दसवां प्रवचन
माटी कहै कुम्हार सूं
माटी कहै कुम्हार सूं
प्रिय
आत्मन्!
एक
छोटी सी कहानी से मैं अपने आज की बात शुरू करना चाहूंगा।
एक नया
मंदिर निर्मित हो रहा था,
सैकड़ों मजदूर उसे बनाने में
लगे थे। नये पत्थर तोड़े जा रहे थे,
नई मूर्तियां बनाई जा रही
थीं। एक कवि भी भूला-भटका हुआ उस मंदिर के पास से गुजर गया। उसने एक पत्थर तोड़ते
मजदूर से पूछा कि मेरे मित्र,
क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने क्रोध से भरी हुई आंखें ऊपर
उठाई, तो उसकी आंखों में जैसे आग जलती हो और उतने
ही क्रोध से उसने कहा, क्या तुम अंधे हो? तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता कि मैं क्या कर रहा
हूं? मैं पत्थर तोड़ रहा हूं। और वापस उसने पत्थर
तोड़ना शुरू कर दिया। वह जैसे पत्थर न तोड़ता हो पूरे जीवन से बदला ले रहा हो, वह जैसे पत्थर न तोड़ता हो किसी प्रतिशोध में
हो।
वह कवि
आगे बढ़ गया और थोड़ी दूर पर दूसरे मजदूर से उसने पूछा, वह मजदूर भी पत्थर तोड़ रहा था, उसने उससे पूछा कि मेरे मित्र, क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने अपनी उदास आंखें ऊपर उठाईं, उस कवि को देखा और फिर कहा, बच्चों के लिए रोटी-रोजी कमा रहा हूं। और
उतनी ही उदासी से उसने फिर पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया। जैसे जिंदगी में उसके कोई रस
न हो, कोई आनंद न हो, कोई गीत न हो, जिंदगी
में उसके कोई सौंदर्य न हो,
कोई संगीत न हो, कोई सुख न हो। जीवन जैसे एक बोझ हो जिसे
ढोना है और ढोए चले जाना है और समाप्त हो जाना है।
उसका
पत्थर तोड़ना ऐसा था, जैसा एक बोझ को कोई खींचता हो असमर्थता में, बेबसी में, मजबूरी
में, जिस बोझ से बचने का कोई उपाय न हो, ऐसे वह पत्थर तोड़ रहा था। वह कवि आगे बढ़ गया
और उसने तीसरे मजदूर से पूछा वह मजदूर भी पत्थर तोड़ रहा है। लेकिन वह पत्थर भी तोड़
रहा है और गीत भी गा रहा है। उसकी आंखों में जैसे एक चमक है, एक खुशी है, उसके
प्राणों में जैसे कोई सुगंध है। वह जैसे किसी लोक में नृत्य कर रहा है। उस कवि ने
उससे भी पूछा कि मेरे मित्र,
क्या कर रहे हो? उसने हंसती हुई आंखें ऊपर उठाईं और जैसे
उसके शब्दों से फूल झर रहे हों,
उसने कहा, भगवान का मंदिर बना रहा हूं।
वे तीन मजदूर, तीनों
ही पत्थर तोड़ते थे। वे तीनों ही एक ही काम करते थे लेकिन उनके काम को देखने की
दृष्टि भिन्न थी। एक क्रोध,
दुख और पीड़ा में। एक उदासी
में, बोझ में, अर्थहीनता
में। एक आनंद में, किसी मग्नता में, किसी समर्पण में। एक पत्थर तोड़ रहा था, एक रोटी-रोजी कमा रहा था, एक प्रभु का मंदिर बना रहा था। पत्थर तोड़ना
आनंद का काम कैसे हो सकता है और रोटी-रोजी कमाने में नृत्य कहां से आएगा, संगीत कहां से आएगा, लेकिन प्रभु का मंदिर बनाना निश्चित ही आनंद
हो सकता है।
इस
कहानी से इसलिए शुरू करना चाहता हूं कि जीवन के मंदिर में भी तीन तरह के लोग ही
होते हैं। जीवन के मंदिर को बनाने में भी तीन तरह के मजदूर होते हैं। हम किस भांति
के मजदूर हैं? हम पत्थर तोड़ रहे हैं, रोटी-रोजी कमा रहे हैं या प्रभु का मंदिर
बना रहे हैं। और स्मरण रहे कि हम जीवन को जिस भांति देखना शुरू करते हैं जीवन वैसा
ही हो जाता है। जीवन अपने आप में बिलकुल कोरी स्लेट है। हमारी दृष्टि उस पर कुछ
लिखना शुरू करती है और वही लिख जाता है। जीवन कोरा कागज है, हमारे प्राण उस पर थिरकते हैं और कुछ लिख
जाते हैं, वही हमारी कथा हो जाती है, वही हमारा जीवन हो जाता है। जीवन लेकर हम
पैदा नहीं होते जीवन को हम रोज निर्मित करते हैं। जीवन जन्म के साथ नहीं मिलता, मृत्यु के साथ उपलब्ध होता है। जीवन एक लंबी
यात्रा है और इस लंबी यात्रा में रोज हम जैसा देखते हैं और जैसा निर्मित करते हैं
वैसा ही निर्मित होता चला जाता है।
सारी
दुनिया लेकिन दुख से भरी है और आदमी के प्राण अंधेरे से भरे हैं। सब अर्थहीन
मीनिंगलेस मालूम होता है। सारे जगत में आदमी के प्राणों से गीत खो गए हैं। अर्थ खो
गया है, आनंद खो गया है, जीवन की पुलक खो गई है। क्यों खो गई है? क्या हो गया है?
एक बात
हो गई है--दुर्भाग्यपूर्ण,
हजारों साल की शिक्षा ने
मनुष्य को दुखी होना सिखा दिया है। मनुष्य की दृष्टि को दुख से भर दिया है। आज तक
पृथ्वी पर जीवन के आनंद को स्वीकार करने वाली शिक्षा पैदा नहीं हो सकी है। जीवन का
विरोध करने वाली, जीवन का निषेध करने वाली, जीवन की निंदा करने वाली, जीवन को दुखपूर्ण सिद्ध करने वाली, जीवन छोड़ देने योग्य है यह समझाने वाली, जीवन के बाहर कहीं कोई मोक्ष है वहां चले
जाना है, जीवन से मुक्त हो जाना है। ऐसा सिखाने वाली
शिक्षा तो पृथ्वी पर रही। लेकिन पृथ्वी के जीवन को ही मोक्ष बना लेना, जो उपलब्ध है उसे ही आनंद में परिवर्तित कर
लेना--ऐसा विज्ञान, ऐसी शिक्षा उत्पन्न नहीं हो सकी। इसलिए
मनुष्य की यह दुर्दशा हो गई है। इस दुर्दशा में अतीत में दी गई दुखपूर्ण शिक्षा का
हाथ है।
हजारों
साल से एक ही बात आदमी के मन पर ठोकी जा रही है कि जीवन व्यर्थ है, असार है, माया
है, बुरा है, छोड़
देने योग्य है, जीवन पाप है। केवल वे ही लोग पैदा होते हैं
जिन्होंने पाप किए हैं। जो पाप नहीं करते वे जन्म नहीं लेते हैं वे मुक्त हो जाते
हैं। पापी पैदा होते हैं,
जीवन पापियों की जगह है और जो
पुण्यात्मा हैं वे मोक्ष चले जाते हैं। वे जीवन में वापस नहीं लौटते।
यही
सिखाया जा रहा है कि आवागमन से मुक्त हो जाओ। जीवन से छूट जाओ, जीवन है जंजीर, जीवन से मुक्त हो जाओ। यह शिक्षा इतनी
विषाक्त, इतनी पायज़नस, इतनी
जहरीली है जिसका कोई हिसाब नहीं। और अगर इसने पूरी मनुष्यता के प्राणों से सारा
आनंद छीन लिया हो तो कोई आश्चर्य नहीं। यह होने ही वाला था। और एक बड़ा मजा है, आदमी के तर्क हमेशा विसियस सर्कल का रूप ले
लेते हैं, हमेशा दुष्चक्र बन जाता है।
जीवन
दुखपूर्ण है इसलिए नहीं की जीवन दुखपूर्ण है, इसलिए
कि हम जीवन को आनंदपूर्ण बनाने की क्षमता और पात्रता उपलब्ध नहीं कर पाते। जीवन
दुखपूर्ण है इसलिए नहीं कि जीवन का स्वभाव दुख है, जीवन
दुखपूर्ण है क्योंकि हम दुख भरी आंखों से जीवन को देखने कि कोशिश करते हैं। हमारी
