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शुक्रवार, 9 मार्च 2018

भक्तिसूत्र (नारद)—प्रवचन-18

अठारहवां प्रवचनएकांत के मंदिर में है भक्ति

दिनांक १८ मार्च, १९७६; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—मैं बिलकुल अकेली हूं, बुढ़ापा भी आ गया है, पैर से अपाहिज हूं, नाच भी नहीं सकती! क्या मेरे जिए आशा की काई किरण संभव है?
2—आपको सुनकर तथा ध्यान करने से मेरी अज्ञात के प्रति आस्था जगने लगी है। क्या यह नए परिवेश का सम्मोहन तो नहीं?
3—वेद कुरान को त्याग कियो
परित्याग कियो री पुरानन को
कंत के नैन में ध्यान धरयो
ब्रह्मानंद सुनो सखि कानन को
गुरुअन की शरणन् में कबहूं न गई
मंदिर न चढ़ी नाही जोग लियो
पर जोग को भान भयो री सखी
जब प्यारे पिया संग भोग कियो।
क्या यह भी कोई मार्ग है?

पहला प्रश्न: 
घर-परिवार में होते हुए भी मुझे लगता है कि कोई अपना नहीं है, मैं बिलकुल अकेली हूं। साथ ही पाती हूं बुढ़ापा भी आने लगा, और रिक्त हूं, रूखी-सूखी हूं; प्रेम की एक बूंद भी मुझमें नहीं है। पैर से थोड़ी अपाहिज हूं, इसलिए शिविर में मन भर के नाच भी नहीं सकती। घर वाले आपको विशेष पसंद भी नहीं करते हैं। अब तो आपको सुनकर आंसू बहते हैं और कुछ सूझता नहीं कि क्या करूं! क्या मेरे लिए आशा की कोई किरण संभव है?

पहली बात: अकेला होना मनुष्का स्वभाव है। अकेला होना मनुष्य की नियति है। और जब तक अकेले होने को स्वीकार न करोगे, तब तक बेचैनी रहेगी। लाख उपाय करो कि अकेलापन मिट जाए, नहीं मिटेगा, नहीं मिटेगा। क्योंकि अकेलापन तुम्हारे भीतर की आंतरिक अवस्था है, तुम्हारा स्वभाव है। ऊपर-ऊपर होता, निकालकर अलग कर देते।
अकेलापन सांयोगिक नहीं है; अलग किया ही नहीं जा सकता। अगर तुम्हारा अकेलापन तुमसे अलग हो जाए, उसी दिन तुम्हारी आत्मा खो जाएगी। आत्मा का होने का ढंग ही अकेला होना है। और जब तक तुम अकेलेपन को मिटाने की चेष्टा करोगे, तब तक हार और पराजय ही हाथ लगेगी। क्योंकि स्वभाव का अर्थ है, जो न मिटाया जा सके। कोई उपाय नहीं है। मित्र बनाओ, परिवार बसाओ, बच्चे हों, पति-पत्नी हों, समाज हो--सब थोड़ी देर का धोखा भला दे जाएं कि तुम अकेले नहीं हो, पर अकेला होना मिटता नहीं है। जब भी थोड़ी आंख भीतर करोगे, पाओगे: अरे! परिवार कहां दूर पड़ा रह गया; मित्र-प्रियजन, कितना बड़ा फासला है! आंख बंद की कि पाया कि अकेले हो गए। आंख खोलकर तुम अपने को भुलाए रहो भरमों मेंडुबाए रहो हजार काम-धंधों में, व्यस्तता को ओढ़े रहो--लेकिन बार-बार क्षणभर को, घड़ीभर को तो विश्राम करोगे! क्षणभर को तो घर आओगे, भीतर प्रवेश करोगे! फिर वही स्वाद, फिर वही एकाकीपन!
गृहस्थ का अर्थ ही यही है: वह व्यक्ति जो संबंध बनाकर अपने भीतर के अकेलेपन को मिटाने की चेष्टा में संलग्न है। गृहस्थ की यही परिभाषा है। संन्यस्त की यही परिभषा है कि जिसने यह जान लिया कि यह मेरा स्वभाव है, मिटाने में व्यर्थ समय न खोऊं; और जिसने अपने एकाकीपन को भोगना शुरू कर दिया--रस ले-लेकर; जो अपने एकाकीपन को दुश्मन की तरह नहीं देखता, बल्कि एकाकीपन को ही जिसने अपनी शरण बना ली; संसार की धूप से, बेचैनी से बचने के लिए सदा अपने एकाकीपन में चला गया; जब भी थका बाहर, भीतर डूब गया; जब भी बाहर उलझा, उपद्रव हुआ, तब भीतर डूब गया; जब पाया कि बाहर जीवन गंदा हुआ जाता है, भीतर स्नान कर लिया एकाकीपन में, फिर ताजा हो गया!
ध्यान अर्थात एकाकीपन में रमने की कला।
एकाकीपन परम सुंदर है। तुमने नाहक के भय पाल रखे हैं। उन भयों के लिए कोई वास्तविक कारण नहीं है--सांयोगिक कारण हैं।
बच्चा पैदा होता है, असहाय होता है। मनुष्य का बच्चा पृथ्वी पर सबसे ज्यादा असहाय है। जानवरों के बच्चे पैदा होते हैं, उठे और चल पड़े, जिंदगी की यात्रा शुरू हो गई। जंगली जानवरों के बच्चे परिवार में नहीं पलते,बड़े होते, जन्म होते से मां-बाप भी मुक्त हो गए, वे भी मुक्त हो गए। आदमी के बच्चे को अगर छोड़ दो, कोई सहारा न हो, कोई परिवार न हो, कोई प्रेम करने वाला, देख-रेख करनेवाला न हो, तो बच्चा मर जाएगा, बच नहीं सकता। अगर आदमी के लिए परिवार न मिले तो आदमी इस पृथ्वी से समाप्त हो जाएगा। और सब जानवर रहेंगे--पक्षी रहेंगे, पशु रहेंगे, आदमी भर नहीं रहेगा।
आदमी का बच्चा बहुत असहाय है। मां-बाप की जरूरत है--वर्षों तक! आठ-दस साल का भी हो जाएगा, तब भी स्वतंत्र नहीं हो पाता। पढ़ाना है, पढ़ना है, शिक्षा पानी है--तब भी मां-बाप पर निर्भर होगा। तो करीब पच्चीस साल लगते हैं आदमी के बच्चे को उस जगह आने में, जहां जानवरों के बच्चे पैदा होने से ही होते हैं।
इस असहाय अवस्था के कारण ही परिवार  का जन्म हुआ। इसलिए पशुओं ने परिवार नहीं बनाए, सिर्फ आदमी ने बनाए। पच्चीस साल तक बच्चा निर्भर रहता है--मां पर, पिता पर, भाई पर, परिवार पर--यह निर्भर रहने की आदत बन जाती है छोटा बच्चा बहुत डरता है; अगर मां घर के बाहर जा रही हो तो वह बहुत भयभीत हो जाता है। उसका भय स्वाभाविक है। कौन उसकी चिंता करेगा! भूख लगेगी तो कौन दूध देगा! प्यास लगेगी तो कौन पानी देगा! कपड़े गीले कर लेगा अपने, तो कौन बदलेगा! सर्दी लगेगी तो कौन कंबल डालेगा! मां घड़ीभर को बाहर जाती है तो बच्चे को मृत्यु जैसा अनुभव होता है, यह तो मैं मरा! मां अगर ऐसे ही गुस्से में कह देती है कि मैं मर जाऊंगी, अगर तुम चुप न हुए, ऊधम बंद न किया, तो मां को पता नहीं है कि बच्चे को कितना भारी धक्का पहुंचाया है उसने; क्योंकि मां की मृत्यु का अर्थ है उसकी भी मृत्यु। वह कैसे बचेगा!
पच्चीस साल तक इस तरह पर-निर्भर रहने के कारण, सदा दूसरे के साथ जीने के कारण, अकेलेपन की सामर्थ्य खो जाती है। फिर तुम अकेले होने में समर्थ भी हो जाते हो, लेकिन पुरानी आदतें पीछा करती है, छाया की तरह पीछे लगी रहती हैं। सत्तर साल के भी हो जाते हो, तब भी मुक्त नहीं हो पाते कि अकेले हो सको। मरते दम तक भी आंखें दूसरों को खोजती रहती हैं।
मरते हुए बूढ़े आदमी को देखो: खोजता रहता है, "मेरा बेटा कहां है? अभी तक आया नहीं!'
अनेक बार ऐसा होता है कि बेटा दूर गांव है, आने में देर लगती है, तो बाप जिंदा बना रहता है जब तक बेटा नहीं आ जाता; जैसे ही वह आया, समाप्त होने की सुविधा बनी; अटका रहता है, पकड़े रहता है जीवन को, जद्दोजहद करता रहता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक...जन्म में तो समझ में आता है, फिर तो आदत की बात है।
ध्यान का अर्थ है: इन संस्कारों को जो बचपन से पड़ गए हैं, यह दूसरे का सहारा खोजने की जो गलत आदत पड़ गई है--ध्यान का अर्थ है, इस आदत से ऊपर उठ जाना, और एक नए सूत्रपात का उदघाटन करता: "मैं अकेला हो सकता हूं! और मैं अकेला हूं!'
तुम जितनी चेष्टा करोगे कि कहीं अकेला न रह जाऊं, उतना ही ज्यादा तुम अकेलापन अनुभव करोगे। जिस दिन तुम राजी हो जाओगे, स्वीकार कर लोगे कि वह तो स्वभाव है; मैं भी कैसा मूढ़ हूं, स्वभाव से लड़ने चला! स्वभाव से लड़कर कभी कोई जीता! हारता है बस! जिस दिन तुम स्वीकार कर लोगे, और तुम कहोगे, "यह तो मेरी नियती है, तो इससे परिचय तो बना लूं! यह कौन है मेरे भीतर अकेला है!'--और जैसे ही तुम भीतर की यात्रा पर चलोगे, तुम पाओगे कि मैं भी खूब पागल था, जो मैं खोजता था भीड़ में वह मेरे हृदय में था; जो मैं खोजता था संग में, साथ में, संबंध में वह असंगता में था; जिसको मैंने दूसरों के सामने झोली फैलाकर मांगा था, वह मेरे ही भीतर खजाना छिपा था!
एकाकीपन परम सुंदर है। इसलिए जैनों ने अपने मोक्ष का नाम रखा: कैवल्य। बड़ा प्यारा शब्द चुना। कैवल्य का अर्थ है: बस अकेले; बस अकेलापन बचा, शुद्ध अकेलापन बचा; इतना अकेलापन बचा कि दूसरे तो है ही नहीं वहां, तुम भी नहीं हो; दूसरे तो गए ही, साथ-साथ तुम्हें भी ले गए। क्योंकि तुम जो अपने को समझते हो तुम हो, यह दूसरों का दान है; यह तुम हो नहीं। किसी ने कहा, "सुंदर हो बड़े', सम्हालकर रख लिया इस बात को, सुंदर हो गए! किसी ने कहा, "बड़े बुद्धिमान हो' सम्हाल ली, गठरी बांध ली भीतर कि मैं बुद्धिमान हूं! यह भी सब दूसरों का दिया हुआ है।
थोड़ी देर को सोचो तो, अगर तुम उस सबको छोड़ दो जो दूसरों ने तुम्हें दिया है, तुम्हारी प्रतिमा ही बिखर जाएगी। इसमें मित्रों का भी दान है, शत्रुओं का भी दान है; अपनाग का भी दान है, परायों का भी दान है। तुम गठरी बांधते चले गए हो। और इसलिए तो तुम्हारी जो आत्मप्रतिमा है, बड़ी उलझी है, विरोधाभासी है, उसमें कोई संगीत नहीं है, संगीत नहीं है, लयबद्धता नहीं है। क्योंकि कितने लोगों से तुमने इकट्ठा कर लिया है!
