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बुधवार, 28 मार्च 2018

जगत तरैया भोर की (दयाबाई)-प्रवचन-07

धर्म है कछुआ बनने की कला—सातवां प्रवचन

दिनांक १७ मार्च, १९७७; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:
दया कह्यो गुरुदेव ने, कूरम को व्रत लेहि।
सब इंद्रिन कूं रोकि करि; सुरति स्वांस में देहि।।
बिन रसना बिन माल कर, अंतर सुमिरन होय।
दया दया गुरुदेव की, बिरला जानै कोय।।
हृदय कमल में सुरति धरि, अजप जपै जो कोय।
तिमल ज्ञान प्रगटै वहां, कलमख डारै खोय।।
जहां काल अरु ज्वाल नहिं, सीत उस्न नहिं बीर।
दया परसि निज धाम कूं, पायो भेद गंभीर।।
पिय को रूप अनूप लखि, कोटि भान उंजियार।
दया सकल दुख मिटि गयो, प्रगट भयो सुखसार।।
अनंत भान उंजियार तहं, प्रगटी अदभुत जोत।
चकचौंधी सी लगति है, मनसा सीतल होत।।
बिन दामिन उंजियार अति, बिन घन परत फुहार।
मगन भयो मनुवां तहां, दया निहार-निहार।।
जग परिनामो है मृषा, तनरूपी भ्रम कूप।
तू चेतन सरूप है, अदभुत आनंद-रूप।।


इसने भी मन को दुखा दिया
उसने भी मन को दुखा दिया
कोई न मिला ऐसा लेकिन
जो दुखते मन को मरहम दे
मर गए दीए सब स्नेह बिना
बाती न कहीं जल पाती है
है ज्योति-परि तो कैद
तमिस्रा के निर्जन कारागृह में
सब के घर तम का शासन है
किरण न कहीं मुसकाती है
फिर कहां आरती सुलगेगी
फिर कौन करेगा रश्मि-तिलक
फिर कौन मुझे भेंटे प्रकाश,
मेरी मावस को पूनम दे!
जो तुम्हारी मावस को पूनम दे, वही गुरु। जो तुम्हारे अंधेरे को उजियार से भर दे, वही गुरु। जो तुम्हारे जीवन में, तुम्हारी पहचान कैसे हो, इसका सूत्र दे दे, वही गुरु।
आज के सूत्रों में दया ने अपने गुरु की कृपा की बात कही है और उस गुरु-कृपा से जो उसे अनुभव हुए हैं उनकी बात कही है। सूत्र बहुत अनूठे हैं, क्योंकि सूत्र ध्यान का सार हैं। समझे तो तुम्हारे जीवन में भी खूब उजियारा हो सकता है। समझे तो तुम भी परम आनंद में मग्न हो सकते हो। जैसे दया कहती है:
"बिन दामिन उंजियार अति, बिन धन परत फुहार।
मगन भयो मनुवां तहां, दया निहार-निहार।।'
ऐसा बीज तुम भी ले कर चले हो। ऐसी संभावना तुम्हारी भी है। इसी बीज को ठीक भूमि न मिली होगी, कि ठीक माली नहीं मिला, कि ठीक ऋतु में तुमने बोया नहीं, कि ठीक सूरज की रोशनी नहीं मिली, इसलिए बीज बीज रह गया है; फूट जाए तो तुम्हारे भीतर भी अनंत उजियारा होगा; फूट जाए तो तुम भी मगन हो रहोगे। जो दिखाई पड़ेगा..."दया निहार-निहार'...जो अनुभव में आएगा, जो अमृत तुम पर बरसेगा, तभी तुम जानोगे कि अब तक जो जीवन में दुख मिले..."इसने भी मन को दुखा दिया, उसने भी मन को दुखा दिया'। जहां गए, मन दुखा ही। अब तक मनवा मगन कहां हुआ? जिन-जिन से लगाव लगाया, उन-उन से भी कांटे ही मिले। अब तक मनवा मगर कहां हुआ? कभी धन ने दुखाया, कभी पद ने दुखाया, कभी संबंधियों ने दुखाया, प्रियजनों ने दुखाया, अपनों ने, परायों ने, इसने उसने, सभी ने मन को दुखाया है। घाव लिए घूमते हो छाती पर। इसलिए तो भीतर देखते भी नहीं, क्योंकि भीतर घावों के अतिरिक्त और कुछ है भी नहीं। लाख कहें संतपुरुष कि झांको भीतर, तुम नहीं झांकते। क्योंकि तुम जानते हो कि वहां न तो कोई उजियारा है, न वहां कोई अनंत-अनंत सूर्यों का प्रकाश है, न वहां कोई चांद है न तारे हैं; वहां तो गहन अंधकार है; मवाद है घावों की और पीड़ा के रिसते नासूर हैं, जन्मों-जन्मों में जो तुमने इकट्ठे किए हैं।
जब तक तुम सोचते हो कि दूसरे से सुख मिलेगा, तब तक बार-बार यह होगा: "इसने भी मन को दुखा दिया, उसने भी मन को दुखा दिया। कोई न मिला ऐसा लेकिन, जो दुखते मन को मरहम दे।' तुम जब तक सोचते हो दूसरे से सुख मिल सकता है, तब तक तुम दुख पाओगे। सुख तुम्हारा स्वभाव है; दूसरे से मिल सकता तो मिल गया होता। कितने जन्मों से तो तुमने दूसरों के सामने भिक्षा-पात्र फैला कर भीख मांगी है। और कभी तुमने यह भी न देखा, वे तुमसे भीख मांग रहे हैं! तुम उनसे भीख मांग रहे हो। भिखमंगे भिखमंगों के सामने खड़े हैं। तुम पत्नी से भीख मांग रहे हो कि सुख दे दे; पत्नी तुमसे भीख मांग रही है कि सुख दे दे। अंधापन बड़ गहरा है। अगर पत्नी के पास ही सुख होता तुम्हें देने को तो तुमसे सुख मांगती? या तुम्हारे पास सुख देने को होता तो तुम पत्नी से सुख मांगते? हम मांगते वही हैं जो हमारे पास नहीं है। जो हमारे पास है उसे तो हम देते हैं। जो हमारे पास नहीं उसे हम मांगते हैं।
तुम अगर कौर से आंख खोल कर देखोगे तो संसार में सभी को सुख मांगते पाओगे; प्रेम मांगते पाओगे। लेकिन न तो प्रेम है लोगों के पास, न सुख है। मांगने में ही भूल हुई जा रही है। और चूंकि तुम बाहर ही बाहर मांगते चले जाते हो, तुम्हें याद भी नहीं रह गई कि जिसे तुम मांग रहे हो वह तुम्हारा स्वभाव है। धर्म इसी क्रांति का नाम है। जिस दिन तुम्हें याद आता है, "अब मांगना बंद करूं, एक बार अपने भीतर भी तो देख लूं, पूरा-पूरा देख लूं कि मैं कौन हूं, हो सकता है कि जो बाहर नहीं मिला वहां हो'...वहां होना ही चाहिए। अगर वहां न होता तो तुम मांगते भी नहीं। क्योंकि हम वही मांग सकते हैं जिसका कोई अनुभव गहरे में हमें हो रहा हो। सारा जगत आनंद की तलाश कर रहा है। अगर आनंद को तुमने जाना ही न होता, पहचाना ही न होता, आनंद से कुछ तुम्हारे संबंध ही न होते, तो अपरिचित की खोज कोई कर थोड़े ही सकता है। अनजान को तो खोजोगे भी कैसे? जिसका तुम्हें कोई पता-ठिकाना नहीं, उसकी तुम खोज में कैसे निकलोगे? कहीं कुछ गहरे में भनक है। कहीं दूर मन के अंधेरे में भी कोई दीया जल रहा है, कभी-कभी जाने-अनजाने शायद उसकी झलक तुम्हारी आंखों में पड़ जाती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि तुम सोचते हो कि दूसरे से मिल रहा है, तब भी उसी की झलक के धोखे में पड़ते हो। कभी संगीत सुनते-सुनते लगता है सुख मिला। लेकिन नहीं, संगीत से क्या सुख मिलेगा? संगीत सुनते-सुनते कुछ और हो गया। संगीत सुनते-सुनते तुम रस में डूब गए अपने; संगीत बहाना हो गया। संगीत के कारण भूल गईं चिंताएं जगत की, भूल गए घरद्वार, भूल गए आपाधापी, भूल गए रोज के चक्कर। संगीत के कारण इतना हुआ कि संसार का विस्मरण हुआ। और जैसे ही संसार का विस्मरण होता है, स्वयं का स्मरण आना शुरू होता है। उस स्मरण के कारण ही तुम्हें लगता है सुख मिला।
संगीत से कभी किसी को सुख नहीं मिला। सुख तो आता है भीतर से। संगीत तो बहाना है। ऐसा ही कभी संभोग में सुख मिलता है। वह सुख भी भीतर से आता है; संभोग तो बहाना है। तुम्हें जब भी कभी सुख मिला है, अगर थोड़ी सी किरण तुम्हारे जीवन में कभी आई, थोड़ी सी झलक आई और गई, तो सदा भीतर से आई है। लेकिन तुम्हारी आंखें बाहर पर लगी हैं। तो जब भीतर से आती है किरण, तब भी तुम सोचते हो बाहर से आई है। तब भी तुम धोखा खा जाते हो।
देखा तुमने, कुत्ता सूखी हड्डी को चबाता है! सूखी हड्डी में कुछ भी नहीं है, कोई रस नहीं है; लेकिन कुत्ता बड़ा मगन हो कर चबाता है। तुम सूखी हड्डी कुत्ते से छीनना चाहो तो कुत्ता नाराज हो जाएगा। कुत्ता झपटेगा, हमला कर देगा। सूखी हड्डी में रस तो है नहीं, फिर कुत्ते को क्या रस मिलता होगा? जब कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है तो उसके मुंह में घाव हो जाते हैं सूखी हड्डी के कारण। चोट लगती है। मुंह के भीतर की कोमल चमड़ी छिल जाती है। खून बहने लगता है। वह उसी खून को चूसता है। वह सोचता है हड्डी से आ रहा है। स्वभावतः, क्योंकि जब तक हड्डी मुंह में नहीं ली थी, तब तक नहीं आ रहा था। तो तर्क तो साफ है। तर्क तो वही जो तुम्हारा है। अगर कुत्ता भी अपनी बात स्पष्ट कर सके तो कहेगा: जब तक हड्डी मुंह में न ली थी तब तक तो रस आया नहीं था; हड्डी मुंह में ली, तब रस आया है। निश्चित ही हड्डी से आया, इसलिए हड्डी छोड़ने को राजी नहीं। हड्डी से केवल घाव बन रहे हैं मुंह में; अपना ही खून बह रहा है; अपने ही खून को फिर गटक रहा है।
ठीक यही हालत है। जब तुम्हें संगीत से सुख मिलता है तब भी सुख भीतर से आया। तुमने अपना ही रस पीया। जब संभोग से मिलता है, तब भी तुम्हारे भीतर से ही आया; तुमने अपना ही रस पीया।
जब भी तुम्हें कहीं सुख मिला है--हिमालय गए, देखे उत्तुंग शिखर, हिमाच्छादित, और क्षण भर को ठगे रह गए, अवाक, अहा का एक भाव मन में उठा--उस क्षण जो सुख बहा, वह तुम्हारे भीतर से बहा। हिमालय ने निमित्त का काम किया। हिमालय की शांति ने, हिमालय के मौन ने, हिमालय की अपूर्व सौंदर्य की उपस्थिति ने क्षण भर को तुम्हें तुम्हारी आपाधापी से तोड़ दिया। इधर टूटी आपाधापी, इधर मन का व्यापार बंद हुआ क्षण भर को--बहा रस।
मन रोके है रस के बहाव को। मन का अर्थ होता है दूसरे में उत्सुकता। जहां मन ठहर गया, दूसरे में उत्सुकता खो गई, वहीं तुम अपने स्रोत में गिर जाते हो। और वहां है रस की धार। रसो वै सः!
