दूसरा--प्रवचन--माटी
कहै कुम्हार सूं
मनुष्य की सामर्थ्य बहुत छोटी और प्रभु की दूरी अनंत! कैसे इसे पार किया जा सकेगा? हमारे पैर बहुत छोटे। एक कदम से ज्यादा हम एक बार में चल ही नहीं सकते। एक कदम पार कर पाते हैं, इतनी हमारी सामर्थ्य है--और अनंत है दूरी। यह दूरी कैसे पूरी होगी? कैसे पार होगी?
(अहंकार
है दूरी)
मेरे
प्रिय आत्मन्!
कल
रात्रि, प्रभु उपलब्धि सरल है, इस संबंध में थोड़ी सी बातें मैंने आपसे
कहीं। मनुष्य को परमात्मा से रोक लेने वाली धारणाओं में पहली धारणा यही रही है कि
परमात्मा को पाना कठिन है,
बहुत कठिन है। मनुष्य के
चित्त पर यह दीवाल की भांति खड़ी हो गई--यह धारणा। इस धारणा ने ही जीवन की सरिता को
प्रभु के सागर की ओर बहने से रोक लिया। लेकिन यह अकेली ही धारणा नहीं। इस भांति की
दीवाल बन जाने में और धारणाएं भी हैं। आज दूसरी धारणा पर आपसे मैं बात करूंगा।
दूसरी
बात, दूसरा सूत्र, दूसरी
कठिनाई, प्रभु दूर है, इस
धारणा से पैदा हुई है। परमात्मा बहुत दूर है--किसी पहाड़ पर, आकाश में, आकाश
के पार, मृत्यु के बाद; कोई निराकार, कोई
अरूप, कोई अनंत दूरी है हमारे और उसके बीच! मनुष्य की सामर्थ्य बहुत छोटी और प्रभु की दूरी अनंत! कैसे इसे पार किया जा सकेगा? हमारे पैर बहुत छोटे। एक कदम से ज्यादा हम एक बार में चल ही नहीं सकते। एक कदम पार कर पाते हैं, इतनी हमारी सामर्थ्य है--और अनंत है दूरी। यह दूरी कैसे पूरी होगी? कैसे पार होगी?
नहीं, असंभव है। यह दूरी पार नहीं हो सकती। तो जो
यात्रा पूरी नहीं हो सकती,
उचित है कि उसे छोड़ दें और जो
यात्रा पूरी हो सकती है,
उसे पूरी करें। धन पाना संभव
है। धन और मनुष्य की दूरी बहुत ज्यादा नहीं। पृथ्वी जीतनी आसान है, पृथ्वी और मनुष्य की दूरी अनंत नहीं है। यश
पाना आसान है, पद पाने आसान हैं। चाहे दिल्ली कितनी ही दूर
हो, फिर भी बहुत दूर नहीं है। यात्रा की जा सकती
है। लेकिन परमात्मा की दूरी बहुत है। उसे पार करना असंभव है। यह इंपासिबिलिटी का, यह असंभावना का भाव मनुष्य के मन में गहरे
बैठ गया है। यह भाव न टूटे,
यह दृष्टि न टूटे, तो कोई गति नहीं हो सकती है। और मैं आपसे
कहना चाहता हूं, कि जिसे हमने दूर समझा है, उससे ज्यादा निकट, उससे ज्यादा पास, उससे ज्यादा पड़ोसी और कोई भी नहीं।
एक
छोटी कहानी से मैं समझाने की कोशिश करूं।
एक
छोटा सा गांव था। और उस गांव में गरीब किसान था। वह गरीब तो था, लेकिन दुखी नहीं था। गरीब होने से ही दुख का
कोई संबंध नहीं है। क्योंकि अमीर भी दुखी देखे जाते हैं। वह गरीब था, लेकिन सुखी था। सुखी इसलिए नहीं था कि उसके
पास बहुत कुछ था। सुखी इसलिए था कि जो उसके पास था, उसमें
वह संतुष्ट था।
सुख का
आपके पास क्या है, इससे कोई नाता नहीं है। आप कितने से संतुष्ट
हैं, इससे संबंध है। सुख संतोष का दूसरा नाम है।
दरिद्र था, लेकिन सुखी था, क्योंकि संतुष्ट था। लेकिन एक रात उसका सारा
सुख नष्ट हो गया, क्योंकि उसका सारा संतोष नष्ट हो गया। वह
पहली दफा उसे पता चला कि मैं बहुत दरिद्र हूं।
एक
फकीर उसके घर रात मेहमान हुआ और उस फकीर ने कहा कि पागल तू कब तक मिट्टी के साथ
सिर फोड़ता रहेगा। मैं सारी पृथ्वी घूमा हूं और मैं तुझे कहता हूं कि जमीन पर ऐसी
खदानें हैं, जहां हीरे-जवाहरात मिल सकते हैं। जितनी
मेहनत तू खेत से अन्न उपजाने में कर रहा है, इतनी
मेहनत करके तो तू अरबपति हो सकता है।
फकीर
तो सो गया, लेकिन वह किसान फिर नहीं सो सका। क्योंकि
जिसकी महत्वाकांक्षा, एंबीशन जग जाती है, उसकी नींद नष्ट हो जाती है। दुनिया से नींद
इसीलिए तो नष्ट होती जाती है,
क्योंकि आदमी की
महत्वाकांक्षा तीव्र होती चली जाती है। वह रात भर करवट बदलता रहा। यह पहला मौका था
कि नहीं सो सका।
सुबह
उठा तो उसने पाया कि उससे ज्यादा दरिद्र पृथ्वी पर कोई भी नहीं है।
हमारी
दरिद्रता उसी अनुपात में बड़ी हो जाती है, जिस
अनुपात में धन को पाने की आकांक्षा बड़ी हो जाती है। कल भी वह ऐसा ही था, यही झोपड़ा था, यही
जमीन थी, लेकिन कल तक उसे पता नहीं था कि मैं गरीब
हूं। उसने उसी दिन जमीन बेच दी और मकान बेच दिया और पैसे लेकर निकल पड़ा हीरों की
खदान की खोज में। गांव-गांव भटका,
हीरे की खदान तो नहीं मिली, पास के पैसे जरूर चुक गए। और बारह वर्षों
बाद भीख मांगता हुआ एक बड़ी नगरी के राजपथ पर वह गिर कर मर गया। कुछ मिला तो नहीं, जो पास था, वह भी
खो गया।
बारह
वर्ष बाद वह फकीर फिर उस गांव से गुजरा, जिसमें
वह किसान रहता था। वह उसके झोपड़े पर गया, लेकिन
अब वहां रहने वाले लोग बदल गए थे। वह किसान तो अपनी जमीन और झोपड़ा किसी को बेच कर
जा चुका था। उस फकीर ने पूछा कि मैं बारह वर्ष पहले आया था। एक किसान यहां था, वह कहां है? उस
मकान के नये मालिक ने कहा कि आप जिस सुबह गए, उसी
दिन उसने यह जमीन और मकान बेच दिया और वह हीरों की खोज में निकल गया। और अभी-अभी
खबर आई है कि हीरे तो नहीं मिले,
लेकिन वह भिखमंगा हो गया।
असल
में, जो भी हीरों की खोज में निकलता है, वह भिखमंगा हो ही जाता है। वह किसी राजधानी
में मर गया है, सड़क पर। कफन भी लोगों को जुटाना पड़ा है भीख
मांग कर उसके लिए। वह फकीर बैठ कर यह कहानी सुन रहा था तभी उस नये किसान का बेटा
एक पत्थर लिए हुए बाहर निकला। छोटा बच्चा उस पत्थर से खेल रहा है। उस फकीर ने कहा, यह पत्थर कहां मिला है? यह तो हीरा है। उस किसान ने कहा, नहीं, हीरा
नहीं होगा। ऐसे पत्थर तो मेरे खेत पर बहुत हैं, जो
मैंने उस आदमी से खरीदा था,
जो हीरों की खोज में निकल गया
था। पर वह संन्यासी जानता था कि हीरा क्या है? उसने
कहा कि मानो, यह हीरा है। तुम्हारा खेत कहां है? मुझे ले चलो।
वे खेत
पर गए। उस खेत में एक छोटा सा नाला बहता था और सफेद रेत थी और उस रेत में सांझ तक
खोजते-खोजते उन्होंने कई टुकड़े इकट्ठे कर लिए, जिनकी
कीमत करोड़ों हो सकती थी।
शायद
आपने यह घटना न सुनी हो। उस किसान का नाम अली हफीज था और जिस गांव का वह रहने वाला
था, उस गांव का नाम गोलकुंडा है। उसी अली हफीज
की जमीन पर कोहिनूर हीरा मिला। कोहिनूर हीरा उसी अली हफीज की जमीन पर मिला बाद में, उसी किसान की जमीन पर, जो जमीन को बेच कर हीरों की खोज में दूर
निकल गया।
यह
कहानी मैं आपसे क्यों कहना चाहता हूं? यह मैं
इसलिए कहना चाहता हूं कि परमात्मा की खोज में जो आदमी कहीं दूर निकल जाता है, वह उसी किसान की तरह भटक जाता है। परमात्मा
वहीं है, जहां आप हैं। उसी जमीन पर जहां आप खड़े
हैं--दूर नहीं है।
जीवन
की संपदा बहुत निकट है--एकदम पास;
हाथ बढ़ाएं और पा लें; आंख खोलें, और देख
लें; सुनने को तैयार हो जाएं, और जीवन संगीत सुनाई पड़ने लगे; इतनी ही निकट है वह संपदा प्रभु की।
झूठे
हैं वे लोग जो कहते हैं,
वह दूर है; क्योंकि अगर वह दूर है तो पास जो है, वह कौन है? अगर
प्रभु दूर है, तो फिर पास जो है, वह कौन है? वह
क्या है? यह वृक्ष क्या है? ये पत्ते क्या हैं? ये हवाएं क्या हैं? ये बोलते हुए पक्षी क्या हैं? ये बैठे हुए इतने लोग क्या हैं? ये आंखें कौन हैं? यह कौन इनमें जीवंत होकर बोल रहा है, और जाग रहा है, और जी रहा है? अगर
प्रभु दूर है, तो फिर पास कौन है?
