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मंगलवार, 28 फ़रवरी 2017

माटी कहे कुम्‍हार सूं-(ध्‍यान-साधन)-प्रवचन-08

आठवां प्रवचन


माटी कहै कुम्हार सूं
मेरे प्रिय आत्मन्!
मनुष्य-जाति के, मनुष्य-चेतना के भंडार से कौन सा रत्न खो गया है, अगर मैं यह अपने से पूछता हूं तो मुझे ऐसा नहीं मालूम होता कि नीति खो गई हो, धर्म खो गया हो, दर्शन या फिलासफी खो गई हो। न तो मनुष्य के जीवन से नीति खो गई है, आचरण खो गया है, न धर्म खो गया है, न दर्शन खो गया है। क्योंकि आज से हजारों वर्ष पहले मनुष्य के चित्त की जैसी अनैतिक दशा थी, ठीक वैसी ही दशा आज भी है। लोग सोचते हैं कि शायद पहले के लोग बहुत नैतिक और बहुत आचारवान थे, तो एकदम सौ प्रतिशत गलत सोचते होंगे। अगर बुद्ध और महावीर के समय के लोग नीतिवान और आचारवान रहे हों, तो बुद्ध और महावीर की शिक्षाओं की कोई भी जरूरत नहीं हो सकती थी।

बुद्ध लोगों को समझा रहे हैं कि चोरी मत करो, झूठ मत बोलो, बेईमानी मत करो। ये बातें किन लोगों को समझाई जा रही हैं? महावीर लोगों को समझा रहे हैं कि हिंसा मत करो, दूसरों को दुख मत दो, दूसरों को सताओ मत, ये बातें किन लोगों को समझाई जा रही हैं?
अगर लोग अहिंसक थे और आचरणवान थे, तो ये शिक्षाएं व्यर्थ हैं। दुनिया की पुरानी से पुरानी किताब भी उन्हीं शिक्षाओं को देती हुई मालूम पड़ती है, जिन शिक्षाओं की आज जरूरत है। इससे एक बात निर्णीत रूप से साफ होती है कि आदमी जैसा आज है, वैसा ही उन दिनों भी था।
दुनिया की जो सबसे पुरानी किताब चीन में उपलब्ध हुई है--कोई छह हजार वर्ष पुरानी; उस किताब की भूमिका में लिखा हुआ है--आजकल के लोग एकदम पतित हो गए हैं, आचरणहीन हो गए हैं। पहले के लोग बहुत अच्छे थे। ये पहले के लोग कब थे? यह छह हजार वर्ष पुरानी किताब की भूमिका में कहा गया है कि आज के लोग पतित हो गए हैं, पहले के लोग बहुत अच्छे थे। ये पहले के लोग कब थे? ये पहले के लोग कभी भी नहीं थे।
यह पहले के लोगों की सिर्फ कल्पना है। आदमी ऐसा ही था जैसा आज है। नैतिक रूप से मनुष्य का कोई पतन नहीं हो गया है। लेकिन एक दूसरी दृष्टि से पतन हो गया है और उसी संबंध में आज मुझे आपसे बात करनी है। और जब तक हम दूसरी बात को नहीं समझ लेंगे, तब तक मनुष्य-जाति का नैतिक कोई नवोउत्थान भी नहीं हो सकता है। शायद आपको खयाल भी न हो कि मनुष्य की चेतना से कौन सी चीज रोज-रोज खोती चली गई है?
मनुष्य की चेतना से आश्चर्य खोता चला गया है। मनुष्य की चेतना से विस्मय का भाव खोता चला गया है। मनुष्य की परंपराएं जितनी पुरानी और गहरी हो गई हैं, उतना ही मनुष्य को यह भ्रम पैदा हो गया है कि मैं जानता हूं। मनुष्य को ज्ञान का भ्रम पैदा हो गया है। और उस ज्ञान के भ्रम ने ही सारे जीवन को पतन के रास्ते पर धक्का दे दिया है।
ज्ञान के भ्रम से बड़ा कोई और भ्रम नहीं है। मनुष्य का अज्ञान सत्य है और मनुष्य का ज्ञान बिलकुल असत्य है। मनुष्य कुछ भी नहीं जानता है। लेकिन हजारों साल तक अगर कुछ बातों को दोहराया जाए, उनकी परंपराएं बनाई जाएं, परंपराओं पर श्रद्धा पैदा की जाए, तो यह धोखा पैदा होता है कि हम जानने लगे हैं।
अडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है। हिटलर राजनीतिज्ञ था, इसलिए कुछ सच्ची बातें बोल सकता था। धर्मगुरु इतनी सच्ची बातें भी नहीं बोलते। अडोल्फ हिटलर ने लिखा है कि मैंने यह पाया अपने जीवन के अनुभव से कि किसी भी असत्य को अगर बार-बार दोहराया जाए तो थोड़े दिनों में ही लोकमानस उसे सत्य मान लेता है। पुनरुक्ति रिपीटीशन एक ही बात को बार-बार दोहराया जाए, तो धीरे-धीरे लोग यह भूल जाते हैं कि दोहराई गई बात झूठ है या सच। वह धीरे-धीरे सच प्रतीत होने लगती है।
मनुष्य-जाति का ज्ञान इसी तरह कि कपोल-कल्पित धारणाओं के ऊपर आधारित है, जिनको बार-बार दोहराया गया है और हम सबको यह खयाल हो गया है कि हम जानते हैं।
सच्चाई बिलकुल उलटी है। हम कुछ भी नहीं जानते हैं। रास्ते के किनारे पड़ा हुआ पत्थर भी अपरिचित है। लेकिन हम बैठ कर परमात्मा के संबंध में इस भांति बातें करते हैं जैसे कि हम परमात्मा को जानते हों। पड़ोसी भी अपरिचित है, लेकिन दूर आकाश में बैठा हुआ परमात्मा इतना परिचित मालूम होता है कि हम उस पर विवाद भी करते हैं, संघर्ष भी करते हैं, हत्याएं भी करते हैं, मकानों में आग भी लगाते हैं, बच्चो को मारते भी हैं।
कुछ बातें निरंतर दोहराई गई हैं और उन्होंने हमें यह भ्रम पैदा कर दिया है कि हम जानते हैं। मनुष्य के जीवन में इससे बड़ा और कोई खतरा नहीं है कि वह यह समझ ले कि मैं जान गया हूं। पांडित्य से बड़ा कोई पाप नहीं है। जान लेने के खयाल से बड़ा, अज्ञान को रोक लेने वाला और कोई सहारा नहीं है। अज्ञान रुकता है इसलिए कि हमें खयाल पैदा हो जाता है कि हम जानते हैं।
जो भी आदमी इस तरह की बात करता हुआ मालूम पड़ता है कि मैं जानता हूं, लोग उससे ऊबते हैं और परेशान होते हैं। लेकिन कभी उन्हें खयाल नहीं आता कि यह परेशानी और ऊब किस वजह से पैदा हो रही है? यह बोर्डम किस वजह से पैदा हो रही है?
जब भी कोई जानने का खयाल पैदा करता है कि मैं जानता हूं, तब हमारी अंतरस्थ प्रकृति स्पष्टतः जानने लगती है कि कहीं कोई गड़बड़ हो रही है। आदमी का अज्ञान बहुत गहरा है।
मैंने सुना है, एक संध्या एक व्यक्ति, एक अजनबी गांव में एक रास्ते पर से एक मकान के सामने से गुजरता था। उस मकान का मालिक अपने घोड़े को मकान के भीतर ले जाने की भरसक कोशिश कर रहा था और घोड़ा मकान के भीतर जाने से इनकार कर रहा था। मकानों के भीतर घुसना आदमियों को अच्छा लगता है, उसके अतिरिक्त और किसी को भी अच्छा नहीं लगता। घोड़े भी इनकार करते हैं दीवालों के भीतर बंद होने से। वह घोड़ा भी इनकार कर रहा था। लेकिन वह आदमी उसे पूरी कोशिश कर रहा था।
उस अजनबी ने कहा कि क्या मैं कुछ सहायता कर सकता हूं? उस मकान मालिक ने कहा, बड़ी कृपा होगी, मुझे घोड़े को बहुत जरूरी काम से भीतर ले जाना है। कृपा कर थोड़ी सहायता करें, मैं अकेला ही घर में हूं। उस अजनबी आदमी ने घोड़े को भीतर पहुंचाने में सहायता दी। मकान के भीतर पहुंचते ही वह मकान मालिक उस घोड़े को दूसरी मंजिल पर सीढ़ियों पर चढ़ाने लगा। उस अजनबी ने कहा, आप यह क्या कर रहे हैं? उसने कहा, आप थोड़ी और सहायता कर दें, मुझे ऊपर इस घोड़े को जरूरी ले जाना है। अजनबी ने सोचा कि मुझे क्या प्रयोजन कि मैं पूछूं। किसी की निजी बातों में जाने की क्या जरूरत।
उसने घोड़े को ऊपर पहुंचाने में भी सहायता दी। बहुत मुश्किल, परेशानी से घोड़े को ऊपर ले जा सके। फिर उस मकान मालिक ने कहा, अब इसे बाथरूम में स्नानगृह में और पहुंचा दें। उस आदमी ने फिर भी सोचा कि मैं क्यों किसी की निजी बातों में पूछूं, उसने उसे घोड़े को भीतर धक्के देकर स्नानगृह में भी पहुंचा दिया। फिर तो उसे बाथ टब में भी खड़ा करवा लिया और इसके बाद उस घर मालिक ने खीसे से पिस्तौल निकाली और घोड़े को गोली मार दी। अब अजनबी से बिना पूछे नहीं रहा जा सका। उसने कहा, क्षमा करें? अब तक मैंने बरदाश्त किया, लेकिन अब मैं पूछना चाहता हूं कि यह सब क्या हो रहा है? यह क्या पागलपन है? यह क्या कर रहे हैं?
