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शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

35 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

 पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्‍याय-35)

अध्‍याय-35

मां के अवशेष

आज मैं दिन भर खूब सोता रहा, परंतु पापा जी का काम तो आज अधिक बढ़ गया था। उन्हें तो वरूण भैया को जाकर स्‍कूल से भी लाना और दुकान के लिए दूध भी लाना होता था। परंतु पापाजी मेहनत से कभी नहीं डरते थे। रात को जब पापा जी दुकान से आये तो आज शनिवार था और कल बच्‍चों के स्‍कूल की छुट्टी थी। इसलिए आज वह रात का ध्‍यान भी नहीं कर सकते थे। आज दिन का ध्‍यान मैंने खराब कर दिया और अब रात के ध्‍यान को बच्‍चे नहीं करने देंगे क्‍योंकि वह कहानी सुनाने की जिद्द जरूर ही करेंगे। इतने बड़े हो गये है फिर भी कहानी बच्‍चों की तरह से सुनने की जिद्द करते थे। सच पापा जी कहानी बहुत मजेदार सुनाते थे। मैं भी उस संगत का आनंद लेता था। पापा जी शब्‍दों के साथ जो भाव और उत्तेजना भरते थे उस सब को केवल लेटा-लेटा पीता रहता था। सब के बीच अपना अधिकार समझ अपनी जगह बना लेता था। एक बात और है अगर अपने कहानी का आनंद लेना है तो आपको उसमें डुबना ही होगा। तब आपको पानी के बहार अपनी गर्दन नहीं निकालनी अपनी बुद्धि को एक तरफ ताक पर रखना होगा। एक सरलता एक सहजता ही आपको उसमें डुबो सकती थी। तब आपको एक बच्‍चा बनना ही होगा।

पापा जी शब्‍द बोलते थे, वो तो कम ही मेरी समझ में आते थे, परंतु वो संगत बहुत ही सुंदर होती थी। छत पर बि‍खरी बिलौरी चांद की चांदनी, दूर कही कभी किसी पक्षी की आवाज शांति को और गहरा कर देती थी। बच्‍चों के मन में एक टीस थी कि आज पोनी और पापा अकेले जंगल में गए थे। पापा जी की तो कोई बात नहीं परंतु पोनी ये तो हमसे बाजी मार ले गया। हमें तो इसे स्‍कूल जाने का गर्व दिखाते थे, कि हम कुछ है।

इसने आज जंगल का बहुत आनंद लिया तब पापा जी को शुरू से ही जंगल की कहानी सुनानी पड़ी थी। कि किस तरह से कुछ गीदड़ों ने एक मामा की गाय को घेर लिया था। और ऐन वक्‍त पर पोनी उनके बीच हीरों की तरह से कूद पड़ा और उस सब को वह से मार-मार कर भगाया दिया। बच्चे बीच-बीच में मेरे सर पर भी हाथ फेर रहे थे मैं समझ रहा था कि ये मुझे शाबाशी और बहादुरी की दाद मिल रही थी। मैं अपनी पूछ को धीरे से हीला देता था। कहानी खत्म होने पर तालियों का कलरव नाद से मैं झूम उठा और सब ने मेरे काम और साहस की भूरी-भूरी प्रसन्नसा कि। मैं गर्व से फूला नहीं समा रहा था।

बच्चे सोच रहे है कि जब सुनने में इतना रोमांच लग रहा है तो देखने में कितना आनंद आया होगा....काश इस दृश्य को वो देख पाते.....परंतु उन्‍हें नहीं मालूम की पापा जी की जान को कितनी मुसीबत आ जाती, उन के ऊपर कितने प्राणियों की जान बचाने का भार आ जाता। और जंगल का मामला है कुछ का कुछ भी हो सकता था। ये तो अच्‍छा ही हुआ की ये घटना जब घटी बच्‍चे नहीं थे। परंतु ये बातें अब मेरी समझ में आ रही है, ये बाते मैं जंगल में थोड़ा ही सोचता समझता। बच्‍चे बार—बार कह रहे थे जा पोनी तू बहुत खराब है। हमें अपने साथ ले कर नहीं गया आज के बाद हम तुझे अपने खाने में से कुछ भी नहीं देंगे। परंतु ये जलन तो कुछ पल भर के लिए थी। लेकिन कहानी खत्‍म करते—करते बच्‍चों  ने  ठान लिया की कल हमारे स्‍कूल की छुट्टी है, इसलिए हम सब को भी जंगल में ले जाना होगा। और कल देखना पोनी तुझे हम नहीं ले कर जायेंगे। परंतु ऐसा हो सकता है, मैं तो सबसे आगे सबका रक्षक बन जाता ही हूं और जाता ही रहूंगा। मम्‍मी ने तब कहा की कल दुकान पर बहुत काम है और किसी का पनीर और दही—और दूध का आर्डर भी है इसलिए सब का जाना कठिन है। तब सबके चेहरे पर उदासी छा गई। परंतु मैं आनंद से लेटा हुआ था। जंगल जाये तो ठीक न जाये तो ठीक। क्‍योंकि बच्‍चों के पास तो एक दिन है। अपने  पास तो  अनेक है कभी और किसी भी दिन जंगल में जा सकते थे।

