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गुरुवार, 29 मार्च 2018

महावीर या महाविनास--(प्रवचन-01)


मानव गरिमा के उदघोषक-पहला प्रवचन

इस पुण्य स्मरण-दिवस पर मैं दुखी भी हूं और आनंदित भी हूं। दुखी इसलिए हूं कि महावीर का हम स्मरण करते हैं, लेकिन महावीर से हमें कोई प्रेम नहीं है। दुखी इसलिए हूं कि धर्म-मंदिरों में हम प्रवेश करते हैं, लेकिन धर्म-मंदिरों पर हमारी कोई श्रद्धा नहीं है। दुखी इसलिए हूं कि हम सत्य की चर्चा करते हैं, लेकिन सत्य पर हमारी कोई निष्ठा नहीं है। और ऐसे लोग जो झूठे ही मंदिर में प्रवेश करते हों, और ऐसे लोग जो झूठा ही भगवान का स्मरण करते हों, उन लोगों से बुरे लोग हैं, जो भगवान का स्मरण नहीं करते और मंदिरों में प्रवेश नहीं करते। क्योंकि वे लोग जो स्पष्टतया धर्म के विरोध में खड़े हैं, कम से कम नैतिक रूप से ईमानदार हैं--उनकी बजाय, जो धर्म के पक्ष में तो नहीं हैं, लेकिन पक्ष में खड़े हुए दिखाई पड़ते हैं।
सारी जमीन इस तरह के धार्मिक लोगों से भर गई है जो धार्मिक नहीं हैं, और उनके कारण धर्म रोज डूबता चला जाता है। और सारे मंदिर ऐसे लोगों से भर गए हैं जो नास्तिकों से भी बदतर हैं, और इसलिए मंदिर मंदिर नहीं रह गए हैं।
उन ओंठों से भगवान महावीर का या बुद्ध का या कृष्ण का स्मरण, जिन ओंठों में सच में ही धर्म की कोई प्रतिष्ठा नहीं है, अपमानजनक है। इसलिए मैं दुखी हूं।

और इसलिए आनंदित भी हूं कि इतना सब हो जाने के बाद भी, मनुष्य के जीवन से धर्म की सारी जड़ें टूट जाने के बाद भी, मनुष्य के अंतस्तल से धर्म से सारे संबंध विच्छिन्न हो जाने के बाद भी, सारी निष्ठा और सारी आस्था खंडित हो जाने के बाद भी इसलिए आनंदित हूं, कि कम से कम हमारे मन में पच्चीस सौ वर्ष पहले कोई हुआ हो, पच्चीस सौ वर्ष पीछे इतिहास में कोई हुआ हो, उसके प्रति एक स्मृति की रेखा हमारे हृदय में उठती है। जो अंधकार घना है, उसके लिए दुखी हूं, लेकिन जो स्मृति की थोड़ी सी प्रकाश-किरण है, उसके कारण आनंदित भी हूं।
हम कितने ही दूर चले गए हों, लेकिन हमारे मन में एक स्मरण और एक स्मृति और एक खयाल मौजूद है। उस किरण के सहारे शायद पूरे अंधेरे को भी मिटाया जा सकता है।
इस स्मृति-दिवस पर महावीर के संबंध में कुछ थोड़ी सी बातें कहूंगा और कुछ थोड़ी सी बातें आपके संबंध में कहूंगा। क्योंकि जो बातें केवल महावीर के संबंध में हों, वे आपके किसी काम की नहीं होंगी। और जो बातें केवल आपके संबंध में हों, उनसे महावीर का कोई संबंध नहीं होगा। इसलिए उचित है कि मैं थोड़ी सी बातें आपके संबंध में कहूं और थोड़ी सी बातें महावीर के संबंध में कहूं, ताकि आप महावीर से संबंधित हो सकें। ताकि रास्ता बन सके और आप उनके विचार तक, उनके उस आकाश तक आपकी आंखें खुल सकें। इसलिए थोड़ी सी बात आपकी और थोड़ी सी बात महावीर की।
इसके पहले कि महावीर के संबंध में कुछ कहूं, बहुत उचित है कि आपके संबंध में कहूं। क्योंकि आप महावीर को समझना चाहते हैं, आप महावीर को प्रेम करना चाहते हैं, आप महावीर के प्रति निष्ठावान होना चाहते हैं। और आप महावीर के विचार और उनकी साधना से लाभान्वित होना चाहते हैं, तो आपके संबंध में कुछ बातें बहुत जरूरी हैं।
पहली बात तो यह जरूरी है कि आप इस बात को समझ लें कि अगर आप जैन घर में पैदा हुए हैं इसलिए महावीर को श्रद्धा देते हों तो वैसी श्रद्धा का मूल्य दो कौड़ी से ज्यादा नहीं है। अगर आप जैन घर में पैदा होने से महावीर को आदर देते हों तो क्षमा मुझे करें, आप कोई भी आदर नहीं देते हैं। आपके किसी घर में पैदा होने से महावीर को दिए गए आदर का क्या संबंध हो सकता है? आपका किसी समाज में पैदा हो जाना, आपका किसी परिवार में पैदा हो जाना, महावीर से आपको संबंधित नहीं करता।
इसे स्मरण रखें, कोई व्यक्ति ईसाई घर में पैदा हो जाने से क्राइस्ट से संबंधित नहीं होता। और कोई व्यक्ति जैन घर में पैदा हो जाने से महावीर से संबंधित नहीं होता। कोई व्यक्ति हिंदू घर में पैदा हो जाने से कृष्ण से संबंधित नहीं होता। यह बात इतनी सस्ती नहीं है। धर्म से संबंधित होना जीवन का सबसे मंहगा सौदा है। और जिन लोगों ने समझा हो कि खून से और जन्म से तय हो जाता है, उन पागलों के लिए क्या कहा जाए?
