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शुक्रवार, 30 मार्च 2018

महावीर या महाविनास--(प्रवचन-03)

आत्म-दर्शन की साधनाप्रवचन-तीसरा


मेरे प्रिय आत्मन् ,
भगवान महावीर के इस स्मृति दिवस पर थोड़ी सी बातें उनके जीवन के संबंध में कहूं, उससे मुझे आनंद होगा।
भगवान महावीर, जैसा हम उन्हें समझते हैं और जानते हैं, जो चित्र हमारी आंखों में और हमारे हृदय में उनका बन गया है, जिस भांति हम उनकी पूजा करते और आराधना करते हैं, जिस भांति हमने उन्हें भगवान के पद पर प्रतिष्ठित कर लिया है, उस चित्र में मुझे थोड़ी भूल दिखाई पड़ती है और महावीर के प्रति थोड़ा अन्याय दिखाई पड़ता है।
महावीर का पूरा उदघोष, उनके जीवन का संदेश एक बात में निहित है कि इस जगत में कोई भगवान नहीं है। उनका उदघोष इस बात में निहित है कि किसी की पूजा और किसी की प्रार्थना आनंद का और मुक्ति का मार्ग नहीं है। कोई आराधना, कोई प्रार्थना, कोई पूजा सत्य तक और आत्मा तक नहीं ले जाती है।

महावीर को समझना है तो प्रार्थना को, आराधना को नहीं, ध्यान को और समाधि को समझना होगा। प्रार्थना और आराधना भगवान से की जाती है, किसी ईश्वर से। ध्यान किसी ईश्वर से नहीं किया जाता। प्रार्थना, आराधना किसी भगवान के लिए हैं। ध्यान, जो भीतर सोया हुआ है, उसे जगाने के लिए है।
महावीर किसी भगवान के आराधक नहीं हैं; किसी भगवान के, जो आकाश में हो, उसके पूजक नहीं हैं; किसी भगवान के लिए उनकी प्रार्थना-उपासना नहीं है। उनका मानना है कि कुछ हमारे भीतर प्रसुप्त है, सोया हुआ है, उसको जगाना है। ईश्वर कहीं और दूसरी जगह विराजमान नहीं, प्रत्येक चैतन्य के भीतर सोई हुई शक्ति का नाम है। उसे उठाना, उसे आविर्भाव करना, उसे उत्तिष्ठित और जाग्रत करना है। इसलिए किसी की प्रार्थना नहीं करनी, क्योंकि प्रार्थना कौन करेगा? भगवान अगर भीतर मौजूद है, तो प्रार्थना कौन करेगा और किसकी करेगा? जो प्रार्थना कर रहा है, वही अगर भगवान है, तो प्रार्थना किसकी होगी? प्रार्थना नहीं हो सकती। लेकिन जो भीतर है, उसे जगाने और उठाने और उसे उत्तिष्ठित करने के प्रयास हो सकते हैं।
महावीर का मार्ग भक्ति का मार्ग न होकर, ज्ञान का मार्ग है। उनका मार्ग भगवान के लिए प्रार्थना का न होकर, वह जो परमात्म-शक्ति प्रत्येक के भीतर प्रसुप्त है, उसे जगाने, उसे जाग्रत करने का मार्ग है।
इस सत्य को प्राथमिक रूप से मैं इसलिए कह रहा हूं कि उसे समझे बिना महावीर की परिपूर्ण, उनके व्यक्तित्व का पूरा रूप, उनका पूरा जीवन स्पष्ट नहीं होता है।
हमने उन्हें भी ईश्वर में परिणत कर दिया है। हमने उनके भी मंदिर बनाए, उनकी भी मूर्तियां बनाईं और हमने उनकी पूजा और प्रार्थना प्रारंभ कर दी है! और हम इस भ्रांति में हैं, और अनेक लोग इस भ्रांति के समर्थक हैं, कि उनकी पूजा और प्रार्थना से, उनकी आराधना से कल्याण होगा! अनेक-अनेक लोग इस समर्थन में प्रतीत होंगे कि उनकी पूजा और प्रार्थना से कल्याण होगा! जब कि महावीर की उदघोषणा यह है कि किसी की पूजा और किसी की प्रार्थना कल्याण नहीं ला सकती है। कल्याण तो आत्म-जागरण से होगा, किसी के नाम-स्मरण से नहीं। महावीर-महावीर या अरिहंत-अरिहंत कहने से नहीं, बल्कि उस स्थिति में उतरने से, जहां सब कहना बंद हो जाता है। किसी नाम के उदघोष से नहीं, बल्कि उस चैतन्य में प्रवेश करने से, जहां सब नाम छूट जाते हैं। किसी विचार का बार-बार आवर्तन करने से नहीं, बल्कि उस निर्विचार दशा में, जहां समस्त विचार विसर्जित हो जाते हैं, वहां उसका दर्शन होगा, उसकी अनुभूति होगी, उसका जागरण होगा, जो प्रभु है।
तो महावीर को भगवान मान कर जो हम चल पड़ते हैं, उसमें महावीर की प्रतिष्ठा और सम्मान नहीं, उसमें हमारा अज्ञान और नासमझी है। उसमें उनका सम्मान नहीं, हमारा अज्ञान और हमारी कमजोरी और हमारी असहाय, अपनी हीनता की धारणा है। प्रत्येक व्यक्ति इतना हीन अनुभव करता है कि बिना किसी के कल्याण किए मेरा कल्याण कैसे होगा! सारे जगत में, सारे लोगों में ईश्वर की जो सहायक की तरह धारणा विकसित हुई, उसके पीछे मनुष्य के मन में छिपी हुई हीनता और दुर्बलता है। हमें लगता है, हम इतने कमजोर! हम इतने हीन! हम अपने से कैसे आनंद को, मोक्ष को, ज्ञान को उपलब्ध हो सकते हैं! कोई सहारा चाहिए, कोई पथ-द्रष्टा चाहिए, कोई हाथ चाहिए जो हमें आगे बढ़ाए। महावीर की क्रांति इसी बात में है कि वे कहते हैं कोई हाथ ऐसा नहीं है जो तुम्हें आगे बढ़ाए। और किसी काल्पनिक हाथ की प्रतीक्षा में जीवन को व्यय मत कर देना। कोई सहारा नहीं है सिवाय उसके, जो तुम्हारे भीतर है और तुम हो। कोई और सुरक्षा नहीं है, कोई और हाथ नहीं है जो तुम्हें उठा लेगा, सिवाय उस शक्ति के जो तुम्हारे भीतर है, अगर तुम उसे उठा लो। महावीर ने समस्त सहारे तोड़ दिए। महावीर ने समस्त सहारों की धारणा तोड़ दी। और व्यक्ति को पहली दफा उसकी परम गरिमा में और महिमा में स्थापित किया है। और यह मान लिया है कि व्यक्ति अपने ही भीतर इतना समर्थ है, इतना शक्तिवान है कि यदि अपनी समस्त बिखरी हुई शक्तियों को इकट्ठा करे और अपने समस्त सोए हुए चैतन्य को जगाए, तो अपनी परिपूर्ण चेतन और जागरण की अवस्था में वह स्वयं परमात्मा हो जाता है।
व्यक्ति के भीतर हीनता, असहाय अवस्था के बोध का विसर्जन महावीर को समझने का पहला चरण है। वे कोई सहारा, कोई काल्पनिक सहारा नहीं देना चाहते हैं।
मुझे स्मरण आता है, उनका निकटतम शिष्य था गौतम। गौतम के पीछे जो लोग आए, वे मुक्ति को, समाधि को उपलब्ध हो गए, लेकिन गौतम नहीं हुआ। महावीर ने बार-बार गौतम को कहा कि तुझे बहुत देर हुई, बहुत ज्ञान को सुनते-विचारते समय बीता, अब तक तुझे स्वयं प्रज्ञा उत्पन्न क्यों नहीं हो रही। तू थोड़ा समझ!
गौतम कहता है, मैं सब समझने की चेष्टा कर रहा हूं। न मालूम कौन सी बाधा है जो मुझे रोकती है।
और फिर महावीर का महापरिनिर्वाण भी हो गया। गौतम अमुक्त था, अमुक्त ही रहा। जिस दिन महावीर ने देह त्यागी, गौतम पास के गांव में गया था। वह जब लौटता था, राहगीरों ने खबर दी कि महावीर देह को त्याग दिए हैं।
गौतम वहीं रोने लगा। और उसने कहा, मेरा क्या होगा? उन भगवान के रहते भी मैं समाधि को और सत्य को उपलब्ध नहीं हुआ। उन भगवान की छाया में रह कर भी मैंने उस अंतः-शक्ति के जागरण को अभी अनुभव नहीं किया। उन भगवान की मौजूदगी में भी मैं अभी आत्म-साक्षात नहीं कर सका हूं। मेरा क्या होगा! मैं तो डूब गया! मुझे भी क्या उन भगवान ने अंतिम समय में स्मरण किया था? मेरे लिए भी कोई स्वर्ण-सूत्र छोड़ा है?
राहगीरों ने कहा, महावीर ने कहा है गौतम को कह देना--और वह बात मैं आज समस्त उन लोगों से कह देना चाहता हूं जो महावीर को प्रेम करते, आदर करते, भगवान की तरह पूजते हैं--महावीर ने कहा है कि गौतम को कह देना, तू पूरी नदी पार कर गया अब किनारे को पकड़ कर क्यों रुका है? तू सब कुछ पा चुका अब महावीर को पकड़ कर क्यों रुका हुआ है? इनको भी छोड़ दे!
यह अदभुत क्रांति की बात है। यह अदभुत क्रांति की बात है कि महावीर कहते हैं, मुझे भी पकड़ो मत, मैं भी तुमसे बाहर हूं, मैं भी तुमसे अन्य हूं, मैं भी तुम्हारी आत्मा नहीं हूं। संसार भी बाहर है, तीर्थंकर भी बाहर हैं। पकड़ो मत बाहर कुछ। बाहर सारी पकड़ छोड़ दो। जब बाहर की कोई भी पकड़ न होगी तो भीतर उसका जागरण होगा, उसका दर्शन होगा, जो बाहर चीजों के पकड़ लेने के कारण दिखाई नहीं पड़ता है। जो बाहर की चीजों से छिप जाता, आवृत हो जाता है, उसकी अनुभूति होगी।
यह अदभुत क्रांति की बात है कि कोई शास्ता, कोई गुरु यह कहे, मुझे भी छोड़ दो!
आमतौर से गुरु कहेगा, मुझे पकड़ो! मेरा अनुसरण करो! मैं हूं मार्ग! मेरी शरण में आओ, मैं हूं सब कुछ! मैं तुम्हें पार कर दूंगा! मैं तुम्हें द्वार दिखा दूंगा सत्य का! मैं तुम्हें परमात्मा तक पहुंचा दूंगा! आमतौर से गुरु कहेगा, मैं सब कुछ हूं, मुझे स्वीकार करो। तुम नहीं स्वीकार करते हो, वही कमजोरी है। पूरी तरह स्वीकार करो।
महावीर बड़े उलटे व्यक्ति मालूम होते हैं। वे कहते हैं, मुझे भी छोड़ दो! दुनिया में वैसा गुरु खोजना कठिन है, जो कहे मुझे भी छोड़ दो। मेरा अनुकरण मत करो, क्योंकि मैं भी बाहर हूं। अपनी ही आत्मा का अनुसरण करो।
जो फर्क मैं समझाना चाह रहा हूं...अगर मैं आपसे कहूं, मेरा अनुगमन करो, तो मेरे पीछे आप चलेंगे। यह चलना बाहर चलना है। क्योंकि किसी अन्य का अनुगमन कर रहे हैं। महावीर कहते हैं, बाहर किसी का अनुगमन नहीं करना है। बाहर के सब रास्ते संसार में ले जाते हैं। किसी का अनुगमन नहीं करना, अपनी ही आत्मा का अनुसरण करना है। किसी की शरण में नहीं जाना, आत्म-शरण बनना है।
महावीर की साधना अ-शरण की साधना है। किसी की शरण नहीं जाना, अपनी ही शरण में आना है। इस मौलिक क्रांतिकारी बिंदु को समझ लेना जरूरी है। इसको समझ कर, फिर महावीर की साधना की क्रांति समझ में आ सकती है।
तो मैं पहली बात आपसे कहूं, महावीर को भगवान के रूप में स्थापित करके हम महावीर के साथ अन्याय कर रहे हैं। महावीर नहीं चाहते कि उन्हें भगवान की तरह स्थापित करो। महावीर चाहते हैं कि तुम अनुभव करो कि तुम भगवान हो। महावीर चाहते हैं, उन्हें परमात्मा की तरह नहीं, तुम अनुभव करो कि तुम्हारे भीतर परमात्मा मौजूद है। मनुष्य की अंतरात्मा ही परिशुद्ध होकर परमात्मा हो जाती है, यह उनका संदेश है।
और इस बात को...यदि ठीक से दिखाई पड़े कि हमारे भीतर कौन है जिसे हम परमात्मा कह सकें? जिस देह को हम जानते हैं, उस देह में तो कोई परमात्मा जैसा नहीं है। जिस मन को हम जानते हैं, उसमें तो कोई परमात्मा जैसा नहीं है। देह तो बिलकुल पशु है। देह में क्या है जो परमात्मा हो? देह में तो सब कुछ है जो पशु है। एक मनुष्य की देह में और पशु की देह में कोई भेद नहीं है। देह के नियम वही हैं, जो पशु की देह के नियम हैं। देह की दृष्टि से आप पशु से या कोई भी पशु से भिन्न नहीं है। अगर हम अकेले देह ही मात्र हैं, अगर शरीर मात्र हैं, तो पशु ही हैं। तो देह में तो कोई परमात्मा नहीं हो सकता। मन में शायद परमात्मा हो!
मन को थोड़ा झांकें तो वहां भी पाएंगे, वहां तो पशु से भी बदतर कोई मौजूद है। अगर मन को देखेंगे तो पाएंगे, वहां तो पशु से भी बदतर कोई मौजूद है। इस जगत में कोई पशु इतना बदतर नहीं है, जितना मनुष्य का मन है। कितना पाप, कितनी घृणा, कितना द्वेष, कितनी हिंसा उसके मन में परिव्याप्त है! एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक ने कहा, अगर प्रत्येक व्यक्ति के मन का सारा लेखा-जोखा इकट्ठा किया जा सके, तो ऐसा आदमी पाना कठिन होगा, जो अपनी जिंदगी में अनेक लोगों की हत्या के विचार नहीं करता है। ऐसा आदमी पाना कठिन होगा, जो बड़े-बड़े डाके अपने मन में नहीं डालता है। ऐसा व्यक्ति पाना कठिन होगा, जो अनेक-अनेक रूपों में व्यभिचार की कल्पना और योजना नहीं करता है। वहां मन में एक-दो पापी नहीं, अनेक पापी जैसे इकट्ठा हैं। मन भी परमात्मा नहीं हो सकता।
यह महावीर कहते हैं कि तुम्हारे भीतर परमात्मा है। वह कहां होगा? यह देह तो पशु है। इसके भीतर जो मन है, वह और भी पशु से बदतर है। इस देह और मन, दोनों में परमात्मा नहीं हो सकता।
लेकिन हमारा जानना, हमारा पहचानना, हमारा बोध हमारे शरीर और मन के बाहर नहीं है। हम अपने शरीर को जानते हैं और अपने मन को जानते हैं। इनके पीछे तुम्हें किसी का कोई अंतर्दर्शन नहीं होता है। उस अंतर्दर्शन को उपलब्ध हुए बिना, जो शरीर और मन के पीछे है, कोई व्यक्ति इस सत्य को नहीं समझ सकेगा कि हमारे भीतर परमात्मा है। मैं किसी से कहूं, तुम्हारे भीतर परमात्मा है, तो बड़ी हैरानी भर होती है। ऐसा हमारा जानना नहीं है।
जोड ने, पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक ने लिखा है, मैं सुनता हूं कि पूरब के लोग कहते हैं, प्रत्येक के भीतर परमात्मा है! मैं अपने भीतर झांकता हूं तो सिवाय पशु के किसी को भी नहीं पाता हूं।
फ्रायड ने भी वही अनुभव लिए हैं, वही निष्कर्ष लिए हैं कि मनुष्य के भीतर पशु के सिवाय और कोई भी नहीं है। अभी जितना काम हो रहा है मन के ऊपर, उसका अनुभव यह है कि आप बहुत धोखे में हैं, मन में कोई परमात्मा जैसी चीज नहीं है। वहां परमात्मा की झलक भी नहीं है। अगर आप आधा घंटा अपने चित्त में चलते हुए चेतन-अचेतन विचारों की पर्तों को निरखें, उनका निरीक्षण करें, उनका आब्जर्वेशन करें, तो बहुत घबड़ा जाएंगे, बहुत तिलमिला जाएंगे, बहुत डर मालूम पड़ेगा, बहुत नरक मालूम पड़ेगा कि यह मेरे भीतर क्या है! यही मैं हूं! यही मेरा होना है! यही मेरी सत्ता है! बहुत घबड़ाहट मालूम होगी और उसी घबड़ाहट के कारण हममें से कोई भीतर जाना नहीं चाहता है। लाख कोई कहे, अपने को जानो! अपने को हम जानना नहीं चाहते, हम अपने को जानने से बचना चाहते हैं। हम चौबीस घंटे ऐसे उपाय कर रहे हैं कि अपने से कहीं मिलना न हो जाए, कहीं एनकाउंटर न हो जाए, मुलाकात न हो जाए। हम उसको भुलाने के हर उपाय कर रहे हैं। हमारे मनोरंजन, हमारी हंसी-खुशी, हमारे आमोद-प्रमोद उसको भुलाने के हैं। हमारे नशे उसको भुलाने के हैं। संगीत में, सेक्स में, शराब में हम उसको भुलाने की कोशिश कर रहे हैं, कि कहीं उस भीतर में देखना न पड़े कि वहां कौन है। जब तक जागते हैं, भुलाए रखते हैं। फिर सो जाते हैं, फिर उठते हैं, फिर लग जाते हैं! खाली अगर आपको छोड़ दें, आप बहुत तिलमिलाएंगे, बहुत घबड़ाएंगे। यह बड़ी अजीब सी बात है। अगर एक महीने आपको कोई पलायन का, एस्केप का अपने से मौका न दिया जाए, आप पागल हो जाएंगे।
एक ऐसी घटना हुई। इजिप्त में एक बादशाह हुआ। एक फकीर ने उस बादशाह से कहा कि तुम सोचते हो कि तुम बहुत समझदार हो! तुम बड़े अज्ञानी हो। तुम सोचते हो कि आत्म-ज्ञान की बातें करते हो! तुम अपने भीतर जाने से डरते हो। उस फकीर ने कहा, अगर एक महीना हम तुम्हें बंद कर दें--जो मैंने आपसे कहा--आप एक महीने में पागल हो जाओगे। अगर आपको मौका न दें अपने से बाहर भागने का, किन्हीं कामों में अपने को आक्यूपाइड कर लेने का, व्यस्त कर लेने का, उलझा लेने का, और आपको बार-बार अपने ही अपने को देखना पड़े, आप विक्षिप्त हो जाओगे।
बादशाह बोला, अजीब सी बात है। मैं प्रयोग करके देखूंगा।
एक भला-चंगा आदमी, जो उसके द्वार से रोज निकलता था खुश सांझ को काम करके। भरा-पूरा परिवार था, पत्नी थी, बच्चे थे, खुश नजर आता था। सुबह दफ्तर जाना, सांझ लौट आना। तो उसने एक सांझ को उस खुश लौटते आदमी को मार्ग से पकड़वा कर बुलवा लिया। उससे कहा कि तुम्हें महीने भर हम बंद करते हैं। कोई कसूर नहीं है, एक प्रयोग के लिए बंद करते हैं। उसके घर खबर पहुंचा दी कि हमने आपके पति को--उसकी पत्नी को कहलाया--बंद कर दिया है; घबड़ाना मत, सब खर्च मिलेगा राज्य से और महीने भर बाद उसे छोड़ देंगे। उस आदमी को महीने भर बंद रखा।
वह एक-दो दिन चिल्लाता रहा कि मुझे क्यों बंद कर रहे हैं? मतलब क्या है आपका? मैंने कौन सा कसूर किया? कोई उत्तर उसे दिए नहीं गए। उसे खाना दिया गया, उसने खाना फेंक दिया। उसे पानी दिया गया, उसने पानी नहीं लिया। वह चिल्लाता रहा, दो दिन, ढाई दिन, फिर थक गया, फिर पानी पी लिया। फिर और थक गया, फिर खाना खा लिया। फिर और थक गया, फिर चिल्लाना भी बंद कर दिया। फिर वह बैठा रहता था उस कमरे में और उसका निरीक्षण वह बादशाह करता था खिड़की से। दिन पर दिन बीतते चले गए। वह फिर अकेले बैठे-बैठे अपने से बातें करने लगा, जोर से बातें करने लगा! तो वह बातें करने लगा, अपनी पत्नी से भी बातें करने लगा, अपने बच्चों से खेलने लगा वहां! उस कमरे में न पत्नी है, न बच्चे हैं। महीना पूरा हुआ, उसकी जांच की गई, वह आदमी पागल हो चुका था।
उसे अच्छा खाना दिया जाता था, कपड़े दिए जाते थे, पहनने को दिया जाता था, पानी दिया जाता था, सब सुविधा थी, असुविधा कोई भी न थी, लेकिन अपने से भागने का कोई उपाय नहीं दिया गया। नंगी दीवारें थीं, न कोई किताब थी, न कोई अखबार था; न कोई रेडियो, न कोई सिनेमा, न कोई मित्र; न कोई और रास्ते जहां वह अपने को भुलाए रखे। चौबीस घंटे उसे अपने को देखना था। वहां सिवाय पशु के और कोई भी नहीं था। वहां सिवाय गलत, व्यर्थ के विचारों के और कोई भी नहीं था। वह विक्षिप्त हो गया।
अगर आप अपने मन को देखें, तो सिवाय पागल होने के और कुछ भी नहीं होंगे, वहां पागल मौजूद है।
तो महावीर कहते हैं, वहां परमात्मा है। तो फिर कहां होगा? शरीर में परमात्मा हो नहीं सकता। यह मन है, इसमें परमात्मा नहीं है। महावीर कहते हैं, वह परमात्मा जरूर है। लेकिन शरीर को भी, उस तक पहुंचने के लिए, पार करना होता है। और मन को भी, उस तक पहुंचने के लिए, पार करना होता है। शरीर की पर्त के पीछे हटो, मन है; मन की पर्त के पीछे भी हट जाओ तो वह है, जिसे परमात्मा उन्होंने कहा है।
हम अपने मकान के, जिसके तीन खंड हैं--मेरी आत्मा, मेरा मन, मेरा शरीर--हम दो ही खंडों में जीवन गुजार देते हैं, तीसरे खंड से अपरिचित रह जाते हैं! हम उसकी दहलान में ही घूम-घूम कर जीवन व्यतीत कर देते हैं, उस आंतरिक कक्ष से अपरिचित रह जाते हैं, जहां हमारा वास्तविक होना है! और उससे अपरिचित व्यक्ति निश्चित दुख में पड़ा रह जाता है, निश्चित पीड़ा में पड़ा रह जाता है, निश्चित सारे जीवन दुख को मिटाने की कोशिश करता है, लेकिन दुख को नहीं मिटा सकता। जीवन भर सुख को पाने की चेष्टा करता है, लेकिन सुख को नहीं पा सकता। क्योंकि दुख एक ही बात के कारण है और वह यह कि वह अपने केंद्र से च्युत है। अपने केंद्र पर नहीं है, यही उसका दुख है। वह सोचता है कि वस्तुओं के न होने से वह जो दुख है। वह दुख नहीं है, क्योंकि कितनी ही वस्तुएं मिल जाएं, सुख नहीं आता।
इस जमीन पर ऐसे लोग हुए हैं, जिनके पास सब था। खुद महावीर के पास सब था, लेकिन उस सब ने उन्हें सुख नहीं दिया। आज तक एक भी आदमी मनुष्य के इतिहास में नहीं हुआ, जिसने यह कहा हो कि मैंने सब पा लिया और मुझे सुख मिल गया हो। सब पा लिया, तब भी दुख उतना ही था, जब कि सब नहीं पाया था। दुख में अंतर नहीं पड़ता है। जो पा लिया, उससे दुख में अंतर नहीं पड़ता है। तो फिर कुछ बुनियादी बात दूसरी होगी। दुख का संबंध कुछ पाने से नहीं है। दुख का संबंध, वह आंतरिक केंद्र, उस सेंटर खो देने से है।
हम अपने केंद्र पर नहीं हैं, यह हमारी पीड़ा है। हम अपने केंद्र पर आ जाएं, यह हमारा आनंद हो जाएगा। महावीर की समस्त साधना केंद्र-च्युत मनुष्य को वापस केंद्र कैसे दिया जाए, इसकी साधना है।
हमारा दुख और पाप और कुछ नहीं है--एक ही दुख, एक ही पाप, एक ही पीड़ा है कि हम अपने केंद्र पर नहीं हैं। जो हमारा वास्तविक होना है, जो हमारा आथेंटिक बीइंग है, जो हमारी प्रामाणिक सत्ता है, उससे हम संबंधित नहीं हैं। हम बाहर कहीं घूम रहे हैं। हम अपने बाहर कहीं चक्कर काट रहे हैं। हम अपने से अजनबी और स्ट्रेंजर हो गए हैं। मनुष्य के जीवन में एक ही पीड़ा है, वह अपने से अजनबी हो सकता है। यह अजनबीपन, यह अपने को न जानना, यह अपने से परिचित न होना--समस्त धर्म इस परिचय की ओर ले जाने के मार्ग के सिवाय और कुछ भी नहीं है। कभी इस पर विचार करें, कभी इसको अनुभव करें, कभी इस सत्य को निरीक्षण करें--इस सत्य को निरीक्षण करें कि मैं अपने को जानता हूं?
महावीर को वही पीड़ा पकड़ी। सब उनके पास है। सब उनके पास था--सारी सुविधा, सारी व्यवस्था, सारी समृद्धि। एक ही पीड़ा थी--खुद अपने पास नहीं थे। सब उनके पास था, स्वयं अपने पास नहीं थे। सब उन्हें उपलब्ध था, स्वयं की सत्ता अनुपलब्ध थी। सब उनकी जीत हो गई थी, लेकिन स्वयं अनजीता था। सब उन्होंने जान लिया था, एक केंद्र अनजाना और अपरिचित था। जब सबको जान कर भी सुख न मिला, जब सबको पाकर भी सुख न मिला, जब सबको जीत कर भी शांति न मिली, तो स्वाभाविक था कि यह विचार उठे कि वह जो अनजीता एक बिंदु है, शायद आनंद और शांति का केंद्र वही हो।
अगर मैं इस घर में सारे कोने-कोने को तलाश लूं और मुझे प्रकाश न मिले, तो शायद मैं सोचूं कि जो कोना अनजाना, अपरिचित रह गया, उसे और खोज लें। जो सब पा लिया, उसे अनुभव हुआ कि सब पाने में आनंद नहीं मिला। शायद जो मैं स्वयं अपने को अनपाया छोड़ दिया, उसे पाने में आनंद हो! और जिन लोगों ने उस स्वयं को जानने की कोशिश की, उन्हें अनुभव हुआ, आनंद वहां था। आनंद पाना नहीं था, आनंद वहां मौजूद था, केवल उदघाटन करना था। आनंद खोजना नहीं था, आनंद स्वभाव था। केवल वस्त्र, आवरण अलग करने थे।
मैं एक कुएं को खुदते देखता था। मिट्टी की पर्तें अलग की गईं और नीचे से पानी के झरने आ गए। पानी वहां मौजूद था। मिट्टी से आवृत था। पानी लाया नहीं गया, केवल ऊपर के आवरण अलग किए गए, नीचे झरने फूट पड़े। वे झरने फूट पड़ने को बहुत उत्सुक थे। मिट्टी हटी नहीं कि उन्होंने फूटना शुरू कर दिया। वे बह पड़ने को बड़ी आकांक्षा से भरे थे। मिट्टी हटी नहीं और वे बहने लगे। वैसा ही हमारे भीतर आनंद उपस्थित है। केवल आवृत मिट्टी के थोड़े से अलग करने हैं। थोड़े से ऊपर जो आवरण हैं, उनको अलग करने हैं।
और यह जो मैं कहता हूं--या यह जो महावीर ने कहा, बुद्ध ने कहा, क्राइस्ट ने, कृष्ण ने कहा--यह जो कहा कि भीतर वहां ज्ञान, अनंत ज्ञान, अनंत शक्ति, अनंत आनंद मौजूद है; सच्चिदानंद वहां मौजूद है, केवल आवरण अलग करने हैं। यह कोई सिद्धांत नहीं है, यह कोई विचार मात्र नहीं है, यह अनुभूति है। इसे करोड़-करोड़ लोगों ने जाना है। इस भांति अपने आवरण उघाड़ कर उस सच्चिदानंद को अनुभव किया है। उसकी अनुभूति को दूसरे लोग न भी देख सके हों, तो भी अनुभूति से फैली हुई सुगंध को दूसरे लोगों ने भी अनुभव किया है।
महावीर को देख कर लाखों लोगों को अनुभव होता है: कुछ हो गया है इस आदमी में, जो हममें नहीं हुआ है। कोई आनंद इसमें प्रकीर्ण हो गया है, कोई शांति इसमें घनीभूत हो गई है। यह किसी दूसरे तल पर, किसी दूसरे डायमेंशन में, किसी दूसरे आयाम में, किसी दूसरे आकाश का प्राणी हो गया है। उसकी सुगंध, उसका संगीत, उसके जीवन से फैलती हुई किरणें अनेक को अनुभव हुई हैं। उसके सत्य को तो नहीं अनुभव किया जा सकता, लेकिन उसकी सुगंध को अनुभव किया गया है।
इस जमीन पर अब तक जब भी किसी ने आनंद पाया है, अपने से बाहर नहीं, भीतर पाया है। मैं एक छोटी सी कहानी पढ़ता था, एक बड़ी मीठी कहानी पढ़ता था।
एक सूफी फकीर स्त्री हुई। वह अपने घर के भीतर कपड़े सीती थी। उसकी सुई गिर गई। सांझ थी, अंधेरा घना हो गया, घर में प्रकाश न था, गरीब थी। वह सुई को खोजती हुई बाहर दहलान में आ गई। वहां थोड़ा-थोड़ा प्रकाश पड़ता था। सूरज आखिरी डूब रहा था। वहां खोजा, लेकिन तब तक सूरज डूब गया। तो वह बाहर सड़क पर आ गई। वहां अब भी थोड़ी रोशनी थी। करीब के पड़ोसियों ने पूछा, क्या गुम गया है? उसने कहा, मेरी सुई गुम गई है। उन्होंने पूछा, यह पता चले कि वह कहां गुम गई है, तो हम उसे ढूंढें।
तो उस बूढ़ी स्त्री ने कहा, यह मत पूछो, मेरे दुख को मत छेड़ो, मेरे घाव को मत छुओ। यह मत पूछो कहां गुमी है। खोजो, मिल जाए तो ठीक। वे लोग बोले, यह बड़ा कठिन है; सुई है छोटी, और यह पता न हो कि कहां गुमी है तो कहां खोजा जा सकता है? उस स्त्री ने कहा, बड़ी तकलीफ है। सुई जहां गुमी है, वहां प्रकाश नहीं है, और जहां प्रकाश है, वहां सुई नहीं गुमी है। मेरी सुई भीतर गुमी है, लेकिन वहां प्रकाश नहीं है। यहां प्रकाश है, इसलिए यहां खोजती हूं, क्योंकि प्रकाश में खोजा जा सकता है।
मनुष्य के साथ भी वही घटना है, वही दुर्घटना है। हमारी आंखें बाहर खुलती हैं। हमारे हाथ बाहर फैलते हैं। हमारे कान बाहर सुनते हैं। हमारी समस्त इंद्रियों का प्रकाश बाहर पड़ता है। इसलिए हम बाहर खोज रहे हैं। लेकिन कभी यह पूछा कि गुमा कहां है? किसको खोज रहे हैं? उनको अज्ञानी नहीं कहेंगे अगर वे खोज रहे हैं बिना पूछे कि गुमा कहां है!
हम सारे लोग आनंद को खोज रहे हैं बिना यह पूछे कि गुमा कहां है! हम सारे लोग आनंद को खोज रहे हैं! इस जगत में और कोई कुछ भी नहीं खोज रहा है। कोई कुछ भी खोज रहा हो, मूलतः आनंद को खोज रहा है। लेकिन बिना यह पूछे कि यह आनंद गुमा कहां है? जिसकी तलाश है उसे खोया कहां है? निश्चित ही, अगर उसे खोया न हो तो तलाश नहीं हो सकती, क्योंकि उससे परिचय ही नहीं हो सकता।
मैं आपको कहूं, हम आनंद की तलाश कर रहे हैं, यह इस बात की सूचना है कि हम आनंद को खोए हैं। क्योंकि जिसको खोया न हो, उसकी तलाश नहीं हो सकती। जिससे परिचय न हो, जिसकी कहीं स्मृति न हो, उसको खोजा नहीं जा सकता। सारे लोग आनंद को खोज रहे हैं बिना इस बात को पूछे कि खोया कहां है! और जब तक हम यह न पूछें कि खोया कहां है, तब तक खोज सार्थक नहीं हो सकती है, मिलना नहीं हो सकता है।
यह पूछ लें कि खोया कहां है। और इसके पहले कि दूसरे के घर में खोजने जाइए, बेहतर है अपने घर में खोज लें। इसके पहले कि दूसरे से पूछने जाइए, इसके पहले कि इस विस्तृत जमीन पर खोजने निकलिए, क्या यह योग्य और उचित नहीं है कि अपने घर में पहले तलाश कर लें! वहां न मिले तो फिर दुनिया में खोजने जाएं।
हम अजीब लोग हैं, हम दुनिया में खोजेंगे, और जब दुनिया में नहीं मिलेगा तो अपने में खोजेंगे! दुनिया बहुत बड़ी है और जीवन बहुत छोटा है। अनंत-अनंत जीवन भी बाहर खोज कर, दुनिया का अंत नहीं होगा। हमारे अनंत जीवन नष्ट हो जाएंगे। क्या यह बात सीधी सी गणित की नहीं है कि इसके पहले कि मैं इस विराट दुनिया में खोजने जाऊं, इस छोटे से अपने घर में खोज लूं! अगर वहां न मिले, तो फिर खोजने निकल जाऊंगा।
महावीर इसी चिंतन से अपने भीतर खोजने गए। नहीं दुनिया में खोजा। सोचा पहले अपने भीतर जान लें, अगर वहां हो तो ठीक, नहीं तो फिर और कहीं चले जाएंगे। और जिन लोगों ने भी इस चिंतन का उपयोग किया और अपने भीतर खोजा, उनमें से कोई फिर बाहर खोजने नहीं गया। आज तक ऐसा नहीं हुआ, किसी ने भीतर खोजा हो और फिर बाहर खोजने गया हो। ऐसा आज तक हमेशा हुआ कि जिन्होंने बाहर खोजा, वे एक न एक दिन भीतर खोजने गए। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि जिसने भीतर खोजा हो, वह फिर बाहर भी खोजने गया हो। मैं फिर से कहूं, ऐसा हमेशा हुआ है कि जिन्होंने बाहर बहुत खोजा, एक दिन उन्हें भीतर खोजने जाना पड़ा। ऐसा आज तक नहीं हुआ कि जिन्होंने भीतर खोजा हो, वे फिर कभी बाहर खोजने गए हों। निरपवाद रूप से जिन्होंने भीतर झांका, उन्होंने पा लिया।
भीतर कुछ है। भीतर कुछ अदभुत विराजमान है। भीतर कुछ हमारा स्वरूप है। और मैं आपको कहूं, सच तो यह है, सच यह है कि कभी अपने जीवन को भी विचार करें, तो सत्य के प्रति अंतर-झलकें मिलनी शुरू हो जाएंगी।
मैं आपसे पूछूं, आप दुख चाहते क्यों नहीं हैं? आप आनंद क्यों चाहते हैं? एक सीधा प्रश्न पूछूं, आप दुख क्यों नहीं चाहते हैं? इस जमीन पर कोई भी दुख क्यों नहीं चाहता है? महावीर ने कहा है, कोई भी दुख नहीं चाहता। क्यों नहीं चाहता लेकिन, कभी यह पूछा? हम भी दुख नहीं चाहते, मैं भी दुख नहीं चाहता, लेकिन क्यों दुख नहीं चाहता? बड़ी अजीब बात है, हम जीवन भर दुख नहीं चाहते, लेकिन यह नहीं पूछते कि हम क्यों दुख नहीं चाहते? अगर यह पूछें तो एक अदभुत उत्तर आपको ज्ञात होगा।
अगर आप दुख नहीं चाहते हैं तो इसका अर्थ हुआ कि दुख विजातीय है, दुख फारेन है। आपके स्वरूप के विपरीत है, इसलिए नहीं चाहते हैं। यानी स्वरूप कहीं न कहीं आनंद होगा, इसलिए दुख को नहीं चाहते हैं। अन्यथा दुख को "न-चाह' पैदा नहीं होती। दुख को न चाहने का अर्थ है भीतर कहीं आपका स्वरूप आनंद है, इसलिए दुख को नहीं चाहते हैं। सच तो यह है, अगर आपका स्वरूप दुख होता, तो दुख का आपको पता भी नहीं चल सकता था। अगर मेरा स्वरूप दुख होता तो मुझे दुख का पता नहीं चल सकता था। बल्कि जब दुख आता, तो मैं तो और प्रेम से उसे ग्रहण कर लेता। वह तो मेरे स्वरूप को और समृद्ध करता। लेकिन कोई दुख को ग्रहण नहीं करता है। यह इस बात की सूचना है कि दुख स्वरूप को समृद्ध नहीं करता है, दुख स्वरूप को बढ़ाता नहीं है, दुख स्वरूप के विपरीत है, अनुकूल नहीं है।
अगर दुख स्वरूप के विपरीत है, तो स्वरूप आनंद होगा। हम आनंद को चाहते हैं, क्योंकि हमारा स्वरूप आनंद है। हममें से कोई मृत्यु को नहीं चाहता, क्योंकि हमारा स्वरूप अमृत है। हममें से कोई अंधेरे को नहीं चाहता, क्योंकि हमारा स्वरूप प्रकाश है। हममें से कोई भय को नहीं चाहता, क्योंकि हमारा स्वरूप अभय है। हममें से कोई दीनऱ्हीन नहीं होना चाहता, क्योंकि हमारा स्वरूप प्रभु है। अगर इस बात को समझें तो जो-जो हम नहीं चाहते हैं, वह हमारे स्वरूप की ओर संकेत है, वह हमारे स्वरूप की ओर इशारा है। जो-जो हम नहीं चाहते, उससे भिन्न हमारा स्वरूप होगा। यह चिंतन जिसमें जन्म पाए, जिसका अंतस्तल इस मंथन, इस आंदोलन से ग्रसित हो जाए, यह पीड़ा और व्यथा पकड़ ले, यह सोच-विचार पकड़ ले, यह एक-एक जीवन के सत्य को पकड़ कर चिंतना शुरू हो जाए, मैं दुख क्यों नहीं चाहता! यह चिंतन हो जाए, मैं आनंद को खोज रहा हूं, लेकिन मैंने आनंद को खोया कहां है!
यह चिंतन शुरू हो जाए, तो व्यक्ति के जीवन में इस सारे चिंतन के परिणाम से एक अदभुत प्यास पैदा होनी शुरू हो जाएगी। उसकी जो वृत्ति बिना पूछे बाहर खोजती थी, पूछने की वजह से छिटक जाएगी, बाहर खोजने में रुकावट आ जाएगी और आंतरिक की तरफ, भीतर की तरफ झुकाव प्रारंभ हो जाएगा। चिंतन, इस सत्य का चिंतन कि जो जीवन हमें मिला है, वह क्या है? जिस जीवन की हमारी जो अनुभूतियां हैं, वे क्यों हैं? हम क्यों खोज रहे हैं आनंद को? क्या खोज रहे हैं? कहां खोज रहे हैं?
ये प्रश्न अगर जीवंत होकर, अगर ये प्रज्वलित होकर आपके सामने खड़े हो जाएं तो आपमें पहली दफा धर्म के प्रति जिज्ञासा शुरू होगी।
धर्म की जिज्ञासा का संबंध, परमात्मा है या नहीं, इससे नहीं है। धर्म की जिज्ञासा का संबंध, जगत को किसने बनाया या नहीं बनाया, इससे भी नहीं है। धर्म की जिज्ञासा का संबंध, आत्मा एक है या अनेक, इससे भी नहीं है। धर्म की मूल जिज्ञासा का संबंध इस सत्य से है कि जो दुख है, उसे मैं क्यों नहीं चाहता हूं? मैं दुख से सहमत क्यों नहीं हूं? और मेरी प्यास आनंद के लिए क्यों है? ये बाकी जो बातें हैं, ग्रंथ में होंगी, किताब में होंगी, जिंदगी से इनका कोई संबंध नहीं है। धर्म की जिज्ञासा जीवन के विश्लेषण और निरीक्षण से शुरू होती है।
महावीर के जीवन-दर्शन और साधना में सबसे महत्वपूर्ण जो मुझे बात प्रतीत होती है, वह यह है कि महावीर का चिंतन ग्रंथों से शुरू नहीं हो रहा, जीवन से शुरू हो रहा है। हमारा चिंतन ग्रंथों से शुरू होता है, जीवन से शुरू नहीं होता।
इस सत्य को बहुत विचार कर लेना जरूरी है।
मेरे पास लोग आते हैं। मुझ से कोई ईसाई आता है तो वह पूछता है, क्या वह मरियम, जिनसे ईसा का जन्म हुआ, कुंआरी थी? मैं उससे पूछता हूं, इससे क्या फर्क पड़ेगा जानने से? यद्यपि ईसाई के सिवाय यह प्रश्न मुझसे कोई दूसरा नहीं पूछता है। कोई जैन नहीं पूछता। जैन मुझसे पूछते हैं, निगोद क्या है? कोई ईसाई नहीं पूछेगा यह, क्योंकि उसको निगोद का पता ही नहीं है। एक मुसलमान मुझसे पूछता है, कुरान उतरी मोहम्मद के ऊपर, तो वह किताब की किताब उतरी या किस तरह उतरी? यह कोई दूसरा हिंदू या बौद्ध नहीं पूछता! क्यों?
ये प्रश्न जिंदगी के नहीं, किताबों के हैं। जो जिंदगी का प्रश्न है, वह हिंदू का, मुसलमान का, ईसाई का, जैन का एक ही होगा। क्योंकि जिंदगी तो एक ही प्रश्न उठाती है, किताबें अलग-अलग प्रश्न उठाती हैं। और जो किताबों से प्रश्न पूछेंगे, वे पंडित भले हो जाएं, प्रज्ञा को उपलब्ध नहीं होंगे। वे बहुत सी बातें, इनफर्मेशन इकट्ठी कर लें, किताबें लिख डालें, भाषण करें, दूसरों को समझाने के योग्य अपने में दंभ पैदा कर लें, तो उससे कोई हल नहीं होगा। जो प्रश्न किताबों से उठते हैं, वे मुर्दा हैं। जो प्रश्न जिंदगी से उठते हैं, वे जीवित हैं। और जो प्रश्न जिंदगी से उठते हैं, वे ही जिंदगी को बदलने में समर्थ हो पाते हैं, ग्रंथों से उठे हुए प्रश्न जिंदगी को नहीं बदलते हैं।
महावीर के लिए प्रश्न जिंदगी से उठे। और जिंदगी से उठे, यह पहली बात। और दूसरी बात, उन्होंने किसी के उत्तर स्वीकार नहीं किए, खुद उत्तर पाने की चेष्टा शुरू की। पहली बात प्रश्न जिंदगी से उठे, और दूसरी बात अपने ही जीवन में तलाश शुरू की, कहीं किसी से जाकर शिक्षा लेने का उपाय नहीं किया। जो प्रश्न किताब से उठेंगे, उनके उत्तर किताबों में मिल जाएंगे। जो प्रश्न जिंदगी से उठेंगे, उनके उत्तर साधना में मिलेंगे। यह समझ लेना जरूरी है।
महावीर को जिंदगी से प्रश्न उठे। दुख, अमुक्ति, बंधन, एकमात्र प्रश्न है जो महावीर के चित्त में है। एकमात्र प्रश्न है कि दुख क्यों है? दुख का बंधन क्यों है? और जब यह प्रश्न है, तो एक ही साधना है कि क्या दुख के बाहर हुआ जा सकता है? क्या दुख के बंधन के ऊपर उठा जा सकता है? इसका कोई किताब उत्तर नहीं दे सकती। कोई रेडीमेड, किसी के उत्तर काम के नहीं हो सकते। इसे तो अनुभूति से जानना होगा।
जीवन से प्रश्न उठे, महावीर साधना में गए। किस साधना में गए?
लोग देखते हैं, उन्होंने घर-बार छोड़ दिया, राज्य-संपत्ति छोड़ दी। तो लोग सोचते हैं, यही साधना थी। यह साधना नहीं है। जो बाहर दिखता है, उससे साधना का कोई संबंध नहीं है। साधना तो आंतरिक है। मकान बाहर से छोड़ कर निकल जाना आसान है। सवाल मकान से निकल जाने का नहीं है, सवाल मेरी खोपड़ी से मकान निकल जाए उसका है।
एक साधु के बाबत मैं पढ़ता था। एक बादशाह उसे इतना प्रेम करने लगा कि अपने महल में उस साधु को रख लिया। इतना प्रेम करने लगा कि बाद में एक महल उसके लिए बना दिया। वर्ष पर वर्ष बीते। बारह वर्ष बीते। एक दिन उस बादशाह को हुआ, अब इस साधु में और मुझमें अंतर क्या है? यह तो फिजूल में ही साधु कहलाता है। हम भी बादशाह हैं और यह भी अब बादशाह की तरह रहता है। हमारी तो कुछ मुसीबतें हैं, इसकी वे मुसीबतें भी नहीं हैं। यह तो मजे से, मौज से रहता है।
उसने सुबह बगीचे में टहलते हुए उस साधु को कहा कि मित्र, एक प्रश्न रात्रि से मेरे मन में है। मैं पूछना चाहता हूं, मुझमें और आपमें अब अंतर क्या है? वह फकीर सुन कर हंसने लगा और बोला, सच में जानना चाहते हो? तो थोड़े दूर मेरे साथ गांव के बाहर चलो। जरा एकांत आ जाएगा तो उत्तर दूंगा। बादशाह बोला, ठीक है। वे दोनों गांव के बाहर निकले, नदी जो सीमा थी, पार हो गई। बादशाह ने कहा, अब उत्तर तो दो। उसने कहा, थोड़ा आगे चलो। धूप तेज होने लगी। बादशाह ने कहा, उत्तर दे दो। अब तो एकांत जंगल भी आ गया, अब तो कोई सुनने वाला भी नहीं है। वह फकीर बोला, सुनो! उस फकीर ने कहा, अब मेरा लौटने का मन नहीं है, मैं जाता हूं। बादशाह बोला, कहां जाते हैं? तो वह फकीर बोला, अब मैं जाता हूं। तुम भी मेरे साथ चलते हो? बादशाह बोला, कैसी आप बात करते हैं! मेरा महल पीछे है। मुझे वहां लौटना है। और वह फकीर बोला, मेरा कोई महल पीछे नहीं है, मेरा कोई लौटना नहीं है। हम वहां महल में थे, महल हममें नहीं था। फर्क अगर दिखे तो दिख सकता है।
महावीर ने महल छोड़ा, यह मूल्यवान नहीं है। महावीर के भीतर से महल छूट गया, यह सवाल है। महावीर ने धन छोड़ा, यह मूल्यवान नहीं है। महावीर के भीतर से धन छूट गया, यह मूल्यवान है। महावीर जो छोड़ कर गए, वह मूल्यवान नहीं है। जो उनके भीतर से विसर्जित हो गया, वह मूल्यवान है।
संसार बाहर नहीं है। संसार बिलकुल बाहर नहीं है। संसार बड़ी मानसिक घटना है, बड़ी मेंटल चीज है। ये जो दीवालें और मकान और रास्ते दिखाई पड़ रहे हैं, ये संसार नहीं हैं, क्योंकि महावीर मुक्त होकर भी इन्हीं दीवालों और सड़कों पर से निकलेंगे। ये संसार नहीं हैं, क्योंकि जब महावीर ज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे, तब भी रास्तों पर से निकलेंगे, तब भी संसार में होंगे, लेकिन आप उनको फिर सांसारिक नहीं कहते हैं! संसार में होंगे, लेकिन सांसारिक क्यों नहीं कहते? ये संसार नहीं हैं। संसार कुछ और है।
संसार मानसिक है, संसार भौतिक नहीं है। वह जो हमारे भीतर एक संसार बन गया है, वह जो मैंने अपनी चेतना के इर्द-गिर्द एक दुनिया चित्रों की और विचारों की आबाद कर ली है। वह जो इमेजेज और कल्पनाएं और स्वप्न वहां इकट्ठे हो गए हैं, वह मेरा संसार है।
संसार मेरे स्वप्नों का है, वस्तुओं का नहीं है।
इसलिए जो वस्तुओं को छोड़ने में लगा है, नासमझ है। जो स्वप्नों को छोड़ने में लगा है, समझदार है। वस्तुएं नहीं बांधती हैं, वस्तुओं के प्रति देखे गए स्वप्न बांधते हैं। वस्तुएं नहीं बांधती हैं, वस्तुओं के प्रति की गई कामनाएं बांधती हैं। वस्तुएं नहीं बांधती हैं, वस्तुओं के प्रति जगाई गई आसक्ति बांधती है। वह सब मानसिक है।
क्रांति संसार को छोड़ने की नहीं, क्रांति मन को परिवर्तित करने की है।
अन्यथा घर-द्वार छोड़ कर भाग जाएं, पाएंगे कि घर-द्वार पीछे चले आ रहे हैं। स्त्री को छोड़ कर पुरुष भाग जाए, पुरुष को छोड़ कर स्त्री भाग जाए, तो लौट कर पाएंगे कि जिनको छोड़ कर आए हैं, वे साथ ही चले आए हैं। वे पीछे छूटे नहीं हैं। वे जरूर छूट गए होंगे--जो भौतिक पुरुष था, वह छूट गया होगा। लेकिन वह जो कल्पना का पुरुष और स्त्री है, साथ चली आई है। पीड़ा, वह जो शरीर है स्त्री या पुरुष का, वह थोड़े ही दे रहा है। पीड़ा तो वह जो कल्पना, वह स्वप्न जो है भीतर, वह दे रहा है। बांध तो उसका है, बंधन तो उसका है, पकड़ तो उसकी है। वह जो भीतर विराजमान है, पकड़ उसकी है। उसे विसर्जित करना संसार को विसर्जित करना है। उससे मुक्त हो जाना संन्यस्त हो जाना है।
मैं एक स्मरण करता हूं, एक कथा कोरिया में घटी। वह चित्र महावीर को समझाएगा। वह एक अंतर्दृष्टि देगा और एक बहुत सड़ी-गली जो धारणा महावीर की साधना के पीछे बन गई है परंपरा में, उससे मुक्त होने में सहयोगी होगा।
एक युवक भिक्षु और एक वृद्ध भिक्षु एक नदी के किनारे से निकलते थे, नदी पार करते थे। एक युवती भी नदी पार करने को ठहरी थी। लेकिन पहाड़ी नाला और तेज धार और उसका साहस नहीं था कि नदी को पार करे। उस वृद्ध भिक्षु ने सोचा, हाथ का सहारा दे दूं और नदी पार करा दूं।
लेकिन जैसे ही खयाल आया, हाथ का सहारा दे दूं, भीतर की सोई हुई स्त्री के प्रति जो वासना और कामना है, वह जग गई। हाथ के स्पर्श की कल्पना से भीतर के सोए बहुत से स्वप्न सजग हो गए। बहुत सा दमित, बहुत सा सप्रेस्ड जो था स्त्री के प्रति, वह सब फिर से साकार होकर उठ आया। वह घबड़ाया बहुत। वर्षों से स्त्री के प्रति विचार नहीं उठा था। अपने को झिड़का कि मैंने भी कहां की नासमझी की बात सोची! मुझे प्रयोजन? लोग नदी पार होंगे, होते रहेंगे, मुझे क्या करना है? मैं क्यों अपना जीवन इसको नदी पार कराने के कारण बिगाडूं?
वह आंख झुका कर नदी पार करने लगा। उसने उस लड़की को सहारा नहीं दिया। लड़की को सहारा इसलिए नहीं दिया, इसलिए नहीं कि लड़की कोई सहारा देने में दिक्कत देती। सहारा इसलिए नहीं दिया कि सहारे की कल्पना ने ही, भीतर जो स्त्री का रूप था, उसे सजग कर दिया। वह आंख झुका ली उसने।
लेकिन आंख झुकाने से कोई रूप समाप्त होते हैं? आंख झुकाने से तो वे और रम्य, और सुंदर हो जाते हैं। आंख बंद कर लेने से कोई रूप नष्ट होते हैं? आंख बंद कर लेने से तो वे और स्वर्णिम, और स्वर्गीय हो जाते हैं। वह आंख बंद करके घबड़ाया, और भगवान का स्मरण करता हुआ नदी पार होने लगा।
पीछे उसका एक युवक भिक्षु भी आता था। नदी पार करके उसे खयाल हुआ, कहीं वह पागल लड़का, वह भी इसी सेवा और सहायता की भूल में न पड़ जाए। तो उसने लौट कर देखा, वह लड़का उसको कंधे पर बिठा कर नदी पार कर रहा है! उसको तो सारे बदन में आग लग गई। वह तो कल्पना भी नहीं कर सका कि मैं वृद्ध हुआ हूं, और यह तो युवा है और युवती को कंधे पर बिठा कर पार कर रहा है! उसे कुछ समझ में नहीं आया कि क्या करे और क्या न करे। गुस्से में बहुत देर तक बोला नहीं। जब दोनों आश्रम में प्रवेश करते थे, सीढ़ियों पर रुक कर उसने उस युवक से कहा कि सुनो, जाकर गुरु को कहूंगा, और उसका तुम्हें प्रायश्चित्त और दंड भोगना पड़ेगा। वह लड़का बोला, कौन सी भूल हुई? उसने कहा, उस लड़की को तुमने कंधे पर क्यों उठाया? उस युवक ने कहा, मैं उसे नदी के किनारे ही कंधे से उतार दिया था, आप तो उसे अभी भी लिए हुए हैं!
यह जो आदमी उसे कंधे पर लिए हुए है, यह किस कंधे पर लिए हुए है? और क्या हम अपने संसार को कंधे पर नहीं लिए हुए हैं? क्या संसार कहीं बाहर है? क्या उन मकानों में और उन बच्चों में और उन वृत्तियों में संसार है जो बाहर हैं? या कि संसार को हम कहीं किसी काल्पनिक कंधे पर लिए हुए हैं?
संसार को छोड़ कर नहीं भागना, संसार को कंधे से उतारना है।
तो महावीर जो छोड़े बाहर, वह मूल्यवान नहीं है। जो भीतर छोड़ा, जो कंधे से उतारा, वह मूल्यवान है। वह कैसे कंधे से उतारा, वही उनकी साधना, वही बारह वर्ष की तपश्चर्या में वे कर रहे हैं। मैं सुनता हूं उनकी तपश्चर्या के बाबत प्रवचन, ग्रंथ देखता हूं, तो मुझे बड़ी हैरानी होती है। उस तपश्चर्या में लोग वर्णन करते हैं, उन्होंने कितने धूपत्ताप सहे, उन्होंने कितने दिन भूखे रहे, उन्होंने किस-किस तरह वस्त्र त्याग कर नग्न रहे। उनको किस-किस तरह की पीड़ा और परेशानी आई! किस-किस तरह लोगों ने सताया और वे कुछ नहीं बोले, इसका लोग वर्णन करते हैं! इसका साधना से कोई संबंध नहीं है। यह नहीं है असली बात।
असली बात यह नहीं कि महावीर के बाहर क्या नाटक घटित हो रहा है, असली बात यह है कि महावीर के भीतर क्या हो रहा है। इन बारह वर्षों में--महावीर धूप में खड़े हैं या सर्दी में, यह तो शरीर खड़ा है। यह सवाल नहीं है, सवाल यह है कि महावीर का चित्त कहां है! महावीर जब धूप में खड़े हैं या भूखे खड़े हैं या उपवासे खड़े हैं, यह सवाल नहीं है--महावीर का चित्त कहां है! अगर महावीर उपवासे खड़े हैं और चित्त भोजन में हो, तो सब उपवास तो व्यर्थ हो जाएगा। अगर महावीर धूप में खड़े हैं और चित्त छाया में कहीं हो, तो धूप में खड़ा होना तो व्यर्थ हो जाएगा। महावीर कहां खड़े हैं, यह सवाल नहीं है--महावीर का चित्त कहां है! महावीर क्या कर रहे हैं, यह सवाल नहीं है--महावीर का चित्त क्या कर रहा है!
हमारा चित्त कुछ न कुछ कर रहा है, कुछ न कुछ कर रहा है! महावीर की साधना इस बात की है कि चित्त ऐसी स्थिति में पहुंचे, जहां वह कुछ भी नहीं कर रहा है। क्योंकि चित्त कुछ भी करेगा, सब करना संसार को खड़ा करना होगा। क्योंकि चित्त कुछ भी करेगा, तो सिवाय चित्रों के बनाने के और कुछ भी नहीं कर सकता है। चित्त का एक ही काम है। चित्त जो है, चित्रकार है। मेरी समझ जो है, चित्त चित्रकार है। उसका एक ही काम है कि वह चित्र बना सकता है। और कोई काम नहीं कर सकता। और उन्हीं चित्रों के संसार में उलझा सकता है और कोई काम नहीं कर सकता। चित्र और स्वप्न खड़ा करना, स्वप्न को सृजन करना, चित्त का काम है। तो चित्त जब तक काम करेगा, तब तक वह स्वप्न और चित्र खड़े करेगा और उनमें उलझ जाएगा। संसार को बनाएगा।
संसार को भगवान नहीं बनाता, संसार को चित्त बनाता है।
स्मरण रखें, संसार को भगवान नहीं बनाता, संसार को चित्त बनाता है।
तो चित्त जब तक सक्रिय है, तब तक संसार है। चित्त निष्क्रिय हो गया, संसार के आप बाहर हो गए। चित्त सक्रिय है तो बंधन है; चित्त निष्क्रिय हो गया तो मोक्ष में हो गए।
तो महावीर चित्त को ऐसी स्थिति में ले जा रहे हैं, जहां उसकी सक्रियता क्षीण से क्षीण होकर विलीन हो जाए, जहां सक्रियता शिथिल होतेऱ्होते, होतेऱ्होते शून्य हो जाए।
साधना है चित्त को शिथिल करने की और सिद्धि है चित्त के शून्य हो जाने की। ध्यान है चित्त को शिथिल करना, निष्क्रिय करना। और समाधि है चित्त का निष्क्रिय और शून्य हो जाना। महावीर की साधना चित्त को शिथिल करने की और उपलब्धि चित्त को शून्य करने की है।
चित्त सक्रिय है, तो मैंने कहा, संसार बनता है। और उसी संसार, उन्हीं प्रतिबिंबों में हम खोए-खोए उसे भूल जाते हैं, जो हम हैं। वह जो भीतर है, उसका विस्मरण हो जाता है।
सच, आप कभी चित्र देखते हों, कभी फिल्म देखते हों, कभी नाटक देखते हों, एक अदभुत बात अनुभव होगी: फिल्म देखते-देखते आप इतने तल्लीन हो जाएंगे कि आपको यह पता नहीं रहेगा कि आप भी हैं! जब पर्दा वहां खाली होगा, तब अचानक आपको चौंक कर पता पड़ेगा, दो घंटे बीत गए; हम भी थे, इसका पता न रहा! एक चित्र में, एक कथा में हम भी एक पात्र हो गए थे! क्या कई दफा अनुभव नहीं हुआ कि उन पात्रों के साथ आप रोने लगे हैं और उन पात्रों के साथ आप हंसने लगे हैं? क्या पर्दा जब खाली हो गया और लोग उठने लगे तो आपने अनेक बार अपने आंसू नहीं छिपा लिए हैं कि पड़ोस का आदमी न देख ले कि चित्र देख कर रोते थे? लेकिन चित्र को देख कर आप रोते थे, बड़ी हैरानी की बात है! चित्र इतने प्रभावी हैं कि उनसे आप रोते हैं और हंसते हैं? और जानते हैं भलीभांति कि वहां पर्दे के सिवाय कुछ भी नहीं है! भलीभांति जानते हैं, खुद ही पैसे दिए हैं, भलीभांति पता है कि वहां सफेद पर्दे के सिवाय कुछ भी नहीं है। और पीछे से केवल विद्युत की किरणें फेंक कर चित्रों का भ्रम हो रहा है, चित्र भी वहां नहीं हैं। लेकिन फिर भी रोते हैं और हंस लेते हैं! चित्र का बड़ा प्रभाव है।
चित्र का प्रभाव ही अज्ञान है। चित्र के प्रभाव से मुक्त होना ज्ञान है।
वह रोज-रोज आप फिल्म देखने न जाते हों, लेकिन चौबीस घंटे मन के पर्दे पर फिल्में चल रही हैं। आप अपने ही बनाए हुए सिनेमा-गृह में रोज-रोज बैठे हुए हैं--चौबीस घंटे! मजा यह है कि वहां आप ही तो पात्र हैं, आप ही देखने वाले, आप ही नाटक खड़ा करने वाले, आप ही प्रोजेक्टर, आप ही पर्दा, वहां आपके सिवाय कोई भी नहीं है! इसलिए महावीर ने कहा, आत्मा ही बंधन है, आत्मा ही मोक्ष है। वह सारा बंधन आपका ही बनाया हुआ है। आपकी ही कल्पना-प्रसूत, आपकी ही इमेजिनेशन का खेल है। वह आप सारा बनाए हुए हैं।
महावीर उस पूरी साधना में उन चित्रों को पोंछ कर पर्दे को सफेद करने में लगे हैं कि ऐसी घड़ी आ जाए कि पर्दा सफेद हो जाए। पर्दे के सफेद होते ही एकदम याद आएगा, अरे! मैं भी हूं। और मैं चित्रों में भूल गया था। एक दफा चित्त शून्य हो जाए, आत्म-ज्ञान शुरू हो जाएगा। वहां चित्त शून्य हुआ, यहां आत्म-ज्ञान का उदभावन, जागरण शुरू हुआ।
महावीर की साधना चित्त को शून्य करके, चित्रों से मुक्त होकर, उसको जानने की है, जिसका नाम चैतन्य है। जो चित्रों को जानेगा, वह चैतन्य को नहीं जानेगा। जो चित्रों को विलीन कर देगा, वह चैतन्य का अनुभव करता है। उसका ज्ञाता बनता है। उस ज्ञान का उसे बोध होता है। इस बोध का, इस आत्म-दर्शन का महावीर की संपूर्ण साधना में केंद्रीय स्थल है।
लोग समझते हैं, महावीर की साधना अहिंसा की है। नहीं! लोग समझते हैं, महावीर की साधना ब्रह्मचर्य की है। नहीं! लोग समझते हैं, महावीर की साधना सत्य की है। नहीं! महावीर की साधना आत्मा की है। और आत्म-अनुभव के परिणाम में सत्य, ब्रह्मचर्य, अहिंसा उपलब्ध होते हैं। यह आत्म-अनुभूति के फूल हैं। जो आत्म को जानता है, वह असत्य से उसी क्षण मुक्त हो जाता है। जो आत्म को जानता है, अब्रह्मचर्य से मुक्त हो जाता है। जो आत्म को जानता है, वह हिंसा से मुक्त हो जाता है। आत्म-ज्ञान का परिणाम, उसके कांसीक्वेंसेस अहिंसा, सत्य और ब्रह्मचर्य में फलित होते हैं। लोग सोचते हैं, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और सत्य साधन हैं, जिनसे आत्मा उपलब्ध होगी! मैं विपरीत सोचता हूं। वे साधन नहीं हैं, साधन तो चित्त-विसर्जन है। साधन तो ध्यान है, साधन तो समाधि है, साधन तो योग है। साधन वे नहीं हैं, वे तो साधना के परिणाम हैं। वे तो जब आत्म-अनुभव होगा, तो उस अनुभूति के फूल हैं। उनसे पहचाना जाएगा कि ज्ञान उपलब्ध हुआ या नहीं। उनसे ज्ञान पाया नहीं जाता है।
महावीर ने कहा है, अहिंसा ज्ञान का फल है। इस वाक्य को कोई विचार नहीं करता! महावीर कहते, अहिंसा ज्ञान का फल है। अगर ज्ञान का फल है तो ज्ञान पहले होगा कि अहिंसा पहले होगी? आगम कहते, पढमं नाणं तओ दया। पहले ज्ञान है, फिर दया, फिर अहिंसा है। महावीर कहते हैं, जो ज्ञान को उपलब्ध हो, वह आचरण को उपलब्ध है। जो ज्ञान को नहीं उपलब्ध है, उसका सब आचरण मिथ्या है। ये स्पष्ट सूत्र हैं। जो अगर थोड़े विचार किए जाएं तो यह दिखाई पड़ेगा कि महावीर की साधना नैतिक साधना नहीं है, आत्मिक साधना है। अहिंसा को, सत्य को, ब्रह्मचर्य को साधना नीति है।
आज दुनिया में जो भ्रम पैदा हुआ है, वह यही भ्रम पैदा हुआ है कि नीति को साधो, तो धर्म मिल जाएगा। मैं ऐसा नहीं मानता। मैं मानता हूं, धर्म को साधो तो नीति मिल जाएगी। जो नीति को साधेगा, वह धर्म को तो नहीं पा सकता। वह नीति को साध कर केवल एक अहंकार को भर उपलब्ध हो सकता है। मैं सत्यवादी हूं, मैं ब्रह्मचारी हूं, मैं त्यागी हूं, मैं साधु हूं, मैं मुनि हूं, ऐसे किसी दंभ को भला उपलब्ध हो जाए, लेकिन उस परम शांति को उपलब्ध नहीं होगा जहां दंभ का कोई निशान भी नहीं पाया जाता है।
नैतिक साधना अहंकार को परिपुष्ट करती है, आत्मिक साधना अहंकार को विसर्जित करती है। इसीलिए नैतिक लोगों में एक छिपे हुए अहंकार का बोध आपको निरंतर होगा। उस तरह के साधु में एक प्रसुप्त दंभ का बोध आपको निरंतर होगा। उस तरह के साधु में एक छिपे हुए क्रोध का आपको निरंतर बोध होगा। उन ऋषियों को हम जानते हैं, जो क्रोध से लोगों को अभिशाप दे दें। वह क्रोध उनमें कहां से है? क्योंकि जो अभिशाप दे सकता है, उसमें अत्यंत प्रज्वलित क्रोध होना चाहिए। वह क्रोध उनमें इसीलिए है कि उनकी साधना आत्मिक नहीं, केवल नैतिक है। नैतिक साधना के परिणाम में धर्म नहीं आता, यद्यपि धार्मिक साधना के परिणाम में नीति अवश्य आ जाती है।
नैतिक साधना पुण्य की साधना है। धर्म की साधना पुण्य की साधना नहीं है, शुद्धि की साधना है। शुद्धि--पुण्य और पाप से पृथक है। न तो पुण्य पकड़ता है, न पाप जहां पकड़ता है, जहां पुण्य और पाप दोनों पृथक और मैं अनुभव करता हूं कि मैं दोनों से मुक्त और शुद्ध हूं, उस अनुभूति में धर्म का जन्म होता है।
धर्म की साधना शुद्धि की साधना है। नीति की साधना पुण्य की साधना है। नीति की साधना केवल नैतिकता तक ले जा सकती है। धर्म की साधना मुक्ति तक ले जाती है। नैतिक धार्मिक नहीं हो पाता, लेकिन धार्मिक तो अनजाने, अनायास नैतिक हो जाता है।
महावीर कोई नैतिक पुरुष नहीं हैं। बड़े से बड़े लोगों को मैं देखता हूं, वे लिखते हैं कि महावीर बड़े नैतिक पुरुष हैं! महावीर नैतिक पुरुष नहीं हैं, महावीर आत्मज्ञ हैं। महावीर आत्मा को उपलब्ध पुरुष हैं। नीति तो उसका परिणाम है सहज, अपने आप आ जाती है, उसे लाना नहीं पड़ता।
अगर हम महावीर के इस केंद्रीय विचार को समझें--आत्म-उपलब्धि को--इस पर थोड़ा चिंतन करें, इस पर थोड़ा मनन करें और इस बात को समझें कि चित्त हमारा संसार है। और चित्त को धीरे-धीरे विसर्जित करें, चित्त को धीरे-धीरे विलीन करें, चित्त को धीरे-धीरे शून्य की तरफ ले चलें। एक घड़ी आएगी, चित्त शून्य हो सकता है।
अगर उसके साथ असहयोग करें--जैसा मैंने सुबह कहा, नॉन-कोआपरेशन--अगर चित्त के विचारों के साथ नॉन-कोआपरेशन करें, उसके साथ सहयोग न करें। विचार आते हों, आने दें, आप सहयोग न दें। अपने को दूर खड़ा कर लें, जैसे आप केवल तटस्थ द्रष्टा मात्र हैं। विचार को चलने दें, आप चुपचाप देखते रहें, कोई सहयोग न दें। आपका सहयोग ही विचार की शक्ति है।
वह जो फिल्म पर चित्र चलते हैं, उन्हें देख कर जो आप रोते हैं, चित्र आपको नहीं रुला रहे हैं। आप ही चित्रों से जो अपने को संयुक्त कर रहे हैं, उससे रुदन आ रहा है। अगर आप होश में भरे हों और जानें कि पर्दे पर केवल चित्र हैं, आपका तादात्म्य उनसे न हो, आप तटस्थ द्रष्टा मात्र हों, भोक्ता न हो जाएं, आप उस नाटक के हिस्से न हो जाएं, केवल साक्षी मात्र हों, केवल विटनेस मात्र हों, तो आप हैरान होंगे, चित्र चले जाएंगे पर्दे पर आकर, आप वैसे के वैसे बैठे हैं जैसे बैठे थे। आप में कोई राग, कोई द्वेष उदय नहीं हुआ। आपको कोई रुदन और हास्य नहीं पकड़ा। आप मौन, तटस्थ, द्रष्टा मात्र हैं। जो इस भांति विचार को देखेगा, असहयोग से, तटस्थ द्रष्टा मात्र होकर, वह क्रमशः विचार-मुक्ति को उपलब्ध होता है। जो विचार-मुक्ति को उपलब्ध होता है, वह आत्म-दर्शन कर सकता है।
महावीर एक ही शब्द हैं, एक ही शब्द में उनकी समस्त साधना है, और वह शब्द है--आत्म-दर्शन। उस एक शब्द को जो उपलब्ध हो जाए, वह उसको अनुभव कर पाएगा, किस महत्वपूर्ण, किस वैज्ञानिक सत्य को उन्होंने हमें दिया है। और हम इतना कर रहे हैं कि उनकी रख कर पूजा कर रहे हैं! और उनके ग्रंथों को रख कर सिर पर चल रहे हैं! और उनके शास्त्र-वचनों को दीवालों पर लिख रहे हैं! आश्चर्यजनक है कि हम अपने सदपुरुषों के साथ कैसा अन्याय करते हैं! हम सोचते हैं, हम उनका सम्मान कर रहे हैं! हमारा सब सम्मान उनका अपमान है। क्योंकि मूलतः वे जो कह रहे हैं, हम सब उसके विपरीत कर रहे हैं।
महावीर का सम्मान एक ही बात में है कि आत्म-ज्ञानी बनो। महावीर का स्मरण नहीं। मत करो स्मरण, उससे कोई संबंध नहीं है। अगर आत्म-ज्ञानी बनते हो, तो स्मरण करो या न करो, तुम महावीर के हो गए। और तुम महावीर का लाख स्मरण करो और आत्म-ज्ञानी नहीं बनते, तो तुम महावीर के नहीं हो। जिसको महावीर का होना है, उसे महावीर की फिकर छोड़ देनी चाहिए और उसकी फिकर करनी चाहिए, जो भीतर बैठा है। और जिसने उसकी फिकर छोड़ी, वह महावीर को कितना ही लिए फिरे, वह महावीर का नहीं हो सकता है। इस एक सत्य को हम स्मरण रखें।
जगत में जो लोग भी जाग्रत हुए हैं, जिन्होंने अपने को जाना है, उनकी शिक्षा एक छोटी सी बात में है, और वह यही है: आनंद भीतर है, भीतर लौटें। भीतर लौटने का उपाय: चित्त को विसर्जित करें, चित्त के प्रति तटस्थ द्रष्टा बनें, दर्शक बनें।
चित्त लीन, विलीन होगा--आप अपने को जानेंगे, अपना साक्षात करेंगे। और कैसे आनंद की ज्योति वहां अनुभव होगी, कैसे प्रकाश से वहां भर जाएंगे, कैसी घनीभूत शांति में वहां उतर जाएंगे, उसे शब्द में कहने का कोई उपाय नहीं है।
महावीर ने कहा है, उस अनुभूति को कहने के पूर्व शब्द निवृत हो जाते हैं। महावीर ने कहा है, उसे कहने को कोई शब्द नहीं हैं। जिसे निःशब्द में पाया जाता हो, उसे कहने के शक्य कोई शब्द नहीं होते। जिसे चित्त को खोकर पाया जाता हो, उसे कहने का चित्त के द्वारा कोई मार्ग नहीं होता है। मैं उस संबंध में कुछ नहीं कहूं, आज तक कभी किसी ने कोई कुछ कहा नहीं है। लेकिन उस तरफ इशारे किए गए हैं, उस तरफ इंगित किए गए हैं। और महावीर इस जमीन पर, इतिहास में जो बड़े से बड़े इशारे किए गए हैं, उनमें से एक इशारे हैं। उनकी अंगुली उठी है उस सत्य की तरफ। लेकिन हम नासमझ होंगे अगर उस अंगुली की पूजा करने लगें और उस तरफ न देखें जहां के लिए अंगुली उठी है। लोग महावीर की पूजा कर रहे हैं! महावीर केवल एक इशारे हैं उस आत्म-सत्ता की ओर, जो सबके भीतर विराजमान है।
वहां जापान में एक मंदिर है, उसकी बात कह कर अपनी चर्चा को पूरा करूंगा।
वहां जापान में एक मंदिर है, उसमें बुद्ध की प्रतिमा नहीं है। उस मंदिर में केवल अंदर एक अंगुली बनी हुई है बुद्ध की, ऊपर एक चांद बना हुआ है। लोग जाकर हैरान होते हैं और लोग जाकर पूछते हैं, यह क्या है? नीचे बुद्ध का एक वचन खुदा हुआ है। बुद्ध ने कहा है, मैंने अंगुली दिखाई है चांद की तरफ, लेकिन मैं जानता हूं कि तुम नासमझ हो, चांद को न देखोगे और मेरी अंगुली की पूजा करोगे।
महावीर, बुद्ध, क्राइस्ट और कृष्ण इशारे हैं। उनकी पूजा नहीं करनी, उस तरफ देखना है, जिस तरफ वे इशारे हैं। और उस तरफ कोई और नहीं, आप हो। उस तरफ कोई और नहीं, मैं हूं। वह इशारा किसी और की तरफ नहीं, हमारी अंतरात्मा की ओर है।
अगर महावीर जयंती के इस पवित्र स्मरण दिवस पर एक बात आपके विचार में पैदा हो जाए कि भीतर की तरफ देखना है, तो सारा जीवन सार्थक हो सकता है। उसके पूर्व न कोई सार्थकता है, न कोई आनंद है, न कोई शांति है, न कोई जीवन है। उसके पाने के बाद सारा जीवन अमृत में, सच्चिदानंद में परिणत हो जाता है।
मेरी बातों को इतनी प्रीति से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं और सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं, और आशा करता हूं कि आज नहीं कल, वह जो प्रसुप्त है, जागेगा और हम आनंद के, परम जीवन के अनुभव को उपलब्ध हो सकेंगे। पुनः-पुनः आपका आभार।





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