परंतु पापा ने बच्‍चों के उदास मन को समझाया की दही और दूध का आर्डर देने के बाद हम सब चलेंगे। मम्‍मी जी नौकर के साथ दुकान देख लेगी और बाद में आकर खाना बना कर आराम कर लेगी। इसलिए मम्‍मी का जंगल में जाना कैंसिल हो गया। ठीक भी था देर से आज कल धूप भी बहुत तेज हो जाती है। और पिकनिक करने का मजा तो मीठी  सुहावनी धूप में ही है। तेज गर्मी में जंगल में जाना ठीक नहीं है।

प्रोग्राम के अनुसार बच्‍चे सो गये। और अगले दिन सब काम खत्‍म कर के पापा जी घर आये तब सब बच्‍चे और मैं एक दम से तैयार थे। जंगल में जाने के लिए। उधर दादा जी तो रोज ही जंगल में दूर दराज तक घूमने जाते थे। परंतु मिलते वह हमें कभी-कभी ही थे। आज बच्‍चे पूरे जोश खरगोश के साथ जंगल में जा रहे थे। हम सब तेजी से दौड़—दौड़ कर एक दूसरे को पीछे  छोड़ रहे थे। मेरे साथ तो एक वरूण भैया ही कुछ दूर तक दौड़ लेते थे। बाकी तो बहुत पीछे रह जाते थे। दीदी कुछ दूर तो हमारे साथ आई फिर कहने लगी तुम जाओ में तो पापा जी के साथ आती हूं। हम सब पानी वाले पहले नाले के पास पहुंच गये। देखा तो वहाँ पर दादा जी एक पत्‍थर पर बैठ कर नहा रहे थे। मैं दौड़ कर उनके पास सबसे पहले पहुंचा। मुझे देख कर दादा जी बहुत खुश हुए और मुझे प्‍यार करने लगे मैं उनके सामने ही पानी में बैठ गया इतनी देर में वरूण भैया भी जोर से आवाज  लगाता नीचे ढलान पर दौड़े आ रहे थे। दादा जी.....दादा जी....तब दादा जी  समझ गये कि हम सब घूमने आये है। परंतु एक शंका उनके मन में जरूर थी कि दुकान पर फिर अकेली तुम्‍हारी  मम्‍मी जी है। हम कुछ देर वहां पर रुके और फिर आगे की मंजिल की और चल दिये।

दादाजी का शरीर अभी भी इस उम्र में बहुत बलिष्‍ठ था। वह नित नियम से 5—6 मील हर सुबह श्‍याम  घूमने आते थे कभी-कभी बच्‍चे भी उनके साथ आ जाते थे। परंतु आजकल गीदड़ों का प्रभाव कुछ अधिक हो गया था। वह दिन में भी दिखाई देने लगे थे। वैसे तो गीदड़ बहुत डरपोक प्राणी है परंतु पशु प्रकृति के स्वभाव समय के साथ बदल जाता है। वह मोका देख कर अपना निर्णय बदल लेते है। कल ही तो उन गीदड़ों ने दिन में ही गाय पर हमला बोल दिया था। तब दादा जी ने जो सब को आदेश दिया खास कर पापा जी को की ज्‍यादा अंदर नहीं जाना। क्‍योंकि वह मेरे और पापा जी के स्‍वभाव को जानते थे। कि हम बहुत ओरान-आवारा गर्द है। अच्‍छे बुरे की खतरे की इन्हें कम पहचान है, क्‍योंकि अभी हम जवान थे। ये बाते दादा जी कहते थे मैं थोड़े ही कहता हूं।

