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मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

माटी कहे कुम्‍हार सूं-(ध्‍यान-साधना)-प्रवचन--06

छठवां प्रवचन

माटी कहै कुम्हार सूं
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक सुबह, अभी सूरज निकला ही था; एक बड़ी राजधानी में उस देश के सम्राट का, नगर के बाहर से आगमन हो रहा था। वह अपने घोड़े पर सवार था। रास्ते में उसने देखा--एक गरीब बूढ़ा मजदूर पत्थर की एक बड़ी चट्टान अपने कंधे पर उठाए हुए जा रहा है। सुबह की ठंडी हवाओं में भी उसके माथे से पसीने की बूंदें टपक रही हैं। वह इतना बूढ़ा और कमजोर है कि उसके हाथ कंप रहे हैं, उसके पैर कंप रहे हैं। पत्थर बहुत वजनी है। उस सम्राट ने चिल्ला कर कहा, मजदूर, पत्थर को नीचे गिरा दो! वह पत्थर नीचे गिरा दिया गया।

उस सम्राट का नाम महमूद था और वह राजधानी गजनी थी। फिर सम्राट अपने महल में चला गया। वह पत्थर वहीं पड़ा रहा, रास्ते पर चलने वालों को बहुत कठिनाई हो गई। वाहन निकलने मुश्किल हो गए। वह बीच रास्ते पर बड़ा पत्थर पड़ा रहा।
एक दिन, दो दिन, माह बीता, वर्ष बीता, बहुत लोगों ने पूछा कि यह पत्थर यहां से हटाया क्यों नहीं जा रहा है? लेकिन कहा गया कि सम्राट ने जिसे रखवाया है, उसे हम हटाने के हकदार नहीं हैं। दस वर्ष बीत गए वह पत्थर वहीं था। उस पत्थर को आदर भी मिलने लगा, क्योंकि सम्राट ने जिसे रखवाया हो उसके पीछे जरूर कोई बड़ा प्रयोजन होना चाहिए।
फिर महमूद मर गया। महमूद के बाद जो लोग उसके उत्तराधिकारी हुए, उन्होंने भी महमूद की इज्जत के लिए उस पत्थर को राजधानी के राजमार्ग से हटाना ठीक न समझा। वह पत्थर फिर भी वहीं रखा रहा। महमूद के उत्तराधिकारी भी मर गए। फिर भी वह पत्थर वहीं रखा रहा। और पता नहीं, हो सकता है गजनी आप जाएं तो वह पत्थर आज भी आपको वहीं रखा हुए मिले।
फिर उस पत्थर को आदर देने की परंपरा हो गई। फिर वह पत्थर सम्राट की आज्ञा से रखा गया, तो उसे हटाना असंभव हो गया। रास्ते पर चलने वालों को कितनी तकलीफ हो, इससे कोई संबंध न रहा। पत्थर ने एक आदृत स्थान पा लिया। वह एक परंपरा, एक प्रचलित धारणा, एक अतीत के गौरव की बात हो गई। वह पत्थर अब भी वहां है। वह अकेला पत्थर होता तो कोई बात न थी; दुनिया के, जीवन के हर रास्ते पर ऐसे बहुत से पत्थर हैं, जो अतीत ने रख दिए हैं और जो परंपराएं बन गए हैं। उन पत्थरों के कारण जीवन के रास्ते पर चलना भी कठिन हो गया है। लेकिन हममें से कोई भी उन पत्थरों को हटाने का सामर्थ्य नहीं जुटा पाता है। और जब भी किसी पत्थर को हटाने की कोई बात कही जाए, तो वह बात विद्रोह समझी जाती है, वह बात क्रांति समझी जाती है।
मनुष्य के जीवन में अतीत की ओर उन्मुख होने की जो धारणा रही है, उसने ही मनुष्य के जीवन की राह पर सब भांति के पत्थर रख दिए हैं और चलना कठिन हो गया है। और जब कोई नहीं चल पाता है, तो आश्चर्यों का आश्चर्य तो यह है कि हम उसे यह समझाते हैं--वह इसलिए नहीं चल पा रहा है, क्योंकि वह रास्तों पर रखे हुए पत्थरों का ठीक से सम्मान नहीं कर रहा है। हम कहते हैं, अगर ठीक से जीना है तो इन पत्थरों का और सम्मान करो और आदर करो। और सच्चाई यह है कि उन पत्थरों के कारण ही हम नहीं चल पाते।
मनुष्य के पैर तो भविष्य की ओर चलते हैं और मनुष्य का मन अतीत की ओर अटका रह जाता है। मनुष्य की आंखें तो आगे की ओर देखती हैं, लेकिन मनुष्य ने जिस तरह की जीवन धारणाएं बनाई हैं, जो जीवन के दर्शन बनाए हैं, जो फिलासफीज ऑफ लाइफ हैं, वे सब पीछे की तरफ देखने वाली हैं। रोज आदमी गङ्ढों में गिरता है, रोज उसके पैर भटक जाते हैं, रोज जहां पहुंचना चाहता है वहां नहीं पहुंच पाता, कहीं और पहुंच जाता है। लेकिन एक बात, पिछले पांच हजार वर्षों से बदलने की हमने जरूरत नहीं समझी कि हम पीछे की जगह देखने की बजाय आगे की तरफ देखना शुरू कर दें और अतीत ने जो पत्थर छोड़ दिए हैं उन्हें रास्तों से हटा दें।
मनुष्य का जीवन एक कुंठा बन गया है इसीलिए। अतीत का अति मोह मनुष्य को जीवन के संपर्क में ही नहीं आने देता। न जीवन के आनंद के संपर्क में, न सौंदर्य के, न सत्य के, न प्रेम के।
इसलिए आज की इस भूमिका की चर्चा में कुछ उन बातों के संबंध में मैं कहना चाहूंगा, जो यदि हम हटा दें, तो उन्हें हटाने से हम कुछ भी नहीं खो देंगे। लेकिन उन्हें हटाते ही जीवन की धारा गतिमान हो उठेगी और जीवन भविष्य की ओर बहने लगेगा। उन हटाए जाने वाले पत्थरों में पहली बात है, परंपरा का अति मोह, पीछे की तरफ देखने की हमारी पागल आदत। यह वैसे ही है जैसे हम एक कार बनाएं, इंजन तो आगे की तरफ चलता हो और हेडलाइट पीछे की तरफ लगे हों। कार का प्रकाश पीछे की तरफ पड़ता हो और कार आगे की तरफ चलती हो। क्या होगा भाग्य उस गाड़ी का? वही भाग्य पूरी मनुष्य-जाति का हो गया है।
हमारी आंखें पीछे की तरफ लगी हैं और जीवन कभी पीछे की तरफ नहीं जाता है। जीवन निरंतर आगे की ओर उन्मुख है। जीवन रोज आगे की तरफ जाता है। जीवन का रास्ता रोज नया है और हमारी आंखें हमेशा पुरानी हैं और पीछे की तरफ देखने वाली हैं।
आंखें भी आगे की ओर देखने वाली चाहिए। और ये आंखें तभी हो सकती हैं आगे की ओर देखने वाली, भविष्य की ओर देखने वाली, जब हम पीछे के पत्थरों का अर्थ समझ लें, उनकी व्यर्थता समझ लें, उन्हें रास्ते से हटाने का साहस जुटा लें।
लेकिन परंपरा मनुष्य को ऐसे जकड़े हुए है--जैसे मृत्यु। परंपरा मनुष्य की गर्दन पर इस भांति हाथ कसे हुए है, उसकी जीवन-चेतना को मुक्त ही नहीं होने देती।
और परंपराएं कैसे खड़ी हो जाती हैं?