उपनिषद कहते हैं: परमात्मा रसरूप है। तुम परमात्मा से बने। सारा जगत परमात्मा से बना। कंकड़-पत्थर से ले कर आकाश के चांदत्तारों तक, देह से लेकर आत्मा तक सब परमात्मा से बना है।
उपनिषद कहते हैं: परमात्मा रसरूप है। तो हम सब रस से ही निर्मित हैं। रस हमारा स्वभाव है। एक बार हम अपने को पहचानना शुरू कर दें, तो सुख ही सुख है। धर्म है अपने से पहचान। संसार है दूसरे में सुख की खोज। धर्म है अपने में सुख की खोज। संसार में किसी को कभी सुख नहीं मिला। जिनको कभी सुख मिला, वे वे ही लोग थे जो अपने में गए--किसी बुद्ध को, किसी कबीर को, किसी कृष्ण को, किसी क्राइस्ट को। जब भी कभी किसी को सुख मिला है इस पृथ्वी पर तो निरपवाद रूप से एक ही कारण से मिला है कि वह अपने में गया। किस ढंग से गया--ढंग अलग-अलग होंगे। कोई नाच कर गया। कोई संगीत से गया। कोई मंत्र से गया। कोई तंत्र से गया। कोई भक्ति से गया। कोई ध्यान से गया। लेकिन जो भी उपाय किया--उपाय तो सिर्फ उपाय है।
तुम यहां तक आए, कोई रेलगाड़ी से आया, कोई हवाई जहाज से आया, कोई मोटरगाड़ी से आया, कोई पैदल ही चला आया होगा। कोई घोड़े पर चढ़ कर आ गया होगा। कोई बैलगाड़ी पर सवार हो कर आया हो। इसमें कुछ फर्क नहीं पड़ता कि तुम कैसे आए--आ गए! आते ही, तुम कैसे आए, इसका कोई मूल्य नहीं है। तुम भक्ति पर सवार हो कर आए, भाव की यात्रा की, कि ज्ञान पर सवार हो कर आए, ध्यान की यात्रा की, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। ये सब बहाने हैं। ये सब बहाने हैं तुम्हारे भीतर आत्मस्मृति जगा देने को।
सूखी शाखें, सूखे पत्ते, कैसा है यह पेड़
मन तरसे है, ढूंढ़ न पाए प्यार-पवन की छेड़!
तुम्हारा जीवन ऐसा है--
सूखी शाखें, सूखे पत्ते, कैसा है यह पेड़!
सब सूखा है। क्योंकि तुम रस के लिए कहीं और आंखें उठा कर देख रहे हो। रस आता है तुम्हारी जड़ों से। रस बहता है तुम्हारे ही स्रोत से। और तुम अपने स्रोत को बिलकुल विस्मरण कर गए हो, इसलिए सूखे हो।
यहां तुम कुछ भी खोजते रहो, कुछ भी न मिलेगा। यहां एक के मिल जाने से सब मिल जाता है--अपने स्रोत की पहचान।
"दया कह्यो गुरुदेव ने, कूरम को व्रत लेहि।
सब इंद्रिन कूं रोकि करि, सुरति स्वांस में देहि।।'
--अपूर्व मंत्र है ध्यान का! समझना।
"दया कह्यो गुरुदेव ने, कूरम को व्रत लेहि।'
गुरु ने कहा कि दया, तू ऐसी हो जा जैसे कछुआ। कछुए की एक खूबी है: अपनी सारी इंद्रियों को भीतर सिकोड़ लेता है। इंद्रियां यानी बाहर जाने के द्वार। इंद्रियों से तुम बाहर जाते हो। आंख उठाई तो बाहर देखोगे न! कान खोले तो बाहर सुनोगे न! हाथ फैलाए तो बाहर छुओगे न! इंद्रियां तो बाहर जाती हैं। हाथ भीतर तो नहीं जा सकता। आंख भीतर तो नहीं देख सकती। और जो आंख भीतर देखती है वह और ही आंख है। इन आंखों से उस आंख का कोई संबंध नहीं है। इसलिए तो ज्ञानी तृतीय नेत्र की बात करते हैं--अलग ही नेत्र की बात करते हैं, क्योंकि इनसे उसका कोई संबंध नहीं।
और खयाल रखना, बाहर देखने वाली आंखें दो हैं और ज्ञानी कहते हैं, भीतर देखने वाली आंख एक है। वह भी बड़ा प्रतीकात्मक है। बाहर द्वंद्व है, द्वैत है। भीतर अद्वैत है, एक है। भीतर देखने के लिए दो आंखें नहीं चाहिए; दो आंखें होंगी तो द्वैत पैदा हो जाएगा, द्वंद्व पैदा हो जाएगा, संसार पैदा हो जाएगा। बाहर देखने वाली आंखें दो, भीतर देखने वाली आंख एक। बाहर सुनने वाले कान दो, भीतर सुनने वाला कान एक।
तृतीय नेत्र की जैसी बात हुई है वैसे तृतीय कर्ण की बात नहीं हुई है, लेकिन होनी चाहिए। जैसे बाहर फैलने वाले हाथ दो, भीतर फैलने वाला हाथ एक। झेन फकीरों ने बात की है एक हाथ की; वे कहते हैं, एक हाथ की ताली बजाओ। अपने साधकों से कहते हैं, बैठो और उस ध्वनि को सुनो जो एक हाथ के बजने से बजती है। अब एक हाथ कहीं बज सकता है। दो हाथ बजते हैं। लेकिन वे कहते हैं, खोजो उस ध्वनि को जो एक हाथ के बजने से बजती है। वह एक हाथ भीतर का हाथ है।
भीतर जाने का द्वार एक है; बाहर जाने के द्वार दो हैं। फिर बाहर जाने की इंद्रियां बहुत हैं--आंख है, कान है, नाक है, हाथ है, पंच-इंद्रियां हैं। भीतर जाने पर दो आंखें एक आंख हो जाती हैं और आंख और कान भी मिल कर एक हो जाते हैं और हाथ और नाक भी मिल कर एक हो जाते हैं, सब एक हो जाता है।
कबीर ने कहीं कहा है कि जब भीतर गया तो बड़ी हैरानी हुई: आंख से सुनाई पड़ने लगा। कान से दिखाई पड़ने लगा! हाथ से गंध आने लगी! नाक से स्पर्श होने लगा! लोग समझते हैं, ये साधुओं की अटपटी बातें हैं। अटपटी नहीं हैं। ऐसा ही है। क्योंकि भीतर तो एक ही बचता है। सारी इंद्रियां एक में ही लीन हो जाती हैं। उस एक की तरफ यह सूत्र बड़ा अदभुत है।
गुरु ने कहा: "दया, कूरम को व्रत लेहि...तू अब कछुए का व्रत ले ले।' यह प्रतीक रहा होगा। चरणदास, दया के जो गुरु थे, उनका यह प्रतीक रहा होगा कि कछुए का व्रत ले ले अब। संक्षिप्त में बात कह दी कि अब इंद्रियों को सिकोड़ना शुरू कर दे। अब इंद्रियों को बिलकुल सिकोड़ ले। बाहर जाती इंद्रियों को लौटा ले। घर की तरफ लौट पड़। क्योंकि जब तक इंद्रियां बाहर जा रही हैं, तब तक ऊर्जा बाहर बहती रहेगी। अंतर्मिलन कैसे होगा? तुम जाते हो पूरब को, तो जो दक्षिण में बसा है, उससे मिलना कैसे होगा? तुम जाते हो पश्चिम को, तो जो पूरब में बसा है उससे मिलना कैसे होगा? तुम जाते हो बाहर को, तो जो भीतर बसा है, उससे मिलना कैसे होगा? फिर धीरे-धीरे बाहर जाने का अभ्यास इतना हो जाता है कि हम भूल ही जाते हैं कि भीतर का भी कोई लोक है।
तुम देखते न, लोग कहते हैं दस दिशाएं हैं! दिशाएं ग्यारह हैं, मगर ग्यारहवीं को कोई गिनता ही नहीं। दस दिशाएं हैं--ऊपर-नीचे, और आठ दिशाएं चारों तरफ। ग्यारहवीं दिशा, असली दिशा को कोई गिनता ही नहीं। भीतर की तरफ जो दिशा है, उसकी तो गिनती नहीं होती। उसको हम विस्मरण कर बैठे।
"कूरम को व्रत लेहि' का अर्थ होता है: ग्यारहवीं दिशा में चल: अब यह दसों दिशाओं में जो फैलाव था, इस ऊर्जा को अब बाहर न जाने दे; इस ऊर्जा को भीतर अब संगृहीत होने दे।
इस संबंध में कछुआ अनूठा है। किसी और पशु की ऐसी क्षमता नहीं। इसलिए कछुआ बहुत महत्वपूर्ण हो गया। भगवान का भी एक अवतार कछुआ। और हिंदुओं ने बड़ी मीठी कहानियां लिखी हैं। वे कहते हैं, सारी पृथ्वी कछुए पर टिकी है। अगर इनको तुम ऊपर-ऊपर से लो तो बचकानी बातें मालूम पड़ती हैं--कछुए पर टिकी है! लेकिन अगर भीतर से लो तो बड़े गहरे अर्थ खुलते हैं। हिंदू कहते हैं, पृथ्वी कछुए पर टिकी है। हिंदू यह कह रहे हैं कि पृथ्वी उन थोड़े से लोगों पर टिकी है जो कछुए जैसे हो गए हैं, नहीं तो यह कभी की नष्ट हो जाए। कभी कोई एक बुद्ध हो जाता है, कभी कोई एक महावीर हो जाता है--उस पर टिकी है। उस एक के कारण तुम भी जीते हो। उस एक से चाहे तुम्हारा संबंध भी न हो, तुम चाहे उसके चरणों में कभी सिर झुकाने भी न गए होओ; लेकिन उस एक की मौजूदगी के कारण पृथ्वी जीती है। घसिटते हो तुम, लेकिन किसी तरह जीते हो।
जरा सोचो, आदमी के इतिहास में से हम बुद्ध, महावीर, कृष्ण, कबीर, ऐसे दस-पांच नामों को निकाल दें, तुम कहां रहोगे? तुम क्या रहोगे? तुम्हारी क्या अवस्था होगी? तुम कुछ भी न रह जाओगे। तुम्हारे भीतर जो भी थोड़ा-बहुत मनुष्यत्व दिखाई पड़ता है, वह इनका दान है। जो तुम्हारे भीतर थोड़ी-बहुत चमक और रोशनी दिखाई पड़ती है, वह इनकी कृपा है। इन थोड़े से लोगों के कारण आदमी आदमी है, अन्यथा आदमी जानवर होगा।
तो जब हिंदू कहते हैं कि पृथ्वी कछुए पर टिकी है तो यह तो प्रतीक है। अब दो तरह के नासमझ हैं दुनिया में। एक हैं जो कहते हैं, अच्छा तो सिद्ध करो, कहां है कछुआ? और कुछ मूढ़ ऐसे हैं कि सिद्ध करना चाहते हैं कि हां कछुआ है। दोनों मूढ़ हैं। कछुए से कुछ लेना-देना नहीं है।...उन पर टिकी है जो कछुए की भांति हो रहे। उन थोड़े से लोगों ने तुम्हारे जीवन का सारा बोझ उठाया हुआ है। तुम्हारे जीवन में अगर फूल खिलने की कोई भी संभावना है तो उन थोड़े से लोगों के कारण है जिन्होंने अपनी इंद्रियों को सिकोड़ लिया है, जो अतीन्द्रिय हो गए हैं।
तो गुरु ने दया को कहा कि तू भी अब कछुआ हो जा दया।
"सब इंद्रिन कूं रोकि कर, सुरति स्वांस में देहि'
--सब इंद्रियों को रोक ले। सारी इंद्रियों को रोकने का अर्थ यह नहीं होता कि तुम आंख मूंद कर बैठ जाओ। सारी इंद्रियों को रोकने का यह अर्थ नहीं होता कि तुम हाथ काट दो कि आंखें फोड़ लो। सारी इंद्रियों को रोकने का अर्थ होता है: आंख अगर देखे भी तो देखने में रस न रह जाए। आंख तो देखेगी; वह उसका स्वभाव है। आखिर दया भी तो चलेगी, उठेगी, तो दरवाजा और दीवाल का फर्क तो करेगी। भोजन करेगी तो फर्क तो करेगी कि क्या खाना, क्या नहीं खाना। थाली-गिलास को तो नहीं खा जाएगी। आंख तो देखेगी, लेकिन अब देखने के रस न रहा। रूप का रस चला जाए तो आंख भीतर मुड़ गई। रूप का रस असली आंख है।
