तुमने बैताल पच्चीसी का नाम सुना होगा। तुम कभी सोच भी नहीं सकते कि वह भी कोई ज्ञानियों की बात हो सकती है। बैताल पच्चीसी। पर इस देश ने बड़े अनूठे प्रयोग किए है। इस देश ने ऐसी किताबें लिखी है, जिनको बहुत तलों पर पढ़ा जा सकता है। जिनमें पर्त दर पर्त अलग-अलग रहस्य और अर्थ है। जिनमें एक साथ दो, तीन, चार या पाँच अर्थ एक साथ दौड़ते रहते है। जैसे एक साथ पाँच रास्ते चल रहे हो। पैरेलल, समानांतर।
तो जिसको जो सुविधा हो। एक छोटा बच्चा भी बैताल पच्चीसी पढ़कर प्रसन्न होगा और परम ज्ञानी भी पढ़कर प्रसन्न होगा। खोजी को मार्ग मिल जायेगा। पहुंचे हुए को मंजिल की प्रत्यभिज्ञा होगी। जो नहीं खोजी है, नहीं पहुंचा हुआ है, उसके लिए केवल चित के आनंद मनोरंजन होगा। वह भी क्या कम है। थोड़ी देर को मन बहलाव हो जायेगा।
बैताल पचीसी की पहली कथा है.....। पच्चीसों की कथाएं बड़ी अद्भुत है। लेकिन पहली कथा तुम से कहता हूं। पहली कथा है कि सम्राट विक्रमादित्य के दरबार में एक फकीर आया। सुबह का वक्त था। रिवाज के अनुसार लोग सम्राट को भेट चढ़ने के लिए सुबह-सुबह आया करते थे। उस फकीर ने भी जंगली सा दिखने वाला फल सम्राट को भेट किया। सम्राट थोड़ा मुस्कुराया भी। इस फल को भेंट करने के लिए इतनी दूर आने की जरूरत क्या थी? लेकिन फकीर है; लेकिन फकीर है फकीर के पास और हो भी क्या सकता है। तो राजा ने उसे स्वीकार कर लिया। पास ही बैठा वजीर था, उसने वह फल उसके हाथों में दे दिया, जो भेट आती थी वह वजीर लेता रहता और रखता जाता था।
यह क्रम दस वर्ष तक चला। वह फकीर रोज सुबह आता। और रोज वहीं ,उसी तरह का फिर एक जंगली फल ले आता। दस वर्ष। और रोज सम्राट वजीर को फल दे देता। न तो उसने कभी पूछा, क्योंकि सुबह सैंकड़ो लोग भेट लाते थे। फुरसत भी नहीं होगी। समय भी नहीं होगा पूछने का। शायद इस फकीर से पूछने जैसा कुछ लगा न होगा।
पर एक दिन पास ही सम्राट का पाला हुआ बंदर भी बैठा हुआ था। और सम्राट ने वजीर को फल न देकर बंदर को दे दिया। बंदर ने फल खाया और उसके मुंह से एक बहुत बड़ा हीरा, जो उस फल में छिपा था। नीचे गिर गया। सम्राट तो चौंका। इतना बड़ा हीरा तो उसने देखा भी नहीं था। वजीर से कहा कि बाकी फल कहां है?