एक गांव में दो समानांतर रास्ते थे। उन दोनों रास्तों पर हजारों लोग रहते थे। एक दिन दोपहर को, एक रास्ते से दूसरे रास्ते की तरफ आता हुआ एक सूफी फकीर देखा गया, उसकी आंखों से आंसू झर रहे थे। उस रास्ते से निकलने वाले एक-दो लोगों ने पूछा कि मित्र क्यों रो रहे हो? लेकिन उसकी आंखें इतने आंसुओं से भरी थीं कि वह कुछ भी उत्तर नहीं दे सका, और अपने रास्ते चला गया।
लेकिन थोड़ी देर में उस पूरे रास्ते पर खबर फैल गई कि जरूर दूसरे रास्ते पर कोई दुर्घटना हो गई है। एक सूफी फकीर आंसू भरी हुई आंखों से निकलते हुए देखा गया। सांझ होतेऱ्होते उस रास्ते पर यह खबर फैल गई कि दूसरे रास्ते पर जरूर कोई मर गया है। रात होतेऱ्होते यह खबर फैल गई कि दूसरे रास्ते पर कोई महामारी फैली हुई है, लोग एकदम मर रहे हैं। एक सूफी फकीर रोता हुआ देखा गया। लेकिन किसी ने भी उस रास्ते पर जाकर पूछना उचित नहीं समझा। क्योंकि बीमारी खतरनाक हो सकती थी, उस रास्ते पर जाकर पूछना भयानक था। खुद भी बीमारी में फंसने का डर था।
रात उस मोहल्ले के लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने कहा, सुबह होने के पहले हम गांव छोड़ दें और गांव के बाहर चले जाएं, बीमारी बहुत भयानक मालूम होती है। और जब उन लोगों ने गांव छोड़ने की तैयारी शुरू की और रात ही गांव चुपचाप छोड़ना शुरू कर दिया। तो दूसरे रास्ते पर भी खबरें फैलनी शुरू हो गईं कि कोई महामारी दूसरे रास्ते पर फैली हुई है। उस रास्ते के लोगों ने भी सुबह होने के पहले गांव खाली कर दिया।
फिर थोड़े दूर, नदी के पार, वे दोनों मोहल्लों के लोग बस गए। और मैंने सुना है, अब भी वहां दो गांव बसे हुए हैं छोटे-छोटे और बड़ा गांव उजाड़ पड़ा हुआ है। और उन गांव के लोगों से जब कोई पूछता है कि क्या बात हो गई, यह गांव बर्बाद क्यों हो गया? तो वे कहते हैं, कभी अज्ञात काल में, कोई एक अज्ञात बीमारी फैली थी और उसके कारण उस गांव को छोड़ देना पड़ा था। और कुल सच्चाई इतनी थी कि वह जो फकीर आंखों में आंसू लिए हुए देखा गया था, वह प्याज छीलता रहा था। न कोई बीमारी थी, न कोई मरा था। उसकी आंखों से आंसू प्याज के कारण निकल रहे थे।
यह अगर किसी एक गांव की बात होती तो कोई हर्ज न था। लेकिन पूरी मनुष्य-जाति इसी तरह के न मालूम कितने चक्करों में पड़ गई है। और इन चक्करों को तोड़ने का कोई विराट प्रयोजन, कोई विराट आयोजन, कोई विराट आंदोलन भी मनुष्य के चित्त में नहीं चल रहा है।
पहली बात तो मैं आपसे यह कहना चाहता हूं, कि अगर जीवन के सत्य को देखने के लिए, अगर जीवन के सौंदर्य को अनुभव करने के लिए, और अगर जीवन के प्रेम की धारा को परिपूर्ण रूप से प्रकट करने के लिए, आपके मन में कहीं भी कोई उत्सुकता है, तो स्मरण रखिए, अतीत से मुक्त होना अत्यंत अनिवार्य है। बीते हुए से मुक्त होना अत्यंत अनिवार्य है। जो मृत है और जो समाप्त हो गया, उससे मुक्त होना अनिवार्य है। उससे हम मुक्त नहीं हैं, उससे हम बहुत गहरे बंधे हुए हैं।
और हमने उस सब की ऐसी-ऐसी व्याख्याएं कर रखी हैं--जैसे फकीर के आंसुओं की व्याख्या कर ली। वैसे ही हमने न मालूम क्या-क्या व्याख्याएं कर रखी हैं और उन व्याख्याओं को लेकर हम बैठ गए हैं और रुक गए हैं। उन व्याख्याओं के कारण, परंपराओं के कारण, धारणाओं के कारण, विश्वासों के कारण, हमारा चित्त तो बहुत भर गया है व्यर्थ की चीजों से और उसमें उतनी जगह भी नहीं रह गई, जहां कि सार्थक का आगमन हो तो स्थान रिक्त मिल सके। जहां कि कभी जीवन के द्वार पर परमात्मा खटखटाए, तो हम उसे भीतर बुला सकें और मेहमान बना सकें। भीतर हमारे चित्त के घर में कोई जगह खाली नहीं है।
और हमने जिन चीजों से भर लिया है, वे इस योग्य नहीं हैं कि उनसे कोई अपने मन को बोझिल करे। किन चीजों से हम अपने मन को भरे हुए बैठे हैं? और इस भरे हुए मन से अगर हम सोचते हों कि हम कभी शांति को, आनंद को पा लें। तो यह असंभावना है। शांति और आनंद पाने की जो भूमिका, मन की जो पात्रता, मन की जो रिसेप्टिविटी चाहिए, मन की जो ग्राहकता चाहिए, मन का जो मौन रिक्तता चाहिए वह हमारे पास नहीं है। उस रिक्तता के लिए पहली तो बात यह है, चाहे सम्राटों ने गिराए हों पत्थर, चाहे तीर्थंकरों ने, चाहे अवतारों ने, चाहे ईश्वर पुत्रों ने, जीवन के रास्ते पर किसी भी पत्थर को स्वीकार न करें। तो ही जीवन आगे गतिमान हो सकता है।
क्यों? लेकिन हम स्वीकार किए हुए हैं इन पत्थरों को। आंखें देखती हैं कि पत्थर हैं, पैर रुकते हैं, लेकिन फिर भी हम क्यों स्वीकार किए हुए हैं। अतीत का एक अदभुत विक्षिप्त मोह हमारे मन को पकड़े हुए हैं। क्यों? जो बीत गया है वह ज्ञात मालूम होता है, वह नोन मालूम होता है, जो आने वाला है वह अज्ञात मालूम होता है, वह अननोन मालूम होता है। जो परिचित है उसे हम पकड़े रहना चाहते हैं, क्योंकि अपरिचित से भय लगता है। जो परिचित है, जिसे हम जानते हैं, उसे हम रोके रखना चाहते हैं। क्योंकि पता नहीं उसे छोड़ कर जहां हमें जाना पड़े वह रास्ते अपरिचित हों, अनजाने हों।
अनजान का भय, अपरिचित का भय ही हमें अतीत को पकड़े रखने का कारण है। और जो आदमी अपरिचित से भयभीत है, वह समझ ले कि वह असल में, जीवन से ही भयभीत है। क्योंकि जीवन तो अपरिचित है। सारा जीवन ही अपरिचित है, अजनबी है। जो आदमी अपरिचित से भयभीत है वह आदमी जीने से इनकार कर रहा है। वह आदमी कह रहा है कि मैं जीने से डरता हूं। वह आदमी कह रहा है कि मैं अपने घर में बंद रह जाऊंगा और मैं जीना नहीं चाहता हूं।
गंगा निकलती है गंगोत्री से। अपरिचित से भयभीत नहीं। इसलिए पहाड़ों को पार करती है, मैदानों को पार करती है, दूर अज्ञात सागर की तरफ भागी चली जाती है। अगर परिचित को पकड़ रखना चाहे, तो गंगा कभी सागर तक नहीं पहुंच सकती, गंगोत्री में ही रुक जाएगी। गंगोत्री परिचित है। अगर एक बच्चा परिचित से रुकना चाहे, तो मां के पेट में ही रुक जाएगा; फिर अपरिचित जीवन और जगत में उसका प्रवेश नहीं हो सकता। लेकिन गंगा गंगोत्री छोड़ देती है, बच्चा मां के पेट को छोड़ देता है--अज्ञात, अनजान की खोज में। लेकिन हमारा चित्त अतीत को पकड़े रहता है। अतीत को पकड़ना वैसे ही है--जैसे बच्चा गर्भ को पकड़ ले और वहीं रुक जाए। गर्भ बहुत सुखद है, परिचित है, भलीभांति जाना-माना है।
गर्भ के बाहर निकलना अनजान रास्ते पर जाना है--जिसका कोई पता नहीं, जिससे कोई संबंध नहीं, जिसे कभी जाना नहीं; पता नहीं वह सुखद होगा या दुखद होगा। एक जोखम है। निश्चित ही पूरा जीवन ही एक जोखम है। एक रिस्क है। और जो व्यक्ति जोखम उठाने को तैयार नहीं होता वह आदमी सुसाइडल है, वह आदमी आत्मघाती है। वह असल में, यह कह रहा है कि मैं अभागा हूं कि मुझे जन्म मिला। वह यह कह रहा है कि मैं अभागा हूं कि मुझे जीवन मिला। वह यह कह रहा है कि धन्य हैं वे लोग जो कभी नहीं जनमे, या वे लोग नंबर दो धन्य हैं जो जनमे और मर गए। और नंबर तीन, वे लोग धन्य है जो जनमे और अपने घर के द्वार बंद करके वहीं बैठे रह गए। जो जीवन के इतने बड़े विस्तार में कभी प्रविष्ट नहीं हुए।
जीवन में प्रवेश के लिए तो जोखम उठाने का साहस चाहिए। अतीत को जो पकड़ता है वह साहसी नहीं है। हम देखें बीज फूटता है, अज्ञात की यात्रा को उसका अंकुर उठता है। आकाश से उसका कोई परिचय नहीं, हवाओं से उसका कोई परिचय नहीं, सूरज की रोशनी से उसकी कोई मुलाकात नहीं, न मालूम क्या होगा उसका जीवन, न मालूम कैसा होगा? क्या परिणाम होंगे? क्या भाग्य होगा? क्या नियति होगी? क्या डेस्टिनी होगी? उसे कुछ पता नहीं। लेकिन एक छोटा सा बीज टूटता है और आत्मविश्वास से भरा हुआ जमीन को पार करता है। और खुले आकाश में, इतने बड़े आकाश में इतना छोटा सा अंकुर भी साहस के साथ खड़ा हो जाता है। लेकिन आदमी इतना भी साहस नहीं जुटाता है।
आदमी अपने बीज के भीतर ही बंद रह जाता है। उसका बीज अंकुर ही नहीं बनता। अतीत को पकड़ना बीज की खोल को पकड़ लेना है। अतीत से मुक्त होना चाहिए। ताकि बीज टूट सके और भविष्य की दिशा में प्राणों के अंकुर विकसित हो सकें।
निश्चित ही अनजान है रास्ता। और कोई नहीं कह सकता कि क्या होगी नियति? क्या होगी डेस्टिनी? क्या होगा परिणाम? क्या होगा फल? लेकिन यह सौभाग्य है कि यह नहीं कहा जा सकता कि क्या होगा। अगर यह कहा जा सकता कि क्या होगा, तो आप आदमी नहीं होते एक मशीन होते। मशीन के बाबत सब कुछ कहा जा सकता है।
मशीन के बाबत कहा जा सकता है कि वह कैसे चलेगी, क्या उत्पादन करेगी, क्या परिणाम होगा, कितने दिन चलेगी, कितने दिन जीएगी। मनुष्य के संबंध में कोई भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। चेतना के संबंध में कोई भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। यही चेतना का स्वातंत्र्य है, यही चेतना की स्वतंत्रता है। यही जीवन की गरिमा और गौरव है कि जीवन एक जड़ यंत्र नहीं, एक चैतन्य प्रक्रिया है।
रेल की पटरियों पर दौड़ती हुई रेलगाड़ियां हम देखते हैं, वे पटरियों पर दौड़ती हैं यहां-वहां नहीं उतर जाती हैं। नदियां पटरियों पर नहीं दौड?ती हैं--अज्ञात, अनजान रास्तों की खोज करती हैं। नदियों का एक अपना जीवन है। रेल की गाड़ियों का एक अपना जीवन है। अतीत की पटरियों पर जिसका चित्त निरंतर दौड़ता रहता है वह रेल की एक गाड़ी हो जाता है, बंधी हुई यात्रा लीक पर। अतीत को तोड़ कर जो यात्रा करता है वह एक सरिता बन जाता है। अनजान, अज्ञात, रोज नये का साक्षात।
और स्मरण रहे, प्रभु के साक्षात को केवल वे ही उपलब्ध हो सकते हैं जो रोज नये के साक्षात की तैयारी करते हैं। क्योंकि प्रभु कभी भी पुराना नहीं पड़ता है। परमात्मा कभी भी पुराना नहीं है, वह तो नित नूतन है। इसलिए जो अतीत के पागल मोह में पड़े हैं, प्रभु के मंदिर के द्वार उनके लिए कभी न खुलते हों तो कोई आश्चर्य नहीं है। सौंदर्य रोज नया है, सत्य रोज नया है, जीवन रोज नया है, प्रतिपल नया है सब कुछ, सिर्फ आदमी का मन पुराना पड़ जाता है। और आदमी का यह पुराना मन अतीत को पकड़ने के कारण पुराना पड़ता है। अन्यथा आदमी के मन के भी पुराना होने की कोई जरूरत नहीं। वह भी निरंतर युवा बना रह सकता है। वह भी यंग, वह भी सतत जीवंत और युवा बना रह सकता है। इसलिए पहली बात, अतीत का यह पागल मोह या अतीत के द्वारा गिराए गए पत्थर, हम अपने रास्तों से कब अलग करेंगे?
