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गुरुवार, 29 मार्च 2018

जगत तरैया भोर की (दयाबाई)-प्रवचन-09

महामिलन का द्वार—महामृत्यु—नौवां प्रवचन

दिनांक १९ मार्च, १९७७; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:
किस बिधि रीझत हौ प्रभू, का कहि टेरूं नाथ।
लहर मेहर जब ही करो, तब ही होउं सनाथ।।
भवजल नदी भयावनी, किस बिधि उतरूं पार।
साहिब मेरी अरज है, सुनिए बारंबार।।
तुम ठाकुर त्रैलोकपति, ये ठग बस करि देहु।
दयादास आधीन की, यह बिनती सुनि लेहु।।
नहिं संजम नहिं साधना, नहिं तीरथ ब्रत दान।
माव भरोसे रहत है, ज्यों बालक नादान।।
लाख चूक सुत से परै, सो कछु तजि नहि देह।
पोष चुचुक ले गोद में, दिन दिन ढूनो नेह।।
चकई कल में होत है, भान-उदय आनंद।
दयादास के दृगन वें, पल न टरो ब्रजचंद।।
तुमहीं सूं टेका लेगो, जैसे चंद्र चकोर।
अब कासूं झंखा करौं, मोहन नंदकिसोर।।
तातें तेरे नाम की, महिमा अपरंपार।
जैसे किनका अनल को, सघन बनौ दे जार।।


कत्थई प्रात है जहां मैं हूं
सांवली रात है जहां मैं हूं
धूप के पांव डगमगाते हैं
सिर्फ बरसात है जहां मैं हूं
हर महकदार फूल कैदी है
मुक्त इस्पात है जहां मैं हूं
कीच है बेहिसाब काई है
पर न जलजाल है जहां मैं हूं
लोग खुलते हुए झिझकते हैं
प्यार अज्ञात है जहां मैं हूं
दर्पणों से नजर चुराते सब
झूठ हर बात है जहां मैं हूं
सिलवटी ओंठ तक नहीं आता
गीत अभिजात है जहां मैं हूं।
ऐसी मनुष्य की दशा है। वहां झूठ सच है। वहां व्यर्थ सार्थक है। और जहां कमल खिलने थे वहां कीचड़ और काई के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। ऐसी मनुष्य की दशा है। वहां अंधेरे में रहते-रहते हमने अंधेरे को ही उजियाला मान लिया है। आखिर जीने के लिए आदमी को सांत्वना भी तो चाहिए। अंधेरे को अंधेरा मानो तो बेचैनी होती है। अंधेरे को उजेला मान लो, अंधेरा उजेला तो नहीं बनता तुम्हारे मानने से, लेकिन मन को चैन आ जाता है।
आदमी ने बड़े झूठ गढ़े हैं। अधिकतर आदमी झूठ के सहारे जीता है। सच कठिन है। सच की खोज कठिन है। सच का रास्ता बहुत कंटकाकीर्ण है। इसलिए नहीं कि सच कठिन होना चाहिए, बल्कि इसलिए कि हम झूठ के बहुत अभ्यस्त हो गए हैं। जिस आदमी ने जन्मों-जन्मों तक कीचड़ को ही सब कुछ जाना हो, उसके लिए यह बात भी सोचनी असंभव मालूम होती है कि कीचड़ से कमल पैदा हो सकता है। और जो रात में ही जीया हो और आंखें अंधेरे की आदी हो गई हों, अगर रोशनी आज आ भी जाए तो आंखें खुल न पाएंगी, तिलमिला जाएंगी। अब तो रोशनी कष्टपूर्ण मालूम पड़ेगी।
इसलिए तो हम सुनते हैं बहुत बात परमात्मा को खोजने की, मगर खोजते नहीं। सुनते हैं बहुत बात भीतर जाने की, मगर जाते नहीं। चिल्लाते रहते हैं बुद्धपुरुष जागो, हम जागते नहीं। और वहां भी हम एक झूठ का खेल खेलते हैं। हम कहते हैं: "जागेंगे, जरूर जागेंगे! जागना है, मगर अभी कैसे! आज कैसे!' वहां भी हमने झूठ के बड़े फलसफे खड़े कर लिए हैं। हम कहते हैं: "जन्मों-जन्मों के कर्मों का जाल है, काटेंगे। समय लगेगा। साधना करनी होगी, संयम साधना होगा। व्रत-नियम, तीर्थ, उपवास करने होंगे। पुण्य करेंगे तो पाप कटेगा। तब कहीं घटना घटेगी।'
ये सब मनुष्य की तरकीबें हैं न बदलने की। यदि तुम बदलना चाहो तो प्रभु का प्रसाद अभी उपलब्ध है इसी क्षण।
प्रकाश की किरण अंधेरे में प्रवेश जब करती है तो अंधेरा किसी तरह की बाधा डाल पाता है? कि अंधेरा कहता है कि "हजारों साल पुराना हूं, लाखों साल पुराना हूं, ऐसे कैसे कट जाऊंगा कि तू आ गई किरण और बस कट गया मैं? मैं कोई नया अंधेरा नहीं हूं, कोई बच्चा नहीं हूं, बूढ़ा हूं, अति प्राचीन हूं, पुरातन हूं! आएगी, टकराएगी किरण, जन्म-जन्म लगेंगे, तब कहीं काट पाएगी।' नहीं, अंधेरा ऐसा कुछ भी नहीं कहता और न अंधेरा ऐसा कर सकता है। अंधेरे का बल क्या है?
भक्त की यही कला है। भक्त का यही सारसूत्र है कि मैं तो अंधेरा हूं, भूलें की होंगी, जरूर की होंगी, अंधेरे में टकराया होऊंगा, लेकिन मैं अंधेरा हूं--यह मेरी अस्मिता, अहंकार है। तेरी किरण अगर उतरे तो अभी कट जाए। तेरे प्रसाद से अभी हो जाए।
इसलिए भक्ति की आकांक्षा अपने कर्मों को बदलने की नहीं है, प्रभु की कृपा को पुकारने की है।
आज के सूत्र उसी प्रभु-प्रसाद को बुलाने के सूत्र हैं। अनूठे सूत्र हैं। मगर यह बात पहले ही खयाल में ले लेना कि भक्त का मौलिक आधार प्रसाद है, प्रयास नहीं। प्रयास आदमी का; प्रसाद परमात्मा का। प्रयास वह जो तुम्हारे किए से होगा और प्रसाद वह जो तुम्हारे प्रतीक्षा करने से होगा, किए से नहीं होगा। प्रयास वह जो तुम करते हो, सफल-असफल होते हो; प्रसाद वह, जिसमें तुम होते ही नहीं, परमात्मा ही होता है। असफलता का कोई उपाय ही नहीं है।
या ऐसा समझो। मेरे देखे, प्रयास है तुम्हारा संसार। यह मनुष्य का प्रयास है। मकान बनाया, दुकान बनाई, पद-प्रतिष्ठा बनाई--यह सब तुम्हारा प्रयास है। यह तुम्हारी चेष्टा है। यह तुम्हारे बिना किए नहीं होने वाला था; यह तुमने किया तो हुआ है।
संसार है मनुष्य का प्रयास, क्योंकि संसार है मनुष्य के अहंकार का फैलाव। फिर धर्म? धर्म मनुष्य का प्रयास नहीं। धर्म है अपने प्रयास से थक जाना, ऊब जाना, परेशान हो जाना। सफल हो कर भी क्या खाक सफलता मिलती है! मकान बन भी गया तो सराय ही तो बनती है! मकान बन भी गया तो भी मकान कहां मिलता है? रात भर का पड़ाव है, सुबह हुई, चल पड़े! यहां सफलता भी तो असफलता ही सिद्ध होती है। यहां धन भी तो और निर्धन कर जाता है। यहां यश, नाम, पद कहां भीतर के हृदय को भरता है, कहां गदगद करता है? यहां सब धोखा है।
मनुष्य प्रयास से जो करता है वही माया है। और जो मनुष्य के प्रयास से नहीं होता वही परमात्मा है। तो भक्त की यह मौलिक धारणा है: पुकारने से होगा; अभीप्सा से होगा; प्रार्थना से होगा; अर्चना से होगा। और प्रार्थना और अर्चना को तुम प्रयास मत समझ लेना। लोगों ने उसे भी प्रया बना लिया है। वे कहते हैं, प्रार्थना कर रहे हैं। बात गलत। प्रार्थना कोई कैसे करेगा? प्रार्थना में हो सकते हो, लेकिन कर नहीं सकते। की तो चूक गए। की तो तुम आ गए। हुई तो बात कुछ और हो गई।
इसलिए प्रार्थना का न तो कोई औपचारिक नियम है, न औपचारिक शब्द है। प्रार्थना अनौपचारिक है। किसी भाव-दशा में हो जाती है। कभी आंसुओं से हो जाती है; शब्द आते ही नहीं। कभी नृत्य से हो जाती है; आंसू उतरते ही नहीं। कभी मुस्कराहट से हो जाती है। कभी गीत की गुनगुनाहट से हो जाती है। और यह भी कोई बंधी लकीर नहीं है कि वही गीत रोज-रोज गुनगुनाना है। जो तुमने रोज-रोज गुनगुनाया, झूठा हो गया। जो उभरे, आए, अपने से सहज उठे...। बैठ गए घड़ी भर को, जो हुआ होने दिया। कभी रोए कभी गाए, कभी हंसे कभी नाचे, कभी कुछ न किया, शांत ही बैठे रहे। वही तो दया कहती है: कभी भक्त हंसता, कभी रोता, कभी गाता--कैसी अटपटी बात! कभी उठता कभी बैठता, कभी गिरता, गिर-गिर पड़ता--कैसी अटपटी बात!