दृष्टि की दुख भरी छाया सारे जीवन को अंधकारपूर्ण कर देती है।
एक
अंधा आदमी खड़ा हो, सूरज निकला हो, रोशनी बरस रही हो, अंधे आदमी के लिए कोई रोशनी नहीं है, वह कहेगा, घनी
अंधेरी रात है, अमावस मालूम होती है। सूरज का कोई कसूर नहीं, लेकिन अंधा आदमी, उसके पास आंख नहीं। लेकिन अंधे आदमी को
क्षमा किया जा सकता है, उसका कसूर क्या उसके पास आंख नहीं। लेकिन
जीवन के आनंद को न देख पाने में हम अंधे नहीं हैं, आंख
वाले लोग आंख बंद किए हुए खड़े हैं। अंधे भी होते तो हमें क्षमा किया जा सकता था।
आंख है और आंख बंद किए हुए खड़े हैं। एक दुष्चक्र पैदा हुआ है। जीवन दुखपूर्ण मालूम
होता है क्योंकि जीवन को आनंद से कैसे देख पाएं उसकी कला का हमें कोई बोध नहीं।
एक घर
में मैंने सुना है, सैकड़ों वर्षों से एक वीणा रखी हुई थी। वह
वीणा घर में एक उपद्रव थी क्योंकि घर में जब भी कोई गंभीर बात चलती होती, कोई बच्चा उस वीणा को छेड़ देता और बूढ़े
नाराज होते कि यह शोरगुल क्यों मचा रखा है। बंद करो यह। घर में जब भी कोई मेहमान
आता तो वीणा छिपा दी जाती कि कहीं कोई बच्चा उसके तारों को न छेड़ दे। फिर घर के
लोग तंग आ गए, कोई पूजा करता होता बच्चे वीणा छेड़ देते, कोई बच्चा वीणा को गिरा देता, घर झनकार से भर जाता, बड़ा डिस्टरबेंस मालूम होता। रात लोग सोए
होते, चूहे दौड़ जाते, बिल्लियां दौड़ जातीं, वीणा गिर जाती, आवाज हो जाती, घर में
कोलाहल हो जाता, नींद टूट जाती।
फिर
आखिर घर के लोगों ने तय किया कि इस वीणा को यहां से हटा देना उचित है। यह बड़े
उपद्रव की चीज हो गई है। और उन्होंने एक दिन घर के बाहर सुबह ही सुबह वीणा को ले
जाकर कचरे घर में डाल दिया। वे घर में वापस भी नहीं लौट पाए थे कि उनके पीछे ही
कोई अदभुत स्वरों की लहरी घर के भीतर प्रविष्ट होने लगी, कोई भिखारी रास्ते से गुजरता था उसने वीणा
उठा ली और बजाने लगा है। वे ठगे रह गए, वे
वापस लौट आए घर के लोग और उन्होंने देखा कि उस कूड़े घर के वृक्ष के पास बैठ कर कोई
भिखारी वीणा बजा रहा है। उनकी आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने उस भिखारी से कहा, क्षमा करना? हमें
पता नहीं था कि वीणा में इतना संगीत छिपा है। हमारे घर में तो एक उपद्रव का कारण
थी यह इसलिए हम इसे बाहर फेंक गए। तुमने हमारी आंखें खोल दी हैं। लेकिन उस भिखारी
ने कहा, वीणा में कुछ भी नहीं छिपा है। जैसी
अंगुलियां लेकर आदमी वीणा के पास जाता है वही वीणा से प्रकट होने लगता है।
जीवन
की वीणा में भी कुछ भी नहीं छिपा है। हम जैसी अंगुलियां लेकर, जैसी दृष्टि लेकर जीवन के पास जाते हैं वही
जीवन से प्रकट होने लगता है। हमारी अपात्रता है कि हम आनंद को जन्म नहीं दे पाते, वीणा से संगीत पैदा नहीं कर पाते; दोष वीणा को देते हैं। इस दोष से कोई वीणा
से संगीत पैदा नहीं हो जाएगा। इस दोष से एक बात भर होगी कि जो अंगुलियां कुशल हो
सकती थीं, वे कभी कुशल नहीं हो पाएंगी, क्योंकि दोष उस पर थोप दिया गया जिसका दोष न
था। अंगुलियां थीं गैर-कुशल,
अकुशल और वीणा दोषी हो गई।
मनुष्य
पात्रता पैदा नहीं कर पाया कि जीवन से संगीत उत्पन्न हो जाए। और दोष दे दिया जीवन
को कि जीवन है असार, जीवन है व्यर्थ, जीवन है दुख, जीवन
है नरक, जीवन है छोड़ देने योग्य। और जब जीवन को छोड़
देने योग्य समझ लिया गया,
जब वीणा को हम कचरे घर पर
फेंक आए, तो अगर वीणा टूट जाए और अगर असार हो जाए, और अगर वीणा के तार बिखर जाएं तो आश्चर्य
क्या है?
हजारों
साल से जीवन उपेक्षित है,
तो जीवन दुखपूर्ण होता चला
गया और जब जीवन दुखपूर्ण होता चला गया तो हमारी शिक्षा सही मालूम होने लगी कि ठीक
थे वे लोग जो कहते थे जीवन गलत है,
जीवन बुरा है। ऐसा विसियस
सर्कल पैदा हो गया। शिक्षा ठीक मालूम होने लगी क्योंकि लोग ठीक थे।
यह
शिक्षा गलत है और यह चक्र भी गलत है। धर्म असफल होता चला गया क्योंकि धर्म का एक
गलत एसोसिएशन हो गया, धर्म का एक गलत संबंध हो गया। दुखवादी
शिक्षकों से धर्म के संबंध हो जाने के कारण दुनिया अधार्मिक हो गई। आनंद और आनंद
की स्वीकृति जिनके मन में है वे ही लोग सम्यक धर्म को पृथ्वी पर वापस उतार सकते
हैं।
लेकिन
जो लोग दुखी हैं, पीड़ित हैं, चिंतित
हैं, विक्षिप्त हैं जिन्हें जीवन से कोई संगीत
पैदा करने की क्षमता नहीं,
वे सारे लोग क्रोध में, प्रतिशोध में, जीवन
को गाली देते हैं और जीवन को ही इनकार करने लगते हैं। यह हमारी सहज आदत है, यह हमारी आदत का हिस्सा है कि जब भी हम दोष
देते हैं तो अपने को बचा लेते हैं दोष हमेशा दूसरे को दे देते हैं।
दो
आदमी लड़ते हैं और दोनों तय करते हैं कि दूसरा जिम्मेवार है मैं जिम्मेवार नहीं
हूं। जीवन से एक निरंतर हमारा संघर्ष चल रहा है और हमेशा हम जीवन को जिम्मेवार
ठहरा देते हैं अपने को बचा लेते हैं। लेकिन इससे जीवन का कुछ भी नहीं बिगड़ता हमारा
सब कुछ नष्ट हो जाता है। जीवन दुख नहीं है, हमारे
देखने की दृष्टि कहीं भूल भरी है,
हम गलत जगह से खड़े होकर देख
रहे हैं। हमारी अपनी देखने की क्षमता भ्रांत, उस
भ्रांत क्षमता के कारण सब भ्रांत दिखाई पड़ता है।
एक
संध्या एक राजमहल में उस गांव के कुछ प्रतिष्ठित लोगों को भोजन पर आमंत्रित किया
गया था। गांव का एक बूढ़ा धनपति वह भी आमंत्रित था। वह सज-धज कर तैयार हो गया, उसकी बग्गी जुत कर तैयार हो गई, वह बैठने को था तभी उसे खयाल आया कि उसकी
नास की डिबिया खाली है, उसने सोने की डिबिया निकाली और अपने लड़के को
कहा, तू शीघ्र जा, अच्छी
से अच्छी नास स्नफ खरीद ला,
इस डिब्बी को भरवा ला।
उसे
पांच रुपये दिए, वह लड़का भागा बाजार की तरफ, लेकिन रास्ते में एक खिलौनों की दुकान पर एक
नई छोटी खिलौना गाड़ी आई थी,
उसके दाम पांच ही रुपये थे और
उस बच्चे का मन लालच से भर गया। बूढ़ों के मन तक खिलौनों के प्रति लालच से भर जाते
हैं तो बच्चों का क्या? उस बच्चे का मन लालच से भर गया, वह लोभ से जाकर खड़ा हो गया दुकान पर। उसके
पास पांच रुपये थे। उसने पांच रुपये दे दिए और खिलौना गाड़ी खरीद कर वापस लौटने लगा, लेकिन तब उसे खयाल आया कि घर जाकर तो बहुत
मुसीबत हो जाएगी।
नास
कहां है? डिब्बी खाली है और पिता तैयार खड़े हैं
राजमहल जाने को। क्या करूं?