और अगर आप पूछते हों कि कैसे इन्हें अलग करें। तो आप गलत ही प्रश्न पूछते हैं। क्योंकि अगर आप इन्हें रोके न रखें, तो इनके टिकने की कोई जगह नहीं रह जाएगी। हम इन्हें रोके हुए हैं इसलिए ये टिके हुए हैं। इन्हें अलग करने को केवल इनका मोह छोड़ देना पर्याप्त है, ये गिर जाएंगे। ये हमारे सहारे से खड़े हुए हैं। हम इन्हें सहारा दिए हुए हैं, वही इनका जीवन और बल है। और हम इन्हें सहारा दिए हैं उसके कारण अगर हमें दिखाई पड़ जाएं, अगर हमें दिखाई पड़ जाए कि यह केवल अपरिचित का भय है, स्ट्रेंज का, अनजान का भय है, अजनबी का भय है, जो हमें रोके हुए है पीछे की तरफ, तो कठिनाई नहीं होगी। अनजान को करें प्रेम, अपरिचित को करें प्रेम, जोखिम, खतरा उठाने के लिए साहस जुटाएं, जीवन का अर्थ ही यही है। जीवन का अर्थ ही खतरा उठाना है।
नीत्शे से मरते दिन किसी ने पूछा था कि तुम सारे जीवन को एक सूत्र में रख सकते हो क्या? तो नीत्शे ने कहा, सारे जीवन के अनुभव के बाद मैं एक बात जान पाया हूं, और वह तुमसे कहता हूं, अगर तुम्हें जीवन को जानना है, तो उसने कहा, लिव डेंजरसली, खतरे में जीओ, जोखिम में जीओ? हम सारे लोग तो सुरक्षा में जीते हैं, सिक्योरिटी में। हम तो सब तरह की सुरक्षा कर लेते हैं, फिर जीते हैं। हमारे तो जीवन के सूत्र ही यही हैं कि सब तरह सुरक्षित हो जाओ, फिर जीएंगे। जब सारी सुरक्षा पूरी हो जाएगी तब हम जीएंगे। और हमें पता नहीं, सुरक्षा कभी पूरी नहीं हो पाती, हम पूरे हो जाते हैं।
कोई आदमी कभी पूरी तरह सुरक्षित नहीं हो सकता बिना मरे हुए। सिर्फ मुर्दा सुरक्षित होते हैं। जीवित आदमी को खतरे शेष रहते ही हैं। सबसे बड़ा खतरा तो यह ही शेष रहता है कि जीवित आदमी मर सकता है। मुर्दा मर नहीं सकता, उसके सारे खतरे समाप्त हो गए। जो होना था वह हो चुका, आगे अब कुछ भी नहीं हो सकता। सुरक्षा का मोह है हमारे भीतर, इसलिए हम परंपरा को इतना आदर देते हैं।
यह परंपरा को आदर, कोई बुजुर्गों के लिए दिया गया आदर नहीं है। यह परंपरा को आदर, किन्हीं महापुरुषों के लिए किया गया सम्मान नहीं है। यह परंपरा का आदर हमारी सुरक्षा की ओट, सुरक्षा को छिपाने का ढंग है, सुरक्षित हो जाने की कोशिश है। ज्ञान सुरक्षा देता है और अज्ञान असुरक्षा देता है। अज्ञान बहुत इनसिक्योर है। भविष्य कोई हमें पता नहीं क्या होगा? एक क्षण के बाद का हमें पता नहीं कि क्या होगा? पीछे जो बीत गया, वह हमें पता है, क्या था? कैसा था? हम भलीभांति उससे परिचित हैं। इसलिए हम उसी की तरफ आंखें लगाए रखते हैं। वही छोटा सा कोना बना लेते हैं जीवन का, उसी में जीने की कोशिश करते हैं। वह परिचित है, वह ज्ञात है।
सुरक्षा का मोह हमारी परंपरा का बल है। परंपरा के पत्थर हमारे सुरक्षा के मोह पर टिके हुए हैं। और हम यह देख भी नहीं पाते कि जो कौम जितनी सुरक्षा के लिए आतुर हो जाती है उतनी ही मृत हो जाती है। उसमें जीवन का सारा उल्लास समाप्त हो जाता है। जीवन का रस समाप्त हो जाता है। नये रास्तों पर अंधेरे में जाने की हिम्मत समाप्त हो जाती है। बंधी हुई लीक, परिचित लीक पर ही उसका चित्त घूमने लगता है--जैसे कोल्हू का बैल चलता हो; ऐसा ही फिर वह जाति चलने लगती है। हमारी जाति के दुर्भाग्य से हम सैकड़ों वर्षों से इसी भांति चल रहे हैं, लेकिन इस चलने से हमारा मन शायद अभी भी ऊबा नहीं। जब भी जीवन में हमारे कोई समस्या खड़ी होती है, और रोज समस्या खड़ी होती है--तब हम फिर पीछे लौट कर व्याख्या करने लगते हैं। हम फिर पीछे पूछने लगते हैं, कृष्ण क्या कहते हैं? राम क्या कहते हैं? महावीर क्या कहते हैं? यह क्यों दोष महावीर और कृष्ण पर आप थोपना चाहते हैं?
कोई दुनिया में सारे उत्तर नहीं दे गया है। कोई सारे उत्तर दे भी नहीं जा सकता है। कोई इतना कठोर नहीं हो सकता कि आपके लिए सारे उत्तर दे जाए, और आपके लिए कोई प्रश्न, और कोई खोज, और कोई समस्या न रह जाए। क्योंकि जिस दिन सारे उत्तर दे दिए जाएंगे, उस दिन आदमी के लिए जीने का फिर कोई कारण नहीं रह जाता, कोई चैलेंज, कोई चुनौती नहीं रह जाती।
महावीर ने उत्तर दिए हैं, बुद्ध ने भी, कृष्ण ने भी, क्राइस्ट ने भी। लेकिन वे कोई उत्तर आपके लिए उत्तर नहीं हैं। वे कोई भी उत्तर आपके अनुगमन करने के लिए नहीं हैं। महावीर जीवन का साक्षात कर रहे हैं और जो उत्तर उन्हें दिखाई पड़ रहा है वह दे रहे हैं। वह महावीर का अपने जीवन साक्षात से दिया गया उत्तर है। महावीर किसी का उत्तर नहीं दोहरा रहे हैं। न बुद्ध किसी का उत्तर दोहरा रह हैं। न कृष्ण किसी का उत्तर दोहरा रहे हैं। जीवन के साक्षात से जो उन्हें दिखाई पड़ रहा है वह कह रहे हैं। और अगर उनके प्रति सम्मान दिखाना है तो उनके उत्तर को मत ढोते फिरना, उनके प्रति एक ही सम्मान हो सकता है कि जिस भांति उन्होंने जीवन का साक्षात किया और अपना उत्तर खोजा, उसी भांति आप भी साक्षात करना और अपना उत्तर खोजना।
लेकिन नहीं, हमारी हालत बड़ी अजीब है। एक छोटा सा तालाब था। उस तालाब में तीन मछलियां थीं। एक मछली का नाम बुद्धि था। दूसरी मछली का नाम अर्द्धबुद्धि था। तीसरी मछली का नाम अबुद्धि था। तीन ही मछलियां थीं उस छोटे से तालाब में। बड़ी शांति का उनका जीवन था। लेकिन एक दिन एक मछुआ, मछली पकड़ने वाला आदमी उस तालाब के पास पहुंच गया। उस तालाब में बड़ी चिंता छा गई, उदासी छा गई। मनुष्य जहां भी पहुंच जाता है वहां उदासी और चिंता छा जाती है। प्रकृति बड़ी शांत थी, जब तक आदमी नहीं रहा होगा। और प्रकृति शायद फिर शांत हो जाएगी जिस दिन आदमी नहीं रह जाएगा। और आदमी पूरे उपाय कर रहा है कि जल्दी ही वह शांति का दिन आ जाए। उस तालाब में भी वैसी अशांति छा गई उस मछुए को आया हुआ देख कर।
बुद्धि नाम की मछली ने सोचा कि क्या करना चाहिए? छोटा सा तालाब था, मछुए के पास जाल बड़ा था। बचना बहुत कठिन था। उस मछली ने एक उपाय किया। वह बुद्धि नाम की मछली छलांग लगा कर मछुए के पैरों के पास जा गिरी। मछुआ बहुत हैरान हुआ कि मछली और खुद अपने आप मछुए के पास आ गई। उसने मछली को उठा कर देखा। लेकिन वह मछली श्वास बंद किए हुए थी। मछुए ने समझा कि वह मरी हुई है। उसने वापस उसे तालाब में फेंक दिया। वह मछली मुर्दे की भांति डूब गई और नीचे तलहटी में बैठ गई।
अर्द्धबुद्धि नाम की जो मछली थी, वह हमेशा इस बुद्धि नाम की मछली का अनुकरण करती थी। वह उसकी फालोअर थी, वह उसकी अनुयायी थी। उसने सोचा कि यह तो बड़ी अच्छी तरकीब है। आदमी को भी धोखा दिया जा चुका। उसने भी छलांग लगाई, और वह भी जाकर मछुए के पैर के पास गिर पड़ी। मछुआ तो चकित रह गया कि आज क्या हो गया है मछलियों को? खुद छलांग लगा कर मछुए के पास आ रही हैं। उसने इस मछली को उठाया, लेकिन उसकी श्वास चल रही थी। उसे पता भी नहीं था कि पहली मछली ने श्वास नहीं ली थी।
