ग्यारहवां प्रवचन
मेरे
प्रिय आत्मन्!
बीती
चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न हैं।
एक
मित्र रोज ही पूछ रहे हैं कि व्यवहार के संबंध में कुछ बोलिए। शायद उन्हें प्रतीत
होता होगा कि जो मैं बोल रहा हूं वह व्यवहार के संबंध में नहीं है। व्यवहार से लोग
न मालूम किस बात को सोचते और समझते हैं। शायद वे सोचते हैं: किस भांति के कपड़े
पहने जाएं, किस भांति का खाना खाया जाए, कब सोया जाए, कब उठा जाए, सच बोला जाए या झूठ बोला जाए, ईमानदारी की जाए या बेईमानी की जाए। आचरण की
और सारी बातों को वे व्यवहार समझते होंगे। इसलिए मैं रोज बोल रहा हूं लेकिन उनका
प्रश्न रोज लौट आता है। वे द्वार पर ही मुझे मिल जाते हैं कि वह व्यवहार के संबंध
में आपने अब तक कुछ भी नहीं कहा। तो आज पहले उनके संबंध में ही बात कर लेनी उचित
होगी।
व्यवहार
का कोई भी मूल्य नहीं है,
आचरण का दो कौड़ी भी मूल्य
नहीं है। मूल्य है आत्मा का,
मूल्य है चेतना का, मूल्य है विचार का, मूल्य है विवेक का, आचरण तो भीतर जैसी चेतना होती है उसकी सुगंध
है, उसकी लक्षणा है, सूचना है, उससे
ज्यादा नहीं है।
एक
आदमी को बुखार चढ़ा हुआ है। उसका शरीर उत्तप्त हो गया है, ताप से भर गया है, गरम हो गया है। इस उत्ताप का क्या मूल्य है? यह कोई बीमारी थोड़ी है। बीमारी तो भीतर है
कुछ जिसकी वजह से शरीर ने गरम होकर खबर दी है। बेचैनी की खबर दी है। गर्मी बीमारी
नहीं है; गर्मी केवल लक्षण है बीमारी का। और अगर हम
सोचने लगें कि गर्मी को कैसे ठीक किया जाए और बुखार के मरीज को सिर्फ ठंडे पानी
में नहलाएं और ठंडक में रखें--तो बीमारी के ठीक होने की तो कोई संभावना नहीं, बीमार के मर जाने की संभावना जरूर पैदा हो
सकती है।
बुखार
तो केवल सूचना है, इनफार्मेशन है। बुखार तो केवल लक्षण है, बीमारी कहीं भीतर है। इस लक्षण को देख कर उस
भीतर की बीमारी को ठीक करेंगे तो लक्षण विलीन हो जाएगा।
आचरण, व्यवहार जो हमें बाहर दिखाई पड़ता है वह
मनुष्य की भीतर की चेतना की सूचना है। भीतर चेतना रुग्ण होती है तो व्यवहार रुग्ण
हो जाता है। कोई आदमी असत्य बोलता है, बेईमानी
करता है, चोरी करता है, क्या
आप सोचते हैं कि यह व्यवहार का सवाल है। चोरी जिस आत्मा से निकलती है वह रुग्ण है।
असत्य जिस चेतना से निकलता है वह बीमार है। बेईमानी जहां से पैदा होती है वहां
भीतर जड़ में कोई खराबी है और अगर उस जड़ को नहीं बदला जाता--तो हम बीमारी को
काटेंगे एक तरफ से, बीमारी दूसरी तरफ से पैदा होगी; दूसरी तरफ से काटेंगे तीसरी तरफ से पैदा
होगी।
एक जगह
से चोरी को रोकेंगे चोरी दूसरी तरफ से घूम कर खड़ी हो जाएगी। क्योंकि जड़ तो नष्ट
नहीं होती केवल शाखाएं काट रहे हैं आप। शाखाएं काटने से पौधे नष्ट नहीं होते हैं, लेकिन जड़ें काट देने से जरूर नष्ट हो जाते
हैं। और शाखाएं काटने से तो और नुकसान होता है, शाखाओं
का काटना तो और नई शाखाओं के जन्म की व्यवस्था हो जाती है। एक शाखा काटी तो दो
शाखाएं पैदा होती हैं, दो काटी तो चार पैदा होती हैं।
लेकिन
धर्मगुरु आज तक लोगों को आचरण की ही शिक्षा देते रहे हैं। वे यह नहीं कहते कि उस
चेतना को उपलब्ध करो जिससे सत्य पैदा होता है, वे यह
कहते हैं सत्य बोलो। यह उलटी बात है और गलत बात है। वे यह नहीं बताते हैं कि किस
आत्मा से सत्य के फूल पैदा होते हैं उस आत्मा को उपलब्ध करो। वे यह बताते हैं कि
सत्य बोलो--झूठ मत बोलो! चोरी मत करो! बेईमानी मत करो! हिंसा मत करो! ये सारी की
सारी शिक्षाएं लक्षणों को बदलने की शिक्षाएं हैं, अंतरात्मा
को बदलने की नहीं। और लक्षण बदलने से कोई आत्मा कभी नहीं बदलती। बदलने का कोई
मार्ग भी नहीं है। ऊपर से बदलने से भीतर जो है वह नहीं बदलता है लेकिन भीतर जो है
अगर बदल जाए तो ऊपर सब अपने आप बदल जाता है।
यह
आचरण की शिक्षा ने सारी दुनिया में पाखंड को पैदा किया है। आदमी भीतर वही बना रहता
है जो है। और ऊपर से आचरण को थोप लेता है। और दिखाई कुछ और पड़ने लगता है। जिन
देशों ने, मारेलिस्ट ने, नीतिवादियों
ने, आचरणवादियों ने, व्यवहारवादियों ने मनुष्य की आत्मा को
अतिक्रांत कर रखा है उन देशों में उतना ही ज्यादा पाखंड पैदा हो गया है।
हमारा
ही मुल्क एक उदाहरण है। पांच हजार साल की शिक्षा है हमारी आचरण को ठीक करने की, हमसे ज्यादा गलत आचरण आज पृथ्वी के ऊपर किसका
है? क्या हुआ इस शिक्षा का? इतने दिनों की चेष्टा का क्या परिणाम हुआ? यह परिणाम हुआ जो आज भारतीय जिस भांति का
आदमी है। यह परिणाम निकला हमारी सारी चेष्टाओं का। जरूर हमारी चेष्टाओं में कहीं
कोई बुनियादी भूल हो गई है और वह भूल यह है कि हमने जड़ को बदलने की कोशिश नहीं की, हमने शाखाओं को बदलने की कोशिश की है।
शाखाओं के बदलने से शाखाएं और बढ़ती चली गई हैं। यह हो भी नहीं सकता, यह बिलकुल असंभव है, अवैज्ञानिक है।
एक
मित्र मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि मैं शराब पीता हूं, जुआ खेलता हूं, मांस खाता हूं, मैं सब करता हूं और मैं अनेक दिनों से आपके
पास आना चाहता था लेकिन इस डर से नहीं आया कि मैं जाऊंगा और आप कहेंगे, मांस खाना छोड़ो, शराब पीना छोड़ो, जुआ खेलना छोड़ो। तब कुछ हो सकता है। यह मैं
छोड़ नहीं सकता इसलिए मैं आता नहीं था। लेकिन कल किसी ने मुझसे कहा कि आप तो कुछ भी
छोड़ने को नहीं कहते हैं इसलिए मैं हिम्मत करके आपके पास आ गया। क्या कुछ भी छोड़ने
की जरूरत नहीं है और मैं बदल सकता हूं?