क्या न करूं? तभी उसे रास्ते के किनारे घोड़े की लीद का
ढेर पड़ा हुआ दिखाई पड़ा, उसने थोड़ी सी लीद उठा कर उस डिब्बी में भर
दी। रंग बिलकुल एक जैसा था और देखने से पहचानना कठिन था कि क्या है। जाकर उसने
पिता के हाथ में डिब्बी दे दी,
उन्होंने देखी, डिब्बी भरी थी, खुश, उन्होंने
डिब्बी खीसे के भीतर रख ली।
वे
राजमहल पहुंच गए। फिर भोजन का पहला दौर चला, राजा
के पास ही वह धनपति बैठा था। दौर के बाद उसने अपनी सोने की डिबिया निकाली और राजा
को कहा कि थोड़ी सी नास लेंगे। लेकिन राजा ने कहा, अभी नहीं, थोड़ी देर बाद। तब उसने बड़ी चुटकी भरी और खुद
नास ली। लेकिन नास लेते ही से उसने बड़ी ससपीसियस नजर से चारों तरफ देखा, बड़ा सूंघ कर पहचानने की कोशिश की--कि मामला
क्या है? फिर उसने राजा से कहा, क्या आपको घोड़े की लीद की बास तो नहीं आती
है कहीं? इट सीम्स फनी! बड़ा अजीब सा लगता है! डू यू
स्मेल हार्स डंग? राजा ने कहा, नहीं-नहीं, यहां राजमहल में घोड़े की लीद की बास कहां!
फिर उसने डिब्बी बंद रख ली। लेकिन वह बार-बार सूंघ कर देखता रहा कि कहीं से घोड़े
की लीद की बास चली आती है।
फिर दूसरा भोजन का दौर चला, उसने बाद में फिर डिबिया निकाली, राजा को कहा, अब आप
लेंगे? राजा ने अब की बार इनकार करना ठीक न समझा, उसने भी बड़ी चुटकी भरी और जोर से नास ली।
नास लेते ही से वह भी फिर संदेह भरी नजरों से चारों तरफ झांकने लगा और उसने कहा कि
आपकी नास बड़ी अदभुत मालूम होती है। मुझे भी घोड़े की लीद की सुगंध आने लगी।
उस भवन
में और भी बहुत मेहमान थे,
अगर उस नास को वे सभी सूंघ
लेते तो उन सभी को उस भवन में घोड़े की लीद की दुर्गंध आने लगती। लेकिन वह कसूर उस
भवन का न था। वह नास न थी,
घोड़े की लीद ही थी।
इस
सारे जीवन में चारों तरफ दुख दिखाई पड़ रहा है। यह जीवन की दुर्गंध नहीं है, यह हमने कोई दुख भरी शिक्षा की नास अपनी नाक
में भर रखी है। चारों तरफ हमें दुर्गंध मालूम पड़ रही है, चारों तरफ दुख मालूम पड़ रहा है। फिर जिसको
दुख मालूम नहीं पड़ता हम कहते हैं,
तुम अभी नासमझ हो, जरा थोड़े दिन जिंदगी में जीओगे तो पता चल
जाएगा। अभी जवान हो अभी होश नहीं,
जब बूढ़े होओगे तब पता चलेगा
कि जिंदगी असार है। बूढ़े होतेऱ्होते तक वह भी नास चख लेगा, वह भी उन्हीं शास्त्रों को पढ़ लेगा और
उन्हीं शिक्षकों के चरणों में बैठ जाएगा, वह भी
उन मंदिरों और मस्जिदों में हो आएगा, जहां
वह नास दुख की बिक रही है सारी दुनिया पर। बूढ़े होतेऱ्होते तक बचना बहुत मुश्किल
है। बच्चे बच जाते हैं, थोड़े-बहुत दिन तक जवान बच जाते हैं, लेकिन बूढ़ा होतेऱ्होते तक बचना मुश्किल है।
भोजन
के एक दौर पर नास मत सूंघिएगा,
दूसरे दौर पर मत सूंघिएगा।
लेकिन कोई अगर पूछता ही चला जाएगा कि नास लेंगे, नास
लीजिएगा, फिर नास ले ही लेंगे आप और पता चलेगा कि अरे
यह सारी जिंदगी बड़ी दुखपूर्ण मालूम पड़ रही है। शिक्षाएं दुख भरी आदमी की छाती पर
भारी पड़ गई हैं। और तरकीब है जीवन को दुख सिद्ध किया जा सकता है। जीवन को कुछ भी
सिद्ध किया जा सकता है।
और एक
बात स्मरण रखना आप, जो लोग अपने आनंद में लीन होते हैं उन्हें
इसकी फिक्र ही नहीं होती कि वे किसी के सामने सिद्ध करने जाएं कि जीवन आनंद है।
कभी आपको पता चला? जब आप स्वस्थ होते हैं तो आपको पता भी नहीं
चलता कि आप स्वस्थ हैं। जब आप आनंदित होते हैं तो आपको पता भी नहीं चलता कि आप
आनंदित हैं। जब आप प्रेम से परिपूर्ण होते हैं तो आपको पता भी नहीं चलता कि आप
प्रेम से भरे हैं। लेकिन जब आप बीमार होते हैं तो पता चलता है कि मैं बीमार हूं।
स्वस्थ होते हैं तो पता नहीं चलता। जो आदमी आनंद में होता है उसे पता ही नहीं चलता
कि वह आनंद में है। उसे यह खयाल भी नहीं आता कि वह सिद्ध करे कि जीवन आनंद है।
जीवन आनंद है इसे सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
लेकिन
जो लोग दुख में भरे होते हैं उनके सामने विकल्प हो जाता है खड़ा--या तो वे यह मान
लें कि वे गलत हैं इसलिए जीवन दुखपूर्ण मालूम पड़ रहा है या वे यह सिद्ध कर दें कि
जीवन दुखपूर्ण है और तब अपनी आत्म-आलोचना से बच जाएं। तो दुखी आदमी सिद्ध करने
निकल पड़ता है कि जीवन दुखपूर्ण है।
आनंदित
लोग सिद्ध करने नहीं जाते कि जीवन आनंदपूर्ण है। इसलिए आनंद की शिक्षा विकसित नहीं
हो सकी। दुख की शिक्षा विकसित हो सकी। दुख कि शिक्षा इसलिए विकसित हो सकी कि दुख
के लिए कोई आर्ग्युमेंट चाहिए,
कोई वजह चाहिए। दुख को बिना
वजह कोई भी स्वीकार करने को राजी नहीं है। आनंद को तो बिना वजह हम स्वीकार करते
हैं, जब आप आनंदित होते हैं तब आप पूछते हैं किसी
से कि आनंद क्यों है। कोई नहीं पूछता कि आनंद क्यों है? आनंद सहज स्वीकृत है उसके लिए कोई कॉजलिटी
नहीं मांगता। जब आप स्वस्थ होते हैं तब आप पूछते हैं किसी से जाकर कि मैं स्वस्थ
क्यों हूं? आप स्वास्थ्य को स्वीकार कर लेते हैं। कोई
आर्ग्युमेंट, कोई प्रूफ, कोई
प्रमाण की, किसी शास्त्र की, किसी शिक्षक की, किसी शास्ता की कोई भी जरूरत नहीं कि जीवन
स्वस्थ क्यों है? आनंद क्यों है?