नहीं, जो भी है, सभी
परमात्मा है। तो फिर जो निकट है,
वह भी वही है। और जो निकट को
ही जानने में असमर्थ है,
क्या वह दूर को जानने में
समर्थ हो सकेगा? जो पास को ही पहचानने में असमर्थ है, क्या वह दूर को पहचान सकेगा? जो हाथ के पास ही जिसे छू सकता था, नहीं छू रहा है, क्या वह परलोक की यात्राएं करेगा? जो पड़ोसी में भी नहीं देख सका है, वह परलोक में कैसे देख सकेगा? निकट को देखने के लिए जो अंधा है, वह दूर को देखने में समर्थ नहीं हो सकता है।
और जो निकट को जान लेता है,
उसके लिए कोई दूर नहीं रह
जाता। क्योंकि तब उसे दिखाई पड़ता है जो पास है, उसका
ही विस्तार दूर तक हो गया है।
सागर
को हम सागर के किनारे पहुंच जाते हैं और सागर के जल को हाथों में ले लेते हैं। तो
जो जल निकट है, वही दूर-दूर तक जो फैला है--वही दूर भी फैला
हुआ है। सूरज की जो किरण आज सुबह आपके ऊपर पड़ रही है, वह सूरज की किरण उस सूरज से जुड़ी हुई है, जो यहां से दस करोड़ मील दूर है। इस किरण को
जो जान लेगा, उसने सूरज का सारा राज जान लिया। एक किरण को
जो समझ लेता है, वह जीवन के सारे प्रकाश के रहस्य को समझ
गया। जिसने पानी की एक बूंद के राज को जान लिया, उसने
सारे जगत के सारे समुद्रों के राज को जान लिया। जिसने जीवन की एक कणिका भी पहचान
ली, उसने जीवन का सब कुछ पहचान लिया।
निकटतम
जो है, उसको जानने से ही दूर की यात्रा शुरू होती
है। फिर दूर कुछ भी नहीं रह जाता है। लेकिन हमें तो यही कहा गया है कि प्रभु बहुत
दूर है। इस दूरी की धारणा ने हमारे प्राणों की सारी जागती हुई ऊर्जा को शिथिल कर
दिया है। और क्या आपको पता है जो चीज दूर होती है, उसे हम
पाने का खयाल तो छोड़ ही देते हैं। हममें से कुछ जो अपनी इस असमर्थता को स्वीकार
नहीं करना चाहते, वे वही दलील देने लगते हैं, जो उस लोमड़ी ने दी थी जो अंगूरों के एक लटके
हुए गुच्छे के पास पहुंच गई थी। अंगूर सामने दिखाई पड़ रहे थे, लेकिन लोमड़ी की छलांग छोटी थी। कूदी, उचकी, लेकिन
अंगूर के झोंपों तक नहीं पहुंच सकी। हार गई, थक गई, फिर वापस लौट पड़ी, और रास्ते में जो भी मिला उससे कहती गई, व्यर्थ कोशिश मत करना, वे अंगूर खट्टे हैं! अंगूर तक नहीं पहुंच
सकी, इस कमजोरी को स्वीकार करना नहीं चाहा उसने, इस असमर्थता को स्वीकार करना नहीं चाहा।
उसने अंगूरों को ही खट्टा कह दिया।
यह जो
दुनिया में इतनी नास्तिकता पैदा हुई है, यह
परमात्मा की दूरी के कारण,
परमात्मा के खट्टेपन के कारण
पैदा हो गई है। नास्तिक कहता है,
खट्टी हैं ये बातें परमात्मा
की। कुछ सार नहीं, कुछ पाने जैसी नहीं। कुछ है नहीं इन बातों
में। छलांग छोटी पड़ जाती है,
इतनी दूरी को पूरा नहीं कर
पाते हैं हम। फिर हम क्या करें?
फिर हम यह कह देते हैं, वह चीज ही पाने जैसी नहीं है, वह है ही नहीं। परमात्मा कहीं भी नहीं है।
छोड़ो यह खयाल।
सच है, इतने दूर जो है, वह न होने के बराबर ही हो जाता है। नास्तिक
गलत नहीं कहते, ठीक ही कहते हैं। जो इतनी अनंत दूरी पर है, उसका होना और न होना बराबर है। अगर वह निकट
है जीवन के, तो ही उसके होने का कोई अर्थ है। अगर वह पास
है, प्रति घड़ी, प्रति
श्वास के निकट है, तो ही उसके होने का कोई अर्थ है। इतने फासले
पर होना और न होना बराबर है। फिर मनुष्य ने जब यह देखा कि इतना दूर है हम नहीं पा
सकते, तो यह बिलकुल स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी
मनुष्य के अहंकार की। उसने कहा,
खट्टे हैं ये अंगूर, पाने जैसे ही नहीं हैं।
इधर
तीन-चार सौ वर्षों से ईश्वर की हमने बात ही बंद कर दी है। वह बात ही समाप्त होती
जा रही है।
मैं
कहना चाहता हूं आपसे: वह दूर नहीं है। और न ही अंगूर खट्टे हैं। न ही अंगूर खट्टे
हैं, न ही वह दूर है। वह बहुत निकट है और अंगूर
बहुत मीठे हैं। बहुत निकट है--इतने निकट कि छोटी से छोटी छलांग भी उस तक पहुंच
सकती है। लेकिन इस बात को थोड़ा ठीक से समझ लें। दूरी की फिलासफी को पहले ठीक से
समझ लें, तो उसकी निकटता की बात भी खयाल में आ सकती
है। जिन्होंने दूर कहा, उन्होंने उसे कैसे दूर बना दिया? किस तरकीब से वह दूर हो गया? जो निकट है, उसे
दूर करने में कौन से आर्ग्युमेंट,
कौन सी दलील, कौन सा तर्क काम कर गया?