मैंने
कहा, अगर छोड़ने की कोशिश की तब तो कभी बदल ही
नहीं सकोगे। बदल जाओ, तो चीजें छूट सकती हैं। छोड़ने की कोई भी
जरूरत नहीं है। मैंने उनसे कहा,
इसकी फिकर छोड़ दो। क्योंकि
मेरे लिए यह सवाल नहीं है कि तुम जुआ खेलते हो। मेरे लिए सवाल यह है कि जो आदमी
जुआ खेल रहा है वह आदमी जिंदगी में दांव लगाने को आतुर है और दांव लगाने के लिए
ठीक जगह उसको उपलब्ध नहीं हो रही,
तो वह पैसे पर दांव लगा रहा
है। उसे ठीक चैलेंज नहीं मिल रहा है जिंदगी का जहां वह दांव लगा दे। यह आदमी
हिम्मतवर आदमी है। जुआ जो नहीं खेलते इस कारण कोई नैतिक नहीं हो जाते, केवल कमजोर भी हो सकते हैं, कायर भी हो सकते हैं। चुनौती, दांव लगाने की हिम्मत न हो, रिस्क न लगा सकते हों, जोखिम न उठा सकते हों, इस तरह के लोग भी हो सकते हैं। और मेरे अपने
अनुभव में यही आया है कि जिनको आप समझते हैं ये जुआ नहीं खेलते, वे केवल वे लोग हैं जिनमें दांव लगाने का
कोई सामर्थ्य नहीं।
लेकिन
जो आदमी जुआ खेलता है इसके प्राण आतुर हैं कहीं दांव लगा देने को, किसी चीज पर यह प्राणों को तौल लेना चाहता
है, लेकिन वह मार्ग नहीं खोज पा रहा है, वह जुआ ही खेल रहा है। जो आदमी शराब पी रहा
है, यह आदमी चिंतित है, दुखी है, परेशान
है और अपने को भूलना चाह रहा है,
भूलने का रास्ता खोज रहा है।
अगर इसकी चिंता, इसकी बेचैनी और अशांति समाप्त हो जाए, इसकी शराब उसी क्षण विलीन हो जाएगी। जिंदगी
में ठीक दांव लगाने की कला आ जाए जुआ विलीन हो जाएगा।
जो
आदमी मांस खा रहा है इसकी फिकर ही नहीं कर रहा है कि मेरे भोजन से किसी को कितनी
पीड़ा और दुख पहुंचता होगा। वह आदमी कौन है? वह
आदमी वह है जो जाने-अनजाने दूसरे को दुख देने में सुख अनुभव कर रहा होगा। और ऐसा
आदमी कौन होता है? ऐसा आदमी वह होता है जो इतना दुखी है, इतना पीड़ित है, इतना परेशान है कि उसके पास अब एक ही सुख का
अनुभव रह गया है कि जब वह किसी को अपने से भी ज्यादा दुखी, पीड़ित और परेशान देखे। बस उतना कंपेरेटिव, जब वह अपने से ज्यादा दुखी किसी को देखे तो
थोड़ी देर को उसे राहत मिलती,
उसके पास और कोई सुख नहीं है।
जो आदमी दूसरे को दुख देने को तैयार है वह बहुत दुखी आदमी है। क्योंकि सुखी आदमी
ने आज तक किसी को भी दुख नहीं दिया है।
आनंद
से भरे आदमी ने आज तक किसी को पीड़ा नहीं दी है। दुखी आदमी मजबूर है दुख देने को, उसके पास एक ही सुख की संभावना बच गई है कि
वह किसी को दुख दे, किसी को सताए। इसलिए वह इनसेंसिटिव है, संवेदनहीन है। उसके हाथ से क्या हो रहा है
उसे पता नहीं चलता।
शराबी
को हम समझाते हैं शराब मत पीओ! हम यह देखते नहीं कि शराबी शराब क्यों पी रहा है? चिल्लाते रहो! समझाते जाओ कि शराब मत पीओ!
आपके चिल्लाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। शराब पीने वाला बढ़ता चला जा रहा है। यह जमीन
बहुत जल्दी पूरी जमीन शराब पीएगी। इसमें आदमी खोजने मुश्किल हो जाएंगे जो शराब न
पीते हों। आपके चिल्लाने से कुछ न होगा, इतना ही
हो सकता है कि चिल्ला-चिल्ला कर आप भी थक जाओ और पीने लगो, और कुछ भी नहीं हो सकता। और मैं आपसे यह भी
कहता हूं कि यह भी हो सकता है कि वे जो लोग पी रहे हैं शराब पीने में अपने को भुला
देते हैं और यह भी हो सकता है कि आप जो समझाने निकल पड़े हैं लोगों को कि शराब मत
पीओ! शराब मत पीओ! आप अपने को इस चिल्लाहट में ही भुलाने की कोशिश कर रहे हों।
साधु-संन्यासी इसी में अपने को भुलाए रखते हैं। दुनिया को सुधारने के पागलपन में
अपने को भुला लेते हैं। यह भी शराब हो सकती है। यह भी इनटॉक्सिकेशन हो सकता है।
मैंने
सुना है, एक महानगरी में एक कुत्ता था। वह कुत्ता
उपदेशक था। आदमी ही उपदेशक होते हों ऐसा नहीं है, दूसरे
जानवरों में भी उपदेशक होते हैं। वह कुत्ता गांव भर के कुत्तों को समझाता था कि
कुत्तों की जाति बर्बाद होती जा रही है, हमारी
नीति नष्ट होती जा रही है,
हमारा आचरण बिगड़ता जा रहा है।
और वह यह भी कहता कि जब तक कुत्तों की जाति व्यर्थ चिल्लाना बंद नहीं करेगी तब तक
कुत्तों का जीवन ऊपर नहीं उठ सकता। अब यह चिल्लाना कुत्तों के स्वभाव का हिस्सा है, यह ऐसी कमजोरी है कि कोई कितना ही समझाए, कुत्ते इसमें क्या कर सकते हैं? कुत्ते सुन लेते थे उसकी बात, थोड़ी-बहुत देर श्वास रोक कर चुप भी रह जाते
थे। लेकिन वह उपदेशक गया कि कुत्ते चिल्लाना शुरू कर देते। इतने टेंप्टेशंस आ जाते
कि फिर रुकना मुश्किल हो जाता।
कोई
आदमी निकल जाता, कोई पुलिसवाला निकल जाता। कोई दूसरा कुत्ता
भौंक देता फिर उनके सामर्थ्य के बाहर हो जाती बात। वह उपदेशक धीरे-धीरे बड़ा होता
चला गया, क्योंकि वह अकेला कुत्ता था जो चिल्लाता
नहीं था बाकी सब कुत्ते चिल्लाते थे। लेकिन बात असल यह थी कि दिन भर कुत्तों को
समझाने में चिल्लाने का सारा मजा आ जाता था। एक रात कुत्ते उस उपदेशक से बहुत
परेशान आ गए और सारे गांव के कुत्तों ने तय किया कि कम से कम एक बार तो हम इसकी
बात मान लें।
अमावस
की रात थी। उन्होंने कहा,
आज हम कष्ट कर लें कि आज रात
हम नहीं चिल्लाएंगे चाहे कुछ भी हो जाए, सारे
कुत्तों ने कसम खा ली और एक-एक कोने में दुबक कर पड़े रह गए। श्वास रोक ली, आंख बंद कर ली। बिलकुल योगासन में लीन हो गए
सारे कुत्ते। और उन्होंने कष्ट कर लिया कि आज नहीं चिल्लाएंगे चाहे कुछ भी हो जाए
एक रात तो कम से कम अपने गुरु की बात हम मान लें। सांझ होते ही वह जो गुरु था, वह जो उपदेशक था कुत्ता वह निकला कि कहीं
कोई मिल जाए चिल्लाता हुआ तो समझाऊं।
लेकिन
आज तो रात सन्नाटे में थी। कोई कुत्ता दिखाई नहीं पड़ता था, कहीं कोई आवाज न थी। रात के बारह बज गए, वह घबड़ा गया, कोई
कुत्ता चिल्लाता हुआ नहीं दिखाई पड़ा। जहां भी गया कुत्ता आंख बंद किए चुपचाप बैठा
है। आज पहली दफा छह घंटे तक उसे बोलने का मौका नहीं मिला। उसके गले में खराश पैदा
होने लगी। उसका मन हुआ कि चिल्लाऊं। वह बड़ा हैरान हुआ कि यह टेंप्टेशन तो मुझे कभी
भी नहीं पकड़ा था। यह कौन शैतान मुझे सता रहा है? यह तो
कभी मुझे खयाल ही नहीं आया था चिल्लाने का। रात दो बज गए, फिर उसके बस के बाहर हो गया। उसके प्राण
आतुर हो उठे। वह एक अंधेरी गली के भीतर गया और उसने चिल्लाना शुरू किया, वह वर्षों से नहीं चिल्लाया था।
उसके
चिल्लाने की आवाज सुन कर बाकी कुत्तों ने समझा किसी एक ने संकल्प तोड़ दिया अब हम
भी क्यों रुकें। सारा नगर चिल्लाहट से भर गया, वह
कुत्ता अंधेरी गली से बाहर आ गया और कुत्तों को समझाने लगा कि देखो चुप रहो। इसी
ने, इस चिल्लाने ने हमारी जाति को बर्बाद कर
दिया। कुत्ते इसी से पतित हो रहे हैं। चिल्लाना बंद करो, मैंने कितना समझाया है तुम सुनते नहीं हो।
फिर उसने समझाना शुरू कर दिया। लेकिन उस रात उसे इस सच्चाई का पता चला कि मेरी भी
चिल्लाने की जो...जो आनंद था,
वह मुझे उपदेश देने में ही
मिल जाता है इसलिए मैं बचा था चिल्लाने से।
आदमी
एक ही वृत्ति को न मालूम कितने रूपों से तृप्त कर सकता है।
तो
मैंने उन मित्र को कहा कि कुछ भी मत छोड़ें; कुछ
समझें, छोड़ें नहीं; कुछ