लेकिन
जब आप बीमार होते हैं तो आप पूछते हैं मैं बीमार क्यों हूं? कॉजलिटी क्या है? कारण क्या है? जब
आदमी दुखी होता है तो पूछता है कि मैं दुखी क्यों हूं? दो ही कारण हो सकते हैं, या तो मैं गलत आदमी हूं और या फिर जीवन दुख
है, लेकिन मैं गलत आदमी हूं यह अहंकार को
स्वीकार नहीं होता। फिर एक ही रास्ता रह जाता है कि जीवन ही ऐसा है कि उसमें दुख
होगा। इसमें मेरा और तेरा सवाल नहीं, जीवन
दुख है। इसलिए जीवन को दुख सिद्ध करने की चेष्टा चलती है और जीवन को दुखी सिद्ध
करने के लिए दलीलें खोजी जाती हैं,
तरकीबें खोजी जाती हैं, प्रमाण खोजे जाते हैं।
यह
आश्चर्यजनक है लेकिन सत्य है कि जीवन जब भी वैसा होता है जैसा होना चाहिए तो हम
उसे जीते हैं। हम सिद्ध करने की चिंता में नहीं पड़ते हैं। लेकिन जीवन जब वैसा हो
जाता है जैसा नहीं होना चाहिए,
तो हम सिद्ध करने की कोशिश
करते हैं, फिर जीने का तो कोई उपाय नहीं रह जाता है।
आनंद में जो हैं वे जीवन को जीते हैं। दुख में जो हैं वे जीवन को दुख है ऐसा सिद्ध
करते हैं। और एक विकल्प यह था कि वे स्वीकार करते हैं कि मैं कुछ भूल में हूं, मैं कुछ भ्रांत हूं, मेरी कोई गलती है। लेकिन इसे कोई मानने को
तैयार नहीं होता।
एक
छोटा सा गांव। एक सुबह ही सुबह मैं उस गांव के द्वार पर खड़ा हूं। अभी गांव जगने के
करीब है एक बूढ़ा आदमी गांव का,
गांव के बाहर बैठा है। एक
बैलगाड़ी आकर रुक गई है और उस बैलगाड़ी का मालिक पूछता है उस बूढ़े से मैं इस गांव
में निवासी बनना चाहता हूं,
क्या बता सकते हैं इस गांव के
लोग कैसे हैं? उस बूढ़े ने नीचे से ऊपर तक उस गाड़ी के सवार
को देखा है और फिर कहा, इसके पहले कि मैं कुछ कहूं, मैं जान लेना चाहूंगा कि तुम जिस गांव को
छोड़ कर आ रहे हो उस गांव के लोग कैसे थे? क्योंकि
बिना उस गांव के बाबत जाने इस गांव के बाबत कुछ भी बताना बहुत मुश्किल है।
मैं भी
हैरान हो गया हूं, वह गाड़ी का सवार भी हैरान हो गया है। उस
गांव से क्या संबंध इस गांव के लोगों का? जिस
गांव को वह आदमी छोड़ कर आ रहा है उस गांव के बाबत जानने कि क्या जरूरत इस गांव के
बाबत में बताने के लिए? लेकिन वह बूढ़ा बहुत समझदार है। उस आदमी ने
यह सुनते ही कि उस गांव की चर्चा की गई, प्रश्न
पूछा गया, वह क्रोध से भर गया और उस आदमी ने कहा कि
क्षमा करें? उस गांव की याद न दिलाएं, मेरा खून खोल जाता है, उस गांव जैसे दुष्ट लोग पृथ्वी पर कहीं भी
नहीं हैं। उन दुष्टों के कारण ही तो मैं उस गांव को छोड़ कर आ रहा हूं और कसम खाई
है भगवान के मंदिर में।
भगवान
के मंदिर का उपयोग लोग कसमें खाने के लिए ही करते हैं और किसी काम के लिए करते भी
नहीं। कसम खाई है कि जब तक उस गांव को जलवा नहीं दूंगा, तब तक चैन से नहीं रहूंगा।
उस
बूढ़े आदमी ने कहा, मेरे मित्र गाड़ी पर सवार हो जाओ, मैं सत्तर साल से इस गांव को जानता हूं, इस गांव के लोग उस गांव से भी बदतर हैं, इस गांव में ठहरने की कोई जरूरत नहीं। तुम
कोई और गांव खोज लो। उसने गाड़ी आगे बढ़ा ली है और बूढ़ा हंसने लगा और मुझसे कहने लगा, इस बेचारे को कोई भी गांव नहीं मिल सकता है
जो अच्छा हो। और यह बात ही होती है कि एक घुड़सवार आकर रुक गया और वह पूछने लगा कि
मैं इस गांव में निवासी बनना चाहता हूं इस गांव के लोग कैसे हैं? बूढ़े ने फिर वही पूछा, उस गांव के लोग कैसे थे जहां से तुम आते हो? वह आदमी खुशी से भर गया है, कोई धन्यवाद, कोई
अनुग्रह उसकी आंखों में झलक आया,
कोई स्मृति की सुगंध उसके
चारों तरफ गूंज उठी और वह उसकी आंखों में आंसू भर आए और वह कहने लगा, उस गांव के लोगों की याद भी मेरे प्राणों को
एक आतुर प्यास से भर देती है उनको छोड़ना पड़ा। यह बिछोह भारी है उस गांव जैसे
प्यारे लोग कहां मिल सकेंगे। लेकिन अभागा था मैं। परिस्थितियां थीं कि मुझे गांव
के बाहर रोटी-रोजी कमाने को निकलना पड़ा। लेकिन सपना यही रहेगा मन में कि जब भी
मौका मिले वापस वहीं पहुंच जाऊं। मेरी कब्र वहीं बने उसी गांव में। उस गांव जैसे
प्यारे लोग कहीं भी नहीं हैं। क्या मैं इस गांव में रुक सकता हूं? उस बूढ़े ने उठ कर उसे गले से लगा लिया और
कहा, मैं सत्तर साल से इस गांव में हूं। तुम आओ, मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं इस गांव के
लोग उस गांव से भी अच्छे हैं।
तब
मुझे दिखाई पड़ा कि वह बूढ़ा क्या कह रहा था। उस बूढ़े ने तो जीवन के दर्शन की सारी
बात कह दी। जीवन वैसा हो जाता है जैसे हम हैं, गांव
वैसा हो जाता है जैसा मैं हूं,
सारी पृथ्वी वैसी हो जाती है
जैसा मैं हूं, मैं ही विस्तृत होकर सारे जीवन का अनुभव बन
जाता हूं। लेकिन नहीं, मैं तो बिलकुल ठीक हूं--जीवन दुख है, जीवन पाप है, जीवन
असार है, जीवन माया है, जीवन
निरर्थक है। इस दृष्टि को,
इस फिलासफी को लेकर कोई भी
व्यक्ति कभी प्रभु के द्वार में कैसे प्रवेश कर सकेगा?
