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रविवार, 18 मार्च 2018

बिरहिनी मंदिर दियना बार—(प्रवचन-09)

कह यारी घर ही मिलै—(प्रवचन—नौवां)
दिनांक 19 जनवरी, 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना

सारसूत्र :

जोतिसरूपी आतमा, घट घट रही समाय।
परमतत्त मन भावनो नेक न इत-उत जाय।।
रूप रेख बरनौं कहा, कोटि सूर परगास।
अगम अगोचर रूप है कोउ पावै हरि को दास।।
नैनन आगे देखिए, तेजपुंज जगदीस।
बाहर भीतर रमि रह्यो, सो धरि राखो सीस।।
आठ पहर निरखत रहौ, सनमुख सदा हजूर।
कह यारी घर ही मिलै, काहे जाते दूर।।
आतम-नारि सुहागिनी, सुंदर आपु संवारि।
पिय मिलने को उठि चली, चौमुख दियना बारि।।

ह मेरा एकाकी जीवन--
कहां-कहां भटकेगा जाने।
पानी में बहते प्रसून-सा
कहां-कहां अटकेगा जाने।
लहरों की इंगिति ही गति है,
परवश हूं मैं, यही नियति है।

धारा से तट,तट से झोंका
कब तक यों झटकेगा जाने।
यह मेरा एकाकी जीवन
कहां-कहां भटकेगा जाने।
अहंकारजित मति अति चंचल,
अनदेखा वह अंतश्शतदल,
प्रेम फूल संशय का कंटक
बन कब तक खटकेगा जाने।
यह मेरा एकाकी जीवन
कहां-कहां भटकेगा जाने
इंद्र-जाल में नयन उलझते,
अनुतापों में पंख झुलसते।
तट पर ज्यों लहरें, मन-पंछी
कब तक सिर पटकेगा जाने।
यह मेरा एकाकी जीवन
कहां-कहां भटकेगा जाने।
परमात्मा के बिना जीवन एकाकी है और एकाकी ही रहेगा। लाख हम उपाय करें,परमात्मा के बिना अकेलापन न कभी मिटा है, और न मिटेगा। मित्र हों, परिवार हो, प्रियजन हों, समाज हो, समूह हो, पर आदमी अकेला है और अकेला है। सिर्फ परमात्मा से जुड़ कर ही अकेलापन समाप्त होता है।
अकेलापन क्यों परमात्मा से जुड़कर समाप्त होता है? क्योंकि परमात्मा में बूंद समा जाती है और बूंद सागर हो जाती है। एक-दूसरे में हम समा नहीं पाते। लाख हम प्रेम की बातें करें, बातें ही रह जाती हैं। लाख हम संबंध बनाएं, बस कामचलाऊ औपचारिक व्यवस्थाएं रह जाती हैं। पहले कितना ही रंग हो उनमें, वर्षा का एक झोंका भी वे रंग सह नहीं पाते हैं। और पहले कितना ही रोमांच होता हो, जल्दी ही सब चीजें ऊब पैदा करने लगती हैं। प्यारे से प्यारा व्यक्ति भी जल्दी ही साधारण मालूम होने लगता है। जैसे ही परिचय बनता है, वैसे ही सब गीत-काव्य खो जाते हैं। दूर के ढोल सुहावने लगते हैं; पास गए, सब सौंदर्य, सब शोभा नष्ट हो जाती है। पड़ोसी के बगीचे की दूब हरी मालूम पड़ती है, बस दूर से! जैसे-जैसे पास आते हो, स्वप्न टूटने लगते हैं।
और हमारे सारे संबंध और हमारा सारा प्रेम, नाते-रिश्ते--स्वप्नों का विस्तार हैं, मृग-मरीचिकाएं हैं। इसलिए ज्ञानियों ने हमारे मन के इस विस्तार को, इस संसार को माया कहा है। माया का अर्थ होता है: जो दिखाई तो पड़ती है, पर है नहीं। दिखाई तो ऐसी पड़ती है कि है, मगर जैसे-जैसे पास आओ, जैसे-जैसे पर्दे उठाओ, वैसे ही पता चलता है कोई भीतर नहीं है। घूंघट उठाते ही दुल्हन खो जाती है। जब तक घूंघट है तब तक दुल्हन है। ऐसा यह हमारे मन का संसार है।
और इसलिए भीड़ में भी आदमी अकेला है। चारों तरफ भीड़ तूफान की तरह आंधी की तरह तरंगें ले रही हो, तो भी आदमी अकेला है। अकेलापन मिटता ही नहीं। कितना तो डुबाते हो उसे! शराब में डुबाते हो, सौंदर्य में डुबाते हो, कामवासना में डुबाते हो, धन की दौड़, पद की दौड़ में डुबाते हो! कितने तो तुमने मद खोजे हैं! कितने तो तुमने नशे खोजे हैं। ये सब नशे हैं--धन का नशा, पद का नशा...। यह सब शुद्ध शराब है! शराब से भी ज्यादा बदतर शराब है। क्योंकि शराब पी कर तो आदमी कल सुबह होश में आ जाएगा। लेकिन धन की शराब जिसने पी है, शायद जिंदगी-भर होश में न आए। पद की शराब जिसने पी है, शायद जन्मों-जन्मों तक होश में न आए।
इसलिए मैं कहता हूं कि राजनीति और धर्म का कहीं मेल नहीं हो पाता। राजनीति का अर्थ है--पद की शराब पीया हुआ आदमी। दौड़ता ही रहेगा! और जितनी ही बड़ी मृग-मरीचिका हो, उतनी ही मुश्किल से टूटती है। क्योंकि दूरी इतनी होती है कि कभी दूरी ही समाप्त नहीं होती, तो भ्रम कैसे टूटे? पर आदमी अकेला है। सब आयोजन, सब व्यवस्थाएं और बीच में खड़ा आदमी अकेला है।
तुम जरा अपनी ही तरफ देखो और तुम पाओगे--पत्नी है, बच्चे हैं, परिवार है, सब है ऐसे तो, पर जरा भीतर झांको, तुम कितने अकेले हो! अकेले ही आए थे, अकेले ही जाओगे, अकेले ही जी रहे हो।
हां, अकेले जीना कठिन है। अकेला जीना पीड़ादायी है। अकेला जीना अत्यंत दुखभरा है। इसलिए हम अपने को भरमाते हैं कि नहीं, अकेले नहीं हैं। बेटा है, बेटी है, पत्नी है, पति है, मित्र हैं, परिवार है--अकेले नहीं हैं! इस अकेलेपन से बचने के लिए तो लोग ईसाई हो गए हैं, हिंदू हो गए हैं, मुसलमान हो गए हैं--ताकि भीड़ से संबंध जुड़ जाए। कम्युनिस्ट हो गए हैं, सोशलिस्ट हो गए हैं, फेसिस्ट हो गए हैं--ताकि भीड़ से संबंध हो जाए। और भीड़ से तुम जितना संबंध जोड़ते हो, उतना ही परमात्मा से दूर होते जाते हो। परमात्मा के पास जाना हो तो अपने अकेलेपन की पीड़ा को अनुभव करना होगा। दबाओ मत उसे--उभारो! उस पीड़ा को छिपाओ मत, ढांको मत, आवृत न करो,आच्छादित न करो--अनावृत करो! हटा दो सब धोखे के परदे और अपने एकाकीपन को उसकी प्रगाढ़ता में देख लो! चुभने लगे कांटा एकाकीपन का ऐसा कि चुभन चौबीस घंटे बनी रहे। इसलिए धर्मों ने शराब का विरोध किया है--सभी तरह की शराबों का विरोध किया है--तुम्हें पता है, हमारे पास शब्द हैं--धन-मद; उसका मतलब होता है धन की मदिरा। पद-मद; उसका अर्थ होता है पद की मदिरा--सारी शराबों का सारे धर्मों ने विरोध किया है क्यों? शराब से कुछ दुश्मनी है? अंगूर के रस से कुछ विरोध है? नहीं, कारण कुछ और है।
शराब में कुछ खराबी नहीं है; खराबी है तुम्हारी इस चेष्टा में कि तुम अपने अकेलेपन को भुलाना चाहते हो। और जो आदमी अपने अकेलेपन को भुलाने में सफल हो गया, उसकी जिंदगी असफल हो गयी, क्योंकि उसे परमात्मा की कभी याद न आएगी। अकेलापन गहन हो, सघन हो, निबिड़ होता जाए। तुम्हारी छाती अकेलेपन की पीड़ा से ऐसी दुखने लगे कि दुखावा मिटे ही न--तो उस पीड़ा में ही पहली बार स्मरण आता है कि परमात्मा से जुड़ूं। और सब से जुड़ कर देख लिया, व्यर्थ पाया; आखिरी उपाय कर लूं परमात्मा से जुड़ने का।
और अगर अकेलेपन को भुला दिया तो आखिरी उपाय तुम कभी करोगे नहीं। इसलिए विरोध किया है शराबों का। इसलिए विरोध नहीं किया है कि शराब पी कर तुम धन गंवाते हो। इसका तो ये मतलब हुआ कि धर्म धन को बचाने के बड़े पक्ष में है। इसलिए विरोध नहीं किया है, कि शराब पी कर तुम अपने घर-परिवार की फिक्र नहीं करते। तब तो उसका अर्थ होगा कि धर्म का कुल अर्थ इतना ही है कि घर-परिवार की फिक्र करो; संसार को सम्हालो। धर्म ने विरोध किया है किन्हीं और कारणों से। जब राजनेता विरोध करता है शराब का तो उसके कारण अलग होते हैं। जब धार्मिक विरोध करता है शराब का तो उसके कारण अलग होते हैं!
और राजनेता शराब का तो विरोध करता है और खुद शराबी है, पद की मदिरा पिए बैठा है! कौन शराबी इतना अकड़ कर चलता है जितना राजनेता अकड़कर चलता है। कौन शराबी इतनी हानि पहुंचाता है जगत को जितनी राजनीति पहुंचाती है? कौन शराबी ने ऐसे दुष्कृत्य किए हैं जैसा कि धन का दीवाना कर देता है!
धर्म का शराब से विरोध किसी और बहुत मौलिक कारण से है। वह मौलिक कारण है, कि तुम अपने एकाकीपन को भुलाओ मत, एकाकीपन को जगाओ। उसी की ही प्रगाढ़ अग्नि में झुलसोगे जब तुम और सारा जगत तुम्हें जलता हुआ मालूम पड़ेगा, तभी खोज शुरू होगी। बाहर दौड़कर बहुत देख लिया, अब एक आखिरी शरण बची है--आत्मशरण। अब भीतर चलें। आखिरी उपाय बचा है, उसे भी करके देख लें। और जिन्होंने आखिरी उपाय किया है, उनका अकेलापन मिट गया। और उस मिटने में भी बड़ा राज है। उनका अकेलापन इसलिए मिटा कि उनका अहंकार मिट गया। न रहा बांस न बजेगी बांसुरी। जब तक अहंकार है तब तक अकेलापन है। अहंकार ही अकेलापन है। मैं अलग हूं जगत से, यही तो अहंकार है। मैं पृथक हूं जगत से, यही तो अहंकार है।
निर-अहंकार का अर्थ होता है ः मैं पृथक नहीं, अलग नहीं; इस समग्रता का एक अंग हूं। ये वृक्ष, ये चांद, ये तारे, ये लोग, इनसे मैं भिन्न नहीं हूं। मैं कोई छोटा-मोटा द्वीप नहीं हूं। मैं इस महाद्वीप का अंग हूं। मैं एक छोटा-सा कण हूं इस विराट विस्तार का। इस अनंत सागर की लहरों में मैं भी एक लहर हूं। छोटी सही, मगर भिन्न नहीं हूं।
लहर सागर की है, सागर लहर का है। लहर में सागर ही लहरा रहा है। लहर सागर से क्षण-भर को नहीं टूटी है; टूट नहीं सकती है। सागर में ही हो सकती है लहर। तुम लहर को घर न ला सकोगे। तुम लहर को पेटी में बंद न कर सकोगे। बंद कर लोगे तो लहर न रहेगी, पानी रह जाएगा। लहर तो सागर में ही हो सकती है। सागर की छाती पर ही लहर का नर्तन हो सकता है। सागर से जुड़कर ही हो सकती है।
फिर, जल की बूंद को तो जल से अलग भी किया जा सकता है, लेकिन हम परमात्मा के सागर की ऐसी बूंदें हैं कि हमें अलग नहीं किया जा सकता है। अलग हम हैं ही नहीं। अलग होना हमारी भ्रांति है। और हमारी सारी शिक्षा, हमारी सारी दीक्षा, हमारी संस्कृति, सभ्यता, हमें एक ही बात सिखाती है--अहंकार सिखाती है। बच्चा पैदा होता है बिलकुल निर-अहंकार में--निर्दोष! उसे पता ही नहीं होता कि मैं हूं। इसलिए तो छोटे बच्चे कहते हैं...भूख लगती है तो यह नहीं कहते कि मुझे भूख लगी है; कहते हैं, रामू को भूख लगी है। रामू उनका नाम है।...कि मुन्ना भूखा है। छोटे बच्चे यह नहीं कहते मुझे भूख लगी है--मुन्ना भूखा है! जैसे किसी और को भूख लगी! अभी मैं का भाव नहीं जगा।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं ः मैं का भाव तब जगता है जब तू का बोध होने लगता है। मैं पहले पैदा नहीं होता, पहले तू पैदा होता है। साधारण तर्क से हम सोचते हैं तो लगता है मैं पहले होता है पैदा। मैं पहले पैदा नहीं होता, पहले तू पैदा होता है। मनोवैज्ञानिक शोधें कहती हैं मैं बाद में आता है तू पहले आता है। फिर तू की छाया की तरह मैं आता है। तू क्यों पहले आता है? मां को बच्चा देखता है--कभी पास,कभी दूर; कभी दूध पिलाती, कभी नहीं पिलाती; कभी बच्चा रो रहा है और मां सुनती ही नहीं; कभी आ भी जाती है, कभी नहीं भी आती। कभी बच्चा अकेला हो जाता है, तलाशता है मां को। बच्चे को जो पहला बोध पैदा होता है, वह यह कि मां अलग है। और जैसे ही यह बोध पैदा हुआ कि मां अलग है, वैसे ही दूसरा बोध ज्यादा देर नहीं रहेगा, आ जाएगा--कि मैं अलग हूं। जिस दिन यह घटना घटती है कि मैं अलग हूं, उसी दिन हमारे जीवन में उपद्रव की शुरुआत हुई। फिर हम इसी मैं को मजबूत करते हैं। हम बच्चों को कहते हैं ः "अपने कुल की लाज रखना! तुम किस घर से आते हो, इसकी इज्जत रखना--तुम्हें स्कूल में प्रथम आना है। तुम्हें दूसरों को मात देनी है। तुम्हें आगे जाना है।'...हमने शराबें पिलानी शुरू कर दीं! छोटे-छोटे बच्चों को हम शराब की आदत डलवा रहे हैं। जिस दिन हम कहते हैं महत्वाकांक्षा, उसी दिन हमने शराब ढालनी शुरू कर दी। जिस दिन तुमने कहा कि प्रथम आना है, दूसरों को पछाड़ देना है, तुम्हें आगे आना है, तुम्हें पंक्ति में प्रथम आना है--उसी दिन तुमने जहर पिला दिया! ये छोटे-छोटे बच्चे, जहर से भरे हुए, अब महत्वाकांक्षा की दौड़ में लगे रहेंगे। जिंदगी भर इनकी यह दौड़ चलेगी। ये बड़े सौभाग्यशााली होंगे कि कभी ऐसे आदमी से इनका साथ हो जाए, जो दौड़ से बाहर हो गया है।
ऐसे आदमी के साथ को ही सत्संग कहते हैं, जो पद-मद, धन-मद ...जो सभी तरह की शराबों से छिटक कर अलग हो गया है। जिसने एक बात जान ली कि मैं नहीं हूं, तो भुलाना किसको है?
