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गुरुवार, 29 मार्च 2018

जगत तरैया भोर की (दयाबाई)-प्रवचन-10

मंदिर की सीढ़ियां: प्रेम, प्रार्थना, परमात्मा—दसवां प्रवचन

दिनांक २० मार्च, १९७७; श्री रजनीश आश्रम, पूना

जिज्ञासाएं:
1—भगवान, प्रेम मेंर् ईष्या क्यों है?
2—कमैं कौन हूं और मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है?
3—प्रभु से सीधे ही क्यों न जुड़ जाएं? गुरु को बीच में क्यों लें?
4—मैं तीन वर्ष से संन्यास लेना चाहता हूं, लेकिन नहीं ले पा रहा हूं। क्या कारण होगा?
5—भक्ति क्या एक प्रकार की कल्पना ही नहीं है?
6—इस प्रवचनमाला का शीर्षक वैराग्य-रूप और जीवन-निषेधक लगता है। प्रेम-पथ पर यह निषेध क्यों है?
7—आपकी बातों में नशा है, इससे मैं डरता हूं।

पहला प्रश्न: भगवान, प्रेम मेंर् ईष्या क्यों है?
प्रेम मेंर् ईष्या हो तो प्रेम ही नहीं है; फिर प्रेम के नाम से कुछ और ही रोग चल रहा है।र् ईष्या सूचक है प्रेम के अभाव की।


यह तो ऐसा ही हुआ, जैसे दीया जले और अंधेरा हो। दीया जले तो अंधेरा होना नहीं चाहिए। अंधेरे का न हो जाना ही दीए के जलने का प्रमाण है।र् ईष्या का मिट जाना ही प्रेम का प्रमाण है।र् ईष्या अंधेरे जैसी है; प्रेम प्रकाश जैसा है। इसको कसौटी समझना। जब तकर् ईष्या रहे तब तक समझना कि प्रेम प्रेम नहीं। तब तक प्रेम के नाम से कोई और ही खेल चल रहा है; अहंकार कोई नई यात्रा कर रहा है--प्रेम के नाम से दूसरे पर मालकियत करने का मजा, प्रेम के नाम से दूसरे का शोषण, दूसरे व्यक्ति का साधन की भांति उपयोग। और दूसरे व्यक्ति का साधन की भांति उपयोग जगत में सबसे बड़ी अनीति है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा है। प्रत्येक व्यक्ति साध्य है, साधन नहीं। तो भूल कर भी किसी का उपयोग मत करना। किसी के काम आ सको तो ठीक, लेकिन किसी को अपने काम में मत ले आना। इससे बड़ा कोई अपमान नहीं है कि तुम किसी को अपने काम में ले आओ। इसका अर्थ हुआ कि परमात्मा को सेवक बना लिया। सेवक बन सको तो बन जाना, लेकिन सेवक बनाना मत।
असली प्रेम उसी दिन उदय होता है जिस दिन तुम इस सत्य को समझ पाते हो कि सब तरफ परमात्मा विराजमान है। तब सेवा के अतिरिक्त कुछ बचता नहीं।
प्रेम तो सेवा है:र् ईष्या नहीं। प्रेम तो समर्पण है; मालकियत नहीं।
पूछा है: "प्रेम मेंर् ईष्या क्यों है?'
लेकिन, प्रश्न पूछने वाले की तकलीफ मैं समझ सकता हूं। सौ में निन्यानबे मौके पर जिस प्रेम को हम जानते हैं वहर् ईष्या का ही दूसरा नाम है। हम बड़े कुशल हैं। हम गंदगी को सुगंध छिड़क कर भुला देने में बड़े निपुण हैं। हम घावों के ऊपर फूल रख देने में बड़े सिद्ध हैं। हम झूठ को सच बना देने में बड़े कलाकार हैं। तो होती तोर् ईष्या ही है; उसे हम कहते प्रेम हैं। ऐसे प्रेम के नाम सेर् ईष्या चलती है। होती तो घृणा ही है; कहते हम प्रेम हैं। होता कुछ और ही है।
एक देवी ने और प्रश्न पूछा है। पूछा है कि "मैं सूफी ध्यान नहीं कर पाती और न मैं अपने पति को सूफी ध्यान करने दे रही हूं। क्योंकि सूफी ध्यान में दूसरे व्यक्तियों की आंखों में आंखें डाल कर देखना होता है। वहां स्त्रियां भी हैं। और पति अगर किसी स्त्री की आंख में आंख डाल कर देखे और कुछ से कुछ हो जाए तो मेरा क्या होगा? और वैसे भी पति से मेरी ज्यादा बनती नहीं है।'
जिससे नहीं बनती है उसके साथ भी हम प्रेम बतलाए जाते हैं। जिसको कभी चाहा नहीं है उसके साथ भी हम प्रेम बतलाए चले जाते हैं। प्रेम हमारी कुछ और ही व्यवस्था है--सुरक्षा, आर्थिक, जीवन की सुविधा। कहीं पति छूट जाए तो घबराहट है। पति को पकड़ कर मकान मिल गया होगा, धन मिल गया होगा--जीवन को एक ढांचा मिल गया है। इसी ढांचे से अगर तुम तृप्त हो तो तुम्हारी मर्जी। इसी ढांचे के कारण तुम परमात्मा को चूक रहे हो, क्योंकि परमात्मा प्रेम से मिलता है। प्रेम के अतिरिक्त परमात्मा के मिलने का और कोई द्वार नहीं है। जो प्रेम से चूका वह परमात्मा से भी चूक जाएगा।
भय और प्रेम साथ-साथ हो कैसे सकते हैं? इतना भय कि पति कहीं किसी स्त्री की आंख में न आंख डाल कर देख ले! तो फिर प्रेम घटा ही नहीं है। फिर तुम्हारी आंख में आंख डाल कर पति ने नहीं देखा और न तुमने पति की आंख में आंख डाल कर देखा है। न तुम्हें पति में परमात्मा दिखाई पड़ा है, न पति को तुममें परमात्मा दिखाई पड़ा है। तो यह जो संबंध है, इसको प्रेम का संबंध कहोगे?
अगर प्रेम घटे तो भय विसर्जित हो जाता है। तब पति सारी दुनिया की स्त्रियों की आंख में आंख डाल कर देखता रहे तो भी कुछ फर्क न पड़ेगा। हर स्त्री की आंख में तुम्हीं को पा लेगा। हर स्त्री की आंख में तुम्हारी ही आंख मिल जाएगी। क्योंकि हर स्त्री तुम्हारी ही प्रतिबिंब हो जाएगी। हर स्त्री को देख कर तुम्हारी ही याद आ जाएगी।
लेकिन प्रेम तो घटता नहीं; किसी तरह सम्हाले हैं अपने को।
मैंने सुना है, एक सत्ताईस मंजिल वाले बड़े मकान में मुल्ला नसरुद्दीन लिफ्ट से ऊपर जा रहा है। लिफ्ट में बड़ी भीड़ थी। और जब दूसरी मंजिल पर मुल्ला नसरुद्दीन और उसकी पत्नी ने प्रवेश किया तो भीड़ और भी बढ़ गई। और फिर चौथी मंजिल पर एक अति सुंदर युवती प्रविष्ट हुई तो जगह बिलकुल न बची। युवती मुल्ला और उसकी पत्नी के बीच किसी तरह सिकुड़ कर खड़ी हो गई। लिफ्ट ऊपर उठने लगी, लेकिन मुल्ला की पत्नी अति बेचैन होने लगी। सत्ताईस मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते...। और मुल्ला इतना सट कर खड़ा है उस युवती से और युवती भी सट कर खड़ी है और अब कहने का कुछ उपाय भी नहीं है, क्योंकि जगह ही नहीं है। बेचैनी और भी बढ़ने लगी क्योंकि मुल्ला अत्यंत गदगद है। मुल्ला का सुख! मुल्ला तो जैसे स्वर्ग में है! और मुल्ला बार-बार लार टपकती मुख-मुद्रा से युवती को निहार भी लेता है। फिर अचानक युवती ने चीख मारी और मुल्ला के मुंह पर जोर का तमाचा रसीद कर दिया। वह चिल्लाई: "खूसट बुङ्ढे! तुम्हारा इतना साहस! च्यूंटी लेने का साहस!'
लिफ्ट में सन्नाटा हो गया। अगली मंजिल पर मुल्ला अपना चेहरा सहलाता हुआ पत्नी के साथ लिफ्ट से उतरा। लिफ्ट के बाहर उसकी बोलती लौटी। वह बोला, "मैं समझा नहीं कि हुआ क्या! मैंने च्यूंटी ली ही न थी।'
"मुझे मालूम है', पत्नी ने अत्यंत प्रसन्नता से गदगद होते हुए कहा, "च्यूंटी मैंने ली थी।'
ऐसे ही तुम्हारे सब प्रेम के संबंध हैं। एक-दूसरे पर पहरा है। एक-दूसरे के साथ दुश्मनी है, प्रेम कहां! प्रेम में पहरा कहां? प्रेम में भरोसा होता है। प्रेम में एक आस्था होती है। प्रेम में एक अपूर्व श्रद्धा होती है। ये तो सब प्रेम के ही फूल हैं--श्रद्धा, भरोसा, विश्वास। प्रेमी अगर विश्वास न कर सके, श्रद्धा न कर सके, भरोसा न कर सके, तो प्रेम में फूल खिले ही नहीं।र् ईष्या, जलन, वैमनस्य, द्वेष, मत्सर तो घृणा के फूल हैं। तो फूल तो तुम घृणा के लिए हो और सोचते हो प्रेम का पौधा लगाया है। नीम के कड़वे फल लगते हैं तुममें और सोचते हो आम का पौधा लगाया है। इस भ्रांति को तोड़ो।
इसलिए जब मैं तुमसे कहता हूं कि प्रेम परमात्मा तक जाने का मार्ग बन सकता है तो तुम मेरी बात को सुन तो लेते हो, लेकिन भरोसा नहीं आता। क्योंकि तुम प्रेम को भलीभांति जानते हो। उसी प्रेम के कारण तुम्हारा जीवन नरक में पड़ा है। अगर मैं इसी प्रेम की बात कर रहा हूं तो निश्चित ही मैं गलत बात कर रहा हूं। मैं किसी और प्रेम की बात कर रहा हूं--उस प्रेम की, जिसकी तुम तलाश कर रहे हो, लेकिन जो तुम्हें अभी तक मिला नहीं है। मिल सकता है, तुम्हारी संभावना है। और जब तक न मिलेगा तब तक तुम रोओगे, तड़पोगे, परेशान होओगे। जब तक तुम्हारे जीवन का फूल न खिले और जीवन के फूल में प्रेम की सुगंध न उठे, तब तक तुम बेचैन रहोगे। अतृप्त! तब तक तुम कुछ भी करो, तुम्हें राहत न आएगी, चैन न आएगा। खिले बिना आप्तकाम न हो सकोगे।
प्रेम तो फूल है।
प्रेम बड़ी धार्मिक घटना है। प्रेमर् ईष्या से तो उलटा छोर है। प्रेम तो प्रार्थना के करीब है। जब प्रेम लगता है तो उसके आगे का कदम प्रार्थना है। जब प्रार्थना लगती है तो उसके आगे का कदम परमात्मा है। प्रेम, प्रार्थना, परमात्मा--एक ही मंदिर की तीन सीढ़ियां हैं।
अंत वहीं जहां उदगम


दूसरा प्रश्न: मैं कौन हूं और मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है?

मुझसे पूछते हो? भले आदमी, तुम्हें पता नहीं कि तुम कौन हो? और दूसरे से पूछ कर जो उत्तर मिलेगा, क्या किसी काम आएगा? उधार होगा। मैं तुम्हें कोई भी उत्तर दे दूं, तुम्हारा उत्तर न बन सकेगा। तुम्हें अपना उत्तर खोजना होगा। प्रश्न तुम्हारा, उत्तर भी तुम्हारा ही प्रश्न को हल करेगा। मैं तो तुमसे कह दूं, "तत्वमसि श्वेतकेतु'--कि श्वेतकेतु, तुम तो स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो--इससे क्या होगा? मैं तो तुमसे कह दूं, तुम आत्मा हो, शाश्वत, अमृतस्वरूप! इससे क्या होगा? ऐसे उत्तर तो तुमने सुने बहुत। ऐसे उत्तर तो तुम्हें भी कंठस्थ हैं। ऐसे उत्तर तो तुम भी दूसरों को दे देते हो। तुम्हारा बेटा भी तुमसे पूछेगा, तुम उसको भी समझा देते हो कि तू आत्मा है, साक्षीस्वरूप है, सच्चिदानंद है।
दूसरों के उत्तर काम नहीं आते। कम से कम इस संबंध में कि मैं कौन हूं, तुम्हें अपने "मैं' की ही सीढ़ियां उतरनी पड़ेंगी। यह "मैं' का गहरा कुआं है। इस कुएं में तुम उतरोगे तो ही जलस्रोत तक पहुंचोगे। और यह गहरा कुआं है। और यहां तुम्हें अकेला ही जाना होगा। यहां कोई दूसरा तुम्हारे साथ भी नहीं जा सकता। तुम्हारे भीतर कौन जा सकता है तुम्हारे अतिरिक्त? कोई भी नहीं जा सकता! यह यात्रा अकेले की है। यह अकेले की उड़ान अकेले की तरफ है।
इसलिए सारे धर्म कहते हैं: एकांत का रस लो। क्योंकि जब तक एकांत का रस न लिया तब तक अपने में उतरोगे कैसे? क्योंकि वहां तो अकेले जाना होगा। इसलिए सारे धर्म कहते हैं: ध्यान का दीया जलाओ। क्योंकि ध्यान का दीया ही साथ जा सकता है, और कुछ साथ न जाएगा--न धन जाएगा, न पद, न प्रतिष्ठा। ध्यान का दिया और तुम! तो फिर तुम उतर सकते हो तुम्हारे गहरे से गहरे कुएं में। निश्चित यह गहरा कुआं है। तुम्हारी गहराई अनंत है। तुम्हारी उतनी ही गहराई है जितनी परमात्मा की। इसलिए कम तो कैसे होगी, छोटी तो कैसे होगी? ऊपर से झांकोगे तो नीचे का जल तुम्हें दिखाई भी न पड़ेगा--गहराई बहुत बड़ी है! यात्रा लंबी है। स्वयं की यात्रा सबसे लंबी यात्रा है। यह बात बड़ी विरोधाभासी लगती है, क्योंकि हम तो सोचते हैं--"स्वयं यानी यह रहा! आंख बंद की कि पहुंच गए!' काश इतना आसान होगा! आंख बंद करने से जरूर आदमी पहुंचता है। लेकिन आंख बंद करने से आंख बंद कहां होती है! आंख तो बंद हो जाती है, सपने तो बाहर के ही चलते रहते हैं; व्यवसाय बाहर का ही चलता रहता है। आंख बंद हो जाती है, चित्र तो पराए ही उठते रहते हैं--मित्र, प्रियजन, सगे-संबंधी! आंख तो बंद हो जाती है, अकेले तुम कहां होते हो? अकेले तुम हो जाओ तो खुली आंख भी भीतर जा सकते हो। यह भीड़ हटानी पड़े। तुम्हारे सारे शास्त्र, तुम्हारे सारे सिद्धांत, सब हटा कर रख देना पड़ें; क्योंकि इस बोझ को ले कर तुम भीतर न जा सकोगे। यह बोझ तो कठिन हो जाएगा। यह यात्रा तो बड़ी निर्भार ही हो सकती है।
और ध्यान रखना, कोई साथ जाने को नहीं है, न कोई उत्तर। अक्सर तो उत्तर बाधा है। क्योंकि तुमने उधार उत्तर मान लिए हैं, इसलिए तुम भीतर जाते नहीं, खोजते नहीं। तुमने मान ही लिया कि भीतर आत्मा है तो तुम भीतर जाओगे क्यों! ये उधार उत्तर, ये विश्वास तुम्हारे जीवन को अनुभव नहीं बनने देते।
तो मैं तुमसे पहली बात तो यह कहूंगा कि तुम पूछते हो, "मैं कौन हूं', हो तो तुम जरूर, नहीं तो पूछते कैसे? कुछ तो हो जरूर। और कुछ जो भी हो, अ ब स, कुछ भी उसका नाम हो, चैतन्य भी जरूर हो, अन्यथा प्रश्न कैसे उठता? क्योंकि पत्थर नहीं पूछते। चैतन्य हो। तुम्हारे प्रश्न से ये नतीजे निकाल रहा हूं। तुम्हें उत्तर नहीं दे रहा हूं, सिर्फ तुम्हारे प्रश्न को साफ कर रहा हूं, तुम्हारे प्रश्न का विश्लेषण कर रहा हूं। क्योंकि अगर प्रश्न का ठीक-ठीक निदान हो जाए तो उपचार बहुत कठिन नहीं है। निदान बड़ी बात है। निदान ठीक हो जाए बीमारी का तो औषधि खोज लेनी बहुत मुश्किल नहीं है। निदान ही अगर ठीक न हो तो फिर तुम लाख औषधियों का उपयोग करते रहो, लाभ तो होगा नहीं, हानि भला हो जाए। क्योंकि अक्सर जो औषधि तुम्हारे काम की न थी, उसे अगर ले लोगे तो हानि होगी।
यह मैं तुम्हारे प्रश्न का निदान कर रहा हूं, विश्लेषण कर रहा हूं। तुम्हारे प्रश्न की नब्ज को पकड़ रहा हूं।
पहली बात: तुम पत्थर नहीं हो। पत्थर पूछता नहीं। मेरी पत्थरों से भी मुलाकात है। पत्थर कभी नहीं पूछता, मैं कौन हूं। तुम चैतन्य हो, इसलिए प्रश्न उठता है। पौधे भी नहीं पूछते, वृक्ष भी नहीं पूछते। पत्थर से ज्यादा जीवंत हैं, लेकिन अभी भी प्रश्न नहीं उठा है। तो जीवन भी काफी नहीं है प्रश्न के लिए। तुम जीवन से कुछ ज्यादा हो। पशु-पक्षी भी नहीं पूछते। पौधों से विकसित हैं, उड़ सकते हैं, आ-जा सकते हैं; अगर कोई हमला करे तो रक्षा करते हैं। मौत से डरते हैं, जीवन का कुछ पता नहीं है।
तुम जीवन के संबंध में पूछ रहे हो कि मैं क्या हूं, मैं कौन हूं, मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? तुम पशु-पक्षियों से भी कुछ ज्यादा हो। तुम जीवंत हो, चैतन्य हो और चेतना में विमर्श है, रिफ्लैक्शन की शक्ति है। तुम लौट कर पूछ रहे हो कि मैं कौन हूं।
यह प्रश्न महत्वपूर्ण है। लेकिन मुझसे मत पूछो। इस प्रश्न को ध्यान बना लो। एकांत में रोज आंख बंद करो, इसी प्रश्न को गुंजाओ अपने भीतर कि मैं कौन हूं। और ध्यान रखना, उत्तर को बीच में आने मत देना। उधार उत्तर बीच में आएंगे, बासे उत्तर बीच में आएंगे, दूसरे से सुने हुए उत्तर बीच में आएंगे। उनको बीच में आने मत देना। क्योंकि जो उत्तर बीच में आ रहे हैं, वह तुम्हारा मन है, तुम नहीं हो; वह तुम्हारी जानकारी है, तुम्हारा बोध नहीं है। अगर जानते ही होते तो पूछते क्यों? जानते नहीं हो, यह तो पक्का है। इसलिए अपनी जानकारी को तो उठा कर रख देना। वह दो कौड़ी की है, उसका कोई मूल्य नहीं है। उससे ज्ञान पैदा नहीं होता। उपनिषद पढ़े, गीता पढ़ी, कुरान पढ़ा, बाइबिल पढ़ी--इससे कुछ हल नहीं हुआ, नहीं तो उत्तर मिल गया होता। तुम पूछना: मैं कौन हूं! और दूसरों के दिए उत्तर--चाहे कृष्ण ने दिए, चाहे मोहम्मद ने, चाहे महावीर ने--हटा देना; चाहे मैंने...हटा देना। तुम अपना प्रश्न ही उतारते जाना। प्रश्न को निखारना। अपने सारे प्राण को प्रश्न पर लगा देना: मैं कौन हूं! कोई उत्तर न आएगा। सन्नाटा छा जाएगा। जैसे-जैसे तुम प्रश्न को पूछोगे गहरे और गहरे, उतना सन्नाटा होता जाएगा। घबराहट भी आने लगेगी कि उत्तर कहीं भी नहीं है। क्योंकि तुम उत्तर की जल्दी में हो। उत्तर इतने जल्दी नहीं मिलता। पहले तो तुम्हारे प्रश्न की तलवार से और सारे उधार उत्तरों से सिर काट डालने होंगे।
झेन फकीर कहते हैं कि अगर ध्यान के मार्ग पर बुद्ध से भी मिलना हो जाए तो उठाकर तलवार दो टुकड़े कर देना। रोज बुद्ध की पूजा करते हैं और रोज अपने शिष्यों को समझाते हैं कि ध्यान के मार्ग पर अगर बुद्ध से मिलना हो जाए तो जरा भी लाज-संकोच मत करना; दो टुकड़े कर देना तलवार उठा कर।
क्योंकि ध्यान के मार्ग पर दूसरे से मुक्त होना अनिवार्य है। तुम "पर' से मुक्त हो सकोगे, तभी तुम्हारी आंखें स्वयं पर पड़ेंगी। नहीं तो आंखें "पर' से उलझी रहती हैं। फिर "पर' कौन है, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता--तुम्हारा भाई, तुम्हारी बहन, तुम्हारी पत्नी, तुम्हारा पति या बुद्ध या महावीर या कृष्ण। "पर' तो "पर' है।
एक ऐसी घड़ी आएगी इस जिज्ञासा में, जहां प्रश्न ही रह जाएगा मैं कौन हूं, और सन्नाटा होगा। तुम्हारी हड्डी-हड्डी में, मांस-मज्जा में एक ही प्रश्न गूंजने लगेगा: "मैं कौन हूं!' तुम्हारे प्राणों में एक ही तीर चुभने लगेगा--और गहरा, और गहरा: "मैं कौन हूं, मैं कौन हूं!' और घबड़ाहट बढ़ेगी, बेचैनी बढ़ेगी, क्योंकि कहीं कोई उत्तर नहीं दिखाई पड़ता; सागर है चारों तरफ और किनारा कहीं भी नहीं है। वही घड़ी साहस की घड़ी है। अगर तुम उस घड़ी को पार कर गए तो उत्तर तक पहुंच जाओगे। उत्तर तक कब कोई पहुंचता है--जब ऐसी घड़ी आ जाती है कि कोई उत्तर नहीं बचता; तुम एकदम अज्ञानी हो जाते हो। कोई उत्तर नहीं बचने का अर्थ हुआ, एकदम अज्ञानी हो गए, निर्दोष बालवत हो गए। कुछ भी पता नहीं है। सब पांडित्य गया। सब बुद्धि गई। सब मन गया। सिर्फ प्रश्न बचा अब: "मैं कौन हूं, मैं कौन हूं!' एक धुन बची।
प्रश्न भी शब्द नहीं रह जाएंगे अंत में; सिर्फ एक बोध रह जाएगा कि मैं कौन हूं। ऐसा नहीं कि तुम दोहराओगे मैं कौन हूं। शुरू में दोहराओगे। शुरू में बात ओंठ पर होगी, फिर जीभ पर होगी, फिर कंठ पर होगी, फिर हृदय में उतर जाएगी। फिर तुम्हें दोहराना न होगा। तुम अनुभव करोगे कि मैं कौन हूं। एक प्रश्नवाचक चिह्न तुम्हारे प्राणों में खड़ा हो जाएगा। नहीं कि शब्द रहेंगे; शब्द तो गए और एक ऐसी स्थिति आएगी जब तुम सिर्फ प्यास ही प्यास रहोगे: "कौन हूं! कौन हूं!! कौन हूं!!!' उस प्यास को अगर झेल गए...तो जब सब उत्तर गिर जाते हैं तो अखीर में प्रश्न भी गिर जाता है। जब उत्तर आता ही नहीं कोई तो कब तक प्रश्न को पूछोगे?
खयाल रखना, जल्दबाजी मत करना। अपने से मत गिरा देना, अन्यथा बेकार गई बात। अपने से मत गिरा देना। चेष्टा से मत गिरा देना कि ठीक है कि अब बहुत हो गया, अब बंद करें। वर्ष लग सकते हैं। रोज पूछते चले जाओ। एक घंटा इसे दे दो। किसी दिन अचानक तुम पाओगे सब रुक गया: उत्तर तो गए, प्रश्न भी गया। तुम हो--खालिस तुम! शब्द नहीं बनते, बुद्धि की कोई तरंग नहीं उठती। उसी क्षण तुम पाओगे उत्तर मिल गया। उत्तर कुछ ऐसा थोड़े ही मिलेगा कि लिखा लिखाया कागज पर। उत्तर कुछ ऐसा थोड़े ही मिलेगा कि कोई कहेगा कि बेटा सुनो; कि वत्स, यह रहा उत्तर! उत्तर की तरह उत्तर न मिलेगा--अनुभव की तरह मिलेगा। तुम जान लोगे, एक बिजली कौंध गई। तुमने देख लिया। इसलिए तो हम दर्शन कहते हैं इस घड़ी को। तुमने देख लिया तुम कौन हो। अपने पर आंख पड़ गई। अपने से मुलाकात हो गई। अपने आमने-सामने पड़ गए।
और जिस घड़ी तुमने जान लिया तुम कौन हो, उसी घड़ी तुमने जान लिया कि जीवन का लक्ष्य क्या है। जीवन को जान लिया, जीवन का लक्ष्य जान लिया। स्रोत जान लिया, गंतव्य जान लिया। स्वयं को जान लिया, परमात्मा को जान लिया। क्योंकि तुम उसी की एक किरण हो। एक किरण को भी जान लो तो सारे सूरज का राज समझ में आ गया। सागर की एक बूंद को पहचान लो तो सारे सागरों का राज समझ में आ गया। एक बूंद में सारा सागर समाया है। एक तुम में सारा परमात्मा समाया है।
प्रश्न नहीं अस्तित्व बोध का
उससे तो बचना है
कोई नहीं विकल्प हमें
फिर नया कवच रचना है
हम हैं कौन, कहां से आए
हमको क्या होना है--
इन प्रश्नों का सार खोजना
व्यर्थ समय खोना है
क्योंकि मिलेगा जो भी उत्तर
वह केवल भ्रम होगा
दर्द हीनता और व्यर्थता का
न कभी कम होगा
हम हैं वह ही
जो कि हमें होना है।
समझो--
हम हैं वह ही
जो कि हमें होना है
हमें पराए बोझों को ढोना है।
तितली ने कब पूछा--
"मैंने पंख कहां से पाया?'
कांटे ने कब पूछा--
"मुझमें दंश कहां से आया?'
हम ही क्यों अनबूझ पहेली
आत्मसत्य की बूझें?
हमको ही क्या पड़ा कि
हम दिन-रात स्वयं से जूझें?
हम अभिव्यक्ति नहीं,
केवल माध्यम हैं;
नायक नहीं,
कथा के घटना-क्रम हैं।
ये नरभक्षी प्रश्न हमारी
काया नोच रहे हैं
छीज रहे हैं हम उतने ही
जितना सोच रहे हैं
पंथ कौन सा और कहां जाना है--
दुविधा त्यागो!
पीछे पड़ा हुआ है कोई क्रूर हिंस्र पशु
भागो!
भिन्न प्रक्रियाएं पर परिणति सम है
अंत वहीं है बंधु! जहां उदगम है।
तुम पूछते हो: जीवन का लक्ष्य क्या है?
अंत वहीं है बंधु! जहां उदगम है
हम हैं वह ही जो कि हमें होना है।
ये बातें थोड़ी विरोधाभासी लगती हैं।
हम हैं वही जो कि हमें होना है!
तुम अभी भी वही हो जो कि तुम्हें होना है।
बीज फूल ही है। अभिव्यक्ति का भेद है। अभी द्वार बंद पड़े हैं, कल द्वार खुल जाएंगे। अभी पंखुड़ियां सोई हैं, कल जग जाएंगी। बीज वही है जो उसे होना है।
इसलिए तुम हर किसी बीज से हर कोई फूल पैदा नहीं कर सकते। कमल के पौधे पर कमल का फूल लगेगा और गुलाब के पौधे पर गुलाब का फूल लगेगा। लाख उपाय करो तो भी कमल के पौधे पर गुलाब का फूल न लगेगा। क्योंकि हम हैं वही जो हमें होना है।
तुम्हारा भविष्य तुम्हारे भीतर पड़ा है। तुम्हारी संभावना तुम्हारे बीज में पड़ी है। और अंत वहीं है बंधु जहां उदगम है। हम जहां से आए हैं वहीं पहुंच जाते हैं। यह जीवन का एक परम सत्य है।
देखते हो, गंगा हिमालय से चलती है गंगोत्री से, गिरती सागर में है! तो शायद तुम कहोगे: "कहां पहुंची उदगम पर? चली थी गंगोत्री से, गिर गई गंगासागर में।' नहीं, फिर तुमने पूरी बात नहीं देखी। तुमने पूरा वर्तुल नहीं देखा। गंगा सागर से फिर उठेगी भाप बन कर आकाश में, फिर बादल बनेगी, और फिर बरसेगी हिमालय पर और गंगोत्री में उतरेगी। तब वर्तुल पूरा हुआ। गंगा जब फिर गंगोत्री में उतरेगी तो वर्तुल पूरा हुआ, यात्रा पूरी हुई।
अंत वहीं है बंधु! जहां उदगम है।
इसलिए तो सारे संत कहते हैं कि जब तुम सिद्धावस्था में पहुंचोगे तो फिर छोटे बच्चे की भांति हो जाओगे।
अंत वहीं है बंधु! जहां उदगम है।
जब तुम संतत्व को उपलब्ध होओगे तो सरल हो जाओगे--ऐसे जैसे अज्ञानी तो ज्ञान की चरम अवस्था ठीक अज्ञान जैसी है।
उपनिषद कहते हैं: जो कहे जानता हूं, जानना कि नहीं जानता। जो कहे कि नहीं जानता हूं, जानना कि जान लिया है उसने।
सुकरात ने कहा है: जब मैं जवान था तो सोचता था सब जानता हूं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ी वैसे-वैसे पैर डगमगाने लगे और मुझे लगा, सब कहां जानता हूं! थोड़ा-बहुत जान लूं, वही बहुत है। और जब ठीक-ठीक बूढ़ा हो गया तो पता चला कि कुछ भी नहीं जानता हूं। अज्ञानी हूं।
अज्ञान का परम बोध ज्ञान की परम घड़ी भी है। क्यों?
अंत वहीं है बंधु! जहां उदगम है।
लेकिन तुम दूसरों के उत्तर मत दोहराना। तुम्हें अपनी गंगोत्री खोजनी पड़ेगी।
छाई क्यों अजब उदासी है
जिंदगी बन गई दासी है
ताजगी नहीं गर खयालों में
जिंदगी तुम्हारी बासी है।
खोलो खिड़की, हो गई सुबह
रोशनी छिटक कर आने दो
दिल मचल रहा है गाने को
कुछ नया तराना गाने दो
तुम क्यों दोहराओ दूसरों की बातों को? तुम क्यों न अपना गीत गाओ? तुम क्यों उधारी से जीओ? क्यों न तुम अपनी निजता को प्रगट करो?
मत पूछो मुझसे कि कौन हो तुम! जाओ अपने भीतर। तुम हो, इतना पक्का है। तुम्हें अगर अपने पर संदेह हो तो भी तुम हो, इतना पक्का है।
पश्चिम के बहुत बड़े विचारक दिकार्त ने कहा है कि संसार में केवल एक बात असंदिग्ध है कि तुम हो। क्यों असंदिग्ध है? तो दिकार्त ने कहा कि संदेह भी अगर तुम करो तो संदेह करने के लिए भी तुम्हारा होना जरूरी है। संदेह कौन करेगा? आत्मा पर संदेह किया ही नहीं जा सकता। कम से कम संदेह करने के लिए तो स्वीकार करना होगा कि मैं हूं, मुझे संदेह है, मुझे भरोसा नहीं आता। लेकिन यह कौन है जिसे भरोसा नहीं आता? यह कौन है जिसे संदेह उठ रहा है?
तो जगत में एक ही सत्य है जो असंदिग्ध है--वह तुम्हारा होना है। इस असंदिग्ध सत्य में थोड़े उतरो। इसकी सीढ़ियों में थोड़े भीतर जाओ।
और "मैं कौन हूं' की जिज्ञासा अदभुत है। अगर कर सको तो तुम अपने कुएं में उतर जाओ। और वहां जो निर्मल, स्फटिक मणि सा निर्मल जल है, उसे पी कर सदा के लिए तृप्त हो सकते हो।
बांस, जो बांसुरी बन गया--गुरु