धार्मिक होना दुरूह साधना की बात है। और धार्मिक होने के लिए किसी जन्म से कोई संबंध नहीं है, बल्कि अपने भीतर जो भी बुरा है और जो भी अंधकार है, उसकी मृत्यु से धर्म का संबंध है। आपके जन्म से नहीं, आपके मर जाने से आप धर्म से संबंधित होंगे। आपके किसी घर में पैदा हो जाने से नहीं, आपकी संपूर्ण अहंता को लेकर अगर आप मर सकेंगे, तो आप धर्म से संबंधित हो जाएंगे।
और मैं आपको यह भी कहूं, जैसा मैंने कहा कि ईसाई घर में पैदा होने से कोई क्राइस्ट से संबंधित नहीं होता और जैन घर में पैदा होने से महावीर से संबंधित नहीं होता, वैसे ही मैं आपको यह भी कहूं कि जो महावीर से संबंधित हो जाता है वह क्राइस्ट से भी संबंधित हो जाता है और कृष्ण से भी संबंधित हो जाता है। इन जीते और जागते प्रकाश स्रोत में से किसी एक से भी जो संबंधित हो जाता है, वह अनंत प्रकाशों से संबंधित हो जाता है।
गांधी जी को किसी ने अमरीका से एक पत्र लिखा था और उनको पूछा था कि आप गीता को बहुत आदर देते हैं, क्या मुझे आप आज्ञा देंगे कि मैं भी हिंदू हो जाऊं? गांधी जी ने उसे उत्तर दिया कि मैं किसी को यह नहीं कह सकता कि वह हिंदू हो जाए, या मुसलमान हो जाए। मैं तो यही कहूंगा, वह जिस धर्म में है, उस धर्म की संपूर्ण गहराई में उतर जाए। अगर वह क्रिश्चियन है तो वह अच्छा क्रिश्चियन हो जाए, अगर वह मुसलमान है तो अच्छा मुसलमान हो जाए। अच्छे मुसलमान में, अच्छे ईसाई में, और अच्छे जैन में कोई फासला नहीं रह जाता है। सब फासले बुरे लोगों में हैं। सारे फासले बुराई के बीच हैं, भलाई के बीच कोई फासला नहीं है।
और इसीलिए जो धर्म अलग-अलग खड़े दिखाई पड़ते हों, जो मंदिर और चर्च अलग खड़े दिखाई पड़ते हों, जानना कि वे बुरे लोगों ने खड़े किए होंगे। वे भले लोगों के खड़े किए हुए नहीं हो सकते। और जो संप्रदायों और संगठनों में विभक्त दिखाई पड़ते हों और जो आर्गनाइजेशंस में बंधे हुए दिखाई पड़ते हों, समझना कि उसमें बुरे लोग नेता होंगे। वह भले लोगों का काम नहीं हो सकता। साधु जगत में किसी को लड़ाते नहीं हैं और असाधु सिवाय लड़ाने के कुछ भी नहीं करते हैं।
यदि महावीर से आप संबंधित हो गए तो आप क्राइस्ट से और कृष्ण से भी संबंधित हो जाएंगे। क्योंकि ये नाम अलग हैं, इनके भीतर जो सचाई है, वह एक है। यहां बहुत, हजार दीए जलते हों, वे हजार दीए अलग-अलग हैं, लेकिन उनमें जो ज्योति जलती है वह एक है। और लाख फूल यहां खिले हों, वे फूल सब अलग-अलग हैं, लेकिन जो सौंदर्य उनमें प्रकट होता है वह एक है। सारी जमीन पर जो भी श्रेष्ठ पुरुष हुए हैं, और जिनके जीवन में परमात्मा का प्रकाश उतरा है, और जिनके जीवन में सौंदर्य का अनुभव हुआ है, और जिन्होंने सत्य को उपलब्ध किया है, उनकी देहें अलग हों, उनकी आत्माएं अलग नहीं हैं।
इसलिए महावीर के इस जन्म-दिवस पर पहली बात आपसे यह कहूं कि आप सिर्फ इस कारण महावीर के प्रति अपने को श्रद्धा से भरे हुए मत समझ लेना कि आपका जन्म जैन घर में हुआ है।
धर्म बपौती नहीं है और किसी को वंशक्रम से नहीं मिलता।
धर्म प्रत्येक व्यक्ति की निजी उपलब्धि है और अपनी साधना से मिलता है।
इस समय सारी जमीन जिस भूल में पड़ी है, वह भूल यह है कि हम उस धर्म को, जिसे कि चेष्टा से, साधना से, प्रयास से उपलब्ध करना होगा, उसे हम पैदाइश से उपलब्ध मान लेते हैं! इससे बड़ा धोखा नहीं हो सकता। और जो आपको यह धोखा देता है, वह आपका दुश्मन है। जो आपको इसलिए जैन कहता हो कि आप जैन घर में पैदा हुए, वह आपका दुश्मन है, क्योंकि वह आपको ठीक अर्थों में जैन होने से रोक रहा है। इसके पहले कि आप ठीक अर्थों में जैन हो सकें, आप गलत अथर्ो में जो जैन हैं, उसे छोड़ देना होगा। इसके पहले कि कोई सत्य को पा सके, जो असत्य उसके मन में बैठा हुआ है, उसे अलग कर देना होगा।
तो यह तो मैं आपके संबंध में कहूं कि आप अपने संबंध में यह निश्चित समझ लें कि अगर आपका प्रेम और श्रद्धा केवल इसलिए है, तो वह श्रद्धा झूठी है। और झूठी श्रद्धा मनुष्य को कहीं भी नहीं ले जाती। झूठी श्रद्धा भटकाती है, पहुंचाती नहीं है। झूठी श्रद्धा चलाती है, लेकिन किसी मंजिल को निकट नहीं लाने देती है। झूठी श्रद्धा अनंत चक्कर है। और सच्ची श्रद्धा एक ही छलांग में कहीं पहुंचा देती है।
तो आपकी झूठी श्रद्धा छूटे। आपका यह खयाल मिट जाना चाहिए कि खून से और पैदाइश से मैं धार्मिक हो सकता हूं। धार्मिक होना अंतस-चेतना के परिवर्तन से होता है। यह तो पहली बात आपके संबंध में कहूं।
दूसरी बात आपके संबंध में यह कहना चाहूंगा कि शायद आपको यह पता न हो कि धर्म क्या है? आप रोज सुनते हैं--जैन धर्म, हिंदू धर्म, मुसलमान धर्म। ये सब नाम हैं, ये धर्म नहीं हैं। शायद आप सोचते हों कि धर्म का संबंध किन्हीं सिद्धांतों को याद कर लेने से है। शायद आप सोचते हों किसी तत्व-प्रणाली को, किसी फिलासफी को, किसी तत्व-दर्शन को सीख लेने से है। तो आप भूल में होंगे।
धर्म का संबंध किन्हीं सिद्धांतों के स्मरण कर लेने से और याद कर लेने से नहीं है। आपको सारे सिद्धांत याद हो जाएं, तो भी आप धार्मिक नहीं बन सकेंगे। स्मृति से धर्म का क्या संबंध है? कोई भी संबंध नहीं है। यह हो सकता है कि आप सारे धर्म के सिद्धांत दोहराने लगें, वे आपकी वाणी और विचार में प्रविष्ट हो जाएं, उससे कुछ भी न होगा।
बहुत लोग समझते हैं धर्म के संबंध में कुछ जान लेंगे तो धार्मिक हो जाएंगे! धर्म के संबंध में कुछ भी जानने से कोई धार्मिक नहीं होता। कोई धार्मिक हो जाए तो धर्म के संबंध में सब जान लेता है। इस सूत्र को मैं पुनः दोहराऊं, धर्म के संबंध में जान लेने से कोई धार्मिक नहीं होता, धार्मिक कोई हो जाए तो धर्म के संबंध में सब जान लेता है।