जिसने यह बात जान ली कि मैं नहीं हूं, उसकी सारी चिंताएं उसी क्षण गिर गयीं। चिंताएं सब मैं के पीछे चलती हैं--मैं की बरात है ...।
तुमने शिवजी की बरात तो देखी है, उसमें कैसे उल्टे-सीधे लोग चलते हैं--भूत-प्रेत, गंजेड़ी-भंगेड़ी, न मालूम किस-किस तरह के लोग, इरछे-तिरछे, उल्टे-सीधे अस्त्र लिए! शिवजी की बरात का अर्थ होता है--अहंकार की बरात। उस अहंकार के पीछे सभी तरह का इरछा-तिरछापन, सब तरह के अंजेड़ी-गंजेड़ी-भंगेड़ी, सब तरह के उपद्रवी, सब तरह के पागल, भूत-प्रेत...सब उस बरात में चलते हैं। मगर दूल्हाराजा अहंकार है। अहंकार आ गया तो अब बस सबके लिए द्वार खुल गया! अब दुनिया के सब उपद्रव आ जाएंगे, अपने-आप आ जाएंगे, द्वार खुल गया। सब सांप-बिच्छू अब अपने-आप आ जाएंगे। और तब चिंताएं खड़ी होती हैं--कैसे बचाएं इस मैं को? डर लगता है कि यह बचेगा नहीं। और डर सच भी है। इसका होना ही बड़ी असंभव घटना है,बचना तो बहुत दूर! हम किस तरह इस भ्रांति में बने रहते हैं, यह इस जगत का सबसे बड़ा चमत्कार है! इस अस्तित्व के साथ एक होकर भी हम कैसे यह भ्रांति पाल लेते हैं कि हम अलग हैं, यह चमत्कारों का चमत्कार है! यह आदमी ने असंभव करके दिखा दिया! यह मछली ने मान लिया कि मैं सागर से अलग हूं। यह लहर ने मान लिया कि मैं सागर से अलग हूं। यह पत्ते ने मान लिया वृक्ष के कि मैं वृक्ष से अलग हूं। वृक्ष की ही रसधार उसे जिलाती है और हरा रखती है। तुम किसके कारण जी रहे हो? कौन तुम्हारे भीतर श्वास लेता है? शायद तुम सोचते हो कि मैं श्वास लेता हूं, तो तुम गलती में हो। रात तुम तो सो जाते हो,श्वास फिर भी कोई लेता है। तुम तो बेहोश हो जाओ, तुम्हें क्लोरोफार्म सुंघा दिया जाए, तुम्हें तो अपना पता ही न रहे, तो भी श्वास चलती है। एक बात पक्की है कि तुम श्वास नहीं लेते। अगर तुम श्वास लेते होते तो आदमी का जिंदा रहना मुश्किल हो जाता। रात सो गए जरा गहरी नींद लग गयी, खात्मा हो गया! जरा भूल गए श्वास लेना। किसी काम में उलझ गए और भूल गए श्वास लेना। फिल्म देखने चले गए और ज्यादा तल्लीन हो गए और भूल गए श्वास लेना। अगर तुम्हें ही यादपूर्वक श्वास लेनी पड़ती तो तुम जिंदा नहीं रह सकते थे, कभी के समाप्त हो गए होते। नहीं; तुम्हारे बिना, तुम्हारे विचार के बिना कोई श्वास ले रहा है।
कौन तुम्हारे भीतर भोजन को पचाता है ? तुम? कौन तुम्हारे भीतर रोटी को रक्त बनाता है? तुम? कौन तुम्हारे भीतर हृदय को क्रमबद्ध रूप से धड़काता है? तुम?
एक महल के पास पत्थरों का ढेर लगा है। एक छोटा बच्चा आया और उसने एक पत्थर उठाकर महल की खिड़की की तरफ फेंका। पत्थर जब आकाश में उठने लगा तो स्वाभाविक था ...आदमी तक जब भ्रांति में पड़ जाते हैं तो पत्थर को तो तुम क्षमा कर देना। पत्थर ने भी सपने तो बहुत देखे थे आकाश में उड़ने के। कभी तोतों की हरी पंक्ति निकल गयी थी, कभी बगुलों की सफेद पंक्ति निकल गयी थी आकाश में। कभी दूर-दूर उड़ती आकाश में, बादलों के पार, चीलें देखी थीं। पत्थर के मन में भी सपने उठते थे कि कभी उड़ूं, कभी पंख फैलाऊं मगर कैसे पत्थर पंख फैलाए, कैसे उड़े? आशा थी, कभी यह घटना घटेगी ।
और जब बच्चे ने पत्थर को फेंका तो स्वभावतः पत्थर का अहंकार जगा। उसने नीचे पड़े पत्थरों से कहा कि सुनते हो जी, आज सपना पूरा होने का दिन आ गया! आज मैंने पंख खोला है। आज मैं जाता हूं आकाश की यात्रा पर। नीचे पड़े पत्थर मन कसमसा कर रह गए होंगे। दिल में तो उनके भी यही था, मगर हतभाग्य कि नहीं उनको यह घट पाया।र् ईष्या से जल-भुन गए होंगे। क्योंकि यह पत्थर अपने ही भीतर पड़ा था कल तक, अपने ही बीच पड़ा रहा सदियों-सदियों से, आज उड़ने का सौभाग्य! इस जगत में कोई न्याय नहीं मालूम होता, अन्याय मालूम होता है। किस्मत ठोक ली होगी अपनी। सोचा होगा, हम अभागे हैं! परमात्मा हमारे साथ नहीं है। यह पत्थर उड़ा जा रहा है, इनकार भी कैसे करते?
और पत्थर की छाती फूल गयी होगी, जो उड़ रहा था। और जब जा कर टकराया महल की कांच की खिड़की से और कांच चकनाचूर हो गया तो पत्थर ने कहा ः मैंने हजार बार कहा है कि मेरे रास्ते में कोई भी न आए, नहीं तो चकनाचूर हो जाएगा ।
अब पत्थर ने कुछ कांच को चकनाचूर नहीं किया है। इसमें कृत्य कोई भी नहीं है। यह तो पत्थर और कांच जब टकराते हैं तो कांच चकनाचूर हो जाता है, पत्थर चकनाचूर करता नहीं। यह कोई कृत्य नहीं है। यह तो सिर्फ स्वभाव है। पत्थर और कांच का यह स्वभाव है कि टकराहट हो जाए तो पत्थर नहीं टूटता, कांच टूटता है। यह सिर्फ स्वभाव है। इसमें न तो पत्थर ने तोड़ा है न कांच टूटा है। यह बिलकुल प्रकृति का नियम है। पत्थर चाहता भी तो भी कांच को बचा नहीं सकता था। तो फिर तोड़ने का क्या अर्थ, जब बचा ही न सकते थे? जब विवश थी घटना तो कृत्य नहीं बनती।
कांच बिखर गया भीतर के कालीन पर। पत्थर कालीन पर गिरा, और पत्थर ने कहा कि थक गया, लंबी यात्रा भी की, आकाश में भी उड़ा, दुश्मन का सफाया भी किया--थोड़ा विश्राम कर लूं! थोड़ा सुंदर कालीन पर विश्राम कर लूं!
यह कोई विश्राम न था। पत्थर गिरा था कालीन पर। लेकिन ऐसा ही तो हम करते रहते हैं। जो घटनाएं घटती हैं उनके हम कर्ता हो जाते हैं। लोग कहते हैं मैं श्वास ले रहा हूं। लोग कहते हैं कि मैं जी रहा हूं। लोग कहते हैं मेरा जन्म। तुम्हारा जन्म वैसे ही है जैसे किसी बच्चे ने पत्थर को फेंक दिया महल की तरफ। तुम फेंके गए हो जीवन में। किसने फेंक दिया, उन हाथों का तुम्हें भी पता नहीं। क्यों फेंक दिया है, इसका भी कुछ पता नहीं है। और ऐसा भी हुआ है जिंदगी में कि कोई तुमसे टकराया और टूट भी गया है--और तब तुम कैसे अकड़ गए हो, तुम्हारी छाती कैसे फूल गयी है!
नौकर ने आवाज सुनी पत्थर की, कांच के टूटने की, भागा हुआ अंदर आया। तब तक पत्थर पड़ा विश्राम कर रहा था और सोच रहा था कि मेरे स्वागत में खूब तैयारियां की गयी हैं। लोगों को जैसे पता ही चल गया होगा कि मैं आता हूं। कालीन बिछा रखे हैं, धूप-दीप जला रखे हैं! सुंदर सुवास उड़ रही है। फानूस लटका रखे हैं। बहुमूल्य परदे लटके हुए हैं। मेरे लिए सारा इंतजाम कर रखा है। हो भी क्यों न, मैं कोई साधारण पत्थर तो नहीं हूं; आकाश में जो उड़ता है,ऐसा पत्थर हूं! जिसके पंख हैं, ऐसा पत्थर हूं! सदियों-सदियों में ऐसा पत्थर होता है। मैं कोई साधारण पत्थर नहीं हूं, अवतारी पत्थर हूं!
नौकर भागा हुआ आया, पत्थर को हाथ में उठाया फेंकने के लिए वापिस। और पत्थर ने सोचा कि घर का मालिक आया, हाथ में लेकर स्वागत-सम्मान कर रहा है। और नौकर ने पत्थर वापिस खिड़की से फेंक दिया। और पत्थर ने कहा: बहुत देर हो गयी घर छोड़े। गृह की बहुत याद सताती है। महल होंगे कितने ही प्यारे और कालीन होंगे कितने ही बहुमूल्य, मगर वह सुख कहां जो पत्थरों के बीच, अपनों के बीच ...अपनी मातृभूमि में उपलब्ध होता था! पत्थर वापिस गिरने लगा पत्थर की ढेरियों पर। बाकी पत्थरों ने आंखें खोल कर देखीं, चौकन्ने हैं, भरोसा नहीं आता कि यह क्या घटना घटी है, अभूतपूर्व घटना घटी है! सुना था कि कभी पुरखों में ऐसे पत्थर भी हुए हैं जो आकाश में उड़े हैं, मगर वे सब पुराण कथाएं थीं। अपनी आंखों से देखा। पत्थर न केवल उड़ा है, बल्कि वापिस आ रहा है ।
और जब पत्थर ढेरी में वापिस गिरने लगा तो उसने कहा कि मित्रो! दूर-दूर की यात्राएं कीं। शत्रुओं का सफाया किया। महलों में विश्राम किया। सम्राटों के हाथों में सम्मान पाया। लेकिन तुम्हारी याद बहुत सताती थी। सब सुंदर था, मगर घर की बहुत याद आती थी। तुम्हारी याद खींच लायी है। मैं वापिस आ गया हूं ।
पत्थर फेंका गया है और कह रहा है: मैं वापिस आ गया हूं! इस पत्थर की कहानी तुम्हारी अहंकार की कहानी है। न तुम्हारे जन्म में तुम्हारा कोई हाथ है। न तुम्हारी श्वास लेने में तुम्हारा कोई हाथ है, न तुम जब किसी के प्रेम में पड़ गए हो तो उस प्रेम में तुम्हारा हाथ है। कब कौन तुम्हारे भीतर रोटी को मांस-मज्जा बनाता है, कब कौन तुम्हारे भीतर भोजन को पचाता है, कब कौन तुम्हारे भीतर रक्त को दौड़ाता है, कब कौन तुम्हारे भीतर तुम्हारे हृदय को धड़काता है--और फिर भी तुम सोच रहे हो कि तुम अकेले हो, तुम अलग-थलग हो!
यह अहंकार की भाषा कि मैं भिन्न हूं, कि मैं कर्ता हूं--एक मात्र भ्रांति है। जिसकी यह भ्रांति टूट गयी, वही संन्यासी है। जिसने कहा: मैं कर्ता नहीं हूं, कर्ता परमात्मा है। जिसने कहा: मैंने कभी कुछ किया नहीं है; हां,घटनाएं हुई हैं; ज्यादा-से-ज्यादा मैं इतना ही कह सकता हूं कि मैं साक्षी हूं और कर्ता नहीं। और बड़े मजे की बात है, कर्ता जब तक रहो तब तक मैं रहता है; जैसे ही साक्षी हुए, मैं खो जाता है। साक्षी-भाव में मैं बचता ही नहीं, कर्ता भाव में मैं बचता है। इसलिए सारे शास्त्रों का सार है--कर्ता से साक्षी पर रूपांतरण। और तब तुम जानते हो अकेले नहीं हो। हो ही नहीं तो अकेले कैसे होओगे? परमात्मा है, मैं नहीं हूं।
यह मेरा एकाकी जीवन--
कहां-कहां भटकेगा जाने ।
पानी में बहते प्रसून-सा
कहां-कहां अटकेगा जाने ।
बस ऐसे ही बहते रहे हो--
पानी में बहते प्रसून-सा
कहां-कहां अटकेगा जाने ।
अब तक ऐसे ही चला है और इसीलिए जिंदगी एक दुख की लंबी कथा है, एक व्यथा है। एक उदास स्वर है तुम्हारी वीणा में बज रहा। जहां उत्सव हो सकता था, वहां केवल सघनीभूत उदासी है। जहां फूल ही फूल खिल सकते थे वहां कांटे ही कांटे बिखर गए हैं। और जहां ध्यान की सुगंध उड़ सकती थी वहां चिंताओं की दुर्गंध के सिवाय कुछ भी नहीं। कैसे यह क्रांति हो?
यारी के आज के सूत्र उसी क्रांति की तरफ इशारा हैं--आखिरी इशारा! बिरहिनी मंदिर दियना बार! यह तुम जो भटक गए हो, यह जो विरह की दशा चल रही है, यह मिट सकती है--मंदिर दियना बार! अपने मंदिर में दीया जलाओ साक्षी का। होश का दीया जलाओ! बिरहिनी मंदिर दियना बार! एक छोटा-सा काम, छोटा--और सबसे बड़ा भी। छोटा, क्योंकि दीया मौजूद है, बाती मौजूद है, तेल मौजूद है, सब मौजूद है--सिर्फ ज्योति जलानी है। किसी ज्योति के पास सरक जाना है, ताकि बुझे दीए में जले दीए से ज्योति उतर जाए। किसी सदगुरु को पकड़ लेना है, कहीं समर्पण कर देना है। कहीं झुक जाए बुझा दीया जले दीए के पास, तो ज्योति छलांग लगा लेती है। उस ज्योति की छलांग में ही तुम्हारे भीतर क्रांति घटित हो जाती है। अंधेरा गया। सुबह हुई। रात मिटी। प्राची पर सूरज निकला ।
जोतिसरूपी आतमा घट घट रही समाय। और जिस ज्योति कि हम तलाश करते हैं, वह एक अर्थ में तो खोजनी है और एक अर्थ में घट-घट में जल ही रही है। खोजनी है इस अर्थ में क्योंकि हमने उसकी तरफ पीठ कर ली है। और मौजूद है इस अर्थ में कि हमारे पीठ करने से भी बुझ नहीं गयी है।
सदगुरु केवल तुम्हें सन्मुख कर देता है परमात्मा के, मोड़ देता है तुम्हें। दौड़े जाते थे संसार की तरफ, और विमुख थे परमात्मा की तरफ। मोड़ देता है तुम्हें--एक सौ अस्सी डिग्री वाला मोड़! विमुख कर देता है संसार की तरफ, और सन्मुख कर देता है परमात्मा के। और उसी घड़ी में सारा जगत अलौकिक आलोक से भर जाता है। उसी घड़ी में अमृत की वर्षा हो जाती है ।
यह शिथिल, गंध-गुंजित कोकिल-सी
किस मधुपति से गयी छली
केस दरस-परस से विकलत्तरल
मधु-निर्झर सी मंद-मंद चली
पावस-समीर बह चली अली!
एक क्षण में अमृत की वर्षा हो जाती है। एक क्षण में पावस की समीर बह जाती है। एक क्षण में मधुमास आ जाता है ।
पावस-समीर बह चली अली!
यह शिथिल, गंध-गुंजित कोकिल-सी
किस मधुपति से गयी छली
किस दरस-परस से विकलत्तरल
मधु-निर्झर सी मंद-मंद चली
पावस-समीर बह चली अली!
फूलों सा गमक उठा यौवन
गाती हैं बालाएं कजली
तृण-कुंज, कुसुम, द्रुम-पातों में
कैसा नव प्राण हिलोल अली।
पावस-समीर बह चली अली
लो! झूम उठी डाली-डाली पर
कानन की किन्नरी कली
लद गयीं प्रमुद पुलकों से विह्वल
मंजरियां मधु-गंध पली
पावस समीर बह चली अली!
घिर-घिर आते रस-चपल मेघ
खुल-खुल पड़ती चपला पगली
चंचल हिंदोल सी डोल-डोल
उठती वल्लरियां की अवली
पावस समीर बह चली अली!
 अधखिले मुग्ध अंगों में चंचल
रति-परिरम्भ हिलोर ढली
प्रिय की मद-भरी उमंगों से
मैं खेलूं व्याकुल मदन-लली!
पावस समीर बह चली अली!
एक क्षण में आ जाता है वसंत। हम पतझड़ में जी रहे हैं। नहीं कि वसंत नहीं है; हमने वसंत की तरफ पीठ कर रखी है। हम पतझड़ में जी रहे हैं, क्योंकि बाहर की तरफ भागे जा रहे हैं। और जितना हम बाहर भागते हैं, उतना भीतर से दूर निकल जाते हैं। और भीतर है स्रोत का स्रोत, रसों का रस! रसो वै सः! भीतर है वह, जिससे जीवन मिलता है; वह जिससे ज्योति मिलती है; वह जिससे चैतन्य मिलता है। भीतर है जिससे प्रेम उमगता है। भीतर है जिससे प्रार्थना जगती है। भीतर है जिसे हम परमात्मा कहते हैं ।
जोतिसरूपी आतमा घट-घट रही समाय। वह तुम्हारे भीतर समाया हुआ है, जिसे तुम खोज रहे हो। वह सबके भीतर समाया हुआ है जिसे हम खोज रहे हैं। हम उसे खोज रहे हैं, जिसे हमने कभी खोया नहीं है। हमारी खोज बड़ी बेबूझ है, बड़ी अटपटी है। उसे खोजते जिसे खो दिया है, तो बात तर्कपूर्ण हो सकती थी। हम उसे खोज रहे हैं जिसे हमने खोया नहीं। हम उसे खोज रहे हैं जो हम हैं। खोजने वाले में ही मंजिल छिपी है। और हम दौड़े चले जाते हैं। यह मिलन हो न सकेगा। यह खोज अगर बाहर ही जारी रही तो हम विषाद से विषाद में गिरते जाएंगे। और यही कारण है...
मनुष्य-जाति के इतिहास को जरा उठा कर देखो, जितना आदमी के बाहर की खोज सफल हुई है उतना ही आदमी भीतर विषादग्रस्त हो गया है। धन बढ़ा है, वैभव बढ़ा है, ऐश्वर्य बढ़ा है; मगर ईश्वर क्षीण होता गया है। संपदा बढ़ी है, सुख बढ़ा है, सुविधाएं बढ़ी हैं; मगर फिर भीतर एक गहन विषाद, एक अंधेरी रात हो गयी है। और जितनी सुविधा में आदमी हो, जितनी संपदा में आदमी हो, उतनी ही भीतर की दरिद्रता खटकती है। क्योंकि बाहर की संपदा की पृष्ठभूमि में, तुलना में भीतर की दरिद्रता बहुत साफ-साफ दिखाई पड़ने लगती है।
जैसे तुमने कहानी सुनी होगी : अकबर ने एक दिन एक लकीर खींच दी दरबार में आ कर और अपने दरबारियों को कहा कि इस लकीर को बिना छुए छोटा कर दो। अब बिना छुए कोई लकीर छोटी कैसे हो? थक गए बहुत सोच-सोच कर दरबारी। फिर बीरबल उठा और उसने एक बड़ी लकीर उस लकीर के नीचे खींच दी; उस लकीर को छुआ भी नहीं, हाथ भी न लगाया। सिर्फ एक बड़ी लकीर उस लकीर के नीचे खींच दी। न उस लकीर को छुआ, न हाथ लगाया, न मिटाया, न पोंछा--और बस छोटी हो गयी!
जिसके पास बाहर धन हो जाता है, उसे भीतर की दरिद्रता बहुत साफ दिखाई पड़ने लगती है। जिसके पास बाहर सुविधाएं होती हैं, उसे भीतर का नर्क बहुत साफ दिखाई पड़ने लगता है। इसलिए जैसे-जैसे आदमी संपन्न हुआ है, विज्ञान ने जैसे-जैसे संपन्नता दी है, वैसे-वैसे आदमी विपन्न हुआ है। इधर संपदा बढ़ी है उधर विपदा बढ़ी है। दोनों साथ-साथ चलते रहे, समानांतर चलते रहे।
हम जितने अपने से बाहर जाएंगे, अपने से दूर जाएंगे, उतनी ज्योति खोती जाती है; हम ज्योति के स्रोत से दूर होते जाते हैं। और जरा-सा मुड़ने की बात है। एक क्षण में मुड़ो कि ज्योति सामने है। और ज्योति तुम्हारी आंख पर पड़े कि तुम ज्योतिर्मय हो जाओ।
उपनिषद के ऋषि कहते हैं कि हमें अंधेरे से प्रकाश की तरफ ले चलो--तमसो मा ज्योतिर्गमय! हमें मृत्यु से अमृत की तरफ ले चलो। मृत्योर्मा अमृतगमय! यह प्रार्थना सारी मनुष्य-जाति की प्रार्थना है। कि हमें असद् से सद की ओर ले चलो। असतो मा सदगमय! इन तीन छोटे-से वचनों में सारी प्रार्थनाओं का निचोड़ आ गया, सारी पूजाओं का निचोड़ आ गया। और इन तीन प्रार्थनाओं को भी एक ही पंक्ति में बांधा जा सकता है--असतो मा सदगमय--कि हमें असत्य से सत्य की ओर ले चलो। असत है अंधकार और असत है मृत्यु। और सत है अमृत और सत है आलोक।
क्या करना होगा कहां जाएं? किससे पूछें? कहां है मार्ग? कहां है द्वार? क्या है पता परमात्मा का वह तुम्हारे भीतर बैठा है और तुम उसका पता खोज रहे हो! और तुम्हें पता बताने वाले भी मिल जाएंगे। और वे कहेंगे: मस्जिद में है और मंदिर में है और काबा में है और कैलाश में है और गिरनार में है। और तुम चले! हज कर आओगे, हाजी भी हो जाओगे! तीर्थयात्रा कर आओगे, पुण्य का अहंकार घर लेकर लौट आओगे। गंगा में स्नान कर आओगे और सोचोगे धुल गए सब पाप। काश, इतना सस्ता होता। मगर तुम्हारी गंगा बाहर है और तुम्हारा काबा भी बाहर है और तुम्हारी काशी भी बाहर है। असली गंगा भीतर है। असली काबा भीतर है। असली काशी भीतर है। वहां डुबकी मारो तो धुल जाओ, जरूर धुल जाओ!
मगर एक मजा है, बाहर की गंगा में जाते हो नहाने तो तुम सोचते हो पाप धुल जाएंगे। पुण्य नहीं धुलेंगे, सिर्फ पाप धुल जाएंगे! यह तो बड़ी अजीब बात हुई। यह तो ऐसा हुआ कि एक आदमी के शरीर पर कुछ दुर्गंध थी, कुछ सुगंध थी। दुर्गंध तो धुल गयी और सुगंध न धुली। अगर सच में ही गंगा में स्नान होगा तो मैं तुमसे कहता हूं : तुम्हारे पाप भी धुल जाएंगे, तुम्हारे पुण्य भी धुल जाएंगे। धुल ही जाने चाहिए। गंगा कैसे भेद करेगी क्या पाप है क्या पुण्य है? और भीतर की गंगा में यही घटता है कि पाप भी धुल जाते हैं और पुण्य भी धुल जाते हैं, क्योंकि कर्ता का भाव ही मिट जाता है। फिर कौन पुण्य करने वाला, कौन पाप करने वाला!
इसे कसौटी समझो। जिस गंगा में तुम्हारे पाप और पुण्य दोनों धुल जाएं, समझना कि सच्ची गंगा है। जिस गंगा में तुम्हारी अस्मिता धुल जाए, अहंकार ही बह जाए कि तुम लौटकर फिर अहंकार को पकड़ न सको, समझना असली गंगा है ।
वही तीर्थयात्रा असली है जहां जाकर तुम लौट न सको। जहां से तुम लौट आओ, वह तीर्थयात्रा झूठी है। हाजी होकर लौट आओ, वह हज बेकार। मगर लौट आए तुम! असली तीर्थ-यात्रा से कभी कोई लौटता ही नहीं है। जो भीतर गया, वह लौटता नहीं मिट ही जाता है। बचता ही नहीं है। उसके भीतर से फिर परमात्मा प्रकट होता है; वह स्वयं प्रकट नहीं होता। स्वयं तो गया। लहर तो गयी, अब सागर ही निनाद करता है ।
और कैसा मजा है कि जो भीतर है उसे हम बाहर खोजते हैं। राबिया एक सांझ अपने दरवाजे पर कुछ खोजने लगी। बूढ़ी फकीर औरत! पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए। उन्होंने पूछा कि राबिया, तू क्या खोजती? उसने कहा: मैं सीती थी अपने कपड़े मेरी सुई गिर गयी।
तो लोग भी खोजने लगे। सांझ होती है। सूरज ढलता है। बूढ़ी औरत...कमजोर उसकी आंखें हैं। लोग भी खोजने लगे उसकी सुई। तब किसी एक समझदार ने पूछा कि राबिया, रास्ता बड़ा है, सूरज ढल रहा है, जल्दी ही रात हो जाएगी। तू ठीक-ठीक बता सुई गिरी कहां है? स्थान बता, तो वहीं हम खोजें तो मिल भी जाए। छोटी चीज है, इतने बड़े रास्ते पर खोजते हुए कहां मिलेगी?
राबिया ने कहा: यह तो तुम मत पूछो कि कहां गिरी, क्योंकि सुई तो मेरे घर के भीतर गिरी है। तो उन्होंने कहा: पागल औरत! शक तो हमें सदा से था, कि तू पागल है।
संत पागल हैं, ऐसा शक तो लोगों को सदा रहता ही है। क्योंकि अगर संत पागल नहीं हैं तो फिर लोगों को लगेगा: क्या हम पागल हैं? दोनों से एक ही कोई पागल होना ही चाहिए और एक समझदार। दोनों समझदार तो नहीं हो सकते। दोनों पागल नहीं हो सकते। दोनों की यात्राएं विपरीत हैं। जो धन के पीछे दीवाना है, वह ध्यानी को पागल समझेगा। स्वाभाविक। जो ध्यान के लिए चला है, वह धन के पीछे चलनेवाले को पागल समझेगा--स्वाभाविक।
राबिया समझती थी पड़ोस के लोग पागल हैं; पड़ोस के लोग समझते थे राबिया पागल है। उन्होंने कहा: हमें शक तो सदा था, लेकिन हमने कभी आदर वश तुझसे कहा नहीं। मगर आज अब हम बिना कहे नहीं रह सकते। अगर सुई घर के भीतर गिरी है तो बाहर क्यों खोजती है? और जो घर के भीतर गिरी है वह बाहर मिलेगी कैसे? तू खुद भी मूरख और हम सब को भी मूरख बनाया!
राबिया ने कहा: सुई तो घर के भीतर ही गिरी है, लेकिन मैं गरीब औरत हूं। मेरे पास दीया नहीं है, घर के भीतर अंधेरा हो गया है। बाहर डूबते सूरज की आखिरी किरणों की रोशनी है। तो तुम्हीं मुझे कहो, जहां अंधेरा है वहां खोजने से कैसे मिलेगी? जहां रोशनी है वहां खोज रही हूं।
लोगों ने कहा: यह बात तो ठीक है कि जहां अंधेरा है वहां खोजने से कैसे मिलेगी,रोशनी में ही मिल सकती है; मगर जहां खोयी ही नहीं है तो लाख रोशनी हो, रोशनी क्या करेगी?
तो राबिया ने कहा: मैं क्या करूं, तुम्हीं कहो भले लोगो तो उन्होंने कहा कि ऐसा कर, पास-पड़ोस से किसी से लालटेन उधार मांग। रोशनी भीतर ले जा।
राबिया खूब हंसने लगी। उसने कहा न तो सुई गुमी है न मुझे खोजनी है। मैं तो सिर्फ तुम्हें यह याद दिलाना चाहती थी कि अगर तुम्हारे भीतर रोशनी नहीं है तो पास-पड़ोस किसी से रोशनी मांगो और भीतर खोजो। क्योंकि जिसे तुम बाहर खोज रहे हो वह बाहर खोया नहीं, भीतर खोया है। और अगर भीतर अंधेरा हो तो मेरे पास आओ,मैं तुम्हें रोशनी दूंगी। मुझे मिल गया है। मैं तो सिर्फ तुम्हें यह याद दिलाने के लिए बाहर सुई खोजती थी कि देखें तुम क्या कहते हो। मुझे तुम पागल कहते हो? मैं तुम्हें पागल कहती हूं। नासमझो! तुम बाहर उसे खोज रहे हो जो भीतर है। और उसी कारण से खोज रहे हो जो मैंने बताया है--भीतर अंधेरा है। लेकिन भीतर सिर्फ अंधेरा इसलिए मालूम होता है--है नहीं, मालूम होता है। क्योंकि तुम्हारी आंखें बाहर की तेज रोशनी की आदी हो गयी हैं।
भरी दोपहरी में कभी घर लौटे हो बाजार से? आंखें तेज रोशनी की आदी हो जाती हैं। और जब तुम घर में प्रवेश करते हो तो अंधेरा मालूम होता है। मगर तुम जानते हो अंधेरा नहीं है। घड़ी-भर बैठ लोगे, सुस्ता लोगे, जल पी लोगे, आंख बंद करके लेट रहोगे, घर में रोशनी हो जाएगी।
 हम जन्मों-जन्मों से बाहर की चकाचौंध में जीए हैं। इसलिए जब भीतर पहली दफा कोई आंख बंद करता है, अंधेरा ही अंधेरा मालूम होता है। नमालुम कितने संन्यासी मुझे आकर कहते हैं कि आप कहते हैं भीतर देखो, भीतर देखो, भीतर देखो; और जब भी हम देखते हैं तो सिवाय अंधेरे के कुछ भी नहीं दिखता। ठीक कहते हैं वे। पहले-पहले देखोगे तो अंधेरा दिखेगा। थोड़ा विश्राम करो भीतर। उसी विश्राम का नाम ध्यान है। थोड़ा भीतर बैठे रहो, बैठे रहो, बैठे रहो ...। थोड़ी प्रतीक्षा करो, थोड़ा धैर्य करो। उसी धैर्य का नाम ध्यान है। उसी प्रतीक्षा का नाम प्रार्थना है। और जल्दी ही तुम पाओगे--आंखों ने अपना ढंग बदला। आंखें धीरे-धीरे भीतर देखने में समर्थ होने लगेंगी। आहिस्ता- आहिस्ता रोशनी प्रकट होगी। और ऐसी रोशनी कि जैसी रोशनी तुमने कभी जानी नहीं! तुमने बाहर की तेज धूप जानी है, जो जलाती है, जो भस्म करती है। तुमने उत्तप्त रोशनी जानी है। तुम भीतर शीतल रोशनी जानोगे--ठंडी! ...आग और ठंडी!
तुमने मूसा की कहानी सुनी है न! जब मूसा को पहली दफा परमात्मा का साक्षात्कार हुआ तो मूसा बहुत घबड़ा गए। भरोसा न आया। तूर के पर्वत पर जब मूसा चढ़े तो भरोसा न आया आंख पर--अपनी आंख पर भरोसा न आया! कंपने लगे। क्योंकि सामने देखा उन्होंने एक झाड़ी हरी-भरी है और उसके भीतर से लपटें उठ रही हैं--और ऐसी लपटें जैसी उन्होंने कभी न देखी थीं। ऐसी ज्योतिर्मय लपटें जैसे सूरज निकल रहा हो। और झाड़ी हरी -भरी है, सो हरी-भरी है। पत्ता भी नहीं कुम्हलाया है। फूल भी नहीं मुर्झाया है। और आग की लपटें उठ रही हैं। आग की लपटें--और हरी झाड़ी!
यह प्रतीक है भीतर की रोशनी का। भीतर की रोशनी शीतल है। भीतर की रोशनी बड़ी शांत है। उत्तप्त नहीं है, जलाती नहीं है--केवल आलोक देती है। भीतर बैठोगे थोड़ा, बैठते रहोगे थोड़ा, तो ज्योति दिखाई पड़नी शुरू हो जाएगी--और ऐसी ज्योति जो जीवन का स्रोत है।
ज्योतिसरूपी आतमा...! तुम्हारा स्वरूप ही ज्योतिमय है, ज्योतिर्मय है। तुम प्रकाश-स्वरूप हो। घट-घट रही समाय! और किसी एक में नहीं, हर घट में वही मौजूद है।
परमतत्त मन भावनो नेक न इत-उत जाय।
और वह जो परम प्यारा है, जिसके लिए तुम तड़फ रहे हो, जैसे मछली तड़फती हो सागर के बाहर तट पर पड़ी हुई ऐसे तड़प रहे हो जिसके लिए तुम, वह मनभावना,वह परमतत्त, वह परम प्यारा, नेक न इत-उत जाय! कभी कहीं गया ही नहीं है तुम्हारे भीतर से। सदा-सदा से वहीं है। तुम वही हो। तत्वमसि! तुम उससे जरा भी भिन्न नहीं हो। तुमने भिन्नता मानी है, उसी में सारा संसार खड़ा हो गया है। तुमने तो भिन्नता मानी है और नर्कों पर नर्कों की कतारें लग गयी हैं। अभिन्न जानो और स्वर्गों के द्वार खुल जाएं। अभिन्न जानो और मोक्ष तुम पर बरस उठे!
और जिस दिन तुम यह जानोगे कि तुम ज्योतिस्वरूप हो, उस दिन अंधकार को भी प्रेम कर पाओगे। जिस दिन तुम जानोगे भीतर तुम्हारे परमात्मा बैठा है, उस दिन तुम बाहर को भी प्रेम कर पाओगे। क्योंकि जो भीतर है, बाहर उसका ही एक पहलू है। और जो प्रकाश है, अंधकार उसको ही प्रकट करने का एक उपाय है।
इसलिए एक बड़ी महत्वपूर्ण बात समझ लेना: जो बाहर खोजता रहता है, उसका तो भीतर से संबंध नहीं जुड़ता; लेकिन जो भीतर को जान लेता है उसका बाहर से भी संबंध जुड़ जाता है। इसलिए त्यागी को मैं सिद्धपुरुष नहीं कहता। भोगी तो भटका ही है, त्यागी भी भटक गया है। असली सिद्धपुरुष तो वही है जिसके भीतर अब बाहर-भीतर का भी भेद न रहा। क्योंकि जिसे उसने भीतर देखा, उसी को उसने बाहर नाचते देखा। जिसे उसने भीतर ज्योतिर्मय देखा, उसी को उसने सूरज में देखा और सूरज को नमस्कार किया। उसी को उसने चांद में देखा और चांद को देवता कहा। और उसी को उसने वृक्ष में देखा और वृक्ष की पूजा की। उसी को उसने पत्थर में देखा।
इसीलिए तो हमने बुद्धों की प्रतिमाएं पत्थर की बनाईं। क्यों बनाईं बुद्ध तो भीतर गए। उन्होंने तो परम चैतन्य को जाना। और प्रतिमा हमने पत्थर की बनायी! कारण है उसके पीछे, राज है उसके पीछे। हमने दोनों को जोड़ दिया। परम चैतन्य और पत्थर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। पत्थर की प्रतिमा बना कर बुद्ध की, हमने यह घोषणा कर दी कि पत्थर में भी वही है।
कण्टकों को प्यार मैं करता रहा हूं,
क्योंकि कण्टक पुष्प के पहरी रहे हैं!
प्राण सी प्यारी मुझे है रात काली,
क्योंकि उसके पास है ऊषा निराली,
क्या पता शायद छिपाने को ऊषा के
ही निशा ने कालिमा तन पर लगा ली।
रात तब से आज तक सोयी नहीं है,
जिस समय से हाथ ऊषा के गहे हैं!
क्यों मुझे हो जाए वह तरुवर न प्यारा,
है लता का प्राण जिसका ही सहारा,
और जिसके वक्ष पर चढ़ कर लता ने
मुग्धकारी रूप है अपना संवारा।
रात हो या दिन लता-हित शीत, आतप,
आंधियां, ओले सभी तरु ने सहे हैं!
मेघ मुझको इसलिए लगते भले हैं,
क्योंकि विद्युत के लिए तिल-तिल गले हैं,
अंक में ले, छोर तक नभ के जहां को
भी मचल जाती, उसे लेकर चले हैं।
है जहां बिजली तड़प कर तिलमिलाई,
अश्रु लाखों बस वहीं घन के बहे हैं!
प्रिय बहुत वह जिन्दगी की भूल मुझको,
जो बना दे विश्व के प्रतिकूल मुझको,
खींच लाए ज्वार, पर भाटा घसीटे
तो स्वयं दौड़े बचाने कूल मुझको।
थक चुके जब विश्व दे आघात शत शत,
हम हंसें, कह दें अभी हम जी रहे हैं!
कण्टकों को प्यार मैं करता रहा हूं,
क्योंकि कण्टक पुष्प के पहरी रहे हैं!
जिसने भीतर का फूल देखा, उसे बाहर के कांटे भी उस फूल के पहरेदार हो गए हैं।
प्राण सी प्यारी मुझे है रात काली
क्योंकि उसके पास है ऊषा निराली
क्या पता शायद छिपाने को ऊषा के
ही निशा ने कालिमा तन पर लगा ली
जिसने भीतर देखा और रोशनी को पाया, बाहर का अंधेरा भी उसी रोशनी का आभूषण हो जाता है। जिसने अंतर्जगत को जान लिया, बाहर का जगत उसी अंतर्जगत की लीला हो जाता है।
रात तब से आज तक सोई नहीं है,
जिस समय से हाथ ऊषा के गहे हैं!
कण्टकों को प्यार मैं करता रहा हूं,
क्योंकि कण्टक पुष्प के पहरी रहे हैं!
सिद्ध वह है, जिसने भीतर को जाना, और उसके भीतर में बाहर भी समाविष्ट हो गया है। भोगी वह है जो केवल बाहर को जानता है। त्यागी वह है जो बाहर का दुश्मन है और भीतर को अभी जानता नहीं है। सिद्ध वह है जिसने भीतर को जाना और भीतर को जान कर ही बाहर भी उस भीतर का अंग हो गया।
भीतर परमात्मा दिखाई पड़ जाए तो फिर सब तरफ परमात्मा दिखाई पड़ता है। तुम्हारी आंख में परमात्मा हो तो फिर तुम जो भी देखोगे उसी पर परमात्मा का अनुभव होगा।
राबिया ने अपनी कुरान की किताब में संशोधन कर दिया था! उसमें एक वचन कहीं आता है कि शैतान को घृणा करो। उसने काट दी पंक्ति। फकीर हसन उसके घर मौजूद था। उसने उसे पंक्ति को काटते देखा। उसने कहा: राबिया, यह तू क्या कर रही है? कुरान में संशोधन, यह कुफ्र है! कोई कुरान में संशोधन करता है?
तुम भी गीता में संशोधन कर सकोगे? हाथ कंप जाएंगे। कहीं कोई गीता में संशोधन करता है!
हसन ने कहा: यह तू क्या कर रही है? राबिया ने कहा: मुझे करना पड़ रहा है? क्योंकि जब भी मैं इस वचन पर आती हूं मुझे मुश्किल हो जाती है। पहले यह ठीक था, अब यह ठीक नहीं है। क्योंकि अब, जब से मैंने उसे जाना है, जिसे भी मैं देखती हूं, वही दिखाई पड़ता है। अब शैतान भी मेरे सामने खड़ा हो तो भगवान दिखाई पड़ता है, मैं क्या करूं? कुरान को मेरे अनुसार मुझे कर लेना होगा। यह मेरी कुरान है, यह मेरी किताब है। यह वचन मुझे खटका देता है, अटका देता है। इस पर आ कर मुझे उलझन हो जाती है। अब तो कोई उपाय नहीं बचा शैतान को देखने का। जब से उसे जाना है तब से बस वही है।
जिसने रोशनी जानी, उसे अंधेरा भी रोशन हो जाता है। और जिसने प्रेम जाना, वैमनस्य में भी उसका प्रेम ही झरता है। शत्रु से भी उसका प्रेम ही होता है। इसलिए जीसस ने कहा है: जैसे तुम अपने को प्रेम करते हो,वैसे अपने पड़ोसी को भी प्रेम करो। और जैसे तुम अपने को प्रेम करते हो, वैसे ही अपने शत्रु को भी प्रेम करो। होगा ही यह, करना न पड़ेगा। जिसने अपने को प्रेम कर लिया, उसके लिए शत्रु मिट गए।
जैन शास्त्रों में, जिन्होंने ज्ञान को उपलब्ध किया है उनका नाम है--अरिहंत। अरिहंत का अर्थ होता है जिसके शत्रु मिट गए। इसका यह मतलब मत समझना कि महावीर के कोई शत्रु नहीं थे। महावीर के लिए मिट गए थे। महावीर की तरफ से कोई शत्रु न था। लेकिन शत्रु तो अपने तरफ से शत्रु थे। वे महावीर को परेशान कर रहे थे, पत्थर मार रहे थे। उनके कानों में खीले ठोंक दिए थे। उनको गांव-गांव से खदेड़ रहे थे। शत्रु तो अपने काम में लगे थे।
मगर जैन शास्त्र ठीक कहते हैं कि महावीर अरिहंत हो गए। अरि यानी शत्रु। हंत यानी मार डाला जिसने अपने शत्रुओं को। सच में ही मार डाला! काट-काट कर नहीं कटते हैं शत्रु, ध्यान रखना। लेकिन भीतर अगर प्रेम का अनुभव हो जाए तो बाहर शत्रु समाप्त हो जाते हैं।
जोतिसरुपी आतमा घट घट रही समाय।
परमतत्त मन भावनो नेक न इत-उत जाय।।
नहीं कहीं गया है तुम्हारा परमात्मा। इसलिए खोजने कहीं मत जाओ। बैठो। रुको दौड़ो मत! ठहरो। जो ठहरा, उसने पाया। जो रुका, उसने पाया। जो दौड़ा भटकता रहा। खोजो मत परमात्मा को। अपने में खो जाओ और तुम उसे पा लोगे।
और तब जीवन में मनभावन अनुभव होता है। परमतत्त मनभावनो! डोल उठते हैं प्राण। नाच उठते हैं प्राण।
साहिल से बेनियाज हुआ जा रहा हूं मैं
मौजों का इज्तिराब बना जा रहा हूं मैं
आईना बन गया हूं किसी के जमाल का
अपनी नजर में आप खुबा जा रहा हूं मैं
इश्के-जुनूं-नवाज है सूरत-गरे-खयाल
जैसे किसी की बज्म में आ-जा रहा हूं मैं
किस मंजरे-नशात से गुजरा हूं बेखबर
नक्शे-कदम पर अपने बिछा जा रहा हूं मैं
गोया मेरी तबाहियों में है कसर अभी
पामाले-इल्तिफात किए जा रहा हूं मैं
सजदे में झुक पड़ा हूं तिरे आस्तां से दूर
इस शर्म से जमीं में गड़ा जा रहा हूं मैं
शोरीदगी-ए-इश्क मबादा हो पर्दा-दर
आगोशे-बेखुदी में दिया जा रहा हूं मैं
ऐ इश्क तेरी खैर किधर ले चला मुझे
अपनी नजर से आप छिपा जा रहा हूं मैं
ऐसी पिला दी उस निगहे-मै-फरोश ने
रंगीनियों में गर्क हुआ जा रहा हूं मैं।
एक बार भी उसकी प्याली से एक घूंट भी पी लिया तो जगत वही रहता है और वहीं नहीं रह जाता है। यहां हर चीज रोशन हो जाती है। पत्ते-पत्ते पर दीया जल उठता है। कंकड़-कंकड़ हीरे की तरह चमक उठता है।
ऐसी पिला दी उस निगहे-मै फिरोश ने
रंगीनियों में गर्क हुआ जा रहा हूं मैं।
रूप रेख बरनौं कहा कोटि सूर परगास।
अगम अगोचर रूप है कोउ पावै हरि को दास।।
ऐसी रंगीनियों में डूब रहा हूं, ऐसी अनंत रंगीनियों में--कि रूप रेख बरनौं कहा--कि चाहूं भी कि उसका वर्णन करूं,कुछ रूप-रेखा समझा दूं, तो नहीं समझा सकता। गूंगे का गुड़! चख तो लिया स्वाद, कहते नहीं बनता। वाणी अवरुद्ध हो जाती है। कंठ भर आता है ऐसे आनंद से कि शब्द नहीं फूटते।
ज्ञान की परम दशा कही नहीं जा सकती। हां, उस तक पहुंचने के मार्ग कहे जा सकते हैं। उसकी तरफ इशारा किया जा सकता है, अंगुली उठाई जा सकती है। मगर कोई शब्द समर्थ नहीं है उसे प्रकट करने को। उसकी प्यास जगाई जा सकती है, लेकिन उसका स्वाद नहीं दिया जा सकता। और सदगुरु स्वाद नहीं देता, प्यास जगाता है। वह तुम्हारे भीतर ऐसी उत्तुंग प्यास जगा देता है कि तुम्हें स्वाद करना ही पड़ेगा। तुम्हें जाना ही होगा अपने भीतर। वह तुम्हारे भीतर ऐसी अभीप्सा को जन्मा देता है कि अब तुम चैन न ले सकोगे। ऐसी बेचैनी तुम्हारे भीतर जगा देता है, तुम्हें ऐसा अशांत कर देता है...अब तुम थोड़ा चौंकोगे। क्योंकि तुम साधु-संतों के पास शांति के लिए जाते हो, चैन पाने के लिए जाते हो। और अगर वहां तुम्हें चैन और शांति मिलती हो तो समझना कि तुम गलत जगह आ गए।
संत तो वही है जो तुम्हें असली बेचैनी दे दे। उस बेचैनी में मजा जरूर है। बड़ा रस...बड़ा गहरा आनंद भी है उस बेचैनी में! और उस बेचैनी के कारण छाया की तरह एक चैन भी आएगा। जिसको भीतर की बेचैनी जग गयी, उसको बाहर के जगत में चैन हो जाता है। क्योंकि तुम दोनों तरफ एक साथ बेचैन नहीं रह सकते। अगर तुम बाहर बेचैन हो, तो भीतर की तुम्हें अभीप्सा नहीं है। अगर तुम भीतर बेचैन हुए तो बाहर कौन फिक्र करता है!