आज जंगल में बहुत मजा आ रहा था। क्‍योंकि आज हम सब साथ थे। बच्‍चे इधर—उधर होते तो मेरी जिम्‍मेदारी अधिक बढ़ जाती थी। कुछ दूरी पर मैंने देखा की एक तीतरों का झूंड कुछ मिट्टी से निकाल कर खा रहा था। मैं दबे कदम से उनकी और बढ़ा पास की झाड़ी का सहारा ले कर मैं घूम कर उनके काफी नजदीक पहुंच गया था। अचानक उन पर तेजी से झपटा। इस सब के लिए वे बेचारे तीतर तैयार नहीं थे। एक तीतर को लगभग मैंने पकड़ लिया था। उसके पंख मेरे मुंह के पास थे अगर मैं अपने जबड़े बंद कर देता तो वह मेरे मुंह में ही रह जाते। परंतु न जाने क्‍या सोच कर मुझसे ऐसा नहीं हुआ और केवल मैंने अपना खुला मुंह खुला ही रखा। वह बेचारे इतना डर गये थे की कि.....कि.....कि.......कि कर के उड़ गये। ये सब वरूण भैया भी दूर से देख रहे थे। और फिर मैं दौड़ कर वरूण भैया कि तरफ गया। तब भैया ने कुछ अचरज से मेरी और देखा डाटने के अंदाज में कहा तू बहुत खराब है। उन बेचारे तीतरों को क्‍यों डरा दिया और एक तीतर को तूने पकड़ ही लिया था। तब मैं अपनी पूछ हिलाने लगा।

सच ही ये मेरे लिए एक खेल था। मन में मेरे कोई हिंसा नहीं थी और खाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। सच ही मैं चाहकर भी उन्‍हें खा नहीं सकता था। ये सोच कर ही मुझे मितली सी आने को होती थी। मेरे को ये समझ नहीं आ रहा था कि किस तरह से मैंने उस मरे हुआ खरगोश खा लिया था। अब एक बात और मेरे साथ होने लगी थी। घर का कोई प्राणी जैसे ही घर बहुत नजदीक आता जब वह 100—500 मीटर दूर ही होता मुझे भान होने लगता की कोई आ रहा है। घंटी के बजने से पहले दरवाजे के पास पहुंच कर उसके स्‍वागत के लिए तैयार रहा था। इस बात से पूरे घर के लोग परेशान थे कि पोनी को न जाने कैसे पता चल जाता है, की कोई आने वाला है।

आगे चलने के बाद बच्‍चों ने एक झाड़ से कुछ जंगली फल खाये। एक फल दीदी ने मुझे भी दिया था। इन दिनों पिल और राम चना जंगल में खूब लगा होता है। कहीं कही जहां पर नमी अधिक होती है वह काली मेवा भी लगी मिल जाती है। हिंगोट की तो इस समय बहार थी। लेकिन वह एक जंगली और कड़वा फल था जो शायद किसी दवा के काम आता था। इसलिए उसे कोई तोड़ता नहीं था, न ही जानवर उसे आसानी से खा सकते थे। क्‍योंकि उसकी गूठली पर पहले तो एक चिपचिपा कड़वी—कसैलापन लिए एक गोंद की तरह परत होती थी। उस पर उसकी गूठली भी बहुत पक्‍की और मजबूत होती थी। शायद जमीन पर गिरी रहने पर भी वह एक दो बरसात के बाद ही उग पाती होगी। पील का फल जो एक रसीला लाल रंग का बैर की तरह से होता है। परंतु वह होता है एकदम रसीला उसका खट्टा मीठा स्‍वाद बहुत अच्‍छा था। तब मैंने एक दो ही खाये और दूर जाकर सूँघने का आनंद लेने लगा। दूर मोरों का एक झूंड नाच रहा था। मेरा मन कर रहा था कि उनके बहुत पास जाकर उन्‍हें एक बार चौंका दूं। तब वह किस तरह से प्‍यांऊ..प्‍यांऊ...कर के फूर्र से उड़ जायेंगे उस सब में मुझे बहुत आनंद आता था। किसी भी प्राणी को मारने का मन में भाव आता ही नहीं था। परंतु उनके पास जाकर उन्‍हें डराने में मजा आता था।