अनुयायियों को कभी पता नहीं रहता कि महावीर ने क्या किया। बुद्ध ने क्या किया। क्राइस्ट ने क्या किया। उनके भीतर क्या हुआ इसका किसी को कोई पता नहीं है। यह हो भी नहीं सकता। मछली ने छलांग लगाई यह तो दिखाई पड़ गया, लेकिन मछली ने भीतर क्या किया? जीवन के साथ क्या किया? मछुए ने कहा, अरे यह तो जिंदा है। उसने उसे अपने झोले में डाल लिया। लेकिन वह मछुआ इतना हैरान हो गया था मछलियों को उछलते देख कर कि झोले का मुंह बंद करना भूल गया। मछली तो बहुत घबड़ाई कि यह तो बड़ा धोखा हो गया। लेकिन झोले का मुंह खुला था, उसने छलांग लगाई, वह पानी में वापस जा गिरी। वह भी जाकर नीचे बैठ गई। बुद्धि नाम की मछली से उसने जाकर पूछा कि मैं तो फंस गई थी। उस बुद्धि नाम की मछली ने कहा, अनुयायी हमेशा फंस जाते हैं।
तीसरी मछली थी अबुद्धि। वह अनुयायी की भी अनुयायी थी। फालोअर की भी फालोअर थी। उसने अर्द्धबुद्धि को उचकते देखा था, उसने भी छलांग लगाई और मछुए के पैर में जा गिरी। मछुआ तो हैरान ही हो गया! ऐसा तो कभी सुना भी नहीं था। उसने मछली अब देखी भी नहीं उठा कर कि उसकी श्वास भी चल रही है कि नहीं। झोले के अंदर डाली और झोले का मुंह बंद कर लिया। तो वह तीसरी मछली वापस नहीं लौट सकी।
आदमी के साथ भी करीब-करीब ऐसा हुआ है। कुछ लोग तो वे लोग हैं, जो अपनी प्रतिभा अपनी बुद्धि से जीते हैं और जीवन का साक्षात करते हैं। कुछ लोग वे हैं जो उनका अनुगमन करते हैं। कुछ लोग और हैं जो अनुयायियों का भी अनुगमन करते हैं। इन तीसरे लोगों का तो कोई भी भविष्य नहीं है। दूसरे लोगों का भी जीवन बड़ी कठिनाइयों में, व्यर्थ की कठिनाइयों में पड़ जाता है।
केवल पहले तरह के लोग ठीक से जी पाते हैं और जीवन को अनुभव कर पाते हैं। और उस मछली का नाम था अबुद्धि। गुरु उसका अनुयायी और उसका अनुयायी--उसका नाम था अबुद्धि। हमारा नाम क्या होगा? हमारे गुरुओं को हुए हजारों साल हो चुके। उनके अनुयायी, उनके अनुयायी, उनके अनुयायी, उनके अनुयायी। ऐसा हजारों पीढ़ियां हो गई अनुयायियों की। हम उन अनुयायियों के अनुयायी हैं।
हमें तो अबुद्धि भी नहीं कहा जा सकता। हम तो वह सीमा भी बहुत पहले पार कर चुके हैं। और अगर इतनी जड़ता दुनिया में पैदा हुई है, तो इसका और कोई कारण नहीं है: जड़ता पैदा होगी; अनुगमन जड़ता लाता है। फालोइंग किसी के पीछे जाना अपने जीवन को खोना है। अपने जीवन का साक्षात किसी के पीछे जाने से कभी भी नहीं होता। अपने जीवन का साक्षात तो स्वयं की सारी प्रतिभा, स्वयं की सारी शक्ति, स्वयं की सारी क्षमता और पात्रता को विकसित करने से होता है।
किसी के पीछे जो जाता है, पहली बात, उसने आत्मविश्वास खो दिया। दूसरे का विश्वास केवल वही करता है, जिसे स्वयं पर विश्वास नहीं होता। मैं निरंतर कहता हूं कि किसी पर विश्वास मत करो। तो लोग समझते हैं कि शायद मैं विश्वास का विरोधी हूं। जब मैं कहता हूं कि किसी पर विश्वास मत करो, तो मेरा सीधा मतलब है अपने पर विश्वास करो। जो आदमी दूसरे पर विश्वास करता है, वह आत्म अविश्वासी है। वह खुद पर विश्वास नहीं करता है।
जो आदमी स्वयं पर विश्वास करता है, वह स्वयं की शक्तियों को जरूर विकसित कर लेता है। लेकिन हम सैकड़ों वर्षों से एक आदत में ग्रस्त हो गए हैं, अनुगमन करने की आदत में। यह अनुगमन करने की आदत हमें किसी के पीछे लगा देती है, फिर हम चलते चले जाते हैं। हम सुरक्षित होते हैं, क्योंकि हमारा आगे वाला ठीक है। आगे वाला सुरक्षित होता है, क्योंकि उसका आगे वाला ठीक है। और आगे वाला सुरक्षित होता है, क्योंकि उसका आगे वाला ठीक है। और किसी को भी पता नहीं कि कोई भी ठीक है, या नहीं।
हम अपने हाथ में नहीं लेते। हम जिंदगी को सौंपते हैं किसी और को कि तुम जीओ हमारे लिए हम तुम्हारे पीछे चलेंगे। वह आदमी भी जिंदगी किसी और को सौंपे हुए है, वह आदमी भी किसी और को सौंपे हुए है। सारे लोगों की जिंदगी उधार हो गई है।
एक बार बुद्ध एक वृक्ष के नीचे ध्यान कर रहे थे। उन्होंने देखा सारे जंगल के जानवर भागे जा रहे हैं, क्या हो गया है? भूकंप आ गया है। कोई अराजकता फैल गई है। उन्होंने सिंह को पकड़ा और पूछा कि, तू कहां भागा जा रहा है? उसने कहा, छोड़िए, मुझे मत रोकिए, दुनिया का अंत आ गया है! बुद्ध ने हाथियों को पूछा कि कहां भागे जा रहे हो? उन्होंने कहा, रोकिए मत हमें, आप भी भागिए दुनिया का अंत आ गया है! बुद्ध ने कहा, यह क्या मामला है, किसने कहा दुनिया का अंत आ गया है? जिससे भी पूछा उसने कहा, आगे वालों ने हमें कहा है। बुद्ध भागे आगे पहुंचे, आगे वालों ने कहा, और आगे वालों ने कहा।
सुबह से खोजते-खोजते सांझ हो गई। तब कहीं जाकर खरगोशों की एक भीड़ मिली। और उन्होंने पूछा कि वह जो आगे खरगोश जा रहा है उसने कहा है। उस खरगोश से पूछा, उसने कहा, हां, मैंने ही कहा है। मैं एक आम के वृक्ष के नीचे सोया हुआ था। और तभी जोर का धड़ाका हुआ, आवाज हुई और मैंने सुन रखा है पुरखों से कि जब दुनिया का अंत करीब आता है तो जोर की आवाज होती है। तो मैंने खरगोशों को कह दिया कि दुनिया का अंत आ रहा है। हम भागे, दूसरे लोग भागे, तीसरे लोग भागे, सारा जंगल भाग रहा है आप भी भागिए।
बुद्ध ने कहा, तू आम के वृक्ष के नीचे सोता था। उसने कहा, मैं आम के वृक्ष के नीचे सोता हूं। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि आम नीचे गिरा हो। उस खरगोश ने कहा, हो भी सकता है।
हम खरगोश ही ठहरे, आम भी गिर जाए तो हमारे प्राण कंप जाते हैं। बुद्ध उसको उस आम के नीचे ले गए। वहां कई आम गिरे थे। उस खरगोश ने कहा, मैं यहीं बैठा हुआ था। हवा चली थी और आम गिरे थे। और खरगोश ने समझा कि दुनिया का अंत करीब आ गया है। क्योंकि उसने बुजुर्गों से सुना था, जब दुनिया का अंत आता है तो बड़ी आवाजें होती हैं। और खरगोश के पीछे शेर भी भाग रहा था और हाथी भी भाग रहे थे।
जब खबर मिली, तो जानते हैं उस रात जंगल में कैसी हंसी छूटी--हाथी हंस रहे थे, शेर हंस रहे थे, हिरन हंस रहे थे, भैंसे हंस रहे थे, सब हंस रहे थे कि हम कैसे पागल थे?
जिस दिन मनुष्य-जाति को इस बात का पता चलेगा कि हम अनुगमन करके क्या कर रहे हैं, उस दिन सारी दुनिया हंसेगी कि हम क्या कर रहे थे। लेकिन अभी तो इस बात को सुनते ही मन उदास हो जाता है कि हम अनुकरण न करें। क्योंकि तब हमारे सामने सवाल होता है, फिर हम क्या करें? हमारा सारा जीवन उधार है। हमने तो कुछ किया नहीं, कोई कुछ करता है हम उसके पीछे चलते हैं। इसलिए जैसे ही कहा जाता है अनुकरण मत करें, तब सवाल उठता है कि हम क्या करें फिर?