उस घर मालिक ने कहा, आप पूछते हैं, तो मैं बताए देता हूं। मेरे एक मित्र हैं, उनको ज्ञान की बीमारी हो गई है। ऐसी कोई बात ही नहीं है दुनिया में जिसको आप कहिए, और वे इस तरह मुस्कुराएंगे कि उनकी मुस्कुराहट से पता चलेगा कि वे पहले से ही जानते हैं। आप बात कह कर खतम करिए और वे कहेंगे, आई नो, मैं जानता हूं। उनके इस आई नो से हम सब घबड़ा गए हैं। आज वे मेरे घर आने वाले हैं।
उस मित्र ने पूछा, उनके घर आने से और घोड़े को ऊपर चढ़ा कर बाथरूम में ले जाकर गोली मारने से क्या संबंध? तो उस आदमी ने कहा, संबंध यह है कि आज वे यहां खाना खाएंगे, और खाने के बाद वे बाथरूम में हाथ-मुंह धोने जाएंगे। वहां से वे घबड़ाए हुए बहार निकलेंगे और कहेंगे कि आश्चर्य! एक घोड़ा मरा हुआ बाथरूम में खड़ा है! तब मैं मुस्कुराऊंगा और कहूंगा, आई नो। मैं भी बदला चुकाना चाहता हूं--कि एक चीज ऐसी है, जिसने तुम्हें भी चकित कर दिया, तुम्हें भी आश्चर्य से भर दिया और उसको मैं जानता हूं।
मनुष्य-जाति के ऊपर जिन लोगों ने भी यह खयाल पैदा कर दिया है कि हम जानते हैं। उन लोगों ने मनुष्य की चेतना की हत्या कर दी। और समय आ गया है कि बगावत हो जाए। ज्ञानियों के प्रति बगावत का वक्त आ गया है। यह जो लोग कहते हैं कि हम जानते हैं, इनके प्रति विद्रोह हो जाना चाहिए। स्पष्ट हो जानी चाहिए, यह बात कि जीवन का सत्य बहुत अज्ञात है। उसे शब्दों और शास्त्रों को पढ़ कर जाना नहीं जा सकता है। और यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए इस विद्रोह के साथ कि जो सत्य को जानता है वह उसे शब्दों में कह नहीं पाता है।
और यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि जो उस सत्य को जान लेता है, वह इतना मौन हो जाता है कि ज्ञान की घोषणा करने की संभावना नहीं रह जाती। अगर उससे कोई पूछेगा ही तो वह कहेगा कि मैं नहीं जानता हूं। अगर उसे कहना ही पड़ेगा, तो यही कहेगा, मैं नहीं जानता हूं, मैं हूं ही क्या? मैं क्या जान सकता हूं? जीवन है इतना अनंत, जीवन है इतना विस्तार, जीवन है इतना अनादि, जीवन के ओर-छोर नहीं, जीवन के सागर का कोई किनारा नहीं। मैं क्या जान सकता हूं, एक बूंद सागर को कैसे जान सकती है?
क्या जान सकता हूं मैं इस विराट जगत को, इस जीवन को! नहीं-नहीं? मैं नहीं जानता हूं? लेकिन हम जो बिलकुल भी नहीं जानते हैं, उन्हें मन के किसी कोने में यह खयाल बैठा ही रहता है कि हम जानते हैं। आश्चर्य की समाप्ति हो गई है और इसलिए ज्ञान के द्वार बंद हो गए हैं। जिस आदमी को यह खयाल पैदा हो गया कि मैं जानता हूं, उसके आश्चर्य का अंत हो गया। उसे इस जगत में अब आश्चर्य से भर देने वाली कोई चीज न रही। वह सब कुछ जानता है, हर प्रश्न का उत्तर उसके पास है। वह आदमी मुर्दा है, जिसके पास हर प्रश्न का उत्तर है। उसे जीने की अब कोई जरूरत भी नहीं रह गई, वह व्यर्थ ही जीए चला जा रहा है।
जीवन की गति तो नित-नूतन अज्ञात को जानने की ओर है। लेकिन अगर अज्ञात बचा ही न हो, तो अब आप और क्या जानिएगा। और जिनको ईश्वर भी ज्ञात हो गया है, उनके लिए अब अज्ञात क्या बचा होगा?
ईश्वर मनुष्य की कोई जानी हुई बात नहीं; ईश्वर का भाव अज्ञात का बोध है। वह जो अननोन है जीवन में, जहां हमारा जानना जाकर रुक जाता है, जहां हमारे विचार ठहर जाते हैं और गिर जाते हैं। जहां हमारे समझ के पंख कट जाते हैं, जहां हम खड़े रह जाते हैं--अवाक, चकित, मौन--कोई उत्तर हमारे पास नहीं रह जाता, वहां से ईश्वर शुरू होता है। ईश्वर मनुष्य के ज्ञान का कंटेंट नहीं है। ईश्वर मनुष्य के ज्ञान की विषय-वस्तु नहीं है। मनुष्य का ज्ञान जहां नहीं चलता, वहां ईश्वर का प्रारंभ है।
इसलिए अगर कोई भी दावा करता हो कि मैं ईश्वर को जानता हूं, तो एक बात निश्चित समझ लेना कि यह आदमी तो कम से कम ईश्वर को नहीं जानता है। कम से कम इतना तो तय है कि यह आदमी नहीं जानता है। लेकिन दुनिया के सभी संप्रदाय और सभी शास्त्र और दुनिया के सभी धर्मगुरु एक ही दावा करते हुए मालूम पड़ते हैं कि हम जानते हैं, न केवल वे यह दावा करते हैं कि हम जानते हैं, वे दावा यह भी करते हैं जो दूसरा जान रहा है वह गलत जान रहा है। मैं ठीक जान रहा हूं और शेष सारे लोग गलत जान रहे हैं। सारे दुनिया के धर्मों की बुनियाद तो इसी भ्रम पर खड़ी हुई है कि हम ठीक जानते हैं।
हिंदू कहता, हिंदू ठीक जानते हैं, मुसलमान गलत जानते हैं। मुसलमान कहता है कि हम ठीक जानते हैं, जैन, ईसाई सब गलत जानते हैं। जैन भी यही कहता है। उन सब की बीमारियां एक जैसी हैं। उनकी बीमारी एक ही है, इस बात का खयाल कि हम जानते हैं। जब तक दुनिया में यह खयाल है कि हम जानते हैं, तब तक दुनिया से संप्रदायों को मिटाना असंभव है। क्योंकि असत्य शुरू हो गया, जहां से यह खयाल पैदा हुआ। धार्मिक आदमी वह नहीं है जो कहता है, मैं जानता हूं, धार्मिक आदमी वह है जो अनुभव करता है कि मेरी जानने की सीमा बहुत जल्दी आ जाती है। बहुत जल्दी लिमिटेशंस शुरू हो जाते हैं।
जो जानता है कि हाथ नहीं बढ़ाता हूं कि अज्ञात शुरू हो जाता है, आंख नहीं उठाता हूं कि अनंत के विस्तार शुरू हो जाते हैं। जहां कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता और कुछ भी नहीं जाना जा पाता है। जीवन क्षुद्र नहीं है कि जाना जा सके। जो भी जाना जा सकता है वह क्षुद्र है। जो भी जानने का विषय बन सकता है, जो भी आब्जेक्ट बन सकता है, वह जानने वाले से छोटा हो जाता है। जिस बात को भी मैं जान सकता हूं, वह मुझसे छोटी हो जाती है।
जीवन मुझसे बड़ा है, जीवन मुझसे बहुत बड़ा है--इस जीवन में मेरा कोई हिसाब नहीं, मेरी कोई मात्रा नहीं, मेरा कोई अनुपात नहीं, मैं कहां हूं।
लेकिन हम तो कहते हैं, हम जीवन को जानते हैं, आत्मा को जानते हैं, मोक्ष को जानते हैं। पागल हो गई है मनुष्य-जाति, जिस दिन से जानने का खयाल पैदा हुआ, उसी दिन से मैडनेस शुरू हो गई। उसी दिन से पागलपन शुरू हो गया।