परंतु ऐसा मैंने नहीं किया क्‍योंकि एक तो वह बहुत दूर थे और दूसरे पापा जी मुझे जरूर डाटते। तब सब बच्‍चे बहुत खुश होते आज मैं ऐसा कुछ नहीं करना चाहता था जिससे आज मेरा हीरोपन कम हो जाए। आगे चलने के बाद बच्‍चे जिद्द करने लगे की पापा जी हमें पोनी की मम्‍मी का घर भी दिखाओ। हम भी पोनी का घर को देखना चाहते है। और सब बच्‍चे मुझे घेर कर कहने लगे पोनी तू हमें अपने घर नहीं ले जाना चाहता। हम तेरे घर को देखना चाहते है। तब मैं भी पापा जी की टांगों से अपने सर को रगड़ने लगा कि चलों आज भी अपने घर चलते है। अब तो हमने देख ही लिया है। तब वह दूर ही कितना है जब यहां तक आ ही गये तो दस कदम और सहीं। तब पापा जी एक न चली। क्‍योंकि हम अनेक और पापा जी अकेले।

पहले तो हम उस जगह को खोजने लगे जिस जगह पर गाय को गीदड़ों ने घेर रखा था। कितनी जिदोंज़हद के बाद वह स्‍थान हमें मिला। भिन्न तरह से भी होने पर जंगल एक प्रकार का भ्रम से भरा होता है। सब स्थान एक जैसे लगने लग जाते है। तब वहां बच्‍चों ने पास जाकर देखा कि वहां पर कुछ गीदड़ों के पैरो के निशान रेत में छपे थे। और एक तरफ गाय के खूरों के निशान जो कुछ गहरे घंसे है जमीन में और बहुत पास—पास थे। शायद वह अपने बचाव के लिए बार-बार इधर से उधर हो रही होगी। उनकी पकड़ से बचने के लिए अपने को आगे पीछे कर रही होगी। तब वहां पर कुछ आगे जाने के बाद मेरे पैरों के निशान और साथ ही अनेक गीदड़ों के पैरो के निशान थे। परंतु रात में भी इन के अलावा कुछ नये निशान बन गये थे। मोर, तीतर, नील गाये....क्‍योंकि कल जब हम गाय को गीदड़ों से बचा रहे थे तो दूर नीलगाय का झूंड खड़ा देख रहा था। 

अब हमारी अगली मंजिल मेरा जन्‍म स्‍थान था। जिसे हमने कल खोजा लिया था। हम पहाड़ी की चढ़ाई के ऊपर की और चल दिये। आगे जाने पर झाडियां घनी हो गई थी। आगे चलने पर पानी का वह सरोवर भी आया, जहां पापाजी ने पैर धोये और मैं नहाया था। परंतु इसके आगे जंगल अति गहरा हो जाता था। हम दो बार इधर मुड़ और दो बार इधर भटके। मैं ज्‍यादा आगे तक जाकर देख भी नहीं सकते था, क्‍योंकि बच्‍चे अकेले रह जाते। पापा जी तो नहीं परंतु मैं कितनी ही दूर तक गया, अपने पैरो के निशान सूंघने की कोशिश भी शायद कल की गंध मुझे मिल जाये। परंतु रात में हलकी सी बारिश आई थी, जमीन गिली हुई लेकिन हमारे पैरो की गंध जरूर मिट गयी थी। इस वजह से आज मौसम सुहाना था। परंतु हमारा तो काम खराब हो गया था। बच्‍चे कुछ देर तो सांस रोक कर मुझे देखते रहे। फिर उन्‍हें ये सब अच्‍छा नहीं लग रहा था। अब वह कहने लगे पोनी तू बेकार है, अपने घर को भी नहीं जानता कल तो तु आया था। और एक ही दिन में भूल गया सच ही तु बहुत बूद्धू मूर्ख, नासमझ या बेवकूफ ही होते है।