जरूर बहुत कुछ किया जा सकता है। और केवल वही आदमी कुछ कर सकता है जो अनुकरण नहीं करता है। क्योंकि जो अनुकरण करता है उसने तो करने का सवाल ही समाप्त कर दिया। उसने तो करने की समस्या ही तोड़ दी। उसने तो करने का जो चुनौती थी उससे इनकार कर दिया। वह तो एस्केप कर गया। वह तो भाग गया जीवन से। उसने कहा, मैं नहीं करूंगा, करने वाले कर चुके हैं, मैं तो उनके पीछे चलूंगा। उसने जीवन से बचने का उपाय खोज लिया। वह जीवन की परीक्षा में असफल हो गया।
अनुयायी जीवन की परीक्षा में असफल हुआ आदमी है। और दुनिया के सारे लोग अनुयायी हैं। इसलिए दुनिया रोज बर्बाद, रोज पतित होती चली गई है। दुनिया में ऐसा धर्म चाहिए, जो अनुयायियों का धर्म न हो, दुनिया में ऐसा धर्म चाहिए जो प्रत्येक व्यक्ति के अपने साक्षात, अपनी अनुभूति की बात हो। दुनिया में ऐसा धर्म चाहिए जो प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं होने की क्षमता और साहस, पात्रता और ग्राहकता प्रदान करे। जो प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निजता में प्रसन्न होने की क्षमता दे।
जो आदमी किसी का अनुगमन कर रहा है किसी परंपरा का, किसी व्यक्ति का, किसी संप्रदाय का, वह स्वयं की निजता की निंदा कर रहा है। वह अपनी निंदा कर रहा है। वह यह कह रहा है मैं तो व्यर्थ हूं। मेरे जीवन का कोई मूल्य नहीं, मेरी कोई सार्थकता नहीं, मेरा कोई अर्थ नहीं, मेरा कोई मीनिंग नहीं, मैं तो हूं व्यर्थ। मैं किसी के पीछे चलता हूं, वही मेरी सार्थकता है।
वह अपनी निजता को वह अपनी इंडिविजुअलिटी को इनकार कर रहा है। और दुनिया में जितने व्यक्तित्व की कमी होगी दुनिया उतनी दीनऱ्हीन, उतनी अशक्त, उतनी कमजोर, उतनी निस्तेज, उतनी ओज से रिक्त होती चली जाए तो कोई आश्चर्य नहीं है। जीवन का सारा ओज, जीवन की सारी खुशी, जीवन की सारी सुगंध, जीवन का सारा संगीत, प्रत्येक व्यक्ति के आत्म-स्वीकार से पैदा होता है। स्वयं की स्वीकृति से और इस बात के अनुभव से कि मैं हूं, और मैं कुछ हो सकता हूं। मेरे भीतर कुछ छिपा है और वह प्रकट हो सकता है। मैं भी कोई धन्यता अनुभव कर सकता हूं। मेरे भीतर भी कोई संपदा है जो प्रकट हो सकती है। लेकिन नहीं यह संपदा प्रकट नहीं होगी। क्यों नहीं होगी?
एक जमाना था कि सिर्फ चीन के एक छोटे से गांव को छोड़ कर सारी दुनिया में कहीं भी चाय उपलब्ध नहीं होती थी। लेकिन उस गांव के चाय पीने वालों की खबरें जरूर सारी दुनिया में धीरे-धीरे पहुंच गईं। एक देश में खबर पहुंची, उस देश का नाम था कंट्री ऑफ दि बिलीवर्स। वह था विश्वासियों का देश। उन्होंने विश्वास कर लिया कि जरूर कहीं कोई चाय होगी। और उन्होंने आदमी भेजे उसकी खोज में, उनके पुरोहित गए और बड़ी लंबी यात्रा के बाद वह चीन के सम्राट के पास पहुंचे और उन्होंने अपना निवेदन किया। सम्राट ने उन्हें काफी चाय भेंट की। वे बैलगाड़ियों में भर कर चाय को लेकर अपने देश आए।
उन्होंने एक बड़ा मंदिर बनाया और उस मंदिर में चाय को रख कर उसकी पूजा शुरू कर दी। वह पूरा मुल्क चाय की पूजा करने लगा। लेकिन उनमें से किसी ने भी चाय पीकर नहीं देखी। असल में, जिसकी हम पूजा करते हैं, उसे हम कभी पीते ही नहीं। पूजा उसकी ही करते हैं जिसे हम पीने से बचना चाहते हैं। पूजा हम उसकी ही करते हैं जिसे हम नहीं जीना चाहते। उसे हम मंदिर में बंद कर देते हैं।
एक बुद्धिमान आदमी ने यह कहा भी कि पागलो, यह क्या कर रहे हो? इस चाय को उबलते हुए पानी में डालो। तो उन सबने उस बूढ़े आदमी को पकड़ कर अपने देश के बाहर निकाल दिया। उन्होंने कहा, यह हमारे धर्म का शत्रु है। यह चाय को गर्म पानी में डलवा कर नष्ट करवा देगा और हमारा धर्म भी नष्ट हो जाएगा इसी के साथ। क्योंकि फिर हम पूजा किसकी करेंगे? और जब पूजा नहीं होगी, तो धर्म कैसे होगा? और जब धर्म नहीं होगा तो सारा जीवन अनैतिक हो जाएगा, पतित हो जाएगा। उन्होंने उस बूढ़े आदमी को कहा, बस्ती छोड़ दो, हम अधार्मिक लोगों को अपने बीच नहीं रखना चाहते।
दूसरा देश था, वह कंट्री ऑफ दि लाजिसियंश था। वह तर्कशास्त्रियों का देश था। उनको भी खबर मिली कि कहीं चाय जैसी अदभुत चीज होती है, जो पीने में बड़ा आनंद देती है। तो उन्होंने सारे दूर-दूर से शास्त्र बुलवाए और कहा कि पहले हम निर्णय तो कर लें कि चाय हो सकती है या नहीं हो सकती। तो चाय के क्या-क्या गुण हैं। उन्होंने किताबें बुलवाईं, खबरें बुलवाईं, जमाने भर से संदेश बुलवाए, अनेक खबरें आईं, वे खबरें बड़ी कंट्राडिक्ट्री थीं। वे बड़ी विरोधी थीं। किसी ने खबर की कि चाय की पत्ती हरी होती है। चाय की पत्ती हरी होती है, जब वह जवान होती है, वह वृक्ष पर होती। किसी ने खबर की कि चाय की पत्ती बिलकुल काली होती है। चाय की पत्ती जरूर काली होती है जब वह सूख जाती है और तोड़ ली जाती है। उन तर्कशास्त्रियों ने कहा, यह कैसे हो सकता है? कोई चीज या तो हरी हो सकती है या काली हो सकती है। यह असंभव कि कोई चीज दोनों हों, काली भी हो और हरी भी हो।
किसी ने कहा कि चाय का रंग पीला होता है। किसी ने कहा, मटमैला होता है। किसी ने कहा, चाय का रंग सोने जैसा होता है। उन्होंने कहा, यह कैसे हो सकता है? एक ही साथ इतने रंग कैसे हो सकते हैं? किसी ने कहा, चाय पत्तियां होती हैं। किसी ने कहा, चाय तरल पदार्थ होती है। उन्होंने कहा, यह बात कैसे हो सकती है? पत्तियां और तरल पदार्थ एक साथ कोई चीज कैसे हो सकती है?
उन तर्कशास्त्रियों ने सैकड़ों वर्ष तक विवाद किया, और अंत में वे इस नतीजे पर पहुंचे कि अगर ऐसी कोई चीज होती भी होगी तो स्वर्ग में होती होगी; जहां सब असंभव बातें हो सकती हैं। जमीन पर नहीं हो सकती ऐसी कोई चीज। उन्होंने खोज बंद कर दी। क्योंकि जो तर्क से सही नहीं था, उसकी खोज करना उचित न थी।
एक तीसरा देश था, वह कंट्री ऑफ साइंटिस्ट कहलाता था। वह वैज्ञानिकों का देश था। उन्होंने अपने देश की सब जड़ी-बूटियां उखाड़ डालीं और उनको घोल-घोल कर पी गए, अनेक लोग मर गए। लेकिन चाय का कोई पता नहीं चला। क्योंकि चाय तब तक उस मुल्क में आई ही नहीं थी। तो वैज्ञानिक खोज कर और पीकर क्या करते? न मालूम कितने जवान लड़के मर गए इस खोज में, चाय को पीने में, हर पत्ती घोल कर पी गए, वह लेकिन चाय नहीं मिली। कोई संतुष्ट नहीं हुआ, अनेक लोगों की मृत्यु हो गई, अनेक लोग जहर से बीमार पड़ गए। और उन्होंने कहा कि बकवास है यह सब, हमने एक-एक, एक-एक पत्ती, एक-एक जड़ खोज डाली, लेकिन चाय कहीं भी नहीं होती। यह अफवाह मालूम होती है। एक चौथा देश था, वह कंट्री ऑफ अनबिलीवर्स था। वहां नास्तिक रहते थे, अविश्वासी रहते थे। उनके पास भी खबर पहुंची, तो उन्होंने भी अपने विचारशील व्यक्ति को चीन भेजा, वह वहां गया। उसने वहां सम्राट से जाकर कहा कि मैं अविश्वासियों के देश से आता हूं। सम्राट ने मुझे वहां से भेजा है और उन्होंने कहा है कि वह जो सिलेसियस ड्रिंक है, वह जो स्वर्गीय पेय है चाय, उसे हम लेने आए हैं। क्या कृपा करके आप हमें भेंट करेंगे? सम्राट ने कहा, जरूर। उसने बहुत सी चाय उन्हें भेंट की। लेकिन अविश्वासियों ने देखा कि उस चाय को तो गांव भर के सभी लोग पीते थे। तो उन्होंने कहा, जिस चीज को सभी लोग पीते हों, वह चीज सिलेसियस ड्रिंक नहीं हो सकती।
जिसको हर गांव का किसान, सड़क पर बैठे हुए लोग पीते हों, वह चीज स्वर्गीय पेय नहीं हो सकती। जरूर सम्राट ने धोखा दिया है। वहां रास्ते में ही एक नदी पड़ी, उन्होंने बैलगाड़ियां वहां उलटा दीं और खाली बैलगाड़ियां लेकर अपने देश वापस लौट गए। और उन्होंने कहा, उस सम्राट ने धोखा दिया है वह शरारती मालूम होता है। जिसको गांव के सभी किसान और आम आदमी और भिखारी पीते हैं, वह स्वर्गीय पेय नहीं हो सकता। धोखा दिया गया है। और वह चीज हमारे सम्राट के योग्य नहीं है। हम उसे नदी में बहा आए।