ये जो आंखें दिखाई पड़ती हैं, इन आंखों का तो उपयोग है। ठीक है, इतना उपयोग कर लेना है। उठते-बैठते, चलते खाते-पीते इनका जो उपयोग है, कर लेना है। लेकिन इन आंखों के पीछे एक वासना छिपी है--देखने की वासना। उस देखने की वासना से मुक्त हो जाना है। क्या मिला देख-देख कर? रूप को देख भी लिया तो क्या मिला? सुंदरतम व्यक्ति को देख लिया तो क्या मिला? सपने से ज्यादा नहीं है। चाहे सपना देखो, चाहे सुंदर व्यक्ति को वस्तुतः मौजूद देखो, क्या फर्क है! तुम्हारे भीतर तो एक चित्र ही बनता है। सुंदरतम स्त्री तुम्हारे सामने खड़ी हो या सुंदरतम पुरुष, तुम्हारे भीतर क्या है? तुम्हारी आंख तो कैमरे का काम करती है, एक चित्र को बना देती है। तुम सुंदर स्त्री को थोड़े ही देख पाते हो। सुंदर स्त्री तो बाहर है। बाहर तुम कैसे जाओगे? तुम भीतर हो, सुंदर स्त्री बाहर है। बीच में आंख तस्वीर को ले जाती है। छोटा सा चित्र बनता है सुंदर स्त्री का। वह चित्र तुम्हारी आंख के भीतर, तुम्हारे मस्तिष्क के पर्दे पर फैलता है। जैसे फिल्म देखने जाते हो पर्दे पर, ऐसा ही तुम्हारे भीतर चित्त का पर्दा है, उस पर सुंदर चित्र बन जाता है। बस इसी चित्र में तुम मगन हो रहे हो। इस चित्र में कुछ भी नहीं है।
यह वैसा ही पागलपन है जैसा कि फिल्म में हो रहा है। कैसे तुम मगन हो जाते हो तस्वीरों को देख-देखकर? कुछ भी नहीं है वहां। फिल्म की बात तो छोड़ दो, लोग तो नग्न तस्वीरें कागज पर छपी देख कर भी बड़े प्रफुल्लित हो जाते हैं। उनसे कोई पूछे, क्या कर रहे हो, होश में हो? इस कागज पर कुछ भी नहीं है; कुछ रंग फैले हैं; एक तरकीब में जमा दिए गए रंग हैं, कुछ भी नहीं है। फिल्म के पर्दे पर कुछ भी नहीं है; सिर्फ रोशनी और अंधेरे का जोड़ है। पर्दा खाली है; वहां कोई भी नहीं है। लेकिन तुम कितने आतुर हो जाते हो! इस आतुरता के पीछे भी राज है, क्योंकि तुम जिंदगी भर इसी तरह के पर्दे पर तो खेल को देखते रहे हो--आंख के द्वारा चित्त के पर्दे पर इसी तरह का खेल तो चलता रहा है। तुमने और देखा क्या है? फिल्म जो है, वह आदमी के ही मन के द्वारा ईजाद की गई एक तरकीब है। वह आदमी के मन की जो प्रक्रिया है, उसी प्रक्रिया का फैलाव है। इसलिए फिल्म का बड़ा प्रभाव है आदमी पर, क्योंकि मन से उसका बड़ा तालमेल है।
तुमको कभी यह खयाल नहीं आता कि बैठे सिनेमागृह में, तुम जो देख रहे हो वह है नहीं? नहीं, तुम बड़े उत्सुक हो जाते हो, आंदोलित हो जाते हो। कभी रोते हो, कभी हंसते हो, कभी दुखी हो जाते हो, कभी प्रसन्न हो जाते हो। तस्वीरें तुम्हें नचा देती हैं। मगर फिल्म के पर्दे पर ऐसा हो पाता है और तुम इसमें उलझ जाते हो, क्योंकि तुम जिंदगी भर इसी तरह भीतर के पर्दे पर भी उलझे रहे हो। यह उसी का विस्तार है।
आंख को भीतर मोड़ लेने का अर्थ होता है, आंख सिर्फ देखने का यंत्र रह जाए, आंख में रूप को देखने की वासना न रहे। क्योंकि रूप तो सिर्फ तस्वीरें हैं। कान सुने, लेकिन सुनने में रस न रह जाए। हाथ छुएं, लेकिन छूने का पागलपन न रह जाए। ऐसा अगर तुम्हारा पागलपन विसर्जित हो जाए तो धीरे-धीरे तुम पाओगे: जो ऊर्जा तुम्हारी इंद्रियों से बाहर जाती थी, उसका मानसरोवर भीतर भरने लगा।
अभी तुम भीतर खाली-खाली हो। अभी तुम्हारी हालत ऐसे है:
कात रहे हम दिन कपास-से
लिए पुस्तिका परिवादों की
जिल्द बंधी है अवसादों की
कटे हुए हैं आसपास से।
नाच रहे हम तकली जैसे
बज उठते हम ढपली जैसे
हंसते हैं पर हैं उदास से।
मित्रों ने उपकार किया है
नागफनी सा प्यार दिया है
सब खाली बोतल गिलास से।
भीतर कुछ भी नहीं है--"सब खाली बोतल गिलास से'! भीतर बिलकुल खाली हो तुम। जहां रस का सागर लहराना था वहां बिलकुल मरुस्थल है। क्योंकि जिस ऊर्जा से रस का सागर निर्मित होता है, वह तुम्हारी इंद्रियों से बही जा रही है। इंद्रियां तुम्हारे छेद हैं, जिनके कारण तुम्हारी गागर नहीं भर पाती। कल ही तो हम बात कर रहे थे कि अगर छिद्रवाला पात्र हो तो उसमें कभी कुछ भी न भर पाएगा। ये इंद्रियां तुम्हारे छेद हैं। ठीक-ठीक संतों ने इनको छेद ही कहा है। इन छेदों से तुम्हारी ऊर्जा बाहर जा रही है। इन छेदों से ऊर्जा को बाहर अगर विसर्जित होने दिया तो तुम खाली के खाली रहोगे, रिक्त के रिक्त रहोगे।
"सब इंद्रिन कूं रोकि करि, सुरति स्वांस में देहि'
और जब सारी इंद्रियों को तुम बाहर की यात्रा से मुक्त कर लो तो तुम्हारा ध्यान मुक्त हो गया, क्योंकि इन्हीं सारी इंद्रियों में तुम्हारा ध्यान अटका है।
समझो, तुम ध्यान करने बैठे और पास से एक सुंदर स्त्री निकल गई, ध्यान खंडित हो गया। या पास में आ कर किसी ने रुपया बजा दिया, ध्यान खंडित हो गया। कि कोई पास गीत गाने लगा कि ध्यान खंडित हो गया। कि कोई कुछ बात करने लगा जो तुम्हारे मतलब की है कि व्यवसाय की है कि दुकान की है कि बाजार की है, कि किसी ने पास खड़े हो कर कह दिया कि बाजार में फलां चीज के भाव एकदम बढ़े जा रहे हैं--ध्वनि तुम्हारे भीतर पड़ी कि ध्यान विचलित हो गया। ध्यान इन बातों से विचलित क्यों हो जाता है? क्योंकि इन बातों का अर्थ है कि तुम्हारी वासना तो भीतर है ही, वासना पर चोट पड़ गई, वासना सजग हो गई।
खयाल रखना, ऊर्जा तुम्हारे पास एक ही है; या तो वासना में डाल दो या ध्यान में डाल दो। अगर वासना में पड़ गई तो ध्यान टूट जाता है; अगर ध्यान में पड़ गई तो वासना टूट जाती है। और ऊर्जा एक ही है। तुम्हारे पास दो ऊर्जाएं नहीं हैं। तुम्हारी संपत्ति एक ही ऊर्जा की है। उस ऊर्जा को कहां लगाओगे, इस पर सब कुछ निर्भर करता है।
सांसारिक आदमी ऐसा आदमी है जिसकी सारी ऊर्जा वासनाओं की तरफ जा रही है। धार्मिक व्यक्ति ऐसा व्यक्ति है जिसकी ऊर्जा ने वासना के विपरीत यात्रा शुरू कर दी; गंगा गंगोत्री की तरफ लौटने लगी, अपने स्रोत की तरफ वापस जाने लगी। ध्यान का इतना ही अर्थ है।
ध्यान का अर्थ है: वासना में गई ऊर्जा अपने घर की तरफ वापस लौट रही है।
तो जब तुम्हारी सारी इंद्रियां शिथिल पड़ी होंगी और सिकुड़ गई होंगी, जैसे कि कछुआ अपनी इंद्रियों को सिकोड़ कर बैठ जाता है, ऐसे जब तुम कछुए की भांति...ध्यानी कछुए की भांति हो जाता है।
देखते हो बुद्ध को बैठे हुए, किस ढंग से बैठे हैं! बिलकुल पत्थर की मूर्ति बने बैठे हैं। हाथ पर हाथ हैं, पैर पर पैर हैं, सब तरफ से द्वार-दरवाजे बंद, आंख बंद--भीतर लीन हैं। भीतर क्या करते होंगे?
तुम्हें तो यही अड़चन होती है। मेरे पास लोग आते हैं, उनसे मैं कहता हूं, कभी-कभी शांत बैठ जाया करो। वे कहते हैं, शांत बैठे कर क्या करें? कुछ मंत्र इत्यादि दे दें।' मंत्र इत्यादि का मतलब कि कुछ खटपट वे करते रहेंगे। राम-राम राम-राम राम-राम...चलो। मगर खटपट के बिना वे नहीं बैठे रह सकते। राम-राम का मतलब यह हुआ कि चलो कुछ तो कर रहे हैं। वह जो बकवास भीतर चल रही वह अब भी जारी है नए ढंग से। मगर अगर उनसे कहो कुछ भी न करो, थोड़ी देर करने को छोड़ कर विश्राम करो...ध्यान यानी विश्राम।
ध्यान का अर्थ ही यह होता है कि थोड़ी देर को कुछ भी न करेंगे, सारी ऊर्जा को ऐसा ही पड़े रहने देंगे। उस तरफ जाने का जो पहला कदम है, वह है: "सुरति स्वांस में देहि'। इसको बुद्ध ने विपस्सना कहा है, अनापानसतीयोग कहा है। यह मनुष्य जाति के इतिहास में खोजी गई सबसे बड़ी कीमिया है। जब इंद्रियों से वासना भीतर आ गई--वासना यानी ऊर्जा; अब आंखें देखने में उत्सुक नहीं, कान सुनने में उत्सुक नहीं, हाथ छूने में उत्सुक नहीं, सारी उत्सुकता वापस लौट आई, कछुआ बन कर बैठ गए--अब इस ऊर्जा को श्वास पर लगा दो। "सुरति स्वांस में देहि'। सुरति का अर्थ होता है स्मृति, ध्यान, बोध। अब इस सारे बोध को, इस अवेयरनेस को, इस होश को, श्वास पर लगा दो। श्वास बाहर गई, श्वास भीतर गई--यह श्वास की जो माला चल रही है, इस पर लगा दो। हाथ में माला ले कर बैठने की कोई जरूरत नहीं। जब इतनी सुंदर श्वास की माला चल ही रही है स्वभाव से, तब तुम और हाथ में माला ले कर क्या करोगे? इतनी प्राकृतिक माला चल रही है, श्वास का मनका चल ही रहा है--बाहर-भीतर, बाहर-भीतर। इस बाहर-भीतर होती श्वास को देखते रहो, कुछ करो मत। श्वास बाहर गई तो होश रहे कि श्वास बाहर गई। श्वास भीतर आई तो होश रहे कि श्वास भीतर आई। चूको मत। भूल न जाओ। भूल-भूल जाओगे शुरू में; बार-बार पकड़ कर ले आओ अपने होश को, फिर श्वास पर लगा दो।
खयाल रखना, न तो श्वास जोर से लेनी है, न धीमी लेनी है; श्वास को बदलना ही नहीं है। श्वास जैसी चल रही है वैसी की वैसी चलने देना है और सारे ध्यान को श्वास पर लगा देना है। यह प्राणायाम की प्रक्रिया नहीं है। इसमें श्वास को तेज करना या गहरा लेना या खूब फेफड़े में भरना और खाली करना, कुछ भी नहीं है। क्योंकि अगर तुम उस काम में लग गए तो फिर तुमने काम शुरू कर दिया, फिर विश्राम खो गया। फिर तुम उपद्रव में पड़ गए। अब तुमने एक नया उपद्रव बना दिया: प्राणायाम! अब तुम गिनती करोगे कि कितनी देर तक श्वास को बाहर रहने देना है, कितनी देर तक भीतर रहने देना है, कितनी देर रोकना बाहर, कितनी देर भीतर रोकना--पड़ गए तुम दुकानदारी में, हिसाब-किताब शुरू हो गया, मन उलझ गया, मन को काम मिल गया। मन काम चाहता है। इससे सावधान रहना। मन काम चाहता है। मन कहता है: कोई भी काम दे दो, हम राजी हैं। क्योंकि बिना काम के मन मर जाता है। और मन मरे तो तुम जीओ। मन मिटे तो तुम पैदा हो जाओ, तुम्हारा जन्म हो।
मन कहता है, कोई भी काम दे दो, हम किसी भी तरह जी लेंगे। कोई भी काम हो, मन कहता है हम जी लेंगे, क्योंकि मन का अर्थ होता है कर्ता-भाव। चलो प्राणायाम करेंगे! दुकान नहीं करने देते, कोई हर्जा नहीं। सिनेमा नहीं ले चलते, कोई बात नहीं। तो प्राणायाम तो करने दोगे, यह तो अच्छी बात है! यह तो पतंजलि ने कही है। यह तो योगी सदा से करते रहे हैं, यही करो। मंत्र तो बुरी बात नहीं है। गाली-गलौज न बकेंगे, व्यर्थ के विचार न करेंगे; राम-राम, यह तो प्यारा मन है, इसको तो दोहराने दो!
