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सोमवार, 15 दिसंबर 2025

37 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-

अध्‍याय -37

मेरा जीवन संघर्ष

पता नहीं मैं वहां उस स्थान पर कितनी देर तक बेहोश पड़ा रहा या केवल सांस चलती रही। इस बात का मुझे कुछ पता नहीं था न ही अंदाज था कि अब मैं कहां पर हूं। क्योंकि मैं अर्धचेतन अवस्था में एक गहरे मदहोशी में चल रहा था। अगर यही जीवन का नाम है तब तो मैं जीवित था। मैं कौन हूं, कहां पर हूं इस बात का मुझे कुछ भी भान नहीं था। मैंने आंखें खोल कर इधर उधर देखने कि कोशिश की मगर चारों और कुछ भी नजर नहीं आया। मैं उठा और उठ कर फिर चल दिया। कहां जाना किधर जाना ये मेरे पेर मुझे लिए चले जा रहे थे। बस एक रास्ता जो मेरे सामने था, परंतु उस का वो दूसरा छोर कहां है, मुझे नहीं पता कितनी ही देर मैं चलता रहा, एक बेहोशी कहो या नशा कहो। परंतु मैं ये देख कर अचरज कर रहा था की मेरे अंदर इतनी हिम्मत कहां से आ गई जब मैं यहां पर आकर लेटा था तो मेरे अंदर जान ही नहीं थी।

काफी दूर चलने के बाद एक जगह मैं पहुंच कर रूक गया असल में थक भी बहुत गया था। सामने एक सुंदर सा प्रांगण था, जहां साफ-सुथरी जगह लगी। मैं वहां पर पास ही एक नल था जिससे बहकर कुछ पानी जमा था उसे पिया और एक कोने में जाकर लेट गया। चहल पहल की आवाज सून कर मेरी आंखें खुली। कुछ लोग हाथों में थालियां लिए हुए इधर उधर जा रहे थे। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ये सब क्‍या है? ये सब कौन है और क्या कर रहे थे?

तभी जोर से मंदिर का घंटा बजा और एक कोलाहल एक मधुर अनुगूंज वातावरण में फैल गई। वह गुंज मंद से मंदतर होती चली गई वह ध्वनि मानो मेरे शरीर में प्रवेश कर विलीन हो रही थी। जैसे की कोई तार वाद्य अपनी एक लयबद्धता चारों और फैला कर उसे समेट रहा हो। हवा की सरसराहट उसे दूर किसी पहाड़ी से टकरा कर लोटने पर विवश कर रही थी। मैं सोचने लगा की मैं कहां हूं? ये सब क्या हो रहा है? एक पेड़ के नीचे एक ऊंचे से चबूतरे पास मैं लेटा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं यहां कब और कैसे आ गया। लोग इधर-उधर जाते हुए दिखाई दे रहे थे, परंतु मैं उन्हें समझ नहीं पा रहा था। लेकिन इतना सब होने पर भी किसी तरह से मेरे शरीर के सभी अंग अपना काम कर रहे थे। आंखें खोल कर मैंने इधर उधर देखा मुझे प्‍यास लगी थी। मेरा गला एक दम से सुख गया था। तब मुझे लगा की मुझे खड़ा होना चाहिए, और तब कीचड़ में सने हुए अपने शरीर को उठाने कि कोशिश करने लगा। बड़ी मुश्‍किल से मैंने अपने शरीर सहज समेट कर उठाया, पूरा बदन पीड़ा से कराह रहा था। शरीर पर कीचड़ सूख कर झड़ गई थी। खड़ा होते ही लगा की अगर उठ कर खड़ा हुआ तो गिर जाऊंगा। फिर कुछ देर शरीर को अपनी अवस्‍था में आने का इंतजार करने लगा। तब उठा तो देखता क्‍या हूं कि मैं तो न जाने कहां पहुंच गया था। मुझे कुछ याद नहीं आ रहा था की मैं यहां कैसे और कब आया? मैं लाख सोचने की कोशिश कर रहा था कि कैसे आया?.....परंतु कुछ समझ में नहीं आ रहा था बस इतना समझ आ रहा था कि अब मुझे उठ की पानी पीना चाहिए।

शरीर की अपनी जरूरत होती है तो वह अपनी भाषा खुद जानता है उसे शायद मस्‍तिष्‍क के निर्देश की भी जरूरत नहीं होती। सच कहूं तो मेरी बिना मर्जी के शरीर खुद उठा और पानी पीने के लिए खड़ा हो गया था। और किसी तरह से मैं इधर उधर देखने लगा कि पानी है क्‍या यहां पर? कुछ ही दूरी पर एक आदमी जहां खड़ा कुछ कर रहा था वहां पानी एक नल था। मैं चबूतरे का चक्कर लगा कर उसी और चल दिया। भारत में पशुओं पर जितनी दया की जाती है शायद ही दुनियां के किसी कोने में या किसी दूसरे देश में नहीं की जाती होगी। कितने ही पशुओं को हिंदुओं ने अपने देवताओं के साथ जोड़ दिया गया है, ये श्रेय हमें भी मिला है, भैरो जी गण होने के कारण। जिस तरह से शिव का गण भैरव जी है,  इस तरह से हम भैरव जी के गण है। एक महा सम्मान।

मैं नल के पास जाकर एक अच्‍छे बच्‍चे की तरह खड़ा हो गया। वह आदमी जो अपने लोटे में पानी भर रहा था, यूं मुझे खड़ा देख कर पीछे हट कर खड़ा हो गया। डर के कारण नहीं बल्कि मैं देख रहा था उसकी आंखों या हाव-भाव में एक प्रेम था दया थी। डरने वाला व्‍यक्‍ति तो हमें दुत्कारेगा, मारने की कोशिश करेगा। मैं आगे बढ़ा, और अपने चिर परिचित अंदाज में चलते नल के नीचे मुंह को तिरछा कर के पानी पीने लगा। उस आदमी को शायद अचरज के साथ शकुन भी मिल रहा था कि मैं किसी बर्तन के बिना किस सावधानी से पानी पी रहा हूं। वरना तो वह बेचारा इस समय बर्तन कहां से लाता। शायद इस तरह से पानी पीने के मेरे अंदाज से समझ गया कि जरूर मैं किसी अच्‍छे घर का पाला हुआ कुत्‍ता होगा। पानी पीने के बाद मैंने उसकी और धन्‍यवाद की नजारों से देखा और वापस अपने उसी स्‍थान पर आकर लेट गया। शरीर एक ही दिन में बहुत कमजोर हो गया था। शरीर भी कैसा गतिमान है उसे नित उर्जा चाहिए, अपने वर्तुल के लिए, नहीं तो वह बेकार व जर्जर हो जायेगा।

तब मैंने देखा वह एक मंदिर का प्रांगण था। जल का लोटा भर कर वह आदमी अंदर मंदिर में चला गया। जब वह मेरे पास से जा रहा था तो मुझे अचरज भरी नजर से देख रहा था। अब शायद उसने मुझे ज्‍यादा गोर से देखा। तब उसने मेरे शरीर पर सुखी मिट्टी को भी देखा। वह मंदिर से वापस आया तो मेरे सामने कुछ मिठाई रख कर चला गया मैं उसे दूर तक जाते हुए देखता रहा। परंतु कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्‍या करूँ और कहां जाऊं।  इसी सब के रहते कब फिर शरीर नींद में चला गया इसका पता ही नहीं चला। मिठाई पास ही रखी रही जिसे शायद बाद में कोई पक्षी उठा कर ले गया होगा।

सुबह उस विशाल वृक्ष पर हजारों पक्षियों के कलरव गान ने मेरी आंखें खोली। क्‍या अब सुबह है या श्‍याम, मुझे इसका कोई भान नहीं था। केवल सूर्य की गति के कारण मैं समझने की कोशिश कर रहा था की अभी तो सूर्य की किरण जो मंद थी तेज होती जा रहा है। जो बादलों के कोनों पर अभी नारंगी रंग बिखेर रही थी वह धीरे-धीरे अपने में पीत रंग भर रहा है। उसका बदलता रंग कितना अद्भुत लग रहा था। कैसे प्रकृति अपनी छटा नित बिखेरती है, सजाती है और उसे मिटा देती है। कैसा अदभुत चित्रकार है परमात्‍मा, देखते ही देखते पीत रंग भी स्‍वर्ण में बदल रहा था जिससे मुझे लगा की अभी सूर्य उदय हो रहा है। तब मैं सोच रहा था कि श्‍याम भी जरूर हुई होगी और शायद यहीं पक्षी कलरव गान गा-गाकर सोये होंगे। तब मुझे वह गान क्‍यों नहीं सुनाई दिया। आप अगर ध्‍यान से उस गान को सुनोगे तो समझ सकते हो कि यह गान भोर का है या संध्‍या का। पक्षियों के गान में विभेद होता है। श्‍याम को पक्षी अपने गान में कुछ इस तरह से कलरव करते है कि अब चले पूरे दिन के जीवन को धन्‍यवाद के भाव में कितना सुंदर दिन गुजरा और अब चले निद्रा रानी की गोद में। और जब सुबह वही पक्षी आंखें खोलते है तो उन्‍हें एक नया जीवन जो मधुर नाद एक आनंद-उत्सव से भरा मिला है उसके लिए आभार पूरी प्रकृति को गाकर देते से महसूस होते है। क्या मानव से सब भूल गया है? परंतु प्रकृति अपने विस्तार में ये नहीं करती। आप अगर जीवन को एक सजगता से जीते हो तो यह जीवन बहुत मधुर और अपने अंदर एक गरिमा लिए आपका सूस्‍वागत्म कर रहा होता है। सारा भारतीय शास्त्रीय संगीत इसी सब से निर्मित हुआ है, सब राग रागनियां, ताल, बहुत गहरी खोज है, संगीत की जो हिंदूओं ने समय को संगीत में पिरो दिया था। अगर आप इस मस्‍तिष्‍क के विचारों से तोलेंगे तो एक भारी बोझ एक दूख एक संताप लिए होगा। शायद हमारी मांग हमारी महत्वाकांक्षा बहुत कम होती है। इसलिए हमें दुख उतना गहरा महसूस नहीं होता। लेकिन अगर मांग अधिक की है तो दूख भी उतना ही गहरा और अधिक होगा।

हम पशु पक्षियों की कितनी मांग है, पक्षी तो हमसे भी महान है वे तो जमीन की पकड़ से भी निर्भार है, कितना हलकापन महसूस करते होगे वह अपने जीवन से। उन्‍हें हमारे की तरह से अगर कैद कर लिया जाये तो उनसे कितना कुछ छिन जायेगा। क्या उन्‍हें उसमें कुछ सुखद थोड़ा ही लगता होगा, हम तो इस कैद में भी सुख देख रहे है कि सुरक्षा है, सुविधा है और भय रहित है। परंतु पक्षी को जब तक उड़न न भरनी पड़े वह गीत गा-गा कर आसमान को सुना न ले, उसमें पंख फैला कर उड़ न ले उसे वह जीवन ही नहीं कहेंगे। तभी अचानक मुझे पिंजरे की याद आयी, अरे मैंने भी तो कहीं पिंजरे में पक्षी देखे थे। कहां देखे थे वह मैं याद करने की कोशिश करने लगा। परंतु कुछ याद नहीं आ रहा था। सूर्य अब अपनी प्रखर उर्जा से उपर उठ रहा था। जहां पर मैं लेटा हुआ था वहाँ धूप आने लगी थी। मैं सोच ही रहा था कि यहां से उठ कर किसी दूसरी जगह लेट जाऊँ जहां पर धूप भी न हो और थोड़ा अँधेरा हो जहां मक्खियां भी मुझे तंग न करें।

अब मैं समझने की कोशिश कर रहा था कि जहां पर मैं पहुंच गया हूं वह एक मंदिर है। वहीं पेड़ जो मंदिर के प्रांगण में था उसके ठीक सामने एक बड़ा सा देवालय था। अब वहां पर इक्‍का-दूक्‍का ही मनुष्‍य दिखाई दे रहे थे। इसलिए मैं उठा और पास ही जो नीम का पेड़ था उसकी छाव में जो बहुत घनी थी। उसके आस-पास कुछ कच्ची मिट्टी भी थी। वहाँ उसकी औट में छुप कर लेट गया। कुछ ही देर में मैंने देखा एक आदमी जिसकी सफेद लम्‍बे बाल और दाढ़ी थी मेरे सामने कुछ खाने को रख रहा था। शायद उस मंदिर का पुजारी होगा। मैंने अपनी आंखें खोली और उसकी दाढ़ी को देख कर मेरे मस्‍तिष्‍क में कुछ—कुछ होने लगा। मुझे लगा कि यह दृश्‍य मैंने पहले भी कहीं देखा था, परंतु कहां? ये समझ और जोड़ नहीं पा रहा था। दाढ़ी बाल, चोगा, मैं तारों को जोड़ने की कोशिश करने लगा। परंतु अभी भी मेरे सर में धुंध सी छाई हुई थी। एक कोहरा जो पहले से कम पीड़ा दाई और थोड़ा दृश्यमान तो था परंतु अभी भी यह नहीं कह सकते की मैं उसके पार सब देख पा रहा था।

मैंने उस खाने को सूंघा और उसकी सुगंध को अपने मस्‍तिष्‍क और पेट को महसूस होने दिया। इसी तरह से तीन चार बार करता रहा फिर जीभ से उसे चाटा, उसके अंदर मुझे कोई स्‍वाद या गंध महसूस नहीं हो रही थी। ऐसा कैसे हो सकता है हर भोजन का अपना स्‍वाद है। मुझे नहीं पता की मेरे स्वाद की संवेदनशीलता लुप्त हो गई थी। मेरे स्‍वाद के स्‍नायु सुप्त या शायद मृत प्रायः: हो गये थे। परंतु पेट ने कहा की मुझे खाना दे दो। शायद यही मेरे और मेरे शरीर के लिए उचित था। तब मैंने मुंह खोल कर खाना उठाना चाहा, परंतु अचरज क्या देखा की मुंह तो एक दम से जम गया था। उसके खोलने में तो मैं दर्द महसूस कर रहा था। अभी कुछ घंटे पहले तो मैंने पानी पीया था तब तो मुझे ऐसा महसूस नहीं हुआ था। मुझे क्‍या पता पानी पीने की प्रक्रिया अलग है, उसमें जीभ का काम अधिक है परंतु खाना खाने के लिए तो जबड़े, जीभ, दाँत सभी का ताल मेल बिठाना होता था। किसी तरह से मैंने हिम्‍मत कर कुछ खाना खाया शायद वह जैसे—जैसे पेट में गया। परंतु मुझे अचरज हो रहा था मेरा अपना मुख कैसे सुख गया था। मानो मैं उसे जैसे-जैसे खोल रहा हूं वह चटक रहा था, फट रहा था, हलका सा दर्द भी हो रहा था मेरे होंठों पर। मानो उस पर एक पपड़ी जम कर सुख गई थी। लेकिन मेरा मस्‍तिष्‍क में जमीं धुंध और सर का भारी पन अब मुझे कुछ कम लग रहा था।

पेट में जब खाने के कोर पहुँचे तो वहां पर कुछ हरकत हुई। मुझे तेजी से एक हिचकी आई और लगा की सब खाना बहार आ जायेगा। और मैंने अपनी आंखें बंद कर ली मैं उलटी कर-कर के बहुत थक गया था। कि अब उलटी के बारे में सोचने भर से मुझे घबराहट होने लगी थी। मैं इसी तरह थोड़ी देर के लिए थिर होकर बैठा गया। तभी अचानक शरीर में एक उलटी प्रक्रिया शुरू हुई, पेट की सुप्त पड़ी आंतों में कुछ हरकत हुई, कुछ ऐंठन शुरू हुई यहीं ऐंठन तो मुझे पहले भी हुई थी। ये अनुभव मुझे याद था। और मैं फिर डर गया परंतु इस ऐंठन में दर्द कम था और एक सुखद एहसास अधिक था। मेरी बंद आंतों ने काम शुरू कर दिया था। तब मैंने महसूस किया कि पेट जो इतने दिन से खाली था, जो कोई काम नहीं कर रहा था। उसके अंदर खाना जाने से कुछ काम शुरू हुआ वरना तो अभी तक वह सब वह बहार फेंक रहा था। तब मैं कुछ देर ऐसे ही बैठे रहा और फिर उठकर पानी पीने के लिए नल के पास खड़ा हो गया। वहाँ कोई नहीं था। परंतु पानी इधर उधर फेल कर जमा हो गया था। लेकिन मुझे वह गंदा लग रहा था। मैं इसी तरह वहां कुछ देर खड़ा रहा तभी वहीं दाढ़ी वाला साधु मेरे पास से गुजार और उसने मुझे इस अवस्था में खड़े देख कर नल को खोल दिया और पास ही खड़ा होकर कहने लगा....पूच....पूच.....पी लो बेटा पानी पी लो। और में मंद कदमों से नल की और बढ़ा और जीभ निकाल कर चपड़—चपड़ पानी पीने लगा। तभी मेरा माथा ठनका ऐसा तो मैंने पहले भी कई बार किया था। परंतु कहां पर ये याद नहीं आ रहा। जितनी देर में पानी पीता रहा वह बेचारा मेरे पास ही खड़ा रहा और फिर उसने नल बंध कर वह चला गया।

मैं वापस आकर उसी जगह बैठ गया और इधर उधर देखने लगा समझने की कोशिश करने लगा की मैं कहा हूं। परंतु मस्‍तिष्‍क अपनी जगह थिर था। तब मैंने खाने की और देखा और उसे खाने की कोशिश करने लगा कुछ खाना बड़ी मुश्‍किल से खाया गया। मुख में और जबड़े में ऐसी ऐंठन थी कि लगता था वह चटक जायेगा। एक सुखी मिट्टी के खिलौने की तरह भूर—भूरा कर बिखर जाये। परंतु कुछ ही देर में मेरी जीभ संवेदन शीलता को महसूस करने लगी उसमें मिर्च की तेज स्‍वाद फैलने लगा और मेरे पेट में गया खाना, एक सुखद अहसास दे रहा था। तब लगा की अब और नहीं तो सब बहार आ जाएगा। और मैं खाना खाने से रूक गया।  मुंह पर जीभ फेर कर आस पास लगे खाने से अपने मुख को साफ करने की और अंदर गये खाने का स्‍वाद लेने की इस प्रक्रिया को दोहने लगा। मुझे यह जान कर अचरज हो रहा था कि मेरे मुंह के किनारे फट गये थे। जिनसे मेरी जीभ अटक रही थी। वहाँ कुछ मिर्ची भी लग रही थी। तब में लम्‍बी टाँगे कर लेट गया।

शायद कितनी देर लेटा और कितनी देर सोया इस बात का मुझे कुछ पता नहीं। पता तो यह चला की पक्षी गीत गा कर सोने की तैयारी कर रहे है। इतनी जल्‍दी दिन बीत गया, गजब हो गया....अभी तो पल भर पहले उठने की गीत गा रहे थे। और अभी पूरा पेड़ पक्षियों के कंठ से सुबह के गीत निकले थे....अब वह रात के गान के हिलोरे ले रहा है। अभी कुछ चिड़ियाओं के झूंड के झुंड दूर—दूर एक लंबी युगल उड़ान भर रहे थे। कभी वह वृक्ष के पास आ जाते और फिर अचानक मुड़ कर वापस दूर चले जाते थे। मैं ये सब देख रहा था। अपने शरीर अपने दर्द को भूल कर मैं उसमें खोया था, तभी किसी के पैरो की आहट मुझे सुनाई दी। देखा वही साधु हाथ में एक बर्तन लिए मेरी और आ रहा है। पास आकर उसने वह बर्तन मेरे सामने रख दिया। मैंने एक बार उन्हें धन्यवाद की नजर से देखा।