फिर पापा जी को देख कर भी कहने लगे की आप तो यहाँ सालों से आते रहे हो, आप तो जंगल का एक—एक कोना जानते हो, फिर आप कैसे भूल गये। आज हम दानों की खुब खिंचाई हो रही थी। परंतु बच्चे शायद नहीं जानते की जंगल अपने में नित-नूतन नए रहस्य लिए रहता है। घर का रास्‍ता ढूंढना एक बात थी, वहां पर पगडंडी बनी होती है। आप उसके सहारे से आम रास्‍ते पर आ सकते हो। परंतु आप जंगल में एक खास स्‍थान को खोजते हो यह बहुत कठिन था। परंतु अचरज की बात तो यह थी कि अभी कोई ज्‍यादा देर नहीं हुई थी हमें यहां कल ही तो आये हुए। वह स्‍थान कुछ बदला नहीं था, कुछ महीने हो तो घास और पेड़ पौधों की वजह से कुछ बदल सकता है। परंतु अभी तो ऐसा कुछ हुआ नहीं लेकिन उस स्थान को ढूंढना कितना कठिन था। सच मेरी मां ने किस रहस्य में अपना घर चुना था। इस बात का मुझे और पापा जी बहुत गर्व हो रहा था। पापा जी कहने लगे देखो पोनी का दिमाग अपनी मम्मी पर गया है, देखो किस अलकूफा में पोनी की मम्मी ने घर बनाया।

तब पापा जी ने कुछ निर्णय लिया और बच्‍चों के हाथ में अपना डंडा दे कर कहने लगे तुम यहां पानी के पास ही बैठ जाओ....और पोनी तू भी यहीं पर रह....मैं देखने की कोशिश करता हूं। परंतु मैं कहा रहने वाला था, वहां पर मैं तो पापा जी की पूछ था। बच्‍चे मुझे चम्‍मच कह कर चिड़ाते थे। लेकिन मैं ज्‍यादा दूर नहीं जा रहा था क्‍योंकि मैं जानता था कि जंगल यहां बहुत घना है। और सच पापा जी को भी दूर नहीं जाना चाहिए। पापा जी बस देख रहे थे दूर—दूर तक आंखें फैलाकर शरीर उनका पानी के आसपास ही था। और अच्‍छा भी था। मैं बच्‍चों के पास वापस आकर भौंकने लगा। मेरा भोंकना सून कर बच्‍चों को कुछ राहत थी। पापाजी भी पास ही थे ज्यादा दूर नहीं थे हमसे। यह मैं महसूस कर रहा था। करीब आधा घंटा तक हम इधर उधर भटकते रहने के बाद, तब कहीं पापा जी को वह ऊंचे पत्‍थर दिखाई दिये। फिर पापा जी एक विजेता कि तरह हमें वापस लेने के लिए आ गये। उन्‍होंने हिमांशु भैया की उँगली पकड़ी और हम उन पत्‍थरों की और चल दिये। मैं बहुत खुश था क्‍योंकि अब हम सब साथ थे और कम से कम बच्‍चों के पास पापाजी तो थे ही मैं मुक्‍त था दूर—दूर तक देखने के लिए। मैं उन पत्‍थरों के पास पहुंच कर सुधने लगा, बारिश जरूर हुई थी परंतु यहां घनी झाडियों के बीच उस बुंदा बांदी का कोई विशेष प्रभाव नहीं हुआ था।

बार—बार पीछे मुड कर भी देख रहा था कि सब लोग आ रहे या नहीं। मैंने सोचा हम इतने बूद्धू थोड़े हो सकते है कि जिस जगह कल आये और आज भूल जाये....भटक जरूर सकते थे। परंतु उसे पा जरूर लेंगे। अब मेरे अंदर एक विशेष साहास था। और मैं झाडियों के अंदर से पार चला गया। वहां पर मुझे अपने और पापा जी के पैरों की गंध महसूस हुई। बस अब तो मैंने अपना नाक जमीन को छुआ लिया चाहे वह छील ही क्‍यों न जाये। परंतु अब तो अंदर तक की गंद को मैंने सूंघ लिया था। और कुछ ही ऊपर जाकर वह खान नजर आ गई। मैं जोर से भोंका की यहां आ जाओ पुकारने लगा। पापा जी मेरे भौंकने को समझ गये, की जरूर पोनी ने फतह कर लिया अपने घर का किला। करीब 10—15 मिनट तक इधर उधर झाडियों का चक्‍कर लगा कर पापा जी बच्‍चों को लेकर उस स्‍थान पर पहुंचे तब तक तो मैं नीचे तक पहुंच गया था। ऊपर जाकर मुझे आवाज सुनाई दि पोनी तू कहां है। तब मैंने भौंक कर कहा की यहां......और मैं दौड़ता हुआ ऊपर की और चल आया।