मन कहता है, कोई भी काम मुझे दे दो तो मैं उसी के सहारे जी लूंगा, क्योंकि कर्ता हो जाऊंगा।
मन यानी कर्ता। तुम यानी साक्षी। तो साक्षी-भाव तो तभी पैदा होता है जब कर्ता-भाव पूरा विसर्जित हो जाता है। तो इतना भी मत करना कि श्वास को तेज, धीमा, ऐसा-वैसा, तरकीब से लेना--कुछ भी नहीं करना। सब तरकीबें पागलपन की हैं। लेकिन, अगर उनको परंपरा का सहारा हो तो वे पागलपन की नहीं मालूम पड़तीं। अब एक आदमी माला लिए बैठा है, गुरिए सरका रहा है, तो हम उसको पागल नहीं कहते। लेकिन, अगर यही आदमी रूस में बैठ कर गुरिए सरकाए, फौरन पागलखाने भेज दिया जाएगा: "तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है? तुम यह कर क्या रहे हो?'
एक स्त्री मुल्ला नसरुद्दीन के साथ बस में सफर कर रही थी। अपरिचित। संयोग की बात कि दोनों एक ही सीट पर बैठे थे। वह स्त्री थोड़ी बेचैन होने लगी, क्योंकि मुल्ला बाएं-दाएं सिर हिला रहा था। एक तो बस, वैसे ही पहाड़ का चढ़ाव, स्त्री को वैसे ही मितली आ रही है, और यह बगल में बैठा सिर हिला रहा है। इसके सिर हिलाने को वह चाहे भी कि न देखे तो भी मुश्किल है, क्योंकि वह बगल में ही बैठा सिर हिला रहा है। बार-बार उस पर नजर पड़ जाए। आखिर उससे न रहा गया। भली सज्जन महिला, किसी के बीच क्यों पड़ना! उसने बहुत देर तक अपनी उत्सुकता को रोका, लेकिन फिर नहीं रहा गया। उसने कह: "महानुभाव, आप यह क्या कर रहे हैं? कोई धार्मिक प्रक्रिया कर रहे हैं? ऐसा बाएं-दाएं सिर हिलाते हैं...।'
मुल्ला ने कहा: "नहीं, धार्मिक प्रक्रिया इत्यादि कुछ भी नहीं।' लेकिन सिर उसने हिलाना जारी रखा--जब वह बोल रहा था, तब भी।
उस महिला ने कहा: "फिर आप क्या कर रहे हैं?'
मुल्ला ने कहा: "इस तरह से मैं समय का खयाल रखता हूं। एक सैकंड इस तरफ, एक सैकंड उस तरफ। इससे घड़ी भी पास रखने की जरूरत नहीं है।'
और सिर हिला रहा है वह। "सस्ता भी है, सुविधापूर्ण भी है। किसी से पूछने की भी जरूरत नहीं।'
तो महिला उत्सुक हुई। उसने कहा कि अच्छा तो बताइए, इस वक्त कितने बजे हैं? तो मुल्ला ने सिर हिलाते कहा कि साढ़े चार। महिला ने अपनी घड़ी देखी। उसने कहा कि गलत, पौने पांच बज रहे हैं। तो मुल्ला ने जोर से सिर हिलाना शुरू कर दिया। उसने कहा कि मालूम होता है कि घड़ी सुस्त चल रही है।
इसको तुम पागल कहोगे। लेकिन, अगर यह मुल्ला कह देता कि हम राम-राम जप रहे हैं--एक राम इस तरफ, एक राम इस तरफ--तो फिर बात पागलपन की नहीं रह जाती। धर्म के नाम पर बहुत से पागलपन सुरक्षित हो जाते हैं। इसलिए धार्मिक देशों में कम लोग पागल होते हैं, क्योंकि उनको धार्मिक होने की सुविधा है। पागल होने की सुविधा नहीं है, कोई जरूरत नहीं है पागल होने की--इतना महंगा धंधा क्यों करें? अधार्मिक मुल्कों में ज्यादा लोग पागल होते हैं। उसका कारण कुल इतना है कि वहां वे कुछ भी करेंगे इस तरह का काम तो पागल समझे जाएंगे। धार्मिक देश में उपाय हैं। तुम कोई ऐसी प्रक्रिया पकड़ ले सकते हो जो धार्मिक मालूम होती है, फिर तुम्हें कोई पागल न कहेगा।
यह जो सूत्र है, यह सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। श्वास पर ध्यान, बिना कुछ किए, जैसी श्वास है वैसी छोड़ देनी है।
और श्वास पर ध्यान देने का उपयोग बड़ा है। पहला तो यह कि श्वास के द्वारा ही तुम शरीर से जुड़े हो। श्वास सेतु है। श्वास का धागा ही तुम्हें शरीर से बांधे हुए है। अगर तुम श्वास के प्रति जाग जाओ तो तुम्हें तत्क्षण मालूम पड़ेगा, तुम शरीर नहीं हो। श्वास के प्रति जागते ही तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम शरीर नहीं हो, तुम शरीर से अलग हो। एक बात।
दूसरी बात: श्वास को ही साधारणतः हमने जीवन समझा है। इसलिए जब किसी की श्वास बंद हो जाती है तो हम समझते हैं कि आदमी मर गया। आखिर डाक्टर भी और तो कुछ जानता नहीं; इतना ही तो उसका भी परीक्षण है कि श्वास बंद हो गई, आदमी खतम हो गया।
मृत्यु का तुम, क्या लक्षण है, मानते हो? इतना ही तो न कि जीवन अब समाप्त हुआ, क्योंकि श्वास चलनी बंद हो गई। श्वास चली तो जीवन शुरू हुआ, श्वास गई तो जीवन गया। तो श्वास और जीवन पर्यायवाची हो गए हैं। साधारणतः हैं भी। जब तुम श्वास के प्रति जागोगे तो तुम पाओगे कि मैं श्वास भी नहीं हूं। जो जागा हुआ है वह श्वास से बिलकुल अलग है, बिलकुल पृथक है। श्वास तो उसके सामने चल रही है। श्वास तो उसके लिए दृश्य है। और द्रष्टा तो दृश्य से अलग हो जाता है।
तो पहली क्रांति तो घटती है इस सूत्र से कि लगता है कि मैं शरीर नहीं हूं, साफ हो जाता है कि मैं शरीर नहीं हूं। और दूसरी और भी गहरी क्रांति घटती है कि मैं श्वास भी नहीं हूं। तो श्वास और देह दोनों के पार जो मैं हूं, उस स्रोत से संबंध जुड़ने शुरू हो जाते हैं।
यह छोटा सा सूत्र बड़ा बहुमूल्य है:
लेकिन इसके पहले कि तुम सुरति को श्वास में लगाओ, कछुआ बन जाना जरूरी है। नहीं तो सुरति श्वास में लग ही न सकेगी। क्योंकि सुरति होगी ही नहीं तुम्हारे पास। सुरति बड़ी सूक्ष्म शक्ति है। या तो इंद्रियों से बहती रहती है, तो तुम्हारे हाथ में ही नहीं होती; और इंद्रियां तुम्हारी सुरति को न मालूम कहां-कहां भटकाए ले जाती हैं। तुम्हारी सुरति तुम्हारे हाथ में नहीं है; इंद्रियों के द्वारा उड़ गया है सुरति का पक्षी, दूर-दूर भटक रहा है। और एक-एक इंद्रिय के द्वारा अलग-अलग दिशाओं में चला गया है। इसलिए तुम्हारी सुरति खंडित भी हो गई है। फिर प्रत्येक इंद्रियां तुम्हें जो जगत के संबंध में बता रही हैं, वही तुम सोचते हो जीवन है, वही तुम सोचते हो सत्य है। इंद्रियों के पास सत्य को जानने का कोई भी उपाय नहीं है। इंद्रियां तो बड़ी अंधी हैं। सत्य को जानने का उपाय तो तुम्हारे भीतर के साक्षी के पास है, और किसी के पास नहीं है। अगर तुमने इंद्रियों की बात सुनी, कछुआ न बने, तो इंद्रियां तुम्हें भटकाती रहेंगी।
तुमने देखा नहीं, कभी रात के अंधेरे में रास्ते पर पड़ी रस्सी सांप मालूम पड़ जाती है! तुम भाग खड़े हुए, छाती धड़कने लगी, घबड़ा गए। तुम्हारी आंख ने देखा। तुम कहते हो, अपनी आंख से देखा सांप था। जरा रोशनी ले कर जाओ तो पता चलता है रस्सी पड़ी है। आंख तो बड़ी आसानी से धोखा खा जाती है। जरा धुंधला हुआ कि आंख धोखा खा जाती है।
रात तुमने देखा, अपने ही घर में अपना ही कुर्ता टंगा देख कर तुम समझते हो कोई चोर खड़ा है! रोशनी जलाई, अपना ही कुर्ता टंगा है। आंख का तो कोई बड़ा भरोसा नहीं है। रोशनी चाहिए। बाहर भी भरोसा नहीं है--बाहर भी रोशनी चाहिए--तो भीतर तो क्या भरोसा! भीतर भी रोशनी चाहिए। वैसी रोशनी साक्षी-भाव, सुरति से पैदा होती है। भीतर का दीया सुरति से जलता है।
इंद्रियां तुम्हें जो बता रही हैं, वह तो सिर्फ उनकी आदत है। तुमने जो देखने की आदत बना ली है, वह तुम्हें दिखाई पड़ता रहता है।
तुमने खयाल नहीं किया, अगर इस बगीचे में एक लकड़हारा आए तो उसे फूल दिखाई पड़ेंगे ही नहीं! वह लकड़ियां देखेगा। वह सोचने लगेगा कौन सा वृक्ष काट कर बाजार में बेच लूं। अगर कोई माली आ जाए, फूलों का पारखी आ जाए तो उसको लकड़ियां नहीं दिखाई पड़ेंगी; उसे फूल दिखाई पड़ेंगे। वह सोचने लगेगा: "अहा, कितने सुंदर फूल!' अगर कोई कवि आ जाए तो उसे फूल भी सीधे-सीधे नहीं दिखाई पड़ेंगे; उसे फूलों का सौंदर्य दिखाई पड़ेगा। सौंदर्य पर उसकी नजर होगी। अगर कोई चित्रकार आ जाए तो उसे रंग दिखाई पड़ेंगे--अनूठे रंग दिखाई पड़ेंगे, जो तुम्हें दिखाई नहीं पड़ते! आमतौर से तुम सोचते हो जब तुम बगीचे में आते हो तो तुम्हें भी वही दिखाई पड़ता है जो तुम्हारे साथी को दिखाई पड़ रहा है। इस गलती में मत पड़ना। क्योंकि साथी ने अपनी आंखें अगर और किसी बात के लिए अभ्यस्त की हैं तो उसे कुछ और दिखाई पड़ेगा। तुम्हें कुछ और दिखाई पड़ेगा।
इंद्रियां तो अभ्यास हैं। इनसे तो हम जो देखने का अभ्यास कर लेते हैं वही दिखाई पड़ने लगता है। कान भी अभ्यास है। इससे हम जो सुनने का अभ्यास कर लेते हैं वही सुनाई पड़ने लगता है। स्वाद भी अभ्यास है। तुमने खयाल नहीं किया? अगर पहली दफे कॉफी पीओ तो अच्छी थोड़े ही लगती है। कॉफी का भी अभ्यास करना पड़ता है। पहली दफे शराब पी हो तो अच्छी थोड़े ही लगती है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उसके पीछे सदा पड़ी रहती थी कि तुम शराब बंद करो, बंद करो। नहीं सुना, नहीं सुना, एक दिन वह पहुंच गई शराब-घर। मुल्ला थोड़ा डरा भी, क्योंकि वह कभी शराब-घर नहीं आई थी और यह बात ठीक भी नहीं कि भले घर की स्त्री और शराब-घर आए। लेकिन अब कुछ कर भी न सका। वह आ कर उसके पास बैठ गई। उसने कहा: "आज मैं भी पीऊंगी। जब तुम सुनते नहीं तो जरूर शराब में कुछ होगा; मैं भी पीऊंगी।' अब मुल्ला यह भी न कह सका कि मत पीओ, शराब अच्छी चीज नहीं। और यही तो पत्नी सदा कहती रही। यह हद हो गई। अब इससे क्या कहे? तो उसने कहा, ठीक। डाल दी शराब, डाल दी एक प्याली में और कहा, पी ले। उसने पी तो एकदम थूक दी। कड़वी, तिक्त! उसने कहा, ऐसी सड़ी-गली चीज तुम पीते हो! और मुल्ला ने कहा, सुनो, और तू सोचती थी हम यहां मजा कर रहे हैं?