मैं अपने ही ख्‍यालों में खोया था। ये सब देख कर भी मैं घटना क्रम को जोड़ नहीं पा रहा था। कि ये क्या है? कौन लोग है ये? मैं कहां हूं? कैसे आया? कहां से आया? ये सब क्‍या हो रहा है? कभी अपने बारे में कभी उस साधु कभी उस पेड़ कभी उड़ते पक्षियों के बारे में ये विचार लगातार मेरे मन मस्तिष्क में चल रहे थे। प्‍यास तो मुझे लगी थी और गला जल भी रहा था क्‍योंकि जो खाना मैंने खाया था वह मेरे पेट में एक आग सी पैदा कर रहा था। उस आदमी की चाल में से सौंदर्य था। एक निर्भीकता थी, एक संगीत था, एक लय थी, एक लोच थी एक आनंद था, वह एक चिर परिचित सी लग रही थी वह चाल मुझे। लग रहा इसी तरह से मैंने कितनी ही बार देखा है उस दृश्य को, परंतु किसको और कहां? ये सब याद नहीं आ रहा था। उसने बर्तन मेरे सामने रख दिया, तब मेरे विचारों का तार टूटा.....और मैंने एक बार उसकी और देखा और फिर बर्तन में मुख डाल कर उसे ठंडा और स्वादिष्ट पेय को पीने लगा था। ओह ये तो दूध है, अचानक मैं चौंका! आज इस दूध का स्वाद भी कितना अदभुद्ध और मीठा था।

वह दूध मेरे मुंह में और पेट में जो जलन थी वह उस पर मरहम का काम कर रहा था। मैं उसे स्‍वाद ले-ले कर पी रहा था। वह मेरे लिए अमृत तुल्‍य था। उसकी एक बूंद का स्वाद महसूस कर रहा था। वह आदमी चला गया। और मैं कितनी ही देर उस पेय को पीता रहा और दिमाग पर जोर डाल कर उस पेय या पेय लाने वाले के बारे में सोचता रहा दोनों का मेल कुछ परिचित सा लग रहा था, जैसे मैं उसे जानता हूं, लगा अपने अचेतन में झांकने, परंतु वहां पर उस सब की कोई छाप नहीं थी।

दूर उतुंग पहाड़ी की चोटी पर धूप छिटकी नजर आ रही थी। उस पर पड़ रही पिताम्बर सूर्य की किरणें आंखों में एक चुंधियाया पन भर रही थी। सब पक्षी अपना-अपना राग अलग ही आलाप रहे थे। तब दूर एक बांसुरी के बजने की आवाज मेरे कानों में आने लगा। मुझे लगा कि ये आवाज मैंने पहले भी कभी कहीं सुनी थी। और मैं याद करने की कोशिश करने लगा। तब पापा जी का हलका धुंधला चेहरा जो साधु के चेहरे जैसा लगा रहा था। मानो एक धुएं के पार कोई बैठा बांसुरी बजा रहा था, कभी वह आवाज मेरे कानों में आ जाती फिर पक्षियों का गान उसमें लीन हो जाते थे। कभी वह चित्र एक धुएं की तरह बन जाता और धीरे—धीरे वह धुआं अपना आकार बदल लेता। चित फैल रहा था, अपने विस्तार से बाहर झांक रहा था। सूर्य अस्त होता जा रहा था। मैंने अपनी आंखें बंद कर ली और न जाने किन विचारों में खो गया।

इसी सोच विचार में ने जाने कहां खोया रहा और देखते हुए न देखना क्या होता है ये मैंने उस दिन जाना। दूर जो दृश्य दिख रहा था वह अंधकार में बदल रहा था चीजें धुंधली हो रही थी और आसमान पर पीत से नीलाभ रंग ले रहा था और धीरे-धीर उस पर मोतियों की तरह तारे चमकने लग रहे थे। जैसे कोई एक-एक तारें को आकर आसमान की चादर पर जड़ रहा हो। कितना सुंदर दृश्य था। मैं उसे देखता रहा और आपने सब दुख दर्द को पल भर के लिए भूल गया। ये सब देखते ही देखते मैं नींद की गोद में चला गया, कब कौन सा वातावरण आपको सहज और सुलभ और शांत कर दे इसके बारे में कुछ भी पक्का कहा नहीं जा सकता। आज इन तारों की छांव ने लोरी का काम कर मुझे सुला दिया। शरीर में कुछ आराम था परंतु वह एक कमजोर भी महसूस कर रहा था। नींद कहे या एक गफलत...परंतु तन और मन दोनों अब प्रसन्न लग रहे थे।

 

भू.... भू..... भू.....

आज इतना ही।

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