समझें, आचरण नहीं अंडरस्टैंडिंग, कोई समझ। जीवन को समझें थोड़ा। वे आते थे
उनसे मैं बात करता था। फिर मैंने उनको कहा कि थोड़ी समझ, थोड़े शांत, थोड़े
ध्यान में प्रवेश, थोड़े निर्विचार क्षणों को आमंत्रित करें।
कभी इतने शांत और शून्य रह जाएं जैसे कुछ भी नहीं है सब मिट गया। मौन हो जाएं। वे
प्रयोग करते थे क्योंकि मौन होने में न तो शराब बाधा देती है, न मांस खाना बाधा देता है, न जुआ बाधा देता है, और अगर बाधा देता है तो उतनी ही बाधा देता
है जितनी रामायण पढ़ना बाधा देती है,
जितना दुकान चलाना बाधा देती
है, जितना उपदेश देना बाधा देता है।
ध्यान
के लिए जीवन के सब क्रम एक बराबर हैं। कोई क्रम बाधा नहीं देता। उन्होंने कुछ दिन
प्रयोग किए, वे छह महीने बाद मुझसे मिलने आए और कहने लगे
कि आपने मुझे धोखा दिया। क्योंकि जैसे-जैसे मैं शांत हुआ शराब छूटती चली गई है।
मैंने कहा कि मैंने इसमें क्या धोखा दिया, मैंने
आपसे कहा था आपको छोड़ना नहीं है,
छूट सकती है वह बात दूसरी है, छोड़ना और छूट सकने में फर्क है। आपने छोड़ी
हो तो कहें। उन्होंने कहा,
मैंने छोड़ी नहीं। लेकिन
जैसे-जैसे मन शांत हुआ है--बेहोश होने की वृत्ति, बेहोश
होने की आतुरता समाप्त हो गई है। बेहोश होने की आतुरता अशांत मन का हिस्सा है।
शांत मन बेहोश नहीं होना चाहता।
अशांत
मन अपने को भूलना चाहता है ताकि अशांति भूल जाए। शांत मन अपने को जानना चाहता है
ताकि शांति और बढ़ जाए। तो अशांत मन आत्म-विस्मरण चाहता है, सेल्फ फारगेट फुलनेस चाहता है। शांत मन
सेल्फ रिमेंबरिंग में प्रविष्ट होता है। स्वयं को जानना चाहता है। और जानना चाहता
है। शांत मन जागना चाहता है,
अशांत मन सोना चाहता है।
बुनियाद
में शराब नहीं है। बुनियाद में शांत या अशांत मन है। मन शांत होगा शराब समाप्त हो
जाएगी और मन अशांत होगा दुनिया की कोई सरकारें, दुनिया
के कोई धर्मगुरु, दुनिया की कोई शिक्षा शराब को नष्ट नहीं कर
सकती। और आज नहीं कल शराबी जिस दिन भी संगठित हो जाएंगे। अब तक बुरे लोग संगठित
नहीं हुए हैं इसलिए अच्छे लोग बकवास किए चले जा रहे हैं। जिस दिन बुरे लोग संगठित
हो जाएंगे उस दिन आपको पता चलेगा कि आप निन्यानबे लोगों के बीच में आपकी आवाज अभी
बुरे लोगों को पता नहीं चला है कि डेमोक्रेसी आ गई है दुनिया में, और यह अच्छे लोगों को हक नहीं है कि एक आदमी
कहे कि शराब बंद होनी चाहिए तो बंद करवा दे और निन्यानबे आदमी शराब पीना चाहते
हों।
जिन
मुल्कों में लोकतंत्र थोड़ा आगे बढ़ गया है वहां इस तरह के आंदोलन चलने शुरू हो गए
हैं कि जब अधिक लोग शराब पीना चाहते हैं तो किसको हक है कि शराब बंद करे। और अधिक
लोग अगर झूठ बोलना चाहते हैं तो किसको हक है कि सच का उपदेश दे। यह दुनिया संगठित
बुराई के करीब पहुंच जाएगी बहुत जल्दी, लोगों
को संगठन का सीक्रेट पता चल गया है। संख्या का अर्थ पता चल गया है। बुरा आदमी
असर्टिव नहीं रहा अब तक,
अच्छे आदमी चिल्लाने वाले
आदमी रहे हैं बुरा आदमी पश्चात्ताप का आदमी रहा है। लेकिन अब बुरे आदमी भी असर्ट
कर रहे हैं।
यूरोप
के मुल्कों में होमोसेक्सुअल्स की सोसाइटी बन गई है। वे यह कहते हैं कि
होमोसेक्सुअलिटी भी पुरुष और पुरुष,
स्त्री और स्त्री के बीच भी
सेक्स के संबंध होने की आज्ञा होनी चाहिए। क्योंकि हमारी भी संख्या है। हम
अप्राकृतिक नहीं हैं और न हम पाप कर रहे हैं। हमारे मन में जो उठता है वह हम करना
चाहते हैं। उनकी संख्या कम नहीं है। कुछ मुल्कों में होमोसेक्सुअल की संख्या तीस
परसेंट है, तीस परसेंट कोई छोटी संख्या नहीं है।
एक्झीबीशनिस्ट के क्लब बन गए हैं जो कहते हैं कि हमारा मन होता है कि हम सड़कों पर
नंगे खड़े हो जाएं और लोग हमें नंगा देखें।
हमारी
यह निर्दोष इच्छा है इसको पूरा क्यों न किया जाए, हम
किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ते। हम सिर्फ सड़क पर नंगे खड़े हो जाना चाहते हैं। लोग
हमको देखें। हम उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ते, वे न
देखना चाहें वे न देखें,
बिना देखे चले जाएं। उनके भी
क्लब हैं, उनकी भी सोसाइटी है, बेल्जियम में उनका मूवमेंट है। और वे कहते
हैं कि हमको अधिकार मिलना चाहिए। हम किसी का कुछ बिगाड़ते नहीं। हमारा मन होता है
कि हम नंगे खड़े हो जाएं। कौन हमको रोकना चाहता है। आपको नहीं देखना अपनी आंख बंद
करिए चले जाइए।
आपको
पता नहीं है, सारी दुनिया में मनुष्य की चेतना उन सारी
थोथी बातों के विरोध में खड़ी होती चली जा रही है जिनको हम इतने दिनों तक चिल्लाते
रहे हैं। न आपका व्यवहार मूल्य का है, न आपका
आचरण, न आपकी नीति की शिक्षा। वह बुनियादी रूप से
गलत है। और उसके खिलाफ जिस दिन भी प्रतिक्रिया पूरी होगी उस दिन सारी जमीन पर एक
ज्वालामुखी खड़ा हो जाएगा। खड़ा हो गया है। स्वीडन, नार्वे
के लड़कों ने, हाईस्कूल के लड़के और लड़कियों ने अपने
मां-बाप को यह कह दिया है कि हम जैसे ही सेक्सुअली मैच्योर होते हैं, तेरह और चौदह साल के होते हैं, उसके बाद हम एक भी दिन बिना शादी के रहने को
तैयार नहीं हैं।
किसको
हक है, जब हम चौदह साल में प्रौढ़ हो गए विवाह करने
के लिए तो बीस साल तक हमें रोकने के लिए कौन हकदार है? यह छह साल का स्टार्वेशन, यह छह साल की सेक्सुअल भूख के लिए कौन
जिम्मेवार है? हम शादी करने को तैयार हैं हम नहीं रुक
सकते। उन्होंने मूवमेंट चलाया और स्वीडन की गवर्नमेंट को झुक जाना पड़ा है। और इस
बात के लिए राजी होना पड़ रहा है कि अगर हाईस्कूल के लड़के-लड़कियां शादी कर लें तो
कमाएगा कौन? वे तो अभी पढ़ेंगे। तो लड़के-लड़कियों ने कहा
है कि हमें मैरिज अलाउंस मिलना चाहिए जब हम पढ़ चुकेंगे तब हम बाद में आपको पैसा
चुका देंगे। लेकिन शादी हम करेंगे।
हो गई
बहुत बकवास आपके नीतिशास्त्रियों की, बहुत
दिन चलने वाली नहीं है। और न चले तो अच्छा है। लेकिन उसके न चलने में जो परिणाम
होंगे वे मुझे पसंद नहीं हैं न मुझे प्रीतिकर हैं। न मैं उनका स्वागत करता हूं। एक
बीमारी से दूसरी बीमारी पैदा हो रही है, एक भूल
से मनुष्य-जाति दूसरी भूल पर जा रही है। परतंत्रता थी जीवन में, आचरण एक स्लेवरी की तरह था आदमी के ऊपर। अब
उसकी प्रतिक्रिया रिएक्शन यह हो रही है--स्वच्छंदता, आचरणहीनता, लेकिन मैं एक तीसरा विकल्प देखता हूं। आचरण
थोपा हुआ नहीं आत्मा से निकसित,
आचरण ऊपर से डाला हुआ नहीं
भीतर से आया हुआ है--वह चेतना के परिवर्तन से संभव होता है और हमेशा जगत में जब भी
आचरण किसी का बदलता है तो भीतर से बदलता है।
घर में
हम दीया जलाते हैं रोशनी खिड़कियों के बाहर निकलने लगती है। घर का दीया बुझा देते
हैं खिड़कियों में अंधेरा छा जाता है। खिड़कियां उसको प्रकट करती हैं जो घर के भीतर
है। आचरण तो खिड़की है जीवन की,
जो हमारे भीतर होता है वह
प्रकट होता है। खिड़कियों पर जो दिखाई पड़ता है वह खिड़कियों का नहीं है वह भीतर से
आने वाली चीज है। रोशनी है भीतर तो खिड़कियां रोशनी जाहिर करती हैं, अंधेरा है भीतर तो अंधेरा जाहिर करती हैं।
खिड़कियां केवल बताती हैं कि भीतर क्या है? आचरण
खबर देता है कि भीतर क्या है?