सब उस खान के मुहाने पर खड़े थे। परंतु वह स्थान इतना विचित्र था कि इतने पास आकर भी उसे पहचाना नहीं जा सकता था। मानो वह अलकूफा बना गया जैसे वहां जा कर आंखों को भ्रम होने लग जाता था। परंतु सच उस जगह की बनावट ही इतनी विचित्र थी। चारों और देखने से भी गहरी खान का ढलान दिखाई नहीं देता था। एक जैसी झाडियां और गहरे ऊंचे वृक्ष लगता ही नहीं था कि वहां गहरी खान होगी। तब मैं पापा जी के पास पहुंच कर अपनी पूंछ को जोर—जोर से हिलाने लगा। पापा जी ने मेरे सर पर हाथ फेरा और पूछा की मिल गया....और मेरी आंखों में देखने लगे। मेरी आंखों में पाने की एक खास खुशी थी। और मेरी पूछ फतह की झंडी लहरा रही थी। उसे पापा जी ने देख लिया और मुझे बहुत प्‍यार किया और बच्‍चों को कहने लगे पोनी ने अपना घर पहचान लिया चलो हम सब भी उसी और चलते है। बच्‍चों को अचरज हो रहा था यहां तो हमें कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। और हम सब नीचे उतरने लगे। घुमावदार ढलान और बजरी के बारीक कण...पैर जमने नहीं दे रहे थे।

पापा जी आगे खड़े हो गये और बारी—बारी सबका हाथ पकड़ कर धीरे...धीरे नीचे उतारने लगे। लेकिन एक बात था कि आज अगर मम्मी जी होती तो हमें यहां कभी नहीं आने देती। और इस तरह तो कभी नहीं उतरने देती। ये साहास और सर्कस तो केवल पापा जी कर सकते थे। लेकिन वरूण भैया तो सबसे आगे थे और खुद ही उतरना चाहते थे। तब पापा जी ने कहा बैठ कर और साथ की घास को पकड़ कर धीरे-धीरे उतर। और सच यह ढलान बहुत खड़ी थी। में तो उतर गया। और आगे जा कर सब का इंतजार करने लगा। आज सब जान गये की मैं कितना बहादुर हूं....किसी भी जगह सबसे पहले पहुंच सकता हूं। सब नीचे उतर कर इकट्ठे हो गये। पापा जी लगभग सब का हाथ पकड़ कर सब को बारी-बारी से उतार रहे थे। अभी जमीन सपाट नहीं आई थी। लेकिन ढलान खत्‍म हो गई थी। हमारे चलने के कारण कल की घास भी दबी हुई थी।

वहीं हमारी मार्ग दर्शक थी। पापा जी अपने जुतो से दबी घास को चिन्हित करते आगे बढ़ रहे थे। पास की दो तीन झाडियों के चक्‍कर लगा एक पत्‍थर के पास से गुजरते हुए पापा जी ने बच्‍चों से कहा की थक गये हो तो आराम कर लो इस पत्‍थर पर। वह जो एक पत्‍थर ऊपर से गिर कर एक पेड़ के तने के सहारे से रूक गया था। कितना खतरनाक था उसे देखना। इतना बड़ा पत्‍थर और इतने छोटे से पेड़ ने किस तरह से उसे रोक रखा था। उसे देख कर डर भी लग रहा था। परंतु अब तो उसके आस पास कुछ और पेड़ उग गये थे। अब उस पत्थर को अनेक पेड़ पौधों ने घेर लिया था। सच में बच्‍चे थके नहीं थे वह जल्‍दी से जल्‍दी मेरा घर देखना चाहते थे। और अब वह स्‍थान दिखाई दे रहा था। जिसे कल पापा ने बनाया था। और लो हम पहुंच गये मेरे घर पर। सुखी मुलायम घास कैसे सोने की तरह से दमक रही थी। कल पापा जी द्वारा बनाई मां की कब्र दूर से दिखाई देने लगी थी।

