अध्याय-(दवा की गोलियां खाना)
ये भय और अभय हमारे शरीर में किस तरह से जमा रहे है यह भी एक रहस्य ही है। जिसे केवल होश से जीने वाला ही जान और समझ सकता है। जैसे—जैसे हम बड़े होते चले जाते है हमारे चेतन या अचेतन में जमा सब भाव हमारे मन पर प्रकट होने शुरू हो जाते है। न जाने क्यों अचानक मुझे बीमार आदमी से अधिक भय लगने लग गया था। जब भी कोई घर में बीमार होता तो मैं उसके पास जाने से कतराने लग गया था। जिसका कारण मैं खुद भी नहीं जानता था, हां इतना जरूर जानता था कि जब मैं बीमार होता था तो मुझे ऐसा लगता कि अब मैं भी मर जाऊंगा। पहले इस बात का मुझे कुछ भी पता नहीं चलता था, न ही उस समय कोई भय ही था। अचानक यह भय मेरे मन में कहां से आ गया, परंतु इतना मैं जानता था की यह अभी कुछ ही दिनों से ऐसा होना शुरू हुआ था। कभी—कभी तो अचानक ध्यान का संगीत सुनते-सुनते मैं अंदर तक कांप जाता था। लगता था मुझे कोई किसी गहरी खाई में गिरा रहा है। तब मैं भय और डर कर सुबकने लग जाता था। वह संगीत ऐसा मेरे अंदर घंसता चला जाता, जैसे वह मुझे अंदर तक चीर रहा हो। कभी मुझे लगता की मैं दो टुकड़ों में विभाजन हो रहा हूं। मैं चाह कर भी उस समय अपने शरीर को हिला-झूला नहीं सकता था। परंतु एक जागरण मेरे अंदर जन्म लेता सा मुझे महसूस हो रहा था। मैं ये देख रहा होता की डर रहा हूं और में हिल नहीं सकता हूं। जैसे मुझे कोई बहुत जोर से दबा रहा है एक पतली सुरंग की भांति धकेल रहा हो। सच ही मुझे डर लगता की में इसमें फंस गया तो कैसे निकलूंगा। एक भय के साथ विचार की लहर भी मेरे मन-मस्तिष्क में चलती रहती थी।
ठीक उसी समय अकसर या तो मम्मी या पापा अपना ध्यान छोड़ कर मुझे सहलाते और आवाज देते थे। तब मैं धीरे-धीर शरीर पर वापस लोट आता था। एक बात और थी वह कुछ विरोधा भाषी जरूर है लेकिन होती थी तो कहनी ही होगी। उस भय के साथ वहां एक शांति भी होती थी,जहां से आने का मन नहीं होता था। वह भय भी कितना शांति दाई था, उसे शब्द में बांधा नहीं जा सकता। कैसा अद्भुत डर था वह अकारण।इन्हीं दिनों दादा
जी अचानक बीमार हो गये। वैसे तो छोटी मोटी बीमारी को दादा जी कुछ नहीं समझते थे।
परंतु इस बार हालत कुछ अधिक ही खराब हो गई इसलिए उन्हें घर पर लाना पड़ा क्योंकि
दादा जी घेर (बैठक) में रहते थे। जहां पर हमारी दुकानें थी उसके ऊपर दादा जी कमरा
था। वह खाना खाने या टी वी देखने के लिए ही आते और बच्चों के साथ खुब मोज मस्ती
करते थे। कभी-कभी वह हम सब को कहानियां भी सुनाते थे। मैंने तो उन्हें आज तक कभी घर पर सोते नहीं देखा था। वह तो उन
दिनों भी वहीं जाकर सोते थे, जब पापा जी मम्मी और बच्चे कुछ दिनों के
लिए कहीं चले जाते थे। पूरे घर में मैं अकेला ही सोता था। हां कभी कभार दादा जी