यह
आदमी अगर परमात्मा के दरवाजे पर भी पहुंच जाएगा तो पाएगा कि दरवाजे में भूलें हैं।
अगर यह परमात्मा के सिंहासन के पास पहुंच जाएगा तो पाएगा कि सिंहासन में गलतियां
हैं। यह परमात्मा की शक्ल-सूरत में भी भूल खोजेगा। यह परमात्मा के उठने-बैठने में
भी गलती देखेगा।
एक ऐसा
आदमी था उसके बाबत मैंने सुना है। उसने किसी की हत्या की थी। उसे फांसी की सजा हो
गई थी। अब हत्या वे ही लोग करते हैं जिनको यह भ्रम होता है कि हम ठीक हैं और दूसरा
इतना गलत है कि उसे जीने का भी कोई अधिकार नहीं। हत्या वे ही लोग करते हैं। ये ही
लोग जो जीवन को गलत कहते हैं। दूसरों को गलत कहते हैं वे ही लोग हत्यारे भी सिद्ध
होते हैं। उसको फांसी की सजा हो गई,
लेकिन फांसी की सजा भी उसको
चेता नहीं पाई।
उसे जब
जेल के भीतर ले जाया जा रहा था अदालत से तो उसने गुस्से में सुपरिनटेंडेंट को कहा
कि ये कैसी हथकड़ियां हैं! इतनी वजनी! इतनी वजनी हथकड़ियों की क्या जरूरत है? उसने जाकर, कोठरी
में जब उसे बंद किया जा रहा था तो उसने लातें फेंकीं, चिल्लाया, कूदा
कि इतनी छोटी कोठरी? उसे छह सप्ताह बाद फांसी हो जानी है। उसने
जेल के अधिकारियों की नाक में दम ला दी। वे रोज प्रार्थना करने लगे कि छह सप्ताह
जल्दी बीत जाएं। वह आदमी हर चीज में--रोटी तो फेंक देता, पानी तो लात मार देता, बिस्तर तो उठा कर उसने नीचे फेंक दिया कि
कैसा बिस्तर।
फिर
आखिरी दिन सुबह उसे उठाया गया। उसने उठने से इनकार कर दिया, उसने कहा, नाश्ता
कहां है? मैं बिना नाश्ता किए फांसी पर नहीं जा सकता।
नाश्ता कहां है? उसके लिए दौड़ कर नाश्ता लाया गया। उसने
नाश्ते में लात मार दी कि क्या सड़ा सामान ले आए हो, ठीक
चीजें लाओ! मैं बिना ठीक चीजें खाए फांसी पर नहीं जा सकता। ठीक चीजें लाई गईं। उसे
जेल से निकाल कर फांसी के तख्ते पर ले जाया गया। वह जब सीढ़ियां चढ़ने लगा तख्ते की
तो उसने कहा, सीढ़ियां हिलती हैं, इनसे अगर कोई गिर जाए तो उसकी जान निकल जाए।
मैं इन सीढ़ियां पर नहीं चढ़ सकता। फांसी के तख्ते पर जा रहे हैं वह सज्जन। ये
सीढ़ियां हिलती हैं, इनसे कोई गिर जाए तो उसकी जान खतरे में हो
सकती है। मैं इन सीढ़ियों पर नहीं चढ़ सकता। बामुश्किल समझा-बुझा कर उसे सीढ़ियों पर
चढ़ाया गया। उसने जाकर ऊपर,
जो आदमी फांसी देने वाला था, जो जल्लाद था, उससे
कहा कि कैसा सड़ा तख्ता रखा हुआ है,
यह बिलकुल भी सेफ नहीं मालूम
होता, यह जरा भी सुरक्षित नहीं मालूम होता, कैसा तख्ता लगा रखा है? यह आदमी है वह मरने के किनारे खड़ा है लेकिन
वह यह देख रहा है कि तख्ता गलत लगा रखा है। यह तख्ता ठीक होना चाहिए।
यह
आदमी उन आदमियों की शृंखला में है जो सारी चीजों को, सारे
दोषों को--जीवन भर, मृत्यु के क्षण तक थोपते चले जाते हैं बाहर, बाहर, बाहर; जो एक बार भी यह नहीं पूछते अपने से कि कहीं
मैं गलत तो नहीं हूं? जो एक बार भी जिनके मन में यह प्रश्न नहीं
उठता कि कहीं मैं भूल में तो नहीं हूं? मैं उस
आदमी को धार्मिक कहता हूं जिसके मन में यह प्रश्न उठता है कि मैं गलत हो सकता हूं, मैं भूल में हो सकता हूं। जिस आदमी के मन
में यह प्रश्न उठता है कि मैं गलत हो सकता हूं।
इतनी
बड़ी बस्ती को दोष देने कि बजाय शायद यही उचित भी होगा कि मैं गलत होऊं। इतने बड़े
जीवन की निंदा करने की बजाय यही कहीं ज्यादा आसान मालूम होता है कि मैं गलत होऊं।
लेकिन नहीं, इस अनंत जीवन पर दोष थोप देते हैं अपने को
बचा लेते हैं। कभी सोचते भी नहीं कि इसमें कोई प्रपोर्शन भी नहीं है कोई अनुपात भी
नहीं है। इतना अनंत जीवन चल रहा है,
अनंत से अनंत तक चलता रहेगा
और यह जो इतना चलता है निश्चित ही परमात्मा की स्वीकृति होगी इसके पीछे अन्यथा यह चलेगा
कैसे?
यह
स्वयं परमात्मा है अन्यथा यह चलेगा कैसे? लेकिन
यह सारा जीवन है असार, यह जगत है छोड़ देने जैसा, भाग जाने जैसा, मर जाने जैसा, ऐसे
धर्म हैं जो संथारा के लिए मरने की भी आज्ञा देते हैं। जो कहते हैं कि अगर तुम
मरना चाहो तो मर सकते हो। जीवन इतना बुरा है कि आत्महत्या को भी स्वीकार कर लेते
हैं।
क्या
है यह?
और जो
नहीं इतना स्वीकार करते,
वे भी संन्यास के नाम पर
ग्रेजुअल स्युसाइड की आज्ञा देते हैं, धीरे-धीरे
मरते जाने की। संन्यास का और मतलब क्या है, जिस
संन्यास को हम जानते हैं वह ग्रेजुअल स्युसाइड। पहले पत्नी को छोड़ो, आधे मर गए। बच्चे छोड़ो, और मर गए। घर छोड़ो, और मर गए। सब छोड़ते चले जाओ जब तक तुम्हें
पता चले कि कुछ छोड़ा जा सकता है,
आखिर में तुम बच जाओगे, उसको छोड़ दो, संथारा
कर लो, मर जाओ। यह रुग्ण और मृत्युवादी शिक्षण। जब
जीवन दुख सिद्ध हो जाएगा तो अंतिम परिणाम यह होगा कि मृत्यु वरणीय और जीवन अवरणीय
हो जाएगा--जीवन छोड़ने योग्य,
अवांछनीय, त्यागने योग्य और मृत्यु स्वीकार करने योग्य, मृत्यु वरण करने योग्य।
कैसा
पागलपन है! कैसी विक्षिप्तता है! कैसी इनसेनिटी है! क्या सिखाया गया यह आदमी को कि
तुम जीवन को छोड़ो और भागो कब्र की तरफ--और एक बुनियाद पर की जीवन बुरा है और वह
बुनियाद बिलकुल ही दो कौड़ी की और गलत है।
आदमी
गलत है, जीवन बुरा नहीं है। कौन कहता है जीवन बुरा
है? आदमी गलत है, आदमी
की साइकोलाजी गलत है, आदमी का चित्त गलत है। यह हो सकता है कि मैं
गलत हूं लेकिन जीवन को गलत कहने का मुझे क्या हक, क्या
अधिकार है? लेकिन नहीं हम गांव बदलते हैं, दूसरे गांव चले जाएंगे इस गांव के लोग गलत
हैं और हमें पता नहीं कि दूसरे गांव में हमें यही लोग मिलेंगे जो इस गांव में मिले
थे।
अमेरिका
में वे खोजबीन करते थे, जोर से तलाक बढ़ते चले जाते हैं, कोई चालीस प्रतिशत तलाकों की संख्या हो गई, तो वे खोजबीन करते थे और उस खोजबीन में एक
अजीब निष्कर्ष उनके हाथ में आया,
जिसका किसी को खयाल भी न था।
एक आदमी जिंदगी में आठ तलाक देता है। आठ पत्नियां बदल लेता है। लेकिन हर बार पत्नी
बदलता है और पाता है कि दूसरी पत्नी भी दो महीने में पुरानी पत्नी जैसी सिद्ध होती
है। तलाकों के लंबे अध्ययन से यह पता चला है कि जो लोग पत्नियां बदलते हैं, जो पत्नियां पति बदलती हैं--हर बार महीने दो
महीने में पाते हैं कि यह तो फिर वही का वही आदमी मिल गया। बड़े मनोवैज्ञानिक
परेशान थे कि यह हो क्यों जाती है भूल? यह भूल
नहीं है यह जीवन का सीधा तर्क है। जिस स्त्री ने पहली बार पति को खोजा था वही
स्त्री दूसरी बार भी तो पति को खोजेगी, तीसरी
बार भी वही स्त्री पति को खोजेगी,
उसकी दृष्टि खोज भी वही है।
और जो स्त्री पहली बार पहले पति के साथ जीयी थी जिस ढंग से और तीन महीने में जो-जो
चीजें पैदा हो गई थीं वह उसी ढंग से दूसरे पति के साथ भी जीएगी, तीसरे पति के साथ भी जीएगी, वही चीजें फिर पैदा हो जाएंगी।
यह
गांव बदलना है, तलाक यानी गांव बदलना है, मोक्ष की खोज यानी तलाक देना, गांव बदलना। जहां मैं हूं, वहां अपने को बदलने से बचने के हम सब उपाय
करते हैं। मैं बदलने से बच जाऊं,
इसके हम सब उपाय करते हैं। और
जो आदमी भी हमको यह समझाता है कि तुम ठीक हो, शेष सब
गलत हैं, वह हमें बड़ा प्रीतिकर मालूम होता है। इसलिए
तो धर्मगुरुओं को इतना आदर मिला अन्यथा यह आदर मिलने की कोई जगह नहीं, कोई कारण नहीं। धर्मगुरुओं को मिले आदर का
रिस्पेक्ट एक ही कारण है कि वे जीवन को कंडेम करते हैं और आपको बचा लेते हैं।