तीसरा प्रश्न: प्रभु से सीधे ही क्यों न जुड़ जाएं? गुरु को बीच में क्यों लें?

बड़ी कृपा! गुरु पर कृपा! इरादा अच्छा है। ऐसा ही करें। लेकिन यहां किसलिए आ गए? और यह भी पूछने की जरूरत पड़ रही है? तो गुरु की खोज शुरू हो गई। मुझसे पूछते हो? तो उसका अर्थ हुआ कि किसी से पूछने की जरूरत है।
एक युवक मेरे पास आया। उसने कहा कि मैं विवाह करूं या न करूं? मैंने कहा: "फिर तू कर ही ले।' तो उसने कहा: "फिर! फिर का मतलब क्या?' मैंने कहा: "जब पूछता है तो कर ही ले।' तो उसने पूछा: "आपने नहीं किया?' तो मैंने उससे कहा: "मैंने किसी से कभी पूछा ही नहीं।'
पूछते हो, उसका मतलब ही साफ है। इस प्रश्न का उत्तर भी तुम खुद नहीं खोज सकते, तुम परमात्मा को खुद कैसे खोजोगे? इस छोटी सी बात के लिए भी तुम्हें दूसरे पर निर्भर होना पड़ता है, तो उस विराट यात्रा पर तुम अकेले कैसे जा सकोगे? और यह सच है कि वह यात्रा अकेले की है। जा सको तो बड़ा शुभ। मगर जा न सकोगे। और क्या तुम सोचते हो गुरु तुम्हारे साथ जाता है उस यात्रा पर? कोई नहीं जा सकता किसी के साथ। गुरु भी नहीं जा सकता। फिर गुरु का उपयोग क्या है? गुरु का उपयोग सिर्फ तुम्हें ढाढस बंधाना है; सिर्फ तुम्हें साहस बंधाना है।
मैं छोटा था तो मुझे मेरे गांव में, जो व्यक्ति लोगों को तैरना सिखाते थे, उनके पास ले जाया गया। मैं तैरना सीखना चाहता था। नदी में मुझे बचपन से रस था। छोटा ही रहा होऊंगा--छह या सात साल का। वे जो गांव में तैरना सिखाते थे, बड़े अदभुत व्यक्ति थे। नदी से उनका लगाव भारी था। अब तो वे बूढ़े हो गए हैं अस्सी साल के, मगर इस समय भी वे नदी पर होंगे। वे सुबह चार बजे से ले कर दस बजे तक और फिर शाम पांच बजे से रात नौ बजे तक नदी पर ही...नदी ही उनका सब कुछ है, सार-सर्वस्व। अब उनका रस एक ही है कि कोई भी आ जाए तो उसको तैरना सिखा देना है।
जब मुझे उनके पास ले जाया गया तो मैंने उनसे कहा: "तैरना मुझे सीखना पड़ेगा कि आप सिखाएंगे?' उन्होंने कहा: "यह प्रश्न किसी ने पूछा नहीं। अब तुम पूछते हो तो सच तो यह है कि तैरना कोई किसी को सिखाता नहीं। मैं तो तुम्हें पानी में छोड़ दूंगा। तुम घबराओगे, हाथ-पैर फेंकोगे--वही तैरने की शुरुआत है। मैं किनारे पर खड़ा रहूंगा। इससे तुम्हें हिम्मत रहेगी कि डूब नहीं जाओगे। अगर जरूरत पड़ी तो मैं बचाऊंगा। मगर जरूरत कभी पड़ती नहीं।'
तो मैंने फिर उनसे कहा कि फिर ऐसा करें, आप किनारे पर खड़े रहें, मैं कूद जाता हूं। फिर आप मुझे फेंके पानी में, इसकी भी क्या जरूरत? और अगर जरूरत पड़ती ही नहीं है तो अगर मैं डूबने भी लगूं तो बचाना मत। क्योंकि मैं अपने से ही सीखना चाहूंगा।
वे बैठ गए। मैं पानी में उतर गया। स्वभावतः डुबकियां खा गया। पानी मुंह में चला गया। हाथ-पैर फेंके। लेकिन एक बात साफ थी कि जब वे कहते हैं, तैरना सिखाने में तो कुछ है नहीं, पानी में छोड़ देना पड़ता है, तो हाथ-पैर फेंके। पहले ढंग न था हाथ-पैर फेंकने में, फिर ढंग भी आ गया। एक तीन दिन में तैरना आ गया। और उनके मैंने हाथ का सहारा भी न लिया।
सच तो यह है कि धर्म में उतरना तैरने जैसी बात है। तुम्हें तैरना आता ही है, थोड़ा सा उतरने की बात है जल में। थोड़े हाथ-पैर फेंकोगे। पहले अस्तव्यस्त होंगे, व्यवस्थित न होंगे, घबराहट से भरे होंगे। फिर धीरे-धीरे भरोसा आएगा। क्यों? भरोसा आ ही जाएगा, क्योंकि नदी किसी को डुबाती थोड़े ही है। नदी तो उठाती है।
तुमने देखा नहीं, जिंदा आदमी डूब जाता है और मुर्दा आदमी नदी पर तैरने लगता है। अब यह बड़े मजे की बार है। जिंदा को जरूर कोई कला आता होगी जिसके कारण डूब गया। मुर्दा तैर रहा है और जिंदा डूब गया। तो जिंदा अपने ही कारण डूबा होगा; नदी के कार नहीं डूब सकता, क्योंकि नदी तो मुर्दे तक को नहीं डुबा रही। मुर्दा पानी पर तैर आता है। पानी में स्वाभाविक उठाव है। पानी बड़ा अदभुत है। उसमें छिपा एक राज है जिसको वैज्ञानिक तलाशते हैं, अभी तक तलाश नहीं पाए। और उस राज में और भी बहुत से राज छिपे हैं। धर्म का सारा राज उसमें छिपा है। इसलिए मैंने तैरने के प्रतीक को ऐसे ही नहीं चुन लिया। ध्यानपूर्वक तरने के प्रतीक की मैं बात कर रहा हूं।
वैज्ञानिकों ने तीन सौ साल पहले खोज की, न्यूटन ने खोज की कि जमीन में गुरुत्वाकर्षण है। कथा तुमने सुनी है कि न्यूटन बैठा था बगीचे में और एक सेव का फल गिरा और उसे विचार आया कि कोई भी चीज गिरती है तो नीचे क्यों गिरती है, ऊपर क्यों नहीं गिरती! ऊपर की तरफ क्यों नहीं गिरती? नीचे की तरफ क्यों गिरती है? पत्थर फेंको, नीचे आ जाता है। हर चीज नीचे गिर जाती है। क्या राज है? सोचा-विचारा, खोजा, तो गुरुत्वाकर्षण, कशिश का सिद्धांत निकाला कि जमीन में आकर्षण है। नीचे की तरफ खींचने वाली एक शक्ति है जो हर चीज को नीचे खींच लेती है।
उसकी बात को बहुत विस्तार मिला। और आज का विज्ञान करीब-करीब न्यूटन की इस खोज पर खड़ा है, इसके बिना खड़ा नहीं हो सकता था। कशिश का सिद्धांत विज्ञान का आधार बन गया। लेकिन यह सिद्धांत अधूरा है। जिंदगी में कोई भी चीज अपने द्वंद्व के बिना नहीं होती।
न्यूटन के जमाने में एक और आदमी था--कवि, चिंतक, मनीषी संत--उसका नाम था रस्किन। उसने एक मजाक में बात कही न्यूटन के खिलाफ, लेकिन किसी ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। उसने कहा कि न्यूटन महाशय, यह तो सच है कि यह सेव का फल वृक्ष से गिरा और नीचे आ गया। लेकिन मैं पूछना चाहता हूं: यह ऊपर कैसे पहुंचा? पहले इसका तो पता लगाओ कि यह ऊपर कैसे पहुंचा!
तुम रोज देखते हो कि वृक्ष ऊपर उठता जाता है। कहीं छिपा था बीज में यह सेव का फल, एक दिन ऊपर खिला वृक्ष पर जा कर। यह पहले ऊपर कैसे पहुंचा, यह तो पता लगा लो; फिर नीचे कैसे आया, यह तो नंबर दो की बात है, यह दोयम है। यह ऊपर कैसे गया? और छोटी घटना नहीं है। लेबनान में सीदार के वृक्ष होते हैं पांच सौ फीट ऊंचे, छह सौ फीट ऊंचे, सात सौ फीट ऊंचे! सात सौ फीट ऊपर की पत्ती पर भी जड़ों से जल पहुंच जाता है। जलधार चढ़ती है। सात सौ फीट ऊपर भी कोई चीज ऊपर चढ़ा रही है।
रस्किन की बात पर किसी ने बहुत ध्यान नहीं दिया, क्योंकि संतों की बात पर कौन बहुत ध्यान देता है! कवियों की बात को तो लोग टाल देते हैं कि कवि है, जाने दो। मगर मैं तुमसे कहता हूं कि न्यूटन से ज्यादा महत्व की बात रस्किन ने कही है और आने वाले भविष्य के विज्ञान को रस्किन से समझौता करना होगा। और काम शुरू हुआ है। एक नए सिद्धांत की चर्चा वैज्ञानिक तबकों में शुरू हुई है जिसको वेलैविटी कहते हैं। ग्रेविटेशन, नीचे खींचने की शक्ति; और लैविटेशन, ऊपर खींचने की शक्ति। और निश्चित ही होनी चाहिए, क्योंकि जीवन हमेशा समतुल होता है। जन्म तो मृत्यु। दिन तो रात। गर्मी तो सर्दी। प्रेम तो घृणा। तुमने भी ऐसी कोई चीज देखी जो अपने विपरीत के बिना हो? ऐसा कुछ भी नहीं है। पुरुष तो स्त्री। बचपन तो बुढ़ापा। ज्ञान तो अज्ञान। साधु तो असाधु। तुमने कभी कोई ऐसी चीज देखी जीवन में जो अपने से विपरीत के बिना हो? अगर पाजिटिव विद्युत तो निगेटिव विद्युत। दोनों साथ ही होते हैं निगेटिव-पाजिटिव; अलग-अलग कर लो तो नहीं होते; दोनों समाप्त हो जाते हैं। तो ग्रेविटेशन का सिद्धांत अकेला ही एक ऐसा सिद्धांत है जो अकेला होगा? नहीं हो सकता। अपवाद नहीं होते। जरूर कोई सिद्धांत होगा जो चीजों को ऊपर भी खींचता है।
रस्किन ने जो बात कही, उसके कहने के पीछे कारण था, क्योंकि संतों ने सदा से उस सिद्धांत का नाम दिया है। उस सिद्धांत का नाम संतों की भाषा में "प्रसाद' है। ग्रेविटेशन और ग्रेस। कशिश और प्रसाद। जो ऊपर खींचता है वह प्रसाद। जल में वह प्रसाद है कि वह ऊपर उठाता है। तो जल डुबाता ही नहीं।
तैरने की कला में कोई कठिनाई नहीं है; सिर्फ तुम्हें जल पर भरोसा आना चाहिए। दो-चार दिन हाथ-पैर फेंक कर तुम्हें भरोसा आ जाता है कि घबराने की कोई जरूरत नहीं है; जल डुबाता ही नहीं है। तुम्हारा संदेह गया कि तुम तैरने लगे। श्रद्धा आई कि तैरने लगे। श्रद्धा और तैरना एक ही साथ घट जाता है। अब जल से थोड़ी पहचान की भर जरूरत है। जल की इस क्षमता की पहचान की जरूरत है।
तुमने देखा, कुएं में तुम गागर डालते हो! जब पानी भरता है और गागर कुएं में पानी में डूबी होती है तो हाथ पर बिलकुल वजन नहीं मालूम होता। फिर तुम गागर को खींचते हो। जैसे ही गागर पानी के ऊपर आई कि वजन शुरू होता है।
तुमने देखा, पानी में तुम अपने से दुगुने वजन के आदमी को उठा सकते हो, पानी के बाहर नहीं। पानी वजन के विपरीत है। पानी वजन को काटता है। पानी भार-रहितता को पैदा करता है।
तो तैरने में कोई कला नहीं है।
इसलिए तैरने के संबंध में एक बात और खयाल रख लेना कि तैरना एक दफे आ गया तो तुम कुछ भी उपाय करो, भूल नहीं सकते। तुमने और कोई चीज ऐसी देखी जिसको तुम भूल न सको? हर चीज सीखी हुई भूल जाती है। सीखी हुई चीज विस्मृत हो जाती है। लेकिन तैरना भूलता नहीं। तो इसका अर्थ इतना ही हुआ कि तैरना सीखना नहीं है; जीवन का एक सत्य है। एक दफा पहचान हो गई तो हो गई; अब भूलोगे कैसे? यह कोई ऐसी-वैसी बात थोड़े ही है कि स्मृति से उतर गई, कि तैरना आता था और गए नदी में और भूल गए और चिल्लाने लगे कि भाई मैं भूल गया हूं कि तैरना कैसा होता है। ऐसा तो संभव नहीं है।
इसलिए परमात्मा का स्मरण एक बार आ जाए तो फिर नहीं भूलता। और एक बार ध्यान लग जाए तो फिर नहीं भूलता। और एक बार प्रेम का चस्का लग जाए तो फिर नहीं भूलता। और एक दफा प्रार्थना की किरण उतर जाए तो फिर नहीं भूलती। भूल ही नहीं सकती, क्योंकि परमात्मा कोई सिखावन थोड़े ही है--हमारा स्वभाव है।
जल में तैरते समय तुम्हारा स्वभाव और जल का स्वभाव जब मेल खा जाता है, तो तैराक बिना हाथ-पैर हिलाए जल पर पड़ा रह जाता है, जल उसे उठो रखता है। हाथ-पैर भी हिलाने की जरूरत नहीं रह जाती। तालमेल बैठ गया, संगीत सध गया।
ठीक ऐसी ही घटना गुरु के साथ घटती है परमात्मा में प्रवेश करते समय। गुरु कुछ करता नहीं। गुरु की मौजूदगी कैटेलिटिक एजेंट है। उसकी मौजूदगी से तुम्हें हिम्मत रहती है। अगर तुममें हिम्मत काफी हो तो गुरु की कोई भी जरूरत नहीं है। गुरु के बिना भी लोगों ने परमात्मा को जाना है। बहुत थोड़े लोगों ने जाना है, लेकिन गुरु के बिना भी जाना है। इसलिए तुम घबराना मत। अगर गुरु के बिना जानना हो तो गुरु के बिना भी जानना हो सकते है।
लेकिन खयाल रखना, कहीं यह सिर्फ अहंकार ही न हो जो कह रहा है, गुरु के बिना जानेंगे। अगर यह अहंकार है तो फिर न जान पाओगे। तुम फिर बुरी तरह डूबोगे। बुरी डुबकी खाओगे। तो खोजबीन कर लेना अपने भीतर।
इसको ऐसा समझो। गुरु तुम्हारे लिए थोड़े ही कुछ करता है, सिर्फ तुम्हारे अहंकार को उतार लेता है, तुम्हारे अहंकार को काट देता है। तुम तो जैसे हो, एकदम सुंदर, एकदम भले, एकदम सत्य, एकदम शुभ, शिवं! सिर्फ तुम्हारा अहंकार जो तुम्हारे ऊपर बैठा है, उसको खींच लेता है। और अहंकार कुछ है नहीं; सिर्फ भ्रांति है, सिर्फ एक धारणा है। तो गुरु के सत्संग में वह धारणा गिर जाती है, भ्रांति उतर जाती है। भ्रांति उतर जाए, बस तुम सर्वांग सुंदर हो। अगर तुमसे हो सके तो जरूर कर लेना, कोई अड़चन नहीं है।
और मैं जानता हूं कि यह प्रश्न एकदम व्यर्थ भी नहीं है। गुरुओं के नाम से जो चलता है, उससे कोई भी सोच-विचार-शील व्यक्ति परेशान हो जाता है--जो पाखंड चलता है, जो धोखाधड़ी चलती है, जो झूठ चलता है। गुरु के नाम से जिस-जिस तरह के लोग दावेदार बन जाते हैं उससे स्वभावतः ऐसा प्रश्न उठ सकता है।
सबके सब मरीज
मरीज तो मरीज
डाक्टर भी
इसलिए मदद नहीं कर सकते
एक-दूसरे की
लाचार
सबके सब बीमार
कोई आंख से, कोई कान से,
कोई तन से, कोई मन से
इतना बड़ा अस्पताल
कोई नहीं तीमारदार
सबके सब बीमार।
तो कभी-कभी ऐसा लगता है कि यहां तो जिनको तुम गुरु कह रहे हो वे भी उसी नाव में सवार हैं जिसमें तुम सवार हो। कुछ फर्क नहीं है। न उन्हें मिला है, तो तुम्हें कैसे मिला देंगे? न उनकी आंखों में झलक है परमात्मा, न उनके जीवन में शांति है परमात्मा की, न उनके प्राणों से सुगंध उठती है, न उनके वक्तव्यों की प्रामाणिकता है कोई। उनका गीत बासा है, किसी और का गाया हुआ है। अपना गीत खुद भी अभी गाया नहीं है, तो तुम्हारे भीतर सोए गीत को कैसे जगा देंगे?
गुरु का अर्थ होता है, ऐसे व्यक्ति को खोज लेना जिसका स्वयं का जीवन-फूल खिला हो। कठिन है, दुर्लभ है। गुरु को पा लेना इतना आसान नहीं है। तुम तो गुरु से बचना चाह रहे हो, मैं तुमसे यह कहता हूं कि तुम अगर पाना भी चाहो तो इतना आसान नहीं। फिर, गुरु मिल भी जाए तो तुम यह मत सोच लेना कि तुम्हें अंगीकार कर ही लेगा। क्योंकि तुम जैसा गुरु खोजते हो वैसा गुरु शिष्य खोजता है।
शिष्य का अर्थ होता है: सीखने की विनम्रता; सीखने के लिए समर्पण; सीखने के लिए झुकने की क्षमता। तो तुम अकड़ कर अगर खड़े रहे तो तुम गुरु को खोज भी लो तो भी गुरु तुम्हें स्वीकार न कर पाएगा। नहीं कि गुरु स्वीकार नहीं करना चाहता; करना चाहता है, लेकिन कोई उपाय नहीं है। तुम अकड़े खड़े हो, तुम्हें बदला नहीं जा सकता। तुम्हारे सहयोग के बिना तुम्हें बदला नहीं जा सकता।
और फिर, गुरु का अर्थ क्या होता है? गुरु का इतना ही अर्थ होता है कि परमात्मा तो अदृश्य है, उसकी तो हम पहचान भी जुटाएं भी तो कहां से जुटाएं, कहीं उसकी झलक भी पड़ती हो थोड़ी-बहुत तो भरोसा आ जाए। आकाश का चांद तो बहुत दूर है।
तुमने देखा नहीं, कभी छोटे बच्चे रोने लगते हैं कि चांद पाना है, तो मां क्या करती है! एक थाली में जल भर कर रख देती है। आकाश का चांद थाली के चांद में प्रतिबिंबित होने लगता है। बच्चा प्रफुल्लित हो जाता है। कि मिल गया चांद, अपनी थाली में आ गया!
गुरु ऐसा ही है जैसे थाली में चांद। चांद तो बहुत दूर है। शायद हमारी आंखें उतनी ऊपर उठने में अभी समर्थ भी नहीं हैं। शायद सत्य का सीधा-सीधा साक्षात्कार हम कर भी न पाएंगे। शायद सत्य इतना विराट होगा, इतनी चकाचौंध से भरा होगा...। देखा नहीं, दया बार-बार कहती है कि हजार-हजार सूरज उग गए, ऐसी चकाचौंध है! अगर तुम तैयार नहीं तो तुम घबरा जाओगे। परमात्मा विराट है; तुम्हारे छोटे से आंगन में समा न सकेगा। अगर तुमने दीवालें नहीं तोड़ दी हैं पहले से तो तुम बिलकुल डांवाडोल हो जाओगे, भूकंप आ जाएगा, भूचाल आ जाएगा।
गुरु, जो असीम है, उसको सीमा में झलकाता है। गुरु तुम जैसा है और तुम जैसा नहीं भी। इसलिए गुरु का हाथ पकड़ने की सुविधा है; परमात्मा का तो हाथ तुम पकड़ न सकोगे। क्योंकि उसका कोई हाथ नहीं है। तुम टटोलते रहोगे, उसका हाथ तुम्हारी पकड़ में न आएगा। परमात्मा तो निराकार है। परमात्मा तो निर्गुण है। गुरु साकार है। गुरु सगुण है।
बांस का मैं तो टुकड़ा क्षुद्र
मुझे अपनी पूरी पहचान
तुम्हारे अधरों का पा स्पर्श
उठा है फूट कंठ से गाना
तुम्हारा ही तो वह श्वास
कि जो मुझमें भरता है राग
तुम्हारा ही गाता मैं गीत
गुंजाता और तुम्हारी तान।
गुरु तो क्या है--बांस का एक टुकड़ा है! एक ऐसा टुकड़ा जो बांसुरी बनने को तैयार हो गया है। एक ऐसा टुकड़ा जो परमात्मा के स्वर को गुंजाने को तत्पर हो गया है।
बांस का मैं तो टुकड़ा क्षुद्र
मुझे अपनी पूरी पहचान
तुम्हारे अधरों का पा स्पर्श
उठा है फूट कंठ से गान
तुम्हारा ही तो वह श्वास
कि जो मुझमें भरता है राग
तुम्हारा ही गाता मैं गीत
गुंजाता और तुम्हारी गान।
तो गुरु के पास परमात्मा को सीखने की बारहखड़ी मिलेगी। गुरु का अर्थ इतना ही है: मानवीय भाषा में, मनुष्य की सीमा में, परमात्मा की थोड़ी सी झलक।
गुरु द्वार है। तुम बिना द्वार के भी जा सकते हो, कोई अड़चन नहीं है। तुम्हारी मर्जी। कोई मेहमान की तरह आता है, कोई चोर की तरह भी आ सकता है। मेहमान तो आता है घर के मुख्य द्वार से, मेजबान द्वार पर खड़ा हुआ स्वागत करता है कि आइए, पधारिए। फिर कोई चोर भी है, वह रात के अंधेरे में सेंध लगा कर घुस जाता है। परमात्मा के जगत में चोर भी पहुंच जाते हैं, ऐसा भी कुछ नहीं है। और उसकी चोरी करने में कुछ हर्जा भी नहीं है। उसकी चोरी न करेंगे तो किसकी करेंगे! वह खुद भी चोर है। इसलिए तो हिंदुओं ने उसको एक नाम दिया है: हरि। हरि का अर्थ होता है जो हर ले, चुरा ले, चोर। वह खुद भी चोर है; वह लोगों के हृदय चुराता रहता है। तो तुमने अगर उसके साथ चोरी की और जेब काट लिया, कुछ हर्जा नहीं है। तो तुम्हारी मौज, अगर सेंध लगा कर जाना हो, ऐसे चले जाना। खिड़की कूद कर जाना हो, ऐसे चले जाना। बागुड़ छलांग लगाकर जाना हो, ऐसे चले जाना। तुम्हारी मौज। मगर मुख्य द्वार से भी जा सकते हो। गुरु मुख्य द्वार है। सीधे भी जा सकते हो। सुगम मार्ग से भी जा सकते हो।
फिर एक बात खयाल रखना--
दानी समुंदर ने मुझे प्यासा स्वयं लौटा दिया
फिर इस कृपण संसार में मिलता कहां पानी मुझे
सागर कृपण होता नहीं, मैंने यही सोचा किया
जितना जहां भी नीर है सब है समुंदर का दिया
लेकिन समुंदर से मुझे इतनी मिली अवहेलना
पानी नदी से मांगते आई परेशानी मुझे।
मैंने सुना था व्योम से, प्यारा बड़ा संसार है
सौ-सौ जनम के घाव का मरहम यहां का प्यार है
लेकिन जगत के प्यार ने कुछ इस कदर सदमा दिया
अच्छी नहीं लगती यहां कोई मेहरबानी मुझे।
मैं जानता हूं, तुम्हारी तकलीफ क्या है! तुमने जीवन में बहुत संबंध बनाए और सब जगह धोखा खाया। तो डरते हो कि अब यह गुरु का संबंध बनाना कि नहीं!
लेकिन जगत के प्यार ने कुछ इस कदर सदमा दिया
अच्छी नहीं लगती यहां कोई मेहरबानी मुझे।
अब तुम डर गए हो। और गुरु के साथ तो और कोई नाता नहीं हो सकता; उसकी मेहरबानी का ही, उसकी कृपा का ही। और यहां तुमने बहुत कृपाएं देखीं और सब जगह धोखा खाया। यहां तुमने बहुत दरवाजे टटोले और सब जगह दीवाल पाई। और यहां तुमने बहुत प्यार चखे और जहर पाया और नरक निर्मित हुआ। अब तुम गुरु के प्रेम से भी थोड़े डरते हो।
अच्छी नहीं लगती यहां कोई मेहरबानी मुझे।
अगर तुम समुंदर जाओ, समुंदर तो इतना विराट है, लेकिन उसका पानी पी सकोगे? वह तो पानी पिया न जा सकेगा।
दानी समुंदर ने मुझे प्यासा स्वयं लौटा दिया
फिर इस कृपण संसार में मिलता कहां पानी मुझे।
फिर मैं सोचने लगा कि जब समुंदर तक ने लौटा दिया खाली हाथ और पानी मुझे पीने को न मिला तो अब पानी मुझे मिलेगा कहां!
सागर कृपण होता नहीं, मैंने यही सोचा किया
जितना जहां भी नीर है, सब है समुंदर का दिया
लेकिन समुंदर से मुझे इतनी मिली अवहेलना
पानी नदी से मांगते आई परेशानी मुझे।
लेकिन ध्यान रखना, नदी का पानी ही पिया जा सकता है; हालांकि नदी में समुंदर का ही पानी है, मगर पिया नदी का ही पानी जा सकता है।
परमात्मा समुंदर जैसा है, गुरु नदी जैसा है। गुरु छोटा सरोवर है। गुरु को जो भी मिला है, परमात्मा से मिला है। लेकिन तुम परमात्मा को सीधा न पी सकोगे। समुंदर को कौन सीधा पी सकता है! तुम्हारे पीने योग्य पानी बन जाता है गुरु के भीतर से जब परमात्मा आता है।
गुरु तो एक कीमिया है। तुम मिट्टी तो नहीं खा सकते, कि खा सकते हो? छोटे बच्चे को छोड़ कर और कोई चेष्टा करता नहीं। मिट्टी तुम नहीं खा सकते। लेकिन तुम जो भी खाते हो, सब मिट्टी से बनता है। गेहूं खाते, चावल खाते, अंगूर, सेव, नाशपाती, कुछ भी खाओ, सब मिट्टी से बनती है। लेकिन मिट्टी तुम सीधी नहीं खा सकते। वृक्ष कुछ बड़ा काम कर देता है--मिट्टी को ऐसा रूपांतरित कर देता है कि तुम्हारे पचाने योग्य हो जाती है, वृक्ष बीच का रास्ता है। वृक्ष मिट्टी को तुम्हारे पेट के योग्य बना देता है। ऐसा गुरु है।
परमात्मा को तुम सीधे न पचा पाओगे--गुरु के माध्यम से पचने योग्य हो जाता है। लेकिन तुमने अगर तय किया हो कि बिना गुरु के जाना है तो मजे से जाओ। जाओगे कहां? किस दिशा में जाओगे? किसको खोजोगे? जिसको भी खोजने तुम जाओगे, वह किसी न किसी गुरु का कहा हुआ है। ईश्वर को खोजोगे? तो तुमने मान ली किसी गुरु की बात। उपनिषद की मान ली, वेद की मान ली कुरान की मान ली। आत्मा को खोजोगे? मान ली किसी गुरु की बात। महावीर की मान ली कि कृष्ण की मान ली। मोक्ष खोजोगे, निर्वाण खोजोगे? मान ली किसी गुरु की बात। क्या खोजोगे? तुम जो भी खोजोगे, किसी गुरु की बात मान ली। और अगर माननी ही हो किसी गुरु की बात तो किसी जिंदा गुरु की मानना। क्योंकि मुर्दे गुरु पूजने के लिए अच्छे हैं, और ज्यादा काम नहीं आ सकते।
लोग होशियार हैं; वे पूजना ही चाहते हैं, रूपांतरण नहीं चाहते। तो फिर ठीक है। तो तुम मुर्दा गुरु को खोज लेना। जरा गुरु की आंख से तुम अगर झांको तो सत्य की तुम्हें सीधी परख होनी शुरू होगी। जिंदा गुरु के हृदय में अगर तुम थोड़े धड़को--और यही तो सत्संग का अर्थ है कि गुरु के पास बैठ गए; उसके राग में राग मिलाया; उसकी तरंग में तरंग डुबाई; उसके हृदय के साथ थोड़े धड़के; थोड़े उसके साथ चले, उसकी रौ में बहे, उसकी धारा में डुबकी लगाई।
गुरु का क्या अर्थ है? इतना ही कि कोई दूरबीन उपलब्ध है।
तुम जरा मेरी आंखों के करीब आओ। तुम थोड़ा मेरी आंखों से देखो। उस देखने से तुम्हें खयाल आएगा कि तुम्हारी आंखें कैसी होनी चाहिए। तुम जरा मेरे उत्सव में सम्मिलित हो जाओ तो तुम्हें खयाल आएगा कि तुम्हारा जीवन कैसा उत्सव होना चाहिए। गुरु बनाने का क्या और अर्थ होता है?
संन्यास--एक तलाश अमर संपदा की

चौथा प्रश्न: मैं तीन वर्ष से संन्यास लेना चाहता हूं, लेकिन नहीं ले पा रहा हूं। क्या कारण हो सकता है?

एक छोटा लतीफा--
एक युवक, बड़ा शरमीला, अपनी प्रेयसी को लिए चांदनी रात में बैठा है। शरद-पूर्णिमा होगी। एकांत है। वृक्ष के तले दोनों बैठे हैं। शरमीला युवक है, लाज-संकोच से भरा। सन्नाटा भारी होने लगा है, कुछ बोलता नहीं। आखिर बड़ी हिम्मत जुटा कर लड़खड़ाते-लड़खड़ाते कहा: "क्यों मैं...क्या मैं...क्या मैं तुम्हें चूम सकता हूं?' युवती ने उसकी तरफ आंखें उठा कर देखा। निमंत्रण था उन आंखों में, धन्यवाद था उन आंखों में। लेकिन युवक तो अपनी आंखें जमीन पर गड़ाए था। फिर सन्नाटा का सन्नाटा हो गया। अब चुप्पी और भी भारी हो गई। आधा घड़ी बाद उसने फिर पूछा: "क्या मैं...क्या मैं...क्या मैं तुम्हें चूम सकता हूं?' युवती फिर उसकी तरफ आंखें उठा कर देखी, लेकिन अब वह आकाश के चांदत्तारों को देख रहा था--बचने के लिए! फिर सन्नाटा हो गया। आखिर आधा घड़ी बाद, अब तो बहुत बोझिल होने लगी बात, उस युवक ने कहा: "क्या तुम अचानक बहरी हो गई हो? या गूंगी हो गई हो?' युवती ने कहा: "नहीं, न बहरी न गूंगी; लेकिन तुम्हें क्या लकवा मार गया है?'
इतना ही मैं तुम्हें कह सकता हूं। "तीन साल से संन्यास लेना चाहता हूं'--तुम्हें क्या लकवा मार गया है? अब किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? और नाम है तुम्हारा गोवर्धनदास। ऐसा अच्छा नाम! इसको गोबरदास करके रहोगे? तीन साल! सोचते ही रहोगे, विचारते ही रहोगे? जिंदगी निकल जाएगी हाथ से। नाम तो बड़ा प्यारा है: गोवर्धनदास! हिम्मत करो; नहीं तो मरते वक्त, मैं तुमसे फिर कहता हूं, गोबरदास रह जाओगे।
अब तुम मुझसे पूछ रहे हो कि मैं तीन वर्ष से संन्यास लेना चाहता हूं, लेकिन नहीं ले पा रहा हूं, क्या कारण हो सकता है! कारण कुछ भी नहीं है। साहस की कमी होगी। हिम्मत की कमी होगी।
संन्यास का अर्थ होता है: हिम्मत, साहस। यह तो पागल होने की बात है। वह दया कहती है न बार-बार कि कभी हंसता, कभी रोता कभी गाता--ऐसा होता भक्त! कहीं पैर पड़ता, कहीं पड़ जाता--ऐसा होता भक्त। बड़ी अटपटी बात!
संन्यास तो एक और ढंग की जीवन-शैली है। एक तो संसार है--एक जीवन-शैली। दुकान-दफ्तर, पत्नी-बच्चे, धन, पद-प्रतिष्ठा--संसार की शैली है। इस संसार की शैली में संन्यास की किरण को लाने का अर्थ है कि तुमने इसके आधार बदलने शुरू किए। अब धन से ज्यादा मूल्यवान ध्यान हो गया। अब पत्नी और पति से ज्यादा मूल्यवान परमात्मा हो गया। अब पद-प्रतिष्ठा से ज्यादा मूल्यवान मोक्ष हो गया, मुक्ति हो गई। अब तुम्हारे सारे जीवन की आधारशिला बदली। सब अस्तव्यस्त हो जाएगा, अराजकता फैल जाएगी। फिर से सब नया जमाना होगा।
तो संन्यास कोई छोटी घटना नहीं है; बड़ी घटना है। इसलिए डर लगता है। तो सोचते हो, जैसा चल रहा है चलाए चले जाओ। चलाए जाओ। मौत आएगी और सब छीन लेगी।
संन्यास का अर्थ है: कुछ ऐसी कमाई कर लो कि मौत न छीन सके। संन्यास का अर्थ है: मौत को ध्यान में रख कर कुछ कमाओ। संसार का अर्थ है: मौत को भूल जाओ और कमा लो। मौत तो छीन लेगी, तुम्हारा कमाया न कमाया सब बराबर हो जाएगा। कमाया कि गंवाया, सब बराबर हो जाएगा। मौत तुम्हारी दीवाली और दिवाले को बराबर कर जाएगी। कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
मौत को ध्यान में रख कर जो व्यक्ति जीवन को जीता है, वह संन्यासी है। और मौत को ऐसा किनारे रख कर मौत को भूल कर जो जीता है, वह संसारी है। अब मौत को सामने रख कर जीना कठिन काम है। यह बात ही सोचना मन को बहुत घबराती है कि मुझे मरना होगा। मुझे और मरना होगा! मन कहता है: "और सब मरते हैं, मैं थोड़े ही मरने वाला हूं! यह सब औरों को घटती है बात, मैं तो कोई तरकीब निकाल लूंगा और बचा रहूंगा।' मौत को बाद दे देने का नाम है संसार। और मौत को ध्यान में रख कर, मौत को साक्षात्कार में ले कर जीवन की विधि को बना लेना संन्यास है। मौत को बीच में लेते ही सारे मूल्य बदल जाते हैं।
ऐसा हुआ कि एक युवक एकनाथ के पास मिलने आता था और एक प्रश्न बार-बार पूछता था कि आप इतने शांत, इतने आनंदित, इतने मगन सदा बने रहते हैं। यह कैसे होता होगा? एकनाथ सुनते और चुप रह जाते। एक दिन युवक आया, फिर उसने वही पूछा कि मुझे भरोसा नहीं आता। मैं कभी-कभी घर में सोचने लगता हूं कि हो सकता है, जब सबके सामने रहते हैं तो बड़े मुस्कुराते रहते हैं और एकांत में न मुस्कुराते हों। रात जब सोते हों तो हमारे ही जैसे हो जाते हों। दिखावा ही हो, क्या पता! क्योंकि यह हो कैसे सकता है, मुझे नहीं हो रहा, किसी और को नहीं हो रहा, तो यह आनंद की वर्षा तुम्हें कैसे हो रही है! और तुम्हारे पास कुछ दिखाई भी नहीं पड़त जिसके कारण आनंद हो सकता है--न धन है, न पद है, न प्रतिष्ठा है, न यश है। क्या है तुम्हारे पास--नंगे फकीर हो! यह लंगोटी पर इतने प्रसन्न हो रहे हो!
तो उस दिन एकनाथ ने देखा कि शायद ठीक क्षण आ गया। उन्होंने युवक से कहा कि तेरा हाथ देखूं जरा। हाथ हाथ में ले लिया, उदास हो गए। युवक घबरा गया। उसने कहा कि क्यों आप उदास हो गए; बात क्या है? हाथ में क्या देखा? एकनाथ ने कहा: "देखा कि तेरी उम्र की रेखा कट गई है। सात दिन और प्यारे! बस सात दिन से ज्यादा अब नहीं है उम्र। सात दिन बाद जैसे ही रविवार का सांझ का सूरज डूबेगा, तुम भी डूबे।'
वह तो युवक उठ कर खड़ा हो गया; एकनाथ ने कहा: "अरे, जाते कहां? अभी तो तेरे प्रश्न का उत्तर देना है, तू जो सदा से पूछता रहा है।'
उस युवक ने कहा: "भाड़ में जाने दो प्रश्न और प्रश्न का उत्तर। जय राम जी! अब यह कोई वक्त है तत्व-चर्चा का?'
पसीना-पसीना हो गया युवक। अभी आया था, सीढ़ियां अभी-अभी चढ़ा था। तब एक शान थी, पैरों में एक बल था। अब जब उतरा तो दीवाल का सहारा ले कर उतरने लगा सीढ़ियां। बूढ़ा हो गया। क्योंकि जब मौत का स्मरण आ गया तो सब बात डांवाडोल हो गई। सब योजनाएं बना रखी थीं--क्या करना, क्या नहीं करना! वे सब गईं। यह तो सब जैसे ताश का महल बनाया था और हवा का झोंका आया और गिर गया।
घर गया, बिस्तर से लग गया। पत्नी को बताया, पत्नी रोने लगी। बच्चे रोने लगे। मोहल्ले-पड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए और सारे गांव में खबर फैल गई। और एकनाथ कहें तो ठीक ही कहा होगा। अब एकनाथ, तो झूठ तो बोलेंगे नहीं। मौत निश्चित है।
वह तो तीसरे-चौथे दिन तो आधा मर ही गया। वह तो बिस्तर पर लगा पड़ा रहे। ताकत ही न रही। भोजन में रस न रहा। कोई भोजन का कहे तो वह कहे क्या सार! जिनसे दुश्मनी थी उनसे क्षमा मांग आया। जिनसे मुकदमे चल रहे थे, उनसे कहा कि भाई, माफ करना, भूल-चूक हो गई। सारे झगड़े-झांसे सब खतम हो गए। मौत आ गई, अब क्या झगड़ा-झांसा, अब किससे...! ये तो सब जीवन के राग-रंग हैं। कौन अपना कौन पराया! पत्नी भी पास बैठी रहती तो वह ऐसे ही देखता है जैसे कोई बैठा है। अपना बेटा भी पास आता तो वह ऐसे ही देखता जैसे कि कोई आया। गए अपने-पराए। टूट गए सब संबंध। जब मौत आ गई तो सब बिखर गया। एक ही बात अब तो बेचैन करने लगी कि यह सातवां दिन आया जा रहा, अब मौत आई जा रही, अब क्या करना क्या नहीं करना! सातवें दिन तो वह बिलकुल खाट से लग गया, उसकी आवाज न निकले, आंखें गङ्ढों में समा गईं। बस बार-बार इतना ही पूछे कि और सूरज कितना डूबने को शेष है?
और जब सूरज बिलकुल डूबने को शेष था, तब एकनाथ उसके दरवाजे पर पहुंच गए। पत्नी रोने लगी, पैरों में गिर पड़ी। बच्चे रोने लगे। एकनाथ ने कहा: "मत घबराओ, कोई घबराने की बात नहीं। मुझे अंदर तो ले चलो।' वे अंदर गए। उससे पूछा कि मेरे भाई, सात दिन में कोई पाप किया?
उसने बड़ी मुश्किल से आंख खोली। उसने कहा: "पाप! होश में हो आप? इधर मौत खड़ी है सामने, जगह कहां है पाप करने की?'
तो एकनाथ ने कहा: "तेरी अभी मौत आई नहीं, यह तो मेरे प्रश्न का उत्तर दिया है। ऐसे ही मौत मुझसे भी सट कर खड़ी है, आंख के सामने खड़ी है। फुर्सत कहां है पाप करने की! और जब पाप नहीं तो दुख नहीं। जब पाप नहीं तो चिंता नहीं। जब पाप नहीं तो बेचैनी नहीं। जब पाप नहीं तो अपने-आप पुण्य की सुगंध उठने लगती है। उठ, मौत तेरी अभी आई नहीं।'
वह तो झट से उठ कर बैठ गया। जल्दी से आंखें बदल गईं उसकी। बेटे की पीठ पर हाथ फेरने लगा और बोला कि अच्छी झंझट में डाला। मैं तो उनसे भी क्षमा मांग आया जिनसे झगड़ा चल रहा था। अब देखता हूं...कल देखता हूं! मैं तो मुकदमे तक उठा लेने का कह आया था कि "बात खतम हो गई; अब ले लेना जमीन, जितनी तुम्हें लेनी हो; कब्जा कर लेना, कब्जा खेल पर करना हो। अब क्या सार है!' यह खूब झंझट में आपने डाल दिया। यह भी कोई ढंग है उत्तर देने का? मेरा सीधा-सादा प्रश्न और सबको सात दिन रुलाया और मैं तो मरा ही मरा हुआ जा रहा था।
और दूसरे दिन से वह आदमी फिर वैसा ही हो गया।
मौत तुम्हारे जीवन में उतर आए तो संन्यास। मौत को तुम अंगीकार कर लो तो संन्यास।
तो हिम्मत न होगी। मगर हिम्मत करो। मौत को तुम स्वीकार करो न स्वीकार करो, मौत तो आएगी। मौत आने वाली है। सात दिन बाद कि सात वर्ष बाद कि सत्तर साल बाद, क्या फर्क पड़ता है! मौत आने वाली है, एक बात सुनिश्चित है। मौत के अतिरिक्त और कुछ निश्चित नहीं है। अगर मौत दिखती हो तो हिम्मत करो।
तो संन्यास एक ऐसी संपदा की तलाश है जिसे मौत नहीं छीन पाती।
जीवन अर्थपूर्ण है हृदय से