पहली
बात: परमात्मा को लोगों ने शब्द बना दिया, अनुभव
नहीं। परमात्मा को शास्त्र बना दिया, अनुभूति
नहीं। परमात्मा को एक जीवंत अनुभव से हटा कर, एक
शाब्दिक सिद्धांतों का जाल बना दिया। सिद्धांतों और शब्दों से परमात्मा बहुत दूर
है। जैसे एक आदमी तैरने के संबंध में लिखी हुई सारी किताबें पढ़ डाले और अगर तैरने
पर भाषण करना हो, तो भाषण कर सके, अगर तैरने पर किताब लिखनी हो तो किताब लिख
सके। अगर शोध करनी हो, तो पी.एच.डी. पा ले। लेकिन उस आदमी को अगर
पानी में धक्का देने लगें,
तो हाथ-पैर जोड़ने लगे और कहे
कि मुझे पानी में मत धकाइए। मैं मर जाऊंगा। उसने तैरने के संबंध में सब कुछ जान
लिया, सिर्फ तैरने को छोड़ कर। तैरने के संबंध में
जानना एक बात है और तैरना जानना बिलकुल दूसरी बात है।
प्रेम
के संबंध में सारी किताबें पढ़ लेना एक बात है, और
प्रेम के अनुभव से गुजर जाना बिलकुल दूसरी बात है। परमात्मा के संबंध में सारे
उपनिषद, गीता, कुरान
और बाइबिल कंठस्थ कर लेना एक बात है और परमात्मा में से गुजर जाना बिलकुल दूसरी
बात है।
शब्दों
के भ्रम में, इस खयाल ने कि हम शब्दों को सीख गए तो हम
परमात्मा को जान गए, अनंत दूरी पैदा कर दी मनुष्य और परमात्मा के
बीच। शब्दों से परमात्मा को जानने का कोई भी संबंध नहीं है। शास्त्र कंठस्थ कर
लेने से एक भी कदम नहीं उठता उस दिशा में; बल्कि
उठते हुए कदम रुक जाते हैं,
बल्कि शुरू होने वाली यात्रा
शुरू ही नहीं हो पाती है,
क्योंकि हम इस भ्रम में पड़
जाते हैं कि हमने शब्द जान लिए तो हमने प्रभु जान लिया।
एक
छोटा सा बच्चा अपने घर के बाहर बगिया में खेलता था, तो
कोयल बोलती थी। सुबह की हवाएं,
खिले हुए फूल, सूरज की बरसती हुई रोशनी! वह नाचने लगा खुशी
में। उसकी मां बीमार पड़ी है। उसे खयाल आया। मां तो बाहर नहीं आ सकती है, इस बरसती हुई चांदनी को देखने। एक छोटी सी
पेटी में थोड़ी सी रोशनी,
थोड़ी सी फूलों की सुगंध, थोड़ी सी ताजी हवाएं बंद करके क्यों न मां के
पास भीतर के कमरे में ले जाऊं!
वह
पेटी ले आया बाहर। उसने सूरज की किरणें उस पेटी में भर लीं। ताजी हवाएं, फूलों की सुगंध, कोयल की आवाज, सब
पेटी में बंद कर ली। फिर नाचता हुआ पेटी लेकर भीतर गया। उस अंधेरे कमरे में जहां
उसकी मां सोई है बीमार, अस्वस्थ, और
उसने मां को जाकर कहा, देखो, मैं
क्या लाया हूं। सूरज की किरणें लाया हूं। कोयल की आवाज लाया हूं। सुबह की ताजी
हवाएं लाया हूं। फूलों की सुगंध लाया हूं। देखो, मैं
क्या लाया हूं।
और
उसने पेटी खोली, लेकिन वह घबड़ाया हुआ खड़ा रह गया। वह पेटी तो
खाली थी। उसमें कुछ भी न था। न वहां से कोयल की आवाज आई, न वहां से सूरज की किरणें आईं, न वहां फूलों की सुगंध थी, न ठंडी हवाएं थीं। वह पेटी तो खाली और
अंधेरी थी। वह बच्चा रोने लगा। उसकी मां ने कहा, मत
रोओ। तुझे पता नहीं सूरज की किरणें पेटियों में नहीं भरी जा सकती हैं। सुबह की
ताजी हवाएं पेटियों में बंद करके नहीं लाई जा सकती हैं।
लेकिन
हम जीवन के अनुभव को शब्दों की पेटियों में भरने की कोशिश करते हैं। हम प्रेम को
शब्दों में भर देते हैं। परमात्मा को शब्दों में भर देते हैं, शास्त्रों की पेटियों में बंद कर देते हैं
और फिर सोचते हैं कि शायद इन पेटियों को सिर पर लिए चलने से हम किसी अनुभव को
पहुंच जाएंगे।
स्वाभाविक
है कि जो लोग परमात्मा के किनारे पहुंच जाते हों, उनके
मन में यह पीड़ा आती हो और करुणा आती हो कि जो उन्होंने जाना है, वह शब्दों में भर कर उनके पास पहुंचा दें, जो कि नहीं जानते हैं। जो कि अस्वस्थ और
किन्हीं बीमार कमरों में बंद हैं। तो प्रभु की रोशनी को शब्दों में भर कर भेज दें
उन तक।
उनका
प्रेम, उनकी करुणा--कृष्ण की, महावीर की, क्राइस्ट
की, बुद्ध की करुणा, कि जो उन्होंने जाना है, उसे शब्दों में भर कर हम तक पहुंचा देते
हैं--हम जो अंधेरे कमरों में बीमार पड़े हैं।
उस
बच्चे का प्रेम! अपनी मां के लिए भर लाया है पेटी में सब। लेकिन अकेले प्रेम से
कुछ भी नहीं होता है। पेटी में जीवंत अनुभव नहीं भरे जा सकते; शब्दों में भी नहीं भरे जा सकते। शब्द हमारे
पास पहुंच जाते हैं--खाली और कोरे। उनमें वह कुछ भी नहीं होता, जो प्रभु का अनुभव है। और हम उन्हीं शब्दों
को लिए, छाती से चिपकाए हुए बैठे रह जाते हैं। दूरी
पैदा हो जाएगी। शब्द दूरी है,
अनुभव निकटता है। शब्द ने
दूरी पैदा कर दी है। शब्दों के आधार पर हम ज्ञानवान हो गए।
एक
अनाथालय में मैं गया था। उस अनाथालय के संयोजकों ने मुझे कहा कि हम बच्चों को धर्म
की भी शिक्षा देते हैं। मेरी दृष्टि में यह बिलकुल असंभव है। धर्म की कोई शिक्षा
नहीं हो सकती। शिक्षा उन चीजों की हो सकती है, जो
हमसे बाहर हों। जो हमारे भीतर है उसकी शिक्षा नहीं हो सकती।
प्रेम
की कोई शिक्षा हो सकती है?
कोई विद्यालय खोला जा सकता है, जहां हम प्रेम की कला सिखाएं? और अगर खोल लिया जाए...। और अभी-अभी मुझे
पता चला है कि न्यूयार्क में उन्होंने एक इंस्टीटयूट बनाई है, जहां वे प्रेम की कला सिखाएंगे! तो एक बात
पक्की है कि उस विद्यालय से जो लोग प्रेम की कला सीख कर लौटेंगे, वे जीवन में कभी भी प्रेम नहीं कर पाएंगे।
प्रेम का अभिनय करेंगे, एक्टिंग करेंगे, प्रेम नहीं कर सकेंगे।
यह
आपको पता है, अभिनेता जो कि दिन-रात प्रेम का ही धंधा
करता है, कभी भी प्रेम नहीं कर पाता। प्रेम का अभिनय
करने में वह इतना कुशल हो जाता है कि फिर भीतर से फिर सच्चे प्रेम के जन्म की
संभावना ही नहीं रह जाती। अभिनय में ही बात समाप्त हो जाती है। एक्टिंग में ही बात
समाप्त हो जाती है।
हम
जानते हैं कि प्रेम का कोई विद्यालय नहीं हो सकता। धर्म का कैसे हो सकता है? धर्म तो प्रेम जैसा ही अनुभव है। जब हम एक
व्यक्ति को प्रेम करते हैं,
तो उसे हम प्रेम कहते हैं। और
जब हम समस्त को प्रेम करते हैं,
तो उसे हम धर्म कहते हैं।
प्रेम का ही विराट रूप धर्म है। एक व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति के बीच जो नाता है, वह प्रेम है। एक व्यक्ति और समष्टि के बीच
जो नाता है, वह धर्म है।
तो
मैंने उनसे कहा कि मैं तो नहीं सोचता कि धर्म की कैसे शिक्षा देते होंगे! फिर भी
शायद कोई रास्ता आपने खोज लिया हो तो मैं चलूं और जरूर देखूं। वे मुझे ले गए, कोई सौ अनाथ बच्चे थे उस अनाथालय में।
संयोजकों
ने जाकर बड़ी खुशी में उन बच्चों से पूछा, ईश्वर
है? छोटे-छोटे बच्चों ने हाथ ऊपर उठा कर हिला
दिए कि हां ईश्वर है!
उन
बच्चों को क्या पता हो सकता है ईश्वर के होने का; बूढ़ों
को पता नहीं है। बच्चों को कैसे पता हो सकता है?
ये हाथ
बिलकुल झूठे हैं। धर्म के नाम पर झूठ की शिक्षा दी गई है। इनके हाथ झूठे हैं।
इन्हें कुछ भी पता नहीं है ईश्वर का।
कैसे
पता हो सकता है? और उनसे पूछा गया, आत्मा है? और उन
बच्चों न हाथ ऊपर उठा दिए। और उनसे पूछा गया आत्मा कहां है? तो उन बच्चों न अपनी छातियों पर हाथ रख दिए
कि यहां!
मैंने
एक छोटे से बच्चे से कहा कि क्या तुम बताओगे हृदय कहां है?
उसने
कहा, यह तो हमें बताया नहीं गया। यह हमें पाठ
नहीं पढ़ाया। हमें बताया गया,
आत्मा यहां है। हृदय कहां है, अभी हमको बताया नहीं गया।
उसे
हृदय का कोई पता नहीं, उसे आत्मा का पता है। ये बच्चे कल बड़े हो
जाएंगे, और बचपन के सिखाए हुए हाथ जिंदगी भर हिलते
रहेंगे। जब भी जीवन में सवाल उठेगा,
ईश्वर है? इनका झूठा हाथ जो बचपन में सीख गया उठना उठ
जाएगा। ये बूढ़े हो जाएंगे और इनके हाथ झूठे रहेंगे।
आपसे
मैं पूछता हूं कि आपसे अगर मैं पूछूं कि ईश्वर है? तो
आपके भीतर से जो उत्तर आएगा,
वह आपका है या सिखाया हुआ है? आपका है वह उत्तर? या आपके मां-बाप, आपके शिक्षक, आपके
समाज का सिखाया हुआ है? अगर सिखाया हुआ है, तो हाथ झूठा है। अगर आपका है, तो सत्य हो सकता है।
अगर
आपका उत्तर, एक भी है आपके पास है, परमात्मा की दृष्टि को लेकर, तो परमात्मा एकदम निकट पाएंगे आप। और अगर
उत्तर सिखाए हुए हैं, तो परमात्मा बहुत दूर है। क्योंकि उत्तर
झूठे हैं और परमात्मा सत्य है। झूठे, सिखाए
हुए उत्तर, सत्य तक ले जाने का मार्ग नहीं बनते।
हमारे
सब उत्तर सीखे हुए हैं, इसलिए सब झूठे हैं। अगर आप जैन के घर में
पैदा हुए हैं, तो आपने एक तरह के उत्तर सीख लिए हैं। अगर
मुसलमान के घर में हैं, तो दूसरे तरह के; हिंदू के घर में हैं तो तीसरे तरह के; अगर कम्युनिस्ट के घर में हैं, तो चौथे तरह के उत्तर आपने सीख लिए हैं। अगर
रूस में पैदा हुए हैं, तो वहां के बच्चे से पूछो, ईश्वर है? वह
कहेगा, नहीं है। यह बात भी उतनी ही झूठी है, जितनी हमारे बच्चे कहते हैं, ईश्वर है। ये दोनों बातें सीखी हुई हैं। इन
दोनों बातों में कोई भी सचाई नहीं है। सीखी हुई बात में कोई भी सचाई हो ही नहीं
सकती; जानी हुई बात सत्य होती है। और जानने के बीच
कोई फासला नहीं है, लेकिन सीखने के बीच बहुत फासला है।
परमात्मा
दूर हो गया है, क्योंकि परमात्मा के संबंध में हम कुछ-कुछ
सीख कर बैठ गए हैं। सीखे हुए उत्तर से ज्यादा घातक और कोई बात नहीं है।
मैंने
सुना है कि जापान में एक गांव के दो छोटे मंदिर थे। एक मंदिर उत्तर का मंदिर
कहलाता था, एक मंदिर दक्षिण का मंदिर कहलाता था। दोनों
मंदिरों में शत्रुता थी--जैसे कि हमेशा मंदिरों में रही है। मंदिरों में कभी
मित्रता नहीं रही है। यह दुर्घटना आज तक हुई ही नहीं कि मंदिरों में मित्रता रही
हो! मंदिर हमेशा से शत्रु रहे हैं। असल में, एक
मंदिर खड़ा ही इसलिए होता है--किसी मंदिर की शत्रुता में, अन्यथा खड़ा ही नहीं होता।
दोनों
मंदिरों में झगड़ा था। बड़ी अशोभन है यह बात कि मंदिरों में झगड़ा हो। क्योंकि अगर
मंदिरों में झगड़ा होगा, तो मैत्री कहां होगी? फिर मैत्री की कोई संभावना नहीं रह गई।
लेकिन यही रहा है अब तक कि मंदिरों में झगड़े हैं।
उन
मंदिरों में भी झगड़ा था। यह झगड़ा पीढ़ी दर पीढ़ी चला आया था। यह कोई दस पीढ़ियों का
झगड़ा था। मंदिर के पुजारी एक-दूसरे की शक्ल भी नहीं देखते थे। उन दोनों पुजारियों
के पास दो छोटे बच्चे थे--छोटे-मोटे काम, सेवा
के लिए। उन्होंने उन बच्चों को भी कह रखा था कि भूल कर भी दूसरे मंदिर की तरफ मत
जाना। निकलना भी मत। उस मंदिर की छाया भी अपवित्र है।
ऐसा
है। हिंदू ग्रंथों में लिखा है,
जैन ग्रंथों में लिखा है। ऐसा
लिखा है हिंदू ग्रंथों में कि जैन मंदिर के सामने से निकलते हो और अगर पागल हाथी
पीछे आ जाए, तो तुम उसके पैर के नीचे दब कर मर जाना, लेकिन जैन मंदिर में शरण मत लेना। ऐसा ही
जैन ग्रंथों में भी लिखा है कि हिंदू मंदिर के सामने से निकलते हो और पागल हाथी आ
जाए, तो उसके पैर के नीचे मर जाना, वह अच्छा है, लेकिन
हिंदू मंदिर में शरण मत लेना।
सारी
दुनिया के धर्म ऐसी ही बात करते हैं--शत्रुता की। वे पुजारी भी अपने बच्चों को कह
रखे थे कि वहां कदम मत रखना। लेकिन बच्चे, बच्चे
हैं। बूढ़े भी बिगाड़ने की कोशिश करते हैं, तो
वक्त लग जाता है। एकदम से बिगाड़ना बड़ा मुश्किल है।
दोनों
बच्चे कभी रास्ते पर मिल जाते थे,
तो दो बातचीत कर लेते थे। एक
दिन उत्तर के मंदिर का बच्चा निकला है और दक्षिण के मंदिर के बच्चे ने उससे पूछा
कि मित्र, कहां जा रहे हो? मंदिर में ज्ञान की चर्चा सुनते-सुनते उस
लड़के का भी दिमाग मेटाफिजिकल,
दार्शनिक हो गया था। उस बच्चे
ने कहा, कहां जा रहा हूं! जहां हवाएं ले जाएं!
दक्षिण का बच्चा तो चुप ही रह गया। उसे कुछ सूझा ही नहीं कि अब आगे क्या बात करे!
वह लौट कर अपने गुरु के पास गया। और उसने कहा, आज एक
बड़ी अजीब बात हो गई। आज मैं हारा हुआ लौटा हूं, उस
मंदिर के उस लड़के ने आज ऐसा उत्तर दिया है कि मुझे फिर कुछ भी नहीं सूझा। मैंने
पूछा कि कहां जा रहे हो?
उस लड़के ने कहा, जहां हवाएं ले जाएं?
गुरु
तो बहुत नाराज हुआ। उसने कहा,
यह बड़ी बुरी बात है। आज तक
हमारे मंदिर का कोई आदमी उस मंदिर से नहीं हारा। तुम हार कर लौटे हो। कल उसको
हराना जरूरी है। तुम कल फिर यही पूछना कि कहां जा रहे हो? और जब वह कहे, जहां
हवाएं ले जाएं तो उससे कहना,
और अगर हवाएं थमी हों, रुकी हों, तो
कहीं जाओगे कि नहीं? तब वह भी ऐसे ही रह जाएगा घबड़ाया हुआ, जैसे तुम रह गए हो। उसको इसी हालत में छोड़
देना जरूरी है। हमारे मंदिर का कोई आदमी कभी उस मंदिर से नहीं हारा।
दूसरे
दिन वह बच्चा फिर जाकर रास्ते पर खड़ा हो गया है और उत्तर के मंदिर का बच्चा निकला।
उसने आज पूछा, बड़ी तैयारी से, क्योंकि उसका उत्तर तैयार है। उसने पूछा, कहां जा रहे हो? लेकिन सब गड़बड़ हो गया। उस लड़के ने कहा, जहां पैर ले जाएं! बंधा हुआ उत्तर एकदम
बेकार हो गया। वह लड़का फिर हार गया।
बंधे
हुए उत्तर के लोग जिंदगी में हमेशा हार जाते हैं। क्योंकि जिंदगी रोज बदल जाती है; रोज प्रतिपल बदल जाती है। उत्तर तैयार हैं, जिंदगी बदल गई है। जिंदगी की धारा रोज नई हो
जाती है, नये किनारे छू लेती है, नई शक्ल ले लेती है। जीवन प्रतिपल नया हो
जाता है। बंधे हुए उत्तर हमेशा पुराने पड़ जाते हैं। इधर जिंदगी बदलती जाती है, वह अपनी गीता में खोज रहा है बंधा हुआ उत्तर; वह अपने कुरान में खोज रहा है; अपनी बाइबिल में खोज रहा है--कि उत्तर कहां
लिखा है और जिंदगी बदली जा रही है प्रतिपल। ईश्वर रोज नया होता चला जा रहा है, किताब हमेशा पुरानी है, उत्तर हमेशा पुराना है।
वह
लड़का फिर हार गया। उसने लौट कर अपने गुरु को कहा कि मैं फिर हार गया। वह लड़का तो
बहुत बेईमान है। आज उसने उत्तर ही बदल दिया!
जिंदगी
भी बड़ी बेईमान है। ईमानदार सिर्फ मुर्दे होते हैं। जिंदगी भी रोज बदल जाती है। अगर
बदल जाना ही बेईमानी है,
तो जिंदगी बड़ी बेईमान है। फूल
सुबह खिलता है, सांझ बदल जाता है। पत्थर वैसा ही का वैसा
पड़ा रहता है। पत्थर बड़ा ईमानदार मालूम होता है, सिंसियर; फूल बड़ा बेईमान। अगर बदल जाना बेईमानी है, तो जिंदगी बड़ी बेईमान है। ईश्वर बेईमान है।
उसके
गुरु ने कहा कि उस मंदिर के हमेशा ही लोग बेईमान रहे हैं। यही तो झगड़ा है। तू कल
फिर तैयारी करके जा। कल फिर पूछना कि कहां जा रहे हो। जब वह कहे, जहां पैर ले जाएं, तो उससे कहना कि याद रख, कभी ऐसा भी होता है कि पैर कट जाते हैं। फिर
क्या होगा? अगर पैर न होते, तो कहीं जाता कि नहीं जाता?
तैयार
उत्तर लेकर वह लड़का फिर दूसरे दिन रास्ते पर खड़ा हो गया। फिर वही बात। फिर वही
मुश्किल हो गई। उसने पूछा,
कहां जा रहे हो? उस लड़के ने कहा, सब्जी खरीदने! वह बंधा हुआ उत्तर फिर वहीं
रह गया है!
हमारे
पास बंधे हुए उत्तर हैं--हिंदू का उत्तर है, मुसलमान
का उत्तर है, ईसाई का उत्तर है। सब बंधे हुए उत्तर हैं।
ईसा के लिए वह उत्तर अनुभव का उत्तर था। ईसाई के लिए बंधा हुआ, सीखा हुआ उत्तर है। कृष्ण के लिए वह उत्तर
अनुभव का था, हिंदू के लिए सीखा हुआ उत्तर है। महावीर के
लिए वह उत्तर अनुभव से आया था,
जैन के लिए सीखा हुआ है।
इसलिए महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट सत्य हो सकते हैं, लेकिन हिंदू, मुसलमान
और जैन और ईसाई सत्य नहीं हैं,
झूठ हैं। इस झूठ के कारण
परमात्मा और स्वयं के बीच दूरी हो गई है। यह झूठ गिर जाना जरूरी है, तो सत्य के निकट इसी क्षण पहुंच सकते हैं।
आपका
सीखा हुआ ज्ञान आपके और प्रभु के बीच दूरी है। सीखा हुआ ज्ञान, कल्टीवेटेड नालेज। और आपके पास सीखे हुए
ज्ञान के अतिरिक्त और क्या है?
जाना हुआ कुछ है? एक कण भी जाना हुआ, सीखे हुए पहाड़ से ज्यादा मूल्य का है। एक
किरण भी जानी हुई, सीखे हुए एक सूरज से ज्यादा मूल्य की है; जीवंत है, और
सारे जीवन को बदल डालती है।
लेकिन
मनुष्य के मन पर सिखाया,
सिखाया, सिखाया ज्ञान इकट्ठा होता चला गया है। उसी
ज्ञान को हम ज्ञान समझ रहे हैं। एक अंधा आदमी जैसे प्रकाश के संबंध में कुछ बातें
सुन ले और सीख ले। क्या उसके सीखने से प्रकाश का कोई भी ज्ञान उसे मिल जाएगा? क्या प्रकाश के संबंध में सारी बातें जान
लेने से, प्रकाश के संबंध में फिजिक्स ने जो भी खोजा
है, सब समझ लेने से, क्या उसका प्रकाश से कोई संबंध हो जाएगा? क्या आंख खुल जाएगी? क्या वह प्रकाश को जान लेगा? लेकिन एक आदमी जिसकी आंख खुली है, प्रकाश के संबंध में कुछ भी नहीं जानता हो, फिर भी प्रकाश को जानता है। फिर भी प्रकाश
को जानता है और एक अंधा आदमी सब कुछ जानता हो प्रकाश के संबंध में, तो भी प्रकाश को नहीं जानता है।
हम
अंधों की तरह हैं और दूसरों की बातें सीख कर बैठ गए हैं। धार्मिक आदमी, दूसरों की सीखी हुई बातों से मुक्ति का
विद्रोह है, एक रिबेलियन है। वह इस बात का विद्रोह है कि
मैं सीखे हुए से मुक्त हो जाऊंगा और जानने की कोशिश करूंगा, सीखने को छोडूंगा। मैं बंधे हुए, सीखे हुए, रटे
हुए उत्तरों से मुक्त हो जाऊंगा। अपने उत्तर की तलाश करूंगा। और जब अपना उत्तर आता
है, तो दूरी जरा भी नहीं रह जाती। दूसरे के
उत्तरों के कारण सारी दूरी है।
आप
हिंदू हैं, इसलिए दूरी है। आप ईसाई हैं, इसलिए दूरी है। आपके पास अपना कुछ नहीं है।
क्राइस्ट का दो हजार साल पीछे का आप इकट्ठा किए बैठे हैं। कृष्ण का तीन हजार साल
पुराना इकट्ठा किए बैठे हैं। बुद्ध का ढाई हजार साल पुराना। बुद्ध के लिए वह अपना
अनुभव था। आपके लिए? आपके लिए, मेरे
लिए वह अपना अनुभव नहीं रह गया। मेरे पास केवल शब्द रह गए पेटियों में बंद। अब
उनकी व्याख्या करते चले जाओ,
अर्थ निकालते चले जाओ, मेहनत करते रहो, पंडित हो जाओ। लेकिन पंडित होने से कोई कभी
ज्ञानी हुआ है?
पंडित
और ज्ञानी में पुरानी शत्रुता है। पंडित कभी ज्ञानी नहीं होता। पंडित कभी ज्ञानी
नहीं हो सकता है। उसका सारा ज्ञान,
मृत, डेड, मरा
हुआ है; उधार और बासा है। उधार और बासे ज्ञान की
हालत वैसी ही है, जैसे एक आदमी अपने घर में एक हौज बना ले--मिट्टी
लाए, ईंटें लाए, जोड़ कर
दीवाल उठाए, फिर पानी किसी से उधार मांग लाए और हौज भर
ले। पंडित के पास हौज जैसा दिमाग है--उधार, बासा, दूसरों से मांगा हुआ। ज्ञानी के पास कुएं
जैसा ज्ञान है--मांगा हुआ नहीं;
खोदा हुआ, निकाला हुआ, अपने
भीतर से आया हुआ।
एक
आदमी कुआं खोदता है, तो क्या करता है? जमीन से मिट्टी निकालता है, पत्थर निकालता है। उनको निकाल कर फेंक देता
है, खोद डालता है जमीन। फिर नीचे से जल के झरने
फूट पड़ते हैं। जल तो हमेशा भीतर मौजूद है। कुआं तो हमेशा तैयार है। केवल ढंका हुआ
है पत्थर से, मिट्टी की पर्तों से। उन पर्तों को अलग कर
देना है और कुआं मौजूद है। कुआं कहीं से लाना नहीं है। पानी कहीं से लाना नहीं है।
वह है, सिर्फ दबा हुआ है। उसे डिस्कवर करना है, उसे आविष्कार करना है, उघाड़ देना है।
उलटी
प्रक्रिया है लेकिन। हौज कोई बनाता है तो मिट्टी लाओ, पत्थर लाओ, जोड़ कर
दीवाल बनाओ। दीवाल ऊपर की तरफ उठाओ। कुआं कोई बनाता है तो मिट्टी निकाल कर फेंको, पत्थर निकालो, गङ्ढा
नीचे की तरफ खोदो। हौज ऊपर की तरफ उठती है, कुआं
नीचे की तरफ जाता है। हौज के लिए बाहर से ईंट, मिट्टी, पत्थर लाकर जोड़ो। कुएं के लिए जो है
मिट्टी-पत्थर, उसको भी निकाल कर फेंको। फिर हौज बन जाती है, तो भी पानी नहीं आता। फिर पानी भी मांग कर
लाओ। कुआं बन जाता है, तो पानी अपने से आ जाता है। कभी किसी कुएं
को भी किसी से पानी मांगते देखा है?
फिर जब
हौज में बासा पानी, उधार पानी लाकर भर दो, तो हौज डरती है कि कहीं मेरा कोई पानी न
निकाल ले, क्योंकि पानी निकला कि हौज खाली की खाली हो
जाएगी। हौज कहती है और लाओ,
और लाओ, और लाओ। हौज संग्राहक है, संग्रह करती है। डरती है कि कोई निकाल न ले।
निकाल ले, तो हौज खाली हो जाएगी। लेकिन कुआं कहता है
उलीचो, उलीचो। मुझसे निकालो, निकालो। क्योंकि जितना पानी निकलता है, उतना ताजा और नया पानी वापस आ जाता है। कुआं
चिल्लाता है, मुझे खाली करो, ताकि मैं रोज नया और जीवंत होता चला जाऊं।
फिर
हौज अपने में बंद होती है। उसका किसी से कोई संबंध नहीं होता, उसकी कोई झिरें नहीं होतीं। लेकिन कुआं अपने
में बंद नहीं होता है, कुएं की झिरें समुद्र तक फैली हुई हैं, दूर समुद्र से जुड़ी हुईं। कुआं जानता है कि
मैं समुद्र का एक हिस्सा हूं। हौज जानती है कि मैं हूं, किसी का हिस्सा नहीं हूं। हौज अपने अहंकार
में बंद है। कुएं का कोई अहंकार नहीं है। क्योंकि कुआं जानता है, मैं तो समुद्र का एक हिस्सा मात्र हूं। उसकी
ही झिरें मुझको आकर भर जाती हैं। मैं क्या हूं, मैं तो
कुछ भी नहीं हूं। कुआं अपनी विनम्रता में जीता है, हौज
अपने अहंकार में।
ज्ञानी
और पंडित के बीच वही फर्क है,
जो कुएं और हौज के बीच है।
ज्ञानी कुआं है, पंडित हौज है। पंडित अहंकार में जीता है कि
मैं जानता हूं। ज्ञानी निर-अहंकार में जीता है। वह कहता है, मैं क्या जान सकता हूं, मैं हूं ही नहीं। किसी दूर सागर का एक
हिस्सा, किसी दूर सूरज की एक किरण, किसी दूर जीवन का एक अंश, किसी दूर की कोई ध्वनि, एक टुकड़ा, एक
किसी बड़े वृक्ष का छोटा पत्ता--इससे ज्यादा नहीं; मैं
क्या जान सकता हूं? लेकिन पंडित कहता है कि मैं जानता हूं।
और मैं
आपको कहूं, जिसको यह खयाल है कि मैं जानता हूं--उधार
ज्ञान, शब्दों के आधार पर, बासे, सीखे
हुए ज्ञान के आधार पर--वह आदमी परमात्मा से अनंत दूरी पर खड़ा हो गया। लेकिन जो
कहता है कि मैं नहीं जानता हूं,
मैं क्या जानता हूं, क्योंकि जो भी जानता हूं, सब सीखा हुआ है, सब सुना हुआ है, सब पढ़ा हुआ है; मैं कहां कुछ जानता हूं, मैं कहां जानता हूं? जो यह बात कहने की सामर्थ्य अपने में पैदा
कर लेता है, जो इस हिम्मत पर राजी हो जाता है कि मैं
अज्ञानी हूं, मैं नहीं जानता हूं, उसने सारे सीखे हुए ज्ञान को इनकार कर दिया, उसने विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह में, इस अज्ञान के बोध में वह विनम्रता पैदा होती
है, जो मनुष्य को कुआं बना सकती है।
एक
छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात समझाऊं।
एक
फकीर था अगस्तीन। तीस वर्षों तक जितना ज्ञान मिल सकता था, उसने इकट्ठा किया। जो भी जाना जा सकता था, उसने सब जान लिया। लेकिन सब ज्ञान इकट्ठा हो
गया, ढेर लग गए ज्ञान के, लेकिन कहीं कोई किरण दिखाई न पड़ी। जानना
पूरा हो गया। सब शास्त्र जान लिए गए, लेकिन
उस प्रभु के पास पहुंचने का कोई मार्ग न मिला। हजारों लोग उसकी पूजा करने लगे और
कहने लगे, परम ज्ञानी हो तुम। लेकिन भीतर वह जानता है
कि वहां तो कोई किरण न आई। शास्त्र आ गए, शब्द आ
गए, सिद्धांत आ गए। लेकिन जानना? जानना तो अभी हुआ नहीं। वह रोए ही चला गया
और खोजे चला गया--और किताबें,
और किताबें, और किताबें लेकिन कहीं कोई पता नहीं--ज्ञान
का कोई पता नहीं। फिर वह घबड़ा गया। बूढ़ा हो गया सत्तर वर्ष का। उसने सोचा, अब तो दिन इने-गिने रह गए। अब क्या होगा? क्या मैं अज्ञानी ही मर जाऊंगा?
