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शुक्रवार, 23 मार्च 2018

हरि बोलौ हरि बोल (संत सुुंदर दास)--प्रवचन-09

सदगुरु की महिमा—नौवां प्रवचन

: दिनांक ९ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:
धीरजवंत अडिंग जितेंद्रिय निर्मल ज्ञान गहयौ दृढ़ आदू।
शील संतोष क्षमा जिनके घट लगी रहयौ सु अनाहद नादू।।
मेष न पक्ष निरंतर लक्ष जु और नहीं कछु वाद-विवादू।
ये सब लक्षन हैं जिन मांहि सु सुंदर कै उर है गुरु दादू।।
कोउक गौरव कौं गुरु थापत, कोउक दत्त दिगंबर आदू।
कोउक कंथर कोउ भरथथर कोउ कबीर जाऊ राखत नादू।
कोई कहे हरिदास हमारे जु यों करि ठानत वाद-विवादू।
और तौ संत सबै सिरि ऊपर, सुंदर कै उर है गुरु हादू।।
गोविंद के किए जीव जात है रसातल कौं
गुरु उपदेशे सु तो छुटें जमफ्रद तें।
गोविंद के किए जीव बस परे कर्मनि कै
गुरु के निवाजे सो फिरत हैं स्वच्छंद तै।।
गोविंद के किए जीव बूड़त भौसागर में,
सुंदर कहत गुरु काढें दुखद्वंद्व तै।
औरउ कहांलौ कछु मुख तै कहै बताइ,
गुरु की तो महिमा अधिक है गोविंद तै।


ज्ञान की धरती
लगन की
साधना के नीर सींची
भावना की खाद डाली
ऋतु समय से
प्रेम के कुछ
बीज बोए--
कल
उगेंगे अरुण अंकुर
कसमसाकर
तोड़ मिट्टी की
तरुण सोंधी परत को
धूप नूतन रूप देगी
मेघ वर्षा में
सघन घिर कर
बरस कर
तर करेंगे मूल तक को
गंध फूटेगी गमक कर
गांव वन उपवन--
हंसेंगे--
घर नए उजड़े बसेंगे
प्राण प्राणों से जुड़ेंगे
मुक्ति कण-कण को छुएगी
शरद की गीली हवाओं
के परस से
नये पत्ते, नए कल्ले
नयी कलियां, खिल उठेंगी
रंग फूटेंगे धरा पर
इंद्रधनुषी--
सुरभि से उद्यान महकेगा अनवरत--
कर्म-श्रम निष्फल कभी होता नहीं है--
है अटल विश्वास सुख के
शांति के आनंद के फल-फूल
निश्चित ही मिलेंगे।
जीवन जितना तुमने मान रखा है, उतना ही है। जीवन बहुत बड़ा है। तुमने तो जीवन के प्रथम चरण को ही मंजिल मान लिया है। इससे ही दुखी हो। जैसे कोई बाज को ही फूल मान ले। इससे परेशान हो। क्षुद्र को विराट मान लिया है। असार को सार मान लिया है। रात को ही दिन मानकर बैठ गए हो। फिर टकराते हो अंधेरे में। फिर भरमाते हो अपने को।
और सुबह हो सकती है। और सुबह की संभावना लेकर तुम पैरा हुए हो।
आत्मा का और क्या अर्थ है?--सुबह की संभावना।
आत्मा का और क्या अर्थ है?--कि देह पर हम समाप्त नहीं हैं।
आत्मा का और क्या अर्थ है?--क्षुद्र के पीछे विराट छिपा है; कि रूप के पीछे अरूप छिपा है; कि गुण की तो तरंगें हैं, सागर निर्गुण का है। लेकिन जो मिला है, बीज की तरह मिला है। और यह शुभ है कि बीज की तरह मिला है। क्योंकि जब फूल, तुम स्वयं श्रम करोगे और खिलेगा, तो आनंद की वर्षा होगी। अगर फूल तुम्हें ऐसे ही मिल जाए, मुफ्त मिल जाए, तो तुम्हारे जीवन में कोई आनंद की संभावना न रह जाएगी। परमात्मा ने सिर्फ अवसर दिया है।
एक सम्राट अपने तीन बेटों में संपत्ति बांटना चाहता था। किसको राज्य दे, किसको कितनी संपत्ति दे, कैसे बांटे--बड़ी उलझन में था। एक फकीर से पूछा। उस बुजुर्ग ने कहा: यह छोटा सा उपाय करो। तीनों बेटों को कुछ रुपए दे दो। तीनों के अलग-अलग महल हैं और उन तीनों को कह दो कि इस पूर्णिमा की रात्रि, मैं आकर तुम्हारे महलों का निरीक्षण करूंगा। इन थोड़े से रुपयों में अपनी बुद्धिमानी दिखलाओ। महल को भर दो किसी चीज से।
रुपए थोड़े थे, महल बड़े थे। पहले ने सोचा कि महल को इतने से रुपयों में कैसे भरा जा सकता है? सस्ती से सस्ती चीज क्या होगी? उसे कुछ न सूझा। उसे एक ही बात सूझी कि गांव भर का जो कचरा गांव के बाहर फेंका जाता है, वही ढोया जा सकता है महल तक उतने रुपयों में। सिर्फ ढो आई लगेगी। उसने सारा गांव का कचरा आठ-दस दिन तक रोज ढोया, सारे महल को भर दिया।...दिया जरूर। भयंकर बदबू और दुर्गंध उठने लगी। पास-पड़ोस के लोग तक परेशान हो गए। राहगीर नाक बंद करके चलने लगे रास्तों से।
दूसरे ने सोचा, कचरे से घर भरना तो ठीक नहीं। बाप क्या कहेगा? लेकिन इतने थोड़े से रुपए में घर को भरा कैसे जाए? वह सोच विचार में ही पड़ा रहा, सोच-विचार में ही पड़ा रहा। दिन आए, और बीते, उसकी चिंता बढ़ती चली गयी। पूर्णिमा आयी तब तक वह विक्षुग्ध हो चुका था। इतना सोचा, इतना सोचा सोया नहीं, खाया नहीं, पिया नहीं। पीए कैसे? खाए कैसे? परीक्षा का दिन करीब आ रहा है और इतने से रुपए में महल भरा नहीं जा सकता।
तीसरे बेटे ने सिर्फ घी के दीए जलाए। रोशनी से सारा घर गया। घी की सुगंध से सारा घर भर गया। थोड़े से फूल लाया, द्वार पर लटकाए। बेला की महक सारे महल में भर गयी। एक वीणा-वाद को बुला लाया। उससे वीणा बजवायी, संगीत का सागर लहराने लगा।
बाप उस बूढ़े फकीर को लेकर चला। पहले बेटे के घर में तो प्रवेश करना ही मुश्किल था। बाप ने कहा: इसने भर तो दिया, मगर कचरे से। गणित तो पूरा कर दिया, लेकिन बुद्धिमत्ता का कोई प्रमाण नहीं दिया। दूसरे ने घर पहुंचा तो घर अंधेरा पड़ा था, खाली था, बेटा तो पागल हो गया था। वह तो पागलों की तरह चिल्ला रहा था, सिर पीट रहा था। उसने अपने पागलपन से ही महल को भर दिया था। तीसरे बेटे के द्वार पर पहुंचा, बाप की कुछ समझ मग न आया। संगीत की लहरें उठ रही थीं, घी के दीए जले थे, फूलों की महक थी। लेकिन बाप ने कहा: महल भरा नहीं है, महल खाली है। उस बुजुर्ग संत ने कहा: जिस ढंग से इसने भरा है, उसे देखने के लिए भी आंखें चाहिए। तुम भी अंधे मालूम होते हो। रोशनी से भरा है। अब रोशनी पर मुट्ठी नहीं बांधी जा सकती, न रोशनी को छुआ जा सकता है। लेकिन भरा तो है। संगीत से भरा है। और तुमने तो एक चीज से भरने को कहा था, इसने तीन चीजों से भर दिया है--रोशनी से, संगीत से, सुगंध से। उतने ही रुपयों में।
ऐसे ही जीवन मिलता है। तुम किससे भरोगे अपने को? अधिक लोग कूड़ा-कचरे से भर लिए हैं। घन है, संपत्ति है, पद है, प्रतिष्ठा है--कूड़ा-कर्कट है। यहीं का यहीं पड़ा रह जाएगा। तुमसे पहले किसी और का था, तुम्हारे बाद किसी और का होगा। बड़ा जूठा है। आदमी दूसरों के कपड़े नहीं पहनना चाहता, लेकिन जिन कुर्सियों पर न मालूम कितने लोग बैठ चुके, उन कुर्सियों पर बैठने में आतुर होता है। कितने सम्राट हो चुके, कितने राष्ट्रपति, कितने प्रधानमंत्री दुनिया में, मगर लोग पागल हैं। दूसरे का उतारा हुआ कपड़ा न पहनोगे, दूसरे की उतारी हुए जुती न पहनोगे, लेकिन जिन कुर्सियों पर कितने ही लोग घसटे और गुजरे और समाप्त हुए, जिन कुर्सियों पर सिवाय जूठन के कुछ भी नहीं बचा है, उनके लिए दीवाने हो, उनके लिए पागल हो। धन के जिन ठीकरों को तुम इकट्ठे कर रहे हो वे कल किसी और के थे। वे किसी के सगे नहीं हैं।
धन तो वेश्या जैसा है। आज इसका कल उसका। धन का भरोसा क्या है! अभी है, अभी नहीं हो जाएगा। तुम्हारे पास भी कैसे। आया है, जरा गौर से तो देखो। किसी के पास से आया है। धन से ज्यादा गंदी चीज पृथ्वी पर दूसरी नहीं है, क्योंकि कितने हाथों में चलती है। इसलिए तो अंग्रेजी में उसको करेंसी कहते है। करेंसी का मतलब, जो चलती ही रहती है। एक हाथ में घिसी, दूसरे हाथ में गयी। दूसरे हाथ में घिसी, तीसरे हाथ में गयी। देखते हो, नोट की कैसी गति हो जाती है! चिथड़ जाता, गंदा हो जाता, दुर्गंध देने लगता है। न मालूम कितने खीसों में, न मालूम कितनी तिजोड़ियों में, न मालूम कितने लोगों के पसीने की बदबू, न मालूम कितने हाथों का मैल उस पर लगता है। इस कूड़ा-कर्कट को हम इकट्ठा कर लेते हैं, और सोचते हैं जीवन भर लिया।
तुम्हारी जिंदगी से उठती दुर्गंध देखो। तुमने पहले राजकुमार की बात कर ली है। तुम्हारी जिंदगी से उठती हुई उदासी देखो। तुम्हारी जिंदगी से उठता हुआ विषाद देखो। तुम्हीं नहीं दुर्गंध से भर गए हो, तुम्हारे पास-पड़ोस के लोग भी तुम्हारी दुर्गंध से पीड़ित हैं। यह भी हो सकता है कि तुम्हें दुर्गंध का पता ही न चलता हो अब। क्योंकि व्यक्ति अगर दुर्गंध में ही रहे तो नासापुट फिर दुर्गंध का अनुभव नहीं करते, जड़ हो जाते हैं, मृत हो जाते हैं। उनकी संवेदनशीलता खो जाती हैं।
या कुछ लोग हैं, जो इसी ऊहापोह में पागल हो रहे हैं कि क्या करें, क्या न करें; यह करें, वह करें। सांसारिक लोग हैं पहले राजकुमार की भांति। उन्होंने जीवन को कचरे से भर लिया है। जीवन के महल को कचरे से भर लिया है। महल कचरों से भरने के लिए नहीं होता। जीवन के मंदिर को कचरे से भर लिया है। जहां परमात्मा विराजमान हो सकता था, वहां क्षुद्र चीजों को बिठा लिया है। कुछ थोड़े से लोग दूसरे राजकुमार की भांति हैं, जो ठिठके खड़े हैं, किंकर्तव्यविमूढ़; जिनके जीवन में कोई दिशा नहीं है। जो पैर ही नहीं उठा सकते; जिनके पैरों को पक्षाघात हो गया है, क्योंकि वे तय ही हनीं कर पाते--क्या करें, क्या न करें? इतने घबड़ाए हैं, इतने परेशान हैं। इधर पैर बढ़ाते हैं, तो लगता है कहीं भूल न हो जो। उधर पैर बढ़ाते हैं तो लगता है कहीं भूल न हो जाए। और यहां इतने मत हैं, इतने मतांतर हैं, इतने शास्त्र हैं, इतने उपदेष्टा हैं--किसकी मानें, किसकी न मानें?
