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सोमवार, 19 मार्च 2018

हरि बोलौ हरि बोल (संत सुुंदर दास)--प्रवचन-01

नीर बिनु मीन दुखी-प्रहला प्रवचन

दिनांक १ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
नीर बिनु मीन दुखी, छीर बिनु शिशु जैसे,
पीर जाके औषधि बिनु कैसे रहयो जात है।
चातक ज्यों स्वाति बूंद, चंद कौ चकोर जैसे,
चंदन की चाह करि सर्प अकुलात है।
निर्धन ज्यौं धन चाहे कामिनी को कंत चाहै,
ऐसी जाको चाह ताको कछु न सुहात है।
प्रेम कौ प्रभाव ऐसो, प्रेम तहां नेम कैसो,
सुंदर कहत यह प्रेम ही की बात है।
प्रेम भक्ति यह मैं कही, जानै बिरला कोइ।
हृदय कलुषता क्यों रहै, जा घट ऐसी होइ।।
सत्य सु दोइ प्रकार, एक सत्य जो बोलिये।
मिथ्या सब संसार, दूसर सत्य सुब्रह्म है।।
सुंदर देखा सोधिकै, सब काहू का ज्ञान।
कोई मन मानै नहीं, बिना निरंजन ध्यान।।
षट दरसन हम खोजिया, योगी जंगम शेख।
संन्यासी अरु सेवड़ा, पंडित भक्ता भेख।।
तो भक्त न भावैं, दूरि बतावैं, तीरथ जावैं, फिरि आवैं।
ली कृत्रिम गावैं, पूजा लावैं, झूठ दिढ़ावैं, बहिकावैं।।
अरुमाला नांवैं, तिलक बनावैं, क्यों पावैं गुरु बिन गैला।
दादू का चेला, भरम पछेला, सुंदर न्यारा ह्वै खेला।।

हरि बोलौ हरि बोल!...बोलने-योग्य कुछ और है भी नहीं, न सुनने-योग्य कुछ और है। बोलो तो हरि बोलो, चुप रहो तो अरि में ही चुप रहो। भीतर जाती श्वास हरि में डूबी हो, बाहर जाती श्वास हरि में डूबी हो। उठो तो हरि में, सोओ, तो हरि में। जब हरि तुम्हें सब तरफ से घेर ले, जब हरि तुम्हारी परिक्रमा करे, जब तुम हरि के आवास हो जाओ...जागने में वही तुम्हारी दृष्टि में हो, स्वप्न में वही तुम्हारा स्वप्न भी बने, तुम्हारा रोआं-रोआं उसी में ओत-प्रोत हो जाये, तुम्हारे पास जगह भी न बचे जो उसके अतिरिक्त किसी और को समा ले--जब हरि ऐसा व्याप्त हो जाता है तभी मिलता है।
 थोड़ी भी जगह रही हरि से गैर-भरी तो तुम संसार बना लोगे। और एक छोटी-सी बूंद संसार की सागर बन जाती है। एक छोटा-सा बीज, वैज्ञानिक कहते हैं, पूरी पृथ्वी को हरियाली से भर सकता है। एक छोटा-सा बीज, जहां तुम्हारे भीतर हरि नहीं, है पर्याप्त है तुम्हें भटकाने को--जन्मों-जन्मों तक भटकाने को।
हरि के अतिरिक्त कुछ और न बचे, ऐसी इस नयी यात्रा पर सुंदरदास के साथ हम चलेंगे। संतों में...कवितायें तो बहुत संतों ने की हैं, लेकिन काव्य के हिसाब से सुंदरदास के ही केवल कवि कहा जा सकता है। बाकी के पास कुछ गाने को था, तो गाया है। लेकिन सुंदर के पास कुछ गाने को भी है और गाने की कला भी है। सुंदरदास अकेले, सारे निर्गुण संतों में, महाकवि के पद पर प्रतिष्ठित हो सकते हैं। जो कहा है वह तो अपूर्व है ही; जैसे कहा है, वह भी अपूर्व है। संदेश तो प्यारा है ही, संदेश के शब्द-शब्द भी बड़े बहुमूल्य हैं।
तुम एक महत्वपूर्ण अभियान पर निकल रहे हो। इसके पहले कि हम सुंदरदास के सूत्रों में उतरना शुरू करें...और सीढ़ी-सीढ़ी तुम्हें बड़ी गहराइयों में वे सूत्र ले जायेंगे। ठीक जल-स्रोत तक पहुंचा देंगे। पीना हो तो पी लेना। क्योंकि संत केवल प्यास जगा सकते हैं। कहावत है न, घोड़े को नदी ले जा सकते हो, घोड़े को पानी दिखा सकते हो, लेकिन पानी पिला नहीं सकते।
सुंदरदास का हाथ पकड़ो। वे तुम्हें ले चलेंगे उस सरोवर के पास, जिसकी एक घूंट भी सदा को तृप्त कर जाती है। लेकिन बस सरोवर के पास ले चलेंगे। सरोवर सामने कर देंगे। अंजुली तो तुम्हारी ही बनानी पड़ेगी अपनी। झुकना तो तुम्हें ही पड़ेगा। पीना तो तुम्हें ही पड़ेगा। लेकिन अगर सुंदर को समझा तो मार्ग में वे प्यास को भी जगाते चलेंगे भीतर सोये हुए चकोर को पुकारेंगे, जो चांद को देखने लगे। तुम्हारे भीतर सोये हुए चातक को जगायेंगे, जा स्वाति की बूंद के लिए तड़फने लगे। तुम्हें समझायेंगे कि तुम मछली की भांति हो, जिसका सागर खो गया है और जो किनारे पर तड़फ रही है।
सागर का तुम्हें पता हो या न हो, एक बात का तो तुम्हें पता है जिससे तुम्हें राजी होना पड़ेगा कि तुम तड़फ रहे हो कि तुम परेशान हो, कि तुम पीड़ित हो, कि तुम बेचैन हो, कि तुम्हारे जीवन में कोई राहत की घड़ी नहीं है, कि तुमने जीवन में कोई सुख की किरण नहीं जानी। आशा की है। सुख मिला कब? सोचा है मिलेगा, मिलेगा, अब मिला तब मिला; पर सदा धोखा होता रहा है। खोजा बहुत है। नहीं कि तुमने कम खोजा है--जन्मों-जन्मों से खोजा है। मगर तुम्हारे हाथ खाली हैं। तुम्हारी खोज गलत दिशाओं में चलती रही है। तुम्हारी खोज तुम्हें सरोवर के पास नहीं लायी--और-और दूर ले गयी है। और धीरे-धीरे तुम्हारे अनुभव के तुम्हारे भीतर यह बात गहरा दी है कि शायद यहां मिलने का कुछ भी नहीं है। और अगर कोई ऐसा हताश हो जाये कि यहां मिलने को कुछ भी नहीं है, तो फिर मिलने को कुछ भी नहीं है। क्योंकि पैर थक जायेंगे। तुम टूट कर गिर जाओगे।
सुंदर तुम्हें याद दिलायेंगे: यहां मिलने को बहुत कुछ है। सिर्फ खोजने की कला चाहिये। ठीक दिखा, ठीक आयाम। यहां पाने को बहुत कुछ है। स्वयं परमात्मा यहां छिपा है। लेकिन तुम गलत खोजते रहे हो। तुम कंकड़-पत्थर बीन रहे हो, जहां हीरे की खदानें हैं। तुम्हारी प्यास जगायेंगे, तुम्हारे चातक को जगायेंगे, तुम्हारे चकोर को जगायेंगे। तुम्हारे भीतर एक प्रज्वलित अग्नि पैदा करेंगे। ऐसी घड़ी तुम्हारे भीतर प्यास की आ जायेगी जरूर, जब न-मालूम किस गहराई से हरि बोलौ हरि बोल, ऐसे बोल तुम्हारे भीतर उठेंगे। तभी तुम इन सूत्रों का समझ पाओगे।
ये सूत्र ऊपर-ऊपर नहीं हैं, ये प्राणों के अंतरतम का निवेदन हैं।
इसके पहले कि हम सूत्रों में चलें, सुंदरदास के संबंध में दो-चार बातें समझ लेनी जरूरी हैं; वे सहयोगी होंगी।
संयोग की ही बात कहो, सुंदरदास के पिता का नाम था परमानंद, और मां का नाम था सती। परमानंद और सती--ऐसे दो जीवन-धाराओं के मिलन से यह अपूर्व व्यक्ति पैदा हुआ। तुम्हारे भीतर भी यह जन्म होगा, मगर ये दो धारायें तुम्हारे भीतर मिलनी चाहिए--आनंद और सत्य। आनंद को तलाशो तो सत्य मिल जाता है, सत्य को तलाशो तो आनंद मिल जाता है। वे एक-दूसरे के साथ जुड़े हैं--एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
यह संयोग की ही बात है कि पिता का नाम परमानंद था, मां का नाम सती था। लेकिन सभी संत सत्य और आनंद के मिलन से पैदा होते हैं। पुराने लोग नाम भी बड़े सोचकर रखते थे। अक्सर तो यह होता था कि सारे नाम ही परमात्मा के नाम होते थे। हिंदुओं के पुराने नाम सोचो, तो वे सब वे ही नाम हैं जो विष्णुसहस्रनाम में उपलब्ध हैं। परमात्मा के हजार नाम, उन्हीं को हम रख लेते थे आदमियों के नाम। कोई राम, कोई कृष्ण है, कोई विष्णु है। मुसलमानों के नाम सोचो, तो मुसलमानों में सौ नाम हैं। परमात्मा के। अगर उनके नाम तुम खोजने चलोगे तो तुम पाओगे सभी नाम परमात्मा के नाम से बने हैं। फिर चाहे रहीम हो और चाहे रहमान हो, चाहे अब्दुल्लाह हो--ये सब परमात्मा के ही नाम हैं। अब्दुल्लाह यानी अब्द अल्लाह।
पुराने लोग आदमी को नाम परमात्मा का देते थे। क्यों? क्योंकि बार-बार पुकारे जाने से चोट पड़ती हैं। अगर तुम्हारा नाम राम है, तो रावण होना जरा कठिन हो जायेगा। और कौन जाने, किस शुभ घड़ी में तुम्हारा नाम ही तुम्हारे भीतर तीर की तरह चुभ जाये। शुरू तो नाम से हुआ था। किस दिन यह नाम सत्य बन जाये, कोई भी नहीं कह सकता। यह नाम सत्य बन सकता है।
इसलिए मैं भी तुम्हें संन्यास देता हूं तो तुम्हें नये नाम देता हूं। नाम ऐसे, जो परम से जुड़े हैं। तुम बहुत दूर हो अभी वहां से। लेकिन तुम्हें याद तो दिलानी जरूरी है कि तुम दूर कितने ही होओ, मंजिल तुम्हारी वहां है, जाना वहां है, पहुंचन वहां है। वहां नहीं पहुंचे तो जिंदगी व्यर्थ गयी, कचरे में गयी।
याद रखना, नाम एक याददाश्त है। लेकिन यह संयोग की बात कि सुंदरदास का जन्म हुआ--मां थी सती, पिता थे परमानंद। तुम्हारे भीतर भी इन दो का मिलन हो सकता है, तुम्हारा भी संतत्व जन्म हो सकता है।
सुंदरदास का संन्यास बहुत अनूठा है, भरोसे-योग्य नहीं। तुम चौंकोगे जानोगे तो। सात वर्ष के थे, तब वे संन्यस्त हुए। सात वर्ष! लोग सत्तर वर्ष में भी संन्यासी नहीं होते। अपूर्व प्रतिभा रही होगी।
प्रतिभा का लक्षण क्या है? प्रतिभा का लक्षण है एक ही, कि दूसरे जिस बात को अनुभव से नहीं समझ पाते, उसको प्रतिभाशाली दूसरों के अनुभव से समझ लेता है। बुद्धू अपने अनुभव से नहीं समझ पाते, बुद्धिमान दूसरों के अनुभव से समझ लेता है।
ययाति की कथा है उपनिषदों में। ययाति की मौत आयी। वह सौ वर्ष का हो गया था। लेकिन रोने लगा, गिड़गिड़ाने लगा। मौत के चरण पकड़ लिए। कहा, मुझे क्षमा कर! मैं तो भूल ही गया कि मरना है। तो मैं तो कुछ कर ही नहीं पाया। राम-नाम भी नहीं ले पाया। यह सोच कर कि सौ वर्ष तो जीना है, जल्दी क्या है, ले लेंगे, टालता रहा। और हजार कामों में उलझ गया। बाजार में ही पड़ा रहा। यह ज्यादती हो जायेगी, मुझे क्षमा कर! भूल मेरी है। मुझे क्षमा कर। सौ वर्ष मुझे और चाहिये।
मौत ने कहा, किसी का तो ले जाना पड़ेगा। तुम्हारा कोई बेटा जाने को राजी हो तो चला जाये, तो तुम्हें मैं छोड़ दूं।
मौत को भरोसा था कि जब सौ साल का बूढ़ा जाने के राजी नहीं है तो उसके बेटे जाने को क्यों राजी होंगे। ययाति के सौ बेटे थे। अनेक रानियां थी उसकी। सम्राट था। उसने अपने बेटों की तरफ देखा, कोई सत्तर साल का था, कोई पचहत्तर साल का था। उन्होंने सब नीचे सिर झुका लिए। एक बेटे ने जिसकी उम्र अभी ज्यादा नहीं थी, अठारह ही साल थी, सबसे छोटा बेटा था, वह खड़ा हो गया, उसने कहा कि मैं चलता हूं। मौत को भी दया आ गयी। मौत को ऐसे दया आती नहीं। दया आने लगे तो मौत का काम न चले। मौत की तो बात छोड़ो, मौत के साथ जो लोग काम करते हैं उन तक की दया खो जाती है--डाक्टर इत्यादि। डाक्टर को दया आने लगे तो खुद ही की फांसी लग जाये। चौबीस घंटे मौत का धंधा करते-करते बीमारी से लड़ते-लड़ते कठोर हो जाता है। हो ही जाना पड़ता है। अगर हर बीमारी में बैठकर रोने लगे डाक्टर भी, और जब भी कोई मरीज आये उसको मुश्किल खड़ी हो जाये, भावावेश से भर जाये, तो जीना मुश्किल हो जाये; मरीज तो दूर, वह खुद ही मरीज हो जाये।
तो मौत तो जन्मों-जन्मों से लोगों को ले जाती रही है। ले जाना उसका काम है। मगर कहते हैं उसे भी दया आ गयी। दया आ गयी इस भोले-भाले लड़के पर। अभी इसने जिंदगी देखी नहीं। अभी इसको कुछ पता ही नहीं है। उसने उस लड़के के कान में कहा, पागल! तेरा बाप सौ साल का होकर नहीं मरना चाहता, और तू अभी अठारह का है, कुछ तो सोच! तेरे भाई, कोई सत्तर, कोई पचहत्तर, वे भी नहीं मरना चाहते, तू कुछ तो सोच, तूने अभी जिंदगी देखी नहीं कुछ...!