बच्चे स्वस्थ होते हैं क्योंकि उन्हें जानने का भ्रम नहीं होता। बूढ़े पागल हो जाते हैं क्योंकि जिंदगी उन्हें जानने का भ्रम पैदा कर देती है। काश! बूढ़े भी बच्चों जैसे हो सकें, तो उनके जीवन में धर्म की शुरुआत हो जाए। जिस दिन कोई बूढ़ा आदमी भी बच्चे जैसे आश्चर्य से खड़े होकर जीवन को देख पाता है, उसी दिन उसके जीवन में मंदिर के द्वार खुल जाते हैं।
जीसस क्राइस्ट एक बगीचे से निकलते थे। कुछ लोगों ने उन्हें वहां रोक लिया और उनसे बातें करने लगे। फिर उस गांव की भीड़ वहां इकट्ठी हो गई। फिर बहुत लोग आ गए और वे जीसस से पूछने लगे कि हम सुनते हैं कि तुम ईश्वर के राज्य की बातें करते हो। लेकिन कौन होगा तुम्हारे ईश्वर के राज्य का अधिकारी? कौन पा सकेगा ईश्वर को? कौन उपलब्ध हो सकेगा उस स्वर्ग के राज्य को? तो जीसस क्राइस्ट ने उस भीड़ में एक नजर डाली। उस भीड़ में बड़े-बूढ़े थे, उस भीड़ में गांव का धर्मगुरु था, उस भीड़ में गांव का शिक्षक था, उस भीड़ में गांव के बोलने वाले थे, उस भीड़ में गांव का राजा था, लेकिन जीसस की आंखें उन सबको पार कर गईं और फिर भीड़ के पीछे खेलते हुए एक बच्चे को उन्होंने उठा लिया। वह धूल में खेलते हुए बच्चे को ऊपर किया और उस भीड़ से कहा, जो इस बच्चे की भांति होंगे, वे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं।
क्या मतलब? क्या बच्चे स्वर्ग के राज्य में प्रविष्ट हो जाते हैं? तो जो बच्चे मर जाते होंगे, वे परमात्मा को उपलब्ध हो जाते होंगे। नहीं; जीसस क्राइस्ट का यह मतलब नहीं। जीसस क्राइस्ट यह नहीं कहते कि जो बच्चे हैं वे स्वर्ग में प्रविष्ट कर जाते हैं। उन्होंने कहा, जो बच्चों की भांति हैं वे स्वर्ग में प्रवेश कर जाते हैं। जिनका शरीर तो बचपन को पार कर गया, लेकिन जिनके प्राण और आत्मा बचपन के निर्दोषता को, इनोसेंस को पार नहीं किए हैं। नालेज, ज्ञान इनोसेंस की हत्या है, निर्दोषता की हत्या है।
शायद इसीलिए तो वह अदभुत कहानी है कि ईश्वर ने "अदम' और "ईव' को बनाया और फिर उनसे कहा कि तुम इस सारे जंगल के वृक्षों के मालिक हो, इसके फल चखना, लेकिन इसमें एक नालेज ट्री, एक ज्ञान वृक्ष भी है: उसके फल मत चखना, उसे भर छोड़ देना। एक ट्री ऑफ नालेज भी है, एक ज्ञान का वृक्ष भी है, उसको मत चखना, उसके फल मत चखना। बस, जिस दिन तुम उसके फल चखोगे, उसी दिन आनंद के राज्य के बाहर हो जाओगे।
ज्ञान के फल चख लेना क्या पाप हो सकता है? लेकिन ईश्वर से मालूम होता है कि थोड़ी सी भूल हो गई।
ईश्वर से यह भूल हो गई, अगर वह "अदम' और "ईव' को यह न बताता कि तुम ज्ञान के वृक्ष के फल मत चखना, तो शायद वे कभी भी न चखते। उन्हें पता भी न चलता कि वह ज्ञान का वृक्ष कहां है? लेकिन बड़ी साइकोलाजिकल, बड़ी मनोवैज्ञानिक भूल हो गई। सभी मां-बाप से हो जाती है। ईश्वर भी कहते हैं, पिता है इससे हो गई। पिताओं से यह भूल अक्सर हो जाती है। बच्चों से कहते हैं, सिगरेट मत पीना। और बच्चों को पहली दफा पता चलता है कि सिगरेट भी पीने जैसी कोई चीज है। बच्चों से कहते हैं, झूठ मत बोलना। और बच्चे हैरान हो जाते हैं कि झूठ क्या है? पता लगाना चाहिए? बाप से जो भूल होती है वह ओरिजिनल फादर से भी हो गई है। वे जो मौलिक पिता है उनसे भी हो गई हैं। उन्होंने "अदम' और "ईव' से कहा कि ज्ञान के वृक्ष के फल मत चखना? और फिर उसी दिन से "अदम' और "ईव' की नींद हराम हो गई होगी! फिर उन्होंने ज्ञान के फल चख लिए और ज्ञान का फल चखते ही वे स्वर्ग के राज्य के बाहर निकाल दिए गए।
आज तक कोई भी नहीं कह सकता कि बात क्या है इस कहानी में? बात बहुत सीधी और साफ है। आदमी जब भी ज्ञान के भ्रम में पड़ता है और ज्ञान के फल को चख लेता है, तभी आश्चर्य और विस्मय समाप्त हो जाते हैं। आश्चर्य और विस्मय ही स्वर्ग का द्वार है।
डी.एच. लारेंस एक छोटे से बच्चे के साथ एक बगीचे में घूम रहा था। उस बच्चे ने लारेंस को पूछा कि देखते हैं, वृक्षों को देखते हैं, एकदम हरे हैं। उस बच्चे ने पूछा, क्या मैं पूछ सकता हूं, व्हाई दी ट्रीज ऑर ग्रीन? ये वृक्ष हरे क्यों हैं? लारेंस हंसने लगा, आगे बढ़ गया, उस बच्चे ने फिर पूछा, आप बताते नहीं हैं, ये वृक्ष हरे क्यों हैं? व्हाई दी ट्रीज ऑर ग्रीन?
डी.एच. लारेंस ने कहा, दि ट्रीज ऑर ग्रीन बिकाज दे ऑर ग्रीन। वृक्ष हरे हैं क्योंकि हरे हैं। और ज्यादा मुझसे मत पूछो, मुझे कुछ पता नहीं है।
उस बच्चे ने कहा, लेकिन मेरे पिता से मैं पूछता हूं, तो वे तो हर चीज का उत्तर देते हैं, आप उत्तर नहीं देते? अपने स्कूल के गुरु से पूछता हूं, वे हर चीज का उत्तर देते हैं, आप उत्तर नहीं देते? चर्च के पादरी से पूछता हूं, वे हर चीज के उत्तर देते हैं, आप उत्तर नहीं देते?
डी.एच. लारेंस ने कहा, आदमी को आज तक जीवन क्यों वैसा है, जैसा कि है इसका कोई उत्तर नहीं मिल सका है। और परमात्मा करे कि कभी भी न मिले, क्योंकि जिस दिन यह उत्तर मिल जाएगा उसी दिन जीवन व्यर्थ हो जाता है। जीवन की सारी मिस्ट्री, जीवन का सारा रहस्य इसलिए है कि जीवन अनुत्तर है, जीवन में कोई उत्तर नहीं है। जीवन प्रश्न है; उत्तर नहीं है। जीवन जिज्ञासा है; हल नहीं है, समाधान नहीं है। जीवन पूछता है लेकिन प्रत्युत्तर नहीं पाता। यही जीवन का रहस्य है। यह जीवन के रहस्य का अनुभव धर्म की पहली सीढ़ी है। शास्त्र नहीं है धर्म की पहली सीढ़ी। न पढ़ने-लिखने से कोई धार्मिक होता है, और न पढ़े-लिखे को आचरण में उतार लेने से कोई धार्मिक होता है।
पढ़ने-लिखने से पंडित पैदा होता है और पढ़े-लिखे को आचरण में उतार लेने से अभिनेता पैदा होता है। पढ़े-लिखे को आचरण में उतार लेने से कोई धार्मिक नहीं होता। धार्मिक होता है व्यक्ति जीवन के साक्षात से। और जीवन का साक्षात होता है रहस्य के अनुभव में। वह जो मिस्टीरियस है उसकी प्रतीति में। धर्म जीवन का काव्य है, वह जीवन की पोएट्री है। धर्म फिलासफी नहीं है। धर्म तत्व ज्ञान नहीं है। तत्व ज्ञान तो कोरे शब्दों का खेल है, जो कुछ होशियार लोग अपने घरों में बैठ कर करते रहते हैं। धर्म तो जीवन का अनुभव है, नग्न जीवन का, वह तो जीवन का काव्य है।
लेकिन जीवन के काव्य को कौन जान पाता है?