एक दिन
सुबह, अंधेरे ही उठ कर वह समुद्र के किनारे पहुंच
गया और उसने जाकर यह संकल्प किया समुद्र के किनारे--सूरज उगता था और उसने यह
संकल्प किया कि आज वापस नहीं लौटूंगा। या तो प्रभु मुझे ज्ञान दो या आज मैं समुद्र
में अपने को समाप्त कर लूंगा। दस-बारह घंटे और प्रतीक्षा करूंगा यह सूरज के उगने
से सूरज के डूबने तक। सूरज के डूबने के साथ मैं भी डूब जाऊंगा। तब तक प्रतीक्षा और
करता हूं। यह मेरा अंतिम दांव है।
वह आंख
बंद करके, हाथ फैला कर, सूरज
के सामने खड़ा हो गया है,
समुद्र के किनारे संकल्प
लेकर। आज या तो जान कर लौटेगा या नहीं लौटेगा।
तभी
उसे पीछे किसी की आवाज, रोने की सुनाई पड़ी, एक छोटी सी चट्टान के पीछे, जैसे कोई रो रहा है। सुबह-सुबह कौन आ गया
यहां? उसने लौट कर पीछे देखा, तो और हैरान रह गया! एक छोटा सा बच्चा रो
रहा है। घुटनों पर सिर रखे हुए,
उसकी आंख से आंसू बहे चले जा
रहे हैं। यह इतना छोटा बच्चा,
इस निर्जन में इतनी सुबह कहां
से आ गया है! वह उसके पास गया और उस बच्चे को कहा, बेटे, क्यों रोते हो, क्या तकलीफ है, क्या हो गया? उसकी
खुद की भी आंखें आंसुओं से भरी हैं,
क्योंकि आज जिंदगी का अंतिम
दिन है।
वह
बच्चा कहने लगा, मत पूछिए, क्योंकि
आप कुछ सहायता नहीं कर सकेंगे। उसके हाथ में एक छोटी सी प्याली है, जिसमें उसके आंसू टपक गए हैं। वह बच्चा कहने
लगा, आप कहते हैं तो मैं बताता हूं, लेकिन आप सहायता नहीं कर सकेंगे। मैं इस
प्याली को लेकर आया हूं कि समुद्र को भर कर घर ले जाऊंगा। लेकिन समुद्र मेरी
प्याली में समाता नहीं। मेरी प्याली बहुत छोटी पड़ जाती है, समुद्र बहुत बड़ा है। लेकिन आज तो मैंने तय
कर लिया है कि या तो लेकर जाऊंगा या तो नहीं जाऊंगा!
जैसे
उस फकीर के सामने अंधेरे में से कोई बिजली कौंध गई हो, ऐसे कोई पर्दा उठ गया।
वह
फकीर नाचने लगा वहीं और कहा कि मैं सोचता था कि मैं बूढ़ा हो गया। आज मुझे पता चला
कि मेरी कोशिश भी एक छोटे बच्चे जैसी कोशिश है, जो
समुद्र को प्याली में भरना चाहता है। भूल हो गई मुझसे। उसने हाथ जोड़ कर प्रभु को
कहा कि नहीं, नहीं भूल हो गई। यह तो हो भी सकता है कि एक
प्याली में समुद्र समा जाए,
क्योंकि प्याली की भी सीमा है, और समुद्र की भी। लेकिन यह कैसे हो सकता है
कि मेरी बुद्धि में प्रभु समा जाए,
क्योंकि मेरी बुद्धि की सीमा
है और प्रभु की कोई सीमा नहीं है।
यह तो
हो भी सकता है कभी न कभी कि समुद्र प्याली में समा जाए, कभी हो सकता है। विज्ञान कोई रास्ता खोज ले
सकता है, कि कभी प्याली में समुद्र समा जाए। लेकिन यह
रास्ता कभी नहीं खोजा जा सकता है कि मनुष्य के अहंकार में, मेरे मैं में, और
प्रभु समा जाए! यह कभी नहीं हो सकता। कोई विज्ञान इसके लिए कभी कोई रास्ता नहीं
खोज सकता है। वह फकीर नाचने लगा और उस लड़के को कहा कि तू मेरा गुरु हो गया। उसने
उसके पैर छुए और नाचता हुआ अपनी झोपड़ी पर वापस लौट गया।
झोपड़ी
में उसके मित्रों ने देखा कि इतनी खुशी में आ रहा है नाचता हुआ, ऐसा तो कभी उसे नाचता हुआ देखा नहीं था। वे
सब घेर कर खड़े हो गए और पूछने लगे,
क्या प्रभु के दर्शन हो गए? क्या मिल गया ज्ञान? वह फकीर कहने लगा, हां। आज मैंने उसे जान लिया, क्योंकि आज मैंने उसे जानने की अहंकारपूर्ण
कोशिश छोड़ दी। और मैं हैरान हो गया,
जैसे ही मैंने यह खयाल छोड़ा
कि उसे जानना है, मैं जानना चाहता हूं, वैसे ही मैंने पाया कि मेरे मैं के गिरते ही, वह तो हमेशा मौजूद था। मेरी मैं की दीवाल के
कारण दूर था। मेरा मैं नहीं रहा,
वह पास हो गया।
तो
अंतिम बात, आज की सुबह की इस बैठक में आपसे कहना चाहता
हूं कि आपके मैं के अतिरिक्त परमात्मा से आपकी कोई दूरी नहीं है। जहां मैं नहीं है, वहां वह एकदम निकट है। एकदम पास से भी पास
है। वह तब आपके भीतर ही है,
तब वह और आप एक ही हैं। लेकिन
आज तक यही सिखाया गया कि वह दूर है।
दूरी
किस बात से पैदा हो गई है?
यह हमारे खयाल में नहीं है।
इसलिए दूरी है--अहंकार दूरी है। और ज्ञानी के पास बड़ा अहंकार होता है। पंडित के
पास भारी अहंकार होता है--उधार। सीखे हुए शब्दों पर अहंकार का भवन खड़ा कर लेते हैं
और लगता है, मैं जानता हूं। जहां तक यह मैं जानने का
खयाल है, वहां तक वह दूर है। और जिस दिन आप जानेंगे
कि मैं कहां जानता हूं? सब सीखी हुई बातें हैं, सब उधार, सीखे
हुए उत्तर हैं, मेरा उत्तर कहां है? जिस दिन अपने भीतर खोजेंगे और पाएंगे कि मैं
तो कुछ भी नहीं जानता हूं,
उसी दिन मैं गिर जाएगा। और
जहां मैं गिर जाता है, वहां वह निकट आ जाता है।
मैं है
दूरी, न मैं निकटता बन जाती है। अहंकार है दूरी, निर-अहंकारिता निकटता बन जाती है। प्रभु तो
निकट है। आपका अहंकार...।
कुएं
का जलस्रोत तो निकट है, अहंकार के पत्थर, अहंकार की मिट्टी की पर्तें उसे रोके हुए
हैं। तोड़ दें, और जलस्रोत प्रगट हो जाता है। यह दूसरा
सूत्र।
पहला
सूत्र: प्रभु को पाना सरल है।
दूसरा
सूत्र: प्रभु अत्यंत निकट है।
तीसरे
सूत्र पर कल सुबह आपसे बात करूंगा। यह दूसरा सूत्र मैंने आपसे कहा। इस पर सोचना, खोजना। क्योंकि मेरे कहने से कुछ भी नहीं हो
जाता है। मेरे कहने को मान मत लेना,
नहीं तो सीखा हुआ उत्तर हो
गया, दूसरे का उत्तर हो गया। मैंने जो कहा और आप
मान कर चले गए, तो गलती हो गई, वहीं की वहीं हो गई गलती। मेरा उत्तर आपका
उत्तर नहीं बन सकता है। सोचना,
खोजना, जांचना, परखना
अपने भीतर कि मैं जो भी जानता हूं वह मेरा जानना है? एक-एक
अपने ज्ञान को उठा कर पूछना और जब कोई उत्तर न मिले भीतर, और पता चल जाए कि कुछ भी मैं नहीं जानता हूं
तो फिर उसका उत्तर आना शुरू हो जाएगा।
एक
फकीर था, एक गांव में ठहरा हुआ था। गांव के लोग उसके
पास आए। मुसलमानों का गांव था। उन्होंने कहा कि हमारी मस्जिद में चले आएं और हमें
कुछ समझाएं, ईश्वर के संबंध में। उस फकीर ने कहा, ईश्वर के संबंध में समझाना बहुत कठिन है, मुझे क्षमा करो। लेकिन गांव के लोग पीछे पड़
गए। वह फकीर मस्जिद में गया,
शुक्रवार का दिन। सारे गांव
के लोग इकट्ठे हुए हैं। वह फकीर मंच पर खड़ा हो गया है और उसने कहा, इसके पहले कि मैं परमात्मा के संबंध में कुछ
