हरि बोलौ हरि बोल (संत
सुंदर दास)-ओशो
सुंदरदास के पदों पर दिनांक 1 जून से 10 जून, 1979 तक हुए
भगवान श्री रजनीश आश्रम पूना में।
दस अमृत प्रवचनों की प्रथम प्रवचनमाला।
आमुख
संत सुंदरदास दादू कि शिष्य थे। भगवान श्री का कहना है कि दादू ने
बहुत लोग चेताये। दादू महागुरुओं में एक हैं। जिसने व्यक्ति दादू से जागे उतने
भारतीय संतों में किसी ने नहीं जागे।
सुंदरदास पर उनके बालपन में ही दादू की कृपा हुई। दादू का सुंदरदास के
गांव धौंसा में आना हुआ। सुंदरदास ने उस अपूर्व क्षण का जिक्र इन शब्दों में किया
है--
दादू जी जब धौंसा आये
बालपन हम दरसन पाये।
तिनके चरननि नायौ माथा
उन दीयो मेरे सिर हाथा।
यह क्रांति का क्षण जब सुंदर के जीवन में आया तब वे सात वर्ष के ही
थे। सात वर्ष! लोग हैं कि सत्तर वर्ष के हो जाते हैं तो भी संन्यासी नहीं होते।
निश्चित ही अपूर्व प्रतिभा रही होगी; जो पत्थरों के बीच
रोशन दीये की तरह मालूम पड़ रहा होगा।
सुंदरदास ने कहा है--
सुंदर सतगुरु आपनैं, किया अनुग्रह आइ।
मोह-निसा में सोवते, हमको लिया जगाइ।।
दादू ने देख ली होगी झलक। उठा लिया इस बच्चे को हीरे की तरह। और हीरे
की तरह ही सुंदर को सम्हाला। इसलिए "सुंदर' नाम दिया उसे। सुंदर
ही रहा होगा बच्चा।
एक ही सौंदर्य है इस जगत में--परमात्मा की तलाश का सौंदर्य।
एक प्रसाद है इस जगत में--परमात्मा को पाने की आकांक्षा का प्रसाद।
धन्यभागी हैं वे--वे ही केवल सुंदर हैं--जिनकी आखों में परमात्मा की
छवि बसती है।
तुम्हारी आंखें सुंदर नहीं होती हैं; तुम्हारी आंखों में
कौन बसा है, उसमें सौंदर्य होता है।
तुम्हारा रूप-रंग सुंदर नहीं होता; तुम्हारे रूप-रंग में
किसकी चाहत बसी है, वहीं सौंदर्य होता है।
और तुम्हें भी कभी-कभी लगा होगा कि परमात्मा की खोज में चलनेवाले आदमी
में एक अपूर्व सौंदर्य प्रगट होने लगता है। उसके उठने-बैठने में, उसके बोलने में, उसके चुप होने में, उसकी आंख में, उसके हाथ के इशारों में--एक सौंदर्य
प्रगट होने लगता है, जो इस जगत का नहीं है।
"हरि बोलौ हरि बोल' में
संकलित ये दस प्रवचन उस अपूर्व सौंदर्य की ओर आमंत्रण है--उन्हें जिनके हृदय में
इसकी प्यास जगी है और जो इस प्यास के लिए अपने सारे जीवन को दांव पर लगा सकते हैं।
"सुंदरदास का हाथ पकड़ो। वे तुम्हें ले चलेंगे उस
सरोवर के पास, जिसकी एक घूंट भी सदा को तृप्त कर जाती
है।...लेकिन बस सरोवर के पास ले चलेंगे, सरोवर सामने कर
देंगे। अंजुली तो तुम्हें बनानी पड़ेगी अपनी। झुकना तो तुम्हें ही पड़ेगा। पीना तो
तुम्हें ही पड़ेगा।...लेकिन अगर सुंदर को समझा तो मार्ग में वे प्यास को भी जगाते
चलेंगे। तुम्हारे भय सोये हुए चकोर को पुकारेंगे, जो चांद को
देखने लगे। तुम्हारे भीतर सोये हुए चकोर को पुकारेंगे, जो
चांद को देखने लगे। तुम्हारे भीतर सोये हुए चातक को जगाएंगे, जो स्वाति की बूंद के लिए तड़पने लगे। तुम्हें समझाएंगे कि तुम मछली की
भांति हो जिसका सागर खो गया है और जो किनारे पर तड़प रही है।'
ओशो
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