कहते हैं, जब मोजिज को सिनाई के पर्वत पर परमात्मा का दर्शन हुआ तो वे सात बार गिरे। दर्शन इतना विराट था, ऐसी अपूर्व घटना थी कि आदमी कंप न जाए तो क्या हो! कि जड़ें हिल न जाएं तो क्या हो! वे सात बार गिरे, गिरे और उठे, सात बार गिरे, आठवीं बार उठ कर कहीं खड़े हो पाए, तब भी पैर कंप रहे थे।
परमात्मा इतनी बड़ी घटना है कि तुम पगला ही जाओगे। पैर कहीं के कहीं तुम्हारे पड़ने लगेंगे। तुम शराबी जैसे हो जाओगे। और यह शराब ऐसी नहीं कि एक बार चढ़ जाए तो उतर जाए। अंगूरों से ढाली शराब तो झूठी शराब है, क्योंकि चढ़ती है और उतर जाती है। जो रंग चढ़े और उतर जाए, उसको हम कच्चा रंग कहते हैं न! जो रंग चढ़े और चढ़ा ही रह जाए, फिर कभी न उतरे, उसी को तो पक्का रंग कहते हैं न! परमात्मा पक्की शराब है। अंगूरों से ढाल कर तो हमने धोखा पैदा किया है।
और तुम जान कर चकित होओगे, जिस आदमी ने शराब खोजी वह एक संत पुरुष था। दायोनीसस उसका नाम था। यूनानी था। उसने शराब खोजी। अब यह बड़ी अजीब बात है कि एक संत ने शराब खोजी। अब भी दायोनीसस के नाम पर चलने वाली जो मोनेस्ट्री है यूनान में, वहां अब भी शराब ढाली जाती है। पश्चिम के विचारक इस तथ्य को बीच-बीच में नहीं लाते, क्योंकि बात ही अजीब लगती है कि कोई संत और शराब खोजे। लेकिन मुझे बात जंचती है कि संत ही शराब खोज सकता है। जिसने असली जानी हो वही तो नकली बना सकता है। नकली बनाने के लिए असली को तो जानना जरूरी है न! तुम नकली नोट छापोगे लेकिन असली भी होना चाहिए, तभी; नहीं तो नकली का नक्शा कहां से खोजोगे? मुझे तो यह बात जंचती है। संत ने ही खोजी होगी। जिसने असली देख ली होगी, आदमियों पर दया करके सोचा होगा, ये बेचारे असली तक तो पहुंच न सकेंगे; इनके लिए नकली खोजी होगी। मुझे इसमें अड़चन नहीं मालूम होती। मुझे यह बात बड़ी तर्कपूर्ण मालूम होती है।
संत ही खोज सकते हैं शराब। जिन्होंने उसका स्वाद चखा, उन्होंने सोचा होगा कि आदमी को कुछ स्वाद लग जाए, कहीं से स्वाद लग जाए। चलो आज झूठे के चक्कर में पड़ेगा, चक्कर में तो पड़ा, कल सच को खोजने लगेगा। शराब पर कब तक रुका रहेगा? एक दिन तो सोचेगा कि कोई ऐसी शराब खोज लूं जो कभी न उतरे, चढ़े और चढ़ी ही रहे। उसी दिन परमात्मा की यात्रा शुरू हो जाएगी।
बिना परमात्मा की शराब खोजे जीवन में आनंद संभव नहीं है।
कसमसाहट है अंधेरे में कहीं
रात भी सोई नहीं मेरी तरह
बेसहारा इस कदर इतना दुखी
विश्व में कोई नहीं मेरी तरह
आज तक शायद किसी भी व्यक्ति ने
जिंदगी खोई नहीं मेरी तरह
आज तक शायद किसी ने अश्रु ने
हर खुशी धोई नहीं मेरी तरह।
लेकिन ऐसी ही दशा सबकी है। तुम्हें भी लगा होगा न कभी कि मुझ जैसा दुखी कौन! मुझ जैसा पीड़ित-परेशान कौन! ऐसा नहीं है कि तुम्हीं पीड़ित हो; सभी ऐसे ही पीड़ित हैं। और सभी को ऐसा लगता है कि मुझ जैसा दुखी कौन! लेकिन दूसरे का दुख तो हमें दिखाई नहीं पड़ता; उसके दुख के घाव तो उसके अंतरतम में छिपे हैं। हमें तो दूसरे की ऊपर की सजावट दिखाई पड़ती है; भीतर के घाव तो दिखाई नहीं पड़ते; भीतर के नासूर दिखाई नहीं पड़ते। अपने भीतर के नासूर दिखाई पड़ते हैं।
लोग हंस रहे हैं और हंसी का उनके पास कुछ कारण नहीं। लोग मुस्कराते भी हैं। क्या करें? अगर न मुस्कराएं तो क्या रोते ही रहें? तो किसी तरह मुस्कुराहट को भी अपने ऊपर थोप लेते हैं।
रूस का एक बहुत बड़ा विचारक मैक्सिस गोर्की अमरीका गया १९२० के करीब। अमरीका में उसे जगह-जगह, जो-जो अमरीका ने मनोरंजन के साधन खोजे हैं, वे दिखाई गए। अमरीका ने मनोरंजन के जितने साधन खोजे हैं, दुनिया में किसी ने नहीं खोजे। जो दिखाने वाला था वह सोचता था कि गोर्की बहुत प्रभावित होगा और गोर्की प्रभावित लगता था। सारे साधन देखने के बाद बाहर आ कर वह आदमी उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगा, कुछ कहेगा गोर्की। लेकिन गोर्की की आंखों में एक आंसू आ गया। तो उसने पूछा, मामला क्या है, आप इतने उदास क्यों हैं? गोर्की ने कहा कि जिन लोगों को जीने के लिए इतने मनोरंजन के साधनों की जरूरत है वे जरूर दुखी होंगे। दुखी होने ही चाहिए। दुखी आदमी ही सिनेमा जा रहा है और दुखी आदमी ही शराब-घर जा रहा है और दुखी आदमी ही सर्कस देख रहा है और दुखी आदमी ही क्रिकेट का मैच देख रहा है। ये सब दुखी आदमी हैं। दुखी आदमी को अपने को उलझाने के लिए कोई व्यवस्था चाहिए उस व्यवस्था को वह मनोरंजन कहता है। मन उचटा-उचटा है, भागा-भागा है--कहीं तो लग जाए, किसी भी तरह लग जाए! दुखी आदमी हजार ईजादें कर रहा है कि किसी तरह थोड़ी देर हंस ले।
सुखी आदमी अपने में डूबा होता है। मनोरंजन की जरूरत उन्हें होती है जो दुखी हैं। जो सुखी है उसका तो मन ही खो जाता है, मनोरंजन की तो बात छोड़ो। मन ही नहीं बचता, मनोरंजन किसका? जो सुखी है वह तो ऐसा लीन होता है ऐसा तल्लीन होता है, ऐसा मस्त होता है अपने होने में, अपना होना इतना पर्याप्त है कि कुछ और चाहिए नहीं। ऐसी परम तृप्ति और परितोष है।
परमात्मा की खोज का इतना ही अर्थ है: कुछ ऐसा हो जाए कि मुझे सुख खोजने मुझसे बाहर न जाना पड़े। परमात्मा शब्द का इतना ही अर्थ है कि कुछ ऐसा हो जाए कि मुझे मेरे सुख के लिए मुझसे बाहर न जाना पड़े; मेरा सुख मेरे भीतर मुझे मिल जाए; सूख का स्रोत झरना मेरे भीतर फूट उठे।
और जिस क्षण ऐसी घड़ी घट जाती है उस क्षण बूंद सागर हो जाती है; उस क्षण सारी सीमाएं विसर्जित हो जाती हैं। उस दिन न तुम देह हो न तुम मन हो; उस दिन तुम स्वयं परमात्मा हो। जिस दिन भगवान भक्त में उतरता है, भक्त भगवान हो जाता है।
और भक्त की आधारभूत शिला को सदा याद रखना कि भक्त यह नहीं कहता कि मैंने ऐसा किया, व्रत किया, नियम किया, उपवास किया, इसलिए तुम मुझे मिलो। नहीं, भक्त की यह बात ही नहीं है। यह तो बात ही दुकानदारी की हो गई कि मैंने ऐसा किया इसलिए तुम मुझे मिलो। यह तो दावा न हुआ प्रेम का; यह तो सौदे का दावा हो गया। यह तो ऐसा हुआ कि अगर न मिले तो अदालत में मुकदमा चलाऊंगा, कि मैं इतने दिन से उपवास कर रहा हूं और अभी तक फल नहीं मिल रहा।
जिसको तुम तपस्वी कहते हो वह अपने बल से भगवान को पाने में लगा है। उसका बल भी अहंकार की ही घोषणा है। इसलिए तुम्हारे तथाकथित योगी, महात्मा, साधु, उनके चेहरे पर तुम बड़ी अहंकार की दीप्ति पाओगे, दर्प पाओगे; अहंकार का दीया जल रहा है।
भक्त विनम्र है। वह कहता है, मेरे किए तो कुछ होता नहीं; होता है तो उसके किए होता है। तो गर्व कहां, गौरव कहां? भक्त तो कहता है कि मेरा कोई दावा नहीं है कि मैं योग्य हूं कि मैं पात्र हूं। भक्त तो इतना कहता है कि मुझे मेरी अपात्रता पता है। भक्त तो रोज अपनी अपात्रता उसके सामने खोल कर रख देता है और कहता है; "ऐसा अपात्र हूं, फिर भी तुम उतरो। क्योंकि तुमने अगर पात्रता मांगी मुझमें तो मेरे बस के बाहर है। और पात्रता मांगी तो फिर प्रसाद क्या? मैं जैसा हूं, यह हूं; बुरा-भला जैसा हूं, यह हूं। मुझे स्वीकार करो, मुझे अंगीकार करो।'
भक्त की प्रार्थना विनम्रता से उठती है। अहंकार बलपूर्वक कहता है कि मैंने इतना किया, ऐसा किया। भक्त कहता है, मेरा बल एक ही है कि तुमने मुझे बनाया और मेरा बल एक ही है कि तुम मुझे भूल न गए होओगे, मैं चाहे कितना ही तुम्हें भूल जाऊं; मेरा बल एक ही है कि तुम मेरे मूल उत्स हो, तुमसे मैं आया हूं; तो मेरा बल इतना ही है कि मैं तुम्हें पुकार सकता हूं, क्योंकि तुमने ही मुझे बनाया; बुरा-भला जैसा बनाया, तुमने बनाया। इस भक्त की धारणा को समझोगे तो दया के ये पद बड़े अनूठे हैं।
तुम हो तो जग से सौ नाते हैं
तुम न हुए, संसार मुझे क्या?
भक्त कहता है--
तुम हो तो जग से सौ नाते हैं
तुम न हुए, संसार मुझे क्या?
सौ आंधीत्तूफान घिरे हों
नैया डगमग बिना सहारे
विश्वासों के बल पर खे कर
ले भी आऊं अगर किनारे
तुम ही जब हो नहीं नाव में
पाऊं कूल-कगार मुझे क्या?
भक्त कहता है, अगर मोक्ष भी मिल जाए और तुम वहां न होओ तो क्या करूंगा पा कर? दूसरा किनारा भी खोज लूं और तुम ही वहां न मिलो तो क्या फायदा? यह नाव को खेता रहूं और तुम्हें नाव में न पाऊं तो खेऊं भी किसलिए, प्रयोजन भी क्या?
तुम ही जब हो नहीं नाव में
पाऊं कूल-कगार, मुझे क्या?
तुम ही मेरे सूरज-चंदा
शाम-सुबह तुम ही ध्रुवत्तारा
तुम न हुए तो कौन हरेगा
मेरे जीवन का अंधियारा?
तुम हो तो सब उजला-उजला
तुम न हुए, उजियार मुझे क्या?
तो भक्त न तो प्रतीक्षा करता है कि कुंडलिनी जग जाए, न भक्त प्रतीक्षा करता है कि सहस्रार खुल जाए, न भक्त प्रतीक्षा करता है कि भीतर उजियारा हो जाए। भक्त कहता है, तुम आओ; तुम्हारे पीछे जो हो जाए ठीक है। तुम्हारे अतिरिक्त मेरी कोई और आकांक्षा नहीं है। तुम्हारे साथ अगर अंधेरे में भी रहना हो तो भला। बिना अगर उजेले में भी रहना हो तो भजा नहीं।
तुमसे ही मधुमास खिला है
तुमसे उजली हुई चांदनी
तुम हो तो सौंदर्य जी रहा
तुम मुखरित, बज रही रागिनी
तुम ही सजे, सज गई धरा यह
तुम न सजे, शृंगार मुझे क्या?
मन का लोहा कंचन, जब से
पाया पारस-परस तुम्हारा
द्वार तुम्हारे ठोकर खा कर
पाप पुण्य हो गया हमारा
द्वार तुम्हारे ठोकर खा कर
पाप पुण्य हो गया हमारा
मुझको तीरथ द्वार तुम्हारा
काशी और हरिद्वार मुझे क्या?
भक्त कहता है, पाप-पुण्य को बदलने के झंझट न तो मेरी सीमा में हैं, न मैं कर पाऊंगा; मैं तो तुम्हारे द्वार पर अपना सिर पटक देता हूं।
मन का लोहा कंचन, जब से
पाया पारस-परस तुम्हारा।
भक्त भगवान को कहता है: "पारस! तुम छू लो तो मैं स्वर्ण हो जाऊं। अपने किए मैं स्वर्ण न हो सकूंगा। अपने किए ही किए ही तो मैं भटका हूं। अपने ही कर्म से तो भटका हूं। अपने ही कर्तापन से भटका हूं।
द्वार तुम्हारे ठोकर खा कर
पाप पुण्य हो गया हमारा
मुझको तीरथ द्वार तुम्हारा
काशी और हरिद्वार मुझे क्या?
ऋद्धि-सिद्धियां तुम ही तो हो
तुमसे ही सब शकुन सुमंगल
तुम यदि बसो, बसे सुरनगरी
कल्पवृक्ष की छाया पलपल
एक नहीं जब तुम्हीं साथ में
मिले स्वर्ग-अधिकार, मुझे क्या?
