यह जीवन--एक सराय—पांचवां प्रवचन
दिनांक १५ मार्च, १९७७; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:
दयाकुंअर या जग्त में, नहीं रह्यो थिर कोय।
जैसो वास सराय को, तैसो यह जग होय।
जैसो मोती ओस को, तैसो यह संसार।
विनसि जाय छिन एक में, दया प्रभु उर धार।।
तात मात तुमरे गए, तुम भी भये तयार।
आज काल्ह में तुम चलौ, दया होहु हुसियार।।
बड़ो पेट है काल को, नेक न कहूं अधाय।
राजा राना छत्रपति, सब कूं लीले जाय।।
बिनसत बादर बात बसि, नभ में नाना भांति।
इमि नर दीसत कालबस, तऊ न उपजै सांति।।
कार्ल
माक्र्स का प्रसिद्ध वचन है कि धर्म अफीम का नशा है। कार्ल माक्र्स को धर्म का कुछ
भी पता न होगा,
क्योंकि
धर्म को छोड़ कर सब अफीम का नशा है। धन की दौड़, पद की दौड़--नशा है। धर्म के एकमात्र नशे से
जागने का उपाय।
हम सब
जीते हैं सपनों में--और इसलिए उससे अपरिचित रह जाते हैं जो सत्य है। सत्य से परिचय
न बने तो सुख,
संभव
नहीं है। सुख,
सत्य
से परिचय की सुगंध है। सपने में जीएं तो दुख ही निर्मित होगा, क्योंकि जो नहीं है उससे सुख
पैदा नहीं हो सकता। जो नहीं है वह बार-बार पीड़ा देगा। तुम लाख उपाय करो, वह हो न सकेगा। जो नहीं है
नहीं है। जो है वही है।
धर्म
का अर्थ है: जो है उसकी तलाश। अधर्म का अर्थ है: जो नहीं है उसकी आकांक्षा।
मनुष्य
मांगता है बहुत कुछ, जो
नहीं है। और कोई उपाय नहीं है उसके होने का। और किसी तरह तुम आयोजन भी कर लो अपने
सपनों का तो भी तुम भीतर रिक्त रह जाओगे। क्योंकि सपनों के भोजन से कब किसका पेट
भरा! सपने के जल से कब किसकी प्यास मिटी! सपने से भरमा सकते हो, उलझा सकते हो। सपने से तुम
जीवन को काटने की व्यवस्था कर ले सकते हो। व्यस्त रहोगे, लेकिन कभी कुछ पा न सकोगे।
किनारा कभी भी न मिलेगा। सपने का कोई किनारा होता ही नहीं। सत्य का किनारा होता
है। कठिनाई यह है कि जो सपने में दौड़ रहा है वह सत्य के विपरीत चलने लगता है। सपना
यानी सत्य के विपरीत। तो जो सपने में दौड़ रहा है वह सत्य से रोज-रोज वंचित होता
जाता है। सपना तो कभी पूरा होता नहीं; जो पूरा हो सकता था उससे वंचित होता चला
जाता है।
तुम्हारी
मांग के कारण तुम जो हो सकते थे, नहीं
हो पाते। तुम वही हो सकते हो जो तुम किसी गहरे तल पर हो ही। बीज फूल बनेगा, लेकिन वही फूल बनेगा जो बीज
अभी भी है। छिपा है; प्रगट
होगा।
परमात्मा
का अर्थ है,
मनुष्य
के भीतर जो छिपा है। कभी किसी भक्त में, कभी किसी संत में, जो छिपा है वह प्रगट होता है।
लेकिन प्रत्येक मनुष्य उसी का बीज है। लेकिन हमारी ऊर्जा और हजार दिशाओं में बहती
है। इसलिए बीज को ऊर्जा मिलती नहीं। बीज को पोषण नहीं मिलता।
तुमने
खयाल किया?
तुम
जितने लगाव से बाजार जाते हो, उतने
लगाव से कभी मंदिर गए? तुमने
जितने प्रेम से रुपए गिने हैं, उतने प्रेम
से कभी माला फेरी?
तुमने
जितनी आतुरता से पद मांगा है, उतनी
आतुरता से परमात्मा को मांगा? परमात्मा
के दरवाजे पर भी तुम संसार ही मांगने जाते हो। तुम्हारी मूढ़ता की कोई सीमा नहीं
है। परमात्मा के द्वार पर भी तुम संसार को ही मांगने जाते हो; तभी जाते हो जब तुम्हें कुछ
संसार में जरूरत होती है। तुम परमात्मा से भी धन मांगते हो, यश मांगते हो, पद-प्रतिष्ठा मांगते हो। तुम
परमात्मा से भी वही मांगते हो जो तुम कर रहे थे और अब नहीं कर पा रहे हो। तुम अपने
ही सपनों में परमात्मा का सहारा भी मांगते हो। परमात्मा की तरफ तो तुम्हारी आंख ही
तब उठेगी जब तुम्हें एक बात प्रत्यक्ष हो जाए कि हम जो भी मांग रहे हैं, वह व्यर्थ है, कूड़ा-कर्कट है। वह मिल भी जाए
तो कुछ न मिलेगा। एक तो मिलने वाला नहीं; फिर मिल भी जाए तो भी कुछ न मिलेगा। तुम
सम्राट हो जाओ सारे संसार के, सारी
पृथ्वी तुम्हारी हो, तो भी
क्या मिलेगा?
तुम
भीतर तो वही रहोगे जो अभी हो--ऐसे ही दुखी, ऐसे ही चिंतित, ऐसे ही अशांत, ऐसे ही पीड़ित, ऐसे ही परेशान। शायद तुम्हारी
परेशानी थोड़ी और बढ़ जाएगी। क्योंकि सारी दुनिया की परेशानियां और तुम्हारे सिर पर
सवार हो जाएंगी। कम तो नहीं होगी परेशानी।
धर्म
अफीम का नशा नहीं है; धर्म
को छोड़ कर सब अफीम का नशा है। धर्म एकमात्र प्रक्रिया है जिससे हम नशों के बाहर
आते हैं। धर्म नशा उतारने की विधि है।
तो
पहली बात खयाल लें: सपना क्या और सत्य क्या? कसौटी कहां है? कैसे हम जानेंगे कि जो हम देख
रहे हैं वह सपना है? कैसे
हम जानेंगे-पहचानेंगे कि जो हम मांग रहे हैं वह सपना है?
पहली
बात: सत्य को मांगना ही नहीं होता है। जो भी तुम मांगते हो, सपना ही होगा। मांगना ही
असत्य को पड़ता है। सत्य तो है ही। सत्य के लिए तो सिर्फ आंख खोलनी काफी है; मांगने की कोई जरूरत नहीं है।
पश्चिम
का बहुत बड़ा चित्रकार पाब्लो पिकासो एक बात बार-बार कहा करता था। लोग समझते थे कि
अहंकार की घोषणा है, दर्प
है। मैं नहीं समझता। चाहे पिकासो का कहने का ढंग दर्प-भरा रहा हो, लेकिन वह जो उसने कहा है, सच के बहुत अनुकूल है। बड़ा
बेबूझ है। अटपटी बात है। कभी-कभी चित्रकार-मूर्तिकार, संगीतज्ञ, कवि ऐसी बात कह देते हैं जो
धर्म की अटपटी बात के काफी करीब आ जाती है। काफी करीब आ जाती है! क्योंकि कवि को
कभी-कभी झलक मिलती है सत्य की; और
कभी-कभी मूर्तिकार और चित्रकार को भी। जब बुद्धि से उसका संबंध टूट जाता है और
हृदय में गहन प्रवेश होता है, तो कुछ
द्वार खुलते हैं,
कुछ
झरोखे खुलते हैं। संत को जो सदा के लिए मिल जाता है, कवि को कभी-कभी उसकी झलक आती
है, लहर आती है।
पाब्लो
पिकासो कहता था: "आइ डू नॉट सीक, आई फाइंड'; मैं खोजता नहीं पाता हूं!
इस
वक्तव्य पर लोगों ने टिप्पणी की है कि यह बड़े अहंकार का वक्तव्य है कि "मैं
पाता हूं'!
लेकिन
यह वक्तव्य बड़ा प्यारा है। यह बड़ा महत्वपूर्ण है। सत्य को खोजना नहीं पड़ता--सत्य
को पाना पड़ता है।
लाओत्सु
का प्रसिद्ध वचन है: खोजा कि खोया, क्योंकि खोज करने का अर्थ ही यह होता है कि
तुम कुछ खोजने लगे जो है नहीं। जो है उसने तो तुम्हें सब तरफ से घेरा है।
बाहर-भीतर वही है। खोजने वाले में भी वही है। जिसको तुम खोजने चले हो, वह तुम्हारे भीतर बैठा है। वह
तुम्हारी आंखों में से देख रहा है। तुम उसे बाहर ही थोड़े देखोगे, वह तुम्हारे रोएं-रोएं में, श्वास-श्वास में समाया हुआ
है। जो है,
उसे
खोजने की क्या जरूरत? जो है
उसे तो बस पा लेने की जरूरत है।
मैं भी
तुमसे यही कहता हूं: परमात्मा को पा लेने की जरूरत है, खोजने की नहीं। खोजा कि चूके।
खोज का मतलब ही यह होगा कि तुम हिंदुओं का परमात्मा खोज रहे हो, मुसलमानों का परमात्मा खोज
रहे हो,
ईसाइयों
का परमात्मा खोज रहे हो। खोज का मतलब होगा, तुम मनुष्य की धारणा का परमात्मा खोज रहे
हो। अगर परमात्मा को पाना हो, सब
धारणा छोड़ देना। खोजना भी छोड़ देना। बैठ रहना, खाली हो जाना। खोज से खाली जो मन है उसी में
परमात्मा झलक आता है। क्योंकि खोज से खाली मन में कोई तरंगें नहीं होतीं। वासना
नहीं तो तरंगों की दौड़ कहां! कुछ पाना ही नहीं है, कहीं जाना नहीं है, तो तनाव कैसा, बेचैनी कैसी! उस विश्राम की
परम दशा में परमात्मा तुम्हें सब तरफ से घेर लेता है। उसने घेरा ही हुआ था, उस विश्राम की दशा में तुम
जान पाते हो।
लेकिन
परमात्मा की खोज तो हम छोड़ें, हम तो
परमात्मा के पास भी क्षुद्र चीजों की मांग के लिए जाते हैं। तुमने अगर कभी
प्रार्थना की और कुछ मांगा, तो
तुमने पाप किया। अच्छा है कि प्रार्थना ही मत करना; मगर मांग वाली प्रार्थना तो
कभी न करना। क्योंकि वह तो तुम यह कह रहे हो कि तुम्हें परमात्मा का कोई पता ही
नहीं है। तुम उसका भी उपयोग कर लेना चाहते हो अपनी क्षुद्र वासनाओं के लिए। किसी
को मुकदमा जीतना है, किसी
का धंधा ठीक नहीं चल रहा है, किसी
की दुकान का दिवाला निकला जा रहा है, किसी को पत्नी नहीं मिल रही है--इन बातों को
मांगने तुम परमात्मा के पास मत जाना।
कल एक
छोटी सी व्यंग्य-कविता पढ़ने को मिली:
एक
हिप्पी-कट भक्त ने
भगवान
की बड़ी पूजा की
उनकी
मूर्ति के आगे अड़ा रहा
जब तक
भगवान प्रसन्न नहीं हो गए,
एक पैर
से खड़ा रहा
भगवान
को उसकी भक्ति का कर्जा चुकाना पड़ा
मजबूरन
आना पड़ा
बोले:
"भक्त,
हम
प्रसन्न हुए,
तेरे
सामने खड़े हैं
इस समय
जाग ले
जो
तेरी इच्छा हो एक वर मांग ले'
भक्त
बोला: "प्रभु, मेरा
यह बैलबाटम
और
बड़े-बड़े बाल देख कर धोखा मत खाइए
वर तो
मैं खुद हूं,
एक
कन्या दिलवाइए।'
मगर
तुमने जब भी कुछ मांगा है, जो भी
तुमने मांगा है,
ऐसा ही
हास्यास्पद है,
ऐसा ही
हंसी-योग्य है। प्रभु के सामने मांगने का अर्थ ही नासमझी है। क्या मांगा, इससे फर्क नहीं पड़ता।
विवेकानंद
रामकृष्ण के पास रहे। विवेकानंद के पिता चल बसे और हालत बड़ी खराब छोड़ गए। खूब कर्ज, चुकाने का कोई उपाय नहीं। घर
में इतना आटा भी नहीं कि दो जून रोटी बन जाए। विवेकानंद को उदास, परेशान, भूखा देखकर रामकृष्ण ने कहा:
"पागल,
तुझे
तो परेशान होने जरूरत ही नहीं है। जा मां से क्यों नहीं मांग लेता! मंदिर में भीतर
जा, मांग ले। जो मांगेगा, मिल जाएगा।
रामकृष्ण
ने कहा तो विवेकानंद गए, लेकिन
झिझकते-झिझकते गए। अब रामकृष्ण कहते हैं तो ना भी न कर सके; जाना तो पड़ा। कोई घंटे भर बाद
लौटे, बड़े आनंदमग्न लौटे। रामकृष्ण
ने कहा: तो मांग लिया? विवेकानंद
ने कहा: क्या मांग लिया? रामकृष्ण
ने कहा: अरे पागल,
भेजा
था तुझे कि तेरी तकलीफ है, वह दूर
करने के लिए कुछ मांग ले। विवेकानंद ने कहा: मैं भूल गया परमहंस देव। तो उन्होंने
कहा: फिर से जा। विवेकानंद ने कहा: मैं फिर भूल जाऊंगा। रामकृष्ण ने कहा: ऐसी तेरी
स्मृति तो खराब नहीं है, भूल
क्यों जाएगा?
विवेकानंद
ने कहा: पक्का मानिए, मैं
भूल जाऊंगा। जैसे ही गया, आंख से
आंसू बहने लगे। जैसे ही गया, भीतर
ध्यान की घड़ी पकने लगी। डोलने लगा। उस मस्ती में मैं भूखा ही नहीं था। उस मस्ती
में मैं गरीब नहीं था, दीन
नहीं था,
दरिद्र
नहीं था। उस मस्ती में कौन था मेरे जैसा सम्राट! परमात्मा बरसने लगा, मांगने की बात छोटी। और पैसे
मांगूं! और जब परमात्मा अपने को दे रहा हो, तब मैं बीच में पैसे की बात ले आऊं, मुझसे न हो सकेगा।
नहीं
माने रामकृष्ण तो फिर गए, लेकिन
फिर खाली हाथ बड़े आनंदमग्न वापस लौटे। तीन बार भेजा, तीन ही बार वापस लौट आए और
प्रार्थना न की--वह जो मांग वाली प्रार्थना थी, न की। प्रार्थना तो की, खूब डूबे, गदगद हुए, लेकिन मांग नहीं। रामकृष्ण ने
गले से लगा लिया उस क्षण विवेकानंद को और कहा: अगर तू आज मांग लेता तो मुझसे तेरे
संबंध सदा के लिए टूट जाते। तेरी परीक्षा हो गई, तेरी कसौटी गई। क्योंकि
मांगना यानी प्रार्थना को खराब कर लेना है।
लेकिन
हम मांग रहे हैं।
तुमने
कभी बिना मांगे प्रार्थना ही नहीं की है। जब मांगना नहीं होता तब तुम प्रार्थना
करते ही नहीं,
क्योंकि
तुम कहते हो,
जरूरत
क्या, सब तो ठीक चल रहा है। इसलिए
सुख में भगवान याद नहीं आते, दुख
में आते हैं। मैं तुमसे कहना चाहता हूं, जब सुख में याद आएंगे तभी याद आए। दुख में
याद आए भगवान,
असली
भगवान नहीं हैं। क्योंकि दुख में तो तुम अपने दुख को दूर करने के लिए मांगने लगे; सुख में मांगने को कुछ भी न
होगा, कुछ देने को होगा।
प्रार्थना
में अपने को उंडेलना, मांगना
मत। देना,
मांगना
मत। प्रार्थना के परम क्षण में भक्त अपने को परमात्मा के चरणों में छोड़ देता है, दे देता है, अर्पित कर देता है।
खोजा
कि खोया। यहां तो सब पा लेने को है। लेकिन पा लेने के लिए ऐसा मन चाहिए जो भिखारी
का न हो।
प्रार्थना-पूजा, अर्चना-उपासना सब व्यर्थ हो
जाती है,
क्योंकि
तुम्हारा भिखारी का मन पीछा करता रहता है। प्रार्थना में मांगने का अर्थ है: तुमने
बीज तो बोया और जहर सींच दिया। सब उलटा कर डाला। कुछ का कुछ हो गया। इससे बेहतर है
मत मांगना,
कम से
कम बीज तो बचेगा। मत जाना प्रार्थना करने, कम से कम बीज विषाक्त तो न होगा। उसी दिन
प्रार्थना करना जिस दिन अहोभाव से प्रार्थना हो; जिस दिन तुम कृतज्ञता से
प्रार्थना कर सको;
जिस
दिन तुम अनुभव करो कि परम है उसकी कृपा: "इतना दिया है! बिन मांगे दिया है!
अकारण दिया है! योग्यता कुछ भी न थी, फिर भी दिया है। मुझ अयोग्य को भी दिया है, मुझ अपात्र पर भी वर्षा की
है! जीवन दिया है,
प्रेम
दिया है! आनंद की क्षमता दी है! संवेदना दी है सौंदर्य को देखने की। इतना सब दिया
है!' इसके लिए धन्यवाद देने जाना।
जिस
दिन तुम्हारी प्रार्थना धन्यवाद बन जाएगी उसी दिन तुम पाओगे प्रार्थना से परमात्मा
उतरने लगा। जब तक प्रार्थना मांग रहेगी तब तक तुम संसार में खड़े हो--चाहे मंदिर
में जाओ,
चाहे
मस्जिद में जाओ,
चाहे
गुरुद्वारा में,
कुछ
फर्क न पड़ेगा,
तुम
खड़े बाजार में हो।
और यह
जो बाजार है,
यह
बाजार भी बाहर नहीं है। ऐसा मत सोचना कि यह बाहर है। इससे भी बड़ी भ्रांति हो रही
है। यह बाजार तुम्हारे भीतर है। यह जो सपनों के घोड़ों पर सवार हो कर तुम निकले जा
रहे हो,
अनेक-अनेक
दिशाओं में,
यह
तुम्हारे भीतर है। बाहर का बाजार तो तुम्हारे भीतर के बाजार की छाया है। असली
बाजार भीतर है। इसलिए कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि तुम बाहर के बाजार से थक कर
जंगल की तरफ भागने लगते हो कि संन्यास ले लेते हो। फिर चूक हो गई। फिर चूक हो गई।
बाहर तो बाजार केवल भीतर के बाजार का प्रक्षेपण था। असली बाजार भीतर है। यह भीतर
का बाजार छोड़ो। फिर तुम बाहर के भी बाजार में भी पाओगे कि मंदिर है। फिर तुम दुकान
पर बैठे भी पाओगे कि मंदिर है।
माक्र्स
को यह कहना पड़ा कि धर्म अफीम का नशा है, क्योंकि उसने जिन लोगों को देखा वे सभी गलत
धार्मिक थे। और उसका भी कसूर नहीं, क्योंकि हजार में नौ सौ निन्यानबे गलत
धार्मिक होते हैं--मांगने वाले, भिखारी
की तरह गिड़गिड़ाने वाले, परमात्मा
को धन्यवाद देने का तो मन ही नहीं उठता; शिकायत और शिकायत। और फिर उसने देखा होगा, इस तरह के लोग मंदिरों में जा
कर इस आशा में वापस लौट आते हैं कि अब मिलेगा! "अब मिलने' की जो आशा है, वही अफीम का मतलब समझना। अफीम
का मतलब है: आज तो ठीक नहीं, कल सब
ठीक होगा। यह अफीम का सार है, निचोड़, सत्व। इसको जमा लो, अफीम की टिकिया बन जाएगी।
अफीम का मतलब है: आज तो दुख है, कल सुख
होगा। कल निश्चित होगा। इस जीवन में तो दुख है, अगले जीवन में सुख होगा। शरीर में तो दुख है
लेकिन शरीर से जब मुक्त हो जाएंगे, आत्मा विदेह होगी, तब सुख ही सुख। पृथ्वी पर दुख
है, लेकिन स्वर्ग में सुख होगा।
अफीम का अर्थ है: आशा। अफीम का अर्थ है: कल का आश्वासन। तो कल की आशा में हम आज को
ढो लेते हैं। हम कहते हैं, आज का
ही दिन तो है,
गुजार
लो। थोड़ी सी देर और थोड़ी यात्रा और चल लो। थके हो, माना। खींच लो थोड़ा और। कल तो
सब ठीक हो जाएगा।'
और कल
भी ऐसा ही था,
परसों
भी ऐसा था--और कभी कुछ ठीक नहीं होता। कल आ जाएगा, फिर भी कुछ ठीक न होगा। कल भी
तुम फिर परसों आने वाले कल की याद करोगे कि अब ठीक होगा, अब ठीक होगा। ऐसे बचपन बीत
जाता कि जवानी में सब ठीक हो जाएगा। ऐसे ही जवानी बीत जाती है कि बुढ़ापे में सब
ठीक हो जाएगा। ऐसा बुढ़ापा बीत जाता कि मरने के बाद सब ठीक हो जाएगा। मगर कभी कुछ
ठीक होता नहीं।
ठीक
अगर कुछ होगा तो अभी होगा; कल
नहीं होगा। कल यानी अफीम। टालने वाला अफीमची है। अफीमची क्या करता है? टाल रहा है। पत्नी बीमार पड़ी
है, सहा नहीं जाता; एक अफीम की टिकिया खा ली, भूल गया पत्नी इत्यादि, मजे में हो गया। जब उतरेगा
नशा तब याद आएगी,
तब
देखेंगे। फिर टिकिया खा लेगा। हानि लग गई, नुकसान लग गया, नशा कर लिया, शराब पी ली। कम से कम रात भर
तो शराब के नशे में मस्त रहे। सुबह जब होगी तब देखा जाएगा। अभी तो ठीक हुआ, फिर देखेंगे। टाल दिया। दुख
है, उसको कल पर टाल दिया। अफीम ने, शराब ने एक बहाना बना लिया
भूलने का,
विस्मरण
का।
नासमझ
स्थूल नशे करते हैं; जिनको
तुम समझदार कहते हो वे सूक्ष्म नशे करते हैं। पीड़ा थी बहुत, गए मंदिर में, भगवान से प्रार्थना कर आए। इस
आशा से भरे लौट आए कि अब सब ठीक हो जाएगा, कह आए उससे। जैसे कि भगवान को पता न था, तुम्हारे कहने की जरूरत थी!
जैसे कि तुम न कहते तो उसे पता ही न चलता! और जैसे कि वहां कोई भगवान जैसा व्यक्ति
बैठा है जो तुम्हारी सुन रहा है! दीवालों से बातें कर रहे हो तुम।
तो अगर
माक्र्स ने कहा तो एक हिसाब से तो ठीक ही कहा। नौ सौ निन्यानबे आदमियों के संबंध
में तो सच है कि धर्म अफीम का नशा है। लेकिन उन नौ सौ निन्यानबे आदमियों को धर्म
का कोई पता ही नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं, माक्र्स गलत है, फिर भी गलत है। उस एक आदमी को
ही धर्म का पता है जो हजार में कभी एक है--कोई बुद्ध, कोई मीरा, कोई दया, कोई सहजो, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट। उस एक को ही
पता है। उसकी ही जांच करनी चाहिए कि उसका धर्म क्या है। उसका धर्म धन्यवाद है।
अगर
तुमने चीजों को उलटा-सीधा रखा तो बहुत अड़चन हो जाती है। प्रार्थना नीचे दब जाती है, मांग ऊपर बैठ जाती है। सच तो
यह है कि तुमने इतनी बार मांगा है कि प्रार्थना तक का अर्थ मांगना हो गया है।
प्रार्थना शब्द ही मांगने का पर्याय हो गया है। तुमने इतना मांगा है कि प्रार्थना
शब्द तक गड़बड़ हो गया है।
जीवन
को ठीक-ठीक जमाना जरूरी है। जो जहां है उसे वहां रखो। चीजों को उलटा-सीधा मत करो, अन्यथा बड़ी अड़चन होती है।
एक
व्यंग्य-गीत मैं पढ़ रहा था:
हमारे
शहर के पिछवाड़े
धूनी
रमाते हैं नदी के तीर
एक
कलियुगी फकीर
ताबीजों
के निर्माता हैं
आधुनिक
भाग्य-विधाता हैं
परसों
शाम उनके पास एक लड़का आया
उसने
रोते-रोते बताया:
"दिमाग का निकल गया है तेल
तीन
साल से हो रहा हूं बी.ए. में फेल
आप कोई
ताबीज दिलवाइए,
इस साल
मुझे बी.ए. में पास करवाइए।'
फकीर
ने कहा:
"दिमाग की तेजी के लिए दूध
पीया करो
जिंदगी
को जरा ढंग से जीया करो।'
लड़के
ने कहा:
"दूध! दूध तो घर की खेती है
गाय तो
है, पर वह भी
तीन
साल से दूध नहीं देती है।'
फकीर
ने कहा:
"मेरे अजीज!
ये ले
जाओ दो ताबीज
एक
अपने गले में
और एक
गाय के गले में डालना।'
लड़का
चला गया
इत्तफाक
की बात
ताबीज
अदल-बदल हो गए
लड़के
का गाय के गले में
गाय का
लड़के के गले में
यही
भूल लड़के का सत्यानाश कर गई
गाय तो
बी.ए. पास कर गई
लड़का
आज तक रो रहा है
मुरादाबाद
में हलवाइयों की दुकान पर
दूध ढो
रहा है।
चीजों
को उनकी जगह रखो,
नहीं
तो ताबीजों की भूल बड़ी मुश्किल, झंझट
खड़ी कर देती है। तुम्हारे मंदिर में तुम्हारी दुकान घुस गई है। तुम्हारे ध्यान में
भी तुम्हारी मांग घुस गई है। तुम्हारी प्रार्थना भी दूषित और कलुषित हो गई है।
प्रार्थना को शुद्ध करो। परमात्मा की फिक्र न करो, प्रार्थना को शुद्ध करो।
परमात्मा है या नहीं, यह भी
मत पूछो। प्रार्थना को शुद्ध करो। जिस दिन प्रार्थना शुद्ध हो जाती है, तुम्हारे पास आंख आ जाती है।
उस दिन तुम जानते हो परमात्मा है। न केवल इतना कि परमात्मा है, उस दिन तुम जानते हो परमात्मा
है। न केवल इतना कि परमात्मा है, उस दिन
तुम जानते हो कि बस परमात्मा ही है, और कुछ भी नहीं। उस दिन हर दिशा से उसी का
संदेश आता है। जीवन में तो मिलता ही है परमात्मा, मृत्यु में भी उसी के दर्शन
होते हैं। सुख में भी वही, दुख
में भी वही। हार में भी, जीत
में भी। फूल में भी, कांटे
में भी। और जिस दिन परमात्मा सब तरफ दिखाई पड़ने लगता है, उस दिन जीवन पहली बार घटा। उस
दिन तुम जन्मे!
इस
जन्म को जन्म मत समझ लेना। यह जो मां के पेट से जन्म मिला है, यह तो केवल प्राथमिक शर्त
पूरी हुई। अभी असली जन्म होने को है। जिस दिन असली जन्म होता है, उस दिन भारत में हम उस आदमी
को कहते हैं द्विज, दुबारा
जन्मा। वही असली ब्राह्मण है जो दुबारा जन्मा; जो फिर से जन्मा; जिसने अपने को नया जीवन दिया, नया अर्थ दिया, नई भाव-भंगिमा दी; जिसके जीवन में प्रार्थना का
रंग चढ़ा;
जिसने
प्रभु को याद किया। अकारण! आनंद से! मग्नता से! पुकारा नहीं कि मेरे लिए कुछ काम
है, इसलिए आ जाओ। पुकारा कि यह
मेरे हृदय का आनंद है कि तुम्हें पुकारूं। पुकारने में ही आनंद पाया। पुकारने के
पीछे आनंद नहीं;
पुकारने
में ही आनंद पाया। प्रार्थना की, उसी
में गदगद हुआ। प्रार्थना में ही मिल जाए फल तो प्रार्थना सच्ची है। प्रार्थना के
बाद मिलता हो फल तो प्रार्थना झूठी है।
ये
सूत्र आज के दया के मीठे हैं, एक-एक
समझने जैसे हैं।
"दयाकुंअर या जग्त में, नहीं रह्यो थिर कोय।
जैसो
वास सराय को,
तैसो
यह जग होय।।'
स्वप्न
है यह जग। जैसो वास सराय को! जैसे रात रुके धर्मशाला में और सुबह चल पड़े। धर्मशाला
को घर मत समझ लेना। वहां खूंटा गाड़ कर मत बैठ जाना। लगाव मत लगा देना। आसक्ति मत
बांध लेना। ऐसा न हो कि सुबह धर्मशाला को छोड़ते वक्त रोओ और चीखो-चिल्लाओ और लौट
कर पीछे देखो। धर्मशाला घर नहीं है। घर की अभी खोज करनी है। जिसने धर्मशाला को घर
समझ लिया वह घर की खोज कैसे करेगा! वह तो कुछ का कुछ मान बैठा। पत्थर को हीरा समझ
लिया; सोने की खोज बंद हो गई। पीतल
को सोना समझ लिया;
सत्य
की खोज बंद हो गई। सपने को सत्य समझ लिया; सत्य की खोज बंद हो गई।
तुम्हें
दुनिया में करोड़ों-करोड़ों लोग दिखाई पड़ेंगे जिनके जीवन में सत्य की कोई आकांक्षा
ही नहीं है,
क्या
कारण होगा?