जरूर आकर कुछ घंटे के लिए सो जाते थे। अब इस बीमारी के कारण उनका बोरियाँ बिस्तर
घर लाना पड़ा। कुछ दिन बाद दादा जी तो ठीक हो गये। और चले गये वापस अपने कमरे में
जहां वह रहते थे। यानि दुकान के ऊपर वाले सब कमरों में दादा जी अकेले रहते थे।
लेकिन उन्हें एक बीमारी थी की वह दवा बहुत कम ही खाते थे। आधी से अधिक इधर उधर
छुपा देते या फेंक देते थे। बूढ़ा आदमी भी बच्चे की तरह हो जाता है। उसमें एक
बालपन छुपा होता है वह निकल कर बहार आ जाता होगा, जीवन का
वर्तुल मानो पूरा हो रहा होता है।
वह दवाइयां जो उन्होंने
इधर-उधर फेंकी थी,
गोल रंगीन गोलियां देखने में बड़ी सुंदर थी मैंने जीभ लगा कर देखा
तो वह मीठी लगी। मैंने उन्हें सूंघ कर देखा उनसे कोई खास गंध नहीं आ रही थी। सोच
रहा था की उन्हें खाना या नहीं खाना इस बात का मुझे कुछ पता नहीं चला। परंतु ये सब
खतरनाक भी हो सकती है, इस का जारा भी भय या एहसास मुझे नहीं
था। क्या मैं उतना बड़ा हो जाने पर भी इतना मूर्ख था.... ये मेरे साथ ऐसा कैसे हुआ
आज तक मैं उस रहस्य को मैं कभी समझ नहीं पाया। जैसे किसी सम्मोहन अवस्था में ये सब
हुआ हो। मैं तो मिर्च को सूंघ कर ही में समझ जाता की यह तीखी है या यह मीठी है,
परंतु उन गोलियों के साथ ऐसा क्यों नहीं हुआ। मेरी बचाव शक्ति क्या
उस समय काम नहीं कर रही थी या अप्राकृतिक के प्रति हम अभी इतने ज्ञानी या सजग नहीं
हुए है। जितने की प्राकृतिक चीजों के प्रति थे। क्योंकि वह तो हमें हमारे पूर्वजों
से धरोहर के रूप में मिलती चली आई है। किस घास को खाना है या नहीं मैं सब जानता
था। कौन प्राणी खतरनाक है सांप या दूसरा हिंसक प्राणी अब मैंने जैसे शेर नहीं देखा
परंतु क्या आप सोचते है शेर को देख कर मैं इसी तरह सह खड़ा रहूंगा.....नहीं उसे
देखते ही मेरे प्राण सूख जाये और मैं अधमरा हो जाऊंगा। शायद ये हमारे पूर्वजों का
अनुभव जो हमारे डी. एन. ए. में ही समाया है। वही हमें जिंदा रखे है। वहीं हम अपनी
वंश परम्परा से अपने बच्चों को देते जाते है। हमें उसे जीना और भोगना होता है,
तब वह संभव नहीं की अगली पीढ़ी को मिल ही जायेगा। और नये-नये
आविष्कार उस में जोड़ते रहना है। ये मनुष्य के बस की बात नहीं रही। क्योंकि वह मन
पर जीवित हो गया। वह शरीर की संरचना संदेश वाहक शक्ति को भूल गया है।
अब जिस तरह से
हजारों कुत्ते बेचारे रोड पार करते हुए
मर जाते है। और कितने ही इस तरह से रोड को पार करते रहते है जैसे उनके वह बायें
हाथ का खेल हो। वह कितनी समझ और सतर्कता से रोड पार करना सिखाते है, क्योंकि
ये सब इस पीढ़ी को वंश परम्परा में नहीं मिला था। उसे वो अर्जित करना होता है।
जैसे आदमी का बच्चा क्या उस तरह से कर सकता था। मैं तो कम से कम नहीं कर सकता।