महावीर, या बुद्ध, या
कृष्ण, या राम, या
क्राइस्ट, या जरथुस्त्र--इनके जीवन में जो हमें दिखाई
पड़ता है वह आचरण नहीं है,
वह आत्मा है। लेकिन हम खिड़की
को ही देख कर लौट आते हैं,
भीतर के दीये की हमें कोई खबर
ही नहीं। और हम भी आकर अपने घर की खिड़की को रंगने लगते हैं चमकदार रंगों में। वह
चमकदार रंग नहीं है जो कृष्ण की खिड़की पर दिखाई पड़ता है और राम की खिड़की पर दिखाई
पड़ता है। वह रंगी हुई खिड़की नहीं है, वह
भीतर की रोशनी है जो खिड़की से बाहर प्रकट हो रही है। आप अपनी खिड़की को कितना ही
रंग लें इससे भीतर का दीया नहीं जल जाएगा।
महावीर
में दिखाई पड़ती है--अहिंसा। बुद्ध में दिखाई पड़ती है--करुणा। क्राइस्ट में दिखाई
पड़ता है--प्रेम। यह भीतर जो घटित हुआ है उसकी अभिव्यक्ति है, उसका एक्सप्रेशन है। यह आचरण नहीं है यह
आत्मा है। हम इसकी नकल करने में पड़ जाते हैं। हम सोचते हैं: हम भी ऐसा ही करें, हम भी इन जैसे हो जाएं। तो महावीर नग्न रहते
हैं तो हम भी नग्न खड़े हो जाएं। क्राइस्ट इस तरह के कपड़े पहनते हैं तो हम भी इस
तरह के कपड़े पहन लें। बुद्ध इस तरह का भोजन करते हैं तो हम भी इस तरह का भोजन कर
लें, बुद्ध इस करवट सोते हैं तो हम भी इस करवट सो
जाएं--इसको हम व्यवहार कहते हैं,
इसको हम आचरण कहते हैं। यह
पागलपन है! आचरण की नकल करके कोई आदमी सिर्फ भटक सकता है कहीं पहुंच नहीं सकता।
क्योंकि
एक-एक व्यक्ति की आत्मा अनूठी है और जब उसके भीतर का दीया जलेगा तो उसकी अपनी
खिड़कियों से रोशनी होगी। बुद्ध की अपनी खिड़कियों से रोशनी होगी। कृष्ण की अपनी
खिड़कियों से रोशनी होगी। हर घर की खिड़कियां अलग हैं, हर घर
की बनावट अलग है, हर आदमी अलग है। और उसकी जब रोशनी जलेगी, इसीलिए तो दुनिया के इतने बड़े महापुरुष हैं
इनमें कोई मेल नहीं है। अनूठे हैं। मोहम्मद तलवार लिए हुए खड़ा है। महावीर के
अनुयायी को बिलकुल समझ में नहीं आता कि मोहम्मद महापुरुष कैसे हो सकते हैं क्योंकि
तलवार लिए हैं और महावीर तो कहते हैं कि चींटी को भी मत मारना! लेकिन मोहम्मद की
तलवार में भी वही रोशनी चमक रही है जो महावीर की अहिंसा में चमक रही है।
मोहम्मद
का अपना व्यक्तित्व है, महावीर का अपना व्यक्तित्व है। रोशनी वही है, खिड़कियां अलग हैं। यह मोहम्मद की तलवार भी
इसलिए चमक रही है कि दुनिया में प्रेम बढ़े, यह
मोहम्मद की तलवार भी इसलिए चमक रही है कि दुनिया में बुराई न रहे, यह मोहम्मद की तलवार भी इसलिए चमक रही है
इसकी चमक, इसकी चमक में भी कोई गहरा प्रेम और कोई
रोशनी है। लेकिन महावीर का अनुयायी नहीं समझ सकता। मोहम्मद का अनुयायी महावीर को
नहीं समझ सकता कि आदमी कैसा है इसके हाथ में तलवार नहीं है, नंगा खड़ा हुआ है यह आदमी कैसा है?
मोहम्मद
और महावीर तो बहुत दूर-दूर हैं। बुद्ध और महावीर एक ही प्रांत में, एक ही समय में पैदा हुए। एक ही गांव में
घूमते रहे। एक बार तो एक ही गांव की धर्मशाला में दोनों ठहरे हुए थे। लेकिन दोनों
बिलकुल अलग थे। दोनों बिलकुल भिन्न थे। एक-एक व्यक्ति अनूठा है, इसलिए किसी के आचरण की नकल आप मत करना, नहीं तो अपनी आत्महत्या कर लेंगे। अपनी
आत्मा को जगाना, तो जरूर आपकी आत्मा अपना आचरण खोज लेगी।
हिमालय
से सैकड़ों नदियां निकलती हैं। गंगा अपने रास्ते पर बहती है। सिंधु अपने रास्ते पर, ब्रह्मपुत्र अपने रास्ते पर। कौन सी नदी किस
दूसरे नदी के रास्ते पर बहती है?
