प्रार्थना के पंख—(प्रवचन—छठवां)
दिनांक 16 जनवरी, 1979;
दिनांक 16 जनवरी, 1979;
श्री
ओशो आश्रम, पूना।
प्रश्नसार :
1—हम आपसे जो सवाल पूछ रहे हैं, वे सब
मूर्च्छा से पूछे गए हैं। और आपका जवाब तो पूर्ण चैतन्य से आ रहा है। तो इन दोनों
का मिलन कैसे संभव हो? और मिलन नहीं होता, तब तो सवाल पूछना ही गलत है। तब आप हमें जो सवाल पूछने के लिए कहते हैं,
उसका क्या मतलब है?
2—आपने कहा दर्शनों के अध्ययन से ईश्वर नहीं मिलता। मैं पूछना
चाहता हूं कि फिर ईश्वर कैसे मिलता है?
4—भगवान! न जाने किस पुण्य के प्रताप से, न जाने
कौन से जन्म-जन्मांतर की नेह-डोर से बंधकर आपकी अनुकंपा, आपके
इस सान्निध्य का सुअवसर प्राप्त हुआ, कि आपके पवित्र करकमलों
से संन्यास प्राप्त कर धन्य हो गया। भगवान! हमारा सारा देश कर्जदार है आपका। विश्व
के कोने-कोने से अनवरत प्रतिदिन लोग चले आ रहे हैं, यहां
प्रेम के सागर में डूबे जा रहे हैं। आकंठ पी रहे हैं--बरसते अमृत की रसधार को!
बनी रहे अंगूर लता ये, जिससे
बनती हैं डाला
बनी रहे यह माटी जिससे
बनता है मदिरा प्याला
बने रहे ये पीने वाले, बनी रहे
यह मधुशाला
5—प्रार्थनाएं परिणाम न लाएं क्या करें?
पहला प्रश्न:
हम आप से जो सवाल पूछ रहे
हैं, वे तो सब मूर्च्छा से पूछे गए हैं और आपका जवाब तो पूर्ण चैतन्य से आ रहा
है। तो इन दोनों का मिलन ही कैसे संभव हो? और मिलन नहीं होता
है, तब तो सवाल पूछना ही गलत है। तब आप हमें जो सवाल पूछने
के लिए कहते हैं, उसका मतलब क्या?
शिवानंद! मन में
सवाल वैसे ही लगते हैं जैसे वृक्षों में पत्ते। मन में सवाल वैसे ही उठते हैं जैसे
झील में लहरें। मन हैं तो सवाल है। जब तक मन है तब तक सवाल है। और जब तक मन है तब
तक उत्तर नहीं मिलेगा। मन उत्तर के मिलने में बाधा है। मन प्रश्नों को खड़ा करने
में कुशल है,
उत्तर को खोजने में असमर्थ है। जहां मन नहीं वहां उत्तर है।
और समझ लेना, सवाल बहुत हैं, जवाब एक है। प्रश्न अनंत हैं, लेकिन समाधान एक है।
तुमने ठीक ही पूछा। तुम्हारे प्रश्न मूर्च्छा से उठते हैं। मूर्च्छा से ही प्रश्न
उठ सकते हैं। जागे हुए चित्त में प्रश्नों की कोई संभावना ही नहीं। जागा हुआ चित्त
जगत को एक समस्या की भांति देखता ही नहीं। जागे हुए चित्त में जगत एक रहस्य है,
समस्या नहीं है। समस्या हो तो समाधान खोजना पड़ता है। रहस्य हो,
तो रस-विमुग्ध हो नाचना पड़ता है।
रहस्य का अर्थ है--जो कभी खोले से न खुलेगा; सुलझाने
से न सुलझेगा। सुलझना संभव ही नहीं है। रहस्य का अर्थ है, जो
रहस्य ही रहेगा। रहस्य अज्ञात नहीं है कि ज्ञात बनाया जा सके। रहस्य अज्ञेय है,
कभी ज्ञेय नहीं बनेगा। रहस्य रहस्य ही रहेगा।
जागा हुआ व्यक्ति इस रहस्य को जीना शुरू
करता है। उस जीने में ही काव्य है। उस जीने में ही संगीत है। उस जीवन का नाम ही
प्रसाद है। वहां फिर कोई तरंगें नहीं उठती हैं। झील हो गई सदा के लिए शांत। वहां
कोई प्रश्नों के पत्ते नहीं लगते। प्रश्न जन्मते ही नहीं।
तो तुम ठीक ही कहते हो, तुम्हारे
प्रश्न और मेरे उत्तर कहीं भी मिलेंगे नहीं। मिलें, ऐसा
प्रयोजन भी नहीं है। मिलना चाहिए, ऐसी आकांक्षा भी नहीं है।
मेरे उत्तर तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर भी नहीं हैं। उत्तर तुम्हें देना भी चाहता
हूं; सिर्फ तुम्हारे प्रश्न छीन लेना चाहता हूं। इस भेद को
समझ लेना।
पंडित तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर देता है; ज्ञानी
तुम्हारे प्रश्नों को छीन लेता है, तुम्हें निष्प्रश्न कर
देता है। ये जो मैं उत्तर दे रहा हूं, उत्तर नहीं हैं। ये
केवल जाल हैं, जो फेंके गए तुम्हारी प्रश्न की मछलियों को
पकड़ लेने को।
जैसे-जैसे तुम मेरे निकट आओगे, वैसे-वैसे
तुम पाओगे प्रश्न छिनते जाते हैं, खोते जाते हैं। उत्तर हाथ
नहीं आता, प्रश्न छिनते जाते हैं। और एक ऐसी घड़ी आती है। जब
तुम निष्प्रश्न हो जाओगे, कोई प्रश्न न बचेगा। बस, उस निष्प्रश्नता में ही समाधान है, समाधि है।
और वह समाधान एक है। और समस्याएं अनेक थीं।
और बीमारियां बहुत थीं,
औषधि, एक है। स्वास्थ्य एक है, बीमारियां ही अनेक होती हैं। स्वास्थ्य बहुत तरह के नहीं होते; उसका स्वाद एक है। जब तुम स्वस्थ हो जाओगे...स्वस्थ शब्द पर ध्यान रखना।
बड़ा प्यारा शब्द है। उसका अर्थ है: तब तुम स्व-स्थित हो जाओगे। जब तुम अपने में रम
जाओगे, अपने में लीन हो जाओगे। तब सारे प्रश्न तिरोहित हो
गए। दीया जला भीतर, अंधेरा मिटा बाहर। फिर रहस्य ही रहस्य
है--रहस्यों के पार रहस्य एक शिखर चढ़ोगे रहस्य का और पाओगे कि दूसरा शिखर चुनौती
दे रहा है। एक द्वार खोलोगे रहस्य का और दस नए द्वार सामने आ जाएंगे।
और तब जीवन एक अदभुत आनंद है, क्योंकि
तब जीवन में ऊब नहीं है। तब जीवन में प्रतिपल अन-अपेक्षित से मिलन होता है,
अजनबी से मिलन होता है। तब प्रतिपल आश्चर्यचकित, विस्मयविमुग्ध...तुम एक अभियान पर निकलते हो।
मेरे उत्तरों का प्रयोजन उत्तर देना नहीं
है। मेरे उत्तरों का प्रयोजन तुम्हारे प्रश्नों की हत्या कर देना है। इस भेद को
खूब ठीक से समझ लोगे,
तो यह भी समझ में आ जाएगा, क्यों तुमसे कहता
हूं कि पूछो, पूछो जितना पूछना हो। क्योंकि जितना तुम पूछोगे
उतना ही तुम्हारा पूछना समाप्त होगा। दबाए बैठे रहे भीतर, प्रश्न
तो उठते रहे भीतर, संकोचवश न पूछे, शिष्टाचारवश
न पूछे प्रश्न तो जगते रहे भीतर, और तुम दबाए चले गए--तो कभी
मिट न सकेंगे।
तुम्हारी मछलियों को आ जाने दो सतह पर, ताकि जाल
में फंस जाना सुनिश्चित हो जाए।
उत्तर जो देते हैं तुम्हें, उनसे
सावधान! प्रश्न जो छीन लेते हैं तुम्हारे, उनके पीछे लग
जाना। क्योंकि उत्तर तुम्हें जो देते हैं, वे ही तुम्हें
हिंदू बना देंगे, मुसलमान बना देंगे, ईसाई
बना देंगे। यह उत्तरों का ही परिणाम है। तुमने एक उत्तर पकड़ा तो मुसलमान हो गए,
दूसरा उत्तर पकड़ा तो जैन हो गए, तीसरा उत्तर
पकड़ा तो सिक्ख हो गए। यह उत्तरों की पकड़ है। उत्तर का अर्थ होता है: सिद्धांत,
शास्त्र, धारणाएं।
मैं तो धारणा छीनता हूं, शास्त्र
छीनता हूं, उत्तर छीनता हूं। तुम्हें, जो-जो
तुम्हारे चित्त में बैठ गया है फन मार कर, उस सबसे मुक्त
करना है। उस सब कूड़े-कर्कट से तुम्हें रिक्त करना है, शून्य
करना है। तुम्हारा अंतःगृह जब परिपूर्ण शून्य होगा, तो
स्वच्छ होगा, क्वांरा होगा। उस क्वांरे मन में ही, उस क्वांरे चित्त में ही परमात्मा का आगमन होता है। तुम हिंदू रहे तो
चूकोगे, मुसलमान रहे तो चूकोगे, ईसाई
रहे तो चूकोगे। हां, धार्मिक बने तो पार लग जाओगे।
धार्मिक बनने का अर्थ है, प्रश्नों
को छोड़ना। सब प्रश्न व्यर्थ हैं; मगर मेरे कहने से अगर तुमने
मान लिया कि सब प्रश्न व्यर्थ हैं तो छूटेंगे नहीं। दब जाएंगे, पड़े रह जाएंगे, अचेतन में उतर जाएंगे। तुम्हारी
चेतना के तलघरे में छिप कर बैठ जाएंगे, अंधेरे कोनों में
दुबक जाएंगे, मिटेंगे नहीं।
पूछो, जी भर कर पूछो, ताकि तुम्हारे एक-एक प्रश्न की मैं गर्दन काटता चलूं। कितना पूछ सकोगे?
आज नहीं कल, कल नहीं परसों, देर-अबेर, एक दिन जागकर पाओगे कि सब प्रश्न व्यर्थ
हैं--और सब उत्तर भी। जब प्रश्न ही व्यर्थ हैं तो उत्तर कैसे सार्थक हो सकते हैं?
फिर, मैं तुम्हें उत्तर नहीं देता।
उत्तर वे देते हैं जो तुम्हारे आचरण के मालिक बनना चाहते हैं। उत्तर वे देते हैं,
जो तुम्हें किसी आध्यात्मिक गुलामी में बांध लेना चाहते हैं। उत्तर
वे देते हैं, जो चाहते हैं कि तुम उनके अनुसार चलो; जो तुम्हारे मालिक होना चाहते हैं।
मैं तुम्हें उत्तर नहीं देता, क्योंकि
मैं नहीं चाहता हूं कि मैं तुम्हारे आचरण का नियंता बनूं। मैं तुम्हें मुक्ति देता
हूं, स्वातंत्र्य देता हूं। तुम्हारा आचरण तुम्हारे भीतर से
उमगे। जैसे फूल खिलते हैं वृक्षों में, ऐसा तुम्हारा आचरण
खिले! तुम अपने मालिक बनो!
यही संन्यास का अर्थ है कि तुम अपने मालिक
बनो। इसलिए संन्यासी को स्वामी कहते हैं--अपना मालिक। तुम्हारे तथाकथित पुराने ढब
के संन्यासी अपने मालिक नहीं हैं, गुलाम हैं। किन्हीं बड़ी सूक्ष्म गुलामियों में
बंधे हैं। मैं तुम्हारे मालिक होने की घोषणा कर रहा हूं। तुम्हें मेरी बात मान कर
नहीं जीना है। मैं कौन हूं जो तुम मेरी बात मानो।
मेरी बातें तो तुम्हारी बातें काट देने का
उपाय हैं। जैसे एक कांटे से दूसरा कांटा निकाल देते हैं, फिर दोनों
कांटे फेंक देते हैं न! ऐसे ही मेरी बातों के कांटों से तुम्हारे चित्त की बातों
के कांटे निकल आएं, फिर दोनों को फेंक देना है। और जब तुम
कांटों से मुक्त हो जाओगे, तो तुम्हारे भीतर एक सुवास उठेगी,
एक संगीत उठेगा, एक नाद उठेगा। मैं उसी नाद को
जगाना चाहता हूं, जो तुम्हारे भीतर सोया पड़ा है। तुम्हें मैं
कुछ देना नहीं चाहता; तुम्हारे पास जो है, उसी के प्रति तुम्हें जगाना चाहता हूं। तुम्हें प्रत्यभिज्ञा हो जाए,
पहचान हो जाए।
झंकारें ले लो, तार न लो!
भर दो प्रकाश में ही झिलमिल,
कर दो यह नयन-ज्योति धूमिल,
पथ की देदीप्त शिखाओं की
आभा ले लो, आकार न लो!
झंकारें ले लो, तार न लो!
हो शुष्क न पाए सजल सिंधु,
बन जाए चाहे एक बिंदु,
मेरे अंतर की चाहों की
सीमा ले लो, संसार न लो!
झंकारें ले लो, तार न लो!
तिनके हो जाएं राख सही,
पर टूटे जर्जर शाख नहीं,
मन का प्रसाद बसाने की
आशा ले लो, आधार न लो!
झंकारें ले लो, तार न लो!
