं
समझता हूं मेरी बात समझ में आई होगी। इतने प्रेम से मेरी बातों को सुन रहे हैं।
बहुत सी बातें कड़वी भी होंगी। बहुत सी क्या, अधिक
बातें कड़वी होंगी। फिर भी प्रेम से सुनते हैं, इससे
बड़ी अनुकंपा आपकी मुझ पर मालूम होती है, बहुत
आपकी दया मुझ पर मालूम होती है कि मेरी कड़वी बात को भी इतने प्रेम से सुन लेते
हैं। कोई पुराना जमाना होता तो पत्थर मारते, कुछ और
करते। दुनिया कुछ बेहतर हो गई,
आदमी कुछ अच्छा हुआ है, वह प्रेम से सुन लेता है। यही बड़ी कृपा है।
परमात्मा
की बड़ी कृपा है कि दुनिया थोड़ी सी बेहतर है। नहीं तो इतनी बात कहनी भी मुश्किल हो
जाए, आप आ जाएं मेरे ऊपर, सिर को पकड़ लें। इतनी कृपा करते हैं तो मुझे
बड़ा अनुग्रह मालूम होता है। मेरी कड़वी बात को भी सुन लेते हैं शांति से। परमात्मा
करे उस पर विचार भी करेंगे,
थोड़ा उसको सोचेंगे। मानेंगे
कभी नहीं, सोचेंगे, समझेंगे।
वह आपको किसी दिन ठीक लगे दृष्टि,
तो आपके भीतर एक द्वार खुल
जाएगा। वह द्वार आपका होगा,
वह मेरा नहीं होगा। उस वक्त
आपको कुछ दिखाई पड़ेगा, वह आपका होगा, वह
मेरा नहीं होगा।
उस आशा
में कहता हूं कि शायद, शायद कहीं किसी की तैयारी हो और कोई बात
उसके भीतर खुल जाए। कोई एक गठान भी थोड़ी ढीली हो जाए, तो भी बड़ी बात हो जाती है।
तो
धन्यवाद देता हूं और सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें