तुम सदा एकरस, राम जी, राज जी—तीसरा प्रवचन
: दिनांक ३ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
तो पंडित आये, वेद भुलाये, षट करमाये, तृपताये।
जी संध्या गाये, पढ़ि उरझाये, रानाराये, ठगि
खाये।।
अरु बड़े कहाये, गर्व न जाये, राम न पाये थाधेला।
दादू का चेला, भरम पछेला, सुंदर न्यारा ह्वै खेला।।
तौ ए मत हेरे, सब हिन केरे, गहिगहि गेरे बहुतेरे।
तब सतगुरु टेरे, कानन मेरे, जाते फेरे आ घेरे।।
उन सूर सबेरे, उदै किये रे, सबै अंधेरे नाशेला।
दादू का चेला, भरम पछेला, सुंदर न्यारा ह्वै खेला।।
आदि तुम ही हुए अवर नहिं कोई जी।
अहक अति अगह अति बर्न नहिं होइ जी।।
रूप नहिं रेख नहिं, श्वेत नहीं श्याम जी।
तुम सदा एकरस, राम जी, राम जी।।
प्रथम ही आज तैं मूल माया करी।
बहुरि वह कुघब्ब करि त्रिगुन ह्वै बिस्तरी।।
पंच हू तत्व तै रूप अरु नाम जी।
तुम सदा एकरस, राम जी, राम जी।।
भ्रमत संसार कतहूं नहीं वोर जी।
तीनहू लोक में काल कौ सोर जी।।
मनुश्तन यह बड़े भाग्य तै पाम जी।
तुम सदा एकरस, राम जी राम जी।।
पूरि दशहू दिशा सर्ब्ब मैं आप जी।
स्तुतिहि को करि सकै पुन्य नहीं पाप जी।।
दास सुंदर कहे देहु विश्राम जी।
तुम सदा एकरस, राम जी, राम जी।।
भूल जाना तो गये दूर का दुश्वार न था
एक नदीदा खलिश आती रही समझाने
रेगे माजी से झुलसता रहा दिल का गुलशन
फूल खिलते रहे वीराने रहे वीराने
खंदा-ए-जेरलबी है गमे पिन्हां जैसे
गर्मी-ए-शिद्दते-एहसास से जल जाए कोई
और अपने ही बनाये हुए मा' बूद के हाथ
अपनी नाकर्दा गुनाही की सजा पाये कोई
ये ख्याल आता है अब मुझको तेरे नाम के साथ
चंद हर्फों का ये मजमूआ सहीफा तो नहीं?
ये थोड़े-से शब्दों का खेल धर्मग्रंथ तो नहीं हे सकता है। लेकिन मनुष्य
शब्दों के खेल में उलझ गया है। खब्द कोभी सत्य मान लिया है। जैसे कोई "प्रेम' शब्द को प्रेम मान ले, ऐसे "परमात्मा' शब्द को परमात्मा मान लिया है। अनुभव की तो बात भूल गई है, विचार के जाल में लोग उलझे रह गये हैं। और बड़े जाल हैं विचार के। सदियों
का चिंतन-मनन उन जालों के पीछे खड़ा है।
मनुष्य को परमात्मा से रोकने वाली जो बड़ी-से-बड़ी बाधा हो सकती है वह
शास्त्र है। सुनकर एकदम भरोसा भी नहीं आता। क्योंकि हमने तो यही सुना है बार-बार
कि शास्त्र के द्वारा भी आदमी परमात्मा तक पहुंचता है। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता
हूं: शास्त्र से कोई कभी परमात्मा तक न पहुंचा है, न पहुंच समता है। हां,
जो परमात्मा तक पहुंच जाते हैं, उनके सामने
शास्त्र का अर्थ प्रगट हो जाता है। लेकिन पहुंचना पहले है, शास्त्र
का अर्थ पीछे प्रगट होता है।
जो प्रेम जान लेता है उसके सामने प्रेम शब्द का अर्थ भी प्रगट हो जाता
है। जो परमात्मा की झलक पा लेता है उसे परमात्मा शब्द फिर शब्द नहीं रह जाता, पुंजीभूत उसकी झलक हो जाती है। लेकिन जिसने अनुभव नहीं किया है उसके पास
तो कोरा शब्द है,खाली शब्द है। उस मुर्दा शब्द में कोई प्राण
नहीं है। शब्द कितने ही प्यारे हों, मुर्दा हैं। और जीवंत से
मुक्ति है। तुम जीवंत हो--जीवंत से ही मुक्त हो सकोगे। शब्दों के बोझ से दब सकते
हो, मुक्त नहीं। शब्दों के बोझ से बोझिल हो सकते हो, निर्भार नहीं। शास्त्रों की दीवाल ची की दीवाल बन जायेगी तुम्हारे चारों
तरफ। भ्रांति बड़ी पैदा होगी, क्योंकि परमात्मा ही परमात्मा
की बात होगी। और बात ही बात में परमात्मा खो जायेगा
भूल जाना तो गये दूर का दूश्वार न था
एक नादीदा खलिश आती रही समझाने
आदमी तो भूल ही गया होता--बिल्कुल भूल गया होता। कितने वेद हैं, कितने कुरान, कितनी बाइबिल, कितने
धम्मपद! आदमी तो भूल ही गया होता, लेकिन कोई एक चुभन का बुझा
नहीं पाता। उस चुभन पर ही भरोसा करो। उस प्यास को ही तलाशो, उकसाओ,
बढ़ाओ। उस प्यास को ही प्रज्वलित करो। वही प्यास तुम्हें परमात्मा तक
ले जा सकेगी, अन्यथा तुम पंडितों के हाथ में सिर्फ खोषित
किये जाओगे।
पूरी रात, चांद हो आकाश में, फिर झील में
उसकी तस्वीर बनती रहे, और तुम झील की एक तस्वीर ले लो--ऐसी
हालत शास्त्र की है। चांद है आकाश में, झील में प्रतिबिंब
बनता है, फिर तुमने झील की तस्वीर ले ली, तो प्रतिबिंब का प्रतिबिंब तुम्हारी तवीर में पकड़ता है। चांद कहां,
चांद तो बहुत दूर छूट गया।
चांद तो झील की छाया में भी नहीं था, तुम्हारी तस्वीर में
तो होगा कहां? तुम्हारे पास तो तस्वीर की तस्वीर है। ऐसी ही स्थिति
परमात्मा की है। किसी मुहम्मद में कुरान उतरी, परमात्मा
झलका। फिर जब ऋषि ने बोला तो झलक की झलक, तस्वीर की तस्वीर
हो गई। और बात यहीं समाप्त नहीं होती। जब ऋषियों के बोले हुए शब्द तुम्हारे पास
पहुंचते हैं, तो तुम उनमें से क्या अर्थ निकालोगे? यह तो मामला और भी दूर हो गया। तस्वीर की तस्वीर, और
फिर उसमें से तुम अथ्र निकालोगे। और तुम अंधे हो। तुमने कभी चांद देखा नहीं। तुमने
सिर्ह चांद शब्द सुना है। तुम्हें चांद का कुछ पता नहीं है। तुम इस तस्वीर में से
जो अर्थ निकालोगे, वह अर्थ तुम्हारा होगा, उसका चांद से कोई भी संबंध न रह जायेगा। और मजा यह है कि मूल में चांद था।
तस्वीर झील की है; झील में चांद की तस्वीर थी, चांद है। अगर चांद को तुम देख लो तो फिर तस्वीर में भी पहचान जाओगे।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं: शास्ऋ से कोई सत्य तक नीी पहुंचता। लेकिन
सत्य तक पहुंच जाए, तो सभी शास्त्र सत्य हो जाते हैं। सभी शास्त्र गवाही
बन जाते हैं। और अगर यह न हो पाये, तुम्हारे जीवन में
परमात्मा का सीधा अनुभव न हो पाये, तो बड़ी मुश्किलें हो जाती
हैं।
खंदा-ए-जेरलबी है गमे पिन्हां जैसे
गर्मी-ए-शिद्दते-एहसास से जल जाए कोई
और अपने ही बनाये हुए मा' बूद के हाथ
अपनी नाकर्दा गुनाही की सजा पाये कोई
फिर ऐस मजा होता है, अपने ही हाथ से तुम बना लेते हो
मूर्तियां और उन मूर्तियों से उन पापों की सजा पाते हो जो तुमने कभी किये नहीं। वे
मूर्तियां झूठी; तुम्हारे हाथ की बनाई हुई मूर्ति सच नहीं हो
सकती। तुम ही अभी सच नहीं हो; तुम्हारे हाथ, तुम्हारी तूलिका, तुम्हारी छैनी-हथौड़ी से सच की
तस्वीर नहीं बन सकती, सच की मूर्ति नहीं बन सकती। और अपने ही
बनाये हुए मा' बूद के हाथ...और फिर अपने ही हाथ से बनाई हुई
इन मूर्तियां के सामने तुम झुकते हो और उन पापों की सजा पाते हो जो तुमने कभी किये
भीनहीं।
तुम्हें समझाया गया है: यह पाप, वह पाप...। इतने पाप
तुम्हें समझा दिये गये हैं कि तुम्हें लगता है, मैंने बहुत
पाप किये। तुम्हारे भीतर अपराध का भाव पैदा होता है और तुम अपने ही हाथ की बनाई
हुई मूर्तियों के सामने झुकते हो, प्रार्थना करते हो,
क्षमा मांगते हो, सहारे खोजते हो। यह दशा बड़ी
विक्षिप्त है। और पागलपन क्या होगा?
फिर तुम कुछ शब्द जोड़ लेते हो, इकट्ठे कर लेते हो।
बुद्ध ने कुछ लिखा नहीं। फिर लोगों ने शब्द इकट्ठे कर लिए। महावीर बोले, शब्द इकट्ठे कर लिए। मुहम्मद बोले, शब्द इकट्ठे कर
लिए। फिर उन शब्दों को तुम धर्मशास्त्र समझ रहे हा। धर्म को खोजना हो तो परमात्मा
के विस्तीर्ण विकास में, विस्तीर्ण आकाश में खोजा। इस
विस्तार में खोजो। वृक्षों पर उसके हस्ताक्षर हैं। पर्वतों, पहाड़ों
पर उसका अंकन है। सरिताओं में उसकी थोड़ी-सी झलक है। सागरों में उसका गर्जन है। जब
आकाश में बादल घिरें, तो गौर से सुनना--शायद वेद की कोई ऋचा
पकड़ में आ जाये। जब पक्षी बोलें और मोर नाचें, तो जरा गौर से
देखना--शायद कृष्ण की कोई अदा भा जाये। जब कोयल गाने लगे तो डूबना उसके गीत
में--शायद कुरान की कोई आयत उतनती हो। मगर आदमी की बनाई हुई कताबों में उसे खोजने
मत जाना। उन्हें किताबों के जंगल में लोग उटक गये हैं।
सुंदरदास के आज के वचन इसी मजत्वपूर्ण बात को तुम्हें याद दिलाना
चाहते हैं।
तो पंडित आये, वेद भुलाए, षटकरमाये, तृपताये।
जी संध्या गाये, पढ़ि उरझाये, रानाराये, ठगि खाये।।
अदभुत वचन हैं! जब भी यहां कभी कोई ज्ञान की ज्योति जलती है, कोई प्रबुद्ध होता है, तो जल्दी ही पंडित घिर आते
हैं, जल्दी ही पंडित उसके आसपास इकट्ठे हो जाते हैं।
तुमने एक अदभुत बात सोची कभी? जैनों के चौबीसों
तीर्थंकर क्षत्रिय है; एक भी ब्राह्मण नहीं है। लेकिन हर
तीर्थंकर के आसपास जो उनके प्रमुख शिष्य हैं, वे सब ब्राह्मण
हैं। महावीर के ग्यारह गणधर सब ब्राह्मण हैं। महावीर क्षत्रिय हैं। लेकिन उनके
शिष्य,उनके आसपास जो एक जाल इकट्ठा हो गया, वह ब्राह्मणों का हैं, वह पंडितों का है। वे महावीर
के शब्द इकट्ठे कर रहे हैं। वे इस शब्द से बड़ी दुकान चलायेंगे, इस शब्द से बड़ा व्यवसाय चलायेंगे। चलाया उन्होंने। इसी शब्द के जाल में
महावीर को डुबाया उन्होंने। जब भी कोई ज्योति जलती है--कोई कबीर उठा, कोई नानक--कि जल्दी ही पंडित की इतनी बात समझ में आ जाती है। पंडित चालाक
है। उसे यह बात समझ में आ जाती है कि इन शब्दों में हीरों की झलम है। ये शब्द
बिकेंगे, ये काम आयेंगे। इनको संजो कर रख लेना चाहिए।
तो पंडित आये...। और इन्होंने वेद भुलवा दिये। तुम सोचते हो, ये वेद के रक्षक हैं? पंडित और वेद का रक्षक?
तो फिर हत्या कौन करेगा वेद की? फिर हत्या
किसने की वेद की? पंडित और पुरोहितों ने। उन्होंने वेद में
फिर ऐसे-ऐसे अर्थ डाले कि ऋषि अगर अपनी कब्रों से उठ आयें तो छाती पीटें और रोएं।
फिर उन्होंने महावीर की वाणी में ऐसे-ऐसे अर्थ संजो दिये। और कुशलता से, और ऐसी कुशलता से कि तुम तर्क भी न कर सकोगे।...बड़ी तर्कनिष्ठा से। वेद के
ऋषियों ने तो जो कहा था वह तो उनका स्वांतः अनुभव था। पंडितों ने उस अनुभव में
तर्कजाल फैलाये। उन्होंने तो सिर्फ घोषणाएं की थी। उन घोषणाओं के पीछे प्रमाण नहीं
थे। पंडितों ने प्रमाण जुटाए।
शायद यह भी हो सकता है--कई बार ऐसा होता है, मनुष्य का दुर्भाग्य है मगर होता है--कि अगर तुम्हें कोई वेद का जीवंत ऋषि
मिल जाये तो शायद उसकी बात तुम्हारी समझ में न पड़े। क्योंकि वह तुम्हारी भाषा नहीं
बोलेगा, वह अपने लोक की भाषा बोलता है। वह उस लोक की भाषा
बोलता है जहां उसका निवास है। वहां से बोलता है, दूरी से
बोलता है। पंडित तुम्हारी भाषा बोलता है। तुम्हारे तर्क और गणित का उपयोग करता है।
पंडित जानता है कौन-सी बात तुम्हें रुचेगी वही बोलता है। ऋषि तो वही बोलता है जैसा
है। पंडित वह बोलता है जो तुम्हें रुचेगा। पंडित तुम पर ध्यान रख कर बोलता है।
इसलिए पंडित की बात तुम्हें जल्दी समझ में आ जाती है। ऋषियों से तुम चूक जाते हो,
पंडितों के कब्जे में पड़ जाते हो। और पंडित है, जो हत्या करता है।
कृष्ण की गीता की एक हजार व्याख्याएं! ये प्रसिद्ध व्याखयाएं हैं। जो
इतनी प्रसिद्ध नहीं हैं, वैसी तो और भी हजारों व्याख्याएं हैं। और जिसकी भी व्याख्या
तुम पढ़ोगे, लगेगा यही ठीक है, यही
कृष्ण ने कहा होगा। सब अपनी व्याख्या कृष्ण पर थोप देते हैं। अगर तुम अद्वैतवादी
हो तो तुम कृष्ण में अद्वैतवाद खोज लोगे, अगर द्वैतवादी हो
तो द्वैतवाद खोज लोगे। अगर भक्त हो तो भक्ति खोज लोगे। और अगर कर्म खोजना है तो
कर्म खोज लोगे। एक बात साफ है कि तुम कृष्ण के दर्पण में अपनी तस्वीर खोजते हो।
कृष्ण की तस्वीर से तुम्हें कुछ लेना-देना नहीं है? तुम जो
हो वही खोजते हो। तुम अपने लिए सहारा खोजते हो। तुम अपने लिए आभूषण खोजते हो। तुम
अपने घर को और मजबूत कर लेते हो। तुम अपने अहंकार को और सजा लेते हो। तुम्हारा
श्रृंगार और बढ़ जाता है।
तो पंडित आये, वेद भुलाए...। आमतौर से हम समझते हैं, पंडितों ने वेद कि रक्षा की है। उन्होंने ही, उन्होंने
ही नष्ट किया है। वे ही जिम्मेदार हैं। सीधे सरल लोग, शांत
लाग, जिनके मन में विचारों की तरंगें नहीं, ऐसे लोग, वेद को पुनः जन्म दे सकते हैं। वे असली
रक्षक हैं। और रक्षा का एक ही उपाय है। अगर तुम वेद की रक्षा करना चाहते हो,
ता वेद की रक्षा नहीं करनी पड़ती, स्वयं के
भीतर वैसी भावदशा करनी पड़ती है पैदा, जहां वेद पुनः पैदा,
हो सके, पुनः जन्म सके।
ध्यान में वेद का जन्म होता है; ज्ञान में दब जाता है
और मर जाता है। ध्यान और ज्ञान का भेद खूब ख्याल में रख लेना। अगर बनना हो कुछ,
पाना हो कुछ, पहचानना हो कुछ, जीवन के राज समझने हो, तो ध्यान पर जोर देना,
ज्ञान से बचना।
तो पंडित आये, वेद भुलाएं, षटकरमाये, तृपताये।
उन्होंने बड़ा जाल पैदा कर दिया--षटकर्म, तर्पण, पूजा, पाठ, हवन! उन्होंने अतना
उपद्रव खड़ा कर दिया कि उसके उपद्रव से तुम कभी पार ही न जा पाओगे। बच्चा पैदा होता
है कि पंडित उसकी गर्दन पकड़ लेता है। पैदा होने से मरने तक, मर
जाने के बाद तक पंडित कब्जा रखता है। मरने के बाद तीसरा करवायेगा और तेहरवीं
करवायेगा। अब तुम मर भी गए, अब भी पंडित पीछे लगा है। चूस ही
लेगा आखिरी दम तक, तन जाने के बाद भी चूसता रहेगा। और मनुष्य
फंस जाता है जाल में क्योंकि मनुष्य को कुछ पता नहीं है। क्या है सत्य, उसे कुछ पता नहीं। इसलिए कोई भी झूठ अगर व्यवस्था से, तर्क-नियोजित ढंग से प्रस्तावित किया जाये, तो आदमी
माने न तो क्या करे?
तो पंडित आये, वेद भुलाए, षटकरमाये, तृपताये। और तृप्ति देते रहे, तुम्हें तर्पण करवाते
रहे। और तृप्ति कहां हुई है? तुम वैसी ही प्यास से भरे हो,
जैसे तुम सदा से भरे थे।
रेगे-माजी से झुलसता रहा दिल का गुलशन
फूल खिलते रहे, वीराने रहे वीराने।
तृप्तियां भी चल रही हैं और कहीं कोई तृप्ति मालूम होती नहीं। जरूर
फूल झूठे खिल रहे होंगे। क्योंकि वीराने वीराने के वीराने हैं। रेगिस्तान
रेगिस्तान का रेगिस्तान है। तो तुम सपने देख रहे हो। पंडितों ने तुम्हें सपने
देखने की कला सिखाई है।
जी संध्या गाये, पढ़ि उरझाये, रानाराये, ठगि खाये। बड़ा आयोजन किया है पंडितों ने।
संध्या गाये...! भजन करते, पूजन करते, प्रार्थना
करते, अर्चन करते--और सब झूठ, सब ओंठ
पर, कंठ तक भी नहीं। हृदय की तो बात ही मत उठाओ।
पंडितों को पूजा करते देखा है? यज्ञ करते, बड़े यज्ञ करते--करोड़ों रुपये फुंकवाते रहते हैं। और इनके हृदय में कहीं
कोई पूजा का भाव नहीं है, न कोई अर्चना हैं। इनकी आंखों में
कहीं कोई दिया जलता दिखाई नहीं पड़ता आरती का। न इनके जीवन में कोई गंध दिखाई पड़ती
है। मंदिरों में धूप-दीप जलाओ, लेकिन न जब तक तुम्हारे मन के
मंदिर में धूप-दीप नहीं जलेंगे, क्या होगा?...अग्नि में फेंकते रहो घी।
प्रतीक को अंधे की तरह पकड़ लेते हैं लोग। घी प्रतीक है मनुष्य के
अहंकार का। दूध से दही बनता, दही से मक्खन बनता, मक्खन से घी बनता। घी दूध की अंतिम प्रक्रिया है--सूक्ष्मतम प्रक्रिया है।
घी आखिरी फूल है। ऐसे ही अहंकार हमारे जीवन की सूक्ष्मतम प्रक्रिया है। अग्नि में
कुछ फेंकना हो तो अपने अहंकार को फेंक दो; वह तुम्हारा
सुक्ष्मतम रूप है। तुम्हारा अहंकार जल जाये अग्नि में, यज्ञ
पूरा हुआ। मगर इस यज्ञ के लिए किसी पंडित के बीच में आने की कोई जरूरत नहीं,
किसी दलाल की जरूरत नहीं। जीवन-यज्ञ तुम ही कर लोगे। तुम ही अग्नि
हो, तुम ही अग्नि में डाले जानेवाले घी, और तुम ही पुरोहित हो। तुम ही यज्ञमान। सब तुम हो।
मगर पंडित यह तुम्हें याद नहीं दिला सकता। पंडित तो कहता हज, तुम, अकेले तो भटके हो और भटकते रहोगे। मेरा हाथ
पकड़ो, मैं तुम्हें ले चलता हूं। और तुम कभी यह भी नहीं देखते
इस पंडित की आंख में झांककर कि इसे क्या मिला है। कभी तुम इसके हृदय में टटोलते भी
नहीं। कभी तुम इसके पास सुगंध भी लेने की कोशिश नहीं करते। यह उन्हें लोभ, उन्हीं माया, उन्हीं मोह, उन्हीं
उपद्रवों में घिरा है, जिनमें तुम घिरे हो। शायद ज्यादा ही
घिरे हो। तुममें कुछ भेद भी नहीं मालूम पड़ता, फिर भी तुम
इसके चक्कर में पड़ जाते हो। क्योंकि इसने तुम्हारे लोभ का प्रज्जवलित कर दिया है।
और तुम्हारे भय को भी बहुत भड़का दिया है। यह पंडित के हाथ में शास्त्र है। इन दो
के आधार पर तुम्हारा शोषण चला है, चल रहा है। और जब तक इन दो
से न जागोगे, शोषण जारी रहेगा। एक तो तुम्हें भय दिया है
बहुत, कि अगर तुमने ऐसा न किया ते नर्क में पड़ोगे।
..."अब तुम्हारे पिता चल बसे हैं, अब उनकी तेरहवी करो।
अब तुम्हारे पिता चल बसे हैं, अब एक वर्ष हो गया, अब बरसी करो।' अब जो चल बसे हैं, उनके नाम पर वह शोषण कर रहा है। वह तुम्हें डरवाता है, अगर बरसी न की तो पिता का ऋण नहीं चुकेगा, सड़ोगे
जन्मों-जन्मों।
आदमी घबड़ाता है। आदमी वैसे ही घबड़ाया हुआ है। आदमी वैसे ही कमजोर है।
उसके पैर वैसे ही कंप रहे हैं। और पंडित को एक बात समझ में आ गयी है कि तुम्हारे
पैर कंपाने में देर नहीं लगती, जरा में कंप जाते हैं। बड़े
सूक्ष्म उसने आयोजन कर लिए, वह तुम्हारे पैर कंपा देता है।
उसने नर्क के बड़े बीभत्स चित्र खीचे हैं--लपटें हैं जलती हुई, उन में फेंके जाओगे, सड़ोगे। इतना खतरा कौन मोल ले!
चलो थोड़ा-बहुत खर्च होता है, बरसी भी करवा दो। सुरक्षा
रहेगी। फिर उसने लोभ भी दीये। इन दो के बीच में आदमी को कसा है। इन चक्की के दो
पाटों के बीच आदमी पीसा जा रहा है।
तो पंडित गाये, पढ़ि उरझाये...।
और पंडित तुम्हें सुलझाता नहीं, उलझाता है। सुलझाने
में उसका लाभ भी नहीं है कुछ। तुम जितने उलझो उतना ही लाभ है। इसीलिए तुमने देखा,
अगर मुसलमान पंडित है, मौलवी है, तो वह अरबी में बात करता है, अरबी ग्रंथों के उल्लेख
करता है, जो तुम्हारी समझ में नहीं आते। हिंदू है तो वह
संस्कृत के उल्लेख करता है। उन वचनों का अर्थ अगर किया जाए, शायद
तुम्हें वे वचन उल्लेख करने जैसे भी न लगे। अगर वह ईसाई है तो हिब्रू, अरेमैक उदधृत करता है। भाषाएं तुम्हारी समझ में नहीं आनी चाहिए क्योंकि
सवाल उलझाने का है, सुलझाने का नहीं है।
अगर तुम वेद का अनुवाद पढ़ो तो तुम बड़े चौंकोगे, इस वेद में है क्या! सौ में निन्यानबे प्रतिशत कचरा है। हीरे तो कहीं-कहीं
हैं। लेकिन जब संस्कृत में उल्लेख किय जायेगा तो तुम्हारी सतझ के बाहर होता है।
तुम देखते हो तुम डाक्टर के पास जाते हो तो डाक्टर जब प्रेसक्रिप्शन
लिखता है...हिंदी में, मराठी में लिख दे, गुजराती में,
तुम्हें खुद ही समझ में आ जाये कि यह दो पैसे की चीज के लिए दस
रुपये!--लेकिन लैटिन और ग्रीक शब्दों का प्रयोग किया जाता है। तुम चमत्कृत होते हो
कि कोई बड़ी ऊंची दवा! चले प्रेसक्रिप्शन लेकर बड़े प्रसन्न, कि
लाभ होना ही है। फिर देखते हो डाक्टर इस ढंग से लिखता है कि सिवाय दूसरे डाक्टर के
कोई पढ़ भी न सके। लिखने की भी कला...क्योंकि लिखा भी इस तरह जाना चाहिए कि
तुम्हारी समझ में न आये, नहीं तो जाकर घर में घर में शब्दकोश
में देख लो, कि है क्या यह मामला! सच तो, यह है, डाक्टर इस तरह लिखता है, कि पता नहीं शुद भी समझेगा कि नहीं, दुबारा जब पढ़ना
पड़े।
यह पांडित्य जाल है। संत लोकभाषा में बोले। सुंदरदास लोक-भाषा में
बोले। लोगो की भाषा। वेद के ऋषि जब बोले थे तो संस्कृत लोगों की भाषा थी। महावीर
जब बोले तो प्राकृत लोगों की भाषा थी। बुद्ध जिनसे बोले, उनकी पाली भाषा थी। लेकिन अब बौद्ध भिक्षु अभी भी, बौद्ध
पंडित अभी भी पाली उदधृत कर रहा है। अब किसी की भाषा नहीं है पाली। न प्राकृत किसी
की भाषा है। न संस्कृत किसी की भाषज्ञ है। जीसस जब बोले तो अरेमैक भाषा थी लोगों
की, इसलिए बोले।
संत सदा लोकभाषज्ञ में बोले। बोला जाता है कि लोग समझें, इसीलिए। इसलिए तो नहीं कि लोग समझें न लेकिन पंडित हमेशा उस भाषा में
बोलता है जिसे लोग न समझें। वह वर्षों मेहनत करता है उस भाषा को सीखने की जो लोग
नहीं जानते। वहीं उसका राज है, वहीं उसका रहस्य है।
मैंने सुनी है एक सूफी कहानी कि एक आदमी चीन गया। तुर्की था! और बड़ा
प्रभावशाली आदमी था। और चीन में लोगों को धर्म की ऊंची-ऊंची बातें समझाता था, लेकिन समझाता था तुर्की भाषा में। जब वह तुर्की भाषा बोलता था, लोग चमकृत हो जाते थे। नाटकीय था। बड़े ढंग से बोलता था। बड़ी भाव-भंगिमा
में आ जाता था। आंसू झरने लगते। कभी-कभी मस्ती में नाचने लगता मगर बोलता तुर्की
में। सैकड़ों लोग सुनने आते थे, भाव-विभार होते थे। लेकिन फिर
ऐसा हुआ कि तुर्क देश से कुछ दस-पंद्रह लोगों का एक जत्था...खबर पहुंच गई तुर्क
देख तक कि वह आदमी बड़ा प्रसिद्ध हो गया है, उसको बहुत ज्ञान
उपलब्ध हुआ है, परमात्मा का अनुभव हुआ है...तो एक जत्था उसके
दर्शन करने आया। अब वे सब तुर्की जानते थे। जब उसकी बातचीत सुनी तो वे बड़े हैरान
हुए, उसमें धर्म का तो उल्लेख ही नहीं था। वह तो अंट-संट बोल
रहा था। तो कुछ भी बोल रहा था। और लोग मगन होकर सून रहे थे। हां, नाटक पूरा कर रहा था। तुर्की तो बड़े हैरान हुए, उन्होंने
उसे पकड़ लिया। उसकी पिटाई भी की। उसे गांव के बाहर सदेड़ दिया और कहा कि तुम यह
क्या कर रहे हो? वह आदमी जब वापिस लौटा तो उसक गांव के लोगों
ने पूछा कि कहो, यात्रा कैसी रही?
उसने कहा: यात्रा बड़ी गजब की रही! जब तक ये दस-पंद्रह तुर्की नहीं
पहुंचे, तब तक बड़ा आनंद था। बड़ा रहस्य चल रहा था, मगर इन दुष्टों ने सब खराब कर दिया।
पंडित की आकांक्षा सुलझाने की नहीं है, उलझाने की है।
पंडितों की भाषा सुनते हो? इस तरह की भाषा का उपयोग होता है
कि तुम्हें ऐसा लगे कि कोई बड़ी गंभीर बात की जा रही है, बड़ी
गहरी बात की जा रही। और कुछ भी नहीं कहा जा रहा। गहरी बात सदा सरल होती है। कीमती
बात सदा सहज होती है और सदा लोकभाषा में होती है। जो लोकभाषा होती है, उसी में कही जाती है।
जी संध्या गाये, पढ़ि उसझाये...।
और पढ़-पढ़कर लोगों को उलझाते हैं, सुलझाते नहीं,
क्योंकि उलझाने से ही धंधा चल सकता है। लोग उलझें तो पूछने आते हैं।
अब मेरे पास लोग आ जाते हैं। धीरे-धीरे उनकी संख्या कम होती चली गई है, क्योंकि उस तरह की बातों में मेरा कोई रस नहीं है। मेरे पास लोग आ जाते
हैं। वे इस तरह के प्रश्न लाते हैं, कि लगें कि बड़े गहरे
आध्यात्मिक प्रश्न हैं। लेकिन वे आध्यात्मिक प्रश्न नहीं होते, सिर्फ पंडितों का उलझाव होता। कोई जैन आ जाता है, वह
कहता है: निगोद के संबंध में कुछ समझाइये। निगोद...! सुना है नाम कभी? जैनों के अतिरिक्त कोई नहीं जानता कि निगोद क्या है। मैं उससे पूछता हूं,
तुझे निगोद का प्रयोजन क्या है? तू निगोद से
चाहता क्या है? यह तेरा प्रश्न हो नहीं सकता। यह किताबी है,
क्योंकि यह और कोई नहीं पूछता; जिसने तेरी
किबात नहीं पढी, वह यह नहीं पूछता कि निगोद क्या है। सारी
दुनिया में तने करोड़-करोड़ लोग हैं, केई नहीं पूछता कि निगोद
क्या है। मुसलमान आता, ईसाई आता,ख
पारसी आता, यहूदी आता, हिंदू आता,
कोई नहीं पूछता निगोद क्या है। तो निगोद कोई जीवन का प्रश्न नहीं हो
सकता। हिंदू भी पूछता है कि क्रोध क्या है, और मुसलमान भी
पूछता है कि क्रोध क्या है, क्रोध से कैसे मुक्त हो जाऊं?
फिर चाहे हिंदुस्तान में रहता हो, कोई,
चाहे पाकिस्तान में, कुछ फर्क नहीं पड़ता।
कल ही एक मित्र पाकिस्तान से मुणसे शाम को पूछ रहे थे। फिरोज उनका नाम
है। बड़े प्यार से भरे पाकिस्तान से आये। पूछ रहे थे कि बड़ा क्रोधी हूं, मेरे क्रोध के लिए कोई उपाय बतायें। यह प्रश्न वास्तविक प्रश्न है।
क्योंकि इसका किसी से कोई लेना-देना नहीं। हिंदू भी क्रोधी है, मुसलमान भी क्रोधी, ईसाई भी क्रोधी, जैन भी क्रोधी, बौद्ध भी क्रोधी। निगोद... निगोद का
क्या संबंध? ये शब्द किताबी ह, मगर इन
पर लोग बैठे हैं और बड़ा विचार कर रहे हैं। और ऐसे सभी धर्मों में शब्दों का जाल
फैला हुूआ है। इन शब्दों के जाल से बाहर आना है।
सुंदरदास कहते हैं--जी संध्या गाये, पढ़ि उरझाये, रानाराये, ठगि खाये।
और छोटे-मोटों को तो ठगा तो ठीक है--राना और राय--बड़े-बड़े सम्राटों को
भी ठगा। बड़े सम्राट का मतलब बड़े लुटेरे। तो उनको भी पंडित ने लूटा है। तो कितने ही
बड़े लुटेरे रहे हों...और क्या है? सम्राट का मतलब क्या होता है?
जिसने खूब लूट-खसूट कर ली। छोटे डाकू जेलों में होते हज, बड़े डाकू इतिहास की किताबों में। बड़े डाकुओं के नाम--नेपोलियन, सिकंदर, नादिरशाह--ये बस? डाकुओं
के नाम हैं, बड़े हत्यारों के नाम हैं। छोटे-मोटे हत्यारे जेल
में सड़ते रहते हैं, बड़े हत्यारे महापुरुष हो जाते हैं। बड़े
डाकू महापुरुश हो जाते हैं। लेकिन पंडित की कुशलता ऐसी है कि वह चाहे सिकंदर हो कि
चाहे नेपोलियन हो, कि चाहे नादिरशाह हो कि चाहे चंगीजखान हो,
कोई भी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। चाहे
हिटलर हो, पंडित से नहीं बच सकता।
मैंने एक कहानी सुनी है, कहानी ही होगी,
मगर अर्थपूर्ण है। एक यहूदी ज्योतिषी बड़ा प्रसिद्ध था जर्मनी में।
यहूदी तो मारे जा रहे थे, लेकिन उस ज्योतिषी को लोग मारने से
डरते थे, क्योंकि उसको बड़ी भविष्य की दृष्टि थी। और वह आदमी
खतरनाक था। और उसके अभिशाप लग जाते थे। कई बार हिटलर तक खबर आयी कि इस आदमी का
क्या करना है? हिटलर ने कहा, उसे मेरे
पास बुलाओ। ज्योतिशी को बुलाया गया। हिटलर ने उससे पूछा कि मैंने सुना है तुम
भविष्यवाणी करना जानते हो। तुम मुझे यह बताओ, मेरी मृत्यु कब
होगी?
उसने हिटलर की तरफ देखा, हाथ हाथ में लिया,
रेखाएं पढ़ी, कुछ गणित बिठाया और उसने कहा कि
दो बातें कहना चाहता हूं: एक--मेरे मरने के तीन दिन बाद तुम मरोगे। (...अब यह भी
झंझट की बात हो गई।) और जिस दिन भी तुम मरोगे, वह दिन भी मैं
बता सकता हूं, अगर तुम चाहते हो तो।
हिटलर थोड़ा घबड़ाया, क्योंकि पहली बात उसने कही कि
मेरे मरने के तीन दिन बाद, इसमें उसने अपनी रक्षा तो कर ही
ली। कहते हैं, हिटलर ने उसके लिए फिर एक अलग स्थान बनवा दिया,
और डाक्टर भी लगा दिये। कि जितनी देर यह बचे उतना अच। इसको मारा तो
जा ही नहीं सकता। इसको मारा तो तीन दिन बाद तुम गये। अब इतनी झंझट कौन ले! और
हिटलर ने कहा कि ठीक है, दिन भी बता दो। तो उसने कहा कि तुम
यहूदियों के पवित्र धार्मिक दिन पर मरोगे। हिटलर ने पूछा, कौन-सा
पवित्र धार्मिक दिन, क्योंकि अनेक दिन पवित्र है, और अनेक धार्मिक हैं। उसने कहा, अ यह मत पूछो। तुम
जिस दिन भी मरोगे, वह यहूदियों के लिए पवित्र धार्मिक दिन
होगा।
पंडित की कुशलता ज्यदा है, बड़े-से-बड़े हत्यारे
भी उसके सामने झुक जाते हैं।
जी संध्या गाये, पढ़ि उरझाये, रानाराये ठगि, खाये। बड़े-बड़े ठग--राना और राजा--उनको
भी पंडित ठग कर खा गया।
अरु बड़े कहाये, गर्व न जाये, राम न पाये
थाघेला।
सुंदरदास कहते हज, एक बात मुझे पता लग गई है दादू
के चरणों में बैठकर। जो मैंने राम की झलक देखी है दादू की आंखों में, उससे एक बात का पता चल गई है कि ये सब बड़े-बड़े पंडित, महापंडित कहने भर के बड़े हैं। और अगर तुम्हारे पास थोड़ी-भी कसौटी हो इनको
जांचने की, तो कसौटी है; इनके अहंकार
को पहचान लेना।
अरु बड़े कहाये, गर्व न जाये...। जहां अहंकार है वहां बड़प्पन नहीं।
अहंकार क्षुद्र है। अहंकार होता ही क्षुद्र को है। अहंकार का अर्थ ही यह होता है
कि तुम अपने भीतर जानते हो कि तुम हीन भाव से भरे हो। अहंकार हीन भाव से बचने का
उपाय है।
पश्चिम का बड़ा विचारक, मनोवैज्ञानिक--अल्फ्रेड
एडलर--इस संबंध में यमझने योग्य है। एडलर का कहना है कि जितने लोग तुम अहंकारी
पाते हो, अगर गौर से खोजोगे तो उनके भीतर तुम हीनता की ग्रथि
पाओगे, इंफीरियरटि कांप्लेक्स पाओगे। उनको भीतर से पता लगता
है कि हम नाकुछ हैं। यह नाकुछ का कीड़ा का ता
है, चुभता है। यह कांटा जीड़ा देता है। इसमें बचने का एक् ही
उपाय है कि वे अने चारों तरफ घोषणा करें और सिद्ध करें कि हम बहुत कुछ हैं। धन
पाकर सिद्ध करें कि हम बड़े हैं। पद पाकर सिद्ध करें कि हम बड़े हैं। कुछ न हो सके
तो ज्ञान पाकर सिद्ध करें कि हम बड़े हैं। यह भी न हा सके तो त्याग करके सिद्ध करें
कि हम बड़े हैं। मगर कुछ करके सिद्ध करना हागा कि हम बड़े हज, क्योंकि
भीतर मालूम उन्हें पड़ रहा है कि हम छोटे हैं।
जिस आदमी को भीतर चलता है कि
हम परमात्मा के अंग हैं--कौन छोटा, कौन बड़ा? जिसका पता चलता है कि मैं परमात्मा हूं वह छोटे-बड़े के बार हो गया। अब कोई
छोटा नहीं है, अब कोई बड़ा नहीं है, और
शेष सब भी परमात्मा हैं। जिसने परमात्मा के जाना, उसने यह भी
जाना कि मैं परमात्मा हूं। राह के किनारे पड़ा हुआ, पत्थर को
जाना, उसने यह भी जाना कि मैं परमात्मा हूं। राह के किनारे
पड़ा हुआ पत्थर भी उतना ही परमात्मा है। सोया होगा गहरा परमात्मा पत्थर में,
वृक्षों में थोड़ा-थोड़ो जागा है, पशुओं में
थोड़ा और, आदमियों में थोड़ा और--बुद्धों में पूरा जागा है।
मगर ये भेद जागने के हैं। स्वभावतः यह सारा अस्तित्व परमात्मामय है। यहां कौन छोटो,
कौन बड़ा! कैसा गर्व?
इसलिए ख्याल रखना, वस्तुतः जिसने जाना है, न तो उसमें गर्व होता है और न विनम्रता होती है। वह दूसरी बात भी ख्याल
में रख लेना, क्योंकि विनम्रता गर्व का ही संस्कारित रूप है।
यह मत सोचना कि विनम्र आदमी अहंकारी नहीं होता। विनम्र आदमी बहुत अहंकारी होता है
लेकिन उसका अहंकार पोलिशड है। उसके अहंकार पर शिष्टाचार है। उसने अहंकार पर फूल
लगा दिये। उसने अहंकार पर इत्र छिड़क दिया है। उसके अहंकार से बदबू नहीं आएगी।
अहंकार के घाव में मवाद भरी, है लेकिन ऊपर से उसने इत्र दिड़क
दिया है।
विनम्र आदमी उतना ही अहंकारी होता है, जितना अविनम्र।
वस्तुतः जिस आदमी का अहंकार गया वह न विनम्र होता है, न
अविनम्र। जिसका अहंकार गया वह तो होता ही नहीं। एक शून्य भाव होता है, सत्ता मात्र
होती है।
अरु बड़े कहाये, गर्व न जाये, राम न पाये
थाघेला।
राम का अभी कुछ पता नहीं चला, इतनी बात पक्की हो
गई। क्योंकि राम का पता चल जाये तो फिर कैसा गर्व, फिर कैसे
विनम्रता! यह बात ही गई। वे तो अहंकार के ही दो खेल थे, अहंकार
के ही दो रूप थे। एक अहंकार कहता है, मुझसे बड़ा कोई नहीं;
दूसरा अहंकार कहता है, मैं तो आपके चरणों की
धूल हूं। मगर हूं! और अब जब कोई आदमी आपसे कहता है मज आपके चरणों की धूल हूं,
जरा उसकी आखों में गौर से देखना। वह यह कह रहा है--"देखी मेरी
विनम्रता, अब तो स्वीकारो! अब तो झुको, अब तो नमस्कार करो! मैं तुम्हारे चरणों की धूल हूं!' वह तुमसे यह कह रहा है कि तुम इनकार करो। तुम कहो कि नहीं-नहीं, आप और चरणों धूल!
अगर कोई तुमसे कहे कि मैं आपके चरणों की धूल हूं और तुम कहो कि हमें
तो पहले से ही पता था, बिलकुल ठीक कह रहे हो, आप सच ही
कह रहे हो, यत प्रतिशत सच है--तो देखना, वह आदमी नाराज हो जायेगा। वह कह नहीं रह था, उसके
कहने का यह मतलब नहीं था कि आप मान ही लो। उसके कहने का यह मतलब था, आप इनकार करो, आप कहो कि नहीं, नहीं, आप और चरणों की धूल! आप जैसा महापुरुष,
चरणों की धूल! वह इसकी प्रतीक्षा कर रहा था।
मैंने सुना है, एक फकीर मर रहा था। उसके शिष्य उसके चारों तरफ इकट्ठे
थे। एक शिष्य ने कहा कि हमारा गुरु...ज्ञानी बहुत देखे मगर जो पांडित्य, जो अध्ययन, जो मनन की क्षमता हमारे गुरु की थी,
किसी की भी नहीं थी। आज पृथ्वी खाली हो जायेगी ज्ञान से।
दूसरे ने कहा: ज्ञान तो ठीक है, मगर त्याग में भी
जितना हमारे गुरु ने छोड़ा, किसने छोड़ा? राजमहल छोड़ा धन, संपति छोड़ी, परिवार
छोड़ा। कहां फूलों में पला आदमी, कांटों में चला! इसका त्याग
अप्रतिम था।
और तीसरे ने कहा: इसकी करुणा, इसका प्रेम। और ऐसी
वे प्रसंसा करते रहे। और जब सब चुप हो गये, जब सारी प्रशंसा
खत्म हो गई, तो गुरु ने आंख खोली और उसने कहा: कोई मेरी
विनम्रता की तो बात करो। मेरी विनम्रता भूल ही गये।
अब विनम्रता की जो याद दिला रहा है, कैसे विनम्र होगा?
जिसे विनम्रता काखुद भी अनुभव हो रहा है, वह
कैसे विनम्र होगा? जिसे विनम्रता का खुद भी अनुभव हो रहा है,
वह कैसे विनम्र होगा?
राम न पाये थाघेला।
दादू का चेला, भरम पछेला, सुंदर न्यारा ह्वै
खेला।
सुंदरदास कहते हैं: लेकिन मैं दादू के चरणों में क्या झुका, दादू का शिष्यत्व मैंने क्या स्वीकार किया, सब हो
गया। जो शास्त्रों के पढ़ने से नहीं होता वह हो गया। जो क्रियाकांड करने से नहीं
होता वह हो गया। जा षटकर्मों में नहीं है, वह घटा। न तो पढ़ने
से कुछ मिला, न संध्या करने से कुछ मिला, न यज्ञ-हवन करने से कुछ मिला। वह गुरु की आंख में झांककर मिल गया। दादू का
चेला...!
जीवंत हो कोई, तो ही तुम उसके साथ जुड़ कर जीवन का अनुभव ले सकते हो।
शास्त्र तो मुर्दा है, शास्ता को खोजो। जिससे शास्त्र पैदा
होते हैं ऐसे किसी व्यक्ति को खोजो। क्रष्ण मिल जायें तो छोड़ना मत साथ। मगर
भगवत-गीता सिर पर लिये मत घूमो। नानक मिल जायें ता छाया बन जाना उनकी, मगर गुरु-ग्रंथ पर सिर मत फोड़ो। कबीर मिल जायें तो डूब जाना उनकी मस्ती
में, फिर भूल जाना सारा सब, फिर जो भी
दांव पर लगाना पड़े लगा देना। मगर कबीरपंथी बरकर, और अब बैठे
हैं कबीर की साखी लिये और कबीर के सबद का विचार कर रहे हैं, इससे
कुछ भी न होगा। सूरज उगता है, तब नमस्कार करो और जब रात आ
जायेगी और सूरज चला जायेगा तब सूरज की तस्वीरों को नमस्कार करते रहना, मगर उनमें रोशनी नहीं होती। दीये की तस्वीर से कहीं रोशनी न होती है।;
जरा टांगकर अपने कमरे में देख लेना। सुंदर से सुंदर दीये की तस्वीर
ले आना और टांग लेना अपने कमरे में, जब रात अंधेरा होगा तो
तुम्हें पता चल जायेगा कि सुंदरदास ठीक कहते हैं। जीवंत दीया चाहिए।
सदगुरु खोजो।
दादू का चेला, भरम पछेला।
और अगर सदगुरु मिल जाये तो भ्रम ऐसे भाग जाता है जैसे रोखनी होने पर
अंधेरा भाग जाता है। ...भरम पछेला। भाग ही जाता है, तुम्हें हटाना नहीं
पड़ता। अगर अटाना पड़े तो उसका अर्थ इतना ही हुआ कि सदगुरु से मिलना नहीं हुआ है।
जहां अभी परमात्मा जीवित है, जहां परमात्मा अभी
उतर रहा है, बह रहा है, जहां झरना सूख
नहीं गया है...। अक्सर तो लोग उन नदियों के किनारों पर बैठे हैं, जहां झरना सूख नहीं गया है...। अक्सर तो लोग उन नदियों के किनारों पर बैठे
हैं, जहां जलधार कब की सूख गई है। प्यासे बैठे हैं। और ऐसा
भी नहीं था कि कभी वहां जलधार नहीं बहती थी--कभी बहती थभ। अब तो रेत ही रेत पड़ी रह
गई है। अब यहां बैठे रहो जन्मों-जन्मों तक, करते रहो पूजा इस
नदी की, अब यहां नदी है कहां? अब फिर
से खोलो, जहां जलधार बहती हो। और मैं तुमसे कहता हूं: बड़ी से
बड़ी नदी भी हो और जलधार न बहती हो तो किस काम की? और छोटे-से
झरने से भी तृप्ति हो जाती है। छोटा-सा झरना भी आह्लादकारी है।
तो यह भी हो सकता है कि न मिले बुद्ध जैसा गुरु, न हो उतना महा नद, लेकिन केई छोटा-सा पहाड़ से फूटता
हुआ झरना भी पर्याप्त है। प्यास के लिए बड़ी नदी और छोटी नदी से कोई फर्क नहीं
पड़ता। और तुंम्हें अगर अपना दीया जलाना है ता कोई जंगल में आग लगे तभी दीया जलाओगे?
छोटा-सा जलता हुआ दीया हो तो पर्याप्त है। उसी के पास अपने को ले
जाओगे तो जल जाओगे।
दादू का चेला, भरम पछेला, सुंदर न्यारा ह्वै
खेला।
सुंदरदास कहते हैं: फिर मैं न्यारा ही हो गया। मैं फिर पंडितों के
चक्कर में नहीं पड़ा, शास्त्र और वेद में नहीं उलझा। मैं भिन्न ही हो गया।
सदगुरु के पास एक न्यारापन पैदा होता है, एक भिन्नता पैदा होती है। एक अद्वितीयता पैदा हाती है। ...सुंदर न्यारा
ह्वै खेला! ...और फिर संसार सिर्फ एक खेल हो जाता है। जिसके पास बैठकर संसार एक
खेल हो जाये, एक अभिनय हो जाये, वही
सदगुरु। जिसके पास बैठकर संसार की सारी गंभीरता विदा हो जाये, जिंदगी एक नाटक रह जाये। यहां का कुछ भी मुल्यवान नहीं है--ऐसा हो तो भी
ठीक है, वैसा हो तो भी ठीक है। किसी सदगुरु की आंख में एक
बार झांक लेना पर्याप्त है, हजारों वर्ष वेद पढ़ने की बजाये।
लबों पे नर्र्म तबस्सुम रचा के घुल जायें
खुदा करे मेरे आंसू किसी के काम आयें
जो इब्तिदा-ए-सफर में दीये बुझा बैठे
वो बदनसीब किसी का सुराग क्या पायें
सदगुरु की आंख से झलकती हुई एक आंवू की बूंद ज्ञान के साकरों से
ज्यादा बड़ी है। सदगुरु के ओठों पर जरा-सी मुस्कुराहट शास्त्रों में आनंद की कितनी
ही चर्चा की गई हो, उससे बड़ी है, जीवंत है। वही
मूल्य है।
तौ ए मत हेरे, जीवंत है। वही मूल्य है।
तब सतगुरु टेरे, कानन, मेरे,
जाते फेरे आ घेरे।।
उन सूर सबेरे, उदै किये रे, सबै अंधेरे
नाशेला।
दादू का चेला, भरम पछेला, सुंदर न्यारा ह्वै
खेला।
तौ ए मत हेरे! तो ए मतवाद में पड़े पागलो, ए व्यर्थ की बकवास में पड़े हुए पागलो। ...तो ए मत हेरे! ...कि मैं हिंदू,
कि मैं मुसलमान, कि मैं ईसाई, कि मैं जैन, कि मैं बौद्ध, कि
मैं सिक्ख, कि मैं पारसी...,। ए मत
हेरे! तो इन मतों के चक्कर में पड़ गये लोगो। ...सब हित केरे...। ये सब दरवाजे मैं
टटोल आया हूं और मैंने यहां परमात्मा नहीं पाया। इन सब द्वारों पर मैंने दस्तक दी
है और भीतर अंधेरा पाया है। ...गहिगहि गेरे बहुतेरे। और बहुत-से लोगों ने इन्हीं
को गह लिया है और भटक गये हैं। तब सतगुरु टेरे...। सुंदरदास कहते हैं: मेरा
सौभाग्य् है कि मजने सदगुरु की टेर सुन ली।
सदगुरु तो सदा ही टेर रहे हैं। ऐसी कोई सदी नहीं, ऐसा कोई समय नहीं, जब कुछ सदगुरु पृथ्वी पर न होते
हो। निश्चित होते हैं। होना ही चाहिए। परमात्मा ने इस पृथ्वी को भुला नहीं दिया
है। इसलिए होते ही रहते हैं। उसक संदेशवाहक सदा मौजूद होते हैं। उसक पैगंबर कभी
समाप्त नहीं हो जाते। यह सिलसिला जारी रहा है, यह सिलसिला
जारी रहेगा। इस सिलसिले को खतम करने की बहुत कोशिश की जाती है, क्योंकि यह सिलसिला पंडितों के खिलाफ पड़ता है।
जैसे जैन कहते हैं, चौबीस तीर्थंकर हो गये, अब बस। क्यों? परमात्मा चौबीस में चुक गया? बड़ी जल्दी चुक गया! बड़ा छोटा परमात्मा रहा होगा! बस चौबीस में चुक गया!
लेकिन कारण है। क्योंकि अगर दरवाजा खुला रखो और तीर्थंकर आते रहे तो पंडित को बड़ी
अड़चन होती है। वह साफ-सुथरा नहीं हो जाता कि कौन-कौन से सिद्धांत को पकड़ कर बैठ
जाये, कौन से सिद्धांत समझायें। क्योंकि तीर्थंकर जब भी
आयेगा, नई भाष लायेगा, क्योंकि लोग बदल
चुके होंगे, नयी शैली लायेगा, क्योंकि
जमाना बदल चुका होगा।
अब मैं वही नहीं कह सकता तुमसे, जो महावीर ने कहा था,
क्योंकि पच्चीस सौ साल बीत गये। महावीर अगर फिर आएं तो वही नहीं कह
सकते जो उन्होंने पच्चीस सौ साल पहले कहा था। महावीर कोई ग्रामाफोन के रिकार्ड
थोड़ी हैं। आखिर इतना तो दिखाई पड़ेगा कि पच्चीस सौ लास बीत गये, आदमी कुछ से कुछ हो गया। हवा बदल गई। ढंग बदल गए। जीवन के आधार बदल गये।
ये और ही तरह के लोग हैं, पच्चीस सौ साल में गंगा का कितना
पानी बह गया!
तुम क्या सोचते हो, जीसस आयेंगे तो उसी तरह बोलेंगे?
वही बोलेंगे? तो तो कौन सुनेगा? लोग हंसेंगे। आऊट आफ डेट मालूम पड़ेंगे।
तुम सोचते हो, कृष्ण आयेंगे तो फिर खड़े हो जायेंगे, एक. जी. रोड पर बासुंरी बजायेंगे? पूछेंगे कि कहां
हैं बाल-गोपाल? अब बाल-गोपाल हैं ही कहां! ...और गोपियें?
अब न गोपियां मिलेंगी। और कहीं अगर खोज-खाज ली दो-चार गोपियां तो पुलिस
के चक्कर में पड़ेंगे।
नहीं, अब कृष्ण के आज का ढंग लेना होगा, आज का रंग लेना होगा। वे दिन और थे। वह दुनिया और थी। अब किसकी मटकी
फोड़ोगे? मटकी है कहां? किस का दूध
चुराओगे, दूध है कहां! अब मक्खन-मिश्री नहीं चलेगी। न मक्खन
है, न मिश्री है। अब दुनिया बदली है--और तरह की दुनिया है।
सदा बदलती रही। लेकिन, हिंदू पंडित का अड़चन होगी। वह कहता है,
दरवाजा बंद करो, मामला साफ हो जाये। एक के साथ
साफ-सुथरा रहता है। महावीर के साथ जैनों ने बंद कर दिया दराजा अब कोई तीर्थंकर
नहीं होगा।
मुसलमान कहते हज, बस आखिरी पैगंबर आ गया। आखिरी?
तो परमात्मा ने संबंध तोड़ लिया आदमी से अब? उसके
संदेशे नहीं आते? परमात्मा ने पीठ मोड़ ली आदमी से अब?
बस आखिरी बार जब उसने सुधि ली थी तो मुहम्मद को भेज दिया था?
या मुहम्मद के द्वारा अपनी खबर भेज दी थी, अब
सुध नहीं लेता? अब पाती नहीं लिखता आदमी के नाम? यह तो बड़ी उदासी की बात हो गई। यह तो बड़ी दयनीय दशा हो गई।
और ईसाई कहते फज कि जीस एकमात्र बेटे हैं। परमात्मा भी खूब है! मालूम
होता है पहले से ही संतति-नियमन में भरोसा करता है। एक ही बेटा! मगर एक ही रखना
पड़ता है, क्योंकि अगर दूसरा भी बेटा हो और वह हा जाये और वह
पहले बेटे ने जो बातें कही हैं उनको अस्त-व्यस्त कर दे, करना
ही पड़ेगा, तो पंडित का क्या होगा? पंडित
साफ-सुथरापन चाहता है, उलझन में नहीं पड़ना चाहता। सिद्धांत
स्पष्ट हों ो वह उनका मालिक बना रहता है। वह सिद्धांतों में बदलाहट नहीं चाहता। वह
जड़ सिद्धांत चाहता है। इसलिए सारे लोग द्वार बंद कर देते हैं।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं: उसके संदेश-वाहक आते रहे, आते रहेंगे। जब भी तु खोजना चाहो, कहीं-न-कहीं से
तुम्हें कोई हाथ मिल जायेगा जो तुम्हें उसकी तरफ ले चले। खोजनेवाले चाहिए, उसके संदेशवाहक आते रहे, आजे रहेंगे।
तो ए मत हेरे, सब हित केरे, गहिगहि गेरे,
बहुतेरे।
तब सतगुरु टेरे, कानन मेरे, जाते फेरे, आ घेरे।
तो मेरे कान जो व्यर्थ की बातों में उलझे थे, मेरे मान जो न मालूम कहां-कहां जा रहे थे उनको लौटा ही लिया। मुझे पुकार
ही लिया। पुकार तो आती है लेकिन सुननेवाले चाहिए। क्योंकि पुकार केवल वे ही सुन
सकते हैं। जिनमें हिम्मत है, जो मर्द हैं, जिनमें थोड़ा साहस है। बहुत कुछ दांव पर लगाना पड़ता है। परमात्मा मुफ्त में
तो नहीं मिलता। सारा लीवन चुकाना पड़ता है, मूल्य चुकाना पड़ता
है।
तब सतगुरु टेरे, कानन मेरे, जाते फेरे, आ घेरे।
जा रहा था दुनिया में भटकता, जा रहा था शास्त्रों
में भटकता, जा रहा था सिद्धांतों में उलझना--कि लौटा लिया
मुझे।
उन सूर सबेरे, उदै किये रे...जैसे सूरज उग आये, ऐसा सतगुरु उगा। और जैसे सूरज आये और रात मिट जाये और अंधेरा चला जाये,
ऐसे मेरे भीतर सुबह हो गई।
उन सूर सबेरे, उदै किये रे, सबै अंधेरा
नाशेला।
फिर मुझे कुछ करना नहीं पड़ा। मैंने अंधेरे को अपने-आप नष्ट होते देखा।
यह शिष्य का सौभाग्य है, यह शिष्य की गरिमा है। यह उसका गौरव है। यह उसका
अपूर्व अनुभव है कि उसे मिटाना नहीं पड़ता कुछ।
तुम ख्याल रखना, अगर तुम्हें अंधेर को मिटाना पड़
रहा है तो उसका एक ही मतलब है कि तुम्हारा अभी सदगुरु से मिलन नहीं हुआ। और याद
रखना, यह भी कि अंधेरा मिटाये से मिटता नहीं। कौन मिटा पाया
अंधेरे को मिटाने से?
कोशिश करके देखना, आज रात जब अंधेरा आये, अपने कमरे में भिड़ जाना अंधेरे को मिटाने में। जितने योगासन इत्यादि आते
हों करना। दंड-बैठक लगाना, शोरगुल मचाना, चिल्लान, धक्के मारना, कोई
छुरात्तलवार इत्यादि घर में हो, चलाना। और तुम पाओगे थक कर
गिर पड़े हो, अंधेरा अपनी जगह है।
अंधेरे को कोई हटा सकता है? अंधरा अटाया नहीं जा
सकता। प्रकाश लाया जा सकता है। प्रकाश के आते ही अंधेरा चला जाता है। प्रकाश के
आने पर फिर अंधेरा यह भी नहीं कहता कि मैं अभी नहीं जा सकता, कि अभी मैं जरा बीमार हूं, कि अभी मैं जरा अस्वस्थ
हूं, कि अभी मुझे आराम करना है, मैं
अभी-अभी तो आया था, अभी-अभी कैसे चला जाऊं? प्रकाश के आने पर अंधेरा यह भी नहीं कह सकता कि मैं सदियों से इस घर में
रह रहा हूं, मैं इसका मालिक हूं। आज अचानक आप आ गये मेहमान
की तरह और मालिक बनना चाहते हैं? ऐसे ही नहीं छोड़ दूंगा।
नहीं, अंधेरा कुछ भी नहीं कर सकता, प्रकाश
आया कि गया। सच तो यह है, यह कहना कि गया, ठीक नहीं है। अंधेरा था ही नहीं। होता तो थोड़ी न बहुत झंझट होती।
धक्का-मुक्की करता। होता तो शोरगुल मचाता, अदालत में जाता,
मुकदमे चलाता--कुछ न कुछ करता। होता तो कम से कम रोता, गिड़गिड़ाता कि यह क्या हो रहा है, मेरा घर क्यों
मुझसे छीना जा रहा है?
तुमने पुरानी कहानी सुनी कि एक बार अंधेरे ने जाकर परमात्मा को कहा कि
आपका सूरज मुझे बहुत परेशान कर रहा है। मैंने इसका कुछ कभी बिगाड़ा नहीं। इसके
रास्ते में कभी आया नहीं। मगर मैं जहां जाता हूं वही मेरा पीछा। मुझे चैन ही नहीं
है। थका-मांदा रात को सोता हूं, नींद पूरी भी नहीं हो पाती,
विश्राम भी नहीं हो जाता, कि सूरज आ जाता है।
यह अन्याय है। और मैंने सुना है कि देर है, अंधेर नहीं। मगर
देर की भी सीमा होती है। अरबों-खरबों वर्ष हो गये, मुझे
सताया जाता है। मैं सोचता रहा--देर है, पर अंधेर नहीं;
मगर अब अंधेर हुआ जा रहा है। देर इतनी हो गई कि यही तो अंधेर है। अब
कुछ करें।
और परमात्मा ने सूरज को बुलाया और पूछा कि तू क्यों मेरे अंधेरे के
पीछे पड़ा है? इसने तेरा क्या बिगाड़ा है? पता
है, सूरज ने क्याकहा? सूरज ने कहा,
कौन अंधेरा, कैसा अंधेरा? मेरा कभी मिलना नहीं हुआ। आप उसे मेरे सामने बुला लें। तो मैं पहचान लूं,
कौन है यह अंधेरा, फिर उसे मैं कभी नहीं
सताऊंगा।
इस बात को हुए कई करोड़ों वर्ष बीत गये, यह मामला अभी
परमात्मा की फाइल में ही पड़ा है। यह फाइल में ही पड़ा रहेगा। सरकारी है। यह फाइल से
निकल नहीं सकता। न निकलने के कारण हैं। क्योंकि परमात्मा दोनों को एक साथ मौजूद
नहीं कर सकता। कहते हैं, परमात्मा सर्वशक्तिमान है। नहीं है,
इससे साफ...साफ जाहिर होता है नहीं है। सूरज को अंधेरे को साथ-साथ
खड़ा नहीं कर सकता। कैसे खड़ा करेगा? सूरज होगा तो अंधेरा नहीं
होगा, अंधेरा होगा तो सूरज को नहीं होना चाहिए। दोनों साथ
खड़े नहीं हो सकेंगे। अंधेरा है ही नहीं।
फिर अंधेरा क्या है? अंधेरा केवल प्रकाश का आभाव है, अनुपस्थिति है।
अंधेरा किसी चीज की उपस्थिति का नाम नहीं है। अंधेरे की कोई पोजिटिविटी नहीं है।
अंधेरा केवल प्रकाश के न होने का दूसरा नाम है। अंधेरा नाममात्र है; उसका कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए अंधेरे को कोई मिटा नहीं सकता। अंधेरे
के साथ कुछ भी करना हो तो सीधा नहीं किया जा सकता। अंधेरे के साथ कुछ भी करना हो,
तो प्रकाश के साथ कुछ करना पड़ता है। इस गणित को खूब समझ लेना। यह
जीवन का महत्वपूर्ण गणित है। अगर अंधेरा मिटाना है, प्रकाश
लाओ। अगर अंधेरा लाना हो तो प्रकाश हटाओ। करना पड़ता है कुछ प्रकाश के साथ। अंधेर
के साथ सीधा करने का कोई उपाय नहीं है। नहीं तो लोग पड़ोसियों के घर में अंधेरा डाल
आयें। अपना अंधेरा निकाल कर पड़ोसी के घर में फेंक दें। अंधेरे के साथ कुछ भी नहीं
किया जा सकता।
इसका अर्थ होगा आध्यात्मिक जगत में? इसका अर्थ होगा:
रोशनी के पास आओ, रोशनी जलाओ, अंधेरा
मिट जाता है। और अधिक लोग इसी भूल में पड़े हैं, अंधेरा
मिटाने में लगे हैं। वे कहते हैं: पहले हम क्रोध को मिटायेंगे, लोभ को मिटायेंगे, माया को मिटायेंगे, काम का मिटायेंगे, यह मिटायेंगे वह मिटायेंगे...। ये
सब अंधेरे हैं। ध्यान का दीया जलाओ और प्रेम का दीया जलाओ और प्रीति को जलने दो
भीतर। परमात्मा को पुकारो और उसके आते ही सब मिट जाता है।
यह वचन महत्वपूर्ण है--दादू का चेला, भरम पछेला, सुंदर न्यारा ह्वै खेला।
उन सूर सबेरे, उदै किये रे, सबै अंधेरे नाशेला।
सदगुरु से आंख जुड़ गई, गांठ बंध गई, फेरा पड़ गया, बस सब हो गया। सूरज उग आया, रात समाप्त हो गई। बिना कुछ किये समाप्त हो गई। ऐसा चमत्कार जहां घट जाये,
वहीं सदगुरु है। यही असली चमत्कार है। हाथ से राख निकाल देना को
चमत्कार नहीं है। चमत्कार तो सिर्फ एक है कि जिससे जुस? कर
अंधेरा मिट जाये; जिससे जुड़ते ही अंधेरा मिट जाये; जिससे जुड़ते ही जीवन की चिंता तिरोहित हो जाये; जिससे
जुड़ते ही जीवन एक नये रंग, एक नये ढंग, एक नये नृत्य में तल्लीन हो जाये।
कहीं देखी है शायद तेरी सूरत इससे पहले भी
कि गुजरी है मेरे दिल पे यह आलत इससे पहले भी
न जाने कितने जल्वे पेश-सौ थे तेरे जल्वों
तुझी से बारहा की है मुहब्बत इससे पहले भी
जब सदगुरु से मिलना हो जाता है तब पता चलता है कि इसी आदमी की तलाश
थी। इसी के प्रेम में हम भटक रहे थे, खोज रहे थे। न मालूम
कितनी यात्रा की है! तुझी से बारहा की है मुहब्बत इससे पहले भी। और जब इस सदगुरु
के द्वारा परमात्मा का अनुभव होगा, तब पता चलेगा, कि सदगुरु के बहाने भी हमने परमात्मा से ही मुहब्बत की है। जिसको परमात्मा
से प्रेम है, वह आज नहीं कल किसी सदगुरु की शरण हो जायेगा,
क्योंकि उस तक जाने का और कोई सेतुं नहीं।
गुरु ही गुरुद्वारा है।
आदि तुम ही हुते, अवर नहिं कोई जी।
और जब रोशनी आ जाती है, जब आंखें खुलती हैं,
जब भीतर का फूल खिलता है तो क्या अनुभव होता है?-- आदि तुम ही हुते! सदा से तुम ही हो। सदा से परमात्मा ही है।...अवर नहिं
कोई जी। दूसरा कोई है नहीं, कोई शैतान नहीं है यहो। कोई
संसार नहीं है यहां। कोई मैंत्तू का झगड़ा नहीं है यहां।
आदि तुम ही हुते, अवर नहिं कोइ जी।
अकह अति अगह अति बर्न नहिं होइ जी।
और तब पता चलता है कि कहा जा सके, ऐसा यह अनुभव
नहीं--अकह।
अति अगह! गहा जा सके, ऐसा भी यह अनुभव नहीं। न तो कहा
जा सकता है, न समझा जा सकता है, न
समझाया जा सकता है।...। अति बर्न नहीं होइ जी। कुछ ऐसी बात है कि वर्णन नहीं होता।
मिली जब उन से नजर बस रहा था एक जहां
हटी निगाह तो चारों तरफ ये वीराने
वे तक रहे थे हमीं पी गये आंसे
वे सुन रहे थे हमी कह सके न अफसाने
वाणी खो जाती है। परमात्मा से कहने को एक शब्द भी नहीं मिलता। आंखें
खुली रह जाती हैं। प्राण स्तब्ध। धड़कन बंद। श्वास ठहर जाती है।
की दमे-नजअ उसने पुरसिशे हाल
जब पै जुम्बिश हुई, बता न सके
कितनी सजाता है भक्त भावनाएं--यह कह देंगे वह कह देंगे! जैसे अभी
प्रेमी सजाते हैं--मिलेगी प्रेयसी, मिलेगा प्रियतम--यह
कह देंगे, वह कह देंगे। जब मिलन होता है वाणी ठगी रह जाती है
रूकी रह जाती है। क्योंकि जो कहता है शब्द से बड़ा है। न तो परमात्मा से कुछ निवेदन
कर पाता है भक्त, और जब परमात्मा से उतरता है नीचे ल?ौटता है संसार में, देखता है चारों तरफ लोगों को,
तो और मुश्किल होती है--अब क्या कहे? कैसे कहे?
अकह अति अगह! कह नहीं पाता। कहने की कोशिश करता है तो लड़खड़ा जाता है।
बड़े से बड़ए संतों के वचन, बस? से बड़े बुद्धों के वचन भी
ऐसे ही हैं जैसे छोटे बच्चे तुतलाते हैं। बड़े प्यारे हैं। छोटे बच्चों को तुतलाना
भी बस?ज्ञ प्यारा होता है मगर है तुतलाना ही। बड़े से बड़े
कुशल --अब तुम ख्याल रखो उसका, तुलना करो, उसकी, जो उन्होंने जाना है।
बुद्ध एक जंगल से गुजर रहे हैं। आनंद ने उनसे पूछा:भंते! भगवान! एक
बात पूछूं? कई दिन से पूछना चाहता हूं संकोच से रह जाता हूं!
क्या आपने सब जो जाना है, हमें समझा दिया है?
पतझड़ के दिन थे, करोड़ों सूखे पत्ते जंगलों में
पड़े थे उड़ रहे थे हवा में, नाच रहे थे हवा में, सूखे पत्तों का गीत चल रहा था चारों तरफ। बुद्ध ने झुक कुछ सूखे पत्ते अपे
हाथ में उठा लिए और आनंद से कहा, आनंद तू इन पत्तों को देखते
हो?
आनंद ने कहा: मैं कुछ समझा नहीं। मेरा प्रश्न और इन पत्तों का क्या
लेना-देना?
बुद्ध ने कहा, इसलिए कह रहा हूं मेरे हाथ में देखते हो, ये पत्ते कितने हैं? और पत्ते देखते हो इस जंगल में,
सूखे पत्ते ये कितने हैं? जितने ये सूखे पत्ते
हैं, ऐसा कुछ मेरा जानना है। और जो मैंने तुमसे कहा है,
ये मेरा हाथ में जितने पत्ते हैं उतना है। थोड़ा सा कहा है। थोड़ा सा
कहा है, थोड़ा सा कह पाया हूं, सब अधूरा
अधूरा है। और ध्यान रखना यह भी कि मैं सूखे पत्ते हाथ में उठाया हूं, क्योंकि जो मैंने जाना है, वह हरा है। और जब तुमसे
कहता हूं, सूख जाता है। रे पत्ते भी उठा सकता था, हरे नहीं उठाये। हरे पत्ते भी लगे हैं वृक्षों मएं हरे नहीं उठाये ,
क्योंकि तो मैं जानता हूं वह तो हरा है, मगर
जब कहता हूं तो सूख जाता है। कहते ही सूख जता है। तुम्हारे पास तब पहुंचते-पहुंचते
सूखा होता है;शब्द में समाता नहीं।
अकह अति अगह...। और किसी तरह थोड़ा बहुत पहुंचा दो शब्द में, किसी तरह चेष्टा करके, तो जो सुनता है उसके लिए कहना
मुश्किल हो जाता है। वह ग्रहण नहीं कर पाता। कहो कुछ समझ लेता है कुछ। फिर एक दिन
आनंद ने बुद्ध से कहा: हमें तो आपको सुनते-सुनते काफी समय हो गया, अब तो हम समझ लेते होंगे जो आप कहते हैं।
बुद्ध ने कहा, आज रात तेरा उत्तर दूंगा।
रात्रि की सभा पूरी हो गई, आनंद और बुद्ध अकेले
रह गए। आनंद बुद्ध के पैर दबाने लगा, जैसे रोज दबाता था। और
उसने कहा, अब मेरे प्रश्न का उत्तर हो जाए। बुद्ध ने कहा,
आज तूने ख्याल किया? जब रात सभा पूरी हुई,
और मैंने भिक्षुओं को कहा, कि अब सब लोग
रात्रि का अंतिम कार्य करें और फिर सो जाएं। तूने सुना था?
तो आनंद से कहा, यह तो आप रोज ही कहते हैं। हमें
पता ही है कि रात्रि का अंतिम कार्य यही है कि सब ध्यान में लगें, ध्यान में डूबें, और फिर ध्यान में डूबें और फिर
ध्यान में डूबे-डूबे ही सो जाएं।
तो बुद्ध ने कहा: वह तो ठीक, आज एक चोर भी आया था
सभा में औसर एक वेश्या भी आयी थी। मैंने जब कहा अब रात देर हो गई , अब तुम अंतिम कार्य कर लो और फिर सो जाओ, तो वेश्या
एकदम चौंकी, उसने सोचा कि ठीक, रत काफी
हो गई, अभी मेरे व्यवसाय का समय भी आ गया। मैं कब तक
धर्म-चर्चा सुनती रहूंगी, जाऊं अपना धंधा करूं। चोर भीचौंका,
उसने कहा कि ठीक कहा, बुद्ध ने भी खूब याद
दिलाया। मैं तो भूल ही गया था। ऐसी-ऐसी प्यारी-प्यारी बातें कि मैं भूल गया था।
मगर बुद्ध भी अजब हैंब, बुद्ध भी गजब हैं, मेरे चोर का भी ख्याल रखा कि अब भाई, रात हो गई,
अब ज्यादा देर हुई जा रही है, अब तुम अपना काम
करो।
चोर गया, चोरी की, वेश्या ने अपनी दुकान
खोल ली, भिक्षु अपना ध्यान करने लगे।
बुद्ध ने कहा, तुम जो समझते हो, तुम्हारे
अनुसार समझते हो। मैं जो कहता हूं, मेरे अनुसार कहता हूं;
तुम जो समझते हो, तुम्हारे अनुसार समझते हो।
तुम्हारे मेरे बीच बड़ा फासल हो जाता है। मैं जो कहता हूं, उसे
तुम वैसा ही तो तब समझोगे जब तुम मेरे जैसे ही हो जाओगे। बुद्ध को बिना बुद्ध
हुएसमझना संभव नहीं, कृष्ण हुए बिना कृष्ण को समझना संभव
नहीं। उस चैतन्य की अवस्था में ही उस चैतन्य की बातें और उनके रहस्य खुलते हैं।
अकह अति अगह अति बर्न नहिं होइ जी।
रूप नहीं रेख नहिं, श्वेत नहीं श्याम जी
न तो उसका कोई रूप है, न कोई रेखा है। न
सफेद है वह और न काला है।
तुम सदा एकरस, राम जी, राम जी।
लेकिन फिर भी उसका रस एक है, स्वाद एक है। सदियों
सदियों में जिन्होंने उसे जाना है, अनंत काल में जिन्होंने
उसे जाना है, उन्होंने उसका एक ही स्वाद पाया है; यद्यपि कोई रूप नहीं, रंग नहीं, रेखा नहीं। उसका चित्र नहीं बन सकता, उसकी मूर्ति
नहीं बन सकती। सब मूर्तियां झूठी हैं, क्योंकि वह निराकार
है। सब रंग झूठे हैं, क्योंकि वह निराकार है रंगहीन है। उसका
कोई वर्णन नहीं। लेकिन फिर भी उसका रस एक है। चाहे मीरा को मिले और चाहे महावीर को
और चाहे मुहम्मद को, उसका रस एक है। और जब रस उसका बरसता है
तो उसका स्वाद एक है, तृप्ति एक है।
तुम सदा एकरस, राम जी, राम जी!
प्रथम हो आप तैं मूल माया करो।
जब कोई जान लेता है तब उसे अनुभव में आता है कि संसार परमात्माक विपरीत नहीं है। ये अज्ञानियों के वचन हैं।
जिन्हज्ञेंने तुमसे कहा है संसार परमात्मा के विपरीत है, जानना उन्होंने भी कुछ जाना नहीं। परमात्मा का विस्तार है, विपरीत नहीं।
प्रथम ही आप तैं मूल माया करी।
आपने ही सब जन्माया, बनाया खेल रचा।
बहुरि वह कुर्बि त्रिगुन ह्वै बिस्तरी।
और उसी को विस्तीर्ण से विस्तीर्ण करते चले गये।
पंच हूं तत्व तैं रूप अरू नाम जी
पांच तत्व बनाये, रूप बनाये, रंग बनाये।
तुम सदा एकरस राम जी, राम जी।
लेकिन फिर भी सबके बीच में खड़े तुम एक ही रस हो। यह सब रास चल रहा है।
तुम्हारे चारों तरफ माया का बड़ा विस्तार है। खूब रंग हैं, खूब रूप हैं और फिर भी तुम अरूप हो और अरंग हो। तुम्हारे चारों तरफ राग की
बड़ी लहरें उठ रही हैं फिर भी तुम वीतराग हो।
केन्द्र पर सब वीतरागता है और परिधि पर बड़ा राग-रंग है। विपरीतता हनीं
है। दोनों एक-दूसरे के परिपूरक हैं। संसारके बिना परमात्मा अधूरा है। परमात्मा के
बिना संसार अधूरा है। संसार के बिना परमात्मा केन्द्र है--बिना परिधि का। सागर है
बिना लहरों का--मुर्दा-मुर्दा। बिना परमात्मा के संसार विक्षिप्तता है लहरें ही
लहरें, तरंगें ही तरंगे जिन में कोई संगति नहीं। परमात्मा के
बिना संसार अर्थहीनता है। संसार के बिना परमात्मा एक शून्य सन्नाटा है। समझ लेना
ठीक से।
संसार के बिना परमात्मा ऐसी है वीणा, जिसके अभी तार छेड़े
नहीं गये, जिसमें से स्वर नहीं उठे। तुमने देखा वीणा रखी हो,
बिना छेड़ी गई
उदास होती है, मर्दा मालूम होती है। जीवंत तो तभी होती है जब तार छेड़े जाते हैं।
परमात्मा का संगीत है संसार। लेकिन अगर परमात्मा के बिना संसार ही हो
सिर्फ तो संगीत नहीं है फिर, क्योंकि संगीत के लिए कोई
जोड़नेवाला तत्व चाहिए जो सबको जोड़े रहे। संगीतज्ञ चाहिए जो सारे स्वरों को को जोड़े
रखे। नहीं तो सारे स्वर बिखर जाते हैं। शोरगुल मच जाएगा, संगीत
नहीं होगा।
इसलिए जो लोग परमात्मा को नहीं मानते उनके सामने यह सवाल उठता है कि
जीवन का अर्थ क्या है? जीवन अर्थ है। बात संभव नहीं रह जाती परमात्मा के बिना। जीवन अर्थहीन हो जाता है।
इसलिए फ्रेडरिक नीत्से ने जब पश्चिम में घोषणा कर दी कि ईश्वर मर गया, उसके बाद जो बड़े से बड़ासवाल पश्चिम के दार्शनिक के सामने रहा है वह यही
है िआदमी के जीवन का अर्थ क्या है?
परमात्मा मरा तो अर्थ मर गया। फिर सार क्या है? फिर हम यहां क्यों जियें? अल्बर्ट कामू ने घोषणा की
है कि एक ही महहत्वपूर्ण सवाल है, और वह आत्महत्या है और
बाकी सब सवाल तो बेकार हैं। हम जियें क्यों? हम आत्महत्या
क्यों न कर लें? सार क्या है? पाना
क्या है? पहुंचना कहां है? यह गति
किसलिए है अगर कोई गंतव्य नहीं है? यह दौड़ धूप किसलिए अगर
कोई मंजिल नहीं है?
परमात्मा न हो तो संसार एक विक्षिप्तता है। ए टेल टोल्ड बाइ एन ईडियट।
जैसेकोई मूर्ख कहानी कहे, जिसमें कोई तुम न हो। कहीं से शुरू हो, कुछ भी घटने लगे बीच में, न कोई अंत हो। तुम जिसमें
से कुछ सार न निकाल सको। और अगर परमात्मा अकेला है तो वीणा पड़ी है, जिससे संगीत पैदा नहीं हुआ। अकेला संगीत विसंगीत हो जाता है। अकेली वीणा
मुर्दा हो जाती है।
इसलिए परमात्मा और संसार विपरीत नहीं है--परिपूरक है, काम्पलिमेंन्टरी हैं।
एक दूसरे के साथ जुड़े हैं। एक दूसरे के साथ लेन-देन हैं। एक दूसरे के
बिना अधूरे हैं। परमात्मा अगर पुरुष है, तो संसार प्रकृति है,
उसकी माया है। परमात्मा अगर पुरुष है तो संसार उसकी प्रेयसी है।
परमात्मा अगर कृष्ण है तो संसार राधा है। परमात्मा अगर बीच में खड़ा है वर्तुल के तो
संसार उसके चारों तरफ वर्तुल में नाच रहा है। सब रस बह रहे हैं, मगर परमात्मा एक ही रस है।सब तरंगें उठ रही हैं, उठ
रही हैं, उसका सागर शांत है।
भ्रमत संसार कतहूं नहीं बोर जी। जो तुझे नहीं देख पाते वे भटकते रहते
हैं संसार में, उन्हें संसार का कोई अंत नहीं मिलता। वर्तुल का कोई
अंत नहीं होता। अगर तुम एक वर्तुल खींच दो, जमीन पर, एक गोला खींच दो और फिर उसमें घूमते रहो, अंत पाने
के लिए , कभी भी न पाओगे। कोल्हू के बैल की तरह घूमते रहोगे,
अंत तुम्हें कभी भी न मिलेगा। संसार कोल्हू के बैल की तरह घूमते
रहना है। लगता है पहुंचे-पहुंचे अब पहुंचे तब पहुंचे पहुंचना बहुचना कभी नहीं होता,
यात्रा जारी रहती है। कहीं तुम जा नहीं रहे हो। वर्तुल में घूम रहे
हो, जाओगे कहां।
भ्रमत संसार कतहूं नहीं बोर जी।
तीनहू लोक में काल कौ सौर जी।।
और कहीं भी जाओ, हर जगह मौत ने कब्जा जमाया हुआ
है। परिधि पर जो है उसकी अमृत से पहचान नहीं हो सकती। अमृत तो केन्द्र पर है।
परिधि पर तो तरंगे हैं। पैदा होंगी, मरेंगी। बनेंगी, मिटेंगी। उठेंगी, गिरेंगी। तीनहू लोक में काल को सौर
जी। कहीं भी जाओ, नर्क में कि पृथ्वी पर कि स्वर्ग में,
सब जगह मृत्यु है, सब जगह मृत्यु का कब्जा है।
मनुषतन यह बड़े भाग्य तै पाम जी
और यह मनुष्य देह बड़े भाग्य से पायी है, बड़ी लंबी यात्रा के
बाद पायी है। देहें तो और भीहैं, पशुओं की हैं, पक्षियों की हैं, वृक्षों की है। मगर मनुष्य की देह
में एक खूबी है जो कहीं भी नहीं। मनुष्य एक दोहरा है। मनुष्य के साथ स्वतंत्रता
जुड़ी है। एक मोर पैदा होता है मोर की तरह ही मरेगा, कुछ और
होनेवाला नहीं है। एक बंधी नियति है, भाग्य है। कुत्ता पैदा
हुआ, कुत्ते की तरह ही मरेगा। तुम किसी कुत्ते से यह नहीं कह
सकते कि तुम थोड़े कम कुत्ते हो। मगर किसी आदमी से तुम कह सकते हो कि तुम थोड़े कम
आदमी हो। कुत्ते सब बराबर होते हैं। कुत्ता यानी कुत्ता क्या कम क्या ज्यादा?
मगर आद।ी--कोई ज्यादा आदमी होता है, कोई कम
आदमी होता है। आदमी सब आदमी की तरह पैदा नहीं होते, सिर्फ
संभावना की तरह पैदा होते हैं। फिर अपनी संभावना निर्मित करनी होती है। मनुष्य को
अपना निर्माण करना होता है। तो कोई चंगेज खां बन जाता है। कोई गौतम बुद्ध बन जाता
है। कोई महापाप में उतर जाता है कोई महापुण्य का अनुभव कर लेता है। कोई विक्षिप्त
हो जाता है। कोई विमुक्त हो जाता है। मनुष्य अदभुत हैऐसा कहीं भी नहीं है। सारी
योनियों में मनुष्य के अतिरिक्त और कहीं होने की स्वतंत्रता नहीं है। और
स्वतंत्रता ही एकमात्र मूल्यवान चीज है जगत में।
इसलिए ठीक कहते हैं सुंदरदास--मनुषतन यह बड़े भाग्य तै पाम जी! बड़े
भाग्य से, बड़ी लंबी यात्राओं बड़ी आकांक्षाओं के बाद, बड़े इंतजार के बाद--यह देह मिली है। अब इस देह को ऐसे ही नहीं गंवा देना
है। और क्या है जिसे पा लेने से गंवाना नहीं होगा?इस देह में
अगर मृत्यु के ही जान तो गंवा दिया। अगर इस देह में अमृत को जान लिया तो पा लिया।
इस देह में दोनों हैं। परिधि इसकी, इसका रूप और रंग माया का
है। देह माया की बनी है--पंचतत्वों की--और इसके भीतर बैठा है विराजमान परमात्मा।
ठीक केन्द्र पर कहीं वीतराग। तुम चाहो तो
परिधि से बंध जाओ, समझ लो कि मैं देह हूं, तो भटक गए। और तुम चाहो तो जग जाओ और समझ लो कि मैं साक्षी हूं, तो पहुंच गए।
तुम सदा एकरस, राम जी, राम जी। तुम्हारे भीतर
एकरस मौजूद है।
तुमने कभी सोचा? शायद न सोचा हो। कौन-सी चीज है
जो तुम्हारे भीतर सदा एकरस है? वही परमात्मा है। तुमने कभी
अपने भीतर कोई चीज एकरस देखी? तुम्हारा प्रेम बदल जाता है;
एकरस नहीं है। अभीप्रेम है, अभी घृणा हो सकता
है। जिसके लिए तुम मरने को तैयार थे, उसी को मारने को तैयार
हो सकते हो। जिसपर करुणा आयी थी, उसी पर क्रोध आ जाता है।
करुणा क्रोध में बदल जाती है। क्रोध करुणा में बदल जाता है। ये सब बदलते रहते हैं,
ये कोई एकरस नहीं है। तुम्हारे भीतर कोई चीज है जो एकरस है? रात सो जाते हो, दिन भूल जाता है। दिन में कौन पत्नी
थी, याद भी नहीं आती रात की नींद में। गरीब हो कि अमीर,
हिंदू कि मुसलमान, कुछ पता नहीं चलता। सुबह
जागे, रात भूल गई। रात क्या बने गये थे--सम्राट बन गए थे,
सोने के महलों में थे, सुंदर परियां थीं,
रानियां थीं--सब गया। फिर वापिस यहीं। दिन मेंरात बदल जाती है। रात
में दिन बदल जाते हैं।
तुम्हारे पास लेकिन एक चीज है साक्षी, जो कभी नहीं बदलती।
वही दिन में देखता है बाजार, वही रात में देखता है सपने--वह
देखने वाला कभी नहीं बदलता। वही देखता है क्रोध उठा, वही
देखता है करुणा उठी। वही देखता है प्रेम, वही देखता है घृणा।
वही देखता है सुख, वही देखता है दुख। वही देखता है जवान,
वही देखता है बुढ़ापा। तुम्हारे भीतर एक तत्व है साक्षी का--द्रष्टा
का--तुम्हारे दर्शन की क्षमता, वह एकरस है। बस उस एकरस को
पकड़ लो और धीरे-धीरे उसी में रम जाओ और तुम राम जी को पा जाओगे। क्योंकि राम जी का
स्वरूप एकरस है। तुम सदा एकरस रामजी, राम जी।
पूरि दशहूं दिया सर्ब मैं आप ही
सब दशों दिशाओंमें और सब में तुम्हीं हो
स्तुतिहि को रि सकै पुन्य नहिं पाप ही।
मैं तुम्हारी स्तुति भी कैसे
करू? तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी नहीं है। कौन स्तुति करे,
किसकी करे? मेरे भीतर भी तुम हो, मेरे बाहर भी तुम हो।
न कुछ पुण्य है यहां, न कुछ पाप है यहां। पाप में भी तुम, पुण्य में भी
तुम सब तुम्हारा खेल है।
दास सुंदर कहे देहु विश्राम जी।
तुम सदा एकरस, राम जी, राम जी।।
मांगी है जो बात, बड़ी अदभुत मांगी है। मांगी है
विश्राम की। कह रहे हैं: और कुछ नहीं मांगता, विश्राम दो। थक
गया हूं, बहुत परिधि पर दौड़ते दौड़ते। कोल्हू का बैल बने-बने
बहुत थक गया हूं, अब और कुछ नहीं मांगता। मोक्ष नहीं मांगा
है--मगर विश्राम ही मोक्ष है। बैकुंठ नहीं मांगा है--विश्राम ही बैकुंठ है। आनंद
नहीं मांगा है। क्योंकि विश्राम के पीछे आनंद ऐसे ही चला आता है जैसे तुम्हारे
पीछे तुम्हारी छाया है।
विश्राम शब्द बड़ा प्यारा है। इसका अर्थ होता है: अब और नहीं दाड़ना है।
और और नहीं दौड़ाओ। दौड़-दौड़कर देख लिया। दौड़-दौड़ कर कुछ भी न पाया। अब ठहर जाने दो।
अब मुझे बैठ जाने दो। इतनी ही प्रार्थना है कि अब मुझे बैठना सिखा दो। यह दौड़ने की
आदत वापिस ले लो। अब मैं और तरंग नहीं बनना चाहता। अब और नये-नये रूप नहीं रखना
चाहता। अब नये-नये स्वांग नहीं रचना चाहता। अब और नाटकों में पात्र नहीं बनना
चाहता। अब मुझे अवकाश दो। अब मुझे विश्राम पर जाने दो। अब मुझे अपने में डुबा लो।
अब मुझे अपने से दूर परिधि पर मत भेजो। तुम एकरस हो, मुझे भी एकरस बना लो।
संसार का हमारा अनुभव सिवाय पीड़ाओं के , परेशानियों के,
चिंताओं के संताप के--और क्या है।
कितने दीप बुझते हैं, कितने दीप जलते हैं।
अज्मे-जिंदगी लेकर फिर भी लोग चलते हैं।।
कारवां केचलने से कारवां के रुकने तक।
मंजिले नहीं यारो रास्ते बदलते हैं।
मौज मौज तूफां है, मौज मौज साहिल है।
कितने डूब जाते हैं, कितने बच निकलते हैं।। बह्रोबर
के सीने भी जीस्त के सफीने भी।
तीरगी निकलते हैं, रोशनी उगलते हैं।
एक बहार आती है, एक बहार जाती है।
गुंचे मुस्कुराते हैं, फूल हाथ मलते हैं।।
कितने दीप बुझते हैं, कितने दीप जलते हैं।
अज्मे-जिंदगी लेकर फिर भी लोग चलते हैं।
यहां दीप जलते रहते हैं, बुझते रहते हैं। आदमी
पैदा होते रहते, मरते रहते। रोज कोई जन्मता। रोज कोई मरता।
कहीं बजी शहनाई कहीं उठी अर्थी। इस तुम देखते भी रहते हो। यही तुम्हारे साथ भी
होने को है। लेकिन शायद जब किसी की अर्थी उठती है तो तुम यह ख्याल भी अपने मेंउठने
नहीं देना चाहते क िआज नहीं कल मेरी अर्थी उठेगी। हर बार तुम्हारी ही अर्थी उठती
है। जब भीकिसी की अर्थी उठती है, तुम्हारी ही अर्थी उठती है।
लेकिन तुम इस भ्रांति में जीत हो और लोग मरते हैं। मैं तो कभी नहीं मरता। मुझे
थोड़े ही मरना है। ये और लोग मर रहे हैं। ये औरों का भाग्य, मैं
तो मजे से जी रहा हूं। अब तक जिया हूं आगे भी जीता रहूंगा।
एक आदमी सौ साल का हो गया। तो पत्रकार उसकी भेंटवार्ता लेने आये। उतनी
उम्र मुश्किल से कोई पाता है। उसकी भेंपवार्ता ली। वह आद।ी मस्त था, उसने सब बातें की। चलते वक्त पत्रकारों ने कहा: प्रभु से हा प्रार्थना
करते हैं कि अगली बार भी, अगले वर्ष भी आपके दर्शन होंगे। और
इस बूढ़े आदमी ने पता है क्या कहा! उसने कहा कि मैं कोई कारण नहीं देखता कि दर्शन
क्यों न हीं होंगे। तुम सभी अभी जवान मालूम पड़ेते हो मैं कोई कारण नहीं देखता कि
दर्शन क्यज्ञें नहीं होंगे। तुम सभी अभी जवान मालूम पड़ते हो।
पत्रकार थोड़ए झंझट द्में पड़ए। कहना कुछ और चाहते थे, यह क्या हुआ!
एक पत्रकार ने हिम्मत जुटा कर
कहा कि हम यह कह रहे हैं कि अब आप काफी बूढ़े हो गये, इसलिए पता नहीं अगली
बार मिलना हो या न हो
उस बूढ़े ने कहा, फिक्र छोड़ो, सौ साल का मेरा अनुभव है कि मरा नहीं हूं तो एक साल में कैसे मर जाऊंगा?
सौ साल बचा हूं, दो चार साल की तो बात ही क्या
है!
ऐसी मैंने एक कहानी और सुनी है कि एक आदमी नब्बे साल का हो गया और
बीमा कम्पनसी के दफ्तर में गया। बीमा कंपनीवाले भी थोड़ी मुश्किल में पड़े, क्योंकि इस उम्र काआदमी कभी बीमा करवाने आया भी नहीं था। तो उन्होंने कहा:
भई, इस उम्र के बाद हम बीमा नहीं करते नब्बे साल! और वह
लाखों को बीमा करना चाहता था। उसने कहा: तुम नासमझ हो। तुम्हें धंधा करना आता है ी
िनहीं? जरा अपने आंकड़े उठाकर देखो, नब्बे
साल के बाद बहुत कम लोग मरते हैं
वह बात तो ठीक ही कह रहा है। नब्बे साल तक जीते ही नहीं,तो
मरेंगे कैसे? मगर वह आदमी यह कह रहा है कि नब्बे साल के बाद
बहुत कम लोग मरते हैं, मुश्किल से कोई मरता है, जरा अपने आंकड़े उठाकर देखो। तुम घबड़ा क्यों रहे हो?
हर आदमी यह सोचकर चल रहा है कि मैं जीऊंगा जीता रहूंगा, सदा जीता रहूंगा। और यहां दुनिया है, जो कुछ का कुछ
समझती रहती है। तुम मर भी रहे हो तो दुनिया नहीं समझती कि तुम मर रहे हो। सब मर
रहे हैं यहां, लेकिन लोग एक-दूसरे को सहारा दिये जाते हैं।
सब उदास हैं यहा, लेकिन एक-दूसरे से लोग कहे जाते हैं कि बए॰
प्रसन्न हैं आप, सब ठीक चल रहा है। और वे भीकहते हैं,
सब ठीक चल रहा है। एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराने लगते हैं। सब
अपने-अपने आंसू छिपा रहे हैं। और सब यहां मरने को तैयार खड़े हैं।
मैंने ये पंक्तियां पढ़ी हैं--
एक नर्तकी नाच रही है:
एक रक्कासा थी--किस-किस से इशारे करती
आंखें पथराई, अदाओं में तवाजुन न रहा
डगमगाई तो सब अतराफ से आवाज आयी--
फन के इस औज पे इक तेरे सिवा कौन गया?
फर्शे मरमर पे गिरी, गिर के उठी, उठ के झुकी
खश्क होंटो पे जबां फेर के पानी मांगा
ओक उठाई तो तामाशाई संभल कर बोले
रक्स का यह भ एक अंदाज है--अल्ला,अल्ला
हाथ फैले रहे, सिल सी गई होंटो से जबां
एक रक्कास किसी सिम्त से नागह बढ़ा
पर्दा सरका तो मअन फन के पुजारी गरजे
रक्स क्यों खतम हुआ? वक्त अभी बाकी था
एक नर्तकी नाच रही है। नाचते नाचते थक गयी है। जिंदगी हो गयी है।
इशारे करते-करते थक गई है। एक रक्कासा थी, एक नर्तकी थी।
किस-किस से इशारे कतीह। खुद एक थी, चाहने वाले बहुत थे।
किस-किस से इशारा करती! आखें पथराई। आखिर एक समय आ जाता है, जब
आंखें पथरा जाती हैं। अदाओं में तवाजुन न रहा। अदाओं में जिंदगी न रही। भीतर से
आत्मा सिसकने लगी। डगमगाई। एक दिन नाच रही है
और डगमगा गई कमजोरी के कारण। मौत करीब आ रही है। डगमगाई तो सब अतराफ से
आवाज आई। सब तरफ से आवाज आई। नाचने वालों को, नाच देखने
वालों को क्या प्रयोजन है--कौन मर रहा है, कौन जी रहा है। वे
तो नाच देखना चाहते हैं। डगमगाई तो सब अतराफ से आवाज आयी--फन के इस औज पे इक तेरे
सिवा कौन गया। दर्शकों ने तो समझा कि यह भी कोई एक नृत्य की कला है। यह डगमगाना,
समझे होंगे मस्ती है। समझे होंगे डगमगा कर लुभाती है। फन के इस औज
पे इक तेरे सिवा कौन गया! का की इस ऊंचाई को तेरे सिवा किसने पाया।
फर्शे मरमर पे गिरी, गिर के उठी, उठ के झुकी
खुश्क होंटो पे जबां फेर के पानी मांगा
ओक उठाई तो तामाशाई संभल कर बोले
रक्स का यह भी एक अंदाज है--अल्ला, अल्ला।
क्या खूब! तमाशाईयों ने कहा, यह भी एक नृत्य का
अंदाज! यह ओक बनाना हाथ की, यह पानी मांगता।
हाथ फैले रहे, सिल सी गई होंटो से जबां
एक रक्कास किसी सिम्त से नागाह बढ़ा
पर्दा सरका तो मअन फन के पुजारी गरजे, रक्स क्यों खत्म हुआ?
वह तो मर ही गई, पर्दा गिराना ही पड़ा। लेकिन पर्दा सरका तो मअन फन के पुजारी गरजे। वे जो
तमाशबीन थे,वे गरजे--रक्स क्यों खत्म हुआ? वक्त अभी बाकी था। वक्त सदा बाकी है। पर्दा गिरता है बीच में ही। वक्त कभी
पूरा नहीं होता। हमेशा बीच में ही आदमी मरता है। कौन अपना काम पूरा करके मरता है।
कौन अपनी बात पूरी कह कर मरता है। कौन जिंदगी पर पूर्ण विराम लगा कर मरता है। यह
दौड़ चलती रही, चलती रहती है, अब भी चल
रही है।
सुंदरदास कहते हैं, इससे विश्राम मिल जाये। और बहुत
हो गया, अब बहुत देख लिया। इतनी ही प्रार्थना और तुझसे क्या
मांगें। अब अपने में वापिस लीन कर ले।
इसी प्रार्थन का नाम आवागमन से मुक्ति, या मोक्ष, या जो भी तुम नाम देना चाहो देना। यही प्रार्थना तुम्हारे भीतर उठे,
इसी को तलाश करो तब।
विश्राम मिले तो राम मिले।
राम मिले तो विश्राम मिले।
आज इतना ही।
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