मैं तुम्हें उत्तर नहीं देना चाहता, सिर्फ
झनकार देना चाहता हूं; शब्द नहीं देना चाहता, सिर्फ निःशब्द की चोट देना चाहता हूं। मैं तुम्हें ज्ञान नहीं देना चाहता,
तुम्हारे भीतर ध्यान को पुकारना चाहता हूं, जो
सोया पड़ा है; जो पुकार सुन ले तो जग जाए। और जग जाए तो सब हो
जाए। सब उत्तरों का उत्तर आ जाए।
समाधानों का समाधान समाधि है।
झंकारें ले लो तार न लो। झनकार और तार में
क्या भेद है?
तार स्थूल है, झनकार सूक्ष्म है। तार पकड़ में
आता, झनकार पकड़ में नहीं आती। तार ऊपर का ऊपर रह जाएगा। तार
को पकड़ा तो तार से बंध जाओगे, तार जंजीर बन जाएगी। झनकार
प्राणों में समा जाती है। और झनकार तुम्हारे भीतर सोयी हुई झनकार को आंदोलित कर
देती है। झनकार मुक्ति है।
तार मत लो मेरे, शब्द मत
लो मेरे। मैं जो कहता हूं, उसकी फिक्र मत करो। मैं जो हूं,
उसमें रसलीन होओ।
आभा ले लो, आकार न लो! आकार लिया कि
बंधे। आकार लिया कि कारागृह में प्रवेश हुआ। आभा ले लो!
दीए के पास जो आभा का मंडल होता है, उसको न तो
मुट्ठी में बांध सकते हो, न तिजोड़ी में बंद कर सकते हो। उसे
तो अगर देखोगे आंख भरकर तो तुम्हारी आंखें चमक उठेंगी। उस आभा को पी लोगे तो तुम
भी आभावान हो जाओगे, तुम भी ज्योतिर्मय हो जाओगे।
आशा ले लो, आधार न लो। मैं सिर्फ
तुम्हारे भीतर एक आशा जगाना चाहता हूं। तुम बहुत निराश हो गए हो। जैसा जीवन तुमने
पाया है, जैसा जीवन तुम जीए हो, उसमें
निराशा ही निराशा हाथ लगी है। तुमने अपने ही ऊपर श्रद्धा खो दी है। तुम्हें अपने
भर भरोसा नहीं रहा है। रहे भी कैसे? सफलता मिली नहीं। आनंद
पाया नहीं। गीत मुखरित न हुए। संगीत जगा नहीं। प्रेम का शब्द तो सुना, स्वाद मिला नहीं। मंदिरों में घंटे बजते रहे, मस्जिदों
में अजाने होती रहीं; तुम्हारे भीतर तो प्रार्थना का कोई
स्वर गूंजा नहीं। तुमने तो परमात्मा को धन्यवाद दिया नहीं। देते भी कैसे; धन्यवाद देने योग्य कुछ पाया, ऐसा तुम्हें लगा नहीं।
तुम्हारा जीवन एक शुष्क धार है--रूखी-रूखी, मरुस्थल
की नहीं है! जल तो बिलकुल नहीं, बस सूखी। इस में थोड़ी जलधार
देना चाहता हूं, थोड़ी आशा जगाना चाहता हूं। कहना चाहता हूं
तुमसे कि तुम जो हो, तुम्हारी अभी उससे पहचान नहीं हुई।
सम्राट हो, भिखारी बने हो! सब तुम्हारा है, और भिक्षापात्र लिए चल पड़े हो! किससे मांग रहे हो? मालिकों
का मालिक किससे मांग रहा है? क्या मांग रहा है?
छोटी-छोटी वासनाओं के पीछे दौड़ रहे हो--और
विराट तुम्हारा है! क्षण भंगुर के लिए आंसू बहा रहे हो--और शाश्वत तुम्हारा है, सनातन
तुम्हारा है! एस धम्मो सनंतनो! तुम्हारा जो स्वभाव है, तुम्हारा
जो धर्म है, वह सनातन है। न उसका कोई आदि है न कोई अंत है। प्रभु
का राज्य तुम्हारे भीतर है!
आशा ले लो, आधार न लो।
आभा ले लो, आकार न लो।
झंकारें ले लो, तार न लो।
मेरा संगीत, तुम्हारे भीतर सोए संगीत को
भी छेड़ दे।
इसलिए कहता हूं: पूछो, जी भर कर
पूछो। उत्तर न तो हैं, न मैं देना चाहता हूं, न दे सकता हूं। लेकिन तुम्हारे प्रश्नों की हत्या तो कर सकता हूं। वही कर
रहा हूं। सुबह-सांझ बस तुम्हारे प्रश्नों को झाड़ने-बुहारने में लगा हूं। यह कचरा
हट जाए तो तुम्हारे भीतर का सोना प्रकट हो। किसी भी क्षण हो सकता है। जिस क्षण तुम
तैयार हो जाओगे ज्ञान के कचरे को छोड़ने को, उसी क्षण ध्यान
की ज्योति प्रकट हो जाती है।
दूसरा प्रश्न:
आपने कहा, दर्शनों
के अध्ययन से ईश्वर नहीं मिलता है। मैं पूछना चाहता हूं कि फिर ईश्वर कैसे मिलता
है?
दर्शनशास्त्र और
दर्शन का अनुभव,
इस भेद को स्मरण रखना। दर्शनशास्त्र से ईश्वर नहीं मिलता है।
दर्शनशास्त्र से सुंदर शब्द मिलेंगे, परिभाषाएं मिलेंगी,
सिद्धांत मिलेंगे, ज्ञान मिलेगा--बोध नहीं।
जैसे अंधा सुन ले प्रकाश के संबंध में और
बहरा समझ ले संगीत के संबंध में। पर संगीत का अनुभव और बात है। प्रकाश का बोध और
बात है।
दर्शनशास्त्र से ईश्वर नहीं मिलता है, क्योंकि ईश्वर
एक अनुभव है, अनुमान नहीं। और दर्शनशास्त्र केवल अनुमान है।
अंधेरे में चलाए गए तीर हैं। लग गए तो तीर, नहीं लगे तो
तुक्का। मगर अंधेरे में चलाया गया तीर लग भी जाए तो तुम तीरंदाज नहीं हो जाते हो।
संयोगवशात लग जाए, बात और। कभी-कभी लग जाता है। दार्शनिकों
का भी तीर कभी-कभी लग जाता है--संयोगवशात। अब जैसे कोई चलाता ही रहे अंधेरे में
तीर, सब दिशाओं में फेंकता रहे तीर, तो
एकाध तीर तो लग ही जाएगा। और फिर जो होशियार हैं उनका तो कहना क्या! वे तो बड़े
हिसाब से चलते हैं।
मैंने सुना, एक सम्राट एक गांव से
गुजरता था। बड़ा धनुर्विद था। उसने अपना रथ रुकवा दिया। क्योंकि उसने जगह-जगह
वृक्षों पर तीर चुभे देखे, तीरों के निशान देखे। और हर तीर
वृक्ष पर बनाए गए सफेद खड़िया के वर्तुल के ठीक मध्य में था। मकानों की दीवालों पर
भी ऐसा था। खलिहानों के आसपास लगी बागुड़ में भी ऐसा था, वृक्षों
पर भी ऐसा था। चकित हो गया। इतना बड़ा तीरंदाज उसने कभी देखा नहीं, जिसके सब तीर ठीक लक्ष्य को मध्य में भेद देते थे। रत्ती-रत्ती शुद्ध!
उसने अपने लोगों को कहा: पता लगाओ। मैं भी
जीवन-भर से तीर चला रहा हूं, लेकिन कभी न कभी कोई तीर चूक जाता है।
निन्यानबे प्रतिशत मैं कुशल हो गया हूं।
मगर इस गांव में कोई तीरंदाज है जो सौ प्रतिशत कुशल है। उसके मैं दर्शन करना चाहता
हूं। उसके चरण छूना चाहता हूं। उसे सिर झुकाना चाहता हूं। मैंने बड़े तीरंदाज देखे
हैं, मगर यह गांव में हीरा कहां छुपा रहा! किसी को इसका पता
भी नहीं है। यह किस गुदड़ी में छिपा है हीरा, इसका पता लगाओ।
आदमी दौड़े। गांव में लोगों से पूछा। लोग
हंसने लगे। उन्होंने कहा कि छोड़ो, सम्राट को कहो कि आगे बढ़े फिजूल की बातों में न
पड़े। वह तो गांव का एक पागल है। सम्राट ने कहा: पागल, और
इतना शुद्ध तीरंदाज! तो तो और भी सम्मान-योग्य है।
वे लोग कहने लगे: आप समझे नहीं। वह तीर पहले
मारता है और बाद में चिह्न बनाता है।
अब अगर कोई तीर पहले मारे और फिर जा कर
चिह्न बना दे तो तो तीर ठीक मध्य में लगेगा ही। अनुमान कभी-कभी ठीक लग जाते हैं।
मगर अनुमान अनुमान हैं। अनुमानों से सावधान रहना।
अनुमान है!
संसार के हर कोर तक,
जग के प्रलय के छोर तक,
मानव सदा ही प्रेम का व्यापार करता जाएगा!
अनुमान है!
जब तक मिटेगी कल्पना,
परिभूत होगी साधना,
संपूर्ण तब तक विश्व का संगीत भी हो जाएगा!
अनुमान है!
कुछ खोज दिखलाई नई,
बढ़ और जिज्ञासा गई,
अज्ञानता का विश्व में विस्तार होता जाएगा!
अनुमान है!
अनुमानों से शायद हमारी चित्त की खुजलाहट
मिट जाती हो,
कुछ और नहीं होता। दर्शनशास्त्र खुजली को खुजलाने जैसा है। थोड़ा रस
आता होगा खुजलाने में, पर खुजली समाप्त नहीं होगी, बढ़ जाएगी!
इसलिए दार्शनिक पूछता ही चला जाता है; एक प्रश्न
में से दस प्रश्न निकल आते हैं। प्रश्नों में से प्रश्न निकलते चले जाते हैं। अंत
कभी आता नहीं।
अध्ययन तो कर सकते हो दर्शनशास्त्र का।
अध्ययन ही करना हो तो दर्शनशास्त्र ही अध्ययन करने योग्य है। बाकी तो फिर ठीक ही
है। शास्त्रों का शास्त्र है दर्शनशास्त्र। अध्ययन का ही मजा लेना हो, शब्दों की
बारीकियों में जाना हो, सिद्धांतों के तर्क देखने हों,
वाद-विवाद की कुशलता उपलब्ध करनी हो, बाल की
खाल निकालने की योग्यता लानी हो--तो दर्शनशास्त्र ही है अध्ययन करने योग्य। लेकिन
ईश्वर इससे नहीं मिलता।
ईश्वर बुद्धि की त्वरा, तीक्ष्णता
से नहीं मिलता। ईश्वर मिलता है हृदय की उत्फुल्लता से। ईश्वर आता है तुम्हारे भीतर
हृदय के द्वार से, प्रेम के द्वार से। ईश्वर अनुभव है,
परम अनुभव है। यही धर्म और दर्शनशास्त्र का भेद है। धर्म दर्शन देता
है अनुभव की भांति; दर्शनशास्त्र अनुमान देता है सत्य के
संबंध में--सत्य ऐसा होना चाहिए, सत्य वैसा होना चाहिए।
अंधेरे में टटोलते-टटोलते परिभाषाएं बना ली जाती हैं।
तुम पूछते हो: आपने कहा, दर्शनों
के अध्ययन से ईश्वर नहीं मिलता। ईश्वर शास्त्रों में है नहीं, सिद्धांतों में है नहीं। ईश्वर मौजूद है अस्तित्व की तरह। वृक्षों से मिल
जाए, चांदत्तारों से मिल जाए, पहाड़ों
से, पर्वतों से मिल जाए, झरनों से मिल
जाए, पशु-पक्षियों से मिल जाए--शास्त्रों से नहीं मिलेगा।
परमात्मा छिपा है अपनी प्रकृति में। यह
प्रकृति उसका घूंघट है। इस घूंघट को उठाओ। ये चांदत्तारे जो झिलमिल हो रहे हैं, उसको
घूंघट पर जड़े हैं। ये सलमे-सितारे हैं उसके घूंघट के। जरा घूंघट उठाओ--और मिल जाए!
मगर तुम अगर सोचते हो कि हम शब्दों के
ऊहापोह में पड़े-पड़े एक दिन परमात्मा को पा लेंगे, तो तुम असंभव चेष्टा कर रहे
हो, बहुत पछताओगे।
फलसफी को बहस के अंदर खुदा मिलता नहीं
डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं
मारिफ खालिक की आलम में बहुत दुश्वार है
शहरेत्तन में जबकि खुद अपना पता मिलता नहीं
किश्ति-ए-दिल की इलाही बहरे-बस्ती में हो
खैर
नाखुदा मिलते हैं लेकिन बाखुदा मिलता नहीं
जिंदगानी का मजा मिलता था जिनकी बज्म में
उनकी कब्रों का भी अब मुझ को पता मिलता नहीं
सर्फे-जाहिर हो गया सरमाय-ए-जेब-ओ-सफा
क्या तअज्जुब है जो बातिन बासफा मिलता नहीं
पुख्तात्तब्ओ पर हवादिस का नहीं होता असर
कोहसारों में निशाने-नक्शे-पा मिलता नहीं
शैख साहब बरहमन से लाख बरतें दोस्ती
बे भजन गाए तो मंदिर से टका मिलता नहीं
फलसफी को बहस के अंदर खुदा मिलता नहीं
डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं
दर्शनशास्त्र गुत्थियां बनाने का शास्त्र है, सुलझाने
का नहीं। सुलझाने का शास्त्र योग है। उसकी विधि विचार नहीं ध्यान है। सुलझाने की
यात्रा धर्म है। उसकी विधि संदेह नहीं, श्रद्धा है।
और पाना हो ईश्वर को तो एक अपूर्व घटना के
लिए तैयार होना होता है: मिटने के लिए तैयार होना होता है। ईश्वर मिलता नहीं बिना
मिटे। अहंकार जब तक न जाए,
ईश्वर नहीं मिलता।
और दर्शन शास्त्रों से अहंकार खूब परिपुष्ट
होता है। पांडित्य अहंकार पर खूब आभूषण की तरह हो जाता है। ज्ञानी, तथाकथित
ज्ञानी जितने अहंकार से भर जाता है, उतना कोई और नहीं।
त्यागी, तथाकथित त्यागी जिस तरह के सूक्ष्म अहंकार की धार रख
लेता है, उस तरह की धार और किसी के अहंकार में न मिलेगी।
औरों के अहंकार बोथले हैं; त्यागियों-पंडितों के अहंकार बड़े
धार वाले हैं।
मिटने से मिलता है खुदा। खुदी मिटती है तो
मिलता है खुदा।
हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है
नातजुर्बाकारी से वाइज की ये बातें हैं
इस रंग को क्या जाने, पूछो तो
कभी पी है
उस मै से नहीं मतलब, दिल जिससे
है बेगाना
मक्सूद है इस मैं से, दिल ही
में जो खिंचती है
ए शौक वही मैं पी, ऐ होश जरा
सो जा
मेहमाने-नजर इस दम इक बर्केत्तजल्ली है
वां दिल में कि सदमे दो, यां जी
में कि सब सह लो
उनका भी अजब दिल है, मेरा भी
अजब जी है
हर जर्रा चमकता है अनवारे-इलाही से
हर सांस यह कहती है हम हैं तो खुदा भी है
सूरज में लगे धब्बा फितरत के करिश्मे हैं
बुत हमको कहें काफिर अल्लाह की मर्जी है
पीने से मिलता है खुदा। ऐसा मधु पीना है, जो भीतर
ढलता है; जो अंगूरों से नहीं आत्माओं से निचुड़ता है।
हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है!
और जब भी कोई ऐसा पियक्कड़ इस जगत में होता है, बड़ा हंगामा बरपा हो जाता है।
क्योंकि पंडित-पुरोहित बड़े कष्ट में हो जाते हैं।
हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है
यह पीना तो अपने भीतर ही घटता है।
नातजुर्बाकारी से वाइज की ये बात हैं। ये जो
उपदेशक हैं, इन्हें कुछ अनुभव नहीं है। इसलिए इस तरह की बातें कर रहे हैं।
इस रंग को क्या जाने, पूछो तो
कभी पी है? यह जो रंग है परमात्मा का, यह
तो पियक्कड़ों का रंग है। ये तो जो पी लेते हैं...और पीने की शर्त चुकानी पड़ती है!
पीने की शर्त है: अपने को मिटाना। यह मय ऐसी नहीं है कि सस्ती मिल जाए। यह मधुशाला
ऐसी नहीं है कि मुफ्त में प्रवेश हो जाए। गंवाना पड़ता है अपने को। जो अपने को
मिटाते हैं, वही प्रवेश पाते हैं।
उस मै से नहीं मतलब, दिल जिससे
है बेगाना
मक्सूद है इस मै से, दिल ही
में जो खिंचती है
एक तो शराब है जो तुम बाहर से पी लेते हो; जो जाकर
भीतर तुम्हारे हृदय को नष्ट करती है, विकृत करती है। और एक
शराब है, जो तुम्हारे हृदय में ही निचुड़ती है, और तुम्हारे बाहर आभामंडल हो जाती है, और तुम्हारे
बाहर एक सौंदर्य का निखार हो जाती है, एक प्रसाद का जन्म हो
जाती है।
तुम मिटो तो तुम पाओगे कि परमात्मा कोई और
नहीं, तुम्हारे ही भीतर छिपा तुम्हारा ही राज है।
शास्त्रों में न खोजो। शास्त्रों में खोजना
मरूस्थलों में खोजना है। आत्मा की बगिया में खोजो। अपने भीतर उतरो। इस अंतर के
कुएं में ही डुबकी मारो। वहीं तुम्हें अमृत के स्रोत उपलब्ध होंगे। वहीं हुए हैं
उपलब्ध, जब भी कभी उपलब्ध हुए हैं।
तीसरा प्रश्न:
आप हर रोज इतनी पिलाते हो; फिर भी
तृप्त होने की बजाए प्यास दिन ब दिन बढ़ती ही जाती है। ऐसा क्यों?
हितेन सत्यार्थी!
मैं कितना ही पिलाऊं उससे प्यास बढ़ेगी, घटेगी नहीं। मेरी चेष्टा ही यही है
कि प्यास ऐसी प्रज्वलित हो जाए कि बाहर की कोई चीज तुम्हें तृप्त ही न कर सके। तभी
तो विभ्रम टूटेगा। तभी तो जागोगे। तभी तो यह सपना टूटेगा। प्यास इतनी प्रगाढ़ हो
जाए कि आग की लपट की भांति जल उठे, भभक उठो तुम। तभी तो
जागोगे। उस से कम में तुम न जाओगे। कुनकुने रहे, कुनकुने रहे
तो नहीं। उबलोगे जब, तभी जागोगे।
तुमने एक बात देखी? अगर मधुर
स्वप्न चलता हो तो नींद नहीं टूटती, दुख-स्वप्न में टूट जाती
है। अगर तुम गिर पड़े हो पहाड़ से सपने में और गिरते ही जा रहे हो, गिरते ही जा रहे हो, तो एक घड़ी आएगी जब घबड़ा कर आंख
खुल जाएगी। कि किसी ने तुम्हारी छाती पर चट्टान रख दी है।...और तुम दबते ही जा रहे
हो, दबते ही जा रहे हो, दबते ही जा रहे
हो...एक घड़ी आएगी कि आंख खुल जाएगी।
प्यास की पीड़ा ही सपनों को तोड़ती है, और कोई
चीज नहीं तोड़ सकती। इसलिए सदगुरु वही है जो तुम्हारे भीतर प्यास की पीड़ा को उमगाए,
जगाए, प्रज्वलित करे, ईंधन
दे। और डालता जाए ईंधन तुम में कि तुम्हारी लपट बुझे नहीं, कि
तुम लपट ही हो जाओ, कि लपट में आत्मसात हो जाओ।
यहीं भेद है सच्चे गुरु का और मिथ्या गुरु
का। मिथ्या गुरु देता है सांत्वना, संतोष; लीपापोती
करता है। कहता है: घबड़ाओ मत सब ठीक है, कि भरोसा रखो सब ठीक
हो जाएगा; कि चुप रहो, रोओ मत, सब परमात्मा जानता है। वह रहीम है, रहमान है,
महाकरुणावान है। उसकी दया होगी। देर होगी, मगर
अंधेर नहीं है।
ये मिथ्या गुरुओं के वचन हैं--देर होगी, अंधेर नहीं
है! मिथ्या गुरु सत्य नहीं देता, सांत्वना देता है। और इसलिए
मिथ्या गुरुओं के पास बड़ी भीड़ इकट्ठी होगी। क्योंकि सभी सांत्वना के लिए आतुर हैं।
कोई मलहम-पट्टी कर दे, कोई घाव को ढांक दे, कोई पीड़ा को पोंछ दें, विस्मरण कर दे, कोई ऐसा कर दे कि चलो थोड़ी देर को ही सही कि भजन-कीर्तन में डूब जाएं और
भूल जाएं सारी चिंताओं का जाल। घाव रिस रहे हैं, दुख रहे हैं;
कोई फूल रख दे, गुलाब के फूल रख दे घावों पर
कि दिखाई पड़ने बंद हो जाएं। कोई तुम्हें धोखा दे दे ऐसा कि तुम धोखे में आ जाओ। यह
तुम्हारी मांग है, यह तुम्हारी चाह है।
इसलिए सदगुरु के पास तो केवल साहसी, कहना
चाहिए दुस्साहसी ही, इकट्ठे होते हैं। क्योंकि तुम्हारे घाव
पर रखे फूल को वह हटा देगा। सांत्वना देना तो दूर; जो
सांत्वना तुम्हारी थी, वह भी छीन लेगा। संतुष्टि देना तो दूर,
असंतुष्टि को भड़काएगा। क्योंकि जब तक प्यास ऐसी प्रज्वलित न हो जाए
कि प्यास ही प्यास बचे, तुम्हें यह भी पता न रहे कि मैं हूं,
कि प्यासा भी कोई है--प्यार ही प्यास बचे!...जब तुम्हारी धुन में एक
प्यास रह जाती है परमात्मा की, बस उसी क्षण घटना घट जाती है।
तुम पूछते हो हितेन: आप रोज इतनी पिलाते हो, फिर भी तृप्त
होने के बजाए प्यास दिन ब दिन बढ़ती जाती है। वही प्रयोजन है। तुम भला तृप्त करने
आए होओ प्यास मैं यहां भड़काने को बैठा हूं। मैं तुम्हारे भीतर की आग बुझाना नहीं
चाहता। तुम्हारी आग बुझ गई तो तुम मुर्दा हो जाओगे। तुम्हारी आग ही तो तुम्हारा
जीवन है। और तुम्हारी आग ही तो तुम्हारी परमात्मा को पाने की संभावना है।
मैं चाहता हूं कि और बढ़ो, और बढ़ो।
धुआं तो मिट जाए, शुद्ध लपट रह जाए--निर्धूम लपट! बस उसी
क्षण मिलन हो जाएगा तब है तृप्ति।
तृप्ति तो भीतर घटेगी, मैं नहीं
दे सकता। अतृप्ति मैं दे सकता हूं। अतृप्ति मैं बढा सकता हूं। और उसी अतृप्ति की
पूर्णता पर तृप्ति घटित होती है।
कुछ बातें हैं जो मांगे से नहीं मिलतीं, क्योंकि
वे तुम्हारे भीतर मौजूद ही हैं। मांगने का अर्थ है: बाहर। बाहर नजर लगाए हो। मुझे
पर नजर मत लगाओ। मुझ से इशारे ले लो और नजर भीतर लगाओ। सरोवर तुम्हारे भीतर है,
मधुकलश तुम्हारे भीतर है।
हमें तो स्नेह के दो बूंद मांगे भी नहीं
मिलते।
पड़े हैं स्वप्न जैसे रात के वीरान साए हों
पड़े अरमान जैसे अब हमेशा को पराए हों
अंधेरा इस कदर छाया कि भय के मेघ छाए हों
किसी के स्नेह के दो बूंद मांगे भी नहीं
मिलते।
न पूरा गीत होता है न मन का मीत मिलता है
जकड़ ले प्राणों से न वह मनजीत मिलता है
विकल हैं बूंद स्वाति की न कोई सीप मिलता है
हमें तो स्नेह के दो बोल मांगे भी नहीं
मिलते।
घिरी आती चतुर्दिक अधबुझी तृष्णा बुझे मन की
सिसकती, गूंजती, कुचली
गई जो प्यास जीवन की
सदा को छा गई हर सांस में आवाज बिछुड़न की
हमें तो स्नेह के दो बूंद मांगे भी नहीं
मिलते।
मांगने से कभी कुछ मिला ही नहीं है। बिन
मांगे मोती मिले,
मांगे मिले न चून। मांगोगे तो कुछ न पाओगे, मांगने
के कारण ही तो गंवाते गए हो। मुझसे भी मत मांगना। किसी से मत मांगना। जागना है भीतर।
क्योंकि जिसे तुम मांग रहे हो, तुम्हारे भीतर मौजूद है।
मधुकलश हो तुम!
न पूरा गीत होता है न मन का मीत मिलता है
जकड़ ले प्राण प्राणों से न वह मनजीत मिलता
है
विकल हैं बूंद स्वाति की न कोई सीप मिलता है
हमें तो स्नेह के दो बोल मांगे भी नहीं
मिलते।
किसको मिले हैं? कब मिले
हैं? मांगने से कुछ मिलता नहीं। मांगना राह नहीं है पाने की।
मगर लोग मांगते ही रहे हैं, मांगते ही चले जाते हैं। संसार
से मांगते हो। फिर संसार से छूटते हो तो परमात्मा से मांगने लगते हो, मगर मांग जारी रहती है।
मैं चाहता हूं। मांग छोड़ो, भिखमंगापन
छोड़ो। वासना प्रार्थना का रूप न ले ले।
एक कण दे दो न मुझको!
तृप्ति की मधु मोहिनी का एक कण दे दो न
मुझको
एक कण दे दो न मुझ को!
तुम गगन-भेदी शिखर हो मैं मरुस्थल का कगारा
फूट पायी पर नहीं मुझ में अभी तक प्राण-धारा
जलवती होती दिशा में पा तुम्हारा ही इशारा
फूटकर रसदान देते सब तुम्हारा पा सहारा।
गूंजती जीवन-रसा का एक तृण दे दो न मुझ को!
एक कण दे दो न मुझको!
जो नहीं तुम ने दिया अब तक मुझे मैंने सहा
सब,
प्यास की तपती शिलाओं में जला, पर कुछ
कहा कब?
तृप्ति में आकंठ उमड़ी डूबती थी मृगशिरा जब
आग छाती में दबाए भी रहा मैं देवता! तब
तुम पिपासा की बुझन का एक क्षण दे दो न
मुझको
एक कण दे दो न मुझको!
तुम मुझे देखो न देखो प्रेम की तो बात की
क्या
सांझ की बदली न जब मुझको मिलन की रात ही
क्या
दान के तुम सिंधु मुझ को हो भला यह ज्ञात ही
क्या
दाह में बोले न जो उसका तुम्हें प्रणिपात ही
क्या
छांह की ममता-भरी श्यामल शरण दे दो न मुझको
एक कण दे दो न मुझको!
मांगते ही रहोगे? जन्मों-जन्मों
मांगते ही रहे हो। छोड़ो अब मांगना! अब प्यास को बाहर से बुझाना नहीं है। बाहर से
बुझाना ही तो भूल थी। अब प्यास को तो भीतर ही भीतर सम्हालना है। अब प्यास से भर
जाओ, मांगो मत। चुप्पी साध लो मांगने की दिशा में। और प्यास
का सरोवर सघन होने दो। प्यास की ऊर्जा इकट्ठी होने दो ऐसा कि बस प्यास ही प्यास रह
जाए। नख से शिख तक बस प्यास ही प्यास रह जाए।
जिस क्षण तुम्हारा कण-कण प्यासा होगा, जिस क्षण
तुम्हारा समग्र प्राण प्यासा होगा--उसी क्षण घटना घटती है, क्रांति
घटती है। एक क्षण में घट जाती है। खो जाता है एक जगत--वासनाओं का, मृगतृष्णाओं का! और एक दूसरे जगत का प्रादुर्भाव होता है--महातृप्ति का
जगत, सच्चिदानंद का लोक! उसे मोक्ष कहो, निर्वाण कहो, जो भी कहना चाहो!
हितेन! मैं तो तुम्हें पिलाता ही इसलिए हूं
ताकि तुम्हारी प्यास जगे। यह प्यास बुझाने का प्रयास नहीं चल रहा है; प्यास को
भड़काने की चेष्टा हो रही है। इसलिए जो सांत्वना के लिए आ गए हैं, वे गलत जगह आ गए हैं। जो सत्य की खोज में आए हैं, वे
ही मुझ तक पहुंच पाएंगे। जो सांत्वना की तलाश में आए हैं, देर-अबेर
बिछुड़ जाएंगे। उनसे मेरा संबंध न जुड़ सकेगा।
सांत्वना दो कौड़ी की है। मिले तो सत्य, पाने
योग्य है कुछ तो सत्य। और सत्य के मिलने से एक संतोष मिलता है। वह बात ही और है।
एक संतोष है दीन-हीन का। दीन-हीन का जो संतोष है, उसका
सिद्धांत है--संतोषी सदा सुखी! यह दुखी आदमी की चेष्टा है। संतोष बांध-बांध कर
सुखी होने की आशा बांध रहा है।
एक संतोष है दीन-हीन का; एक संतोष
है तृप्त का, परितृप्ति का। उसकी परिभाषा है--सुखी सदा
संतोषी। वहां सुख पहले है; संतोष छाया है। दीन-हीन में संतोष
पहले है, सुख छाया है। संतोष थोपा हुआ है, आरोपित है; दुख को भुलाने का उपाय है।
भुला सकते हो दुख को, मगर भुलाए
दुख लौट-लौट आते हैं। इतना आसान जीवन का रूपांतरण नहीं है।
मैं तुम्हें दुख भुलाने को नहीं कहता। मैं
तो कहता हूं: दुख के प्रति जागो। यही दुख का प्रयोजन है। यह जो कांटा चुभ रहा है
जीवन में, इसके प्रति जागो। इस चुभन को मिटाओ मत। शामक दवाएं लेकर इस चुभन को भुलाओ
मत। और तुम्हारे भजन-कीर्तन जो तुम्हें सिखाए गए हैं अब तक, वे
केवल शामक दवाएं हैं, ट्रैन्कुलाइजर्स हैं। उन से थोड़ी देर
को राहत मिल जाती है, फिर सब दुख की दुनिया वैसी की वैसी
शुरू हो जाती है। ऐसी राहत तो बहुत बार पा ली, हाथ क्या लगता
है? सिर्फ समय गंवाया जा रहा है।
नहीं, मैं तुम्हें संतुष्ट नहीं करना
चाहता, न सांत्वना देना चाहता हूं। मेरा प्रयोजन है कि
तुम्हें संक्रांति दूं, संतोष नहीं। सत्य दूं, सांत्वना नहीं। और सत्य देना नहीं होता; सिर्फ प्यास
पूरी हो जाए तो सत्य भीतर ही आविष्कृत होता है।
चौथा प्रश्न:
भगवान! न जाने किस पुण्य
के प्रताप से,
न जाने कौन से जन्म-जन्मांतर की नेह-डोर से बंधकर आपकी अनुकंपा,
आपके यह सान्निध्य का सुअवसर प्राप्त हुआ, कि
आपके पवित्र कर-कमलों से संन्यास प्राप्त कर धन्य हो गया। भगवान! हमारा सारा देश
कर्जदार है आपका। विश्व के कोने-कोने से अनवरत प्रतिदिन लोग चले आ रहे हैं
यहां--प्रेम के सागर में डूबे जा रहे हैं। आकंठ पी रहे हैं--बरसते अमृत की रसधार
को।
बनी रहे अंगूर लता ये, जिससे
बनती है हाला।
बनी रही ये माटी जिससे
बनता है मदिरा प्याला।
बने रहें ये पीने वाले, बनी रहे
ये मधुशाला।
स्वामी चिन्मय योगी!
निश्चय ही मेरे पास जो आ गए हैं, अकारण नहीं आ गए हैं, अनायास
नहीं आ गए हैं। लंबी खोज है पीछे, लंबी तलाश है पीछे।
मुझ से संबंध ही उनका बन सकता है, जो
जन्मों-जन्मों से खोज रहे हैं। मुझसे संबंध तथाकथित धार्मिकों का नहीं बन सकता,
जिनका धर्म केवल एक औपचारिकता है; जिनका धर्म
एक तरह की सामाजिकता है; जिनका धर्म एक तरह का दिखावा है;
जिनका धर्म जन्मगत है। किसी घर में पैदा हुए हैं--संयोग है कि हिंदू
हैं कि जैन हैं कि बौद्ध हैं। संयोग है, तो मंदिर भी जाते
हैं, क्योंकि बचपन से ले जाए गए हैं। एक प्रोग्रेम मन में
डाल दिया गया है मंदिर जाने का। एक टेप संस्कारों की भीतर भर दी गई है। तो राम-राम
भी दोहरा लेते हैं। कष्ट आता है तो प्रभु का स्मरण भी कर लेते हैं, प्रार्थना भी कर लेते हैं। मगर न प्रार्थना छूती है हृदय को, न प्रभु-स्मरण छूता है हृदय को। मंदिर में झुक भी आते हैं और जरा भी नहीं
झुकते। अहंकार कड़ा का कड़ा, अकड़ा का अकड़ा रहता है। कभी-कभी
सत्यनारायण की कथा भी करवा लेते हैं। गांव में प्रतिष्ठा बढ़ती है, लोग धार्मिक समझने लगते हैं।
और जितना तुम्हें लोग धार्मिक समझें, उतना ही
बेईमानी करने की सुविधा मिल जाती है, पाखंड की सुविधा मिल
जाती है। जितना लोग तुम्हें भला समझें, उतना ही तुम पर संदेह
नहीं करते। और संदेह न करते हों तो उनकी जेबें आसानी से काटी जा सकती हैं, उन्हें आसानी से लूटा जा सकता है।
तो धर्म तुम्हारी दुकान का हिस्सा है। तुमने
धर्म को भी अपने व्यवसाय का अंग बना लिया है, ऐसे लोगों का मुझसे कोई संबंध नहीं
हो सकता। मुझसे तो संबंध उनका हो सकता है जिनका धर्म एक सांयोगिक घटना नहीं
है--जिनका धर्म एक लंबी यात्रा है, एक लंबी खोज; जो टटोलते रहे हैं; गिरते हैं, उठते हैं; जन्मों-जन्मों से खोजते रहे हैं।
तुम ठीक कहते हो चिन्मय योगी: न जाने किस
पुण्य के प्रताप से,
न जाने कौन से जन्म-जन्मांतर की नेह-डोर से बंधकर...। निश्चय ही
किसी नेह-डोर से बंधे हुए ही तुम्हारा आना हुआ है।
जो इस संन्यास की गंगा में डुबकी ले रहे हैं, उनसे
संबंध मेरा नया नहीं है। इसीलिए तो इतना साहस जुटा पाते हैं। कोई पहचान है जनम-जनम
की, इसीलिए इतनी श्रद्धा कर पाते हैं। नहीं तो मुझ जैसे आदमी
पर श्रद्धा करना अत्यंत कठिन बात है। मैं तो हर तरह से कठिन किए दे रहा हूं कि तुम
मुझ पर श्रद्धा करना कठिन से कठिन हो जाए। मैं तो तुम्हारी कोई अपेक्षा पूरी नहीं
कर रहा हूं कि तुम मुझ पर श्रद्धा आसानी से कर सको। मेरी तरफ से तो पूरा उपाय यही
है कि श्रद्धा करनी करीब-करीब असंभव हो जाए। फिर भी जो श्रद्धा कर सकेगा, स्वभावतः वह ऐसे ही नहीं आ गया है, अनायास। फिर भी
जो मुझे देख पाएगा, फिर भी जो धोखा नहीं खाएगा, फिर भी जो कहेगा कि मैं तुम्हें पहचानता ही हूं; तुम
कितने ही उपाय करो, तुम मेरी पहचान को न डगमगा पाओगे,
कि मैं तुम्हें जानता ही हूं, कि तुम किसी भी
आवरण में खड़े हो जाओ तो भी मैं तुम्हें पहचान लूंगा--उन थोड़े से लोगों से ही मैं
संबंध जोड़ना चाहता हूं।
यह एक महत प्रयोग हो रहा है, यह
भीड़-भाड़ के लिए नहीं है। इसलिए भीड़-भाड़ से बचने के तो मैंने बहुत उपाय कर लिए हैं।
इतनी अफवाहें हैं मेरे बाबत कि भीड़-भाड़ वाला आदमी तो यहां आ ही नहीं सकता, द्वार से नहीं झांक सकता। यहां, तो जिसकी खोज ऐसी
अनंत है, ऐसी दुर्धर्ष है कि सब कुछ गंवाने को तैयार
हो--लोक-लाज, मान-मर्यादा--वही आ सकेगा।
तुम आ गए हो यहां--कोई आह्वान सुन कर, कोई
चुनौती सुनकर! अब तक भी तुम खोजते ही रहे हो। ठीक न पड़े होंगे कदम, इसलिए मंजिल न मिली। मगर गलत कदम भी पड़ते रहें ठीक मंजिल की आशा में,
तो मंजिल को आज नहीं कल मिलना ही होता है।
इसे स्मरण रखना, गलत कदम
भी अगर ठीक मंजिल की आशा में पड़ते हैं तो ठीक हैं। और ठीक कदम भी अगर गलत मंजिल की
आशा में पड़ते हैं तो गलत हैं। ठीक रास्तों की खोज में कोई भटक भी जाए तो भटकता
नहीं है। और भटकता हुआ कोई ठीक रास्तों पर भी चलता रहे तो पहुंचता नहीं। यह सवाल
अभिप्राय का है।
उलझता गया मैं, सुलझता
गया मैं,
न जाने किधर से किधर आ गया मैं!
चला किन्तु मैंने नहीं राह जानी,
सुनी बस डगर की किसी से कहानी,
अभी तक न मंजिल दिखाई मुझे दी,
नहीं राह की ही मिली कुछ निशानी।
भटकता गया मैं, अटकता गया
मैं,
न जाने किधर से किधर आ गया मैं!
जहां भी रुका मैं, नहीं था
किनारा,
जहां भी झुका मैं, नहीं था
सहारा,
न था स्नेह का स्वर, न लौ नेह
की थी,
जहां भी पुकारा, जहां भी
निहारा।
हरखता गया मैं, परखता गया
मैं,
न जाने किधर से किधर आ गया मैं!
विचारा कहूं कुछ, अधर
थरथराए,
विचारा गहूं कुछ, कि कर
थरथराए,
हुआ दौड़ने को, लगा लड़खड़ाने,
सिहर कर हृदय के स्वर थरथराए।
झिझकता गया मैं, ठिठकता
गया मैं,
न जाने किधर से किधर आ गया मैं!
मुझे बंद होकर सुहाता न जीना,
घिरा हेम से जो, जड़ा मैं न
मीना,
रहा चूर होकर कणों के कणों में
चमकता अधिक जो, वही मैं
नगीना।
बिखरता गया मैं, निखरता
गया मैं,
न जाने किधर से किधर आ गया मैं!
उलझता गया मैं, सुलझता
गया मैं,
न जाने किधर से किधर आ गया मैं!
जो न मालूम कितने-कितने रास्तों पर भटकते
हुए, न मालूम कितने-कितने कांटो से उलझते हुए एक दिन अचानक मेरे पास आ जाते हैं,
उन्हें भरोसा भी नहीं आता कि मंदिर मिल गया।! वे अवाक ही रह जाते
हैं, थोड़ी देर को कुछ सूझता नहीं है। थोड़ी देर को तो सिर्फ
आश्चर्यचकित जैसे श्वासें अवरुद्ध हो जाती हैं।
मगर वही पहचान है कि मिल गया घर, जिसकी
तलाश थी, कि अब कुछ हो सकेगा। तैयार ही आए हो। क्योंकि जितनी
ठोकरें खाई हैं, उतने ही तैयार हो गए हो। तैयार ही आए हो,
इसलिए मेरा आमंत्रण स्वीकार कर सके हो। यह आमंत्रण कायरों के लिए तो
नहीं है। यह आमंत्रण तथाकथित समझदारों, चालाकों के लिए तो
नहीं है। यह आमंत्रण तो साहसियों के लिए है। यह आमंत्रण तो दीवानों के लिए है।
उस पार बुलाया अंबर ने पथ छोड़! मुझे जाना
होगा
जब एक भयानक अस्थिरता ही चंचल प्राण किए
देती
निसंग अमावस की रजनी हो दीपों की बलि सी
लेती
जब मौन विपथगा की ज्वाला में जलते हों मेरे
साथी
जब गायक, नायक, अभिशापी,
सबकी हो नींद गई लूटी
तुम चलने का सुख क्या जानो--पल भर की आंच
सहे तुम तो
उस पर बुलाया अंबर ने पथ छोड़! मुझे जाना
होगा
खोई झंझा की याद लिए उतरी संध्या सागर तट पर
प्यासे प्राणों की तृष्णा से कब कोई भी सपना
बढ़कर
उफनाते जीवन की वहशत फिर आल प्रलय सा भरती
है
फिर एकाकी उन्माद लिए मैं जाता सागर को
सत्वर
है वक्त कहां--सुधि भी कर लूं मिट्टी में
कितने चमन खिले
उस पार बुलाया अंबर ने पथ छोड़! मुझे जाना
होगा
आजीवन अमरित से न बुझे वह प्यास बड़ी दुर्लभ
मरु सी
ममता की मारी बस्ती में अपनी तो रूह रही
प्यासी
भंवरों में याद किया किसने--झूठे लगते तट के
बंधन
खोलो वातायन खोला! मैं भर आया लपटों का वासी
निसंग निशा जगते बीती--सुख-दुख की छूट चली
छाया
उस पर बुलाया अंबर ने पथ छोड़! मुझे जाना
होगा
चलते रहे हो तुम किन्हीं रास्तों पर अब तक।
मेरी पुकार सुनी,
मेरा आह्वान सुना तो अब तुम्हें सब पथ छोड़ देने हैं। अब तुम्हें
पथों से मुक्त हो जाना है। चौंकोगे तुम, जब मैं यह कहूं
तुमसे कि पथ छोड़ दो तो मंजिल अभी मिल जाए!
यह पथहीन-पथ है सत्य का। मार्गों से नहीं
मिलती मंजिल। मार्ग ही भटका देते हैं। सारे मार्ग छोड़कर जो बैठ जाता है, चलना ही
छोड़कर जो बैठ जाता है, वही पहुंचता है।
मैं तुम्हें बैठना सिखाता हूं। मैं तुम्हें
एक ही कला सिखाता हूं कि दौड़ना कैसे छूट जाए। न शरीर दौड़े, न मन
दौड़े--बस उसी घड़ी ध्यान है। शरीर भी थिर है, मन भी थिर है। न
कंपन देह में, न कंपन चित्त में। उस अकंप दशा में ही बस
तालमेल बैठ जाता है, मंजिल उपलब्ध हो जाती है। पता चलता है
कि मंजिल उपलब्ध ही थी; मैं दौड़ता रहा, सो चूकता रहा।
लाओत्सु ने कहा--खोजो, और खोते
रहोगे। खोज छोड़ दो और पा लो। तुमने सुनी आवाज, आ गए। सब
समझने की फिक्र करना, क्योंकि तुम्हारे जीवन का अब सर्वाधिक
महत्वपूर्ण क्षण शुरू होता है।
संन्यास तुमने लिया, यह कोई
ऊपर-ऊपर की बात नहीं है। जो नहीं जानते जिन्होंने कभी पी ही नहीं है, जिन्होंने कभी स्वाद नहीं लिया है, वे तो समझते हैं
कि ऊपर-ऊपर की बात है--कपड़े रंग लिए, कि माला पहन ली,
कि नाम बदल लिया। यह ऊपर-ऊपर की बात नहीं है, भीतर-भीतर
की बात है। यह ऊपर-ऊपर तो केवल घोषणा है जगत के लिए। घोषणा है, क्योंकि घोषणा भी सहयोगी होती है। क्योंकि घोषणा संघर्ष को जन्मा देती है।
क्योंकि घोषणा तुम्हें अड़चन में डाल देगी। क्योंकि घोषणा करते ही बाहर से हजार तरह
के उपद्रव शुरू हो जाएंगे। उन सारे उपद्रवों को ही मैं तपश्चर्या कहता हूं। वही
असली तपश्चर्या है। और उन सारे उपद्रवों के बीच जो शांत होकर बैठ सकता है, वही पहुंच सकता है।
तुमसे नहीं कहता संसार छोड़ो। कहता हूं ठीक
बाजार में ही परमात्मा से मिलन होगा। तुमसे नहीं कहता भगोड़े बनो, क्योंकि
मानता हूं मैं कि संसार चुनौती है परमात्मा को पाने की। संसार के साथ ही संघर्षरत
जो शांत हो सकता है, उसकी शांति ही सच्ची है। और संसार में
होकर जो संन्यस्त है, उसका संन्यास ही सच्चा है।
संसार छोड़कर भाग गया संन्यासी तो वैसा है, जैसा एक
अखबार ने, जो अपनी सौवीं वर्षगांठ मना रहा था, सारे देश में इश्तहार बांटे, विज्ञापन किया, कि जो भी देश का सबसे ज्यादा चरित्रवान व्यक्ति हो...सब लोग अपने-अपने
चरित्र के संबंध में लिखें। जो सर्वाधिक चरित्रवान माना जाएगा उसे ही हम पुरस्कृत
करेंगे, सम्मानित करेंगे। ये सौ वर्ष पूरे हुए, इन सौ वर्ष की पूर्ति में हम इस देश के सर्वाधिक चरित्रवान व्यक्ति को
सम्मानित करना चाहते हैं।
क्योंकि वह समाचार पत्र जो था, बड़ी नैतिक
धारणाओं वाला समाचार-पत्र था, इसलिए उन्होंने यह विधि खोजी
थी अपनी सौवीं वर्षगांठ मनाने की। हजारों-लाखों पत्र आए। एक पत्र चुना गया। उस
पत्र के लेखक ने लिखा था कि मैं न शराब पीता हूं, न तो
धूम्रपान करता हूं, न पान खाता हूं, न
मांसाहार, न अंडे। रूखी-सूखी रोटी, दाल-सब्जी,
जैसी मिल जाए। कंकड़ भी पड़े हों तो ऐतराज नहीं। जितनी मिल जाए,
उतनी बहुत। चोरी नहीं करता। बेईमानी नहीं करता। लूट-खसोट नहीं करता।
किसी से दर्ुव्यवहार नहीं करता। किसी को गाली नहीं देता। सिनेमा नहीं देखता,
होटलों में नहीं जाता, जुआघरों में नहीं जाता।
ऐसी फेहरिश्त थी बढ़ती, लंबी होती जाती। और अंत में उसने कहा
था कि बस अब कुछ दिन की बात और है; जरा यहां से बाहर हो जाऊं
तब देखना। वह जेलखाने से लिख रहा था--कि जरा यहां से बाहर हो जाऊं, फिर देखना।
अब जेलखाने में सच्चरित्रता पैदा हो जाए तो
आश्चर्य क्या! लेकिन जेलखानों की सच्चरित्रता का क्या मूल्य है? और तुम
जिनको संन्यासी, साधु-संत कहते रहे हो, वे एक सूक्ष्म कारागृह में कैद हैं--अपने ही द्वारा निर्मित। तुम्हारी
अपेक्षाओं और उनके अहंकारों, दोनों के द्वारा निर्मित एक
सूक्ष्म कारागृह में कैद हैं।
अब जैन मुनि जुआ नहीं खेल सकता; खेलेगा तो
कहां खेलेगा? श्रावक पीछे लगे रहते हैं, चौबीस घंटे नजर रखते हैं कि मुनि महाराज कहां हैं? बैठे
ही रहते हैं अड्डा जमाए। मुझ से मिलने आना चाहते हैं जैन मुनि, मुझे खबर पहुंचाते हैं कि मिलना चाहते हैं, मगर आ
नहीं सकते, क्योंकि श्रावक...। अगर उनको पता चल जाए कि वहां
गए तो हमारी प्रतिष्ठा धूल में मिल जाए। कभी-कभी कोई आया भी है मिलने तो चोरी से
आया है। जैन मुनि को चोरी से मिलने आना पड़े! श्रावकों का ऐसा डर! और डर स्वाभाविक
है, क्योंकि उनकी अपेक्षाएं टूटें तो तत्क्षण वे सम्मान
समाप्त कर देते हैं। सम्मान की जगह अपमान आ जाता है।
एक जैन साध्वी मुझे मिलने आती थी। जैन
साध्वियों के मुंह से बास आती है, क्योंकि दातौन नहीं करना। जैन साधुओं के मुंह
से बास आती है, शरीर से बास आती है, क्योंकि
स्नान नहीं करना। उसके मुंह से बास नहीं आई, वे मेरे बिलकुल
पास बैठकर बात कर रही थी तो मैंने कहा कि और सब बातें पीछे होंगी, पहले तू मुझे यह बता कि तेरे मुंह में से बास क्यों नहीं आ रही?
उसने कहा: आपसे क्या छिपाना...! उसने जल्दी
से अपनी झोली में,
जो जैन साध्वियां रखती हैं, टुथपेस्ट निकालकर
मुझे बताया। छिपाए हुए थी, शास्त्र इत्यादि के नीचे दबाया
हुआ था। टुथपेस्ट भी चोरी--से करना होता है! क्योंकि अगर पता चल जाए श्रावकों को,
बस भ्रष्ट हो गया साधु!
जुआ खेलना तो दूर, शराब पीना
तो दूर, कोकाकोला भी जैन मुनि छिपाकर रखते हैं। मैं जानता
हूं, इसलिए कह रहा हूं। यह कोई चरित्र हुआ! इसका क्या मूल्य
है? इसका दो कौड़ी भी मूल्य नहीं है! स्नान नहीं कर सकते तो
चोरी से गीला कपड़ा भिगोकर पूरे शरीर को रगड़ डालते हैं। उसकी भी मनाही है। मगर
स्नान करेंगे तो दिखाई पड़ जाएगा। बाल गीले होंगे तो कोई कहेगा कि क्या हुआ। तो बस
एक रूमाल को गीला करके शरीर को रगड़ लिया--स्पंज स्नान! मगर वह भी शास्त्रों के
विपरीत है, वह भी चोरी से करना पड़ता है!
इस तरह के चरित्र को सम्हालने का मतलब यह है, तुम लोगों
की अपेक्षाएं पूरी कर रहे हो! अंधों की अपेक्षाएं वे लोग पूरी कर रहे हैं, जिनको तुम समझते हो आंख वाले हैं! अंधों की अपेक्षाएं आंखवाले पूरी करते
हों तो आंख वाले अंधों से भी ज्यादा बड़े अंधे हैं। कोई जागा हुआ व्यक्ति तुम्हारी
अपेक्षाएं पूरी नहीं कर सकता। हां, तुम्हारी अपेक्षाएं
तोड़ेगा, हर तरह से तोड़ेगा। फिर भी जो सत्य के खोजी हैं,
शायद इसीलिए कि कोई एक व्यक्ति है जो तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी नहीं
करता, शायद इसीलिए खिंचे चले आएंगे। मगर सत्य के खोजी ही
खिंचे चले आएंगे। दूसरे, जो अपनी अपेक्षाओं को पूरा करने का
रस लेना चाहते हैं, जो दूसरों के चरित्रों के मालिक होना
चाहते हैं...दिखाने को शिष्य मालूम पड़ते हैं लेकिन वे गुरु के गुरु हैं, क्योंकि गुरु उनको देखकर चलता है कि शिष्य कहीं नाराज न हो जाए, कि शिष्य कहीं छोड़कर न चला जाए, कि शिष्य कहीं कहने
न लगे कि गुरु भ्रष्ट हो गए कि इन्होंने दातौन कर ली, कि
हमने अपनी आंख से दातौन करते देखा, कि इन्होंने स्नान कर
लिया, कि इन्होंने दो बार भोजन ले लिया।
यह जो शिष्य की मानकर गुरु चल रहा है, यह दो
कौड़ी का गुरु है! समाज की मानकर जो संत चल रहा हो, वह संत ही
नहीं है। संतों के पास तो बस थोड़े से वे लोग इकट्ठे हो पाते हैं जो सब दांव पर
लगाने को राजी हैं--जो जुआरी हैं।
तुम आ गए हो यहां, निश्चित
ही किसी पुण्य के प्रताप से! और अब संन्यस्त भी हो गए हो तो अब अपनी स्वतंत्रता की
घोषणा करना, क्योंकि संन्यास यानी स्वतंत्रता। अब अपने
व्यक्तित्व को अनुकरण मत बनाना। अब अपने व्यक्तित्व को निखारना। तुम जैसे हो,
वैसे ही निखारना। किसी और की अपेक्षाएं पूरी करने को तुम पैदा नहीं
हुए हो। तुम अपनी आत्मा को संपूर्ण करने को पैदा हुए हो, किसी
की अपेक्षाएं पूरी करने को पैदा नहीं हुए हो। फिर मान मिले कि अपमान, सत्कार मिले कि असत्कार, चिंता न करना।
एक ही जगत में उपाय है सत्य को पाने
का--सम्मान-अपमान को बराबर समझना। चले जाना अपनी धुन में। उठना अपनी धुन में, बैठना
अपनी धुन में। दुनिया क्या कहती है क्या नहीं कहती है, इसकी
फिक्र ही मत लेना। बस भीतर एक स्मरण रहे कि जो भी मैं करूं वह जागरूकता से करूं;
मेरी जागरूकता जिस चीज में गवाही दे, वही करूं
और जिसमें मेरी जागरूकता गवाही न दे, वह न करूं। चाहे
शास्त्र कहते हों करो, मगर मेरी जागरूकता कहती हो नहीं,
तो शास्त्र गलत। चाहे शास्त्र कहते हों मत करो, लेकिन मेरी जागरूकता कहती हो करो, तो शास्त्र गलत।
शास्त्र जहां मेरी जागरूकता से मेल खाते हों, बस वहीं सही है
और जहां मेरी जागरूकता के विपरीत जाते हों वहां दो कौड़ी के हैं, उनका कोई मूल्य नहीं है।
जागरूकता शास्त्र है संन्यासी का। वही उसकी
कसौटी है। वह तुम्हारे भीतर है। संन्यासी होने का निर्णय जागरूक होकर जीने का
निर्णय है।
और तुम ठीक ही कहते हो:
बनी रहे अंगूर लता ये, जिससे
बनती है हाला।
बनी रहे ये माटी जिससे बनता है मदिरा
प्याला।
बने रहें ये पीने वाले, बनी रहे
ये मधुशाला।
मधुशाला बनी ही रहती है; लोग बदलते
जाते हैं। पीने वाले बदल जाते हैं, पिलानेवाले बदल जाते हैं;
लेकिन मधुशाला कहीं न कहीं, पृथ्वी के किसी न
किसी कोने में बनी ही रहती है। इसीलिए तो मनुष्य जी पा रहा है। इसीलिए तो मनुष्य
के जीवन में थोड़ी सी सुगंध है। इतने युद्धों, इतनी हिंसाओं,
इतनी राजनीतियों, इतनी जाल साजियों के बाद भी
मनुष्य की आंखों में थोड़ी चमक है, थोड़ी गरिमा है। किस के
कारण? कहीं कोई मधुशालाएं पृथ्वी पर चलती रहती हैं, जहां परमात्मा उतरता रहता है; जहां आकाश से अमृत
झरता रहता है। कभी कोई बुद्ध, कभी कोई मोहम्मद, कभी कोई जीसस, कभी कोई जरथुस्त्र, कहीं न कहीं, किसी न किसी कोने में कुछ दीवाने
इकट्ठे होते रहते हैं और पुकारते हैं परमात्मा को। परमात्मा बरसता है और बरसता रहा
है। उन थोड़े से लोगों के कारण मनुष्य के जीवन में नमक है, नहीं
तो तुम कभी के बेस्वाद हो गए होते। उन थोड़े से लोगों के कारण पृथ्वी हरी-भरी है
अन्यथा तुम कभी के पशुओं में वापिस मिल गए होते। उन थोड़े से लोगों के कारण आदमी
गौरवान्वित है और परमात्मा की तरफ पंख फैलाने की क्षमता शेष बनी है, मिट नहीं गई है।
मैं न रहूंगा, तुम न रहोगे; मधुशाला रहेगी। पीने वाले बदल जाएंगे, पिलानेवाले
बदल जाएंगे, मधुशाला चलती रहती है। कभी इधर प्रकट होती है
कभी उधर प्रकट होती है, कभी इस रूप में कभी उस रूप में;
मगर मधुशाला नहीं मिटती।
रवींद्रनाथ ने कहा है कि जब भी मैं किसी
बच्चे को पैदा होते देखता हूं तो झुक जाते हैं मेरे तन-प्राण परमात्मा के धन्यवाद
में और मेरे हृदय में यह बात गूंज उठती है कि हे प्रभु, तो तूने
अभी भी आदमी पर भरोसा नहीं खोया? एक बच्चा फिर पैदा हुआ! तो
अभी तुझे भरोसा है कि आदमी सम्हलेगा, अभी भी तूने आशा नहीं
त्यागी!
आदमी को देखो तो आशा त्याग देनी थी परमात्मा
को, कभी की त्याग देनी थी! अब हिटलर के बाद और देखने को क्या बचा था! और
स्टेलिन के बाद देखने को और क्या बचा था! कभी की आशा छोड़ देनी थी...नादिरशाह और
तैमूरलंग और चंगेजखान! कभी की आशा छोड़ देनी थी आदमी के बाबत।
रवींद्रनाथ ठीक कहते हैं: हर नया बच्चा जब
पैदा होता है तो परमात्मा की खबर लाता है कि अभी परमात्मा फिर भी आशाविंत है। और
यही एक बड़े अर्थों में भी घटता है--परमात्मा भेजता ही रहता है अपना मधु इस जगत में
बंटने को। तो आशा नहीं छूटी है। आदमी जगेगा ही, यह भरोसा है। कब जगेगा, चाहे निश्चित न हो लेकिन आदमी जगेगा ही। अगर कुछ आदमी जगे हैं तो सारे
आदमी जग सकते हैं।
एक व्यक्ति बुद्ध हुआ तो सारे व्यक्तियों के
बुद्ध होने की घोषणा हो गई! अब तुम सुन लोगे तो ठीक। अभी सुन लोगे तो ठीक, नहीं तो
कल सुनोगे, परसों सुनोगे। इस बुद्ध से नहीं सुनोगे तो किसी
और बुद्ध से सुनोगे। इस मधुशाला में नहीं पी पाए तो किसी और मधुशाला में पीओगे।
मगर मधुशालाएं बनती रहती हैं, उतरती रहती हैं। स्थान बदल
जाते हैं, लोग बदल जाते हैं; मगर इस
जगत का संगीत वही है, एक ही है।
परमात्मा तुम्हें तलाश रहा है, तुम ही
उसे नहीं तलाश रहे हो। यह आग एक तरफ से ही नहीं लगी है, दोनों
तरफ से लगी है; तभी तो मजा है। तुम परमात्मा को तलाश रहे हो,
परमात्मा तुम्हें तलाश रहा है। जब दोनों तरफ से आग बराबर जलती है तो
मिलन हो जाता है। और जहां मिलन हो जाता है वहीं मधुशाला पैदा हो जाती है। जहां
परमात्मा का किसी भी खोजी से मिलन हो जाता है, जहां कोई भक्त
भगवान में लीन हो जाता है और जहां किसी भक्त में भगवान लीन हो जाता है, वहीं मधुशाला खुल जाती है।
मधुशाला शब्द प्यारा है! जब भी कोई मंदिर
जिंदा होता है तो मधुशाला होता है। जब कोई मधुशाला मर जाती है तो मंदिर हो जाती
है। मरी हुई मधुशालाओं के नाम हैं--मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे,
सिनागाग...। ये मरी हुई मधुशालाएं हैं। कभी इन में भी रसधार बही। जब
महावीर थे तो मधुशाला थी। जब महावीर गए तो जैन-मंदिर बचा; यह
लाश है!
जब जीसस थे तो मधुशाला थी; नृत्य था,
महोत्सव था। पीनेवाले थे, पिलाने वाले थे। खूब
ढाली जा रही थी। जब जीसस चले गए तो चर्च बचा। चर्च मरी हुई मधुशाला है। वहां अब
पीनेवाले भी नहीं हैं, पिलाने वाले भी नहीं हैं; बस एक याद रह गई है, एक स्मृति रह गई है। उसी स्मृति
को ढोए जा रहे हैं।
जब नानक थे तो मधुशाला थी। फिर नानक गए तो
मधुशाला गई। अब गुरु तो नहीं है, गुरुद्वारा है। और गुरु के बिना क्या
गुरुद्वारा! किसका द्वार? अकेला द्वार ही रह गया, भीतर कुछ भी नहीं है।
तुर्किस्तान में मुल्ला नसरुद्दीन की कब्र
है। और मुल्ला जब मरा तो वसीयत कर गया कि मेरी कब्र इस तरह से बनाना...। बड़ी अजीब
वसीयत की गई। कब्र अभी भी है बुखारा नगर के बाहर। रास्ते से गुजरते लोग अभी भी
कब्र को देखते और चौंकते हैं। जो भी कब्र के पास जाता है, चौंकेगा
ही, मुल्ला इंतजाम ऐसा कर गया है! मुल्ला वसीयत कर गया है कि
मेरी कब्र पर एक दरवाजा खड़ा कर देना--सिर्फ दरवाजा! दरवाजे पर बड़ा ताला जड़ देना और
चाबी मेरे साथ कब्र में दबा देना और दरवाजे पर लिख देना: बिना आज्ञा भीतर आना मना
है। और भीतर आने की कोई अड़चन ही नहीं हैं, क्योंकि सिर्फ
दरवाजा है, न कोई दीवाल है, न कोई घेरा
है। कब्र खुली है चारों तरफ से, जहां से चाहो चले जाओ;
मगर दरवाजा...उस पर ताला लटका है। कोई भी चौंक जाता है जो भी गुजरता
है। वह भी रुक जाता है क्षण-भर क्योंकि मामला क्या है। भीतर आने की सख्त मनाही है।
बिना आज्ञा भीतर नहीं आ सकते। बड़ा ताला लटका है। और सिर्फ दरवाजा खड़ा है! न कोई
दीवाल है, न कोई घेरा है।
मुल्ला ने खूब मजाक किया। वह उसका आखिरी
मजाक है।
ऐसा ही गुरुद्वारा रह गया--सिर्फ दरवाजा...न
कोई भीतर है! संपदा तो खो गई, संपदा तो उड़ गई। सुवास उड़ जाती है। तुम फूलों
को दबा लो किताबों में, वे सूखे दबे रह जाते हैं। अक्सर लोग
कर लेते हैं यह काम। बाइबिलों में लोग अक्सर गुलाब दबाए होते हैं--सूखे गुलाब! न
सुगंध है, न रंग है, न प्राण है--कुछ
भी नहीं बचा है। न कोई रसधार बची है, सूखा हुआ गुलाब बाइबिल
में दबा है।
मैं एक ईसाई मित्र के घर मेहमान था। उनकी
बाइबिल खोली तो वह सूखा गुलाब मिला। मैंने कहा कि यह खूब रही। वे पूछने लगे: आपने
यह क्यों कहा कि यह खूब रही! मैंने कहा: मैंने इसलिए कहा खूब रही, जैसा यह
गुलाब है ऐसे ही बाइबिल के वचन भी--सुखा गुलाब! ये वचन जीसस के ओठों पर तो बड़े
जिंदा थे! बस जीसस के ओठों पर ही जिंदा हो सकते थे। ये वचन ऐसे हैं कि जीसस जैसे
ओंठ पर ही जिंदा हो सकते हैं, और किसी ओंठ पर जिंदा नहीं हो
सकते। जीसस के ओंठ पर तो ये वचन ऐसे थे जैसे गुलाब झाड़ी पर लगा हो। झाड़ी की जड़ें
जमीन में रस पी रही हैं और झाड़ी के पत्ते सूरज से रोशनी पी रहे हैं। हवाएं गुजरती
हैं और झाड़ी सांस ले रही है और उस पर गुलाब खिला है। जीसस के ओठों पर ये वचन ऐसे
थे--सूरज की रोशनी इन में थी, जमीन का रस इन में था, हवाओं की श्वास इन में थी। परमात्मा इन के भीतर धड़क रहा था।
यह तुमने ठीक ही किया, मैंने
उनसे कहा कि यह तुमने सूखा हुआ गुलाब इस में रख छोड़ा है बाइबिल में। यह तुम्हारी
पूरी बाइबिल का प्रतीक है। जब दुबारा उनके घर गया, उन्होंने
गुलाब फेंक दिया था। मैंने पूछा: वह गुलाब कहां गया? उन्होंने
कहा कि जब से आपने कहा, बड़ी बेचैनी होने लगी; जब भी मैं बाइबिल खोलूं, वह गुलाब दिखाई पड़े। मुझे
आपकी याद आए, आपके वचन याद आएं।
उन्होंने गुलाब तो फेंक दिया। मैंने कहा: उस
से क्या होगा?
बाइबिल के वचन अब भी सूखे गुलाब हैं।
सब शास्त्र सूखे गुलाब हैं। जब कृष्ण के मुख
पर गीता होती है तो वह नाद,
तो वह अपूर्व संगीत...तो वे परमात्मा से झरते हुए शब्द...! और जब
मोहम्मद कुरान गुनगुनाते हैं तो वह तरन्नुम...वह अंदाजे-बयां...वह मोहम्मद की
मौजूदगी! और जब एक मौलवी दोहराता है, तब कहां वह बात!
मधुशालाएं जब मर जाती हैं तो मंदिर, मस्जिदें,
चर्च, गुरुद्वारे रह जाते हैं। ये कब्रें हैं।
इन पर जानेवाले लोग भी मुर्दा हैं! जिंदा आदमी कोई जिंदा मंदिर तलाशता है; किसी जीसस को खोजता है, किसी मोहम्मद को, किसी महावीर को, किसी कृष्ण को।
कदम रखना सम्हल कर महफिले-रिन्दां में ए
जाहिद!
यहां पगड़ी उछलती है इसे मयखाना कहते हैं।
कहा कि हे विरागी महानुभाव! हे उपदेशक! हे
धर्मगुरु! कदम रखना सम्हल कर महफिले-रिन्दां में ऐ जाहिद! पियक्कड़ों की महफिल में
जरा सम्हल कर आना। सोच-समझकर, विचार करके आना।
कदम रखना सम्हल कर महफिले-रिन्दां में ऐ
जाहिद!
यहां पगड़ी उछलती है इसे मयखाना कहते हैं।
यहां शास्त्र जलाकर राख कर दिए जाते हैं।
यहां बड़ी-बड़ी मान्यताएं खंडित हो जाती हैं। यहां पगड़ी उछलती है, इसे
मयखाना कहते हैं। लेकिन जिसमें भी थोड़ी जान है, जिस में भी
अभी श्वासें चल रही हैं, वह ऐसा अवसर नहीं चूकता।
पीते हुए झिझकते हो फस्ले-बहार में
तुम भी निसार आदमी हो किस खयाल के।
और जब वसंत आया हो तो छोड़ो वे कसमें जो
तुमने खायी थीं,
छोड़ो व्रत-नियम-उपवास। जब वसंत द्वार पर आ गया हो तो भूलकर मदमस्त
हो लो! क्योंकि फिर कौन जाने वसंत कब आए! और फिर कौन जाने वसंत आए, तुम होओ न होओ!
अजां हो रही है पिला जल्द साकी।
इबादत करूं आज मखमूर होकर।।
प्रार्थना भी कहीं बिना पीए की जाती है! और
जिसने बिना पीए प्रार्थना की, उसकी प्रार्थना में पंख नहीं होते। उड़ती नहीं
है। वहीं तड़फड़ा कर मर जाती है।
अजां हो रही है पिला जल्द साकी! वह मस्जिद
से अजान आने लगी। पियक्कड़ कहता है: जल्दी पीलाओ!
अजां हो रही है पिला जल्द साकी।
इबादत करूं आज मखमूर होकर।।
आज प्रार्थना में डूब जाऊं पूरी तरह तल्लीन
होकर।
फस्ले बहार आई पियो सूफियो शराब।
बस हो चुकी नमाज मुसल्ला उठाइए।।
कब तक नमाज करते रहोगे यह मुसल्ला बिछाकर? बैठकर
नमाज जब कोई करता है तो मुसल्ला बिछाता है। खास ढंग से कपड़े को बिछाकर, उस पर खास ढंग से झुककर...एक व्यवस्था से, एक ढंग से,
एक विधि से अनुसरण से नमाज की जाती है।
और फस्ले बहार आई पियो सूफियों शराब! यह कोई
मौका है विधि-विधानों का,
औपचारिकताओं का, क्रियाकांडों का!
फस्ले-बहार आई पियो सूफियों शराब।
बस हो चुकी नमाज मुसल्ला उठाइए।।
और जब कोई जीसस मिल जाए और कोई मोहम्मद मिल
जाए और कोई बहाऊद्दीन या कोई जलालुद्दीन रूमी या कोई मंसूर या कोई कबीर या कोई
यारी, तो समझ लेना--बस हो चुकी नमाज मुसल्ला उठाइए! फेंको-फांको ये कपड़े;
लत्ते, फेंको-फांको ये विधि-विधान। पकड़ो हाथ
यारी का! बनो यार यारी के! ताकि वह परम यार मिल सके, वह परम
प्रियतम मिल सके।
गुजर गया अब वोह दौर साकी,
कि छुपके पीते थे पीने वाले।
बनेगा सारा जहान मयखाना,
हर कोई बादाख्वार होगा।।
आशा तो बुद्धों को यही रही है कि आज नहीं कल, छुप-छुप
कर पीने की कोई जरूरत न रह जाएगी, कि सारा संसार, कि पृथ्वी के सारे लोग वादाख्वार होंगे, पियक्कड़
होंगे। इसी आशा में तो बुद्ध बोलते रहे, बोलते रहे, बोलते रहते हैं, बोलते रहेंगे। इस सारी पृथ्वी को
मधुशाला बनाना है। और जब कोई डूबता है रसविमुग्ध होकर परमात्मा में, तभी कुछ पता चलता है।
तेरी फिक्र ने तेरी जिक्र ने, तेरी याद
ने वोह मजा दिया
कि जहां, मिला कोई नक्शेपा, वहीं हमने सर को झुका दिया
और मजा ऐसा है कि जिसने परमात्मा का स्वाद
ले लिया, वह मंदिर में भी झुक जाएगा, मस्जिद में भी झुक जाएगा,
गुरुद्वारे में भी झुक जाएगा। गुरुद्वारे मस्जिद इत्यादि, की तो बात छोड़ो, राह पर पड़ा कोई भी पद-चिह्न मिल
जाएगा, वहीं झुक जाएगा क्योंकि उसे अब सिवाय परमात्मा के और
कोई भी दिखाई नहीं पड़ता है।
तो एक तरफ मैं तुमसे कहता हूं कि मंदिर और
मस्जिद में मत उलझना और दूसरी तरफ तुम से कहता हूं कि जिस दिन पी लोगे, उस दिन सब
मंदिर-मस्जिद तुम्हारे हैं। एक तरफ तुम से कहता हूं कुरान और बाइबिल में मत उलझना
और दूसरी तरफ तुम से यह भी कहता हूं कि जिस दिन तुम पीकर, मखमूर
होकर, डूबकर जानोगे, उस दिन कुरान भी
तुम्हारी है, बाइबिल भी तुम्हारी है, गीता
भी तुम्हारी है। क्योंकि उस दिन तुम्हारे ओंठ कृष्ण के ओंठ हो जाएंगे; फिर तुम जो भी बांसुरी बजाओगे, वह कृष्ण की ही
बांसुरी होगी। फिर तुम्हारे ओंठ कुरान गाने में समर्थ हो जाएंगे।
तुम्हारा ही बुतखाना, काबा
तुम्हारा।
है दोनों घरों में उजाला तुम्हारा।।
फिर तो एक ही बात हो जाती है--
तुम्हारा ही बुतखाना, काबा
तुम्हारा।
है दोनों घरों में उजाला तुम्हारा।।
फिर उजाले की फिक्र होती है, फिर कौन
फिक्र करता है कि मंदिर है कि मस्जिद है! ज्योति के दर्शन हो गए तो कौन चिंता करता
है कि लालटेन के भीतर जल रही है ज्योति कि मिट्टी के दीए में जल रही है ज्योति कि
सोने के दीए में जल रही है ज्योति। फिर मिट्टी और सोने के दीयों से कुछ लेना-देना
नहीं है। फिर किसने दीया बनाया है...ज्योति दिख गई तो फिर सब तरफ उसकी ही ज्योति
दिखाई पड़ेगी। इन वृक्षों में उसकी ही ज्योति हरी है, उसकी ही
ज्योति गुलाब में लाल है। उसकी ही ज्योति चांदत्तारों में है। वही तुम्हारी आंखों
में छिपा बैठा है।
बातें खयाले यार में करता हूं इस तरह।
समझे कोई कि आठ पहर हूं नमाज में।।
और फिर तो चौबीस घंटे नमाज है। फिर कौन
मुसल्ला बिछाए! फिर तो भीतर ही भीतर बात चलती रहती है, गुनगुन
होती रहती है।
बातें खयाले यार में करता हूं इस तरह।
समझे कोई कि आठ पहर हूं नमाज में।।
फिर तो गुफ्तगू चलती रहती है। फिर तो ओठ
कंपते रहते हैं,
बांसुरी बजती रहती है। चौबीस घड़ी सोते-जागते एक अंतर्धारा बहने लगती
है--प्रार्थना की, अर्चना की, आराधना
की!
शौके नजारा था जब तक, आंख थी
सूरत परस्त।
बंद जब रहने लगी, पाए हकीकत
के मजे।।
फिर तो आंख खोलकर भी देखने की जरूरत नहीं
पड़ती। क्योंकि आंख खोलो तो उसकी प्रकृति, आंख बंद करो तो...या मालिक! वही
मालिक। आंख खोलो तो सृष्टि, आंख बंद करो तो स्रष्टा। और आंख
बंद करने का मजा आंख खोलने के मजे से बहुत ज्यादा है। क्योंकि चित्र को देखना एक
बात, चित्रकार को देख लेना बात ही और! संगीत को सुनना,
और फिर संगीतज्ञ को सुन लेना! नर्तक की आवाज, घुंघरुओं
की आवाज और फिर नर्तक को देख लेना!
सूफी फकीर स्त्री राबिया अपने घर के भीतर
बैठी है। सुबह हो गई है। हसन फकीर उसके घर मेहमान था, वह बाहर
आया। उसने कहा: राबिया! तू भीतर बैठी क्या करती है, बाहर आ!
देख कितना प्यारा सूरज निकला है। और बदलियां भी बड़ी मीठी हैं। और सुबह की बड़ी ताजी
हवा है और पक्षियों के गीत बड़े मधुर हैं। तू बाहर आ, भीतर
क्या करती है?
हसन ने तो सोचा भी न था कि जो उत्तर आएगा वह
ऐसा होगा! राबिया खिलखिला कर हंसी और उसने कहा: पागल हसन! तू ही भीतर आ, बाहर क्या
करता है?
क्योंकि जिसने सूरज बनाया, सूरज खूब
प्यारा है, मगर मैं बनानेवाले को देख रही हूं! मैं उन हाथों
को देख रही हूं जिन्होंने सूरज बनाया। मैं उन आंखों को देख रही हूं, जिनसे आकाश जन्मा। मैं उस मालिक को देख रही हूं, तू
उसके राज्य को देख रहा है। तू उसके फैलाव को देख रहा है। तू उसकी आभा देख रहा है,
मैं उसकी परम ज्योति को देख रही हूं। हसन, पागल
हसन! तू ही भीतर आ!
और कहते हैं यह आवाज राबिया की, हसन की
जिंदगी में क्रांति बन गई! एक क्षण को जैसे झकझोर गया कोई। चला गया भीतर, आंख बंद करके बैठ गया। पहले दिन समाधि का अनुभव हुआ, पहली बार समाधि का अनुभव हुआ। चोट खा गया। प्यास जग गयी कि ठीक तो बात है।
कितना ही प्यारा हो सूरज और कितने ही प्यारे हों फूल, और
कितने ही प्यारे हों पक्षी, आखिर यह सब उसका खेल है, उसका फैलाव, उसकी सृष्टि! बनानेवाला कैसा होगा?
चुनौती स्वीकार कर ली।
तुम ठीक कहते हो कि बने रहें ये पीने वाले, बनी रहे
ये मधुशाला। बनी रही है, बनी रहेगी। हां, पीनेवाले भी बदलेंगे, पिलानेवाले भी बदलेंगे,
लेकिन यह उपक्रम जारी रहता है। धर्म इसीलिए शाश्वत है।
आखिरी प्रश्न:
प्रार्थनाएं परिणाम न लाएं
तो क्या करें?
पहली बात, परिणाम की
जब तक आकांक्षा है, तब तक प्रार्थना पूरी न होगी। या यूं
कहो: परिणाम की जब तक आकांक्षा है, परिणाम न आएगा। प्रार्थना
तो शुद्ध होनी चाहिए, परिणाम से मुक्त होनी चाहिए, फलाकांक्षा से शून्य होनी चाहिए। कम से कम प्रार्थना तो फलाकांक्षा से
शून्य करो।
कृष्ण तो कहते हैं कि दुकान भी फलाकांक्षा
से शून्य होकर करो;
युद्ध भी फलाकांक्षा से शून्य होकर लड़ो। तुम कम से कम इतना तो करो
कि प्रार्थना फलाकांक्षा से मुक्त कर लो। कम से कम प्रार्थना को तो पवित्र रहने
दो! उस पर तो पत्थर न रखो फलाकांक्षा के फलाकांक्षा के पत्थर रख दोगे, प्रार्थना का पक्षी न उड़ पाएगा। तुमने शिला बांध दी पक्षी के गले में।
अब तुम पूछते हो: प्रार्थनाएं परिणाम न लाएं
तो क्या करें?
परिणाम लाएंगी ही नहीं प्रार्थनाएं, जब तक
परिणाम की आकांक्षा है। प्रार्थनाएं जरूर परिणाम लाती हैं, मगर
तभी लाती हैं जब परिणाम की कोई आकांक्षा नहीं होती। यह विरोधाभास तुम्हें समझना ही
होगा। यह धर्म की अंतरंग घटना है। यह उसका राजों का राज है। जिसने मांगा, वह खाली रह गया और जिसने नहीं मांगा, वह भर गया।
तुम्हारी तकलीफ समझता हूं, क्योंकि
प्रार्थना हमें सिखाई ही गई है मांगने के लिए। जब मांगना होता है कुछ तभी लोग
प्रार्थना करते हैं, नहीं तो कौन प्रार्थना करता है! लोग दुख
में याद करते हैं परमात्मा को, सुख में कौन याद करता है! और
संतों ने कहा है: जो सुख में याद करे, उसे मिल जाए। मगर सुख
में याद करने का मतलब ही यही होता है कि अब कोई आकांक्षा नहीं होगी। सुख तो है ही,
अब मांगना क्या है?
जब सुख में कोई प्रार्थना करता है तो
प्रार्थना केवल धन्यवाद होती है। जब दुख में कोई प्रार्थना करता है तो प्रार्थना
में एक भिखमंगापन होता है। सम्राट से मिलने चले हो भिखारी होकर, दरवाजों
से ही लौटा दिए जाओगे। पहरेदार ही भीतर प्रवेश न होने देंगे। सम्राट से मिलने चले
हो, सम्राट की तरह चलो। जरा सम्राट की चाल चलो!
सम्राट की चाल क्या है? न कोई
वासना है, न कोई आकांक्षा है--जीवन का आनंद है और आनंद के
लिए धन्यवाद है। जो दिया है वह इतना है, और क्या मांगना है?
बिना मांगे इतना दिया है! एक गहन कृतज्ञता का भाव--वही प्रार्थना
है।
मगर तुम्हारी अड़चन मैं समझा। बहुतों की अड़चन
यही है। अधिक की अड़चन यही है। प्रार्थना पूरी नहीं होती तो शक होने लगता है
परमात्मा पर। कैसा मजा है,
प्रार्थना पर शक नहीं होता कि मेरी प्रार्थना में कोई गलती तो नहीं
हो रही, परमात्मा पर शक होने लगता है।
मेरे पास लोग आकर कहते हैं कि प्रार्थना
पूरी होती नहीं है हमारी,
जनम-जनम हो गए! तो परमात्मा है भी या नहीं?