पांचवां प्रश्न: भक्ति क्या एक प्रकार की कल्पना ही नहीं है? क्या यह भी एक प्रकार का स्वप्न देखना नहीं है?

बुद्धि से सोचो तो ऐसा ही लगेगा कि यह तो एक सपना है। अब यह भी क्या बात, दया बात कर रही है कृष्ण से! न केवल बात करती है, झगड़ा-झंझट ही खड़ा करती है। मनाती बुझाती है, रूठ भी जाती है।
तो बुद्धि से सोचोगे तो तुम्हें लगेगा कि यह तो सब एक तरह का स्वप्न-जाल है। बुद्धि से सोचने पर निश्चित ही भक्ति स्वप्न-जाल लगेगी। लेकिन बुद्धि से सोचने पर तो प्रेम भी स्वप्न-जाल है। और बुद्धि से सोचने पर तो जीवन में जो भी रसपूर्ण है, सभी स्वप्न-जाल है। बुद्धि से सोचने पर तो तुम्हारा जीवन रूखा-रूखा हो जाएगा, पथरीला हो जाएगा, मरुस्थल हो जाएगा, मरूद्यान बिलकुल न बचेगा। क्योंकि सब मरूद्यान बुद्धि के हिसाब से सपने हैं, कल्पनाएं हैं।
सारी दुनिया में विचारशील लोगों को यह प्रश्न निरंतर उठता रहता है कि जीवन का अर्थ क्या है? और प्रश्न का कोई उत्तर भी मिलता नहीं। क्योंकि जीवन में जो भी अर्थ है वह हृदय से आता है, बुद्धि से नहीं। और हृदय स्वप्न की भाषा समझता है, गणित की भाषा नहीं। हृदय काव्य को समझता है, प्रेम को समझता है, सौंदर्य को समझता है। हृदय का ढंग ही और है, उसका जगत ही और है।
तो भक्ति तो हृदय का जगत है। अगर भक्त से पूछोगे तो बात कुछ और है। भक्त कहेगा--
राहें नहीं, क्षितिज धुंधलाया है
जितने भी थे लक्ष्य
व्यर्थ हो गए सभी
शब्दों का क्या दोष,
अर्थ खो गए सभी
सपने शायद घर पहुंचा देते
हमको सत्यों ने भटकाया है।
सपने शायद घर पहुंचा देते
हमको सत्यों ने भटकाया है।
सिद्धांत, तर्क, गणित...अगर भक्त से पूछोगे तो वह कहेगा, इन्हीं ने भटका दिया है आदमी को, अन्यथा आदमी एक रस का झरना होता; अन्यथा आदमी एक गीत का झरना होता; अन्यथा आदमी नाचता, प्रफुल्लित होता; उसके जीवन में उत्सव होता, परमात्मा होता।
सब कोलाहल सो जाने के बाद
जो शब्द जागता है।
सुनना हो तो उसे सुनो।
एक मृदुल संगीत उभर धीरे-धीरे
सारे सन्नाटे पर यों छा जाता है
जैसे किसी झील के निर्मल दर्पण में
एक जादुई नीलापन थर्राता है
सब सत्यों के खो जाने के बाद
जो स्वप्न जागता है
बुनना हो तो उसे बुनो।
हर जुलूस कुछ नारों का अनुगामी है
भीड़ों का कोई व्यक्तित्व नहीं होता
सबसे अधिक सुनी जाती हैं अफवाहें
बहुमत में सच का अस्तित्व नहीं होता
सब ज्वारों के ढल जाने के बाद
जो बच जाता है कूल पर
चुनना हो तो उसे चुनो।
शिल्पकार, इतना न तराशो प्रतिमा को
परिष्कार से सहज रूप मर जाता है
यह अरूप अनमना उदास अधूरापन
कृतियों का यौवन अनंत कर जाता है
है भविष्य उसका ही जो कि अपूर्ण है
उसका हर क्षण एक नया संवेदन है
गुनना हो तो उसे गुनो।
सब सत्यों के खो जाने के बाद
जो स्वप्न जागता है
बुनना हो तो उसे बुनो।
हर जुलूस कुछ नारों का अनुगामी है
भीड़ों का कोई व्यक्तित्व नहीं होता
सबसे अधिक सुनी जाती हैं अफवाहें
बहुमत में सच का अस्तित्व नहीं होता
सब ज्वारों के ढल जाने के बाद
जो बच जाता है कूल पर
चुनना हो तो उसे चुनो।
शिल्पकार, इतना न तराशो प्रतिमा को
परिष्कार से सहज रूप मर जाता है
यह अरूप अनमना उदास अधूरापन
कृतियों का यौवन अनंत कर जाता है
है भविष्य उसका ही जो कि अपूर्ण है
उसका हर क्षण एक नया संवेदन है
गुनना हो तो उसे गुनो।
सब सत्यों के खो जाने के बाद
जो स्वप्न जागता है
बुनना हो तो उसे बुनो।
भक्ति बुद्धि की भाषा में स्वप्न है और हृदय की भाषा में वही सत्य है, सत्यतर, सत्यतम। उससे ज्यादा सत्य और कुछ भी नहीं है।
अब यह तुम्हें निर्णय करना है कि तुम किस ढंग के आदमी हो। अगर बुद्धि के ढंग के आदमी हो तो भक्ति तुम्हें न रुचेगी। जो न रुचे उसकी फिक्र न करो। तुम्हारे लिए रास्ता और है फिर। तुम फिर ज्ञान और ध्यान के मार्ग से चलो। तुम फिर बुद्धि के ही परिष्कार से चलो। लेकिन अगर तुम्हें भक्ति का मार्ग जंचता हो, रुचता हो, हृदय प्रफुल्लित होता हो सुन कर भक्तों की बातें, भक्ति की बात सुन कर दिल डांवाडोल होता हो, तो फिर तुम छोड़ो फिक्र कि बुद्धि क्या कहती है। फिर बुद्धि की सुनना बंद करो।
सब सत्यों के खो जाने के बाद
जो स्वप्न जागता है
बुनना है तो उसे बुनो।
फिर तुम छोड़ दो सिद्धांत, सत्य इत्यादि की बातें; फिर तो तुम भक्ति के इस रस को बुनो। और तुम पाओगे कि स्वप्न से भी आदमी परमात्मा तक पहुंच जाता है। लेकिन परमात्मा का स्वप्न देखना सीखना होगा।
स्वप्न भी शक्ति है। जैसे तर्क एक शक्ति है, वैसे ही स्वप्न एक शक्ति है। तर्क विज्ञान का आधार है; स्वप्न भक्ति का। तर्क योग का आधार है; स्वप्न प्रेम का। ये दो ही उपाय हैं। या तो कल्पना को इतना फैलाओ कि तुम्हारी कल्पना परमात्मा को देखने में समर्थ हो जाए। या फिर कल्पना को इस तरह विसर्जित करो कि कल्पना बिलकुल खो जाए; और जो है, वह नग्न तुम्हारे सामने प्रगट हो जाए।
बुद्धि से चलोगे तो सत्य का अनुभव होगा; और भक्ति से चलोगे तो प्रभु का, प्यारे का। है एक ही; ज्ञानी उसे सत्य कहते हैं, भक्त उसे प्रभु कहते हैं। अब यह तुम्हारी मर्जी। और मुझे लगता है, भक्त ज्यादा रस पाते हैं, क्योंकि सत्य को प्यारा बना लेते हैं, सत्य को प्रीतम बना लेते हैं। सत्य फिर गणित का हिसाब नहीं रह जाता; दो और दो चार जैसा नहीं रह जाता। सत्य ऐसा हो जाता है जैसे तुम्हारा बेटा। सत्य ऐसा हो जाता है जैसे तुम्हारी प्रेयसी। सत्य ऐसा हो जाता है जैसा तुम्हारा प्रेमी। सत्य प्रेम में पग जाता है।
अगर तुम्हारा हृदय आंदोलित होता है, तरंगित होता है, प्रभु की प्रशंसा में गाए गए भक्तों के गीत सुन कर तो डरो मत।
फिर कोई चेहरा बस गया निगाहों में
खोए हुए क्षितिज फिर उभरे
अस्तमान सूरज फिर उभरे
फिर रेशम बिछ गया कंटीली राहों में
जब से देखी हैं वे आंखें
उग आई हैं कंधों पर पांखें
फिर सपने उड़ चले अदेखी चाहों में
जहां-जहां भी छुआ गया हूं
वहां-वहां हो गया नया हूं
फिर कोई कस गया जादुई बांहों में
फिर कोई चेहरा बस गया निगाहों में
अगर परमात्मा का चेहरा बसता हो निगाहों में और तुम्हें अनुकूल आता हो तो डरो मत। चुनना तो पड़ेगा ही--या तो हृदय या बुद्धि।
पथराई यादों को सरका
इधर-उधर को पलभर तिलभर
अरे उगा है
सपन उगा है
दिवसों-दिवसों बाद उगा है
चांद उगा है।
...उगने दो। अगर प्रभु का सपना उगता है तो सपना कह कर निंदा मत करो। सपने भी प्यारे हैं।
ऐसा समझो, सपने भी सच हो जाते हैं अगर तुम अपना पूरा प्राण उन में उंडेल दो। और सच भी झूठे रह जाते हैं अगर उधार और बासे हों; अगर दूसरे के हो; अगर तुमने पूरा प्राण उनमें न उंडेला हो।
संसार तो रेत है

छठवां प्रश्न: इस प्रवचनमाला का शीर्षक "जगत तरैया भोर की' वैराग्य-रूप और संसार-निषेधक लगता है। कृपया समझाएं कि रस, मस्ती और सर्व-स्वीकार के प्रेम-पथ पर यह निषेध क्यों है?