छोटी बीमारी हो और फिर बड़ी बीमारी आ जाए, तो छोटी बीमारी तत्क्षण भूल जाती है। जैसे सिर में दर्द है और कार का एक्सिडेंट हो जाए, हाथ-पैर टूट जाएं, मल्टी-फ्रैक्चर हो जाए--फिर क्या सिर में दर्द बचेगा? सिर के दर्द की याद ही न आएगी।
मैंने सुना है मुल्ला नसरुद्दीन घसिट-घसिट कर चलता है। किसी ने पूछा कि नसरुद्दीन...। और गालियां देता है चलते वक्त और पैर पटकता है।...क्या, मामला क्या है? उसने कहा: ये जूते...दो नंबर छोटे हैं। अब दो नंबर छोटे जूते पहनोगे तो गालियां निकलेंगी ही मुंह से, करोगे क्या? और पैर पटकोगे ही, घसटोगे भी। पैरों में फफोले पड़े हैं। तो उसने कहा कि कई दिन से देख रहा हूं तो इनको पहनते क्यों हो? तो उसने कहा कि यही तो मेरे जीवन की एकमात्र राहत है, इनको छोड़ नहीं सकता। क्योंकि दिन-भर के बाद जब परेशान घर लौटता हूं और जब इन जूतों को खोल कर फेंक देता हूं, बिस्तर पर लेटता हूं तो स्वर्ग का सुख मालूम होता है। इन जूतों में ही मेरा सारा सुख है। और तो जिंदगी में कुछ है नहीं। बस जब इन को खोल कर रख देता हूं तो ऐसी राहत मिलती है कि तुम कल्पना नहीं कर सकते उस राहत की। उस राहत के लिए दिन-भर तकलीफ झेल लेता हूं, मगर वह राहत नहीं छोड़ी जाती।
खयाल करो, एक अशांति है बाहर की। एक असंतोष है बाहर का--कि धन थोड़ा और ज्यादा हो जाए कि पद थोड़ा और ज्यादा हो जाए। और उसके लिए तुम बहुत दौड़ते हो, बहुत दौड़ते हो। और ख्याल रखना, धन के ज्यादा होने से सुख नहीं मिलता। लेकिन जब तुम खूब तड़प लेते हो धन ज्यादा होने के लिए और एक दिन जब धन ज्यादा हो जाता है तो वही सुख मिलता है जो मुल्ला नसरुद्दीन को घर लौट कर जूते उतारने से मिलता है। वह तकलीफ असंतोष की, इतने दिन की दौड़-धाप, कि हो जाए एक लाख रुपया और एक दिन हो गया, राहत की सांस लेते हो। मगर यह राहत की सांस ज्यादा नहीं रहेगी। कल सुबह फिर होगी। फिर जूता पहनो। फिर दौड़ो अब दो लाख होने चाहिए। फिर कभी एक वक्त आएगा जब दो लाख हो जाएंगे और फिर एक क्षण तुम्हें राहत मिलेगी। मगर यह राहत ज्यादा देर न टिकेगी। कल सुबह फिर जूते पहनो। यह जूता तुम छोड़ नहीं सकते अब, क्योंकि तुम्हारी राहत इसी जूते पर निर्भर है।
इसलिए लोगों के पास कितना ही धन हो जाए, जरूरत से ज्यादा हो जाए, उपयोग भी न कर सकें इतना हो जाए--तो भी दौड़ नहीं बंद कर सकते, क्योंकि उसी दौड़ में तो कभी-कभी राहत के क्षण आते हैं। बाहर जिनका जीवन उलझा है बेचैनी से, ये लोग जाते हैं साधु-संतों के पास; चाहते हैं कि कुछ थोड़ी राहत मिले, कोई सांत्वना मिल जाए, कोई मलहम-पट्टी कर दे। दो नंबर कम के जूते पहने हो, मलहम-पट्टी की जरूरत सदा रहेगी ही।
और साधु-संतों का काम साधारणतः यही है कि मलहम-पट्टी कर दें, समझा-बुझा दें लीपा-पोती कर दें कि सब ठीक है, घबड़ाओ मत। यह दुख कट जाएगा, कोई चीज सदा नहीं रहती। जगत परिवर्तनशील है। सुख-दुख आते रहते हैं। ...कि पिछले जन्मों का कर्म-फल है, घबड़ाओ मत। कर्म-फल तो भोगना ही पड़ता है। धैर्यपूर्वक भोग लो तो आगे कर्मबंध नहीं होगा। राम-राम जप लिया करें सुबह। माला फेर लिया करें सुबह। सत्यनारायण की कथा करवा लिया करें कभी, तो इस जन्म में तो नहीं, लेकिन अगले जन्म में बहुत मिलेगा। स्वर्ग निश्चित है ...। ऐसी राहतें, ऐसी सांत्वनाएं ...। तुम्हारी पीठ थपथपा दी, तुम चले आए।
सच्चे संत के पास जब तुम जाओगे तो उलटी ही घटना घटेगी। ये बेचैनियों की तो वह बात ही नहीं करेगा। वह नयी बेचैनियां पैदा कर देगा। वह कहेगा परमात्मा को पाना है। लाख रुपया कमाने में कोई बहुत बड़ा मामला मामला थोड़े ही है। मिल जाता है। कोई लगा ही रहे जिद से तो मिल ही जाता है। कोई सिर मार कर घुस ही जाए तो मिल ही जाता है। थोड़ी छीना-झपटी है, मगर मिल ही जाता है। नियम से न मिले तो गैर-नियम से मिल जाता है। कानूनी ढंग से न मिले तो गैर-कानूनी ढंग से मिल जाता है। मिल ही जाता है। यह कोई बड़ा मामला नहीं है। बुद्धुओं को मिल जाता है; इसमें कोई बहुत बुद्धिमानी भी नहीं है। नहीं; सच्चा संत तो तुम्हारे भीतर एक नयी आग जलाएगा। वह कहेगा: परमात्मा पाने में लगो, यहां क्या रखा है? इसमें कुछ नहीं है। मिल भी जाएगा, तो कुछ नहीं है।
वह एक ऐसी आग जलाएगा, जो बुझाए न बुझे। वह तुम्हें उतप्त करके भेजेगा। वह तुममें नयी बेचैनी के बीज बो देगा। ऐसी बेचैनी--परमतत्व को पाने कि, परम मुक्ति को पाने के निर्वाण की। हां, एक फर्क पड़ जाएगा, अगर बेचैनी पकड़ ले, अगर तुम उसके रंग में रंग जाओ, अगर उसकी आग तन-प्राण में लग जाए, तो तुम्हें बाहर की बेचैनियां भूल जाएंगी, क्योंकि वे छोटी पड़ जाएंगी। उनका कोई मूल्य ही न रह जाएगा। वे इतनी छोटी पड़ जाएंगी कि उनकी याद भी न आएगी।
इसलिए जिसको परमात्मा की खोज पकड़ लेती है उसको संसार के दुख छूट जाते हैं। इसलिए नहीं कि छूट जाते हैं, छोटे हो जाते हैं। इतने छोटे हो जाते हैं कि उनकी गिनती नकार में समझो। उनका क्या मूल्य! पैर में कांटा गड़ा हो और कोई तुम्हारी छाती पर छुरा लेकर खड़ा हो जाए, पैर का कांटा तुम्हें याद आएगा? अब छुरे की फिक्र करो कि कांटे की? बड़ी बीमारी छोटी बीमारियों को भुला देती है।
मैंने सुना है, बर्नार्ड शॉ ने अपने डॉक्टर को फोन किया कि मुझे हृदय का दौरा पड़ा है, जल्दी आएं। आधी रात...बूढ़ा डॉक्टर और बर्नार्ड शॉ रहता दूसरी मंजिल पर। आधी रात, उठा बूढ़ा, सीढ़ियां चढ़ा। हांफ गया। जा कर एकदम कुर्सी पर लेट गया। जोर से हांफने लगा। बर्नार्ड शॉ बिस्तर पर लेटा था, उठ आया। पूछा कि मामला क्या है? पसीना-पसीना हो रहा है बूढ़ा डॉक्टर और जोर से हांफ रहा है। लगता है कि हार्ट-अटैक है।
पंखा करने लगा। पानी पिलाया। थोड़ी-बहुत देर जब डॉक्टर की यह हालत रही तो बर्नार्ड शॉ को याद ही न रहा कि मैंने उसे बुलाया है कि मुझे ...। जब डॉक्टर थोड़ा ठीक हुआ और चलने को हुआ तो उसने कहा: फीस? तो बर्नार्ड शॉ ने कहा यह भी खूब रही! इलाज मैंने आपका किया और फीस मांगते हैं! बर्नार्ड शॉ से उसने कहा कि नहीं, यह सब खेल था। यह हांफना और धड़कना, यह सब खेल था। यह तेरी बीमारी मिटाने के लिए इलाज था। बर्नार्ड शॉ को उसने कहा कि तू भी मजाक करता है तो मैंने सोचा कि आज मैं भी मजाक करूं। और सच में ही जब डॉक्टर की यह हालत खराब थी, जब वह नाटक कर रहा था, तो बर्नार्ड शॉ एकदम भूल ही गया, बीमारी खत्म ही हो गयी! याद ही न रही बीमारी की। बड़ी बीमारी के सामने छोटी बीमारी भूल ही जाती है।
संत तुम्हें एक असंतोष देंगे। एक ऐसा असंतोष,जिससे बड़ा और कोई असंतोष नहीं है--एक दिव्य असंतोष--प्यास देंगे! लेकिन जो स्वाद उन्हें मिला है उसका वर्णन नहीं कर सकते हैं।
रूप रेख बरनौं कहा कोटि सूर परगास।
 जैसे न मालूम कितने-कितने करोड़-करोड़ सूरज निकल आए हों, इतना प्रकाश है,मैं कैसे वर्णन करूं!
है जुस्तुजू कि खूब से है खूबतर कहां
अब ठहरती है देखिए जाकर नजर कहां
या रब इस इख्तिलात का अंजाम हो बखैर
था उसका हमसे रब्त मगर इस कदर कहां
इक उम्र चाहिए कि गवारा हो नेशे-इश्क
रक्खी है आज लज्जते-जख्मे-जिगर कहां
हम जिस पे मरते हैं वो है बात ही कुछ और
आलम में तुझसे लाख सही तू मगर कहां
किससे तुलना करें उसकी?
आलम में तुझसे लाख सही तू मगर कहां
सब तरफ तू ही है, लाखों रूपों में तू ही है। लेकिन जब तुम उसकी परिपूर्णता को जानोगे तो सब चेहरे फीके पड़ जाएंगे; सब सौंदर्य कुरूप हो जाएगा, सब रोशनियां अंधेरी मालूम होने लगेंगी। जब तुम उस परम जीवन को देखोगे तो जिसको तुमने जीवन जाना था, वह मृत्यु जैसा मालूम पड़ेगा; और जिसको तुमने अमृत समझा था अब तक, वह जहर हो जाएगा। जिस दिन उस परम का अनुभव होगा, तुम्हारी सारी कोटियां उलटी-सीधी हो जाएंगी; तुम्हारा गणित सब अस्तव्यस्त हो जाएगा; तुम्हारी तर्क-सरणी काम नहीं पड़ेगी।
हम जिस पे मरते हैं वो है बात ही कुछ और
आलम में तुझसे लाख सही तू मगर कहां
है दौरे-जामे-अव्वले-शब में खुदी से दूर
होती है आज देखिए हम को सहर कहां
होती नहीं कुबूल दुआ तर्के-इश्क की
दिल चाहता न हो तो जुबां में असर कहां
जैसे बाढ़ आए, ऐसा परमात्मा आता है। जो बहा ले जाएं तुम्हें एक तिनके की तरह, ऐसा परमात्मा आता है। तुम कहीं खोजे से भी न मिलोगे, तो कहे कौन?
तुम्हारी बोलती ही खो जाएगी तो बोले कौन?
ऋषि बोले हैं ; मगर जो बोले हैं, वह परमात्मा का निर्वचन नहीं है। जो बोले हैं वह मनुष्य की दशा है। उस मनुष्य की दशा में पार कैसे उठा जाए, इसके उपाय हैं। परमात्मा तक पहुंचने का द्वार और मार्ग क्या है, इसकी चर्चा है। विधि-विधान हैं योग है। मगर जो पहुंच कर पाया है, उस संबंध में सन्नाटा है, चुप्पी है। कोई कभी नहीं बोला। या ज्यादा-से-ज्यादा इतना ही कहा है कि उस संबंध में कुछ कहा न जा सकेगा, कि वह अव्याख्य है, कि वह अनिर्वचनीय है।
बुद्ध ने तो हद कर दी। बुद्ध ने तो इतना भी न कहा कि वह अनिर्वचनीय है। क्योंकि उन्होंने कहा: यह कहना भी उसके संबंध में कुछ कहना है। यह भी न कहा कि अनिर्वचनीय है, क्योंकि यह भी तो व्याख्या का अंग हो गया। यह व्याख्या हो गयी। कोई चीज निर्वचनीय है, कोई चीज अनिर्वचनीय है, तो यह तो कोटि में बांधना हो गया। वह किसी कोटि में नहीं बंधता। वह वचन में तो आता ही नहीं, मौन में भी नहीं आता है। शब्द में तो पकड़ में आता नहीं, निःशब्द में भी नहीं प्रकट होता है। जाना ही जा सकता है, जीया ही जा सकता।
इसलिए सदगुरु ले चलते हैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर कि तुम भी जी सको। वे कहते तुम भी चखो। समझो मत, चखो।
अगम अगोचर रूप है कोई पावै हरि को दास। अगम! अगम्य है वह। उसे न नाप सकते हो न माप सकते हो। उसकी कोई थाह नहीं है। हमारे हाथ बड़े छोटे हैं। हमारे मापने के उपाय बड़े छोटे हैं। अगोचर है वह, इंद्रियातीत है। आंख से देखते तो रूप की चर्चा कर देते। कान से सुनते तो उसके संगीत की चर्चा कर देते। लेकिन न वह आंख है, न वह कान है, न वह किसी और इंद्रिय का विषय है। सारी इंद्रियों का विषय है और सारी इंद्रियों का अतिक्रमण भी। फकीरों ने कहा है--हमने उसे आंख से वे सुना और कान से देखा। यह सिर्फ इस बात को कहने की तरकीब है कि कुछ अबूझ घटना है। कबीर ने इसीलिए उलटबांसियां लिखीं। अबूझ घटना की तरफ इशारा करने को। कबीर ने लिखा है: एक अचंभा हमने देखा नदिया लागी आगि। हमने ऐसा अचंभा देखा कि नदी में आग लगी है! अब नदियों में आग नहीं लगती। आजकल की नदियों की नहीं कह रहा हूं। अमरीका में आजकल की नदियों में भी आग लग जाती है, क्योंकि इतना पेट्रोल और इतना तेल उनमें पड़ गया है। झीलों में आग लग जाती है अमरीका में। मगर बेचारे कबीर-दास को क्या पता था कि हालत ऐसी बिगड़ेगी, कि नदियों में पानी नहीं होगा, पेट्रोल होगा। समुद्रा में आग लग जाती है अमरीका में। अभी कुछ दिन पहले मीलों तक आग फैल गयी थी समुद्र में, क्योंकि इतने जहाज इतने तेल फेंक रहे हैं पानी में। मछलियां मर गयी हैं। कुछ झीलों में, अमरीका में मछली नहीं बच सकती--इतना जहर है! मगर जब कबीर ने यह लिखा था तब बिलकुल ठीक था। अब होते तो यह बात भूलकर भी न लिखते कि एक अचंभा मैंने देखा, कि नदिया लागी आगि। यह तो बात ही अब नहीं कही जा सकती, जमाना ही बदल गया। मगर तब नदियों में आग नहीं लगती थी।
कुछ ऐसी अनहोनी घटना है, ऐसी अघट घटना है, ऐसी रहस्यपूर्ण घटना है कि कोई इंद्रियां उसे पकड़ नहीं पाती। सभी इंद्रियों में झलकती है और फिर भी झलक के पार शेष है। पार से पार...जितना देखो उतना है। जान-जान कर भी जानना चुकता नहीं। जितना जानो उतना पता चलता है कि हम कितने अज्ञानी हैं!