अभ्यास करना होता है। अभ्यास करने पर कड़वा भी मीठा लगने लगता है। अभ्यास अभ्यास की बात है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दिन मुझसे कहा कि ट्रेन में आ रहा था, एक लड़की मेरे सामने वाली सीट पर बैठी थी, रेडियो अनाउंसर थी।
तो मैंने उससे पूछा: तुमने कैसे जाना? पूछा था?
उसने कहा: नहीं, पूछा नहीं।
"फिर तुमने कैसे जाना कि रेडियो अनाउंसर थी?'
तो उसने कहा कि जब मैंने उससे समय पूछा था तो बोली, नौ बज कर पंद्रह मिनट हुए हैं, हमेशा गोदरेज ताला लगाइए और चैन की नींद सोइए। इससे मैं समझा कि रेडियो अनाउंसर है।
अभ्यास हो जाता है।
तुम अपने जीवन में अगर गौर से देखोगे तो तुम जो देखते हो, तुम जो सुनते हो, जो तुम समझते हो, वह सब अभ्यास है; सत्य से उनका कोई संबंध नहीं। फिर जब एक तरह का अभ्यास इंद्रियों को हो जाता है तो उन अभ्यास के घेरों के बाहर आना बहुत मुश्किल हो जाता है।
छोटे बच्चे एक तरह से देखते हैं दुनिया को, तुम सब जानते हो, क्योंकि तुम भी छोटे बच्चे थे कभी। तुम्हारे घर छोटे बच्चे हैं। उनके देखने का एक ढंग है। जवान दूसरे ढंग से देखते हैं। बूढ़े तीसरे ढंग से देखते हैं। अगर तुम बूढ़े हो गए तो तुम्हें भलीभांति याद होगी। अगर तुम बेईमान नहीं हो तो भूल नहीं होओगे कि बच्चे थे तब तुम एक तरह से दुनिया को देखते थे; जवान थे तब दूसरी तरह से दुनिया को देखते थे। दुनिया वही है। फिर बूढ़े हुए तो तुम तीसरी तरह से दुनिया देखने लगे।
तो इंद्रियों का भरोसा कम है। जैसी वासना होती है वैसा ही दर्शन हो जाता है। जब बच्चे थे तो तुम्हें सुंदर स्त्रियों में कोई रस न था या सुंदर पुरुषों में कोई रस न था; तुम्हें धन में भी कोई रस न था। तुम खेल-खिलौनों में लवलीन थे। वही तुम्हारी दुनिया थी। जवान हुए, खेल-खिलौने छूट गए। तुम सौंदर्य में, देह में, धन में, पद में उत्सुक हो गए। फिर बुढ़ापा आया, वे खिलौने भी छूट गए। इसलिए तो बूढ़े आदमी और जवान आदमी की बात नहीं हो पाती, बड़ी मुश्किल हो जाती है। बाप-बेटे की बात थोड़े ही हो पाती है। बात हो ही नहीं सकती, क्योंकि वे दोनों अलग भाषाएं बोलते हैं। उनका जीवन को देखने का ढंग अलग है। मां-बेटे की बात थोड़े ही हो पाती है, बहुत मुश्किल है। न बेटा बाप को समझता है न बाप बेटे को समझता है। समझ ही नहीं सकते। क्योंकि बाप जहां से देख रहा है वहीं से बेटा देख नहीं सकता कभी। और जहां से बेटे देख रहा है, वहां से बाप ने कभी देखा था और पाया सब गलत था। अब बड़ी मुश्किल है कि वह उसको फिर उस भांति देखे।
तुम अगर गौर से देखोगे तो तुम पाओगे कि जो हमारा अनुभव है वह रोज बदल रहा है। और जब अनुभव बदल जाता है तो हमारी आंखें हमें कुछ और खबर देने लगती हैं। जब तुम जवान हो तब तुम्हें शरीर दिखाई पड़ते हैं। जब तुम बूढ़े हो जाते हो, जब तुम्हारा शरीर जर्जर-जीर्ण हो जाता है, तो तुम्हें हर शरीर में मौत दिखाई पड़ने लगती है। जवान से जवान शरीर में भी तुम्हें मौत की झलक दिखाई पड़ती है कि मौत आनेवाली है। सुंदर से सुंदर शरीर में भी तुम्हें कब्र, चिताओं की लपटें दिखाई पड़ने लगती हैं।
एक स्त्री अपने दो बच्चों को ले कर एक सहेली से मिलने गई। छोटे बच्चे को देखकर उसकी सहेली ने कहा, इसकी आंखें बिलकुल मां की तरह हैं, तुम्हारी तरह हैं। मां बोली, और माथा बाप का है। और पाजामा बड़े भाई का है, उसके बड़े बच्चे ने कहा।
अब जब सभी चीजें बंटी जा रही हैं कि आंखें मां जैसी और माथा बाप जैसा, तो वह भी क्यों चुप रहे--"पाजामा उसका है, जो यह छोटा भाई पहने हुए है।' अपनी-अपनी दृष्टि अपनी-अपनी जगह पर ठीक है। उसको न अभी रस है माथे में और न रस है आंखों में, अभी पाजामा उसका यह पहने हुए है। यह बात जंच नहीं रही है।
रोज-रोज अगर तुम इसका थोड़ा स्मरण रखोगे तो तुम पाओगे इस अभ्यास से मुक्त हुआ जा सकता है। और तुम्हारी आत्मा न तो बचपन में है, न जवानी में, न बुढ़ापे में, क्योंकि आत्मा की कोई आयु नहीं है। और तुम्हारी आत्मा का कोई अभ्यास नहीं है। आत्मा तो सिर्फ बोधस्वरूप है।
तो इंद्रियों को कछुए की तरह सिकोड़ लेने का अर्थ है, पुराने सब अभ्यास-जाल को बंद कर देना, फिर देखना। पुराने अभ्यास से देखोगे, गलत दिखाई पड़ेगा। जो अभ्यास किया है, वही दिखाई पड़ेगा। दृष्टि शुद्ध न होगी। आंख पर चश्मा होगा, चश्मे रंगीन होंगे, तो दुनिया भी तुम्हें रंगीन मालूम पड़ेगी।
"सब इंद्रिन कूं रोकि करि, सुरति स्वांस में देहि'
तो धीरे-धीरे हटा लो इंद्रियों से अपनी ऊर्जा को। अगर चौबीस घंटे न कर सको तो कभी घड़ी भर तो चौबीस घंटे में करो। और मैं तो तुम्हें सलाह दूंगा कि अगर तुम बैठ भी जाओ कछुए की तरह तो भी लाभ होगा। ठीक कछुए की तरह। गद्दा बिछा लो, कछुए की तरह बैठ जाओ हाथ-पैर सिकोड़ कर। जैसा मां के गर्भ में बच्चा होता है गर्भासन--ठीक वैसे बैठ जाओ। ठीक ऐसा ही खयाल करो कि तुम कछुए हो, सारी इंद्रियों को सिकोड़ लिया, सिर को भी ढाल कर बैठ जाओ। चाहो तो एक चादर ऊपर ओढ़ लो। बंद हो गए। और अब श्वास पर अपनी सुरति को लगा दो। तुम बहुत रस पाओगे और बहुत क्रोध जगेगा। बड़ी प्रगाढ़ चेतना पैदा होगी। और पहले दिन ही प्रतीक्षा मत करना कि यह सब हो जाए। थोड़ा धैर्य रखना।
तो इसको मैं कूर्मासन कहता हूं। तुम बना लो इस आसन को। क्योंकि शरीर की जो अवस्था तुम बनाते हो, उसके द्वारा तुम्हें सहारा मिलता है भीतर की अवस्था बनाने का भी। अगर तुम शरीर को ठीक कछुए की तरह सिकोड़ कर बैठ गए चादर ओढ़ ली, कछुए की ढाल बन गई, ऊपर से चादर और तुम भीतर सिकुड़ गए, आंखें बंद कर लीं और अब श्वास जैसी चल रही है धीमी, उसको देखते रहे। कुछ मत करो। श्वास बाहर गई, देखो, श्वास भीतर आई, देखो। ऐसा कहना भी नहीं है कि श्वास बाहर गई है, श्वास भीतर आई। बस देखते रहो। कभी-कभी चूक जाओगे। कभी-कभी भूल जाओगे पुरानी आदतवश। जब याद आ जाए तो रोने-चीखने की जरूरत नहीं कि मैं पापी, कि मेरा मन भटक गया। जब याद आ जाए, फिर मन को वहीं वापस ले आओ, बिना पछताए। कुछ पछतावे की जरूरत नहीं। भटक गया तो भटक गया। उसको भी स्वीकार कर लो। फिर चुपचाप अपने ध्यान पर आ जाओ। नहीं तो होता क्या है? पहले मन भटका, फिर तुम पश्चात्ताप करने लगे तो पश्चात्ताप में भटका। यह दोहरा उपद्रव हो गया। शुरू-शुरू में भटकेगा ही मन। जल्दी ही यह बात होने वाली नहीं है। जन्मों-जन्मों के अभ्यास के विपरीत तुम जा रहे हो। थोड़ा समय लगेगा। स्वाभाविक है, ऐसा मान कर, जब भटक गया भटक गया, जब याद आ गई, फिर अपनी श्वास पर ध्यान को लगा लिया--बिना पश्चात्ताप के, बिना किसी अपराध-भाव के, कि बड़ी चूक हो गई, कि बड़ा पाप हो गया। कुछ नहीं हुआ। स्वाभाविक है।
"बिन रसना बिन माल कर, अंतर सुमिरन होय।
दया दया गुरुदेव की विरला जानै कोय।।'
"बिन रसना बिन माल कर'...। और दया कहती है, हाथ में माला लेने की कोई जरूरत नहीं। और जीभ से भी शब्दोच्चार की कोई जरूरत नहीं। "बिन रसना बिन माल कर, अंतर सुमिरन होय'। बस अंतर में ही होश रखो। और सुमिरन शब्द से गलती मत पकड़ लेना, क्योंकि सुमिरन का तुमने यही अर्थ समझ रखा है कि बैठे जप रहे राम-राम, राम-राम, राम-राम। यह तो जीभ का हो जाएगा। जिसको नानक ने अजपा जाप कहा है, उसकी ही बात हो रही है।
"बिन रसना बिन माल कर, अंतर सुमिरन होय'
बस याद बनी रहे, होश बना रहे। शब्दों के साथ थोड़ी झंझट है। जब हम कहते हैं याद बनी रहे तो मन में सवाल उठता है: "किसकी याद?' अपनी याद। अपना होश। अगर किसी और की याद बनी रही तो मन जारी रहा। बोध बना रहे कि हूं। यह तुम हो, यह होने का बोध बना रहे। यह खो न जाए। इस पर कोई परदा न पड़े। इस पर कोई दूसरा शब्द आ कर इसे आच्छादित न कर ले।
"दया दया गुरुदेव की, बिरला जानै कोय'
और दया कहती है कि जो ऐसी दशा में अनुभव हुआ है, कोई विरले कभी उस अनुभव को उपलब्ध होते हैं। सच कहती है। बहुत करीब है यह अनुभव, तुम्हारे हाथ के पास है। जरा हाथ बढ़ाओ, तुम्हारा हो जाए। लेकिन तुमने हाथ ही नहीं बढ़ाया। संपदा तुम्हारी है; तुमने कभी अपनी मालकियत की घोषणा नहीं की।
"दया दया गुरुदेव की'...। और एक बात और दया कहती है कि मेरे किए तो यह नहीं हो सकता था; यह गुरु के प्रसाद से हो गया है, गुरु की कृपा से हो गया है। इस बात को भी खयाल में लेना जरूरी है। क्योंकि तुम्हारा कर्ता-भाव सब तरह से छोड़ना है। अगर तुम्हें यही खयाल बना रहा कि हम ध्यान कर रहे हैं तो भी कर्ता-भाव आ गया, पीछे के दरवाजे से आ गया। तुम बैठ गए कूर्मासन लगा कर और एक अकड़ भीतर बनी रही कि देखो ध्यान कर रहे हैं, अब देखे को कि कैसे ध्यान में लगे हैं। कि ध्यान से उठे तो तुमने चारों तरफ देखो कि किसी ने देखा कि नहीं, लोगों को पता है कि नहीं!