वह जो आदमी निकाल दिया गया था विश्वासियों के देश से, उसने थोड़ी सी चाय उपलब्ध की चीन में जाकर। और उसने आकर उन चारों देशों की सीमाएं जहां मिलती थीं वहां एक छोटा सा चायखाना खोला। लेकिन उसका नाम टी हाउस नहीं था तब, चायखाना नहीं था। सिर्फ उसने एक छोटी सी दुकान खोली। और जो भी राहगीर वहां से निकलता वह उसे चाय का एक प्याला भेंट करता। जो स्वाद चखते, वे आनंदित हो जाते, वे पूछते, यह क्या है? वे दीक्षित हो जाते। चायखाने इस भांति पैदा हुए।
जीवन का सत्य भी अनुभव से और स्वाद से उपलब्ध होता है। लेकिन जीवन के सत्य के संबंध में भी, वह चार मुल्कों वाली हालत सारी दुनिया की है। या तो अविश्वासी हैं, जिन्होंने तय कर रखा है कि अविश्वास ही उनका धर्म है, या विश्वासी हैं जिन्होंने तय कर रखा हैं कि आंख बंद करके विश्वास करेंगे, या तथाकथित वैज्ञानिक हैं, जो कहते हैं कि हमारी प्रयोगशाला में जो सिद्ध होगा वही सत्य है बाकी कुछ भी सत्य नहीं। या दार्शनिक हैं, लाजिसियंश हैं, वे कहते हैं, हम किताबें पढ़ेंगे और व्याख्या करेंगे, उसी में से जीवन के सत्य को निकाल लेंगे।
लेकिन इन चारों लोगों में से कोई भी जीवन के सत्य को नहीं निकाल पाता है। जीवन के सत्य को तो वह निकालता है, जो जीवन की प्याली से जीवन के रस को पीता है। और कौन पीएगा जीवन की प्याली को? वे लोग नहीं पी सकते जो अंध परंपरा के विश्वासी हैं। वे लोग नहीं पी सकते जो कि व्यर्थ ही प्रत्येक चीज के विरोधी हैं। वे लोग नहीं पी सकते, जिन्होंने कि प्रयोगशाला के और पदार्थवादी दृष्टि पर ही सब कुछ रोक रखा है। वे लोग भी नहीं पी सकते जो केवल तर्क करते हैं, केवल विचार करते हैं, आर्ग्यु करते हैं और चुप हो जाते हैं। कौन पीएगा जीवन के सत्य को? जीवन के सौंदर्य को कौन पीएगा? इन चार से जो बच सकता है, वह जीवन के सत्य को पीने में समर्थ हो सकता है।
पहली इस चर्चा में इन चार से बचने के संबंध में थोड़ी सी बातें खयाल में ले लेनी चाहिए, ताकि जब जीवन की प्याली के संबंध में मैं आने वाले तीन दिनों में बातें करूं तो वे आपके खयाल में आ सकें।
पहली बात, विश्वास से बचना आवश्यक है, क्योंकि विश्वास अंधा बना देता है। लेकिन जब मैं यह कहता हूं कि विश्वास से बचना आवश्यक है तो लोग समझते हैं शायद मैं अविश्वास की तारीफ करता हूं। नहीं, बिलकुल भी नहीं। अविश्वास से बचना भी आवश्यक है क्योंकि अविश्वास दूसरी दिशा में अंधा बना देता है। आस्तिक भी अंधे होते हैं और नास्तिक भी अंधे होते हैं। उनके अंधेपन अलग-अलग होते हैं। लेकिन दोनों अंधे होते हैं। एक हां भरने में अंधा होता है, दूसरा न करने में अंधा होता है। एक परंपराओं के पक्ष में अंधा होता है, एक परंपराओं के विपक्ष में अंधा होता है। लेकिन दोनों में से कोई भी परंपराओं से मुक्त नहीं होता।
परंपराओं से जो मुक्त है वह तो न विश्वासी होता है, न अविश्वासी होता है। मुक्त वही हो सकता है जो न मित्र हो, न शत्रु हो। तो मैं आपको यह नहीं कहता हूं कि आप परंपराओं के शत्रु हो जाएं, आप शत्रु हो गए तो आप मुक्त नहीं हो सकेंगे। क्योंकि शत्रु भी उनसे बंध जाता है जिनका शत्रु हो जाता है।
आपको याद होगा, आपको मित्रों की याद आती है, शत्रुओं की भी। और मित्रों से ज्यादा शत्रुओं की याद आती है। आदमी मित्रों से कई दिन तक न मिले, लेकिन शत्रुओं से रोज मिलता है। उसके चित्त में शत्रु घूमते ही रहते हैं। हम जिस चीज के दुश्मन हो जाते हैं, हम उस चीज को भी अपने मन में जगह दे देते हैं। घृणा भी जगह बना लेती है, मोह भी जगह बना लेता है। तो मैं जब कहता हूं कि विश्वास से मुक्त हो जाएं, तो साथ ही मैं कहता हूं, अविश्वास से भी मुक्त हो जाएं। अविश्वास और विश्वास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
हिंदुस्तान जैसे मुल्क, पूरब के मुल्क विश्वास के अंधेपन से परेशान हैं, पश्चिम के मुल्क अविश्वास के अंधेपन से परेशान हैं। और आदमियत अभी भी विश्वास और अविश्वास के चक्कर के बाहर नहीं हो पाई। ऐसे आदमी बहुत कम हैं--जो न शत्रु हों, न मित्र हों, जो इतने शांत हों कि चीजों को सरलता से देख सकें। जिनका अपना कोई आग्रह न हो, जिनका कोई पक्ष न हो। विश्वास से बचें और अविश्वास से भी। तो ही आप परंपरा के बाहर हो सकते हैं। तर्क से बचें, क्योंकि अकेला तर्क अत्यंत व्यर्थ दिशा है, एकदम, एकदम अर्थहीन डायमेंशन है; उस आयाम में कभी भी कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। तर्क के सभी निष्कर्ष एक से व्यर्थ होते हैं। क्योंकि तर्क एक व्यायाम है, उससे ज्यादा नहीं। और व्यायाम से कुछ भी नतीजे निकाले जा सकते हैं, कुछ भी।
एक मस्जिद में एक सुबह एक आदमी प्रविष्ट हुआ। उसने अपने बहुत कीमती जूते, जिन पर सोने की कारीगरी की गई थी, मस्जिद के बाहर छोड़ दिए। लौट कर पीछे भी नहीं देखा और अंदर चला गया। मस्जिद के द्वार पर खड़े लोग चकित रह गए। उन्होंने कहा, कितना अदभुत आदमी है, इतने कीमती जूतों को मस्जिद के बाहर छोड़ गया, जिनकी चोरी भी हो सकती है। बड़ा धार्मिक, बड़ा विश्वासी आदमी मालूम होता है। इसके मन में किसी के प्रति चोर होने का भाव ही नहीं उठता है मालूम होता है।
उसके ही पीछे एक दूसरा आदमी आया, जिसके फटे-पुराने जूते थे। उसने जूते उतारे, दोनों को जोड़ा, बगल में दबाया और मस्जिद के भीतर प्रविष्ट हुआ। वे सारे लोग कहने लगे, बड़े हैरानी की बात है, इस पागल को यह नहीं दिखाई पड़ता, इतने कीमती जूते यहां रखे हुए हैं, और यह अपने फटे-पुराने जूतों को दबा कर अंदर ले गया है।
फिर वे दोनों आदमी बाहर निकले। कीमती जूतों वाला आदमी बाहर आया, तो उन लोगों ने पूछा, क्या हम पूछ सकते हैं आप इतने कीमती जूते बाहर क्यों छोड़ गए? उस आदमी ने कहा, इसका एक कारण है। मैंने जूते इसलिए बाहर छोड़े, ताकि अगर कोई उनकी चोरी करना चाहे, तो कम से कम प्रार्थना करते समय मैं उसे बाधा तो न दे सकूं। और तो बाधा देता हूं चौबीस घंटे, लेकिन प्रार्थना के समय में तो कम से कम कोई अगर चोरी करना चाहे तो मैं बाधा न बनूं इसलिए। और इसलिए भी कि अगर किसी का चोरी करने का मन हो इन जूतों पर और वह अपने चोरी करने की कामना पर विजय पा ले, तो इसमें भी मैं उसके धार्मिक, इस कृत्य में भी सहयोगी बन सकूं।
किसी के जूते चुराने का टेंप्टेशन हुआ और फिर उसने विजय पा ली, तो उसने एक महान कार्य किया साधना का, मैं उसका साथी हो सकूं। इसलिए भी जूते मैं बाहर छोड़ गया। वे सारे लोग चकित, आश्चर्य से, आदर से भरे हुए देखते रहे।
वह आदमी गया था कि फटे-पुराने जूते वाला आदमी बाहर आया। उन्होंने पूछा कि मित्र, क्या हम आपसे पूछ सकते हैं कि इतने कीमती जूते बाहर थे और आप अपने जूते मस्जिद के भीतर ले गए। उसने कहा, दो कारणों से भाई। एक तो इस कारण से कि फटे-पुराने जूते मेरे पास होते हैं तो मुझे अपनी दरिद्रता, अपनी ह्युमिलिटी, अपनी विनम्रता का बोध रहता है कि मैं एक साधारण, अत्यंत दरिद्र, दीन आदमी हूं। और प्रार्थना करते समय जिसके मन में दीनता का भाव नहीं, उसकी प्रार्थना तो कभी सफल नहीं हो सकती। इसलिए मैं जूते भीतर ले गया था। और इसलिए भी कि कहीं मेरे जूते बाहर पड़े रहे और किसी का मन चोरी करने का हो जाए, तो उसके मन को पाप में ले जाने में मैं भी सहयोगी हुआ, मैंने भी पाप किया। इसलिए मैं जूते बाहर नहीं छोड़ गया था।
उसके अनुयायी भी मिल गए। वे उसकी धन्यता की प्रशंसा करने लगे कि यह आदमी भी बहुत अदभुत है। वह आदमी भी चला गया। तब एक बूढ़ा वहां हंसने लगा जो उस भीड़ में खड़ा था और उसने कहा, पागलों, इन दोनों आदमियों को मैं भलीभांति जानता हूं। जिस आदमी ने जूते बाहर रखे, ये जूते इसने मस्जिद पहन कर आने के लिए खास तौर से बनवाए हुए हैं। और यह आदमी, मैं बहुत दिनों से परिचित हूं, इसकी औरत मर गई थी तो घर में तो शांत रहता था, चौरस्ते पर खड़े होकर आंसू बहाता था। यह आदमी एक्झीबीशनिस्ट है, यह आदमी प्रदर्शन करने में इसको बड़ा आनंद है। और तुम यह मत सोचना कि यह जूते छोड़ गया, जो दलीलें इसने दीं, उनके कारण यह अंदर बैठा हुआ जूतों के बाबत ही सोचता रहा।