वे जो प्रेम करते हैं, वे जान सकते हैं। वे नहीं जो शास्त्र पढ़ते हैं।
धर्म के रहस्य को कौन जान पाता है?
वे जो विस्मय से भर कर खड़े हो जाते हैं। वे नहीं जो ज्ञान के पोथे लेकर जीवन के पास जाते हैं। और धर्म के इस रहस्य को जानने के लिए न तो किन्हीं मंदिरों और मस्जिदों में जाने की जरूरत होती है, क्योंकि मंदिरों और मस्जिदों में कौन सा रहस्य है? आदमी ने जो भी बनाया उसमें रहस्य नहीं हो सकता है। जिसका बनाने वाला आदमी ही है, उसमें रहस्य क्या हो सकता है? जिसे हम बनाते हैं उसे हम पूरी तरह जानते हैं। जिसे हमने नहीं बनाया उसमें रहस्य हो सकता है। जिसे हम नहीं बना सकते हैं उसमें रहस्य हो सकता है।
यह जो चारों तरफ विराट जीवन प्रतिपल आंदोलित हो रहा है--फूल में, पत्तियों में, हवाओं में, वृक्षों में, आदमियों की आंखों में, शरीर के सौंदर्य में, आत्मा के गीतों में--सब तरफ यह जो जीवन प्रकट हो रहा है, क्या इसके रहस्य की अनुभूति हमें होती है? क्या हमारे प्राणों को यह रहस्य का तीर छेद जाता है? और कहीं कोई कसक, कोई पीड़ा छूट जाती है?
अगर नहीं, और मैं आपसे कहूं ज्ञानी के मन में कभी विस्मय का कोई तीर प्रविष्ट नहीं होता। उसके मन में कभी कोई प्रश्न इतनी ज्वलंतता से खड़ा नहीं होता कि जिसका उसे उत्तर न मिल सके। उत्तर उसके पास पहले से रेडीमेड होते हैं, पहले से तैयार होते हैं। हर चीज का उत्तर वह पहले ले आता है, फिर प्रश्न पूछता है। वह बड़ा होशियार है। वह उन बच्चों की भांति हैं, जो गणित का सवाल हल करने के पहले किताब उलट कर पीछे उत्तर देख लेते हैं। फिर गणित का सवाल हल करने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। लेकिन वे बच्चे गणित के राज को जानने से भी वंचित रह जाते हैं। शास्त्रों को उलट कर जो शब्द सीख लेते हैं और उत्तर सीख लेते हैं--ईश्वर है, आत्मा है, स्वर्ग है, मोक्ष है, ऐसा है, वैसा है जो इन सारी हजारों साल से दोहराई गई बातों को चुपचाप स्वीकार करके उत्तर बना लेते हैं और फिर प्रश्न पूछते हैं। खूब धोखा देते हैं अपने को। उत्तर पहले से तैयार है और आप प्रश्न पूछ रहे हैं, आपको भलीभांति पता है कि उत्तर क्या निकलना है। और प्रश्न पूछ रहे हैं। प्रश्न झूठा है, थोथा है, बेईमानी का है।
और तब इस ज्ञान के चक्कर में आप घूमते रहेंगे और सच में ज्ञान के द्वार कभी नहीं खुल सकेंगे। ज्ञान के द्वार खोलने हों, तो अपने अज्ञान का पूरा अनुभव चाहिए, चाहिए अनुभव कि मैं नहीं जानता हूं। क्या यह अनुभव होता है कि हम नहीं जानते हैं? क्या यह अनुभव होता है? क्या जीवन यह अनुभव प्रकट नहीं कर देता कि हम नहीं जानते हैं। अगर आंख खोल कर देखेंगे, तो इस अनुभव में हो जाने में देर नहीं लगेगी। क्या जानते हैं हम? क्या है हमारा जानना? हमने क्या जान लिया है?
एक आदमी जीवन भर जीता है, अस्सी वर्ष जीता है। मरते वक्त कोई उससे पूछे, उसने जीवन को जाना, तो वह मृत्यु को देख कर कंप रहा है--हाथ पैर कंप रहे हैं, आंखें उसकी धूमिल हुई जाती हैं, प्राण उसके रो रहे हैं--वह चिल्ला रहा है कि मैं मर न जाऊं, वह रो रहा है, वह प्रार्थना कर रहा है। वह आदमी अस्सी साल जिंदा था।
वह अभी भी मृत्यु से घबड़ा रहा है, यह इस बात का सबूत है कि उसने जीवन को नहीं जाना। क्योंकि जो जीवन को जान लेते हैं उनके लिए कोई मृत्यु नहीं बच रहती। अस्सी साल जीए हम और जीवन को नहीं जान पाए और हम क्या जानेंगे? एक आदमी किसी मकान में अस्सी साल रहे और उस मकान को न जान पाए। एक आदमी एक रास्ते से अस्सी साल तक गुजरे और उस रास्ते को न जान पाए। हम रोज श्वास के रास्ते पर घूमते हैं, यात्रा करते है। श्वास के रास्ते से जब श्वास बाहर जाती है तो हम मृत्यु से जुड़ जाते हैं, और जब श्वास भीतर जाती है तब हम जीवन से जुड़ जाते हैं।
मृत्यु और जीवन के बीच अस्सी वर्ष एक आदमी डोलता है, प्रतिपल। मृत्यु कोई आकस्मिक घटना नहीं कि किसी दिन घट जाती है। मृत्यु जीवन का अनिवार्य अंग है। जीवन की रिदिम है।
लहर उठती है सागर पर, जब उठती है तब और जब वापस गिरती है तब; वह जो उठना है लहर का और वह जो गिर जाना है, वह एक ही लहर के दो हिस्से हैं। अगर उठना ही उठना हो, तो भी लहर नहीं हो सकती। अगर गिरना ही गिरना हो, तो भी लहर नहीं हो सकती। गिरने और उठने के बीच लहर प्रकट होती है। श्वास बाहर जाती है हम मौत से जुड़ जाते हैं। श्वास भीतर जाती है हम जीवन समझने लगते हैं। जीवन और मृत्यु के बीच, जिसे हम जीवन कहते हैं वह लहर है, जो उठती है और गिरती है।
अस्सी वर्ष, प्रतिपल हम इस जीवन और मृत्यु के बीच डोलते हैं। लेकिन क्या हम जीवन को जानते हैं? क्या हम मृत्यु को जानते हैं? नहीं जानते, लेकिन हमने सिद्धांत खूब गढ़ रखे हैं, जो हमें यह भ्रम पैदा कर देते हैं कि हम सब जानते हैं। और आश्चर्य की बात यह है कि जीवन को जानने के लिए भी हमें किताबों में खोज करनी पड़ती है। जीवन को जानने के लिए भी किताबों में खोज करनी पड़ती है।
जीवन जिसमें हम खड़े हैं, प्रतिपल। समुद्र की एक मछली पूछने लगे आपसे कि मुझे समुद्र के संबंध में कुछ जानना है, कोई किताब है, जिसे मैं पढूं? तो हम कहेंगे, या तो यह मछली पागल हो गई, यह पूछती है समुद्र के संबंध में कोई किताब हो तो मैं पढूं।
यह समुद्र में है, और अगर समुद्र में होकर भी समुद्र को नहीं पढ़ पाती है तो किस किताब को पढ़ कर समुद्र को जान पाएगी। जीवन में हम घिरे हैं। वह जो विस्मयजनक है, वह जो मिस्टीरियस है, वह जो परमात्मा है, वह प्रतिपल हमें घेरे हुए है। सब तरफ से वही घेरे हुए है। और हम पूछ रहे हैं कि हम परमात्मा को जानना चाहते हैं--हम गीता पढ़ें, हम कुरान पढ़ें, हम मोहम्मद के चरणों में झुकें कि कृष्ण के चरणों में, कहां जाएं? किससे पूछें?