उड़ा-उड़ा सा रंग है
वो आ रही है जिस तरह कटी हुई पतंग है
निढाल अंग-अंग है
अजीब रंग-ढंग है
अयाग है, न बाग है, रबाब है, चंग है
नदामतों में जंग हैं
बुझी-बुझी उमंग है
ये रास्ता तबील है, वो रहगुजर तंग है
वह रह-गुजर तंग है
इन उलझनों पे दंग है
किधर मुड़े...?
कहां चले...?
कुछ लोग ऐसे ही खड़े हैं। चौराहों पर अटक गए हैं।...किधर मुड़ें? कहां चलें? क्या करें? कुछ सूझता नहीं। ये दूसरे राजकुमार की तरह हैं। इनमें से ही दार्शनिक पैदा होते हैं, विचारक पैदा होते हैं, चिंतक पैदा होते हैं। पहली दुनिया से, पहले राजकुमार से राजनीतिज्ञ पैदा होते हैं, राजनेता पैदा होते हैं, घन-लोलुप पदा होते हैं। और तुम भलीभांति जानते हो।
मैंने सुना है, एक स्त्री अपने घर के भीतर काम कर रही थी। उसकी लड़की बाहर, जवान लड़की, किसी से बात कर रही है। गयी तो थी गाय की सेवा करने किसी से बात कर रही है। मां भीतर से चिल्लाई कि भागो, वहां क्या कर रही? किस लफंगे से बातें कर रही है? भीतर आ।
उस लड़की ने कहा कि कोई लफंगा नहीं है मां, ये तो अपने समाजवाद जी हैं। अपने नेता जी!
मां ने कहा: अगर लफंगा हो तो ठीक, नेताजी हों तो गाय को भी भीतर ले आ।
लफंगों का फिर भी भरोसा किया जा सकता है, लेकिन नेता जी का कोई भरोसा नहीं। अगर समाजवाद जी हैं, तो गाय को भी भीतर ले आ और घास भी बाहर मत छोड़ आना।
पद की दौड़, धन की दौड़, प्रतिष्ठा की दौड़--सब कूड़ा-कर्कट है। दूसरे से पैदा होते हैं--विचारक, दार्शनिक। वे सोचते ही रहते हैं। पहले खूब कर्म करते हैं। और कर्म का परिणाम होता है--कचरा इकट्ठा कर लेते हैं। दूसरे कुछ करते ही नहीं, अकर्मण्य हो जाते हैं। करें कैसे, जब तक तय न हो जाए?
मगर तीसरे लोग भी हैं। वे ही इस पृथ्वी के नमक हैं। उनके कारण ही इस जिंदगी में थोड़ी सुगंध है, थोड़ा संगीत है, थोड़ा प्रकाश है। यही जिंदगी उनके पास है। सबके बराबर-बराबर रुपए हैं। सब के पास बराबर बड़े महल हैं।
जरा गौर से देखना, तुमने अपनी जिंदगी को रोशनी से भरा है? नहीं भरा, तो वैसे ही बहुत देर हो गयी, अब जागो। तुमने अपनी जिंदगी को संगीत से भरा है? अगर नहीं भरा, तो अभी जाग जाओ। सुबह का भुला सांझ भी घर आ जाए, तो भूला नहीं कहाता। और तुमने अपनी जिंदगी में घी के दीए जलाएं? नहीं जलाए, तो क्या कर रहे हो? हरि बालौ हरि बोल।...तो घी के दीए जलेंगे।
ये सूत्र आज के, सुंदरदास के अंतिम सूत्र हैं। खूब गहराई से समझने की कोशिश करना। और जब मैं कहता हूं गहराई से समझने की कोशिश करना, तो मेरा अर्थ होता है--हृदय से समझने की कोशिश करना। ये प्रेम की बातें हैं। तर्क और बुद्धि से इनका बहुत संबंध नहीं है। जो वहां अटका, वह चूक जाएगा। ये एक प्रेमी के उदगार हैं। और जब प्रेम से उदगार उठते हैं, बड़े जीवंत होते हैं, ज्वलंत होते हैं, आग्नेय होते हैं। अगर उनकी जरा सी चिंगारी भी तुम्हारे हृदय में उतर जाए, तुम भी जल उठोगे, भभक उठोगे। तुम्हारे भीतर भी अंधेरा टूटने लगेगा। सुबह का जन्म होने लगेगा। रात कटने लगेगी। प्राची की दिशा गैरिक हो उठेगी। लालिमा फैल जाएगी।
लेकिन हृदय से समझना। बुद्धि तो केवल सोचती है, समझती नहीं। हृदय सोचता है, समझता नहीं। बुद्धि विचार करने में बड़ी कुशल है। और विचार का एक सूत्र है, आधारभूत संदेह। बिना संदेह के विचार नहीं चलता। बिना संदेह के विचार लंगड़ा है। संदेह विचार की बैसाखी है। उसी के सहारे लगता है, इसलिए जो जितना विचार करता है, उतना संदिग्ध होता चला जाता है। संदेह पर संदेह खड़े होने लगते हैं। धीरे-धीरे संदेहों से घिर जाता है। फिर संदेहों में ही जीता है। और अभागा है वह मनुष्य जो संदेहों में जाता है। क्योंकि संदेह में जीना, नर्क में जीना है। फिर संदेह तुम्हारे साथी हैं, वे ही तुम्हारे संगी हैं। और संदेह से किसको कब शांति मिली! संदेह से कैसे मिल सकती है! संदेह तो डगमगाता है, इसलिए अकंप कैसे होओगे? और जो अकंप होता है उसी को आनंद मिलता है।
विचार का सूत्र का संदेह। समझ का सूत्र है श्रद्धा। प्रेम श्रद्धा का रूप है। प्रेम श्रद्धा की पहली किरण है। ये सूत्र प्रेम से समझना, गुनगुनाना। इन्हें भीतर चुपचाप चले जाने देना। इनके साथ जददोजहद मत करना। इनको उतर जाने देना हृदय में। और ये रंग लाएंगे, ये जरूर रंग लाएंगे।
ज्ञान की धरती,
लगन की
साधना की नीर सींची
भावना की खाद डाली
ऋतु समय से
प्रेम के कुछ
बीज बोए--
कल उगेंगे अरुण-अंकुर
कसमसाकर
तोड़ मिट्टी की
तरुण-सोंधी परत को
धूप नूतन रूप देगी
मेघ वर्षा में
सघन घिर कर
बरसकर
तर करेंगे मूल तक को
गंध फूटेगी गमक कर
ये प्रेम के बीज हैं। ये सूत्र प्रेम के बीज हैं। तुम हृदय खोलो, जैसे पृथ्वी अपने को खोलती है, और बीज को अंगीकार कर लेती है।--ऐसे तुम पाओगे तुम्हारे भीतर कुछ नये का आविर्भाव हो रहा है, जैसा तुमने कभी नहीं जाना था। उस नए के आविर्भाव के साथ तुम भी नए हो चले, पुनरुज्जीवन हुआ, नव जागरण हुआ। उस नवजागरण का नाम ही धर्म है।
धर्म शास्त्रों में नहीं है--उस हृदय में है, जो प्रेम के बीज बोने की क्षमता रखता है, साहस रखता है। धर्म आंतरिक अनुभव है। और अब तुम्हारे भीतर प्रेम का फूल खिलता है तब तुम्हें भरोसा आ जाता है--जगत परमात्मा से भरा है। जब तक तुम्हारे भीतर प्रेम का फूल नहीं खिलता तब तक जगत परमात्मा से भरा नहीं है। तब तुम लाख कहो कि परमात्मा है, तुम कह ही रहे हो; यह तुमने जाना नहीं है। यह ऐसा ही है जैसे तुमने आग के संबंध में सुना हो कि जलाती है और तुम दोहराओ कि आग जलती है। मगर तुम जले नहीं आग से। आग को जानने का एक ही उपाय है--जलना।
आग के व्यवहार को
समझे न थे पढ़कर किताबें,
आग छू बैठे
तो समझ--आग से जलते भी हैं!
परमात्मा जलाएगा और नया बनाएगा।
धीरजवंत अडिंग जितेंद्रिय निर्मल ज्ञान गहयौ दृढ़ आदू।
शील संतोष क्षमा जिनके घट लागि रहयौ सु अनाहद आदू।
आज अंतिम सूत्रों में सुंदरदास अपने गुरु के गीत गा रहे हैं। कितने ही गीत गाओ, छोटे पड़ जाते हैं। क्योंकि जो गुरु से मिला है, उसका कोई मूल्य आंका नहीं जा सकता। शिष्य सदियों से गुरु के गीत गाते रहे हैं। ये गीत प्रशस्तियां नहीं हैं। प्रशस्तियां तो झूठी होती हैं। प्रशस्तियों के पीछे तो हेतू होता है, मॉटिवेशन होता है।
सुना है मैंने, अकबर के दरबार का एक कवि, बैठा कुछ लिख रहा था। अकबर पास से गुजरा, तो उसने यूं ही मजाक में पूछ लिया था कि आज कौन सी झूठ गढ़ रहे हो? उस कवि ने जो कहा, वह अकबर को बहुत चौंका गया। उसने अपनी आत्मकथा में इस बात का स्मरण किया है। उस कवि ने कहा: अब आपने पूछ ही लिया, तो कहना ही पड़ेगा। आपकी प्रशस्ति लिख रहा हूं।
कौन सा झूठ गढ़ रहे हो? अकबर ने पूछा था।
आपकी प्रशस्ति लिख रहा हूं।
शिष्य गुरु की प्रशस्ति नहीं लिखता है। शिष्य ने गुरु के साथ कुछ जागा, कुछ देखा, कुछ पाया। शिष्य गुरु के साथ रूपांतरित हुआ। एक रासायनिक क्रांति हो गयी। कुछ का कुछ हो गया। आया था दो कौड़ी का, बहुमूल्य हो गया। उसके परस से--मिट्टी थी, सोना हो गया। प्रशस्ति नहीं है यह शिष्य आनंद-विभोर हो, सदा से, सदियों से, गुरु के गीत गाया है। और फिर भी शिष्य को लगता रहा है कि जो कहना था कहा नहीं जा सकता।
सुंदरदास कहते हैं: धीरजवंत...। ऐसे धैर्य से भरे हुए व्यक्ति के पहले कभी देखा था। सदगुरु का अर्थ ही होता है कि जिसका धैर्य अनंत हो। नहीं तो सदगुरु नहीं हो सकता। शिष्यों को बढ़ना अपूर्व धैर्य का काम है। चित्र बनाना आसान है। पिकासो बनाना कितना ही कठिन हो, लेकिन फिर भी कठिन नहीं है। तुम सीख ले सकते हो। और कम से कम एक बात तो पक्की है कि जब तुम चित्र बनाते हो। कैनवस पर, तो कैनवस कुछ गड़बड़ नहीं करता। भागता नहीं, दौड़ता नहीं, उल्टा-सीधा नहीं करता, तुम लाल रंग लगाओ, वह काला नहीं कर देता। कैनवस निष्क्रिय भाव से खड़ा रहता है। तुम्हें जो करना हो करो। मूर्तिकार जब मूर्ति गढ़ता है, तो पत्थर झंझटें नहीं डालता। लेकिन जब गुरु शिष्य को गढ़ता है तो शिष्य की तरफ से हजार झंझटें आती हैं। गुरु कुछ कहता है, शिष्य कुछ समझता है। उनकी भाषा के लोक गलत हैं। वे दो अलग आयाम में जी रहे हैं। गुरु किसी पर्वत-शिखर पर खड़ा है और शिष्य किसी अंधेरी गुहा में, खाई में खड्डे में--जहां कभी रोशनी पहुंची नहीं है, जहां चांदत्तारों की कोई खबर नहीं पहुंची। गुरु ने सहस्र दल कमल को खिलते देखा है। शिष्य को उस कमल की कोई खबर भी नहीं है। उस कमल को समझने की भी कोई समझ नहीं है। कोई उपाय भी नहीं है।
गुरु बोलता है किसी दूर आकाश से--और शिष्य पृथ्वी पर गड़ा है। जैसे आकाश पृथ्वी से बोल! बड़ी भाषा का भेद हो जाएगा। फिर जब गुरु बोलता है और शिष्य समझता है तो निश्चित ही कुछ का कुछ समझता है। इसलिए तो दुनिया में इतना विवाद, इतना उपद्रव। यह शिष्यों के कारण है, यह गुरुओं के कारण नहीं है। महावीर वही कहे हैं जो बुद्ध कहे हैं। वही कृष्ण कहे हैं, वही क्राइस्ट, वही नानक, वही दादू। कुछ भेद नहीं। भेद हो नहीं सकता। लेकिन सुननेवाले अलग-अलग थे, इसलिए भेद हो गया है। और ऐसा ही नहीं है कि महावीर और बुद्ध में उन्होंने भेद कर लिया; बुद्ध को ही जिन्होंने सुना था उन्होंने भी बड़ा भेद कर लिया है। बुद्ध के मरने के बाद छत्तीस संप्रदाय खड़े हो गए। क्या थे ये संप्रदाय? प्रत्येक यह कह रहा था कि जैसा मैं कह रहा हूं, ऐसा बुद्ध ने कहा है। ऐसा उनका अर्थ है। अर्थ तो तुम अपने लगाओगे। अर्थ तुम अपन जोड़ लोगे।
फिर तुम गुरु के हर काम में बाधा भी डालोगे, क्योंकि गुरु तुम्हें तोड़ेगा। टूटना कौन चाहता है! तुम गुरु के पास आए थे, टूटने नहीं, मिटने नहीं--कुछ बनने आए थे। लेकिन तुम्हें बनने की प्रक्रिया का कोई पता नहीं है। बनने की प्रक्रिया में तोड़ना अनिवार्य है, प्राथमिक भूमिका है। अब कोई पत्थर मूर्ति बनना चाहे, तो छेनी उठाकर तोड़ना ही पड़ेगा। और पत्थर को पीड़ा भी होगी, यह भी सच है। इसलिए कमजोर तो भाग जाते हैं। वे कहते हैं, इसलिए नहीं आए थे। हम आए थे कि थोड़ा साज-शृंगार होगा। हम आए थे कि थोड़े गहने हमें और मिल जाएंगे, हम और सज जाएंगे। हम यहां छेनी का घाव सहने नहीं आए थे। हम यहां गर्दन कटाने नहीं आए थे। हम तो कुछ ज्ञान अर्जित करने आए थे। हम तो कुछ और, जैसे हैं इससे अच्छे कैसे हो जाए, इसके लिए आए थे। और यहां मृत्यु खड़ी है।
गुरु मृत्यु है, ऐसा पुराने शास्त्र कहते हैं। गुरु के पास शिष्य जब आता है, तो वह मृत्यु के पास ही आ रहा है। तुम यह मत सोचना कि कठोपनिषद में जैसे नचिकेता मृत्यु के पास गया, अकेले नचिकेता ही गया था। हर शिष्य मृत्यु के पास ही जाता है। हर गुरु मृत्यु है। तुम जैसे हो, ऐसा तो तुम्हें मिटा ही देना होगा--बिलकुल मिटा देना होगा, समग्ररूपेण मिटा देना होगा। जैसा कोई नया बगीचा लगाए तो घास-पात उखाड़नी ही पड़ेगी। कंकड़-पत्थर निकालने पड़ेंगे, जमीन खोदनी पड़ेगी, भूमि को रूपांतरित करना होगा। फिर ही गुलाब के पौधे बोए जा सकते हैं। शिष्य जब आता है, तो उसे इस बात का कुछ पता नहीं होता कि इतनी तोड़-फोड़ होगी, कि मेरे सिद्धांत तोड़े जाएंगे, कि मेरे शास्त्र छीने जाएंगे, कि मेरा आचरण अर्थ, कि मेरा जीवन व्यर्थ, कि मेरे पास कुछ भी ठीक नहीं है।
कल ही किसी ने पूछा है कि आप कहते हैं कि मनुष्य के पास भी कुछ नहीं। कुछ तो ठीक होगा? वह मनुष्य के संबंध में उसको परेशानी नहीं है, मनुष्य ये से उसको क्या लेना-देना! बह मूलतः अपने संबंध में पूछ रहा है कि यह मानने को मन नहीं होता कि मैं बिलकुल गलत हूं। कुछ तो...थोड़ा ही सही। लेकिन तुम मेरी अड़चन भी समझो। या तो कोई पूरा ठीक होता है या पूरा गलत होता है। बीच में कुछ ही नहीं। बीच में कभी कोई नहीं हुआ। ऐसा थोड़े ही है कि सत्य की भी कोई डिग्री होती है--कि किसी के पास पचास प्रतिशत, किसी के पास साठ प्रतिशत, किसी के पास दस, किसी के पास पांच। सत्य अखंड है।
सुना नहीं सुनने, सारे शास्त्र चिल्लाते रहे सदियों से कि सत्य अखंड है। उसके टुकड़े नहीं हो सकते। या तो सत्य होता है तुम्हारे पास, या नहीं होता।। दो में से एक ही है। तुम यह नहीं कह सकते कि मेरे पास थोड़ा सा सत्य है। हालांकि तुम्हारा अहंकार यही मानना चाहता है कि मेरे पास पूरा सत्य न होगा, लेकिन थोड़ा सत्य है। इसका मतलब हुआ कि सत्य की माताएं होती हैं!...थोड़ा सा मेरे पास है। थोड़ा सा होता ही नहीं। सत्य को बांटा नहीं जा सकता, काटा नहीं जा सकता। या तो तुम जिंदा हो या तुम मुर्दा हो। कुछ-कुछ जिंदा, कुछ-कुछ मुर्दा, ऐसी कोई बात होती ही नहीं। मगर हमारी भाषा ऐसी है, हमारे बोलचाल ऐसे हैं। हम तो लोगों से कहते भी हैं एक-दूसरे से, कि मुझे तुमसे बहुत प्रेम हो गया। जैसे प्रेम की भी मात्राएं होती हैं! बहुत, थोड़ा। या तो प्रेम होता है या प्रेम नहीं होता है। बहुत, थोड़ा!...क्या बकवास लगा रखी है? कहीं प्रेम की कोई मात्रा हो सकती है? कोई तराजू है, जिस पर तौल लोगे कि कितना है, किलो कि आधा किलो
परमात्मा ऐसा थोड़े ही है कि थोड़ा बहुत तुम्हारे पास है, कि ले भागे एक लंगोटी परमात्मा की। कुछ उसकी भी सोचो...कि एक हाथ तुम्हारे पास है, उसके तो हजार हाथ हैं, एक तुमने तोड़ लिया।...कि उसके तो चार सिर हैं, एक तुमने तोड़ लिया।
परमात्मा जब जीवन में उतरता है तो पूरा-पूरा उतरता है। इसका मतलब यह हुआ कि जब तक परमात्मा नहीं उतरा है तब तक तुम पूरे-पूरे अंधेरे में हो और पूरे-पूरे गलत हो।
ऐसा ही समझो, पानी को हम गरम करते हैं, सौ डिग्री पर पानी माप बनता है। क्या तुम सोचते हो कि नब्बे डिग्री पर थोड़ा कम, पंचानवे पर और थोड़ा ज्यादा, निन्यानबे पर और थोड़ा ज्यादा? नहीं, सौ डिग्री पर ही भाप बनता है। जरा सी भी कमी होती है सौ डिग्री से, तो भाव नहीं बनता। गरम पानी भी भाप नहीं बनता। गरम पानी भला हो, मगर भाप नहीं होता। भाप तो सौ डिग्री पर ही होता है। ठीक ऐसे ही।
लेकिन शिष्य जब आता है तो वह इसी खयाल से आता है। मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं कि ऐसे तो हमने सब साधा है--योग भी सीधा, ध्यान भी साधा। अब कुछ कमी रह गयी हो, तो आप पूरी कर दें।...कमी रह गयी हो! वे यह मानकर ही आए हैं कि सब तो कर ही चुके हैं; थोड़ा बहुत कुछ कमी यहां वहां है, वह ठीक हो जाएगी। और जब मैं तोड़ना शुरू करता हूं तो स्वभावतः उन्हीं पीड़ा होती है। फिर उसके पास जितना अहंकार है, उतनी ही ज्यादा पीड़ा होती है।
तुमने उस संगीतज्ञ की बात सुनी है?...एक बड़ा संगीतज्ञ हुआ। जब उसके पास कोई शिष्य समझने आते थे संगीत, संगीत अध्ययन करने आते थे, तो उसने एक बड़ा अजीब नियम बना रखा था। अगर कोई बिलकुल सिक्खड़ आता, जो संगीत जानता ही नहीं है, अ ब स से शुरू करना है, उससे वह आधी फीस लेता था। और जिसने कुछ वर्षों से संगीत का अभ्यास किया है, कुछ संगीत के संबंध में जानता है, उससे दुगनी फीस लेता था। एक आदमी बीस साल की संगीत-साधना के बाद इस गुरु के पास आया। और उसने कहा: यह नियम बड़ा अजीब सा है। यह बिलकुल तर्क के विपरीत नियम है। जो सीख कर आया है, उससे कम फीस लो। बीस साल मैंने गंवाएं हैं। जो कुछ भी सीख कर नहीं आया, उससे आधी और जो सीख कर आया है, उससे दुगनी, यह क्या पागलपन है? यह कौन सा गणित है?
उस संगीतज्ञ ने कहा: मेहनत तुम्हारे साथ मुझे ज्यादा करनी पड़ेगी, क्योंकि बीस साल तुमने जो सीखा है उसे पहले पोंछना पड़ेगा। दुगनी फीस इसलिए लेता हूं। जो नया-नया आया है, उसकी किताब कोरी है। उस पर लिखावट सीधी आ जाएगी। तुम बहुत कुछ गूदकर आ गए हो। इसकी सफाई कौन करेगा?
अक्सर यह अनुभव में आता है कि तथाकथित अनुभवी अब आते हैं गुरु के पास, तो ज्यादा देर नहीं टिक पाते। क्योंकि उनके अनुभव को खतरा होने लगता है। उन्होंने साधना की है, प्रार्थना की है, पूजा की है, आराधना की है। वर्षों तक मंदिर में घंटी बजाते रहे हैं, कि हनुमान-चालीसा पढ़ते रहे हैं। आज वे उस सब को छोड़ने को राजी नहीं होते। उन्हें बड़ी अड़चन हो जाती है। अगर जब तक गुरु तुम्हें पूरा न तोड़ डाले, तुम्हें खंड-खंड न कर दे, तब तक तुम्हारा पुननिर्माण नहीं हो सकता। इसलिए बहुत बार भूल तुमसे हो जाती है। अगर तुम हिंदू हो, तुम सोचो कि गुरु मुसलमान धर्म के विपरीत है या हिंदू धर्म के विपरीत है, तो तुमने गलत निर्णय लिया। गुरु किसी के विपरीत नहीं है--सिर्फ शिष्य को मिटाने में लगा है। तो तुम्हारा जो भी पक्ष है उसी को तोड़ेगा।
एक सुबह एक आदमी ने बुद्ध से पूछा: ईश्वर है? बुद्ध ने उस आदमी की तरफ देखा और कहा: नहीं बिलकुल नहीं! दोपहर एक दूसरे आदमी ने उसी दिन पूछा: ईश्वर है? बुद्ध ने कहा: हां है, निश्चित है! और सांझ एक तीसरे आदमी ने उसी दिन पूछा ईश्वर है? और बुद्ध आंख बंद कर लिए और चुप रह गए। कुछ भी न बोले। उनका शिष्य, आनंद, साथ था। उसने तीनों घटनाएं देखीं। वह तो बड़ी मुश्किल में पड़ गया, बिबूचन में पड़ गया। वे तीनों तो ठीक, उनकी वे जाने, क्योंकि उन्होंने तो एक-एक उत्तर सुना था। शायद कभी आपस में उनका मिलना भी न होगा। लेकिन इस आनंद की क्या गति हुई, जो दिन-भर सुनता हो? सुबह सूना नहीं, फिर सुना हां, फिर चुप भी देखा बुद्ध को। रात जब बुद्ध सोने लगे उसने कहा: मैं सो न सकूंगा जब तक मेरा मन साफ न हो जाए। मुझे बड़ी दुविधा में डाल दिया। कुछ मेरे पर भी तो खयाल करो! एक आदमी से कहा--ईश्वर नहीं है, बिलकुल नहीं है! एक से कहा--हां है, निश्चित है, और तीसरे के साथ बिलकुल चुप रह गए!
बुद्ध ने कहा। जिस आदमी से मैंने कहा ईश्वर नहीं है वह आस्तिक था। और उसकी आस्तिकता तोड़नी थी। और जिससे मैंने कहा ईश्वर है, वह नास्तिक था और उसकी नास्तिकता तोड़नी थी। और जो आदमी, तीसरा आदमी, जिसके संबंध में मैं चुप रह गया, वह न नास्तिक था न आस्तिक था। उसको मौन का पाठ देना था कि पूछ ही मत, चुप हो जा। जैसे मैं चुप हूं ऐसे चुप हो जा। चुप्पी में जान लेगा। वे तीनों अलग-अलग तरह के लोग थे। और अलग-अलग तरह के लोगों के लिए मुझे अलग-अलग उत्तर देने पड़े।
अब तुम बड़ी मुश्किल में पड़ोगे। अब कैसे निर्णय करोगे कि बुद्ध ईश्वर को मानते हैं या नहीं? बुद्ध क्या मानते हैं, यह बुद्ध हुए बिना जानने का कोई उपाय नहीं। बुद्ध क्या मानते हैं, यह बुद्ध हुए बिना कभी जाना ही नहीं जा सकता। हां, शिष्यों से क्या कहते हैं, वह तुम्हारे पास है। मगर वे तो हजार बातें हैं। हर शिष्य के अनुकूल कही गयी हैं।
कोई पत्थर उत्तर से तोड़ना पड़ता है, कोई पत्थर पूरब से तोड़ना पड़ता है। कोई पत्थर नीचे से तोड़ना पड़ता है, कोई पत्थर ऊपर से तोड़ना है। कोई पत्थर बीच में अनगढ़ है, कोई पत्थर नीचे अनगढ़ है। पत्थर-पत्थर अलग हैं। लेकिन तोड़ना सभी को पड़ता है।
बड़ा धैर्य चाहिए गुरु में। क्योंकि शिष्य भागेंगे, बेचेंगे, उपाय खोजेंगे, तरकीबें निकालेंगे। अपने को बचाने के लिए नयी-नयी ढालें बनाएंगे। गुरु वार करेगा, और वे ढालो पर सह जाएंगे।
दुनिया में, अडिंग...और गुरु अकंप है। अकंप है, इसीलिए गुरु है। यही उसकी गुरुता है। उसके भीतर चेतना की लौ थिर हो गयी है। कृष्ण ने जिसको स्थितिप्रज्ञ कहा है, स्थिरधीः कहा है। उसकी चेतना की लौ अडिंग हो गयी है। अब तूफान भी आए, तो भी उसकी की लौ कंपती नहीं, अकंप है। हम कंप रहे हैं, इसलिए सत्य को नहीं देख पा रहे हैं।
तुम ऐसा ही समझो कि एक कैमरा तुम्हारे हाथ में हो और तुम्हारे दोनों हाथ कंप रहे हों, और तुम तस्वीर निकालो। तो तस्वीर में क्या सत्य आएगा? कुछ का कुछ हो जाएगा। एक दिन कोशिश करना, भागते हुए कैमरा हाथ में लेकर तस्वीर उतार लेना। तस्वीर उतारने के लिए कैमरे को थिर करना पड़ता है। तब कैमरा जितना ज्यादा थिर होता है, उतनी ही स्पष्ट तस्वीर होती है।
जब झील शांत होती है तो चांद का प्रतिबिंब पूरा-पूरा बनता है। जब झील में तरंग होती है, चांद का प्रतिबिंब खंड-खंड हो जाता है, पूरी झील पर फैल जाता है। पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि चांद कैसा है। हमारा चित्त दर्पण है। यह सारा सत्य मौजूद है चारों तरफ, मगर हमारा चित्त कंप रहा है। ऐसा कंपित है, थरथर-थरथर हो रहा है। लहरें ही लहरें हैं। जागते-जागते लहरों से भरी हुई झील है। इसमें कैसे तुम परमात्मा जानोगे?
लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं: परमात्मा कहां है? हमें दिखा दें। मैं उनसे कहता हूं: तुम्हें दिखा तो दें, परमात्मा को दिखाने में कोई अड़चन ही नहीं है, क्योंकि परमात्मा ही परमात्मा है। यह जगत उसी से भरा हुआ है। उसकी राशि लगी हुई है। लेकिन तुम अकंप हो जाओ तो...।
लोग बिना ध्यान के परमात्मा देखना चाहते हैं। लोग तो उलटी बात कहते हैं। वे कहते हैं, तुम ध्यान तो तभी करेंगे, कब जब हमें परमात्मा दिखाई पड़ जाए। यह तो उन्होंने ऐसी शर्त लगा दी, जो पूरी नहीं हो सकती। क्योंकि परमात्मा ध्यान करने से दिखाई पड़ता है। वे कहते हैं: हम ध्यान तभी करेंगे, जब हमें प्रमाण मिल जाए कि परमात्मा है; जब आंख कह दे कि परमात्मा है। आंख जरूर कहेगी कि परमात्मा है लेकिन आंख के पीछे थिर तो हो जाने दो चेतना को।
जिसकी चेतना थिर हो गई है, वही सदगुरु है, जितेंद्रिय है। जिसने अपने को अपने शरीर से अन्य जान लिया है, जिसने अपने को अपनी इंद्रियों से भिन्न जान लिया है, उसी भिन्नता में जीत है। सब समझ लेना, जितेंद्रिय बनने की कोशिश मत करना। जितेंद्रिय बनने की कोशिश नहीं की जाती। जो करता है, वह सिर्फ दमित हो जाता है। उसका जीवन केवल रोग भर जाता है। किसी इंद्रिय को दबाने की कोई जरूरत नहीं है। दबाने से कोई मुक्ति भी नहीं है। जिसे दबाओगे, वह उभर-उभर कर उठेगी। तुम जिसे दबाओगे, वह लौट-लौटकर आएगी। यह कोई जीतने का उपाय नहीं है। यह विक्षिप्त होने की प्रक्रिया है, विमुक्त होने की नहीं। दमन से बचना।
जितेंद्रिय का यही अर्थ लोगों ने ले लिया है, कि इंद्रियों को जीता, कि जीभ से स्वाद न रह जाए। और कैसे-कैसे उपाय करते हैं लोग कि जीभ में स्वाद न रह जाए। जीभ को मार डालने के उपाय करते हैं।
महात्मा गांधी अपने भोजन के साथ-साथ नीम की चटनी खाते थे। अब नीम की चटनी, वह जीभ को मारने का उपाय है। क्योंकि अस्वाद उनके आश्रम के नियमों में बड़ा प्रमुख नियम था। अस्वाद! अस्वाद साधने का यह कोई ढंग हैं? तो जाकर जीभ पर, चिकित्सकों से कहकर जरा सा आपरेशन करा लो, प्लास्टिक सर्जरी क्योंकि जीभ में थोड़ी सी ही क्षमता है स्वाद की। वह खंडित की जा सकती है। जीभ की ऊपर की पर्त निकाली जा सकती है। बजाय नीम की चटनी खाने के, जीभ की एक छोटी सी तह ऊपर की जाकर चिकित्सक से कहो कि छील दे। फिर तुम्हें कोई स्वाद पता नहीं चलेगा--न मीठा, न कड़वा। और अगर कड़वे की ही बहुत आकांक्षा हो, तो सिर्फ जीभ के पीछे के हिस्से को बचा लेना और बाकी हिस्से को साफ करवा देना। क्योंकि जीभ के अलग-अलग हिस्से अलग-अलग स्वाद का अनुभव करते हैं। कड़वा अनुभव जीभ के आखिरी हिस्से पर होता है। बस थोड़े से ही बिंदु हैं वहां, जो कड़वे का अनुभव करते हैं। उनकी छोड़ रखना, फिर नीम की चटनी बनानी नहीं। कोई भी चटनी खाओ, नीम की ही चटनी मालूम पड़ेगी।
मगर इस तरह जीभ को मारने से, कोई अस्वाद होगा? यह अस्वाद का धोखा है। फिर अस्वाद क्या है? असली अस्वाद क्या है? असली अस्वाद है यह जानना कि मैं जीभ नहीं हूं। असली अस्वाद है यह जानना की जीभ में जो स्वाद फलित हो रहा है, वह मैं नहीं हूं, मैं जागरूक, उसका साक्षी हूं। मैं देख रहा हूं कि जीभ में कड़वे का स्वाद हो रहा है। मैं देख रहा हूं कि जीभ में मिठास का स्वाद हो रहा है, कि जीभ में नमक का स्वाद आ रहा है। कड़वा हो कि मीठा हो कि तिक्त हो, मैं साक्षी हूं। मीठे के स्वाद के खिलाफ कड़वे के स्वाद का अभ्यास थोड़े ही करना है। बस स्वादों के ऊपर अतिक्रमण करना है। साक्षी का भाव लाना है। अब तुम्हें संगीत से मुक्त होना हो, कान पर विजय पानी हो, तो क्या जाकर बाजार में बैठकर शोर-गुल सुनोगे? उससे तुम्हारे कान पर विजय हो जाएगी। उससे विजय नहीं होगी। लोग यही सोचते हैं, उससे विजय हो जाएगी। क्या खुरदरे कपड़े पहन लोगे, तो स्पर्श की इंद्रिय पर विजय हो जाएगी? खुरदरे कपड़ों से नहीं हो जाएगी।
एक ही विजय है इंद्रिय पर--वह साक्षी का बोध है, कि मैं मात्र द्रष्टा हूं; और सब मेरे आसपास घट रहा है, वह मुझे नहीं घट रहा है। मैं दूर खड़ा देख रहा हूं।
तुम आज जब भोजन करो, थोड़ा सा प्रयोग करना। क्योंकि ये बातें प्रयोग से ही समझ में आ सकती हैं। स्वाद आ रहा हो, तब जरा भीतर देखना कि स्वाद मुझसे अलग है या मैं स्वाद के साथ एक हूं? और तुम पाओगे कि तुम अलग हो, क्योंकि तुम अलग हो! चमत्कार तो यही है कि कैसे तुमने अपने को एक मान लिया है। तुम बड़े जादूगर हो। तुमने अपने को धोखा ऐसा दिया है! मगर धोखा धोखा है। जिस दिन जागोगे, जादू टूट जाएगा। यह जादू तोड़ा जा सकता है। इंद्रियों से लड़ने की कोई जरूरत नहीं। इंद्रियों को दुख देने की कोई जरूरत नहीं। शरीर को सताने की कोई जरूरत नहीं है। जो आदमी शरीर को सता रहा है, यह मनोवैज्ञानिक रूप से रुग्ण है। यह स्वस्थ नहीं है।
स्वस्थ आदमी तो इतना ही जानता है--मैं देह नहीं हूं। मैं इंद्रियां नहीं हूं। मेरे स्वाद मैं नहीं हूं। मैं पार हूं। मैं भिन्न हूं। मैं अलग हूं। मैं दूर खड़ा देख रहा हूं। निर्मल दर्पण हूं मैं!
धीरजवंत, अडिंग, जितेंद्रिय, निर्मल-ज्ञान गहयो दृढ़ आदू।
और जो ऐसा हो जाए, उसे निर्मल-ज्ञान पैदा होता है। निर्मल-ज्ञान साक्षी भाव का नाम है। ज्ञान में निर्मल क्यों जोड़ा? तुम जो भी जानते हो वह निर्मल ज्ञान नहीं है। तुम्हारा जानना, जानने का सिर्फ धोखा है। तुम्हारा सब जानना उधार है, बसा है, दूसरे से है। निर्मल ज्ञान का अर्थ होता है--जो भीतर जन्मे; जो भीतर की निर्मलता से आए, भीतर की निर्दोषता से आए। तुम्हारा ज्ञान तो ऐसे है जैसे दर्पण पर धूल जमी हो। निर्मल ज्ञान ऐसे है, धूल हट जाए और दर्पण की ताजगी प्रकट हो।
साक्षी से निर्मल ज्ञान निर्मित होता है। और तब उसे जान लिया जाता है, जो सदा से सच है--निर्मल-ज्ञान गहयो दृढ़ आदू। जो--आदि से ही सच है।
यह सूत्र महत्वपूर्ण है। सत्य को बनाना नहीं है। सत्य तो मौजूद है। सिर्फ पहचान करनी है। सत्य तो है ही। सिर्फ अपने भीतर झलक ने देना है। आदि से ही सच है।...आदि सचु, जुगदि सच...। पहले से सच है और अंत तक सच है। सच तो सिर्फ सच है। सिर्फ तुम सच नहीं हो, तुम झूठ हो। इसलिए तुम्हारा संबंध नहीं हो पा रहा है।
और तुम्हारे झूठ का सबसे बड़ा कारण तुम्हारा ज्ञान है यह बात तुम्हें उलटी लगेगी ज्ञान में सब से बड़ी बाधा तुम्हारा ज्ञान है--तुम्हारे शास्त्र, तुम्हारे शब्द। तुमने खूब कचरा इकट्ठा कर लिया है।
मैंने सुना है, जोसुआ लीबमॅन, एक यहूदी मनीषी, उसने अपने संस्मरणों में लिखा है: यौवन के उल्लास में एक बार मैंने जीवन की तमाम स्पृहणीय वस्तुओं की एक सूची बना डाली--स्वास्थ्य, प्रेम, रूप, प्रतिभा, ऐश्वर्य, यश, और भी अनेक चीजें, जो जीवन को परिपूर्णता देती हैं। सूची बनाकर बड़े अभिमान के साथ मैंने उसे एक बुजुर्ग मित्र को दिखाया--जिन्हें मैं अपना आदर्श मानता था और आत्मिक मामलों में पथ-प्रदर्शन भी। शायद मैं उन्हें प्रभावित करना चाहता था कि मैं अपनी उम्र में लिहाज से कितना अधिक प्रौढ़ हूं और मेरी रुचियां कितनी व्यापक हैं। बुजुर्ग मित्र की आंखों की कोरों में मुझे हंसी की झलक नजर आयी। वे बोले: बड़ी उत्तम सूची है--बहुत सुविचारित और सुलिखित। परंतु तुमने एक चीज तो छोड़ ही दी, जिसके बिना ये सब चीजें असहनीय बोझ बन जाती हैं।
वह छूट गयी चीज क्या है? लीबमॅन ने पूछा। तिरछी लकीर खींचकर सारी सूची रद्द करते हुई उन बुजुर्ग ने लिखा--मन की शांति।
ज्ञान तो जो बाहर से आता है, तुम्हारे मन की अशांति को बढ़ायेगा, घटाएगा नहीं। पंडित और अशांत हो जाता है। उसके मन में और न मालूम कितने विचार घूमने लगते हैं! न मालूम कितनी भीड़ इकट्ठी हो जाती है! न मालूम कितने तर्क-जाल उसे घेर लेते हैं! शास्त्र उसके भीतर बड़ा शोरगुल मचाने लगते हैं।
असली चीज ज्ञान नहीं, असली चीज मन की शांति है। ऐसा शांत मन, जिसमें कोई तरंग न हो, जिसमें कोई विचार ही न हो--निर्विचार मन। फिर उसी निर्विचार मन में ज्ञान का जन्म होता है। तब तुम्हें कृष्ण की गीता में खोजने नहीं जाना पड़ता। तब तुम्हारे भीतर ही कृष्ण की गीता जन्मने लगती है। और फिर अगर तुम कृष्ण की गीता पढ़ोगे, तो समझोगे भी उसके पहले नहीं। उसके पहले तो तुम वही समझोगे जो तुम समझ सकते हो। उसके पहले कृष्ण क्या कह रहे हैं, यह तुम नहीं समझोगे।
हर आदमी की अपनी-अपनी भाषा है।
मैंने सुना है, एक नौकर अपने मालिक को उठा रहा है। सुबह हो गई है। मालिक कभी भी घुर्राटे भर रहा है। नौकर उसे उठा रहा है:
उठो, मेरे मालिक,
सुबह हो गयी!
बुरे मुहूर्त में गिरते
बाजार-भाव की तरह,
चांद नीचे उतर आया है।
कंकड़--जो तुमने मिलवाए थे
चावल की बोरियों में--
ढेर सारे--तारे
एक-एक कर डूबने लगे हैं।
सरसों के तेल की खुशबूवाले
भटकटैया के तेल-सा
हमला, ललछहूं रंग
पूर्व आकाश में फैलने लगा है।
अपनी आढ़त में
महंगे दामों बिकनेवाली
नकली अगरबत्तियों की स्थायी खुशबू लिए
पुरवैया डोल रही है।
इस बार सड़े गेहूं का आटा,
हमारी दुकान से ले जानेवालों ने
जैसा मचाया था शोर-शराबा,
रात का मौन कुछ वैसी ही खलबली,
हल्ले-हंगामे में डूब गया है।
जैसे रिक्से पर शहर की परिक्रमा कर
हमारा प्रचारक हमारे मालों की
उत्तमता की गारंटी देता है
वैसे ही पंक्षी चहक रहे हैं
और सबके ऊपर--
मंदी के बाद फिर भाव ऊंचे चढ़े हैं
वैसे ही ऊपर उठने लगा है गोल सूरज।
प्रकृति में सर्वत्र एक ताजगी है,
नयी-नयी
उठो, मेरे सेठ, सुबह हो गयी।
भाषाएं हैं लोगों की। तुम गीता पढ़ोगे, तुम ही पढ़ोगे न! तुम अपना अर्थ ही निकालोगे न! तुम कुरान पढ़ोगे कुरान? वे अर्थ मोहम्मद की चेतना से उतरे थे। तुम्हारे पास वैसी चेतना होगी, तभी तुम उन अर्थों को जान पाओगे।
मैं भी कहता हूं शास्त्र पढ़ना, लेकिन मैं कहता हूं--जब मन निर्मल हो जाए। तब तुम अदभुत अनुभव करोगे। हर शास्त्र तुम्हें अपने अनुभव की गवाही देगा, तुम्हारा साक्षी हो जाएगा। तुम्हारे सत्य की प्रामाणिकता बनेगा। हर शास्त्र! और तब यह भेद नहीं खड़ा होगा। गीत भी तुम्हारी गवाही होगी और कुरान भी और बाइबिल भी। जिस दिन तुम्हारे पास सत्य होगा, समस्त जगत के शास्त्र तुम्हारे गवाही होंगे। और जब तक तुम्हारे पास सत्य नहीं है, तब तक तुम्हें उन सब शास्त्रों में विरोध दिखाई पड़ेगा, विवाद दिखाई पड़ेगा, क्योंकि उनको जोड़नेवाली मूल-वस्तु ही तुम्हारे पास नहीं है। उनको एक करनेवाला मूल-सेतु ही तुम्हारे पास नहीं है। उनको एक करनेवाला मूल-सेतु ही तुम्हारे पास नहीं है। तुम्हारे पास माला के मनके तो हैं, लेकिन माना का धागा नहीं है जो उनको एक सेतु में बांध दे, एक माला बना दे, अनस्यूत कर दे।
धीरजवंत अडिग्ग, जितेंद्रिय, निर्मल-ज्ञान गहयौ दृढ़ आदू।
शील, संतोष, क्षमा जिनके घट लागि रहयौ सु अनाहद नादू।।
और जिनके भीतर ज्ञान की जागृति होती है उनके भीतर अनाहत नाद बजता है। उनके भीतर ओंकार जन्मता है। उन्हें मंत्र रटने नहीं पड़ते, उनके भीतर मंत्रोच्चार होता है। वे तो उसके भी साक्षी होते हैं। उनके भीतर यह जगत अपूर्व भंगिमाओं में प्रकट होने लगते हैं--अपूर्व सौंदर्य और संगीत और प्रकाश! वे उसके भी साक्षी होते हैं। उससे भी भ्रांत नहीं होते। वे उसके साथ भी अपना तादात्म्य नहीं कर लेते। शील, संतोष, क्षमा उनके भीतर अपने आप पैदा हो जाते हैं, इनको साधना नहीं पड़ता।
शील, संतोष, क्षमा जिनके घट लागि...उनके घट से, उनके अंतर से प्रकट होने लगती है।
...लागि रहयौ सु अनाहद नाद। उसके भीतर सदा, चौबीस घंटे, उठते-बैठते, जागते, खाते-पीते, चलते, उठते, बोलते सुनते--हर घड़ी, अहर्निश एक नाद बजता रहता है। उनकी वीणा पर परमात्मा की अंगुलियां पड़ गयीं।
मगर वीणा को इस योग्य तो बनाओ कि परमात्मा बजाने योग्य समझे उसे। कसो वीणा को! बाद्य को तैयार करो!
भेष न पक्ष निरंतर लक्ष जु और नहीं कछु वाद-विवादू।
कहां न कोई वाद है, न कोई विवाद है। वहां सन्नाटा है। उसी सन्नाटे में अनाहत नाद है। भेष न पक्ष...और वहां कोई संप्रदाय नहीं है--कि मैं इस संप्रदाय का कि मैं उस संप्रदाय का। न वहां कोई पक्ष है--कि मैं इस पक्ष का कि मैं उस पक्ष का। वहां तो निरंतर एक ही लक्ष्य में है--वही एक परमात्मा।
ये सब लक्षन हैं जिन मांहि सु सुंदर कै उर है गुरु दादु।
और ये लक्षण हैं, खयाल। यह साधना नहीं करनी है तुम्हें इन चीजों की। जब तुम्हारे भीतर परमात्मा अवतरित होता है तो ये लक्षण प्रकट होते हैं, जब वसंत आता है तो वृक्षों पर फूल लग जाते हैं। ये लक्षण हैं। सुबह होती है, पक्षी गीत गाने लगते हैं। ये लक्षण हैं। इससे उलटा मत कर लेना। ये मत सोचना कि पक्षियों को अगर हम गीत गाना सीखा दें, और आधी रात में पक्षी गीत गा दें, तो सुबह हो जाएगी। नहीं। पक्षियों को तुम सिखा सकते हो गीत गाना, आधी रात में आएंगे। और तुम बाजार से फूल खरीदकर वृक्षों पर लटका भी सकते हो। मगर किसको धोखा होगा इससे? वसंत नहीं आ जाएगा।
वसंत आता है तो फूल खिलते हैं।
सुबह होती है, तो पक्षी गीत गाते हैं। ये लक्षण हैं। लक्षण से तुम मूल को पैदा नहीं कर सकते; मूल से लक्षण अपने आप पैदा होता है। यह बहुत कीमती बात है खयाल में रखने की।
महावीर को हमने देखा, उनके जीवन में परम हिंसा है। यह लक्षण है सिर्फ--समाधि का फल है। और उनके पीछे चलनेवाले मुनियों की जमात है, वे समझते हैं कि यह समाधि का कारण है। वे सोचते हैं अहिंसा सधेगी, तो समाधि आ जाएगी।
भांति में हो तुम। अहिंसा साध सकते हो। अहिंसा साधना बहुत कठिन नहीं है। पानी छानकर पी लोगे, रात भोजन न करोगे, चलते-फिरते जरा खयाल रखो कि कोई चीटि इत्यादि न दब जाए, किसी की हत्या न करोगे। अहिंसा साध सकते हो। मांसाहारन करोगे। यह सब किया जा सकता है।
कितने लोग इस तरह की अहिंसा साधे हुए हैं, लेकिन समाधि कहां! पक्षियों को गाना सिखा दिया। आधी रात आज्ञा दे दी, आधी रात में गाने लगे। मगर सुबह नहीं उगती, सुबह नहीं होती। प्लास्टिक के फूल खरीद लाए, वृक्षों को फूलों से लाद दिया--वसंत नहीं आता। वसंत आए तो फूल लगते हैं। सुबह हो तो पक्षी गीत गाते हैं।
महावीर की भीतर समाधि फली है, अनाहत का नाद हुआ। उस नाद के कारण अहिंसा आयी। अहिंसा लक्षण है। कारण नहीं, परिणाम है। और जिन्होंने बाहर से देखा...समाधि तो दिखती नहीं। समाधि तो अंतर-अनुभव है। उसको तो कोई उपाय नहीं बाहर से देखने का। उन्होंने तो बाहर से लक्षण देखे। उन्होंने देखा कि ठीक, महावीर बहुत संभल-संभलकर चलते हैं, रात भोजन नहीं करते, पानी छानकर पीते हैं, चींटी मारते नहीं। उन्होंने सोचा, हम भी ऐसा ही करें, तो हमें भी महावीर जैसा अनुभव हो जाएगा। वे सदियों से कर रहे हैं, उन्हें कोई अनुभव नहीं हुआ। वे सदियों तक करते रहे, उन्हें अनुभव नहीं होगा। क्योंकि उन्होंने उलटी बात पकड़ ली है। लक्षण दिखाई पड़ते हैं, मूल दिखाई नहीं पड़ता। और मूल ही असली बात है।
ये सब लक्षन हैं जिन मांहि सु सुंदर कै उर हैं गुरु दादू।।
ऐसे लक्षण वाले दादू, सुंदरदास के हृदय में समा गए हैं। वे सुंदरदास के गुरु हैं।
शिष्य होने का अर्थ होता है किसी के सामने आनंद-विभोर होकर अपनी हार स्वीकार कर लेना। तुमने यह राज देखा या नहीं? एक जीत है जो जीत से होती है, एक जीत है जो हार से होती है। और जो जी हार से होती है उसके मुकाबले, पहली जीत की कोई कीमत नहीं है। एक जीत है जो जीत से होती है, मगर वह पूरी कभी नहीं होती। क्योंकि जिसको तुमने जीत लिया है, वह हमेशा तैयार करता है कि कब बदला ले लें, कब तुम्हें हरा दे। प्रतिशोध की आग जली रहती है। एक और जीत है जो प्रेम की जीत है, तुम हार जाते हो। तुम किसी के सामने झुक जाते हो और उसे जीत लेते हो।
प्यार की हार से डरना कैसा प्यार की हार भी जीते है प्यारे
टूटे दिल की टीसो में भी एक सुहाना गीत है प्यारे
प्यार के टुकड़े कदम-कदम पर एक अछूती राह समझाएं
 वरना इस अंधियारे जग में कौन किसी का मीत है प्यारे
उजली सेज पै सोनेवाले प्यार की सुंदरता क्या जाने
प्रेम की पलकों पर मोती सांसों में संगीत है प्यारे
अपनी आशाओं की कलियां इस दुनिया से ओझल कर लो
फूल पर धूल उड़ाकर हंसना इस दुनिया की रीत है प्यारे
रात के गहरे सन्नाटे में शबनम बनकर रोनेवाली
या चंदा की ढलती छाया या पंछी की प्रीत है प्यारे
प्यार की हार से डरना कैसा प्यार की हार भी जीत है प्यारे
टूटे दिल की टीसो में भी एक सुहाना गीत है प्यारे।
दादू को दिल में बसाया, उसका अर्थ समझे? उसका अर्थ हुआ--दादू के चरणों में सिर रखा और हार गए। जो शिष्य गुरु से हार जाए, वह जीत के रास्ते पर चल पड़ा। शिष्य का अर्थ ही है कि सौभाग्यशाली हूं कि कोई मिला, जिसके सामने हारने की मेरी तैयारी है। कोई मिला, जिसके साथ हारने में मजा है।
कोउक गोरख कौं गुरु थापत, कोउक दत्त दिगंबर आदू।
कोउक कंथर, कोउ भरथथर, कोउ कबीर, कोउ राखत नादू।
कोई कहे हरिदास हमारे जु यौं करि ठानत वाद-विवादू।
और तौं संत सबै सिरि ऊपर, सुंदर कै उर है गुरु दादू।।
प्यारा वचन है! कहते हैं, किसी ने गोरख को गुरु माना, किसी ने दत्तात्रेय को गुरु माना, किसी ने दिगंबर आदिनाथ को गुरु माना, किसी ने कंथर को, किसी ने भुर्तहरि को, किसी ने कबीर को, अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग गुरु माने।
कोई कहै हरिदास हमारे जु...कोई हरिदास को मानता है। लेकिन मजा यह है कि ये सब वाद-विवाद ठानते हैं। बस वहीं चुक हो रही है।
गुरु मिला, फिर क्या वाद-विवाद! फिर किसे फुर्सत वाद-विवाद की! अगर गुरु को पाकर भी वाद-विवाद चल रहा है, अगर गुरु को पाकर भी आदमी वादविवाद में उलझा है, तो उसको केवल इतना ही अर्थ हुआ कि तुमने गुरु के बहाने वाद-विवाद के लिए एक नया निमित्त खोज लिया, और कुछ भी नहीं। तुम वही पुराने हो। वही खोपड़ी में विचारों का जाल, वही उपद्रव। अब तुमने उपद्रव के लिए एक और नयी तरकीब खोज ली। लड़ते तुम अब भी हो। पहले किसी और कारण लड़ते थे। हो सकता है राजनीतिक दलबाजी हो, उसमें लड़ते थे। अब राजनीतिक दलबाजी नहीं रही, अब धार्मिक दलबाजी है। मगर फर्क जरा भी नहीं पड़ा, अब भी लड़ते हो। पहले भी झंडे उठाए थे...झंडा धर्म रहे हमारा! वे झंडे राजनीति के रहे होंगे। अब भी झंडा उठाए हो। वे झंडे धर्म के हो गए। मगर तुम्हारे हाथ में वही का वही डंडा है। झंडे भले बदल गए हों, तुम नहीं बदले।
इसको खयाल रखना, आदमी बड़ी मुश्किल से बदलता है। सब बदल लेता है और वही का वही रहता है। यह आदमी की ऐसी कुशल तरकीब है, धन छोड़ देता है, मगर धन के कारण जो अहंकार था वही अहंकार त्याग के भीतर खड़ा हो जाता है। वह कहने लगता है--मैंने इतना त्याग किया। मेरे बराबर त्यागी कौन है? पहले कहता था--मेरे बराबर धनी कौन है? फिर कहता है--मेरे बराबर त्यागी कौन है? ऊपर से दिखता है, बड़ा फर्क पड़ गया है इस आदमी में। बेचारा देखो तो कैसा सब छोड़कर चला गया! मगर जरा भीतर झांको, कोई भी फर्क नहीं पड़ा।
अहंकार बड़ा सूक्ष्म है और बड़े बारीक उसके रास्ते हैं। एक दरवाजे से निकालो, दूसरे से भीतर आ जाता है। जरा संभलकर चलना, नहीं तो तुम सारे उपद्रव धर्म की दुनिया में लेकर पहुंच जाते हो। वही लड़ाई-झगड़े जो बाजार में थे, उपद्रव धर्म की दुनिया में लेकर पहुंच जाते हो। वही लड़ाई-झगड़े जो बाजार में थे, वही मंदिर-मस्जिद में हो गए। फिर हुआ क्या?
कोउ कहे हरिदास हमारे जु यौं करि ठानत वाद-विवादू।
सुंदरदास कह रहे हैं: कबीर मिल गए, फिर क्या वाद-विवाद? फिर पियो, फिर नाचो, फिर उत्सव मनाओ! भर्तृहरि मिल गए, कि आदिनाथ, अब कहां उपद्रव में पड़े हो? मंदिर अपनी ताकत लगा रहा है मस्जिद से लड़ने में। मस्जिद ताकत लगा रही है मंदिर से लड़ने में। नाचोगे कब? प्रार्थना कब? प्रार्थना कब होगी? गाली-गलौज जारी है। मंदिरवाले मस्जिद को गाली दे रहे हैं, मस्जिदवाले मंदिर को गाली दे रहे हैं। प्रार्थना कब करोगे? और ये गालियां जिन ओठों से निकल रही हैं, इन पर प्रार्थना आएगी कैसे? ये ओंठ प्रार्थना के पात्र ही नहीं रह गए।
सुंदरदास कहते हैं: और तौ संत सबै सिरि ऊपर। सुंदरदास कहते हैं कि मेरे सब संतों को नमस्कार! मेरे सिर ऊपर! और तो संत सबै सिरि ऊपर। मेरे प्रणाम उनको। मेरे प्रणम्य हैं, मेरे वंदनीय हैं, लेकिन द्वार तो मुझे दादू से खुला है। सुंदर के उर है गुरु दादू।...इसलिए इतना कहूंगा। विवाद नहीं है। फर्क समझना इस बात को। यह फर्क महत्वपूर्ण है। वे ये नहीं कह रहे हैं--कबीर गलत हैं। वे कहते हैं--मेरे प्रणम्य हैं, मेरे प्रमाण उनको। मगर रही जहां तक मेरी बात, मेरे दादू ने ही मुझे परमात्मा से मिलाया। यह मेरा दरवाजा है। जिनके लिए कबीर दरवाजे हैं, वे धन्यभागी हैं, वे उस द्वार से प्रवेश करें। मुझे मंदिर में मिला, मुझे मस्जिद में मिला कि गुरुद्वारे में। जिन्हें और कहीं मिल गया, मिला बस, यही बात सच है। यही बात काम की है। विवाद कुछ भी नहीं है।
साधु चित्त का लक्षण है: विवाद का अभाव।
और तो संत सबै सिरि ऊपर, सुंदर कै उर है गुरु दादू।।
लेकिन इतना निवेदन कर देते हैं कि सबके लिए मेरा सिर झुका है, लेकिन जहां तक मेरे हृदय की बात है, वहां दादू विराजमान हैं। मगर दादू विराजमान हो गए, कि दादू में सब विराजमान हो गए। नानक, कबीर, कृष्ण, क्राइस्ट--सब विराजमान हो गए। क्योंकि गुरुओं के रंग-ढंग कितने ही अलग हों, उनकी गुरुता एक है, उनके भीतर की महिमा एक है। जिसने एक को जाना, उसने सबको जान लिया।
तुम एक सदगुरु से संबंध जोड़ लो, तुम्हारे सब सदगुरुओं से संबंध जुड़ गए। फिर विवाद संभव नहीं है। विवाद की फुर्सत किसे है! ऊर्जा जब नाचने को हो गई, समय जब वसंत का आ गया, फिर कौन विवाद करता है!
गुरु का प्रयोजन क्या है? व्यक्ति गुरु को तलाशे? क्यों किसी को उर में बसाए? और क्या किन्हीं चरणों में सिर झुकाए?
पहाड़ों से ऊंचे सिर
मदानों से चौड़ी छातियां
आसमान से बुलंद जातियां
पैदा होते हैं होती हैं,
होते रहेंगे होती रहेंगी
पहाड़ इसीलिए तने हैं
मैदान इसीलिए बने हैं
टंकता रहता है आसमान
हर रात इसीलिए
नीले सितारों से
कि ऊंचे और चौड़े
और बुलंद इन सहारों से
नपते रहे हमारे इरादे
और बने रहें फिर भी
हम स्वाभाविक
और सीधे-सादे
रखकर अपने को विराट के
फलक पर
और विराट होता रहे चकित
बड़े होकर भी
साधारण बने रहने की
हमारी ललक पर
गुरु से संबंध जोड़ने का अर्थ क्या है? ताकि थोड़ी हमारी आंखें आकाश की तरफ उठें, विराट की तरफ उठें। जिसके आंगन में विराट उतरा हो उससे थोड़ा हमारा संबंध हो जाए, तो हम भी उसके साथ-साथ थोड़े पंख फड़फड़ाएं, थोड़ा उड़े, थोड़े हम भी ऊंचाइयां छुएं।
कि ऊंचे और चौड़े
और बुलंद इन सहारों से
नपते रहें हमारे इरादे
...कि हम गुरु को देखकर नापते रहें अपने इरादों को--अभी हम कितनी दूर? अभी कितना फासला?
कि ऊंचे और चौड़े
और बुलंद इन सहारों से
नपते रहें हमारे इरादे
और बने रहें फिर भी
हम स्वाभाविक
और सीधे-सादे
वह दूसरी बात भी बड़ी जरूरी है। सदगुरु से संबंध इसलिए आवश्यक है कि हम असाधारण हो जाएं, तो भी हमारी साधारणता न खो जाए। हम शिखर छू लें जीवन का, लेकिन कहीं अहंकार अकड़कर विराजमान न हो जाए सिंहासन पर।
सदगुरु के साथ पहले तो हमारी आंखें आकाश की तरफ उठती हैं और दूसरी बात--सदगुरु के साथ हमारे पैर जमीन में गड़े रहते हैं। सदगुरु हमें जड़ें भी देता है और पंख भी। जड़ें कि हम जमीन को कभी छोड़ न दें, कि हम अपने को विशिष्ट न मानने लगें, कि अहंकार किसी तरह से आ जाए--और आकाश में उड़ने की क्षमता भी। ये दो कारण हैं सदगुरु से जुड़ने के।
गोविंद के किए जीव जात है रसातल कौं
बहुत अदभुत वचन है! सुंदरदास कहते हैं--
गोविंद के किये वचन जात हैं रसताल कौं
गोविंद ने बनाया लोगों को और लोग नर्क जा रहे हैं।
गुरु उपदेश सु तो छूटै जम फंद तें।
गुरु का उपदेश सुन लें तो मृत्यु का फांस से छूट जाएं, फांसी कटे।
गोविंद के किये जीव बस परे कर्मनि के।
गोविंद के बनाए हुए जीव--और कर्म के चक्करों में पड़ गए हैं, वासनाओं में उलझ गए हैं, इंद्रियों मग उलझ गए हज, हजार तरह के कारागृहों में पड़ गए हैं!
गुरु के निवाजे सो फिरत हैं स्वच्छंद तें।
लेकिन जिसको गुरु ने उबारा, वह मुक्त होकर, वह मुक्ति होकर, स्वतंत्रता बनकर, स्वच्छंदता बनकर विचरता है। वे यह कह रहे हैं कि जरा देखो तो, गोविंद के बनाए हुए जीव की ऐसी गति हो रही है! जिस पर गोविंद के हाथ की छाप है, वह भटक रहा है! लेकिन जिसके ऊपर गुरु का हाथ पड़ा, वह संभव गया है।
ऐसा मत सोचना कि सुंदरदास कुछ गोविंद की निंदा कर रहे हैं। वे बड़ी मधुर बात कह रहे हैं। उस मधुर बात की गहराई में उतरना जरूरी है।
परमात्मा स्वतंत्रता देता है। यह उसकी भेंट है। स्वतंत्रता में बुरे होने की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है। क्योंकि वह स्वतंत्रता तो क्या स्वतंत्रता होगी, जिसमें अच्छे ही होने की स्वतंत्रता हो? वह तो स्वतंत्रता न होगी। वह तो परतंत्रता ही होगी। और परतंत्रता कैसे अच्छी हो सकती है? तो गुरु कुछ और देता है, परमात्मा कुछ और। परमात्मा देता है कि तुम्हें जो होना हो, हो जाओ। तुम्हारी किताब को कोरी छोड़ देता है, तुम्हें जो लिखना हो लिख लो। तुम्हें पाप करना हो पाप करो, पुण्य करता हो पुण्य। तुम पूरे स्वतंत्र हो।
और स्वभावतः नीचे उतरना आसान है, ऊपर चढ़ना कठिन है। लोग नीचे उतरते हैं। लोग पाप में उतरे हैं। पाप में प्रबल में प्रबल आकर्षण मालूम होता है, क्योंकि सरल मालूम होता है। परमात्मा ने स्वतंत्रता दी है और परिणाम यह है कि लोग गुलाम हो गए हैं--वासनाओं के, संसार के।
गुरु का काम ठीक उलटा है। गुरु अनुशासन देता है। गुरु तुम्हारे जीवन को जीने का ढंग, शैली देता है। गुरु शास्ता है। तुम्हारे जीवन को एक रंग-रूप देता है। तुम्हारे अनगढ़ पत्थर को ढालता है। इसलिए ऊपर से तो ऐसा लगता है कि जो लोग गुरु के पास गए वे गुलाम हो गए। ऊपर से यह बात ठीक भी मालूम पड़ती है, क्योंकि अब गुरु जो कहेगा वैसा वे जीएंगे। गुरु का इशारा अब उनका जीवन होगा। गुरु के सहारे चलेंगे। गुरु की नाव में यात्रा होगी। गुरु की शर्ते स्वीकार करनी होंगी। गुरु की प्रति समर्पण करना होगा।
तो बड़ा विरोधाभासी है। परमात्मा स्वतंत्रता देता है और परिणाम है कि सभी लोग परतंत्र हो गए हैं। और गुरु अनुशासन देता है और परिणाम में स्वतंत्रता उपलब्ध होती है। क्योंकि जैसे-जैसे व्यक्ति अनुशासित होता है, जैसे जैसे व्यक्ति के जीवन में एक व्यवस्था, एक तंत्र पैदा होता है; जैसे-जैसे व्यक्ति के जीवन में होश संभलता है; जैसे-जैसे व्यक्ति का जीवन जागरूक जीवन होने लगता है--वैसे-वैसे स्वतंत्रता का नया आयाम खुलता है, स्वच्छंदता पैदा होती है।
स्वच्छंदता शब्द का अर्थ अच्छृंखता मत कर लेना। स्वच्छंदता का ठीक वही अर्थ होता है, जो स्वतंत्रता का। स्वतंत्रता से भी बहुमूल्य शब्द है स्वछंदता। स्वच्छंता का अर्थ होता है, जिसके भीतर का छंद जग गया, जिसके भीतर का गीत जग गया। जो अपना गीत गाने के योग्य हो गया। जो गीत गाने के लिए परमात्मा ने तुम्हें भेजा था, और तुम भटक गए थे। जो बनने तुम्हें परमात्मा ने भेजा था, लेकिन तुम विपरीत चले गए थे, क्योंकि और हजार आकर्षण थे। और तुम्हें कुछ होश न था।
ऐसा ही समझो कि छोटे बच्चे को तुमने बड़ी से बड़ी बहुमूल्य किताब लाकर दे दी और उसने उसको गूद डाला। अभी उसे लिखना आता ही नहीं। कुछ अर्थ-पूर्ण बात तो तभी लिख सकेगा। जब लिखना आए। लेकिन लिखने के पहले गुरु की प्रक्रिया से गुजरना होगा। किसी पाठशाला से गुजरना होगा। फिर यही गूदना, लिखना बन जाता है। है तो वह भी गूदना, मगर उसमें अर्थ आ जाता है, उसमें भाव आ जाते हैं। यही गूदना धीरे-धीरे सम्यक रूप ले लेता है, आकार ले लेता है। और इसी गूदने में से महाकाव्य पैदा हो सकते है।
हम गीत लेकर आए हैं अपने प्राणों में, जो गाना है; जिसको बिना गाए तृप्ति नहीं मिलेगी; जिसे गाओ, तो ही तृप्ति है; जिसे जिस दिन गा लोगे...जैसे यह कोयल सुनते हो, कुहू-कुहू कहे जा रही है। यह उसके प्राणों का गीत है। वृक्षों में फूल खिले हैं, ये उनके प्राणों का गीत हैं। मनुष्य के भीतर भी कोई गीत छिपा है। उस गीत का नाम ही निर्वाण है, मोक्ष है। जब तुम गीत गा लोगे, उसी गीत के गाने में ही तुम पाओगे। परितृप्ति बरस गई, परितोष छा गया। आनंद ही आनंद है फिर।
वसंत में फूलों से भरे वृक्ष को देखा है? वही सिद्ध की दशा है। उसके फूल तुम्हें दिखाई नहीं पड़ते। उसके फूल देखने के लिए भीतर की आंखें चाहिए। वसंत में नाचते हुए, दुल्हन की तरह सजे हुए वृक्ष के पास से गुजरे हो? उसकी सुवास अनुभव की है? लेकिन वह सुवास तुम्हें अनुभव हो जाती है, क्योंकि तुम्हारे नासापुट काम कर रहे हैं। अगर तुम्हें सर्दी-जुखाम हो, तो तुम्हें पता नहीं चलेगा उस सुगंध का। फूल-भरा हो वृक्ष, लेकिन तुम अंधे होओ, तो शायद तुम्हें पता नहीं चलेगा।
 ऐसे ही भीतर हम अंधे हैं और बहरे हैं और भीतर हमारे हृदय में अभी अनुभव करने की क्षमता नहीं है। इसलिए गुरु के पास एकदम से पता नहीं चलता कि क्या हुआ है। लेकिन यही हुआ है--वसंत आ गया है। फूल खिल गए हैं। सुवास उड़ रही है। जो थोड़े करीब आने लगेंगे, जो पास करकने लगेंगे गुरु के, जो गुरु के हाथ में हाथ अपना देने लगेंगे, धीरे-धीरे ये तरंगें उन पर छा जाएंगे, यह मस्ती उनकी भी आंखों में भरी जाएगी। यह संक्रामक है मस्ती। वे भी बेहोश होने लगेंगे। वे भी मदहोश होने लगेंगे।
गुरु से संबंध तुम्हें अनुशासन देगा, एक जीवन की शैली देगा। ध्यान देगा, प्रेम देगा, अंतर्यात्रा के उपाय देगा।
परमात्मा ने स्वतंत्रता दी; परिणाम है कि तुम गुलाम हो गए हो। गुरु तुम्हें एक तरह की गुलामी देता मालूम पड़ता है और परिणाम में स्वतंत्रता हाथ आती है। ऐसा विरोधाभासी है।
गोविंद के किए जीव जात हैं रसातल कौं,
गुरु उपदेश सु तो छुटें जमफंद तें।
गोविंद के किए जीव बस परे कर्मनि के,
गुरु के निवाजे सो फिरत हैं स्वच्छंद तें।
गोविंद के किए जीव बूड़त भौसागर में
उसके बनाए हुए, परमात्मा के बनाए हुए लोग, और भव-सागर में डूब रहे हैं!
गोविंद के किए जीव बूड़त भौसागर में,
सुंदर कहत गुरु बढ़ते दुखद्वंद्व तें।
लेकिन जिसने गुरु का साथ पकड़ा वह दुख से और द्वंद के बाहर हो गया। वह दो के बाहर हो गया, दुई के बाहर हो गया, द्वंद्व के बाहर हो गया, इसलिए दुख के बाहर हो गया। दुख और द्वंद पर्यायवाची हैं। तुम दुख में हो क्योंकि तुम दो हो। जब तक तुम दो हो तब तक दुख में रहोगे। दो में खेंचातानी चलती रहेगी--बाहर कि भीतर, यह कि वह पृथ्वी, कि आकाश। चुनाव ही चुनाव और चुनाव में खेंचातानी है। और चुनाव में तनाव है। एक ही बचे, मैं न रहूं, तू ही रहे। या मैं ही रह जाऊं,तू न रहे। एक ही बचे। फिर सारा द्वंद गया, फिर सारा दुख गया। फिर विराम है, फिर विश्राम है।
गोविंद के किए जीव बूड़त भौसागर में
सुंदर कहत गुरु काढ़े दुखद्वंद तें।
औरऊ कहां लौं कछू मुख तैं कहै बताइ
सुंदरदास कहते हैं: बड़ी मुश्किल है, जो कहना चाहता हूं, कह नहीं पा रहा हूं। जो, वह पर्याप्त नहीं है। गुरु की प्रशंसा कैसे करूं? किस मुंह से करूं? मेरी वाणी समर्थ नहीं है।
औरऊ कहां लौं कछु मुख तें कहै बताइ
गुरु की तो महिमा अधिक है गोविंद तें।
गुरु की महिमा गोविंद से ज्यादा है। इसलिए जिन्होंने महावीर में गुरु को देखा, महावीर को भगवान कहा। जिन्होंने बुद्ध में गुरु को देखा, बुद्ध को भगवान कहा। और तुम जानते हो, बुद्ध भगवान में मानते नहीं। और महावीर ने कहा है: कोई भगवान नहीं। लेकिन फिर भी शिष्य नहीं रुक सका भगवान कहने से। शिष्य क्या करे? उसकी कठिनाई समझो। उसकी मजबूरी, उसकी असहाय अवस्था! उसको एक बात समझ में आ गयी है कि परमात्मा का बनाया हुआ तो मैं भटक रहा था, डूबता जाता था--और अंधेरों में, और विषाद में, और तमस में। गुरु ने हाथ बढ़ाया, उबारा। ये हाथ...भगवान के होने का पहला सबूत मिला।
कबीर का वचन है न--
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांय। बड़ी मुश्किल खड़ी हो गयी है, कबीर कहते हैं। गुरु भी सामने, गोविंद भी सामने, परमात्मा भी आ गया सामने, गुरु भी खड़े हैं--अब मैं किसके पैर लगूं पहले? भूल न हो जाए। गुरु के पैर लगूं पहले, तो कहीं ऐसा न हो कि परमात्मा का मुझसे अपमान हुआ। और परमात्मा के पैर को लगूं पहले, क्योंकि बिना गुरु के परमात्मा था ही कहां।
गुरु गोविंद दोउ बड़े, काके लागूं पांय
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।
लेकिन वे कहते हैं कि गुरु की बलिहारी है कि उसने जल्दी से इशारा कर दिया गोविंद की तरफ। गुरु का इशारा गोविंद की तरफ है, इसलिए गुरु गोविंद से भी बड़ा है। क्योंकि उसके सारे इशारे गोविंद की तरफ है। गुरु का उठना, बैठना, बोलना, न बोलना, तुम्हारे प्रति कठोर, करुणावान होना, सबके पीछे एक ही विराट आयोजन है कि तुम जाग जाओ, गोविंद तुम्हें दिखाई पड़ जाए।
इसलिए कहते हैं सुंदरदास...
गुरु की तो महिमा अधिक है गोविंद तें।
इस जगत में गुरु को जिसने पा लिया, उसने गोविंद को पा लिया। गुरु को पा लिया, तो गोविंद अब ज्यादा दूर नहीं है। पहुंच ही गए। मंदिर में द्वार पर पहुंच गए, तो मंदिर अब कितनी दूर है! जिसने गुरु को पा लिया, जिसने गुरु को पहचान लिया, उसने यह बात पहचान ली कि यह जगत पदार्थ पर समाप्त नहीं होता। यहां और भी महिमाएं हैं, और भी रहस्य हैं। यहां बड़े छुपे हुए राज हैं। यहां मिट्टी ही मिट्टी नहीं है। यहां मृण्मय में चिन्मय भी छिपा है। यहां मर्त्य में अमृत का वास है। जितने गुरु को पहचान लिया, उसने नाव छोड़ दी परमात्मा की तरफ। वह चल पड़ा। उसका तीर निकल गया धनुष से। लक्ष्य-वेध हो ही जाएगा। असली सवाल धनुष से तीर का निकल जाना है।
गुरु के चरणों में जो झुका, वह झुक ही गया परमात्मा के चरणों में--परोक्ष रूप से। गुरु तो बहाना है, गुरु तो निमित्त है।
जीवन में तुम्हें जहां भी किसी जीवंत व्यक्ति के पास शांति मिले, सुगंध मिले, प्रेम मिले, तुम्हें रूपांतरित करने की कीमिया मिले, फिर संकोच मत करना। फिर रुकना मत। फिर किन्हीं भयों के कारण ठहर मत जाना। फिर साहस रखना। झुक जाना। दांव पर सब लगा देना।
और ध्यान रहे, कोई और कसौटी नहीं है गुरु को जानने की। तुम्हारा हृदय ही कहेगा। हृदय हमेशा कह देता है, मगर तुम सुनते नहीं हो हृदय की। तुम कहते हो, कैसे गुरु को पहचानें? क्या कसौटी है? बुद्धि कसौटी मांगती है, हृदय तत्क्षण कह देता है। हृदय की सुनो, बुद्धि को एक तरफ रख दो। हृदय से कभी भूल नहीं हुई है।
हृदय ऐसे ही है, जैसे तुमने दिशासूचक-यंत्र देखा है?--जो सदा हो बताता रहता है पूरब की ओर, सूरज के उगने की ओर। हृदय सदा ही परमात्मा की तरफ इशारा करता है, मगर तुम हृदय की सुनते नहीं हो,तुम बुद्धि की सुनते हो। और बुद्धि कि सुनने के कारण अक्सर तुम भ्रांति में पड़ते हो।
सच तो यह है बुद्धि की सुनते रहोगे, तब तक गुरु तुम्हें मिलेगा ही नहीं। और जो मिलेंगे वे गुरु के धोखे होंगे। गुरु के धोखे तुम्हारी बुद्धि को राजी कर लेंगे, क्योंकि गुरु के धोखे का मतलब होता है--जो तुम्हें राजी ही करने को बैठा है। तुम जैसा चाहते हो वैसा बनकर बैठा है।
ध्यान रखना, सदगुरु कभी भी तुम्हारी अभिलाषाओं, आकांक्षाओं, अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं होता है, हो ही नहीं सकता। नहीं तो जीसस को लोग सूली चढ़ाते? बुद्ध को लोग पत्थर मारते? महावीर को गांव से खदेड़ कर निकालते? सुकरात को जहर पिलाते? और तुम यह मत सोचना कि वे सब लोग पागल थे और तुम ही पहली दफे बुद्धिमान हो। तुम्हारे ही जैसे लोग थे, तुम ही थे--जिन्होंने जीसस को सूली दी, सुकरात को जहर पिलाया, बुद्ध को पत्थर मारे, महावीर के कानों में सींखचे ठोक दिए। तुम्हीं हो वे। वे तुम से भिन्न लोग न थे, तुम से जरा भी भिन न थे। क्या मामला था?
और ऐसा नहीं है कि गुरुओं की पूजा उस दिन नहीं हो रही थी। जब बुद्ध को लोग पत्थर मार रहे थे, तब भी पंडित, पोंगापंथी, पूजे जा रहे थे। जब जीसस को लोग सूली चढ़ा रहे थे, तब भी धर्मगुरु का सम्मान किया जा रहा था।
बड़े मजे की बात है कि तुम्हारी बुद्धि जिससे राजी हो जाती है, वह अक्सर धोखा होता है। उसके पीछे कारण हैं, क्योंकि वह धोखे की पूरी तैयारी करता है। तुम अगर मानते हो कि सदगुरु नग्न होना चाहिए तो वह नग्न खड़ा होता है। तुम अगर मानते हो सदगुरु आंख बंद किए होना चाहिए, तो वह आंख बंद करके खड़ा होता है। तुम अगर मानते हो कि सदगुरु ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए, तो वैसा ही हो जाता है। उपवास कहो, तो उपवास करता है। कांटों पर लेटो, तो कांटों पर लेट जाता है। उसने तय कर रखा है कि तुम्हारा गुरु बनना है। वह गुरु नहीं है। वह एक गहरे अर्थ में सिर्फ राजनेता है।
राजनेता की कला का सार यही है कि वह देखता रहता है लोग कहां जाना चाहते हैं। लोग जहां जाना चाहते हैं, वह जल्दी से उचक कर उनके आगे हो जाता है। बस उसी को कुशल राजनेता कहते हैं जो हवा बदलने के पहले समझ ले, रुख देख ले हवा का। लोग पूरब जा रहे हैं तो वह कहता है, पूरब जाना है। लोग पश्चिम जाने लगें तो वह कहता है: मैं तो सदा ही कह रहा था कि पश्चिम जाना है। और लोगों को यह समझ में ही नहीं आ पाता कि वह हमारी नजरें पर, रहा है, हमारे भाव परख रहा है, हवा के ढंग परख रहा है। और सदा चिल्लाकर कहने लगता है वही बात जो तुम्हें चाहिए। और तुम्हें लगता है कि ठीक है, यही आदमी हमारी मनोकांक्षाएं पूरी करेगा। किसी ने कभी किसी की मनोकांक्षाएं पूरी नहीं कीं।
सदगुरु तुम्हारी मनोकांक्षाएं पूरी नहीं करता, तुम्हारे मन को मिटाता है। मनोकांक्षाएं कैसे पूरी करेगा? सदगुरु तुम्हारे हिसाब से नहीं चल सकता--परमात्मा के हिसाब से चलता है--अपने हिसाब से चलता है। उसके साथ तो जिसे राजी होना हो, उसे ही राजी होना पड़ता है। वह तुम से राजी नहीं होता। समझ लेना, जो तुमसे राजी है, वह तुम्हें बदल नहीं पाएगा। उस डाक्टर के पास तुम चिकित्सा कराने जाओगे। जो तुमसे राजी है? तुम कहो कि मुझे टी. बी. है तो वह कहता है: हां टी. बी. है। तुम कहो कि मुझे यह दवा चाहिए क्योंकि यह दवा मीठी है; वह कहता है यही दवा तो मैं लिख ही रहा था। ऐसा डाक्टर तुम्हें स्वास्थ्य दे सकेगा? तुम बीमार हो और तुम्हारे डाक्टर पाखंडी है। तुम लाख कहो कि मुझे यह दवा चाहिए, चिकित्सक अगर चिकित्सक है तो वह कहेगा--यह दवा नहीं है तुम्हारे काम की, दवा तो जो मैं देता हूं वह है तुम्हारे काम की। और मीठी दवाएं देने का सवाल नहीं है। कितनी ही कड़वी हो, दवा काम की है तो पीनी पड़ेगी। चिकित्सक तुम्हारी बात मानकर नहीं चल सकता, तो ही तुम्हारी सहायता कर सकता है।
सदगुरु के संबंध में एक बात खयाल रखना: बुद्धि के पास कोई उपाय नहीं है सदगुरु को जांचने का। बुद्धि जब भी जांचती है, गलत पकड़ लेती है। बुद्धि गलत को पकड़ने की प्रक्रिया है। बुद्धि अज्ञान है। बुद्धि को हटाओ, हृदय को बोलने दो। उठने दो हृदय की वाणी को। एक तरफ बुद्धि को सरकाकर रख दो और तुम चकित हो जाओगे: जो व्यक्ति तुम्हारा सदगुरु होने को है, उससे तुम्हारे हृदय के तार एकदम झनझना उठेंगे। तुम अचानक पाओगे, कुछ हो गया, कुछ बात जुड़ गई, कुछ तालमेल बैठ गया। सरगम बजने लगी। पैरों में नृत्य का भाव आने लगा। एक कंपन प्रविष्ट हो गया।
सदगुरु के पास होना ऊर्जा का एक संबंध है, शक्ति का एक संबंध है। जो भी बुद्धि को एक तरफ सरकाकर रख देता है उसे जरा भी अड़चन नहीं आती सदगुरु को खोजने में।
और यह भी खयाल रखना, जो तुम्हारे लिए सदगुरु है जरूरी नहीं है कि सभी के लिए सदगुरु हो। जो किसी और के लिए सदगुरु है, जरूरी नहीं है कि तुम्हारे लिए सदगुरु हो। लोग भिन्न हैं, लोगों की जरूरतें भिन्न हैं। लोगों को अलग-अलग संगीत रुचिकर लगते हैं। परमात्मा बहुत रूपों में प्रकट होता है।
इसलिए सुंदरदास कहते हैं: और तो संत सबै सिर ऊपर! इससे यह मत सोच लेना कि तुमने एक सदगुरु चुन लिया, तो सारे सदगुरु गलत होने चाहिए। इतना ही कहना: और तो संत सबै सिर ऊपर, सुंदर कै उर है गुरु दादू।
बस इतना ही कहना कि मेरा हृदय यहां रंग गया, बाकी सब संतों को मेरे नमस्कार हैं। जिनका हृदय वहां रंग गया, वह भी सौभाग्य की बात है। हृदय रंगना चाहिए। परमात्मा का रंग सब पर बरसे और सब रंग जाएं। कहां रंगते हैं, किस रंगरेज के पास रंगते हैं, इससे क्या फर्क पड़ता है? रंग उसका है। इसलिए यह भी मत सोचना भूलकर कि मेरा सदगुरु सबका सदगुरु होना चाहिए। इससे विवाद पैदा होता है, संप्रदाय पैदा होते हैं, हिंसा पैदा होती है, वैमनस्य पैदा होता है और धर्म से पैदा प्रेम होना चाहिए। और कुछ भी धर्म से पैदा हो, तो धर्म धर्म नहीं रहो, राजनीति हो गई।
हटाओ बुद्धि को, हृदय को बोलने दो। हृदय सदा ही सच बोलता है। हृदय की सुनकर चलो। तुम्हारे जीवन में भी ऐसा सूर्योदय हो।
ज्ञान की धरती,
लगन के
साधन की नीर सींची
भावना की खाद डाली
ऋतु समय से प्रेम के कुछ
बीज बोए--
कल--
उगेंगे अरुण अंकुर
कसमसाकर
तोड़ मिट्टी की
तरुण सोंधी परत को
धूप नूतन रूप देगी
मेघ वर्षा में
सघन घिरकर
बरसकर
तर करेंगे मूल तक को
गंध फूटेगी गमक कर
गांव वन उपवन--
हंसेंगे
घर नये उजड़े बसेंगे
प्राण प्राणों से जुड़ेंगे
मुक्ति कण-कण को छुएगी
शरद की गीली हवाओं
के परस से
नए पत्ते, नए कल्ले
नयी कलियां, खिल उठेंगी
रंग फूटेंगे धरा पर
इंद्रधनुषी--
सुरभि से उद्यान महकेगा अनवरत--
कर्म-श्रम निष्फल कभी होता नहीं है--
है अटल विश्वास सुख के
शांति के आनंद के फल-फूल
निश्चय ही मिलेंगे।

आज इतना ही।





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