तो यदि आप जैन धर्म के संबंध में कुछ जानते हों, महावीर के धर्म के संबंध में कुछ जानते हों, उसका कोई मूल्य नहीं है। अगर महावीर जिसे धर्म कहते हैं, उस अर्थ में आप थोड़े बहुत धार्मिक हों तो उसका बहुत मूल्य है।
धर्म जानकारी नहीं है, धर्म आमूल जीवन को परिवर्तित करना है। धर्म कुछ सीखना नहीं है, धर्म कुछ वस्त्रों की भांति ऊपर से ओढ़ लेना नहीं है, धर्म तो श्वासों की भांति, प्राणों की भांति, हृदय की धड़कन की भांति, जब समग्र जीवन में प्रविष्ट हो जाए, तो ही सार्थक होता है।
तो दूसरी बात आपसे मैं यह कहूं कि अगर महावीर के सिद्धांत आपको मालूम हों तो उसका कोई बहुत मूल्य नहीं है। अगर महावीर की जीवन-चर्या आपको मालूम हो तो उसका मूल्य है। महावीर क्या कहते थे कि सृष्टि कैसे बनी, महावीर क्या कहते थे कि कितने पदार्थ हैं और कितने तत्व हैं, महावीर क्या कहते थे कि तर्क क्या है और सत्य क्या है, इसे जान लेने का कोई मूल्य नहीं है। मूल्य इस बात का है कि महावीर कैसे चलते थे, कैसे उठते थे, कैसे जीते थे। महावीर के तत्व-चिंतन का मूल्य नहीं है, महावीर की जीवन-चर्या का मूल्य है।
जो जीवन-चर्या को साधेगा, वह महावीर के तत्व-ज्ञान को अपने आप उपलब्ध हो जाएगा। जो महावीर के तत्व-ज्ञान को सीख कर बैठा रहेगा, वह तत्व-ज्ञानी बन कर रह जाएगा, वह महावीर की जीवन-चर्या को उपलब्ध नहीं होगा। जीवन-चर्या मूल है, तत्व-ज्ञान गौण है। जीवन-चर्या का वृक्ष कोई लगाए, तो तत्व-ज्ञान की शाखाएं अपने आप फूट आती हैं। और जो तत्व-ज्ञान की शाखाओं को इकट्ठा करता रहे, उसके हाथ में लकड़ियों का बंडल तो बहुत इकट्ठा हो जाता है, भार तो बहुत हो जाता है, उसके जीवन में मुक्ति का प्रकाश उपलब्ध नहीं होता है। इसलिए दूसरी बात आपसे यह कहूं।
और तीसरी बात आपसे यह कहूं कि धर्म केवल उनके काम का है, जिन्हें प्यास हो। एक कुएं के पास हम खड़े हों। कुएं में जो पानी है, वह पानी केवल उन्हीं के लिए है, जिन्हें प्यास हो, अन्यथा पानी पानी नहीं है। पानी का होना पानी के भीतर नहीं है, आपकी प्यास में है। प्यास हो तो पानी पानी बन जाता है, प्यास न हो तो पानी कुछ भी नहीं रह जाता।
यह प्रकाश जल रहा है यहां। इस प्रकाश का होना प्रकाश में ही नहीं है, मेरी आंख में भी है। अगर आंख हो तो यह प्रकाश बन जाता है, आंख न हो तो सब अंधकार हो जाता है।
धर्म के सत्य तो निरंतर उपलब्ध हैं, जैसे प्रकाश निरंतर उपलब्ध है। प्रश्न धर्म के सत्यों का नहीं, प्रश्न मेरे भीतर आंख के होने का है। पानी तो हमेशा उपलब्ध है--प्रश्न पानी का नहीं, मेरे भीतर प्यास के होने का है। तो इसके पहले कि मैं पानी की चर्चा करूं, यह जरूरी है कि मैं आपकी प्यास की चर्चा कर लूं। इसलिए तीसरी बात मैं आपसे यह कहना चाहता हूं, जहां तक मेरी समझ है, आपमें शायद ही धर्म की प्यास हो। क्योंकि जिनमें धर्म की प्यास हो, वे बहुत दिन बिना धार्मिक हुए नहीं रह सकते हैं। यह मैं सोच ही नहीं सकता कि कोई आदमी मुझसे कहे कि मैं वर्ष भर से प्यासा हूं और अभी पानी की तरफ गया नहीं! यह मैं सोच ही नहीं सकता, यह मेरी कल्पना में नहीं आता कि कोई आदमी वर्ष भर से प्यासा है और कुएं की तरफ गया नहीं! उसका न जाना इस बात का सबूत है, उसके भीतर प्यास न होगी। प्यास हो तो जाना ही पड़ेगा। प्यास हो तो चरण उस तरफ चले ही जाएंगे, प्यास हो तो सांसें खिंची चली जाएंगी, प्यास हो तो प्राण उसी तरफ भागेंगे।
जहां प्यास है, वहां गति है। और जहां प्यास नहीं है, वहां कोई गति नहीं है।
दुनिया को लोग कह रहे हैं कि अधार्मिक हो गई है! दुनिया अधार्मिक नहीं हो गई। केवल एक बात हो गई है कि वह जो प्यास है धर्म की तरफ जाने की, वह क्षीण हो गई है; उसका बोध विलीन हो गया है, उसका खयाल मिट गया है। खयाल चीजों को देख कर पैदा होते हैं। विचार और आकांक्षाएं बाहर घटनाएं घटें तो हमारे भीतर अनुप्रेरित होती हैं।
जब महावीर जैसा व्यक्ति गांव से निकलता होगा और उनके आनंद को, और उनकी शांति को, और उनके प्रकाश को जब लाखों लोग देखते होंगे, तो स्वाभाविक था कि यह प्यास उनके भीतर पैदा होती हो कि ऐसी शांति और ऐसा आनंद हमें कैसे उपलब्ध हो जाए! मैं आपको कहूं कि महावीर या बुद्ध या उस तरह के व्यक्ति किसी को कोई उपदेश नहीं देते हैं। उनका उपदेश एक ही है। और वह बहुत गहरा है, और वह यह है कि जब वे आपके करीब से निकलते हैं, तो आपके भीतर एक प्यास को सरका कर जगा देते हैं। उनकी शिक्षाओं का उतना मूल्य नहीं है। इसलिए शिक्षाएं तो सब किताबों में लिखी हुई हैं, उनका आप पर कोई असर नहीं होता। इसलिए दुनिया से जब भी कोई शिक्षक मिट जाता है, तो उसकी शिक्षाएं तो सब मौजूद होती हैं, उनका कोई अर्थ नहीं रह जाता। क्योंकि शिक्षक की खूबी शिक्षाओं में नहीं थी। शिक्षक की खूबी थी आपके भीतर प्यास को जगा देने में। कोई मुर्दा शिक्षा उसको नहीं जगा सकती है। केवल जीवित व्यक्ति ही उसे पैदा कर सकते हैं।
कल्पना में भी अगर आप खयाल करें महावीर का, अगर कल्पना में भी विचार उठे कृष्ण का, क्राइस्ट का, तो आपके भीतर क्या होगा?
आपके भीतर यह होगा कि आपको लगेगा कि अगर हड्डी-मांस की इस देह में यह संभावना हो सकी कि यह सौंदर्य फलित हुआ है, तो क्या मेरे हड्डी-मांस दूसरे ढंग के बने हुए हैं? क्या महावीर के हड्डी-मांस किसी विशेष ढंग के बने हुए हैं?