वे यह
कहते हैं कि लाइफ इज़ सच जिंदगी ऐसी है कि दुख उसमें होगा, तुम क्या कर सकते हो? जिंदगी से बचो तो दुख से बच सकते हो। जिंदगी
ऐसी है कि उसमें अशांति होगी,
तुम क्या कर सकते हो? जिंदगी को छोड़ो तो शांत हो सकते हो। जिंदगी
ऐसी है कि उसमें चिंता आएगी,
तुम क्या कर सकते हो? जिंदगी से हटो तो चिंता बच जाएगी।
और ये
दलीलें बड़ी ठीक मालूम पड़ती हैं क्योंकि ये सारी दलीलें आपको छोड़ देती हैं और जिंदगी
को कंडेम कर देती हैं, जिंदगी को दोषी ठहरा देती है। इसलिए
धर्मगुरुओं को इतना आदर और धर्म कि दुखवादी शिक्षाओं को इतना सम्मान मिला, अन्यथा उनके सम्मान का न कोई कारण है, न कोई वजह है, न कोई
अर्थ है। और जिस दिन भी आदमी को यह पता चल जाएगा कि इस भांति आदमी के ट्रांसफार्मेशन
में, आदमी के बदलाहट में सबसे बड़ा पत्थर रख दिया
गया; उसी दिन, उसी
दिन यह सारा आदर परिवर्तित हो जाएगा, ये
मूल्य गिर जाएंगे। उस दिन हम देखेंगे कि आदमी का सवाल है जीवन का नहीं, जीवन वैसा ही हो जाता है जैसा मैं हूं, जरा सा फर्क मुझमें और जीवन दूसरा हो जाता
है।
एक
आदमी का सिर दुख रहा है,
उसे तुम कहो कि चांदनी निकली
है बहुत अच्छी है। वह देखता है चांद को लेकिन सिर दुखता चला जा रहा है चांद उसे
बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता ।
एक
आदमी बुखार से भरा है, तुम कहो कि गुलाब के फूल खिले हैं बहुत
अच्छे, वह देखता है गुलाब के फूलों को लेकिन ताप
उसके प्राणों को कंपाए जा रहा है,
हाथ उसके आग हुए जा रहे हैं, श्वास उसकी लपटें हुई जा रही हैं, उसे फूल दिखाई नहीं पड़ते; फूलों में भी, उसे
लाल फूलों में भी आग की लपटें दिखाई पड़ती हैं। वह कहेगा, कहां है फूल? आग की
लपटें हैं।
आदमी
के भीतर जैसी दशा है बाहर का जगत उसे वैसा ही दिखाई पड़ता है।
एक
मेरे मित्र एक गीत मुझे सुनाते थे,
उस गीत में बड़ा अदभुत अर्थ
था। वह गीत था कि एक भूखा आदमी,
बिलकुल भूखा आदमी, सात दिन का भूखा आदमी एक मित्र के घर ठहरा
हुआ है। वे मित्र एक कवि हैं। पूर्णिमा की रात है। और कवियों को क्या खबर कि
मेहमान जो आया है उसने रोटी भी खाई है या नहीं। वह सात दिन का भूखा है। वे रोटी की
तो पूछते नहीं हैं। मित्र को बाहर ले आते हैं और कहते हैं, पूर्णिमा की रात है आओ देखें चांद को। वह
मित्र भी चांद को देखता है,
कवि कविता करता है, मित्र को दिखाई पड़ता है पूरी रोटी आकाश में
लटकी हुई है। कवि कहता है,
मुझे प्रेयसी का चेहरा दिखाई
पड़ रहा है। मुझे मेरी प्यारी का चेहरा दिखाई पड़ रहा है।
और वह
अपना सिर ठोंकता है, वह कहता है, मुझे
कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता,
मुझे एक रोटी दिखाई पड़ती है।
कवि कहता है, तू नासमझ है, मैंने
आज तक नहीं सुना कि किसी चांद में रोटी दिखाई पड़ी हो। यह पहला ही मौका है, कभी मैंने यह उपमा नहीं सुनी। कालिदास ने, भवभूति ने, शेक्सपियर
ने, किसी ने कभी नहीं कहा कि रोटी! सब कहते हैं
प्रेयसी का चेहरा दिखाई पड़ता है। तू पागल हो गया है, तू बड़ा
माडर्न पोएट मालूम पड़ता है। तू बड़ी नई कविता लिखता मालूम होता है, रोटी कहां है वहां? वह बेचारा घबड़ा कर चुप रह जाता है। क्योंकि
परंपरा में कोई गवाही नहीं,
कोई विटनेस नहीं। एक गवाही
नहीं है कवियों की। एक उस्ताद नहीं है कवियों में जो कह दे कि हां ठीक, तू ठीक कहता है। जब इतने-इतने बड़े महाकवियों
को रोटी नहीं दिखाई पड़ी,
तो वह कहता है, मुझे गलत दिखाई पड़ता होगा। अब आप मुझे क्षमा
करें? लेकिन वह देखता है रोटी ही दिखाई पड़ती है।
वह बहुत आंखें मूंदता है लेकिन रोटी ही दिखाई पड़ती है। यह रोटी, चांद का सवाल नहीं है, यह पेट भूखा है तो रोटी दिखाई पड़ेगी।
हमारी
स्टेट ऑफ माइंड मेरे चित्त की जो दशा है, जीवन
वैसा दिखाई पड़ता है। जीवन वैसा ही हो जाता है जो मेरे चित्त की दशा है। मेरे चित्त
का ही प्रोजेक्शन है, मेरे चित्त का ही प्रक्षेपण है जीवन में।
हम
सिनेमा में बैठे होते हैं और परदे पर फिल्में दिखाई पड़ती हैं, परदे पर कुछ भी नहीं है, परदा बिलकुल खाली है, अगर आपको वह फिल्म मिटानी हो तो आप परदे पर
जाकर मिटाने लगें तो लोग आपको पागल कहेंगे, वे
कहेंगे वहां मिटाने को कुछ भी नहीं है वहां कुछ है ही नहीं, वहां केवल खाली परदा है। प्रोजेक्टर पीछे है, देखने वालों को परदा दिखाई पड़ता है
प्रोजेक्टर नहीं दिखाई पड़ता वह पीठ की तरफ है, वह
पीछे है, वह दूर अंधेरे में लगा हुआ है। वहां फिल्म
है, वहां प्राण है चित्रों का, वहां से चित्र फेंके जा रहे हैं। परदे पर वे
दिखाई पड़ते हैं लेकिन परदे पर होते नहीं, फेंके
कहीं ओर से गए होते हैं। जहां होते हैं वहां दिखाई नहीं पड़ते, जहां नहीं होते वहां दिखाई पड़ते हैं। जीवन
भी एक प्रोजेक्शन है, जीवन भी एक प्रक्षेपण है।
चित्त
पर सारा सब कुछ है, वहां से फेंका जाता है और जीवन के परदे पर
दिखाई पड़ता है। जीवन कोरा परदा है। वहां पोंछने चले जाते हैं, वहां मिटाने चले जाते हैं। लगता है कि पत्नी
दुख दे रही है पत्नी को छोड़ो। कौन पागल कहता है कि पत्नी दुख दे सकती है? किसने कहा कि कोई दूसरा दुख दे सकता है? पत्नी को छोड़ो और भागो, वह आदमी भागेगा लेकिन वह आदमी वही का वही है
जिसको पत्नी दुख देती थी। कल उसको कोई और दुख देगा; परसों
तीसरा दुख देगा; परसों चौथा दुख देगा। जब सब उसे कतारबद्ध
दुख देंगे तो वह कहेगा, पूरा जीवन ही छोड़ने जैसा है, जीवन में आना ही नहीं चाहिए। और वह कभी नहीं
पूछेगा कहीं मैं दुख का प्रोजेक्टर लेकर तो नहीं घूम रहा हूं, कहीं मैं भीतर ताकत तो लेकर नहीं घूम रहा
हूं कि हर चीज को दुख में बदल लेने की कीमिया केमेस्ट्री तो मेरे पास नहीं है? वह है! कीमिया है हमारे पास।
धार्मिक
व्यक्ति की सजगता का दूसरा सूत्र मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि इस बात को ठीक से
समझ लें कि जीवन वैसा है जैसे आप हैं। दुख है जीवन, तो
आपकी दृष्टि दुखपूर्ण होगी। आनंदपूर्ण हो सकता है जीवन अगर आपकी दृष्टि आनंदपूर्ण
हो। इसलिए जीवन को दोष देना बंद कर दें, जीवन
को दोष देना बहुत हो चुका और इस शिक्षा के भारी दुष्परिणाम मनुष्य की जाति को
भोगने पड़े हैं। और आगे भी अगर यह चलता रहा--तो मैं आपसे निश्चित कहे देता हूं, वह दिन गए जब कि थोड़े-बहुत लोग आत्महत्या कर
लेते थे और संन्यासी हो जाते थे,
वे दिन करीब आते हैं, यह भी हो सकता है कि हम सामूहिक रूप से
आत्महत्या करने की तैयारी करें। युनिवर्सल स्युसाइड कर लें, एक ही दिन तय करके, फिर खत्म कर लो अपने को। एक घंटा मैं यहां
बोलता हूं उस बीच एक हजार लोग पृथ्वी पर आत्महत्या कर लेते हैं। बारह घंटे में
बारह हजार लोग, चौबीस घंटे में चौबीस हजार लोग। एक घंटे में
एक हजार लोग प्रति घंटा हत्या कर रहे हैं। यह संख्या अभी कम है क्योंकि शिक्षा
थोड़ी कम है, लोग धार्मिक भी थोड़े कम हैं, धर्मगुरुओं की कोई मानता भी नहीं है। यह
संख्या कम है, यह संख्या बढ़ती चली जाएगी। यह संख्या बड़ी
होती चली जाएगी, यह संख्या उस सीमा तक पहुंच सकती है कि हम
सबको ऐसा लगे कि जब जीवन इतना दुखपूर्ण है तो क्यों जीएं।
पश्चिम
के एक बहुत बड़े विचारक ने अभी कहा कि अट्ठाइस साल के बाद हर समझदार आदमी को
आत्महत्या कर लेनी चाहिए। क्यों?