हर नदी का अपना रास्ता है। सब
नदियां सागर में पहुंच जाती हैं। लेकिन कोई नदी किसी दूसरे के रास्ते पर नहीं
बहती। कोई नदी किसी को फालो नहीं करती। हर रास्ता है, अपनी है नदी, अपना
रास्ता है, अपनी है जिंदगी, अपना है पानी, अपने
हैं प्राण, और अपनी है प्यास सागर तक पहुंचने की। और सब
सागर में पहुंच जाती हैं। हर आदमी परमात्मा के सागर तक पहुंचता है। लेकिन हर आदमी
एक अलग नदी है, उसका अपना रास्ता है, अपनी जिंदगी है। किसी नदी का आचरण किसी
दूसरी नदी के लिए आचरण नहीं है,
नियम नहीं है।
दुनिया
में कोई नियम नहीं है जो किसी आदमी पर लागू होता हो। सिर्फ एक बात ध्यान रखने की
है कि उसकी नदी कहीं बहना न छोड़ दे। कहीं ठहर न जाए तालाब न बन जाए। बस इतना ध्यान
रहे कि मेरी चेतना की धारा निरंतर विकासमान, गतिमान, बढ़ती रहे, जीवंत
रहे। हर पहाड़ को मैं तोड़ कर आगे बढ़ जाऊं। उसी पहाड़ को थोड़े ही आपको तोड़ना पड़ेगा जो
महावीर की नदी को तोड़ना पड़ा था। महावीर की नदी महावीर की नदी थी उसने दूसरे पहाड़ तय
किए थे। न अब वे पहाड़ हैं,
न अब वे मैदान हैं, आपको दूसरे पहाड़ पार करने हैं, आपको दूसरे मैदान पार करने हैं। सागर के
बिलकुल दूसरे किनारे पर आपको पहुंचना है।
आप
किसी के अनुकरण में न पड?। जब कोई पूछता है आचरण के बाबत कुछ कहें, वह यह कहता है कुछ सूत्र बताएं कि हम कैसे
चलें, कैसे उठें, कैसे
बैठें। वह यह पूछता है कि हमें बता दें सीधा-सीधा कि हम क्या खाएं, क्या न खाएं, क्या
पीएं, क्या न पीएं, ये
बेवकूफियां बहुत बताई जा चुकीं। इनसे आदमी की जिंदगी में कुछ भी परिवर्तन, कोई भी क्रांति नहीं हो सकी है। और काफी समय
हो चुका कि अब इस बात को हम समझ लें कि इन टुच्ची बातों का धर्म से कोई भी संबंध
नहीं है, धर्म की नाव इन्हीं टुच्ची बातों के किनारे
आकर टकराती है और टूट जाती है।
विवेकानंद
से अमेरिका में किसी ने पूछा,
तुम्हारे मुल्क में इतने धर्म
की बातें हैं लेकिन धर्म तो दिखाई नहीं पड़ता। विवेकानंद ने कहा कि मेरे मुल्क का
धर्म चौके-चूल्हे में जाकर नष्ट हो गया। लेकिन हम पूछते हैं कि व्यवहार, तो हम पूछते हैं चौका-चूल्हा--कितनी बार
पानी छानें, किसके हाथ का छुआ हुआ पानी पीएं और न पीएं, कितनी बार नहाएं कि न नहाएं, क्या करें और क्या न करें? जीवन का यह जो व्यर्थ उपक्रम है इसको हम अति
मूल्य देते हैं। इसका कोई भी मूल्य नहीं है। मूल्य है भीतर की चेतना का। और जब
भीतर की चेतना जगती है तो सम्यक रास्ते खोज लेती है। रास्ते बनाने नहीं पड़ते, रास्ते उपलब्ध हो जाते हैं, रास्ते मिल जाते हैं।
एक
आदमी है, उसे अंधेरे रास्ते पर जाना है। वह पूछता है
कि मैं किस पत्थर से बचूं,
किस दीवाल से बचूं, किस रास्ते से बचूं। हम कहते हैं, यह इतना लंबा रास्ता है कि हम कितनी तफसील
में तुम्हें बताएं कि तुम किस पत्थर से बचना, किस
दीवाल से बचना, किस गली में मत मुड़ जाना। हम कितनी लंबी बात
बताएं यह कैसे बता सकते हैं। हम एक दीया दे देते हैं हाथ में जला कर, दीया तुम ले जाओ। रास्ते पर दीया जलता रहेगा
तुम्हें दिखाई पड़ेगा किस पत्थर से बचना है, किस
पत्थर से नहीं बचना है। किस दीवाल से टकराना है, किससे
नहीं टकराना है। कहां दीवाल है,
कहां दरवाजा है, तुम्हें दिखाई पड़ेगा।
वह
कहता है कि दीये-वीये की बातें मत करें, मुझे
तो आचरण की बताएं कि मैं किस पत्थर से बचूं और किससे न बचूं। वह पागलपन की बातें
पूछ रहा है। जिंदगी बहुत बड़ी है। प्रतिक्षण जीवन में प्रश्न है और उसका निर्णय
आपको करना होगा। न मैं कर सकता हूं,
न महावीर, न मूसा कोई भी नहीं कर सकता उस निर्णय को।
क्योंकि मैं जिस रास्ते पर चला हूं,
आपको उस रास्ते पर कभी भी
नहीं चलना होगा। किसी को कभी उस रास्ते पर नहीं चलना होगा, वह रास्ता मेरा है, वह मेरे साथ है, वह मेरे साथ डूब जाता है, मेरे साथ ।
लेकिन
मैं चाहे किसी भी रास्ते पर चला हूं और आप चाहे किसी भी रास्ते पर चलें। दीये को
लेकर मैं चला हूं, दीये को लेकर आप भी चल सकते हैं। रोशनी को
लेकर चल सकते हैं रास्ते कोई भी हों। और ध्यान रहे, अगर
ठीक से देखें तो रास्तों के दो ही भेद हैं--अंधेरा रास्ता और प्रकाशित रास्ता। और
बाकी सब रास्ते कितने ही प्रकार के हों दो बुनियादी बातें हैं: आपकी जिंदगी अंधेरे
से भरी है या कि विवेक का प्रकाश है। विश्वास का अंधकार है, श्रद्धा का अंधकार है, या विचार की और विवेक की रोशनी है।
इस
बुनियादी बात पर मैं निरंतर रोज बात कर रहा हूं। और आप पूछते हैं कि हमें तो
व्यवहार की कुछ बात बताएं। व्यवहार की कोई बात अर्थ की ही नहीं है। अर्थ की बात है
कि आपके हाथ में रोशनी कैसे उपलब्ध हो जाए, कैसे
आपके हाथ में दीया हो। फिर रास्ता आप देख लेंगे। यह कौन आपको बताएगा कि कितना
रास्ता है? कैसे चलें, कैसे
उठें। और अगर किसी ने बताया तो वह आपका दुश्मन है, मित्र
नहीं है। वह आपको कैद कर रहा है। वह आपके रास्ते पर चलने की स्वतंत्रता छीन रहा
है। वह आपके प्राणों को बांध रहा है पीछे, वह
आपके लिए मुक्ति की तरफ ले जाने वाला नहीं बन सकता। इसलिए जो लोग आचरण को प्रमुख
मानते हैं, उनके लिए कोई मुक्ति संभव नहीं है। वे तो
गुलामी में दीक्षित हो रहे हैं। वे तो परतंत्रता में अपने को बांध रहे हैं और
मोक्ष की कामना कर रहे हैं और सोच रहे हैं, हम
मुक्त हो जाएं स्वतंत्र हो जाएं। जंजीरें बढ़ाते जा रहे हैं हाथों पर, पैरों में जंजीरें बढ़ाते जा रहे हैं और सोच
रहे हैं कि हम मुक्त होना चाहते हैं। मुक्ति उनके लिए सपना होगी, सत्य नहीं बन सकती।
मुक्त
जिसे होना है उसे पहले चरण में ही मुक्ति को स्वीकार कर लेना होगा, तो अंतिम फल मुक्ति हो सकती है। और पहले चरण
में क्या है मुक्ति? पहली स्वतंत्रता क्या है? पहली स्वतंत्रता है: आत्मा की रोशनी उपलब्ध
हो, तो आचरण की परतंत्रता नष्ट हो जाती है।
एक
सूफी फकीर बायजीद तीर्थ यात्रा पर था। उसने एक महीने का उपवास कर रखा था। रोजे के
दिन थे। उसने एक महीने का उपवास कर रखा है। उसके पचास शिष्य भी उसके साथ यात्रा कर
रहे हैं। चार या पांच दिन बीत चुके हैं। वे एक गांव में पहुंचे हैं, उस गांव में बायजीद को प्रेम करने वाला उसका
एक भक्त है, उसका एक प्यारा है। वह गरीब आदमी है, उसके पास झोपड़ा और थोड़ी सी जमीन थी, उसे खबर मिली कि बायजीद मेरे गांव में आता
