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मंगलवार, 27 मार्च 2018

जगत तरैया भोर की (दयाबाई)-प्रवचन-04

भक्ति यानी क्या?चौथा प्रवचन

दिनांक १४ मार्च, १९७७; श्री रजनीश आश्रम, पूना

जिज्ञासाएं

1—आपकी शिक्षा सम्यक शिक्षा है। लेकिन शासक क्या इसे सम्यक शिक्षा मानेंगे?
2—न संसार में रस आता है और न जीवन रसपूर्ण है। फिर भी मृत्यु का भय क्यों बना रहता है?
3—कुछ दिन पहले आपने अष्टावक्र के साक्षी-भाव की डुंडी पीटी, फिर दया की भक्ति का साज छेड़ दिया। इन दोनों के बीच लीहत्जू महज सफेद मेघों पर चढ़कर घूमा किए। आज भक्ति, कल साक्षी...क्या यह संभव है?
4—लोग पीते हैं, लड़खड़ाते हैं
एक हम हैं कि तेरी महफिल में
प्यासे आते हैं और प्यासे जाते हैं...?

5—प्रभु को न पाया तो हर्ज क्या है?

6—भक्ति--प्रेम की निर्धूम ज्योतिशिखा


पहला प्रश्न: भक्ति यानी क्या?

भक्ति का अर्थ है: पदार्थ में परमात्मा की प्रतीति शुरू हुई; रूप में अरूप का आभास शुरू हुआ; आकार में निराकार झलकने लगा।
भक्ति का अर्थ है: जो दिखाई पड़ रहा है, उसमें जो दिखाई नहीं पड़ता, उसकी छाया बनने लगी। जो दिखाई पड़ता है, उसी पर रुक गए तो भक्ति कभी पैदा न होगी। जो नहीं दिखाई पड़ता, उसकी आहट मिलने लगे। जो नहीं सुनाई पड़ता उसकी पगध्वनि कानों में पड़ने लगे। जो इंद्रियातीत है, इंद्रियां उसके संबंध में किसी आह्लाद से भरने लगें, पुलकित होने लगें। जो नहीं दिखाई पड़ता, वह भी किसी अनूठे माध्यम से दिखाई पड़ता है--उसी माध्यम का नाम भक्ति है। जिसे सीधे-सीधे नहीं देखा जा सकता है; वह अदृश्य भी दृश्य हो जाता है। उस अदृश्य को दृश्य बना लेने का चमत्कार भक्ति है। भक्ति रसायन है, एक विज्ञान है।
तुम जब किसी के प्रेम में पड़ते हो तो तुमने शायद विचार भी न किया हो क्या घटता है। जब तुम किसी के प्रेम में पड़ जाते हो तो क्या हड्डी-मांस-मज्जा, इतना ही दिखाई पड़ता है प्रेमी में? अगर इतना ही दिखाई पड़ता है तब तो तुम किसी दिन किसी मुर्दा लाश के भी प्रेम में पड़ सकते हो। नहीं, कुछ और भी झलकने लगा। किसी व्यक्ति में तुम्हारी आंख भीतर जाने लगी। किसी व्यक्ति की अंतर्प्रतिमा प्रगट होने लगी। जब भी तुम प्रेम में पड़ते हो तो उसका यही अर्थ है, तुम समझो या न समझो, किसी झरोखे से परमात्मा ने तुम्हें पुकारा।
इसलिए प्रेमी में परमात्मा की पहली झलक मिलती है। और जिसने प्रेम नहीं जाना वह कभी भक्ति न जान पाएगा। क्योंकि भक्ति तो प्रेम की ही बाढ़ है। प्रेम, ऐसा समझो, बूंदाबांदी है; भक्ति, ऐसा समझो, बाढ़ है। मगर प्रेम और भक्ति का स्वभाव एक ही है। प्रेम की सीमा है, भक्ति की कोई सीमा नहीं। प्रेम समाप्त हो जाता है; आज है कल नहीं; क्षण भर को आता, खो जाता है; क्षणभंगुर है। जगत तरैया भोर की। भक्ति आई तो आई। फिर तो उसके बाहर निकलने के लिए कोई उपाय नहीं; गए तो गए। लौटना संभव नहीं है। प्रेम में लौटना संभव है। क्योंकि प्रेम धुंधला-धुंधला है। भक्ति बहुत प्रगाढ़ है।
इसलिए तुम प्रेम से ही भक्ति को समझना। प्रेम भक्ति का पहला पाठ है। पति हो, पत्नी को चाहा है; पिता हो, बेटे को चाहा है; पत्नी हो, पति को चाहा है; किसी मित्र को चाहा है--जहां चाह है, वहां थोड़ा खोजना, टटोलना।
प्रेम ऐसा है जैसे हीरा खदान में पड़ा, अभी साफ-सुथरा नहीं, मिट्टी जम गई हैं, कंकड़-पत्थर जुड़ गए हैं, सदियों से पड़ा है, चमक खो गई है। प्रेम ऐसे है जैसे खदान से निकला हीरा--अभी साफ-सुथरा नहीं किया; अभी जौहरी के हाथ नहीं लगा; अभी छैनी नहीं पड़ी। तो अभी तो जो बहुत गहरा देख सकता है, वही समझ पाएगा कि हीरा है। अभी तो तुम न समझ पाओगे कि हीरा है। इसलिए तो प्रेम में भक्ति दिखाई नहीं पड़ती, क्योंकि प्रेम अनगढ़ हीरा है। यही हीरा मीरा में, दया में, सहजो में, निखार पा गया। इसी हीरे पर चमक आ गई। इसी हीरे को जौहरी के हाथों की कला मिल गई। तब यह चमकता है। बहुत कुछ काटना पड़ता है।
कोहिनूर संसार का सबसे बड़ा हीरा है। जब मिला था तो आज से तीन गुना ज्यादा वजन था उसका। फिर काटते-काटते, छांटते-छांटते एक तिहाई बचा है। लेकिन जितना कटा, जितना छंटा, उतनी कीमत बढ़ गई है; क्योंकि उतना सौंदर्य, उतने नए पहलू उभरते चले गए हैं। आज एक तिहाई है वजन के हिसाब से। अगर परिणाम को तौलो तो हीरे की कीमत कम होनी चाहिए आज, जितनी उस दिन होती जिस दिन मिला था। लेकिन जिस दिन मिला था उस दिन कोई भी कीमत न थी। कीमत तो निखार से आई है।
पश्चिम का बहुत बड़ा मूर्तिविद हुआ: माइकल एंजिलो। निकलता था एक रास्ते से, संगमरमर के दुकानदार से पूछा कि यह चट्टान बहुत दिन से पड़ी है, आवारा छोड़ रखी है, उपेक्षा कर रखी है, क्या दाम हैं इसके? तो उस दुकानदार ने कहा, इसके कोई दाम नहीं क्योंकि यह बिलकुल बेकार है, कोई मूर्तिकार इसे लेने को राजी नहीं। अगर चाहिए हो तो उठा ले जाओ। हमारा छुटकारा होगा। दाम कुछ भी नहीं, बस ले जाने में जो खर्च पड़ेगा वह तुम जानो।
माइकल एंजिलो ले गया उस चट्टान को उठा कर। जाते वक्त दुकानदार ने फिर कहा: "क्या करोगे इस व्यर्थ की चट्टान का? यह किसी काम की नहीं।' माइकल एंजिलो ने कहा: "कुछ महीनों बाद खबर करूंगा।' कुछ महीनों बाद बुलाया उस दुकानदार को अपने घर। सामने ही रखी थी जीसस की प्रतिमा। मंत्रमुग्ध खड़ा हो गया दुकानदार। उसने कहा: "बहुत प्रतिमाएं देखीं, मगर यह अनूठा पत्थर कहां पाया?' माइकल एंजिलो ने कहा: "यह वही पत्थर है जिसे तुमने दुकान के पास फेंक रखा था और जो मैं मुफ्त उठा लाया था।' उसे तो भरोसा न आया। उसने कहा: वह अनगढ़ पत्थर, कहां यह मूर्ति! इन दोनों में कोई तालमेल नहीं। और तुमने कैसे पहचाना कि अनगढ़ पत्थर यह मूर्ति बन सकेगा?' माइकल एंजिलो ने कहा: "मैं जब भी निकलता था उस रास्ते से, यह मूर्ति मुझे उस पत्थर के भीतर से पुकारती थी कि मुझे छुड़ाओ, मुझे निकालो इस कारागृह से, इस बंधन से मुक्त करो।'
तुमसे मैं कहना चाहता हूं: प्रेम है--भक्ति कारागृह में। और प्रेम पुकार रहा है कि मुक्त करो! जिस दिन प्रेम से भक्ति मुक्त हो जाती है, बाहर निकल आती है--निखर कर, छन कर--उस दिन भगवान मिल जाता है। प्रेम है कूड़े-कचरे से भरा हुआ सोना; भक्ति है अग्नि से निकल गया सोना, निखर गया, स्वच्छ हुआ। जो कचरा था जल गया; जो कंचन था बच रहा। भक्ति है शुद्धतम प्रेम और प्रेम है अशुद्ध भक्ति।
तो प्रेम में दो चीजें हैं। उसमें भक्ति भी छिपी है और संसार भी छिपा है। अशुद्धि यानी संसार। और उसमें जो शुद्ध भक्ति छिपी है, वही परमात्मा। इसलिए जो पारखी है वह प्रेम में से परमात्मा को खोज लेगा और जो नासमझ है वह प्रेम में से ही संसार में उतर जाएगा। प्रेम तो सीढ़ी है; उसके नीचे संसार है, उसके ऊपर भगवान है। अगर तुम प्रेम को शुद्ध करते चले गए तो भगवान में उतर जाओगे; अगर प्रेम को अशुद्ध करते चले जाओगे तो तुम संसार में उतर जाओगे। प्रेम ही सपना बन जाता है अगर अशुद्धि बहुत बढ़ जाए और प्रेम ही सत्य बन जाता है अगर शुद्धि निखर आए।
प्रेम में छिपा है भगवान, उसे मुक्त करो। और बहुत बार प्रेम में तुम्हें भगवान की झलक मिली भी है। लेकिन तुम समझ नहीं पाते कैसे मुक्त करें! प्रेम को वासना कम और प्रार्थना ज्यादा बनाओ। प्रेम में मांगो मत, दो। प्रेम में भिखारी मत रहो, बादशाह बनो। प्रेम में बांटो, संग्रह मत करो। और तुम धीरे-धीरे पाओगे प्रेम की अशुद्धि गलने लगी। और प्रेम की अशुद्धि के गलते-गलते ही प्रेम में से ही वह शुद्ध ज्योतिशिखा प्रगट होती है जिसको भक्ति कहते हैं।
कोई चुटकी सी कलेजे में लिए जाता है
हम तेरी यादों से गाफिल नहीं होने पाते।
हर प्रेम चुटकी है; वह परमात्मा की ही याद है। धुंधली, बहुत धुंधली, बहुत पर्दों में दबी! लेकिन है उसी की याद। इसलिए तो जब तुम प्रेम में पड़ते हो तो दीवाने हो जाते हो--थोड़े सही, पर दीवाने हो जाते हो।
तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत
हम जहां में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं।
और इसलिए तुम्हें हर प्रेम तृप्ति का आश्वासन देता है और फिर भी तृप्ति नहीं मिलती। जब तुम किसी प्रेम में पड़ते हो तो शुरू-शुरू वह जो प्रेम का सौंदर्य है, अपूर्व है। पर जल्दी ही सब राख जम जाती है। जल्दी ही जंग खा जाता है प्रेम। जल्दी ही कलह और द्वंद्व और उपद्रव शुरू हो जाता है। वह जो प्रेम की ऊंचाई थी, कहां खो जाती है, पता नहीं चलता। हर प्रेम कलह बन जाता है जल्दी ही। लेकिन पहले क्षणों में, जब तुम्हारी आंख ताजी थी और सब नया था, कुछ झलक मिली थी, अन्यथा तुम प्रेम में पड़ते क्यों! किसी ने पुकारा था, कोई चुनौती आई थी! किसकी चुनौती थी? किसकी झलक मिली थी? लगा था कि मिल गया परमात्मा। लगा था मिल गया जिसको खोजते थे; मिल गया यार जिसकी तलाश थी! लेकिन फिर जल्दी ही सब खो जाता है। वासना का धुआं, जीवन की आपाधापी, जीवन की सारी क्षुद्रताएं, क्रोध, मलिनता, सब हावी हो जाती है। जल्दी ही तुम डूबने लगते हो। वह जो क्षण भर को तुम उठे थे जल के ऊपर और आकाश देखा था, वह क्षण भर का ही सिद्ध होता है। बस वह सुहागरात ही सिद्ध होती है। फिर डुबकी खाने लगते हो।
जब भी कहीं तुम्हें प्रेम में रस मालूम हुआ है तो इसीलिए--
तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत
हम जहां में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं।
इस बात को समझना। हर व्यक्ति के हृदय में परमात्मा की तस्वीर छिपी है। उसी तस्वीर को लिए हम फिर रहे हैं कि किसी से मिल जाए यह तस्वीर, बाहर कोई मिल जाए इस तस्वीर से मेल खाता! यह जिसकी तस्वीर है वह मिल जाए! जब तक वह न मिलेगा प्राणों का प्यारा, तब तक तकलीफ रहेगी, पीड़ा रहेगी, खोज रहेगी, भटकन रहेगी। कभी-कभी क्षण भर को किसी की सूरत मिलती मालूम पड़ती है, उसको तुम प्रेम कहते हो। मगर जब बहुत गौर से देखते हो, फिर छिटक जाती है बात: नहीं, यह सूरत आभास भर थी। धुंधलके में, अंधेरे में लगा था कि मिलती है, लेकिन मिली नहीं, फिर चूक हो गई।
इसलिए जब तुम प्रेमी को, प्रेम-पात्र को दूर से देखते हो तो लगता है सब ठीक; जैसे-जैसे पास आते हो, सब गलत होने लगता है। क्योंकि उससे किसी की सूरत मिलती नहीं, यद्यपि सभी सूरत में वही छिपा है। लेकिन सौ प्रतिशत किसी सूरत से उसकी सूरत नहीं मिलती; एक प्रतिशत मिलती है, निन्यानवे प्रतिशत नहीं मिलती। प्रेम के पहले क्षणों में वह एक प्रतिशत दिखाई पड़ता है, फिर धीरे-धीरे निन्यानवे प्रतिशत प्रगट होता है।
आदमी प्रेम में हार-हार कर ही एक दिन भक्ति में आता है। प्रेम की हार इस बात का सबूत है कि तुझे खोजा बाहर और नहीं मिल, अब भीतर खोजेंगे; तुझे खोजा देह में, पदार्थ में, रूप में, रंग में, नहीं मिला, अब अरूप में, निराकार में खोजेंगे; तुझे खोजा क्षणभंगुर में...।
ऐसा समझो कि रात चांद हो आकाश में, पूरा चांद हो और तुम झील के किनारे बैठे और झील शांत हो तो तुम्हें लगे कि चांद झील के भीतर है। तुमने ऊपर आंख उठाई ही न हो, तुम्हें लगे झील के भीतर चांद है।
मैंने सुना है, रमजान के दिन थे और मुल्ला नसरुद्दीन एक कुएं के पास बैठा था। प्यास लगी तो कुएं में झांक कर उसने देखा कि पानी कितनी दूर है। पूरे चांद की रात थी। चांद नीचे दिखाई पड़ा। उसने कहा: "अरे बेचारा, कहां कुएं में फंस गया! इसको कोई निकाले!' यहां कोई दिखाई भी नहीं पड़ता। एकांत जगह थी। तो अपनी प्यास तो छोड़ दी उसने। रस्सी फेंकी कुएं में कि किसी तरह चांद को फांस ले तो निकाले, नहीं तो दुनिया का क्या होगा! रस्सी फंस गई कहीं कुएं में कोई चट्टान में, तो उसने सोचा कि ठीक है, फंस गई चांद में। उसने बड़ी ताकत लगाई। ताकत का परिणाम यह हुआ कि रस्सी टूट गई, वह धड़ाम से गिरा। जब वह गिरा तो उसे चांद ऊपर दिखाई पड़ा। तो उसने कहा: "कोई हर्जा नहीं, थोड़ी हमें चोट भी लग गई; मगर बड़े मियां तुम छूट गए, यह बहुत।'
संसार में जो हमने देखा है वह कुएं में चांद की झलक है। संसार में जो हमने देखा है वह प्रतिबिंब है परमात्मा का। परमात्मा की तरफ हमारी आंख अभी उठी नहीं। हमें पता भी नहीं कि कैसे ऊपर आंख उठाएं। सारी दुनिया के धर्म जब प्रार्थना करते हैं तो आकाश की तरफ आंख उठाते हैं। वह प्रतीक है। आकाश में परमात्मा नहीं है; मगर ऊपर उठना है, ऊपर देखना है। कहीं ऊपर, कहीं हमसे ऊपर है! कैसे अपने से ऊपर देखें, इसका हमें कुछ पता नहीं है। हमें अपने से नीचे ही देखने की आदत है। वही सुगम है।
जब भी तुम वासना से भर कर किसी की तरफ देखते हो, तुम नीचे देखते हो। और जब तुम प्रार्थना से भर कर किसी की तरफ देखते हो तब तुम ऊपर देखते हो। यह जो ऊपर देखना है, यह भक्ति है। और यह जो नीचे देखना है, प्रेम है। दोनों में कुछ तालमेल है। दोनों जुड़े हैं। ऊर्जा वही है: नीचे की तरफ जाती है तो प्रेम बन जाती है; ऊपर की तरफ जाती है तो भक्ति बन जाती है।
और जैसे प्रेम में हृदय जलता है, ऐसा भक्ति में भी जलता है। फर्क है, जलन-जलन में भी फर्क है, सच निश्चित ही। प्रेम की जलन में तो एक तरह का ज्वर है। और भक्ति की जलन में एक तरह की शीतलता है--ठंडी आग! प्रेम की जलन में तो सिर्फ जलन ही जलन है। जैसे किसी ने तेजाब छिड़का हो घाव पर। भक्ति की जलन में जलन तो है, विरह है, पीड़ा है; लेकिन बड़ी शीतल, बड़ी शांतिदायी।
शायद इसी का नाम मुहब्बत है शेफ्ता
इक आग सी है सीने के अंदर लगी हुई।
प्रेम में भी आग लगती है, भक्ति में भी आग लगती है। लेकिन बड़ा फर्क है। प्रेम की आग सिर्फ जलाती है और भक्ति की आग जलाती ही नहीं, जगाती भी है। प्रेम की आग सुलाती है; भक्ति की आग उठाती है, जगाती है। प्रेम की आग में तुम शरीर ही रह जाते हो; भक्ति की आग में शरीर खो जाता है और चैतन्य मात्र शेष रह जाता है।
भक्ति का अर्थ है--
खोजता हूं उसे जिसने बनाया;
मिलना चाहता हूं उससे जिससे मैं आया;
स्रोत को खोजता हूं,
क्योंकि स्रोत में ही अंतिम नियति छिपी है;
आत्यंतिक को खोजता हूं
कि जिसे खोजने के बाद
फिर कोई और खोज न रह जाए
लेकिन ज्ञानी भी खोजता है और भक्त भी खोजता है। ज्ञानी की खोज ज्ञानी पर ही निर्भर होती है। भक्त कहता है: "मुझे अकेले से कैसे खोज होगी, तुम भी हाथ बंटाओ।' वह भगवान से कहता है कि मुझे तुम्हारा पता नहीं, लेकिन तुम्हें तो मेरा पता होगा। मैं तुम्हें न जानूं, लेकिन तुम तो मुझे जानते-पहचानते होओगे। मैंने तुम्हें न देखा हो; लेकिन यह कैसे हो सकता है कि तुमने मुझे न देखा हो! तो मैं तुम्हें खोजता हूं, यह खोज अधूरी है। क्योंकि मैं तो अंधेरे में टटोलूंगा, अंधे की तरह टटोलूंगा। तुम मेरा हाथ बंटाओ। तुम मेरा हाथ अपने हाथ में ले लो।
ज्ञानी अपने पर निर्भर है। संकल्प है ज्ञान की यात्रा। और भक्त की यात्रा है समर्पण। भक्त कहता है, मैं तो खोजूंगा, प्राणपण से खोजूंगा; लेकिन इतना पक्का है कि तुम जब मिलना चाहोगे तभी मिलन होगा। इसलिए तुम खयाल रखना। मेरी ही खोज पर मत छोड़ देना।
मैं बुलाता तो हूं उनको मगर ऐ जज्बए दिल
उन पे बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने।
--बुलाता हूं, लेकिन मेरे बुलाने से क्या होगा!
उन पे बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने।
--आना ही पड़े! यह आग दोनों तरफ से लगे तो ही कुछ हो सकेगा। दूसरी तरफ से भी लगी है। भगवान भी तुम्हें उतनी ही आतुरता से खोज रहा है, शायद ज्यादा आतुरता से, जितनी आतुरता से तुम खोज रहे हो।
ऐसा समझो कि एक बच्चा खो गया है बाजार में या मेले में, भीड़-भाड़ में। तो बच्चा तो खोज ही रहा है मां को। क्या तुम सोचते हो मां नहीं खोज रही? और बच्चा तो शायद कई बार भूल भी जाएगा--कहीं खिलौने होंगे, डमरू बजता होगा, मदारी खेल दिखाता होगा, तो खड़ा हो जाएगा, भूल भी जाएगा कि मां खो गई है। लेकिन मां को अब कोई डमरू, कोई मदारी, कोई खेलत्तमाशा न अटकाएगा। वह तो पागल की तरह खोजती फिरेगी। बच्चा तो भूल ही जाएगा जगत में। जगत तरैया भोर की! लेकिन उसे तो लगने लगेगा कि यही सब कुछ सत्य हैं। खिलौनों की दुकान पर खड़ा हो जाएगा। या कोई मिठाई दे देगा तो भूल जाएगा कि बस ठीक है। बच्चे की समझ कितनी! खोजेगा भी तो कैसी खोज करेगा! और दो-चार दिन अगर मां न मिली तो विस्मरण करने लगेगा। महीने दो महीने बाद याद भी न आएगी। साल दो साल बाद तो चित्र भी खो जाएगा। लेकिन मां खोजती रहेगी, तड़फती रहेगी।
इस दूसरी बात को खयाल में लेना। भगवान भी तुम्हें खोज रहा है।
तुम जब खोजते हो अपने ही बल से तो ज्ञान के मार्ग पर हो। जब तुम कहते हो, मैं खोजूंगा, अपनी पूरी ताकत लगाऊंगा, लेकिन एक बात पक्की है कि तेरे बिना खोजे मिलन होगा नहीं'...उन पे बन आए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने! मैं बुलाता तो हूं उनको मगर ऐ जज्बए दिल...मैं बुलाता रहूंगा। मगर कुछ तुझ पे ऐसी बन आए कि तू रुक न सके, तुझे आना ही पड़े।
भक्ति समर्पण है। भक्ति अपना परिपूर्ण त्याग है।
ज्ञानी छोड़ता है संसार को; भक्त छोड़ देता है स्वयं को। ज्ञानी छोड़ता है और चीजें; भक्त छोड़ देता है अपनी अस्मिता को। तुम्हें प्रेम के क्षणों में कभी-कभी लगा होगा कि अहंकार खो जाता है। कभी-कभी, क्षण भर को! अगर तुमने सच में प्रेम किया है कभी तो उन क्षणों में तुमने पाया होगा कि अहंकार खो जाता है। यह क्षण भर अहंकार खो जाता है। तुम बचते हो, लेकिन कोई "मैं भाव' नहीं बचता। जहां "मैं-भाव' न बचा, वहीं मंदिर करीब आ गया। जहां "मैं भाव' न बचा, वहां पट खुले, द्वार खुले। तुम्हारे "मैं' का ही ताला जड़ा है।
सम्यक शिक्षा का मौलिक सूत्र

दूसरा प्रश्न: आप जिस ढंग से शिक्षा दे रहे हैं, वह परमरूपेण सम्यक शिक्षा है। लेकिन राजनेता और शासक भी इसे सम्यक शिक्षा मानेंगे, यह बात संदिग्ध लगती है।...?

संदिग्ध नहीं है, सुनिश्चित रूप से वे इसे सम्यक शिक्षा नहीं मानेंगे। निश्चित रूपेण, जो मैं सिखा रहा हूं, उन्हें तो लगेगा कि कुशिक्षा है; उन्हें तो लगेगा रोक दी जाए। क्योंकि राजनेता तो आदमी की नासमझी पर जीता है; समझदारी हो जाए आदमी में तो राजनेता जी नहीं सकता। राजनेता का तो सारा का सारा बल तुम्हारे अज्ञान में है। तुम जितने अज्ञानी उतना ही राजनेता बलशाली। जिस दिन पृथ्वी पर ज्ञान थोड़ा ज्यादा होगा, लोग थोड़े ज्यादा जागरूक होंगे, उस दिन जो चीज पृथ्वी से तिरोहित हो जाएगी, वह राजनीति है।
राजनीति का अर्थ ही यही होता है कि तुम समझदार नहीं हो, दूसरे कहते हैं कि हां, तुम समझदार नहीं हो, हम समझदार हैं। हम तुम्हारे जीवन को व्यवस्था देंगे। तुम तो हो समझदार नहीं, इसलिए तुम तो जीवन को व्यवस्था दे न सकोगे। हमें दो हाथ में ताकत, हम व्यवस्था देंगे। तुम खुद तो मालिक अपने हो नहीं सकते; हमें मालिक बना दो, हम सम्हालेंगे। तुम खुद तो अपने हित की रक्षा कर नहीं सकते; हम तुम्हारे हित की रक्षा करेंगे।
राजनीति का कुल अर्थ इतना ही है। तुम्हें नेता की जरूरत ही तब पड़ती है जब तुम्हें खुद नहीं सूझता कि क्या करें। तो राजनीति तो नहीं चाहती कि लोग जागरूक हों--लोग सोए रहें--राजनीति नहीं चाहती कि लोग ध्यानी बनें। क्योंकि जैसे ही लोग ध्यानी बनते हैं, राजनीति के घेरे के बाहर होने लगते हैं। राजनीति के घेरे में तो चाहिए क्रोध, वैमनस्य,र् ईष्या, जलन, द्वेष, संघर्ष! तुम में जलती हों। ये सब उपद्रव की लपटें तो तुम राजनीति में रुकते हो। राजनीति में तो चाहिए हिंसा; एक दूसरे पर हावी होने की दौड़; एक दूसरे को दबाने की आकांक्षा, प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा। राजनीति तो एक तरह का संघर्ष है।
तो जैसे-जैसे ध्यान बढ़ेगा, जैसे-जैसे भाव बढ़ेगा, प्रेम बढ़ेगा, शांति बढ़ेगी--तुम राजनीति के बाहर होने लगोगे। तुम युद्ध न चाहोगे दुनिया में।
राजनेता युद्ध पर जीता है। अगर युद्ध मिट जाएं तो राजनेता का बल निकल जाता है। जब युद्ध होते हैं तब राजनेता बड़ा नेता हो जाता है।
तुमने देखा, दुनिया के जो बड़े राजनेता हैं, उनका बड़प्पन युद्ध पर निर्भर करता है। अगर युद्ध न हो किसी राजनेता के जीवन में तो उसके बड़प्पन का पता ही नहीं चलता। तो हर राजनेता चाहता है, कोई बड़ा युद्ध हो जाए उसके जीवन में और वह युद्ध में विजयी हो जाए, तो सिद्ध करके दिखा दे कि हां मैं ठीक आदमी था।
राजनीति अहंकार का विस्तार है; और ध्यान, अहंकार का विसर्जन। राजनीति धोखा है, पाखंड है।
मैंने सुना है, एक घने जंगल में अचानक जैसे चमत्कार हुआ, एक सिंह एकदम सरल हो गया और एकदम हाथ जोड़-जोड़ कर लोगों से नमस्कार करने लगा! जंगल के जानवर बड़े चकित हुए कि यह हुआ क्या! उसने गुर्राना, चिंघाड़ना, गर्जन करनी सब बंद कर दी। जो मिलता रास्ते में, वह उससे बड़े भाईचारे की बातें करने लगा। एक दिन भूखा था और क्षण भर को भूल गया। क्योंकि राजनीति तो ऊपर के चेहरे हैं। एक गधे को एक झाड़ के नीचे खड़ा देखा। गधा ऐसे तो भाग गया होता, लेकिन पंद्रह-बीस दिन से यह सिंह बिलकुल अहिंसक हो गया था, सर्वोदयी हो गया था, तो गधा डर नहीं रहा था, वह खड़ा था। एक क्षण में भीतर की असलियत प्रगट हुई, सिंह ने झपट्टा मारा, लेकिन जब झपट्टा मारा, तभी उसे याद आई कि यह मैं क्या कर रहा हूं! तत्क्षण गिर पड़ा गधे के पैरों में और बोला: "बापू! क्षमा करना, भूल हो गई!' गधे को तो बिलकुल ही भरोसा न आया कि यह हो क्या रहा है! सिंह और गधे से कहे बापू!
एक उल्लू बैठा देख रहा था वृक्ष पर। गधा तो चला गया। उल्लू ने पूछा कि मामला क्या है? यह तो हद हो गई! अफवाहें तो मैंने भी सुनी थीं कि तुम बड़े सरल हो गए, सात्विक हो गए; मगर यह जरा सीमा से बाहर है कि गधे के चरणों में गिर कर तुम कहो बापू!
सिंह ने कहा कि तुम उल्लू के उल्लू रहे! चुनाव करीब है, गधे को नाराज करके क्या जमानत डुबवानी है?
राजनेता की सारी आकांक्षा एक है, कैसे अधिकतम लोगों पर कैसे शक्तिशाली हो जाए! राजनीति तो अहंकार पर ही खिलती-फूलती है। इसलिए राजनीति सम्यक शिक्षा के पक्ष में कभी नहीं हो सकती। राजनीति तो पाखंड है। उससे बड़ा और कोई धोखा नहीं है। राजनीति तो झूठ का व्यापार है। राजनीति का अर्थ ही है कि तुम झूठ बोलने में कितने कुशल हो।
कल ही मैं देख रहा था कि एक राजनेता व्याख्यान कर रहे थे, समझा रहे थे लोगों को कि थोड़ी देर धीरज और रखें, बस समाजवाद आ ही रहा है। एक आदमी खड़े हो कर चिल्लाया कि समाजवाद कभी नहीं आएगा; सुनते-सुनते तीस साल हो गए। राजनेता ने कहा: "मानो मेरी बात; अब ज्यादा दूर नहीं, बस पहुंचने को ही है। अब ज्यादा देर नहीं है, थोड़ा धैर्य और। बस यह चुनाव और कि समाजवाद आ ही रहा है।' और कुछ लोग खड़े हो गए, उन्होंने कहा कि समाजवाद कभी नहीं आएगा। तुम्हारा सेक्रेटरी कल रात क्लब में कह रहा था कि समाजवाद कभी नहीं आएगा।
लोगों की इतनी भीड़ खड़ी हो गई, इतने जोर से चिल्लाने लगी कि राजनेता सकपका गया। उसने कहा: "मेरा सेक्रेटरी कह रहा था, यह कैसे हो सकता है? क्योंकि यह व्याख्यान मेरे सेक्रेटरी ने ही लिखा है। और मैं तुम्हें फिर समझाता हूं कि समाजवाद आ रहा है।'
लेकिन और लोग खड़े हो गए। उन्होंने कहा: "कभी नहीं आएगा समाजवाद। यह बकवास बंद करो, यह सुनते-सुनते काफी समय हो गया।' तब तो देखा राजनेता ने कि मामला बिगड़ता है तो वह हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। उसने कहा कि जहां तक मुझे पता था, आ रहा था; लेकिन अब आप कहते हैं तो शायद नहीं ही आ रहा हो। मैं ठीक से पता लगाऊंगा, शायद कार्यक्रम बदल गया हो।
राजनीति शोषण है, लफ्फाजी है, नारेबाजी है। और स्वभावतः आदमी अगर सम्यक होने लगे तो खुद को राजनीतिक दृष्टि उसकी खो ही जाएगी; वह दूसरे की राजनीति को भी आरपार देखने में समर्थ हो जाएगा।
दुनिया जिस दिन थोड़ी ज्यादा समझदार होगी, राजनीति की कोई जगह न रह जाएगी। होनी भी नहीं चाहिए कोई जगह। कोई आवश्यकता भी नहीं है। राजनीति जीती है अज्ञान पर। और राजनीति तुम्हें जो सिखाती है वह सब उतने ही दूर तक सिखाती है जितनी दूर तक तुम्हारे जीवन में क्रांति न घट जाए। तुम रहो तो पंगु और तुम रहो निर्भर उन पर। तुम कहीं मुक्त न हो जाओ! राजनीतिज्ञ न चाहेंगे कि दुनिया में बुद्ध और महावीर और कृष्ण और कबीर और क्राइस्ट जैसे लोग बढ़ जाएं--कभी न चाहेंगे। क्योंकि ये खतरनाक लोग हैं। राजनीति जीसस को बर्दाश्त न कर सकी, सूली लगवा दी; सुकरात को बर्दाश्त न कर सकी, जहर पिलवा दिया। ये खतरनाक लोग हैं! इनका खतरा क्या है? इनका खतरा यह है कि ये सीधे-सच्चे लोग हैं। जो सच है, वही कहेंगे; लाग-लपेट नहीं है। झूठ न कहेंगे। अवसरवादी नहीं हैं। मनुष्य का जो परम हित है, उसकी ही बात करेंगे। चाहे मनुष्य ही इनके विपरीत क्यों न हो जाए, तो भी मनुष्य के परम हित की ही बात करेंगे। यही तो संत का लक्षण है।

किसी मित्र ने एक और प्रश्न पूछा है कि संत कौन? संत का लक्षण क्या है?

संत का यही लक्षण है कि जो है उसे वैसा ही कह दे; जो है उसे वैसा ही जीने का मार्ग बता दे; जो है उसमें जरा भी हेर-फेर न करे। और जो है वह इतना क्रांतिकारी है कि अगर तुम उसके साथ संबंध जोड़ोगे तो तुम्हारे जीवन में आमूल रूपांतरण हो जाएगा।
राजनीतिज्ञ सदा ही संतों से नाराज रहे हैं; पुजारी-पंडों से, पुरोहितों से नाराज नहीं रहे, संतों से सदा नाराज रहे। पुजारी, पंडे, पुरोहित राजनीतिज्ञों के साथ षडयंत्र किए बैठे हैं। पुजारी, पंडित, पुरोहित राजनीति के साथ धर्म को भी जोड़ देते हैं; धर्म को भी राजनीति की सेवा में लगा देते हैं।
संत का अर्थ है जिसने जीवन को परमात्म-रूप में जीना चाहा और कोई शर्तबंदी स्वीकार न की; कोई सीमाएं न बांधीं और कोई सीमाएं न मानीं। संतत्व यानी विद्रोह। संतत्व तो जलता हुआ अंगारा है। तुम्हें जलाएगा, तुम्हें राख कर देगा। और तुम्हारी जहां राख हो जाएगी वहीं पदार्पण होगा परमात्मा का। जितने अधिक लोगों में परमात्मा का पदार्पण हो जाएगा। उतने ही अधिक लोग राजनीति के जाल के बाहर हो जाएंगे। अगर एक बड़ी संख्या में लोग ध्यान और भक्ति में डूब जाएं तो दुनिया की पूरी हवा बदल जाएगी। जिनको तुम अभी नेता कहते हो उनको तुम अनुयायी बनाने को भी राजी न होओगे। ये अंधों को अंधे मार्गदर्शन दे रहे हैं।
इसलिए पूछते हो तो ठीक ही पूछते हो। जिसे मैं शिक्षा कहता हूं, राजनीतिज्ञ उसे शिक्षा मानने को राजी नहीं। उनकी तो पूरी चेष्टा रहेगी कि मैं अपनी बात लोगों तक पहुंचा ही न पाऊं। सब तरह की चेष्टा चलती है कि तुम मुझ तक न पहुंच जाओ, कि मैं तुम तक न पहुंच पाऊं। मैं जो कह रहा हूं वह जितने कम से कम लोगों तक पहुंचे उतना राजनीतिज्ञ के हित में है।
और मजा यह है कि एक तरह का राजनीतिज्ञ मेरे विपरीत होगा ऐसा नहीं है; मेरे विपरीत सभी तरह के राजनीतिज्ञ हैं, यह बहुत मजे की बात है। आमतौर से ऐसा होता है कि अगर कोई कांग्रेस की राजनीति में पड़ा है तो विपरीत होगा तो जनता पार्टी उसके पक्ष में होगी। कोई जनता पार्टी के पक्ष में है तो कांग्रेस उसके विपक्ष में होगी। लेकिन तुम यह पाओगे कि अगर संतत्व कहीं भी प्रगट होगा तो सभी राजनीतिज्ञ उसके विपरीत होंगे; उस मामले में वे सब राजी होंगे। क्योंकि संतत्व तो आधार ही खींच लेता है राजनीति के।
दुनिया दो ही ढंग से जी सकती है: एक ढंग है राजनीतिज्ञ का और एक ढंग है धर्म का। अब तक दुनिया धार्मिक ढंग से जी ही नहीं, राजनीतिज्ञ के ढंग से जी है। इसलिए जीयी कहां? जीयी ही कहां! मरती रही है, सड़ती रही है। धार्मिक ढंग से जीने की हिम्मत अभी तक किसी समाज ने नहीं की और राजनीतिज्ञ करने न देंगे। कौन अपने बल को खोना चाहता है! कौन अपनी शक्ति, मान-मर्यादा, पद को खोना चाहता है!
जागरूक प्रबुद्ध लोगों की मात्रा बढ़े, ध्यान की ऊर्जा का देश में थोड़ा अनुपात बढ़े तो बहुत सी बातें एक क्षण में बदल जाएंगी। उनमें एक बड़ी बात होगी: प्रतिस्पर्धा का इतना ज्वार, इतना जोर, इतनी हिंसा, इतनी एक-दूसरे के प्रति प्रतिस्पर्धा, एक-दूसरे की टांगों को खींचना और पद का इतना मान खो जाएगा। जो अपने भीतर के पद पर प्रतिष्ठित हुआ उसे फिर कोई और कुर्सी नहीं चाहिए। उसे सिंहासन मिल गया। उससे बड़ा कोई सिंहासन नहीं है। और जिसके जीवन में परमात्मा की थोड़ी धार बहने लगी उसके जीवन में अहंकार की सारी यात्राएं तत्क्षण बंद हो जाएंगी। और राजनीति या धन या पद या प्रतिष्ठा सब अहंकार की यात्राएं हैं।
सम्यक शिक्षा का मौलिक सूत्र है: अहंकार-विसर्जन। और असम्यक शिक्षा का मौलिक सूत्र है: अहंकार का संवर्धन। तुम्हारे स्कूल, कालेज, यूनिवर्सिटी और सब सिखाते हैं, लेकिन अहंकार छोड़ना नहीं सिखाते, अहंकार को बड़ा करना सिखाते हैं। इसलिए तो जो प्रथम आता है उसको गोल्ड मैडल मिलेगा। जो आगे आता है उसकी प्रशंसा होगी। जो प्रथम कोटि में आता है, उसको जल्दी नौकरी मिलेगी। प्रतिस्पर्धा सिखाई जा रही है।
तीस छोटे से बच्चों को तुम पहली क्लास में भर्ती करते हो, जो पहला काम है वह राजनीति है, कि अब इन तीसों  को तुमने संघर्ष में डाल दिया कि हरेक उनतीस के खिलाफ है। हरेक को प्रथम आना है, उनतीस से दुश्मनी है। दुश्मनी शुरू हुई। शुरू हुई राजनीति। अब तुम इनको पारंगत करोगे राजनीति में, चालाक बनाओगे, बेईमान बनाओगे। और फिर तुम बड़ी हैरानी की बातें करते हो बाद में। जब पढ़ा-लिखा आदमी बेईमान हो जाता है, तुम कहते हो यह कैसी शिक्षा है! पूरी बीस-पच्चीस वर्ष की उम्र तक तुम व्यक्ति को बेईमान होने की शिक्षा देते हो। फिर जब वह आ कर जेबें काटने लगता है और बेईमानी करने लगता है, धोखाधड़ी करता है, तो तुम कहते हो यह मामला क्या है? इससे तो गैर-पढ़े-लिखे बेहतर थे, कम से कम बेईमान तो न थे। गैर पढ़ा-लिखा बेईमान हो भी नहीं सकता; बेईमानी के लिए कुशलता चाहिए। पकड़ा जाएगा अगर जरा बेईमानी की। उसके लिए थोड़ी कारीगरी चाहिए। उसके लिए विश्वविद्यालय का सर्टिफिकेट चाहिए।
जिसको तुम शिक्षा कहते हो, यह सब अहंकार का परिवर्द्धन है। मैं जिसे शिक्षा कहता हूं वहां अहंकार बिलकुल विसर्जित होना चाहिए। विश्वविद्यालय उस दिन वास्तविक होंगे जिस दिन महत्वाकांक्षा न सिखाएंगे; जिसे दिन विश्वविद्यालय से लौटा हुआ व्यक्ति विनम्र हो कर लौटेगा, ऐसा हो कर लौटेगा जैसे है ही नहीं, शून्य-भाव से वापस आएगा।
जीवन दुख है

तीसरा प्रश्न: न तो संसार में ही रस आता है और न जीवन ही रसपूर्ण है। फिर भी मृत्यु का भय बना ही रहता है। यह कैसी विडंबना है?
मृत्यु का भय अगर बना है तो सिर्फ एक ही कारण हो सकता है, सुनिश्चित रूप से बस एक ही कारण हो सकता है। और कारण यही होगा कि तुमने अभी तक जीवन को जीया नहीं। तो डर है कि कहीं मर न जाओ। तुम सोचते हो विडंबना है। तुम सोचते हो यह कैसी बेबूझ बात, कैसी अटपटी बात, कि जीवन में मुझे रस भी नहीं आता है और जीवन रसपूर्ण भी नहीं है, फिर भी मृत्यु का भय क्यों बना है? तुम्हारा मन कहता होगा, तर्कयुक्त तो यह होता, जीवन में रस नहीं आता, जीवन रसपूर्ण है भी नहीं, तो मृत्यु का भय मिट जाना चाहिए।
नहीं, लेकिन ऐसा नहीं होगा, तुम्हें जीवन के गहरे आधारों का पता नहीं है। मृत्यु का भय तब तक नहीं मिटता जब तक तुम यह जान ही न लो कि "जगत तरैया भोर की'। जीवन में रस है ही नहीं। तुम्हें जीवन में रस नहीं आ रहा है, लेकिन भीतर तुम मानते हो कि "है रस कहीं। रस नहीं आ रहा है, कुछ बाधाएं हैं।' लेकिन जीवन में रस है ही नहीं, ऐसी तुम्हारी प्रतीति अभी नहीं बनी। ऐसा तुम्हारा बोध अभी सघन नहीं हुआ। जीवन रसपूर्ण नहीं है, यह भी सच है। तुम्हारा जीवन रसपूर्ण नहीं है; लेकिन जीवन, यह विराट जीवन जो चारों तरफ फैला है, यह भी रसपूर्ण नहीं है, ऐसा तुम्हारा अभी अनुभव नहीं हुआ, ऐसा साक्षात्कार नहीं हुआ। तो तुम डरते हो कि अभी तो जीए भी नहीं, कहीं मौत न आ जाए! अभी तो रस मिला ही नहीं, कहीं मौत न आ जाए! कहीं ऐसा न हो कि हम अभी रसहीन ही थे और मर गए बीच में ही, जी ही न पाए और मर गए! इसलिए मौत का भय है।
मौत का भय इतना ही बता रहा है कि अभी जीवन में तुम्हें रस है। रसपूर्ण न होगा तुम्हारा जीवन, इससे मैं राजी हूं। लेकिन अभी जीवन से आशा है, अभी आशा नहीं टूटी है, अभी आशा का धागा बंधा है। कच्चा धागा है लेकिन बंधा है। अभी तुम्हें लगता है कि कोई न कोई उपाय होगा, कहीं न कहीं से रास्ता जाता होगा। अगर मैं ठीक रास्ते पर नहीं हूं तो कोई और रास्ता होगा, जो ठीक है। लेकिन जीवन में रस होना चाहिए।
तुम भाग रहे हो अभी भी। नहीं पहुंच रहे हो, लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं होता कि पहुंचने को वहां कुछ है ही नहीं। जिस दिन ऐसा लगेगा कि पहुंचने को वहां कुछ है ही नहीं, कि जीवन में रस है ही नहीं, कि जीवन मात्र दुख है; जैसा बुद्ध ने कहा...।
बुद्ध ने कहा: चार आर्य सत्य हैं। पहला आर्य सत्य कि जीवन दुख है। इसको उन्होंने कहा पहला आर्य सत्य, पहला महान सत्य। जिसने यह जाना वही आर्य है, वही सच में मनुष्य है--कि जीवन दुख है। दूसरा आर्य सत्य है, कि जीवन से, जीवन के दुख से मुक्त होने का उपाय है। तीसरा आर्य सत्य कि मुक्त हो गई ऐसी चित्त की एक दशा है; जीवन के दुख से मुक्त हो गई चैतन्य की दशा है। चौथा आर्य सत्य कि यह कल्पना ही नहीं है, ऐसा औरों को हुआ है, तुम्हें भी हो सकता है।
चार आर्य सत्य बुद्ध ने कहे, उसमें पहला आर्य सत्य है कि जीवन दुख है। आमूल-चूल जीवन दुख है। प्रथम से ले कर अंत तक जीवन दुख है।
तुम्हें अभी यह दिखाई नहीं पड़ा। और कारण? कारण यही होगा कि तुम शास्त्रों, संतों, उनकी वाणी में समय के पहले उलझ गए। तुमने जरा जल्दी बात सुन ली। तुमने जीवन के अनुभव से नहीं पहचाना कि जीवन व्यर्थ है। तुमने सुन लिया किसी को कहते कि जीवन व्यर्थ है। तुम्हारा मन तो कहे चले जाता है कि जीवन रसपूर्ण है। और तुमने सुन ली किसी महात्मा की वाणी कि जीवन व्यर्थ है, अब तुम दुविधा में पड़ गए; एक द्वार पीछे खींचने लगा, एक द्वार आगे बुला रहा है। अब तुम अड़चन में हुए।
मैं तुमसे कहूंगा, भूलो महात्मा को। तुम जाओ जीवन में। थोड़ा और भटको। थोड़ा और ठोकरें खाओ। थोड़ा और सिर टकराओ। दीवाल है, खुलने वाली है नहीं; दरवाजा वहां है नहीं। लेकिन जब तक तुम लहूलुहान न हो जाओ तब तक तुम्हें प्रतीति न होगी। बुद्ध कहते होंगे, जीवन दुख है। तुम कैसे मानो? तुम कैसे मानो कि जीवन दुख है? बुद्ध को भी कोई दूसरा कहता तो बुद्ध भी नहीं मान सकते थे। खुद जाना तो माना। तुम भी जानोगे तो मानोगे।
मैं तुमसे कहूंगा कि महात्माओं की सुन कर ऐसे अधूरे पीछे मत लौट आना। अन्यथा, धर्म तो तुम्हारे जीवन का सत्य कभी बन ही न सकेगा, क्योंकि पहला ही सत्य चूक गया। बुनियादी ही नहीं तो मंदिर कैसा बनेगा! तुम महात्माओं की बात सुन कर बीच से मत लौट आना। तुम तो जब तक तुम्हें अनुभव न आ जाए, जब तक तुम्हारा हृदय सब तरफ से जार-जार न हो जाए, तब तक लौटना मत। नहीं तो होता क्या है--आदमी पाखंडी हो जाता है, लौट आता है बीच से; दिखावा कुछ करने लगता है, भीतर कुछ हालत और होती है। बैठ जाए साधु बन कर, लेकिन मन संसार में होता है; मन दुकान में होता है, बाजार में होता है। आंखें बंद करे, राम को याद करना चाहता है, लेकिन राम याद नहीं आते; कुछ और, कुछ और, संसार के ही जाल दिखाई पड़ते हैं।
खुद से रूठे हैं हम लोग
टूटे-फूटे हैं हम लोग
सत्य चुराता नजरें हम से
इतने झूठे हैं हम लोग
इसे साथ लें उसे बांध लें
सचमुच खूंटे हैं हम लोग
क्या कर लेंगी वे तलवारें
जिनकी मूठें हैं हम लोग
मयखारों की हर महफिल में
खाली घूंटें हैं हम लोग
हमें अजायब घर में रख दो
बहुत अनूठे हैं हम लोग
हस्ताक्षर तो बन न सकेंगे
सिर्फ अंगूठे हैं हम लोग।
दूसरों की सुन कर झूठे मत बन जाना। दूसरों की सुन कर अंगूठे मत बन जाना।
जीवन को अपने से जीओ। यह तुम्हारा जीवन है। यह तुम्हें मिला है। यह तुम्हें मिला इसलिए कि तुम जाओ इसके अंत तक, खोजो आखिरी गहराई तक। अगर रस मिल जाए तो सौभाग्य; अगर न मिले तो भी सौभाग्य। क्योंकि रस न मिले तो फिर तुम भीतर की तरफ चल सकोगे, निश्चिंत, असंदिग्ध। फिर कोई शंका न घेरेगी। फिर कोई बाहर का बुलावा-निमंत्रण न आएगा। तुम जानकर ही लौटे। तुम पहचान कर लौटे। इसे तुम मेरी बुनियादी शिक्षा समझो।
इसलिए मैं कहता हूं कि संन्यासी भी बनो तो भी संसार मत छोड़ो--जीओ वहीं! जागो वहीं! अनुभव करो वहीं! भगोड़े का तो मतलब ही यह होता है कि डर है अभी। तुम वहीं से तो भागते हो जहां डर लगता है। डर न लगे तो भागोगे क्यों? जो आदमी दुकान छोड़ कर भाग गया जंगल में, वह दुकान से डरता है। उसे डर है कि अगर वह बैठा तिजोड़ी के पास तो रुपए में उसे रस आ जाएगा। जो अपनी पत्नी छोड़ कर भाग गया उसे डर है कि अगर पत्नी का हाथ हाथ में लिया तो वासना जग जाएगी। जो अपने बेटे को छोड़ कर भाग गया, वह डरता है कि अगर बेटों की आंखों में झांका तो मोह पैदा हो जाएगा। मगर इसका मतलब इतना ही हुआ कि अभी जीवन का पहला सत्य अनुभव में नहीं आया; अभी "जगत तरैया भोर की,' ऐसा अनुभव नहीं हुआ।
तो मैं तुमसे कहूंगा, जाओ जीवन में। डरो मत। भयभीत मत होओ! यह परमात्मा का आयोजन है। तुम पको अनुभव से। अनुभव ले कर लौटो। अनुभव ले कर लौटे तो हाथ तुम्हारे मोतियों से भरे होंगे। और ऐसे दूसरों की बातें सुन कर लौट आए तो कौड़ियां ले कर लौट आओगे। कौड़ियों से तृप्ति नहीं मिलेगी।
जीवन में कोई रस नहीं है, मैं भी तुमसे कहता हूं। लेकिन मेरी बात मान कर तुम लौट मत पड़ना। जीवन व्यर्थ है, मैं भी तुमसे कहता हूं। लेकिन मेरा जानना मेरा जानना है, तुम्हारा जानना कैसे बन जाएगा? न तुम मेरी आंखों से देख सकते हो, न पैरों से चल सकते हो, न मेरा अनुभव तुम्हारा अनुभव हो सकता है। इसे तुम अपना अनुभव बनाओ। इसे गांठ बांध कर रख लो कि किसी ने कहा है जीवन व्यर्थ है, देखें! हो सकता है मुझसे भूल हो गई हो! हो सकता है बुद्ध भूल कर गए हों। हो सकता है ये थोड़े से संत हुए उंगलियों पर गिनने योग्य, ये गलत हो गए हों! क्योंकि बड़ी संख्या तो उनकी है जो जीवन में हैं। थोड़े से लोग हैं जो कहते हैं: जीवन के पार...। ये थोड़े से लोग गलती भी कर सकते हैं। तुम इनकी बात मान कर मत लौट आना। तुम तो अनुभव से लौटना।
एक दिन, मैं तुमसे कहता हूं, अगर तुम पूरी डुबकी लगा कर तलहटी तक चले जाओ जीवन की, तो वहां तुम कुछ भी न पाओगे। और वहां से तुम लौटोगे खाली हाथ एक अर्थ में और भरे हाथ दूसरे अर्थ में। खाली हाथ इस अर्थ में कि जीवन में कुछ भी नहीं है; भरे हाथ इस अर्थ में कि अब परमात्मा को खोजा जा सकता है--निश्चिंतमना, संदेह-शून्य। अब परमात्मा की खोज में कोई बाधा न रही। अब कोई विकल्प न उठेगा। अब विचार और वासना के कौवे कांव-कांव न करेंगे। अब तुम चल सकते हो। अब तुम्हारी जीवनधारा एकाग्र हो कर परमात्मा के सागर में गिर सकती है।
रास्ते अनेक हैं, मंजिल एक।

चौथा प्रश्न: कुछ दिन पहले आपने अष्टावक्र के साक्षी-भाव की डुंडी पीटी, अब दया की भक्ति का साज छेड़ दिया है। इन दोनों के दरम्यान मियां लीहत्जू ने न कुछ कहा न कुछ सुना, महज सफेद मेघों पर चढ़ कर घूमा किए। क्या यह मुमकिन है कि कोई ताओ के सफेद मेघ पर सवार हो कर आज भक्ति के मार्ग पर, कल साक्षी के, जहां हवा ले जाए, सफर करता रहे?

पूछा है कृष्ण मोहम्मद ने।
रोज तो तुम देखते हो, यही तो यहां हो रहा है। कभी मैं लीहत्जू, कभी अष्टावक्र, कभी कबीर, कभी मीरा, कभी मोहम्मद हूं। जरा भी मुझे अड़चन नहीं है। जरा भी ऐसी दुविधा नहीं आती कि साक्षी की बात कर रहा था, अब भक्ति की बात कैसे करूं! क्योंकि मेरे देखे रास्ते अनेक हैं, मंजिल एक है।
जैसे कोई पहाड़ पर चढ़ता है न, अलग-अलग दिशाओं से अलग-अलग रास्तों से चढ़ सकता है। लेकिन जो शिखर पर पहुंच कर खड़े हो कर देखेगा, वह तो देखेगा कि सभी यात्री एक ही शिखर की तरफ आ रहे हैं। अगर शिखर पर पहुंच कर भी ऐसा लगे कि सभी यात्री शिखर पर पहुंच कर भी कोई जैन का जैन रह जाए, हिंदू का हिंदू, मुसलमान का मुसलमान, तो समझना शिखर पर पहुंचा ही नहीं। हिंदू, मुसलमान, जैन, ईसाई रास्ते की बातें हैं। ठीक है। रास्ते पर चलना होता है तो कोई रास्ता चुनना होता है। पचास रास्ते जाते हैं तो भी तुम तो एक से ही जाओगे न; पचास पर तो नहीं चल सकोगे। पचास पर चलोगे तो पगला जाओगे। पचास पर चलोगे तो पगला जाओगे। पचास पर चलोगे तो कभी नहीं पहुंचोगे। चलोगे ही कैसे? बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे।
मैंने सुना है, एक मोटी महिला एक सिनेमा-घर में गई। उसने दो टिकट, जो आदमी सीट दिखला रहा था, उसको दिए। उसने पूछा: "दूसरे सज्जन कहां हैं?' उसने कहा: "क्षमा करें, मैं जरा मोटी हूं, तो ये दोनों कुर्सियां मेरे लिए ही ली हैं।' तो उसने कहा: "देवी जी, आपकी मर्जी है, लेकिन आप बड़ी झंझट में पड़ेंगी।' उसने कहा कि क्या झंझट? उसने कहा कि एक कुर्सी का नंबर इक्यावन है और दूसरी का इकसठ। अब इन दोनों पर बैठने में आपकी मर्जी...पर बड़ी अड़चन आएगी।
दो कुर्सी पर बैठा नहीं जा सकता।
एक राजनेता मुल्ला नसरुद्दीन को मिलने आए। तो मुल्ला अपना बैठा था, उसने यह भी न कहा कि बैठिए। चुनाव के वक्त में कौन राज-नेताओं को कहता है कि बैठिए! उसने ऐसा देखा बेरुखी से जैसे लोग भिखारियों की तरफ देखते हैं, कि आगे बढ़ो, कहीं और जाओ, समय खराब न करो! पर राजनेता नाराज हो गए। राजनेता ने कहा: आपको मालूम नहीं, मैं एम.पी. हूं! तो मुल्ला ने कहा: ठीक, बैठिए! राजनेता ने कहा: और एम.पी. ही नहीं, इस चुनाव के बाद कैबिनेट में जाने की आशा है, मंत्रिमंडल में पहुंच जाऊंगा। तो मुल्ला ने कहा, "बैठिए-बैठिए, दो कुर्सी पर बैठिए! अब और क्या सेवा कर सकता हूं?'
दो कुर्सी पर बैठना संभव नहीं है, चाहे मिनिस्टर हों आप। न तो रास्तों पर चलना संभव है; न दो घोड़ों पर सवारी हो सकती है; न दो नावों पर कोई यात्रा करता है। दुविधा में पड़ेंगे।
ठीक, रास्ते पर तो रास्ते का चुनाव करना पड़ता है। तो रास्ते पर जब तक हो, चुन लेना। साक्षी की बात ठीक लगे, साक्षी पर चले जाना। भक्ति की बात ठीक लगे, भक्ति पर चले जाना। मोहम्मद तुम्हारे हृदय में गूंज उठा दें तो उन्हीं के पीछे हो लेना; महावीर उठा दे तो उनके पीछे हो लेना। मैंने तुम्हारे सामने सभी द्वार खोल दिए हैं। सब द्वार से निकलने की कोशिश मत करना। द्वार से तो एक ही से निकलना। लेकिन सब द्वार खोल दिए हैं ताकि तुम्हें कोई भी ऐसी अड़चन न रह जाए। जो तुम्हारे मन के अनुकूल आ जाए, जिसके साथ तुम्हारा रस सिद्ध हो जाए, उससे उतर जाना। निश्चित ही। लेकिन जब तुम मंदिर के अंतर्गृह में पहुंचोगे तो तुम पाओगे, सभी द्वार वहीं ले आते हैं। जब तुम पर्वत के शिखर पर पहुंचोगे तो तुम पाओगे, जो पूरब से चढ़े थे, जो पश्चिम से चढ़े थे, वे भी आ गए; जो दक्षिण से चढ़े थे, वे भी आ गए; जो डोलियों पर निकले थे, वे भी आ गए; जो पैदल चले थे, वे भी आ गए; जो घोड़ों पर चले थे, वे भी आ गए; जो गीत गाते चले थे, वे भी आ गए; जो मौन चुपचाप चले थे, वे भी आ गए। सब आ गए!
मैं जहां हूं, वहां से लीहत्जू और दया और सहजो और अष्टावक्र में कुछ भी भेद नहीं है। वहां लीहत्जू अष्टावक्र में खो जाते हैं; अष्टावक्र दया में खो जाते हैं; दया कबीर में डूब जाती है। वहां सब एक हो जाती हैं। और नदियों का स्वाद भी अलग होता है, रंग-ढंग भी अलग होता है। लेकिन सागर में तो सभी का स्वाद फिर एक हो जाता है।
संन्यास क्रांति है

पांचवां प्रश्न: लोग पीते हैं लड़खड़ाते हैं;
एक हम हैं कि तेरी महफिल में
प्यासे आते हैं और प्यासे जाते हैं।

आपकी मर्जी! अपना-अपना चुनाव। अगर न पीने का तय ही कर रखा हो, कसम ही खा ली हो, तो कोई उपाय नहीं है फिर।
कहावत है: घोड़े को नदी तक ले जाया जा सकता है, लेकिन जबर्दस्ती घोड़े को पानी तो पिलाया नहीं जा सकता। तो हम नदी तक आपको ले आते हैं, फिर आपकी मर्जी। अगर आपको इसमें ही मजा आ रहा हो--आने-जाने में सार क्या है? थोड़ा चाहिए! और बहाने मत खोजिए। क्योंकि आदमी बहुत चालाक है। वह जुम्मेवारियां फेंकता है किसी और पर।
प्रश्न से ऐसा लगता है कि जैसा आपका कोई कसूर नहीं है।
बाजार-ए-मुहब्बत में कभी करती है तकदीर
बन-बन के बिगड़ जाता है सौदा मेरे दिल का।
कभी तकदीर को दोष देने लगे, कभी परिस्थिति को दोष देने लगे; कभी कुछ और कारण खोज लिया। ये सब बहाने-बाजियां हैं। न पीना हो न पीएं, लेकिन बहाने न खोजें। पीने के लिए हिम्मत चाहिए।
कहते हैं: "लोग पीते हैं, लड़खड़ाते हैं'!
आप लड़खड़ाने से डरते होंगे। पीने का तो मन दिखता है, नहीं तो पूछते ही क्यों, नहीं तो आते ही क्यों? लड़खड़ाने से डरते होंगे। पीना भी चाहते हैं और लड़खड़ाना नहीं चाहते। ऐसा तो नहीं होगा। पीएंगे तो लड़खड़ाएंगे। यह हिसाब होगा कहीं मन में भीतर कि कुछ इस तरकीब से पीएं कि लड़खड़ाएं न।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। कुछ ही दिन पहले एक सज्जन आए। वे कहने लगे कि आप संन्यास दे दें, मगर भीतरी! मैंने कहा: यह क्या मामला है? भीतरी संन्यास क्या? उन्होंने कहा कि ऐसा कि किसी को पता न चले। बस मेरे और आपके बीच की बात।
कुशलता निकालते हैं। किसी को पता न चले! घर लौट कर जाऊं तो पत्नी को, बच्चों को, किसी को पता न चले।
तो मैंने कहा: "फिर संन्यास की जरूरत भी नहीं है। मेरे साथ तो अगर पीना है तो लड़खड़ाना पड़े। सबको पता चलेगा। जगहंसाई होगी।'
तो कहने लगे: "अच्छा, फिर ऐसा करें कि माला भर पहन लूंगा। अगर भीतर पहनूं तो चलेगा, कि बाहर रखना जरूरी है?'
आदमी ने हिम्मत खो दी है। आदमी अति कमजोर हो गया है। बड़े हिम्मतवर लोग रहे होंगे, जो महावीर के साथ नग्न हो गए। उन्होंने न कहा कि महाराज, अगर कपड़ों के भीतर नग्न रहें तो चलेगा? चल सकता था। कपड़ों के भीतर सभी नग्न हैं, अड़चन ही क्या है? हिम्मतवर लोग रहे होंगे। साहसी लोग रहे होंगे। खूब लड़खड़ाए!
कहानी है जैन शास्त्रों में कि एक युवक महावीर को सुन कर लौटा। स्नानगृह में बैठा; उसकी पत्नी उसे स्नान करा रही है। उबटन लगाया है, उसके शरीर को मल-मल कर धो रही है। दोनों की बात होने लगी। पत्नी ने कहा कि आप भी सुनने गए थे महावीर को, मेरे भाई भी सुनते हैं। सोचते हैं वे भी संन्यास लेने का। उस युवक ने कहा: सोचते हैं! सोचने का मतलब ही है कि नहीं लेना चाहते। सोचना क्या? बात जंच गई, जंच गई। सोचना क्या? सोचने का मतलब क्या? सोचने का मतलब है कल लेंगे, परसों लेंगे।
पत्नी को जरा चोट लगी कि भाई का अपमान हुआ जा रहा है। तो पत्नी ने कहा कि नहीं, जरूर लेंगे, एक वर्ष और। तो पति ने कहा, एक वर्ष में तो मौत भी आ सकती है। और क्या भरोसा, एक वर्ष बाद बदल नहीं जाएंगे? हिम्मत नहीं है। क्षत्रिय हो कर यह बात! एक साल बाद! तो अभी चुप रहो, फिर एक साल बाद ही उठाना।
पत्नी को और भी चोट लगी। पत्नी ने कहा: तो आप भी सुनने जाते हैं, आप क्यों सोचते हैं, आप क्या एकदम से संन्यास ले सकते हैं?
पति उठा और स्नानगृह के बाहर हो गया। पत्नी ने कहा: "कहां जा रहे हैं?' वह बोला: "बात खतम हो गई।' उसने कहा: "अरे कपड़े तो पहनिए!' उसने कहा: "अब कपड़े पहन कर क्या करना, वह महावीर छुड़वा ही देंगे।'
पत्नी रोने लगी, चिल्लाने लगी; घर के लोग इकट्ठे हो गए। वह बाहर द्वार पर जा कर खड़ा हो गया सड़क पर। पिता-मां ने समझाया कि पागल, अरे यह बातचीत है, यह तो...। उसने कहा, "बातचीत नहीं, बात खतम हो गई। अब समझ में आ गई बात कि मैं दूसरे के लिए कह रहा हूं कि सोचने-विचारने में क्या रखा है, भीतर सोच-विचार तो मैं भी रहा था। बात समझ में आ गई, बात खतम हो गई।'
ऐसे हिम्मतवर लोग थे। धीरे-धीरे आदमी बहुत कमजोर हुआ--इतना कमजोर हुआ कि गैरिक वस्त्र पहनने में भी डरता है, कि माला भी ऊपर रखने में डरता है, कि कहीं कोई यह न कह दे कि अरे, तुम्हें यह क्या हो गया! कहीं कोई पागल न समझ ले!
तुम आते हो, रस तो तुम्हारा है। चसका तो लगा होगा। चाहे न पीया हो, लेकिन थोड़ी सी जो शराब यहां ढाली जाती है, हवा में भी तो उसकी वास हो जाती है, हवा में भी उसकी सुवास है। नासापुटों में कहीं से गंध पड़ गई होगी। और यहां जो पी कर मस्त होते हैं उनके आसपास भी तो हवा पैदा होती है, उसने तुम्हें छुआ होगा। पीना तो तुम चाहते हो, अन्यथा आते ही क्यों! लेकिन लड़खड़ाने से डरते हो। लड़खड़ाने की भी हिम्मत करो। पीने का मजा ही क्या अगर लड़खड़ाए न! फिर तो पीया न पीया बराबर हुआ।
संन्यास का अर्थ ही यही है कि पुराना जो जीवन था उजड़ेगा और नया जीवन बसेगा। क्रांति है संन्यास। पुरानी जमीन से उखड़ेंगी जड़ें और नई भूमि की तलाश करनी होगी। बीच में कठिन दिन भी बीतेंगे। संक्रमण का काल अड़चन का भी होगा। लोग हंसेंगे भी, व्यंग्य भी करेंगे। लोग सदा से ही करते रहे हैं। लोगों का करने में कसूर भी नहीं है। वे जब तुम्हारा व्यंग्य करते हैं और हंसते हैं तो वे यह तुम पर हंस रहे हैं, ऐसा मत सोचो, वे अपनी रक्षा कर रहे हैं। वे भी डर गए हैं। तुम जब गैरिक वस्त्र पहन कर और मस्त हुए चले आए नाचते, तो जो आदमी तुम पर हंसता है, वह भी डर गया है। वह यह देख रहा है कि अगर इस आदमी का विरोध न किया तो कहीं भीतर हमको भी यह आकर्षण न पकड़ ले! वह विरोध करता है अपनी रक्षा के लिए। वह कहता है, गलत हो तुम। वह चिल्ला कर कहता है कि गलत हो, कि तुम पागल हो गए। वह असल में यह कह रहा है कि यह पागलपन कहीं मुझे न हो जाए।
जब भी तुम किसी व्यक्ति का विरोध करने लगो तो गौर से भीतर देखना, कहीं तुम्हारे भीतर उस तरफ जाने का आकर्षण होगा। इसलिए विरोध है, नहीं तो विरोध भी नहीं होगा। जो तुम्हारा विरोध करते हैं वे तुम्हारे पीछे चलेंगे, तुम जरा लड़खड़ाओ।
दिल का उजड़ना सहल सही, बसना सहल नहीं जालिम!
बसती बसना खेल नहीं, बसते बसते बसती है।
थोड़ा समय लगता है। फिर लड़खड़ाने में भी एक अनुशासन आ जाता है। फिर मस्ती में भी एक नियम होता है, एक स्वर्ण-नियम होता है। पागलपन की भी एक विधि है। पहले-पहल पागलपन लगता है, फिर धीरे-धीरे सब थिर हो जाता है। और तब तुम पहली बार बुद्धिमान हुए। संसार तुम्हें पागल कहेगा, लेकिन तुम जानोगे कि तुम पागल अब तक थे; अब पहली बार तुम्हें जीवन में किरण उतरी और पागल पन मिटा।
थोड़ा साहस करो। संन्यास साहस है। और यह तो मधुशाला है। इस बार लड़खड़ाते ही जाओ। तुम्हारा साहस हो तो मैं तो आशीर्वाद देने को सदा तैयार हूं।
जाने किस आशंका से डरते हम
जो नहीं चाहते बरबस करते हम
करते हैं सिर्फ बहाना जीने का
जीवन भर कदम-कदम पर मरते हम।
घबरा किस बात से रहे हो? खोने को है क्या? खोने को तुम्हारे पास है क्या? डर क्या है? बचा क्या रहे हो? कुछ भी नहीं है। और वही किए चले जा रहे हो जो तुम नहीं करना चाहते। और जो तुम करना चाहते हो, उसको करने से डरते हो। इसे पहचानो। बहाने मत खोजो। और अगर जरा सा साहस करो तो अपरिचित में यात्रा शुरू हो जाए।
साहस बार-बार मैं दोहराता हूं, क्योंकि परमात्मा भी अपरिचित है; अभी अनजानी मदिरा है, कभी चखी नहीं; अभी अनजाना मार्ग है, कभी गए नहीं। राजपथ नहीं है परमात्मा; जंगल की पगडंडी है। अकेले पड़ जाओगे। भीड़-भाड़ तो राजपथ पर छूट जाएगी। राजनेता, भीड़-भाड़, शोरगुल मचाने वाले, जुलूस, शोभायात्राएं सब राजपथ पर छूट जाएंगी। संन्यास तो एकाकी होने की यात्रा है। ध्यान तो अकेले होने का उपाय है। भक्ति में डूबने का अर्थ है संसार तो भूलने लगेगा; बस सारा ध्यान एक उस दूर के तारे पर टंका रह जाएगा। बस वह एक तारा ही रह जाएगा तुम्हारे भीतर, और सब धीरे-धीरे खो जाएगा। इसलिए डर लगता है: उतने अकेले में जाना! उतने एकांत में जाना! सारे संबंधों के पार अतिक्रमण करना!
इसलिए साहस धार्मिक व्यक्ति का अनिवार्य लक्षण है। हिंसक भी धार्मिक बन सकता है; क्रोधी धार्मिक बन सकता है। कामी धार्मिक बन सकता है; लेकिन कायर धार्मिक नहीं बन सकता। इसे तुम सोचना, इस पर ध्यान करना।
तुम्हारे धर्मशास्त्र यही कहते हैं कि हिंसा छोड़ो, क्रोध छोड़ो, काम छोड़ो। मैं तुमसे कहता हूं, कायरता छोड़ो। क्योंकि कायरता नहीं छोड़ी तो हिंसा कैसे छोड़ोगे? कायरता नहीं छोड़ी तो क्रोध कैसे छोड़ोगे? कायरता नहीं छोड़ी तो धन कैसे छोड़ोगे? कायरता नहीं छोड़ी तो संबंध कैसे छोड़ोगे? कायरता छोड़ी तो पहला कदम उठाया। अब तुम बलशाली हुए; अब तुम कुछ भी छोड़ सकते हो।
कोई कल का निरा अपरिचित
जीवन का आधार बन गया।
तुम असहाय हो जाओ और तुम पाओगे कि परमात्मा का सहारा मिल गया।
कोई कल का निरा अपरिचित
जीवन का आधार बन गया।
बांध रही एकाकी मन को।
यादों की जंजीर सुनहली
निंदियारी पलकों ने खोई
सपनों की जागीर रुपहली
रोम-रोम पर एक अजानी
मीठी सी सिहरन का पहरा
दृष्टि-परिधि में भी न रहा जो
सांसों का आगार बन गया।
जिसकी कभी कोई खबर ही न मिली थी, जिसे कभी देखा भी न था...।
दृष्टि-परिधि में भी न रहा जो
सांसों का आगार बन गया।
वही तुम्हारी सांस-सांस में समा जाएगा।
आश्वासन के शब्द-पखेरू
वचनों की शाखों पर चहके
अभिलाषा के कमल-वनों में
सुरभित धीरज पद-पद महके
उग आए हैं बोल प्यार के
भोले-भाले प्रणय अजिर में
नाम किसी का अनजाने ही
गीतों का आभार बन गया।
जिस नाम से तुम्हारी कोई पहचान नहीं है, जो अब तक अनाम है...।
नाम किसी का अनजाने ही
गीतों का आभार बन गया
अंतर के दर्पण में मैंने
ज्योति विनंदन रूप उतारा
पर असीम को सीमित करना
सहज नहीं, इससे मैं हारा
निर्वसना असफल रेखाएं
हाथ उठा कर गगन निहारें
चित्र किसी का प्राण अजाने
मेरा ही आकार बन गया।
थोड़ा साहस, थोड़ी हिम्मत, थोड़ा अनजान-अपरिचित में जाने की चुनौती को स्वीकार करो। और तुम अकेले नहीं रहोगे। परमात्मा तुम्हारे साथ है। पर इसके पहले कि परमात्मा तुम्हारे साथ हो, तुम्हें अकेले होने का साहस दिखाना पड़ेगा। परमात्मा उन्हीं के साथ है जो अकेले हैं।
खटखटाओ और द्वार खुलेगा

आखिरी प्रश्न: प्रभु को न पाया तो हर्ज क्या है?

हर्ज तो कुछ भी नहीं। क्योंकि हर्ज का तो पता ही तब चलेगा जब प्रभु को पा लोगे। जो मिल जाए उसके ही खोने पर हर्ज होता है। जो मिला नहीं, उसके खोने का हर्ज तो पता कैसे चलेगा? जो तुम्हारे पास अभी नहीं है, उसे पाने से क्या होगा, लाभ होगा कि हानि होगी, अभी तो अनुमान ही नहीं किया जा सकता।
छोटा बच्चा अगर पूछे कि जवान अगर न हुए तो हर्ज क्या है, तो क्या कहोगे? मुश्किल है समझाना कि जवान न हुए तो हर्ज क्या है। अंधा आदमी पूछे कि अगर आंखें न मिलीं तो हर्ज क्या है? प्रकाश को तो अंधे ने कभी जाना नहीं। तो उसे पता नहीं कि प्रकाश का साम्राज्य, प्रकाश के रंगों का जाल, इंद्रधनुष, सूरज, चांदत्तारे, फूल, वृक्ष, यह सारा जो प्रकाश का अपूर्व संसार है, इससे वह वंचित है। उसे पता ही नहीं। वह अगर कहे कि अगर आंख ठीक न भी हुई तो हर्ज क्या है, कैसे समझाओगे कि हर्ज क्या है? क्योंकि हर्ज को समझाने का तो एक ही उपाय है कि पास हो और खो जाए तो पता चलता है कि हर्ज हुआ।
तुम पूछते हो: "प्रभु को न पाया तो हर्ज क्या है?'
मैं जानता हूं कि हर्ज क्या है। तुम्हारा प्रश्न भी सार्थक है। तुमने प्रभु को जाना नहीं है। तुम कैसे समझोगे कि हर्ज क्या है? दूसरी तरफ से चलें।
अभी तुम जिसे जीवन कह रहे हो, उसमें क्या है? कुछ भी ऐसा है क्या जिसके लिए जीना सार्थक मालूम पड़े? कुछ भी ऐसा है क्या कि तुम चाहो कि दुबारा जीना चाहो? अगर परमात्मा तुमसे पूछे कि दुबारा जीवन देते हैं तो क्या तुम इसी भांति फिर से जीना चाहोगे जैसे तुम अभी जी रहे हो? ठीक ऐसे ही फिर से जीना चाहोगे? सोचना इसे। नहीं जीना चाहोगे। क्योंकि कुछ भी तो नहीं है। खाली-खाली, रूखा-रूखा! कहीं न तो फूल खिलते, न कोई वीणा बजती। हृदय वेणु उठाता ही नहीं; हृदय पर कोई संगीत जगता ही नहीं। कहीं कुछ भी तो नहीं है। चले जा रहे धक्के खाते। चले जा रहे, क्योंकि क्या करो! चले जा रहे, क्योंकि पाया कि जीवन में हो, इसलिए चले जा रहे हो। एक दिन मौत आ जाएगी, समाप्त हो जाओगे। शायद जाने-अनजाने आदमी मौत की प्रतीक्षा भी करता है।
सिग्मंड फ्रायड ने दो वासनाएं आदमी की मूल वासनाएं मानी हैं: एक कामवासना और दूसरी मृत्यु-वासना। बड़ी अनूठी बात है। एक तो कामवासना है जो आदमी को धकाए रखती है। और फ्रायड कहता है कि उससे भी गहरे नहीं अचेतन में एक आशा बनी रहती है कि है तो जीवन व्यर्थ, आज नहीं कल मौत आएगी, सब ठीक हो जाएगा।
तुमने कभी खयाल किया? तुम्हारे जीवन में मौत की प्रतीक्षा के अतिरिक्त और क्या है? यह रूखा-सूखा वृक्ष अगर गिर जाएगा तो हर्ज क्या?
तो मैं इसे दूसरी तरफ से लेता हूं। अगर यही जीवन है तो इसको खोने में हर्ज क्या है, मैं पूछता हूं। यह रोज सुबह उठना, दफ्तर जाना, घर लौट आना, फिर सो जाना, फिर झगड़ा, फिर फसाद--अगर यही जीवन है तो इसे खोने में हर्ज क्या है? यही तो दुनिया के बड़े से बड़े विचारक पूछते हैं।
पश्चिम का बड़ा विचारक है ज्यां पाल सार्त्र। वह पूछता है: अगर यही जीवन है तो आत्महत्या करने में हर्ज क्या है? यह बात ऐसे ही टाल देने की नहीं है। आत्महत्या बड़े से बड़ा सवाल है। क्योंकि अगर इसी को जीवन कहते हो तो कोई आदमी आत्महत्या कर लेना चाहे तो इसमें आश्चर्य क्या है? कल भी तो तुम यही करोगे न! फिर सुबह उठोगे, फिर चाय पीयोगे, फिर पत्नी से झगड़ोगे, फिर अखबार पढ़ोगे, फिर दफ्तर जाओगे। ऐसे ही जैसे कि ग्रामोफोन रिकार्ड खराब हो जाता है और सूई फंस जाती है एक ही जगह और दुहरती रहती है-- वही लकीर, वही लकीर, वही लकीर! ऐसा तुम्हारा जीवन है टूटा-फूटा ग्रामोफोन रिकार्ड।
तुम पूछते हो: "प्रभु को न पाया तो हर्ज क्या है?'
तुम्हारे जीवन में अभी है ही क्या?
प्रभु को पाने का कुल इतना ही अर्थ है कि तुम्हारे जीवन में अर्थ आ जाए। और तो कुछ अर्थ नहीं है। प्रभु को पाने का इतना ही अर्थ है कि तुम्हारे जीवन में सुरभि आ जाए, सुगंध आ जाए, संगीत आ जाए। तुम्हारे जीवन में उत्सव आ जाए, उमंग आ जाए! तुम्हारा जीवन ऐसा बासा-बासा, उधार-उधार न रह जाए; ताजा हो! सुबह जैसा ताजा हो! सुबह के ओस-कणों जैसा ताजा हो, कुंआरा हो। तुम्हारे जीवन में चांदत्तारों की झलक हो। होनी चाहिए। क्योंकि मनुष्य के पास इस जगत में सबसे अनूठी चीज है: चेतना। इतनी अनूठी संपदा को पा कर तुम पा क्या रहे हो? दौड़-धूप करके थोड़ी तनखाह बढ़ जाएगी, कि थोड़ा तिजोड़ी में और धन इकट्ठा हो जाएगा, कि छोटी गाड़ी की जगह बड़ी गाड़ी आ जाएगी, कि छोटे मकान की जगह बड़ा मकान हो जाएगा।
तुम इस परम चैतन्य को पाकर कर क्या रहे हो? तुम इस परम चैतन्य से उपलब्ध क्या कर रहे हो? इस परम चैतन्य में तो सारे संसार का आनंद आ सकता है--
परमात्मा को पाने का इतना ही अर्थ है कि तुम्हारे द्वार आनंद के लिए खुल जाएं। सारे जीवन का उत्सव तुममें समा जाए। तुम नाच उठो। नहीं तो ऐसा समझो।
आज फूल रही कचनार
श्याम नहीं महलों में
सखी साजे वसंती सिंगार
सिंदूर-भरे अलकों में
चांद के संग हंसें
बात कहते रुकें
बांह छोड़ें-कसें
कामिनी गंध जैसी उम्र न समाए
रेशम चीर सुनहलों में
आज फूल रही कचनार
श्यान नहीं महलों में
जैसे किसी का प्रेमी घर में न हो, फूल खिलें--प्रेयसी को क्या!
आज फूल रही कचनार
आए उड़-उड़ पवन
करे ठंडा बदन
रूखे-फीके नयन
बीती जाए वसंती बहार
रैन बीते पलकों में
आज फूल रही कचनार
श्याम नहीं महलों में।
जैसे प्रेयसी का प्रेमी नहीं है, आकाश में चांद है और कचनार फूला है और ठंडी हवा बहती है और सब तरफ सुगंध है और सब तरफ चांदनी है--लेकिन क्या सार! श्याम नहीं महलों में! ऐसी ही दशा है आदमी की। जब तक परमात्मा, जब तक श्याम तुम्हारे अंतरतम में विराजमान नहीं हो जाए, तब तक यह सारा जीवन सूखा-सूखा है, खाली-खाली है, निर्जीव है, निष्प्राण है।
परमात्मा की खोज का अर्थ है तुम्हारे हृदय के सिंहासन पर विराजमान कर लेना है श्याम को। या नाम कुछ भी रखो। अभी तो तुम्हारा हृदय का सिंहासन खाली है। महल तो है, लेकिन सम्राट पता नहीं कहां है!
मिल गया जनम का तो उपहार मरण से भी
पर तेरे घर मेरी सुनवाई हुई नहीं।
बदला जग, बदला जीवन, बदले सिंहासन,
बदले आकाश-धरा बदले फागुन-सावन
पर जाने तू किस कंगन में कस गया मुझे
अब तक मेरी आजाद कलाई हुई नहीं।
दोहराया तेरा नाम कभी सागरत्तीरे
बादल बन कभी पुकारा रेगिस्तानों में
बन खेल-खिलौना खोजा भीड़त्तमाशों में
आवाज लगाई पहन कफन श्मशानों में
खो गया मुसाफिर स्वयं नापते हुए डगर
थक गए सांस के पांव खतम हो गया सफर
लेकिन अब तक इस पीड़ा के कारागृह से
मेरे तन-मन की तनिक रिहाई हुई नहीं।
जाने तू किस खिड़की से खड़ा झांकता हो
यह सोच झुकाया सिर हर मंदिर के द्वारे
जाने तू कब आ कर घर सांकल खटकाए
जीवन भर सोया नहीं इसी गम के मारे
हरदम ही आंखें रहीं भरी उघरी-उघरी
तिल-तिल घुल छीजी देह हुई रीती गगरी
लेकिन ओ मेरे चांद, बिना तेरे जग में
मेरे जीवन की रात जुन्हाई हुई नहीं।
परमात्मा के बिना मनुष्य एक अंधेरी रात है। परमात्मा के बिना जुन्हाई कभी होती नहीं, चांदनी कभी आती नहीं। परमात्मा के बिना आदमी एक बीज है--बंद, जड़। परमात्मा के साथ ही बीज अंकुरित होता है; फूलती-फलती जीवन-यात्रा शुरू होती है। परमात्मा के बिना मंदिर है और मूर्ति नहीं। तुम खाली हो, रिक्त! श्याम नहीं महलों में! और इसे तुम जानते हो।
तुम यह मत पूछो कि परमात्मा को न पाया तो क्या खो जाएगा। तुम प्रश्न यहां से पूछो कि अभी तुम्हारे पास है क्या? अगर परमात्मा को न पाया तो क्या पाओगे? प्रश्न ऐसा पूछो--ज्यादा सार्थक होगा, संगत होगा--अगर परमात्मा न मिला तो इस जीवन में मिला क्या? ऐसा पूछो। तो तुमने ठीक दिशा से खोज शुरू की।
परमात्मा का इतना ही अर्थ है कि तुम्हारे जीवन का सत्य प्रगट हो जाए। तुम जिस नियति को अपने भीतर लिए चल रहे हो, वह प्रगटे; तुम्हारा कमल खिले। जब कमल खिलता है तो परम उत्सव है; ऐसा ही परम उत्सव तुम्हारे भीतर घटे। इसलिए तो हमने बुद्ध को कमल पर बिठाया है, विष्णु को कमल पर खड़ा किया है। और योगियों ने मनुष्य के अंतिम ऊर्जा-स्रोत को सहस्रार कहा है, सहस्रदल कमल। जब तुम्हारी चेतना पूरी खिलती है तो जैसे हजार पंखुड़ियों वाला कमल खिल गया! उस दिन ही तुम जानोगे कि अब तक क्या खोया। उस दिन तुम जानोगे कि अब तक क्या खोया। उस दिन तुम जानोगे कि अब तक कितना गंवाया। उस दिन तुम जानोगे कि अरे, अब तक जिसको जीवन कहा था वह जीवन था ही नहीं।
श्री अरविंद ने कहा है कि जब जागा तो जाना कि जिसे जीवन कहा था वह तो मृत्यु से भी बदतर था; जिसे रोशनी समझा था वह तो महा अंधकार था, और जिसको अमृत समझ कर पीता रहा वह तो जगह था।
एक तिब्बती कथा है। एक बौद्ध भिक्षु राह भटक गया है। रात हो गई। थोड़े से टिमटिमाते तारे हैं, आकाश में थोड़ी सी रोशनी है। वह दिन भर का प्यासा है। सब तरफ खोजता है, कहीं कोई एक टिमटिमाता दीया भी दिखाई नहीं पड़ता। प्यास, भूख...। गिर पड़ता है थका-मांदा घुटने के बल और याद करता है बुद्ध की। स्मरण करता है कि प्रभु, अब तुम सहायता करो; मैं मर जाऊंगा। पानी चाहिए इसी वक्त; कंठ सूखा जा रहा है। और जैसे ही वह भूमि पर गिरता है तो देखता है कि एक स्वर्ण-पात्र सामने ही रखा है--जल से भरा। उठा कर जल को पी जाता है। पात्र को वहीं रख कर सो जाता है। बड़ा आनंदित है कि प्रभु की कृपा!
सुबह जब आंख खुलती है तो बड़ा घबराता है। वहां कोई स्वर्ण-पात्र नहीं है। सामने एक आदमी की खोपड़ी पड़ी है। और खोपड़ी भी साधारण नहीं है। आदमी शायद जल्दी ही, कुछ ही दिन पहले मरा होगा। किसी जंगली जानवर ने मार डाला है। लहू अभी तक लगा है। मांस के टुकड़े चिपके हैं। मांस सड़ गया है, कीड़े-मकोड़े पड़ गए हैं। और उसी में थोड़ा पानी है। रात वह इसी को पी गया है। गहरी प्यास के क्षण में, थकान के क्षण में, रात वह इसी को पी गया है। गहरी प्यास के क्षण में, थकान के क्षण में, रात के अंधेरे में स्वर्ण-पात्र मालूम पड़ा था। अब दिन के उजाले में समझ पड़ी कि स्वर्ण-पात्र कहां, आदमी की खोपड़ी है, सड़ी-गली खोपड़ी है! घबरा जाता है। वमन हो जाता है घबराहट में। रात भर मजे से सोया; न कोई वमन था न कोई बात थी। उलटी हो जाती है। उसे सारी बात समझ में आ जाती है; सारे संसार का राज समझ में आ जाता है।
ऐसी ही मूर्च्छा में जिसको तुमने अभी स्वर्णपात्र समझा है, वह आदमी की खोपड़ी जैसी गंदी चीज है। जिसको तुमने अभी प्रेम समझा है, वह बड़ी कीचड़-भरी बात है। जिसको अभी तुमने जीवन समझा है, वह जरा भी जीवन नहीं है। जिस दिन आंख खुलेगी...परमात्मा का अर्थ: आंख का खुलना...जिस दिन आंख खुलेगी, उस दिन तुम चौंक कर देखोगे: अरे, जो अब तक जीवन था, मृत्यु से बदतर था।
लेकिन यह तो बाद में घटेगी बात। अभी? अभी तो तुम्हें यह बात कैसे समझ में आए? इसलिए इसे अभी छोड़ो। अभी तो तुम इस तरह सोचो कि तुम्हारे जीवन में क्या है? अगर तुम पाओगे तुम्हारे जीवन में कुछ भी नहीं है, तो फिर खोज करनी जरूरी है। तो इस समय का, जो तुम्हारे हाथ में है, उपयोग कर लो।
इतना मैं तुमसे कहता हूं: जो खोज करता है, जरूर पाता है। जो खोजता है, मिलता है उसे। जिसने द्वार खटखटाया, उसके लिए द्वार खुलते हैं। खोजी कभी खाली हाथ वापस नहीं लौटता। साहस से खोजो। अभी जीवन में कुछ भी नहीं है। ऐसे उलटे प्रश्न पूछ कर कि ईश्वर को पाने से क्या लाभ, चेष्टा मत करो अपने को समझाने की कि ईश्वर को पाने में कुछ लाभ नहीं है। तो फिर यही करते रहो जो कर रहे हो, क्योंकि ईश्वर को पाने में क्या लाभ है!
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे पूछते हैं: ध्यान करने से क्या लाभ है? मैं उनसे पूछता हूं कि अब तक क्रोध किया, कभी पूछा कि क्रोध करने से क्या लाभ? नहीं पूछा। ध्यान करने के लिए पूछते हो क्या लाभ है! अब तक हिंसा की, द्वेष किया,र् ईष्या की--कभी पूछा क्या लाभ? वे कहते हैं, नहीं, पूछा नहीं अब तक। तो मैं कहता हूं: मेरे सामने ही अब पूछो कि क्रोध अब तक किया, क्या लाभ! वे कहते हैं, कुछ लाभ नहीं। तो मैं उनसे पूछता हूं: अब क्रोध करोगे कि नहीं? घबरा जाते हैं। लाभ तो कुछ भी नहीं, फिर? अगर लाभ से ही जी रहे हो तो क्रोध छोड़ दो, कामवासना छोड़ दो,र् ईष्या छोड़ दो। लाभ तो कुछ पाया नहीं है। और अगर तुम क्रोध, कामवासना,र् ईष्या, लोभ, मोह छोड़ दो तो तुम्हें तत्क्षण ध्यान का लाभ दिखाई पड़ने लगेगा। क्योंकि उनके छोड़ने में ही ध्यान होने लगेगा।
ध्यान का लाभ तो ध्यान में उतर कर ही पता चलेगा; पहले कैसे पता चले? गूंगे केरी सरकरा!--कबीर ने कहा है। जिन्होंने ले लिया है स्वाद, वे भी समझा नहीं सकते। वे यही तुमसे कह सकते हैं कि तुम भी स्वाद ले लो।
यही मैं तुमसे कहता हूं। परमात्मा को पाने के बाद ही पता चलता है कि बस एक ही चीज लाभ की थी संसार में--वह है परमात्मा। और सब व्यर्थ है। लेकिन, यह स्वाद के बाद की बात हुई। अभी तो तुम इतना ही पूछो, बार-बार पूछो कि मेरे जीवन में अभी क्या है? जीवन की हर चीज को उठा कर निरीक्षण करो। हर चीज को खोलो और देखो: क्या है? तुम कुछ भी न पाओगे। सन्नाटा है! कोरा सन्नाटा है! इस कोरेपन से ही तुम्हारे भीतर महत्वाकांक्षा उठ रही है कि धन से भर लो, पद से भर लो, किसी चीज से भर लो। भीतर सब खाली-खाली है, किसी चीज से भर लो। भीतर का खालीपन काटता है। तुम भरते रहो कितना ही, भर न पाओगे। क्योंकि धन भीतर जा नहीं सकता और पद भी भीतर नहीं जा सकता। बड़ा मकान कितना ही बड़ा हो, भीतर नहीं जा सकता। दुकान कितनी ही बड़ी हो, भीतर नहीं जा सकती। भीतर तो सिर्फ एक ही जा सकता है--वह है परमात्मा। क्योंकि वह भीतर है ही। वही प्रगट हो जाए भीतर तो तुम भीतर भी जाओगे।
भीतर भर जाने का नाम परमात्म-उपलब्धि है। और भीतर जब तुम भरे-पूरे हो, पूरे-पूरे भरे हो, तब तृप्ति है, तब परितोष है, संतोष है, सच्चिदानंद है।

आज इतना ही।






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