क्योंकि अट्ठाइस साल तक समझ
पूरी हो जाती है। अगर तब तक नहीं दिखाई पड़ता कि जीवन असार है तो तुम बुद्धू हो, मंदबुद्धि हो, कायर
हो, मरने की हिम्मत नहीं है तुममें। किसलिए तुम
जीए जा रहे हो, जीवन तो व्यर्थ है, तुम काहे के लिए जीए चले जा रहे हो। अट्ठाइस
साल तक वे छूट देते हैं कि इतनी देर में बुद्धि थोड़ी विकसित होगी दिखाई पड़ जाएगा
कि...। लेकिन उन्होंने खुद अभी आत्महत्या नहीं की है वे अट्ठाइस साल बहुत दिन पहले
पार कर चुके हैं। वे शायद इस कारण दया के वश कि अगर वे आत्महत्या कर लेंगे तो
आत्महत्या समझाने के लिए कौन बचेगा शायद इस कारण।
यह जो, यह जो जीवन के प्रति रुख है, यह जो जीवन के निषेध का, निगेशन का विरोध का रुख है; यह रुख कभी किसी को धार्मिक नहीं बना सकता।
क्योंकि धार्मिक तो वही बन सकता है जिसे जीवन में इतना आनंद अनुभव हो कि आनंद के
कारण वह परमात्मा का कृतज्ञ हो सके,
ग्रेटिटयूड उसमें पैदा हो
सके। धार्मिक आदमी का मतलब क्या है ग्रेटफुलनेस, ग्रेटिटयूड, धन्यता का भाव--उसे ऐसा लगे कि परमात्मा को
धन्यवाद देने जैसा है। उसे ऐसा लगे कि मैं एक श्वास भी लेता हूं तो इतना अनुगृहीत
हूं प्रभु का कि तूने मुझे एक मौका दिया कि मैंने श्वास ली, कि मैंने आंख खोली और सूरज की किरणों को
नाचते देखा कि तूने मुझे कान दिए और मैंने संगीत के शब्द सुने, और तूने मुझे हृदय दिया कि मैं प्रेम कर सका, और तूने मुझे हाथ दिए कि मैं किसी को छू सका, स्मरण कर सका, स्मृति
दी। जिस दिन ऐसा लगे कि तूने मुझे इतना दिया इतना कि मेरे प्राण अनुग्रह से भर
जाएं, मेरे प्राण कृतज्ञता से भर जाएं, मैं धन्यवाद से भर जाऊं, मेरी श्वास-श्वास धन्यवाद देने लगे, तो मैं प्रभु के मंदिर में प्रविष्ट हो सकता
हूं। लेकिन दुख मानने वाले लोग धन्यवाद से कैसे भर सकते हैं वे तो क्रोध से भरे
होते हैं। वे तो परमात्मा से बदला लेने के भाव से भरे होते हैं कि तुमने हमें जन्म
दिया, अगर मिल जाओ तो हम तुम्हें बताएं।
परमात्मा
इसीलिए, मैंने सुना है, छिपा रहता है आता नहीं इधर-उधर कि आदमी मिल
जाएं तो उसकी हत्या कर दे कि तुमने हमें जन्म दिया है, तुमने मुझे शादी करवाई, तुमने मुझे दुकान करवाई, तुमने मुझे बच्चे दिए, तुमने मुझे बंबई का निवासी बनाया मेरी जान
ले ली, तुम्हारी मैं हत्या करूंगा तुम्हें मैं छोड़
नहीं सकता। भगवान इसीलिए छिपा रहता है।
सुना
है मैंने, जब उसने पृथ्वी बनाई, आदमी बनाए, आदमी
को बनाते ही वह बहुत घबड़ा गया और उसने देवताओं से पूछा कि कोई रास्ता बताओ, मैं आदमी से कैसे बचूं? क्योंकि यह बड़ा खतरनाक मालूम होता है। यह
मुझे खोज लेगा तो मेरी मुसीबत हो जाएगी। मैं कैसे बचूं? मैं कहां छिप जाऊं? किसी देवता ने कहा, आप हिमालय पर छिप जाइए, कैलाश पर्वत पर बैठ जाइए, आदमी वहां तक नहीं पहुंच पाएगा। उसने कहा, तुम्हें पता नहीं, आज नहीं कल, कोई न
कोई तेनसिंह, कोई हिलेरी पैदा हो जाएगा और चढ़ जाएगा, वह पकड़ लेगा मुझे मैं दिक्कत में पड़ जाऊंगा।
वहां मैं नहीं जा सकता। उन्होंने कहा, तुम
पैसिफिक महासागर में छिप जाओ,
पांच मील गहरा है, वहां नीचे बैठे रहो, वहां सूरज की किरण भी नहीं पहुंचती। उसने
कहा, तुम्हें आदमी का पता नहीं; जहां सूरज की किरण नहीं पहुंचती वहां वह
पहुंच जाएगा। उसे ऐसी जगह जाने में बड़ा रस आता है जहां जाने का कोई मतलब नहीं
होता। जहां जाना बिलकुल बेकार है वहां वह जरूर चला जाता है। जहां जाने का काम है
वहां आदमी कभी नहीं जाएगा,
जहां जाने की कोई जरूरत नहीं
वहां वह हजार यात्रा करेगा,
जान जोखिम में लगाएगा और
पहुंच जाएगा। वहां मुझे मत छिपाओ,
मुझे कोई ठीक सुरक्षित जगह
बताओ। फिर एक बूढ़े देवता ने कहा,
फिर एक ही तरकीब है कि तुम
आदमी के भीतर छिप जाओ उसे खयाल ही नहीं आएगा कि इतना धोखा, इतना डिसेप्शन भी हो सकता है कि हमारे भीतर
छिपे हों। वह सारी दुनिया खोज लेगा और अपने भीतर नहीं झांक पाएगा। तो वहीं छिप कर
बैठ गया बेचारा, तब से वहीं छिपा हुआ है और उसकी खोज नहीं हो
सकती।
दुखी
आदमी सब जगह जा सकता है अपने भीतर नहीं जा सकता इसका आपको पता है? दुखी आदमी अपने भीतर जाने से डरता है। दुखी
आदमी चाहता है मैं कहीं भी चला जाऊं, लेकिन
भीतर न जाऊं, अकेला न रह जाऊं, कहीं भीतर का दुख दिखाई पड़ने लगे। आदमी दुख
के कारण अंतर्गमन नहीं करता है। जहां दुख है वहां जाने से सार। इसलिए कोई भी आदमी
अपने साथ रुकने को क्षण भर के लिए तैयार नहीं होता। वह कहता, अखबार लाओ जल्दी से, मैं अकेला बैठा क्या करूं, अखबार पढूंगा। अखबार पढ़ लेता है तो बेचारा
रेडियो खोल लेता है। रेडियो खत्म हो जाता है तो होटल में बैठ जाता है, क्लब में चला जाता है। कहीं जगह नहीं मिलती
मंदिर में चला जाता है, धर्मगुरु की बातें सुनने लगता है। धर्मसभा
में बैठ जाता है। लेकिन जब तक जागता है भागता रहता है, भागता रहता है अगर कुछ नहीं मिलता शराब पी
लेता है ताकि सब भूल जाए,
सिनेमा में बैठ जाता है ताकि
सब भूल जाए, किसी तरह भूल जाए, सो जाए, भूल
जाए या डूबा रहे, उलझा रहे। आक्युपाइड रहे या नींद में हो जाए
या बेहोश हो जाए।
लेकिन
ऐसा मौका न आ जाए कि अपने साथ अकेला टू बी विद वन सेल्फ कभी ऐसा न हो जाए कि अपने
साथ छूट जाऊं। क्योंकि अपने साथ छूटा कि वह सारा दुख जो मैंने इकट्ठा कर रखा है वह
दिखाई पड़ना शुरू होगा। वह इतना घबड़ाने वाला है, इतना
घबड़ाने वाला कि वह आत्महत्या करने के लिए तैयार कर देगा कि मर जाओ ऐसे जीने में
ठीक नहीं है। इसलिए सारी दुनिया एस्केप करती है अपने से भागती रहती है, अपने से भागती रहती है। पति पत्नी में भाग
रहा है, पत्नी पति में भाग रही है, बाप बेटों में भाग रहे हैं, बेटे सिनेमागृह में भाग रहे हैं--सब भाग रहे
हैं, सारी दुनिया भाग रही है। पूछो किससे भाग रहे
हैं? कहां के लिए भाग रहे हैं? कोई उत्तर नहीं दे सकता कि मैं कहां जाना
चाहता हूं। एक उत्तर हरेक दे देगा कि मैं अपने से बचना चाहता हूं, मैं अपने से भागना चाहता हूं। एक कृपा कि
मेरी अपने से मुलाकात न हो जाए,
कहीं मैं खुद से न मिल जाऊं, यही एक डर है और सब कुछ हो जाए अपने से
मिलना न हो जाए। इसलिए लोनलीनेस अकेलापन काटता है, घबड़ाता
है।
एक
आदमी को कहो कि अकेले रहना पड़ेगा छह महीने। वह कहेगा, मैं पागल हो जाऊंगा! अकेले मैं नहीं रह
सकता! मुझे कंपनी चाहिए,
मुझे साथ चाहिए। साथ किसलिए
चाहिए?