है, उसने अपनी जमीन बेच दी, झोपड़ा बेच दिया और सारे गांव को भोजन पर
निमंत्रित कर लिया। उसे पता नहीं कि बायजीद उपवास किए हुए है वह भोजन नहीं करेगा।
उसे पता नहीं कि बायजीद के साथी भोजन नहीं करेंगे। उसने अच्छे-अच्छे भोजन बनवाए।
उसने सब जमीन बेच दी, झोपड़ा बेच दिया। उसने कहा कि मैं जिसे प्रेम
करता हूं वह आदमी गांव में आता है यह गांव के लिए जलसे का दिन है। फिर पीछे सोच
लेंगे। सारे गांव को भोजन पर बुला लिया है। बायजीद आया और उसने देखा गांव भर में
भोजन की सुगंध है, गांव भर में जलसा है, दीये जले हैं। उससे पूछा, यह क्या हो रहा है? गांव के लोगों ने कहा, वह तुम्हारा जो प्यारा है उसने अपनी जमीन और
मकान बेच दिया, आज रात पूरे गांव को भोजन दिया। बायजीद के
जो शिष्य हैं वे कहने लगे,
भोजन, भोजन की बात ही मत करो, हम उपवासे हैं। हम एक महीने तक उपवास
रहेंगे।
बायजीद
ने कहा कि चुप नासमझो, उपवास की बात भी मत करना, खतम उपवास। बायजीद के शिष्य तो बहुत हैरान
हुए कि यह कैसा आदमी है,
जरा सी सुगंध भोजन की मिली कि
उपवास खत्म, इसको हम गुरु समझते थे। बायजीद तो भोजन करने
बैठ गया। अब जब गुरु बैठ गया तो शिष्यों की बड़ी मुश्किल हो गई। थोड़ा तो उन्होंने
इधर-उधर सिर हिलाया, बातचीत की आपस में, लेकिन जब बायजीद भोजन करता है तब इनकी कौन
सुनेगा, उनको भी मजबूरी में भोजन के लिए बैठ जाना
पड़ा। फिर रात जब जलसा समाप्त हो गया और सारे लोग चले गए, और वह सराय में ठहर गए और सोने गए तो सारे
शिष्य गुरु के ऊपर टूट पड़े। शिष्य गुरु के ऊपर बहुत बुरी तरह टूटते हैं।
यह मत
सोचना आप, सबके सामने जनता में गुरु ऊपर होता है, एकांत में शिष्य गुरु के ऊपर हो जाते हैं।
असल में, शिष्य बनने का मजा ही यह है कि अकेले में
गर्दन पकड़ लो। सबके सामने पैर पकड़ते हैं अकेले में गर्दन पकड़ते हैं। उन्होंने सबने
घेर लिया बायजीद को और कहा कि क्या बेईमानी, क्या
धोखा हमारे साथ हुआ, हम उपवास पर थे, धार्मिक कृत्य था, आपने तोड़ दिया, जरा सा भोजन। बायजीद ने कहा, पागलो, प्रेम
से बड़ा कोई नियम नहीं होता। उसके प्रेम को तुमने नहीं देखा। हम अपने थोथे उपवास की
बातचीत उठाते वहां उसके प्रेम के सामने, उपवास
कल से फिर शुरू कर देंगे। चार दिन आगे तक उपवास कर लेंगे, इसमें फर्क क्या पड़ता है। एक महीना उपवास
चलेगा। और याद रखना, अगर दूसरे गांव में फिर किसी प्रेमी ने
प्रेम की खबर लाई, हम फिर उपवास तोड़ देंगे, फिर आगे उपवास कर लेंगे। उपवास इतना जरूरी
नहीं है। तुम किस तीर्थ की यात्रा पर जा रहे हो? मेरा
तीर्थ तो आ गया। जहां प्रेम है वहां तीर्थ है, मेरा
मंदिर तो आ गया। तुम क्या सोचते थे इस उपवास के लिए उस मंदिर को ठुकरा दें।
यह
आदमी चेतना से जी रहा है,
उसके शिष्य आचरण से जी रहे
हैं। इस आदमी को, रोज-रोज जीएगा, देखेगा चेतना की रोशनी में जो ठीक दिखाई
पड़ेगा करेगा। लेकिन शिष्यों के लिए कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है। उनके लिए तो संकल्प
है, नियम है, कानून
है, तय किया हुआ है, कसम खाई हुई है कि एक महीने तक उपवास
करेंगे। यह पत्थर की लकीर है उनके लिए, यह
गुलामी है उनके लिए। बायजीद मुक्त है। बायजीद जी सकता है, धार्मिक व्यक्ति मुक्त होता है बंधा हुआ
नहीं और आचरण वाले लोग एकदम बंधे हुए लोग होते हैं। उन्हें जीवन में जो भी
महत्वपूर्ण है सबसे वंचित रह जाते हैं क्योंकि क्षुद्र से बंध जाते हैं। एकदम
क्षुद्र से बंध जाते हैं।
एक बहुत
बड़े आचार्य--आचार्य शंकर,
वे काशी के घाट पर चढ़ रहे
हैं। मंदिर में पूजा को जा रहे हैं। स्नान किया है, पवित्र
हुए हैं। चले हैं सीढ़ियां पार करके,
रात का अंधेरा है, अभी सुबह के चार ही बजे हैं। और एक चांडाल, अदभुत बातें हैं, धार्मिक लोगों ने भी कैसे-कैसे नाम खोजे हुए
हैं आदमियों के लिए--चांडाल,
शूद्र, अछूत, अनटचेबल।
ये धार्मिक लोग हैं शब्दों को खोजने वाले। एक चांडाल उन्हें छू लेता है और शंकर
क्रोध से भर जाते हैं और कहते हैं कि चांडाल तूने मुझे छू लिया, अपवित्र कर दिया। वह चांडाल पूछता है कि
क्या आचार्य मैं यह पूछ सकता हूं कि किसने आपको छुआ? आप तो
कहते हैं संसार माया है। तो शरीर माया हो गया। माया ने अगर आपको छुआ है तो माया भी
छू सकती है? जो है ही नहीं वह कैसे छुएगी, जो इल्यूजन है वह छुएगा कैसे? और अगर आप कहते हैं कि मेरी आत्मा ने आपको
छू लिया, शरीर नहीं क्योंकि आत्मा सत्य है, ब्रह्म है। तो क्या आप सोचते हैं आत्मा भी
चांडाल और शूद्र हो सकती है। तो मुझे बता दें कि किसने आपको छू लिया है? तो फिर ऐसी भूल मैं कभी न करूं।
शंकर
एक क्षण खड़े रह गए। उनकी आंखों में जैसे कोई दीया जल गया हो, कोई रोशनी उठ आई है। सारे शास्त्रों को पढ़
कर और लिख कर वे जो नहीं जान सके थे, उस
संपर्क में अनुभव में आ गया। और उन्होंने कहा, क्षमा
कर देना मुझे? मैंने जो बातें अब तक कहीं वे केवल थ्योरी, केवल सिद्धांत रही होंगी। आज तुम पहली दफा
मुझे स्पष्ट कर दिए हो कि सब वही है। कौन किसे छू सकता है, कौन चांडाल हो सकता है, कौन ब्राह्मण हो सकता है। फिर वे वापस गंगा
में स्नान करने नहीं गए। फिर वे मंदिर में प्रविष्ट हो गए।
लेकिन
शंकर की जगह अगर कोई पंडित होता,
तो बड़ी मुश्किल बात थी।
चांडाल की चमड़ी खींची जा सकती थी,
गर्दन काटी जा सकती थी। शंकर
अपनी रोशनी से जी रहे हैं,
तो एक क्षण में उन्हें दिखाई
पड़ सकता है कि गलत। तो सारा कल तक का आचरण फेंक देने की क्षमता है। लेकिन अगर आचरण
से जी रहे हों, तो जाकर किताबों में देखते कि यह कैसे हो
सकता है कि चांडाल को छुआ हुआ मंदिर में जाऊं, यह तो
आचरण नहीं है, यह तो बड़ी गड़बड़ बात है। स्नान करो फिर से।
लेकिन नहीं, अपने दीये से जी रहे हैं तो बात दूसरी है।
तो मैं चाहता हूं कि आदमी अपनी रोशनी से जीए और एक-एक आदमी स्वतंत्र हो, किसी का परतंत्र न हो। किसी की तरफ आंख उठा
कर न देखे कि मैं तुम्हारे जैसा चलूंगा। किसी को हक नहीं है कि किसी को अपने जैसा
चलाए। यह वायलेंस है, यह हिंसा है कि मैं यह कोशिश करूं कि आप
मेरे जैसे चलें, यह हिंसा का गहरा से गहरा रूप है।
एक
बंदूक उठा कर मैं आपके ऊपर खड़ा हो जाता हूं और कहता हूं कि चलो, बैठो, आप