वजीर ने भी ये सोचा था की जंगली फल है। पर फिर भी उसने सोचा कि सम्राटों के पास सम्हलकर रहना पड़ता है। तो एक तलघरे में वह फेंकता जाता था। क्योंकि फलों का करोगे क्या? जंगली थे; खाने योग्य भी नहीं लगते थे। स्वाद भी ठीक नहीं होगा।
तल घरा खोला गया। भंयकर बदबू से भरा था। क्योंकि सारे फल सड़ गये थे। लेकिन उन सड़े हुए फलों के बीच हीरे चमक रहे थे। ऐसे हीरे कभी सम्राट ने देखे नहीं थे।
फकीर को कहा की यह क्या राज है? तुम क्या चाहते हो? किस लिए दस साल से यह भेट ला रहे हो? और मैं कैसा अज्ञानी कि मैंने कभी देखा भी नहीं। मैंने समझा, जंगली फल है। होश न हो तो जिन्दगी ऐसे ही चूक जाती है।
दूसरी समानांतर अर्थ की धारा शुरू होती है:--
उस फकीर ने कहा की रोज ही जिन्दगी लाती है। लेकिन जंगली फल समझकर तुम फेंकते चले जाते हो। और हर फल के अंदर हीरा छिपा है। जिसे तुमने कभी देखा नहीं। खैर, जो हुआ सो हुआ। अब पीछे की तरफ मत जाओ। अन्यथा फिर तुम चुक जाओगे। और आगे की तरफ भी मत दौड़ों। कयोंकि मैं देखता हूं, सपने दौड़ रहे है। क्योंकि इतने हीरे। दुनिया के तुम सबसे बड़े सम्राट हो गये। आगे भी मत जाओ। पीछे भी मत जाओ। मैं कुछ और तुमसे कहना चाहता हूं। वह सुन लो।
सम्राट सजग होकर बैठ गया, यह आदमी साधारण नहीं है। अब तक समझे कि फकीर है।
जिंदगी साधारण नहीं है। और जिंदगी ने तुम्हें जो दिया है। वह बिलकुल असाधारण है। लेकिन तुम्हें होश नहीं है। तुम हंसोगे कि दस साल तक यह आदमी क्यों बेहोश रहा? तुम कई जन्मों से हो। राजा वीर विक्रमादित्य तुम भी हो। हजारों साल से तुम ऐसे ही बैठे हो और जिंदगी रोज फल दिए जा रही है। हर पल छिपा हुआ जीवन का हीरा तुम्हारे पास आता है।
अब ये कोई साधारण आदमी नहीं था, तब राजा ने कहा तुम्हारी एक-एक बात सुनने जैसी है। उसने कहा कि मैं दस वर्ष से आ रहा हूं, इसी प्रतीक्षा में कि किसी दिन तुम जागोगे। क्योंकि मैं एक ऐसा आदमी चाहता हूं, जो वीर हो, वह तुम हो।
इस लिए विक्रमादित्य का नाम वीर विक्रमादित्य पडा। सिर्फ दो ही आदमियों को भारत ने वीर कहा है, एक महावीर को और एक विक्रमादित्य को।
निश्चित तुम वीर हो, इसमे कोई शक-शुबहा नहीं; लेकिन काफी नहीं है वीर होना। इस लिए में चाहता हूं कि तुम जागों वर्तमान के प्रति। तब तुम मेरे काम के हो सकते हो। अब दोनों बातें घट गई। अब तुम वीर हो, होश और साहस। मैं एक बड़े महान तंत्र पर कार्य करने में लगा हूं। उसमें मुझे एक ऐसे आदमी की जरूरत है। जो बहुत वीर हो, जिसे कोई चीज भयभीत न करे सके, और जो होश पूर्ण हो। अगर तुम तैयार हो तो आज अमावस की रात है। तुम सांझ मरघट पर पहुंच जाओ मैं तुम्हें वही मिलूगा।
वह फकीर तो चला गया। सम्राट ने कई बार सोचा भी कि इस झंझट में पड़ना कि नहीं। लेकिन फिर यह तो कायरता होगी। और यह आदमी ऐसा हैं कि इसके साथ थोड़ी दुर तक जा कर देखने जैसा है। पता नहीं हम जैसे जंगली फल को फेंकते रहे.....,पता नहीं मरघट में कौन से स्वर्ग का या मोक्ष का द्वार खुल जाए।
अपने आप को राजा वीर विक्रमादित्य समझाता रहा.....अंदर-अंदर थोड़ा डर भी लग रहा था।
बहादुर से बहादुर आदमी भी डरता है। तुम यह मत सोचना कि सिर्फ कायर डरते है। डरते तो बहादुर भी है। फर्क क्या है बहादुर और कायर में? बहादुर डरता है, तो भी करता है। कायर डरता है, भाग खड़ा होता है। डरते तो दोनों है। डरने के संबंध में कोई फर्क नहीं है। क्योंकि जो डरे ही नहीं, वह तो बहादुर भी क्या उसको कहना। वह तो लोहे, लकड़ी, पत्थर का बना हुआ आदमी है। वह बहादुर नहीं है। जो डरे ही न। डर तो स्वाभाविक है। लेकिन बहादुर डर को किनारे पर रख देता है। और घूस जाता है। और भयभीत डर को सिर पर रख लेता है, और भाग खड़ा होता है।
खेर आधी रात विक्रमादित्य पहुंच गया मरघट पर। बड़ा डर लगता था। बड़ी । वह कोई साधारण रात नहीं मालूम होती थी। शायद इतनी भंयकर रात को इससे पहले कभी वीर विक्रमादित्य न जाना भी नहीं था। इससे पहले इतनी रात को कभी मरघट आया भी नहीं होगा। महलों में ही रहा है। मरघट सिर्फ एक शब्द था। जो पढ़ा और सूना होगा। आज मरघट पर जीवन है। उसका दाव है। आज मरघट केवल शब्द ही नहीं रहा। आज एक अनुभव है।
तुम भी कभी आधा रात अमावस की मरघट जाओ, तब तुम्हें इस शब्द का अर्थ पहली बार पता चलेगा। आपके शब्द कोश जो अर्थ लिखा है वो सत्य नहीं है।
मरघट एक अनूठी घटना है। चारों तरफ रहस्य। चारों तरफ फैली एक गहन शांति कि गहन तरंगें, भय, खतरा, भूत-प्रेत,की काल्पनिक चीख पुकार। और वह तांत्रिक अपना मंडल रचकर बैठा है नग्न। चारों और मानव खोपड़ियों का ढोर लगा है। और एक मानव लाश पास ही रखी है। जिसका उसने सर काट रखा है।
सम्राट ने कहा मैं आ गया हूं, तांत्रिक ने उसकी और गोर से देखा ओर कहां। वह जो वक्ष है। दूर जिस पर थोड़ी-थोड़ी रोशनी पड़ रही है। वह विशाल वृक्ष देख रहे हो ना। उस पर कुछ लाश लटकी है। तुम उस लाश को वृक्ष से उतार कर मेरे पास लाना है। लेकिन एक बात का ध्यान रखना। एक दम सजग रहना। होश पूर्ण। यह तलवार की धार पर चलने जैसा ही है। जरा चूके कि गए। शांत रहना। शायद फिर मैं भी तुम्हारी कोई सहायता न कर सकूंगा।
धड़कती छाती से विक्रमादित्य उस वृक्ष की और चला। हाथ में उसने नंगी तलवार ले रखी थी। चारों तरफ गहन शांति थी। पेर जब जमीन पर पड़े सूखे पत्तों पर पड़ रहे थे, उनकी उनका शोर खड़खड़ाहाट भी बहुत भारी कर रही थी कदमों को। अपनी ही साँसे कैसी शांति को चीर रही थी। वह धीरे-धीरे उस वृक्ष के नजदीक जाने लगा, जिस पर लाश लटकी हुई थी। एक नहीं पूरी पच्चीस, बड़ी भंयकर बदबू आ रही थी। उन लाशों के चारों और पेड़ो और उनकी टहनीयों पर चमगादड़ उल्टे लटके होने का अहसास और भी मन में भय भर रहे थे। उनकी कर्कश ध्वनि से, और दुर्गंध से दम घुटा जा रहा था वीर विक्रमादित्य का। अंदर तक कहीं कोई भर की लहर भी बीच-बीच में पूरे बदन को कंप-कंपा जाती थी।...........(क्रमश: अगले अंक में)
--ओशो
गीता दर्शन, भाग—8,
अध्याय—17, प्रवचन—10,
Wah
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जवाब देंहटाएंGjb bhai
जवाब देंहटाएंAti sundar
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