भक्त की आकांक्षा न स्वर्ग की है न मोक्ष की, न बैकुंठ की, न आनंद की, न अमृत की, न सत्य की। भक्त की आकांक्षा है उस परम प्रिय को अपने हृदय में विराजमान कर लेने की। और भक्त होशियारी की बात करता है। क्योंकि उसके साथ ही सब आ जाता है।
जीसस का बड़ा प्रसिद्ध वचन है: "सीक ई फर्स्ट दि किंगडम ऑफ गॉड, एंड आल एल्स शैल बी एडिड अन्टू यू।' पहले तुम प्रभु को खोज लो और शेष सब उसके पीछे अपने-आप चला आएगा। और शेष सबको खोजने में लगे रहे तो वह तो मिलेगा ही नहीं, प्रभु को भी चूक जाओगे।
भक्त अपनी नासमझी में बड़ा समझदार है और तथाकथित ज्ञानी और पंडित और पुरोहित और योगी और महात्मा अपनी समझदारी में बड़े नासमझ हैं। क्षुद्र को खोजते हैं, व्यर्थ को खोजते हैं। भक्त मूल को खोज लेता है। वह सम्राट को ही अपने घर बुला लाता है तो वजीर इत्यादि नौकर-चाकर सब चले आते हैं। वह एक-एक को निमंत्रण नहीं देता फिरता कि वजीर हैं, बड़े वजीर हैं, नौकर-चाकर हैं, द्वारपाल हैं, सेनापति हैं, इन सबकी वह फिक्र नहीं करता; वह सीधा भगवान को ही बुलाता है। वह मौलिक आधार को खींच लेता है, शेष सब अपने से चला आता है। इसलिए मैं कहता हूं, भक्त की नासमझी में भी बड़ी समझदारी है।
सुनो दया के वचन--
"किस बिधि रीझत हौ प्रभु, का कहिं टेरूं नाथ।
लहर मेहर जब ही करो, तब ही होउं सनाथ।।'
"किस बिधि रीझत हौ प्रभु'...। भक्त कहता है कि तुम्हें रिझाना चाहता हूं; तुम कैसे रीझते हो, इसकी कला भी तुम ही बता दो, क्योंकि मुझे तो कुछ पता नहीं। तुम्हीं कह दो कैसे तुम्हें पुकारूं, क्या है तुम्हारा नाम, क्या तुम्हारा पता-ठिकाना? क्योंकि मैं तो तुम्हारा पता-ठिकाना भी खोजूंगा तो गलत ही हो जाएगा। मुझसे गलत ही होता है। मुझसे जो होता है गलत ही होता है। मैं तो तुम्हें रिझाने की भी चेष्टा करूंगा तो तुम्हें नाराज कर दूंगा। मुझसे ठीक तो होता ही नहीं। मैं गलत का अभ्यासी हूं। मैं गलत में निपुण और कुशल हूं। मैंने जन्मों-जन्मों तक व्यर्थ को और गलत को ही सम्हाला, सजाया है। मैं तुम्हें कैसे सजाऊं? मैं तुम्हें कैसे पुकारूं?
वह कहता है, तुम ही मुझे बता दो कैसे तुम रीझोगे? यह प्यारी बात सुनते हैं?
"किस बिधि रीझत हौ प्रभू, का कही टेरूं नाथ'
और मुझे तो तुम्हारा पता-ठिकाना और नाम भी नहीं मालूम। और जो नाम मालूम हैं, वे सब पांडित्य के हैं, शब्दों के हैं, शास्त्रों के हैं। तुम अपना असली पता मुझे दे दो, ताकि मैं तुम्हें पुकारूं।
"लहर मेहर जब ही करो, तब ही होउं सनाथ'
और जब तुम्हारी मेहरबानी हो..."लहर मेहर जब ही करो'...जब तुम्हारी मेहरबानी की लहर मेरी तरफ आए कि तुम मुझे डुबा लो अपनी लहर में मेहरबानी की, तुम्हारी कृपा हो, अनुकंपा हो..."तब ही होउं सनाथ'। नहीं तो मैं अनाथ हूं। एक भटका हुआ यात्री, जिसे मंजिल की कोई खबर नहीं है, जिसे राहों का कुछ पता नहीं है और जिसे गलत का बड़ा प्राचीन अभ्यास है।
इस बात पर खयाल करो, ध्यान करो। तुमने अब तक जो किया है गलत ही तो हुआ है। समझो। तुमने धन इकट्ठा किया तो गलत हुआ। अब अगर तुम धन का त्याग भी करोगे तो भी गलत होगा। क्योंकि तुम ही गलत हो, तुम्हारे छूते ही चीजें गलत हो जाती हैं। जैसे पारस के छूते ही लोहा सोना हो जाता है, तुम्हारे छूते ही सोना लोहा हो जाता है। तुम जहां छू देते हो वहीं मिट्टी हो जाती है। तुमने अब तक धन इकट्ठा किया, जिस कारण से किया था, अहंकार कि मैं दिखा दूं दुनिया को कि मैं कौन हूं, कितना धनी हूं, अब धन की व्यर्थता सिद्ध हो गई, इकट्ठा करके पता चला कुछ सार नहीं, अब तुम फिर दिखाना चाहते हो दुनिया को। रोग पुराना ही रहा। अब तुम कहते हो, अब मैं त्याग करके दिखा दूं दुनिया को कि मैं कौन हूं। तो धन तुम छोड़ भी दे सकते हो, त्याग कर दे सकते हो, नग्न खड़े हो सकते हो रास्तों पर, लेकिन पुराना रोग कायम है। रोग का नाम बदला, रोग नहीं बदला। रोग की शक्ल बदली, रोग नहीं बदला। और दूसरा रोग पहले से भी ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि दूसरा रोग पहले से ज्यादा सूक्ष्म है।
इसलिए धनी आदमी का रोग तो सभी को दिखाई पड़ जाता है, अंधों को भी दिखाई पड़ जाता है कि पागल है; लेकिन त्यागी का रोग बड़ी गहरी आंख वालों को दिखाई पड़ता है, नहीं तो दिखाई ही नहीं पड़ता। वही का वही पागलपन नई दिशा में लग जाता है।
तुमने अब तक जो भी किया है...अब तक कामवासना में तुम दीवाने थे, अब तुमने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया और सब तरफ से अपने को दबा कर बैठ गए, कुछ फर्क न होगा। समझ तुम्हारी जैसी है उस समझ से तुम जो भी करोगे, चूक ही हो जाएगी।
मैंने सुना है, एक रात मुल्ला नसरुद्दीन और उसका एक पियक्कड़ साथी मधुशाला से धुत् नशे में बाहर निकले। आधी रात, रास्ते सुनसान! लेकिन एक चौराहे पर दोनों ठिठक कर खड़े हो गए। मुल्ला के साथी ने कहा, "यार, कैसी सुंदर स्त्री!' और ट्रेफिक-लाइट की तरफ इशारा किया। मुल्ला ने भी गौर से देखा और कहा, "चीज है चीज! पहुंची हुई चीज! स्त्री नहीं, अप्सरा है! और चेहरे पर तो देखो कैसा प्रकाश, कैसी आभा है! मैं आश्चर्यचकित हूं कि यह सुंदरी पूना में अब तक छिपी कहां रही! ठहरो, तुम यहीं रुको। मैं जाता हूं और उस पर डोरे डालता हूं।' और फिर दस मिनट तक उस सुंदरी से जा कर तरहत्तरह की बातें करता रहा। फिर लौटा तो दूसरे पियक्कड़ ने पूछा, "कैसी रही? कुछ प्रगति हुई?' मुल्ला ने कहा, "बुरी नहीं। बस और तो सब ठीक है, सुंदरी तो अदभुत है, पर गूंगी मालूम होती है। बोलती एक भी शब्द नहीं। मगर चिंता की कोई बात नहीं, राजी है, क्योंकि आंखें मिचमिचाती है।'
अब...आदमी पीए हो, होश में न हो तो जो भी अर्थ निकालेगा वे उसकी बेहोशी से निकलेंगे। वह जो व्याख्याएं करेगा, वे व्याख्याएं भी उसकी बेहोशी से आएंगी। तुम अगर बेहोश हो तो चाहे तुम घर बसाओ और चाहे जंगलों में भाग जाओ, कुछ भेद न पड़ेगा। बेहोशी कहीं इतनी आसानी से टूटती है?
इसलिए भक्त कहता है, मेरे वश में कहां! मैं अवश हूं।
"किस बिधि रीझत हौ प्रभू, का कहि टेरूं नाथ।
लहर मेहर जब ही करो, तब ही होउं सनाथ।।'
मेरे किए कुछ भी न होगा, मेरे किए तो मैं अनाथ हूं और अनाथ रहूंगा, अब तुम कुछ करो।
तो भक्त सिर्फ निवेदन करता है, समर्पण करता है। अपने अहंकार को परमात्मा के चरणों में रख देता है। बड़ी हिम्मत की जरूरत है। बड़ी हिम्मत की! क्योंकि आदमी का मन यह कहता है कि कुछ करता तो शायद हो जाता; कुछ ऐसा करना कुछ वैसा करता, गणित बदलता, विधि बदलता तो शायद कुछ हो जाता। फर्क खयाल में लेना। तुम्हारी विधि और गणित तो तुम बदल लोगे, लेकिन तुम स्वयं को कैसे बदलोगे? तुम ही बदलने वाले हो और तुम्हीं बदले जाने वाले, तुम स्वयं को कैसे बदलोगे? यह तो ऐसे ही हुआ कि जैसे कोई आदमी अपने जूते के फीतों को पकड़ कर अपने का ऊपर उठाए।
भक्त की बात में बड़ा जोर है। भक्त यह कहता है कि तुम उठाओगे तो उठूंगा। "लहर मेहर जब ही करो'...। यह तो मैं अपने को अगर जूते के बंद पकड़ कर उठाने की कोशिश करता रहा तो कुछ भी न होगा। मैं ही उठाने वाला हूं, मैं ही उठाया जाने वाला हूं। यह बात चलेगी नहीं। यह बात हो नहीं सकती। तुम उठा लो।
और भक्तों का सदियों का अनुभव यह है कि परमात्मा उठा लेता है अगर तुमने पूरा-पूरा छोड़ दिया। पर "पूरा-पूरा'--वही शर्त है। अगर तुमने रत्ती भर भी बचा कर रखा कि ठीक है, उठा ले तो ठीक, न उठाए तो फिर हम अपने जूते के बंद पकड़ कर उठाएंगे। अब अगर नहीं उठाया तो यह थोड़े ही है कि बैठे ही रहेंगे। उठेंगे तो ही। तो ऐसा आंख के कोने से देख रहे हैं कि अभी तक उठाया है कि नहीं, फिर उठें खुद ही उठें। अब खुद ही को सनाथ करें। अब तक तुमने नहीं किया तो अब खुद ही को कर लें।
अगर ऐसी जरा सी भी वासना बनी रही तो परमात्मा से संबंध नहीं होता। अगर तुम परमात्मा को चूकते हो तो परमात्मा के कारण नहीं, अपने बेईमान हृदय के कारण। तुम्हारे भीतर कहीं छिपे तल पर बात बनी ही रहती है कि अगर नहीं हुआ तो हम तो हैं। तुमने अपने पर भरोसा नहीं खोया है--और भक्ति का अर्थ ही है कि अपने पर पूरा भरोसा खो जाए, तो भगवान पर भरोसा आता है। तुम्हें अपने पर भरोसा है। जन्म-जन्म के दुख पा कर भी तुम भरोसे से नहीं अभी तक खाली हुए।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, आत्मविश्वास की कमी है, इसलिए भक्ति नहीं हो पाती। आत्मविश्वास की कमी से भक्ति नहीं हो पाती! मैं उनसे कहता हूं, आत्मविश्वास की कमी से ही भक्ति होती है। आत्मविश्वास का मतलब ही यह है कि मैं काफी हूं, तुम्हारी कोई जरूरत नहीं। अगर तुम्हें सच में ही पता चल गया है कि आत्मविश्वास की कमी है तो तुम तो अदभुत द्वार पर आ गए खोल लो द्वार। अब तुम बिलकुल गिर ही जाओ। तुम कहो कि मेरे में ही है नहीं कोई विश्वास, मुझमें अपने पर कोई भरोसा नहीं है। मैंने बहुत उठा कर देख लिया, हर बार हारा, कितनी बार हारा, हार पर हार, हार पर हार! कैसा विश्वास? जहां गए वहां दीवार पाई, दरवाजा मिला नहीं अब तक--अब कैसा विश्वास!
तुम इस बात पर खयाल करना। तपस्वी आत्मविश्वास के सहारे चलता है, योगी आत्मविश्वास के सहारे चलता है, ज्ञानी आत्मविश्वास के सहारे चलता है। उसका मार्ग संकल्प का है। भक्त समर्पण करता है। वह कहता है, मैं ही नहीं हूं तो मुझ पर विश्वास क्या? मैं तो एक खाली शून्य हूं। तेरा आंकड़ा मेरे सामने आ जाए तो मुझमें मूल्य आ जाए, तेरे बिना तो मेरा कोई मूल्य नहीं है।
"लहर मेहर जब ही करो, तब ही होउं सनाथ'
तेरे बिना तो एक शून्य मात्र हूं जिसका कोई मूल्य नहीं है। एक पर रख दो शून्य तो दस हो जाता है। दस पर रख दो शून्य तो सौ हो जाता है, सौ पर रख दो हजार हो जाता है। देखते हो, एक पर रख दिया शून्य या शून्य पर रख दिया एक, तो शून्य की कितनी कीमत हो जाती है--नौ के बराबर! एक एक है; शून्य के साथ जुड़ते ही दस हो गया। तो शून्य की कीमत नौ हो गई। एक के जुड़ते ही शून्य में नौ की कीमत आ गई। तो परमात्मा अगर तुम्हारे शून्य से जुड़ जाए तो तुम बेशकीमती हो गए, तुम बहुमूल्य हो गए। तुम्हारा मूल्य ऐसा हो गया कि फिर कोई हिसाब लगाने की सुविधा न रही। सब खाते-बही छोटे पड़ जाएंगे, फिर तुम्हारा आंकड़ा नहीं लिखा जा सकता। परमात्मा के साथ जो जुड़ गया, अपने शून्य को जिसने परमात्मा के पीछे लगा दिया, बस बात खतम हो गई। अब तुम्हारा मूल्य ही मूल्य है। अब तुम पारस के संपर्क में आ गए।
"भवजल नदी भयावनी किस बिधि उतरूं पार।
साहिब मेरी अरज है, सुनिए बारंबार।।'
भक्त कहता है, अर्ज कर सकता हूं, अर्जी दे सकता हूं, रो सकता हूं, पुकार सकता हूं, ये आंसू हैं मेरे पास! मेरी आंखों में कोई दृष्टि तो नहीं, बस आंखों में आंसू हैं। ये आंसू तुम्हारे पैरों पर चढ़ा देता हूं। तुम्हारे पैरों को आंसुओं से धो देता हूं।
"भवजल नदी भयावनी...' यह संसार बड़ा भयावना है, क्योंकि सिवाय चूकने के और यहां कुछ हुआ ही नहीं, चूकते ही चले गए, रपटते ही चले गए, गिरते ही चले गए। उठना यहां कभी हो नहीं पाया। चोट पर चोट, दुख पर दुख पाए, फिर भी सपने पीछा नहीं छोड़ते।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने मनोचिकिस्तक से कहा: डाक्टर साहिब, मैं रोज रात बस एक ही सपना देखता हूं--मछलियां पकड़ने का सपना। छोटी मछलियां, बड़ी मछलियां, रंग-रंग, ढंग-ढंग की मछलियां, पर सदा मछलियां और सदा मछलियां। रात भर और हर रात। इससे थोड़ी चिंता होती है।
डाक्टर ने कहा: बात तो चिंता की ही है। नसरुद्दीन, लेकिन मामला यह है कि तुम दिन भर जागते समय भी मछलियों के संबंध में ही सोचते हो। जो तुम दिन भर सोचते हो वही रात भर तुम्हारे सपनों में तैरता है। एक काम करो, सोने के पहले सुंदर स्त्रियों के संबंध में सोचो, क्या खाक मछलियों के पीछे पड़े हो! सुंदर स्त्रियों की कल्पना में डूबे-डूबे ही सो जाओ। इससे स्वप्न निश्चित बदल जाएंगे। और बहुत संभव है कि मछलियों की जगह सुंदर अप्सराओं के सपने देखने लगो।
इतना सुनते ही मुल्ला नाराजगी में उठ खड़ा हुआ और चीख कर बोला: क्या? और मछलियों से हाथ धो बैठूं?
सपने की मछलियां हैं, मगर उनको छोड़ने में भी घबराहट होती है: "मछलियों से हाथ धो बैठूं?' तुम्हारे पास सपने के अतिरिक्त और कुछ है भी नहीं।
मुझसे लोग पूछते हैं, आप अपने संन्यासियों को संसार छोड़ने के लिए क्यों नहीं कहते? मैं उनसे कहता हूं, ये सब मछलियां सपने की हैं, छोड़ कर भी कहां जाओगे? छोड़ने योग्य संसार में है क्या? अगर छोड़ने योग्य कुछ हो, तब तो पाने योग्य भी कुछ है। इस बात को खयाल में ले लेना है। अगर संसार में कुछ छोड़ने योग्य है, इतनी सच्चाई है संसार में कि छोड़नी पड़े तो तो फिर संसार में कुछ पाने योग्य भी हो गया। वही सच्चाई पाने योग्य हो जाएगी। मैं कहता हूं, छोड़ने को क्या है? संसार में है ही क्या? खयाल, सिर्फ खयाल।
मुल्ला की नाराजगी देखते हो! बोला: "क्या? और मछलियों से हाथ धो बैठूं?' और फिर तेजी से दफ्तर से बाहर निकलने लगा। तो डाक्टर ने कहा कि भाई, मेरी सलाह की फीस तो देते जाओ। तो उसने कहा: सलाह ली किस उल्लू के पट्ठे ने? लेते तो फीस भी देते।
सपने भी छोड़ने में बड़ी जिद है!
तुम जरा गौर से अपने भीतर देखना, सिवाय सपनों के तुम्हारा संसार क्या है? किसी को पत्नी मान रखा है, किसी को पति मान रखा है। मान्यता की बात है। मान लिया तो बात हो गई।
एक सज्जन अपनी पत्नी से बहुत परेशान हैं। परेशान तो कौन नहीं है! मगर सज्जन जरा भोले-भाले हैं, इसलिए कह देते हैं। तो जब भी आते हैं, वे एक रोना ही रोते हैं--पत्नी! तो मैंने कहा: "अब रोना भी बदलो। अब परमात्मा के लिए रोओ, कब तक पत्नी के लिए रोओगे?' पैसे वाले हैं, सुविधासंपन्न हैं। मैंने कहा: "अगर ऐसा ही है तो पत्नी को आधी जायदाद दे दो और छुटकारा पा लो।' अब यह छुटकारा कैसे हो सकता है? छुटकारा कैसे हो सकता है? आप यह क्या बात कहते हैं? तलाक के आप पक्षपाती हैं? यह तो जन्म-जन्म का संबंध है।
तो मैंने कहा, तुम पत्नी के साथ ही पैदा हुए थे? जनम-जनम का संबंध है! तुम जुड़वां भाई-बहन हो, क्या मामला है?
उन्होंने कहा: नहीं, जुड़वा नहीं हूं, लेकिन सात फेरे लगाए हैं। तो मैंने कहा: तुम पत्नी को ले आओ, मैं उलटे फेरे लगवा दूं। खोलो फेरे। क्योंकि कम से कम बीस साल से तुम्हें मैं जानता हूं और सदा रोना और सदा रोना। आखिर कहीं कुछ और अच्छी बातें भी हैं रोने के लिए। ये आंखें तुम्हारी सूज आई हैं रोते-रोते--पत्नी-पत्नी! और इससे कुछ मिलता नहीं, न रोने से कुछ मिलता है न धोने से कुछ मिलता है। अगर इतना ही तुम परमात्मा के लिए रोते तो परमात्मा मिल जाता।
मैं तुमसे छोड़ने को नहीं कहता कि तुम संसार छोड़ कर भाग जाओ। वहां है क्या छोड़ने को? इतना ही जान लो कि सब मान्यताएं हैं। पत्नी मान्यता है, पति मान्यता है, भाई-बहन मान्यता हैं, पिता-पुत्र मान्यता हैं--सब मान्यता हैं। मान लिया है तो ठीक है। इससे ज्यादा वहां कुछ भी नहीं है! दुकान है, बाजार है, यश, पद-प्रतिष्ठा, सब मान्यता हैं। सपना है। खुली आंख का सपना है संसार। इसे ज्यादा मूल्य मत दो। इसको यथार्थ मत समझो। न यह पकड़ने-योग्य है न यह छोड़ने योग्य है। यह है ही नहीं तो पकड़ोगे क्या, छोड़ोगे क्या? यह जागने योग्य है। इस बात को खयाल में लेना।
और जागोगे तुम कैसे, क्योंकि तुम्हें सिर्फ सोने का अभ्यास है। तुमने जन्मों-जन्मों में सिर्फ नींद की दवा ही ढाली है।
इसलिए ठीक कहती है दया--"भवजल नदी भयावनी'। दुख पाया बहुत। सब तरफ भय ही भय है। जहां जाती हूं वहीं गिरती हूं। सब जगह जाल ही जाल, फंदे ही फंदे हैं। घृणा में पड़ो तो फंदा, प्रेम में पड़ो तो फंदा। क्रोध करो तो फंदा, करुणा करो तो फंदा। दुकान करो तो फंदा, आश्रम में बैठ जाओ तो फंदा। फंदे ही फंदे हैं।
"भवजल नदी भयावनी, किस बिधि उतरूं पार'
दया पूछती है कि कोई विधि मेरी सूझ में नहीं आती। मेरी सूझ तो बुरी तरह टूट-फूट गई है। मेरा भरोसा अपने पर अब रहा नहीं। अब तक भरोसे के सहारे चलती रही कि किसी दिन मार्ग मिल जाएगा, द्वार मिल जाएगा; लेकिन नहीं, मेरे किए नहीं होता। जिस दिन तुम्हें यह प्रगाढ़ धारणा हो जाती है कि मेरे किए नहीं होता, नहीं होगा, जिस दिन यह तुम्हारे प्राणों में तीर की तरह चुभ जाती है बात कि मेरे किए नहीं होता, नहीं होगा--उसी क्षण तुम्हारे भीतर से जो भाव उठता है, वही प्रार्थना है। फिर तुम चाहे अल्लाह का नाम लो चाहे राम का, चाहे कृष्ण का, कोई फर्क नहीं पड़ता; सब नाम फिर उसी के हैं। तुम नाम लो न लो, फिर तुम जहां सिर झुका दोगे, उसी के चरणों में सिर झुक जाता है। फिर तुम जहां बैठे हो वहीं तीरथ शुरू हुआ।
"साहिब मेरी अरज है, सुनिए बारंबार।'
दया कहती है कि अर्ज कर सकती हूं बस। अर्जी भेजती हूं। सुन लो, ठीक; अन्यथा बार-बार करती रहूंगी। और तो कोई उपाय नहीं है। दोहराती रहूंगी जन्मों-जन्मों तक कि सुनो मेरी अर्ज। "साहिब मेरी अरज है, सुनिए बारंबार'
भक्तों ने, संतों ने "साहिब' शब्द का बड़ा प्यारा प्रयोग किया है, परमात्मा को साहिब कहा है।
"साहिब मेरी अरज है, सुनिए बारंबार।
तुम ठाकुर त्रैलोकपति, ये ठग बस करि देहु।
दयादास आधीन की, यह बिनती सुनि लेहु।।'
तुम हो ठाकुर, सारे जगत के मालिक, तुम हो साहिब; और मैं सिर्फ एक निवास-स्थान बन गया हूं ठगों का। "ठग बस करि देहु।' मेरी देह में तो बस चोर बसे हैं, बेईमानियां बसी हैं, शत्रु बसे हैं। मैंने तो शत्रुओं को ही पोसा है। मैंने तो शत्रुओं जो मेरा विनाश कर रहे हैं, उन्हीं को पानी दिया है। मैंने तो अब तक जहर ही ढाले हैं। मैं आत्मघाती हूं। "तुम ठाकुर त्रैलोकपति, ये ठग बस करि देहु।' और इधर मैं हूं कि यहां ठगों के सिवाय मेरी देह में कुछ भी नहीं है। काम है, लोभ है, क्रोध है, माया-मोह-मत्सर है, सब ठग बैठे हैं। यह मेरी संपदा है। इसके सहारे मैं तुमसे कहूं भी कि तुम आ जाओ, तो कैसे कहूं? तो पात्रता तो मेरी कोई भी नहीं है; तुम्हारी करुणा का ही भरोसा है। योग्यता मेरी कोई भी नहीं है। अयोग्य तो मैं सब भांति हूं, योग्य जरा भी नहीं। न ज्ञान है न ध्यान है, कुछ भी नहीं है। ये सब चोर हैं मेरे भीतर। मेरी पीड़ा समझो। मेरी पात्रता मत देखो। "दयादास आधीन की, यह बिनती सुनि लेहु'
और मैं तो बिनती कर सकती हूं। दास हूं, आधीन हूं। तुम्हारी हूं बुरी-भली जैसी हूं। मेरी विनती सुन लो।
"नहिं संजम नहिं साधना, नहिं तीरथ व्रत दान।
मात भरोसे रहत है, ज्यों बालक नादान।।'
इन दो छोटे से वचनों में सारी भक्ति का सार आ गया है। नारद ने भक्ति-सूत्र में इतने सूत्र लिखे, उन सब सूत्रों का सार इन दो वचनों में आ गया है: "नहिं संजम नहिं साधना'। दया कहती है, संयम जानती नहीं क्या है। असंयम जानती हूं। योग से कोई पहचान नहीं, बस भोग ही भोग जानती हूं। भटकाव का तो मुझे अनुभव है, पहुंचने का मुझे कोई पता नहीं। "नहिं संजम नहिं साधना'। और साधना के नाम पर कुछ नहीं होता। करती हूं तो भी हाथ से फिसल-फिसल जाता है। कई बार करने की कोशिश कर ली है, नहीं होता। "नहिं संजम नहिं साधना'। तो न तो साधना का दंभ है, न संयम की अकड़ है। "नहिं तीरथ व्रत दान'। न कुछ दान किया है, क्योंकि है भी क्या दान करने को मेरे पास! कौड़िया हैं, इनको दान करूं तो क्या दान होगा? कौड़ी तो कौड़ी ही हैं; धन तो हो न, सब तो दान को सके!