उस लड़के ने, पता है, मौत को क्या कहा? उस लड़के ने कहा, जब मेरे पीता सौ साल के होकर भी जीवन से तृप्त नहीं हुए, मेरे भाई पचहत्तर साल के होकर जीवन से तृप्त नहीं हुए, सत्तर साल के होकर जीवन से तृप्त नहीं हुए, तो मैं जीकर क्या करूंगा? इनका अनुभव काफी है। अतृप्त ही जाना है, सौ साल के बाद जाना है, तो इतने दिन और क्यों परेशान होना? मैं अभी चलने को राजी हूं।
इसे कहते हैं प्रतिभा! दूसरे के अनुभव से सीख लिया। और तुम्हें पता है, ययाति सौ साल जीया। यह बेटा चला गया। सौ साल जब जीना था तो फिर निश्चिंत हो गया कि अब जल्दी क्या है। फिर मौत आयी और फिर वही घटना घटी। फिर गिड़गिड़ाने लगा कि मुझ क्षमा करो। मैं तो यह सोच कर कि सौ साल जीना है, फिर भूल गया। एक बार मौका और दे दो।
और ऐसा कहते हैं ययाति का दस बार मौके दिये गये। वह हजार साल जीया, लेकिन हजारवें साल भी वह मौत के पैर में गिड़गिड़ा रहा था। मौत ने कहा, अब बहुत हो गया। एक सीमा होती है।
और तुम ययाति की कहानी को कहानी ही मत समझना। यह तुम्हारी कहानी है। तुम कितने बार जी चुके हो, कितनी बार तुमने जिंदगी मांग ली है--फिर, फिर, फिर! हर बार मरे हो, फिर जिंदगी मांगकर आ गये हो। यही तो आदमी की कहानी है। आदमी मर रहा है, खाट पर पड़ा है और जिंदगी को मांग रहा है, पकड़ रहा है पैर मौत के, कि एक बार और लौट आएगा, जल्दी किसी गर्भ में समायेगा, जल्दी फिर वापिस आ जाएगा।...ऐसे तुम कितनी ही बार आ गये हो और जैसे ययाति भूल-भूल गया था, तुम भी भूल-भूल गये हो।
बुद्धिमान दूसरे के अनुभव से सीख लेता है। उस बेटे ने ठीक कहा कि जब ये सब मेरे भाई, निन्यानबे मेरे भाई, मेरा पिता, ये इतने दिन जीकर कुछ नहीं पा सके और गिड़गिड़ा रहे हैं पिता, सौ साल के बाद क्या गिड़गिड़ाना, अभी शान से चलने को साथ तैयार हूं। बात व्यर्थ हो गयी मेरे लिए। यहां कुछ मिलने का नहीं है। यहां सिर्फ भटकना है दौड़ना है और गिरना है। गिरने के पहले जाने की तैयारी है मेरी। मैं चलता हूं। मेरे लिए संसार व्यर्थ हो गया।
ऐसी ही घटना कुछ घटी सुंदर के जीवन में। सात साल के थे। दादू का गांव में आगमन हुआ। जैसे दादू ने रज्जब को चेताया, ऐसे ही सुंदरदास को भी चेताया। दादू ने बहुत लोग चेताये। दादू महागुरुओं में एक हैं। जितने व्यक्ति दादू से जागे उतने भारतीय संतों में किसी से नहीं जागे।
दादू का गांव में आना हुआ। राजस्थान का छोटा-सा गांव, धौसा। कहा है सुंदरदास ने--
दादू जी जब धौसा आये। बालपन हम दरसन पाये।
तिनके चरननि नायौ माथा, उन दीयो मेरे सिर हाथा।
सात वर्ष के थे।
ख्याल करो, मनुष्य के जीवन में प्रत्येक सात वर्ष के बाद क्रांति का क्षण होता है। जैसे चौबीस घंटे में दिन का एक वर्तुल पूरा होता है, ऐसे सात वर्ष में चित्त की सारी वृत्तियों का वर्तुल पूरा होता है। हर सात वर्ष में वह घड़ी होती है कि अगर चाहो तो निकल भागो। हर सात वर्ष में एक बार द्वार खुलता है। सात साल का जब बच्चा होता है तब द्वार खुलता है। और अगर चूक गये तो फिर सात साल के लिए गहरी नींद हो जाती है। हर सात साल में तुम परमात्मा के बहुत करीब होते हो। जरा-सा हाथ बढ़ाओ कि पा लो। इसी सात साल को हिसाब में रखकर हिंदुओं ने तय किया था कि पचास साल की उम्र में व्यक्ति को वानप्रस्थ हो जाना चाहिए। उनचास साल में सातवां चक्र पूरा होता है। तो पचासवें साल का मतलब है, उनचास साल के बाद, जल्दी कर लेनी चाहिए। आदमी अब सत्तर साल जीता है। वह सौ साल के हिसाब से बांटा गया था। अब आदमी सत्तर साल जीता है।
तो तुम्हारे जीवन में थोड़े मौके नहीं आते, बहुत मौके आते हैं, लेकिन हर मौका अपने साथ बड़े आकर्षण भी लेकर आता है; दरवाजा भी खुलता है और संसार भी अपनी पूरी मनमोहकता में प्रगट होता है। सात साल का बच्चा अगर जरा जाग जाये, या सदगुरु का साथ मिल जाये, तो क्रांति घट सकती है, क्योंकि यह घड़ी है जब अहंकार पैदा होता है। और यही घड़ी है कि अगर इसी घड़ी में कोई अपने को सम्हाल ले तो सदा के लिए निरहंकारी हो जाता है। अहंकार के पैदा होने का मौका ही नहीं आता।
तुमने देखा, सात साल के बाद बच्चे हर बात में नहीं कहने लगते हैं। तुम कहो, ऐसा नहीं करो; वे कहेंगे, करेंगे! कहें न, तो भी करके दिखायेंगे, करेंगे। तुम कहो सिगरेट मत पीना, वे पीयेंगे। तुम कहो सिनेमा मत जाना; वे जायेंगे। तुम कहो ऐसा नहीं, वे वैसा ही करेंगे।
सात साल के बाद बच्चे के भीतर अहंकार पैदा होता है कि मैं कुछ हूं, मुझे अपनी घोषणा करनी है जगत के सामने। बच्चा आक्रमक होने लगता है। यही घड़ी है जब अहंकार जन्म लेता है। और जब अहंकार जन्म लेता है ,उसी का दूसरा पहलू है: अगर संयोग मिल जाये, सौभाग्य हो, प्रतिभा हो, तो आदमी निरअहंकार में सरक जा सकता है।
यह ख्याल रखना। दोनों चीजें एक साथ होती हैं--यो तो अहंकार में सरकना होगा और या निर-अहंकार में। या तो दरवाजे से बाहर निकल जाओ या दरवाजा बंद कर दो, दरवाजे के विपरीत चल पड़ो। ऐसा ही फिर चौदह साल में होता है कामवासना का जन्म होता है। या तो कामवासना में उतर जाओ और या ब्रह्मचर्य में। वह संभावना भी करीब है, उतने ही करीब है।
ऐसा ही फिर इक्कीस साल में होता है। या तो प्रतिस्पर्धा में उतर जाओ जगत की-र्-ईष्या संघर्ष, प्रतियोगिता, द्वेष--और या अप्रतियोगी हो जाओ।
ऐसा ही फिर अट्ठाइस साल कि उम्र में होता है। तो संग्रह में पड़ जाओ, परिग्रह पड़ जाओ--इकट्ठा कर लूं, इकट्ठा कर लूं, इकट्ठा कर लूं--या अपरिग्रही हो जाओ, देख लो कि इकट्ठा करने से क्या इकट्ठा होगा? मैं भीतर तो दरिद्र हूं और दरिद्र रहूंगा। ऐसा ही फिर पैंतीस साल की उम्र में होता है। पैंतीस साल की उम्र में तुम अपनी मध्यावस्था में आ जाते हो। दुपहरी आती है जीवन की। या तो तुम समझो कि अब ढलान के दिन आ गये, अब रूपांतरण करूं। अब वक्त आ गया, उतार की घड़ी आ गयी, अब जिंदगी रोज-रोज उतरेगी, अब सूरज ढलेगा और सांझ करीब आने लगी।
पैंतीस साल की उम्र में सुबह भी उतनी दूर है, सांझ भी उतनी दूर है। तुम ठीक मध्य में खड़े हो। लेकिन अधिक लोग बजाय समझने के कि मौत करीब आ रही है, अब हम मौत की तैयारी करें; मौत करीब आ रही है, यह सोच कर हम कैसे मौत से बचें, इसी चेष्टा में लग जाते हैं। इसलिए दुनिया की सर्वाधिक बीमारियां पैंतीस साल और बयालीस साल के बीच में पैदा होती हैं। तुम लड़ने लगते हो मौत से। मौत से लड़ोगे, जीतोगे कहां? जितने हार्ट-अटैक होते हैं, जितने मानसिक तनाव होते हैं, वे पैंतीस और बयालीस के बीच में होते हैं। यह बड़े संघर्ष का समय है।
अगर पैंतीस साल की उम्र में एक व्यक्ति समझ ले कि मौत तो आनी ही है; लड़ना कहां है, स्वीकार कर ले; न केवल स्वीकार कर ले बल्कि मौत की तैयारी करने लगे, मौत का आयोजन करने लगे...। और ध्यान रखना, जैसे जीवन का शिक्षण है, ऐसे ही मौत का भी शिक्षण है। अच्छी दुनिया होगी कभी--और कभी वैसी दुनिया थी भी--तो जैसे जीवन को सिखानेवाले विद्यापीठ हैं, वैसे ही मृत्यु के सिखाने वाले विद्यापीठ भी थे। अभी दुनिया की शिक्षा अधूरी है। यह तुम्हें, जीना कैसे, यह तो सिखा देती है; लेकिन यह नहीं सिखाती कि मरना कैसे।
और मरना है अंत में।
तो तुम्हारा ज्ञान अधूरा है। तुम्हारी नाव ऐसी है कि तुम्हारे हाथ में एक पतवार दे दी है और दूसरी पतवार नहीं है। तुमने कभी देखा, एक पतवार से नाव चलाकर देखी? अगर तुम एक पतवार से नाव चलाओग तो नाव गोल-गोल घूमेगी, कहीं जायेगी नहीं। उस पार तो जा ही नहीं सकती, बस गोल-गोल चक्कर मारेगी। दो पतवार चाहिये। दोनों के सहारे उस पार जाया जा सकता है। लोगों को जीवन की शिक्षा तुम दे देते हो। बस नाव उनकी गोल-गोल घूमने लगती है। वह जीवन के चक्कर में पड़ जाते हैं।
संसार का अर्थ होता है: चक्कर में पड़ जाना।
पैंतीस साल की उम्र में मौका है; फिर द्वार खुलता है एक घड़ी को। मौत की झलकें आनी शुरू हो जाती हैं। जिंदगी पर हाथ खिसकने शुरू हो जाते हैं। भय के कारण लोग जोर से पकड़ने लगते हैं जिंदगी को। और जोर से पकड़ोगे तो बुरी तरह हारोगे, टूटोगे। अपनी मौज से छोड़ तो कोई तुम्हें तोड़नेवाला नहीं है। समझकर छोड़ दो।
और बयालीस साल की उम्र में कामवासना क्षीण होने लगती है। जैसे चौदह साल की उम्र में कामवासना पैदा होती है वैसे बयालीस साल की उम्र में कामवासना क्षीण होती है। यह प्राकृतिक क्रम है। लेकिन आदमी परेशान हो जाता है, बयालीस साल में जब वह पाता है कामवासना क्षीण होने लगी--और वही तो उसकी जिंदगी रही अब तक--तो चला चिकित्सकों के पास। चला डाक्टरों के पास, हकीमों के पास।
तुमने दीवालों पर जो पोस्टर लगे देखे हैं--"शक्ति बढ़ाने के उपाय'; "गुप्त रोगों को दूर करने के उपाय'--अगर तुम उन डाक्टरों के पास जाकर देखो तो तुम हैरान होओगे। उनके पास बैठकखाने में जो तुम्हें बैठे मिलेंगे। क्योंकि कामवासना क्षीण हो रही है, शरीर से ऊर्जा जा रही है, अब वे चाहते हैं कि कोई चमत्कार हो जाये, कोई जड़ी-बूटी मिल जाये, कोई औषधि मिल जाये। नहीं कोई औषधि है कहीं, लेकिन इनका शोषण करने के लिए लोग बैठे हुए हैं--वैद्य, चिकित्सक, हकीम...हकीम वीरूमल! इस तरह के लोग बैठे हुए हैं। और यह धंधा ऐसा है कि इसमें पकड़ाया नहीं जा सकता, क्योंकि जो आदमी आता है वह पहले तो छिपे-छिपे आता है। वह किसी के बताना भी नहीं चाहता कि मैं जा किसलिए रहा हूं। वह जब उसको कोई सफलता नहीं मिलती, तो दूसरे वीरूमल का द्वार खटखटायेगा। मगर की भी नहीं सकता किसी के कि यह दवा काम नहीं आयी। दवायें कभी काम आयी हैं? पागलपन है।
और किसी भी तरह की मूढ़ता की बातें चलती हैं--मंत्र चलते, तंत्र चलते, ताबीज चलते, तांत्रिकों की सेवा चलती कि शायद कोई चमत्कार कर देगा।
और जो जीवन-ऊर्जा जा रही है मेरे हाथ से, वह मैं वापिस पा लूंगा, फिर मैं जवान हो जाऊंगा।
बयालीस साल की उम्र घड़ी है कि आ गया क्षण, जब तुम कामवासना को जाने दो। अब राम की वासना के जगने का क्षण आ गया। काम जाये तो राम का आगमन हो। फिर द्वार खुलता है, मगर तुम चूक जाते हो।
ऐसे ही हर सात वर्ष पर द्वार खुलता चला जाता है। जो पहले ही सात वर्ष पर जाग गया है वह अपूर्व प्रतिभा का धनी रहा होगा। हो सकता है, दादू इस छोटे से बच्चे की तलाश में ही धौसा आये हों। क्योंकि सदगुरु ऐसे ही नहीं आते।
कहानी है बुद्ध के जीवन में कि वे एक गांव गये। उनके शिष्यों ने कहा भी कि उस गांव में कोई अर्थ नहीं है जाने से। छोटे-मोटे लोग हैं, किसान हैं। कोई समझेगा भी नहीं आपकी बात। वैशाली करीब है, आप राजधानी चाहिये। इस छोटे गांव में ठहरने की जगह भी नहीं है। मगर बुद्ध ने तो जिद्द ही बांध रखी है कि उसी गांव जाना है। उस गांव के बिना जाये वैशाली नहीं जायेंगे। नाहक का चक्कर है। उस गांव में जाने का मतलब दस-बीस मील और पैदल चलना पड़ेगा। नहीं माने, तो गये। जब गांव के करीब पहुंच रहे थे तब एक छोटी-सी लड़की ने, उसकी उम्र कोई पंद्रह साल से ज्यादा नहीं रही होगी, वह खेत की तरफ जा रही थी अपने पिता के लिए भोजन लेकर, वह रास्ते में मिली, उसने बुद्ध के चरणों में सिर झुकाया और कहा कि प्रवचन शुरू मत कर देना जब तक मैं न आ जाऊं। और किसी ने तो ध्यान ही नहीं दिया इस बात पर। गांव में पहुंच गये लोग इकट्ठे हो गये। छोटा गांव है, लेकिन बुद्ध आये, यह सौभाग्य है। सोचा भी नहीं था कि इस गांव में बुद्ध का आगमन होगा। सारा गांव इकट्ठा हो गया। सब बैठे हैं कि अब बुद्ध कुछ बोलें। और बुद्ध बैठे हैं कि वे देख रहे हैं।
आखिर किसी ने खड़े होकर कहा कि महाराज, आप कुछ बोलें। उन्होंने कहा कि मैं किसी की प्रतीक्षा कर रहा हूं। उस आदमी ने चारों तरफ देखा; उसने कहा, गांव के हर आदमी को मैं पहचानता हूं। थोड़े ही आदमी हैं, सौ-पचास। सब यहां मौजूद हैं, आप किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं?
बुद्ध ने कहा, तुम ठहरो। वह लड़की भागी हुई आयी। और जैसे ही वह लड़की आकर बैठी, बुद्ध बोले। बुद्ध ने कहा, मैं इस लड़की की प्रतीक्षा करता था। सच तो यह है, मैं इसी के लिए आया हूं।
दादू धौसा गये, बहुत संभावना यही है कि सुंदरदास के लिए गये। यही एक हीरा था वहां, जिसकी चमक दादू तक पहुंच रही होगी; जो पत्थर के बीच रोशन दीये की तरह मालूम पड़ रहा होगा। उसकी तलाश में गये थे।
सुंदरदास ने कहा है--
सुंदर सतगुरु आपनैं, किया अनुग्रह आइ।
मोह-निसा में सोवते हमको लिया जगाइ।
सात वर्ष के बच्चे को संन्यास दिया। ऐसे कुछ छोटे बच्चे यहां भी हैं। मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि आप इतने-से बच्चे को क्यों संन्यास दे रहे हैं? तुमने दादू से भी पूछा होता कि सुंदर को क्यों संन्यास दे रहे हो? सात साल का बच्चा है, अभी इसने देखा क्या, जाना क्या? लेकिन सच यह है कि यहां कौन है जो बच्चा है? जन्मों-जन्मों की लंबी यात्रा हरेक के पीछे है। सब जाना जा चुका, बहुत बार जाना जा चुका, बार-बार जाना जा चुका। यहां छोटा बच्चा कौन है? यह जगत कुछ नया तो नहीं है; बहुत पुराना है, बहुत पुराना है। बड़ा पुरातन है। और तुम यहां सदा से हो। यह देह तुम्हारी पहली देह तो नहीं। न मालूम कितनी देहों में तुम बसे हो! हो सकता है इस देह में नये मालूम हो रहे हो; देह नयी होगी, मगर तुम नये नहीं हो।
दादू ने देख ली होगी झलक। उठा लिया इस बच्चे को हीरे की तरह। और हीरे की तरह ही सुंदर हो सम्हाला। इसलिए "सुंदर' नाम दिया उसे। सुंदर ही रहा होगा बच्चा।
यही सौंदर्य है एकमात्र कि आदमी परमात्मा की प्यास में तड़पे। और तड़प ऐसी हो कि सारे जीवन को दांव पर लगा दे। सत्तर साल का आदमी भी दांव लगाने के लिए तैयार नहीं; पास बचा भी नहीं कुछ दांव लगाने को। हड्डी-मांस-मज्जा रह गयी है, सूख गयी है; मगर दांव लगाने को राजी नहीं है। कुछ बचा भी नहीं है दांव लगाने को। कुछ गंवाने का भी नहीं है अब, सब गंवा ही चुका है। चली-चलाई कारतूस है। मगर फिर भी फन मारकर बैठा है चली-चलाई कारतूस पर कि बचा लूं, कुछ चूक न चला जाये, कुछ छूट न जाये हाथ से।
अभी यह बच्चा तो नया-नया था। दादू ने इसे सुंदर नाम दिया। एक ही सौंदर्य है इस जगत में--परमात्मा की तलाश का सौंदर्य। एक ही प्रसाद है इस जगत में--परमात्मा को पाने की आकांक्षा का प्रसाद। धन्यभागी हैं वे, वे ही केवल "सुंदर' हैं जिनकी आंखों में कौन बसा है उसमें सौंदर्य होता है। तुम्हारा रूप-रंग सुंदर नहीं होता; तुम्हारे रूप-रंग में किसकी चाहत बसी हैं, वहीं सौंदर्य होता है। और तुम्हें भी कभी-कभी लगा होगा कि परमात्मा की खोज में चलनेवाले आदमी में एक अपूर्व सौंदर्य प्रगट होने लगता है। उसके उठने-बैठने में, उसके बोलने में, उसके चुप होने में, उसकी आंख में, उसके हाथ के इशारों में--एक सौंदर्य प्रगट होने लगता है, जो इस जगत का नहीं है।
दादू ने सुंदर को बड़े प्रेम से पाला-पोसा। खूब प्रेम की बरसा की उस पर। हीरा था खूब निखारा उसे। और अपने सारे शिष्यों को कहा था, सुंदर की चिंता लो, सुंदर की फिक्र करो, इसमें से कुछ महिमाशाली प्रगट होने को है। और महिमाशाली प्रगट हुआ।
दादूदयाल की मृत्यु के बाद दादू सौंप गये थे रज्जब को कि सुंदर को सम्हालना। और जैसे रज्जब के जीवन में घटना घटी, कि दादूदयाल की मृत्यु के बाद रज्जब ने फिर आंखें नहीं खोली। कहा कि अब क्या आंख खोलनी? जो देखने-योग्य था, देख लिया। जो देखने में नहीं आता, वह देख लिया। जो आंखों के पार है वह आंखों में झलक गया। अब क्या आंख खोलनी? अब इस जगत में क्या रखा है? रहे कुछ वर्ष जिंदा, लेकिन फिर आंख नहीं खोली। जिंदा रहे और अंधे की तरह रहे।
जैसे यह रज्जब के जीवन में अपूर्व घटना घटी कि दादू के मर जाने के बाद उन्होंने आंख नहीं खोली...। उस प्यारे गुरु के जाने के बाद आंख खोलने का कोई कारण नहीं रहा। बहुत लोगों ने समझाया कि सूरज बहुत सुंदर है, चांदत्तारे बहुत सुंदर हैं, फूल खिले हैं। लोग आयें, लेकिन रज्जब कहते, अब कोई फूल ज्यादा सुंदर नहीं हो सकता और अब कोई सूरज उससे ज्यादा प्रकाशवान नहीं हो सकता। अब तुम चांदत्तारे की बात मत करो, मैंने चांदत्तारें के मालिक को देखा है। आंख बंद करके अब मुझे उसी के साथ रहने दो। अब बाहर देखने को मेरे लिए कुछ नहीं। आंख खोलता इसलिए था कि दादू थे, अब क्या खोलनी? अब देह लुप्त हो गई दादू की। अब तो भीतर ही देख लेता हूं। अब तो भीतर ही उनके साथ मुझे रचा रहने दो।