उठते हैं बैठते हैं, मुझे क्या मजा आता है, मुझे मजा आता है मालकियत का, डामिनेशन का।
हिटलर
बंदूक लेकर खड़ा हो जाता है। लाखों लोगों को हिलाता-डुलाता है। स्टैलिन बंदूक लेकर
खड़ा है, लाखों लोगों को हिलाता-डुलाता है। मजा क्या
है? मजा यह है कि मेरे इशारे पर लाखों लोग
लेफ्ट-राइट करते हैं, बाएं-दाएं घूमते हैं, जो मैं कहता हूं वह उन्हें करना होता है। ये
बंदूक वाले लोग बड़े नासमझ हैं। धर्मगुरु, नेता, नीतिशास्त्री ज्यादा होशियार है, वे भी यही मजा लेते हैं कि लाखों लोग मेरे
जैसे कपड़े पहनते हैं, मेरा जैसा खाना खाते हैं, मेरे जैसे उठते-बैठते हैं लेकिन बंदूक उनके
हाथ में नहीं इसलिए आप धोखे में आ जाते हैं। लेकिन रस वही है दूसरे को मुट्ठी में
बांधने का, दबाने का, ढालने
का, आदमी के साथ वस्तुओं जैसा व्यवहार करने का, मिट्टी जैसा व्यवहार करने का कि मैं उसको
ढालूं, बनाऊं।
इससे
तो यह हालत पैदा होती है कि लाखों लोग गेरुए वस्त्र पहने खड़े हैं। हजारों लोग
मुंह-पट्टियां बांधे हुए खड़े हैं। हजारों लोग कुछ और ढंग से खड़े हुए हैं और एक
कतार बंधी हुई है और एक कब्जा है किसी का, उसने
नियम निर्धारित किए हैं एक-एक आदमी को ढालने के। आदमी कोई मशीन है। आदमी कोई यंत्र
है। फोर्ड की कारें एक जैसी हो सकती हैं ठीक है क्षम्य है, लेकिन आदमी एक जैसे हो सकते हैं इस बात की
कोशिश भी अक्षम्य है। इस बात की कोशिश भी क्षमा के योग्य नहीं है। आदमी यूनीक है।
यह जो उसकी यूनीकनेस है,
यह जो उसकी अद्वितीयता है, बेजोड़पन है यही उसकी आत्मा है। आत्मा का
अर्थ क्या होता है? आत्मा का अर्थ होता है: वह जो तुम्हीं हो और
कोई भी नहीं है। आत्मा का अर्थ होता है: तुम्हारी आथेंटिक यूनीकनेस, तुम्हारी वह जो प्रामाणिक अद्वितीयता
है--जैसे तुम हो और कोई भी नहीं।
सारे
जगत में अकेलापन वह जो बुनियादी रूप से व्यक्तित्व है, वह जो इंडिविजुअलिटी है वही तो आत्मा है।
धर्मों ने जिन्हें हम आज तक धर्म कहते हैं आत्मा को नष्ट किया है, विकसित नहीं; क्योंकि
आचरण को थोपा है। तो मैं कोई आचरणवादी नहीं हूं, कोई
व्यवहारवादी नहीं हूं, कोई परतंत्रतावादी नहीं हूं। किसी आदमी के
लिए नियम तय करने का मुझे कोई अधिकार नहीं, किसी
को भी कोई अधिकार नहीं है।
एक बात
जरूर हम विचार कर सकते हैं और वह यह कि मनुष्य की चेतना का दीया कैसे जलता है। वह
भी कोई दूसरा आपके दीये को नहीं जला सकेगा। लेकिन पड़ोस के घर में दीया जल रहा हो, तो आपकी भी प्यास जग सकती है कि मेरे घर में
भी दीया जल जाए। पड़ोस का दीया आपके घर में नहीं आ जाएगा, लेकिन आपके घर का अंधेरा दिखाई पड़ सकता है
पड़ोस के दीये के प्रकाश में। अंधेरे को देखने के लिए भी रोशनी चाहिए। अंधेरा भी
फिर दिखाई नहीं पड़ता। तो पड़ोस में अगर रोशनी जल रही हो तो घर अंधेरा है यह पता
चलने लगता है।
बस, महावीर का, बुद्ध
का, जीसस का, जरथुस्त्र
का एक ही उपयोग है कि उनका दिया हुआ जला आपके अंधेरे घर की खबर देने लगे। बस, इससे ज्यादा नहीं है। उनके घर में खिला हुआ
फूल, उसकी सुगंध, आपके
घर के रूखे मैदान की खबर देने लगे कि यहां भी फूल हो सकते थे लेकिन फूल नहीं हो
पाए हैं। तो दीया कैसे जलाया जाता है? दीया
कैसे जलता है? कौन सी पात्रता चाहिए? कौन सी बुनियाद चाहिए? कौन सी भूमिका चाहिए कि दीया जल जाए? उस भूमिका को समझा जा सकता है। समझने के बाद
भी हरेक के घर में दीया जलने का उपक्रम थोड़ा-थोड़ा भिन्न होगा। हरेक के घर के दीये
अलग होंगे, तेल अलग होगा, बाती
अलग होगी, हरेक के घर में दिया फिर भी भिन्न-भिन्न
जलेगा, रोशनी होगी लेकिन दीये भिन्न-भिन्न होंगे।
इस
भिन्नता को समझते हुए प्यास पैदा हो जाए, पात्रता
खयाल में आ जाए, उसकी मैं कोशिश करता हूं। मुझसे मत पूछें कि
आप कैसे चलें, कैसे उठें, कैसे
बैठें, मुझसे मत पूछें कि क्या खाएं, क्या पीएं, क्या न
पीएं। मुझसे यह पूछें कि मेरे पास रोशनी कैसे हो कि मैं जो भी करूं वह अंधेरे में
न हो। बस, मैं कहता हूं कि चोरी भी करें तो रोशनी में
करें बस। और मैं जानता हूं भलीभांति कि आज तक रोशनी में चोरी कोई भी नहीं कर पाया।
इसलिए उसकी फिकर नहीं है। मैं कहता हूं, मांस
भी खाएं तो रोशनी में खाएं,
क्योंकि मैं जानता हूं कि
रोशनी में आज तक कोई मांस नहीं खा पाया। मैं कहता हूं, झूठ भी बोलें तो रोशनी में बोलें, क्योंकि मैं जानता हूं रोशनी में आज तक कोई
झूठ नहीं बोल पाया। इसलिए झूठ की फिकर करने की कोई जरूरत नहीं है रोशनी की फिकर
करने की जरूरत है।
एक बार
जीवन की ज्योति में जरा सी भी लपट आ जाए, तो आप
पाएंगे कि आचरण बदल गया,
ट्रांसफार्मेशन हो गया, दूसरे आदमी हो गए आप। बात बदल गई कल की
दुनिया गई, आप दूसरे आदमी हैं। बदलना नहीं पड़ता है आचरण
कि ठोंक-ठोंक कर बदल रहे हैं। सत्य को बिठा रहे हैं, असत्य
को निकाल रहे हैं। बेईमानी निकाल रहे हैं, ईमानदारी
बिठाल रहे हैं। यह असंभावना है क्योंकि जिसके भीतर बेईमानी बैठी है कौन ईमानदारी
बिठालने आएगा। वही बेईमान आदमी ईमानदारी बिठाल देगा, वह
उसमें भी बेईमानी कर जाएगा।
एक
आदमी ने एक मुसीबत के क्षण में नाव उसकी डूब रही थी, तो
उसने भगवान से कह दिया कि अगर मैं बच जाऊं तो मेरा जो महल है राजधानी में उसको बेच
कर मैं गरीबों में बांट दूंगा। पड़ोस के जो लोग थे यात्री, वे हैरान रह गए। वह महल पांच लाख रुपये का
था। और वह आदमी निपट कंजूस था। उसके घर के बाहर भिखारी भीख नहीं मांगते थे। दूसरे
नये भिखारी आते थे पुराने भिखारी कह देते उस महल में मत जाना, वहां कभी किसी को भीख नहीं मिली। भिखारी भी
जानते थे। इस आदमी ने कह दिया कि सब दान कर दूंगा, पांच
लाख रुपये का महल बेच कर गरीबों में बांट दूंगा।
नाव लग
गई, कोई उसके निर्णय से लग गई हो ऐसा नहीं
क्योंकि भगवान को पांच लाख का कोई बहुत मूल्य हो ऐसा नहीं। संयोग था नाव बच गई
होगी। वह आदमी घर गया। अब बड़ा परेशान हुआ। जैसे ही नाव से उतरा परेशानी शुरू हुई
कि वह मकान का क्या होगा। बच गया तो परेशानी शुरू हुई कि अब क्या होगा? क्या करूं क्या न करूं? दूसरे दिन उसने नीलाम किया मकान का और मकान
बेच दिया और मकान से जो पैसे मिले गरीबों में बांट दिए। लेकिन उसकी पूरी कहानी
समझेंगे तो पता चलेगा उसने होशियारी कर ली, बेईमान
आदमी प्रार्थना भी करेगा तो बेईमानी कर जाएगा। उसने क्या किया?