तो दान तो कभी कोई करता है, कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट। जिनको तुम दानवीर कहते हो, दानवीर कहना नहीं चाहिए। मगर तुम्हारी आंखों में वेदानवीर दिखाई पड़ते हैं, किसी ने लाख रुपया दान कर दिया, तुम कहते हो दानवीर। क्योंकि तुम्हारे लिए लाख रुपए का मूल्य है--रुपए का मूल्य है, इसलिए दानवीर। अगर तुम जानते कि रुपए ठीकरे हैं तो तुम दानवीर कहते? यह क्या दान हुआ? कचरे का कोई दान होता है? यह तुम्हारा था ही नहीं, पहली तो बात, तुम दान कैसे कर रहे हो?
एक झेन फकीर के पास एक धनपति आया और उसने हजार स्वर्ण-मुद्राओं से भरी झोली फकीर के सामने रख दी और कहा कि हजार स्वर्ण-मुद्राएं लाया हूं। फकीर ने कहा, ठीक। और जैसे फिर उसकी बात ही न उठाई। अब जो आदमी हजार स्वर्ण-मुद्राएं लाया हो, वह इस आशा में आता है कि तुम धन्यवाद दोगे और कहोगे "बड़ा शुक्रिया, बड़ी कृपा की। आप बड़े दानी हैं। ऐसा-वैसा...।' वह फकीर कुछ बोला ही नहीं, जैसे उसने कुछ बात ही न ली। एक दफे उसने गौर से देखा भी नहीं उस झोली की तरफ। वह धनी बोला--"महाशय, आप समझते हैं कि हजार स्वर्ण-मुद्राओं का कितना मूल्य होता है? मुश्किल से आदमी इकट्ठ कर पाता है।' तो उस फकीर ने कहा: क्या मतलब? क्या तुम धन्यवाद चाहते हो? अगर धन्यवाद चाहते हो तो ले जाओ, उठाओ थैली यहां से, रस्ते पर लगो। क्योंकि जो धन्यवाद चाहता है, उसे धन व्यर्थ है, ऐसा अभी दिखाई ही नहीं पड़ा। और मैं ऐसे आदमी का पैसा न लूंगा। उठाओ।'
धनपति थोड़ा घबड़ाया और कहा: "नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। अब तो दान कर ही चुका हूं।
फिर उस फकीर ने कहा कि शब्द वापस लो। दान कर चुके हो। जो तुम्हारा है ही नहीं, उसको दान क्या खाक करोगे? दान में तो दावा है कि मेरा था। तुम नहीं आए थे तब भी सोना इस पृथ्वी पर था; तुम चले जाओगे, तब भी सोना इस पृथ्वी पर रहेगा। न तुम लाए हो और न तुम ले जाओगे, तुम्हारा हो कैसे सकता है? बकवास बंद करो या थैली उठाओ। क्योंकि सोना तुम्हारा कैसे? जिसका है उसका है।
यह सारा संसार जिसका है उसका ही है। हम तो यहां खाली हाथ आते हैं और खाली हाथ चले जाते हैं। और हालत तो बड़ी अजीब है। कहावत है कि आते तो बंधे हाथ हैं और खुले हाथ जाते हैं। बच्चा जब पैदा होता है तो मुट्ठी बंधी होती है। बूढ़ा जब मरता है, हाथ खुले होते हैं। कुछ थोड़ा-बहुत लाते हैं, वह भी गंवा देते हैं।
तुम्हारा है क्या? दान कैसे करोगे? भक्त इस बात को जानता है कि मेरा है क्या जो दान करूं! मेरी सामर्थ्य क्या जो व्रत लूं? क्योंकि व्रत में तो अहंकार की अकड़ है, दंभ है कि मैंने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया, अहिंसा का व्रत लिया, सत्य का व्रत लिया। अकड़ है कि मैंने इतने व्रत लिए, मैं व्रतधारी हूं! लेकिन तुम्हारी अकड़ ही तो बाधा बन रही है मिलने से।
"नहिं संजम नहिं साधना, नहिं तीरथ व्रत दान।
मात भरोसे रहत है, ज्यों बालक नादान।।'
दया कहती है, मैं तो ऐसे हूं जैसे छोटा बच्चा, मां के भरोसे रहता है। तुम्हारे भरोसे हूं। तुम करो तो कुछ हो; तुम न करो तो मर्जी। बारंबार अर्जी करती रहूंगी। उतना ही मेरा बस है। उतनी ही मेरी पहुंच है कि पुकारती रहूंगी, पुकारती रहूंगी, कभी तो सुनोगे न! कभी तो दया आएगी! कभी तो "लहर मेहर' होगी!
मरने से पूर्व मुझे एक और जीवन दो--ऐसी आकांक्षा है भक्त की।
मरने से पूर्व मुझे एक और जीवन दो, क्योंकि यह तो जीवन जीवन नहीं है। यह तो तुमने खूब खिलवाड़ किया। यह तो शरीर में बिठा कर तुमने खूब धोखा दिया। यह तो ऐसे है जैसे छोटे बच्चे को हम खिलौने पकड़ा देते हैं। बच्चा मांगता है कार, ले आए एक छोटा सा खिलौना--खिलौने की कार--और दे दी बच्चे को। और बच्चा बड़ा प्रसन्न, है चाबी भरता, चलाता।
इस जीवन को अगर तुमने जीवन समझा तो तुम खिलौने की कार को कार समझ बैठे हो, उससे कुछ यात्रा न हो सकेगी।
मरने से पूर्व मुझे एक और जीवन दो
अब तक का जीवन तो जीने की कोशिश में
जीए बिना बीत गया
अनगिनत विकल्पों में संकल्पों को
पूरा किए बिना बीत गया
कभी परिस्थितियों ने, कभी मनःस्थितियों ने
मुझे रोज तोड़ा है
मैंने सुविधाओं की बात मान
गूंगी सच्चाई से अक्सर मुख मोड़ा है
मुझमें अब मेरा-पन बचा नहीं
मुझको मेरे मन ने रचा नहीं
यह रेशम और रतन और वसन लौटा लो
मुझे एक दर्पण दो।
सुनते हो?
यह रेशम और रतन और वसन लौटा लो
मुझे एक दर्पण दो
मरने से पूर्व मुझे एक और जीवन दो।
दर्पण दो जिससे मैं पर्तहीन दिख पाऊं
साहस दो, जैसा भी देखूं मैं वैसा ही लिख पाऊं
जीवन का महाकाव्य ओस-धुले छंदों से रचूं नहीं
पिघला इस्पात मुझे जब-जब भी ललकारे,
पीठ दिखा बचूं नहीं
जो जैसा है उसे वैसा कहने की सामर्थ्य दो
जो जैसा है उसे वैसा जानने की सामर्थ्य दो
जो जैसा है उसे वैसा जीने की सामर्थ्य दो
झूठ बहुत हो गई
यह रेशम और रतन और वसन लौटा लो
मुझे एक दर्पण दो कि मैं अपने को देख सकूं।
और भागूं नहीं, पीठ दिखा बचूं नहीं,
पलायन करूं नहीं
और झूठे काव्य बहुत लिखे, अब न लिखूं
जीवन का महाकाव्य ओस-धुले छंदों से रचूं नहीं।
हो चुके सपने बहुत, अब जीवन के काव्य को सच्चाई से रचूं।
पिघला इस्पात मुझे जब-जब भी ललकारे
पीठ दिखा बचूं नहीं
भोगे यश-लाभ, नहीं मेरी संभावना
बांझ नहीं रह जाए मेरी फल-कामना
बनने से पूर्व बीज झरूं नहीं
मात्र यही, मात्र यही मुझको आश्वासन दो
मरने से पूर्व मुझे एक और जीवन दो।
यह रेशम, यह रतन और वसन लौटा लो
मुझे एक दर्पण दो।
भक्त कहता है: मैं अपने को देख सकूं, ऐसा दर्पण दो। तुम ऐसे दर्पण बन जाओ कि तुममें मैं अपने को देख सकूं। पुकारता रहूंगा। छोटे बालक की भांति, निर्दोष, "ज्यों बालक नादान, मात भरोसे रहत है'
बच्चे की यह दशा को थोड़ा समझो। नौ महीने बच्चा मां के पेट में रहता है--न अपनी कोई खबर, न भूख-प्यास की कोई चिंता, न कोई जिम्मेदारी। निश्चिंत! सब होता है। ऐसे ही भक्त रहने लगता है। यह सारा अस्तित्व भक्त के लिए मां का गर्भ बन जाता है। वह कहता है, भगवान में जी रहा हूं, अब चिंता कैसी! उसी ने सब तरफ से घेरा है, अब फिक्र कैसी! वही सब तरफ से घेरे है, उसी की हवाएं, उसी के चांदत्तारे, उसी के सूरज, उसी के वृक्ष, उसी के लोग, उसी की पृथ्वी, उसी का आकाश! सब तरफ से उसी ने घेरा है! यह अस्तित्व गर्भ बन जाता है और भक्त इसमें निश्चिंत भाव से लीन हो जाता है। "मात भरोसे रहत है ज्यों बालक नादान।'
"लाख चूक सुत से परै, सो कछु तजि नहि देह'
और बच्चा कितनी ही भूल करे तो कोई मां उसे त्याग नहीं देती।
"लाख चूक सुत से परै, सो कछु तजि नहि देह।
पोष चुचुक ले गोद में, दिन-दिन दूनो नेह।।'
जब-जब बच्चा भूल करता है, मां उसे चुमकारती है, पास लेती है और गोदी में ले कर प्यार करती है।
जीसस ने कहा है, भगवान ऐसा है जैसे एक गड़रिया सांझ अपनी भेड़ों को ले कर लौटता है और अचानक घर आ कर पाता है कि सौ भेड़ों में निन्यानबे घर आईं, एक कहीं जंगल में खो गई। तो निन्यानबे को वहीं छोड़, भागा जंगल में जाता है। दूर-दूर घाटियों में पुकारता है, रात के अंधेरे में टटोलता है। अपने जीवन को गंवाने का खतरा लेता है। और फिर उस भेड़ को खोज कर लाता है। और जब उस भेड़ को खोज कर लाता है तो जानते हो कैसे लाता है? उसको कंधे पर रख कर लाता है।
तो जीसस ने कहा है, भगवान तो गड़रिया है।
"लाख चूक सुत से परै, तो कछु तजि नहि देह'
अब बेटा कितनी ही भूल करे तो मां माफ करती चली जाती है।
"पोष चुचुक ले गोद में, दिन-दिन दूनो नेह'
और तुमने कभी खयाल किया कि मां उसी बेटे को ज्यादा प्रेम करती है जो ज्यादा उपद्रवी होता है, जो ज्यादा झंझटें खड़ी करके आता है, मुहल्ले में उपद्रव कर आता है! जो जितनी ज्यादा भूलें करता है, मां का प्रेम उतना ही ज्यादा उसकी तरफ बहता है।
सूफी फकीर बायजीद के आश्रम में सैकड़ों साधक थे। एक नया साधक आया। और उस साधक ने आ कर बड़ी उपद्रव की स्थिति बना दी। उसे चोरी की भी आदत थी, शराब भी पी लेता था, और भी तरहत्तरह के गुण थे, जुआ भी खेलता था। आखिर सभी शिष्यों ने बार-बार शिकायत की। और तो और, बायजीद तक की चीजें चोरी जाने लगीं। लेकिन बायजीद कि सुनता रहे, कहे कि ठीक, देखेंगे, देखेंगे। आखिर एक सीमा आती है। सारे शिष्य इकट्ठे हो गए। उन्होंने कहा: यह बहुत हुआ जा रहा है। आखिर क्या मामला है? इसको यहां रोकने की जरूरत क्या है? इसे आप हटाते क्यों नहीं?
बायजीद ने कहा: सुनो, तुम सब भले हो। तुम अगर चले जाओगे तो भी तुम किसी न किसी तरह परमात्मा को खोज लोगे। मगर यह अगर मुझसे चूक गया, अगर मैंने इसे निकाल दिया तो इसके लिए कोई उपाय नहीं। तो तुम ऐसा करो, अगर तुम्हें यह ज्यादा परेशान करता है, तुम चले जाओ। मगर इससे हमारा गठबंधन हो गया है, इसके साथ तो अब रहना ही है। और फिर तुम यह भी सोचो, मेरे सिवाय इसे कोई और स्वीकार नहीं करेगा। और माना कि यह चोर है और शराबी है, जुआरी है, और मेरी भी चीजें जाने लगी हैं, औरों को तो ठीक, वह मुझे भी बख्श नहीं रहा है--मगर परमात्मा जब उसको बरदाश्त कर रहा है और मैं बर्दाश्त न करूं तो परमात्मा मुझे भी कभी क्षमा न करेगा। परमात्मा ने सांस देनी बंद तो नहीं कर दी उसे। परमात्मा का सूरज उसके ऊपर अब भी वैसी ही रोशनी बरसाता है जैसे पहले बरसाता था। चांदत्तारे उसके लिए वंचित नहीं किए हैं। जब परमात्मा उसे बर्दाश्त कर रहा है तो मैं बीच में बाधा डालने वाला कौन हूं? उसकी मर्जी, उसका संसार। और अपना है क्या, यह चुरा क्या ले जाएगा?...तो तुम जा सकते हो, मगर इसे मैं विदा न कर सकूंगा। तुम्हें विदा कर दूंगा तो परमात्मा के सामने मुझे कहने की सुविधा रहेगी कि वे सब भले लोग थे, वे तुझे पा ही लेते; मगर इसको विदा कर दिया तो क्या मुंह दिखाऊंगा, जब वह मुझसे पूछेगा कि उसको कहां भेजा? वह कहां है? तूने कैसे उसे छोड़ो?
"लाख चूक सुत से परै सो कुछ तजि नहि देह'
तो दया कह रही है कि तुम स्रोत हो, तुमसे हम आए हैं, हम तुम्हारे बच्चे हैं; भूलें हमसे बहुत हुई हैं, यह सच है। भूलें ही हुईं, और कुछ नहीं हुआ, यह भी सच हैं, यह सब अंगीकार है। मगर इससे कुछ त्याग थोड़े ही देते हैं। इससे कुछ मां मां न रह जाएगी, ऐसा थोड़े ही है। इससे हम अर्ज करते हैं, सुनो, "साहिब मेरी अरब है, सुनिए बारंबार'
"चकई कल में होत है, भान-उदय आनंद।
दयादास के दृगन तें, पल न टरो ब्रजचंद।।'
यही प्रार्थना है; कुछ और बड़ी मांग भी नहीं है। ऐसे ही जैसे चातक आंख अटकाए रहता है चांद पर, कुछ बड़ी मांग भी नहीं है।
"दयादास के दृगन तें, पल न टरो ब्रजचंद'
--बस मेरी आंखों से क्षण भर को दूर न होओ, बस इतनी ही मांग है। कुछ बड़ी मांग भी नहीं, कोई बड़ा खजाना नहीं मांगते, कोई मोक्ष नहीं मांगते, कोई स्वर्ग नहीं मांगते।
भक्त कुछ मांगता ही नहीं। भक्त कहता है कि इतना ही कि तुम्हें भुनूं न, तुम विस्मृत न होओ, तुम्हारी याद उठती रहे। इस फर्क को समझना। ज्ञानी इस संबंध में छोटा पड़ जाता है, क्योंकि ज्ञानी कुछ मांगता है। वह कहता है, आनंद चाहिए, मोक्ष चाहिए, पुण्य चाहिए, शाश्वत जीवन चाहिए--चाहिए ही चाहिए! भक्त कहता है: कुछ नहीं चाहिए; बस तुम्हें न भूलूं। नर्क में पड़ा रहूं, कोई फिक्र नहीं; तुम्हारी याद बनी रहे। मेरी प्रार्थना के तार तुमसे जुड़े रहें, बस इतना काफी है।
"दयादास के दृगन तें, पल न टरो व्रजचंद'!
"तुमहीं सूं टेका लगो'...तुम्हारे ही सहारे हूं।
"तुम्हीं सूं टेका लगो, जैसे चंद्र चकोर'
तुम पर ही टिका हूं, तुम पर ही आंख अटकी है। तुम्हीं रोशनी, तुम्हीं जीवन, तुम्हीं मेरे मोक्ष।
"तुम्हीं सूं टेका लगो, जैसे चंद्र चकोर।
अब कासूं झंखा करौं, मोहन नंदकिसोर।।'
बड़ी प्यारी बात है। दया कहती है, अब किससे झंझट करूं? अब किससे झगड़ा करूं?
"तुमहीं सूं टेका लगो, जैसे चंद्र चकोर।
अब कासूं झंखा करौं, मोहन नंदकिसोर।।'
--अब तुमसे ही झगडूंगी। तुम्हीं हो, और तो कुछ है नहीं। अगर न होगा तो तुम्हीं से झंझट होगी, तुम्हीं से विवाद होगा, तुम्हीं से शिकायत होगी।
फर्क समझना। तुम भी शिकायत करते हो, भक्त भी शिकायत करता है; लेकिन तुम्हारी शिकायत में कोई प्रार्थना नहीं होती। भक्त की शिकायत में भी प्रार्थना होती है। तुम भी जाते हो भगवान से कुछ मांगने और शिकायत करने कि ऐसा है, ऐसा होना चाहिए...।
पश्चिम के बहुत बड़े विचारक इमर्सन ने कहा है कि आदमी की सब प्रार्थनाओं का सार-निचोड़ इतना है कि लोग जा कर भगवान से कहते हैं कि दो और दो चार नहीं होना चाहिए। तुमने चोरी की, अब सजा नहीं होनी चाहिए। तुमने पाप किया, अब दुख नहीं होना चाहिए। आदमी की सारी प्रार्थनाएं बस ऐसी ही हैं कि जो होना चाहिए वह नहीं होना चाहिए। कुछ और हो जाए जो तुम चाहते हो कि होना चाहिए। तुम व्यवस्था में कुछ रूपांतरण चाहते हो।
तुम्हारी प्रार्थना वासना है। तुम्हारी शिकायत क्रोध से भरी है। लेकिन, भक्त भी कभी शिकायत करता है, लेकिन उसकी शिकायत में बड़ा प्रेम है। ये वचन सुनते हो: "अब किससे झगड़ने जाऊं, तुम्हारे अतिरिक्त कोई है ही नहीं, तुम ही हो! लडूं तो तुमसे, प्रेम करूं तो तुमसे। रीझूं तो तुम पर, नाराज हो जाऊं तो तुम पर।
"तुमहीं सूं टेका लगो'...। अब सब तुम्हीं पर टिका है। जैसे चकोर चांद पर टिका है, ऐसे मेरी आंखें तुम पर लगी हैं। अब तुम नाराज मत होना।
एक और अनूठा पद है। मैत्रेय जी ने पता नहीं क्यों दया के इन पदों में उसको रखा नहीं। शायद सोचा होगा कि झंझटी है, इसलिए छोड़ दिया। मैत्रेय जी चुनते हैं, तो उन्होंने सोचा होगा, यह जरा झंझटी पद है। उस पद को लेकिन मैं नहीं छोड़ सकता। झंझट में मुझे रस है। पद है:
"बड़े-बड़े पापी अधम तरत लगी न बार।
पूंजी लगे कछु नंद की, हे प्रभु हमरी बार।।'
सुनते हो, बात बड़ी मजे की है!
"बड़े-बड़े पापी अधम'...। बड़े-बड़े पापी भी तर गए, तरत लगी न बार। "पूंजी लगे कछु नंद की'...तुम्हारे बाप का कुछ जाता है अगर हम भी तर जाएं?
यह बात बड़ी हिम्मत की है: "नंद बाबा का कुछ चला जाएगा?'
"पूंजी लगे कछु नंद की, हे प्रभु हमरी बार'
--"सिर्फ हम ही को अटका रहे हो और बड़े-बड़े पापी तर गए!' यह सिर्फ भक्त ही कह सकता है। यह सिर्फ वही कह सकता है जिसके हृदय में प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यह हिम्मत भक्त की ही हो सकती है।
और एक वचन है, वह भी मैत्रेय जी ने छोड़ दिया है--
"कब को टेरत दीन भौ, सुनो न नाथ पुकार'
--मैं कब का पुकार रहा, कब की पुकार रही और तुम सुनते नहीं। "की सर वन ऊंचो सुनो'...कि कुछ ऊंचा सुनने लगे क्या?
"की सरवन ऊंचो सुनो, की दीन्हों विरद बिसार!'
--भूल गए पुराने आश्वासन: "संभवामि युगे-युगे! यदा-यदा हि धर्मस्य...जब-जब धर्म की ग्लानि होगी, युग-युग में आऊंगा।' भूल गए सब बकवास? सिर्फ मैं इधर झंझट में पड़ी।
"की सरवन ऊंचो सुनो'...कि कान कुछ खराब हो गए, बहरे हो गए?