कुछ ऐसे नासमझ हैं, जो कहेंगे, विशेष ढंग के बने हुए हैं। कुछ ऐसे नासमझ हैं, जो कहेंगे, उनके शरीर में खून ही नहीं है, दूध भरा हुआ है! लेकिन मैं आपको कहूं, उनके शरीर में बिलकुल वैसे ही खून है, जैसे आपके शरीर में है। और उनकी हड्डियां बिलकुल वैसी ही नश्वर हैं, जैसी आपकी हैं। यह मैं इसलिए कहना चाहता हूं ताकि आपको यह न भूल जाए कि महावीर होना आपकी भी संभावना है।
अगर महावीर के शरीर में दूध रहता हो खून की जगह, तो फिर आप महावीर नहीं हो सकते। अगर महावीर की काया वज्र-काया हो, तो फिर आप महावीर नहीं हो सकते। कमजोर लोग जो दो-चार दिन में अस्पताल जाते हों, ये महावीर कैसे होंगे! उन नासमझों ने जिन्होंने यह प्रचार किया कि महावीर की काया वज्र-काया थी और जिन्होंने यह प्रचार किया उनका शरीर कोई दूसरे नियम पालता था, उन्होंने सारी दुनिया को महावीर से वंचित कर दिया।
मेरी बात हो सकती है ऐसा लगे कि मैं महावीर को नीचे उतार रहा हूं! मैं महावीर को एक सामान्य आदमी बना देना चाहता हूं, ताकि सामान्य आदमियों के वे काम के हो जाएं। जो सीढ़ी आप तक न पहुंचती हो, वह आपको आकाश तक कैसे ले जाएगी? वही सीढ़ी ऊपर उठा सकती है, जो मेरे पैर तक आती हो। अगर महावीर को अपना सिर बनाना है, अगर महावीर की ऊंचाई तक उठना है, तो महावीर की सीढ़ी आप तक आनी चाहिए।
एक गलती हुई पीछे सदियों में, आदर और श्रद्धा के मोह में हमने इन सारे लोगों को अलौकिक बना दिया। हमने महावीर को, बुद्ध को भगवान बना दिया। और हमने कहा कि वे अलौकिक पुरुष हैं! हमने अपने प्रेम में ये बातें कहीं, लेकिन हमें पता न रहा कि यह प्रेम मंहगा पड़ जाएगा। और यह प्रेम मंहगा पड़ गया। अब हम उनकी श्रद्धा करते हैं और आदर करते हैं, लेकिन कभी यह आकांक्षा हमारे भीतर पैदा नहीं होती कि हम महावीर बन जाएं। और अगर मैं आपसे कहूं कि मेरे मन में यह आकांक्षा पैदा हो कि मैं महावीर बन जाऊं, तो अनेक को तो ऐसा लगेगा यह बात तो नास्तिकता की हो गई, अनेक को तो ऐसा लगेगा यह महावीर का अपमान हो गया।
मैं आपको कहूं कि अगर इसमें महावीर का अपमान भी होता हो, तो भी मैं तैयार हूं। क्योंकि महावीर का कोई क्या अपमान कर सकेगा! मान-सम्मान के जो पार निकल गए हों, उनका कोई अपमान नहीं कर सकता। लेकिन आपका मैं सम्मान जरूर कर सकता हूं। महावीर के अपमान में भी अगर आप सम्मानित होते हों, एक क्षुद्रतम मनुष्य अगर महावीर के अपमान से सम्मानित होता हो, हम महावीर का अपमान करने को तैयार हैं--उस क्षुद्रतम मनुष्य को ऊपर उठाने के लिए, उसे महावीर तक पहुंचाने के लिए।
महावीर आप जैसे व्यक्ति हैं--आप ही जैसे व्यक्ति। लेकिन एक दिन आया कि वे आप जैसे बिलकुल नहीं रह गए। वे बिलकुल आप ही के जैसे हड्डी-मांस के बने हुए व्यक्ति हैं। लेकिन एक वक्त आया कि उनके भीतर एक ऐसी आत्मा का उदय हुआ, जो अलौकिक है। देह तो आपकी थी, आत्मा आपकी नहीं थी। देह तो बिलकुल आपकी थी, आत्मा महावीर की आपकी नहीं थी। और इसलिए एक रास्ता है। कम से कम देह के तल पर आप महावीर के साथ खड़े हैं। कम से कम देह के तल पर आप महावीर के साथी और मित्र हैं। और अगर देह के तल पर साथी और मित्र हैं, तो क्यों न आत्मा के तल पर मित्र होने की आकांक्षा पैदा हो?
अगर बीज के तल पर हम समान हैं वृक्षों से...अगर एक वट-वृक्ष के पास पड़ा हुआ एक वट का बीज यह सोचे कि मैं समान हूं इस वृक्ष से, क्योंकि यह वृक्ष भी बीज था और मैं भी बीज हूं। अगर उसे यह पता चले कि इस विराट वृक्ष के भीतर भी वे ही तत्व विराजमान हैं जो मेरे भीतर विराजमान हैं, जो इसके भीतर जाग गया है वह मेरे भीतर सोया हुआ है, तो उस बीज के भीतर प्यास पैदा होगी। प्यास तब पैदा होगी, जब संभावना संभावित दिखाई पड़े।
हमने सारे इन पुरुषों को लोकोत्तर बना कर बिठा दिया है, और तब हमारे भीतर प्यास क्षीण हो गई। हमने अपने हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। हमने आदर और श्रद्धा में ऐसी बातें गढ़ ली हैं, जिनके कारण हम खुद अपने ही उन प्यारे लोगों से वंचित हो गए हैं, जो हमारे हृदय की धड़कन बनने चाहिए थे।
तो मैं आपको कहूं, महावीर को भगवान बाद में कहना, पहले महावीर को अपना मित्र, साथी, सहयोगी और पड़ोसी कहें। उन्हें निकट समझें, ताकि उस दूर तक उठना आपके लिए संभव हो जाए, जहां तक वे पहुंचते हैं।
ये तीन बात मैं आपसे कहना चाहता हूं। और इन तीन बातों के आधार पर ही संभव होगा कि कुछ महावीर के संबंध में कहूं, उसे आप समझ सकें।
पहली बात मैंने आपसे यह कही कि आपके जन्म से आपका धर्म तय नहीं होता, उसके लिए कुछ और करना होता है। अगर महावीर का जीवन देखें, अगर उनकी उत्कट आकांक्षा और अभीप्सा का जीवन देखें, अगर उनकी साधना और प्यास का जीवन देखें--तो महावीर क्या कर रहे हैं? महावीर क्या कर रहे हैं? महावीर केवल एक उपाय कर रहे हैं, महावीर की पूरी साधना एक बात की है कि उनके भीतर वर्द्धमान की मृत्यु हो जाए, ताकि महावीर का जन्म हो सके। अगर धर्म जन्म से मिलता होता, तो महावीर को भी मिल गया होता। फिर बारह वर्षों की उत्कट तपश्चर्या में जाना नासमझी होती। फिर अपने जीवन को गलाना और बदलना पागलपन होता। फिर अपने रत्ती-रत्ती को जलाना और उस दुर्गम अकेली चढ़ाई को चढ़ना हम कैसे समझा पाते कि ठीक है?
लेकिन महावीर जानते हैं कि धर्म जन्म से उपलब्ध नहीं होता। धर्म संकल्प से उपलब्ध होता है। धर्म श्रम से उपलब्ध होता है--अपनी मेहनत से, अपने श्रम से। इसलिए महावीर की परंपरा श्रमण परंपरा कहलाई। श्रमण का अर्थ है: धर्म किसी भी भांति सिवाय श्रम के और उपलब्ध नहीं होता। उतना ही उपलब्ध होता है जितना हम श्रम करते हैं। उससे ज्यादा नहीं। कोई प्रसाद नहीं मिल सकता भगवान की तरफ से। कोई गुरु का आशीर्वाद कुछ नहीं कर सकता। किसी प्रार्थना, किसी स्तुति से धर्म नहीं पाया जा सकता।
यह बड़ी अदभुत बात थी। लेकिन हम ऐसे नासमझ हैं कि जिन महावीर ने यह कहा कि स्तुति से धर्म नहीं पाया जा सकता, प्रार्थना से धर्म नहीं पाया जा सकता, भगवान के प्रसाद से धर्म नहीं पाया जा सकता, धर्म किसी से भिक्षा में नहीं पाया जा सकता--जिन्होंने यह कहा, उनके भक्त उनकी ही मूर्तियों के सामने हाथ जोड़े खड़े हुए हैं और उनसे प्रार्थना कर रहे हैं कि वे कुछ दे दें! जिन्होंने कहा, कुछ भी नहीं दिया जा सकता, जो भी लेना हो छीनना होगा; जो भी लेना हो पराक्रम से, अपने पराक्रम से पाना होगा। यह बड़े गौरव की बात उन्होंने कही। मनुष्य के संबंध में बड़े गौरव की और बड़ी गरिमा की बात उन्होंने कही। इससे बड़ा सम्मान मनुष्य का कभी नहीं हुआ है।
अगर मुझसे कोई कहे कि हम तुम्हें यह सत्य दिए देते हैं, तुम्हें कुछ न करना पड़ेगा, तो मैं उससे कहूंगा, ऐसे सत्य को मैं लूंगा कैसे! जिस सत्य के लिए मुझे कुछ न करना पड़ा हो, उसे केवल नपुंसक स्वीकार कर सकेंगे, पुरुषार्थहीन स्वीकार कर सकेंगे। जिनकी जीवन की सारी ऊर्जा बुझ चुकी है, वे स्वीकार कर सकेंगे। और ऐसा उधार और भिक्षा में पाया गया सत्य क्या जीवंत हो सकता है? क्या ऐसी चीज जीवन को प्रकाश और ज्योति से भर सकती है?