उसने
मकान में एक बिल्ली बांध दी और सारे गांव के लोगों को इकट्ठा करके कहा कि मुझे
नीलाम करना है--बिल्ली की कीमत पांच लाख, मकान
की कीमत एक रुपया। लोगों ने कहा,
पागल हो गए हो, बिल्ली की कीमत पांच लाख रुपया, मकान की एक रुपया। उसने कहा, हां, बिल्ली
पांच लाख में बेचूंगा, मकान एक रुपये में। दोनों इकट्ठे बेचूंगा, अलग-अलग बेचूंगा नहीं। लोगों ने देखा, दाम तो थे उस मकान के पांच से दस लाख के बीच
में। एक आदमी ने मकान खरीद लिया एक रुपये में, बिल्ली
पांच लाख रुपये में। पांच लाख उसने तिजोरी में रखे एक रुपया गरीबों को बांट दिया।
यह
आदमी बेईमान है वह ईमानदारी लाएगा कहां से? चोर
आदमी अचोरी लाएगा कहां से?
झूठ बोलने वाला सत्य को लाएगा
कहां से? उसके झूठ बोलने वाले के सत्य में भी
बुनियादी झूठ होगा। हिंसक आदमी अहिंसा लाएगा कहां से? उसकी अहिंसा में भी बुनियाद में हिंसा होगी।
धोखा दे सकता है लेकिन खुद के भीतर परिवर्तन नहीं हो सकता है, यह सवाल ही नहीं है। क्रोधी आदमी कहे कि मैं
धीरे-धीरे क्षमा साध लूंगा। पागल हो गया है, क्रोधी
आदमी क्षमा साधेगा कैसे?
कोई क्रोधी कभी क्षमावान नहीं
बनता, कोई हिंसक अहिंसक नहीं बनता, कोई लोभी दानी नहीं बनता। रोशनी नहीं होती
तो लोभ होता है, क्रोध होता है, हिंसा होती है। रोशनी जलती है, लोभ नदारद हो जाता है, क्रोध नदारद हो जाता है, असत्य नदारद हो जाता है।
एक
आदमी क्रोधी था। इतना क्रोधी कि उसने अपनी औरत को कुएं में धक्का देकर गिरा दिया, मार डाला। अपने बच्चे की टांग तोड़ दी। ऐसे
तो अक्सर बाप कहते हैं बेटों से कि टांग तोड़ देंगे। लेकिन उसने तोड़ ही दी। मन तो
सभी बाप का होता है। लेकिन कुछ लोग सिद्धांत को आचरण में ले आते हैं कुछ लोग नहीं
ला पाते। वह आचरण में ले आया सिद्धांत को, उसने
टांग तोड़ दी। पत्नियों को कुएं में ढकेलने की इच्छा तो हर पति की होती है, लेकिन इसको सपने में ढकेलते हैं ऐसा रोज-रोज
सामने नहीं ढकेलते। नींद खुलते से तो कहते हैं कि तेरे बिना मैं जी नहीं सकता, नींद में कुएं में ढकेलते हैं। लेकिन उसने
ढकेल दी। वह बड़ा आचरणवादी रहा होगा,
जो मानता था वैसा करता था।
इस तरह
के लोगों को लोग महापुरुष कहते हैं। लोग कहते हैं, महापुरुष
की यह परिभाषा कि वह जो मानता है वैसा ही करता है। वह महापुरुष रहा होगा। जैसा
मानता है वैसा ही करता है। लेकिन फिर बहुत पीड़ित हो गया, क्योंकि क्रोध तो पीड़ा लाएगा, दुख लाएगा। वह एक साधु के पास गया और उसने
कहा कि मैं क्या करूं? साधु ने कहा, तू
क्षमा साध, क्योंकि क्रोध को मिटाने की तरकीब है क्षमा।
यह कितना गणित जैसा साफ दिखाई पड़ता है। कितना साफ दिखाई पड़ता है कि क्रोध को
मिटाना है क्षमा को साधो,
बिलकुल फेलेसियस लाजिक है, बिलकुल झूठा तर्क है, कोई सच्चाई नहीं इसमें, कोई गणित नहीं, कोई विज्ञान नहीं। क्योंकि क्रोधी क्षमा साध
सकता है यही असंभावना है। अगर क्रोधी क्षमा साध सकता है वह क्रोधी ही नहीं।
उसने
कहा कि ठीक है, कैसे क्षमा साधूं? तू लोगों की सेवा कर। मरुस्थल था उसका गांव, गांव के बाहर रास्ता गुजरता था, राहगीर गुजरते थे प्यासे धूप में। उसके गुरु
ने कहा कि तू जा पश्चात्ताप कर। गांव के बाहर जो सूखा दरख्त है उसके पास पानी लेकर
बैठा रह और राहगीरों को पानी पिला। उनकी सेवा कर, उनके
पैर दाब, उनको पानी पिला, थकों की सेवा कर, बीमारों का इलाज कर, प्रेम प्रकट कर, तो फिर तेरा क्रोध विलीन हो जाएगा। उसने कहा, जैसी आज्ञा! वह उसी वक्त गया। जाकर वह अपने
झाड़ के पास पानी का इंतजाम कर लिया,
सेवा का इंतजाम कर लिया। झाड़
की छाया में दो-चार बिस्तर लगा रखे,
जो भी राहगीर आता उनके पैर
दबाता, पानी पिलाता, उसकी
ख्याति फैलने लगी, दूर-दूर तक उसकी खबर पहुंच गई।
एक दिन
एक आदमी भागा हुआ चला जा रहा है,
उसने अपनी सुराही उठाई पानी
की, कहा कि राहगीर पानी पीओ! लेकिन उस आदमी ने
उसकी तरफ देखा भी नहीं, वह शायद जल्दी में है, शायद उसे प्यास नहीं, उसका तो क्रोध भारी हो गया। वह आदमी चला गया, वह सुराही लिए खड़ा है उसने चिल्ला कर कहा कि
सुनते नहीं हो, पानी पीओ! लेकिन उस आदमी को जल्दी थी, उसने फिर भी नहीं सुना। उसने बंदूक उठा ली
और उसने कहा, सुनता है कि नहीं रे आदमी के बच्चे! मैं
सेवा करने को यहां खड़ा हूं,
सुन ही नहीं रहा है सीधा चला
जा रहा है।
उसके
गुरु को खबर लगी, उसके गुरु ने कहा कि अरे, वह तीन वर्ष से सेवा कर रहा था और बंदूक उठा
ली। ये जितने सेवक हैं दुनिया में,
अगर इनकी आप सेवा स्वीकार न
करें ये भी बंदूक उठा लेंगे। ये कहते हैं हम सेवा करेंगे, अगर आप सेवा न मानो तो झंझट शुरू हो जाएगी।
ये कोई जीवन को बदलने के मार्ग नहीं हैं। और इन गलत मार्गों की प्रतिष्ठा रही है
इसलिए जीवन नहीं बदल सका है। और अगर जीवन बदलना है तो नये रास्ते खोज लेना जरूरी
है। आचरण का रास्ता गलत है। आत्मा का रास्ता सही है। उसकी मैं बात कर रहा हूं
इसलिए मुझसे मत पूछें कि आचरण क्या करें? व्यवहार
क्या करें? काफी कर चुके आचरण और व्यवहार अब कृपा करें।
अब आचरण और व्यवहार न करें। अब आत्मा के दीये को जलाने के लिए कोई उपाय करें। अगर
मेरी यह बात खयाल में आए तो एक बुनियादी अंतर दिखाई पड़ सकता है।
सुबह
की चर्चा पूरी हुई।
मेरी बातों को इतने शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं।
और सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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