यह सिर्फ भक्त ही कह सकता है। और ये बड़े प्यारे वचन हैं। ..."की दीन्हों विरद बिसार।' "विरद' का अर्थ होता है बड़ा नाम था तुम्हारा अब तक, भूल-भाल गए सब? डुबा दी लुटिया अपने नाम की? बड़ा नाम था कि पापियों को तरा देते हो, तारणतरण हो, बड़ा नाम था। मेरे संबंध में क्यों मामले में अड़चन हो रही है? मुझसे बड़े-बड़े पापी तर गए। "पूंजी लगे कछु नंद की, हे प्रभु हमरी बार।'
"तुम्हीं सूं टेका लगो, जैसे चंद्र चकोर।
अब कासूं झंखा करौं, मोहन नंदकिसोर।।'
यह झंखा है, यह झगड़ा है, यह प्रेम का झगड़ा है।
तुमने देखा, प्रेमी अक्सर झगड़ते हैं! और झगड़े से प्रेम में रस बढ़ता है, घटता नहीं। मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि जब कोई स्त्री और पुरुष, कोई पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेयसी झगड़ना बंद कर दें तो समझना प्रेम चुक गया, अब शांति आ गई। जब तक झगड़ा जारी रहता है तब तक प्रेम है। झगड़े का अर्थ ही इतना है कि दूसरे से लगाव है। लगाव है तो झगड़ा है। लगाव नहीं तो झगड़ा भी क्या है? तुम हर किसी से तो झगड़ने नहीं चले जाते। तुम्हारी पत्नी अगर तुम्हारे पीछे पड़ी है कि छोड़ो सिगरेट कि छोड़ो शराब, तो इसीलिए कि लगाव है कि प्रेम है, तो झगड़ा जारी है कि छोटी-छोटी बात पर कलह होती है। लेकिन हर कलह प्रेम को गहरा जाती है। कलह का सबूत ही इतना है कि अभी तुम कैसे होओ, इसकी एक आकांक्षा है; तुम्हें संवारने की, तुम्हें सुंदर बनाने की एक आकांक्षा है।
झगड़ा अनिवार्य रूप से दुश्मनी नहीं है। मित्र भी झगड़ते हैं। और तब झगड़े में एक रस होता है। और यह तो आखिरी प्रेम है; इसके पार तो फिर कोई प्रेम नहीं। भक्ति तो आत्यंतिक प्रेम है। तो भक्त तो भगवान से झगड़ता है। और यह हिम्मत केवल भक्त की है कि झगड़ सकता है। ज्ञानी तो डरता है। क्योंकि ज्ञानी का संबंध सौदे का है। वह कहता है, कहीं नाराज हो जाए! भक्त कहता है, होना हो नाराज तो हो जाओ। क्योंकि भक्त को भरोसा है कि तुम समझोगे। अगर अस्तित्व नहीं समझेगा तो फिर कौन समझेगा? भक्त जानता है कि यह जो मैं कह रहा हूं यह भी प्रेम से कहा जा रहा है। इस झगड़े में दुश्मनी नहीं है। इस झगड़े में एक गहरी मैत्री है, गहरी प्रीत है।
"तुमहीं सूं टेका लगो, जैसे चंद्र चकोर।
अब कासूं झंखा करौं, मोहन नंदकिसोर।।'
यों तो हम जीवन में कई बार बिछड़े
आंखों में बसे हुए दृश्य नहीं उजड़े
मेरा संपूर्ण अहं विगलित हो
तेरी ही ओर बहा जाता है
जितने भी सुख मेरे परिचित हैं
उन सबसे तेरा कुछ नाता है
साथ-साथ सोचे थे हमने जो सपने
अनगिन बेगानों में वे ही हैं अपने
सारा कोलाहल चुक जाता जब
तेरी आवाज तभी सुनता हूं
जो सबसे अधिक तुझे प्यारा था
रंगों में रंग वही चुनता हूं
जहां-जहां भी तेरी दृष्टि कभी अटकी
शाम उन्हीं राहों में बार-बार भटकी
कोई भी चित्र कहीं देखूं मैं
तेरा प्रतिबिंब उतर आता है
चाहे मैं कोई भी शब्द सुनूं
तेरा ही नाम उभर आता है
सांसों में देह गंध मन में चिनगारी
मेरा हर रोम प्राण तेरा आभारी!
भक्त कहता है, "कोई भी चित्र कहीं देखूं मैं, तेरा प्रतिबिंब उतर आता है। चाहे मैं कोई भी शब्द चुनूं, चाहे मैं कोई भी शब्द चुनूं, तेरा ही नाम उभर आता है।' सब नाम उसी के हो जाते हैं, सब रूप उसी के हो जाते हैं। सारा अस्तित्व उसी की तरंगों से भर जाता है। और भक्त एक अनूठे लोक में रहने लगता है--जहां प्रार्थना है, जहां प्रेम है, जहां शिकायत है, जहां एक अनूठा झगड?ा भी है; मान है, मनौवल है; रूठना है, रिझाना है।
ऊपर से देखने पर भक्त निश्चित ही पागल लगेगा। इसलिए ऊपर से जिन्होंने देखा, वे भक्त को नहीं समझ पाते। भक्त को समझने का तो एक ही उपाय है--भक्त हो जाना। भक्त को समझने का दूसरा कोई उपाय नहीं है। यह स्वाद भीतर है; लगे तो लग गया। बाहर-बाहर खड़े हो कर देखा तो तुम्हारी समझ में कुछ भी न आएगा। इसलिए जिन लोगों ने भक्तों का अध्ययन बाहर से किया है, अध्ययन किया है, अनुभव नहीं किया, उन सबने जो भी कहा है भक्तों के संबंध में, गलत कहा है। अगर तुम मनोवैज्ञानिकों से पूछो मीरा के संबंध में, दया के संबंध में, सहजो के संबंध में, तो मनोवैज्ञानिक कहेंगे कि ये स्त्रियां विक्षिप्त हैं, रुग्ण हैं।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, अगर ये स्त्रियां रुग्ण हैं तो यह रोग तुम्हारे स्वास्थ्य से बेहतर है। अगर ये स्त्रियां पागल हैं तो यह पागलपन तुम्हारी बुद्धिमानी से लाख गुना बेहतर है। छोड़ो बुद्धिमानी और खरीद लो यह पागलपन। क्योंकि वह तुम्हारा जो मनोवैज्ञानिक है जो कहता है ये पागल लोग हैं, उसकी तरफ तो देखो--न जीवन में कोई रस है, न जीवन में कोई आभा है, न जीवन में कोई शांति है, न जीवन में कोई संगीत है; जीवन रूखा-सूखा है, मरुस्थल; मरूद्यान कहीं भी नहीं। और इन भक्तों के जीवन में फूल ही फूल हैं, हरियाली ही हरियाली है, झरने ही झरने हैं। तो अगर पागल होना है तो भक्ति तो ठीक, पागल हो जाना।
दुनिया से भक्ति धीरे-धीरे तिरोहित होती चली गई, क्योंकि लोग बाहर से जो बातें कहते हैं उन बातों को लोग बहुत मानने लगे हैं। दुनिया से प्रेम भी तिरोहित हो गया है। दुनिया में जो श्री श्रेष्ठ था वह तिरोहित होता जा रहा है। दुनिया में जो व्यर्थ है वही बच रहा है। और फिर अगर तुम्हारे जीवन का अर्थ खो जाए तो आश्चर्य क्या! तुमसे कोई छीने लिए जा रहा है सब। तर्कजाल जीवन की सभी संपदाओं को नष्ट किए दे रहा है। इनमें सबसे बड़ी संपदा है भक्ति, फिर सारी संपदाएं उससे नीचे हैं। क्योंकि भक्ति का अर्थ है परमात्मा से संबंध, परमात्मा से राग का संबंध। और राग का संबंध ही तुम्हारे जीवन में रंग ला सकता है। राग का अर्थ ही रंग होता है। राग का संबंध ही तुम्हारे जीवन में नृत्य ला सकता है। राग का संबंध ही तुम्हारे जीवन में फूल खिला सकता है।
"तातें तेरे नाम की, महिमा अपरंपार।
जैसे किनका अनल को, सघन बनौ दे जार।।'
लेकिन दया कहती है, मुझे मालूम है कि तेरे नाम की बड़ी अपरंपार महिमा है।
"तातें तेरे नाम की महिमा अपरंपार। जैसे किनका अनल को'...जैसे एक छोटी सी चिनगारी "सघन बनौ दे जार', एक घने से घने जंगल को जला डालती है--ऐसी तेरे नाम की जरा सी चिनगारी भी मेरे भीतर पड़ जाए तो मेरा सब अंधकार जल जाए, मेरा सारा वन जल जाए, मेरे सारे पाप, मेरे सारे कर्म, मेरे सारे अनंत-अनंत कालों में की गई भूल-चूकें सब जल जाएं। तेरी कृपा का एक छोटा सा अंगार मेरे ऊपर गिर जाए।
तो भक्त प्रतीक्षा करता है।
भक्ति यानी प्रेम। भक्ति यानी प्रतीक्षा।
इस दिशा में कुछ कदम रखो। दया की वाणी समझने से कुछ भी न होगा। दया की वाणी समझने से तो थोड़ी सी तुम्हारी जीवन में प्यास जग जाए तो काफी है। इस दिशा में दो-चार कदम रखो। पागल होने की हिम्मत करो। प्रभु के नाम में अगर पागल न हुए तो उसे न पा सकोगे। पागल होने का इतना ही अर्थ है कि हम सब गंवाने को तैयार हैं--अपनी बुद्धिमानी भी।
मैं जिसे संन्यास कहता हूं वह ऐसी ही पागलपन और मस्ती की दशा है। मेरा संन्यास पुराने ढंग और ढांचे का संन्यास नहीं है; जीवन से तोड़ने वाला नहीं, जीवन से जोड़ने वाला; विराग का नहीं, परम राग का; भगोड़ेपन का नहीं, जीवन में जड़ें जमा कर खड़े हो जाने का। क्योंकि परमात्मा का है जीवन, भगाना कहां? और अगर परमात्मा की सृष्टि से भागोगे तो प्रकारांतर से परमात्मा से ही भाग रहे हो। उसकी सृष्टि की प्रशंसा उसकी ही प्रशंसा है। गीत की प्रशंसा गीतकार की प्रशंसा है। मूर्ति की प्रशंसा मूर्तिकार की प्रशंसा है। मूर्ति की निंदा मूर्तिकार की निंदा हो जाएगी।
इसलिए मैं कहता हूं, यह संसार उसका है। संसार के रोएं-रोएं में वह मौजूद है। तुम जरा पुलकित होओ, तुम जरा फैलो, विस्तीर्ण होओ। तुम जरा बुद्धिमानी की सीमाओं को उतार कर रखो और तुम अचानक पाओगे कि आश्चर्य, परमात्मा को इतने दिन तक चूकते कैसे रहे! जो इतना करीब था, जो इतना निकट था, उसे चूक--यही आश्चर्य की बात है, यही चमत्कार है। परमात्मा को पाने में कुछ चमत्कार नहीं; परमात्मा को चूके हैं, यह चमत्कार है। यह होना नहीं चाहिए। यह ऐसे ही है जैसा कबीर ने कहा कि मुझे देख कर बड़ी हंसी आती है कि मछली सागर में प्यासी है। यह हंसी की बात है कि हम परमात्मा के सागर में हैं और प्यासे हैं। हम उसकी ही लहरें हैं और प्यासे हैं। मछली सागर में ही पैदा होती है, सागर में ही जीती, सागर में ही विलीन हो जाती है--सागर की ही एक लहर है। मगर अगर मछली सागर में प्यासी हो तुम भी हंसोगे न! और हम सब ऐसी ही मछलियां हैं जो सागर में हैं और प्यासी हैं।
एक पुरानी हिंदू कथा है कि एक मछली ने "सागर' शब्द सुना तो वह बड़ी उत्सुक हो गई कि सागर कहां है। वह खोजने लगी। वह दूर-दूर यात्राएं करने लगी। वह लोगों से पूछने लगी, सागर कहां है? जिससे भी पूछा...मछलियों से ही पूछा...उन्होंने कहा, भई सुना तो हमने है, पुराणों में लिखा है, शास्त्रों में है, सदगुरु सागर की बात करते हैं; मगर हम साधारण मछलियां हैं, पता नहीं कहा है! या पहले हुआ करता था; अब पता नहीं है भी या नहीं! या कौन जाने यह सिर्फ बातचीत हो कवियों की, कल्पनाशील लोगों की, सपने देखने वालों की! देखा नहीं कभी सागर।
मछली बड़ी बेचैन होने लगी और हर घड़ी सागर में ही है। और जिन मछलियों से पूछ रही है वे भी सागर में हैं। लेकिन सागर को जाने कैसे! जो बहुत करीब हो वह चूक जाता है। सागर से दूरी चाहिए न! सागर को जानने का एक ही उपाय है कि मछली को कोई मछुआ पकड़ कर सागर के तट पर डाल दे; रेत में तड़पे, तब उसे पता चले कि सागर कहां है। तो मछली को तो कोई मछुआ पकड़ कर सागर की रेत पर डाल भी सकता है किनारे पर, लेकिन परमात्मा का तो कोई भी कि किनारा नहीं; हमें तो कोई भी मछुआ निकाल कर बाहर नहीं डाल सकता है। हम तो जहां भी होंगे परमात्मा में ही होंगे। इसी कारण हम चूक रहे हैं।
तुम्हारे तर्क से, विचार से, खोज से तुम उसे न पाओगे। तुम खो जाओ तो उसे पा लो। भक्ति खोने का सूत्र है।
काश मैं होता न कस्तूरी हिरन
क्यों भटकते रात-दिन मेरे चरण!
कस्तूरी मृग के नाफे में बसती है सुगंध, भागता फिरता है। कस्तूरी कुंडल बसै। कस्तूरी बसी है कुंडल में अपने ही, मगर गंध ऐसा लगता है बाहर से आ रही है। पता भी कैसे चले कि गंध भीतर से आ रही है? नासापुट तो बाहर खुलते हैं, गंध बाहर निकल रही है और फिर लौट रही है और नासापुटों में भर रही है। भागता है पागल हो कर कस्तूरी मृग।
काश मैं होता न कस्तूरी हिरन
क्यों भटकते रात-दिन मेरे चरण!
फूल ही होता अगर खिलता नहीं
गंध मुझमें भी, मगर कितनी विफल
वायु सा रखती मुझे प्रतिपल विकल
आत्मरति के मंत्र से मोहित हुआ
कर रहा अपना स्वयं ही अनुसरण
पार कितनी मंजिलें मैं कर चुका
किंतु चुकती ही नहीं यह बालुका
कुछ पता जलस्रोत का चलता नहीं
और सूरज है कभी ढलता नहीं
दोहरा संताप यह कैसे सहूं?
कब तलक मांगूं न छाया से शरण?
यह प्रहर कितना विवश निरुपाया है
स्वप्न-आहत चेतना मृतप्राय है
विषमयी कुंठा मुझे डस जाएगी
सर्पणी-सी पाश में कस जाएगी
और कब तक जी सकूंगा इस तरह
चाट कर अपने अहं के ओस-कण?
हाय यह मुझको अचानक क्या हुआ?
किस अदेखे स्पर्श ने मुझको छुआ?
सांस लौटी लौट जाने के लिए
मेघ आए या बुलाने के लिए?
काश यह कोई बता पाए मुझे
जन्म है मेरा नया यह या मरण?
कस्तूरी मृग भटकता है--उस सुगंध की खोज में जो उसके भीतर छिपी है। दौड़ता, दौड़ता। यात्रा का कोई अंत ही नहीं आता--आ भी नहीं सकता। थक जाता, गिर जाता।
हाय यह मुझको अचानक क्या हुआ?
किस अदेखे स्पर्श ने मुझको छुआ?
सांस लौटी लौट जाने के लिए
मेघ आए या बुलाने के लिए?
काश यह कोई बता पाए मुझे
जन्म है मेरा नया यह या मरण?
भटकते-भटकते मरने के करीब स्थिति आ जाती है। और यह भी तो हमें पता नहीं चलता कि मृत्यु मृत्यु है या नए जन्म का सूत्रपात। जीवन का ही पता नहीं चला तो मृत्यु का कैसे पता चलेगा? जीवन से ही चूक गए तो मृत्यु से तो चूकना निश्चित है, सुनिश्चित है। जीवन तो सत्तर साल था तो भी न जाग सके; मृत्यु तो पल में घट जाएगी, कैसे जागेंगे? इसलिए बार-बार तुम जन्मे और बार-बार तुम चूके--जीवन से चूके, मृत्यु से चूके। और जिसकी तुम तलाश कर रहे हो...काश मैं होता न कस्तूरी हिरण, क्यों भटकते रात-दिन मेरे चरण...वह कस्तूरी तुम्हारे भीतर है।
परमात्मा बाहर ही थोड़े है। परमात्मा बाहर-भीतर का जोड़ है। परमात्मा खोजने वाले में उतना ही छिपा है। कैलाश और काबा, गिरनार और जेरुसलम भटकने से कुछ भी न होगा। क्योंकि जिसे तुम खोज रहे हो, उस चैतन्य की एक किरण तुम्हारे भीतर भी बसी है। वहीं से पकड़ लो।
तो दो उपाय हैं। एक तो खोजी का उपाय है कि वहां से पकड़ो, श्रम करो, प्रयास करो। बहुत संभावना है तुमसे वह हो न सकेगा। कभी-कभार कोई प्रयास से पहुंचता है। सौ में कभी एक कोई प्रयास से पहुंचता है। और प्रयास से वही पहुंचता है जिसमें इतनी कला होती है कि प्रयास तो करता है और अहंकार को निर्मित नहीं होने देता, वही प्रयास से पहुंचता है। वह बड़ी दुर्लभ बात है--कोई महावीर, कोई बुद्ध। खतरा क्या है कि प्रयास के साथ अहंकार आ ही जाता है। इसलिए वही कुशल व्यक्ति प्रयास से पहुंचता है जो प्रयास तो करता है, अहंकार को नहीं आने देता। निरहंकार प्रयास...तो फिर कोई पहुंच जाता है! लेकिन वह तो झंझट हो गई। पहले तो प्रयास ही कठिन है, फिर उसको निरहंकार बनाना कठिन है। वह तो ऐसा हुआ कि जैसे जहर को कोई अमृत बनाने की चेष्टा करे। प्रयास और अहंकार तो ऐसे हैं जैसे नीम-चढ़ा करेला, और कड़वा हो जाता है।
अधिकतम लोग सत्य की अनुभूति में प्रसाद से पहुंचे, क्योंकि प्रसाद में एक सुविधा है। सुविधा यह है कि प्रसाद में अहंकार तो खड़ा हो नहीं सकता। तुम तो करने वाले हो ही नहीं, परमात्मा करने वाला है। इसलिए जो प्रयास का खतरा है यह प्रसाद के मार्ग पर नहीं।
दया प्रसाद के मार्ग की बात कर रही है। तुम प्रभु के हाथों में अपने को छोड़ दो। उसकी मर्जी पूरी हो, तुम उपकरण मात्र हो जाओ।
"तातें तेरे नाम की, महिमा अपरंपार।
जैसे किनका अनल को, सघन बनौ दे जार।।'
--एक छोटी सी चिनगारी गिर जाए मेरे ऊपर प्रभु तो जैसे जंगल जल जाता है ऐसे मैं जल जाऊं और राख हो जाऊं। जिस घड़ी भक्त जल गया और राख हो गया, शून्य हो गया, मिट गया, उसी क्षण भक्त भगवान हो गया। भक्त की मृत्यु भगवान का जन्म है भक्त में। भक्त की मृत्यु भगवान का आगमन है। भक्ति मृत्यु का पाठ है, क्योंकि प्रेम मृत्यु का पाठ है। केवल वे ही व्यक्ति प्रेम को जान पाते हैं जो मरने की क्षमता रखते हैं। और केवल वे ही व्यक्ति भक्ति को जान पाते हैं जो महामृत्यु के लिए तत्पर हैं।
तत्पर बनो, यह हो सकता है। और यह जब तक न हो जाएगा तब तक तुम अनाथ हो और अनाथ ही रहोगे। यह हो सकता है, यह तुम्हारे बहुत करीब है। तुम जरा द्वार-दरवाजे खोलो और प्रभु तुम्हारे भीतर चला आएगा; जैसे सूरज की किरणें चली आती हैं द्वार खोलते ही, और हवा के ताजे झोंके आ जाते हैं द्वार खोलते ही। द्वार बंद किए मत बैठे रहो और डोलो, नाचो, गुनगुनाओ। जीवन के प्रति धन्यवाद प्रकट करो। अगर तुम जीवन के प्रति धन्यवाद कर सको, जो मिला है वह भी काफी है। जो है वह भी बहुत है। उसके प्रति अगर धन्यवाद कर सको तो और-और मिलेगा। तुम्हारा धन्यवाद और-और ले आएगा। जितने तुम कृतज्ञ होने लगोगे उतना ही तुम्हारा पलड़ा भारी होने लगेगा। जितने तुम कृतज्ञ होने लगोगे उतने ही तुम पात्र होने लगोगे, प्रभु का प्रसाद तुम में भरने लगेगा।
लेकिन भक्ति का सारा मार्ग हृदय का मार्ग है। इसलिए यहां वे ही सफल होते हैं जो पागल होने में कुशल हैं। यहां वे ही सफल होते हैं जो दिल खोल कर रो सकते हैं, हंस सकते हैं। यहां वे ही सफल होते हैं जो परमात्मा की शराब पीने में भयभीत नहीं हैं। क्योंकि उस शराब को पीने के बाद तुम तो बेहोश हो जाओगे, तुम्हारा तो कुछ बस न रह जाएगा अपने जीवन पर। फिर वही चलाएगा तो चलोगे, फिर वही उठाएगा तो उठोगे। यद्यपि वह उठाता है और चलाता है और बड़े आनंद से जीवन चलता है और उठता है। अभी तो जीवन दुख ही दुख है, तब आनंद ही आनंद होता है। लेकिन तुम्हारा नियंत्रण न रह जाए अगर। वही भय है।
भक्ति की तरफ जाने में जो एकमात्र बात बाधा बनती है वह इतनी ही है कि तुम भयभीत हो कि मैं अपने नियंत्रण के बाहर हो जाऊंगा, अपना मालिक न रह जाऊंगा।
परमात्मा को मालिक बनाना हो तो तुम अपने मालिक नहीं रह सकते। "साहिब मेरी अरज है...'। उसे साहिब बनाना हो तो तुम्हें अपनी साहबियत छोड़ देनी पड़े। उसे मालिक बनाना हो तो तुम्हें सिंहासन से नीचे उतर आना पड़े। उतरो सिंहासन से! उतरते ही तुम पाओगे वह बैठा ही था; तुम्हारे बैठे होने की वजह से दिखाई नहीं पड़ता था। तुम उतर कर सिंहासन के सामने झुको और तुम पाओगे: उसकी अपरंपार ज्योति, उसकी अनंत ज्योति, उसका प्रसाद तुम्हें सब तरफ से भर गया है।
रामकृष्ण कहते थे: तुम नाहक ही पतवारें खे रहे हो। अरे पाल खोलो! पतवारें रख दो। उसकी हवाएं बह रही हैं। वह तुम्हारी नाव को उस पार ले जाएगा।
भक्ति है पाल खोलना और ज्ञान है पतवार चलाना। पतवार में तो स्वभावतः तुम्हीं को लगना पड़ेगा। पाल भगवान की हवाएं अपने में भर लेते हैं और नाव चल पड़ती है--तुम्हारे बिना किए कुछ चल पड़ती है। समर्पण--और खोल दो पाल! अपना किया अब तक कुछ न हुआ। अब छोड़ो भरोसा अपने पर। अब उसके पैरों से चलो! अब उसकी आंखों से देखो! अब उसके ढंग से जीयो। अब उसके हृदय से धड़को।
ये दया के सूत्र अनूठे हैं, तुम्हारे जीवन में क्रांति ला सकते हैं।
"जैसे किनका अनल को सघन बनौ दे जार'
अगर इनका एक अंगारा भी तुम्हारे भीतर पड़ गया तो तुम्हारा अंधकार नष्ट हो सकता है।
जब भी मैं अपने को भाया हूं
तेरी ही याद मुझे आई है
जब जब भी दर्पण में
अपना प्रतिबिंब मुझे भला लगा
मेरी रोमांच-भरी आंखों में
तेरा प्रतिबिंब जगा
जब-जब मैं सुख पर ललचाया हूं
तेरी ही याद मुझे आई है।
जब कोई गीत नया जन्मा है अधरों पर
जाने क्यों याद मुझे आया तब तेरा स्वर
जब-जब मैं चांद चुरा लाया हूं
तेरी ही याद मुझे आई है।
साक्षी है तू मेरी सृजन-विकल रातों की
दृढ़ता है तू मेरे रचनारत हाथों की
जब-जब मैं काल जीत आया हूं
तेरी ही याद मुझे आई है।
जब-जब मैं अपने को भाया हूं
तेरी ही याद मुझे आई है।
एक बार तुम अपना अहंकार छोड़ो तो तुम चकित हो जाओगे। तुम अपने को भी दर्पण में देखोगे तो वही दिखाई पड़ेगा। दूसरे की तो बात छोड़ो, और सब में तो दिखाई पड़ेगा ही, तुम दर्पण में अपनी छवि भी देखोगे तो वही दिखाई पड़ेगा। तुम आंख बंद करके अपने भीतर झांकोगे तो भी वही दिखाई पड़ेगा। तुम चलोगे तो तुम्हारी पगध्वनि उसकी ही पगध्वनि हो जाती है। तुम गाओगे तो वही गुनगुनाएगा। तुम नाचोगे तो वही नाचेगा। एक बार अहंकार हट जाए तो उसकी ऊर्जा तुम्हारी ऊर्जा हो जाती है। एक बार अहंकार हट जाए तो उसका जीवन तुम्हारा जीवन है।

आज इतना ही।






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