कहूं, मुझे एक बात जाननी है। आप लोग परमात्मा को
जानते हैं? आप लोग परमात्मा को मानते हैं? उन सारे लोगों ने हाथ उठा दिए कि हां, हम जानते हैं, हम
मानते हैं। उस फकीर ने कहा,
फिर क्षमा करें, जब आप सब जानते और मानते हैं, तो मुझे कहने को क्या बचा? मैं वापस जाता हूं! फंस गए! अब कुछ कहने को
भी न बचा, जब कह ही चुके कि जानते और मानते हैं। वह
फकीर तो उतरा मंच से और वापस चला गया।
लेकिन
गांव में बड़ी चिंता हुई कि क्या करें, इस
आदमी ने तो धोखा दे दिया। और हम खुद फंस गए कह कर। उसने कहा, जब जानते ही हो, जब मानते ही हो, तो अब बचा क्या और कहने को? बात खत्म हो गई। लेकिन न तो कोई जानता था, न कोई मानता था, सब झूठ था। इसलिए मन में पीड़ा रह गई कि कुछ
जानते उससे--फकीर से।
फिर
दूसरे शुक्रवार उसके पास पहुंच गए और कहा कि चलें। उस फकीर ने कहा, मैं क्या करूंगा जाकर? ईश्वर के संबंध में कुछ कहना मुश्किल है।
लेकिन नहीं माने, तो वह गया। वह मंच पर खड़ा हुआ। और उसने कहा
कि पहले मैं कुछ कहूं, पूछ लूं। ईश्वर को जानते हैं, मानते हैं? उन
सबने कहा कि न हम मानते हैं,
न हम जानते हैं। क्योंकि
पिछला उत्तर गलत हो गया था। उन्होंने कहा, न हम
जानते हैं, न हम मानते हैं। उस फकीर ने कहा, न तुम मानते हो, न तुम जानते हो। कहने की कोई जरूरत नहीं रह
गई है। बात खत्म हो गई है। जो है ही नहीं, जिसको
तुम जानते ही नहीं, जिसको तुम मानते ही नहीं पूछते क्या हो उसके
बाबत? ईश्वर के बाबत पूछते क्यों हो? वह उतरा और वापस लौट गया उसने कहा, क्षमा करो। तुमसे कहने की कोई जरूरत नहीं
है।
गांव
के लोग बहुत परेशान हुए। दो उत्तर हो सकते थे, दे दिए
गए थे। फिर उन्होंने कोशिश की। उनके ज्ञानी विचार में लगे और उन्होंने तीसरा उत्तर
खोजा। और तीसरे शुक्रवार फिर उसको पकड़ लाए। अब की बार उन्होंने बहुत होशियारी का
उत्तर निकाला था कि अब फकीर फंस जाएगा। फकीर आ गया, मंच पर
खड़ा हो गया और उसने पूछा कि मित्रो,
पहले वही प्रश्न पूछ लूं।
ईश्वर को मानते हो, जानते हो? तो आधी
मस्जिद के लोग एक किनारे खड़े हो गए। उन्होंने कहा, हम
जानते हैं। आधे लोग जानते हैं,
और मानते हैं। आधे लोग नहीं
मानते और नहीं जानते हैं। अब क्या इरादा है?
उस
फकीर ने कहा, बात खत्म हो गई। जो जानते हैं, वे उनको बता दें, जो नहीं जानते हैं। मैं जाता हूं। मेरी क्या
जरूरत है। दोनों ही मौजूद हैं। प्यासा भी मौजूद है, पानी
भी मौजूद है। मैं जाता हूं। आप बता दें उनको, जो
नहीं जानते हैं।
चौथा
उत्तर उस गांव के लोग नहीं खोज सके,
इसलिए चौथी बार फकीर के पास
नहीं गए। मैंने उस फकीर को पूछा कि चौथी बार नहीं आए? उस फकीर ने कहा, चौथी बार आते तो फिर मुझे बोलना पड़ता। लेकिन
चौथी बार वे आए नहीं। मैंने उससे पूछा कि वे कौन सा उत्तर देते तो तुम बोलते! उसने
कहा, वे कोई उत्तर न देते और चुप रह जाते, तो मैं बोलता। क्योंकि सब उत्तर सीखे हुए हैं।
सिर्फ मौन अनसीखा है। ईश्वर है--यह भी सीखा हुआ उत्तर है। ईश्वर नहीं है--यह भी
सीखा हुआ उत्तर है। मौन,
सायलेंस अनसीखा है। वह जन्म
के साथ है।
पूछें
अपने से, ईश्वर है? और अगर
उत्तर आए, तो देखें कि यह सीखा हुआ तो नहीं है, किसी ने सिखाया तो नहीं है--बाप ने, मां ने, गुरु
ने, समाज ने। अगर सीखा हुआ है, तो छोड़ दें। उत्तर आए, ईश्वर नहीं है, तो पूछें, किसी
ने सिखाया तो नहीं है? कार्ल माक्र्स ने, कम्युनिस्ट ने, नास्तिक ने। अगर सिखाया हुआ है, तो छोड़ दें। आपके पास क्या बचेगा? अनसीखा हुआ, मौन।
कोई उत्तर सीखा हुआ नहीं बचेगा। मौन शेष रह जाएगा। वही मौन ध्यान है। उसी मौन से
द्वार खुलता है और चौथा उत्तर परमात्मा का उपलब्ध होता है, जब आप मौन खड़े हो जाते हैं। आपके पास कोई
उत्तर नहीं है--अपनी परिपूर्ण विनम्रता में मौन, शांत, सिर्फ प्रतीक्षा में खड़े रह जाते हैं। वही
प्रतीक्षा ध्यान है।
मेरी
बात तो पूरी हुई। अब हम सुबह के ध्यान के लिए दस मिनट बैठेंगे और फिर विदा हो
जाएंगे।
थोड़े-थोड़े
फासले पर हो जाएंगे, ताकि कोई किसी को छूता हुआ न हो। इतनी सूरज
की किरणें बरस रही हैं। इतने पक्षी बोल रहे हैं। यह चारों तरफ परमात्मा न मालूम
कितने रूपों में मौजूद है। इसको दस मिनट के लिए अपने भीतर प्रवेश देने के लिए
तैयारी करेंगे, प्रतीक्षा करेंगे अपने मन को खुला छोड़ कर, एक ओपनिंग, मन
खुला है और सब तरफ से परमात्मा को आने दे रहा है।
सूरज
की किरण में भी वही है, जो आपके चेहरे पर पड़ रही है। पक्षी की आवाज
में भी वही है, जो आपके कानों से टकरा जाएगी। हवाओं में भी
वही है, जो आपको छुएगी और गुजर जाएगी। सब तरफ वही
है। उसकी सब तरफ की मौजूदगी का अनुभव, जब आप
बिलकुल शांत होते हैं तब होना शुरू हो जाता है। ध्यान का और कोई मतलब नहीं है।
ध्यान का मतलब है, शांत प्रतीक्षा। सायलेंट अवेटिंग। तो हम एक
दस मिनट के लिए मौन होकर उसकी प्रतीक्षा करें।
क्या
करेंगे उस मौन में? आंख बंद कर लेंगे, शरीर को शिथिल छोड़ देंगे और चुपचाप चारों
तरफ वह है, उसकी प्रेजेंस, उसकी मौजूदगी--पक्षियों की आवाज में, हवाओं के कंपन में, वृक्षों के गिरते हुए पत्तों में--सबको
चुपचाप सुनते रहेंगे। उसकी प्रेजेंस को, उसकी
मौजूदगी को अनुभव करते रहेंगे। दस मिनट में ही लगेगा कि कुछ और हो गए, आप किसी दूसरे लोक में चले गए। कोई पास आ
गया, जो दूर खड़ा था। कोई निकट आ गया, जो अपरिचित था। कोई अज्ञात ज्ञात बनने लगा, कोई कुआं खुदने लगा, भीतर कोई झरने फूटने लगे।
तो मैं
यह आशा करूं कि कोई किसी को स्पर्श नहीं कर रहा है। अगर कोई भी किसी को छू रहा है
तो वह उठ कर बाहर हो जाएं,
थोड़ी दूर हट जाएं।
कोई
किसी को छूता हुआ न हो ताकि आप बिलकुल अकेले हो जाएं। आपको पता न रहे कि दूसरा भी
यहां मौजूद है। जरा भी कोई स्पर्श कर रहा
हो। तो हट जाएं।
वह
अतिथि सीढ़ियों से वापस न लौट जाए। वह तो रोज आता है द्वार पर, हर एक के लिए, लेकिन
द्वार बंद देख कर वापस लौट जाता है।
अंत
में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
साधना
शिविर, जूनागढ़; १९ मई, १९६८; प्रातः.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें