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बुधवार, 7 मार्च 2018

भक्तिसूत्र (नारद)—प्रवचन-08

आठवां प्रवचन—अनंत के आंगन में नृत्य है भक्ति

दिनांक १८ जनवरी, १९७६; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार

1—प्रेम भक्ति का जनक है या भक्ति प्रेम की जननी ? प्रेम कली है और भक्ति फूल? अथवा प्रेम आदि है और भक्ति अंत? या दोनों भिन्न हैं?
2—इस कथन में क्या सच्चाई है कि भक्ति है द्वैत और ज्ञान है अद्वैत?
3—संन्यास के लिए गैरिक वस्त्र क्यों जरूरी हैं?
4—सुरक्षा के लिए मुझे जो नाटक करना पड़ता है, उसे करूं या छोड़ दूं?
5—अगर ज्ञान भक्ति के लिए बाधा है, फिर महातार्किक और महापंडित चैतन्य एकदम से भक्त कैसे हो गए?
6—सैकड़ों बार भ्रम के टूटने पर भी भरोसा नहीं आता। क्या करूं?
7—भक्त कण-कण में भगवान को देखता है। लेकिन जिसे सिर्फ आपका पता है, कण में बसनेवाले भगवान का नहीं, उसके लिए क्या साधना होगी?


पहला प्रश्न: प्रेम भक्ति का जनक है या भक्ति प्रेम की? प्रेम कली है या भक्ति फूल? अभवा प्रेम आदि है और भक्ति अंत? या दोनों भिन्न हैं?

कली और फूल एक भी हैं और भिन्न भी। आदि और अंत जुड़े भी हैं और अलग भी हैं। कली कली भी रह जा सकती है; फूल बनना संभव है, अनिवार्य नहीं।
बीज बीज भी रह जा सकता है; वृक्ष हो सकता था, जरूरी नहीं है कि हो। बीज अलग भी है--उसका अपना भी अस्तित्व है--और वृक्ष की संभावना भी है। लेकिन वृक्ष तभी हो सकेगा जब बीज हो--पहली बात। और वृक्ष तभी हो सकेगा जब बीज मिटे--दूसरी बात। पहले हो, और फिर मिटे भी तो ही वृक्ष हो सकेगा।
प्रेम न हो तो भक्ति की कोई संभावना नहीं। और अगर प्रेम ही रह जाए, आगे न जाए, तो भी भक्ति की कोई संभावना नहीं। प्रेम प्रेम पर ठहर जाए तो भक्ति कभी पैदा न होगी। और अगर प्रेम हो ही न तो भक्ति के पैदा होने का सवाल ही नहीं है।
इसलिए प्रश्न नाजुक है। और बड़ी भूलें मनुष्य के इतिहास में हुई हैं। किन्हीं ने सोचा कि प्रेम ही भक्ति है, तो भक्ति के नाम से प्रेम के ही गीत गाते रहे, और चूक हो गई। और किन्हीं ने समझा कि प्रेम भक्ति नहीं है, प्रेम के पार जाना है, तो प्रेम के दुश्मन हो गए; प्रेम से पलायन किया, भागे, तो भी चूक गए।
प्रेम से भागना नहीं है; प्रेम के पार जाना है। प्रेम को सीढ़ी बनाना है। प्रेम पर चढ़ना है, प्रेम का अतिक्रमण करना है। प्रेम का उपयोग करना है। प्रेम से दुश्मनी कर ली, तब तो फिर कभी भक्ति पैदा न होगी। यह तो बीज से दुश्मनी हो गई। और जो बीज से डर गया, बीज का शत्रु हो गया, वह आशा रखे वृक्ष की, तो नासमझी है। कल्पना कर सकता है वृक्ष की, सपने देख सकता है--लेकिन वृक्ष कभी वास्तविक न हो पाएगा।
प्रेम के बीज को सम्हालना है--मगर जरूरत से ज्यादा मत सम्हालना; ऐसा न हो कि बीज में बंद रह जाओ; ऐसा न हो कि बीज की संपदा हो जाए। बीज तो केवल संभावना है--उपयोग करना! आगे जाना! सीढ़ी बनाना! तो बीज खिलेगा, कली खिलेगी, फूल बनेगा।
कामवासना से जन्म होता है प्रेम का, लेकिन कामवासना पर कोई रुक जाए तो प्रेम का कभी जन्म न होगा। कीचड़ से जन्म होना है कमल का। लेकिन कीचड़ कीचड़ भी रह सकती है; कोई मजबूरी नहीं है कि कमल हो।
कामवासना से जन्म होना है प्रेम का। कामवासना है कीचड़। प्रेम का कमल खिलता है; जड़ें तो होनी हैं कीचड़ में, लेकिन कीचड़ के पार उठ गया होता है। कीचड़ से निकलता है और कीचड़ से कितना भिन्न होता है! कीचड़ से आता है लेकिन कीचड़ जैसा जो कमल में कुछ भी नहीं होता। अगर हमें पता ही न हो कि कमल कीचड़ से आया है, तो हम कभी कमल का संबंध कीचड़ से जोड़ ही न सकेंगे।
कहां कीचड़, कहां कमल! दो अलग लोक! दो अलग संसार! कमल को देखकर तुम्हें कीचड़ की याद भी आ सकती है? कीचड़ को देखकर कमल की याद आ सकती है? कोई संबंध नहीं जुड़ता। लेकिन कीचड़ से ही कमल आता है। कामवासना से ही प्रेम का आविर्भाव होता है।
फिर कमल से सुगंध उठती है; वैसे ही प्रेम से भक्ति की गंध उठती है। कमल तो दृश्य है, सुगंध अदृश्य है। प्रेम दृश्य है, भक्ति अदृश्य है। भक्ति तो गंधमात्र है। तुम भक्ति को मुट्ठी में बांध न पाओगे। प्रेम को भी बांधोगे तो प्रेम ही मर जाएगा, तो भक्ति की तो बात ही छोड़ दो। कमल को भी मुट्ठी में बांधोगे तो कमल मुरझा जाएगा।
कमल को भोगना। कमल से आनंदित होना। कमल का उत्सव मनाना। कमल के आसपास नाचना। कमल के मालिक मत बनना, मुट्ठी मत बांधना; नहीं तो प्रेम भी कुम्हला जाएगा।
अधिक लोगों के प्रेम मुट्ठी में बांधकर ही तो कुम्हला जाते हैं, मर जाते हैं। जहां तुमने प्रेमी पर कब्जा किया, वहीं प्रेम की मृत्यु शुरू हो जाती है। जहां मालकियत आती वहां प्रेम नहीं ठहर पाता। प्रेम कोई वस्तु नहीं है कि तुम मालिक हो सको। यह कोई सम्पदा नहीं है, जिसे तुम तिजोड़ी में रख सको। यह तो कमल का फूल है। इसे खुले आकाश में खिलने दो। डरो मत! ऐसा भय मत पालो कि कोई और इस फूल के आनंद को उपलब्ध ना हो जाए, कोई और इस फूल के सौंदर्य को न देख ले, किसी और की आंखों में फूल का सौंदर्य न भर जाए। ढांको मत इस फूल को। क्योंकि ढका हुआ फूल मर जाता है। खुला आकाश चाहिए, सूरज की किरणें चाहिए, मुक्त हवाएं चाहिए, तो ही फूल जीवित रहेगा।
प्रेम मर गया है। पृथ्वी पर प्रेम ही लाशें हैं, कुम्हलाये हुए फूल हैं, मरे हुए फूल हैं। प्रेम को ही मुट्ठी में बांधना असंभव है। जिन्होंने बांधा, उन्होंने ही प्रेम ही हत्या कर दी।
कभी भी प्रेम पर मालकियत मत जताना। प्रेम को ही तुम्हारा मालिक होने दो; तुम प्रेम के मालिक मत बनना।
प्रेम नाजुक है, मालकियत को न सह पाएगा। तो फिर भक्ति की तो बात बहुत दूर। भक्ति तो सुगंध है, अदृश्य है; उस पर कोई मुट्ठी बांधी नहीं जा सकती। मुक्त उसका स्वभाव है; दूर आकाशों को छुएगी; दूर हवाओं पर यात्रा करेगी।
जब प्रेम को पंख लग जाते हैं--तब भक्ति। जब प्रेम इतना सूक्ष्म हो जाता है कि दिखाई भी नहीं पड़ता, सिर्फ अहसास होता है--तब भक्ति।
प्रेम का नशा थोड़ा स्थूल है, भक्ति का नशा बड़ा सूक्ष्म है। प्रेम को तो तुम थोड़ा सुन पाओगे, उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ती है। भक्ति की पगध्वनि भी सुनाई नहीं पड़ती। उसे तो तुम पहचान तभी पाओगे जब तुमने भी उस अदृश्य का थोड़ा अनुभव किया हो।
कामवासना से ऊपर उठो। ध्यान रखना, मैं कहता हूं, "ऊपर उठो'; दूर जाने की नहीं कर रहा हूं, पार जाने की कह रहा हूं। ऊपर उठने का अर्थ है: तुम्हारी बुनियाद में तो कामवासना बनी ही रहेगी, तुम ऊपर उठे, भवन उठा, बुनियाद से ऊपर चला, बुनियाद तो बनी ही रहेगी।
कामवासना से ऊपर उठो, तो प्रेम। प्रेम से भी ऊपर उठो, तो भक्ति।
कामवासना में क्षण-भर को दो शरीर करीब आते हैं--क्षण-भर को ही आ सकते हैं, शरीर बड़े स्थूल हैं। उनकी सीमाएं बड़ी स्पष्ट हैं। करीब ही आ सकते हैं, एक तो नहीं हो सकते।
प्रेम में दो मन करीब आते हैं, क्षण-भर को एक भी हो जाते हैं--क्योंकि मन की सीमाएं तरल हैं, ठोस नहीं। तब दो मन मिलते हैं तो दो मन नहीं रह जाते, क्षण-भर को एक ही मन रह जाता है।
भक्ति में दो आत्माएं करीब आती हैं, दो चैतन्य करीब आते हैं--व्यक्ति का और समष्टि का, बूंद का और सागर का, कण का और विराट का। और सदा के लिए एक हो जाते हैं।
कामवासना में शरीर करीब आते हैं और दूर फिक जाते हैं। इसलिए कामवासना में सदा ही विषाद है। मिलने का सुख तो बहुत थोड़ा है, दूर हट जाने की पीड़ा बहुत गहन है। इसलिए ऐसा व्यक्ति खोजना कठिन है जो कामवासना के बाद पछताया न हो। पछतावा कामवासना का नहीं है। कामवासना पास ले आती है, लेकिन तत्क्षण दूर फेंक जाती है। जितने हम दूर पहले थे, उससे भी ज्यादा दूर हो जाते हैं। यह क्षण-भर पास आना दूरी को और प्रगाढ़ कर देता है, दूरी अनंत हो जाती है।
इसलिए हर कामवासना के पीछे पछतावा है, एक पश्चात्ताप है; जैसे कुछ खोया। चाहे तुम्हें साफ न हो कि क्या खोया, चाहे तुम्हें स्पष्ट न हो कि क्या खोया--लेकिन कुछ खोया, कुछ गंवाया, पाया नहीं।
प्रेम में खोना और पाना बराबर है। कामवासना में खोना ज्यादा है, पाना नाकुछ है। प्रेम में एक संतुलन है; खोना-पाना बराबर है; तराजू के दोनों पलड़े बराबर हैं। तो तुम प्रेमी में एक तरह की तृप्ति पाओगे जो कामी में न मलेगी। कामी हमेशा अतृप्त मिलेगा; विषाद से भरा मिलेगा; पश्चात्ताप से भरा मिलेगा: "कुद खो रहा है, कुछ खो रहा है! जीवन में कहीं कोई चूक हो रही है, भूल हो रही है'
पश्चात्ताप कथा है कामवासना की।
प्रेमी में तुम एक तृप्ति पाओगे, एक संतुलन पाओगे, एक शांति पाओगे। खोना-पाना बराबर है; लेकिन इतना काफी नहीं है। खोना-पाना बराबर हो तो तृप्ति तो हो सकती है, महातृप्ति नहीं हो सकती। लगेगा--सब ठीक है। लेकिन उससे कोई उत्सव का क्षण करीब नहीं आता। इससे तुम अनंत के आंगन में नाच न सकोगे। इससे कुछ अहोभाव पैदा नहीं होता। जितना दिया उतना लिया, सब बराबर हुआ; हानि कुछ मालूम नहीं होती; लेकिन लाभ भी कुछ मालूम नहीं होता।
तो प्रेमी को तुम उलझा हुआ पाओगे। कामी को पछताता हुआ पाओगे। प्रेमी को उलझा हुआ पाओगे कि यह क्या हुआ, पाया-खोया सब बराबर हुआ! हाथ तो कुछ न लगा। हिसाब तो पूरा हो गया, लेकिन जीवन यूं ही चला गया।
प्रेमी को तुम उलझा हुआ पाओगे। एक प्रश्न-चिह्न पाओगे प्रेमी की अन्तर्दशा में कि यह सब क्यों, प्रयोजन क्या?
फिर भक्त की दुनिया है--जहां पाना ही पाना है और खोना नहीं है। कामी की दुनिया है--जहां खोना ही खोना है, पाना नहीं है। और भक्त की दुनिया है--ठीक विपरीत, दूसरा छोर, जहां पाना ही पाना है, खोना नहीं है। तब अहोभाव पैदा होता है, तब मीरा पद घुंघरू बांध नाचती है। तब नृत्य आता है। तब कोई उलझन नहीं है, जब कोई प्रश्न नहीं है। तब सब प्रश्न हल हुए। तब जीवन पहली बार अर्थवत्ता से भरा! और तब पहली बार धन्यवाद में सिर झुकता है।
पूछा है: प्रेम भक्ति का जनक है या भक्ति प्रेम की जननी?
प्रेम ही भक्ति का जनक है, भक्ति नहीं--क्योंकि भक्ति तो आखिरी शिखर है। भक्ति तो भगवान की जननी है, प्रेम की नहीं। जिसने भक्ति को पा लिया, उसने भगवान को जन्म दिया।
 इसे भी थोड़ा समझ लेना। क्योंकि साधाारणतः लोग सोचते हैं, भगवान कहीं बैठा है--खोजने की बात है। पता लगा लिया, पूछताछ कर ली, थोड़ी खोजबीन की, मिल जाएगा।
भगवान कहीं बैठा नहीं है--तुम्हें जन्म देना है। भगवान कोई वस्तु नहीं है--तुम्हारे भीतर का आविर्भाव है। और प्रत्येक व्यक्ति को अपने ही भगवान पर पहुंचना है। दूसरे का भगवान तुम्हारे काम न आएगा। भगवान के जगत में गोद लेने का काम न चलेगा।
इस संसार में तुम धोखा दे लेते हो। किसी को बच्चे पैदा नहीं होते, गोद ले लेते हैं। जो बहुत होशियार हैं...।
मुल्ला नसरुद्दीन को बच्चा पैदा नहीं हुए तो उसने विज्ञापन निकाला अखबारों में, मुझे किसी को गोद लेना है, लेकिन उम्र सत्तर-अस्सी साल के करीब होनी चाहिए। पूरा गांव चकित हुआ कि पहले बहुत गोद लेने वाले देखे...!
एक बूढ़ा आया, लकड़ी टेकता हुआ, मुश्किल से चलता हुआ। उसने कहा कि मेरी अस्सी साल की उम्र हो गई है। मैं तैयार हूं, लेकिन मैं समझा नहीं। लोग बच्चों को गोद लेते हैं...।
नसरुद्दीन ने कहा कि बच्चों को गोद लेने से क्या फायदा। हम तो ऐसे आदमी को लेंगे जिसके नाती-पोते भी हों, ताकि तीन-चार पीढ़ियों में हमारे परिवार में किसी को फिर गोद न लेना पड़े।
तो जो बहुत होशियार हैं वे लंबा इंतजाम कर लेते हैं। लेकिन गोद लिया हुआ बच्चा, और तुमने जिसे जन्म दिया, उसमें जमीन-आसमान का भेद है। मां ने जिसे गर्भ में रखा, नौ महीने जिसका बोझ झेला, जिसकी प्रतीक्षा की, जिसके आसपास सपने संजोये, हजार-हजार आशाएं बांधी, अपने खून से जिसे सींचा, अपने हृदय की धड़कन दी, अपने प्राणों को बांटा जिससे--उस बच्चे में, और फिर तुमने किसी को गोद ले लिया, कानूनी बच्चे में, बड़ा फर्क है।
तो इस संसार में तो तुम उधार भी ले लेते हो तो भी चल जाता है। यहां तो तुम अपने को धोखा दे लेते हो। बांझ भी उधार लेकर बच्चों को, जन्मदाता बन जाते हैं। लेकिन यह धोखा परमात्मा के जगत में न चलेगा। वहां तो तुम्हें मां बनना पड़ेगा।
भक्त यानी मां। भक्ति यानी तुम गर्भस्थ हुए: तुम्हारा ही चैतन्य, तुम्हारी ही सारा जीवन-ऊर्जा को अपने में समाकर एक नयी धुन और एक नये गीत के साथ पैदा होता है; तुम्हारा ही चैतन्य एक नये आयाम में प्रवेश करता है--मृत्यु से अमृत के आयाम में, सीमा से असीम में। बूंद वहां सागर होती है।
तो भगवान कोई बैठा हुआ, कहीं कोई व्यक्ति नहीं है, जिसे तुम गए और परदा उठा लिया और खोज लिया। इन बचकानी बातों में मत पड़ता। न ही कोई भगवान वस्तु है कि कोई तुम्हें दे देगा। तुम्हें जन्म देना होगा। तुम्हें अहर्निश साधना होगा। तुम्हें जन्मों-जन्मों पुकारना होगा। तुम्हें उसके बोझ को ढोना होगा। प्रसव की पीड़ा झेलनी होगी। कभी तुम हंसोगे आनंद से, कभी रोओगे भी। आंसुओं में और मुस्कराहटों में उसे सींचना होगा, संवारना होगा। और जब वह पैदा होगा तो वह तभी पैदा होगा, उसी क्षण पैदा होगा, जहां तुम्हारी मौत घट जाएगी।
बौद्धों में एक बड़ी अनूठी कथा है। कथा ही है, लेकिन बड़ी प्रतिकात्मक है। बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि जब किसी बुद्ध का जन्म होता है तो जन्म देने के साथ ही मां मर जाती है। बुद्ध की मां भी मर गई, जन्म देने के साथ ही। सदियों से लोग पूछते रहे, "ऐसा क्यों? कृष्ण की मां भी तो नहीं मरी। जीसस की मां नहीं मरी। महावीर की मां नहीं मरी। यह बौद्ध शास्त्रों में एक नयी धारणा क्यों पाल रखी है कि जब बुद्ध का जन्म होता है तो उनकी मां मर जाती है'?
यह धारणा बड़ी महत्वपूर्ण है। बुद्ध की मां मरी हो, न मरी हो, लेकिन जब भी तुम्हारे भीतर बुद्धत्व का जन्म होता है, तुम मर जाते हो। इतना ही सार है उस कथा में। बीज तो मरेगा ही, तभी वृक्ष हो पाएगा। साधारण जीवन में जब मां जन्म देती है तो मां मर नहीं जाती; पीड़ा झेलती है, बच जाती है। मरने की घड़ी आ जाती है। चिल्लाती है, चीखती है बच्चे को जन्म देते वक्त। ऐसा लगता है, मरी, मरी। मरती नहीं, बच जाती है। लेकिन बीज नहीं बचता; टूट जाता है, तभी तो वृक्ष होता है।
जब तुम्हारे भीतर परमात्मा का जन्म होगा तो तुम न बचोगे, तुम तो मिट जाओगे। तुम्हारी मृत्यु ही उसका जन्म है। तुम्हारा मिट जाना ही उसका होना है।
इस मृत्यु से बचने के लिए लोगों ने परमात्मा की न मालूम कितनी धारणाएं कर ली हैं, जैसे वह कहीं बैठा है, और तुम्हें राह खोजनी है। वह कहीं बैठा नहीं है, उसे जन्म देना है। तुम्हें गर्भ खोजना है, राह नहीं।
काम से प्रेम पैदा होता है; प्रेम से भक्ति पैदा होती है; भक्ति से भगवान पैदा होता है। भक्ति भगवान की जननी है।
तो जब तक तुम्हारे भीतर भक्ति का आविर्भाव नहीं हुआ है, तुम भगवान को न देख पाओगे, न समझ पाओगे, न पहचान पाओगे। तुम्हारे पास आंख ही नहीं। तुम अंधे हो। और प्रकाश के संबंध में बातें सुन-सुनकर आंख न खुल जाएगी। आंख की चिकित्सा करनी होगी। अंधेपन को मिटा डालना होगा।
आंख खुलेगी तो तुम प्रकाश देखोगे; भक्ति खुलेगी तो तुम भगवान देखोगे। जब भक्ति की आंख खुलती है तो सब तरह परमात्मा के अतिरक्त और कुछ भी शेष नहीं रह जाता।

दूसरा प्रश्न: इस कथन में क्या सच्चाई है कि भक्ति है द्वैत और ज्ञान है अद्वैत?

जरा भी सच्चाई नहीं है। और यह कथन ज्ञानियों का नहीं है। ज्ञानी ऐसा कहते रहे हैं कि भक्ति द्वैत है और ज्ञान अद्वैत। भक्तों से पूछो, भक्ति के संबंध में जानना हो तो। तो ज्ञानियों से पूछना गलत जगह पूछना है।
भक्त कहते हैं, भक्ति भी अद्वैत है, ज्ञान भी अद्वैत। लेकिन भक्ति रसपूर्ण अद्वैत है और ज्ञान सूखा अद्वैत है।
भक्ति है जैसे हरा-भरा उपवन। और ज्ञान है जैसे रेगिस्तान। रेगिस्तान में भी परमात्मा है--कोई इनकान नहीं करता। फिर कुछ हैं जिनको रेगिस्तान भी सुन्दर लगता है; उनको भी कोई इनकार नहीं करता। अपनी-अपनी मौज!
लेकिन हरियाली की बात ही कुछ और है! फूल खिलते हैं! वृक्षों की छाया है! झरनों को नाद है! पक्षियों के गीत हैं! हरियाली की कुछ बात ही और है!
मरुस्थल भी उसी का है! कांटे भी उसी के हैं! फूल भी उसी के हैं!
भक्ति रसपूर्ण अद्वैत है। दो तो मिट जाते हैं, लेकिन जो एक बचता है, वह रूखा-सूखा नहीं है। जो एक बचता है, वह प्रेम से भरपूर है; लबालब है। जो एक बचता है वह ज्ञानी की तरह, गणित की तरह रूखा-सूखा नहीं। काव्य की तरह है, मधुरता से भरा है।
ज्ञानी का परमात्मा तर्क की निष्पत्ति है। भक्त का परमात्मा प्रेम का आविर्भाव है। तर्क भी उसी का है, याद रखना। तर्क का कोई विरोध नहीं है, तर्क भी उसी का है। और किन्हीं को तर्क में ही स्वाद आता हो, तो वह मार्ग भी पहुंचा देता है।
लेकिन प्रेम की बात ही और है।
भक्तों ने अकसर इस संबंध में बहुत कुछ कहा नहीं, क्योंकि भक्त कहते कम, जीते ज्यादा हैं। ज्ञानियों ने वक्तव्य दिए हैं तो ज्ञानियों के वक्तव्य प्रचलित हो गए हैं। और भक्त सुन लेते हैं और मुस्कराते हैं। वे इतनी भी झंझट नहीं लेते--इनका खंडन करें, क्योंकि खंडन भी ज्ञानियों का ही धंधा है। खंडन-मण्डन दोनों ही उन्हीं के हैं। भक्त उस उलझाव में पड़ता नहीं है। बजाय तर्क के जाल में पड़ने के, भक्त नाच लेता है। जब ऊर्जा का आविर्भाव होता है तो गीत गा लेता है, गुनगुना लेता है। तुम उसकी आंखों में उसके परमात्मा को पाओगे, उसके शब्दों में नहीं। शब्द के संबंध में भक्त थोड़ा गूंगा है। उसकी मधुशाला उसकी आंखों में है।
ज्ञानी की आंख तुम बंद पाओगे। शंकराचार्य बैठे होंगे या बुद्ध बैठे होंगे, तो आंख बंद होगी।
भक्त की आंख तुम परमात्मा की शराब से भरी हुई पाओगे। खुली हो या बंद, भक्त की आंख तुम्हें नशे में डुबा देगी।
भक्त एक मस्ती में जीता है। उसने बेहोशी में ही होश
 जाना है। उसने तल्लीनता में ही अपने होने को छुआ है। उसने मिटकर ही अपने अस्तित्व की पहचान की है।
लेकिन फर्क तुम देख सकते हो। भक्त भी अद्वैत को ही उपलब्ध होता है; लेकिन उसका अद्वैत ज्ञानी के अद्वैत से बड़ा भिन्न है। अद्वैत को उपलब्ध होकर भी भक्त द्वैत की ही भाषा का उपयोग करता है।
इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। इसलिए ज्ञानी का वक्तव्य ठीक भी मालूम पड़ता है कि भक्ति है द्वैत और ज्ञान है अद्वैत। क्योंकि भक्त यह कहता है, भाषा तो जहां भी होगी, द्वैत की ही होगी। भाषा का अर्थ ही दो है। बोलने का मतलब ही संवाद है, दो की मौजूदगी है।
अगर तुमने यह भी कहा कि अद्वैत है, तो किससे कह रहे हो? तो कहनेवाला और सुननेवाला तो दो हो गए। अगर तुमने यह भी सिद्ध करने की कोशिश की कि उसके सिवाय कुछ भी नहीं है, तो यह सिद्ध करने की कोशिश क्यों कर रहे हो? अगर उसके सिवाय कुछ भी नहीं है तो तुम बिलकुल पागल हो। जब है ही नहीं तो कोशिश क्या, प्रयास क्या है?
जो लोग सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि संसार माया है वे कम से कम इतना तो संसार को मानते ही हैं कि है, और माया सिद्ध करना है। अगर संसार माया ही है तो बात खत्म हो गई, सिद्ध क्या करना है! सुबह उठकर तुम यह तो सिद्ध नहीं करते कि जो सपने देखे रात वे झूठ थे। इतना जानते ही कि सपने थे, बात खत्म हो गई, कौन सिद्ध करता है! कौन झंझट में पड़ता है!
अगर सुबह उठकर कोई आदमी सिद्ध करने लगे कि रात मैंने जो सपना देखा, वह झूठ था, तो एक बात पक्की है कि इस आदमी को अभी भी सपने पर थोड़ा भरोसा है, अन्यथा किससे सिद्ध कर रहा है? और लोग हंसेंगे, जग-हंसाई होगी कि यह पागल देखो, कहता है सपना झूठ है! यह कहना ही व्यर्थ है। सपना इतना झूठ है कि उसे झूठ कहना भी उसे सच्चाई देना है। इसलिए तो कोई सुबह उठकर विवाद में नहीं पड़ता। कोई कहता ही नहीं किसी को कि सपना देखा, वह झूठ था।
भक्त की भाषा द्वैत की है, क्योंकि वह कहता है, सारी भाषा द्वैत की है। फिर प्रेम की भाषा तो द्वैत की होगी ही। तो भक्त भगवाना से बोलता है, बातें करना है। ज्ञानी को यही अखरता है।
मीरा खड़ी है कृष्ण के मंदिर में, बातें कर रही है, शिकायतें भी करती हैं, रूठ भी जाती है। ज्ञानी को ये बातें नहीं जंचतीं।  ज्ञानी को लगता है, यह पागलपन हुआ। एक ही है। मीरा भी जानती है। लेकिन वह जो एक है, वह कोई मुर्दा इकाई नहीं है। उस एक में बड़ा जीवन्त विरोधाभास है। वह जो एक है, वह ऐसा एक नहीं है कि जिसमें दो को उपाय न हो।
यह थोड़ा समझना पड़े।
वह ऐसा एक है जिसमें दो एक हो गए हैं। वह प्रेम की एकता है, गणित की एकता नहीं है।
अगर तुमने कभी किसी को प्रेम किया तो तुम एक अनूठे अनुभव में आते हो, वह अनूठा अनुभव तर्कातीत है।
जब तुम किसी को प्रेम करते हो तो एक अनूठी प्रतीति होती शुरू होती है कि तुम दो भी हो और एक भी। स्वभावतः दो हो, नहीं तो कौन किसको प्रेम करेगा? कौन किसके लिए आंसू बहाएगा? कौन किसके लिए नाचेगा? निश्चित ही दो हो। लेकिन फिर भी दो नहीं हो। कहीं किसी भीतर के जगत में एक भी हो। ऊपर-ऊपर दो हो, भीतर-भीतर एक हो। शायद हर घड़ी ऐसा न भी हो पाता हो; कभी-कभी ऐसी घड़ी आती हो, जब एक हो जाते हो, बाकी घड़ी दो रहते हो--लेकिन आती है ऐसी घड़ी जब विरोधाभास घटता है, दो के बीच एकता सधती है।
भक्त का अद्वैत जीवंत है। जीवंत का अर्थ है: एकरस नहीं है। एक तो तुम वीणा बजाओ एक ही स्वर को गुंजाते रहो--बेरस हो जाएगा। बहुत से स्वर उठाओ, लेकिन सारे स्वरों के बीच एक संवाद हो, एक संगीत हो--संगीत एक हो, स्वर बहुत हों; लयबद्धता एक हो, छंद एक हो--तब जीवंत, तब ऊब न आएगी।
भक्त परमात्मा को जीवंत--गणित की नहीं, संगीत की--एक लयबद्धता के रूप में देखता है। प्रेमी-प्रेयसी या प्रेयसी और प्रेमी दो भी बने रहते हैं और कहीं एक भी हो गए होते हैं। मीरा कृष्ण के सामने नाचती है, बोलती है, बात करती है। दो तो हैं और फिर भी एक हैं।
बोलने के लिए दो होना जरूरी है। और ध्यान रखो, अगर सच में ही बोलना हो तो एक होना भी जरूरी है।
इसलिए भक्त की बात बिलकुल तर्कातीत है। जो जिएगा वही जानेगा।
अद्वैतवादी की बात तो तुम शास्त्र से भी समझ सकते हो; भक्ति की बात केवल शास्त्र से समझ में न आएगी। अद्वैतवादी की बात तो तर्कनिष्ठ है; जिनके पास भी थोड़ी तर्क की क्षमता है, वे समझ लेंगे। लेकिन भक्त की बात अनुभव, अस्तित्वगत अनुभव से आती है।
तो मैं तुमसे कहता हूं, भक्त भी अद्वैत की ही बात कर रहा है, लेकिन उसका अद्वैत की बात करने का ढंग प्रेम है। उसका लहजा अलग है। उसकी शैली अलग है।
और मैं तुमसे कहता हूं, भक्त का अद्वैत ज्यादा बहुमूल्य है। उसमें प्राण धड़कते हैं, श्वास चलती है। ज्ञानी का अद्वैत बिलकुल मुर्दा है, मरी लाश की तरह। ज्ञानी का अद्वैत ऐसा है जैसे कोई नहीं एक ही किनारे के सहारे बहने की चेष्टा करे। भक्त का अद्वैत ऐसा है जैसे सभी नदियां दो किनारे के सहारे बहती है।
लेकिन तुमने कभी गौर किया: नदी को दो किनारों के सहारे की जरूरत है, लेकिन दोनों किनारे नीचे नदी की गहराई में तो एक हो जाते हैं; ऊपर से दो दिखाई पड़ते हैं, अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं। तुम्हें एक किनारे से दूसरे किनारे जाना हो तो नाव पर सवार होना पड़ता है। लेकिन नदी की गहराई में तो दानों किनारे मिले हैं, एक ही हैं। एक है और फिर भी दो हैं। दो हैं और फिर भी एक है।
भक्ति के संबंध में कुछ जानना हो तो ज्ञानियों के द्वारा मत जानना। फिर भक्ति का ही स्वाद लेना पड़ेगा। यह बात उधार जानी जा सके, ऐसी नहीं। और ज्ञानी से जानना तो बिलकुल गलत जगह से जानना है। ज्ञानी को इसका कोई स्वाद ही नहीं है। भक्त से ही पूछना। और भक्त से पूछने का ढंग भी अलग होगा। पूछने का एक ही ढंग हो सकता है कि तुम भी थोड़ा अपने को रंगना उसी रंग में भक्त की बात को तुम दूर खड़े रह रहकर न समझ पाओगे। उतरना। उसकी मस्ती में थोड़े डूबना। भक्त के साथ थोड़ा पागल होना पड़ेगा। भक्त के साथ थोड़ा भक्ति में डुबकी लगानी पड़ेगी।
भक्ति को समझना महंगा सौदा है। ज्ञान को समझने में कोई अड़चन नहीं है। शास्त्र से समझ सके तो, किनारे खड़े रहके समझ सकते हो। भक्त की चुनौती गहरी है।

एक मित्र ने पूछा है कि संन्यास के लिए गैरिक वस्त्र क्यों जरूरी हैं।

उतरना हो तो थोड़ा पागल होना जरूरी है। ये पागल होने के रास्ते हैं, और कुछ भी नहीं। ये तुम्हारी होशियारी को तोड़ने के रास्ते हैं, और कुछ भी नहीं। ये तुम्हारी समझदारी को पोंछने के रास्ते हैं, और कुछ भी नहीं।
गैरिक वस्त्र पहना दिए, बना दिया पागल! अब जहां जाओगे, वहीं हंसाई होगी। जहां जाओगे, लोग वहीं चैन से न खड़ा रहने देंगे। सब आंखें तुम पर होंगी। हर कोई तुमसे पूछेगा: "क्या हो गया?' हर आंख तुम्हें कहती मालूम पड़ेगी, "कुछ गड़बड़ हो गया। तो तुम भी इस उपद्रव में पड़ गए? सम्मोहित हो गए?'
गैरिक वस्त्रों का अपने-आप में कोई मूल्य नहीं है। कोई गैरिक वस्त्रों से तुम मोक्ष को न पा जाओगे। गैरिक वस्त्रों का मूल्य इतना ही है कि तुमने एक घोषणा की कि तुम पागल होने को तैयार हो। तो फिर आगे और यात्रा हो सकती है। यहीं तुम डर गए तो आगे क्या यात्रा होगी?
आज तुम्हें गैरिक वस्त्र पहना दिए, कल एकतारा भी पकड़ा देंगे। उंगली हाथ में आ गई तो पहुंचा भी पकड़ लेंगे। यह तो पहचान के लिए है कि आदमी हिम्मतवर है या नहीं। हिम्मतवर है तो धीरे-धीरे और भी हिम्मत बढ़ा देंगे। आशा तो यही है कि कभी तुम सड़कों पर मिरा और चैतन्य की तरह नाच सको।
आदमी ने हिम्मत ही खो दी है। भीड़ के पीछे कब तक चलोगे?
ये गैरिक वस्त्र तुम्हें भीड़ से अलग करने का उपाय है, तुम्हें व्यक्तित्व देने की व्यवस्था है; ताकि तुम भीड़ से भयभीत होना छोड़ दो; ताकि तुम अपना स्वर उठा सको, अपने पैर उठा सको, पगडंडी को चुन सको।
राजमार्गों से कोई कभी परमात्मा तक न पहुंचा है, न पहुंचेगा; पगडंडियों से पहुंचता है। और हम धीर-धीरे इतने आदी हो गए हैं भीड़ के पीछे चलने के कि जरा सा भी भीड़ से अलग होने में डर लगता है।
जिन मित्र ने पूछा है, किसी विश्वविद्यालाय में प्रोफेसर हैं, बुद्धिमान हैं, सुशिक्षित हैं--फिर विश्वविद्यालय में गैरिक वस्त्र पहनकर जाएंगे, तो अड़चन मैं समझता हूं। वैस ही अध्यापक मुसीबत में हैं; गैरिक वस्त्र की पूरी फजीहत हुई रखी है!

प्रश्न पूछा है तो जानता हूं कि मन में आकांक्षा भी जगी है, नहीं तो पूछते क्यों। अब सवाल है--हिम्मत से चुनेंगे कि फिर हिम्मत छोड़ देंगे, साहस खो देंगे? कठिन तो होगा । कहना हो, यही तो पूरी व्यवस्था है।
पूछा है कि माला वस्त्रों के ऊपर ही पहननी क्यों जरूरी है। इच्छा पहनने की साफ है, मगर कपड़ों के भीतर पहनने की इच्छा है। नहीं, भीतर पहनने से न चलेगा; वह तो ना पहनने के बराबर हो गया। वह बाहर पहनाने के लिए कारण है। कारण यही है कि तुम्हें किसी तरह भी भीड़ के भय से मुक्त करवाना है--किसी भी तरह। किसी भी भांति तुम्हारे जीवन से यह चिंता चली जाए कि दूसरे क्या कहते हैं, तो ही आगे कदम उठ सकते हैं। अगर परमात्मा का होना है तो समाज से थोड़ा दूर होना ही पड़ेगा। क्योंकि समाज तो बिलकुल ही परमात्मा का नहीं है। समाज के ढांचे से थोड़ा मुक्त होना पड़ेगा।
न तो माला का कोई मूल्य है, न गैरिक वस्त्रों का कोई मूल्य है; अपने-आप में कोई मूल्य नहीं है--मूल्य किसी और कारण से है। अगर यह सारा मुल्क ही गैरिक वस्त्र पहनता हो तो मैं तुम्हें गैरिक वस्त्र न पहनाऊंगा; तो मैं कुछ और चुन लूंगा: काले वस्त्र, नीले वस्त्र। अगर यह सारा मुल्क ही माला पहनता हो तो मैं तुम्हें माला न पहनाऊंगा; कुछ और उपाय चुन लेंगे।
बहुत उपाय लोगों ने चुने। बुद्ध ने सिर घोंट दिया भिक्षुओं का, उपाय है। अलग कर दिया। महावीर ने नग्न खड़ा कर दिया लोगों को, उपाय है।
थोड़ा सोचो, जिन लोगों ने हिम्मत की होगी महावीर के साथ जाने की और नग्न खड़े हुए होंगे, जरा उनके साहस की खबर करो। जरा विचारो। उस साहस में ही सत्य ने उनके द्वार पर आकर दस्तक दे दी होगी।
बुद्ध ने राजपुत्रों को, सम्पत्तिशालियों को भिखारी बना दिया द्वार-द्वार का, भिक्षापात्र हाथ में दे दिए। जिनके पास कोई कमी न थी, उन्हें भिखारी बनाने का क्या प्रयोजन रहा होगा? अगर भिखारी होने से परमात्मा मिलता है तो भिखमंगों को कभी का मिल गया होता। नहीं, भिखारी होने का सवाल न था--उन्हें उतारकर लाना था वहां, जहां वे निपट पागल सिद्ध हो जाएं। उन्हें तर्क की दुनिया से बाहर खींच लाना था। उन्हें हिसाब-किताब की दुनिया के बाहर खींच लाना था। जो साहसी थे, उन्होंने चुनौती स्वीकार कर ली। जो कायर थे, उन्होंने अपने भीतर तर्क खोज लिए। उन्होंने कहा, "क्या होगा सिर घुटाने से? क्या होगा नग्न होने से? क्या होगा गैरिक वस्त्र पहनने से?'
यह असली सवाल नहीं है। असली सवाल यह है, "तुम में हिम्मत है?' पूछो यह बात कि क्या होगा हिम्मत से। हिम्मत से सब कुछ होता है। साहस के अतिरिक्त और कोई उपाय आदमी के पास नहीं है। दुस्साहस चाहिए!
लोग हंसेंगे। लोग मखौल उड़ालेंगे। और तुम निश्चिंत अपने मार्ग पर चलते जाना। तुम उनकी हंसी की फिक्र न करना। तुम उनकी हंसी से डांवाडोल न होना। तुम उनकी हंसी से व्यथित मत होना। और तुम पाओगे, उनकी हंसी भी सहारा हो गई; और उनकी हंसी ने भी तुम्हारे ध्यान को व्यवस्थित किया; और उनकी हंसी ने भी तुम्हारे भीतर से क्रोध को विसर्जित किया; और उनकी हंसी ने भी तुम्हारे जीवन में करुणा लाई।
...समाज के दायरे से मुक्त करने की व्यवस्था है। जिसको मुक्त होना हो और जिसे थोड?ी हिम्मत हो अपने भीतर, भरोसा हो थोड़ा अपने पर; अगर तुम बिलकुल ही बिक नहीं गए हो समाज के हाथों; और अगर तुमने अपनी सारी आत्मा गिरवी नहीं रख दी है; तो चुनौती स्वीकार करने जैसी है।
सत्य कमजोरों के लिए नहीं है, साहसियों के लिए है।

तीसरा प्रश्न: सुरक्षा के लिए मुझे जो नाटक करना पड़ता है, उसे करूं या छोड़ दूं? और अब तो नाटक भी साथ छोड़ रहा है। मुझे सही मार्ग बताने की कृपा करें।

सारा जीवन ही एक नाटक है--संबंधों का, बाजार का, घर-गृहस्थी का। सारा जीवन ही अभिनय है। छोड़कर कहां जाओगे? भागकर कहां जाओगे? जहां जाओगे, वहीं फिर कोई नाटक करना पड़ेगा।
इसलिए भगोड़ेपन के मैं पक्ष में नहीं हूं।
कुशल अभिनेता बनो। भागो मत। जानकर अभिनय करो, बेहोशी में मत करो, होशपूर्वक करो। होश सधना चाहिए। हजार काम करने पड़ेंगे। और शायद उनका करना जरूरी भी है। पर होशपूर्वक करना जरूरी है। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि यह जीवन जीवन न रहा, बिलकुल नाटक हो गया, तुम अभिनेता हो गए।
अभिनेता होने का अर्थ है कि तुम जो कर रहे हो, उससे तुम्हारी एक बड़ी दूरी हो गई। जैसे कि कोई राम का अभिनय करता है रामलीला में, तो अभिनय तो पूरा करता है, राम से बेहतर करता है; क्योंकि राम को कोई रिहर्सल का मौका न मिला होगा। पहली दफ करना पड़ा था, उसके पहले कोई किया न था कभी। तो जो कई दफे कर चुका है, और बहुत बार तैयारी कर चुका है, वह राम से बेहतर करेगा। रोएगा जब सीता चोरी जाएगी। वृक्षों से पूछेगा, "मेरी सीता कहां है'? आंख से आंसुओं की धारें बहेंगी। और फिर भी भीतर पार रहेगा।  भीतर जानता है कि कुछ लेना-देना नहीं है। मंच के पीछे उतर गए, खत्म हो गई बात। मंच के पीछे राम और रावण साथ बैठकर चाय पीते हैं, मंच के बाहर धनुष-बाण लेकर खड़े हो जाते हैं। मंच पर दुश्मनी है; मंच के पार कैसी दुश्मनी!
मैं तुमसे कहता हूं कि असली राम की भी यही अवस्था थी। इसलिए तो हम उनके जीवन को रामलीला कहते हैं--लीला! वह नाटक ही था। कृष्णलीला! वह नाटक ही था। असली राम के लिए भी नाटक ही था।
नाटक का अर्थ होता है: जो तुम कर रहे हो, उसके साथ तादात्म्य नहीं है; उसके साथ एक नहीं हो गए हो; दूर खड़े हो; हजारों मील का फासला है तुम्हारे कृत्य में और तुम में। तुम कर्ता नहीं हो, साक्षी हो। नाटक का इतना ही अर्थ है: तुम देखने वाले हो। वे जो मंच के सामने बैठे हुए दर्शक हैं, उनमें कहीं तुम भी छिपे बैठे हो; मंच पर काम भी कर रहे हो और दर्शकों में छिपे भी बैठे हो, वहां से देख भी रहे हो। भीतर बैठकर तुम देख रहे हो जो हो रहा है, खो नहीं गए हो, भूल नहीं गए हो। यह भ्रांति तुम्हें नहीं हो गई है कि मैं कर्ता हूं। तुम जानते हो: एक नाटक है, उसे तुम पूरा कर रहे हो।
तो मैं तुमसे न कहूंगा कि भागो। भागकर कहां जाओगे? मैं तुमसे यह कहुंगा कि भागना भी नाटक है। जहां तुम जाओगे, वहां भी नाटक है। तुम संन्यासी भी हो जाओ, तो भी मैं तुमसे कहूंगा: संन्यास भी नाटक है, अभिनय है। वस्त्र ऊपर ही ओढ़ना--आत्मा पर न पड़ जाए। यह रंग ऊपर ही ऊपर रहे, भीतर ना हो जाएं। भीतर तो तुम पार ही रहना। सफेद कपड़े पहनो कि गेरुआ पहनो कि काले पहनो, वस्त्र बाहर ही रहें, भीतर ना आ जाएं। तुम्हारी  आत्मा निर्वस्त्र रहे, नग्न रहे। तुम्हारे चैतन्य पर कोई आवरण न हो। वहां तो तुम मुक्त ही रहो--सब वस्त्रों से, सब आकारों से।
तुम्हारा कोई नाम-धाम है, उसे तुम छोड़कर भाग आओगे- मैं तुम्हें एक नया नाम दे दूंगा, उस नाम से भी दूरी रहे, उस नाम से भी तादात्म्य मत कर लेना। पुराना नाम भी तुम्हारा नहीं था, यह भी तुम्हारा नहीं है--तुम अनाम हो। पुराने से छुड़ाया, क्योंकि उससे तुम्हारे एक होने की आदत बन गई थी; नया दिया, इसलिए नहीं कि अब इसे तुम आदत बना लो, अन्यथा यह भी व्यर्थ हो जाएगा।
अपने को दूर रखने की कला संन्यास है।
अभिनेता होने की कला संन्यास है।
जहां तुम कर्ता हुए, वहीं गृहस्थ हो गए।
जहां तुम द्रष्टा रहे, वहीं संन्यस्त हो गए।
तो कहीं से भागना नहीं है।
कहीं जाना नहीं है।
जहां हो वहीं जागना है।
"आता है जज्ब? दिल को वह अन्दाजे मैकशी
रिन्दों में रिन्द भी रहें, दामन भी तर न हो।'
पीनेवालों में पीनेवाले भी बन गए, और दामन भी तर न हो। पियक्कड़ों में पियक्कड़ जैसे हो गए, लेकिन बेहोशी न पकड़े, दाग न लगे, जागरण बना रहे। तो संसार में जो चल रहा है--घर है, गृहस्थी है, बच्चे हैं, पत्नी है, पति है--ठीक है। भागकर भी क्या होगा? कहां जाओगे? जहां जाओगे, वहीं संसार है। फिर तुम अगर बिना  बदले वहां जाओगे, तो तुम वहीं संसार खड़ा कर लोगे।
संसार से भागने को एक ही रास्ता है, वह जागता है। तो जहां हो, वहीं जाग जाओ। और इस तरह करने लगो जैसे यह सब नाटक है। अगर कोई व्यक्ति इतनी ही याद रख सके कि सब नाटक है, तो और कुछ करने को न बचता। इतना ही करने जैसा है:
"आशियां में न कोई जहमत न कफस में तकलीफ
सब बराबर है तबीयत अगर आज़ाद रहे'
फिर कोई फर्क नहीं पड़ता, घर में कि बाहर , घर में कि कैद में। तबीयत अगर आजाद रहे। और तबीयत की आजादी क्या है?
साक्षी-भाव तबीयत की आजादी है। साक्षी पर कोई बंधन नहीं है।
साक्षी ही एकमात्र मुक्ति है। जहां तुम कर्ता बने कि तुमने जंजीरें ढालीं। जहां तुमने कहा, मैं कर्ता हूं, बस वहीं तुम कैद में पड़े। अगर तुम देखते ही रहे, अगर तुमने देखने का सातत्य रखा, अविच्छिन्न धारा रही द्रष्टा की, फिर कोई तुम पर बंधन नहीं है। चैतन्य को न कोई बांधने का उपाय है, न कोई जंजीरें हैं, न कोई दीवाल है।
"सब बराबर है, तबीयत अगर आज़ाद रहे'

चौथा प्रश्न: आपने कहा कि ज्ञान भक्ति के लिए बाधा है, फिर महातार्किक और महापंडित चैतन्य एकबम से भक्त कैसे हो गे?

...क्योंकि वे महातार्किक थे और महापंडित थे। छोटे-मोटे पंडित होते तो न हो पाते। इतने बड़ए तार्किक थे कि उनको अपने तर्क की व्यर्थता भी ादिखाई पड़ गई। इतने बड़ए मंडित थे कि अपना पांडित्य भभ कचरा मालूम पड़ा। छोटे मंडित पांडित्य में अटके रह जाते हैं। छोटे तार्किक तर्क से ऊमर नहीं उठ पाते।
अगर तुम सच में ही विचार करने में कुशल हो तो आज नहीं कल तुद्ममहें विचार की व्यर्थता दिखाई पड़ जाएगी। वह विचार की आखिरी निष्पत्ति है। विचार के प्रति जाग जाना कि विचार व्यर्थ है--विचार का आखिरी निष्कर्ष है।
जैसे कांटे से हम कांटज्ञ निकाल लेते हैं, ऐसा महातर्क से तर्क निकल जाता है और महाविचार से विचार निकल जाता है।
चैतन्य महापंडित थेमछोटे-मोटे पंडित होते तो डूब जाते। वे छोटे-मोटे पंडित नहीं थे, नहीं तो अकड़ जाते, भूल ही जाते अपने पांडित्य में। सच में ही पंडित थे।
पंडित शब्द बड़ा अर्थपूर्ण है। खो गया उसका अर्थम गलत हो गया उसका अर्थ। लेकिन शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। आता है प्रज्ञा से--प्रज्ञावान ! जागा हुआ!
पांडित्य से पंडित का कोई संबंध नहीं है--प्रज्ञा से है। कितना तुम जानते हो। इससे संबंध नहीं है--कितने तुम जागे हुए हो...!
तो चैतन्य ने देखा: इतना जान लिया, कुछ भी तो हाथ न आया। सब शास्त्र देख डाले, भिखारी के भिखारी रहे। तर्क बहुत कर लिया, बहुतों को तर्क में पराजित किया, लेकिन भीतर कोई संपत्ति तो हाथ ान लगी, भीतर का अंधेरा तो अब भी वैसा का वैसा है। तर्कजाल से ज्योति न जली, भीतर का प्रकाश न मिला। महापंडित थे, बात समझ में आ गई। फेंक दी पोथी, र्फक दिए तर्कजाल। बात ही छोड़ दी विचार की। एक क्षण में यह क्रांति घटी।
अगर तुम अभी भी उलझे हो पांडित्य में, अगर तुम अभी भी बुद्धिमानी में उलझे हो, तो समझना कि बुद्धिमानी तुम्हारी बहुत बड़ी नहीं है, छोटी-मोटी है। अधकचरे पंडित ही पंडित रह जाते हैं। वास्तविक पंडित तो मुक्त हो जाते हैं।
तो मैं कहता हूं, अगर तुम तर्क में अभी भी रस लेते हो, थोड़ा और रस लेना। जल्दी नहीं है कोई, अनंत काल शेष है, कोई घबड़ाहट नहीं है। और थोड़ा रस लेना। तर्क में और थोड़ी प्रगाढ़ता पाओ। और थोड़े प्रवीण हो जाओ। और थोड़ी गहरी सूक्ष्मता में जाओ। एक दिन तुम अचानक पाओगे: तुम्हारा तर्क ही तुम्हें उस जगह ले आया, जहां दर्शन हो जाते हैं कि तर्क र्व्यथ है। शास्त्र ही वहां ले आते हैं, जहां शास्त्र व्यर्थ हो जाते हैं। और इसके पहले भागना मत। इसके पहले भागोगे, तो तुम्हारा पांडित्य अटका ही रहेगा। तुम फिर चाहे गीत गाने लगो, भक्ति करने लगो, पूजा करने लगो--तब तुम पूजा के पंडित हो जाओगे; तब तुम भक्ति के पंडित हो जाओगे--लेकिन पंडित तुम रहोगे ही; तुम निर्विकार न हो पाओगे।
उस निर्विकार को पाना हो तो विचार को उसकी आखिरी घड़ी तक खींचकर ले जाना।
सब चीजें उम्र पाकर मर जाती हैं। हर बच्चा अगर बीच में ही न मर जाए तो बूढ़ा होगी ही। हर जवानी बुढ़ापे पर पहुंच जाती है। जैसे चीजें बढ़ती हैं, ढलती हैं। सुबह हुई, सांझ होने लगी! सुबह हुई, सांझ होने लगी। विचार किया, निर्विचार करीब आने लगा।
घबड़ाओ मत। थोड़े बढ़े चलो!
मैं तुमसे जल्दी करने को नहीं कहता। यह मेरी सतत अभिलाषा है, और सतत इस पर मेरा जोर है कि तुम जल्दी मत करना--पकना। परिपक्व हुए बिना कुछ भी नहीं होता। परिपक्वता सब कुछ है।
तो मेरी बात सुनकर तुम तर्क मत छोड़ देना। मैंने भी उसे पूरा करके ही छोड़ा। और मैं जानता हूं, जो जल्दी करके छोड़ देगा, अधूरे में छोड़ देगा, वह अधूरा रह जाएगा। चीजों को पहुंचने दो उनकी आखिरी ऊंचाई तक, वे अपने से ही ढल जाती हैं। तुम इतना ही कर सकते हो कि सहारा दो, पहुंचने दो उन्हें उनकी आखिरी ऊंचाई तक--वे अपने से ही गिर जाती हैं।
सुबह अपने-आप सांझ हो जाती है। तुम्हें भर दुपहरी में आंख बंद करके सांझ बनाने की कोई जरूरत नहीं । भर दुपहरी में सांझ को विश्वास कर लेने की कोई जरूरत नहीं है। और ऐसी सांझ झूठ होगी। झूठ से कहीं कोई परमात्मा तक पहुंचा है?
अधिक लोगों की आस्तिकता झूठ है। उनके भजन-कीर्तन झूठ हैं। अभी उन्होंने तर्क की कसौटी भी पूरी न की थी। अभी नास्तिक भी न हुए थे और आस्तिक हो गए। अभी इनकार भी न किया था और हां भर दी। अभी लड़े भी न थे और समर्पण कर दिया। टक्कर देनी थी ठीक, लड़ना था ठीक, जूझना था। जल्दी क्या है समर्पण की?
कच्चा समर्पण काम न आएगा।
मैं नास्तिकता सिखाता हूं, ताकि तुम किसी दिन आस्तिक हो सको। और मैं तुमसे कहता हूं, तर्क करना। मैं उन कमजोर लोगों में नहीं हूं जो तुमसे कहते हैं, तर्क छोड़ो, मैं तुमसे कहता हूं तर्क छूट जाएगा, तुम कर तो लो। मैंने करके देखा और छूट गया। और मैं उनको भी जानता हूं, जिन्होंने बिना किए छोड़ा और अब तक नहीं छूटा, कभी न छूटेगा।
 जीवन अनुभव से आता है।
तुम नास्तिक हो जाओ। घबड़ाओ मत। इतना डरा क्या है? परमात्मा है। नास्तिक होने में इतनी कोई घबड़ाने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे नास्तिक होने से वह नाराज ना हो जाएगा।
जीसस ने कहा है, एक बाप ने अपने बेटे को कहा कि तू जा, बगीचे में काम कर, फसल पक गई है। और बेटे ने कहा, "अभी जाता हूं। यह गया!' लेकिन गया नहीं। दूसरे बेटे से कहा कि तू जा। उसने कहा कि नहीं, मैं न जाऊंगा , और हजार काम हैं। लेकिन बाद में पछताया और गया।
तो जीसस ने अपने शिष्यों से पूछा, "इन दोनों बेटों में कौन बाप का प्यारा होगा, जिसने हां कही और नहीं गया, या जिसने नहीं की और गया?' जिसने नहीं की और गया, वही प्यारा होगा।
तुम जरा गौर करना। अगर तुमने "नहीं' ही नहीं की, तो तुम्हारी "हां' नंपुसक होगी। उसमें जान ही न होगी। तुमने औपचार से कह दिया। पिता कहते हैं, इसलिए कह दिया कि अच्छा जाते हैं । टालने को कह दिया।
घर के लोग मानते हैं कि ईश्वर है, तुमने मान लिया। परिवार, समाज मानता है, तुमने मान लिया। यह तुम्हारी मान्यता न हुई; यह सामाजिक शिष्टाचार हुआ। शिष्टाचार  से तुम मस्जिद गए, मंदिर गए, गुरुद्वारे गए, छुके--यह तुम मंदिर-मस्जिद में न झुके; यह तुम समाज के सामने झुके; यह तुम भय से झुके कि लोग क्या कहेंगे!
लेकिन तुमने इनकार किया। तुमने कहा कि जब तक मैं न समझ लूं, कैसे मानूं, तो तुमने कम से कम प्रामाणिकता तो घोषित की; तुमने कम से कम यह तो कहा कि मैं बेइमानी यहां न करूंगा--बाजार में कर लेता हूं ठीक, चलती है- मंदिर में तो बेइमानी न करूंगा। यहां तो प्रामाणिक रहूंगा। यहां तो जब हां आएगी, तभी कहूंगा। और जब तक भीतर से न उठती हो, मेरे हृदय से न आती हो, तब तक रुकूंगा, तब तक यह गर्दन न झुकेगी।
और में तुमसे कहता हूं, परमात्मा तुमसे नारज न होगा।
तुम्हारी "नहीं' "हां' की तरफ पहला कदम है। तुम चल पड़े। तुमने  कम से कम प्रमाणिक होने का पहला कदम तो उठाया। और जिसने ठीक से "नहीं' कही, वह एक न एक दिन "हां' कहेगा, क्योंकि कौन "नहीं' में जी सकता है, कब तक जी सकता है! नकार में जीने का कोई उपाय नहीं। "नहीं' से किसी का भी पेट नहीं भरता और "नहीं' से न खून बनता है, और न आत्मा में प्राण आते हैं, न श्वासें चलती हैं।
"हां' चाहिए! परम आस्था चाहिए, तभी जीवन का फूल खिलता है। "नहीं' तुम कहो, आज नहीं कल, तुम खुद ही अपनी "नहीं' से घबड़ा जाओगे; आज नहीं कल, तुम्हारी "नहीं' तुम्हें ही काटने लगेगी, सालने लगेगी। तभी ठीक क्षण आया उसे गिराने का।
चैतन्य महापंडित थे, महातार्किक थे--इसीलिए एक दिन भक्त हो सके।
भक्ति कोई सस्ती बात नहीं है। वह तर्क के आगे का कदम है। वह तर्क के आगे की मंजिल है। काव्य कोई छोटभ बात नहीं; वह गणित से पार की समझ है। वह आखिरी मंजिल है, फिर उसके आगे कोई मंजिल नहीं। और सब मंजिलें उसके पहले ही पूरी हो जाती हैं।
तो अगर तुम्हारा मन अभी भी तर्कजाल मग उलझा हो, पांडित्य मग उलझज्ञ हो, शास्त्र में उलझा हो, तो यही समझना कि पंडित तुम अधकचरे हो, ज्ञान बचकाना है। थोड़ा और बढ़ाओ इसे! प्रौढ़ होते ही ज्ञान वैसे ही गिर जाता है, जैसे पका हुआ फल वृक्ष से।

पांचवां प्रश्न: सैकड़ों बार भ्रम के टूटने पर भी भरोसा नहीं आता। क्या करूं? कैसे भरोसा वापस लौटे?

सैकड़ों बार भ्रम टूटा है--यह प्रतीति भ्रामक मालूम होती है। सच में न टूटा होगा। तुमने बिना टूटे मान लिया होगा कि टूटा। भ्रम न टूटा होगा। तुमने जल्दी कर ली होगी। कुछ और टूटा होगा और तुमने सोचा, भ्रम टूटा।
समझो: एक स्त्री के प्रेम में तुम पड़े और दुख पाया। तुम सोचते हो भ्रम टूटा? गलत बात है। इस स्त्री से संबंध टूटा, भ्रम नहीं टूटा; क्योंकि भ्रम का इस स्त्री से कोई संबंध नहीं है। अब तुम्हारा मन किसी दूसरी स्त्री की तलाश कर रहा है। भ्रम जारी है। दूसरी सत्री से संबंध बन गया, फिर दुख पाया--तुम सोचते हो, भ्रम टूटा? गलती हुई है, भ्रम नहीं टूटा। मन अब तीसरी स्त्री की तलाश कर रहा है। मन कहे जाता है कि जब तक ठीक स्त्री न मिलेगी, तब तक खोजे चले जाओ। इस बड़ी पृथ्वी पर जरूर कहीं न कहीं कोई ठीक स्त्री होगी जो तुम्हें सुख देगी। भ्रम वह है।
एक स्त्री, दो स्त्री, तीन नहींख लाखों स्त्रियों से तुम लाखों जन्मों में संबंध बना चुके और टूट चुके; लाखों पुरुषों से संबंध बन चुके, टूट चुके--भ्रम नहीं टूटा है। इस स्त्री से टूटा--स्त्री से नहीं टूटा है। इस पुरुष से टूटा--पुरुष से नफब टूटा। और जब तक पुरुष से न टूटे; स्त्री से न टूटे, तब तक भ्रम कायम है, भ्रम जारी है।
तुमने दस हजार रुपये कमाने की आशा बांधी थी, कमा लिए; सोचा था, सब मिल जाएगा--कुछ भी न मिला। अब तुम सोचते हो, बीस हजार होने चाहिए।
तुम कहते हो, भ्रम टूटा? भ्रम नहीं टूटा। भ्रम कायम है। आगे सरक गया है। दस से बीस पर पहुंच गया। एक से दूसरे पर हट गया। एक आकांक्षा से दूसरी आकांक्षा पर सरक गया। लेकिन भ्रम जिंदा है।
ऐसा भी हो जाता है कि तुम्हारा सारी संसार की इच्छाओं से मन ऊब गया, तब तुम स्वर्ग की इच्छा करने लगते हो। अब भी भ्रम नहीं टूटा। अब तुमने स्वर्ग में प्रक्षेपण किया सारी आकांक्षाओं का। जो तुम्हें यहां नहीं मिला, अब तुम वहां मांगने लगे।
भ्रम टूट जाए तो सैकड़ों बार नहीं टूटता, एक ही बार टूट जाए तो बस समाप्त हो जाता है। जो सैकड़ों बार भी टूटकर और नहीं टूटता, समझना कि भूल हो रही है।
"रेगजारों में बगूलों से सिवा कुछ भी नहीं'
रेगिस्तानों में आंधी और बगूलों के सिवा कुछ भी नहीं है।
"रेगजारों में बगूलों के सिवा कुछ भी नहीं
साया-ए-अब्रे-गुरेजां से मुझे क्या लेना'!
और ज्यादा से ज्यादा जो छाया मिल सकती है रेगिस्तान में, वह आकाश में भागती हुई बदलियों की छाया है।
अगर यह समझ में आ गया कि आकाश में भागती बदलियों की छाया में कितनी देर टिकोगे, तो फिर तुम जागोगे।
यहां सभी छायाएं आकाश में भागती बदलियों की छायाएं हैं। और जहां तुमने मरूद्यान समझे हैं, वहां भी रेगिस्तान हैं। और जहां तुमने वसंत समझे हैं वहां भी पतझड़ छिपे हैं। जहां तुमने जीवन समझा है, वह केवल मौत का एक ढंग है।
"ऐ दिल तुझे रोना है तो जी खोल कर रो ले
दुनिया से बढ़ कर न कोई वीराना मिलेगा'
पर भ्रम अभी टूटे नहीं है।
 भ्रम के भी टूटने का भ्रम होता है। वही हुआ है।
तो क्या करो?
अब दुबारा इस भ्रम में मत आना कि भ्रम टूट गया। इतना तो करो, शेष अपने से होगा। जब तक भ्रम न टूटे, तब तक भ्रम मत पालना कि भ्रम टूट गया है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, "क्रोध करके देख लिया है, कोई सार न पाया। फिर भी क्रोध जाता नहीं'। तो मैं उनसे कहता हूं, "जरूर कुछ सार पाया होगा। झूठ कहते हो। नहीं तो चला जाता। यह जो तुम कहते हो कि कुछ सार न पाया, यह बुद्धिमानी बता रहे हो। लेकिन अगर कुछ सार न पाया हो तो रेत से कौन तेल निकालता रहता है? कोई भी नहीं निकालता। दीवाल से कौन निकलने की कोशिश करता है? कोई भी नहीं करता। एकाध बार करे भी तो सिर टकरा जाता है, रास्ते पर आ जाती है अक्ल, दरवाले से निकलने लगता है'
लोग कहते हैं, कामवासना से कुछ भी न पाया, लेकिन फिर भी मन छूटता नहीं। जरूर पाया होगा।
इस भ्रम को छोड़ो।
उधार बुद्धिमानी काम न आएगी। जीवन के अनुभव से जो मिले वही सच है। इस उधार बुद्धिमानी के कारण असली बुद्धिमानी पैदा नहीं हो पाती।
तुमसे मैं कहता हूं, क्रोध ठीक से करो, पूरी तरह करो, होशपूर्वक करो, देखते हुए करो कि क्या मिल रहा है, मिल रहा है कुछ या नहीं। अगर कुछ न पाओगे तो क्रोध समाप्त हो जाएगा, तुम्हें समाप्त करना न पड़ेगा।
कामवासना में उतरो--पूरे होशपूर्वक! देखो--कुछ मिल रहा है? जागकर, स्मरणपूर्वक! शास्त्रों की मत सुनो। साधुओं कीबकवास में मत पड़ो। तुम्हारा अनुभव ही तुम्हारे काम आएगा।
उधार ज्ञान बाधा बन जाता है। उससे वास्तविक ज्ञान के जन्म में असुविधा होती है। उधार ज्ञान हटा दो। कामवासना बुरी है--ऐसा भी मत सोचो। जब तक तुम्हारे लिए बुरी नहीं है, तब तक कैसे बुरी है? व्यर्थ है--ऐसा भी मत सोचो। जब तक तुम्हारे लिए व्यर्थ नहीं, तब तक कैसे व्यर्थ है? कौन जाने, ठीक ही हो!
निष्पक्ष मन से, कोरे और खाली मन से जाओ, धारणाएं लेकर नहीं। और तब तुम अचानक हैरान होओगे, जो शास्त्रों ने कहा है, वह जीवन तुमसे कह देता है। और जब जीवन का शास्त्र तुमसे कहता है, तभी क्रांति घटित होती है, उसके पहले नहीं।

आखिरी प्रश्न: आपने कहा था कि भक्त कण-कण में भगवान को देखता है। लेकिन जिसे सिर्फ आपका पता है, कण में बसनेवाले भगवान का नहींख उसके लिए क्या साधना होगी?

"तलाशो-जुस्तजू की सरहदें अब खत्म होती हैं
खुदा मुझको नज़र आने लगा इंसाने-कामिल में'
अगर तुम्हें एक आदमी की पूर्णता में भी परमात्मा नजर आने लगे तो खोज समाप्त हो गई। अगर तुम्हें मुझमग भभ नजर आने लगे तो बात समाप्त हो गई। फिर मैं खिड़की बन जाऊंगा। तुम फिर मेरे पार देखने में समर्थ हो जाओगे।
 नहीं, मैं तुमसे कहता हूं, तुम्हें मुझ में भी नजर न आया होगा। तुमने मान लिया होगा। तुमने स्वीकार कर लिया होगा। नजर न आया होगा। तुम्हारे भीतर अब भी कहीं संदेह खड़ा होगा। वहीं संदेह तुम्हारी आंख पर परदा बना रहेगा।
 अगर तुम्हें एक मग नजर आ गया, तो बात खत्म हो गई, फिर सब में नजर आने लगेगा।
यह तो ऐसे ही है, जिसने सागर का एक चुल्लू पानी चख लिया, उसे पता चल गया कि सारा सागर खारा है।
तुमने अगर मुझ में परमात्मा चख लिया तो तुमने सारे परमात्मा के सागर को चख लिया। फिर असंभव है। यह तो कसौटी है, अगर तुम्हें एक में नजर आया, वह भी तुमने मान लिया होगा, भीतर संदेह को दबा दिया होगा; लेकिन भीतर तुम्हारी बुद्धि कहे जा रही होगी--परमात्मा, भगवान, भरोसा नहीं आता!
तो फिर से गौर से देखो। मुझ में उतना देखने का सवाल नहीं है; असली परदा तुम्हारे भीतर है। तुम्हारी आंख पर संदेह का परदा है, तो वृक्षों में नहीं दिखाई पड़ता, चांदत्तारों में नहीं दिखाई पड़ता। सब तरफ वही मौजूद है, पत्ती-पत्ती में! उसके बिना जीवन हो नहीं सकता। जीवन उसका ही नाम है। या जीवन परमात्मा का नाम है। तुम "परमात्मा' शब्द छोड़ दो तो भी हर्जा नहीं, "जीवन' शब्द याद रखो। जहां जीवन दिखाई पड़े वहीं झुको।
जीवन को जरा देखो! एक बीज से फूटती हुई कोंपलों को देखो! बहते हुए झरने को देखो! रात के सन्नाटे में, चांदत्तारों को देखो! किसी बच्चे की आंख में झांको! सब तरफ वही है! परदा तुम्हारे भीतर है। परदा तुम हो।
"तू-हीत्तू हो, जिस तरफ देखें उठा कर आंख हम
तेरे जल्वे के सिवा पेशे-नज़र कुछ भी न हो'
मगर यह परमात्मा के हाथ में नहीं है। अगर यह उसके हाथ मग होता तो परदा कभी का उठा दिया गया होता। यह तुम्हारे हाथ में है। यह परदा तुम हो। और तुम जब तक न उठाओ अपना परदा तब तक तुम्हें कहीं भी दिखाई न पड़ेगा।
और मैं तुमसे कहता हूं, एक जगह दिखाई पड़ जाए तो सब जगह दिखाई पड़ गया। जिसे मंदिर में दिखा उसको मस्जिद में भी दिख गया। देखने की आंख आ गई, बात समाप्त हो गई। जिसको एक दिये मग रोशनी दिख गई, क्या उसे सूरज की रोशनी न दिखेगी?
लेकिन अंधा आदमी! वह कहता है, दीये में तो दिखती है, लेकिन सूरज की नहीं दिखती। तो हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे, तूने दीये की मान ली। तूने अपने को समझा-बुझा लिया। तू फिर से देख। इस धोखे में मत पड़।
तो मैं तुमसे कहता हूं, फिर से मेरी आंखों में देखो, फिर से मेरे शून्य में झांको! अगर संदेह के बिना देखा, अगर भरोसे से देखा, तो एक झलक काफी है। फिर उस झलक के सहारे तुम सब जगह खोज लोगे। फिर तुम्हारे हाथ में कीमिया पड़ गई, तुम्हारे हाथ में कुंजी आ गई।
इतना ही अर्थ है गुरु का कि उससे तुम्हें पहली झलक मिल जो कि कुंजी हाथ आ जाए, फिर सब ताले उस कुंजी से खुज जाते हैं।

आज इतना ही।





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