महावीर ने कहा, सत्य कहीं भिक्षा से नहीं मिलेगा, सत्य के लिए तो आक्रमण करना होगा। सत्य के लिए भिक्षु नहीं, क्षत्रिय होना पड़ेगा।
आज तक जगत में जिन्होंने भी सत्य को पाया हो, उन सबको क्षत्रिय हो जाना पड़ेगा। क्षत्रिय का अर्थ है, उन्हें तो अपने श्रम की तलवार के बदौलत, अपने पराक्रम से, अपनी चेष्टा से पाना होगा। और इसलिए महावीर की परंपरा श्रमण परंपरा कहलाई। इसलिए महावीर उदघोषक कहलाए इस अदभुत मानवीय गरिमा के कि उन्होंने मनुष्य को इस बात का स्वाभिमान दिया कि तुम सत्य को मांगो मत, सत्य को जीतो।
सत्य को मांगो मत, सत्य के लिए जीतो। सत्य के लिए स्तुतियां मत करो, सत्य के लिए संघर्ष करो। सत्य के लिए लड़ो, सत्य के लिए अपना बलिदान दो, सत्य के लिए अपने को समर्पित करो। जिस मात्रा में जो अपने को देने को राजी होगा, उसी मात्रा में सत्य पर उसका अधिकार सुनिश्चित होता है। इस बात को महावीर ने तपश्चर्या कहा।
तपश्चर्या का अर्थ है: इंच-इंच अपने को देना सत्य को पाने के लिए। जिस दिन व्यक्ति अपने को समग्रतया देने में समर्थ हो जाता है, उस दिन वह समग्र सत्य को उपलब्ध भी हो जाता है। अपने को देना और सत्य को पा लेना, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए सत्य की फिकर छोड़ दे कोई आदमी और अपने को देने की फिकर कर ले।
अपने को देने का मतलब क्या है? क्या आप सोचते हैं, घर-द्वार छोड़ कर भाग जाएं, तो आपने अपने को दिया? क्या आप सोचते हैं कि पत्नी और बच्चों को छोड़ कर भाग जाएं, तो आपने अपने को दिया? क्या आप सोचते हैं, अपनी संपत्ति और पद छोड़ कर चले जाएं, तो आपने अपने को दिया?
यह अपने को देना नहीं है। क्योंकि पद का क्या मूल्य था? धन का क्या मूल्य था? धन का मूल्य था कि उससे मेरी अहंता तृप्त होती थी। पद का मूल्य था कि मेरा अहंकार उससे बलिष्ठ होता था। अगर धन को छोड़ कर मेरे मन में त्याग का अहंकार पैदा हो गया हो, तो धन छोड़ना व्यर्थ हो गया। अगर पद को छोड़ कर मेरे मन में त्यागी होने का दंभ पैदा हो गया हो, तो पद को छोड़ना व्यर्थ हो गया।
पद को और धन को छोड़ने की बात नहीं है, बात तो अहंता को छोड़ने की है। जो अहंता को छोड़ता है, वह अपने को छोड़ता है। और जो अहंता के अतिरिक्त कुछ भी छोड़ता हो, उसका छोड़ना सब फिजूल है; क्योंकि उस छोड़ने में भी उसकी अहंता फिर बलिष्ठ हो जाएगी। जो धन से प्रगाढ़ होती थी, वह धन के त्याग से प्रगाढ़ हो जाएगी। और जो अहंकार रास्तों पर चलता था कि मेरे पास इतना है, वही अहंकार फिर कल रास्तों पर चलेगा कि मेरे पास कुछ भी नहीं है। लेकिन मैं! मैं उसमें उतना ही मौजूद होगा।
मैंने सुना है, एक बादशाह अपने बचपन में एक स्कूल में पढ़ता था। उसके साथ एक मित्र था। बाद में वह मित्र फकीर हो गया, नग्न फकीर हो गया। उसने सब छोड़ दिया। बादशाह भी युवा हुआ, गद्दी पर बैठा। उसने दूर-दूर के राज्य जीते और अपने साम्राज्य को विस्तीर्ण किया। राजधानी नवीन बनाई। वैभव के दूर-दूर तक उसकी पताकाएं फहरीं। और तब एक दिन उस पुराने मित्र फकीर का नगर में आगमन हुआ, राजधानी में आगमन हुआ। राजा ने कहा, मेरा मित्र आता है। सब त्याग करके आ रहा है, बहुत उसकी उपलब्धि है। हम उसका स्वागत करें और शाही सम्मान दें। उसने सारे नगर को सजवाया। और जिस संध्या उसका प्रवेश होना था, उस दिन सारे नगर में दीपावली मनवाई। रास्तों पर कालीन बिछवाए, जहां से वह गांव में प्रवेश करेगा। राजा खुद अपने दरबारियों को लेकर द्वार पर स्वागत करने गया।
यह सारा स्वागत का इंतजाम चलता था, कुछ लोगों ने उस फकीर को जाकर कहा, राजा अपना धन दिखलाना चाहता है। राजा अपनी संपत्ति और वैभव दिखलाना चाहता है। इसलिए सारी राजधानी को सजा रहा है, ताकि तुम्हें हतप्रभ कर सके, ताकि तुम्हें दिखा सके कि तुम क्या हो, अकिंचन दरिद्र! नंगे भिखारी! और राजा क्या है।
उस फकीर ने कहा, अगर वह दिखलाना चाहता है अपनी संपत्ति, अपना वैभव, तो हम भी उसे कुछ दिखला देंगे। सुनने वाले हैरान हुए। फकीर के पास दिखलाने को क्या था! सिवाय नंगे शरीर के उसके पास कुछ भी नहीं था। लेकिन उसने कहा, हम भी दिखला देंगे!
और जिस दिन नगर में उसका प्रवेश हुआ, उन बहुमूल्य ईरानी कालीनों पर जब वह आकर चला तो लोग देख कर हैरान हुए। दिन तो अभी वर्षा के न थे, लेकिन उसके पैर घुटने तक कीचड़ से भरे थे! वह नंगा फकीर कीचड़ से भरा हुआ था और कीचड़ भरे पैरों से उन कीमती कालीनों पर चलता था। राजा को, सब को हुआ कि ये पैर इतने कीचड़ में कैसे भर गए! महल की सीढ़ियों पर चढ़ते वक्त राजा से नहीं रहा गया और उसने पूछा कि मित्र, क्या मैं यह पूछूं कि ये पैर इतनी कीचड़ से कैसे भर गए हैं?
उस फकीर ने कहा कि अगर तुम कालीन बिछा कर रास्तों पर अपना वैभव दिखलाना चाहते हो तो हम फकीर हैं, हम उस पर कीचड़ भरे पैर चल कर अपनी फकीरी दिखला देंगे!