अगम अगोचर रूप है कोउ पावै हरि को दास।
लेकिन पाया जा सकता है। जाना भले न जा सके, पाया जा सकता है। और पाने की कला क्या है? हरि के दास हो जाओ। मालकियत छोड़ो। मालिक होने का खयाल छोड़ो। जीतने की आकांक्षा छोड़ो हारने की कला सीखो। हारे को हरिनाम! वह जो हार गया बिलकुल उससे, बस वही जीत पाता है। प्रेम का शास्त्र यही है कि हारो तो जीत जाओ। जीतने की कोशिश करो तो हारे, बुरे हारे। वहां जो विजय के लिए गया है परमात्मा की, वह तो चारोंखाने गिरा है, बुरी तरह पराजित हुआ है! हां, जो समर्पित होने गया है, अर्पित होने गया है, वह जीत कर लौटा है।
यह भी गणित उलटा है। इस संसार में तो जीतना हो तो जीतना पड़ता है। और जीतने की कोशिश न करो तो हार सुनिश्चित है।
मेक्यवली ने संसार का गणित और शास्त्र लिखा है। उसने लिखा है कि अगर जीतना है तो हमले की प्रतीक्षा मत करना कि दूसरा करे। क्योंकि सुरक्षा का सबसे अच्छा उपाय हमला है। तुम पहले ही हमला कर देना, अगर जीतना ही है। तुम राह भी मत देखना कि दूसरा जब हमला करेगा, तब हम सुरक्षा करेंगे। दुनिया ढालों से नहीं जीती जाती, तलवारों से जीती जाती है। हमला पहले कर देना क्योंकि जिसने पहले हमला किया वह पहले से ही लाभ में हो गया। जो सुरक्षा में लग गया वह पहले से ही मुश्किल में पड़ गया।
यह संसार का गणित है जो मेक्यवली ने लिखा है।
मीरा ने, यारी ने, महावीर ने, मुहम्मद ने "उसजगत' का गणित लिखा है। वह गणित क्या है? वहां अगर जीतना हो तो तलवार-ढाल सब गिरा देना, निःशस्त्र हो जाना, असुरक्षित हो जाना।
संन्यास का मौलिक अर्थ है: असुरक्षित हो जाना, समर्पित हो जाना। कह देना कि तू मुझे जीत ले। मैं हारने को तत्पर हूं। और उससे हारने में भी मजा है। इस संसार से जीतने में भी मजा नहीं और परमात्मा से हारने में भी मजा है। क्योंकि वह उसी को हराता है, जो धन्यभागी है। और वह जिसको हराता है, वही जीत जाता है। उसकी हार, उससे हारना, सिंहासन पर विराजमान हो जाना है।
इस जगत की जीत भी सिर्फ सूली पर लटका देती है। तुम चाहो तो दिल्ली में जा कर देख लो, सूली पर लटके दिखाई पड़ेंगे लोग। और शांति से लटके भी नहीं, कोई टांग खींच रहा है, कोई गर्दन उतार रहा है, कोई चूड़ीदार पाजामा खींच रहा है कि वही निकाल कर ले भागे। सारी कोशिश चल रही है। अपना-अपना चूड़ीदार पाजामा लोग कस-कस कर पकड़े हुए हैं कि कोई खींच न ले। इसलिए तो चूड़ीदार पाजामा पहनते हैं, क्योंकि पहनना मुश्किल और खींचना-निकालना भी मुश्किल है। उसकी यही खूबी है। अगर बंगाली धोती पहने हो, तो गई! कब कौन ले गया, तुम्हें पता ही न चलेगा। चूड़ीदार पाजामे की बड़ी खूबी है। चूड़ीदार पजामा, अचकन...कोई अगर खींचना भी चाहे तो आसान नहीं है। पहनाने के लिए भी एक आदमी की जरूरत पड़ती है और उतारने के लिए तो दो आदमियों की जरूरत पड़ती है। और जो पहने बैठा है अगर उसे न उतरवाना हो, उछल-कूद करता रहे...तो बस, फिर...फिर तो तुम उतार ही नहीं सकते।
इस जगत में तो जीत भी बड़ी दुर्दशा साबित होती है। उस जगत में हार भी बड़ा सौभाग्य है। कोउ पावै हरि को दास...। विरले हैं वे जो हारने को राजी हैं, इसीलिए परमात्मा से मिलने वाला, परमात्मा को पाने वाला मुश्किल से मिलता है। मिल सकता है सब को, बस हारने की कला आनी चाहिए।
अद्भुत प्रकाश है उसका। जरा तुम हारो। कोटि सूर परगास! जरा तुम मिटो। हारोगे तो मिटोगे। तुम विदा हो जाओ। हारोगे तो विदा हो जाओगे। और जहां तुम नहीं हो वहां परमात्मा उतरता है।
गमे-मुहब्बत सता रहा है गमे-जमाना मसल रहा है
मगर मिरे दिन गुजर रहे हैं मगर मिरा वक्त टल रहा है
वो अब्र आया, वो रंग बरसे, वो कैफ जागा, वो जाम खनके
चमन में यह कौन आ गया है तमाम मौसम बदल रहा है
उसकी जरा-सी झलक आ जाए कि वसंत आ जाता है, मधुमास आ जाता है!
गमे-मुहब्बत सता रहा है, गमे-जमाना मसल रहा है
मगर मिरे दिन गुजर रहे हैं, मगर मिरा वक्त टल रहा है
वो अब्र आया, वो रंग बरसे, वो कैफ जागा, वो जाम खनके
चमन में यह कौन आ गया है तमाम मौसम बदल रहा है
मिरी जवानी के गर्म लम्हों पे डाल दे गेसुओं का साया
वह दोपहर कुछ तो मोतदिल हो तमाम माहौल जल रहा है
यह भीनी-भीनी सी मस्त खुशबू यह हल्की-हल्की सी दिलनशीं बू
यहीं कहीं तेरी जुल्फ के पास कोई परवाना जल रहा है
न देख ओ महजबीं मिरी सम्त इतनी मस्ती भरी नजर से
मुझे यह महसूस हो रहा है शराब का दौर चल रहा है
"अदम ' खराबात की सहर है कि बारगाहे-रमूजे-हस्ती
इधर भी सूरज निकल रहा है उधर भी सूरज निकल रहा है
वो अब्र आया, वो रंग बरसे, वो कैफ जागा, वो जाम खनके
चमन में यह कौन आ गया है तमाम मौसम बदल रहा है
तुम जरा हारो, तुम जरा मिटो और मौसम बदले, कि खुशियों के बादल छा जाएं, कि अमृत की बूंदाबांदी हो कि तुम्हारे भीतर जन्मों-जन्मों से पड़े हुए बीज फूट पड़ें, अंकुरित हो जाएं! कि तुम्हारे भीतर भी शाश्वत जीवन के पत्ते फूल जगें, जन्में। कि तुम भी जानो की तुम कौन हो, क्या हो? मगर गणित समझ लेना। तुम जब तक हो, तुम तब तक जान न सकोगे कि तुम कौन हो। तुम जब नहीं हो तभी जान सकोगे कि तुम कौन हो। इस विरोधाभास को याद रखना। कोउ पावै हरि को दास। नैनन आगे देखिए तेजपुंज जगदीस।
बाहर भीतर देखिए रमि रह्यो सो धरि राखो सीस।। और फिर दिखाई पड़ता है कि बाहर भीतर वही। नैनन आगे देखिए तेजपुंज जगदीस! गहन प्रकाश का पुंज है। बाहर भीतर रमि रह्यो सो धरि राखो सीस। चढ़ा दो अपनी गर्दन उस पर। गिरा दो अपनी गर्दन उस पर। मत बचाए फिरो अहंकार को। यह सिर मत उठाए फिरो। झुका दो कहीं। और जिस द्वार पर यह झुक जाए, वही द्वार मंदिर हो जाता है।
हम चूक रहे हैं। परमात्मा सब तरफ मौजूद है और हम चूक रहे हैं!
तुम अध्ययन नहीं कर पाए!
तुमने देखा दाएं बाएं,
तुमने ऊपर नीचे देखा,
आंखें फाड़ निहारा तुमने,
तुमने आंखें मीचे देखा।
किन्तु किसी भी ओर कभी तुम
स्थिर नयन नहीं कर पाए!
तुम अध्ययन नहीं कर पाए! उठते गिरते रहे निरंतर
हृदय सिन्धु के ज्वार तुम्हारे,
बनते मिटते रहे क्षणों में सपनों के आकार तुम्हारे।
ये चंचल अरमान कहीं भी
पल भर शयन नहीं कर पाए।
तुम अध्ययन नहीं कर पाए! बिखरे हुए पड़े हैं अक्षर,
बिखरी हुई पड़ी हैं कड़ियां,
बिखरे हुए पड़े हैं मोती,
बिखरी हुई पड़ी हैं लड़ियां।
तुम इन कड़ियों का, लड़ियों का
कुछ भी चयन नहीं कर पाए!
तुम अध्ययन नहीं कर पाए!
 मौजूद है मगर तुम अध्ययन नहीं कर पाए, मनन नहीं कर पाए, निदिध्यासन नहीं कर पाए। तुम चूक गए। तुम ध्यान नहीं कर पाए, बस। तुम एक क्षण को भी शांत होकर, मौन होकर, निर्विचार होकर नहीं देख पाए, बस। अन्यथा वही है, केवल वही है। उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है।
आठ पहर निरखत रहौ सनमुख सदा हजूर।
और जिन्होंने जरा सी भी ध्यान की झलक पा ली, शून्य का मजा पा लिया; जिन्होंने जरा झरोखा खोला अपने हृदय का, अपनी प्रीति का,अपनी प्रार्थना का--उनके लिए आठ पहर निरखत रहो! फिर तो जागे भी वही, सोए भी वही। उठते भी उसी में हो, सोते भी उसी में हो। खाते भी उसी में हो, पीते भी उसी में हो। वही खाते हो वही पीते हो।
आठ पहर निरखत रहौ...। फिर तो जहां देखो वही है। वृक्षों में वही हरा, वृक्षों में वही लाल। वही सूरज की बरसती हुई रोशनी में स्वर्ण हुआ है। वही रात चांद से झरता है, रजत की भांति, चांदी की भांति। वही झीलों में झलकता है, वही चांदत्तारों में प्रकाशित है। वही लोगों की आंखों में टिमटमा रहा है। वही है वही है, और कोई भी नहीं है।
आठ पहर निरखत रहौ सनमुख सदा हजूर।
या मालिक! वह मालिक सब तरफ मौजूद है। उसने तुम्हें घेरा है। हवा का झोंका आता है तो उसी मालिक का झोंका आता है। श्वास चलती है तो वही। तुम उसी में हिंडोले ले रहे हो। तुम उसी में झूले ले रहे हो, पेंगें भर रहे हो।
कह यारी घर ही मिलै काहै जाते दूर!