लगा होगा तुम्हें, है नहीं निषेध। "जगत तरैया भरे की', इसमें संसार का विरोध नहीं है। इसमें संसार को त्यागने का भी कोई उपदेश नहीं है। इसमें केवल संसार के तथ्य की घोषणा है। न विधेय है, न निषेध है। "जगतत्तरैया भोर की', इसमें कोई निंदा नहीं है। ये प्यारे शब्द निंदा के हो भी नहीं सकते। इसमें सिर्फ इतना ही कहा है कि ऐसा जगत है, जैसे सुबह का तारा--अभी है, अभी गया। यह तो सत्य है, निंदा कहां! अगर कोई पानी के बबूले को कहे कि यह बबूला है, अभी है और अभी मिट जाएगा, तो क्या तुम कहोगे कि इसमें निषेध हो गया? अगर कोई आदमी को कहे कि तुम अभी हो और अभी मौत आ जाएगी, तो क्या कुछ निषेध हो गया? क्षणभंगुर को क्षणभंगुर कहने में निषेध है? सिर्फ तथ्य का स्वीकार है। जगत ऐसा ही तो है।
लेकिन आदमी अपने-अपने ढंग से समझते हैं।
पूछा है योग चिन्मय ने। योग चिन्मय के मन में निषेध की वृत्ति है, तो कहीं से भी निषेध के लिए कोई सहारा मिल जाए तो छोड़ते नहीं, पकड़ लेते हैं। पुराने ढब का हिसाब है--संसार का निषेध! तो उन्हें लगा होगा: "जगत तरैया भोर की', यह मौका ठीक है! सो दया भी ऐसा ही कहती है!
लेकिन नहीं, दया ऐसा नहीं कह रही। दया सिर्फ इतना कह रही है कि ऐसा है।
एक दिन मैंने मुल्ला नसरुद्दीन को टोकरी भर मछलियां ले जाते देखा। नदी की तरफ से आ रहा है टोकरी भर मछलियां लिए। पूछा मैंने: "बड़े मियां, कहां से पकड़ लाए?' मुल्ला बोला, "एक गजब की जगह मिल गई है और किसी सज्जन ने मार्गदर्शन की दृष्टि से जगह-जगह तख्तियां भी लगा दी हैं सो भूलने का भी उपाय नहीं है। बस नदी के किनारे एक झील नीचे की ओर चल कर एक तख्ती लगी है जिस पर लिखा है अंग्रेजी-हिंदी दोनों में: "प्राइवेट; निजी प्रवेश निषिद्ध; ऐन्ट्रेस प्राहिबिटिड'। थोड़ी दूर चलने पर दूसरी तख्ती आती है, जिस पर लिखा है; "ट्रेसपासर्स विल बी प्रासीक्यूटिड; जो इसके आगे जाएगा उस पर मुकदमा चलेगा'। बस फिर थोड़ी दूर और चलिए और तीसरी तख्ती आती है, "फिशिंग नॉट अलाउड; मछली मारने की सख्त मनाही है।' और यही वह स्थान है।
इनको वे कह रहे हैं कि किसी सज्जन ने मार्गदर्शन की दृष्टि से तख्तियां भी लगा दी हैं!
आदमी अपने हिसाब से अपने मतलब के अर्थ निकाल लेता है। हम वही सुनते हैं जो हम सुनना चाहते हैं जगत तो है ही तरैया भोर की। इसमें निषेध कुछ भी नहीं है। इसमें सिर्फ निवेदन है कि ऐसा है। इसको शाश्वत मत मान लेना, क्योंकि यह शाश्वत नहीं है। मान कर भी यह शाश्वत होगा नहीं। यह आया और गया। यह पानी पर खींची लकीर है। इसलिए अगर इसे शाश्वत मान कर रुके रहे तो दुख ही दुख पाओगे। अगर शाश्वत की आकांक्षा हो तो शाश्वत इसमें मत खोजना। शाश्वत कहीं और है, कहीं छिपा है, कहीं इसके पार है। और इससे नजर उठेगी तो ही शाश्वत पर लगेगी।
तो जब हम कहते हैं कि "जगत तरैया भोर की' तो इसका इतना ही अर्थ है कि कहीं ध्रुवतारा भी है। मगर तुम इसमें भी मत उलझे रह जाना, नहीं तो ध्रुवतारा से वंचित रह जाओगे। आंखें इसी में गड़ी रह गई तो ध्रुवतारा को कौन आंखें देखेंगी? इतना जान ले कर कि यह शाश्वत नहीं है, तुम्हारा मन अचानक इससे उठने लगेगा, हटने लगेगा, पार जाने लगेगा। क्योंकि प्राणों की आकांक्षा है शाश्वत के लिए, नित्य के लिए--जो सदा रहे। हम उसी को खोज रहे हैं जो सदा रहे। जो अभी है और कल चला जाएगा, खोजने में समय ही व्यर्थ होगा, शक्ति ही व्यर्थ होगी।
भक्ति का मार्ग रस और मस्ती का ही मार्ग है। निषेध वहां कहां! लेकिन अगर हम किसी से कहें, कोई आदमी रेत में से तेल निचोड़ रहा हो और हम उसको कहें, "पागल, रेत में तेल नहीं है, अगर तेल निचोड़ना है तो तिल खोज,' हम तेल निचोड़ने की मनाही नहीं कर रहे हैं, खयाल रखना। अगर तुम मुझे मिल जाओ और रेत में से तेल निचोड़ते और रेत को कोल्हू में पेलते, तो मैं तुमसे कहूं कि--"महाराज, तेल निचोड़ने की आकांक्षा बिलकुल ठीक है, जरूर निचोड़ें, मगर तिल खोजें; यह रेत है, इससे तेल निकलेगा नहीं, और कहीं कोल्हू खराब न हो जाए'--तो मैं कोई निषेध थोड़े ही कर रहा हूं; इतना ही कह रहा हूं कि रेत में तेल नहीं है। तेल जरूर है--तिल खोज लें। रस और मस्ती है, लेकिन भगवान के साथ, संसार के साथ नहीं।
संसार तो रेत है। जन्मों-जन्मों से तुम कोल्हू पेल रहे हो, कुछ निकला नहीं, मगर पेले चले जा रहे हो। आदत बन गई है। अब कुछ और करने को सूझता ही नहीं तो फिर पेले चले जाते हो।
मैं मोक्ष की मदिरा का व्यापारी

आखिरी प्रश्न: आपकी बातों में नशा है, इससे मैं डरता हूं।

नशा तो है, लेकिन बातों में तो कुछ भी नहीं है, थोड़ी नशे की झलक है। अगर बातों से ही डर गए तो असली नशे से वंचित रह जाओगे, क्योंकि असली नशा तो अनुभव में है। अगर मेरी बातों में कुछ नशा है तो सिर्फ इसीलिए कि भीतर की शराब में से डूब कर आ रहे हैं ये शब्द, तो थोड़ी सी खबर लाते हैं, थोड़ा तुम्हें भी डांवाडोल कर जाते हैं।
मैं तो शराब का प्रशंसक हूं। शराब का व्यापारी!
और डर भी तुम्हारा मैं समझता हूं, क्योंकि तुम्हें भय है कि यह शराब ऐसी है कि तुम्हारा अहंकार इसमें डूब जाएगा, तुम इसमें खो जाओगे। और तुम खोने से डरते हो।
एक मित्र ने पूछा है:
खा रहा गोते हूं मैं भवसिंधु के मझधार में
आसरा है दूसरा कोई न अब संसार में
पाप-बोझे से लदी नैया भंवर में आ रही
नाथ दौड़ो, अब बचाओ, जल्द डूबी जा रही।
तुम गलत आदमी के पास आ गए; यहां तो डुबाने का ही धंधा है। अगर थोड़ी देर हो रही होगी डूबने में तो हम जल्दी करेंगे और जल्दी से डुबा देंगे। क्योंकि जो डूब गया वह उबर गया। जो डूब गया वह पहुंच गया। मझधार में डूब कर ही किनारा मिलता है। यहां तो डूबने की ही बात चल रही है। यहां तो तुम्हें फुसलाने का काम चल रहा है कि किसी तरह तुम भी शराबी हो जाओ।
मुल्ला नसरुद्दीन शराब की प्रशंसा में एक दिन मुझसे कह रहा था--दूसरी शराब की प्रशंसा में; नकली शराब की प्रशंसा में मुझसे कह रहा था कि "आदमी ही नहीं साहब, जानवर भी शराब के कायल हैं।' मैंने पूछा: "तुम्हारा मतलब?' तो उसने कहा: "एक दिन मैं मछलियां मारने गया तो कांटे पर लगाने के लिए आटा ले जाना भूल गया। केंचुए खोजे कि चलो उन्हीं को कांटे पर लगा दूं तो केंचुए भी न मिले। तभी एक सांप मुंह में एक मेंढक को दबाए मिल गया। तो मैंने झट सांप के मुंह से मेंढक छीन लिया और मेंढक के टुकड़े काट-काट कर उनसे ही मछलियां पकड़ने का काम लिया। लेकिन फिर मुझे सांप पर थोड़ी दया आई कि बेचारा, इसका भोजन मैंने छीन लिया। कुछ और उपाय न देख कर परिपूर्ति की दृष्टि से मैंने अपनी बोतल झोली से निकाली और शराब की चार बूंदें उसके मुंह में डाल दी। और उसका आनंद-भाव देखने जैसा था! और उसने जैसा सिर हिलाया और जैसे मस्ती से आंखें उठाईं और जैसा डोला...।
फिर मुल्ला ने कहा कि मैं उसे भूल गया, मछलियां पकड़ने में लगा रहा। कोई घंटे भर बाद मुझे लगा कि कोई चीज मेरे जूते पर धीरे-धीरे चोट कर रही है। तो मैंने चौंक कर नीचे देखा: वही सांप दो मेंढक मुंह में दबाए जूते पर चोट कर रहा था। वह यह कह रहा है कि अब फिर हो जाए।
तो यह तो नकली शराब की बात है, इधर असली शराब की चर्चा हो रही है।
भयभीत होना भी स्वाभाविक है, क्योंकि एक ढंग से तुम जी रहे हो, मैं सब गड़बड़ कर दूंगा। तुमने एक तरह का संसार बसा रखा है, मैं सब अस्तव्यस्त कर दूंगा। लेकिन तुमसे मैं कहना चाहता हूं कि तुमने जो बसा रखा है--जगत तरैया भोर की! तुम बसाने का खयाल ही कर रहे हो, बसा कुछ भी नहीं है। और मैं जिस तरफ इशारा कर रहा हूं, वह ध्रुवतारा है। अगर तुम्हारे जीवन में उसकी किरण आ गई तो शाश्वत से तुम्हारा संबंध जुड़ सकता है।
और शाश्वत से जब तक संबंध न जुड़ जाए, संतुष्ट मत होना। परमात्मा से कम पर राजी मत होना। मोक्ष की मदिरा जब तक न ढले, तब तक खोज जारी रहे। जारी रखनी ही होगी। उसके पहले तो रुक गए वे मंजिल पाए बिना रुक गए, उन्होंने कुछ बीच के पड़ाव को घर बना लिया। वे दुखी होंगे, परेशान होंगे। वे ही संसारी लोग हैं ।
यहां तो कोशिश है तुम सभी को संन्यासी बना डालने की; तुम सबको शराबी बना डालने की। जिस दिन तुम भी उठोगे, गिरोगे; कहीं रखोगे पैर, कहीं पड़ेगाहंसोगे, रोओगे, गाओगे, प्रभु का गुणगान करोगे--उस दिन तुम्हारे जीवन का फूल, जो अभी नहीं खिला, खिलेगा। तुम्हारा कमल सारी पंखुरियों को खोलेगा। और तुम्हारी सुगंध हवाओं में मुक्त हो जाएगी। वही मोक्ष है। और वही मोक्ष आनंद है। उसके अतिरिक्त सब दुख है, सब पीड़ा है, सब संताप है।
हिम्मत करो, साहस करो। यह शराब चूक जाने जैसी नहीं है।

आज इतना ही।





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