उस बादशाह ने कहा, मैं तो सोचता था कि हममें तुममें कोई फर्क पड़ गया होगा। लेकिन हम पुराने ही मित्र हैं और कोई फर्क नहीं पड़ा। तुम भी वहीं हो, जहां मैं हूं। तुमने छोड़ कर भी उसी दंभ को तृप्त किया है, जिसे मैं पाकर तृप्त कर रहा हूं।
इसलिए सवाल छोड़ने का नहीं है और पकड़ने का नहीं है। इसलिए सवाल स्वयं को देने का है, छोड़ने-पकड़ने का बिलकुल भी नहीं। संपत्ति को देने का नहीं है, स्वत्व को देने का है।
महावीर की जो साधना है, वह संपत्ति छोड़ने की नहीं, स्वत्व को छोड़ने की है। स्वत्व छूटता है तो संपत्ति तो अपने आप छूट जाती है। जो संपत्ति छोड़ते हैं, उनका स्वत्व जरूरी रूप से नहीं छूटता।
महावीर की साधना स्वयं को विलीन और विसर्जित कर देने की है।
महावीर का कहना यह है कि जिसका अहंकार मर जाएगा, अहंकार की मृत्यु पर उसे आत्मा के दर्शन होंगे। जब तक अहंकार है, तब तक आत्मा का कोई दर्शन नहीं है। जो आत्मा को जानना चाहता हो, उसे मैं को, मैं-भाव को विसर्जित और विलीन कर देना होगा।
मैं की बदलियों के पीछे आत्मा का सूरज छिपा है। और जब तक मैं की बदलियां घिरी रहें, तब तक आत्मा के सूरज के दर्शन नहीं होंगे। इसलिए महावीर की समस्त साधना मैं को छोड़ देने की साधना है। सब तरफ से, सब उपायों से यह भाव छूट जाए कि मैं कुछ हूं। जिसका यह भाव छूट जाता है कि मैं कुछ हूं, उसे यह भाव मिलता है कि मैं सब कुछ हूं। जो शून्य हो जाता है, वह पूर्ण को पा लेता है। और जो सब छोड़ कर नग्न खड़ा हो जाता है, रिक्त और खाली, वह इस सारे, समस्त सृष्टि के रहस्य का मालिक हो जाता है।
मैं को छोड़ना महावीर का बुनियादी आधार है।
आपने सुना होगा कि महावीर की शिक्षा अहिंसा की है। और मैं आपको यह कहूं कि अहिंसक केवल वही होता है, जिसके भीतर मैं-भाव विलीन हो जाता है। मैं ही एकमात्र हिंसा है, अहंकार! यह बोध कि मैं कुछ हूं, यह एकमात्र हिंसा है और सब हिंसाओं में ले जाती है। हिंसक में और कुछ भी नहीं है, मैं की प्रगाढ़ता है।
अहिंसक में क्या है?
मैं की शून्यता है, मैं-भाव का विलीन हो जाना है।
आज दोपहर ही मैं एक साधु की बात करता था। वहां दूर चीन में एक साधु हुआ। वह जब अपने गुरु के आश्रम पर गया तो उसके गुरु ने आंख उठा कर उसको देखा। गुरु के देखते ही उसे खुशी हुई कि गुरु ने मुझे देखा, मुझे स्वीकार किया, मुझे इज्जत दी। लेकिन जैसे ही उसके मन में यह खयाल उठा कि गुरु ने मुझे स्वीकार किया, मुझे देखा, मुझे इज्जत दी, वैसे ही गुरु की आंखें नीचे झुक गईं और बंद हो गईं। उसके तीन वर्ष तक गुरु ने फिर आंख उठा कर नहीं देखा। वह बहुत हैरान हुआ कि मुझसे क्या भूल हो गई?
उसने अपने किसी मित्र साधु को पूछा कि मुझसे क्या भूल हो गई? गुरु ने मुझे देखा था, मैं प्रसन्न हुआ और उस दिन से उनकी आंखें नीचे झुक गईं! तो उसके मित्र ने कहा, मत घबड़ाओ। उनके देखने से तुम्हारे मैं-भाव में सजगता आई होगी, इसलिए उन्होंने फिर नहीं देखा। क्योंकि तब तो देखना पाप हो जाएगा। तुम्हारा मैं प्रगाढ़ होगा उनके देखने से, कि गुरु मेरी ओर देखते हैं, तो पाप हो जाएगा। इसलिए गुरु तुम्हारी ओर नहीं देखते हैं। तुम उस दिन उनकी आंख के योग्य बनोगे जब उनकी आंख तुम्हें देखे, लेकिन तुम्हें कुछ भी पता न पड़े।
ऐसे तीन वर्ष बीते। एक दिन बगीचे में गुरु ने न केवल देखा, बल्कि गुरु उसे देख कर हंसे और मुस्कुराए भी। उसे पहले जैसा बोध तो नहीं हुआ अहंकार का, लेकिन एक आश्चर्य का भाव आया कि आज वे क्यों तीन साल के बाद हंस रहे हैं!
जैसे ही उसे यह भाव आया, गुरु की हंसी विलीन हो गई और आंखें नीचे की नीचे झुक गईं। तीन वर्ष और बीते, उसने किसी को पूछा कि यह क्या हुआ? वे मुस्कुराए थे, फिर मुस्कुराहट वापस चली गई। जिससे पूछा उसने कहा कि उनकी मुस्कुराहट से अगर तुम्हारे भीतर कुछ भी हुआ हो, अगर आश्चर्य भी पैदा हुआ हो, अगर जिज्ञासा भी आई हो, तब भी तुम अभी बाहर की बातों से कंपित होते हो। अभी बाहर की बातें तुम्हारे भीतर स्पंदन पैदा करती हैं। इसलिए गुरु ने डर कर अपनी मुस्कुराहट वापस ले ली होगी। वे तो तब मुस्कुराएंगे, जब उनकी मुस्कुराहट तुम्हारे भीतर कोई फर्क पैदा न करे।
ऐसे तीन वर्ष और बीते। और तीन वर्ष बाद उसके गुरु ने उसे रास्ते में पकड़ा और गले लगाया और उसे पास बिठाया। और उसके गुरु ने कहा, आज मैं प्रसन्न हूं। आज जब मैंने तुम्हें गले लगाया तो तुमने ऐसे देखा कि मैं शायद किसी और को गले लगा रहा हूं। उसके गुरु ने कहा कि आज मैं प्रसन्न हूं। जब मैंने तुम्हें गले लगाया तो तुमने मुझे ऐसे देखा, जैसे मैं किसी और को गले लगा रहा हूं। और अभी जब मैं तुमसे बातें कर रहा हूं, तो तुम ऐसे सुन रहे हो, जैसे मैं किसी और से बातें कर रहा हूं। अब तुम हवा-पानी की तरह हो गए। अब तुम्हारे भीतर जो मैं की कठिनाई थी, काठिन्य था, वह विलीन हो गया। अब तुम्हारे भीतर मैं का पत्थर चला गया। अब तुम तरल हो गए, अब तुम सरल हो गए। अब प्रभु का तुम्हें साक्षात निकट है।
जो मैं की कठिनता को छोड़ देते हैं, वे ही साधुता को और सरलता को उपलब्ध होते हैं।
महावीर ने उस मैं-शून्य सरलता को ही अहिंसा कहा है।
महावीर का अहिंसा से प्रयोजन दूसरे को दुख देना, न देना नहीं है। महावीर की बात बहुत गहरी है। वे यह कहते हैं, जिसके भीतर मैं-भाव है, वह चाहे या न चाहे, उससे दूसरों को दुख मिलेगा। वह न भी हिंसा करे, तो भी उससे हिंसा होगी। उसकी वाणी में, उसके चलने में, उसके उठने में हिंसा होगी। उसके भाव में, उसके विचार में हिंसा होगी, उसके स्वप्नों में हिंसा होगी। तो महावीर कहते हैं, जो मूलतः अहिंसक होना चाहता हो, दूसरे को दुख देने, न देने का प्रश्न नहीं है; अपने भीतर मैं को विलीन कर लेने का प्रश्न है। वहां मैं शून्य हो जाएगा, दूसरे को दुख देना असंभव हो जाएगा।
और यह भी स्मरण रखें, जिस दिन दूसरे को दुख देना आपको असंभव हो जाएगा, उसी दिन--ठीक उसी दिन--दूसरा भी आपको दुख देने में असमर्थ हो जाएगा। जैसे वृक्ष जितने ऊंचे जाते हैं उतनी ही गहरे उनकी जड़ें होती हैं। वृक्ष की ऊंचाई जितनी ऊपर होती है, उतनी ही गहरी उसकी जड़ें होती हैं। जितना ऊपर वृक्ष विकसित होता है, उतना ही भीतर गहरा होता है। जितना लंबा वृक्ष होगा, उतनी लंबी उसकी जड़ें होंगी। ऐसे ही जो व्यक्ति दूसरों के जीवन में दूर तक दुख पहुंचाता है, उतने ही दूर तक उसके जीवन में भीतर गहरे दुख पहुंच जाता है। बाहर हम जितना दुख फैलाते हैं, उतनी ही गहरी दुख की जड़ें हमारे भीतर पहुंच जाती हैं। जो व्यक्ति बाहर दूसरों को दुख पहुंचाने में असमर्थ हो जाता है, उस वृक्ष के कट जाने पर उसकी जड़ें भी विलीन हो जाती हैं।
अगर जीवन में आनंद पाना हो तो महावीर कहते हैं, दूसरे को दुख देने में असमर्थ हो जाओ, तो आनंद को उपलब्ध हो जाओगे। अभी तो हम आनंद पाने में दूसरों को दुख देने की फिकर नहीं करते, बल्कि शायद आनंद पाने में दूसरों को दुख देने को भी सीढ़ियां बना लेते हैं। महावीर कहते हैं, ऐसा व्यक्ति कभी आनंद को उपलब्ध नहीं होगा। ऐसा व्यक्ति कितनी ही आनंद की खोज करे, वह जितना दुख दूसरों में व्याप्त करता रहेगा, उतना ही गहरा दुख उसके भीतर प्रविष्ट होता चला जाएगा।
इसे महावीर कर्म-बंध कहते हैं: जो दुख देगा, वह दुख पाने के कर्म बांध लेगा।
लेकिन उनकी बुनियादी शिक्षा यह नहीं है कि दूसरे को दुख देने से बचो। उनकी बुनियादी शिक्षा यह है कि उस जड़ को काट दो, जिसके कारण दूसरों को दुख देने की मजबूरी ऊपर पड़ती है। और वह जड़ मैं की है।
धर्म मैं की मृत्यु चाहता है। जिसका मैं मर जाता है, वही केवल धार्मिक होता है।
इसलिए मैंने कहा कि जन्म से धर्म का संबंध नहीं, मृत्यु से धर्म का संबंध है। जब हमारा मैं मर जाएगा, तो हम धर्म से संबंधित होंगे। इसलिए जो धर्म में जाने को उत्सुक हों, उन्हें मरने को तैयार होना चाहिए।
मरने से मेरा अर्थ समझे? मरने को तैयार होना चाहिए--उन्हें उस मैं को, जिसे हम सजाते और संवारते हैं, जिसे हम जीवन भर चेष्टा करते हैं परिपुष्ट करने की, उसे छोड़ने का साहस चाहिए। इसलिए धर्म इस जगत में सबसे बड़ा दुस्साहस है।
हम क्या देखते हैं लेकिन?
हम देखते हैं बूढ़े, मरणासन्न धार्मिक होने में उत्सुक होते हैं!
धार्मिक होना हो तो अंतिम दिन की प्रतीक्षा न करें। धार्मिक होना हो तो जब शक्तियां परिपूर्ण हों और जब जीवन ऊर्जा से भरा हो और जब कुछ दुस्साहस करने का सामर्थ्य हो, तब कूद पड़ें। इसमें भी महावीर ने क्रांति की। पुराना धर्म यह कहता था कि धर्म अंतिम चरण है जीवन का। चार आश्रमों में विभक्त है जीवन। तीन आश्रम व्यतीत करो, चतुर्थ आश्रम में जब सब जीवन विलीन हो जाए, तब वृद्धावस्था में धर्म की साधना करो!
महावीर ने इसमें भी क्रांति की है। और महावीर ने कहा कि धर्म की साधना करनी है तो जब युवा हो, जब सारा बल और पराक्रम साथ है, सारा वीर्य और ओज साथ है, तब संलग्न हो जाओ। धर्म बुढ़ापे की दवा नहीं है, धर्म युवा होने का दुस्साहस है।
इसलिए स्मरण रखें, शक्ति के क्षीण होने की प्रतीक्षा न करें। धर्म मरतों का सांत्वना और आश्वासन नहीं है, धर्म जीवितों की दुस्साहसपूर्ण साधना है। इसलिए जब शक्ति और ऊर्जा मालूम हो, जितनी मालूम हो, उसके क्षीण होने की प्रतीक्षा न करें, उसे संलग्न करें, उसे उपाय में लगाएं, उसे संयोजित करें और जीवन को अनुशासित बनाएं, तो संभावना हो सकती है कि एक दिन क्रमशः अपने मैं-भाव पर चोट करते-करते मैं विलीन हो जाए।
सतत जागरूक रह कर, अपनी समस्त क्रियाओं में यह बोध रखते हुए कि मेरा मैं तो काम नहीं कर रहा है? मेरा अहंकार तो काम नहीं कर रहा है? मेरी अहंता तो पुष्ट नहीं हो रही है? जो ऐसी विवेक और अप्रमत्तता को साधता है, वह धीरे-धीरे मैं की बदलियों को मुक्त, उनको विसर्जित करने में समर्थ हो जाता है। और तब उसे उस सूरज का बोध होता है, जिसे हम धर्म कहते हैं। धर्म इसलिए ग्रंथों में नहीं है। मैं के पीछे छिपा है, ग्रंथों के शब्दों के पीछे नहीं। धर्म महापुरुषों की वाणी में नहीं छिपा है, अपने ही मैं की ओट में छिपा है। जो उसे वाणियों में खोजते रहते हैं, वे पंडित होकर समाप्त हो जाते हैं। जो उसे अपनी मैं की ओट में खोजते हैं, वे जीवन में उस सत्य को पाते हैं, जिसे हम साधुता कहते हैं, जिसे हम संन्यास कहते हैं, जिसे हम ज्ञान कहते हैं और जिसे अंत में हम मोक्ष कहते हैं।
यदि मुक्त होना है तो एक ही बंधन है जिससे मुक्त होना है--और वह बंधन मैं-भाव का है। और वही बंधन हिंसा है। मैं-भाव हिंसा है। मैं-भाव का शून्य हो जाना अहिंसा है। इसलिए महावीर ने अहिंसा को परम धर्म कहा। एक ही बात कही कि अहिंसा परम धर्म है। इस अर्थों में परम धर्म है, जो उसको ही साध ले तो शेष सब उसका अपने आप सध जाता है।
इस अहिंसा का जैन, हिंदू, मुसलमान से क्या वास्ता है? इस मैं को छोड़ने से हिंदू, मुसलमान, ईसाई का क्या वास्ता है? यह तो सार्वभूत, सार्वभौमिक, शाश्वत सत्य है। और धर्म का कोई सत्य किसी संप्रदाय के लिए नहीं है।
इसलिए कृपा करें, महावीर से खुद मुक्त हो जाएं और महावीर को अपने से मुक्त कर दें। न उन्हें संप्रदाय में बांधें, न उनके संप्रदाय में खुद बंधें। उनका कोई संप्रदाय नहीं है। अपने मैं को विलीन करें, अपने अहंकार को विलीन करें। और उसके माध्यम से अपनी हिंसा को छोड़ दें, अहिंसा को उपलब्ध हों। मैं की मृत्यु को पाएं। और तब आप पाएंगे, आप महावीर के हो गए। उस धर्म के हो गए, जो महावीर का है; उस धर्म के हो गए, जो सब महावीरों का है। वे महावीर चाहे क्राइस्ट के रूप में कहीं पैदा हुए हों, चाहे कृष्ण के रूप में पैदा हुए हों, चाहे आपके रूप में कल पैदा हो जाएं।
कुछ थोड़ी सी बातें आपके संबंध में कहीं, कुछ थोड़ी सी बातें महावीर के संबंध में कहीं। अंत में एक बात और आपसे कह दूं। जो मैंने कहा कि प्यास नहीं है, उस प्यास को अगर नहीं जगाते हैं, तो अपने जीवन को व्यर्थ खो देंगे। लेकिन प्यास को कैसे जगाएंगे?
प्यास जगती है जीवन के अनुभव से। चारों तरफ आंख खोल कर देखें--क्या हो रहा है? जब रास्ते पर एक आदमी मर जाता है, उसकी अरथी निकलती है, तब आप उस अरथी को देखते हैं, लेकिन सोचते नहीं। जो देख कर रह जाता है, वह अरथी से जो संदेश मिल सकता था, उससे वंचित हो जाता है। जो उसे सोचता है--जो उसे सोचेगा, वह थोड़ी देर में पाएगा, अरथी किसी और की नहीं, मेरी जा रही है। अगर कोई व्यक्ति सोचेगा तो पाएगा, अरथी किसी और की नहीं, मेरी जा रही है--दस दिन बाद सही, लेकिन अरथी मेरी जा रही है। और मैं जिस अरथी में कंधा दिए हूं--कंधा देते वक्त अगर कोई सोचेगा तो पता चलेगा, दूसरे उसकी अरथी को कंधा दे रहे हैं।
अगर हम आंख खोल कर अपने चारों तरफ देखें, तो यह संसार हमको धार्मिक बनाने को प्रतिक्षण तैयार है। अगर हम चारों तरफ व्याप्त दुख को देखें, अपने भीतर व्याप्त दुख को देखें, संसार में भागते हुए प्राणियों को चारों तरफ देखें, तो सब बदल जाएगा।
एक फकीर हुआ, वह फकीर एक गांव के बाहर एक झोपड़े में रहता था। किसी आदमी ने उस गांव के भीतर प्रवेश करते हुए उस फकीर को पूछा कि मैं बस्ती का रास्ता जानना चाहता हूं। उस फकीर ने कहा, अगर बस्ती का रास्ता जानना चाहते हो तो बाएं तरफ मुड़ जाओ, थोड़ी दूर ही बस्ती मिल जाएगी। वह आदमी बाएं तरफ मुड़ा और थोड़ी दूर जाकर उसने देखा वहां कब्रिस्तान है! वह बहुत गुस्से में वापस आया और उसने लौट कर उस फकीर को कहा, आप पागल मालूम होते हैं। वहां बस्ती नहीं, कब्रिस्तान है। उसने कहा, और अगर कब्रिस्तान जानना चाहते हो तो अब इस तरफ चले जाओ, दाएं तरफ। वहां गया, वहां बस्ती थी। वह सांझ को लौटा और उसने कहा, आप पहेलियां बुझाते हैं! उस फकीर ने कहा, हमने तो जैसा जाना, वैसा कहते हैं। वहां जो बसे हैं कब्रिस्तान में, सदा को बस गए हैं। और यहां जो बसे मालूम होते हैं, वे सब कब्रिस्तान के रास्ते पर हैं, वे सब कब्रों के भीतर जाने की तैयारी में हैं। इसलिए अगर बस्ती को देखना है तो उधर देखो, अगर कब्रिस्तान को देखना है तो इधर देखो।
और यह सच है। हम हंस रहे हैं, क्योंकि हमें लग रहा है यह फकीर ने किसी और से कहा था। यह फकीर आपसे ही कह रहा है। जो हंस रहे हैं, उनसे ही कह रहा है। यह किसी और से कही हुई बात नहीं है। यह आपसे कही गई है। और आप देखें, यहां बैठे हुए देखें आप चारों तरफ। अगर आपकी थोड़ी आंख गहरी हो तो आप यहां मुर्दों को इकट्ठा हुआ पाएंगे। यहां सब मुर्दे हैं, तिथियां अलग-अलग हैं। यहां सब मुर्दे हैं। मुर्दे होने के सबके शिडयूल, टाइम अलग-अलग हैं, बाकी सब मुर्दे हैं।
अगर जीवन को चारों तरफ हम देखें तो मृत्यु दिखाई पड़ेगी; दुख, पीड़ा दिखाई पड़ेगी। कुछ सार नहीं दिखाई पड़ेगा, असार दिखाई पड़ेगा। कुछ अर्थ नहीं दिखाई पड़ेगा, सब अनर्थ दिखाई पड़ेगा, व्यर्थ दिखाई पड़ेगा। उस बोध से प्यास पैदा होगी। उस बोध से लगेगा, अगर यह सब असार है, अगर यह सब व्यर्थ है, तो सार क्या है? अर्थ क्या है? अगर यह सब व्यर्थ है तो सार्थक क्या है? और तब भीतर एक आकांक्षा सरकेगी, एक लपट पैदा होगी, और वह लपट आपको धर्म की तरफ ले जाएगी।
वह लपट प्रत्येक व्यक्ति के भीतर पैदा हो, यही मेरी कामना है। वह लपट बहुत दुख देगी। वह लपट बहुत चिंता पैदा करेगी। वह लपट आपकी सारी शांति को खंडित कर देगी। वह लपट आपके सारे संतोष को छीन लेगी। वह लपट आपकी नींद को छीन लेगी। वह आपको बेचैन कर देगी।
और ईश्वर करे कि वैसी बेचैनी आपके भीतर पैदा हो जाए। और ईश्वर करे, आपकी सारी झूठी शांति खंडित हो जाए, आप अशांत हो जाएं। और ईश्वर करे, आपके सारे संतोष के ढकोसले समाप्त हो जाएं और आप इतने असंतुष्ट हो जाएं कि आपको कोई कूल-किनारा न दिखाई पड़े।
जिस दिन मनुष्य को इस जगत में कोई कूल-किनारा नहीं दिखाई पड़ता, जिस दिन मनुष्य को इस जगत में कोई सहारा और आधार नहीं दिखाई पड़ता, उस दिन वह पहली दफा भगवान के आधार को उपलब्ध होता है। जिसके जगत में सब आधार और शांतियां छिन जाती हैं, उसे धर्म की शरण पहली दफा उपलब्ध होती है। धर्म की शरण जाना हो, जगत की शरण से मुक्त हो जाना जरूरी है। उससे प्यास...उससे प्यास पैदा होगी।
और आज के इस पुनीत पर्व पर और इससे बेहतर मैं और कुछ नहीं प्रार्थना कर सकता। और मेरे हृदय में कोई बात उठती नहीं मालूम पड़ती और कोई कामना नहीं मालूम पड़ती, और वह यही है, प्रभु करे, आप सबके हृदय प्यास से भर जाएं। और आप सबके हृदय जगत को देख पाएं, जगत के अर्थ को देख पाएं, जगत की व्यर्थता को देख पाएं, ताकि आपके भीतर वह लपट पैदा हो जो जगत के पार और ऊपर उठाती है। वही लपट धीरे-धीरे व्यक्ति को सत्य तक और ज्ञान तक और मुक्ति तक ले जाने की सीढ़ी है।
आज इस पुनीत पर्व पर यही मेरी प्रार्थना और कामना है। मेरी इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, इतनी प्यास से सुना है, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं, बहुत ऋणी हूं। उस अनुग्रह के धन्यवाद स्वरूप मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

प्रत्येक व्यक्ति के भीतर बैठे हुए परमात्मा को मेरे प्रणाम हैं।






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