जीवन चारों तरफ खड़ा है और आप किससे पूछने जा रहे हैं? और अगर आप जीवन से ही नहीं पूछ सकते हैं तो आप कहीं भी नहीं पूछ सकेंगे।
लेकिन जीवन से हम नहीं पूछते हैं, क्योंकि हमने तो उत्तर सीख रखे हैं। उत्तर हमारे पास तैयार हैं। हम तो केवल अपने तैयार उत्तरों को सुनने के लिए प्रश्न खड़े कर रहे हैं। प्रश्न हमारे सूडो, मिथ्या, झूठे हैं। उत्तर पहले से मौजूद है। ये जो उत्तर मौजूद हैं, इन्होंने आदमी को ज्ञानी होने का भ्रम पैदा कर दिया है।
एक फकीर एक छोटे से गांव से गुजर रहा है। वह फकीर ज्ञानी था, जानता था, उसने अपनी परंपरा के सभी शास्त्र पढ़े थे। उसने अपने परंपरा के शास्त्रों पर टीकाएं भी लिखी थीं। ऐसी कोई बात न थी जिसके बाबत उसे ज्ञात न हो। वह पूरा दार्शनिक था, वह पूरा फिलासफर था। वह वैसा ही फिलासफर था, वैसा ही दार्शनिक था--जैसा आइंस्टीन ने एक बार किसी को कहा था, आइंस्टीन से किसी ने पूछा था कि एक दार्शनिक में और एक वैज्ञानिक में क्या फर्क होता है?
तो आइंस्टीन ने कहा, दार्शनिक के पास आप कोई भी प्रश्न ले जाएं, वह उत्तर फौरन देगा, वह कभी यह नहीं कहेगा कि मैं नहीं जानता हूं। और वैज्ञानिक के पास आप हजार प्रश्न ले जाएं तो मुश्किल से एकाध प्रश्न पर वह कहेगा, मैं जानता हूं, और वह भी बहुत गार्डिड, बहुत होश से, समझ कर वह यह कहेगा कि अभी जितना हम जानते हैं वह यह है, कल यह गलत हो सकता है। परसों हम और जान सकते हैं और यह सब हमें पोंछ देना पड़े।
तो वह फकीर वैसा ही दार्शनिक था जिसके पास हर चीज के उत्तर थे। वह एक गांव से गुजरता था। उस दिन कोई सभा नहीं हो सकी थी, कोई सुनने वाले उसे इकट्ठे नहीं हो सके थे। जिसके पास ज्ञान है, उसे सुनने वाले न इकट्ठे हों, तो बड़ी बेचैनी होती है उसे, उसे बड़ी तकलीफ होती है। सुनने वाले इकट्ठे हों, तो उसे बड़ी राहत मिलती है। क्योंकि जिस रोग को उसने पाल रखा है वह दूसरों में बांट कर बहुत निश्चिंत हो जाता है। बीमारी के कीटाणु सब में फैला देता है। ज्ञान बड़ा संक्रामक है।
उस दिन गांव में लेकिन कोई इकट्ठा नहीं हुआ था, बड़ा अजीब गांव रहा होगा। क्योंकि ऐसा कम ही होता है कि कहीं ज्ञान-सत्र हो और लोग इकट्ठे न हो जाएं। क्योंकि ज्ञान की पिपासा और ज्ञान की जिज्ञासा बहुत है।
लोग इस खयाल में हैं कि कहीं ज्ञान मिल जाएगा, वहां इकट्ठे हो जाते हैं। लेकिन उस गांव में लोग इकट्ठे नहीं हुए थे, वह दिन भर घूमता रहा था। लेकिन कोई नहीं मिला था कि उससे कुछ पूछता और वह कोई उत्तर देता। आखिर वह घबड़ा गया। सांझ होने को आ गई थी, रात उतरने लगी थी।
एक छोटा सा बच्चा एक मंदिर की तरफ दीये को जला कर ले जा रहा था। उसने उसको ही रोक लिया। जब कोई न मिले तो फिर कोई भी मिल जाए तो काम चल जाता है। उसने कहा, सुन? तुझसे मुझे एक बात पूछनी है। तू यह दीया कहां ले जा रहा है?
उस बच्चे ने कहा, मैं मंदिर में चढ़ाने जा रहा हूं। उस फकीर ने पूछा, क्या तू मुझे बता सकता है कि इस दीये में ज्योति कहां से आई? जानता था कि बच्चा क्या उत्तर देगा इसका, और उत्तर नहीं देगा तो फिर मैं कुछ सलाह देने का मौका पाऊंगा। मैं कुछ उत्तर दे सकूंगा।
लेकिन उसे पता नहीं था कि बच्चे कभी ऐसी बातें कर देते हैं कि बूढ़े चकित रह जाएं। उस बच्चे ने फूंक मार कर उस दीये को बुझा दिया और कहा, स्वामी जी, क्या आप बता सकते हैं कि ज्योति कहां चली गई? अगर आप बता सकते हों कि ज्योति कहां चली गई, क्योंकि बिलकुल अभी-अभी आंखों के सामने गई है। तो फिर मैं भी बता सकता हूं कि ज्योति कहां से आई थी?
उस फकीर को पता भी नहीं रहा होगा कि एक छोटे से बच्चे से ज्ञान हार जाएगा।
और मैं आपसे कहता हूं कि एक छोटे से बच्चे से भी ज्ञान हार जाता है। ज्ञान की कोई ताकत ही नहीं है। ज्ञान तो बिलकुल कमजोर, लचर।
वह फकीर उस बच्चे के चरणों में सिर रख दिया और उसने कहा, मैं बहुत ज्ञानियों के पास गया, उन सबने मुझे ज्ञान दिया, लेकिन तूने पहली दफा मेरा अज्ञान प्रकट कर दिया है और इस अज्ञान के क्षण में मैं इतनी ह्युमिलिटी, इतनी विनम्रता अनुभव कर रहा हूं, जिसकी मुझे कोई कल्पना भी न थी।
ज्ञान के क्षण में ईगो मजबूत होती है। जब कोई समझता है कि मैं जानता हूं, तो अहंकार मजबूत होता है। ज्ञान के अहंकार से बड़ा कोई अहंकार नहीं है। धन का भी अहंकार उतना बड़ा नहीं है, क्योंकि धन चोर चुरा कर ले जा सकते हैं। दिवाला निकल सकता है, सरकार बदल सकती है, हजार तरह की गड़बड़ें हो सकती हैं। धन डूब सकता है। लेकिन ज्ञान, ज्ञान को कोई भी नहीं छीन सकता। ज्ञान बड़ी सुरक्षित संपदा है।
इसलिए जो नासमझ हैं वे धन इकट्ठा करते हैं। जो ज्यादा कनिंग हैं वे ज्ञान इकट्ठा करते हैं, जो चालाक हैं वे ज्ञान इकट्ठा करते हैं। और वे जो चालाक हैं ज्ञान इकट्ठा करने वाले, वे धन इकट्ठा करने वालों से कहते हैं, पागलो तुम कहां की संपदा इकट्ठी कर रहे हो यह यहीं छूट जाएगी। हम जो इकट्ठी कर रहे हैं वह मृत्यु के उस पार जाएगी। जैसे कि ज्ञान मृत्यु के उस पार जाता हो।
पागल हो गए हैं, ज्ञान नींद में भी नहीं जाता, मृत्यु के उस पार जाने का तो कोई सवाल नहीं है। ज्ञान नींद में भी नहीं जाता। आप जो जानते हैं वह नींद में भी आपके साथ नहीं रह जाता। नींद में एक गंवार और एक पंडित बराबर हो जाते हैं। नींद में एक अज्ञानी और ज्ञानी बराबर हो जाते हैं। नींद में एक नेता और अनुयायी बराबर हो जाते हैं। नींद में एक पढ़ा-लिखा और गैर पढ़ा-लिखा बराबर हो जाते हैं। नींद में भी साथ नहीं जाता, वह जो हम इकट्ठा कर रहे हैं। मृत्यु में तो क्या साथ जाएगा?