ध्यान का भी अगर कहीं भीतर तुमने थोड़ा सा कर्ता-भाव बना लिया तो फिर चूक गए, फिर अहंकार आ गया, फिर मन आ गया। इसलिए शिष्य तो यह कहता है कि जो होगा वह गुरु की कृपा से होगा; मेरे किए क्या होने वाला है! मेरे किए कुछ नहीं हो सकता; मेरे किए तो संसार हो गया था। मेरे किए तो दुख ही दुख का जाल फैल गया था। यह सुख की किरण मेरे किए नहीं हो सकती।
तो वह कहता है, गुरु के किए, गुरु-प्रसाद से!
"दया दया गुरुदेव की'...
खयाल रखना, इसका यह मतलब नहीं है कि गुरु की कृपा से यह होता है। यह शिष्य का भाव है और शिष्य के लिए बड़ा सहयोगी है। क्योंकि गुरु की कृपा तो सब पर एक जैसी है। जिसको हुआ उसके ऊपर भी है और जिसको नहीं हुआ उसके ऊपर भी है। अगर गुरु की कृपा से ही होता होता तो सभी को एक सा हो जाता। यह गुरु-कृपा का भाव तो शिष्य के मार्ग पर एक उपाय है। यह भाव उसके अहंकार को निर्मित नहीं होने देता। और यह अहंकार निर्मित नहीं होता तो बाधा खड़ी नहीं होती। घटना घट जाती है। गुरु की कृपा से होता है, इसका केवल इतना ही अर्थ है: मेरे किए नहीं होता। मेरे किए कुछ भी नहीं हुआ है। मेरे करने से तो "मैं' ही निर्मित होता है। इस "मैं' को गिरा देना है। इस "मैं' को विसर्जित कर देना है।
अब यह कठिन है। अगर तुम बिना गुरु के काम करोगे तो कुछ अगर होने लगेगा तो स्वभावतः यह भाव उठेगा कि मैंने किया। कोई और तो है नहीं। अकड़ आएगी। अगर तुम गुरु के चरणों में झुक कर रहे हो तो जब भी कुछ होगा तब गुरु की याद आएगी कि उनकी कृपा से। तुम्हारा अहंकार अकड़ेगा नहीं। जल न मिलेगा तुम्हारे अहंकार को। थोड़े दिन में अहंकार सूख जाएगा, विसर्जित हो जाएगा।
"हृदय कमल में सुरति धरि, अजप जपै जो कोय।
विमल ज्ञान प्रगटै तहां, कलमख डारै खोय।।'
"हृदय कमल में सुरति धरि...' तो पहले तो श्वास पर सुरति को लगाना है। जब श्वास पर सुरति सध जाए और तुम साक्षी-भाव से श्वास का आना और जाना देखने लगो, श्वास की माला तुम्हारे सामने घूमने लगे, तब फिर सुरति को श्वास से भी हटा लेना है और हृदय-कमल में संभाल लेना है।
जैसे तुमने कभी कमल का फूल देखा! कमल का फूल बंद होता है, खोलो तो तुम उसके भीतर छोटा सा स्थान पाओगे रिक्त। वह हृदय-कमल भी वैसा ही है। अगर हृदय को खोला जाए तो हृदय के भीतर एक शून्य स्थान है। जैसे कमल के भीतर एक शून्य स्थान है, उसी शून्य स्थान में तो भंवरा कभी-कभी बंद हो जाता कमल में। क्योंकि रात कमल बंद होता है और भंवरा दिन भर बैठा रहता है। रसमग्न, उड़ने का मन नहीं होता वहां से, हटने का मन नहीं होता। और रात कमल बंद होने लगता है तो भी बैठा रहता है। उस शून्य में जहां भंवरा बंद हो जाता है कमल में, ठीक वैसा ही शून्य तुम्हारे हृदय में भी है। और उस शून्य हृदय में ही बोध के भंवरे को बंद कर लेना है। पहले श्वास पर रखना ध्यान, श्वास से दो बातें अनुभव में आ जाएंगी कि मैं देह नहीं हूं और मैं श्वास नहीं हूं। यह नकारात्मक अनुभव हुआ। मैं क्या नहीं हूं, यह पता चल गया। अब दूसरा काम यह है पता करने का कि मैं क्या हूं। इतना तो पता चला कि मैं देह नहीं हूं, यह बड़ी बात हो गई। इतना पता चला कि मैं श्वास भी नहीं हूं, यह और बड़ी बात हो गई। यह नकारात्मक काम तो पूरा हो गया। अब मुझे पता चलना चाहिए कि मैं कौन हूं।
तो हृदय को कमल समझो। यह तो प्रतीक है; सिर्फ तुम्हें समझ में आ जाए बात। अब सारे बोध को हृदय में ले जाना है, जहां धक-धक हो रही है; जहां श्वास जा कर हृदय को गतिमान कर रही है; जहां श्वास का धागा अटका है। श्वास को देख लिया, अब श्वास से पीछे उतरे, और गहरे उतरे; हृदय की धक-धक में उतरे।
हृदय को समझो एक कमल। कमल के भीतर जैसे थोड़ी सी शून्य जगह होती है जहां कभी भंवरा बंद हो जाता है, उसी शून्य जगह में आसन मार कर बैठ जाओ। वहीं रखो अपनी सुधि को, वहीं रखो अपने बोध को, सुरति को।
"हृदय कमल में सुरति धरि, अजप जपै जो कोय।'
इसी को नानक ने अजपा जाप कहा है। अब कोई जाप नहीं हो रहा है और कोई जपने वाला भी नहीं है। और तभी असली जाप होता है। अब तुम पहली दफा सुनते हो अस्तित्व की ध्वनि। उसी को ओंकार कहते हैं। ओंकार का नाद अब तुम्हें सुनाई पड़ता है, तुम कर नहीं रहे हो। और यह नाद बाहर से नहीं आ रहा है, क्योंकि कान इत्यादि, तुम कछुए का आसन मार कर बैठ गए, वहीं छूट गए, बहुत दूर छूट गए। अब तो भीतर ही तुम्हारे जो नाद हो रहा है, जो सदा से हो रहा था, लेकिन बाहर के कोलाहल से कारण सुनाई न पड़ता था...।
जैसे घर में कोई वीणा बज रही हो धीमी-धीमी और बाहर शोरगुल मचा हो और तुम्हें वीणा सुनाई न पड़े; कोई धीमे से बांसुरी बजाता हो और बाजार के कोलाहल में सुनाई न पड़े--ऐसा भीतर का नाद है, अनाहत नाद जिसको योगी कहते हैं। वह नाद तुम्हारे भीतर हो ही रहा है। वह तुम्हारे हृदय का संगीत है। उस संगीत का सुनाई पड़ना शुरू होता है। उसको अजपा जाप कहा है। तुम करने वाले नहीं हो उसके; तुम सिर्फ साक्षी-मात्र हों। तुम सिर्फ सुनते हो। तुम सिर्फ अनुभव करते हो।
क्या मुफ्त का जाहिदों ने इलजाम लिया
तस्बीह के दानों से अबस काम लिया
यह नाम तो वो है जिसे बेगिनती लें
भगवान का नाम भी लोग गिन-गिन कर ले रहे हैं, ऐसे कंजूस हैं!
मैं एक घर में मेहमान था। वे अपनी खाता-बही ले आए। मैंने कहा, यह किसलिए लाए? उन्होंने कहा, जरा देखिए, यह खाता-बही नहीं है, इसमें राम-राम लिखा है। एक करोड़ बार लिख चुका हूं अब तक।
अब यह आदमी खतरनाक है। अगर कभी भगवान से इसका मिलना हो जाए, हो नहीं सकता इसका मिलना, क्योंकि भगवान भी इससे डरेंगे कि यह खाता-बही ले कर आने वाला है। तो मैंने उन सज्जन को एक कहानी कही। मैंने कहा, मैंने सुना है, एक भक्त मरा। और उसी दिन उस भक्त के सामने रहने वाला एक पापी मरा। और देवदूत भक्त को तो ले जाने लगे नर्क की तरफ और पापी को ले जाने लगे स्वर्ग की तरफ। तो वह बहुत नाराज हुआ। कहीं कुछ भूल हो गई है। तो उस भक्त ने कहा, जाओ पहले पता लगाओ, कुछ भूल हो गई है। मालूम होता है जो सरकारी दफ्तर में यहां चलता है वह वहां भी चलता है। यह क्या गड़बड़ कर रहे हो? मैं जिंदगी भर नाम लेता रहा। सुबह-शाम कीर्तन-भजन, कीर्तन, क्या नहीं किया! क्या छोड़ा? रात-दिन जपता रहा राम-राम। देखते नहीं मेरी राम-नाम की चदरिया, ओढ़े बैठा हूं! और मुझे तुम नर्क ले जा रहे हो! और इस पापी को मैंने कभी राम-नाम लेते नहीं देखा।
लेकिन देवदूतों ने कहा, भूल नहीं हुई है; फिर भी आपकी मर्जी हो तो आप चल सकते हैं। अपनी शिकायत कर सकते हैं। तो वह गया। बड़ी अकड़ से उसने जा कर भगवान को कहा, यह मामला क्या है? यह किस तरह का न्याय है? यह अन्याय हो रहा है। मैंने इतना भजन-कीर्तन किया, सुबह तीन बजे से उठ कर करता था और पूरा गांव मेरा गवाह है, क्योंकि लाउडस्पीकर लगवा कर करता था। कोई अकेला ही मैं नहीं हूं, पूरा गांव मेरा गवाह है। और तुमने भी सुना होगा। और मुझे नर्क भेजा रहा है। इस आदमी ने कभी भजन-कीर्तन नहीं किया; बल्कि कभी-कभी यह आदमी आ जाता था मेरे वहां कि भई, सोने दो, तीन बजे से तो मत उपद्रव करो; कम से कम माइक तो न लगाओ, तुम्हें अपने घर में करना है तो करते रहो। यह आदमी बाधा डालता था। इसको स्वर्ग ले जाया जा रहा है!