हम पास पहुंच कर बैठ गये। बच्‍चे इधर उधर देखने लगे की पोनी का घर कहां है। मेरा यहां कोई महल थोड़ा ही होगा। परंतु पापा जी ने आज उस जगह को और आगे जाकर ध्‍यान से देखा मुझे भी कुछ—कुछ याद आ रहा था। सच ही वहां पर एक खो थी। जिस के अंदर हम पैदा हुए थे। और वह तो बहुत बड़ी नहीं थी। बचपन में जो खाने बहुत गहरी और डरावनी लगती है बड़ा होने पर वह कितनी उथली और छोटी हो जाती है। मेरी खो भी मुझे कुछ छोटी लगी। परंतु फिर भी अंदर से बहुत बड़ी थी चाहे तो आज भी मैं उस में अंदर जा सकता हूं। और मैं अंदर जाना चाहता था। पापा जी ने कहा ध्‍यान से पोनी अंदर कुछ हो ने। और मैं उसे सुधने लगा। और अंदर जाकर देखने लगा। बच्‍चे एक—एक चीज को बड़े ध्‍यान से देख रहे थे। कितनी विचित्र दुनिया है पोनी ने जन्‍म इस स्‍थान पर लिया और हमारे घर आ गया। तब पापा जी से पूछने लगे पापा जी ऐसा क्‍यों हुआ। पोनी हमारे घर आया और इसके दूसरे भाई बहन तो न जाने कहां गये होगे।

तब पापाजी ने कहा आओ बैठो.....और सबने पानी पीया और खाने का जो समान हम लाये थे बाट चूंट कर सब खाने लगे। वहां पर खाना भी बहुत स्वादिष्ट लग रहा था। सबने मम्‍मी के हाथ के बने पराठे को खूब मजे में खाया। और फिर बोतल से पानी पिया। सब वहां उस स्‍थान पर कुछ देर रहना चाहते थे। बच्‍चों ने फिर वही बात दोहरा दी....कि पोनी यहां जन्‍म लेने के बाद भी हमारे घर आया क्‍या ऐसा लिख हुआ था। या यह एक घटना है जो अकस्मात ही घट गई। तब पापा जी ने कहा नहीं यह कर्म का सिद्धांत है हिन्दू इसे ही कर्म का फल भी कहते है। कि आज तुमने जो कुछ भी अच्‍छा या बुरा किया वह तुम्हारा रास्‍ता निर्मित करता है। तुम्‍हारी चेतना उसी रास्‍ते से गुजरती है....जैसे पानी को एक फर्श पर छोड़ो और सूख जाने पर भी आपने वहां एक अदृश्य निशान बना देता तब उस सूखे होने पर भी पानी को छोड़ा जायेगा तो वह उसी-उसी स्‍थान से होकर चलेगा। यानि कर्म हमें मार्ग दिखाते है। यानि ये जीवन अराजक नहीं है, हम इसे खुद निर्मित करते है। अपने कर्मों के हिसाब से।

पोनी ने पिछले जन्‍म में जरूर कुछ ऐसा किया होगा....जिससे इसकी चेतना में वह रास्‍ता बना था और फिर कहीं भी जन्‍म लिया हो पानी तो वही बहना था। और हजारों हजार कुत्‍तों को तुम गली में देख सकते हो। सब तो किसी के घर नहीं जा सकते। तब इसे क्‍या ईश्वर का अन्‍याय कहोगे। नहीं ईश्वर किसी पर क्‍यों अन्‍याय करने लगा। हम तो खुद ही अपना चुनाव करते है। हिन्दुओं का दर्शन सबसे महान है कोई तुम्‍हें जन्‍म देनेवाला है तो तुम अगर तुम गुलाम हो तुम्हारा महत्‍व ही क्‍या है। जब तुम अपना चुनाव भी नहीं कर सकते तो तुम किसी के हाथ की कठपुतली हो। तुम्‍हारी महानता ही क्‍या है। तुम कुछ भी बन गये इसमें तुम्हारा गुण गौरव क्‍या है। लेकिन अपने जन्‍म कर्म के मालिक अगर तुम खूद हो तो यही तुम्‍हारी स्वतंत्रता है। तुम स्वतंत्र हो अगला पैर उठाने के लिए। और यही ठीक है नहीं तो एक बच्‍चा जन्‍म लेते ही मर जाता है तब एक बच्‍चा बीमार पैदा होता है एक बच्‍चा राजा के घर ऐश्वर्य को भोग करता है।

