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शुक्रवार, 30 मार्च 2018

महावीर या महाविनास--(प्रवचन-06)

 असुत्ता मुनि--(प्रवचन-छठवां)

हम सब प्यासे हैं आनंद के लिए, शांति के लिए। और सच तो यह है कि जीवन भर जो हम दौड़ते हैं धन के, पद के, प्रतिष्ठा के पीछे, उस दौड़ में भी भाव यही रहता है कि शायद शांति, शायद संतृप्ति मिल जाए। वासनाओं में भी जो हम दौड़ते हैं, उस दौड़ में भी यही पीछे आकांक्षा होती है कि शायद जीवन की संतृप्ति उसमें मिल जाए, शायद जीवन आनंद को उपलब्ध हो जाए, शायद भीतर एक सौंदर्य और शांति और आनंद के लोक का उदघाटन हो जाए।
लेकिन एक ही निरंतर इच्छा में दौड़ने के बाद भी वह गंतव्य दूर रहता है, निरंतर वासनाओं के पीछे चल कर भी वह परम संतृप्ति उपलब्ध नहीं होती है!
लोग हैं, धार्मिक कहे जाने वाले लोग हैं, जो कहेंगे, वासनाएं बुरी हैं; जो कहेंगे, वासनाएं त्याज्य हैं; जो कहेंगे, समस्त वासनाओं को छोड़ देना है; जो कहेंगे, वासनाएं अधार्मिक हैं। मैं आपसे कहूं, कोई वासना अधार्मिक नहीं है, अगर हम उसे देख सकें, समझ सकें। समस्त वासनाओं के भीतर अंततः प्रभु को पाने की वासना छिपी है। एक व्यक्ति को धन देते चले जाएं और उससे कहें कि कितने धन पर वह तृप्त होगा? हम कितना भी धन दें, उसकी आकांक्षा तृप्त न होगी। कितना ही धन दें! सारे जगत का धन उसे दे दें...

सिकंदर भारत की तरफ आता था। किसी ने उससे पूछा कि तुम अगर पूरी जमीन जीत लोगे तो फिर क्या करोगे?उसने कहा, मैं दूसरी जमीन की तलाश करूंगा। और अगर हम पूछें, दूसरी जमीन भी जीत लोगे तो फिर क्या करोगे?वह कहेगा, मैं तीसरी जमीन की तलाश करूंगा। और हम कहें, तुम सारी जमीनें जीत लोगे तो फिर क्या करोगे?
असल में वासना अनंत को पाने के लिए है, इसलिए किसी भी जमीन को पाकर तृप्त नहीं होगी। कितना ही धन दे दें, वासना तृप्त न होगी, क्योंकि वासना अनंत धन को पाने के लिए है। कितना ही बड़ा पद दे दें, आकांक्षा तृप्त न होगी, क्योंकि आकांक्षा परम पद को पाने के लिए है। कितना ही जीवन में उपलब्ध हो जाए, जीवन संतृप्त न होगा, तृप्त न होगा, क्योंकि परम जीवन, परम प्रभुता को पाए बिना मनुष्य के भीतर तृप्ति असंभव है।
प्रभु को पाए बिना तृप्ति असंभव है। असल में समस्त वासनाएं नदियों की तरह प्रभु की अंतिम वासना में..सागर की ओर दौड़ रही हैं। प्रत्येक वासना समझे जाने पर प्रभु की ओर इशारा करेगी, परम सत्ता की ओर इशारा करेगी।
इसलिए वासनाएं बुरी नहीं हैं। वासनाओं को क्षुद्र से तृप्त करने की चेष्टा अज्ञान है। वासना को विराट देना होगा। क्षुद्र की तरफ जो वासनाएं दौड़ रही हैं, उन्हें विराट पर केंद्रित करना होगा, उन्हें विराट की ओर उन्मुख करना होगा।
लोग कहते हैं कि मन चंचल है, लोग कहते हैं कि मन की चंचलता नहीं मिटती, लोग कहते हैं कि हम मन को ठहराने की, रोकने की कोशिश करते हैं, शांत होने की कोशिश करते हैं, लेकिन मन कहीं भागता चला जाता है!
असल में मन चंचल नहीं होता तो मनुष्य कभी धार्मिक नहीं हो सकता था।
मैं फिर से कहूं, मन अगर चंचल नहीं हुआ होता तो मनुष्य कभी धार्मिक न हो सकता था, क्योंकि हमने कुछ क्षुद्र रूप से उसे पकड़ा दिया होता और मन वहीं ठहर जाता। हमने कुछ व्यर्थ उसको पकड़ा दिया होता और मन वहीं थिर हो जाता।
हम कुछ भी पकड़ाएं, मन वहां ठहरता नहीं और आगे के लिए अभीप्सा से भर जाता है। असल में जब तक प्रभु को न पाए, तब तक ठहरेगा नहीं। मन की चंचलता और विचलितता इसलिए है कि मन प्रभु को पाने को उत्सुक है। उसके पूर्व कोई निधि, कोई संपत्ति उसे तृप्त नहीं कर सकती है।
सौभाग्य है कि मन चंचल है। सौभाग्य है कि मन चंचल है..चंचल है, इसलिए शायद कभी परम सत्ता तक पहुंचना संभव हो सकता है। सौभाग्य है कि मन वासनाग्रस्त है, इसलिए शायद कोई दिन परम वासना को उपलब्ध हो जाए।
मैंने सुना है, वहां इजिप्त में एक फकीर हुआ। फकीर अपने झोपड़े के पीछे अपने खेत में काम करने गया। फकीर की एक शिष्या बादशाह को झोपड़े के बाहर मिली। उसने बादशाह को कहा, आप थोड़ा खेत की मेड़ पर बैठ जाएं, मैं फकीर को बुला लाती हूं। बादशाह बोला, तुम बुला लाओ, मैं टहलता हूं। उसने सोचा कि शायद बादशाह बाहर बैठने में संकोच कर रहा है। वह उसे भीतर ले गई झोपड़े के और उसने बादशाह को कहा, यहां एक चटाई पड़ी है, उस पर बैठ जाएं, मैं फकीर को बुला लाती हूं। बादशाह ने कहा, बुला लाओ, मैं थोड़ा टहलता हूं। वह बहुत हैरान हुई। उसने जाकर पीछे फकीर को कहा, यह बादशाह कुछ अजीब सा आदमी मालूम हो रहा है। मैंने बहुत कहा कि बैठ जाओ। वह बोलता है, मैं टहलता हूं, तुम बुला लाओ। फकीर ने कहा, असल में वह बैठ सके, उसके योग्य स्थान हमारे पास कहां है! फकीर ने कहा, वह बैठ सके उसके योग्य बैठने का स्थान हमारे पास कहां है, इसलिए टहलता है।
मैं इस कहानी को पढ़ता था और मुझे एक अदभुत बात दिखाई पड़ी, मन इसलिए चंचल है कि वह जहां बैठ सके, वह स्थान तुमने अब तक दिया नहीं। मन इसलिए चंचल है, इसलिए विचलित है कि जहां वह थिर हो सके, जहां वह तल्लीन हो सके, जहां वह विलीन हो सके, जहां वह विसर्जित हो सके, हमने वह स्थान उसे आज तक दिया नहीं। हमने कहीं खेत की मेड़ें बताई हैं, कहीं साधारण सी पतली चटाइयां बताई हैं। हमने क्षुद्र का प्रलोभन दिया है, वह विराट का प्यासा है। इसलिए चंचल है। जब तक हम विराट, जब तक हम अनंत, जब तक हम पूर्ण, जब तक हम परम के सान्निध्य में उसे न ले जाएं, तब तक मन चंचल होगा, मन विचलित होगा; मन भागेगा और दौड़ेगा। मन दुखी होगा, मन संताप से भरा रहेगा। एक एंग्विश, एक पीड़ा निरंतर पकड़े ही रहेगी।
मनुष्य के जीवन का दुख एक ही केंद्र पर है। मनुष्य, जिस बात को पाने से प्यास उसकी तृप्त होगी, वह हम उसे नहीं दे रहे हैं, हम कुछ और दे रहे हैं। हम कुछ और दे रहे हैं, जो तृप्ति न देगा! और हम उससे वंचित किए हैं, जो तृप्ति बन सकता है! और अगर यह तृप्ति न हो तो हम लाख उपाय करें, लाख अर्जित करें, लाख व्यवस्था, समृद्धि जमा लें, हम शांति को, आनंद को नहीं पा सकते हैं।
धर्म त्याग करने से नहीं होता है। धर्म छोड़ने से नहीं मिलता है। धर्म जीवन से पलायन करने वाले को नहीं मिलता है। धर्म तो पाने पर मिलता है, परिपूर्ण को पाने पर मिलता है। धर्म तो परिपूर्ण को उपलब्ध करने को कहता है।
गलत होंगे, जो समझते हैं, धर्म परार्थ है। धर्म से ज्यादा स्वार्थ इस जगत में कुछ भी नहीं है। भ्रांत होंगे वे, जो समझते हैं, धर्म परार्थ है। धर्म से अधिक स्वार्थ इस जगत में कुछ भी नहीं है। महावीर और बुद्ध से ज्यादा स्वार्थ को उत्पन्न इस जगत में दूसरे नहीं हैं।
स्वार्थ का अर्थ है: स्व को परिपूर्ण जहां अर्थ उपलब्ध होता है।
स्वार्थ का अर्थ है: जहां मेरी सत्ता पूरे प्रयोजन को, पूरी अर्थवत्ता को उपलब्ध हो जाए, जहां मैं अपने को उपलब्ध हो जाऊं।
हम एक अर्थ में स्वार्थी नहीं हैं। हमें स्व की कोई चिंता भी नहीं है, हमें स्व से कोई प्रयोजन नहीं है! हम उन चीजों के पीछे दौड़ रहे हैं, जिन्हें मृत्यु छीन लेगी और समाप्त कर देगी। हम अत्यंत निःस्वार्थी लोग हैं। हम उन चीजों पर जीवन को व्यय कर रहे हैं, जो हमारी सत्ता का अंग नहीं बन सकतीं, जो हमारे स्वरूप का उदघाटन नहीं हो सकतीं। महावीर और बुद्ध और ईसा और कृष्ण उसको पाने में संलग्न हैं, जिसे मृत्यु भी जला नहीं सकेगी। वे शायद उस संपत्ति को उपलब्ध कर रहे हैं। हम जिसे संपत्ति कह रहे हैं, वह संपत्ति नहीं है।
नानक लाहौर के पास एक गांव में ठहरे थे। एक व्यक्ति ने उनसे कहा, मैं कुछ आपकी सेवा करना चाहता हूं। बहुत संपत्ति मेरे पास है। आपके उपयोग में आ जाए तो अनुग्रह होगा। नानक कई बार उसे टालते गए। एक बार रात्रि को उसने दोबारा अपनी प्रार्थना दोहराई, तो उस व्यक्ति को एक कपड़े सीने की सुई दे दी। कपड़े सीने की सुई देकर कहा, इसे रख लो और जब हम दोनों मर जाएं तो इसे वापस लौटा देना। वह आदमी कुछ चैंका होगा, क्या नानक का दिमाग कुछ खराब है! चैंका होगा कि इतने लोगों के सामने असंगत और व्यर्थ की बात कहते हैं! इस सुई को मृत्यु के बाद कैसे लौटाया जा सकेगा! लेकिन सबके सामने कुछ कहना संभव नहीं हुआ। फिर उसी ने तो बार-बार उनसे आकांक्षा की थी कि कोई सेवा! और सेवा जो दी है, उसे एकदम अस्वीकार करते नहीं बन पड़ा।
वह गया, रात भर सोचता रहा, विचार करता रहा। कोई मार्ग उसे दिखाई न पड़ा कि सुई मृत्यु के पार कैसे जा सकेगी। वह पांच बजे, चार बजे सुबह ही नानक के पैरों पर गिर पड़ा और कहा कि यह सुई, अभी जिंदा हूं, वापस ले लें; मरने पर लौटाना मेरी सामथ्र्य में नहीं है। मैंने बहुत चेष्टा की, बहुत उपाय किए, बहुत सोचा..अपनी सारी संपत्ति भी लगा दूं, तो जिस मुट्ठी में यह सुई होगी, वह इसी पार रह जाएगी। मैं पता नहीं किस लोक में, किस अज्ञात में विलीन हो जाऊंगा। यहां तो मैं रहूंगा नहीं। मैं इस सुई को पार नहीं ले जा सकता हूं।
नानक ने कहा, फिर मैं तुझसे एक बात पूछूं?तेरे पास क्या है जिसे तू पार ले जा सकता है? उस व्यक्ति ने कहा, मैंने तो कभी विचारा नहीं। लेकिन अब देखता हूं तो दिखाई नहीं पड़ता कि मेरे पास कुछ है, जिसे मैं पार ले जा सकता हूं। नानक ने कहा, जो मृत्यु के पार न जा सके, वह संपत्ति नहीं है।
जो मृत्यु के इस पार रह जाए, वह विपत्ति हो सकती है, संपत्ति नहीं हो सकती।
समस्त धार्मिक जाग्रत पुरुष भी संपत्ति को कमाए हैं। हम भी संपत्ति को कमाते हैं। हम उस संपत्ति को कमाते हैं, जो मृत्यु के इस पार होगी। वे उस संपत्ति को कमाते हैं, जिसे मृत्यु की लपटें भी नष्ट न कर सकेंगी, जो मृत्यु की लपटों के पार भी निकल जाएगी। शायद वे ही स्वार्थी हैं, शायद वे ही परम स्वार्थ को पूरा कर लेते हैं। और शायद न मालूम कौन है कि जो उनको कहता है कि वे त्यागी हैं, न मालूम कौन है जो कहता है उन्होंने सब छोड़ा, न मालूम कौन है जो कहता है उन्होंने समृद्धि छोड़ी, न मालूम कौन है जो उनके त्याग और तपश्चर्या की बात करता है! मुझे वैसी कोई बात दिखाई नहीं पड़ती। समृद्धि हम छोड़े हुए हैं, संपत्ति हम छोड़े हुए हैं, आनंद हम छोड़े हुए हैं! उन्होंने केवल दुख छोड़ा है, उन्होंने केवल अज्ञान छोड़ा है, उन्होंने केवल पीड़ा छोड़ी है। और अगर पीड़ा को और दुख को और अज्ञान को छोड़ना त्याग है तो फिर बात अलग है। फिर भोग क्या होगा?
इस जगत में केवल संन्यासी ही भोगी है। इस जगत में केवल विरक्त ही, वीतराग ही आनंद को, शांति को उपलब्ध रहता है। हम सब त्यागी हो सकते हैं।
महावीर ने अपनी समृद्धि को, राज्य को, व्यवस्था को छोड़ दिया, लात मार दी। हम प्रसन्नता से भरे हैं कि उन्होंने बहुत बड़ा काम किया! असल में हम संपत्ति को बहुत आदर देते हैं, इसलिए महावीर के त्याग को भी बहुत आदर देते हैं। हमारी दृष्टि में महावीर का मूल्य नहीं है, महावीर ने वह जो संपत्ति को लात मारी, उसका मूल्य है! अगर किसी व्यक्ति को कचरा बहुत प्रिय हो और किसी को घर के बाहर कचरे को फेंकता देखे, तो शायद आदर से नमस्कार करे कि अदभुत त्याग कर रहा है, सुबह-सुबह सारा घर का कचरा फेंक रहा है!
हम जब यह कहते हैं कि महावीर बहुत बड़े त्यागी हैं, असल में हम संपत्ति के प्रति अपने आदर को सूचित करते हैं, महावीर के प्रति नहीं। अगर हम महावीर को समझेंगे तो हमें दिखाई पड़ेगा, महावीर ने वह छोड़ दिया जो व्यर्थ था। छोड़ना भी कहना शायद गलत है, क्योंकि व्यर्थ को छोड़ा नहीं जाता, व्यर्थ दिख जाए तो छूट जाता है। मैं पुनः दोहराऊं, छोड़ना भी कहना शायद गलत है। व्यर्थ को छोड़ा नहीं जाता, उसकी व्यर्थता दिख जाए तो छूट जाता है।
इस जगत में अज्ञानियों ने त्याग किया होगा, ज्ञानियों ने त्याग नहीं किया है। उनसे चीजें छूट गई हैं, जैसे पके पत्ते वृक्ष से गिर जाते हैं, वैसे ही जैसे हम कचरे को बाहर फेंक आते हैं और पुनः उसकी याद नहीं करते।
मैं एक गांव में गया था। एक साधु का प्रवचन सुना था। दो दिन सुना, दो दिन उन्होंने निरंतर कहा। उनसे मिलने गया, तब भी उन्होंने मुझसे कहा, मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी। मैंने उनसे पूछा, यह लात कब मारी थी? वह मुझे कहे कि कोई बीस वर्ष हुए। और तब मैंने उनसे कहा कि लात मारी नहीं जा सकी होगी, अन्यथा बीस वर्ष उसे याद रखने की कोई जरूरत न थी। वह लात मारी नहीं जा सकी। बीस वर्ष पहले लाखों रुपए मेरे पास थे, यह अहंकार तृप्ति देता रहा होगा। बीस वर्ष से यह अहंकार परिपुष्ट हो रहा है कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी है! बात वहीं की वहीं है।
संपत्ति छोड़ी नहीं जाती, एक दिन दिखता है, वहां संपत्ति है ही नहीं। एक दिन दिखता है कि वहां संपत्ति है ही नहीं, वहां संपत्ति का अभाव है। मुट्ठी खुल जाती है, कुछ छोड़ना नहीं पड़ता है। शायद उस दिन कोई मजबूर करे कि मुट्ठी बांधे रखो तो बड़ी तपश्चर्या हो। उस व्यर्थ के बोझ को ढोने में तपश्चर्या हो सकती है। व्यर्थ के बोझ को छोड़ आने में कौन सी तपश्चर्या हो सकती है!
त्याग नहीं, केवल ज्ञान ही पर्याप्त है। छोड़ना नहीं होता, केवल जानना होता है। जानना क्रांति है। जान लें ठीक से, क्या है जो सार्थक है, क्या है जो व्यर्थ है..क्रांति घटित हो जाती है। ज्ञान का परिणाम शील बन जाता है, आचरण बन जाता है।
लेकिन क्या सार्थक है, क्या व्यर्थ है..यह वे कैसे जानेंगे जो स्वयं को भी नहीं जानते?जो स्वयं को नहीं जानते हैं वे सार्थक को कैसे जानेंगे? सार्थक वही होगा, जो स्वरूप के अनुकूल हो। सार्थक वही होगा, जो स्वरूप के प्रति संगतिपूर्ण हो। व्यर्थ वह होगा, जो स्वरूप के प्रतिकूल हो। व्यर्थ वह होगा, जो स्वरूप के प्रति विरोध से भरा हो। व्यर्थ वह होगा, जो स्वरूप को गलत ले जाता हो।
असल में दुख का और कोई अर्थ नहीं है। स्वरूप के प्रति जो प्रतिकूलता है, वही दुख है। स्वरूप के प्रति जो अनुकूलता है, वही आनंद है। जिस क्षण मैं अपने को स्वरूप के अनुकूल पाता हूं, आनंदित हो जाता हूं। जिस क्षण स्वरूप के प्रतिकूल पाता हूं, दुखी हो जाता हूं। दुख का अर्थ है कि कुछ प्रतिकूल है, जो मैं नहीं चाहता कि हो, और हो रहा है। आनंद का अर्थ है कि कुछ हो रहा है, जो मैं चाहता हूं कि हो, जो मेरे अनुकूल है।
प्रतिकूलता दुख है, अनुकूलता सुख है।
अगर मुझे स्वरूप का पता न हो तो क्या सार्थक है, क्या व्यर्थ है, यह दिखाई नहीं पड़ सकता। स्वरूप-बोध जीवन में सार्थकता का और व्यर्थता का इंगित स्पष्ट कर जाता है। यह जानना धर्म की बुनियादी, केंद्रीय बात है कि मैं कौन हूं।
विज्ञान पदार्थ को जानता है, पदार्थ क्या है। विज्ञान पदार्थ के रहस्य को खोदता है कि उसके क्या नियम हैं, क्या रहस्य, क्या राज हैं। धर्म चैतन्य को खोजता है, स्व को खोजता है..उसका क्या रहस्य है। पदार्थ के अंतिम विश्लेषण पर अणु उपलब्ध हुआ है। और अणु की उपलब्धि घातक हो गई है, विस्फोटक हो गई है। हो सकता है सारे मनुष्य को ले डूबे। चैतन्य का विश्लेषण आत्मा को उपलब्ध किया है। पदार्थ के विश्लेषण से अणु उपलब्ध हुआ है, चैतन्य के विश्लेषण से आत्मा उपलब्ध हुई है।
अणु संभव है घातक हो जाए। आत्मा का उपलब्ध होना शायद जगत के बचाने का मार्ग बन जाए। इस जगत में, जो अत्यंत पीड़ा और परेशानी से घिरा है, पुनः आत्म-जागरण के उदघोष की जरूरत है।
लेकिन आत्मा के संबंध में हम बहुत बातें जानते हों भला, आत्मा को नहीं जानते हैं। आत्मा के संबंध में बहुत से सिद्धांत मंडित हों, लेकिन आत्मा से कोई परिचय नहीं है। बहुत-बहुत आश्चर्य हैं जगत में, लेकिन सबसे बड़ा एक ही है..जो मैं हूं, उसे छोड़ कर मैं सब जान सकता हूं! स्वयं से अपरिचित रह जाता हूं! सारे जगत को जाना जा सकता है और केवल वही, जो जानता है, वही रह जाता है! सारे जगत में दौड़ कर ज्ञान के संग्रह का आभास हो सकता है, लेकिन यह संग्रह अज्ञान ही है, क्योंकि वह स्व को उदघाटित नहीं कर पाता।
महावीर ने कहा है, सब कुछ जान लो, लेकिन जो स्वयं को न जान ले तो वह जानना जानना नहीं है। सब कुछ जीत लो, लेकिन अगर स्वयं को न जीता, तो वह जीत विजय नहीं है। सब कुछ पा लो, लेकिन स्वयं को न पाया तो वह पाना उपलब्धि नहीं है।
स्वरूप पाने से हम च्युत रह जाते हैं, और सब पा लेते हैं!
लगभग ऐसा मुझे स्मरण आता है, स्वामी रामतीर्थ, एक भारतीय साधु जापान में थे। एक भवन के पास से निकलते थे, भवन में आग लग गई थी। लोग सामान निकाल रहे थे। भवनपति बाहर खड़ा था। होश खो दिया था उसने। उसे कुछ दिख नहीं रहा था, लेकिन देख तो जरूर रहा था। लपटें पकड़ रही थीं मकान को। लोग सामान बाहर ला रहे थे। और थोड़ी देर में सब भूमिसात हो जाएगा, सब राख हो जाएगा। रामतीर्थ भी उस राह से निकले थे, किनारे खड़े होकर देखने लगे थे। लोगों ने अंतिम बार आकर पूछा, भवन में कुछ और तो नहीं रह गया? उस भवनपति ने कहा, मुझे कुछ याद नहीं पड़ता। मुझे कुछ भी स्मरण नहीं आता! मैं दिग्मूढ़ सा खड़ा रह गया हूं। तुम्हीं एक बार जाकर और देख लो। जो बचा हो, उसे भी बचा लो।
भवन अंतिम लपटों को पकड़ने के करीब था। लोग भीतर गए। वे बाहर आए तो रोते हुए बाहर आए। कहीं एकांत में भवनपति का एकमात्र लड़का था, वे उसकी राख को लेकर लौटे थे। वे लोग मकान का सामान बचाने में लग गए थे और मकान का एकमात्र मालिक भीतर जल कर समाप्त हो गया था! रामतीर्थ ने अपनी डायरी में लिखा है, उस दिन मुझे लगा कि यह घटना प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में घटती है। हम सामान को बचाने में लग जाते हैं, सामान का मालिक धीरे-धीरे मर जाता है।
हम उसको बचाने में लग जाते हैं जो बाहर है और जो आंतरिक है, जो मैं स्वयं हूं, उसको भूल ही जाते हैं! यह अति व्यस्तता आत्मघातक है, स्युसाइडल है। पदार्थ से, वस्तु से इतना व्यस्त होना कि स्वरूप भूल जाए, सामान्य सामग्री में इतना आक्युपाइड हो जाना, इतना व्यस्त हो जाना कि स्व की सत्ता का विस्मरण हो जाए, आत्मघातक है।
शायद जिसे हम आत्महत्या कहते हैं, वह केवल देह-हत्या है। आत्महत्या इसे कहना चाहिए..आत्महत्या इसे कहना चाहिए कि जिसे स्व का विस्मरण हो जाए और जिसका सामग्री पर सारा जीवन केंद्रित हो जाए। जिसके लिए हम खोज कर रहे हैं, वह गौण हो जाए; और जिसके लिए वे चीजें खोज करने गए थे, वे चीजें प्रमुख हो जाएं। उसे भूल जाएं, जिसकी शांति के लिए हम चले थे, और सामग्री के आयोजन में ही जीवन व्यय हो जाए, इसे आत्महत्या कहना चाहिए। शरीर की हत्या को आत्महत्या नहीं कहना चाहिए।
यह आत्महत्या प्रत्येक के भीतर घटित होती है। इससे बचने का, इससे ऊपर उठने का एक ही उपाय है कि हमारा जो चित्त, हमारा जो मन दूसरे में अति व्यस्त है, थोड़ा सा समय निकाल कर स्वयं को जानने के प्रति भी उन्मुख हो। जिस ज्ञान की शक्ति से हम सारे जगत को जानने निकल पड़े थे, वह ज्ञान की धारा अंतः-प्रवाहित हो, भीतर की तरफ उन्मुख हो। हम उसको भी जान सकें, जो सबको जान रहा है।
और जिन्होंने उसे जाना है, उनका आश्वासन है कि जिस आनंद को बाहर खोज-खोज कर जन्मों-जन्मों में नहीं पाया जा सकता है, क्षण में उसे भीतर मुड़ते ही उपलब्ध कर लिया जाता है। यह आश्वासन एकाध व्यक्ति का हो, तो पागल कह कर टाल सकते हैं, बकवास कह कर टाल सकते हैं। जितने लोगों ने इस जमीन पर, जमीन के इतिहास में आनंद को उपलब्ध किया है, उनमें से एक ने भी उसे बाहर उपलब्ध नहीं किया है। जितने लोगों ने उपलब्ध किया है, उनकी सामूहिक साक्षी और गवाही आंतरिक के लिए है। इसलिए सत्य वैज्ञानिक हो जाता है, यह सत्य अंधविश्वास नहीं रह जाता है। यह अपवाद नहीं है, निरपवाद रूप से जिन लोगों ने आनंद अनुभव किया है, उन्होंने आत्यंतिक आंतरिक से उसका उदघाटन किया है।
वह आंतरिक प्रत्येक में उपस्थित है, प्रत्येक घड़ी उपस्थित है, हम उसे जानते हों या न जानते हों। क्योंकि वह हमारा होना है, वह हमारी बीइंग है, वह हमारी सत्ता है, वह हमारा अस्तित्व है। हम लाख उपाय करके उसको खो नहीं सकते हैं। कोई मनुष्य अपनी आत्मा को नहीं खो सकता, कितना ही पाप करे, कितने ही पाप का उपाय करे। इस जगत में एक बात असंभव है..स्वयं को खो देना असंभव है।
स्वयं को तो खो नहीं सकते, लेकिन फिर सारे लोग तो कहते हैं, आत्मा को पा लो! जिस स्वयं को खो नहीं सकते, उसे पाने का क्या मानी होगा? आत्मा को खोया नहीं जाता, केवल विस्मरण हो जाता है। और ठीक से मेरी बात समझें तो विस्मरण भी नहीं होता, हम दूसरे के स्मरण से इतने भर जाते हैं कि स्व का स्मरण नीचे दब जाता है।
अगर हम पर के स्मरण को थोड़ी देर को छोड़ सकें, अगर हमारा चित्त पर के स्मरण से थोड़ी देर को शून्य हो जाए, अगर हमारे चित्त में पर का प्रतिबिंब और पर के विचार और पर के इमेजेज थोड़ी देर को विलीन हो जाएं, तो स्व-स्मरण जो नीचे दबा है, उदघाटित हो जाएगा। कुछ खोया नहीं है, केवल कुछ आच्छादित है। कुछ भूला नहीं है, केवल कुछ आवरण में, वस्त्रों में छिप गया है। थोड़े से वस्त्र उघाड़ने की, थोड़ा सा आंतरिक जगत में नग्न होने की बात है..और स्व का साक्षात हो सकता है।
स्व के साक्षात के बाद ही सार्थक की अनुभूति होती है। स्व के साक्षात के बाद ही निरर्थक छूटता है और सार्थक की दिशा में जीवन की गति होती है। उसके पूर्व, स्व-साक्षात के पूर्व, जो सार्थक की तलाश करेगा, वह केवल दमन कर सकता है, वह केवल संघर्ष कर सकता है अपने से, वह केवल छोड़ने में लग सकता है। उससे छूटेगा नहीं, क्योंकि उसे ज्ञात ही नहीं है कि छोड़ने का प्रश्न ही नहीं है।
एक साधु हुआ। वह गृही था। उसका नियम था लकड़ी काट लेनी, बेच देनी; उससे जो भोजन मिले, कर लेना; और जो सांझ बच जाए, उसे बांट देना। उसकी पत्नी थी। एक बार सात दिन तक लगातार वर्षा हुई। लकड़ियां काटने जाना जरूरी था। सात दिन उपवास के बिताने पर भी भिक्षा मांगने का उसका नियम न था। सात दिन के बाद भूखा सपत्नीक लकड़ियां काटने वन को गया। लकड़ियां काटीं। भूख से पीड़ित सात दिन के, लकड़ियों के बोझ को ढोते हुए वे पति-पत्नी वापस लौटते थे। पति आगे था, पत्नी थोड़ा पीछे फासले पर थी। एक अदभुत घटना घटी, जो स्मरण करने जैसी है। वह यदि मन में बैठ जाए, मन के किसी प्रकाशित कोने में स्थापित हो जाए, तो जीवन में दिशा-परिवर्तन हो सकता है।
वह आगे-आगे था लकड़ियों के बोझ को लिए। राह के किनारे उसे दिखा कि किसी राहगीर की थैली गिर गई है, स्वर्ण अशर्फियां उसमें हैं। यह सोच कर कि सात दिन की भूख और परेशानी के कारण पत्नी का मन कहीं मोह से न भर जाए, कहीं लोभ से न भर जाए, कहीं उसके मन में ऐसा न हो कि अशर्फियां उठा लूं, नाहक उसके चित्त में विकार न आए, उसने गड्ढे में उसे सरका कर थैली पर मिट्टी डाल दी। अपने तईं सोचा कि मैं तो स्वर्ण का विजेता हो गया हूं, मैंने तो जीत लिया, मैं तो स्वर्ण के मोह को छोड़ सकता हूं, लेकिन पत्नी कहीं मोहग्रस्त न हो जाए। वह मिट्टी डाल कर उठता ही था कि पत्नी आ गई।
उसने पूछा, क्या कर रहे हो? नियम था उस साधु का असत्य न बोलने का, इसलिए सत्य बोलना पड़ा। उसने कहा, यह सोच कर कि मैंने तो परिग्रह से छुट्टी पा ली, मैं तो सब त्याग कर चुका हूं, लेकिन तेरे मन में कहीं मोह न आ जाए, एक स्वर्ण अशर्फियों की थैली पड़ी थी, उसे मैंने मिट्टी से ढंक दिया है।
उस पत्नी ने कहा था, तुम्हें मिट्टी पर मिट्टी डालते हुए शर्म नहीं आई?तुम्हें स्वर्ण अभी दिखाई पड़ता है?
अगर स्वर्ण दिखाई पड़ता है, तो स्वर्ण से त्याग नहीं हुआ। अगर स्वर्ण दिखाई पड़ता है, तो स्वर्ण से मुक्ति नहीं हुई। अगर स्वर्ण मूल्यवान मालूम होता है, तो स्वर्ण के साथ आसक्ति शेष है। स्वर्ण के साथ दो तरह के संबंध हो सकते हैं..आसक्ति के और विरक्ति के। लेकिन दोनों ही संबंध हैं। स्वर्ण के साथ दो तरह के संबंध हो सकते हैं कि मैं स्वर्ण को पाने को उत्सुक हो जाऊं या मैं स्वर्ण को छोड़ने को उत्सुक हो जाऊं। लेकिन दोनों ही संबंध हैं।
वस्तुतः जो स्वयं को जानेगा, वह स्वर्ण को न छोड़ता है, न पकड़ता है। वह अचानक जान पाता है कि वहां तो कोई अर्थ ही नहीं है। स्वर्ण में कोई अर्थ ही नहीं है। इतना भी अर्थ नहीं है कि उसे छोड़ने के लिए उत्सुक हुआ जाए या उसे पकड़ने के लिए उत्सुक हुआ जाए। इस स्थिति को हमने वीतरागता कहा है।
एक स्थिति है राग की..राग स्वर्ण के प्रति आसक्ति है।
एक स्थिति है वैराग्य की..वैराग्य स्वर्ण के प्रति विरक्ति है।
लेकिन वे दोनों संबंध हैं। उन दोनों में स्वर्ण का मीनिंग है, स्वर्ण का अर्थ है। एक तीसरी बात है, वीतरागता की। राग से और विराग से, दोनों से अलग। वहां स्वर्ण के प्रति कोई संबंध नहीं है। वहां जगत के प्रति, संसार के प्रति कोई संबंध नहीं है।
इस सत्य का उदघाटन कि मेरी सत्ता असंग है, मेरी सत्ता नितांत भिन्न और पृथक है, जीवन में त्याग को फलित कर देती है। त्याग ज्ञान का फल है। कोई त्याग करके ज्ञान तक नहीं पहुंचता, ज्ञान के उत्पन्न होने से त्याग फलित होता है।
सम्यक दर्शन प्राथमिक है, सम्यक आचरण उसका परिणाम है।
आचरण नहीं पालना होता है, ज्ञान उपलब्ध करना होता है। जो आचरण से प्रारंभ करेंगे, उन्होंने गलत मार्ग से प्रारंभ किया। उन्होंने एक छोर से प्रारंभ किया। अज्ञान में आचरण आरोपित होगा, कल्टीवेटेड होगा। ज्ञान में आचरण सहज होता है। अज्ञान में क्रोध को दबा कर क्षमा करनी पड़ेगी, ज्ञान में क्रोध ही उत्पन्न नहीं होता है।
जिन लोगों ने महावीर को कहा है कि बहुत क्षमावान थे, उन लोगों ने महावीर के प्रति बहुत असत्य कहा है। महावीर को क्षमावान कहने का अर्थ है कि महावीर में क्रोध उठता था। महावीर क्षमावान नहीं थे, असल में महावीर में क्रोध ही नहीं उठता। जिसमें क्रोध का अभाव है, उसमें क्षमा का, अक्षमा का प्रश्न नहीं उठता। क्षमावान क्रोधी हो सकते हैं, अक्रोधी के क्षमावान होने का प्रश्न नहीं उठता। चित्त में भीतर स्वयं के साक्षात से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह आश्चर्यजनक और स्वर्णिम प्रकाश से भर जाता है।
जीवन में मुक्ति का मार्ग आचरण से नहीं, प्रज्ञा के जागरण से प्रारंभ होता है।
यह प्रज्ञा-जागरण, यह स्व का साक्षात कैसे होगा?किस विधि से मैं अपने भीतर जा सकता हूं?किस विधि से मैं स्वयं के आमने-सामने आ सकता हूं?किस विधि से, जो सबको देख रहा है, उस सत्ता के साथ मेरा तादात्म्य हो सकता है?
अगर उस विधि को समझना है, तो समझना होगा, किस विधि से मैं अपने से बाहर हो गया हूं। किस विधि से मैं अपने से बाहर हो गया हूं? अगर मैं यह समझ लूं कि मैं किस विधि से अपने से बाहर गया, तो उसी पर पीछे वापस लौटने से मैं स्वयं में पहुंच जाऊंगा। जिस मार्ग से मैं बाहर आया हूं, वही मार्ग भीतर ले जाने का भी होगा..केवल विपरीत चलना पड़ेगा। जो मार्ग मुझे बंधन में लाया है, वही मार्ग मेरी मुक्ति का भी होगा..केवल विपरीत चलना पड़ेगा। जो मार्ग मुझे संसार से जोड़े हुए है, वही मार्ग मुझे परमात्मा से जोड़ेगा..केवल विपरीत चलना होगा।
यह हमारा चित्त, यह हमारा मन, यह हमारा विचार हमें जगत से जोड़ता है। एक क्षण को कल्पना करें अभी कि चित्त में कोई विचार नहीं है, कोई तरंग नहीं है..चित्त निस्तरंग हो गया है, निर्विचार हो गया है..उस क्षण आप जगत से संबंधित होंगे क्या?उस क्षण क्या कोई भी संबंध शेष रह जाएगा?उस क्षण जो बाहर जीता है, उससे क्या कोई नाता, कोई संबंध शेष रह जाएगा, कोई भी धागे बंधे हुए रह जाएंगे?
कल्पना भी करेंगे तो दिख पड़ेगा..अगर चित्त बिल्कुल निस्तरंग है और शून्य है, अगर चित्त में कोई भी क्रिया नहीं चल रही है, विचार की, वासना की, कल्पना की, स्मृति की कोई भी क्रिया नहीं है, सब शून्य है..उस शून्य में आप जगत से टूटे हुए होंगे, पृथक होंगे। चित्त विचार से भरा है, तो हम जगत से संयुक्त हैं, शरीर से संयुक्त हैं, अन्य से, पर से संयुक्त हैं। हमारा बंधन..अगर हम बहुत ठीक से समझें..संसार नहीं है, हमारा बंधन विचार है।
संसार से मुक्त नहीं होना है, विचार से मुक्त होना है।
महावीर मुक्त होने के बाद भी संसार में हैं, संसार में जीए चालीस वर्ष तक। बुद्ध मुक्त होने के बाद संसार में जीए तीस वर्ष तक। संसार में तो थे। फिर हो क्या गया था उनमें?
वे तो संसार में थे, लेकिन संसार उनमें नहीं था।
वे तो संसार में थे, लेकिन संसार उनमें नहीं था। हमारे भीतर संसार के होने का स्थान विचार है। हमारे भीतर संसार की प्रतिछवि विचार में बनती है। हमारे भीतर विचार है गृह संसार का। इसलिए विचार के गृह को तोड़ देना संन्यास है। विचार के गृह में बंद होकर रहना गृहस्थ होना है। भीतर विचार की दीवाल हमें घेरे हुए है। चैबीस घंटे उठते-बैठते सोते-जागते विचार का सतत प्रवाह हमें घेरे हुए है। वही विचार हमारी अशांति है, वही विचार हमारी उत्तेजना है, वही विचार हमारी उद्विग्न स्थिति है, वही विचार हमारी ज्वरग्रस्त स्थिति है। इस विचार के विसर्जन से, इस विचार के शांत होने से, इस विचार के ऊहापोह और तरंगों के विलीन होने से भीतर एक शांति का दर्पण, भीतर एक शांत चैतन्य की स्थिति उत्पन्न होती है। उसी शांति में, उसी अनुद्विग्न स्थिति में स्वयं का साक्षात होता है।
मैंने कहा, हम पर के साथ इतने व्यस्त हैं कि स्व का स्मरण ही भूल गए हैं। अगर हम पर के साथ अव्यस्त हो जाएं, अगर पर थोड़ी देर को हमारे भीतर से अनुपस्थित हो जाए, तो स्व का उदघाटन हो जाएगा।
इस हॅाल में हम सारे लोग बैठे हुए हैं। हमने, हॅाल में जो रिक्त स्थान है, उसको भर दिया है। वह रिक्त स्थान कहीं गया नहीं है, कहीं बाहर नहीं निकल गया है। आप जब भीतर आए तो हॅाल का रिक्त स्थान बाहर नहीं निकल गया। अगर उस रिक्त स्थान को वापस उपलब्ध करना हो, तो कहीं बाहर से लाना नहीं पड़ेगा। अगर हम बाहर हो जाएं तो हॅाल वापस रिक्त हो जाएगा। अगर हम बाहर हो जाएं तो रिक्त स्थान मौजूद है। वह हमसे दब गया है, वह हमसे भर गया है, हमारे निकलते ही वापस रिक्तता को उपलब्ध हो जाएगा।
स्व का स्मरण पर के चिंतन से दब गया है, भर गया है।
अगर पर का चिंतन विसर्जित हो जाए, तो स्व उदघाटित हो जाएगा।
स्व कहीं गया नहीं, स्व निरंतर उपस्थित है..केवल पर से आच्छादित है। पर के आच्छादन को तोड़ने का मार्ग समाधि है, पर के आच्छादन को विच्छिन्न करने का मार्ग ज्ञान है। इसलिए चाहे धर्म कोई हो..जैनों का, बौद्धों का, हिंदुओं का, ईसाइयों का..धर्म के चाहे कोई भी रूप हों, लेकिन धर्म के भीतर की प्रक्रिया एक ही है: आच्छादन को विच्छेद कर देने की; वह जो हम पर छा गया है, उसे विसर्जित कर देने की; जो हम पर घिर गया है, उस बदली को तोड़ देने की, ताकि भीतर से प्रकाश वाले सूरज का उदय हो। एक ही छोटे से सूत्र में समस्त धर्मों का सार संगृहीत है। हम शून्य हो जाएं तो पूर्ण के हमें दर्शन हो जाएंगे। हम शून्य हो जाएं तो हम समाधि में पहुंच गए।
कैसे शून्य हो जाएं?एक छोटा सा विचार भी तो छोड़ा नहीं जाता, समस्त विचार की प्रक्रिया कैसे छूटेगी?स्वाभाविक है कि स्वयं से आप पूछें कि एक छोटा सा विचार-कण तो मन से निकलता नहीं, पूरे विचार की प्रक्रिया कैसे निकलेगी?
और विचार को धक्के दें तो उलटा विचार और प्रभावी हो जाता है। एक विचार को निकालना चाहें तो वह और चार यजमानों को साथ लेकर वापस लौट आता है।
विचार को निकालने का उपाय अगर कभी किए हों..अगर कभी मंदिर में, मस्जिद में, देवालय में बैठ कर प्रभु का स्मरण करने की कोशिश की हो, तो पता होगा, जो विचार सामान्य जीवन में नहीं आते हैं, उस मंदिर के घेरे के भीतर बैठ कर आने शुरू हो जाते हैं! जब-जब चित्त के साथ चेष्टा की हो कि चित्त शून्य हो जाए, शांत हो जाए, मौन हो जाए, तभी पाया होगा कि मौन करने के प्रयास में तो चित्त के भीतर छिपे हुए न मालूम कितने तरह के विचार के धुएं, न मालूम तरह-तरह के विचारों की पर्तें, न मालूम कण-कण से विचारों की लहरें आनी शुरू हो जाती हैं! जो वैसे शांत प्रतीत होता था, वह शांत होने की चेष्टा में और भी उद्विग्न, और भी उत्तेजित हो जाता है, और उद्वेलित हो जाता है। कभी भी थोड़ा सा प्रयोग करेंगे तो पाएंगे प्रत्येक प्रयोग, प्रत्येक प्रयास मन को और भी अशांत कर जाता है। इसलिए साधारणतया वे लोग, जो मंदिर में जाते हैं, जीवन में ज्यादा अशांत होंगे। वे लोग, जो चेष्टा में रत होते हैं चित्त को शांत करने की, जीवन में ज्यादा उद्विग्न होंगे।
उन ऋषियों के बाबत सुना होगा जो अभिशाप देते हैं, जो क्रोध में क्या-क्या कह देते हैं। बहुत तरह से लोग अनुभव करते हैं कि चित्त से लड़ने वाले लोग क्रोधी होते हैं। चित्त के साथ दमन करने वाले लोग अत्यंत क्रोध से भरे, अत्यंत ज्वरग्रस्त मालूम होंगे। उनकी शांति के नीचे कहीं ज्वालामुखी छिपा हुआ है। असल में मन के साथ दमन, मन के साथ संघर्ष मन को जीतने का उपाय नहीं है। मन से जो लड़ेगा, वह मन को जीतेगा नहीं। मन को जीतने का राज कुछ दूसरा है। इसलिए एक क्षुद्र विचार को भी इस संघर्ष से दूर नहीं किया जा सकता है।
तिब्बत में एक साधु हुआ है। उसके पास एक युवक गया था। तीन-चार वर्ष तक उस युवक ने उस साधु की सेवा की थी। और चाहा था कि कोई सिद्धि मिल जाए। वह साधु टालता रहा, टालता रहा। उसने कहा, मेरे पास तो कोई सिद्धि नहीं। लेकिन युवक माना नहीं, पीछे पड़ा ही रहा। साधु ने आखिर एक दिन उसे कागज पर एक मंत्र लिख कर दिया और कहा, यह ले जा! पांच बार एकांत क्षण में रात्रि को बैठ कर इसे स्मरण कर लेना और तब तू जो चाहेगा चमत्कार और सिद्धि तुझे उपलब्ध हो जाएगी। अब तू भाग जा।
वह युवक भागा। उसी के लिए तो वह तीन वर्ष से रुका था! उमंग से सीढ़ियां उतर रहा था। आखिरी सीढ़ी उतरने को था, तो उस साधु ने चिल्ला कर कहा कि सुनो मित्र, एक बात तो बताना भूल गया। शर्त अधूरी रह गई। जब पांच बार इस मंत्र को पढ़ो तो याद रखना, बंदर का स्मरण न आए। उस युवक ने कहा, पागल हुए हो! जिंदगी भर किसी बंदर का स्मरण नहीं आया, पांच बार स्मरण करने में क्यों आएगा! लेकिन वह पूरी सीढ़ियां भी उतर नहीं पाया था और बंदर ने उसे घेर लिया। वह राह पर चला और बंदर का बिंब उसके भीतर उठने लगा। वह हटाने लगा बंदर, तो एक नहीं अनेक झांकने लगे। सारा चित्त जैसे बंदरों की भीड़ से भर गया। वह घर तक पहुंचा तो बंदरों की भीड़ में उसका सारा मनस घिर गया। वह बहुत हैरान हुआ कि साधु जरूर अज्ञानी और नासमझ है। अगर बंदर का स्मरण मंत्र में बाधा देता है, तो उस अज्ञानी, उस नासमझ को कहना ही नहीं था। उसने कह कर तो मुसीबत कर दी।
उसने स्नान किया, उसने पवित्र नामों का स्मरण किया, वह एकांत गांव के बाहर जाकर बैठा, उसने सब उपाय किए, लेकिन बंदर साथ थे! बंदर से अलग होना संभव नहीं रहा। जितने भी उपाय किए..बंदर ही बंदर थे। आंख खोलता तो उनके प्रतिबिंब, आंख बंद करता तो उनके प्रतिबिंब! वह सुबह तक तो विक्षिप्त होने लगा, बंदर ही बंदर घेरे हुए थे! और कोई भी विचार नहीं रहा चित्त में, सारे विचार विलीन थे; जिन्होंने रोज परेशान किया था, वे विचार अब न थे! अब केवल एक ही विचार था, क्योंकि एक ही धारणा थी गलत करने की।
सुबह-सुबह उसने साधु को जाकर क्षमा मांगी, मंत्र वापस लौटा दिया। साधु ने पूछा, क्या दिक्कत हुई? उसने कहा, अब उसकी बात मत छेड़ो। जो दिक्कत हुई, अब उससे मैं पार नहीं पा सकता। अगर यही शर्त है कि बंदर का स्मरण न आए, तो इस जिंदगी में यह मन से तोड़ना संभव नहीं है।
जो उसके साथ हुआ, वह प्रत्येक के साथ होगा। होने के पीछे वैज्ञानिकता है। गलत नहीं हुआ, ठीक हुआ। संघर्ष का परिणाम है यह, दमन का परिणाम है यह। उन चीजों का दमन नहीं किया जा सकता, जिनकी कोई पाजिटिव सत्ता, जिनकी कोई पाजिटिव एक्झिस्टेंस, जिनकी कोई विधायक सत्ता नहीं है।
जैसे इस कक्ष में अंधेरा हो रहा हो और हम सारे लोग उस अंधेरे को धक्के देकर निकालने लगें तो वह निकलेगा? वह नहीं निकलेगा। आप कहेंगे कि इतनी ताकत लगाई, लेकिन फिर भी नहीं निकला! असल में ताकत का प्रश्न ही असंगत है। अंधेरा है नहीं, अगर होता तो धक्के देने से निकल सकता है। अंधेरा नकारात्मक है, वह किसी चीज का अभाव है। वह किसी चीज का भाव नहीं है। वह प्रकाश का अभाव है। इसलिए उसे निकाला नहीं जा सकता। प्रकाश को जला लें, वह नहीं पाया जाता।
निकलता नहीं, स्मरण रखें। प्रकाश को जलाने से अंधेरा निकल कर बाहर नहीं चला जाता। प्रकाश के आने से वह नहीं पाया जाता है। वह केवल प्रकाश का अभाव था। उसकी अपनी कोई सत्ता नहीं थी। जिन-जिन चीजों की अपनी कोई सत्ता नहीं है, उन्हें धक्के देकर अलग नहीं किया जा सकता। जिनकी अपनी सत्ता है, उन्हें भर अलग किया जा सकता है।
प्रकाश का अभाव अंधेरा है, ध्यान का अभाव विचार है। इसलिए विचार को निकालना नहीं होता, ध्यान को जगाना होता है। ध्यान में जागरण से विचार का विसर्जन होता है। जिस मात्रा में ध्यान जाग्रत होगा, उसी मात्रा में विचार शून्य की तरफ विलीन होते चले जाएंगे। जिस क्षण परिपूर्ण ध्यान उदभव में आएगा, विचार नकार हो जाते हैं, न हो जाते हैं।
विचार से संघर्ष नहीं..ध्यान के आविर्भाव के लिए प्रयास! ध्यान के आविर्भाव के लिए पुरुषार्थ!
फिर क्या अर्थ हुआ ध्यान का? ध्यान का अर्थ है: चित्त को जागरूकता से, चित्त को अवेयरनेस से, चित्त को विवेक से भरना।
महावीर ने अपने साधुओं से कहा था, जागो तो विवेक से, सोओ तो विवेक से, चलो तो विवेक से, उठो-बैठो तो विवेक से।
क्या अर्थ है विवेक का?
विवेक का अर्थ है परिपूर्ण जागरूक, पूर्ण जागरूकता से भरे हुए। समस्त शरीर की क्रियाओं के प्रति, मन की समस्त क्रियाओं के प्रति होश से भरे हुए। मन के प्रति जागरूक बनो, साक्षी बनो। मन से लड़ो मत, विचार के प्रवाह के प्रति द्रष्टा बनो। तटस्थ द्रष्टा बनो, केवल देखते रह जाओ। विचार को विसर्जित नहीं करना है, केवल विचार को देखते रह जाओ। मात्र द्रष्टा रह जाओ, कुछ करो नहीं। केवल होश से भर कर विचार के प्रवाह को देखो..अलिप्त, असंग-भाव से। जैसे राह पर लोग निकलते हैं, जैसे राह पर राहगीर निकलते हैं और मैं किनारे खड़ा चुपचाप देख रहा हूं।
मन के मार्ग पर चलते हुए विचार की परंपरा को, मन के मार्ग पर चलते हुए विचार की भीड़ को चुपचाप खड़े होकर देखते रहने का प्रयोग करना होता है। लड़ना नहीं होता, उनको छेड़ना नहीं होता, उनको रोकना नहीं होता, उनको धक्के नहीं देने होते, उस पर शुभ और अशुभ के निर्णय नहीं लेने होते, उनका कंडेमनेशन नहीं करना होता..क्योंकि जैसे ही हमने उनके साथ कुछ किया, प्रवाह तीव्र और त्वरित हो जाएगा..केवल देखना होता है, मात्र द्रष्टा का प्रयोग करना होता है। और क्रमश: जिस मात्रा में भीतर मूच्र्छा टूटेगी और विचार के प्रवाह के प्रति जागरूकता आएगी, उसी मात्रा में विचार विलीन होने लगते हैं।
सी.एम.जोड पश्चिम का एक बड़ा विचारक था। उसने लिखा है, मैं जीवन भर विचारों से भरा रहा। एक दफा एक मनोविश्लेषक के पास गया। उसने पर्दे के पीछे मुझे एक कोच पर लिटा दिया, पर्दे के दूसरी तरफ खुद खड़ा हो गया और मुझसे बोला, जो भी विचार चित्त में आ रहे हों, उन्हें देख कर जोर से बोलते चले जाओ। जोड ने लिखा है, मैंने भीतर देखा कि जो विचार आएं, उनको बोलूं। मैं भीतर देखने लगा, टटोलने लगा, लेकिन मैं बहुत हैरान हो गया, वहां कोई विचार आ ही नहीं रहा था। वहां कोई विचार आ ही नहीं रहा था! जोड ने लिखा, मैं चकित हो गया। जीवन में सोते-जागते जिनका प्रवाह नहीं टूटा था, आज मैं खोजने गया था भीतर और वे नदारद थे, वे अनुपस्थित थे! भीतर आंख पहुंची और विचार नहीं थे!
जैसे प्रकाश अंधेरे को नहीं देख पाता, वैसे ही जब भीतर आंख पहुंचेगी, भीतर देखने का प्रयास पहुंचेगा, भीतर जागरूकता पहुंचेगी तो विचार शून्य हो जाएंगे, उनकी सांसें टूट जाएंगी, उनके प्राण चले जाएंगे।
सतत उठते-बैठते, सोते-जागते विचार के प्रति जो तंद्रा है, उसको तोड़ना ध्यान है, उसके प्रति जागरूक होना ध्यान है।
बुद्ध के जीवन में एक उल्लेख है, वह मैं कहूं, उससे मेरी बात समझ में आ सकेगी।
बुद्ध के पास एक राजकुमार दीक्षित हुआ। उसका नाम श्रोण था। दीक्षा के दूसरे दिन बुद्ध ने कहा, मेरी एक श्राविका है, उसके घर जाकर भिक्षा ले आना। वह श्राविका के घर भिक्षा लेने गया। उसे उसके सारे जीवन की स्मृतियां कौंध गईं आंखों में। कल तक राजकुमार था, आज उसी मार्ग पर भिक्षा का पात्र लिए चलता था! स्वाभाविक था, पूरा जीवन उसे दोहर जाए। उसे मार्ग में यह भी स्मरण आया, कल तक घर में पत्नी थी, मां थी, जो कुछ प्रिय था भोजन वह उपलब्ध होता था। आज कोई न जानेगा..न मालूम क्या मिलेगा! उसे सारे सुस्वादु भोजन, जो कि उसे सदा प्रिय रहे, स्मरण आए।
वह श्राविका के घर जाकर भोजन करता था। देख कर हैरान, चकित हो गया कि जो भोजन उसे प्रिय थे, वे ही उसे परोसे गए थे! उसने सोचा, अजीब सा संयोग है! फिर यह मान कर कि शायद यही भोजन बने होंगे, वह चुपचाप भोजन करने लगा। भोजन करता था कि उसे स्मरण आया, रोज तो भोजन के बाद घर में दो क्षण विश्राम करता था, आज तो भोजन के बाद दो मील दोपहरी में चलना है। वह श्राविका सामने पंखा झलती थी। उसने कहा, भंते! भोजन के बाद दो क्षण विश्राम करेंगे तो अत्यंत अनुग्रह होगा। वह थोड़ा चैंका, सोचा क्या बात है! फिर याद आया, संयोग ही होगा कि मुझे भी उस वक्त विचार आया और उसे भी विचार आ गया। चटाई डाल दी गई, वह भोजन के बाद विश्राम के लिए लेटा। लेटते ही उसे याद आया कि आज अपना न तो कोई साया है, न अपनी कोई शय्या है। वह श्राविका निकट थी। उसने कहा, भंते! शय्या भी किसी की नहीं, साया भी किसी का नहीं।
अब संयोग होना कठिन था। वह उठ बैठा। उसने कहा, मैं हैरान हूं! क्या मेरे विचार पढ़ लिए जाते हैं?क्या मेरे विचार संक्रमित हो जाते हैं? श्राविका ने कहा, ध्यान का, सतत जागरूकता का प्रयोग करते-करते पहले स्वयं के विचार दिखे, फिर स्वयं के विचार विसर्जित हो गए। अब तो मैं हैरान हूं, दूसरे के विचार भी दिखते हैं! वह भिक्षु घबड़ा गया। वह बहुत परेशान है, उसके हाथ-पैर कंप गए। श्राविका ने कहा, क्या घबड़ाने की बात है?लेकिन उसके माथे पर पसीने की बूंदें आ गईं। श्राविका ने कहा, इसमें परेशान होने की क्या बात है?
लेकिन वह भिक्षु तो वापस विदा लेकर चल पड़ा। उसने बुद्ध से जाकर कहा, मैं उस द्वार पर भिक्षा लेने नहीं जाऊंगा। बुद्ध ने कहा, कोई असम्मान हो गया? उस श्रोण ने कहा, असम्मान नहीं, पूरा सम्मान हुआ, बहुत प्रीतिकर सत्कार हुआ। लेकिन अब उस द्वार पर दुबारा नहीं जाऊंगा। वह श्राविका दूसरे के विचार पढ़ लेती है। और आज उस सुंदर युवती को देख कर मेरे मन में तो वासना भी उठी। वह भी पढ़ ली गई होगी। उसने क्या सोचा होगा! कल उसी द्वार पर इस चेहरे को कैसे ले जाऊं?किस भांति मैं उसके सामने खड़ा होऊंगा?
बुद्ध ने कहा, वहीं जाना होगा। जान कर तुझे भेजा है। तेरी साधना का अंग है वहां जाना। लेकिन तू होश से जाना। घबड़ा मत। अपने भीतर देखते हुए जाना कि क्या उठता है। डरना मत। जो भी वासनाएं उठें, देखते हुए जाना। विचार उठें, देखते हुए जाना। केवल देखते हुए जाना, कुछ मत करना। फिर लौट कर मुझे कहना।
मजबूरी थी, श्रोण को वहीं जाना पड़ा। आज वह बहुत नए ढंग से गया। कल खोया हुआ गया था उसी मार्ग पर..तंद्रिल था, मूच्र्छित था, होश न था, विचार चलते थे मूच्र्छा में। और आज वह आंख गड़ाए हुए, जागरूक, साक्षी होकर देखता हुआ गया। एक-एक विचार के प्रति होश से भरा था, अलग था। वह हैरान हो गया। भीतर देखता था, तो सन्नाटा हो जाता था। भीतर से तंद्रा गहरी होती थी, तो बाहर देखता था, विचार का प्रवाह चलने लगता था। जब बाहर देखता, भीतर विचार चलने लगता। जब भीतर देखता, विचार शून्य हो जाता। वह सीढ़ियों पर चढ़ा तो उसे श्वास भी पता चलती थी! श्वास भी दिखाई पड़ रही थी..भीतर आती-जाती थी। पैर उठाया तो उसका भी होश था। खाना खाया, कौर उठाया, तो उसका भी परिपूर्ण स्मरण था! श्वास की गति का भी स्पंदन ज्ञात हो रहा था!
वह नाचता हुआ वापस लौटा था। वह बुद्ध के पैरों में गिर पड़ा। उसने कहा, मुझे तो रहस्य का सूत्र मिल गया। बुद्ध ने कहा, क्या हुआ? उसने कहा, जब मैं भीतर जाग कर देखता था तो पाता था, विचार विलीन हैं! जब मैं होश में होता था, विचार अनुपस्थित होते थे! जब मैं बेहोश होता था, विचार उपस्थित हो जाते थे!
बुद्ध ने कहा, मूच्र्छा मन है, अमूच्र्छा मन के पार ले जाती है।
महावीर ने भी कहा है, प्रमत्त होना बंधन है, अप्रमत्त होना मुक्ति है।
प्रमत्तता का अर्थ है: मूच्र्छा, बेहोशी..मन के प्रति, मन की क्रियाओं के प्रति।
अप्रमत्तता का अर्थ है: जागरूकता, अवेयरनेस, होश।
होश, जागरूकता के माध्यम से मन विसर्जित हो जाता है, चिंतन विसर्जित हो जाता है, विचार की लहरें खो जाती हैं। उनकी सुप्त स्थिति में उनसे जो आच्छादित था, वह उदघाटित हो जाता है। उसका उदघाटन मुक्ति है, उसका उदघाटन बंधन के बाहर पहुंच जाना है। उसके उदघाटन पर जीवन एक नए डायमेंशन में, एक नए आयाम में, एक नए क्षितिज में स्थापित हो जाता है। जिन्होंने उस मुक्त जीवन-क्षण को अनुभव किया है, वे अनंत आनंद के मालिक हो गए हैं। जिन्होंने उस मुक्त क्षण का अनुभव किया है, वे अनंत शांति के मालिक हो गए हैं। और उन सारे लोगों का आश्वासन है, जो भी व्यक्ति कभी भी अपने भीतर झांकेगा, वह प्रभु के इस अदभुत राज्य का मालिक हो सकता है।
यह आश्वासन प्रत्येक को है। कोई भी अपात्र नहीं है। जीवन के और संबंधों में एक की क्षमता कम होगी, दूसरे की ज्यादा होगी। आत्मिक जीवन में सबकी क्षमता समान है। कोई भी अपात्र नहीं हो सकता। आत्मिक जीवन में प्रत्येक की क्षमता समान है, केवल जागरण को पुकारने की, केवल अपने भीतर होश को जगाने की, केवल अपने भीतर प्यास को पैदा करने की बात है। जो ठीक से अपने भीतर थोड़े से जागरूकता के प्रयोग करेगा, वह ठीक संसार के बीच मुक्ति को अनुभव करेगा।
अंततः यह जो मैं कहा, यह किन्हीं विशिष्ट लोगों के लिए नहीं कहा है। यह हममें से प्रत्येक के लिए कहा है। जो हड्डी और मांस महावीर की देह को बनाते थे, वे ही हड्डी और मांस हमारी देह को बनाते हैं। जो चेतना उनकी उस देह के भीतर स्थापित थी, वही चेतना हमारी देह के भीतर भी स्थापित है। एक कण का भी अंतर नहीं है। एक कण का भी अंतर नहीं हो सकता है।
फिर हमें अपमानित होना चाहिए। हम मंदिरों में पूजा करते हैं। हमें असल में महावीर, बुद्ध और ईसा को देख कर अपमानित होना चाहिए। हमें आत्म-निंदित होना चाहिए। उनकी श्रद्धा और आदर में कहीं हम अपने अपमान को तो नहीं छिपा लेते हैं? उन्हें देख कर हमारे भीतर कहीं अपमान नहीं होता! हमें ऐसा भी तो नहीं होता कि इस शरीर, इस चैतन्य को वे किस परम प्रभु तक पहुंचा दिए हैं! और हम? हम कहां उसे पशु के घेरे में घुमा रहे हैं! क्या हमारे भीतर अपमान नहीं सरकता?
अगर मंदिर और उनमें विराजमान मूर्तियां हमें अपमानित नहीं करती हैं, तो मंदिर व्यर्थ हैं, वे मूर्तियां व्यर्थ हैं। हम श्रद्धा की गुहार में, और पूजा और अर्चना में, और उनके नाम के स्मरण में अपने आत्म-अपमान को भुला देते हैं!
उस अपमान का मैं स्मरण दिलाना चाहता हूं। और हमारे भीतर कोई प्यास सरक जाए और अपमान पकड़ ले, और कोई पुरुषार्थ, कोई संकल्प पैदा हो जाए..कि जो किन्हीं लोगों ने कभी उपलब्ध किया है, उसे हम भी, मैं भी उपलब्ध करूंगा, मुझे भी उपलब्ध करना है, मैं भी बिना उपलब्ध किए अपने इस जीवन को व्यर्थ खोने को नहीं हूं। अगर यह संकल्प पकड़ जाए तो जीवन में अदभुत..निश्चित ही अदभुत क्रांति घटित हो सकती है।
प्रभु करे, वह क्रांति प्रत्येक के जीवन में घटित हो जाए, यही मेरी कामना है। और अंत में सबके भीतर बैठे हुए परम प्रकाशमान प्रभु को मैं प्रणाम करता हूं। 

मेरे प्रणाम स्वीकार करें। 




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