भगवान ने कहा: इसीलिए कि यह मेरे पक्ष में था। और तुम मेरी खोपड़ी खा गए। और मैं तुम्हें स्वर्ग में नहीं बसा सकता। अगर तुमको यहां बसना है तो मुझे नर्क जाना पड़े। तुम मेरी जान खा जाओगे। तुमने एक क्षण मुझे चैन न लेने दिया। तीन बजे रात मैं भी सोता हूं और तुम माइक लगा कर उपद्रव मचाते रहे।
अब यह आदमी जो एक करोड़ बार लिख चुका है नाम, यह खतरनाक है। भगवान के साथ भी गिनती है।
क्या मुफ्त का जाहिदों ने इलजाम लिया
तस्बीह के दानों से अबस काम लिया
यह नाम तो वो है जिसे बेगिनती लें
क्या लुत्फ जो गिन-गिन के तेरा नाम लिया।
यह नाम तो सच में ऐसा है, जिसे तुम लोगे तो चूक हो जाएगी। तुम लेना ही मत। यह तो जब तुम्हारे भीतर बहेगी धारा अपने-आप नैसर्गिक, अहर्निश उठेगा ओंकार का नाद--तब, तभी असली जाप शुरू हुआ। अजपा ही असली जाप है।
"हृदय कमल में सुरति धरि, अजप जपै जो कोय।
विमल ज्ञान प्रगटै तहां, कलमख डारै खोय।।'
वहां विमल ज्ञान पैदा होता है। यह विमल ज्ञान शास्त्रों से, पांडित्य से नहीं उपलब्ध होता। यह विमल ज्ञान तब होता है जब तुम इंद्रियों से, देह से, श्वास से, सब से छूट गए और अपने हृदय-कमल में अपनी सुधि को विराज कर बैठ कर गए। वहां, "विमल ज्ञान प्रगटै तहां'। वहां वह शुद्ध ज्ञान पैदा होता है, बोध पैदा होता है; अनुभव, समाधि, सतोरी, या जो भी नाम तुम देना चाहो। वहां वह शुद्ध ज्ञान पैदा होता है, जिसमें सब बंधन कट जाते हैं, सब पाप गिर जाते हैं। ...."कलमख डारै खोय'। जहां सब मैल धुल जाते हैं, इसलिए उसको विमल ज्ञान कहा है, जहां सब मल विसर्जित हो जाते हैं।
मुझसे लोग पूछते हैं कि हम अपने कर्मों के मैल को कैसे धोएं? यह बड़ी कठिन बात है। तुम न धो पाओगे। तुम तो धोओगे तो और गंदा कर लोगे। यह तुम्हारे ही करने की वजह से ही तो कर्म-मैल इकट्ठा हुआ है। यह तुम्हारे धोए न धुलेगा। वह कर्म-मल इकट्ठा ही तुम्हारे करने से हुआ है। अब तुम और करना चाहते हो, कुछ और करना चाहते हो। यह तो धुलेगा तब जब तुम अकर्ता हो जाओगे। कर्म का मैल तभी जाएगा जब तुम अकर्म में डूब जाओगे, अकर्ता हो जाओगे। यह परमात्मा धोएगा, तुम नहीं धो सकते। तुम्हारा काम बिगाड़ने का था, वह तुमने कर दिया। अब तुम सुधारने में और मत बिगाड़ लेना।
तुम कृपा करके अपने कर्म-जाल को सुधारने की कोशिश मत करो। तुम तो बोध में उतर जाओ। उस बोध की वर्षा में सब मैल बह जाते हैं। एक क्षण में तुम ऐसे पवित्र हो जाते हो जैसे तुम होने चाहिए और जैसा तुम जनम-जनम कोशिश करके कभी नहीं हो सकते हो। तुम्हारी कोशिश तुमसे बड़ी थोड़े ही होगी। तुम्हारी कोशिश तुम्हारी ही तो होगी न। तुम जो करोगे, उस पर तुम्हारी ही छाप रहेगी, तुम्हारा ही हस्ताक्षर रहेगा। इसलिए यहां, मैं तुम्हें जो सिखा रहा हूं, वह कुछ कृत्य नहीं सिखा रहा हूं--सिर्फ ध्यान। तुम ध्यान में डूबो।
ध्यान का अर्थ है: तुम परमात्मा के सामने खड़े हो जाओ जैसे मैले-कुचैले हो। जैसे छोटा बच्चा बाहर धूल-धवांस में खेल-खाल कर कीचड़ इत्यादि से भरा हुआ, कपड़े-लत्ते फटे हुए अपनी मां के सामने आ कर खड़ा हो जाता है, ऐसे तुम खड़े हो जाओ वहां। तुम धो दिए जाओगे तुम्हारे खड़े होते ही। तुम्हारे ठहरते ही वर्षा हो जाएगी।
"विमल ज्ञान प्रगटै तहां, कमलख डारै खोय'
इसलिए तुम इस हिसाब में भी मत पड़ना, जैसा कि कई लोग पड़े हैं। कहते हैं कि जनम-जनम में किए कर्म हैं, अब एक दिन में थोड़े ही ज्ञान हो जाएगा, एक क्षण में थोड़े ही ज्ञान हो जाएगा। इतने जन्मों तक कर्म किए हैं तो अब उनको धोएंगे, काटेंगे, जनम-जनम लगेंगे। तब तो तुम कभी भी मुक्त न हो पाओगे। तो, तो मुक्ति हो ही नहीं सकती। फिर मुक्ति असंभव है। क्योंकि इतने जन्म लगेंगे कर्मों को धोने में और इतने जन्म तुम खाली थोड़े ही बैठे रहोगे, और कर्म करते रहोगे। तो कर्म तो बढ़ते ही चले जाएंगे।
नहीं, तुम्हारे कृत्य से मुक्ति का कोई संबंध नहीं है--तुम्हारे समर्पण से संबंध है। तुम झुको और कह दो परमात्मा कि तुझे धुलाना हो तो धो दे और तुझे मैला रखना हो तो मैला रख, जैसी तेरी मर्जी! मगर यह बात तुम कह सकोगे तभी जब तुम हृदय-कमल में पहुंच जाओ। उसके पहले तुम न कह सकोगे। उसके पहले परमात्मा का तुम्हें कोई पता ही नहीं है। तब तक तुम मंदिर की मूर्तियों के सामने कहोगे, वे तुम्हारी बनाई हुई हैं। वे तुम्हारे कृत्य हैं। वे तुम्हारे कर्म हैं। तब तुम कहां परमात्मा को पाओगे? परमात्मा तो हृदय-कमल में विराजमान है। वह जो शून्य जगत है, उसी में उसका सिंहासन है।
"जहां काल अरु ज्वाल नहीं, सीत उस्न नहीं वीर'
और दया कहती है: हे भाई, उस हृदय-कमल में ऐसी घटना घटती है कि "जहां काल अरु ज्वाल नहीं'। वहां न तो मौत है न पीड़ा है, न समय है। ..."सीत उस्न नहीं बीर'। न वहां ठंडा है कुछ और न गर्म। वहां सब द्वंद्व शांत हो गए हैं। वहां सब द्वैत गिर गया। वहां दो आंख एक हो गई है।
"दया परसि निज धामकूं, पायो भेद गंभीर।'
और उस स्वयं की परमदशा को देख कर जीवन का रहस्य हाथ में लगा कि अब तक नाहक परेशान हो रहे थे कि बुरे को छोड़ें कि पाप को छोड़ें कि सज्जन हो जाएं, साधु हो जाएं, ऐसा करें वैसा करें, इस मंदिर जाएं उस मंदिर जाएं, किस शास्त्र को पकड़ें, किस धर्म का अनुगमन करें! भटकते थे व्यर्थ ही।
"दया परसि निज धामकूं, पायो भेद गंभीर'
सब शास्त्रों का शास्त्र, वेदों का वेद, जो गंभीरतम भेद है, जो रहस्यों का रहस्य है, वह मिल गया। वह रहस्य क्या है? वह रहस्य यह है कि मनुष्य अपने ही कृत्य से बंधा है और कृत्य के कारण ही मुक्त नहीं हो पाता है। अकर्ता हो जाए, साक्षी हो जाए, तो अभी मुक्त है, यहीं मुक्त है।
"पिय को रूप अनूप लखि, कोटि भान उंजियार'
और जब उस हृदय-कमल के शून्य में देखा प्रीतम का रूप..."पिय को रूप अनूप लखि'...अद्वितीय रूप देखा प्रिय का, प्रियतम का, "कोटि भान उंजियार', जैसे हजारों सूरज, करोड़ों सूरज एक साथ उगे।
"दया सकल दुख मिटि गयो, प्रगट भयो सुखसार'
सब दुख मिट गए और सुख का सार, सुख की कुंजी प्रगट हुई। कुंजी कि सुख हमारा स्वभाव है। हम दूसरे से मांगते फिरे, इसलिए दरिद्र और दीन रहे। हम भिखारी बने, इसलिए भिखारी रहे। सम्राट होना हमारा स्वभाव था। हमने अपने भीतर कभी देखा नहीं, इसलिए खूब भटके।
"दया सकल दुख मिटि गयो, प्रगट भयो सुखसार'
"अनंत भान उंजियार तहं, प्रगटी अदभुत जोत।
चकचौंधी सी लगति है, मनसा सीतल होत।।'
"अनंत भान उंजियार तहं'...। और कितने-कितने सूरज एक साथ उग आए! और जनम-जनम तक अंधेरा ही अंधेरा था। और लाख दीए जलाए, सब बुझ गए। और लाख दीयों पर भरोसा किया, कोई काम न आए। कितनों को अपना माना, सब पराए सिद्ध हुए। सब नावें कागज की साबित हुईं। "अनंत भान उंजियार तहं'...। और अब अचानक अनंत-अनंत सूर्यों का उजियाला हुआ है। "प्रगटी अदभुत जोत'। और ज्योति बड़ी अदभुत है। क्या अदभुत है ज्योति में? "चकचौंधी सी लगति है, मनसा सीतल होत'। अदभुत यह है: है तो ज्योति ही, है तो अग्नि। और एक तरफ आंखें चकाचौंध में भर गई हैं और दूसरी तरफ मन शीतल हुआ जा रहा है। ठंडी आग, इसलिए अदभुत। परमात्मा ठंडी आग है।
यहूदियों के पास इसकी सबसे मीठी कथा है। मोजिज को जब परमात्मा का दर्शन हुआ, सिनाई के पहाड़ पर, तो मोजिज को समझ में न आया क्या हो रहा है! क्योंकि परमात्मा एक अग्नि की लपट की भांति प्रगट हुए एक हरी झाड़ी में। और झाड़ी जली नहीं। और ज्योति प्रगट हुई। और लपट उठने लगी आकाश की तरफ। और झाड़ी हरी की हरी रही। पत्ते कुम्हलाए नहीं, फूल सूखे नहीं, कुछ भी जला नहीं। मोजिज समझ ही न पाए कि क्या हुआ! आग और ठंडी! आग कभी ठंडी देखी!