लेकिन उस फकीर ने कहा कि तूने मेरे अज्ञान को प्रकट कर दिया और मैं अनुगृहीत हूं।
मैं उस जगह को मानता हूं कि वह धार्मिक जगह है जहां आपका अज्ञान प्रकट हो जाए। जहां आपको पता चल जाए कि हम नहीं जानते हैं। अगर आज आप यहां से यह अनुभव करके लौट सकें कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। अगर आपका विस्मय जग जाए, आपका बच्चा जीवित हो जाए, आपके भीतर वह छिपा हुआ जो बालक है, वह जो निर्दोष, जो नहीं जानता वह सजग हो जाए, वह चौंक कर जीवन को देखने लगे कि मैं तो नहीं जानता हूं, आपके भीतर का पंडित मर जाए तो आपके भीतर धार्मिक क्रांति की शुरुआत हो गई।
इसे मैं पहली सीढ़ी कहता हूं। मनुष्य के भीतर पंडित की मृत्यु और बालक का जन्म। पंडित और बालक, दो ही विरोधी हैं जगत में। ये दो एक्सट्रीम हैं।
एक बहुत बड़ा ज्ञानी, एक बहुत बड़ा ज्ञानी चीन में हुआ लाओत्से, लोग उससे मजाक में यह कहने लगे कि यह आदमी बूढ़ा ही पैदा हुआ है। फिर तो कहानी बढ़ती चली गई और लोग यह मानने ही लगे कि लाओत्से बूढ़ा ही पैदा हुआ था, सफेद बाल ही लेकर पैदा हुआ था। लोग पूछते थे, यह अफवाह क्यों फैल गई कि लाओत्से बूढ़ा पैदा हुआ है? तो लाओत्से के मां-बाप ने बताया कि यह पैदा होने के साथ ही ज्ञान की बातें करने लगा। तो लोग इसको बूढ़ा कहने लगे।
आदमी बूढ़ा पैदा हो सकता है। और हमारी यह तीन-चार हजार वर्षों की परंपरा ने बच्चे पैदा होने बंद कर दिए हैं। बच्चे बूढ़े ही पैदा होते हैं। क्योंकि जैसे ही वे पैदा हुए, हम उन्हें बूढ़ा बनाने की कोशिश में लग जाते हैं। ज्ञान देने की कोशिश में लग जाते हैं। उनके विस्मय को विकसित नहीं करते। उनमें ज्ञान थोपते हैं। उनके वंडर को, उनके आश्चर्य को नहीं जगाते। जानने का भाव, आई नो का खयाल पैदा करते हैं। और जो बच्चा जितने जल्दी दावेदार हो जाता है कि मैं जानता हूं, हम कहते हैं, यह बच्चा उतना ही बुद्धिमान है। यह सारी मनुष्य की जाति इसलिए विकृत होती चली गई है। यह विकृति ज्ञान के भ्रम पर खड़ी हुई है।
नहीं; सच में ही हम कुछ भी नहीं जानते हैं। जीवन बहुत अज्ञात, बहुत रहस्यपूर्ण है। नहीं हम कह सकते कि दीये की ज्योति कहां से आती है और न कह सकते कि कहां चली जाती है? नहीं हम कह सकते कि जीवन में श्वासें कहां से उपलब्ध होती हैं और कहां लीन हो जाती हैं? नहीं हम कह सकते कि लहरें उठती क्यों, क्यों शून्य हो जाती हैं? क्यों जीवन जागता? क्यों यह नृत्य और गीत और फिर क्यों मृत्यु और मरघट आ जाता है?
नहीं; हम कुछ भी नहीं कह सकते हैं। लेकिन आज तक इतने साहस के लोग पैदा नहीं हो सके जो यह मान लेते कि हम नहीं जानते हैं। आज तक इतने साहस के लोग नहीं पैदा हो सके जो मान लेते कि हम नहीं जानते हैं। अज्ञान की स्वीकृति इतने बड़े साहस की मांग करती है जिसका कोई हिसाब नहीं। ज्ञान का दावा तो कमजोर से कमजोर आदमी कर सकता है। लेकिन न जानने का दावा--दुनिया में जो बहुत बलशाली है केवल उनका ही भाग्य होता है।
सुकरात कह सकता था कि मैं नहीं जानता हूं। उपनिषद के ऋषि कह सकते थे कि ज्ञान अज्ञान से भी ज्यादा अंधकारपूर्ण रास्तों पर भटका देता है। बुद्ध कह सकते थे--सैकड़ों प्रश्नों के उत्तर में कि नहीं, मैं नहीं जानता हूं। इतना साहस यह जीवन के प्रति समादर है। यह न जानने का स्पष्ट बोध परमात्मा के प्रति सबसे बड़ा सम्मान है। यह इस बात की सूचना है कि जीवन हमसे बड़ा और विराट और अनंत है। और जीवन बड़ा और विराट और अनंत है; थोड़ा आंखें उठाएं और चारों तरफ देखें। लेकिन हमने एक ह्यूमन कार्नर बना रखा है। एक आदमी की अलग दुनिया बना रखी है। हम उसके बाहर आंखें ही नहीं उठाते। न हम चांद तारों की तरफ देखते हैं न सूरज की तरफ, न आकाश की तरफ। जहां अनंत हमारे चारों तरफ खड़ा है वहां हम आंख उठा कर देखते ही नहीं।
हमने तो एक आदमी की अपनी दुनिया बना रखी है। जैसे चींटियों की अपनी दुनिया है। चींटियों को पता भी नहीं होगा हमारा, चींटियों को पता भी नहीं होगा चांद तारों का, आदमी की जाति भी धीरे-धीरे चींटियों की जाति होती जा रही है। वे अपने काम में लगे हुए हैं--अपने धंधे में, अपनी रोटी में, अपनी रोजी में, अपने मकान में, अपनी समस्याएं हैं, अपने प्रश्न हैं, अपनी उलझनें हैं, उनको सुलझा रहे हैं और उनके चारों तरफ जो विराट जीवन फैला हुआ है उस तरफ उनकी न कोई दृष्टि है, न कोई खयाल है, न कोई ध्यान है। एक बार थोड़ा जीवन की तरफ आंख उठा कर देखें तो यह पता चलने में कठिनाई नहीं होगी कि हम कैसे जान सकते हैं।
किताबें हैं जो दावा करती हैं कि दुनिया कैसे बनी! किताबें हैं जो दावा करती हैं किस तारीख में बनी दुनिया! किताबें हैं जो दावा करती हैं कि भगवान ने दुनिया कितने दिनों में बनाई! किताबें हैं जो दावा करती हैं कि भगवान ने इसलिए दुनिया बनाई! पागलपन के सबूत हैं ये किताबें, आदमी की इनसेनिटी के। हम कैसे जान सकते हैं, हम तो सृष्टि के एक हिस्सा हैं, हम तो जीवन हैं, जीवन के हिस्से हैं। जीवन कैसे शुरू हुआ यह हम कैसे जान सकते हैं? क्योंकि जब जीवन शुरू होगा तब हम तो नहीं हो सकते थे। हम अपने से पहले तो नहीं हो सकते हैं।
हम जीवन की शुरुआत में तो नहीं हो सकते हैं, हम लौट कर वहां तो खड़े नहीं हो सकते जहां सृष्टि का उपक्रम शुरू हुआ हो। लेकिन नहीं, इसके दावेदार हैं और इसके दावेदार पंथ हैं, और संप्रदाय हैं, और गुरु हैं, और झगड़े हैं, और विवाद हैं। और आज तक मनुष्य-जाति यह नहीं कह पाई कि ये पागलपन की बातें बंद करो। आदमी कैसे जान सकता है कि दुनिया कैसे बनी? विश्व कैसे शुरू हुआ? क्योंकि यह तो कंट्राडिक्ट्री है यह बात ही।
मैं एक खिलौना बनाऊं। खिलौना बन कर तैयार हो जाए फिर क्या खिलौना जान सकता है कि मेरे बनने के पहले कैसी हालत थी। क्योंकि जब तक वह नहीं बना था तब तक वह नहीं था। और जब वह बन गया तब से वह है। वह अपने से पहले नहीं हो सकता, कोई भी अपने से पहले नहीं हो सकता। सृष्टि हमेशा एक रहस्य रहेगी क्योंकि उसके प्रारंभ को कभी भी नहीं जाना जा सकता है। और जिसके प्रारंभ को नहीं जाना जा सकता; क्या आप सोचते हैं उसके अंत को जाना जा सकता है? जिसके प्रारंभ को नहीं जाना जा सकता उसके अंत को कैसे जाना जा सकता है? क्योंकि अंत जब हो जाएगा तो हम नहीं होंगे।
हम अपने अंत के बाद कैसे हो सकते हैं? और मैं आपसे पूछता हूं कि जिसके प्रारंभ को नहीं जाना जा सकता, जिसके अंत को नहीं जाना जा सकता, क्या उसके मध्य को जाना जा सकता है? जिसके प्रारंभ को नहीं जाना जा सकता, जिसके अंत को नहीं जाना जा सकता, उसके मध्य को भी नहीं जाना जा सकता। जीवन हमेशा से एक रहस्य है और हमेशा एक रहस्य रहेगा। जीवन को ज्ञान बनाने की नासमझी छोड़ देनी उचित है। इसलिए पहली सीढ़ी मैं कहता हूं, ज्ञानियों के प्रति विद्रोह, रिबेलियन अगेंस्ट नालेज। और फिर यह आदि अंतहीन, सच में इसका प्रारंभ कैसे हो सकता है? जो है वह है। वह ना-कुछ से कैसे आएगा? जो है वह रहेगा, वह ना-कुछ कैसे हो जाएगा?