परमात्मा पर शक होता है, देखना
मजा! अपने पर शक नहीं होता कि मेरी प्रार्थना में कहीं कोई भूल तो नहीं! नाव ठीक
नहीं चलती तो मेरी पतवारें गलत तो नहीं हैं? दूसरा किनारा है
या नहीं, इस पर शक होने लगता है।
मगर ध्यान रखो, जिस नदी
का एक किनारा है, दूसरा दिखाई पड़े या न दिखाई पड़े, होगा ही, है ही। कोई नदी एक किनारे की नहीं होती। उस
दूसरे किनारे का नाम निर्वाण है, इस किनारे का नाम संसार है।
संसार और निर्वाण के किनारों के बीच जीवन की यह अंतःसलिला, यह
गंगा बह रही है। लेकिन, अगर तुम ठीक से नाव न चलाओ तो दूसरा
किनारा कभी न आएगा।
फकीर हुआ बायजीद। उसके एक शिष्य ने पूछा कि
मैं सब उपाय करता हूं,
लेकिन अकारथ जाते हैं। परमात्मा है भी, यह
मुझे संदेह होने लगता है।
जानते हो बायजीद ने क्या किया। अपने शिष्य
को साथ लिया,
कहा: मेरे साथ आ, झील पर चल रात प्यारी है,
पूरा चांद है, झील पर थोड़ी नौका भी चलाएंगे और
तेरे प्रश्न का उत्तर भी हो जाएगा।
बायजीद नाव में बैठा, पतवार
उठायी। नाव चलानी हो तो दोनों पतवारें चलानी होती हैं; एक ही
पतवार से चलाने लगा। नाव गोल-गोल चक्कर काटने लगी। अब एक ही पतवार से चलाओगे तो
नाव गोल-गोल चक्कर काटेगी ही। नाव जा नहीं सकती उस किनारे। शिष्य हंसने लगा। उसने
कहा: आप यह क्या कर रहे हैं? आप क्या मजाक कर रहे हैं! ऐसे
तो हम उस किनारे कभी न पहुंचेंगे।
बायजीद ने कहा: तुझे उस किनारे पर शक आता है
या नहीं? उसने कहा: उस किनारे पर कैसे शक आए, किनारा तो है।
जब यह किनारा है तो वह किनारा भी है! कोई नदी, कोई झील एक
किनारे की होती है? दूसरा किनारा भी है। शक का सवाल ही नहीं
है दूसरे किनारे पर। आप एक पतवार से नाव खेने की कोशिश कर रहे हैं, इसलिए नाव चक्कर काटती रहेगी, गोल चक्कर काटती
रहेगी। नाव एक दुष्चक्र हो जाएगी!
बायजीद ने दूसरी पतवार भी उठा ली। अब नाव
चलने लगी, अब तीर की तरह चलने लगी। बायजीद ने कहा मैं तुझे यह कहना चाहता हूं कि तू
अभी परमात्मा की तरफ जाने की जो चेष्टा कर रहा है, वह
आधी-आधी है। एक ही पतवार से चलाने की कोशिश हो रही है आधा मन तेरा इस किनारे से
उलझा है, आधा मन उस किनारे जाना चाहता है। तू आधा-आधा है। तू
कुनकुना-कुनकुना है। इसी से अड़चन हो रही है। और हमें यही सिखाया गया है--कुनकुनी
जिंदगी।
अब तुम प्रार्थना भी करने गए, उसमें भी
वासना डाल दी, बस आधा-आधा हो गया। यह आधा-आधापन छोड़ो। वासना
करनी हो तो पूरी वासना करो। तो पूरी वासना भी कल्याणदायी है, मंगलदायी है। प्रार्थना करनी हो तो पूरी प्रार्थना करो। तो पूरी प्रार्थना
भी मंगलदायी है।
लज्जते-काम और तेज करो
तल्खि-ए-जाम और तेज करो
जेरे-दीवार आंच कम कम है
शोल-ए-बाम और तेज करो
उस तपिश को जो खूब रुलाती है
सहर-ओ-शाम और तेज करो
प-एत्तकमीले-पुख्ता-कारि-ए-शौक
हवसे-खाम और तेज करो
हम पे हो जाए खत्म नाकामी
सई-ए-नाकाम और तेज करो
जादा खुद भी है साजिशे-खम-ओ-पेच
साजिशे-गाम और तेज करो
सुस्त-गामी हमें पसंद नहीं
खसे-अय्याम और तेज करो
गर्दिशे-वक्त ले न डूबे कहीं
गर्दिशे-जाम और तेज करो
अख्तर अपने मजाके-शेरी में
रंगे-ख्य्याम और तेज करो।
तेजी लाओ। समग्रता लाओ। लज्जते-काम और तेज
करो। इच्छा के स्वाद को और तेज करो, अगर इच्छा करनी है। तिल्ख-ए-जाम और
तेज करो। अगर मदिरा ही पीने चले तो ढालो और। डरो मत अब मदिरा के तिक्त स्वाद से।
तल्खि-ए-जाम और तेज करो। प-एत्तकमीले-पुख्ता-कारि-ए-शौक! उन्माद की परिपक्वता के
लिए...पागलपन पूरा होना चाहिए। उसकी भी एक प्रौढ़ता होती है।
प-एत्तकमीले-पुख्ता-कारि-ए-शौक
हवसे-खाम और तेज करो
यह कच्ची लोलुपता से नहीं चलेगा। अगर वासना
करनी है तो पूरी और प्रार्थना करनी है तो पूरी सुस्त-गामी हमें पसंद नहीं। ऐसे
क्या धीरे-धीरे चलना?
ऐसे क्या एक टांग इधर एक टांग उधर, एक पंख इधर
एक पंख उधर?
सुस्त-गामी हमें पसंद नहीं
खसे-अय्याम और तेज करो
समय के नृत्य को और तेज करो।
गर्दिशे-वक्त ले न डूबे कहीं
गर्दिशे-जाम और तेज करो
समय चूका जा रहा है, जल्दी
करो! तेजी लाओ!
अख्तर अपने मजाके-शेरी में
रंगे ख्य्याम और तेज करो।
और एक अपूर्व घटना घटती है जब कोई भी चीज
अपनी परिपूर्णता पर होती है, अपनी पूरी त्वरा पर। सौ डिग्री पर जब पानी
उबलता है तो भाप बन जाता है। किसी भी चीज को तुम सौ डिग्री पर ले आओ, और तुम्हारा अहंकार तिरोहित होने लगेगा। और जहां अहंकार तिरोहित होता है,
वहीं प्रार्थना है।
मैकदा था चांदनी थी मैं न था
इक मुजस्सम बेखुदी थी मैं न था
इश्क जब दम तोड़ता था तुम न थे
मौत जब सर धुन रही थी मैं न था
तूर पर छेड़ा था जिसने आपको
वो मिरी दीवानगी थी मैं न था
वो हसीं बैठा था जब मेरे करीब
लज्जते-हमसायगी थी मैं न था
मैकदे के मोड़ पर रुकती हुई
मुद्दतों की तश्नगी थी मैं न था
जब प्यास पूरी होती है, तुम नहीं
होते फिर।
मैकदे के मोड़ पर रुकती हुई
मुद्दतों की तश्नगी थी मैं न था
जन्मों-जन्मों की प्यास इकट्ठी करो। वही
मुड़े, वही जाए मधुशाला में, तुम नहीं जाना! मैकदा था
चांदनी थी मैं न था! मधुशाला हो, चांद हो, चांदनी हो, लेकिन तुम नहीं-- बस उसी घड़ी संक्रांति
का क्षण आ गया।
वो हसीं बैठा था जब मेरे करीब
लज्जते-हमसायगी थी मैं न था।
तुम हो, उसमें ही आकांक्षाएं उठती हैं,
मांगें उठती हैं, अपेक्षाएं उठती हैं। और जहां
अपेक्षा है वहां प्रार्थना कभी पूरी नहीं होती।
तुम पूछते हो: प्रार्थनाएं परिणाम न लाएं तो
क्या करें?
अड़चन तुम्हारी साफ है। तुम्हारी अकेली की
नहीं, करीब-करीब सारी दुनिया कि अड़चन यही है। परिणाम की आकांक्षा जाने दो। सिर्फ
प्रार्थना करो। प्रार्थना अपने में ही अपना लक्ष्य है। नहीं तो रोओगे। नहीं तो सदा
पछताओगे। और धीरे-धीरे रोते-रोते ईश्वर पर संदेह पैदा होगा। आखिर आदमी की सामर्थ्य
है झेलने की, धैर्य की!
काम आ सकें न अपनी वफाए तो क्या करें
इक बेवफा को भूल न जाएं तो क्या करें
मुझको यह ऐतिराफ दुआओं में है असर
जाए न अर्स पर जो दुआएं तो क्या करें
इक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएं हम
नाजिल हों दिल पर रोज बुलाएं तो क्या करें
जुल्म-बदोश है मिरी दुनिया-ए-आशिकी
तारों की मशअलें न चुराएं तो क्या करें
शब भर तो उनकी याद में तारे गिना करें
तारे से दिन को भी नजर आएं तो क्या करें
अहदेत्तरब की याद में रोया किए बहुत
अब मुस्करा के भूल न जाएं तो क्या करें
अब जी मैं है कि उनको भुलाकर ही देख लें
वो बार-बार याद जो आएं तो क्या करें
वादे के ऐतिबार में तिस्कीने-दिल तो है
अब फिर वही फरेब न खाएं तो क्या करें
तर्के-वफा भी जुर्मे-मुहब्बत सही अख्तर
मिलने लगें वफा की सजाएं तो क्या करें
अड़चन आएगी। मांगोगे तो अड़चन आएगी। तो सवाल
उठेगा--
काम आ सकें न अपनी वफाएं तो क्या करें
इक बेवफा को भूल न जाएं तो क्या करें
मुझको यह ऐतिराफ दुआओं में है असर
जाए न अर्स पर जो दुआएं तो क्या करें
अगर आकाश तक न पहुंचती हों तुम्हारी
प्रार्थनाएं तो प्रश्न उठेगा। मगर जरा अपनी प्रार्थनाओं का गला देखो, उनमें
तुमने बहुत बड़े-बड़े पत्थर बांध दिए हैं। आकाश तक उड़ने की क्षमता ही तुमने छीन ली है।
पत्थर उड़ नहीं सकते।
मांगें वजनी हैं, क्योंकि
मांगे सभी पार्थिव हैं। जो भी तुम मांगोगे, वही पार्थिव होगा,
छोटा होगा, ओछा होगा। मांगोगे ही क्या?
धन मांगोगे, पद मांगोगे, स्वास्थ्य मांगोगे, लंबी उम्र मांगोगे, सुंदर स्त्री मांगोगे, पुरुष मांगोगे, बेटे मांगोगे, धन मांगोगे--क्या मांगोगे? ये सब छोटी पार्थिव बातें हैं। ये सब चट्टानें हैं। गला घुट जाएगा
प्रार्थना का। फिर नहीं आकाश तक तुम्हारी प्रार्थनाएं पहुंच पाएंगी।
मांग को जाने दो और फिर देखो मजा! मांग को
छोड़ो और फिर देखो मजा। इधर प्रार्थना की नहीं उधर पहुंची नहीं। प्रार्थना
करते-करते ही पूरी हो जाती है। प्रार्थना उठते-उठते ही ऐसा अमृत बरसा जाती है! उस
क्षण में द्वार खुल जाते हैं रहस्यों के। तुम मिट जाते हो, परमात्मा
ही होता है।
पूछते हो: क्या करें?
फिर-फिर करो प्रार्थना, और-और करो
प्रार्थना। अब परिणाम छोड़कर करो।
किए आरजू से पैमा, जो मआल तक
न पहुंचे
शब-ओ-रोज-आशनाई, मह-ओ-साल
तक न पहुंचे
वह नजर बहम न पहुंची कि मुहीते-हुस्न करते
तिरी दीद के वसीले खुद्द-ओ-साल तक न पहुंचे
वही चश्मा-ए-बका था, जिसे सब
सराब समझे
वही ख्वाब मो' तबर थे, जो खयाल तक न पहुंचे
तिरा लुत्फ वज्हेत्तस्कीं न करारे-शरहे-गम
से
कि हैं दिल में वह गिले भी, जो मलाल
तक न पहुंचे
कोई यार जां से गुजरा, कोई होश
से न गुजरा
ये नदीमे-यक-दो-सागर, मिरे हाल
तक न पहुंचे
चलो "फैज' दिल जलाएं,
करें फिर से अर्जे-जानां
वह सुखन जो लब तक आए, पे सवाल
तक न पहुंचे
क्या करें, पूछते हो! चलो फैज दिल
जलाएं, करें फिर से अर्जे-जाना! उस प्यारे को फिर पुकारें,
फिर दिल जलाएं। फिर प्राणों की आरती बनाएं। उस प्रीतम से फिर
प्रार्थना करें। मगर अब परिणाम नहीं। अब प्रार्थना अपने में लक्ष्य हो।
चलो फैज दिल जलाएं, करें फिर
से अर्जे-जानां
वह सुखन जो लब तक आए, पे सवाल
तक न पहुंचे।
प्रार्थना शब्दों में नहीं होती। तुम्हारे
आंतरिक शून्य का ही दूसरा नाम प्रार्थना है। प्रार्थना में झुक जाते हो तुम। कहने
को क्या बचता है?
कहने को क्या है? शब्द छोटे हैं, प्रार्थना समाएगी कैसे शब्दों में? न तो मांग होती
है, न शब्द होते हैं--एक समर्पण का भाव होता है। एक अर्पित
दशा होती है। एक झुकना होता है। उस झुकने में ही सब पाना हो जाता है।
चूकते रहोगे जब तक मांगते रहोगे। अब मांग
छोड़ो। अब जरा मांग छोड़कर देखो। जरा इस प्रार्थना का भी स्वाद लो जो मैं तुमसे कह
रहा हूं!
चलो फैज दिल जलाएं, करें फिर
से अर्जे-जानां
वह सुखन जो लब तक आए, पे सवाल
तक न पहुंचे
फिर से पुकारें। फिर प्रार्थना करें। नई
तर्ज सीखें प्रार्थना की,
नई शैली अपनाएं।
प्रार्थना प्रार्थना के निमित्त, बस फिर
प्रार्थना में कोई रुकावट नहीं है। फिर प्रार्थना ही परमात्मा हो जाती है!
आज इतना ही।
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