गाड़ी को देख कर यही समझूंगा की मैं इससे पहले निकल जाऊंगा। क्योंकि अपनी दौड़ की
गति को मेरा शरीर जन्मो से जानता है। परंतु गाड़ी का आविष्कार तो इसी सदी में हुआ
है। पहले बैलगाड़ी की गति क्या थी और धीरे—धीरे गाड़ी की गति का अनुमान भी लगाना
सहज नहीं हो रहा। तब सो में दस पशु ही इस अनुभव के बाद जिंदा रह पायेंगे। और कभी न
कभी वह भी धोखा खाकर मर ही जायेंगे। फिर यह अनुभव अगली पीढ़ी को कैसे
पहुंचे....कितना कठिन है पशु का विकास.....अब यह बात दवा पर भी लागू होती है।
हमारे पूर्वजों ने ये सब जाना नहीं इसलिए हमें मिला नहीं। और मैं इस अनुभव के
विकास का हिस्सा बनने पर उतावला हो रहा था। पहले भी मैं अपने जीवन को दो तीन बार
दाव पर लगा चूका था, ये तो मनुष्य के संग साथ था कि मैं
जिंदा हूं वरना तो कब की राम नाम सत्य हो चुका होता। जब एक बार मैं कछुवा छाप खा
ली और मेरी आँतें कट गई। मैं सोचता हूं कि मैं कितना मूर्ख हूं की कछुवा छाप की
गंध या उसका कड़वा पन भी मुझे महसूस नहीं हुआ। और अब अपने को बहुत ज्ञानी समझ रहा
हूं।
और फिर करने जा रहा
हूं वहीं एक गलती। कितना ज्ञान अभी आपके सर पर मैंने मढ़ा परंतु सबक कुछ नहीं
सिखा। इसलिए जीवन इतना सरल नहीं है। ये कठिन है मकड़जाल के समान अगर आप इसमें
जितने अधिक हाथ पेर मारोगे उतना ही उलझते चले जाओगे। एक दिन दो दिन...मेरे सब्र का
बांध टूट गया या मेरे जीवन सदा इसी तरह बीच में टूटता रहा और उसके तार बीच में ही
टूटते जुड़ते चले गये। बार—बार मैं वहीं सब करता रहूंगा जब तक पूर्णता से इसे जी न
लूं....तब आगे की गति क्या थी। वह मधुर रंगीन गोलियां मैंने खा ली....गोली बहार से
तो एक दम से मीठी थी। जो मेरी कमजोरी थी। कहते है कि मीठा हमारे लिए जहर के समान
होता है....ऐसा मैं हजारों बार सुन चूका था, क्या हमारे शरीर का ढांचा
कुछ इस तरह से निर्मित हुआ है कि मीठा हम हजम ही नहीं कर पाते....या हमारा शरीर ग्लूकोज
को अधिक मात्रा में तोड़ ही नहीं पाता। मुंह में कुछ देर तक तो मिठास घुलता रहा।
बहुत अच्छा लग रहा था और अंदर ही अंदर सोच रहा था कि दादा भी कितना मूर्ख है जो
इतनी मीठी गोली भी नहीं खाता और इधर उधर फेंक देता है। एक दो नहीं वहां तो अनेक
गोलियां पड़ी थी। और मेरे मजे आ गए। मैंने चून-चून कर खूब खाई। मानो अपनी मौत का
सामान में खूद ही कर रहा था। पर ये किसे पता होता है...भविष्य का या मूर्खता में
जरा सा ही तो विभेद होता है। ये मेरी महान मूर्खता थी।
लेकिन कुछ देर में
ही मेरे पेट में दर्द होना शुरू हो गया, लगा अभी अंदर जो जमा है सब
बहार निकल जायेगा। सर में चक्कर भी आने लगे, लगा मेरा सीना
और गला जल रहा है। मैं अपने बर्तन के पास गया और खूब सारा पानी पी गया। लगता था
पानी पीता ही रहूं, पेट फटने को हो रहा था और प्यास बुझ ही