अंतहीन है समय की यात्रा। पीछे, और पीछे, और पीछे, वह क्षण कभी नहीं मिल सकता जहां हम कहें कि यहां से समय शुरू होता है, यहां से काल शुरू होता है। अनादि है, अनंत है। विस्तार भी असीम है। कहीं कोई सीमा नहीं जहां हम कह सकें, यह आ गई दुनिया की सीमा। क्योंकि यह पागलपन की बात है। यह विरोधाभास की बात है। क्योंकि जहां हम कहेंगे आ गई सीमा, सीमा हमेशा दो चीजों से बनती है: एक समाप्त होती है दूसरी शुरू होती है। जिसके आगे कुछ भी नहीं है वहां सीमा नहीं हो सकती। सीमा बनाने के लिए दूसरे का होना जरूरी है। मेरा घर जहां समाप्त होता है वहां कुछ और शुरू होता है इसलिए सीमा बन पाती है। लेकिन जगत कहीं ऐसी कोई जगह नहीं जहां सीमा आ जाए।
क्योंकि सीमा का मतलब ही होगा कि आगे फिर कुछ शेष है जो सीमा बना रहा है। फिर हम सीमा पर नहीं आए और आगे बढ़े, और आगे, और आगे, और आगे, क्या कभी हम उस जगह पहुंच पाएंगे जहां सीमा आ जाएगी। कभी भी नहीं पहुंच पाएंगे। सीमा इनहेरेंट कंट्राडिक्शन है। वह अंतर्विरोध है। कहीं कोई सीमा नहीं जगत की। जो असीम है क्या वह जाना जा सकता है? और इसके विस्तार का भी हमारी कल्पना में भी हम कल्पना भी नहीं कर सकते उतना विस्तार है इस जीवन का।
 सूरज हमसे कितनी दूर है। दस मिनट लगते हैं सूरज की किरण हम तक पहुंचने में और किरण बड़ी तीव्र यात्रा करती है। हम कल्पना भी नहीं कर सकते उतनी तीव्र, हम स्वप्न भी नहीं देख सकते उतने तीव्र। सूरज की किरण, प्रकाश की किरण एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील चल जाती है।
एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील। एक मिनट में इससे साठ गुना ज्यादा। एक घंटे में उससे साठ गुना ज्यादा। सूरज से दस मिनट लगते हैं, सूरज बहुत करीब है हमारे। लेकिन जो सूरज के बाद दूसरा सूरज है, दूसरा तारा हमसे सबसे ज्यादा निकट है उसे चार साल लग जाते हैं किरण आने में। और दूर सूरज हैं जिनसे साठ साल लगते हैं, हजार साल लगते हैं, लाख साल लगते हैं, करोड़ साल लगते हैं, अरब साल लगते हैं। ऐसे सूरज हैं पृथ्वी जब बनी होगी, कहते हैं पृथ्वी जब संगठित हुई होगी, पृथ्वी जब इस रूप में आई होगी। तब से चली हुई किरण अब तक नहीं पहुंच पाती दो अरब वर्ष से, और उसके आगे भी सूरज हैं, और उसके आगे भी, विज्ञान गिनती करता है तो कोई दो अरब सूरज की गिनती कर पाता है।
और आगे अभी हमारी गिनती नहीं जाती, हमारी सामर्थ्य नहीं जाती। आगे सूरज, और आगे सूरज, और आगे, यह विस्तार अंतहीन है और हम कहते हैं इसे हम जानते हैं। थोड़े से एक्वेनटेंस को, थोड़े से परिचय को हम ज्ञान समझ लेते हैं।
एक पति कहता है, मैं अपनी पत्नी को जानता हूं। क्योंकि वह तीस साल एक्वेनटेंस में रहा है, तीस साल परिचय में रहा है लेकिन कोई पति किसी पत्नी को कभी नहीं जानता। न कोई पत्नी किसी पति को जानती है, न कोई मां अपने बेटे को जानती है, न कोई बेटा अपने बाप को जानता है। हम सिर्फ परिचित होते हैं और परिचय को हम ज्ञान समझ लेते हैं। परिचय ज्ञान नहीं है। परिचय कुछ भी नहीं है। परिचय केवल कामचलाऊ है। जीवन की यात्रा में उपयोगी है और कुछ भी नहीं। विज्ञान एक परिचय है ज्ञान नहीं है।
पहले धर्मों ने यह भ्रम पैदा किया कि आदमी जानता है। फिर वही रोग विज्ञान के हाथों में आ गया और विज्ञान ने यह कोशिश की कि आदमी जानता है। विज्ञान और धर्म दोनों ने मिल कर मनुष्य-जाति के मन से आश्चर्य को नष्ट कर दिया। आज उसके भीतर कोई विस्मय का भाव नहीं रह गया। हम कभी विस्मय विमुग्ध होकर खड़े नहीं रह जाते, किसी फूल के पास कभी आप विस्मय विभोर होकर खड़े रह जाते हैं। कभी घड़ी भर को फूल रह जाता है, आप रह जाते हैं। कभी आकाश के तारों के पास आप विस्मय में डूबे खड़े रह जाते हैं। कभी जीवन किन्हीं आंखों से ऐसा झांकता है कि आप ठगे रह जाते हैं।
कुछ भी नहीं समझ पाते कभी सारी अंडरस्टैंडिंग को। सारी समझ को पार कर जाने वाली कोई किरणें आप तक पहुंचती हैं? अगर नहीं, तो धर्म आपके जीवन में नहीं उतर सकता है। धर्म उतरेगा विस्मय से, धर्म विस्मय के सेतु से ही आता है। विस्मय की आंखें चाहिए और विस्मय की आंखों के लिए ज्ञान को विदा देनी जरूरी है। ज्ञान को छोड़ें और विस्मय वापस उपलब्ध हो जाएगा। छोटे बच्चे की भांति आप जीवन को देख पाएंगे। फिर एक छोटा सा पत्थर भी चमकदार आंखों को खींच लेगा, हाथ रुक जाएंगे। धन्यवाद देने का मन होगा। फिर एक छोटा सा घास का फूल भी हवा में डोलता होगा और उसका नृत्य प्राणों को पकड़ लेगा और कोई अनजाने संदेश उससे उपलब्ध होने शुरू हो जाएंगे।
और पानी पर लहर डोलेगी और आपके प्राणों में भी कोई कंपन हो जाएगा। और किसी गीत की कोई कड़ी आकाश में गूंजेगी और आपकी प्राणों की वीणा पर भी कोई संगीत पैदा होने लगेगा। कुछ होगा जिसे शब्द नहीं दिए जा सकते, और जिसे गणित नहीं बनाया जा सकता। कुछ होगा जिसे बंधी हुई लीकों और रेखाओं में प्रकट नहीं किया जा सकता। और जब वह होने लगेगा तभी आपको पहली खबर आनी शुरू होगी कि परमात्मा है। परमात्मा के होने की खबर शास्त्र से नहीं आती, सिद्धांत से नहीं आती।
जीवन में विस्मय जब आपके प्राणों की वीणा को छेड़ता है, तब बस तब और कभी नहीं। तो विस्मय विमुग्धता को मैं पहला सूत्र कहता हूं। ज्ञान तथाकथित सो काल्ड नालेज, संगृहीत ज्ञान, शब्द और शास्त्र और सिद्धांत और यह खयाल की मैं जानता हूं। यह बीमारी आई नो, इस बीमारी को मैं पहली बाधा मानता हूं। इसको पार हो जाएं और विस्मय को उपलब्ध कर लें। वह है भीतर वह मौजूद है आप उसको दबा-दबा कर रोके हुए हैं। कोई बूढ़ा ऐसा नहीं जिसका विस्मय नष्ट हो गया हो। विस्मय नष्ट होता ही नहीं वह जीवन का हिस्सा है, केवल हम ज्ञान से उसे थोप देते हैं और दाब देते हैं। जैसे कोई अंगारे पर राख छा जाए, ऐसे हमारे विस्मय पर ज्ञान छा जाता है।
इसे झाड़ दें, इसे फूंक मार दें, इसे हवाओं में उड़ जाने दें और भीतर का वह चमकता हुआ अंगारा निकल आए जो जीवन को देखने लगे नई आंखों से। इसीलिए मैंने कहा, परंपराओं को जाने दें कल संध्या आपसे। क्योंकि परंपराएं आपका ज्ञान बन जाती हैं। मैंने आपसे कहा, अनुगमन मत करें, क्योंकि जब आप अनुयायी बनते हैं तब आप किसी ज्ञान की स्वीकृति को उपलब्ध हो जाते हैं कि वह ठीक है, तब आप किसी ज्ञान और शास्त्र को स्वीकार कर लेते हैं। तब आप राख इकट्ठी करने लगते हैं। और वह राख इकट्ठी हो जाएगी और फिर, फिर आपके और जीवन के बीच एक दीवाल खड़ी हो जाएगी। ज्ञान के अतिरिक्त जीवन और आपके बीच कौन सी दीवाल खड़ी है।