यह ऐसे ही है जैसे कि एक कार बनाई जाए, और तुम एक-एक पुर्जा जगह-जगह से इकट्ठा कर लाओ--कोई फोर्ड का होगा, कोई फियट का होगा, कोई राल्सरायस का होगा, ऐसे तुम कबाड़खानों से इकट्ठा कर लाओ सब कल-पुर्जे-- और फिर उसको जोड़कर तुम कार बना लो, दिखाई पड़ेगी कि यह बन गई, चलेगी नहीं। और भूलकर उसमें चढ़ना मत!
मुल्ला नसरुद्दीन के बेटों ने इस तरह की एक कार बना ली थी, और उन्होंने कहा, "पापा! हम जा रहे हैं सैर को, तुम भी आ जाओ'। रंग-रोगन देखकर गाड़ी का वह भी बैठ गया। पर गाड़ी कोई रंग-रोगन से थोड़े ही चलती है! बोनट के नीचे जो छिपा है, उससे चलती है; वह तो दिखाई पड़ता नहीं है। रंग-रोगन से कहीं गाड़ी चली है! बैठ गया। गाड़ी दो-चार-दस कदम चली होगी कि हड्डी-हड्डी थरथरा गई। रास्ते के बगल में जाकर गिर गई खेत में, कलपुर्जे बिखर गए। मुल्ला अपने सिर से हाथ लगाकर बैठ गया। उसके बेटे ने कहा, "पिताजी। चोट लगी है, तकलीफ हुई है? डाक्टर के पास ले चलूं?' उसने कहा, "डाक्टर के पास क्या होगा ले जाने से! वैटरनरी डाक्टर के पास ले चलो! अगर अक्ल ही होती मुझ में तो तुम्हारी कार में बैठता? पशु-चिकिल्सालय में भरती कर दो। मेरा इलाज वहीं होगा'
यही तुम्हारी प्रतिमा है। कुछ कहीं से तुमने इकट्ठा कर लिया है। और इसलिए तो तुम्हारे जीवन में संवाद नहीं है। मित्रों ने जो बातें कही थीं, वे भी भीतर पड़ी हैं; शत्रुओं ने जो कह दी थीं वे भी भीतर पड़ी हैं। किसी ने कह दिया, बहुत सुंदर हो; किसी ने कहा कि तुम जैसा कुरूप आदमी नहीं देखा; किसी ने कहा कि तुम बड़े दाता हो, बड़े दानी हो; किसी ने कहा, कृपण, आखिरी दर्जे के कंजूस! यह सब पड़ा है भीतर। अब तुमको खुद भी समझ में नहीं आता कि तुम हो कौन। तुम्हारी अपनी कोई पहचान सीधी-सीधी नहीं है, सब उधार है।
परम एकांत के क्षण में दूसरे तो होते ही नहीं, दूसरों ने तुम्हें जो धारणा दी थी तुम्हारे संबंध में, वह भी नहीं होती। तभी तुम्हारा स्वभाव प्रगट होता है।
एकांत में ही मंदिर है। एकांत में ही, परम एकांत में ही आत्म-साक्षात्कार है।
तो, पहली बात तो यह खयाल रखो...।
पूछा है, "घर-परिवार में होते हुए भी मुझे लगता है कि कोई अपना नहीं है'। बिलकुल ठीक लगता है, शुभ लगता है, सत्य लगता है। मगर चेष्टा इससे विपरीत चल रही होगी। चेष्टा यह चल रही होगी कि किसी तरह यह एकाकीपन मिट जाए; वस्तुतः कोई मेरा हो! बहुत लोग तुम्हें भरोसा भी दिला देंगे, "हम तुम्हारे हैं'; लेकिन वह सब भरोसा है, सांत्वना है; तुम्हें संतोष बंधाया जा रहा है। जो अपने नाहीं हैं वे तुम्हारे क्या हो सकेंगे? और कोई किसी का हो कैसे सकता है? कितना ही बेटा कहे मां से कि मैं तुम्हारा हूं, कल मां चल बसेगी, बेटा साथ नहीं जाएगा। कितना ही पति कहे कि सदा-सर्वदा को तुम्हारा हूं, पत्नी मर जाएगी तो पति साथ नहीं मर जाएगा। कौन किसके साथ जाता है! ये सब बातें हैं--जरूरी हैं, क्योंकि आदमी बड़ा बेचैन है। उसे संतोष की शराब चाहिए; उसे अफीम चाहिए, ताकि वह सोया रहे; उसे ऐसा खयाल भर बना रहे कि सब अपने हैं। "कितना भरा-पूरा घर है,' लोग कहते हैं। सब भरे-पूरे घर पड़े रह जाते हैं, जब विदा का क्षण आता है।
कोई अपना नहीं है, यह इतना बड़ा सत्य है कि इससे लड़ना मत। यही तो दुर्दशा है साधारण जन की, जो नहीं हो सकता उसे करने की चेष्टा करता है; जो हो सकता है, मात्र निर्णय लेने से जो हो सकता है, उसकी चेष्टा नहीं करता।
कितनी बार तुम सबको नहीं लगा है कि कितने अकेले हो, मगर फिर-फिर तुमने अपने को भुलाने की कोशिश की है! क्यों इतने डरे हो अपने से? जो भी तुम भीतर हो उसे जानना ही होगा! सुखद-दुखद, कुछ भी हो, अपने स्वरूप से परिचय बनाना ही होगा, क्योंकि उसी परिचय के आधार पर तुम्हारे जीवन के फूल खिलेंगे।
देखो! जिनके जीवन के भी फूल खिले हैं, वे सब किसी न किसी रूप में एकांत की तलाश में चले गए थे। खिल गए फूल, तब लौट आए बाजार में। लेकिन जब फूल खिले नहीं थे--चाहे महावीर, चाहे बुद्ध, चाहे मुहम्मद, चाहे क्राइस्ट--सब चले गए थे, दूर एकांत में। बाहर का एकांत तो भीतर के एकांत की खोज का ही सहारा है। बाहर का एकांत तो भीतर के एकांत को बनाने के लिए सुविधा जुटा देता है बस। असली एकांत तो भीतर है। लेकिन अगर बाहर भी एकांत हो तो भीतर के एकांत में डूबने में सुविधा मिलती है। जरूरी नहीं है कि कोई भागकर जाए, ठेठ बाजार में भी अकेला हो सकता है।
वस्तुतः तुम्हें हर बार लगता है कि अकेले हो, मगर उस अंतर्दृष्टि को तुम पकड़ते नहीं। वह अंतर्दृष्टि तुम्हारा जीवंत सत्य नहीं बन पाती, उलटे तुम उसे झुठलाते हो। तुम कहते हो, "कौन कहता है मैं अकेला हूं? पत्नी है, बच्चे हैं, सब भरा-पूरा है!' भीतर तो देखो, पात्र खाली का खाली पड़ा है। ये प्रवंचनाएं हैं। इस प्रवंचनाओं से जागो!
तो मैं तुमसे यह नहीं कहता...। मैं तुम्हें कोई तरकीब नहीं बताता कि कैसे तुम्हारा अकेलापन मिट जाए--मैं तुमसे कहता हूं,कैसे तुम अकेलेपन को उत्सव बना लो, कैसे तुम्हारा अकेलापन तुम्हारे जीवन की संपदा बन जाए, कैसे तुम्हारा अकेलापन आत्मसाक्षात्कार का द्वार बन जाए।
छोड़ो बचना! जीवन भर बहुत दौड़े; कहां पहुंचे? अब वही हो रहा जो अपने आप होता मालूम पड़ता है। राजी हो जाओ। और राजी भी बे-मन से नहीं, थके मन से नहीं; राजी भी विषाद और हार में नहीं--राजी, सत्य को समझकर। क्या करोगे, दीवाल से अगर निकलने की कोशिश करते हो, सिर टकराता है। बहुत करके देख ली, सिर लहूलुहान हो गया है, अब दरवाजे से निकलो! तुम यह तो न कहोगे कि दरवाजे से जो निकलता है,वह कमजोर है, कायर है; हम तो दीवाल से ही निकलेंगे; हम कोई कायर नहीं हैं! मगर तुम दरवाजे से निकलनेवाले आदमी को कायर नहीं कहते, बुद्धिमान कहते हो। दीवाल से टकरानेवाले को साहसी कहने की कोई जरूरत नहीं--वह मूढ़ है, बुद्धिहीन है। दीवाल से कोई निकला? निकलने के लिए द्वार है।
अकेलेपन से लड़कर कभी कोई नहीं जीता। जीतनेवाले अकेलेपन पर सवार हो गए; उन्होंने अकेलेपन का घोड़ा बना लिया; अकेलेपन को रथ बना लिया, उस पर सवार हो गए। और तब अकेलापन कैवल्य तक पहुंचा देता है; उस परम दशा तक, जिसको भगवान कहें, परमात्मा कहें, मोक्ष कहें, निर्वाण कहें--उस परम दशा तक पहुंचा देता है। अकेले ही तुम पहंचोगे।
तो मैं जब तुमसे कहता हूं, अकेलेपन को स्वीकार कर लो, तो ध्यान रखना, स्वीकार करने का मजा तो तभी होगा जब तुम स्वागत से स्वीकार करोगे। ऐसे बे-मन से कर लिया कि ठीक है, चलो, नहीं होता तो चलो यही कर लेते हैं, तो कुछ भी होगा। तब तुम्हारे इस बे-मन के पीछे तुम्हारी पुरानी आकांक्षा अभी भी सक्रिय है। तुम कोई न कोई उपाय खोजकर फिर अपने अकेलेपन को भरोगे।
गृहस्थ का अर्थ है: जो अपने अकेलेपन को भरने की कोशिश में लगा है। संन्यस्त का अर्थ है: जो इस सत्य को अंगीकार किया है कि अकेलापन है, भरा नहीं जा सकता--तो जीएंगे; जो हम भोगेंगे, इसका स्वाद लेंगे; अगर है भीतर तो जरूर कुछ कारण होगा! और कारण यही है कि अकेलेपन की सीढ़ी परमात्मा से लगी है; उसी पर चढ़-चढ़कर एक-एक सोपान तुम परमात्मा तक पहुंच जाओगे।
जब तक तुम अपने अकेलेपन से बचोगे तब तक तुम संसार में उतरने जाओगे; और परमात्मा से दूर हो जाओगे। क्योंकि जितना तुम दूसरों से जुड़ोगे, उतने ही अपने से दूर होते जाओगे। और वह जोड़ वास्तविक नहीं है; वह जोड़ सिर्फ जोड़ का धोखा है, जोड़ का आभास है।
एक महिला मुझे मिलने आई। पति से परेशान है। मगर पुरानी धारणाओं की है, तलाक भी नहीं दे सकती। पति दुष्ट है, मारता-पीटता भी है। जब आई तो उसने अपने हाथ, पीठ बताई। सब निशान पड़ गए हैं। लहुलूहान कर देता है पति जब मारता है। मैंने कहा, "तू अलग क्यों नहीं हो जाती'? उसने कहा, "कैसे होऊं? गठबंधन हो गया है!' --"गठबंधन!'; उसने कहा, "हां सात फेरे लग गए!' तो मैंने कहा, "यह कोई बड़ी बात है? पति को ले आ, सात उलटे फेरे लगवा देंगे। आंचल से बंधी थी? खोल देंगे! किसी ने बांधी थी, हम खोल देंगे, तू ले आ। गांठ, है क्या मामला इसमें इतना?'
लेकिन झूठे गठबंधन भी बड़े वास्तविक मालूम होने लगते हैं। सात चक्कर लगा लिए, अब क्या करें! चक्कर में पड़ गए। उलटे लगा लो!
हम सारी व्यवस्था ऐसी करत हैं कि बंधन वास्तविक मालूम पड़ने लगें। इसलिए तो शादी का इतना शोरगुल मचाया जाता है--बैंड-बाजे, घोड़ा, दूल्हा, फूल-हार, मेहमान, उत्सव, मंत्र, पूजा, हवन-यज्ञ--ये सब उपाय हैं ताकि पुरुष और स्त्री को यह पक्का हो जाए कि यह घटना कुछ ऐसी है कि इसको उलटाया नहीं जा सकता। कोई बड़ी महान घटना घट रही है! यह मनोविज्ञान है। अगर शादी ऐसे ही कर दी जाए तो ज्यादा टिकेगी नहीं।
मैंने सुना है, एक युवक और युवती एक चर्च में अमरीका में भागते हुए अंदर पहुंचे। पादरी से उन्होंने कहा, "जल्दी करो। ये जो दो आदमी खड़े हैं, ये गवाह हो जाएंगे। और यह तुम्हारी फीस लो, विवाह करवा दो'
पादरी ने कहा, "देखो, तुमने कभी सुना नहीं कि जल्दबाजी का काम शैतान का'!
उन्होंने कहा, "होगा, हमें फुर्सत नहीं, तुम जल्दी करो!'
तो पादरी ने कहा, "ठीक है...।' उसने जल्दी उनकी शादी कर दी। उनके जाते वक्त उसको उत्सुकता हुई कि मामला क्या है? इतनी जल्दी क्या है? उन्होंने कहा, "बाहर हम गलत जगह कार पार्क कर आए हैं'
अब ऐसी शादी कोई ज्यादा देर टिकेगी! इतनी जल्दबाजी में की गई, तो बंधन का आभास ही गहरा नहीं होता। इसलिए तो पश्चिम में तलाक बढ़ता जाता है। शादी का पूरा मनोविज्ञान टूट गया है। उसके आसपास की सारी व्यवस्था उखड़ गई है। तो सच्चाई साफ हो गई है कि हम दोनों का दिल साथ होने का, तो साथ हो गए; अलग होने का, तो अलग हो गए--बंधन कहां है?
ध्यान रखना जिन-जिन बंधनों को तुमने बंधन माना है, वे मान्यता के हैं। मैं नहीं कहता कि सब बंधन तोड़कर भाग खड़े होओ। जाना कहां है भागकर? लेकिन जानते रहो कि बंधन सब खेल हैं। पति रहो, पत्नी रहो, जहां पाया है अपने को, जहां खड़े हो वहीं रहो--लेकिन एक बात मन में साफ हो जाए कि सब बंधन व्यस्तता का खेल है। इससे हम अपने को भरते और भुलाते हैं। लेकिन अकेला होना हमारा स्वभाव है। साथ होना संयोग; अकेला होना, स्वभाव है। संसार संयोग है; कैवल्य स्वभाव है।
"घर-परिवार में होते हुए भी मुझे लगता है, कोई अपना नहीं। मैं बिलकुल अकेली हूं'
इस शुभ घड़ी का उपयोग कर लो। अकेली हो या अकेले हो, आनंद-भाव से छाती से लगा लो इस बात को। सब अशांति मिट जाएगी, सब बेचैनी मिट जाएगी। कौन अपना है! अपेक्षा मिट जाएगी। कोई भी अपना नहीं है, फिर भी लोग इतना कुछ कर देते हैं तो अनुग्रह है।
तुमने कभी खयाल किया, जिससे अपेक्षा होती है उसके प्रति अनुग्रह का भाव पैदा नहीं होता। राह पर तुम जा रहे हो, तुम्हारा रुमाल गिर गया और एक राहगीर ने उठाकर दे दिया, तुम बड़ा अनुग्रह अनुभव करते हो; तुम कहते हो, "धन्यवाद! शुक्रगुजार हूं! बड़ी आपने कृपा की!' लेकिन यही रुमाल तुम्हारी पत्नी उठाकरदे दे या तुम्हारा पति उठाकर दे दे, तो तुम शुक्रगुजारी करोगे? तुम कहोगे धन्यवाद? कोई कारण ही नहीं, क्योंकि यह तो तुम कहते हो अपनी है, अपना है; यह तो करना ही था; यह किया तो कौन-सी बड़ी बात की!
जिसको तुम अपना मान लेते हो, उससे अपेक्षाएं हो जाती हैं। तो उसके कारण तुम दुखी तो होते हो, सुखी कभी नहीं होते। उसके कारण दुख होता है। जहां-जहां अपेक्षा टूटती है, वहां-वहां दुख होता है। लेकिन जहां-जहां अपेक्षा पूरी होती है, सुख नहीं होता! तुम कहते हो, " यह तो अपना है। इसमें कौन-सी बड़ी भारी बात हो गई कि रुमाल उठाकर दे दिया?'
अकेला जो जीने लगा, वह धीरे-धीरे अनुभव करेगा सारे संसार के प्रति अनुगृहित है। कोई यहां अपना नहीं है; फिर भी लोग बड़े प्यारे हैं, हाथ में हाथ दे देते हैं; कहते हैं, "चलो, अंधेरे में साथ हैं!' कोई अपना यहां नहीं है, फिर भी लोग ढांढ़स बंधाते हैं, साहस बंधाते हैं! कहते हैं, "घबड़ाओ मत, हम तो हैं!'
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मरी तो वह खूब छाती पीट-पीटकर रोने लगा। पास-पड़ोग के लोग आए, उन्होंने कहा, "रोओ मत!' मगर वह चुप ही न हो। लोगों ने कहा कि "मामला क्या है? हमें तो यह पता भी न था कि तुम्हारा इतना प्रेम था इस स्त्री से, जिस तरह तुम रो रहे हो!' वह कहने लगा, "इसलिए थोड़े ही रो रहो हैं...। अब पूछते हो तो बताए देते हैं। जब मेरी मां मरी तो अनेक स्त्रियां आईं और कहने लगीं, हम तुम्हारी मां हैं, कोई फिक्र न करो! जब मेरे पिता मरे, अनेक बूढ़े आ गए; कहने लगे, कोई फिक्र न करो, हम तुम्हारे पिता हैं! अब कोई नहीं आता। रो रहा हूं इसलिए'
अनुभव करोगे तुम, अगर तुम्हारी अपेक्षा गिर जाए, कि जो भी थोड़ा-बहुत किसी ने कर दिया, वह भी न करता तो क्या करते? कोई जबरदस्ती तो न थी। कोई मांग और दावा तो नहीं हो सकता था। कोई कोर्ट-कचहरी तो नहीं की जा सकती थी।
"मैं बिलकुल अकेली हूं'--इस भाव को गहन होने दो। यही तुम्हारा मंत्र हुआ। इसे दोहराओ, गदगद होकर दोहराओ कि मैं अकेली हूं। और धीरे-धीरे इसका रस आने लगेगा, स्वाद जमेगा। इससे बड़ी स्फुरणा होगी। जिन-जिन से दुख मिलता था, उन-उन से दुख मिलना बंद हो जाएगा। और जिससे कभी भी सुख मिलने की कोई आशा न थी, उससे भी सुख मिलने लगेगा। दृष्टि की बात है। लोग चारों तरफ बड़े प्रीतिपूर्ण मालूम होने लगेंगे, एक बार तुम्हारी अपेक्षा गिर जाए। तुम देखोगे, लोग भले हैं, साधु हैं। और जैसे ही यह बात तुम्हारे भीतर गहरी बैठ जाए कि अकेलापन स्वभाव है, द्वार खुला! क्योंकि तुम विश्राम की अवस्था में हो जाओगे--लड़ाई बंद हो गई। तुम नदी की धार में बहने लगे--तैरना बंद किया जब! और तुम पाओगे कि नदी की धार कितनी प्यारी है! कंधे पर बिठाए तुम्हीं ले जा रही है सागरों तक!
यह अकेलेपन की लहर परमात्मा तक ले जाती है, यह अनंत सागर तक ले जाती है। लेकिन अभागे हैं लोग! जिससे जीवन में प्रकाश उतर आता है, उसी द्वार को बंद किए बैठे हैं! रोते-चिल्लते हैं झूठे खिलौनों के लिए!
"साथ ही पाती हूं कि बुढ़ापा आने लगा है और में रिक्त हूं! रूखी-सूखी हूं! प्रेम की एक बूंद भी मुझ में नहीं है!'
प्रेम को हम कुछ गलत ही ढंग से देखते रहे हैं। प्रेम कुछ ऐसा थोड़ी है जैसे कि बालटी में पानी भरा रखा है, कि हो तो पी लो, न हो तो क्या पियोगे! प्रेम कोई वस्तु थोड़े ही है,जैसे तिजोड़ी में धन रखा है; खोल लो, धन हाथ में आ जाता है। नहीं, प्रेम वस्तु नहीं है--प्रेम भाव है। यह कोई भरा थोड़े ही रखा है कि देने की मर्जी हुई तो दे दिया और न मर्जी हुई तो न दिया, और है ही नहीं तो देंगे कैसे! नहीं, प्रेम तो करने से आता है।
तुम अभी बैठे हो, चल नहीं रहे हो। अगर मैं तुमसे पूछूं कि तुम्हारी चलने की शक्ति का क्या हुआ, तुम कहोगे, "संभावना है, शक्ति थोड़े ही है! अभी चलेंगे, चल पड़ेंगे! चलने लगेंगे तो चलने की शक्ति आ जाएगी। बैठे रहेंगे तो चलने का कोई कारण नहीं उठता'। तुम बैठे-बैठे यह तो नहीं कहते कि अब हम कैसे उठें; अब चलें कैसे, चलने की शक्ति कहां है, पहले इसका पक्का हो जाए।
चलना तो प्रक्रिया है। तुम चलो, उसी में पैदा होती है।
ऐसा ही प्रेम है; तुम प्रेम करो, उसी से पैदा होता है। ऐसा तो कोई है ही नहीं, जिसमें प्रेम की संभावना न हो। लेकिन तुम प्रेम करते ही नहीं। हम प्रेम मांगते हैं, देते नहीं। हमको लगता है, भीतर तो हम खाली हैं, दूसरों से ले-लेकर भर लें अपनी मटकी। मगर दूसरे भी तुम्हारी ही दशा में हैं; वे भी तुमसे अपनी मटकी भर लेना चाहते हैं। यह होगा कैसे? मटकियां टकराएंगी, खटर-पटर शोरगुल मचेगा--जो हर घर-गृहस्थी में मचा है। मटकियां टकरा रही हैं, कहते हैं कि बहुत बर्तन एक् जगह रखो तो आवाज होगी ही।
प्रेम दान है। प्रेम कोई भिक्षा नहीं है कि किसी से मांग ली। और प्रेम कोई आज्ञा भी नहीं है कि किसी को दे दी कि करो प्रेम। और प्रेम कोई ऐसी चीज थोड़ी है कि तुम भीतर झांककर देखोगे तो वहां लबालब भरा हुआ मिलेगा। दो--उस देने में ही जगता है, देने में ही पैदा होता है, करने से ही आता है।
अगर मैं तुमसे कहूं कि "चलो, नदी पर तैरना सीख लो, तुम कहोगे, मेरे पास तैरना तो है ही नहीं। तो मैं तुमसे कहूंगा, तुम घबड़ाओ मत! कौन तैरना है, किसके पास तैरना है! बड़े से बड़े तैराक से कहो कि निकालो दिखाओ तुम्हारा तैरना, तो वह भी कहेगा, चलो नदी, तैरकर ही बताया जा सकता है। ऐसा कोई रखा हाथ में नहीं है, संदूक में बंद नहीं किया हुआ है कि गए और तुम्हें दर्शन करवा दिए।
प्रेम तैरने जैसा है। उतरो नदी में! और कभी भी देर नहीं हुई है। आखिरी क्षण तक, जब तक आखिरी श्वास आ रही है, तब तक भी प्रेम हो सकता है। हाथ-पैर पंगु हो गए हों, खाट पर लग गए हो, आखिरी सांस आ रही है, आंख खोलकर तुम प्रेम से देख तो सकते हो किसी की तरफ। उसी में प्रेम पैदा हो जाएगा।
प्रेम की कला सीखो! यह काई संपत्ति नहीं है, कला है। वृक्ष को देखो तो प्रेम से देखो, कैसा हरा है! कैसे फूल खिले हैं! जरा पा जाओ, वृक्ष को छुओ--और तुम पाओगे, भीतर कोई सोया था, जगने लगा! चांदत्तारों को देखो, पत्थर-पहाड़ों को देखो! सरोवर, सागरों को देखो! मगर प्रेम से! प्रेम तुम्हारी शैली हो जाए!
बहुत बड़ा कवि हुआ--मिलटन। किसी ने उसके संस्मरणों में लिखा है कि वह वस्तुओं को भी छूता था तो ऐसे जैसे उनमें व्यक्त्तित्व हो; जूता भी उतारता तो ऐसे प्रेम से भरपूर, जूते का भी धन्यवाद देता। देना चाहिए। कितने कांटों से नहीं बचा लिया है! जूते का बड़ा उपकार है! तुम आते हो, जूता ऐसा फेंकते हो जैसे एक झंझट मिटी। तुम्हारी दृष्टि में, तुम्हारे होने के ढंग में भूल है। अब तुम कहोगे, प्रेम है नहीं तो हम कैसे जूते को प्रेम से उतारें। मैं कहता हूं, तुम प्रेम से उतारकर देखो, तुम प्रेम को पाओगे! तुम कहते हो, प्रेम होगा तो हम प्रेम करेंगे! मैं कहता हूं, प्रेम करोगे तो प्रेम होगा! शुरू करके देखो! किसी का भी हाथ, हाथ में लेकर देखो!
एक एयर होस्टेस, एक परिचारिका मुझे कह रही थी। एक बूढ़ी महिला हवाई जहाज पर चढ़ी, पहली दफा! और उस परिचारिका ने देखा कि वह बहुत घबड़ा रही है, नर्वस है, कंप रही है। पहली दफा अनुभव था। बूढ़ी महिला! तो वह परिचारिका उसके पास गई, उसकी कुर्सी पर बैठ गई, उसके सिर को अपने हृदय से लगा लिया। तब तक जहाज ऊपर उठ गया, सब व्यवस्थित हे गया। धक्के आने बंद हो गए। इंजन संगीतपूर्ण रूप से चलने लगे। सब थिर हो गया। तो वह परिचारिका उठी। और जब वह जाने लगी तो बूढ़ी ने कहा, "बेटी! जब मुझे फिर डर लगे तो आ जाना!'
जब तुम किसी को प्रेम देते हो, तब अनायास दूसरी तरफ से भी प्रेम बहने लगता है। सुलगाओ, कहीं से भी सुलगाओ चिंगारी। लपटें फिर दूसरों में फैलती चली जाती हैं! तुमने कभी किसी मकान में आग लगी देखी! एक मकान में आग लगती है,सारा पड़ोस घबड़ा जाता है, क्योंकि लपटों का क्या भरोसा, फैलने लगती हैं। हवा पर सवार होकर छलांग लेती है लपट और दूसरे मकान को पकड़ लेती है।
प्रेम भी आग है। तुम जरा जलाओ! तुम जरा चिंगारी उठाओ! औरसब तरफ से तुम्हारी लपट को बढ़ाने के उपाय होने लगेंगे। तुम जो करते हो, संसार उसी में तुम्हारा साथी हो जाता है। अब अगर तुम्हीं थके-मांदे बैठे हो कि कैसे चलना हेगा, कैसे प्रेम करना होगा--है ही नहीं! कौन लेकर आया है? जन्म के साथ कोई प्रेम की तिजोड़ी साथ लेकर आता है? संभावना लेकर आता है। संभावना सभी की है और आखिरी श्वास तक है।
मैंने सुना है, एक आदमी राह से गुजरता था और एक भिखमंगे ने उसके सामने हाथ फैलाए। बूढ़ा, अंधा दुर्बल! उस आदमी ने जल्दी से खीसे में हाथ डाले, लेकिन वह अपना बटुआ तो घर ही भूल आया था। तो वह बड़ा मुश्किल में पड़ गया। वह पास बैठ गया, उसने बूढ़े का हाथ अपने हाथ में ले लिया और कहा, "बाबा! खीसे में कुछ है नहीं, बटुआ मैं घर भूल आया'। उस बूढ़े ने कहा, "छोड़ो भी! बटुए और खीसे की बात क्या? तुमने मुझे इतना दिया हाथ हाथ में लेकर, जितना कभी किसी ने मुझे नहीं दिया। जब कभी यहां से गुजरो, क्षणभर को अपना हाथ मेरे हाथ में दे देना, बस बहुत है!'
कौन किसी भिखमंगे का हाथ हाथ में लेता है! कोई पैसे ही देने की थोड़ी बात है--भाव की बात है!
जहां तुम्हें प्रेम करने का अवसर मिले, चूकना मत; नहीं तो चूकने की आदत मजबूत हो जाती है। अगर ज्यादा चूकते रहे तो चूकना तुम्हारा ढंग हो जाता है। प्रेम का रास्ता तब असंभव है। और हम जगह-जगह चूकते हैं।
प्रत्येक घड़ी को प्रेम की घड़ी बनाओ! कोई प्रेम के लिए परमात्मा ही उतरेगा आकाश से तब तुम प्रेम करोगे! तो जिस दिन परमात्मा उतरेगा उस दिन पाओगे कि प्रेम करना तो तुम जानतेही नहीं। इसका अभ्यास करो! जो मिल जाए, घड़ीभर का साथ हो जाए रास्ते पर किसी से, फिर तो रास्ते अलग हो जाएंगे, कोई गीत आता हो, गीत गुनगनाकर सुना दो! कुछ न आता हो, आंख तो तुम्हारे पास है, प्रेम से गीली आंख से उसे देख लो! तुम उसके सपनों के हिस्से हो जाओगे। वह तुम्हारी याद करेगा, लौट-लौटकर तुम्हारी याद करेगा। और जब-जब तुम्हारी याद करेगा, भीतर तुम्हारे प्राणों में भी अज्ञात तार कंपेंगे; क्योंकि हम सब जुड़े हैं। हम अलग-अलग नहीं है।
प्रेम को फैलाओ!
प्रेम के संबंध में तुम बहुत कंजूस हो। लेकिन लोग समझते हैं, शायद यह कंजूसी बड़ी कीमत की है।
मैंने सुना है, एक बहुत धनवान स्त्री एक होटल में पहुंची। पांच-सात कारें सामान लदा हुआ। सब सामान नौकर-चाकरों ने उतारा। लेकिन एक् कार में उसका बेटा बैठा है, उम्र होगी कोई तेरह-चौदह साल। और तब उसने कुलियों को और बुलाया कि उतारो मेरे बेटे को। तो एक कुली ने पूछा कि "क्या अपंग है बेटा? यह तो बिलकुल स्वस्थ मालूम पड़ता है। चल नहीं सकता?' उस बूढ़ी ने कहा, "चल सकता है, लेकिन उसे चलने की जरूरत नहीं, हमारे पास सब सुविधा है। चल सकता है, चलने की कोई जरूरत नहीं। हम कोई गरीब नहीं हैं'
दो कुली उस स्वस्थ लड़के को कंधे पर उठाकर ले गए।
चलना भी गरीबों का काम है! कोई अमीर कहीं चलते हैं!
ऐसी ही भ्रांतियां हैं। प्रेम--हम सोचते हैं, कभी करेंगे! लेकिन जब तक प्रेम न करोगे तब तक क्या करोगे? कुछ तो करोगे! उस करने का अभ्यास प्रगाढ़ हो जाएगा। प्रेम में न होने की आदत मजबूत अगर हो गई, तो मुश्किल होगी। प्रेम कोई रूखा-सूखा नहीं होता; सिर्फ गलत आदतें...।
अभी भी देर नहीं हुई।
..."पाती हूं, बुढ़ापा आने लगा और मैं रिक्त हूं'
अभी भी देर नहीं हुई। अभी भी आंख को गीला करो। अभी भी गीत को उठने दो। हमेशा प्रेम का उपाय है। और इतने लोग प्रेम के लिए भूखे और प्यासे हैं...! दो, कोई भी अवसर मिले, एक बात ध्यान रखो कि कैसे उसे हम प्रेम देने का अवसर बनाएं।
बुढ़ापा आता है, सभी का आता है। उससे घबड़ाओ मत! बुढ़ापे को समझ का समय बनाओ। क्योंकि बच्चे अबोध हैं, उन्हें कोई अनुभव नहीं, भोले-भाले हैं, लेकिन अनुभव-रिक्त हैं। उनका भोला-भालापन तो खत्म होगा, खराब होगा। वे तो उठेंगे, जिंदगी में जाएंगे। और जिंदगी व्यभिचारी है। वे बिगड़ेंगे। बिगड़ना ही पड़ेगा। वह बिगड़ना जरूरी पाठ है।
फिर जवान हैं। जवानों का मन तो बहुत-सी उत्तेजनाओं से भरा है। बहुत कुछ कर लेने का उनके दिमाग में फितूर है। जवानी एक फितूर है। जवानी एक विक्षिप्तता है, एक जोश, एक जुनून। तो अभी तो वे आकाश में उड़ रहे हैं। जवान, अभी उनके पैर जमीन से नहीं लगते। लगेंगे उनके पैर। क्योंकि जल्दी ही पता चलेगा, जवानी तो एक बुखार थी, आई और गई; एक उत्तेजना थी, एक उत्ताप था; हम नाहक ही उसमें भूल बैठे; अपने को कुछ का कुछ समझ लिया।
मैंने सुना है कि एक लोमड़ी सुबह-सुबह निकली, सूरज के उगते प्रकाश में उसकी बड़ी छाया बनी--लम्बी छाया! उसने छाया की तरफ देखा और कहा, आत तो नाश्ते के लिए कम से कम एक ऊंट की जरूरत पड़ेगी--इतनी बड़ी हूं! दिन भर खोजती रही, दोपहर हो गई, कुछ मिला नहीं। सूरज सिर पर आ गया। उसने फिर देखा अपनी छाया की तरफ, वह सिकुड़कर बड़ी छोटी हो गई। उसने कहा, अब तो एक चींटी भी मिल जाए तो भी काम चलेगा!
जवानी तो एक नशा है; छाया बड़ी लंबी मालूम होती है। हर आदमी सिकंदर होना चाहता है। हर जवान सिकंदर होने के सपने देखता है। वह सपनों का समय है।
बुढ़ापा बड़ा बहूमूल्य है; बच्चों जैसा अनुभव हीन नहीं है, सारा अनुभव हो गया; जवानों जैसी विक्षिप्तता नहीं है! वह जोश-खरोश, वह पागलपन गया! चीजें ज्यादा थिर हो गई हैं। दृष्टि ज्यादा थिर हो गई है। समझ गहरी हुई है। इसका उपयोग करो।
बुढ़ापा सुंदर है--जवानी से ज्यादा। तभी तो परमात्मा जवानी के बाद बुढ़ापा देता है; वह ऊपर की सीढ़ी है। जवानी के अनुभव के बाद बुढ़ापा देता है; उसकी श्रेणी बहुत ऊंची है। बुढ़ापे के लिए तैयार होओ। उसका उपयोग करो।
 लेकिन तकलीफ क्या खड़ी होती है, कि बूढ़े तुम हो जाते हो, लेकिन खोपड़ी में जवानी के सपने भरे रहते हैं। तो अड़चन होगी। अब अगर एक बूढ़ा व्यक्त्ति ऐसे प्रेम की आशा करता हो जैसा एक जवान को मिलता है, तो वह अड़चन में पड़ेगा। बूढ़े आदमी को और सौम्य प्रेम के मार्ग खोजने पड़ेंगे। उत्तेजना से भरे हुए नहीं। उसे वात्सल्य को जगाना पड़ेगा। उसका प्रेम वात्सल्य होगा। उसके प्रेम में करुणा होगी, शीतलता होगी; शोरगुल नहीं हाोग, शांति होगी। उसका प्रेम करुणा जैसा होगा।
बुढ़ापे से घबड़ाओ मत। वह तो इस जिंदगी का आखिरी सोपान है; उसके बाद ही तो परम घड़ी आती है मृत्यु की।
घबड़ाओ मत कि बुढ़ापा आ गया, अब क्या होगा! क्योंकि इस जीवन का नियम कुछ ऐसा है--
मन बन सांस अधीर, सहारा
कोई और मिलेगा
रो मत मृदुल समीर, दुआरा
कोई और खुलेगा
प्रभु-पूजा कर का दीप, देह का
यह उपमान बहुत है
गंगाजल कहलाएं आंसू
यह सम्मान बहुत है
गा प्रभात का गीत, भीत हो
अंधियारा पिघलेगा।
मत बन सांस अधीर, सहारा
कोई और मिलेगा
रो मत मृदुल समीर, दुआरा
कोई और खुलेगा।
एक दरवाजा बंद हुआ नहीं कि दूसरा खुला नहीं! जवानी गई तो बुढ़ापा आया! बचपन गया तो जवानी आई! एक दरवाजा बंद होता है, दूसरा खुल जाता है। यह जन्म गया, दूसरा जन्म आया! यह जीवन गया, दूसरा जीवन आया! अंत तो है ही नहीं--यात्रा अनंत है। घबड़ाओ मत! मौत भी दरवाजों को बंद नहीं करती, नये दरवाजे खोलती है। और अगर तुम बुढ़ापे से राजी हो गए, तो तुम मौत से भी राजी हो जाओगे। बुढ़ापे से तुम राजी इसीलिए नहीं होते कि बुढ़ापा मौत की पगध्वनि है। बुढ़ापा कहता है, मौत आने लगी! बुढ़ापा कहता है, संभलो; कब्र पास आने लगी! बुढ़ापा कहता है, अब मौत के सिवाय कुछ भी न बचा, बस अब मौत ही है, मौत ही है।
लेकिन मृत्यु एक द्वार है: इस तरफ बंद होता है जीवन, उस तरफ खुलता है। घबड़ाओ मत, जीवन की यात्रा अनंत है। इस अनंत यात्रा में बहुत बार तुम बच्चे हुए, बहुत बार जवान हुए, बहुत बार बूढ़े हुए, बहुत बार मरे--मर-मरकर भी कहां मर पाते हो! जीवन बचता ही चला जाता है। हजारों मौंतें पार कर लेता है और बचता चला जाता है। जीवन शाश्वत है, अमृत है।
ध्यान रखो, तुम न बूढ़े होते हो, न तुम जवान होते हो, न तुम बच्चे होते हो। तुम्हारे भीतर कोई समयातीत है, कालातीत है। तुम्हारे भीतर कोई अशरीरी है। ये सारे लक्षण तो शरीर के हैं--बचपन, जवानी, बुढ़ापा! यह तो सब मन का और तन का ही जाल है, और इसके भीतर छिपे तुम हो--निष्कलुष! निराकार! निस्सीम! निर्गुण!
एकांत को साधो! ताकि तुम्हें अपना पता चलने लगे, तुम कौन हो! अमृत! और घबड़ाओ मत। ऐसे बहुत घर पहले छोड़े हैं।
यह एक और घर
पीछे छूट गया
 एक और भ्रम
जो जब तक था मीठा था
 टूट गया
कोई अपना नहीं है कि
केवल सब अपने हैं;
हैं बीच-बीच में अंतराल
 जिनमें है झीने जाल
मिलाने वाले कुछ, कुछ दूरी और दिखाने वाले
पर सच में
सब सपने हैं।
यह एक और घर
पीछे छूट गया
एक और भ्रम
जो जब तक था मीठा था
टूट गया!
पर घबड़ाओ मत! रो मत मृदुल समीर, दुआरा कोई और खुलेगा, दुआरा कोई और खुलेगा!
"मैं पैर से थोड़ी अपाहिज हूं और शिविर में नृत्य करना कठिन होता है'
नृत्य कोई शरीर की बात ही तो नहीं है--नृत्य तो आंतरिक घटना है। आत्मा तो कभी भी अपाहिज नहीं। तुमने कोई आत्मा देखी जो अपाहिज हो? नहीं शरीर नाच सकता, फिक्र छोड़ो--आंख बंद करो, तुम तो नाचो! तुम्हारे नाचने में शरीर क्या बाधा डालेगा? तुम्हारे होने में शरीर क्या बाधा डालेगा?
नृत्य तो एक भावभंगिमा है--प्रफुल्लता की, उत्सव की! जब कोई भक्त चलता है तो उसके चलने में भी नृत्य होता है। अभक्त नाचे भी, तो भी नृत्य कहां, शरीर की ही उछल-कूद होती है। उछल-कूद थोड़े ही नृत्य है।
माना, शरीर वृद्ध हुआ, अब नाच न सकोगे, छोड़ो! लेकिन भीतर कौन रोक सकता है?
अल्बर्ट कामू ने लिखा है कि तुम मुझे कारागृह में डाल सकते हो, मेरे हाथों में जंजीरें पहना सकते हो--लेकिन तुम मुझे बंदी न बना सकोगे। जंजीरें हाथ पर ही होंगी, मुझ पर न होंगी।
तुम पर कौन जंजीर डाल सकता है? यह शरीर के साथ तादाम्य बहुत ज्यादा है, इसलिए ऐसी अड़चन आती है। तुम सोचते हो, नाचेंगे कैसे, शरीर तो अपाहिज है!
मेरी एक संन्यासिनी लंदन में अस्पताल में पड़ी है। भयंकर कार दुर्घटना हुई। कोई पैंतीस फ्रेक्चर सारे शरीर में हुए। चिकित्सकों का खयाल है कि ठीक भी हो जाएगी, तो भी अब सामान्य न हो पाएगी। सभी कुछ टूट-फूट गया है भीतर। सिर्फ सिर को छोड़कर--सिर भर साबित है--बाकी सारा शरीर खंड-खंड हो गया है। सारे शरीर पर पलस्तर बंधा हुआ है। उसने मुझे लिखा कि मैं क्या करूं। उसे नटराज ध्यान बड़ा प्यारा था। जब वह यहां आई थी तो दिल खोलकर नाची थी। तो मैंने उसे लिखा कि इससे क्या फर्क पड़ता है, यह तो एक् और सुगम अवसर मिला। चौबीस घंटे बिस्तर पर हो, आंख बंद कर लो--और नाचो! नाचने का भाव करो। स्वप्न देखो नाचने का।
वही चकित नहीं हुई, उसके चिकित्सक भी चकित हुए। क्योंकि जिस दिन से उसने भीतर का नृत्य शुरू किया है, उसकी बाहर की शिकायतें भूल गई हैं। वह उस अस्पताल में सबसे ज्यादा शांत हो गई है। और उसने खबर भेजी है कि बड़े आश्चर्य की बात है कि शरीर जल्दी भर रहा है, ठीक हो रहा है।
वह जो कल्पना का आंतरिक नाच है, वह सहयोगी बनेगा। भीतर जो घटता है उसके परिणाम शरीर पर आते हैं। शरीर पर जो घटता है, जरूरी नहीं है कि परिणाम भीतर जाएं। तुम नाच सकते हो बाहर से, भीतर कुछ भी न हो! लेकिन अगर भीतर नाच हो तो बाहर परिणाम होते हैं; क्योंकि केंद्र पर जो घटता है उसकी तरगें परिधि तक पहुंच जाती हैं। केंद्र मूल है।
नाचो! नाचने में शरीर से कोई बाधा नहीं है। गाओ! गूंगा भी गा सकता है। दूसरे न सुन पाएंगे, यह बात जरूर सच है; लेकिन इससे गाने में क्या बाधा पड़ती है? नाचो, लंगड़ा भी नाच सकता है। दूसरे न देख सकेंगे तुम्हारा नाच, लेकिन तुम तो देख ही सकोगे। असली बात वहीं है।
तुम्हारा जीवन के प्रति दृष्टिकोण उत्सव का हो जाए। तुम इस जीवन को बोझ की तरह न ढोओ। इस जीवन में तुम ऐसे न चलो जैसे जबरदस्ती किसी ने पत्थर तुम्हारे सिर पर रख दिए हैं। बस नाच का इतना ही अर्थ है।
"घरवाले आपको विशेष पसंद भी नहीं करते हैं'
कैसे करेंगे? क्योंकि यह नाता कुछ ऐसा है, बाकी सब नातों को पोंछ डालता है। इसलिए घर वाले किसी को भी पसंद नहीं करेंगे। एक प्रतियोगी आ गया! और कुछ ऐसा प्रतियोगी कि अब उनके बस चलाए न चलेगा। मेरे प्रेम में अगर तुम पड़े तो तुम्हारा पूरा परिवार बेचैनी अनुभव करेगा। क्योंकि हम सबका दृष्टिकोण ऐसा गलता है...।
समझो! कामवासना का एक अर्थशास्त्र है--वह अर्थशास्त्र यह है कि प्रेमी-प्रियजन नहीं चाहते कि संख्या बढ़ती जाए, क्योंकि फिर प्रेम बंटेगा तो भाग कम-कम पड़ेंगे। एक ही बेटा हो तो पूरा प्रेम का मालिक था। दस बेटे हैं--प्रेम कट जाता है। लेकिन यह प्रेम ही नहीं है। इसको मैं कामवासना कहता हूं; यह कामवासना का अर्थशास्त्र है। क्योंकि जितने ज्यादा दावेदार होंगे उतनी ही पूंजी बंटती चली जाएगी। एक बाप के दस लड़के हैं, पंद्रह लड़के हैं, जब मरेगा तो संमत्ति टुकड़ों में बंट जाएगी, खेत के पंद्रह टुकड़े हो जाएंगे। अगर एक ही बेटा होता, सबका मालिक हो जाता।
यह काम का अर्थशास्त्र है कि बांटने से चीजें कम होती हैं। इसलिए जितने भी काम के संबंध हैं वे हमेशा भयभीत होते हैं कि कहीं और नये संबंध न बन जाएं। पत्नी देखती रहती है कि पति किसी स्त्री से दोस्ताना तो नहीं बढ़ा रहा है, कोई दोस्ती तो नहीं बढ़ा रहा है! झांकती रहती है किनारों से, कि रास्ते पर किसी को देखकर हंसा तो नहीं!
मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी के साथ बाजार से गुजर रहा था। एक बड़ी सुंदर युवती ने हाथ हिलाकर मुल्ला से कहा, "हेलो!' घबड़ा गया मुल्ला! वह तो देख ही नहीं रहा था उस तरफ! पत्नी के साथ पति जब चलता है, इधर-उधर नहीं देखता। तब वह ऐसे चलता है जैसे बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा था कि बस, चार कदम...जमीन चार कदम देखकर चलना, इससे ज्यादा में खतरा है!
पत्नी तो ठिठककर खड़ी हो गई। उसने कहा, "क्या मामला है? यह कौन है स्त्री? इससे क्या नाता है? नसरुद्दीन ने कहा, "कोई नाता नहीं है, व्यावसायिक संबंध है'। पत्नी ने कहा, "किसका व्यवसाय--तुम्हारा या उसका?'
पत्नी घबड़ायी है, कहीं कोई सौत न जन्म जाए, कहीं कोई प्रतियोगी न आ जाए! पति घबड़ाया हुआ है कि कहीं पत्नी किसी और के प्रति भी प्रेम को न बहाने लगे! अन्यथा, धारा कटेगी तो मेरे पल्ले कम पड़ेगा।
यह कामवासना का अर्थशास्त्र है। प्रेम का इससे कोई संबंध नहीं है, क्योंकि प्रेम की तो खूबी यह है कि जितना बांटो उतना बढ़ता है। प्रेम का अर्थशास्त्र तो यह है कि तुम जितना ज्यादा प्रेम करोगे उतना ही तुम्हारा प्रेमियों को ज्यादा मिलेगा।
अब इसे थोड़ा समझना।
अगर कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को ही प्रेम करता है, और संसार में उसके कोई प्रेम-संबंध नहीं हैं, न मित्रों से, न किसी से, कोई नाता नहीं है, मैत्री का तो पत्नी के पास तुम कितनी देर बैठोगे? चौबीस घंटे? दुकान भी करनी है, बाजार भी करना है। पत्नी के लिए हीरे-जवाहारात भी चाहिए, वे भी लाने हैं, बड़ा मकान भी बनाना है। घड़ी आधा घड़ी तुम पत्नी के लिए निकाल पाते हो, साढ़े तेईस घंटे तो तुम कहीं और रहोगे। और उस साढ़े तेईस घंटों में तुम न तो किसी की तरफ प्रेम से देखते, न किसी का हाथ प्रेम से हाथ में लेते, तो अप्रेम की तुम्हारी आदत हो जाएगी। और आधा घंटा जब तुम पत्नी के पास रहोगे, तब भी तुम पास रहोगे नहीं। तुम्हें प्रेम करना ही भूल गया। यह तो ऐसे ही हुआ जैसे कि पत्नी कहे कि जब तुम मेरे पास रहो तभी सांस लेना, साढ़े तेईस घंटे कहीं सांस मत लेना; यह तो हद हो गई कि मेरे बिना और तुम सांस ले रहे थे! तो जब पति घर तक आएगा, आएगा नहीं कंधों पर लाया जाएगा, अर्थी सज जाएगी! यही हो रहा है।
फिर जब तुम किसी को भी प्रेम नहीं कर पाते, जब तुम्हारा प्रेम सहज स्वभाव नहीं होता तो पत्नी से भी प्रेम होता नहीं, सिर्फ दिखावा होता है--और एक दुष्टचक्र पैदा होता है। क्योंकि पत्नी अनुभव करती है कि प्रेम मुझसे नहीं तो जरूर कहीं और होगा। वह और भी जाल फैलाती है, और पुलिस सिपाही लगाती है। वह सब तरफ से तुम्हें बंद कर लेना चाहती है, कहीं तुम और न दे आओ। और जितना ये पुलिस, पहरे लगते हैं, उतनी ही तुम्हारी सांस घुटने लगती है, प्रेम मरने लगता है।
प्रेम का अर्थशास्त्र काम के अर्थशास्त्र से बिलकुल उलटा है। प्रेम कहता है: बांटो। तुम जितना बांटोगे उतना ही तुम जो तुम्हारे पास है, उनको ज्यादा दे सकोगे।
मेरे पास जब तुम आते हो तो तुम्हारे लिए जो एक महाघटना है, तुम्हारे परिवार की दृष्टि में दुर्घटना होगी। होगी ही। क्योंकि यह कोई साधारण प्रेम नहीं है। यह प्रेम कुछ ऐसा है कि तुम्हारा सारा परिवारा बेचैन हो जाएगा, कि यह जो व्यक्त्ति हाथ से गया, अपना न रहा। जितना तुम्हारे मन में मेरी धुन बजेगी उतना ही वे पाएंगे कि फासला बढ़ा जा रहा है। वे सब बाधा खड़ी करेंगे, सब तरह का उपद्रव खड़ा करेंगे। वे हजार तरह की बातें करेंगे, तर्क देंगे। मैं उन्हें दुश्मन जैसा मालूम होने लगूंगा। कोई यह स्वाभाविक स्थिति है। इससे चिंता मत लेना।
एक ही बात खयाल रखना कि जब से मेरे प्रेम में पड़ो, तब से अपने प्रियजनों को और भी ज्यादा प्रेम करना, बस इतना ही तुम कर सकते हो। मेरे प्रेम के कारण कमी मत पड़ने देना, नहीं अन्यथा उनका भय सच हो जाएगा। मेरे प्रेम के कारण तुम्हारा प्रेम बढ़े तो कितनी देर तक वे अपने भय को पालकर रख सकेंगे, आज नहीं कल उनकी आंख खुलेगी; आज नहीं कल वे देखेंगे कि यह मां थी, और भी ज्यादा प्यारी हो गई है, पत्नी थी और भी ज्यादा प्यारी हो गई; इतनी तो इसने देख-भाल कभी न की थी। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि तुम भी उनकी भूल को सही सिद्ध करनेवाले बन जाओ, ताकि वे पीछे कहें, हमने पहले ही कहा था!
मैं किसी को किसी से तोड़ने को यहां नहीं हूं। मेरा तो सारा पाठ ही प्रेम का है--और प्रेम यानी जोड़ना। तो तुम अगर पति हो, तो और भी प्रेमपूर्ण पति हो जाना। तुम्हारा संन्यास तुम्हारे पति होने में किसी तरह की कमी न करे। तुम अगर पत्नी हो तो तुम पति के प्रति और भी लगाव से भर जाना। अपने स्नेह को चारों तरफ बरसा देना। अपने प्रेम के फूल पति के चारों तरफ उगा देना। तो तुम पति को भी ले आओगी मेरे पास। क्योंकि तब उसे एक नया अर्थशास्त्र दिखाई पड़ेगा जो प्रेम का है, काम का नहीं।
कामवासना वही प्रेम है जो क्षुद्र है और बांटे बंट जाता है, छोटा हो जाता है। प्रेम की संपदा तो अपारा है।
उपनिषद कहते हैं, उस पूर्ण से हम पूर्ण को भी निकाल लें, तो भी पूर्ण ही पीछे शेष रह जाता है। यह प्रेम का ही वक्तव्य है। प्रेम घटता ही नहीं, बांटे बढ़ता है; जितना उलीचो, बढ़ता है! कबीर ने कहा है, दोनों हाथ उलीचिए! कंजूसी उलीचने में मत करना।
"और आपको सुनकर आंसू बहते हैं'
अच्छा है। कुछ लोग हैं जिनको कुछ सुनकर विचार चलते हैं। उससे यह लाख गुना बेहतर है कि मुझे सुनकर आंसू गिरते हैं। साफ है कि मेरी बात तुम्हारे हृदय तक पहुंची, तुमने मुझे सुना। चिंता मत करो। आंसुओं के कारण हम चिंतित हो जाते हैं, क्योंकि हमें सिखाया ही यह गया है कि आंसू तो दुख में आते हैं। तो किसी को तुम रोता देखते हो, तुम्हें यही खयाल आता है कि "बेचारा, बड़ा दुखी! अन्यथा रोएगा क्यों?'
तुम्हें पता ही नहीं है कि आनंद में भी आंसू आते हैं। आंसुओं का कोई संबंध दुख-सुख से नहीं है; आंसुओं का संबंध तो किसी भी ऐसी भाव-दशा से है, जो इतनी ज्यादा हो जाती है कि तुम बरस पड़ते हो, तुम उसे सम्हाल नहीं पाते। जैसे मेघ भर गया जल से तो बरसेगा। फूल भर गया सुगंध से तो सुगंध फैलेगी। दीया जलेगा तो रोशनी बंटेगी।
ध्यान रखना कि आंसू तो तुम्हारे भीतर के किसी अतिरेक की खबर लाते हैं; दुख हो कि सुख, इससे कोई संबंध नहीं है। लेकिन चूंकि आदमी दुख में ही रोता है--खुशी में तो रोने की बात दूर, लोग खुशी में हंस तक नहीं पाते। खुश होना भूल ही गए हैं हम। हम प्रसन्न होने की भाषा ही भूल गए हैं।
आंसू अगर मुझे सुनकर आते हैं--मंगलदायी है! प्रभु की कृपा है, प्रसाद है! उन आंसुओं को रोकना मत! उनको बहने देना। उन आंसुओं में बहुत कुछ कूड़ा-कर्कट तुम्हारा बह जाएगा। तुम पीछे ताजा अनुभव करोगे; जैसे स्नान हो गया हो। आंखों से कंजूसी मत करना। बहने दो आंसूओं को। ये आंसू भीतर उठती किसी रसधार की खबर हैं। बस इतना ही खयाल रहे कि इन आंसूओं को अपनी मस्ती बनाना, आनंद और अहोभाव से। यही तुम्हारी प्रार्थना है। अगर कोई ठीक से रोना ही सीख ले तो कुछ और नहीं चाहिए; क्योंकि रोते-रोते हंसना आ जाता है।
"और कुछ सूझता नहीं, क्या करूं?'
रोओ! आंसू से बड़ी और प्रार्थना कहां है! हृदयपूर्वक रोओ! आंसू निखारेंगे तुम्हें, बुहारेंगे तुम्हें; जो व्यर्थ है वह फिक जाएगा, जो सार्थक है वह स्फटिक मणी की भांति स्वच्छ होकर भीतर जगमगाने लगेगा।
"और भगवान! क्या मेरे लिए आशा की कोई किरण संभव है?'
 पूरा सूरज देने की यहां तैयारी है, किरणों की बात ही नहीं है। मुझको कंजूस समझा है?

दूसरा प्रश्न: भगवानृ नास्तिक व साम्यवादी विचारों से प्रभावित होने के कारण में ईश्वर और आत्मतत्त्व को नकारता रहा। फिर आपका साहित्य पढ़ा तो तर्क-बुद्धि काम न पड़ी और यहां आ गया। जब आपको सुनने और ध्यान करने का अज्ञात के प्रति आस्था जगने लगी है और संन्यस्त होने का जी कर रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं नये परिवेश में सम्मोहित हो गया हूं।
नास्तिकता ठीक-ठीक तैयारी है आस्तिकता की। जो नास्तिक न हुआ वह कभी आस्तिक भी न हुआ। जो ठीक से नास्तिक हुआ वह आस्तिक हुए बिना रह न सकेगा। जहां नास्तिकता पूर्ण होती है वहीं आस्तिकता शुरू होती है।

इसलिए पहली बात: ऐसा मत सोचो कि पहले तुम नास्तिक थे और अब तुम कुछ विपरीत दिशा में जा रहे हो। नहीं, तुम्हारी नास्तिकता ही तुम्हें मेरे पास ले आई है। यह मेरा अनुभव है हजारों लोगों पर काम करने के बाद, कि जो अपने को आस्तिक समझते हैं, वे करीब-करीब थोथे लोग हैं। और उनके साथ बड़ी मुश्किल होती है। उनका विकास बड़ा कठिन होता है। क्योंकि वे नहीं हैं वह उन्होंने अपने को मान रखा है, एक झूठ को पकड़ रखा है। यह तो ऐसे ही है जैसे बीमार आदमी समझता हो कि मैं स्वस्थ हूं। अब इसका इलाज कैसे करोगे? वह हाथ ही न रखने देगा। वह नाड़ी भी न पकड़ने देगा। वह कहेगा, मैं बीमार ही नहीं हूं। बीमार अगर जान ले कि मैं बीमार हूं तो ही इलाज हो सकता है।
करोड़ों आस्तिक हैं जो सोचते हैं कि आस्तिक हैं, पर आस्तिकता का अभी उन्हें कोई पता ही नहीं चला है। उधार आस्तिकता है--और धर्म उधार नहीं है। धर्म बड़ी नकद घटना है।
तो जिनको मैं पाता हूं कि वे नास्तिक हैं, मेरे पास आते हैं तो मैं प्रसन्न होता हूं। उन्होंने आधी यात्रा तो खुद ही पूरी कर ली है। थोड़े ही धक्के की जरूरत है, वे आगे निकल जाएंगे।
आस्तिक की भूल यह है कि वह अपने को आस्तिक बिना हुए आस्तिक समझता है। और नास्तिक की अगर कोई भूल हो सकती है तो वह एक कि वह नास्तिकता में ही अटक जाए, अर सोचने लगे कि बस सब जान लिया, अब कुछ जानने को नहीं है।
जिन मित्र ने पूछा है, उनका हृदय खुला है, इसलिए मेरे पास आ सके। लेकिन अब थोड़ी और हिम्मत जुटाने का सवाल है। मेरी बात में रस आना एक बात है और मेरे रस को पकड़कर छलांग लगा लेना, रूपांतरण करना बड़ी दूसरी बात है। मुझे सुन लेना अच्छा लगेगा। उतने से काम न होगा। मैं जो कह रहा हूं जब तक तुम्हारा दर्शन न बन जाए, मैं जो बता रहा हूं जब तक तुम न देख लो, जब तक तुम्हारा अनुभव भी मेरी गवाही न देने लगे--तब तक मन संदेह उठाएगा, मन कहेगा, "बात अच्छी तो लगती है, पता नहीं ठीक है या नहीं! स्वादिष्ट तो लगती है, लेकिन स्वास्थ्यप्रद है या नहीं! फिर कौन जाने, कहीं सम्मोहन तो नहीं हो गया!'
इतने गैरिक वस्त्रों में लोग--निश्चित ही एक परिवेश बनता है। उनकी मस्ती, उनका नाचना, उनके जीवन में आई ताजगी, तुम्हें भी लुभायमान करने लगती है, लुभाती है। फिर ध्यान, फिर मुझे सुनना--ये सतत चोटें! तो मन कहेगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सम्मोहित हो गए हो!
लेकिन जरा इस मन से पूछो, जब यह मन नास्तिक हुआ था और जब यह कम्यूनिस्ट हुआ था, तब इसने तुमसे कहा था कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सम्मोहित हो गए हो, परिवेश से! इसने तब न कहा था। क्योंकि तब इसको कोई खतरा न था। नास्तिकता में मन मजे से जी सकता है। नास्तिकता मन के लिए ठीक-ठीक खाद है, चूंकि "नहीं' कहना है। "नहीं' कहना मन के लिए बड़ा सुगम है। "हां' कहने में अड़चन आती है। "नहीं' में संघर्ष है। संघर्ष से अहंकार मजबूत होता है। "हां' समर्पण है। "हां' कहने से अहंकार गिरता है।
तो मन अब हजार-हजार सवाल उठाएगा: कहीं सम्मोहन तो नहीं है! मन यह कह रहा है, रुको! जल्दी मत करो! लेकिन ध्यान रहे, अगर जल्दी न की, तो मन कभी भी न करने देगा। वह कहेगा, कल! कल कभी आता नहीं।
और फिर मैं तुमसे यह पूछता हूं, इतने दिन नास्तिक रहे, आस्तिकता इतनी जल्दी सम्मोहित कर लेगी? हां, साधारण आस्तिक, जिन्होंने नास्तिकता जानी ही नहीं है, हो सकता है आसानी से सम्मोहित हो जाएं। लेकिन नास्तिक...। तुम तो लड़ रहे हो पूरी तरह मुझसे, फिर भी बाजी हारते चले जा रहे हो। तो मन कहता है, उलट दो बाजी, बंद ही करो खेल! हार तो निश्चित हुई चली जाती है!
सम्मोहन का क्या अर्थ होता है? दूसरे जो कह रहे हैं, उनकी देखा-देखी कुछ करने लगो तो सम्मोहन है। दूसरों की देखा-देखी करने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हारा ध्यान तुम्हें सुख दे रहा हो, मुझे सुनकर तुम्हें प्रकाश का कोई झरोखा दिखाई पड़ रहा हो, मेरे पास बैठकर तुम्हारे हृदय का कोई वातायन खुलता हो, हवा का ताजा झोंका आता हो--तो अपने सुख की सुनो, मन की मत सुनो।
मैं तुमसे यह कहता हूं, वस्तुतः दुखी रहने की बजाय सम्मोहित होकर सुखी रहना बेहतर है।
सम्मोहन यह है नहीं, अनुभव तुम्हें बताएगा। सजगता से, होशपूर्वक उतरो। अगर तुम्हारा आनंद बढ़ता जाए, तुम्हारा जीवन अनुभव सुस्पष्ट होने लगे, धुंधली-धुंधली छायाएं हटने लगें और प्रकाश पास आने लगे--तो अपने अनुभव की ही सुनना। लेकिन मुझे एक मौका दो। फिर तुम्हें लौट जाना हो, अनुभव के बाद, मजे से लौट जाना। यह इसलिए कहता हूं कि कोई कभी लौटता नहीं अनुभव के बाद। अनुभव के पहले सीढ़ियों पर ही सारी बातचीत है कि कहीं संदेह, सम्मोहन, कोई धोखा, पता नहीं क्या मामला है! ये लोग नाच रहे हैं, कहीं ये सब बने-बनाए न हों, सिखे-पढ़ाये न हों! कहीं ये सिर्फ तुम्हारे लिए ही नाच रहे हों कि अब तुम आ रहे हो, तो अब फांसने का इंतजाम किया हो!
 नहीं, इनको तुम्हारा कोई पता भी नहीं है। ये अपने भीतर नाच रहे हैं। तुम भी नाचकर देखो! स्वाद लो!
मैं नहीं कहता, मुझ पर विश्वास करो! नहीं, मैं कहता हूं,मेरे साथ प्रयोग करो--सिर्फ प्रयोग! हाइपोथेटिकल! मुझ पर भरोसा करने की अभी जरूरत ही नहीं है। तुम्हारा अनुभव ही अगर भरोसा ले आए, तब बात दूसरी। जब अपनी ही आंख से देखोगे और जब अपने ही हृदय में अनुभव करोगे, तभी तुम्हारा मन छोड़ेगा--यह भाव, तर्क, विरोध कहीं सम्मोहन तो नहीं है।
मन तुम्हें दुख में रखना चाहता है।
 मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, "बड़ा आनंद आ रहा है। एक बात पूछने आए हैं आपसे, यह सच तो है? आनंद उन्हें आ रहा है मगर शक है! शक यह है कि मन मान ही नहीं सकता कि तुम और आनंदित! असंभव है! कहीं कोई भूल हो रही है!
मन मान ही नहीं सकता, क्योंकि तुम्हारे सारे जीवन का अनुभव तो दुख का है; अचानक तुम्हें सुख मिल रहा है, कभी न मिला था, कहीं किसी ने सम्मोहित तो नहीं किया। कहीं कोई जालसाजी, कोई षड़यंत्र तो नहीं चल रहा है।
लोग इतने भयभीत हैं; और पास कुछ भी नहीं है सिवाय दुख के!
मेरे एक संन्यासी ने किसी बड़े राजनेता को मेरी एक किताब दी। तो उन्होंने किताब हाथ में न ली। वे कहने लगे, "रुको, पहले दोत्तीन बातों का जवाब दो। मैंने सूुना है कि यह आदमी खतरनाक है और सम्मोहित करता है। यही नहीं, एक सज्जन ने तो यहां तक कहा है कि किताब भी मत पढ़ना, क्योंकि पढ़ते-पढ़ते कई लोग पागल हो गए हैं। और फिर उन्होंने कहा कि यहां तक मैंने सुना है कि किताब छूने में भी खतरा है'। किताब हाथ में नहीं ली औनर कहा कि बाबा बख्शो! बाल-बच्चे हैं। घर-द्वार हैं। इसमें न उलझाओ!
तुम्हार संदेह सदा सुख पर आता है, दुख पर नहीं! जब तुम्हारे सिर में दर्द होता है, तब तुम किसी से आकर नहीं कहते कि सुनो भाई, सिर में दर्द हो रहा है, सच है या झूठ? तब तुम बिलकुल मान लेते हो। सिरदर्द को तुम बिलकुल मान लेते हो। क्योंकि दर्द का तुम्हारा अनुभव है। यह सुख बिलकुल ही अपरिचित है। इससे कभी मुलाकात ही न हुई थी। यह ताजा हवा का झोंका बिलकुल अजनबी हैं।
मैंने सुना है, स्वीडन का एक राजा दिनभर सोता था। अकसर राजे यह करते रहे अतीत में। रातभर नाच-गान चलता, पीना-पिलाना चलता और दिनभर सोना चलता। एक दिन कोई पांच बजे रात, छह बजे रात, महफिल समाप्त हुई। नींद उसे आ नहीं रही थी, तो वह अपने बगीचे में बाहर निकल आया। उसे बड़ी हैरानी हुई। उसने पूछा अपने पहरेदार को कि यह किस तरह की गंध हवा में है? उसके पहरेदार ने कहा, "महाराज! यह गंध नहीं है, सुबह की ताजी हवा है'। जिंदगीभर तो कभी निकले नहीं; बस शराब की ही गंध को जानते थे। महफिल--उसी बंद दुनिया को जानते थे। सुबह की ताजी हवा..!
पहली दफा जब अनुभव होगा तो तुम अड़चन में पड़ोगे, यह स्वाभाविक है। लेकिन एक् ही उपाय है, और वह उपाय यह है कि थोड़ा हिम्मत करो और प्रयोग करो। नास्तिक रहकर देख लिया, अब आस्तिक रहकर भी देख लो। गृहस्थ रहकर देख लिया, संन्यस्त होकर भी देख लो। गृहस्थ हाकर कुछ भी न पाया। इतना तो मौका दो कि शायद किसी और आयाम पर संपदा पड़ी हो। नास्तिक रहकर कुछ न पाया। इतना ही क्या काफी नहीं है कि तुम अब आस्तिकता की तरफ प्रयोग कर लो? प्रयोग के लिए लेकिन साहस चाहिए। और प्रयोग से ही संदेह जाएंगे। मैं विश्वास करने को कहता ही नहीं। मैं तो कहता हूं कि सत्य इतने करीब है, टटोलकर स्पर्श करके देख लो। आंख खोलो, सूरज निकल आया है। रोशनी सामने पड़ी है।
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं, ये कोयले देंगे धुंआ।
तब तक संदेह चलता ही रहेगा। धुंए से ही घिरे रहोगे। एक मौका दो सुबह की हवा को। खोलो खिड़की-द्वार-दरवाजे! आने दो हवा को! शीघ्र ही अंगारे जब भभक उठेंगे, धुआं विलीन हो जाएगा।
धुआं आग से पैद नहीं होता, धुंआ तो पैदा होता है गीले ईंधन से। तो जब तक पूरी तरह आग पकड़ न लेगी, तब तक धुंआ पैदा होता रहेगा। जब आग पूरी तरह पकड़ लेगी और लकड़ियां बिलकुल सूख जाएंगी उस आग में, तब धुंआ नहीं पैदा होता; तब शुद्ध आग, स्वर्ण जैसी शुद्ध, निर्धूम...।
जब तक तुम्हारे मन की लकड़ी गीली-गीली है, सूखी नहीं, तब तक शक-संदेह का धुआं उठता ही रहेगा। और प्रयोग के अतिरिक्त कोई और उपाय नहीं है।
मुझे सुन-सुनकर तुम कहीं भी न पहुंच पाओगे। मैं जो कहता हूं, वह प्यारा लगता है। लेकिन इतने से ही कुछ भी न होगा। मैं जो कहता हूं, वह तुम्हें सुख देता लगता है। लेकिन उससे तो तुम सिर्फ इशारा लो और आगे चलो। मैं तुम्हें जहां की खबर दे रहा हूं, जब तक तुम वहीं न पहुंच जाओगे, तब तक तुम शब्दों को इकट्ठा कर लोगे, लेकिन सत्य की प्रतीति न होगी।
गर मुझे इसका यकीं हो मेरे हमदम मेरे दोस्त
गर मुझे इसका यकीं हो कि तेरे दिल की थकन
तेरी आंखों की उदासी, तेरे सीने की जलन
मेरी दिलजोई मेरे प्यार से मिट जाएगी
गर मुझे इसका यकीं हो मेरे हमदम मेरे दोस्त
रूजो-शब शामो-शहर मैं तुझे बहलाता रहूं
मैं कुछ गीत सुनाता रहूं हल्के शीरीं
आबशारों के, बहारों के, चमनजारों के गीत
यूं ही गाता रहूं, गाता रहूं तेरी खातिर
गीत बुनता रहूं, बैठा रहूं तेरी खातिर
पर मेरे गीत तेरे दुख का मुदावा ही नहीं
नग्मा जर्राह नहीं, मूनिसो गमखार सही
मेरा गीत तुम्हारे जख्म न भर सकेगा, मलहम-पट्टी भला हो जाए। मेरा गीत तुम्हारी बीमारी की औषधि नहीं है। सांत्वना भले मिल जाए, सत्य न मिलेगा उससे। मेरे गीत में तुम सो मत जाना। यह कोई लोरी नहीं है। यह तुम्हें सुलाने के लिए नहीं, तुम्हें जगाने के लिए पुकार है, आवाज है।
मेरी बातें तुम्हें अच्छी लगती हैं--अच्छा है कि अच्छी लगती हैं, मगर इस काफी मत मान लेना। जरूरी है; काफी नहीं है। थोड़ा और चलो! मेरी बात अच्छी लगी है--मेरे जैसे होकर भी देखो! तब असली द्वार खुलेंगे।
जीवन अवसर है जानने के लिए, घबड़ाओ मत। पगडंडियां अधेंरे बीहड़ में ले जाती है। लेकिन जिसको भी पहुंचना हो, पगडंडियों से ही पहुंचता है, राजपथ नहीं है। राजपथ पर भीड़ चलती है। यह तो जो मैं तुम्हें समझा रहा हूं, अकेले चलने का मार्ग है। इसमें तुम धीरे-धीरे परम एकांत को उपलब्ध हो जाओगे। वहीं तुम्हें पता चलेगा, क्या सत्य है, क्या झूठ है। इसलिए जल्दी निर्णय मत लेना। बाहर द्वार पर बैठे-बैठे निर्णय मत ले लेना। मेरा नियंत्रण है--महल के भीतर आओ!
अपने को पाने का अवसर
यूं ही न कहीं खो देना!
चुन लो सुर के सुमन, समय का
राग नहीं दब जाए
वर्तमान के लिए न गूंथो
गत की सूखी माला
तिमिर खोजने के लिए न है
दीपक का उजियाला
करो न धीमे चरण, मिलन का
क्षण न कहीं टल जाए
पूनम हो या अमा, सूर्य का
 जननी रात रहेग
शूल-फूल दोनों को छू कर
मलय बयार बहेगी
ढंको न अपने नयन, हृदय की
आग नहीं बुझ जाए
अपने को पाने का अवसर
यूं ही न कहीं खो देना
चुन लो सुर के सुमन, समय का
राग नहीं दब जाए!
मैं यहां हूं। जब तक हूं जब डूब लो! जब तक हूं तब तक एक द्वार खुला है। हिम्मत कर लो! शास्त्र तो सदा रहेंगे। मैं जो कहता हूं वह तुम फिर आगे भी पढ़ लोगे। किताबें रहेंगी। सोच-विचार खूब कर लेना पीछे। लेकिन अभी स्थगित मत करो। इतना क्या भय है? इतनी क्या घबड़ाहट है? क्या अपने पर भरोसा बिलकुल भी नहीं है कि जब संन्यास का भाव उठे तो तुम्हें यह भी पक्का नहीं है कि वह तुम्हारा भाव है कि दूसरों का देखकर उठ आया है? तुम्हें क्या अपनी इतनी भी पहचान नहीं है?
श्रद्धा जगे, तो भी तुम संदिग्ध हो?
संदेह मिट जाएगा एक क्षण में, ऐसा मैं नहीं कहता हूं। और यह भी मैं नहीं कहता कि श्रद्धा तभी होगी जब संदेह मिट जाएगा। अगर ऐसा कहता तो असंभव थी बात। मैं कहता हूं, संदेह है, माना। संदेह के बावजूद श्रद्धा का जो नया अंकुर उठ रहा है उसे मौका दो! फिर तुम तौल लेना बाद में। अगर तुम्हें लगे कि नास्तिक की "नहीं' ज्यादा मुक्तिदायी थी आस्तिक की "हां' से, वापस लौट जाना। पीछे तुम्हें लगे कि श्रद्धा से तो अश्रद्धा ही बेहतर थी--लौट जाना! लेकिन दोनों का अनुभव तो कर लो, ताकि तुलना कर सको, ताकि विचार कर सको!
एक का तो तुमने अनुभव किया है--संदेह का, नास्तिकता का; अब दूसरे का अनुभव बिना किए निर्णय मत करो।
मुल्ला नसरुद्दीन गांव का काजी हो गया था। पहला ही मुकदमा आया, तो उसने एक पक्ष का वक्तव्य सुना और कहा, "ठीक, बिलकुल ठीक!' कोर्ट का जो क्लर्क था, वह उठा, उसने पास आकर कहा कि महानुभव! अभी तो आपने एक का ही वक्तव्य सुना है। अभी विरोधी को भी तो कुछ मौका दें। आप तो निर्णय ही देने लगे कि बिलकुल ठीक है!
नसरुद्दीन ने कहा, "लेकिन उसमें तो मैं जरा भ्रम में पड़ जाऊंगा। अगर दोनों की सुनी तो कन्फ्यूजन पैदा हो जाएगा'
मगर उसने कहा, "यह तो नियम है कोर्ट का'
उसने कहा कि चलो, ठीक। दूसरे से भी सुन ली। दूसरे की सुनी तो बोला, "बिलकुल ठीक, बिलकुल सत्य कह रहे हो'। वह क्लर्क बोला, "आप यह कर क्या रहे हैं? पहले को भी ठीक कह दिया, दूसरे को भी ठीक कह दिया!'
नसरुद्दीन ने कहा, "बिलकुल ठीक कह रहे हो'
मौका दो! फिर शांत निश्चिंत मन से निर्णय करना। आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि जिसने नास्तिकता और आस्तिकता के दोनों अनुभव किए, उसने दुबारा नास्तिकता चुनी हो। यह हुआ ही नहीं। यह अपवाद भी नहीं हुआ एक। यह हो ही नहीं सकता। एक दफा परख आ जाए हीरों की, फिर कौन कंकड़-पत्थरों को ढोता है!

आखिरी प्रश्न: भगवान श्री!
वेद-कुरान को त्याग कियो
परित्याग कियो री पुरानन को
 कंत के नैन में ध्यान धरयो
ब्रह्मानंद सुनो सखि कानन को
गुरुअन की शरणन् में कबहूं न गई
मंदिर न चढ़ी नाही जोग लियो
पर जोग को भान भयो री सखी
जब प्यारे पिया संग भोग कियो!
कृपया बताएं कि क्या यह भी कोई मार्ग है!

इसी की चर्चा चल रही है। यही तो परम मार्ग है। यही तो नारद के भक्त्ति-सूत्र का सार है। कुछ भी जरूरत नहीं है--न वेद की, न कुरान की, न जोग की, न तप की। किसी की कोई जरूरत नहीं है--न मंदिर की, न मस्जिद की। जरूरत है तो बस इतनी ही कि परमात्मा के प्रति समर्पण हो जाए, उस प्रेमी से नात जुड़ जाए।
पर जोग को भान भयो री सखी
जब प्यारे पिया संग भोग कियो!
तभी योग का अनुभव होता है जब उस परम प्यारे के साथ भोग हो जाता है।
सब कुछ मौजूद है तुम्हारे भीतर, जरा-सी चिंगारी चाहिए।
एक चिनगार कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तो
इस दिल में तेल से भीगी हुई बाती तो है!
तैयार है सब, बस जरा प्रेम की चिनगार पड़ जाए!
कुरान, वेद, पुरान--कितने लोग उन्हें पढ़ रहे हैं, क्या पाया? उनको गौर से देखोगे तो तुम्हें समझ में आ जाएगा कि शास्त्रों से कुछ भी होता नहीं। होता होता तो सारा संसार कभी रूपांतरित हो गया होता! कितने शास्त्र हैं!
गजब है सच को सच कहते नहीं वो
कुरानो-उपनिषद खोले हुए हैं!
गौर से देखो जरा, कुरान और उपनिषद की छाया में कितना पाखंड चल रहा है। शब्दों के पीछे कितना धोखा पड़ा हुआ है!
भक्ति का शास्त्र इतना ही है कि उस परमात्मा के प्रेम में पड़ जाना ही सब कुछ है। जिसने प्रेम जाना, उसने सब जाना। और बाकी सब जानने में जो अपने को उलझाये रहा, उस सबको तो जान ही न पाएगा, प्रेम को भी न जान पाएगा।
प्रेम की कठिनाई यह है कि उसके संबंध में कुछ कहा नहीं जा सकता; इसलिए प्रेम का कोई शास्त्र भी नहीं बन सकता।
नारद के सूत्र भी बड़े तुतलातेत्तुतलाते हैं। कहो कैसे।
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी
आदमी की पीर गूंगी हो सही, गाती तो है!
बस इतना ही समझ लेना कि प्रेम गीत से प्रगट हुआ है, नृत्य से प्रगट हुआ है। और कुछ कहने का उपाय नहीं है; इसलिए नारद कहते हैं, "रोते हैं भक्त्त, कंठावरोध हो जाता है; आंखों से आंसू झरते हैं; एक-दूसरे से संभाषण करते हैं, उनके कारण ही यह पृथ्वी स्वर्ग की तरह पूज्य हो गई है'
भक्त्तों का सत्संग करो। तलाश करो उनकी जो "उसके' प्रेम में पगे हों, ताकि तुम्हें भी वह प्रेम छू ले, तुम भी उसमें पग जाओ!
वस्तुतः आना अपने पर ही है। कितना बड़ा चक्कर लगाकर आते हो, यह तुम्हारी मर्जी। शास्त्रों से गए तो बहुत बड़ा चक्कर है; जबकी परमात्मा द्वार पर खड़ा था, सीधे तुम जा सकते थे।
हमीं थे क्या जूस्तजू का हासिल
हमीं थे क्या आप अपनी मंजिल
वहीं पर आ कर ठहर गया दिल
चले थे जिस राहगुजर से पहले!
तुम्हीं हो मंजिल; तुम्हीं हो मार्ग; तुम्हीं हो खोजनेवाले; तुम्हीं हो खोज; तुम्हीं हो खोजा जाने वाला सत्य!
नारद कहते हैं, त्रिभंग के जो ऊपर उठ गया--ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान; सेवक, सेवा, सेव्य--जो त्रैत के ऊपर उठ गया...। कौन उठता है उसके ऊपर? जो भी प्रेम में डूब जाता है, वही ऊपर उठ जाता है। तुम प्रेम में डूबो, प्रेम में मिटो!
प्रेम का शास्त्र ही एकमात्र धर्मशास्त्र है।

आज इतना ही।

 



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