और कहां जा रहे हो? कह यारी घर ही मिलै...! और तुम्हारे भीतर मौजूद है।
और भीतर पहले पहचान हो जाए तो फिर बाहर पहचान होती है। इससे उलटा नहीं होता। लोग सोचते हैं पहले बाहर पहचान हो जाए तो फिर भीतर पहचान होगी। ऐसा नहीं होता। पहले भीतर पहचान हो जाए, तो तब बाहर पहचान होती है। इसलिए मंदिरों-मस्जिदों में तुम्हारी पूजाएं व्यर्थ हैं। तुम बाहर पहचान करने में लगे हो। मूर्तियों के सामने चढ़ाए गए तुम्हारे फूल व्यर्थ गए हैं; उतारी गयी आरतियां व्यर्थ गयी हैं। तुम्हें अभी अपने में भी नहीं दिखा। जो निकट से भी निकट है, वहां नहीं दिखा तो पत्थर की मूर्ति में कैसे दिखेगा? तुम भलीभांति जानते हो पत्थर की मूर्ति हमारी बनाई हुई है, आदमियों की बनाई हुई, बाजार से खरीदी गयी है। तुम्हें अपने बेटे में नहीं दिखा, अपनी पत्नी में नहीं दिखा, अपने पति में नहीं दिखा, अपने में नहीं दिखा।
निकट आओ! करीब आओ। वही तो तुम्हारे हृदय में धड़क रहा है,वहां नहीं दिखा और चले मंदिर में! और देखोगे मूर्ति में तुम? नहीं दिखेगा। और अगर जरा समझदार हुए, जरा तर्कनिष्ठ हुए तो शायद सदा के लिए चूक जाओगे।
महर्षि दयानंद के जीवन का उल्लेख है कि पूजा हुई--शिवरात्रि की महापूजा। पिता बड़े भक्त थे। बेटे को भी पूजा में बिठाया था। शिवरात्रि थी तो रात-भर का जागरण था। दयानंद जिद्दी किस्म के आदमी थे और जिंदगी-भर जिद्दी किस्म के आदमी रहे। तो रात-भर का जागरण था तो बैठे ही रहे। उम्र तो कम थी, होगी बारह तेरह साल। मगर पूत के लक्षण तो वो पालने में! बैठे रहे रात-भर। पिता तो सो भी गए। असली पुजारी तो सो गया,मगर वे बैठे रहे, बैठे रहे; देखते रहे कि क्या होता है, क्या होता है? और जो हुआ, उसने उनकी जिंदगी बदल दी। हुआ यह कि जो लड्डू इत्यादि चढ़ाए थे शिव के लिंग पर, एक चूहा आ गया और लड्डू खाने लगा। इतना ही नहीं शिवजी पर चढ़ गया! शिवजी पर बैठकर मस्ती से इधर-उधर देखने लगा। बस दयानंद के मन से सारी श्रद्धा चली गयी, कि ये क्या शिवजी हैं, चूहे को भी भगा नहीं सकते! और हमारी चढ़ाई हुई पूजा और प्रसाद चूहा खा रहा है। और शिवजी डांट भी नहीं सकते कि भाग यहां से, हट यहां से! और शिवजी के ऊपर चढ़कर चूहा बैठा है! ये क्या खाक हमारी रक्षा करेंगे!
यह जरा तीक्ष्ण बुद्धि व्यक्ति हो तो ऐसा हो जाएगा। और इसका दुष्परिणाम हुआ। लाभ तो नहीं हुआ, हानि हुई। अगर दयानंद को पहले भीतर जाना सिखाया गया होता, यह बाहर की पूजा न बताई गयी होती, तो यह जो आर्यसमाज का उपद्रव पैदा हुआ, कभी पैदा नहीं होता। आर्यसमाज का असली जन्मदाता वह चूहा! बस, सारी पूजा पाखंड है, सब व्यर्थ है! यह भाव पैदा हो गया। फिर जिंदगी-भर यही समझाते रहे वे लोगों को। इसमें एक तरफ से तो बात सच्ची है कि पूजा व्यर्थ है जब तक अंतर का अनुभव न हो। लेकिन अंतर का अनुभव होने के बाद पूजा में भी सार्थकता है।
समझो, अगर दयानंद को ध्यान करवाया गया होता, पूजा न करवाई गयी होती पहले ...। मेरे हिसाब में हर बच्चे को ध्यान करवाया जाना चाहिए, पूजा नहीं। क्योंकि पूजा में दो संभावनाएं है। जो बच्चे बुद्ध होंगे, वे जिंदगी-भर पूजा में लगे रहेंगे। गोबर-गणेश जो होंगे, वे जिंदगी-भर पूजा ही करते रहेंगे। और जो बच्चे थोड़े प्रतिभाशाली होंगे, तीक्ष्ण बुद्धि के होंगे उनके लिए सदा पूजा, एक थोथा आडंबर और पाखंड हो जाएगी। जल्दी ही तर्क उनका जगेगा और कोई-न-कोई बहाना मिल जाएगा उनको और पूजा व्यर्थ हो जाएगी। वे नास्तिक हो जाएंगे या मूर्ति भंजक हो जाएंगे, या पूजा को पाखंड सिद्ध करनेवाले हो जाएंगे। दोनों बातें अच्छी नहीं हैं।
जो पूजा में ही लगा रहा बाहर की, वह भी चूक गया। और जिसने बाहर की पूजा को पाखंड समझा, वह भी चूक गया। लेकिन अगर बच्चों को पहले ध्यान में ले जाया जाए भीतर की तरफ...। और बच्चे ज्यादा आसानी से जा सकते हैं बूढ़ों की बजाय। क्योंकि बूढ़ों ने बहुत कचरा इकट्ठा कर लिया है ज्ञान का, उसको हटाने में समय लगता है। बच्चों के पास कोई कचरा नहीं है, निर्मल चित्त है। जरा इनको इशारे दे दिए जाएं और वे ध्यान में सरलता से उतर जाते हैं। यह दुनिया दूसरी हो सकती है, यह मनुष्यता नयी हो सकती है--एक छोटे-से सूत्र का सूत्रपात करना है। छोटे-छोटे बच्चों को ध्यान की झलक मिलनी चाहिए।
और बच्चों को अगर ध्यान की झलक मिली होती, अगर दयानंद को ध्यान की झलक मिली हुई होती तो उस रात घटना और ही घटती। यही होता ; चूहे को इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि दयानंद ने ध्यान किया था तो नहीं आता। चूहा तो आता, लड्डू भी खाता। और दयानंद ने अगर ध्यान किया होता तो और मस्ती से खाता। क्योंकि गैर-ध्यानी लड़का वहां बैठा था, चूहा थोड़ा डरता भी रहा होगा कि यह कोई उपद्रव न करे लड़का, यहां बैठा है! संकोच भी किया होगा चूहे ने। ध्यानी होता दयानंद तो शायद चूहा और भी मौज करता। शायद शंकरजी को लुढ़का देता या कुछ और करता। लेकिन दयानंद को कुछ और दिखाई पड़ता। दयानंद को शंकर की मूर्ति में तो शंकर दिखाई पड़ते ही, चूहे में भी शंकर दिखाई पड़ते। और तब यह भाव पैदा नहीं होता कि यह चूहा और शंकरजी की मूर्ति पर चढ़ कर बैठा है! परमात्मा ही परमात्मा है। फिर शंकरजी को ऊपर रखो कि चूहे को ऊपर रखो, क्या फर्क पड़ता है? गणेशजी तो चूहे की सवारी करते ही हैं। वे शंकर जी के बेटे हैं और चूहे की सवारी करते हैं। चूहे ने सोचा होगा, हम भी थोड़ी सवारी करें। इसमें बात क्या है? इनका बेटा हम पर चढ़ा घूमता है, जरा बापजी को हम भी मजा चखाएं!
परमात्मा ही परमात्मा है--वही चूहे में, वही शंकर में, वही गणेश में, वही सब में! मस्त हुए होते कि यह देखो परमात्मा की लीला! कि वही चूहे में वही शंकरजी में! शायद आनंदित हुए होते कि हमारी चढ़ाई हुई पूजा स्वीकार हो गयी। चूहे के रूप में आकर परमात्मा ने उसे ग्रहण कर लिया। आनंदमग्न हुए होते। अगर ध्यान रहा होता! मगर ध्यान नहीं था, केवल तर्क था।
और आर्यसमाज धर्म नहीं बन सका--सिर्फ एक तार्किक विवाद, एक शास्त्रीय ढंग की प्रक्रिया रह गयी। एक सामाजिक आंदोलन जरूर, एक तार्किक आंदोलन जरूर, मगर धर्म नहीं। क्योंकि धर्म का तर्क से कोई संबंध नहीं है।
दयानंद का सत्यार्थ प्रकाश पढ़ो और तुम समझोगे--तर्क ही तर्क है! छोटा तर्क, ओछा तर्क! तर्क ओछा होता ही है। ऊंचे से ऊंचा तर्क भी ओछा होता है। धर्म तो प्रेम की उड़ान है; हृदय के भीतर उठा संगीत है। धर्म का कोई तर्क से संबंध नहीं है।
आठ पहर निरखत रहौ सनमुख सदा हजूर।
कह यारी घर ही मिलै काहे जाते दूर।।
पहले घर में मिल लो, फिर सब जगह मिल जाएंगे।
आतम नारि सुहागिनि सुंदर आपु संवारि।
उस प्रेमी को मिलना है तो स्त्रैण हृदय बनो। तर्क पुरुष है, प्रेम स्त्रैण है। गणित पुरुष है, प्रार्थना स्त्रैण है। अगर परमात्मा को पाना है तो तर्क से नहीं, क्योंकि तर्क तो जीतने चलता है। तर्क तो दूसरे को हराने में उत्सुक होता है। प्रेम बनो।
आतम नारि सुहागिनी! स्त्री बनो। यारी ने बड़े अद्भुत अर्थ की बात कह दी है। धर्म उन्हीं को उपलब्ध होता है जो अपने को उस परम प्यारे की प्रियतमाएं समझ लेते हैं। कृष्ण वह और सब राधाएं। फिर मिलता है, क्योंकि प्रेम से मिलता है। और प्रेम स्त्रैण गुण है। और प्रेम हृदय के भीतर उठी उमंग है। तर्क तो बुद्धि का ही जाल है।
आतम नारि सुहागिनी सुंदर आपु संवारि।
अपने को संवारो! उस प्यारे के लिए तैयार करो। जैसे कोई अपने प्यारे को मिलने जाती है स्त्री तो कैसी सजती है, कैसी संवरती है! कितनी-कितनी बार आईने में अपने को देखती है! कैसा अपने को ...। हाथों में मेंहदी रचाती है। गहनें सजाती है। वेणी में फूल गुंथती है। आंखों में काजल। प्यारा आ रहा है! कैसी दीवानी होकर अपने को तैयार करती है--उसको भा जाऊं!
बस ऐसा ही भक्त अपने को तैयार करता है--उसको भा जाऊं! उसके योग्य हो जाऊं। उसकी कृपा की एक दृष्टि मुझ पर पड़ जाए, बस ...! उसकी एक दृष्टि काफी है।
आतम नारि सुहागिनी सुंदर आपु संवारि।
पिय मिलने को उठि चली चौमुख दियना बारि।।
अपने चारों तरफ दीए जलाती है। या उसके उठते ही चारों तरफ दीए जल जाते हैं! पिय मिलने को उठि चली...! जैसे ही प्यारी, प्रियतमा, अपने प्यारे को मिलने को उठती है--चौमुख दियना बारि! या तो यों कहें कि चारों तरफ दीए जला कर दीपावली मनाती है कि प्यारा आ रहा है; या उसके उठते ही चारों तरफ दीए जल जाते हैं और दीपावली हो जाती है। प्यारे से मिलने को जाती हुई प्रेयसी के पैरों में बंधे हुए घुंघरू की आवाज, उसके आभूषणों की खनन-खनन, उसके भीतर जलती हुई अभीप्सा, उसके रोएं-रोएं में पुलक...। दीए जल जाएंगे, बुझे दीए जल जाएंगे! सब तरफ रोशनी हो जाएगी।
जो प्रेमी को खोजने चला है, वह अपने को मिटाता है। उसी मिटने में रोशनी हो जाती है। यह रोशनी तुम में हो जाए तो परमात्मा दौड़ा तुम्हारी तरफ चला आता है; तुम्हें उसे खोजने नहीं जाना पड़ता। इस प्रेम के दीए को अपने भीतर जलाओ। बिरहिनी मंदिर दियना बार!
वो कब आए भी और गए भी नजर में अब तक समा रहे हैं
ये चल रहे हैं वो फिर रहे हैं, ये आ रहे हैं वो जा रहे हैं
वही कयामत है कद्दे-बाला, वही है सूरत, वही सरापा
लबों को जुंबिश, निगह को लर्जिश, खड़े हैं और मुस्करा रहे हैं
वही लताफत, वही नजाकत, वही तबस्सुम, वही तरन्नुम
मैं नक्शे-हिरमां बना हुआ हूं, वो नक्शे-हैरत बना रहे हैं
खिराम रंगीं, निजाम रंगीं, कलाम रंगीं, पयाम रंगीं
कदम-कदम पे, रविश-रविश पर, नए-नए गुल खिला रहे हैं
शबाब रंगीं जमाल रंगीं, वो सर से पा तक तमाम रंगीं
तमाम रंगीं बने हुए हैं, तमाम रंगीं बना रहे हैं
तमाम रानाइयों के मजहर, तमाम रंगीनियों के मंजर
संभल-संभल कर, सिमट-सिमट कर, सब एक मरकज पे आ रहे हैं
बहारे-रंगीं शबाब ही क्या, सितार-ओता माहतब ही क्या
तमाम हस्ती झुकी हुई है जिधर वो नजरें झुका रहे हैं
शराब आंखों से ढल रही है नजर से मस्ती उबल रही है
छलक रही है उछल रही है, पिए हुए हैं, पिला रहे हैं
बस तुम तैयार हो जाओ। पिय मिलने को उठि चली चौमुख दियना बारि! तुम तैयार हो जाओ, तुम भीतर का दीया जलाओ--आएगा परमात्मा! तुम्हारे ही भीतर से उठेगा, जगेगा, बाढ़ की तरह फैलेगा। तुमसे बह चलेगा और-और लोगों की तरफ।
बिरहिनी मंदिर दियना बार! मंदिर हो तुम। अपने भीतर दीया जलाओ--ध्यान का दीया, प्रेम का दीया! और जिसके भीतर ध्यान और प्रेम का दीया जलता है, उसके भीतर निर्वाण अपने-आप उतर आता है, मोक्ष अपने-आप बरस जाता है।
आज इतना ही।





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