यह जो यहूदियों की कथा है, इसका अर्थ यहूदियों के पास नहीं है। क्योंकि मोजिज के जीवन में घटी होगी, फिर यहूदियों ने इसकी बहुत खोजबीन नहीं की कि यह बात क्या है! यह सिनाई का पहाड़ कहीं और नहीं है, मनुष्य के भीतर चैतन्य की अंतिम ऊंचाई का नाम है। इसलिए सभी धर्मों ने अपने तीर्थ बड़े ऊंचे पहाड़ों पर बनाए हैं। वे प्रतीक हैं। हिमालय के उत्तुंग शिखरों पर बद्री और केदार। और कैलाश की धारणा है कि कैलाश पर शिव का वास है, कि परमात्मा का घर कैलाश पर। ये तो प्रतीक हैं। ये आत्मा की ऊंचाइयों के प्रतीक हैं। तुम्हारा चैतन्य जब अपनी परम ऊंचाई पर पहुंचता है, अपने परम शिखर पर, तो कैलाश। और वहीं शिव का वास। यह कोई हिमालय में खोजने से कहीं मिलेगा नहीं; यह तुम्हारे भीतर की बात है। सिनाई भी भीतर के पर्वत की बात है। और जिस झाड़ी की बात कर रहे हैं मोजिज, वह झाड़ी तुम हो। परमात्मा की आग उठेगी तुम्हारे भीतर और तुम चकित हो कर रह जाओगे: "अनंत भान उंजियार तहं'...जैसे हजारों सूरज एक साथ आ गए भीतर। "...प्रगटो अदभुत जोत। चकचौंधी सी लगति है, मनसा सीतल होत।' और चमत्कार यह है कि आंखें तो झंपी जाती हैं इतनी रोशनी में और मन ठंडा हुआ जाता है और मन शीतल हुआ जाता है।
"बिन दामिन उंजियार अति'...। और भी चमत्कार की बात है कि बिजली तो कहीं चमकती दिखाई नहीं पड़ती और उजियाला बहुत है। सूरज तो कहीं दिखाई नहीं पड़ता और ऐसा लगता है हजारों सूरज उगे हैं।
"बिन दामिन उंजियार अति'...। स्रोत तो दिखाई नहीं पड़ता और रोशनी बहुत है। तो बिना स्रोत की रोशनी। पहली बात: रोशनी ठंडी है। दूसरी बात: स्रोत नहीं है। जिसका स्रोत हो वह रोशनी चुक जाती है। यह न चुकने वाली ज्योति है। तुमने दीया भरा तेल से, जलाया--तेल चुकेगा, ज्योति बुझ जाएगी। रात भर लगेगा तेल को चुकने में तो रात भर दीया जलेगा। महीना भर लगेगा तो महीना भर लगेगा।
वैज्ञानिक कहते हैं कि सूरज करोड़ों वर्ष से जल रहा है, लेकिन सदा नहीं जलता रहेगा; चार-पांच हजार साल और। क्योंकि रोज-रोज ठंडा होता जा रहा है। उसकी रोशनी चुकती जा रही है, उसका तेल चुक रहा है। उसकी ऊर्जा क्षीण हो रही है। तो सूरज भी एक न एक दिन चुक जाएगा, ठंडा हो जाएगा।
परमात्मा एकमात्र रोशनी है जो कभी न चुकेगा। शाश्वत। क्योंकि स्रोत नहीं है कहीं। कोई तेल नहीं है, कोई ईंधन नहीं है, जिस पर निर्भर हो--अकारण है।
"बिन दामिन उंजियार अति, बिन घन परत फुहार'
और दया कहती है, ऐसा हो रहा है, मेघ तो कहीं दिखाई नहीं पड़ते और फुहार पड़ रही है। कहां से हो रहा है यह आनंद का बरसन! यह वर्षा कहां से हो रही है, कोई मेघ दिखाई नहीं पड़ता! कोई दामिनी चमकती मालूम नहीं पड़ती और रोशनी बहुत है।
यह बड़ा प्रतीकात्मक वचन है।
"मगन भयो मनुवां तहां, दया निहार निहार'
और दया कहती है, अब मगन हो गई! नाच उठा मन! निहार निहार! यह जो है, यह जो दिखाई पड़ रहा है भीतर, यह जो अनुभव हो रहा है, यह जो प्रतीति और साक्षात्कार हो रहा है, बस काफी है कि अनंत कालों तक निहारते रहो। इसका आनंद कभी चुकता नहीं। इसका रस कभी समाप्त नहीं होता।
"बिन दामिन उंजियार अति, बिन घन परत फुहार।
मगन भयो मनुवां तहां, दया निहार निहार।।'
"जग परिनामी है मृषा, तन-रूपी भ्रमकूप।
तू चेतन सरूप है, अदभुत आनंद-रूप।।'
"जग परिनामी है मृषा'...! इस जगत में तो जो भी दिखाई पड़ता है सब परिवर्तनशील है, क्षणभंगुर; अभी है अभी नहीं; ओस की बूंद जैसा। "जग परिनामी है मृषा'...। यह तो ऐसा है जैसे मरुस्थल में प्यासे को अपनी प्यास के कारण जलस्रोत दिखाई पड़ता है। अपनी प्यास के कारण प्रक्षेपण हो जाता है। इतना प्यासा है कि मान लेता है कि जल होना ही चाहिए। जब तुम बहुत प्यासे होते हो, तुम बातें मान लेते हो। तुम्हारा जो वासना, कामना, अभीप्सा का अंतरतम रूप है, वही बाहर तुम खोजने लगते हो। मान लेते हो कि होगा, होना चाहिए, क्योंकि तुम्हें चाह है। तुम्हारी चाह ही बाहर के पर्दे पर रूप लेती है।
तो दया कहती है: "जग परिनामी है मृषा'...। यहां तो जग में सब बदला जा रहा है, कुछ पकड़ने जैसा नहीं है। और तुम जो भी देख रहे हो, वे तुम्हारे ही सपने हैं; वस्तुतः उनका कोई अस्तित्व नहीं है। मृषा की भांति हैं। मरुस्थल में दिखाई पड़ा मरूद्यान। "तन-रूपी भ्रमकूप'। और इस तन के कुएं में तुम्हें जो जल दिखाई पड़ रहा है वह भी तुम्हारी मान्यता के कारण है। है नहीं। इस शरीर में कोई भी जल नहीं है जो तृप्ति दे दे। इस शरीर में कोई भी जल नहीं है जो तुम्हारी प्यास को बुझा दे।
जीसस के जीवन में एक उल्लेख है कि एक कुएं पर वे आए, थके-मांदे राह से। और एक स्त्री पानी भरती थी, अछूत रही होगी। तो उन्होंने उस स्त्री से कहा कि मैं प्यासा हूं, मुझे पानी दे दे। उस स्त्री ने कहा, क्षमा करें, आप कुलीन परिवार के मालूम होते हैं; मैं अछूत दीन-दरिद्र हूं, मेरा पानी कोई पीएगा नहीं। आप प्रतीक्षा करें, कोई और आता होगा पानी भरेगा, आप उससे पानी ले लेना।
जीसस ने कहा, तू फिक्र मत कर। और अगर तू मुझे पानी देगी तो याद रख, मैं तुझे ऐसा पानी दे सकता हूं कि जिसे तू पी ले तो तेरी प्यास सदा-सदा के लिए बुझ जाए। तेरा पानी तो तू जो देगी, थोड़ी देर मेरी प्यास को बुझाएगा। इस प्यास को सदा के लिए बुझाया नहीं जा सकता। लेकिन मेरे पास भी एक पानी है। मैं तुझे उस पानी को दूंगा। उसके पीते ही भीतर की प्यास बुझ जाती है।
"जग परिनामी है मृषा, तन-रूपी भ्रमकूप।'
यह जो शरीर का कुआं है, खाली है, रूखा है, सूखा है; इसमें कहीं कोई जल नहीं है। जल तुम देख लेते हो क्योंकि तुम प्यासे हो। प्यासा जल देख लेता है। प्यासा मान लेता है जल होगा।
तुमने कभी खयाल नहीं किया? तुम उन्हीं चीजों को मान लेते हो जो तुम चाहते हो। तुम अगर किसी के पत्र की प्रतीक्षा कर रहे हो तो पोस्टमैन को आते ही देख कर तुम दरवाजे पर खड़े हो जाते हो कि आ गई चिट्ठी! पत्र आ गया! अगर तुम किसी की प्रतीक्षा कर रहे हो तो दरवाजे पर हवा का झोंका भी लगता है तो तुम भाग कर आ जाते हो कि शायद मेहमान आ गया। तुम जिस बात को मान कर चलते हो उसके देख लेते हो। अगर तुम्हें कोई बता दे कि तुम जहां से जा रहे हो, रास्ते में मरघट है, तो तुम्हें भूत-प्रेत दिखाई पड़ जाएंगे। और इसी जगह से तुम कई बार निकल गए पहले और कभी भूत-प्रेत नहीं दिखाई पड़े, क्योंकि तुम्हें खयाल में नहीं था कि मरघट है। तो तुमने प्रक्षेपण नहीं किया। एक बार तुम्हें पता चल जाए कि मरघट है तो मुश्किल हो गई। फिर तुम न निकल पाओगे। फिर तुम्हें झंझटें आएंगी। झंझट तुम्हीं खड़ी कर लोगे। तुम्हारी धारणा तुम्हारा भय ही भूत बन जाएगा।
"जग परिनामी है मृषा, तन-रूपी भ्रमकूप।
तू चेतन सरूप है, अदभुत आनंद-रूप।।'
दया कहती है: और तू चेतन-सरूप है, अदभुत आनंद-रूप! चैतन्य तेरा स्वभाव है, परमात्मा तेरा स्वभाव है। अदभुत आनंद रूप! रसो वै सः। सच्चिदानंद!
लेकिन अपने में जाओ तो पता चले। एक ही तीर्थ है जाने योग्य और एक ही मंदिर है प्रवेश करने योग्य, एक ही शिखर है छूने योग्य और एक ही गहराई है स्पर्श करने योग्य--वह तुम्हीं हो।
उपनिषद कहते हैं: तत्वमसि श्वेतकेतु! श्वेतकेतु, वह तू ही है।
लेकिन तुम्हारी कठिनाई भी मैं समझता हूं। सभी की कठिनाई है वह। जब तक अनुभव नहीं हुआ तब तक ये बातें बड़ी दूर की मालूम पड़ती हैं। तब तक तो हमें एक ही अनुभव है जीवन का: दुख, पीड़ा, नर्क। स्वर्ग की तो हम भाषा भूल गए हैं। उत्सव का तो हमें ढंग ही याद नहीं रहा।
और धर्म के नाम पर जो चल रहा है, वह बिलकुल पाखंड है। धर्म के नाम पर जो चल रहा है, वह पंडित-पुरोहितों का जाल है। संसार में कुछ मिलता है न मंदिर में कुछ मिलता है। आदमी की बड़ी फांसी है।
इधर मैं तुम्हें कोई बाहर का मंदिर बताने को नहीं हूं; बाहर के मंदिर काम नहीं पड़े। और इधर मैं तुम्हें बाहर का कोई शास्त्र भी बताने को नहीं हूं; बाहर के शास्त्र भी काम नहीं पड़े। यहां तो एक ही बात करने जैसी है: अपने भीतर खोदो। यहां तो एक ही बात सीखने जैसी है: अपने को सीखो। सब कूड़ा-कर्कट हटा कर अपने भीतर जाओ। अड़चन होगी, बाधा होगी, जन्म-जन्म के अभ्यास बीच में खड़े होंगे; लेकिन सब तोड़े जा सकते हैं, क्योंकि सब तुम्हारे प्रतिकूल हैं, स्वभाव के अनुकूल नहीं हैं। जो स्वभाव के अनुकूल है उसे पाना कठिन भला हो, असंभव नहीं है। तुमने अगर चाहा तो निश्चित ही तुम पहुंच जाओगे। क्योंकि तीर्थ दूर नहीं है; तीर्थ बिलकुल पास से भी पास है, तुम्हारे हृदय में बसा है।
"हृदय कमल में सुरति धरि, अजप जपै जो कोय।
विमल ज्ञान प्रगटै तहां, कलमख डारै खोय।।'
तीन बातें पुनः दोहरा दूं, ताकि तुम्हें याद रहें। एक: कछुआ बनना सीखो। बड़ा राज है कछुआ बनने में। चौबीस घंटे में कम से कम एक घंटा तो कछुआ बन ही जाओ। उस कछुआ बनने में ही तुम पाओगे कि परमात्मा का तुम में अवतरण होने लगा। वही परमात्मा के कछुआ-रूप अवतार का अर्थ है।
दूसरी बात: कछुआ बन कर सारी सुधि, सारी सुरति श्वास पर लगा दो। और जब धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता तुम्हें यह अनुभव में आने लगे कि तुम शरीर नहीं, तुम श्वास नहीं...। और खयाल रखना, इसे तुम दोहराना मत अपनी तरफ से कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं श्वास नहीं हूं; अन्यथा तुम झूठी प्रतीति कर लोगे। तुम प्रतीक्षा करना, होने देना इस घटना को। जल्दी कुछ है भी नहीं।
नहीं तो खतरा क्या है कि हम दोहराना सीख गए हैं, हम तोते हो गए हैं, हम दोहराते हैं। तुम बैठोगे कछुआ बन कर, श्वास पर थोड़ा सा ध्यान लगाया घड़ी आधा घड़ी और दोहराने लगे कि मैं देह नहीं, मैं श्वास नहीं। तुम झुठला लोगे सारी बात। तुम मत दोहराना। तुम तो बैठे रहना। तुम तो इसे होने देना, आने देना अनुभव में। एक दिन यह आएगी, उस दिन द्वार खुल जाएंगे। जिस दिन यह बात अनुभव में आ जाएगी--मैं शरीर नहीं, मैं श्वास नहीं--उस दिन सुधि को हृदय-कमल के शून्य में विराजमान कर लेना। उस दिन सोच लेना कि मैं एक कमल हूं; कमल के मध्य में सुधि को, अपने भान को, अपनी सुरति को भौंरा बना कर बिठा दिया। फिर वहां सब अपने-आप घट जाता है।
पिय को रूप अनूप लखि, कोटि भाग उंजियार।
दया सकल दुख मिटि गयो, प्रगट भयो सुखसार।।
बिन दामिन उंजियार अति, बिन घन परत फुहार।
मग भयो मनुवां तहां, दया निहार-निहार।।

आज इतना ही।



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