इसलिए इस ज्ञान के भ्रम को जाने दें, विदा होने दें। उपलब्ध कर लें अपने निर्दोष चित्त को, उस बच्चे को मरने न दें जो भीतर है। वह जीवन का बालक, वह चेतना का बालक, कभी बूढ़ा नहीं होता। अगर हम उसे बूढ़ा बनाने की कोशिश न करें तो वह मरते क्षण तक भी जागरूक, जानने को उत्सुक, पहचानने को आतुर, जिज्ञासा से भरने को तैयार।
सुकरात को जहर दिया गया। वह बच्चों की तरह आनंदित हो रहा है। उसके सारे मित्र इकट्ठे होकर रो रहे हैं और उसके एक मित्र क्रेटो ने कहा कि आप इतने, इतने उत्सुक होकर किस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सुकरात ने कहा, मैं देख रहा हूं जल्दी ही जहर आएगा, बाहर जहर घोटा जा रहा है, तैयार किया जा रहा है। उसकी आवाज मुझ तक आ रही है बहुत जल्दी जहर का प्याला आ जाएगा और मैं उसे पीऊंगा।
जीवन से तो मैं परिचित हो चुका अब मैं मृत्यु के दर्शन को जा रहा हूं। तो मेरा विस्मय बहुत तीव्र हो उठा है, मैं आश्चर्य से भर गया हूं कि मृत्यु कैसी है? एक अनुपम अवसर आ रहा है कि मैं मृत्यु को भी पहचान पाऊंगा, मृत्यु में प्रवेश करूंगा। इसलिए मैं आतुर हुआ जा रहा हूं। जैसे कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी से मिलने को आतुर हो। जैसे कोई अपने प्रियतम की बाट जोहता हो। ऐसा सुकरात दीवाना है। बार-बार झांक कर देख आता है कि जहर तैयार हो गया कि नहीं, समय हो गया कि नहीं।
फिर उसे जहर लाकर दिया गया। फिर उसने जहर पी लिया है, वह जहर पीकर लेट गया है। उसके मित्र रो रहे हैं और वह कह रहा है कि तुम क्यों रो रहे हो? क्योंकि अगर मेरे भीतर ऐसा कुछ भी नहीं था जो मृत्यु के पार नहीं बचेगा, तो मैं पहले भी मरा हुआ ही था। तब तो रोने की कोई जरूरत नहीं है। और अगर ऐसा कुछ था मेरे भीतर जो जीवन है, तो मृत्यु उसे कैसे ले जा सकेगी? तब भी रोने का कोई भी कारण नहीं है। या तो मैं बिलकुल मिट जाऊंगा और मिट जाऊंगा तो दुख की कोई गुंजाइश नहीं। तो तुम क्यों दुखी होते हो? जब मैं दुखी ही नहीं होऊंगा क्योंकि मैं मिट जाऊंगा और या फिर मैं बच रहूंगा और अगर बच रहूंगा तो दुखी क्यों होते हो? क्योंकि जब मैं बच ही रहूंगा तो दुख का कोई भी कारण नहीं।
यह आदमी आतुरता से विस्मय से मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। फिर जहर दे दिया गया और वह अपने मित्रों को कहने लगा मेरे पैर देखो ठंडे हुए जाते हैं, लगता है पैर गए। अब थोड़ी देर में घुटनों के ऊपर भी सब चला जाएगा।
फिर थोड़ी देर में मेरे हाथ भी ढीले होने लगे हैं और सुकरात कहने लगा कि पैर चले गए हैं, हाथ चले गए हैं, प्राणों तक सब शांत हुआ जा रहा है लेकिन मैं हूं। मुझे पता चल रहा है कि पैर चले गए, निश्चित ही पैर मुझसे अलग होंगे ऐसा मालूम पड़ता है। यह खोज है, यह जिज्ञासा है, यह विस्मय है जो इस क्षण में भी, मृत्यु के क्षण में भी, तटस्थ किनारे पर खड़ा होकर देखने के लिए आंखें खुली रखे है, उत्सुक है, उसने मान नहीं लिया है कि आत्मा अमर है, उसने मान नहीं लिया है कि आत्मा मर जाती है, मरणधर्मा है।
वह देखने को आतुर जरूर है कि क्या होता है? क्या है रहस्य? लेकिन हम या तो मान लेते हैं कि आत्मा मरणधर्मा है। तथाकथित नास्तिक उनका भी एक ज्ञान है, उनके भी शास्त्र हैं। चार्वाक से लेकर माक्र्स तक उनके भी गुरु और ऋषि-मुनि हैं। उनकी अपनी परंपरा है। दूसरी तरफ वे लोग हैं जो मान लेते हैं आत्मा अमर है, इनके अपने शास्त्र हैं, इनके अपने ऋषि-मुनि हैं। लेकिन दोनों मान लेते हैं और कोई भी जानने के लिए तैयार नहीं है।
विस्मय चाहिए बिना किसी पक्ष के, बिना कुछ तय किए जीवन को देखने की क्षमता चाहिए। मन हो खुला, मुक्त, अनबंधा, जंजीरें न हों कि जीवन जहां ले जाए हम जा सकें।
लाओत्से कहता था: जब मैं ज्ञान की यात्रा पर निकला, जब मैं जीवन को जानने निकला--तो मैं एक सूखे पत्ते की भांति हो गया। हवाएं जहां ले जातीं चला जाता। हवाएं नीचे गिरा देतीं तो गिर जाता, हवाएं आकाश में उठा देतीं तो उठ जाता। फिर मेरा अपना कोई आग्रह न रहा। मैं एक सूखा पत्ता हो गया। जीवन की हवाएं जहां ले जातीं मैं वहीं चला जाता। गिरा देतीं हवाएं तो पड़ा रह जाता वृक्षों के नीचे, उठा देतीं आकाश में तो उठ जाता । हवाओं पर सवारी भी करता, जमीन की धूल में भी पड़ा रहता, पूरब तो पूरब, पश्चिम तो पश्चिम, दक्षिण तो दक्षिण, उत्तर तो उत्तर जहां हवाएं ले जाने लगीं मैं जाने लगा।
मेरी कोई क्लिंगिंग, मेरा कोई पकड़, मेरा कोई आग्रह न रहा। मैं कच्चा पत्ता न रहा जो झाड़ से अटका रहता। हवाएं हिला तो जाती हैं उसे लेकिन हवाएं चली जाती हैं वह फिर अपनी जगह रह जाता है।
हम सब कच्चे पत्तों की भांति हैं, अपने-अपने ज्ञान की जड़ से जकड़े हुए, अपने-अपने ज्ञान की झाड़ को पकड़े हुए। जीवन की हवाएं हिला जाती हैं। लेकिन हम मजबूरी में हिलते हैं। जबरदस्ती हिलते हैं। परेशानी में हिलते हैं। जीवन की हवाओं के विरोध में हिलते हैं। मजबूरी है हिल लेते हैं, हवाएं निकल जाती हैं, हम फिर अपनी जगह खड़े रह जाते हैं।
अस्सी साल जीवन की हवाएं हिलाएंगी और हम अपनी ही जगह रह जाएंगे। जहां हम जन्म के समय थे। ठीक मरते वक्त वहीं। हममें कोई, कोई क्रांति, कोई रूपांतरण, कोई ट्रांसफार्मेशन नहीं होगा क्योंकि हम सूखे पत्ते की भांति नहीं। हवाएं जहां ले जाती हैं चला जाता है।
जिज्ञासा है सूखे पत्ते की भांति, विस्मय है सूखे पत्ते की भांति, वह कहीं अटका नहीं; हमेशा हर जगह जाने को तैयार है। और ज्ञान है हरे पत्ते की भांति, वृक्ष से जकड़ हुआ, पकड़ा हुआ; हवाओं के साथ उड़ने को राजी नहीं। क्या आप एक हरे पत्ते ही बने रहेंगे या सूखे पत्ते बनने की सामर्थ्य है? इस प्रश्न पर आज की बात मैं पूरी कर देता हूं।
कल और परसों हम दूसरे और तीसरे सूत्र पर बात करेंगे।
मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना, परमात्मा करे ये बातें कहीं आपका ज्ञान न बन जाएं। यह आपके भीतर अज्ञान को दिखाएं, तो, तो ठीक और अगर यह आपके लिए ज्ञान बन जाएं तो फिर मैं भी आपका एक शत्रु हो जाता हूं। और शत्रुओं की लंबी परंपरा है उसमें मैं सम्मिलित होने के लिए उत्सुक नहीं हूं।

मेरे बातों को इतने प्रेम से सुना उससे अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर अज्ञात, अनजान बैठे परमात्मा के लिए प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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