ऐसी घटना फिर सुंदर के जीवन में घटी। दादू तो जल्दी चल बसे, बच्चा छोटा था, दादू वृद्ध थे। रज्जब को सौंप गये थे। रज्जब ने सम्हाला। लेकिन छोटा बच्चा था, रज्जब भी चल बसे एक दिन। तब दादू के चले जाने के बाद, फिर रज्जब के चले जाने के बाद, सुंदर पर क्या घटी? फिर एक अनूठी घटना घटी। ये घटनाएं समझने जैसी हैं। क्योंकि ये घटनाएं तुम्हारे और मेरे बीच घट रही हैं और घटेंगी, इसलिए समझ लेना उपयोगी है। जब रज्जब चल बसे तो रज्जब के चलने के कुछ ही दिन पहले--दूर था सुंदर, काशी में था--एकदम भागना शुरू किया काशी से। रज्जब तो थे राजस्थान में--सांगानेर में। लंबी यात्रा थी। मित्रों ने कहा, शिष्यों ने कहा--अब तो सुंदर के भी शिष्य थे, उसके पीछे भी प्यासे इकट्ठे होने लगे थे--उन्होंने कहा, कहां भागे जाते हो, इतनी जल्दी क्या है? लेकिन सुंदर ने कहा, अब देर नहीं। रुकते भी न थे विश्राम करने को मार्गों में। किसी तरह बस पहुंच जाना है सांगानेर। और इधर रज्जब की सांसें अटकी थी। और वे बार-बार आंख खोलकर देखते थे, पूछते थे; "सुंदर पहुंचा, नहीं पहुंचा?' और जैसे ही सुंदर का आगमन हुआ और रज्जब ने सुंदर को देखा, पास लिया। देखा...बाहर की आंख तो वे खोलते नहीं थे, भीतर की आंख से ही देखा। रज्जब को शांति मिली, वे लेट गये। सुंदर का हाथ हाथ में ले लिया और चल बसे।
सुंदर पर क्या गुजरी? सुंदर जवान था, परिपूर्ण स्वस्थ था, लेकिन उसी क्षण से बीमार हो गया। जिस बिस्तर पर रज्जब मरे, उसी बिस्तर पर सुंदर मरा। वही बीमार हो गया। वह बीमारी इतनी अकस्मात थी। पूछा मित्रों ने, क्या हुआ? शिष्यों ने पूछा, क्या हुआ? भले-चंगे आये थे। लेकिन सुंदर ने कहा: अब...अब जीने का कोई कारण नहीं। अब जीने का कोई रस नहीं। अपनी तरफ से रस चला ही गया था। अपनी तरफ से तो जीने का कोई कारण नहीं। लेकिन रज्जब बूढ़े हैं, मैं मर जाऊं तो इनके धक्का न लगे, इसलिए जी रहा था। अब कोई वजह नहीं, अब कोई कारण नहीं है। दादू गये, रज्जब गये, अब मैं भी जाता हूं।
सांगानेर में एक शिलालेख मिला है, जिस पर ये वचन खुदे हैं--
संवत सत्रसै छीयाला। काती सुदी अष्टमी उजीयाला।
तीजे पहर बृहसपतवार। सुंदर मिलिया सुंदरदास।
प्यारा वचन है--सुंदर मिलिया सुंदरदास! मृत्यु की बात ही नहीं की। सुंदरदास का सुंदर मिल गया--परम सुंदर का मिल गया! जिसकी तलाश थी उसमें डूब गया। देह की छोटी-सी, झीनी-सी आड़ थी, वह भी छूटी।
मृत्यु को ऐसे ही देखना--सुंदर मिलिया सुंदरदास! मृत्यु शत्रु नहीं है। मृत्यु तुमसे कुछ भी छीनती नहीं, सिर्फ बीच के पर्दे हटाती है। मृत्यु तुम्हें कुछ देने आती है, लेने नहीं आती। मगर तुम इतने जोर से पकड़े हुए हो व्यर्थ की चीजों को कि तुम्हें लगता है कि मृत्यु कुछ छीनने आती है। तुम मृत्यु को शत्रु मानकर बैठे हो वह तुम्हारी जीवन के प्रति केवल आसक्ति के कारण। जिस दिन जीवन की आसक्ति नहीं, मृत्यु मित्र है--परममित्र है--परम कल्याणकारी है।
सुंदर मिलिया सुंदरदास। अब तक तो सुंदर के दास थे, सुंदरदास ने कहा, अब सुंदर हुए। अभी तो सुंदर केवल उसके दास होने के कारण थे, अभी तो प्रतिफलित होती थी उसकी आभा। अभी तो थोड़ी-थोड़ी झलक उसकी पड़ती थी। थोड़ी-थोड़ी गीत की कड़ी पकड़ में आती थी। अब उसी में डूब गये। अब महाप्रकाश हो गये।
उनके अंतिम वचन जो उन्होंने मरने के पहले कहे--
निरालंब निर्वासना इच्छाचारी येह,
संस्कार-पवनहि फिरै, शुष्कपर्ण ज्यों देह
वैद्य हमारे राम जी, औषधहू हरिनाम
सुंदर यहे उपय अब, सुमरण आठों जाम
सुंदर संसय को नहीं, वड़ी महोच्छव येह
आतम परमातम मिल्यौ, रहौ कि बिनसौ देह
सात बरस सौ में घटै, इतने दिन को देह
सुंदर आतम अमर है, देह खेह की खेह।
समझो--निरालंब निर्वासना इच्छाचारी येह।
संसार है इच्छा। परमात्मा है निर्वासना। संसार है वासना की दौड़--अर्थात तुम विमुख हो परमात्मा से। परमात्मा है निर्वासना, तब तुम सन्मुख होते हो परमात्मा के।
संस्कार-पवनहि फिरै, शुष्कपर्ण ज्यें देह। सूखे पत्ते को वहां में उड़ते देखा?
ऐसे ही तुम संस्कारों और आदतों की हवा में उड़ते फिरते हो। तुम अभी अपने पैरों से अपनी दिशा में नहीं चल रहे हो। हवा में उड़ते हुए पत्ते हो। दुर्घटना तुम्हारी जीवन की व्यवस्था है। संयोग से जी रहे हो। अभी तुम योग से नहीं जी रहे, केवल संयोग से जी रहे हो। अभी तुम्हारी दिशा निर्णीत नहीं। अभी तुम कहां जा रहे हो, तुम्हें पता भी नहीं है। क्यों जा रहे हो, यह भी पता नहीं; कहां से आ रहे हो यह भी पता नहीं।
संस्कार- पवनहि फिरै, शुष्कपर्ण ज्यों देह। यह देह तो सूखा पत्ता है, पुरानी आदतों, पुराने संस्कारों से चलता रहता है। तुम जागो, पुरानी आदतों , पुराने संस्कारों से ऊपर उठो।
वैद्य हमारे रामजी। और यह जो बीमारी है भटकने की, इसमें एक ही वैद्य है, वह राम है।
...औषधहू हरिनाम। और औषधि भी एक ही है--उस प्यारे का नाम, उस प्यारे की याद, उस प्यारे की स्मृति। ऐसी भर जाये, ऐसी रोएं-रोएं में समा जाये कि उसके अतिरिक्त और कुछ भी न बचे। फिर तुम्हारी जिंदगी में दिशा होगी, अर्थ होगा। फिर तुम्हारी दिशा ऐसी ही घटनाओं के धक्के में नहीं घटती रहेगी। फिर तुम ऐसे ही भीड़ के रेले-पेले में नहीं चलते रहोगे। फिर तुम चलोगे एक तीर की तरह--ऐसे तीर की तरह, जो परमात्मा को वेध देता है।
सुंदर यहे उपाय अब, सुमरण आठों जाम
सुंदर संसय कौ नहीं, बड़ी महाच्छव येह।
मर रहे हैं, मृत्यु आ रही है; मित्र, शिष्य, प्रियजन रोने लगे होंगे। सुंदर से बहतों को सुंदर की याद मिली थी। सुंदर से बहुतों के भीतर सुंदर की आकांक्षा जगी थी। वे सब रोने लगे होंगे, वे सब पीड़ित होंगे। सुंदर उनसे कह रहे हैं--सुंदर संसय कौन नहीं, बड़ी महोच्छव येह। यह बड़ा महोत्सव है तुम रोते क्यों हो, संशय क्या है? मैं मर थोड़े ही रहा हूं। मैं वह नहीं हूं जो मर सकता है।
वेद कहते हैं, अमृतस्य पुत्रः। तुम अमुत के पुत्र हो। मृत के साथ संबंध जोड़ लिया, इसलिए तुम्हें भ्रांति हो रही है। ऐसा ही समझो कि कच्चे रंग के कपड़े पहन लिये और वर्षा हो गयी और रंग बहने लगा। तो तुम्हारा रंग थोड़े ही बह रहा है। कोई वस्त्रों से ही अपने को एक समझ ले--और बहुतों ने समझ लिया है। अपने वस्त्रों से ही अपने को एक् समझ लिया है। उनके वस्त्र छीन लो तो तुमने उनसे सब छीन लिया। फिर उनके पास कुछ नहीं बचता। किसी ने पद से अपने को समझ लिया है। पद छीन लो उसका, सब गया। किसी ने धन से अपने को एक समझ लिया है। उसका धन गया कि आत्महत्या कर लेता है कुछ कर; अब क्या जीने का सार है! तुमने कैसी क्षुद्रता से अपने तादाम्य कर लिये हैं!
सुंदर कहते हैं--सुंदर संसय कौ नहीं, बड़ी महोच्छव येह। यह बड़ा महोत्सव है, तुम रोओ मत। तुम चिन्तित न होओ, संशय न करो। मैं मर नहीं रहा हूं। मैं परम जीवन में जा रहा हूं।
आतम परमातम मिल्यौ रहो कि बिनसौ देह।
देह रही कि गयी, इससे क्या लेना-देना? आतम परमातम मिल्यौ...। यह बूंद अब सागर में जा रही है। बूंद की तरह तो नहीं बचेगी, फर्क क्या पड़ता है? सागर की भांति रहेगी अब।
सात बरस सौ में घटै...। फिर सात वर्ष में घटे कि सौ वर्ष के बाद घटे, क्या फर्क पड़ता है?...इतने दिन की देह। दिन की तो गिनती है।...इतने दिन की देह। इसकी तो सीमा है, समय है। समय चूक ही जायेगा।
सुंदर आतम अमर है, देह खेह की खेह।
उसे पकड़ो जो अमृत है। उसको हाथ में लो जो अमृत है। शाश्वत से अपने के जोड़ो। क्षणभंगुर से जोड़ोगे, दुखी रहोगे। क्योंकि ये पानी के बबूले फूटते रहेंगे, फूटते रहेंगे और दुख और पीड़ा देते रहेंगे।
ये उनके अंतिम वचन थे। ऐसे इस प्यारे आदमी के वचनों की हम यात्रा शुरू करते हैं।
नीर बिनु मीन दुखी, छीर बिनु शिशु जैसे,
पी जाके औषद बिनु कैसे रहयो जात है।।
जैसे मछली बिना पानी के तड़फे, तुम भी बिना पानी के हो। और आश्चर्य यही है कि तड़फ भी रहे हो और तुम्हें याद भी नहीं। तड़फ भी रहे हो तो तुम ऐसे कारण खोज लेते हो जो तड़फन के कारण नहीं है। अगर तुम तड़फते हो तो तुम कहते हो तड़फूं कैसे न--धन चाहिये! ऐसे ही जैसे कोई मछली तड़फती हो घाट पर पड़ी तपती हुई रेत में, और सोचे कि मैं तड़फ रही हूं इसलिए कि धन नहीं है। हीरे मिल जाते तो तड़फ मिट जाती। कि पद मिल जाता तो तड़फ मिट जाती। यश मिल जाता, तड़फ मिट जाती। लेकिन यश मिल जायेगा, तड़फ मिटेगी मछली की? पद मिल जायेगा, तड़फ मिटेगी मछली की? धन मिल जायेगा, तड़फ मिटेगी मछली की?
तुम देखो अपने चारों तरफ, जो-जो तुम चाहते हो, दूसरों को मिल गया है। उनकी तड़फ नहीं मिटी है। तुम्हारी भी तड़फ नहीं मिटेगी। सफल लोगों की असफलायें तो देखो! धनियों की निर्धनता तो देखो! जिनके बड़े नाम हैं उनके छोटे काम तो देखो! जिन्होंने किसी तरह अपनी प्रतिष्ठाएं बना ली, अपने अहंकार निर्मित कर लिए, उनके भीतर का खोखलापन तो देखो! जिनका तुम महान समझते हो उनके छिछलेपन को तो जरा पहचानो!
तुम चकित होओगे, अगर तुम्हें आदमी का सबसे ज्यदा छिछलापन देखना हो तो किसी भी राजधानी में जाकर उसकी पार्लियामेंट में देख लो। दिल्ली चले जाओ, अगर आदमी के ओछेपन देखने हों। क्षुद्रताएं देखनी हों, चालबाजियां देखनी हों, बेईमानी देखनी हों, गलाघोंट प्रतियोगिता देखनी हो, एक-दूसरे की टांग खींचना और एक-दूसरे को गिराने की चेष्टा देखनी हो--दिल्ली चले गये।
जब भी तुम्हें संसार से लगाव होने लगे, दिल्ली चले गये। देखकर एकदम विराग पैदा होगा।
जरा धनी आदमी की चिंताओं में उतरकर देखो। उसके विषाक्त जीवन के देखो। उसके भीतर की रिक्तता को पहचानो। जरा देखो कि वह सो भी नहीं पाता रात, नींद कहां? जरा देखो कि जी भी कहां पाता है! जीने का आयोजन ही करने में ही जीवन बीत जाता है, जीने का समय कहां मिलता है? तैयारी ही तैयारी लोग करते रहते हैं।
मैंने सुना है, जर्मनी में एक बड़ा विचारक था। उसको एक ही धुन थी कि दुनिया में जो भी सबसे अच्छी किताबें हैं वे पढ़नी हैं। तो उसने बड़ी लाइब्रेरी खड़ी कर ली। वह दुनियाभर में घूमता फिरता था, जहां भी कोई किताब मिलती, किसी भी भाषा में हो, महत्वपूर्ण हो, वह खरीदकर अपने देश पहुंचाता। किताबें तो इकट्ठी हो गयीं, लेकिन तब तक पढ़ने का समय नहीं बचा। जब वह मरा तो लाखों किताबें छोड़ गया। मगर उसमें से पढ़ी उसने एक भी नहीं थी। आयोजन ही करने में सारा समय चला गया।
मैंने एक और पुरानी सूफी कहानी पढ़ी है जो इससे मिलती-जुलती है। एक आदमी ने देश के सारे शास्त्रों में जो भी सार है वह जानना चाहा। वह बहुत धनी था। उसके हजारों पंडित लगा दिये। उसने कहा, मुझे तो फुरसत नहीं है पढ़ने की, तुम सार निकालकर ले आओ। संक्षिप्त--डायजेस्ट। सब धर्मों का सार निकल डालो। पंडित लगे, उन्होंने बड़ी मेहनत की, वर्षों लगे सार निकालने में। पर सार भी निकला तो भी बड़े पोथे तैयार हुए। क्योंकि कितने शास्त्र हैं, उनका सार भी निकालो...। हजार शास्त्र का एक करोगे, तो हजारों शास्त्र हैं। उस आदमी ने देखे वे बड़े-बड़े पोथे, उसने कहा, भई इतने से काम नहीं चलेगा। अब मैं बूढ़ा भी हो गया हूं। मेरे पास इतना समय भी नहीं है। फिर मुझे धन कमाने से सुविधा भी नहीं है, फुरसत भी नहीं है। और संक्षिप्त करो। एक ही किताब बना लाओ। सारे, सबका इंतजाम इसमें आ जाना चाहिये।
फिर और वर्षों लग गये, आखिर वे किताब बनाकर लाये, तब तक वह आदमी खाट पर पड़ा था। उन्होंने पूछा कि अब यह किताब एक बन गई है...। उसने कहा कि अब बहुत देर हो गई, अब तो यह एक किताब पढ़ने का भी समय नहीं है। तुम तो संक्षिप्त में एक कागज पर, एक पन्ने पर सार बात लिख लाओ।
अब एक किताब को एक पन्ने में उतारना कठिन मामला था। ऐसे ही किताब संक्षिप्त होते-होते होते-होते बहुत संक्षिप्त हो गई थी, अब तो उसमें सूत्र ही सूत्र बचे थे। अब उनमें से भी छांटना मुश्किल बात थी। फिर भी छांटना चला, जब वे छांटकर एक पन्ने पर पहुंचे तब वह आदमी कर रहा था। उसने कहा अब बहुत देर हो गई। अब एक पन्ना पढ़ने की भी मेरे पास सुविधा नहीं। अब तो तुम एक वचन मेरे कान में बोल दो।
तो उन्होंने कहा, हमें थोड़ा समय लगेगा, अब इसमें से फिर एक वचन बनाना; जब तक वे एक वचन बनाकर लाये, वह आदमी मर चुका था।
अक्सर लोग ऐसे ही जिंदगी बिता रहे हैं। जीवन का आयोजन चलता है। जीवन का अनुभव कहां? तुम भी तड़फ रहे हो सारी दुनिया तड़फ रही है, लेकिन तड़फ का कारण क्या है? जो जानते हैं उनसे पूछो। जो जाग गये, उनसे पूछो। वे कहते हैं: तुम्हारे तड़फने का कारण यह नहीं है कि तुम्हारे पास धन कम है, कि तुम्हारे पास यश कम है, पद कम है। तुम्हारे तड़फने का कारण यह है कि तुम मछली हो और सागर खो गया है। और तुम रेत पर पड़े हो।
नीर बिन मीन दुखी...। सागर है परमात्मा; तुम सागर, उस परमात्मा के सागर की मछली हो। आत्मा ऐसे जैसे सागर में मछली। जैसे मछली प्रफुल्लित होती है सागर में, ऐसे ही आत्मा प्रफुल्लित होती है परमात्मा में। जैसे ही दूर हो जाते हो वैसे ही बेचैनी शुरू हो जाती है। जितने दूर उतनी बेचैनी। जितना दुखी आदमी पाओ, समझ लेना परमात्मा से उतना ही दूर निकल गया है। यह पूरब की अन्यतम खोज है। अगर तुम पश्चिम में हो, दुखी हो और तुम जाओ विशेषज्ञ के पास, तो हर दुख की वह अलग-अलग दवा बताता है। पूरब में ऐसा नहीं है: अगर पूरब में तुम दुखी हो और तुम ज्ञानी के पास जाओ तो वह दवा एक ही बताता है।
वैद्य हमारे रामजी, औषधहू हरिनाम।
वह कहता है कि ठीक, दुख-वुख का लंबा हिसाब न बताओ। तुम्हारे दुख से कोई फर्क नहीं पड़ता। हम जानते हैं तुम्हारा दुख क्या है। हमें सब मछलियों का दुख पता है कि उनका सागर खो गया है। राम के सागर में फिर डुबकी मारो। हरि बोलौ हरि बोल!
नीर बिनु मीन दुखी, छीर बिन शिशु जैसे।
जैसे छोटा बच्चा, जिसे दूध नहीं मिला है...शायद छोटे बच्चे को यह पता भी न हो कि मैं रो क्यों रहा हूं। वह पहली दफा जब बच्चा पैदा होता है तो उसे पता भी कैसे होगा कि मैं दूध की कमी के कारण रो रहा हूं? दूध तो अभी चखा ही नहीं है। अभी तो पैदा ही हुआ है। अभी तो सांस ली है और रोने लगा है। यह किसलिए रो रहा है? अगर यह बच्चा बोल सके तो भी बता नहीं सकेगा मैं किसलिए रो रहा हूं। कंधे बिचकायेगा। कहेगा: पता नहीं, मगर रोना आ रहा है।..."क्या चाहते हो? तो क्या तुम समझते हो कि बच्चा उत्तर दे सकेगा कि मैं क्या चाहता हूं? जो कभी जाना नहीं, पहचाना नहीं, जिसे कभी चखा नहीं, स्वाद लिया--कैसे कहेगा? लेकिन उसके रोने को देखकर मां पहचान लेती है कि क्यों रो रहा है। उसे दूध चाहिए, उसे स्तन चाहिए। दूध मिलते ही बच्चा निश्चिंत हो जाता है। फिर सो जाता है--गहरी निद्रा में, विश्राम में। जब फिर भूख लगती है तब फिर रोने लगता है। धीरे-धीरे उसका भी पता चल जायेगा कि मैं रोता क्यों हूं, कि भूख लगती है। धीरे-धीरे उसे भी पता चल जायेगा कि जब भूख लगती है तो मुझे दूध चाहिए।
लेकिन अगर चाहो तो बच्चे को धोखा दे सकते हो। बहुत सी माताएं देती हैं। बच्चा रो रहा है, उसका पकड़ा दिया, झूठा रबर का स्तन उसके मुंह में दे दिया। बच्चा उसी को पी रहा है और सोच रहा है कि बड़ा आनंद आ रहा है। उसी को चूसते-चूसते सो जाता है। भ्रांति खड़ी कर लेता है। पुष्टि तो नहीं मिलती कुछ, पौष्टिकता तो नहीं मिलती कुछ, भोजन भी कुछ नहीं मिलता। रबर की चूसनी को चूसकर मिलेगा भी क्या? लेकिन निश्चिंत मालूम हाता है। ज्यादा दिन धोखा नहीं चलेगा। कभी-कभी देते रहो तो चलेगा। अगर कुछ भी नहीं होता पास तो अपना अगूंठा ही चूसने लगता है। अब अंगूठे से कुछ भी निकलता नहीं। दुनिया में तुम ऐसे ही लोग पाओगे। कोई रबर की चूसनी चूस रहे हैं। कोई अपना अंगूठा ही चूस रहे हैं। यह मैं बच्चों की बात नहीं कर रहा, यह में तुम्हारी बात कर रहा हूं। जो मिल गया, वही चूस रहे हैं। एक चूसने की धुन है। लगता है कि चूसने से तृप्ति मिलती है। लेकिन स्तन हो तो ही चूसने से तृप्ति मिलती है। दूध बहता हो वहां, तो ही चूसने से तृप्ति मिलती है।
भक्त चूसता है परमात्मा की जीवन-धारा से; अभक्त संसार में खेल-खिलौनों से चूसते रहते हैं। कोई धन से चूस रहा है--यह रबर की चूसनी है। कोई चले हैं कि प्रधानमंत्री होना है--यह रबर की चूसनी है। फिर चूसनी कितनी ही बड़ी हो, कि क्रेन से उठानी पड़े, इससे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। छोटी-बड़ी का कोई सवाल नहीं है--उसके पीछे जीवन की धारा है या नहीं? उसके भीतर प्रेम बह रहा है कि नहीं?
इसीलिए इस जीवन में एक अपूर्व घटना घटती है: लोग जिंदगी-भर चूसते हैं और भूखे के भूखे। और जब देखो तब रो रहे हैं। तुम्हें अनुभव है भलीभांति। तुम जब भी बात करते हो, क्या करते हो--रोते हो। दूसरा भी रोता है। लोगों की बातचीत सुनो जरा--बस बैठे हैं और रो रहे हैं! दुनिया-भर की शिकायतें कर रहे हैं--"यह गलत, यह गलत, यह गलत...! सब तरफ गलती हो रही है। जिंदगी दूभर हो गई है। पहले के दिन अब कहां रहे।' पहले के दिन की भी इसी तरह याद कर रहे हैं ताकि मन को समझा लें। और आगे के दिन की सोच रहे हैं कि कभी तो समाजवाद आयेगा। कभी तो ऐसा होगा कि चुसनी से दूध बहेगा। मगर चूसनियों से दूध बहता ही नहीं। न समाजवाद में बहता है, न रामराज्य में बहा। कभी नहीं बहता। व्यक्ति का परमात्मा से संबंध जोड़ना पड़ेगा, तो ही जीवन में तृप्ति की धारा शुरू होती है।
नीर बिनु मीन दुखी, छीर बिनु शिशु जैसे।
पीर जाके औषद बिनु, कैसे रहयो जात है।
और पीर है भारी। पीड़ा है बहुत। औषधि के बिना कैसे रह रहे हो तुम? सुंदर पूछ रहे हैं तुमसे यह कि मैं चकित हूं कि तुम औषधि क्यों नहीं खोजते! और औषधि उपलब्ध है--हरि बोलौ हरि बोल!
चातक ज्यों स्वति बूंद, चंद कौ चकोर जैसे।
चांद देखता है...चकोर लगा है, चांद की तरफ आंखें लगाये है। चातक प्रतीक्षा करता है स्वाति के बूंद की। ऐसे ही भक्त कूड़े-करकट में नहीं उलझता, उसकी आंखें आकाश पर लगी होती हैं। उसकी आंखें चंद्र के प्रकाश पर लगी होती हैं। उसकी आंखें चंद्र के प्रकाश पर लगी होती हैं।
भक्त चकोर है, और भक्त चातक है। वह हर किसी गंदी तलैया का पानी नहीं पीता फिरता। वह प्रतीक्षा करता है स्वाति-नक्षत्र के बूंद की। एक बूंद काफी है उस नक्षत्र में, क्योंकि उस एक बूंद से ही मोती बन जाते हैं। और यहां कितना ही पियो, प्यास बुझती कहां है? जितना पियो उतनी प्यास जलती है, उतनी प्यास बढ़ती है।
तुमने देखा नहीं, जितना धन बढ़ता है उतना और धन पाने की प्यास बढ़ती है! जितनी कामवासना में उतरो उतनी कामवासना बढ़ती है। जितना क्रोध करो उतना क्रोध बढ़ता है। यह बड़ा उलटा गणित है। करने से चुक जाना चाहिए। चुकता नहीं मालूम पड़ता। अभ्यास से आदत मजबूत होती चली जाती है।
चंदन की चाह करि, सर्प अमुलात है।
और जैसे-जैसे चंदन की सुगंध मिल गई हो और सर्प लहराने लगा हो, ऐसे भक्त की मस्ती है। भक्त चंदन की चाह में चला हुआ सर्प है। स्वाति की बूंद की प्रतीक्षा करता हुआ चातक है। आकाश की तरफ आंखें उठाये, प्रेम में डूबा चकोर है।
निर्धन ज्यों धन चाहे, कामिनी को कंत चाहे।
जैसे प्रेयसी प्रेमी को खोजती है, प्रेमी प्रेयसी को खोजता है, जैसे निर्धन धन को खोजता है, जैसे हीन पद को खोजता है, जैसे निर्बल सबलता खोजता है--ये सारी चीजें भक्त नहीं खोजता। भक्त तो सिर्फ भगवान को खोजता है। उसका धन भगवान, उसका पद भगवान उसका प्रेमी भगवान। उसने अपनी सारी आकांक्षाओं का एक इकट्ठा प्रवाह परमात्मा की तरफ बहा दिया है। वह छोटी-छोटी धाराओं में नहीं बहता--उसने गंगा बना ली है और चल पड़ा है सागर की तरफ।
ऐसी जाको चाह ताको कछु न सुहात है।
और जिसकी ऐसी चाह जगी हो, उसे फिर कुछ नहीं सुहाता। तुम भक्त को कहो कि हम तुम्हारी बड़ी प्रतिष्ठा करेंगे, उसे कुछ बात जंचती नहीं। तुम प्रतिष्ठा करो कि अप्रतिष्ठा, तुम सम्मान करो कि गाली दो, अंतर नहीं पड़ता। उसकी दौड़ कहीं और है, वह जा कहीं और रहा है। तुम्हें देखता कहां! न तुम्हारी प्रशंसा देखता, न तुम्हारी मालाएं। तुम्हारी मालाओं का मूल्य कितना है? तुम्हारी मालाओं से तो तुम जैसे ही नासमझ प्रसन्न होते हैं।
मैंने सुना है, एक राजनेता का एक गांव में स्वागत किया गया। मालाओं पर मालाएं चढ़ी, गुलदस्तों पर गुलदस्ते दिये गये। जब मालाएं चढ़ चुकी, गुलदस्ते दिये जा चुके, तब भी राजनेता का सैक्रेटरी थोड़ा परेशान था, क्योंकि राजनेता के चेहरे पर क्रोध है, माथे पर सिकुड़न है। उसने पूछा, आप नाराज से क्यों दिखाई पड़ते हैं? इतनी मालाएं चढ़ी, इतने फूल, इतना स्वागत-सम्मान...!
उसने कहा, बकवास! मैंने तीस माला के दाम दिये थे, उनतीस ही आयी हैं।
 यह दुनिया बड़ी अजीब हैं, यहां पैसे भी चुकाने पड़ते हैं कि हमको माला चढ़ाओ, उसके पैसे पहले देने पड़ते हैं। और तीस के दिये थे और उनतीस ही आयी हैं! वह गिनती कर रहा है। आपने हाथ से अपने को ही चढ़ा लेते। काहे का इतना कष्ट किया?
और फिर मैंने एक फकीर की कहानी सुनी है। वह एक गांव में गया। और गांव के लोग उससे नाराज थे। लोग फकीरों से सदा नाराज रहे। क्योंकि वे बातें ऐसी कह देते हैं जो तुम्हें बेचैन कर जाती है। बड़े लोग क्रुद्ध थे। उन्होंने जूतों की एक माला बनाकर उसको पहना दी। और फकीर नाचने लगा। और लोग और मुश्किल में पड़े। लोगों ने पूछा कि समझ रहे हो, होश है कुछ, जूते की माला पहनाई है! उसने कहा कि मैं नाच किसलिए रहा हूं, इसीलिए तो। परमात्मा से कह रहा हूं: वाह रे वाह! अभी तक बहुत गावों में गया, मालियों के गांव रहे होंगे, चमारों के गांव मैं पहली दफा आया। यह भी खूब रही! आखिर आदमी वही तो चढ़ाएगा न, जो उसके पास है!...हे चमार भाइयो! तुमने बड़ी कृपा की। ऐसा ही मरते रहना, क्योंकि मैं तो यहां से आता ही जाता रहूंगा। और जूते मेरे वैसे भी फट गये थे। सो तुमने एक-दो नहीं, कई जूते दे दिये। जिंदगी चल जायेगी इससे तो मेरी। तुम्हारा खूब-खूब धन्यवाद। और फूल तो कुम्हला जाते हैं तो फेंकने पड़ते हैं, जूते कुम्हलाते भी नहीं। मेरे भी काम आयेंगे, मेरे शिष्यों के भी काम आयेंगे। धन्यवाद! मगर यह मुझे पता नहीं था कि यह बस्ती पूरे चमारों की है।
जा चल पड़ा परमात्मा की तरफ, उसके जीवन के मापदंड बदल जाते हैं।
ऐसी जाको चाह ताको कछु न सुहात है।
प्रेम का प्रभाव ऐसो, प्रेम तहां नेम कैसो।
यह वचन अदभुत है। इसे खूब हृदय में खोदकर रख लेना। जितना गहरा ले जा सको, ले जाना। प्रेम को प्रभाव ऐसो...। प्रेम इस जगत में सबसे बड़ा जादू है। और तुमने जो प्रेम अभी जाना नहीं। तुम जिसका प्रेम कहते हो वह तो कुछ और है। प्रेम नहीं है। इसलिए तुम्हारी जिंदगी में जादू नहीं घटा है। और तुम्हारी जिंदगी में परलौकिक की चमक नहीं आयी है।
प्रेम का प्रभाव ऐसो, प्रेम तहां नेम कैसो।
प्रेम का प्रभाव ऐसा है, ऐसा अदभुत जादू है प्रेम का कि जिसके जीवन में परमात्मा के लिए प्रेम आ गया,
 उसको फिर किसी नियम को मानने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। न उसके लिए कोई आचरण है, न काई शील। प्रेम पर्याप्त आचरण है।
...प्रेम तहां नेम कैसो। नियम कैसा, मार्यादा कैसी? प्रेम पर्याप्त है।
जीसस ने कहा है: तुमने सुनी हैं दस आज्ञाएं जो मोजिज ने दी, मैं तुम्हें ग्यारहवी आज्ञा देता हूं। प्रेम करो, वैसा ही जैसा मैंने किया है। और ग्यारहवी पर्याप्त है। और जो ग्यारहवी पूरी करेगा, उसके लिए दस की फिकर छोड़ दे। दस की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। चोरी मत करना, बेईमानी मत करना, झूठ मत बोलना, धोखा मत देना, हिंसा मत करना--यह सब बकवास है, जिसको प्रेम आ गया। प्रेम को प्रभाव ऐसो! जिसके मन में प्रेम आ गया, वह कैसे हिंसा करेगा?
और एक बात और भी ख्याल रखना। जरूरी नहीं है कि तुम हिंसा न करो तो तुम्हारे जीवन में प्रेम आ जाये। जरूरी नहीं है। प्रेम आ जाये तो हिंसा चली जाती है। प्रेम आ जाये तो चोरी चली जाती है। प्रेम आ जाये तो बेईमानी चली जाती है। लेकिन बेईमानी चली जाये तो प्रेम आ जाता है, ऐसा नहीं है।
इसलिए तुम बहुत लोग पाओगे जिन्होंने बेईमानी छोड़ दी है, चोरी छोड़ दी है, व्यभिचार छोड़ दिया है, अनाचरण छोड़ दिया है, मगर उनके जीवन में कोई प्रेम का कमल नहीं खिला है। उलटे सूख गये, सब सूख गया, उनके जीवन का सरोवर ही सूख गया। कभी-कभी तो ऐसा हो जायेगा कि साधारण आदमी जो कभी थोड़ा बेईमानी भी कर लेता है, झूठ भी बोल देता है, कभी मौका पड़ जाये तो झगड़ भी लेता है--इस आदमी की जिंदगी में शायद तुम्हें कभी थोड़े रस की धार भी मिल जाये, मगर जिन लोगों ने बिलकुल हिंसा छोड़ दी, बेईमानी छोड़ दी, जिन्होंने सब तरह से आचरण में अपने को कस लिया है, इनकी जिंदगी में तो तुम पत्थर पाओगे, फूल नहीं।
एक बड़ी भूल हो रही है। भूल यह है: जैसे दीया जले तो अंधेरा चला जाता है, यह सच है। लेकिन दूसरी बात सच नहीं है कि अंधेरा चला जाये तो दीया जल जाये। सच तो यह है, अंधेरा जा हो नहीं सकता, तुम सिर्फ भ्रांति पैदा कर सकते हो कि अंधेरा चला गया। तो अक्सर तुम्हें ऐसा हो जायेगा कि तथाकथित अहिंसकों में तुम्हें बड़े कठोर लोग मिल जायेंगे और तथाकथित ईमानदार आदमियों में तुम्हें ऐसे आदमी मिल जायेंगे जिनके साफ घड़ी-भर बिताना असंभव हो जाये। तुम्हारे तथाकथित संतों के साथ चौबीस धंटे रह लो तो फिर तुम दुबारा कभी संतों को सत्संग न करोगे। बड़े अहंकार का जन्म होता है। प्रेम का कहां जन्म होता है? उलटे अहंकार का जन्म होता है। और अहंकार प्रेम से विपरीत दिखा है।
भक्त अंतस से चलता है, आचरण को बदलता है। और तुम अक्सर आचरण बदल कर सोचते हो अंतस बदल जाये। नहीं, यह न कभी हुआ है, न हो समता है। सूत्र ख्याल में रखो: भीतर से बाहर की तरफ परिवर्तन होते हैं, बाहर से भीतर की तरफ परिवर्तन नहीं होते। अगर तुम्हारे भीतर आनंद हो तो तुम्हारे आचरण में भी आनंद की किरणें फूटेंगी। अगर तुम्हारे हृदय में हंसी हो, तो ओठों तक भी चली जायेगी। लेकिन इससे उलटा मत सोचना कि ओंठ हंसी के मालूम पड़ें। बिलकुल कार्टर जैसी हंसी हो, सब दांत निकाल दो बिलकुल, तो भी जरूरी नहीं कि हृदय में कोई हंसी हो।
तुमने कभी अस्पताल में जाकर खोपड़ियां देखी? सब खोपड़ियां हंसती मालूम होती हैं। क्योंकि दांत बिलकुल कार्टर जैसे निकले होते हैं, साफ। चमड़ी वगैरा तो खो ही गई, अब चमड़ी वगैरा तो बचती ही नहीं। इसलिए मुर्दे की खोपड़ी देखकर डर लगता है। क्योंकि मुर्दा और हंस रहा है, बहुत घबड़ाहट पैदा होती है। सब मुर्दे हंसते हैं, मगर इससे कोई यह पता नहीं चलता कि हृदय से आ रही है। अब हृदय है ही नहीं।...कि आत्मा से उठ रही है यह आवाज। अब कोई आत्मा इत्यादि है भी नहीं। अब तो वहां कुछ भी नहीं है। मुर्दा अब तुम पर हंस रहा है और अपने पर हंस रहा है, कि हम बुद्धू थे, और तुम बुद्धू हो।
लेकिन लोग ऊपर से चिपकाना सीख गये हैं। हंसी चिपका लेते हैं। करुणा चिपका लेते हैं। सब काजगी चेहरे बना लेते हैं। लोग नाटक करने में कुशल हो गये हैं। मुखौटे पहने हुए हैं।
प्रेम को प्रभाव ऐसो, प्रेम तहां नेम कैसो।
इसलिए भक्त नियम जानता ही नहीं। भक्ति के शास्त्र में नियमों की चर्चा ही नहीं होती--कि तुम ऐसा करो, तुम वैसा करो, तुम ऐसा मत करना, पानी छानकर पीना, रात खाना मत खा लेना। इस सबकी काई चर्चा ही नहीं होती। इसलिए भक्तों को अगर तुम तपस्वियों से जाकर पूछोगे तो वे कहेंगे सब भ्रष्ट। क्योंकि नियम की कोई बात ही नहीं--बस, हरि बोलौ हरि बोल!...नियम तो होना चाहिए! उनको पता ही नहीं है कि जिसके जीवन में "हरि बोलौ हरि बोल' प्रविष्ट हो गया, सब नियम अपने-आप पूरे हो जाते हैं। परम नियम आ गया, तो शेष सब नियम अपने-आप चले आते हैं। मालिक आ गया तो बाकी सब गुलाम हैं। वे उसके पीछे चले आते हैं।
प्रेम को प्रभाव ऐसो...। जादू ऐसा है प्रेम का, उसकी प्रभावना ऐसी है।
प्रेम तहां नेम कैसो।
सुंदर कहत यह प्रेम ही के बात है।
सुंदर कह रहे हैं कि जो मैं कह रहा हूं, यह प्रेम की बात है। तम इसमें नियम खोजने मत लग जाना। आचरण, साधना इत्यादि के चक्कर में मत पड़ जाना। मैं तो सिर्फ प्रेम की बात कर रहा हूं। मैंने प्रेम से पाया। दादू के प्रेम में पड़ा और दादू के प्रेम ने मुझे परमात्मा के प्रेम से जुड़ा दिया। और मैंने प्रेम क्या पाया कि सब पा लिया। सब सुगंध अपने-आप आ गयी।
प्रेम-भकित यह मैं कही जानै विरला कोइ।
हृदय कलुषता क्यों रहे, जा घट ऐसी होइ।।
जहां प्रेम घट जाये वहां कलुषता बचेगी कहां? दीया जल गया, अब अंधेरा बचेगा कहां?
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक नवाब के घर नौकर था। और नवाब ने उससे कहा...सर्द सुबह लखनऊ की, नवाब के उठने की इच्छा नहीं हो रही...उसने नसरुद्दीन को कहा कि नसरुद्दीन जरा बाहर जाकर देख, सूरज निकला कि नहीं? रात कटी कि नहीं?
नसरुद्दीन बाहर गया, लौट कर आया और वह आकर जल्दी से लालटेन जलाने लगा। तो उससे पूछा नवाब ने, क्या कर रहा है? उसने कहा, मैं बाहर गया, लेकिन अंधेरा बहुत है, सूरज दिखाई नहीं पड़ता। लालटेन जलाकर जा रहा हूं।
सूरज अगर हो, तो लालटेन जला कर नहीं देखना पड़ता। सूरज हो तो अंधेरा हो कैसे सकता है?...प्रेम को प्रभाव ऐसो।
प्रेम भक्ति यह मैं कही, जानै बिरला कोइ।
बहुत विरले लोग इस प्रेम-भक्ति को पहचानते हैं। यह इस जगत का सबसे महत्वपूर्ण रहस्य है। लोग तो छोटी-छोटी बातों में पड़े हैं--क्या खाना, क्या पीना, कैसे उठना, कैसे बैठना, कहां सोना, कहां नहीं सोना। असली बात चूकी ही जा रही है। इसी क्षुद्र में उलझ कर सारा जीवन व्यतीत हो जाता है। ऐसी भूल तुमसे न हो, ऐसी भूल में मत पड़ना। बस, प्रेम करो।
हृदय कलुषता क्यों रहै, जा घट ऐसी होइ।।
सत्य सु दोइ प्रकार, एक सत्य जो बोलिये।
मिथ्या सब संसार, दूसर सत्य सु ब्रह्म है।
सत्य के दो प्रकार हैं, वे कहते हैं। एक सत्य तो वह है जो बोला जाता है। वह सिर्फ गौण है, ऊपर ऊपर है। कभी-कभी तो ऐसा भी हो सकता है कि तुम सत्य बोलते ही इसलिए हो कि दूसरे को चोट पहुंचे। सत्य तुम बोलते ही इसलिए हो कि दूसरा फंसे। तुम्हारा सत्य जरूरी नहीं कि धार्मिक हो। तुम्हारे सत्य के पीछे बड़ा अधर्म छिपा हो सकता है, उस सत्य का कोई मूल्य नहीं है। असली सत्य दूसरा है। वह है तुम्हारे भीतर ब्रह्म का आविर्भाव हो, फिर बात और है। फिर तुम सत्य बोलोगे, लेकिन वह सत्य तुम्हारे अंतरतम से आयेगा। अभी तो तुम सत्य के साथ भी राजनीति करोगे, कूटनीति करोगे, हिसाब-किताब बिठाओगे।
तुमने ख्याल किया, अगर किसी की निंदा करनी हो तो तुम क्या करते हो--भई हम तो सच-सच कह रहे हैं; जैसा है, वैसा ही कह रहे हैं। मजा निंदा का ले रहे हो, मजा सत्य का नहीं है। मजा तो इसका है कि कितना नीचे एक आदमी को गिराओ। मजा तो कलुषित है, लेकिन बहाना सत्य का है।
एक और सत्य है जो बाहर से जिसका कोई संबंध नहीं। कहने से जिसका कोई संबंध नहीं, होने से जिसका संबंध है। सत्य हो जाओ। फिर सत्य अपने-आप प्रगट होगा। फिर वह जो भी रूप लेगा वे ठीक ही होंगे। असली बात दूसरी है।
मिथ्या सब संसार, दूसर सत्य सु ब्रह्म है।
उस दूसरे सत्य पर ख्याल रखो, वह छिपा हुआ सत्य है। वह प्रेम से ही आविर्भूत होता है
सुंद देखा सोधिकै, सब काहू का ज्ञान।
सुंदर कहते हैं, मैंने सब तरह के ज्ञान परख डाले, शोध कर देख डाले। शास्त्रों में गया, पंडितों के पास बैठा। सात साल का बच्चा था, जब संन्यस्त हुआ। तो दादू ने उसे भेज दिया काशी कि तू खूब पढ़, शास्त्र पढ़, ज्ञानियों के पास बैठ। अठारह साल सुंदर काशी में शास्त्र का अध्ययन करते रहे। लेकिन सब शास्त्रों के अध्ययन के बाद पाया कि जो दादू के पास था वह काशी में नहीं है। भेजी ही इसलिए था दादू ने, क्योंकि छोटा बच्चा है, अभी देख ही ले ठीक से कि असली चीज कहां है--ज्ञान में में है या प्रेम में है?
तो बड़े पंडितों के पास से पंडित होकर लौटा। लेकिन आना पड़ा वापिस दादू के पास।
सुंद देखा सोधिकै, सब काहू का ज्ञान।
कोई मन मानै नहीं बिना निरंजन ध्यान।।
दादू को देख लिया हो तो फिर कोई और शास्त्र मन को भुला नहीं सकता, न को पांडित्य काम आ सकता है। फिर कितनी ही बातें सुंद हों, सब लफ्फाली है।
कोई मन मानै नहीं...। मन में कोई रमता नहीं, जमता नहीं। भेजा ही इसलिए था ताकि दादू को ठीक-ठीक समझ ले सुंदर, ठीक-ठीक पहचान ले। व्यर्थ को देख लो तो सार्थक को पहचानने में आसानी हो जाती है। व्यर्थ को न पहचानो तो सार्थक को कैसे पहचानोगे?
कोई मन मानै नहीं, बिना निरंजन ध्यान।
ज्ञान से नहीं कुछ मिलता। ज्ञान कूड़ा-करकट है, उधार है, बासा है, पराया है। ध्यान से मिलता है। ध्यान अपन है, निज का है। और भक्ति के मार्ग पर ध्यान का अर्थ है, प्रेम की दशा--हरि बोलौ हरि बोल!
षट दरसन हम खोजिया, योगी जंगम शेख।
आ गये काशी से लौटकर दादू के पास, लेकिन दादू ने कहा अभी और खोज। काशी निफ्ट गया, अब ठीक है; अब जो योगियों के पा बैठ। बड़े प्रसिद्ध शेख हैं, सब में तलाश, टटोल।
अब सेवड़ा जो है, जैन संन्यासी जो है, वह तो बिलकुल आचरण से ही जीता है। वह तो नियम से ही जीता है। प्रेम की तो वहां कोई बात ही नहीं। प्रेम शब्द से तो वहां घबड़ाहट पैदा हो जाती है। प्रेम नहीं--नेम, नियम। ऐसा उठो, ऐसा बैठो, ऐसा करो, ऐसा चलो--हर चीज का नियम। जैन शास्त्रों को देखो तो नियमों ही नियमों से भरे हैं। ऐसा लगता है जैसे कि कोई कानूनविद लोगों ने ये किताबें लिखी हों। जैसे कानून की किताबें होती है--नियम, और नियम, और उसमें से उपनियम, और सब तरह की व्यवस्था कर देनी है--कोई निकल न जाये! मगर निकलनेवाले बचते हैं कहीं ऐसे! फिर वकील किसलिए हैं? वकील बता देते हैं कि यह तरकीब है इसमें से निकलने की।
दिल्ली में कानून बन भी नहीं पाता कि वकील तरकीबें निकाल लेते हैं। कानून बन ही रहा है, कि तरकीबें निकाल ली जाती हैं। वह कहता है। कि घबड़ाओ मत। कुछ न कुछ छेद हर जगह छुट जाते हैं। आदमी की बनाई हुई चीज पूर्ण तो हो नहीं सकती। रास्ता निकल ही जायेगा। जरा उल्टा-सीधा जाना पड़ेगा, इरछा-तिरछा चलना पड़ेगा; रास्ता तो निकल ही आयेगा। जैसे वकील रास्ते निकाल लेते हैं, ऐसे पंडित रास्ते शास्त्रों में से निकाल लेते हैं।
...भेजा। राजस्थान तो...सेवड़ों का काफी प्रभाव रहा है राजस्थान में। तो भेजा सुंदर को कि जा सेवड़ों के पास बैठ। सेवड़ा क्यों कहते हैं? क्योंकि जैन राजस्थान में जब जाते हैं साधु को मिलने तो वे कहते हैं कि सेवा करने जा रहे हैं। जिसकी सेवा करने जाना पड़ता है, वह सेवड़ा। साधु महाराज आये, उनकी सेवा करने जा रहे हैं।
षट दरसन हम खोजिया, योगी जंगम शेख।
संन्यास अरु सेवड़ा, पंडित भक्ता भेख।।
सब तरह के वेश वालों के पास जा सुंदर! बैठ, समझ! व्यर्थ को ठीक से पहचान ले। फिर लौट आना। तो तेरी आंख फिर हीरे से नहीं चूकेगी। तू हीरे को देख लेगा।
 तो भक्त न भावैं, दूरि बतावैं, तीरथ जावैं, फिर आवैं।
तो सुंदर गये सब जगह। जहां-जहां भेजा वहां-वहां गये। फिर-फिर लौट आये।
तो भक्त न भावैं, दूरि बतावैं, तीरथ जावैं, फिर आवैं।
जी कृत्रिम गावैं, पूजा लावैं, झूठ दिढ़ावैं, बहिकावैं।।
अरु माला नावैं, तिलक बनावैं, क्यों पावैं गुरु बिन गैला।
दादू का चेला, भरम पछेला, सुंदर न्यारा ह्वै खेला।।
यह सब खेल की तरह सुंद ने लिया। यह सब जाना-आना, ठीक। गुरु कहता है तो जाओ। जल्दी ही दिखाई पड़ने लगा कि सब खेल है, मर्जी गुरु की कुछ और है। गुरु जो दिखाना चाहता है कि देख, तुझे कौन मिल गया है! कंकड़-पत्थरों में भेजता है ताकि हीरे की पहचान आये। अंधेरे में भेजता है ताकि रोशनी की पहचान आये। नियमों के जगत में भेजता है ताकि प्रेम की समझ आये।
यह वचन समझो--तो भक्त न भावैं, दूरि बतावैं...।
सुंदर कहते हैं, वह आदमी जो कहता है परमात्मा दूर है, हमें नहीं भाता, क्योंकि हमने उसे बहुत पास से भी पास देखा। हमने दादू में झांका और पास से भी पास देखा।... तो भक्त न भावैं...। तो जो भक्त यह कहता है कि दूर है परमात्मा, बहुत दूर है, कठिन है, दुर्गम है, पाना मुश्किल है, खडग की धार है... ये बातें हमें नहीं जंचती, क्योंकि हमने प्रेम का मार्ग देखा, जो फूलों का मार्ग है। कहां की खडग की धार? और दूर परमात्मा नहीं है। पास से भी पास है, झुकने की तैयारी चाहिए। हाथ बढ़ाओ, उसका हाथ तुम्हारे हाथ में आने को तत्पर है।
तो भक्त न भावैं, दूरि बतावैं...।
जहां भी दूरी बताई जा रही है, समझ लेना बेईमानी है। दूरी बही बताई जाती है जहां आदमी को पता नहीं है। फिर पता न हो तो बचने का एक ही उपाय है कि दूर है, बहुत दूर है।
खलिल जिब्रान की एक कहानी है। एक आदमी गांव-गांव घूमता था। वह बड़ा संन्यासी था और बड़ा दार्शनिक। और लोगों का समझाता था कि आओ मेरे साथ जिसको भी परमात्मा तक चलना है। मगर बड़ा कठिन मार्ग है। मार्ग इतना कठिन है कि विरले ही पहुंच पाते हैं। बुलाता कि आओ मेरे साथ, परमात्मा की तरफ चलो। फिर मार्ग की कठिनाई इतनी बताता कि लोग सोचते, यह तो झंझट की बात है, इतनी कठिनाई! तो लोग कहते कि ठीक, आप ठीक कहते हैं। जरूर होगा; पर इतना कठिन है, हमारे बस के बाहर है।
वह कठिनाई इसीलिए बताई जाती है, क्योंकि तुम्हारे बस के बाहर बताना जरूरी है। नहीं तो जल्दी ही तुम पहचान लोगे कि वह दावेदार झूठ है। तुम्हें अगर परमात्मा की थोड़ी झलक मिल जाये, तो तुम्हें फिर कोई झूठा दावेदार धोखा नहीं दे सकता।
तो उस दार्शनिक की खूब प्रशंसा बढ़ती जाती थी, यश बढ़ता जाता था, हजारों लोग उसे सुनते थे। एक गांव में एक झक्की आदमी था, पागल-सा आदमी था, वह खड़ा हो गया। उसने कहा, अच्छी बात, कितना ही कठिन है, जब तुम चले गये तो हम भी चले जायेंगे। तो हम तुम्हारे पीछे चलते हैं। मुझे शिष्य बनाओ।
दार्शनिक थोड़ा डरा कि यह झंझट की बात है। दार्शनिक शिष्य बनाने में डरते हैं, क्योंकि शिष्य आज नहीं कल कसौटी हो जायेगा। आज नहीं कल शिष्य पूछेगा, बहुत दिन हो गये, अभी तक दर्शन नहीं हुए हो; आप जो कहते हो, मैं सब कर रहा हूं, अभी तक दर्शन नहीं हुए? शिष्य झंझट की बात है। शिष्य को बनाने का मतलब ही यह है कि आज नहीं कल शिष्य पर ही तुम्हारा निर्णय टंगेगा।
दार्शनिक ने सोचा कि भटकाऊंगा, इसको खूब भटकाऊंगा, खूब चक्कर लगवाऊंगा, खूब उलटे-सीधे रास्ते चलवाऊंगा, थक जायेगा, रास्ते पर अकल आ जायेगी, वापिस लौट आयेगा। मगर वह आदमी भी जिद्दी ही था। आदमी जैसा आदमी था। उसने कहा कि ठीक है लगवाओ चक्कर। जो गुरु कहे वह करे और जहां गुरु जाये वी जाये। कहानी कहती है कि चलते-चलते चलते-चलते, चलते-चलते छह साल बीत गये। और वह बार-बार पूछे कि और कितनी देर? वह तो थके ही नहीं। झक्की आदमी, वह काहे को थके! वह कहे, कितनी दूर? लेकिन गुरु थकने लगा, क्योंकि इसके कारण झंझट खड़ी हो गयी। जिंदगी मजे से चल रही थी, अब यह एक झंझट खड़ी कर ली पीछे। छह साल बीतते-बीतते एक दिन गुरु ने अपना माथा पीट लिया और कहा कि मुझे उसका रास्ता मालूम था, लेकिन तेरे सत्संग में उसका रास्ता खो गया। तू मुझे क्षमा कर, तू मेरा पीछा छोड़।
समझानेवाले तुम्हें समझाए चले जाते हैं कि बहुत दूर है, इतनी दूर है कि हमीं बामुश्किल पहुंचे। तुम क्या पहुंच पाओगे? तुम्हारी क्या बिसात? तुम हो किस खेत की मूली? वे तुम्हें यह समझाते हैं। इस समझाने से तुम कहते हो कि भई मामला इतना कठिन है, झंझट में पड़ना...। वैसे ही जिंदगी कठिनाई में गुजर रही है। ऐसे ही तो किसी तरह पार नहीं पा रहे हैं, और यह झंझट कहां लेनी! तो ठीक कहते हैं, महाराज! अब अगले जन्म में देखेंगे। जब सुविधा होगी, तब देखेंगे। अभी तो अवसर नहीं है।
न तुम पीछे चलते हो, न कभी गुरुओं को कसौटी होती है।
तो भक्त न भावैं, दूरि बतावैं...।
दादू के पास बैठकर सुंदर ने सुना था। सुना नहीं--देखा, जाना, पहचाना, अनुभव किया था। स्पर्शित हुआ था कि इतने पास है--पास से भी पास है। तुम्हारा हृदय भी उतने पास नहीं जितना परमात्मा पास है। दूरी कहां? दूरी कैसी? हम उसी में पैदा होते हैं, उसी में जीते हैं, उसी में एक दिन तिरोहित हो जाते हैं। वह हमारे प्राणों का प्राण है।
तो ये बातें जंचती नहीं।...तीरथ जावैं, फिरि आवैं...तो भेजते हैं गुरु तो चला जाता है। अब गुरु की आज्ञा है कि जा, कुंभ का मेला हो रहा है, कर आ। अब वहां देखते हैं सब तरह का पाखंड, सब तरह की व्यर्थताएं मूढ़ताएं। फिर-फिर लौटकर आ जाता है।
गुरु मिला तो तीर्थ मिल गया। अब और कहां तीर्थ है? अब कहां काबा, कहां काशी?