आनंदित आदमी अकेला रह सकता है, दुखी आदमी अकेला नहीं रह सकता। आनंदित आदमी
अकेला रहना चाहता है भीड़ से बचना चाहता है, क्योंकि
आनंदित आदमी जब भीड़ में खड़ा होता है तब भी वह अकेला होता है, तब भी वह अपने भीतर के रस को गुनता रहता है, तब भी उसके भीतर कोई संगीत बजता रहता है वह
उसे सुनता रहता है, तब भी भीतर कोई आनंद का झरना बहता रहता है
वह उसमें डूबा रहता है। वह भीड़ में भी अकेला होता है।
और
अकेला आदमी अकेले में भी भीड़ में होता है, अगर
भीड़ नहीं मिलती तो आंख बंद करके विचार करने लगता है कि फलाने दुश्मन को गोली मार
दूं, कि फलाने मित्र के पास चला जाऊं, कि पत्नी को छोड़ कर दूसरी शादी कर लूं, कि क्या करूं कि क्या न करूं। वह अपने हिसाब
में लगा रहता है। एक क्षण को भी वह अपने साथ नहीं होना चाहता है। जीवन भर अपने साथ
नहीं, मरते क्षण तक अपने साथ नहीं।
एक
आदमी मर रहा था, मरणशय्या पर पड़ा है, उसकी पत्नी उसके पास बैठी है। उस आदमी ने
आंख खोली। चिकित्सकों ने कहा,
आज शाम सूरज के डूबने के साथ
यह समाप्त हो जाएगा। उसने आंख खोली,
सूरज डूबने के करीब है और
उसने पूछा कि मेरा बड़ा बेटा कहां है? उसकी
पत्नी ने कहा, आप निश्चिंत रहें, वह आपके पैरों के पास बैठा है। पत्नी की
आंखों में तो आंसू आ गए। उसके पति ने अपने बेटों के लिए कभी भी नहीं पूछा था, उसे फुर्सत नहीं मिली थी धन कमाने से, यश कमाने से, दिल्ली
की यात्रा करने से उसे फुर्सत नहीं मिली थी। वह एम.पी. बनता कि बेटों की पूछता। वह
एक बड़ा मकान बनाता कि बेटों की फिकर करता कि वे कहां हैं।
लेकिन
उसकी पत्नी को लगा आज शायद मृत्यु के अंतिम क्षण में, विदाई के क्षण में, उसे प्रेम का स्मरण आ गया, उसे बेटे की स्मृति आई और उसकी आंखें गीली
हो गईं और उसने खुशी से कहा,
बिलकुल चिंता न करें, बिलकुल चिंता न करें, वह आपके पैरों के पास बैठा है। उस आदमी कहा, और उससे छोटा बेटा? वह भी पास था। उससे छोटा? पांच बेटे थे। सबसे छोटा? उसकी पत्नी ने कहा, आप बिलकुल निश्चिंत रहें, सब हम यहां मौजूद हैं, हम सब आपके पास बैठे हैं, कोई कहीं बाहर नहीं। वह आदमी हाथ टेक के बैठ
गया और उसने कहा, इसका क्या मतलब? फिर दुकान पर कौन बैठा हुआ है?
वह
पत्नी भूल में थी, वे आंसू उसने व्यर्थ बहाए, वह खुशी उसने न समझी थी। वह यह नहीं पूछ रहा
था कि बेटे कहां हैं; वह यह पूछ रहा था कि दुकान चल रही है इस
वक्त कि नहीं चल रही। वह यह पूछते ही मर गया, लेकिन
मरते क्षण भी वह दुकान पर बैठा हुआ था अपने पास नहीं था।
जीवन
भर बाहर, बाहर, बाहर।
और क्यों? क्योंकि भीतर हमने दुख पाल रखा है, दृष्टि दुख की पाल रखी है और यह सारी बात
दृष्टि की है।
एक
अंतिम बात फिर तीसरे सूत्र पर हम कल बात करेंगे।
यह
सारी बात दृष्टि की है, जीवन को दुखवादी दृष्टि से देखने के भ्रम को
छोड़ दें, खयाल छोड़ दें कि जीवन बुरा है। अगर बुरा हूं
तो मैं बुरा हूं। और अगर यह स्मरण आ जाए कि मैं बुरा हूं, तो बदलाहट की जा सकती है। जीवन को आप कैसे
बदल सकते हैं? बिलकुल ही गलत! अगर जीवन बुरा है तब तो
बदलने का कोई उपाय न रहा। जीवन है विराट, अनंत।
मैं क्या कर सकूंगा? एक बूंद छोटी सी, मैं सागर को कैसे बदलूंगा? तो फिर एक ही रास्ता है कि मैं समाप्त हो
जाऊं इसको तो बदला नहीं जा सकता है। इससे निराशा, इससे
हताशा पैदा हुई, इससे रिनंसिएशन और संन्यास, तथाकथित संन्यास पैदा हुआ। इससे जीवन को
छोड़ने वाली परंपराएं पैदा हुईं,
जीवन से भागने वाले लोग पैदा
हुए, जीवन की निंदा करने वाले शिक्षक पैदा हुए और
सारी दुनिया को उन्होंने दुख के एक अंधकारपूर्ण घेरे में घेर कर खड़ा कर दिया। हम
सब उस घेरे में खड़े हैं। इस घेरे को तोड़ दें। कल मैंने कहा था: रिबेलियन अगेंस्ट
नालेज। आज आपसे कहता हूं,
रिबेलियन अगेंस्ट पैसीमिज्म।
विद्रोह है ज्ञान के प्रति,
ताकि विस्मय जग जाए और
विद्रोह दुखवादियों के प्रति,
ताकि आनंद कि क्षमता का सूत्र
शुरू हो जाए, ताकि वह किरण फूट सके जो आनंद की है।
वह
किरण कैसे फूट सकती है उसके तीसरे सूत्र में कल मैं आपसे बात करूं।
मेरी
बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके
लिए बहुत-बहुत आनंदित और अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे परमात्मा को अंत में प्रणाम
करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें