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सोमवार, 15 दिसंबर 2025

03-सदमा - (उपन्यास) - मनसा - मोहनी दसघरा

 अध्याय-03

(सदमा-उपन्यास)

अंदर ड्राइंग रूम में कुछ देर बैठ कर नेहालता के सभी यार दोस्त हंसी मजाक कर रहे थे। देखते ही देखते चाय नाश्ता मेज पर लग गया। सब चाय नाश्ता करने की तैयारी करने लगे। नेहालता को एक बार तो घबराहट हुई की ये सब क्या हो रहा है? कुछ ही पल में सब वहां से चले जायेंगे और वह फिर अकेली हो जायेगी। परंतु कहीं अचेतन एकांत भी चाहता था। परंतु ये कैसा द्वंद्व था। वह उसे अच्छी तरह से समझ नहीं पा रही थी। सब यार दोस्त चाय नाश्ता कर लेने के बाद ये कहते हुए खड़े हो गए की अब तुम आराम करो थक गई होगी। बहुत लम्बा सफर तय कर के आई हो। कल फिर से मिलते है। कहीं दूर चलने का प्रोग्राम बनाते है। तुम्हारे बिना तो हमारी पार्टी अधुरी-अधुरी रह जाती थी। अब तुम आ गई हो तो देखना अब हम कितनी मोज मस्ती करते है। परंतु नेहालता कहती है, नहीं नवीन अभी कुछ दिन के लिए मैं विश्राम करना चाहती हूं, बहुत थक गई हूं। इस बात से सब को कुछ अचरज तो जरूर होता है। परंतु वह सब नेहालता की हालत को जाने है। तब यही उचित समझा गया की कुछ दिन के लिए नेहालता को विश्राम करने दिया जाये।

अच्छा अंकल आंटी अब हम जाते है। कह कर सब यार दोस्त खड़े हो गए, श्रीमति राजेश्वरी मल्होत्रा को बाये-बाये कहते हुए सब गेट से बाहर चले गए। नेहालता बाहर बाल कॉनी में खड़ी हो सब यार दोस्तों को जाता हुआ देख रही थी। सब ने कार के अंदर बैठने से पहले हाथ हिला कर नेहा को फलाईंग किस किया। और देखते ही देखते कार दूर-और दूर होती चली गई। जब तक वह मोड़ नहीं आया नेहालता अपलक उन्हें निहारती रही। सब कितना बेगाना सा लगता था।

37 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-

अध्‍याय -37

मेरा जीवन संघर्ष

पता नहीं मैं वहां उस स्थान पर कितनी देर तक बेहोश पड़ा रहा या केवल सांस चलती रही। इस बात का मुझे कुछ पता नहीं था न ही अंदाज था कि अब मैं कहां पर हूं। क्योंकि मैं अर्धचेतन अवस्था में एक गहरे मदहोशी में चल रहा था। अगर यही जीवन का नाम है तब तो मैं जीवित था। मैं कौन हूं, कहां पर हूं इस बात का मुझे कुछ भी भान नहीं था। मैंने आंखें खोल कर इधर उधर देखने कि कोशिश की मगर चारों और कुछ भी नजर नहीं आया। मैं उठा और उठ कर फिर चल दिया। कहां जाना किधर जाना ये मेरे पेर मुझे लिए चले जा रहे थे। बस एक रास्ता जो मेरे सामने था, परंतु उस का वो दूसरा छोर कहां है, मुझे नहीं पता कितनी ही देर मैं चलता रहा, एक बेहोशी कहो या नशा कहो। परंतु मैं ये देख कर अचरज कर रहा था की मेरे अंदर इतनी हिम्मत कहां से आ गई जब मैं यहां पर आकर लेटा था तो मेरे अंदर जान ही नहीं थी।

काफी दूर चलने के बाद एक जगह मैं पहुंच कर रूक गया असल में थक भी बहुत गया था। सामने एक सुंदर सा प्रांगण था, जहां साफ-सुथरी जगह लगी। मैं वहां पर पास ही एक नल था जिससे बहकर कुछ पानी जमा था उसे पिया और एक कोने में जाकर लेट गया। चहल पहल की आवाज सून कर मेरी आंखें खुली। कुछ लोग हाथों में थालियां लिए हुए इधर उधर जा रहे थे। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ये सब क्‍या है? ये सब कौन है और क्या कर रहे थे?

रविवार, 14 दिसंबर 2025

02-सदमा - (उपन्यास) - मनसा - मोहनी दसघरा


अध्याय-02

(सदमा-उपन्यास)

रेल गाड़ी ऊटी स्टेशन को छोड़ अपने अगले गंतव्य की और जा रही थी। रात की नीरवता में वृक्ष भी कैसे साधु भाव को अपने में समेटे खड़े कितने गौरवशाली लग रहे थे। जब गाड़ी किसी पेड़ के पास से गुजरती तो वह वृक्ष पल के लिए लहरा कर कांप जाता। उस के उपर बैठ पक्षी पल भर के लिए अपनी आंखें तो खोलते परंतु वह जानते थे की अब इस वीरान काली रात में उनका कोई और ठोर-ठिकाना नहीं हो सकता। इसलिए वह खतरा महसूस करने पर भी अपने पंजों से उस डाल को पकड़ कर केवल बैठे रह जाते है। वह वहीं पर अडिग रहे थिर रहे जिस डाली पर अभी-अभी वह गहरी तंद्रा में सो रहे थे। परंतु पेड़ भी उस रेल की गति को अपने में समेट कर केवल झूम भर गया था। जिससे उसके उपर बैठे पक्षी डरे ना, जैसे वह एक मां के आँचल में हो। जब वह वृक्ष खुद नहीं डर रहा था, तो भला उस पर सहारा लिए उन पक्षियों डरने की क्या जरूरत है? जब तक आशियाना ही सुरक्षित है, तब उस पर रेन बसेरा करने वालों को भला क्यों भय-भीत होना चाहिए। ये सब पल में घटा और फिर वहां पर वही गहरी शांति लौट आई। पक्षी अपने को सुरक्षित समझ, परों को सुकेड़-समेट कर गहरी निंद्रा में लीन हो गये। ये सब देख कर पेड़ ही नहीं आस पास की पूरी प्रकृति एक गहरी श्वास ले कर फिर उसी मौन में लोट आई जो पल भर पहले उस वातावरण में फैला बिखरा था।

परंतु दूर कही किसी मोर की भय कांत पिहूं....पिहूं....वातावरण में एक नीरवता, एक क्रंदन भर रही थी। मोर के कान इस धरा पर सबसे ज्यादा संवेदन शील होते है। उसके कान महीन से महीन ध्वनि या कंपन की संवेदना को महसूस कर सकते है। चारों और शांति को चीरती रेल अपने गंतव्य की और बढ़ रही थी। ये बात उस में बैठा प्रत्येक प्राणी जानता था। चाहे वह सोया हुआ हो या जाग रहा हो। परंतु नहीं जानती थी तो वह रेशमी (नेहालता) उसका चेतन अचेतन एक द्वन्द्व में प्रवेश करता सा लग रहा था। क्योंकि वह अब रेशमी नहीं है वह तो अपने मां बाप की दुलारी नेहालता है। रेशमी तो दूर कहीं उस ऊटी की पहाड़ियों में पीछे रह गई। शायद नेहालता को अपने उस कान से सूने नाम की याद भी नहीं होगी। वह नाम तो आपूरित सा उसे मिला था।

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025

36 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

 पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्‍याय-36)

अध्‍याय-(दवा की गोलियां खाना)

ये भय और अभय हमारे शरीर में किस तरह से जमा रहे है यह भी एक रहस्य ही है। जिसे केवल होश से जीने वाला ही जान और समझ सकता है। जैसे—जैसे हम बड़े होते चले जाते है हमारे चेतन या अचेतन में जमा सब भाव हमारे मन पर प्रकट होने शुरू हो जाते है। न जाने क्यों अचानक मुझे बीमार आदमी से अधिक भय लगने लग गया था। जब भी कोई घर में बीमार होता तो मैं उसके पास जाने से कतराने लग गया था। जिसका कारण मैं खुद भी नहीं जानता था, हां इतना जरूर जानता था कि जब मैं बीमार होता था तो मुझे ऐसा लगता कि अब मैं भी मर जाऊंगा। पहले इस बात का मुझे कुछ भी पता नहीं चलता था, न ही उस समय कोई भय ही था। अचानक यह भय मेरे मन में कहां से आ गया, परंतु इतना मैं जानता था की यह अभी कुछ ही दिनों से ऐसा होना शुरू हुआ था। कभी—कभी तो अचानक ध्‍यान का संगीत सुनते-सुनते मैं अंदर तक कांप जाता था। लगता था मुझे कोई किसी गहरी खाई में गिरा रहा है। तब मैं भय और डर कर सुबकने लग जाता था। वह संगीत ऐसा मेरे अंदर घंसता चला जाता, जैसे वह मुझे अंदर तक चीर रहा हो। कभी मुझे लगता की मैं दो टुकड़ों में विभाजन हो रहा हूं। मैं चाह कर भी उस समय अपने शरीर को हिला-झूला नहीं सकता था। परंतु एक जागरण मेरे अंदर जन्म लेता सा मुझे महसूस हो रहा था। मैं ये देख रहा होता की डर रहा हूं और में हिल नहीं सकता हूं। जैसे मुझे कोई बहुत जोर से दबा रहा है एक पतली सुरंग की भांति धकेल रहा हो।  सच ही मुझे डर लगता की में इसमें फंस गया तो कैसे निकलूंगा। एक भय के साथ विचार की लहर भी मेरे मन-मस्तिष्क में चलती रहती थी।

रविवार, 7 दिसंबर 2025

57-धम्मपद–बुद्ध का मार्ग–(The Dhammapada: The Way of the Buddha, Vol-06)–(का हिंदी अनुवाद )

धम्मपद: बुद्ध का मार्ग, खंड -06 –(The Dhammapada: The Way of the Buddha)–(का हिंदी अनुवाद )

अध्याय-07

अध्याय का शीर्षक: विस्मृति, एकमात्र पाप

27 अक्टूबर 1979 प्रातः बुद्ध हॉल में

सूत्र:  

आनंद को अपना ध्यान भटकाने न दें

ध्यान से, मार्ग से।

अपने आप को सुख और दुःख से मुक्त करो।

सुख की लालसा में या दर्द सहने में

वहाँ केवल दुःख है।

कुछ भी पसंद नहीं, कहीं ऐसा न हो कि आप इसे खो दें,

कहीं ऐसा न हो कि यह आपको दुःख और भय दे।

पसंद और नापसंद से परे जाएं.

जुनून और इच्छा से,

कामुकता और वासना,

दुःख और भय उत्पन्न होते हैं।

अपने आप को आसक्ति से मुक्त करें.

वह पवित्र है और देखता है।

वह सत्य बोलता है, और उसे जीता है।

वह अपना काम स्वयं करता है,

इसलिए उसकी प्रशंसा की जाती है

और उससे प्रेम किया जाता है।

दृढ़ निश्चयी मन और निष्काम हृदय से

वह स्वतंत्रता चाहता है।

उसे उद्धमसोतो कहा जाता है --

"वह जो धारा के विपरीत जाता है।"

जब एक यात्री अंततः घर लौटता है

एक दूर यात्रा से,

कितनी खुशी के साथ

उसका परिवार और उसके मित्र उसका स्वागत करते हैं!

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

35 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

 पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्‍याय-35)

अध्‍याय-35

मां के अवशेष

आज मैं दिन भर खूब सोता रहा, परंतु पापा जी का काम तो आज अधिक बढ़ गया था। उन्हें तो वरूण भैया को जाकर स्‍कूल से भी लाना और दुकान के लिए दूध भी लाना होता था। परंतु पापाजी मेहनत से कभी नहीं डरते थे। रात को जब पापा जी दुकान से आये तो आज शनिवार था और कल बच्‍चों के स्‍कूल की छुट्टी थी। इसलिए आज वह रात का ध्‍यान भी नहीं कर सकते थे। आज दिन का ध्‍यान मैंने खराब कर दिया और अब रात के ध्‍यान को बच्‍चे नहीं करने देंगे क्‍योंकि वह कहानी सुनाने की जिद्द जरूर ही करेंगे। इतने बड़े हो गये है फिर भी कहानी बच्‍चों की तरह से सुनने की जिद्द करते थे। सच पापा जी कहानी बहुत मजेदार सुनाते थे। मैं भी उस संगत का आनंद लेता था। पापा जी शब्‍दों के साथ जो भाव और उत्तेजना भरते थे उस सब को केवल लेटा-लेटा पीता रहता था। सब के बीच अपना अधिकार समझ अपनी जगह बना लेता था। एक बात और है अगर अपने कहानी का आनंद लेना है तो आपको उसमें डुबना ही होगा। तब आपको पानी के बहार अपनी गर्दन नहीं निकालनी अपनी बुद्धि को एक तरफ ताक पर रखना होगा। एक सरलता एक सहजता ही आपको उसमें डुबो सकती थी। तब आपको एक बच्‍चा बनना ही होगा।

पापा जी शब्‍द बोलते थे, वो तो कम ही मेरी समझ में आते थे, परंतु वो संगत बहुत ही सुंदर होती थी। छत पर बि‍खरी बिलौरी चांद की चांदनी, दूर कही कभी किसी पक्षी की आवाज शांति को और गहरा कर देती थी। बच्‍चों के मन में एक टीस थी कि आज पोनी और पापा अकेले जंगल में गए थे। पापा जी की तो कोई बात नहीं परंतु पोनी ये तो हमसे बाजी मार ले गया। हमें तो इसे स्‍कूल जाने का गर्व दिखाते थे, कि हम कुछ है।

गुरुवार, 4 दिसंबर 2025

13-महान शून्य- (THE GREAT NOTHING—का हिंदी अनुवाद)

महान शून्य-(THE GREAT NOTHING—का हिंदी अनुवाद) ओशो

अध्याय -13

01 अक्टूबर 1976 अपराह्न, चुआंग त्ज़ु ऑडिटोरियम में

[एक पत्रकार ने ओशो से पूछा कि क्या वे कोई ध्यान तकनीक या सम्मोहन बता सकते हैं जो उस व्यक्ति की मदद कर सके जो सफलता के विरुद्ध अभ्यस्त हो, जो सफल होने की किसी भी संभावना को विफल करने के लिए सब कुछ करने को तैयार हो।

ओशो ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने कभी ध्यान किया है, जिस पर उन्होंने जवाब दिया कि वे एक फ्रीमेसन हैं और वर्तमान में उस संगठन के लिए ध्यान की एक प्रणाली पर एक ग्रंथ लिख रहे हैं जिससे वे जुड़े हुए हैं। उन्होंने कहा कि उन्होंने कोई समूह नहीं बनाया है, लेकिन मनोविज्ञान और दर्शनशास्त्र के बारे में बहुत कुछ पढ़ा है।]

56-धम्मपद–बुद्ध का मार्ग–(The Dhammapada: The Way of the Buddha, Vol-06)–(का हिंदी अनुवाद )

धम्मपद: बुद्ध का मार्ग, खंड-06 –(The Dhammapada: The Way of the Buddha)–(का हिंदी अनुवाद )

अध्याय-06

अध्याय का शीर्षक: पीछे मुड़कर नहीं देखना

26 अक्टूबर 1979 प्रातः बुद्ध हॉल में

पहला प्रश्न: प्रश्न -01

प्रिय गुरु,

अकल्पित परमानंद, अकल्पित पीड़ा।

योग सुधा, यह स्वाभाविक है। परमानंद और महापीड़ा एक साथ घटित होते हैं, क्योंकि यह एक नया जन्म है: जन्म लेने का आनंद, अज्ञात में प्रवेश का आनंद, ईश्वर की ओर एक महान साहसिक यात्रा। लेकिन पीड़ा भी है, महापीड़ा: पुराने, परिचित, ज्ञात को छोड़ने की पीड़ा; सुरक्षित, निरापद को छोड़ने की पीड़ा; मरने की पीड़ा -- अहंकार के रूप में मरने की पीड़ा। यदि परमानंद सच्चा है, तो महापीड़ा अवश्य होगी। यह उन मानदंडों में से एक है जिसके द्वारा यह तय किया जाता है कि परमानंद सच्चा है या नहीं।

यह एक पेड़ को उसकी जानी-पहचानी ज़मीन से उखाड़कर उसे एक नए वातावरण, एक नए देश में रोपने जैसा है। पेड़ को एबीसी से फिर से जीना सीखना होगा; उसे भूलना मुश्किल है और फिर से सीखना भी मुश्किल है। दर्द तो होगा ही। महान आनंद से पहले गहरा दर्द और पीड़ा होती है। यह महीनों, सालों तक भी जारी रह सकता है -- यह सब आप पर निर्भर करता है।

बुधवार, 3 दिसंबर 2025

34 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्‍याय-34)

गीदड़ों से मुठभेड़

कल जंगल के उस आनंद को मैं रात भर भूल नहीं पाया था। उसको अपनी सुंदर स्‍मृतियों में सजो रखना चाहता था। परंतु मुझे क्‍या मालूम था कि अगले दिन भी फिर से जंगल में जाने का आनंद मिलेगा। क्‍योंकि अभी राम रतन अंकल तो आये नहीं थे इसलिए पापा जी दुकान से जल्‍दी आ जाते और हम नियम से जंगल में जाने लगे। जब हम दुकान के पास से जा रहे होते तो मम्‍मी जी मुझे अपने पास बुलाना चाहती परंतु में कन्‍नी काट जाता था। क्योंकि मम्मी जी रोज जंगल नहीं जाती थी वह थक जाती थी फिर उन्हें घर का भी काम करना होता था। सोचता की अब दोस्‍ती ठीक नहीं है,  जंगल में जाने के दावे को में किसी पनीर या किसी दोस्‍ती की कीमत पर छोड़ना नहीं चाहता था। तब मेरी इस हरकत से मम्‍मी बहुत जोर से हंसती और मेरे पास आकर मुझे प्‍यार करती थी। एक पनीर का टूकड़ा जबरदस्‍ती मेरे मुंह में ठूस देती थी। मैं डर सहमा सा वहां से जल्‍दी जंगल की और जाने के छटपटाने लग जाता था। बीच—बीच में गली के चम्‍मच कुत्‍ते भी पास आकर मुंह चाटते और समर्पण कर के लेट जाते तब भी मुझे गुस्‍सा आता की नाहक टाइम खराब कर रहे हो।

सुबह का घूमना कितना अनमोल है यह मैंने पहली बार जाना था। वैसे हम अकसर तो दिन में 10—11 बजे ही जंगल जाते थे या श्‍याम 4—5 बजे परंतु आजकल हम सुबह सात बजे ही जा रहे थे, कई दिन से। पहले जब घूमने जाते तो जिस दिन घूमने जाते उस दिन तो बहुत अच्‍छा लगता परंतु अगले दिन बदन बहुत दुखता था। परंतु रोज—रोज जाने से थकावट महसूस नहीं होती। अभी प्रकृति पूरी तरह से जगी नहीं होती, दूर सूर्य की किरणें वक्षों के कोमल पत्तों को छूकर सहला रही थी। उन पर जमे उस ओस के लिबास को छू रही होती। तब वृक्ष के पत्ते की सोई आंखों में एक चुभन सी महसूस होती और वह करवट बदलने की नाहक सोने की कोशिश करते। पास का पीला पत्‍ता खड़खड़ाता और तब हवा भी मानो उस कोमल पत्‍ते को हिला जाती की उठो जनाब अब कितना सोओगे। लेकिन सच सोते में ही हर प्राणी का विकास होता है। इस कुदरत को विकास के लिए एक खास बेहोशी चाहिए।

मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

55-धम्मपद–बुद्ध का मार्ग–(The Dhammapada: The Way of the Buddha, Vol-06)–(का हिंदी अनुवाद )

धम्मपद: बुद्ध का मार्ग, खंड -06 –(
The Dhammapada: The Way of the Buddha)–(
का हिंदी अनुवाद )

अध्याय-05

अध्याय का शीर्षक: आनंद में जियो

25 अक्टूबर 1979 प्रातः बुद्ध हॉल में

सूत्र:    

आनंद में जियो,

प्यार में,

यहां तक कि नफरत करने वालों के बीच भी.

आनंद में जियो,

स्वास्थ्य में,

यहाँ तक कि पीड़ितों के बीच भी।

आनंद में जियो,

शांति से,

यहाँ तक कि परेशान लोगों के बीच भी.

आनंद में जियो,

बिना संपत्ति के,

चमकते हुए लोगों की तरह.

 विजेता नफरत बोता है

क्योंकि हारने वाला कष्ट उठाता है।

जीत और हार को छोड़ दो

और आनंद पाओ.

जुनून जैसी कोई आग नहीं है,

घृणा जैसा कोई अपराध नहीं,

वियोग जैसा कोई दुःख नहीं,

भूख जैसी कोई बीमारी नहीं,

और स्वतंत्रता के आनंद जैसा

कोई आनंद नहीं।

स्वास्थ्य, संतोष और विश्वास

आपकी सबसे बड़ी संपत्ति हैं,

और स्वतंत्रता आपका सबसे बड़ा आनंद है।

अपने अंदर देखो।

अभी भी हो।

54-धम्मपद–बुद्ध का मार्ग–(The Dhammapada: The Way of the Buddha, Vol-06)–(का हिंदी अनुवाद )

धम्मपद: बुद्ध का मार्ग, खंड-06–(The Dhammapada: The Way of the Buddha)–(का हिंदी अनुवाद )

अध्याय-04

अध्याय शीर्षक: यह भी बीत जाएगा

24 अक्टूबर 1979 प्रातः बुद्ध हॉल में

पहला प्रश्न: प्रश्न -01

प्रिय गुरु,

भयानक राजनीतिक आपदाओं के बावजूद, दुनिया में अन्याय के खिलाफ लड़ने का एकमात्र साधन राजनीतिक कार्रवाई ही प्रतीत होती है। क्या आप जिस खोज को प्रेरित कर रहे हैं, उसमें राजनीतिक कार्रवाई शामिल नहीं है?

जीन-फ़्राँस्वा हेल्ड, मैं जीवन से उसकी संपूर्णता में प्रेम करता हूँ। मेरा प्रेम किसी भी चीज़ को बाहर नहीं रखता; इसमें सब कुछ समाहित है। हाँ, इसमें राजनीतिक गतिविधियाँ भी शामिल हैं। इसे शामिल करना सबसे बुरी बात है, लेकिन मैं कुछ नहीं कर सकता! लेकिन मेरे जीवन-दर्शन में जो कुछ भी शामिल है, वह एक अलग रूप में शामिल है।

अतीत में, मनुष्य जीवन के सभी पहलुओं में बिना जागरूकता के जीता रहा है। उसने बिना जागरूकता के प्रेम किया है और उसमें असफल रहा है, और प्रेम से केवल दुख ही मिला है, और कुछ नहीं। उसने अतीत में हर तरह के काम किए हैं, लेकिन सब कुछ नर्क साबित हुआ है। राजनीतिक कार्रवाई के साथ भी यही स्थिति रही है।

सोमवार, 1 दिसंबर 2025

12-महान शून्य- (THE GREAT NOTHING—का हिंदी अनुवाद)

महान शून्य-(THE GREAT NOTHING—का हिंदी अनुवाद)

अध्याय -12

30 सितम्बर 1976 सायं चुआंग त्ज़ु ऑडिटोरियम में

देव का अर्थ है दिव्य और नवीन का अर्थ है नया। दिव्य कभी पुराना नहीं होता और जो पुराना है वह कभी दिव्य नहीं होता। दिव्य हमेशा नया रहता है - यह अपनी शाश्वत नवीनता के कारण दिव्य है।

इसलिए संन्यास का पूरा प्रयास, पूरा उद्देश्य, आपको बिना किसी शर्त के नया बनाना है। यह ऐसा कुछ नहीं है जो एक बार और हमेशा के लिए होता है - यह ऐसा कुछ है जो आपके जीवन के हर पल में होने वाला है। हर पल आपको कल को छोड़ना होगा, हर पल आपको अतीत को छोड़ना होगा। मन की प्रवृत्ति इसे इकट्ठा करने, इस पर पनपने, इस पर मजबूत बनने की है - अतीत, सभी कल।

शनिवार, 29 नवंबर 2025

11-महान शून्य- (THE GREAT NOTHING—का हिंदी अनुवाद)

महान शून्य-(THE GREAT NOTHING—का हिंदी अनुवाद)

अध्याय -11

29 सितम्बर 1976 सायं चुआंग त्ज़ु ऑडिटोरियम में

[एक आगंतुक से]

एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए -- कि हमें ऊर्जा को नियंत्रित नहीं करना है। हमें बस उसकी मदद करनी है, चाहे वह कहीं भी जा रही हो। हमें उसे किसी खास दिशा में निर्देशित नहीं करना है। हमें बस उसकी मदद करनी है, चाहे वह कहीं भी जा रही हो। हमें उसके साथ चलना है। आम तौर पर मन नियंत्रण करने की कोशिश करता है। वह दिशा देने की कोशिश करता है, वह अनुशासन देने की कोशिश करता है, उसके पास ऊर्जा पर थोपने के लिए कुछ आदर्श होते हैं। वे आदर्श सबसे खतरनाक चीजें हैं; उन्हीं ने दुनिया में इतना दुख पैदा किया है।

मेरा पूरा प्रयास आपको स्वाभाविक, सहज बनाना है, और ऊर्जा को आपको नियंत्रित करने देना है, न कि इसके विपरीत। यह आप नहीं हैं, आपका मन नहीं है, जिसे ऊर्जा को नियंत्रित करना है - यह ऊर्जा है जिसे आपको नियंत्रित करना है, ऊर्जा को आपको अपने वश में करना है।

[ओशो ने उसे ताओ और तथाता समूह में शामिल होने की सलाह दी, कहा कि इससे उसे ऊर्जा में आराम पाने में मदद मिलेगी।]

शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

33 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्‍याय -33)

जंगल में ओलों का आनंद

आज मन न जाने क्यों रात से ही कुछ बेचैन सा था। जिसका न कोई कारण था न ही कोई घटना ही। बस अकारण ऐसा ये सब क्यों? सब कुछ मुझे बड़ा अजीब सा लग रहा था। न तो मुझे कहीं पर बैठना, न ही कुछ भी करने को मन ही कर रहा था। न ही खेलना ही, और न सोना ही अच्‍छा नहीं लग रहा था। आज मैं अपने ही शरीर में एक कैद महसूस कर रहा था। और मेरा मन पूरी तरह से एक घुटन से भर गया था। लगता था किसी खुले आकाश में चला जाऊं। बच्‍चे तो आज भी अपना बस्ता ले कर स्‍कूल चले गये थे। पापाजी अभी दुकान से आकर बैठे ही बैठे थे। शायद अब नहा धो कर ध्‍यान की तैयारी करेंगे। अचानक मैं उठा और उसके सामने जाकर बैठ गया। मुझे इस तरह से अपने सामने आया देख कर वह समझ गये कि मुझसे कुछ कहना चाहता था। पापा जी न जाने क्‍यों मेरे मन की बात बहुत जल्‍दी ही समझ जाते थे। जैसे सब कुछ मेरी आंखों में लिखा मिल जाता था उन्हें। सच कहूं तो उन्हें मेरी आंखों की भाषा समझ में आ जाती थी। और किसी के बारे में कह नहीं सकता परंतु अपनी आंखों की बात को तो मैं जनता था। उन्होंने अपने पास बुला कर मेरी गर्दन और सर पर हाथ फेरने लगे। मेरे दोनों कानों को उन्‍होंने अपने हाथों से पकड़ लिया। शायद वह गर्म थे। तभी वह कहने लगे तुझे क्‍या तनाव है, कान तूने इतने गर्म क्‍यों कर रखे है। वह मेरे कानों को प्‍यार से सहलाने लगे। मैंने उनकी गोद में सर रख दिया। कुछ देर इसी तरह से बैठे रहकर अचानक में उठा और अंदर कोठे से जाकर उनके पुराने जूते जो वह अकसर जंगल में पहन कर जाते थे। उन्‍हें मुंह से पकड़ कर ले आया और लाकर उनके सामने खड़ा हो गया। ये सब देख कर तो उन्‍हें  बड़ा अचरज हुआ। अरे पागल अब इतनी दोपहरी में जंगल,  अभी तो मैं दुकान से आया हूं। मैंने अपना पंजा उनके पैरो पर रख दिया कि नहीं आज चलो ना और अपनी निरीह बेबस आंखों से उन्हें निहारने लगा। जैसे एक भिक्षु परमात्मा के सामने याचक बन कर नतमस्तक उपासना कर रहा हो। उन्‍होंने एक बार मेरी आंखों में देखा और मम्‍मी को कहने लगे मुझे एक कप चाय बना दो तो अच्छा रहेगा। ये पागल पोनी को न जाने क्या सुझा, देखो इसे अब यह जंगल में घूमने की जिद्द कर रहा है।    

53-धम्मपद–बुद्ध का मार्ग–(The Dhammapada: The Way of the Buddha, Vol-06)–(का हिंदी अनुवाद )

धम्मपद: बुद्ध का मार्ग, खंड -06 –(The Dhammapada: The Way of the Buddha)–(का हिंदी अनुवाद )

अध्याय-03

अध्याय का शीर्षक: अपने ही घर में एक गुलाम

23 अक्टूबर 1979 प्रातः बुद्ध हॉल में

सूत्र:    

कानून के अनुसार अपने आप को नियंत्रित करें।

यह जागृत व्यक्ति की सरल शिक्षा है।

बारिश सोने में बदल सकती है

और फिर भी तुम्हारी प्यास नहीं बुझेगी।

इच्छा अतृप्त है

या फिर स्वर्ग में भी इसका अंत आंसुओं के साथ होता है।

जो जागना चाहता है

अपनी इच्छाओं को पूरा करता है

खुशी से.

उसके भय में एक आदमी शरण ले सकता है

पहाड़ों में या जंगलों में,

पवित्र वृक्षों के उपवनों में या तीर्थस्थानों में।

लेकिन वह वहां अपने दुःख से कैसे छिप सकता है?

वह जो मार्ग में आश्रय देता है

और जो लोग इसका अनुसरण करते हैं

उनके साथ यात्रा करता है

चार महान सत्यों को देखने के लिए आता है।

दुःख के विषय में,

दुःख की शुरुआत,

अष्टांग मार्ग,

और दुःख का अंत.

फिर अंततः वह सुरक्षित है।

उसने दुःख को दूर कर दिया है।

वह स्वतंत्र है.

गुरुवार, 27 नवंबर 2025

10-महान शून्य- (THE GREAT NOTHING—का हिंदी अनुवाद)

महान शून्य-(THE GREAT NOTHING—का हिंदी अनुवाद)

अध्याय -10

28 सितम्बर 1976 सायं चुआंग त्ज़ु ऑडिटोरियम में

[एक आगंतुक, जो संन्यास लेने के लिए आगे बढ़ा, ने पहले पूछा कि क्या वह कुछ कह सकता है: मुझे ईसा मसीह में बहुत दृढ़ विश्वास है और इस शक्ति ने मुझे बहुत गहरे बंधन से बाहर निकाला है। मैं इस सहायता को पूरा नहीं कर पाया हूँ, इसलिए मैं जो करना चाहता हूँ वह यह है कि इस प्रेम को और अधिक बढ़ाऊँ। मैं खुद से छुटकारा पाना चाहता हूँ और खुद को पूरी तरह से आध्यात्मिक जीवन के लिए समर्पित करना चाहता हूँ।]

पहली बात...आपका विश्वास आपको हमेशा मजबूत बनाएगा। आपका विश्वास आपका है -- इसका जीसस से कोई लेना-देना नहीं है। आपका विश्वास आपके अहंकार का हिस्सा है -- जितना आप अपने विश्वास को मजबूत करेंगे, आप उतने ही अहंकारी बनेंगे। अहंकार-रहित होने के लिए सभी विश्वासों से पूरी तरह मुक्त होना ज़रूरी है -- जीसस भी शामिल हैं, 'मैं' भी शामिल है -- क्योंकि विश्वास एक बंधन है। यह आपको एक बंधन से बाहर निकाल सकता है -- यह आपको दूसरे बंधन में ले जाएगा। विश्वास का मतलब है एक अवधारणा, सोचने का एक पैटर्न। आज़ादी को किसी पैटर्न की ज़रूरत नहीं होती। आज़ादी बिना किसी पैटर्न के होती है। आज़ादी को बस किसी सीमा की ज़रूरत नहीं होती। यह खुली होती है -- विश्वास बंद होता है।

मंगलवार, 25 नवंबर 2025

09-महान शून्य- (THE GREAT NOTHING—का हिंदी अनुवाद)

महान शून्य-(THE GREAT NOTHING—का हिंदी अनुवाद)

अध्याय-09

27 सितम्बर 1976 सायं चुआंग त्ज़ु ऑडिटोरियम में

[एक संन्यासी ने कहा कि उसे ध्यान में एकाग्रता करने में कठिनाई होती है।]

पहली बात - आपको ध्यान केंद्रित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। एकाग्रता आपकी बिल्कुल भी मदद नहीं करेगी। एकाग्रता मन में तनाव पैदा करेगी। विश्राम मदद करेगा - एकाग्रता नहीं। दो तरह के लोग हैं: कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें एकाग्रता से मदद मिल सकती है, और कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें केवल विश्राम के माध्यम से मदद मिल सकती है - और दोनों प्रक्रियाएँ अलग-अलग हैं।

एकाग्रता में आपको अपना ध्यान किसी चीज़ पर केन्द्रित करना होता है। यह आपके लिए संभव नहीं होगा। आपकी ऊर्जा उस तरह से प्रवाहित नहीं हो सकती। विश्राम में आपको बस आराम करना होता है, ध्यान केन्द्रित न करना होता है -- यह एकाग्रता के बिलकुल विपरीत है। इसलिए मैं आपको एक तरीका बताता हूँ जिसे आप रात में करना शुरू कर सकते हैं।

सोमवार, 24 नवंबर 2025

52-धम्मपद–बुद्ध का मार्ग–(The Dhammapada: The Way of the Buddha, Vol-06)–(का हिंदी अनुवाद )

धम्मपद: बुद्ध का मार्ग, खंड -06 –(The Dhammapada: The Way of the Buddha)–(का हिंदी अनुवाद ) अध्याय-02

अध्याय का शीर्षक: (बुलाए तो बहुत जाते हैं, चुने तो कुछ ही जाते हैं)

22 अक्टूबर 1979 प्रातः बुद्ध हॉल में

पहला प्रश्न: प्रश्न -01

प्रिय गुरु,

मैं इस बात को लेकर उलझन में हूँ कि मैं किस रास्ते पर हूँ। कभी-कभी मैं दूसरों के साथ खेलते, गाते, नाचते या लड़ते समय खुशी महसूस करता हूँ और मैं केवल दूसरों को देखकर ही खुद को देख पाता हूँ। अन्य समय में मैं किसी के साथ रहना या किसी से संबंध बनाना बर्दाश्त नहीं कर सकता; मैं केवल अपने आप में पूरी तरह से खुश हूँ। जब मैं लोगों के साथ होता हूँ, तो मैं यह आकलन करता हूँ कि मैं अपने अकेलेपन से बच रहा हूँ और जब मैं अपने साथ होता हूँ, तो मैं यह आकलन करता हूँ कि मैं प्यार से बच रहा हूँ।

क्या दोनों रास्तों पर चलना, उनके बीच बारी-बारी से चलना संभव नहीं है? मैं कैसे बताऊँ कि मैं कब एक रास्ते से बचकर दूसरे रास्ते पर चल रहा हूँ?

प्रेम इंदीवर, तुम्हारे जैसे लोगों के लिए न कोई लक्ष्य है और न कोई रास्ता -- तुम तो पागल हो! बुद्ध समझदार लोगों की बात कर रहे हैं। बुद्ध बहुत ही तार्किक व्यक्ति हैं: वे विभाजन करते हैं, वर्गीकरण करते हैं। लेकिन एक तीसरी श्रेणी भी है जिसके बारे में बुद्ध को पता नहीं है। सूफ़ी इस तीसरी श्रेणी के बारे में जानते हैं; वे उन्हें मस्त कहते हैं -- पागल लोग।

आपको बारी-बारी से आगे बढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं है, क्योंकि एक रास्ते से दूसरे रास्ते पर जाते हुए आपको हमेशा यह समस्या महसूस होगी—निर्णय की स्थिति। जब आप एक पर होंगे तो आपको लगेगा कि आप दूसरे रास्ते से चूक रहे हैं, और यह एक अनावश्यक पीड़ा बन जाएगी।

रविवार, 23 नवंबर 2025

32 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

 पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्‍याय -32)

एक खूबसूरत अध्‍याय

पिरामिड के बनने का काम कुछ विश्राम के बाद फिर से शुरू हो गया था। परंतु बीच—बीच में उसमें एक विराम भी आ ही जाता था। क्‍योंकि राम रतन अंकल जब भी अपने घर जाते तो दो तीन महीने से पहले कभी नहीं आते थे। चाहे वह दीपावली हो या होली का त्योहार कही क्यों न हो। शायद घर पर जाने के बाद पाँच काम आपका इंतजार कर रहे होते है, सो उन्‍हें भी निपटाना होता था। फिर यहां आने के बाद वहां के वो काम उनके बिना तो अधूरे ही पड़े ही रह जायेंगे। परंतु ये कोई चिंता का विषय नहीं था। उनका इस तरह से लेट आना।  ये तो खास कर मेरे लिए एक आनंद उत्‍सव और छुट्टी का माहौल हो जाता था। क्योंकि जब राम रतन अपने घर जाते तो इन्‍हीं दिनों तो जंगल में घूमने में आनंद आता था। होली के दिनों में मौसम बसंत का होता है। और दीपावली के समय में भी बरसात जा चुकी होती है और शरद ऋतु आने वाली होती है। सौ दोनों संधिकाल का मिलन बड़ा ही सुंदर हो जाता है।

परंतु इस बार राम रतन के आने के बाद काम की गति कुछ पहले से अधिक हो गई थी। शायद और कारणों में से एक कारण ये भी था कि राम रतन अंकल ने अब इधर उधर के सारे काम छोड़ दिये थे। केवल यही एक पिरामिड बनाने का काम अपने हाथ में रख लिया था। काम को न देखो तो कौन काम करता है। अब वह तन और मन से पापा जी के साथ ही मन लगा कर काम करने लगे थे। पहले तो चार—पाँच बजे आते थे और रात देर तक काम करते थे।