जो कृत्रिम गावैं...।
जगह-जगह जाकर देखा। जिसने दादू को गाते सुन लिया था, अब किसी और का गीत उसे समझ में नहीं आयेगा। कृत्रिम गावैं...। गा रहे हैं, न गीत अपना है, न गीत में प्राण हैं, न गीत में जीवन है। शब्द सब उधार और बासे हैं। ओंठ-ओंठ पर हैं। हृदय कहीं छूता नहीं उनसे। न खुद का छूता है, न दूसरे का छूता है।
जिसने दादू को गाते देखा हो...और दादू कोई गायक थोड़े ही हैं--फक्कड़ फकीर! मगर जो धार शब्दों में है, क्योंकि शब्दों के पीछे खड़ा हुआ एक अनुभव है! शब्दों में चमकती कौंध है। शब्द को भी सुनो तो थोड़ी निःशब्द की भनक आ जाती है।
जिसने मीरा को नाचते देखा है, फिर और कौन-सा नाच उसे सुहायेगा! और ऐसा नहीं है कि मीरा कोई नर्तकी है। न किसी विद्यापीठ में गयी सीखने, न किसी उस्ताद के पास बैठी। मस्ती से नाच रही है, कोई बोध से नाच रही है--नाचने की जानकारी से नहीं। जिसने मीरा को नाचते देखा, फिर सब नाच फीके पड़ जायेंगे।
देखा होगा दादू को कभी मस्त होकर गाते--ठोंक कर खंजड़ी, अपने टूटे-फूटे शब्दों में, जगाते लोगों को, याद दिलाते लोगों को। बैठकर दादू की लहर को अनुभव किया होगा! दादू की हवा में जीया था। छोटा था, तबसे जीया था। सात साल का था, तब से दांव लगा दिया था।
जी कृत्रिम गावैं, पूजा लावैं...।
तो देखते हैं कि पूजा भी लाते हो, मगर पूजा लाने वाला कहां है? उपस्थिति कहां है? ऐसे ही चले आते हैं मुर्दे की तरह, पूजा भी लगा देते हैं। देखा होगा दादू को नाचते मंदिर में। देखा होगा दादू को पूजा लगाते। जिसने रामकृष्ण का भोग लगाते देख लिया, फिर सब भोग फीके पड़ जायेंगे, फिर सब पुजारी फीके पड़ जायेंगे।
रामकृष्ण का भोग लगाना ऐसा था कि पहले खुद अपने को लगाते। मंदिर में खड़े हैं थाली सजाकर और चख रहे हैं। मामला चला था। मंदिर के ट्रस्टियों ने कहां कि यह बात तो गलत है। कभी किसी शास्त्र में लिखा है कि पहले भोग खुद का लगाओ? और फिर झूठा भगवान का खिलाओ? सब शास्त्रों में कहा है कि पहले भगवान को भोग लगाओ, फिर तुम लगा सकते हो अपने को। रामकृष्ण ने कहा, तो रखो तुम्हारे शास्त्र, और यह रही तुम्हारी नौकरी। मेरी मां जब मुझे खिलाती थी तो पहले खुद चखती थी। मैं उससे सीखा हूं। यह शास्त्र का सवाल नहीं--यह प्रेम का सवाल है
प्रेम का प्रभाव ऐसो, प्रेम तहां नेम कैसो।
मेरी मां चखती थी पहले कि है भी स्वादिष्ट कि नहीं? बेटे को दूं की नहीं दूं? तो क्या मैं उससे भी गया-बीता हूं कि बिना चखे और भोग लगा दूं? और भोग हो, जिसमें स्वाद भी न हो? यह नहीं होगा।
अब यह कोई पूजा है? तुम भी सोचोगे कि यह तो बात गड़बड़ हो गयी। यह कैसी पूजा! लेकिन, अगर तुमने रामकृष्ण को भोग लगाते देख लिया, फिर सारे मंदिर फीके पड़ जायेंगे। क्योंकि वहां तुम एक लपट पाओगे। एक आनंद-भाव पाओगे। प्रेम की धार बहती हुई जाओगे।
फिर रामकृष्ण कभी-कभी पूजा करते तो दिन-भर पूजा चलती। सुबह शुरू होती, रात होने आ गयी; देखने आये थे सुबह, वे लोग चले गये; दुपहर आये, वे चले गये; सांझ आये, वे चले गये--चल ही रही है पूजा। आखिर ट्रस्टियों ने कहा कि भई तुम होश में हो कि बेहोश? कोई नियम होता है हर चीज का। और कभी ऐसा होता कि दो-चार दिन ताला मार देते और मंदिर में पूजा नहीं होती, घंटा भी न बजता।
तो रामकृष्ण ने कहा कि जब मौज होती है जब मेरे भीतर से आती है तब करता हूं। और जब मेरी मौज नहीं होती तो मैं मार देता ताला कि अब रहो भीतर। अब हो गयी पूजा बहुत। अब पड़े रहो वहां। लेकिन जो भी होता है हृदय से होता है। हृदय से ही हो तो ही सचाई है।...पूजा लावैं, झूठ दिढ़ावैं, बहिकावैं।
भगवान तक का धोखा दे रहे हैं लोग! आदमियों की तो छोड़ो, तुम जब मंदिर पूजा चढ़ाने गये हो, तुम्हारे हृदय में चढ़ाने का कोई भाव था? तुमने सच में अपन हृदय चढ़ाया था? उन फूलों के साथ तुम्हारा भी कुछ चढ़ा था,कि बस यूं ही एक औपचारिकता पूरी कर आये थे? किसका धोखा दे रहे हो? कम से कम उसे तो धोखा मत दो।
...अरु आमा आवैं।
और लोग हैं कि माला फेर रहे हैं। और भेज देते हैं दादू उनका कि जा। लोग माला फेर रहे हैं और भीतर संसार फिर रहा है।
...तिलक बनावैं...।
और लोग तिलक बना रहे हैं। और तिलक वैसा ही है जैसे स्त्रियां अपने सौंदर्य का श्रंगार-साधन कर रही है, जिसमें कोई मूल्य नहीं है। अहंकार है, पद-प्रतिष्ठा है, अकड़ है।
...क्यों पावैं गुरु बिन गैला।
जगह-जगह जाकर एक बात लगी साफ सुंदर को कि बिना गुरु के गैल नहीं मलती। ये सब बिना गुरु के चल रहे हैं४ यही इनकी अड़चन है। शास्त्र पढ़ लेते हैं, मगर शास्ता कहां जै जो शास्त्र में अर्थ डाले? पूजा भी कर लेते हैं, लेकिन किसी प्यारे से मिलन नहीं हुआ है, जो पूजा को जीवंत बनावे। माला भी फेर लेते हैं, लेकिन किसी ऐसे आदमी से मिलना नहीं हुआ है, जिसकी श्वास में "हरि बोलौ हरि बोल' की माला फिर रही हो।
...क्यों पावैं गुरु बिन गैला।
गैला शब्द के दो अर्थ हैं। एक अर्थ तो होता है--राह, गैल। और एक अर्थ होता है, मूढ़। मूर्ख। दोनों ही अर्थ सार्थक हैं यहां। क्यों पावैं गुरु बिन गैला। ये मूढ़ बिना गुरु के नहीं पा सकेंगे। या बिना गुरु के कोई राह नहीं मिलती।
असल में राह तो उससे ही मिल सकती है, जिसे मिल गयी हो। जो पहुंच गया, जो उसे शिखर पर आरूढ़ हो गया, उसकी ही पुकार तुम्हारे अंधकारपूर्ण जंगलों से तुम्हें बाहर ला सकेगी।
दादू का चेला, भरम पछेला, सुंदर न्यारा ह्व खेला।
तो गये। तो भक्त न भावैं, दूरि बतावैं, तीरथ जावैं फिरि आवैं। तो लौट-लौट आते। फिर वही आ जाते। स्वाद लग गया गुरु का। दादू का चेला! गुरु मिल गया। शिष्यत्व का अनुभव हो गया। भरम पछेला। सारे भ्रम तोड़ डाले गुरु ने। इन्हें भ्रमों को तोड़ने के लिए जगह-जगह भेजा। अठारह साल काशी रहने को कहा। सुंदर न्यारा ह्वै खेला। और धीरे-धीरे सुंदर को सब समझ में आ गया कि बाकी सब संसार गुरु के बिना नाटक है। खेलो खूब! जानकर खेलो, साक्षीभाव से खेलो। सुंदर न्यारा ह्वै खेला। एक बात जान लो कि तुम न्यारे हो, भिन्न हो, पृथक हो। बस उतनी बात तुम्हारी समझ में आ जाये कि सब समझ में आ गया। साक्षी समझ में आ गया तो सब समझ में आ गया।
इस जगत को भोक्ता की तरह मत जियो, कर्ता की तरह मत जियो, द्रष्टा की तरह जियो। और प्रेम से यह चमत्कार घटता है कि तुम द्रष्टा हो जाते हो।
प्रेम को प्रभाव ऐसो, प्रेम तहां नेम कैसो,
सुंदी कहत यह प्रेम की ही बात है।

आज इतना ही।



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