इससे मैं भलीभांति परिचित हूं। यह जान कर जूते छोड़ गया था और दूसरे आदमी से मैं भलीभांति परिचित हूं। न तो वह विनम्रता के कारण जूते भीतर ले गया, न कोई चोरी से बच सके इसलिए। क्योंकि यह जूते इस आदमी ने खुद ही चुराए हुए हैं। और इन दोनों ने जो दलीलें दीं, जो तर्क दिए, वे बिलकुल फिजूल हैं, वे कभी घटे ही नहीं। क्योंकि तुम सब खड़े हो, इन्होंने जिस आदमी की बताई कि कोई आदमी निकलेगा वह आदमी निकला। वह इमेजिंड सिनर निकला ही नहीं। वह कल्पित पापी यहां से गुजरा ही नहीं। वह तथ्य तो घटित ही नहीं हुआ।
एक और बात जरूर घटी, तुम इनके जूते की चर्चा में पड़े रहे, इस बीच एक आदमी मस्जिद के भीतर गया। लेकिन उसके पास जूते नहीं थे कि बाहर छोड़ सके, न जूते थे कि भीतर ले जा सके। क्योंकि रास्ते पर एक बूढ़े आदमी को वह अपने जूते भेंट कर आया था। लेकिन वह तुममें से किसी को भी दिखाई नहीं पड़ा।
वह आदमी तुम्हें दिखाई ही नहीं पड़ा जिसकी प्रार्थना स्वीकार हो गई है। लेकिन उसके पास जूते नहीं थे कि छोड़ सके, न जूते थे कि भीतर ले जा सके। क्योंकि मस्जिद आते समय किसी को वह अपने जूते भेंट कर आया है, जिसके पास जूते नहीं थे। वह आदमी तुम्हें दिखाई ही नहीं पड़ा, क्योंकि उस आदमी ने अपने आने के साथ कोई आर्ग्युमेंट, कोई तर्क लेकर भीतर नहीं गया, न कोई तर्क पीछे छोड़ गया। वह चुपचाप आया और चुपचाप निकल गया। उस आदमी का तुम्हें कोई दर्शन ही नहीं हो सका। वह आदमी था जिसकी प्रार्थना स्वीकार हो गई हैं।
एक ऐसा जीवन है। जो तर्क का जीवन है, जो प्रदर्शन का जीवन है। जहां हम कुछ सिद्ध करना चाहते हैं। चाहे हम ईश्वर का होना सिद्ध करना चाहते हों, चाहे हम ईश्वर का न होना सिद्ध करना चाहते हों, चाहे हम सिद्ध करना चाहते हों कि आत्मा है, चाहे हम सिद्ध करना चाहते हों कि आत्मा नहीं है, लेकिन यह दोनों आदमी एक ही बीमारी से ग्रसित हैं, ये कुछ सिद्ध करना चाहते हैं। सिद्ध करने की बीमारी आदमी के अहंकार से पैदा होती है। धार्मिक आदमी कुछ भी सिद्ध नहीं करना चाहता, क्योंकि वह यह कहता है, हमारी यह सामर्थ्य कहां कि हम कुछ सिद्ध कर सकें। मेरा यह बल कहां कि मैं कुछ जान सकूं। मेरी यह बुद्धि कहां कि सत्य को मैं बता सकूं। मैं तो कुछ भी सिद्ध नहीं कर सकता हूं। इसलिए तर्क की वहां कोई जगह नहीं रह जाती। आस्तिक कभी धार्मिक नहीं हो सके। और नास्तिक तो हो कैसे सकते हैं?
तार्किक वह जो कुछ सिद्ध करने की कोशिश में लगा है, शब्दों से खेल रहा है, इससे ज्यादा नहीं। और शब्दों से खेल कर कुछ भी सिद्ध किया जा सकता है। शब्दों का अपना खेल है। जैसे शतरंज के खेल हैं, जैसे ताश के खेल हैं; उन खेलों के अपने नियम हैं। ऐसे शब्दों के अपने खेल हैं और शब्दों के अपने नियम हैं।
मार्क ट्वेन का नाम आपने सुना होगा। एक मित्र ने उसे एक रात एक सभा में आमंत्रित किया। वह मित्र एक बहुत बड़ा प्रीचर था, एक बहुत बड़ा उपदेशक था। उसके भाषणों की सारी दुनिया में ख्याति थी। उसने कहा कि आज तुम्हारे गांव में मैं बोलने आ रहा हूं, और कुछ नई बातें कहने वाला हूं। तुम आ जाओगे तो अच्छा होगा। मार्क ट्वेन गया, मार्क ट्वेन सामने की ही सीट पर बैठा रहा और ऐसा पत्थर की तरह बैठा रहा कि वह मित्र बोलता गया और घबड़ाता गया, क्योंकि उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं--न प्रशंसा के, न निंदा के। भाषण समाप्त हुआ, सारे लोग मंत्रमुग्ध होकर सुने थे।
मार्क ट्वेन से गाड़ी में बैठते वक्त उसने कहा, मैंने जो कहा वह कैसा लगा? बहुत डरे हुए मार्क ट्वेन ने कहा, लगने की क्या बात, मैं तो हैरान था। कल रात ही मैंने एक किताब पढ़ी है, एक-एक शब्द तुम्हारा उसी किताब में से उधार लिया हुआ है। एक-एक शब्द, तुम एक शब्द भी नया नहीं बोले और तुम कह तो यह रहे थे कि कुछ नई बातें कहनी हैं। वह उपदेशक तो हैरान हो गया। उसने कहा एकाध वाक्य हो भी सकता, किसी किताब में हो जो मैंने कहा। लेकिन एक-एक शब्द! मैं शर्त लगाने को तैयार हूं, क्योंकि मैंने किसी किताब से यह शब्द नहीं लिया है। सौ-सौ रुपये की शर्त लग गई। दूसरे दिन मित्र शर्त हार गया। मार्क ट्वेन ने वह किताब भेज दी जिसमें एक-एक शब्द लिखा हुआ था। वह थी डिक्शनरी। वह था शब्दकोश। सौ रुपये हार जाने पड़े, क्योंकि उस शब्दकोश में एक-एक शब्द लिखा था।
तर्क इससे बाहर नहीं ले जा सकता। आर्ग्युमेंट, लाजिक के अपने खेल के अपने नियम हैं, उनके भीतर वह घूमता है। वहां कोई चीज जीत भी सकती है और हार भी सकती है। लेकिन तर्क की जीत न तो जीत है, तर्क की हार न तो हार है। जो उसमें समय को गवां देता है, वह व्यर्थ गवां देता है। जीवन उन्हें उपलब्ध नहीं मिलता, जो जीवन के पास तर्क लेकर जाते हैं। जीवन उन्हें उपलब्ध होता है, जो जीवन के पास अतक्र्य, जीवन के पास अतक्र्य जो पहुंच जाते हैं, निष्प्रश्न जो पहुंच जाते हैं। बिना विश्वास के, बिना अविश्वास के, बिना तर्क के, जो पहुंच जाते हैं जीवन के पास। उन्हें उपलब्ध होती है जीवन की संपदा और संपत्ति।
ये प्राथमिक बातें मैंने कहीं, ताकि कल से मैं आपसे वे बातें कह सकूं--जो जीवन की संपदा की तरफ उठाने के रास्ते पर अनिवार्य सीढ़ियां बन सकती हैं। तीन सीढ़ियों की बात मैं करूंगा, तीन दिनों में। लेकिन उसके पहले कुछ मन की सफाई हो जानी जरूरी है ताकि जो मैं कहूं उसे आप सुन सकें।
पहली बात: अतीत की तरफ से आंखें खींच लें। भविष्य की तरफ देखने में समर्थ हो जाएं।
दूसरी बात: सुरक्षा का मोह छोड़ें, अगर जीवन को जीना है। जीवन को जीना है तो जोखिम उठाने की स्वीकृति होनी चाहिए, खतरा मोल लेने की सामर्थ्य होनी चाहिए। इतना स्वीकार होना चाहिए कि मैं अपने पैरों पर चल कर देखूंगा। क्या होता है देखूं? परमात्मा ने एक मौका दिया है मुझे चलने का, एक अवसर मिला है कि मैं जीऊं? एक अवसर मिला है कि मैं श्वास लूं? गीत गाऊं? एक अवसर मिला है अपनी आंखों से देखूं? अपने कानों से सुनूं? एक अवसर मिला है अपने हृदय की धड़कन को अनुभव करूं? अपने सौंदर्य को, अपने प्रेम को बहाऊं? इस अवसर को क्या मैं खो दूंगा?
चौथी बात: जो अनुगमन करते हैं, वे इस अवसर को खो देते हैं। अनुगमन अबुद्धि का लक्षण है। अनुगमन जड़ता का लक्षण है। स्टुपिडिटी का लक्षण है। अनुयायी अर्थात स्टुपिड। अनुयायी अर्थात जड़बुद्धि। जड़ता ही अनुगमन में ले जाती है और अनुगमन जड़ता को मजबूत करता चला जाता है। जड़ता के प्रति विद्रोह चाहिए। अपनी जड़ता के प्रति। जब मैं आपसे यह कह रहा हूं अनुगमन छोड़ दें, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि महावीर को छोड़ दें, बुद्ध को छोड़ दें। मैं यह कह रहा हूं, अपनी जड़ता को छोड़ दें।
अनुगमन छोड़ने से और कुछ नहीं छूटता। केवल हमारी अबुद्धि छूटती है। और हमारे भीतर चैतन्य की किरणें प्रविष्ट होनी शुरू हो जाती हैं। क्योंकि जो आदमी अपने बल पर खड़े होने की हिम्मत करता है, उसकी सोई हुई ताकतें जागने लगती हैं। हमेशा ताकत तभी जागती है, जब ताकत को चुनौती, चैलेंज हो।
अभी हम यहां बैठे हैं, अगर हमें दौड़ने को कहा जाए तो हम दौड़ेंगे जरूर, लेकिन उस दौड़ने में जान नहीं होगी। लेकिन कल अगर हम प्रतियोगिता में दौड़ें, तो उस दौड़ने में और जान आ जाएगी। और परसों अगर कोई हमारे पीछे गोली लेकर पड़ा हो, बंदूक लेकर पड़ा हो तो हम इस तरह दौड़ सकेंगे कि दुनिया में जो भी रिकार्ड हैं वे सब टूट जाएं।
क्यों?