नहीं रही थी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था, जब गर्मी के दिनों
में अधिक दूर तक तेज दौड़ता था। तब भी ऐसा नहीं होता था, उस
समय कुछ ही मिनट में बैठ कर अपनी जीभ बहार निकाल कर शरीर को ठंडा कर लेता था। वही
प्रक्रिया मैंने अभी करनी चाहिए। लेकिन वह तो कारगर नहीं हो रही थी। मुझे लग रहा
था जो मेरे पेट में है वह सब बहार आना चाह रहा था। अचानक ही मेरे मुंह से चिकने
साबुन क तरह से झाग निकलने लगे। जैसे मुझे नहलाते या कपड़े धोते समय मैंने देखे
थे।
तब में उनके
बुलबुले पकड़-पकड़ कर किस तरह से खेलता था। और उन्हें फोड़ कर देखना चाहता था, कि
इन झाग के अंदर क्या भरा है। कितने मुलायम सुंदर होते थे वे झाग। परंतु छूते ही
वह कैसे फूट जाते थे। परंतु मेरे मुख से जो झाग निकल रहे थे वह बहुत गाढ़े थे।
पूरा मुंह झाग से भर गया। और मुझे बेचैनी होने लगी। मैंने और पानी पीया और उसके
बाद उलटी में झाग के साथ सब खाना बहार आ गया। अब की बार मैंने फिर पानी पीया,
परंतु प्यास बुझ ही नहीं रही थी। मेरा पानी तो खत्म हो गया था। फिर
मैंने पास ही जो बड़ी बाल्टी रखी थी अब उससे पानी पीना शुरू कर दिया। लेकिन अचानक
मुझे लगने लगा अब तो ये सब कोई खास ही गड़बड़ हो गई है। और मैं खुली छत की और
भागा। वहां पर तीनों बच्चे दरी बिछा कर पढ़ रहे थे।
मेरी आंखें लाल हो
गई थी,
मुझे इतना साफ दिखाई भी नहीं दे रहा था। बस एक अनुमान की यह दीदी है,
यह वरूण है। लेकिन वह इस तरह से मेरा रूप देख कर सब बच्चे डर गये।
और हिमांशु तो रोने लगा, दीदी पोनी को क्या हो गया, उसके मुंह से तो झाग क्यों आ रहे है। और मैं समझ गया कि बच्चे मुझ से डर
रहे है। यहां मेरी कुछ मदद नहीं हो सकती। और तेजी से नीचे की और भागा उसी समय मम्मी
जी ने दरवाजा खोला और मैं एक बंद पिंजरे से उस पंछी की तरह बहार उड़ जाना चाहता
था। जिसका उस पिंजरे में दम घूटने वाला हो। लगता था किसी खुली जगह पर चला जाऊं,
मैं भागा दुकान के और सोचा वहां पापा जी है वहां पर वह मुझे इस हालत
में देख कर जरूर मेरी कुछ मदद करेंगे। और इस समय मेरी कौन मेरी मदद कर सकता है।
लेकिन मेरा दुर्भाग्य देखिये उस समय दुकान पर तीन चार ग्राहक खड़ थे पापा जी का
ध्यान उन की और था। मैं वहां कुछ ही देर खड़ा रहा सका, मेरे
अंदर की बेचैनी मुझे कह रही थी कि कहीं दूर निकल जा। काश में दुकान के अंदर चला
जाता और अपनी चतुराई न दिखाता। तब शायद इतना कष्ट मुझे नहीं उठना पड़ता। परंतु
प्रत्येक प्राण अपने को अधिक होशियार बुद्धिमान समझता है।
मैं जंगल का रास्ता
जनता था। जैसे-जैसे मैं भाग रहा था मेरे पेट की ऐंठन बढ़ रही थी। मेरी सांसे तेजी
से चल रही थी। लगता था अब गिरा कि तब गिरा। शरीर से पकड़ मेरी छूट रही थी लग रहा
था शरीर दूर भागा जा रहा है और मैं उसे देख रहा हूं। उस समय न ही मुझे कोई थकावट
थी, और न ही कुछ अपने शरीर का भार महसूस हो रहा था। धीरे-धीरे मुझे सांस लेना
भी कठिन होती जा रहा थी। किसी तरह से मेरा शरीर पानी के नाले तक पहुंचा और में
नीचे की और उतरने लगा। तभी मेरे पेट की ऐंठन अधिक हुई और में एक कोने में खड़ा
होकर उलटी करने लगा। पेट में जो जमा था वह सब बाहर निकल गया, इस बार कुछ खून की लाल बूंदे भी उलटी में दिखाई दी। मेरा सर चकरा रहा था,
मुझे सब घूमता सा नजर आ रहा था। मेरे अंदर खड़ा रहने की शक्ति नहीं
बची थी, मैं बैठ गया या यूं कह लिजिए की गिर गया। मेरी आंखें
बंद हो रही थी। मुझे नींद का गहरा झोंका आ रहा था। कितनी मीठी थी वह नींद....लगता
था बस इसी मुलायम रेत पर लेट कर सो जाऊं। परंतु मन में एक वासना थी पापा जी को
देखने कि क्या उन्हें एक बार नहीं देख पाऊंगा।
क्या इतनी दूर इसी तरह से हमेशा के लिए सो जाऊंगा। जीवेषणा ने जोर मारा और
जो शरीर हार मान गया था। उसे फिर अंदर से जीवेषणा ने जीवित रहने का साहास दिया।
प्राणी मरता तब है जब वह जीवन की जीवेषणा एक जिजीविषा से थक जाता है या हार जाता
है।
किसी तरह से मैंने
अपने आप को झकझोर कर खड़ा किया, शरीर है की पत्थर होता जा रहा था। वह
मेरी आज्ञा भी मानने से इनकार कर रहा था। जैसे बहुत थकने के बाद आप लेटे हो और आप
का मन तो उठ गया लेकिन शरीर अभी भी सोया पड़ा हो। आप उसे उठाना चाहते हो और वह एक
करवट बदल कर मीठी नींद में डूब जाना चाहता है। आप लाख चाहते है कि शरीर उठे परंतु
वह थिर ही रहता है। किसी तरह से डोलते-डालते शरीर को में खींच कर पानी के पास ले
गया। वहां की मुलायम मिट्टी में पेर रखते ही शरीर में मुझे एक ठंडी सी सिहरन महसूस
हुई। पानी तलवार की तरह से चुभ रहा था। वैसे तो पानी मुझे बहुत पसंद था। परंतु इस
समय पानी के पास जाने का मेरा मन नहीं कर रहा था। फिर भी मैंने जी भर खूब पानी
पिया। उस समय मेरे मुंह का स्वाद एक दम अकबका सा हो गया था। पानी भी मुझे कड़वा
लगा रहा था। दो चार कदम बढ़ा कर मैं उस कीचड़ में लेट गया....पहले तो उस कीचड़ में
जाने से मुझे बहुत डर लगता था क्योंकि उसके अंदर जौक (जो एक प्रकार का कीड़ा)
रहती थी। जो पेट के नीचे चिपट जाती थी। और शरीर का खून पीने लगती थी। लेकिन अब कोई
भय नहीं था। और देखो गजब आज कोई जौक कीड़ा मेरे शरीर से चिपट ही नहीं रही थी या
मुझे शरीर का ही होश नहीं रहा था।
कीचड़ में लेटने से
एक ठंडक सी मेरे अंदर तक उतरती चली गई। जो जल रहा था उस पर किसी ने मानो मरहम लगा
दि हो। फिर मैंने अपनी आंखें बद कर ली। दूर आसमान पर सूर्य अपने घर जाने की तैयारी
कर रहा था सहमल के पेड़ हजारों पक्षी अपनी मधुर गान गा रहे थे। सब का मिश्रित गान
वातावरण में एक मधुर कोलाहल भर रहा था। मैं जानता था अभी कुछ देर में ही सूर्य अस्त
हो जायेगा। और अंधेरा घिरने लगेगा। लेकिन मैं अंदर से सोच रहा था तब तक मैं ठीक हो
जाऊंगा और फिर रात होने से पहले घर चला जाऊंगा। इसी सब सोच विचार के करते मेरी
आंखें लग गई,
न जाने कब मुझे नींद आ गई।
इतनी गहरी और सुखद
नींद जीवन में पहली बार आई थी। वैसे तो नींद में कहीं जागरण भरा होता है। एक होश
बना रहता है,
परंतु आज इतनी गहरी नींद, सच गहरी नींद शायद
मौत जैसी ही होती होगी। तभी तो उस के अंदर सब कुछ मिट जाता है, डूब जाता है। पानी और कीचड़ के मिश्रण ने शरीर के उत्ताप्त को कम कर
दिया। और दूर कहीं कोयल का मधुर गान हवा में गूंज रहा था। आसमान पर चांद चमक रहा
था, सूर्य तो अस्त हो गया था कब का। दिमाग मेरा एक दम से जम
गया था। एक ठंडी बर्फ की तरह। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, दूर गीदड़ों की हाऊ...हाऊ....की
किलकारियां सुनाई दे रही थी। मैं समझने की कोशिश कर रहा था अभी रात शुरू हुई है या
खत्म हो रही है। क्योंकि अधिकतर गीदड़ जब घर से निकलते है तब बोलते थे या तब घर
जाने की तैयार के समय ....तब सब को निर्देश दिया जाता है कि अब घर चलो.....अब खतरे
का समय हो गया।
कीचड़ से बहार आने
पर मुझे कुछ ठंड लगने लगी थी। हवा भी कुछ ठंडक सी हो गई थी। मैं बहार निकलकर चार
कदम चला और मुझे चक्कर आ गये। और मैं मुलायम सूखे रेत में बैठ गया कहना ठीक नहीं
रहेगा,
एक दम से गिर गया, गिले शरीर पर मुलायम नरम
रेत बहुत सुखद लग रही थी। मानो में अपनी मां के मुलायम बालों पर सर रख कर सो रहा
हूं। पेट में ऐंठन अभी भी हो रही थी। कुछ देर इसी तरह पड़े रहने के बाद, लगा पेट से सब बहार निकल जायेगा। में किसी तरह से खड़ा हुआ और उलटी करने
लगा। अब की उलटी में से केवल लाल पानी बहार निकल रहा था। शायद वह लाल खून हो। कुछ
सफेद गोल....गोल.....गांठे भी साथ थी और अधिक मात्रा में तो पानी ही था। मेरे मुंह
का स्वाद एक दम से कड़वा हो गया था। लगा पानी पी लूं, जैसे
ही मैंने पानी में अपने पैर रखे, पूरे शरीर में एक ठंडी लहर
बिजली की गति से दौड़ गई। परंतु पानी तो पीना ही था। सो कुछ देर तो इस ठंड को
बरदाश्त करना ही पड़ेगा। लगा इतने ठंडे पानी में मैं कैसे इतनी देर तक लेटा रहा।
पानी पी कर मैं
बहार बैठ गया। और बहुत सोचने की कोशिश करने लगा कि मैं कौन हूं कहा से आया या अब
क्या करूँ या किधर को जाना है? परंतु होनी देखिये या मेरे भोग जो अभी
भी मुझे भोगने थे, जो इस स्वर्ग से घर निकाल कर कहां—कहां तक
ले जा रहे थे। और मैं उठा नाले कि दूसरी तरफ चल दिया। चलना तो उसे नहीं ही कहा जा
सकता केवल वह तो बस किसी तरह से अपने शरीर को खिंचते हुए लग रहा था। कितनी रात
गुजरी है, मैं कहां हूं? कौन हूं?
किधर जाना था? इस बात का मुझे जरा भी भान नहीं
था। मानो में एक नींद में ही चले जा रहा था। मेरी आंखें खुली जरूर थी, परंतु वह कुछ निर्देश नहीं दे पा रही थी। मस्तिष्क एक दम सुन्न हो गया
था। बिना मस्तिष्क के शरीर एक मिट्टी का माधो भर बन जाता है। मस्तिष्क कितना
महत्व पूर्ण अंग है शरीर के लिए। वह किसी खतरे से पहले ही किस तरह से निर्देश
देता है, कहां दर्द है...कब भूख लगी है। परंतु एक बात जो अब
भी जीवित थी वह मन की बेचैनी.....यानि की मन और माईड....बुद्धि दोनों अलग होते है।
मैं तो उन्हें अभी तक इस मस्तिष्क को एक बेकार का बोझ ही समझता था।
मैं कितनी देर यूं
ही अंधों की तरह से चलता रहा कुछ पता नहीं, न तो मुझे पता की कहां जाना
है। बस मैं अपने चलते शरीर को डोलते गिरते पड़ते देख रहा था। आस पास क्या है मैं
कहां पर हूं? कोन सी चीज क्या है? कहां
पर मैं इस समय हूं, या कि किस और जा रहा हूं। मेरी मंजिल
क्या है? इस तरह से मेरा मस्तिष्क काम नहीं कर रहा था। परंतु
न जाने शरीर को क्या हुआ। उसके अंतस में इतनी प्राण उर्जा कहां से प्रवेश कर गई।
ऐसा भी नहीं था की मेरी जीवेषणा जग गई या बढ़ गई। जीवन का मुझे कुछ भी नहीं पता।
उंचाई पर चल रहा हूं या नीचाई पर शायद दीवार भी आ जाती तो मैं उस में टक्कर मार
देता। आंखें खुली जरूर थी परंतु वह काम अधिक नहीं कर रही थी। देख रही थी जरूर,
परंतु देखने से महत्वपूर्ण समझना जरूरी होता है।
चरैवेति....चरैवेति....चलता ही रहा जब तक शरीर ने जवाब नहीं दे दिया जब थक गया तो
लेटा या गिर गया और फिर अचेत हो कर सो गया।
चलते रहने से शरीर
एक तरह की हरकत थी,
वह ही नहीं उसके साथ शरीर के बाकी दूसरे अंग भी काम कर रहे थे। वह
केवल चल रहा था। न तो मेरा मस्तिष्क उसे संदेश दे रहा था। मानो इस समय केवल मेरा अपना शरीर ही पूर्ण रूप से
स्वतंत्र है अपना मालिक वह खुद है। परंतु ऐसा नहीं है की जीवन केवल मन या मस्तिष्क
से ही चलता है। शरीर की भी अपनी एक भाषा होती है। चाहे वह मजबूरी हो या बेहोशी।
मैं फिर उठा और कुछ दूर चला। परंतु फिर थक कर गिर गया। रात गुजरती जा रही थी।
चाँद सर के ऊपर आ
गया था। मैं लेटे-लेटे उसे देख रहा था। की वह भी किस गति से मेरे साथ चल रहा था।
कौन था जो मुझे अंदर से चला रहा था। इस चलने और रुकने की बीच ही मेरी जीवन की बेल
अभी तक जीवित खड़ी थी। अब मेरा जीवन राम भरोसे था। पता नहीं मेरे मरने के बाद मुझे
कोई पहचान पायेगा या नहीं?
क्या पापा जी यहां आकर मुझे ढूंढ सकेंगे? लेकिन
तब तक बहुत देर हो चूकी होगी। आज मैं हार गया था, शायद कुछ
इंतजार वही खड़ा रह कर दुकान पर कर लेता या वहीं पर बैठ जाता तो घटना कुछ और ही
होती। परंतु ये सब अब बेकार है मेरे लिए सोचना समझना।
बस....एक गहरी
शांति और निंद्रा मुझे अपने अंदर डुबोये लिए जा रही थी। अब उसे मौत कहे या नींद...शब्द ही बदलेंगे घटना
तो दोनों एक सी घटेगी।
भू.... भू.....
भू.....
आज इतना ही।

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