तब तो सच ही कर्म प्रधान है और ठीक ही है। पापा जी कितनी अच्‍छे बाते करते है हम सब वहां बहुत देर तक बैठे रहे। तब पापा जी ने कहा देखा यह पोनी की मां की कब्र है। पोनी जब एक बार दो दिन के लिए गायब हो गया था। और हमने उस कहां—कहां नहीं खोजते रहे थे उसे। तब वह अपनी मां के संग था। उसकी मां ने उसके सामने ही प्राण त्यागे थे। और हम सब ने वहां कुछ देर बैठ कर ध्‍यान किया। चारों और सीतल पवन बह रही थी। अभी दूर सहमल के वृक्ष पर जो फूल सूख गये थे वहां पर बारीक महीन रूई उन बीजों को उड़ा—उड़ाकर दूर दराज ले जा रही थी। जंगल में जो अमलतास थे उनकी पुरानी फलिया जो मटमैले रंगी की थी, अभी भी पेड़ से लटकी पड़ी थी। और दोबारा नई पत्‍ते अंकुरित हो रहे थे। कहीं-कहीं तो कोई वृक्ष पानी के अधिक नजदीक थे फूलों से भी लद्द गये थे। कितने कम फूल है जो गर्मी में अपना सौंदर्य बिखेरते है, उनमें अमलतास भी एक है। पीले-पीले गुच्छे पेड़ पर लटके कितना रमणीय बना देते है उस स्थान को। देखने में यूं लगता है प्रकृति का आप प्रिय रंग जो फूलों में भरती है वह पीला होना चाहिए। जैसे प्रकृति के पास सबसे अधिक प्रचुरता में पीला ही रंग ही समाया है। कैर या टींट के पेड़ ने लाल—पिंक फूलों से अपने आप को सजा लिया था। ढाक के फूल सब झड़ चुके थे। हां हिंगोट ने जरूर अपने सफेद और परपल फूलों को खिलाना शुरू कर दिया था। परंतु कोयल दूर कहीं बैठी मधुर गान कर रही थी। तोते तो जंगली कीकर की फलियों को कुतर—कुतर कर नीचे फेंक रहे थे। वह खाते कम थे और बरबाद ज्‍यादा ही करते थे। जहां कहीं भी आप कीकर को देखोगे वही उसके नीचे फलियों का ढेर लगा मिलेगा आपको।

इस स्थान पर बैठने से कुछ ही देर में मन कितना ताजा हो गया था। मानो आपके मन का वजन एक छटांक भर रह गया हो। जब मन पर भार नहीं होता तो कितना निर्भार लगता है यह तन। क्‍या मन में भी विचारों का भार होता है। या हमारे अलग-‘अलग विचारों का अपना अलग-अलग भार होता है। जब हम प्रसन्‍न होते है तो कितनी हल्के होते है, और तनाव के समय हम कितने भारी हो जाते है। यानि की विचारों में भी भार होता है। तनाव और दुख के विचार भारी होते है। और आनंद और खुशी के क्षण हम हलके हो जाते है। बच्‍चों ने उठ कर मुझे खूब प्‍यार किया। और मैंने भी उनके हाथ चाटें और खूब पूछ हिला—हिला कर उन्‍हें धन्‍यवाद दिया। देखो पशु का जन्‍म ले कर भी मैं कितना भाग्‍य शाली हूं कि मैं एक परिवार का सदस्‍य हूं। मुझे वो सब सुख सुविधा मिलती है और परिवार के सदस्य को मिलती है।

तब हम खुशी और आनंद से दौड़ते घर की और चल दिये थे। रात की बारिश के कारण धूप होने पर भी हवा में ठंडी थी। कहीं—कहीं दूर दराज आसमान पर बादल भी थे। लेकिन वह सफेद मक्खन जैसे लग रह थे। इतना तो मैं समझ गया था कि इनमें पानी नहीं होता। पानी वाले बादल तो एक दम काले और घने होते है और उसके साथ बिजली भी चमकती है। जिससे मुझे बहुत डर लगता है। हम अपने घर की और चल दिये। आज बच्‍चे बहुत खुश थे आज का पिकनिक सच ही बहुत यादगार था। सब अपने साथ एक उदासी और एक खुशी साथ लिए चल रहे थे। 

 

भू.... भू..... भू.....

आज इतना ही।

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