इसलिए कि जहां चुनौती है वहां प्राणों की सारी छिपी हुई शक्ति प्रकट हो जाती है। कोई भी आदमी अपने जीवन में मुश्किल से अपनी शक्तियों के पांच प्रतिशत का उपयोग कर पाता है। पंचानबे प्रतिशत जीवन की शक्ति व्यर्थ पड़ी रह जाती है। उसके लिए चुनौती नहीं है, उसके लिए बुलावा नहीं है, उसके लिए आमंत्रण नहीं है, उसके लिए जीवन का खतरा नहीं है कि वह उठे और जग जाए।
आपको पता है, जितना सुरक्षित जीवन होता है, जीवन की शक्ति उतनी ही क्षीण हो जाती है। जितना असुरक्षित जीवन होता है, जीवन की शक्तियां उतनी ही प्रकट हो जाती हैं। असुरक्षा सौभाग्य है। इनसिक्योरिटी जो है, वह परमात्मा की तरफ से दी गई सबसे बड़ा सबसे बड़ी ब्लेसिंग, सबसे बड़ा शुभ आशीष है। लेकिन हम उस इनसिक्योरिटी को उस असुरक्षा को नष्ट कर देते हैं। और अपने सुरक्षा के घर बना कर बैठ जाते हैं। और सोचते हैं, हमने सब कुछ पा लिया। हमने जीवन खो दिया, हमने जो भी महत्वपूर्ण था--खो दिया, हमने जो भी सार्थक चुनौती थी उससे मुंह छिपा लिया। हम बैठ गए अपने घरों में। जरूर हम बैठे रहेंगे और मर जाएंगे। लेकिन जीवन का जो साक्षात, जो एनकाउंटर हो सकता था वह नहीं हो सकेगा। उसी साक्षात में, उसी मुठभेड़ में, जीवन के साथ उसी संघर्ष में, जीवन की समस्याओं के सामने बिना पर्दे के खड़े हो जाने में ही भीतर जो छिपी हुई ताकतें हैं वे उठती हैं और जागती हैं।
एक छोटी सी घटना और अपनी बात मैं पूरी करूंगा।
बंगाल के एक बहुत बड़े चित्रकार के पास अवनींद्रनाथ ठाकुर के पास, एक दूसरा छिपा हुआ चित्रकार नंदलाल, चित्रकला सीखने गया हुआ था। तब वह जवान था, उसके भीतर छिपी हुई प्रतिभा का किसी को कोई पता नहीं था। रवींद्रनाथ अवनींद्रनाथ के पास एक दिन बैठे हुए थे और नंदलाल कृष्ण की एक पेंटिंग, एक चित्र बना कर कृष्ण का लाया। रवींद्रनाथ ने चित्र को देखा और मोहित हो गए। चित्र इतना सुंदर था, इतना सुंदर था, लेकिन अवनींद्रनाथ ने, जो कि गुरु थे नंदलाल के, उन्होंने चित्र को देखा, चित्र को उठा कर सड़क पर बाहर फेंक दिया।
रवींद्रनाथ तो हैरान हो गए। रवींद्रनाथ ने बाद में किसी को कहा कि मैं तो हैरान ही रह गया। मेरा तो खयाल था कि अवनींद्रनाथ भी उतना सुंदर चित्र बनाते तो मुश्किल पड़ता उनको भी बनाना। चित्र इतना अदभुत था, मैंने कृष्ण के बहुत चित्र देखे, लेकिन वैसा चित्र देखा ही नहीं। और उस छोकरे का, नंदलाल का चित्र बाहर सड़क पर फेंक दिया गया।
और अवनींद्रनाथ ने कहा कि तुझसे अच्छे तो बंगाल में जो पटिए कृष्ण का चित्र बनाते हैं, वे अच्छा बना लेते हैं। बंगाल में पटिए होते वे दो-दो पैसे का चित्र बना कर कृष्ण का, कृष्ण की जन्माष्टमी पर बेचते हैं। तो दो...सबसे बेचारे गरीब कलाकार। अवनींद्रनाथ ने कहा कि बंगाल के पटिए तुझसे अच्छा चित्र बना लेते, दो-दो पैसे में बेचते हैं, यह कोई चित्र है? जा! अभी बहुत सीखना है तुझे। नंदलाल चुपचाप पैर छूकर बाहर निकल गए। निकलते ही रवींद्रनाथ ने कहा कि यह क्या किया आपने? यह तो बड़ी अजीब बात है, यह चित्र तो बहुत सुंदर था। रवींद्रनाथ तो क्रोध में आ गए थे, लेकिन उनका क्रोध जब उतरा तो देखा, अवनींद्रनाथ की आंखों से आंसू बहे चले जा रहें।
अवनींद्रनाथ ने कहा, मैं भी जानता हूं कि चित्र अदभुत था। मैं भी वैसा चित्र बना सकूं, निर्णय से नहीं कह सकता हूं। तो फिर क्यों फेंका? रवींद्रनाथ ने पूछा। अवनींद्रनाथ ने कहा, उस लड़के के भीतर अभी और भी संभावना छिपी है। उसके लिए चुनौती चाहिए। अगर मैं प्रशंसा कर दूं बात खत्म हो गई, उसके भीतर जो छिपा है वह वहीं बंद रह जाएगा। अभी मैं आलोचना करूंगा, रोऊंगा। और आलोचना करूंगा, मेरी आंखों में आंसू देखते हो? ये आंसू इस दुख में उठ रहे हैं कि मुझे उसकी आलोचना करनी पड़ी; जो कि प्रशंसा के योग्य था। लेकिन अभी मैं और आलोचना करूंगा ताकि उसके भीतर जो छिपा है और प्रकट हो जाए।
वह लड़का तीन महीने के लिए नदारद हो गया। बहुत खोजबीन की गई, उस नंदलाल का कोई पता नहीं चला। उसके झोपड़े पर ताला लगा हुआ है। वह तीन महीने बंगाल के गांवों में घूम-घूम कर, पटियों के पास जाकर, कृष्ण के चित्र बनाने की कला सीखने लगा।
तीन महीने बाद वह वापस लौटा। वह खुद एक पटिए जैसा हो गया था। गरीब, कपड़े फटे थे और आकर अवनींद्रनाथ के पैरों पर गिर पड़ा और कहा, आपने ठीक कहा था, मैं क्या बना सकता हूं। मेरे चित्र में रंग थे, मेरे चित्र में रेखाएं थीं, मेरे चित्र में सब कुछ था, लेकिन पटियों का प्रेम नहीं था। वह कमी थी। वह मैं ले आया हूं, मैं सीख कर आ गया हूं। आपकी बड़ी कृपा थी, जो चित्र आपने फेंक दिया।
आदमी के भीतर जो छिपा है, और नंदलाल के भीतर जो प्रतिभा प्रकट हुई, वह प्रतिभा धीरे-धीरे इन कठिनाइयों को पार करके प्रकट हुई। जीवन के लिए जितनी चुनौती हो, भीतर जो छिपा है उसके लिए जितना संघर्ष हो, उसके लिए बाहर की दुनिया में जितना खतरा हो, जितनी इनसिक्योरिटी हो; उतना ही जो भीतर छिपा है वह जागेगा। और सामर्थ्य बढ़ेगी, पात्रता बढ़ेगी। और एक दिन व्यक्ति जब अपने भीतर सारी छिपी क्षमताओं को प्रकट कर लेता है, उसी दिन, उसी क्षण, उसे उस सत्य का पता चल जाता है जिसे लोग प्रभु कहते हैं, परमात्मा कहते हैं।
परमात्मा कहीं कोई आकाश में बैठा हुआ व्यक्ति नहीं, और न ही परमात्मा किन्हीं मंदिरों में छिपा हुआ है। परमात्मा छिपा हुआ है प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व में, और इस व्यक्तित्व को उघाड़ने के लिए कहीं मालाएं लेकर आप बैठ गए तो कुछ भी नहीं उघड़ेगा, वे तो ढांकने के रास्ते हैं। इस व्यक्तित्व को अगर हिमालय में लेकर भाग गए तो कुछ भी नहीं उघड़ेगा। इस व्यक्तित्व में जो छिपा है, अगर उसे प्रकट देखना चाहते हैं--लिव डेंजरसली, तो खतरे में जीएं, असुरक्षा में जीएं, इनसिक्योरिटी में उतरें, सारी सुरक्षाएं छोड़ दें मन की। पीछे अतीत को जाने दें, आगे जो भविष्य का अंधकार है उसमें कूद पड़ें, उसमें जीएं। जाने दें ज्ञान को, जाने दें गीता को, कुरान को, बाइबिल को। उन सबसे सुरक्षा मिलती है, लगने लगता है कि मैं जानता हूं, उनको कंठस्थ कर लेने से।
जाने दें उनको, अनुभव करें अज्ञान को कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। न जानने में प्रविष्ट हो जाएं। अज्ञान में, अंधकार में, भविष्य में, अनजान में, अननोन में, और आप पाएंगे कि जैसे एक कदम आप उठाते हैं अंधकार में, वैसे ही आपके भीतर शक्ति का एक पुंज जगना शुरू हो जाता है। अज्ञात में जाते हैं और भीतर कोई ज्ञान प्रकट होने लगता है। जीवन साधना एक संघर्ष है--अज्ञात के साथ, खतरे के साथ, एक जोखिम है। धार्मिक होना उस भांति की बात नहीं है--जैसे निकम्मे लोगों को हम सारी दुनिया में धार्मिक होना समझते हैं। निकम्मा आदमी धार्मिक नहीं होता।
न धार्मिक होना कोई पलायन है, न कोई एस्केप है। धार्मिक होना तो जीवन के साथ, उसकी सम्पूर्ण असुरक्षा में एक संघर्ष है।
यह संघर्ष कैसे हो सकता है, इसके तीन सूत्रों पर आने वाली चर्चाओं में आपसे बात करूंगा।
आज इतना ही।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर छिपे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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