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सोमवार, 15 दिसंबर 2025

03-सदमा - (उपन्यास) - मनसा - मोहनी दसघरा

 अध्याय-03

(सदमा-उपन्यास)

अंदर ड्राइंग रूम में कुछ देर बैठ कर नेहालता के सभी यार दोस्त हंसी मजाक कर रहे थे। देखते ही देखते चाय नाश्ता मेज पर लग गया। सब चाय नाश्ता करने की तैयारी करने लगे। नेहालता को एक बार तो घबराहट हुई की ये सब क्या हो रहा है? कुछ ही पल में सब वहां से चले जायेंगे और वह फिर अकेली हो जायेगी। परंतु कहीं अचेतन एकांत भी चाहता था। परंतु ये कैसा द्वंद्व था। वह उसे अच्छी तरह से समझ नहीं पा रही थी। सब यार दोस्त चाय नाश्ता कर लेने के बाद ये कहते हुए खड़े हो गए की अब तुम आराम करो थक गई होगी। बहुत लम्बा सफर तय कर के आई हो। कल फिर से मिलते है। कहीं दूर चलने का प्रोग्राम बनाते है। तुम्हारे बिना तो हमारी पार्टी अधुरी-अधुरी रह जाती थी। अब तुम आ गई हो तो देखना अब हम कितनी मोज मस्ती करते है। परंतु नेहालता कहती है, नहीं नवीन अभी कुछ दिन के लिए मैं विश्राम करना चाहती हूं, बहुत थक गई हूं। इस बात से सब को कुछ अचरज तो जरूर होता है। परंतु वह सब नेहालता की हालत को जाने है। तब यही उचित समझा गया की कुछ दिन के लिए नेहालता को विश्राम करने दिया जाये।

अच्छा अंकल आंटी अब हम जाते है। कह कर सब यार दोस्त खड़े हो गए, श्रीमति राजेश्वरी मल्होत्रा को बाये-बाये कहते हुए सब गेट से बाहर चले गए। नेहालता बाहर बाल कॉनी में खड़ी हो सब यार दोस्तों को जाता हुआ देख रही थी। सब ने कार के अंदर बैठने से पहले हाथ हिला कर नेहा को फलाईंग किस किया। और देखते ही देखते कार दूर-और दूर होती चली गई। जब तक वह मोड़ नहीं आया नेहालता अपलक उन्हें निहारती रही। सब कितना बेगाना सा लगता था।

क्या हो गया है उसे। क्या पहले भी इसी तरह से रहती थी। जितना वह सोचती थी उतनी ही अधिक उलझती चली जाती थी। इतनी देर में नेहालता की मम्मी राजेश्वरी मल्होत्रा जी ने आकर कहा बेटा अब नहा लो पानी भी गर्म कर दिया है। ये सब सुन कर नेहालता ने अपने मम्मी की और देखा और अपने कपड़े उठा कर बाथरूम में नहाने चली गई।

वह गर्म पानी से खूब नहाई और अपने सर को धोया। वह देख रही थी, उसके शरीर से एक अलग ही तरह की सुगंध आ रही थी जिससे पहले उसने कभी उसे महसूस नहीं किया था। इसी शरीर में रहते हुए भी वह अपने से कितनी पराई-पराई हो गई थी। नहाने के बाद उसे अच्छा लगा। वह बाहर आ कर अपने पलंग पर लेट गई। लेटे-लेटे उसे जाने कब नींद आ गई। या उसके थके दिमाग को कुछ विश्राम मिला और वह कुछ पल के लिए अपने में डूब गई। इसी बीच उसे एक स्वप्न आता है। कि वह एक जंगल में खो जाती है। वहां की हरियाली और सौंदर्य अद्भुत था। दूर से एक झरने की आवाज आ रही थी। उसका मन कर रहा था की वह उस झरने के पास जाये। और उसके नीचे जी भर कर नहाये। उसके शीतल जल से उसका तन मन जरूर कुछ शांत होगा। वह चलती है परंतु कितना चलने पर भी वह झरना नजर नहीं आता। अचरज भरी बात थी। झरने कि आवाज उसके कानों में साफ सुनाई दे रही थी। परंतु वह उसे ढूंढ क्यों नहीं पा रही थी। वहां पर सरूँ और देवदार के वृक्ष सच कितने देव तुल्य प्रतीत हो रहे थे। उनकी विशालता को नमन करने को जी चाहता था। वह वहीं खो जाना चाहती थी। परंतु वह झरना जो उसे लुभा रहा था क्यों नहीं उसे मिल रहा। जबकि उसकी घ्वनि उसे साफ सुनाई दे रही थी।

वह लाख छटपटाती है, कभी इस रास्ते से कभी उस रास्ते से परंतु वह झरना को नहीं खोज पाती। हार कर जब वह एक नरम मुलायम घास के टीले पर बैठ जाती है तो क्या देखती है। दूर पहाड़ी पर जो बर्फ पड़ी हुई थी। वह कितनी सुंदर, सफेद एक दम चाँदी की तरह से चमक रही थी। बीच में जो सफेद झक्क बादल पहाड़ी के आस पास तैर रहे थे। वह कभी-कभी कैसे उसी बर्फ में विलीन हो जाते थे। कितना अद्भुत नजारा था। वह निहारती रही जैसे-जैसे वह उसे देखती रही वह दृश्य और से और सुंदर होता जा रहा था। तभी उसने पीछे मुड़ कर देखा तो, अरे ये क्या झरना तो उसके पीछे ही है। वह कितना खोज रही थी। परंतु उसे पा नहीं रही थी। जब वह ठहर गई तो मानो झरना खूद ही चल कर उसके पास आ गया। क्या वस्तुएं भी तुम्हारा इंतजार करती है। जब तुम उसके पास तक नहीं पहुंच पाते तो वह तुम्हारे पास आ जाती है। और वह इतनी प्रसन्न होती है कि वह झरने की और उठ कर चल देती है। परंतु ये क्या वह जब पीछे मुड कर झरने की और चलती है। है तो झरना भी उसके आगे-आगे ही चलना शुरू हो जाता है। वह रुकती है तो झरना भी रूक जाता है।

वह एक विचित्र विरोधा भास में फंसी जाती है। तभी वह अचरज व विषमय से भर कर इधर उधर देखती है। तब वह क्या देखती है कि जिस जगह अभी वह पल भर पहले बैठी थी। वहाँ तो फूल ही फूल खिले है। चारों और मानो वह फूलों की घाटी में आ गई। रंग बिरंगे फूल एक से एक सुंदरता अपने में समेटे। परंतु अचरज तो यह था की उसके चलने के कारण एक भी फूल कुचला नहीं गया था। तब वह अंदर से बहुत प्रसन्न होती है कि उसके चलने से किन्हीं फूलो की हत्या नहीं हुई।.....अचानक एक आवाज के कारण उसकी नींद टूट जाती है। उनके पिता के. के. मल्होत्रा जी उन्हें आवाज देते हुए उनके कमरे में आ जाते है। बेटा नेहा चलों खाना खाते है। देखो आजा गिरधारी लाल ने तुम्हारे लिये क्या बनाया है। एक तो भरवा भिंडी की सब्जी, दूसरा बैंगन का भर्ता तुम्हें बहुत पसंद है ना। और साथ में वह तंदूरी रोटी भी लगा रहा है। उसका स्वाद तो बेटा गर्म-गर्म खाने में ही आता है। नेहालता को समझ नहीं आया की वो जो अभी देख रही है वो सच है, या कुछ पल पहले देख रही थी वह सच था। क्या हम एक ही संसार में चित की भिन्नता में नहीं जीते है। इससे पहले जीवन को उसने इस तरह से कभी नहीं देखा था।

जीवन में उस उतंग पर जाने के लिए संघर्ष तो करना पड़ता है। परंतु ये संघर्ष ही हमारे जीवन को कहां से कहां ले जाता है। आपने देखा जो लोग संघर्ष करते है। वही प्रज्ञावान बन पाते है। उनके अंदर एक थिरता एक आत्मविश्वास पनप जाता है। आप जब संघर्ष में फंस रहे होते है तो आप वर्टीकल नहीं होरिजनक छलांग लगा रहे होते है। आप एक उतंग की और गति कर रहे होते है। एक और तो वह लोग आपको कष्ट उठाते हुए दिखाई देते है। आम भाषा में वे बेचारे होते है। परंतु अंदर वह अंतस में एक विकास कर रहे होते है। वह जो अंदर का विकास है वह किसी कारण के भी हो सकता है। वह कोई मनुष्य का संग साथ, कोई स्थान या कोई घटना भी हो सकती है। क्योंकि आपके जीवन की एक-एक घटना केवल आपके साथ ही घटी होती है वह दूसरों के साथ उस तरह से कभी नहीं घटती। कुछ हल्की झलक या परछाई उन सब में हम महसूस कर सकते है।

ठीक इसी तरह से नेहालता के जीवन में जो परिवर्तन हो रहा था। वह देखने में कुछ विरोधाभाषी जरूर दिखाई दे रहा है। जैसे हम चलते-चलते एक सीधे-साधे रास्ते से अचानक ही एक पगड़ी पर चल पड़ते है। मार्ग के साथ उस मार्ग की अच्छाइयां बुराईया या सुविधायें आपको झेलनी होती है। क्योंकि अब आप किसी और नये मार्ग पर चल दिये है। परंतु हमारा चेतन मन या समाज या आस पास के लोग इसे नहीं समझ पाते।

नेहालता उठती है और पापा के साथ चल पड़ती है। क्या हुआ इतनी सुस्त कैसे हो। तब नेहालता कहती है की न जाने क्यों नहाने के बाद में पलंग पर जाकर लेट गई और मेरी आँख लग गई। तब मल्होत्रा जी ने कहां तन और मन की थकावट थी शायद। परंतु अब तुम्हें अच्छा लगेगा। दोनों ने हाथ धोये और खाना खाने की मेज पर बैठ कर माता राजेश्वरी मल्होत्रा का इंतजार करने लगे। खाने की सुगंध चारों और फैली थी। आज सालों बाद नेहालता अपनी पसंद का खाना खा रही थी। वह भी अपने लोगों के बीच में। राजेश्वरी मल्होत्रा के हाथ में तंदूरी रोटियां थी। जो नेहालता को अति प्रिय थी। वह भी सफेद मक्खन के साथ। तब नौकर गिरधारी लाल ने कहां की मालिक साहब आप भी साथ बैठ जाये। मैं गर्म-गर्म परोसता हूं। गिरधारी लाल श्री मति राजेश्वरी मल्होत्रा को हमेशा मालिक साहब कहकर ही पुकारता था। आज सब को यूं साथ बैठे देख कर मन अति प्रसन्न था। सब ने खान जी भर कर खाया और गिरधारी लाल की खूब तारीफ की। तब गिरधारी ने कहां की ये सब तो नेहालता बेटी के आने के कारण ही समझो। और दूसरा मालिक साहब ने ये भुरता तो खूद अपने हाथों से बनाया है। मैं तो केवल दर्शक मात्र था। खाना खा कर सब लोग अपने-अपने कमरे में विश्राम के लिए चले गए। आज कितने दिनों बाद इस घर की खुशी एक रोनक मेला फिर लोट आया था। जब से नेहालता की दुर्घटना घटी है उसके बाद तो सब गलत ही होता चला आ रहा है। परंतु एक समय के बाद भगवान सबकी सुनता है। और नौकर गिरधारी ने आसमान की और हाथ जोड़े भगवान बहुत दया वान है। वह अपने प्रिय या अप्रिय सब की सूना है। सब का ख्याल रखता है।

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