यह हो
कैसे सकता है?
यह
अनहोनी घटती कैसे है? इतने
लोग, और सत्य की कोई आकांक्षा
नहीं! कैसे जीते होंगे? बिना
सत्य को पुकारे,
बिना
सत्य का सहारा लिए, बिना
सत्य की तरफ आंखें उठाए कैसे जीते होंगे? उनके जीने का राज समझ लो। उनके जीने का राज
यह है कि उन्होंने असत्य को सत्य मान लिया है; इसलिए अब सत्य की खोज का कोई कारण नहीं है।
जब तुमने कचरे को ही हीरे-जवाहरात मान लिया और कचरे को ही तिजोड़ी में सम्हाल कर
रखने लगे,
तो ठीक
है, अब तुम हीरे की खदानों की तरफ
क्यों जाओ! कौन मेहनत करे! किसलिए परेशान होओ!
तो
पहली बात जगाने के लिए जरूरी है:
दयाकुंअर
या जग्त में,
नहीं
रह्यो फिर कोय।
जैसो
वास सराय को तैसो यह जग होय।।'
यहां
एक बात खयाल में ले लेना, रोज-रोज
कसना कसौटी पर कि तुम जो भी कर रहे हो, यह टिकने वाला है, यह टिकेगा? देखा तुमने, सर्राफ की दुकान पर सोने को
कसने के लिए पत्थर होता है, कसौटी
होती है। जब भी कोई सोना खरीदने आता है, बेचने आता है, तो सर्राफ उसे कसता है कसौटी
पर। इसे तुम कसौटी समझो। तुम जो भी कर रहे हो, थिर होगा, ठहरेगा, रुकेगा? अब तुम अगर पानी पर बैठे
कविताएं लिख रहे हो, तो तुम
रोओगे ही;
क्योंकि
तुम लिख भी न पाओगे, वे मिट
जाएंगी। या रेत पर बैठे कविताएं लिख रहे हो, तो शायद थोड़ी देर टिकेंगी; लिखते रहोगे, तब तक टिकेंगी, फिर हवा का झोंका आएगा और मिट
जाएंगी।
जीसस
ने अपने शिष्यों को कहा है: जीवन का मकान चट्टान पर बनाना। जो उनका सबसे प्यारा
शिष्य था,
उसको
जीसस ने नाम दिया: पीटर। पीटर का अर्थ होता है: चट्टान। कहा कि पीटर ही मेरे मंदिर
की चट्टान बनेगा,
इसी पर
मेरा मंदिर खड़ा होगा। ठीक नाम दिया। महत्वपूर्ण नाम दिया।
रेत पर
मत लिखना। पानी पर मत लिखना। जीवन की कहानी चट्टान पर लिखना। चट्टान यानी शाश्वत, जो टिके, जो रहे। तो तुम जो भी कर रहे
हो, अगर क्षणभंगुर हो तो बहुत
परेशान मत होना। हुआ तो ठीक, न हुआ
तो ठीक;
सब बराबर
है। हुआ भी अनहुआ हो जाएगा। किया भी अनकिया हो जाएगा। ज्यादा देर लगने वाली नहीं
है।
लेकिन
हम क्षणभंगुर में ऐसे दीवाने हैं! पानी पर लकीरें खींचते हैं और ऐसे पागल हैं कि
प्रतीक्षा करते हैं कि टिकेंगी। किसी की भी नहीं टिकी हैं। सोचते हैं हमारी शायद
टिकेंगी।
तुम
जीवन में क्या कर रहे हो? पद खोज
रहे हो?
किसका
टिकता है?
जो आज
पद पर है,
कल
पद-हीन हो जाता है। पद पर होता है, लोग गुनगान करते हैं। पद से खाली हुआ कि लोग
भूल जाते हैं,
याद भी
नहीं आती कौन है,
कहां
गया! वे ही जो नमस्कार करते थे, सलाम
बजाते थे,
राह से
ऐसे गुजर जाते हैं जैसे तुम्हें देखा ही नहीं। इस पद के लिए दीवाने हुए जा रहे हो? पूरा जीवन लगाए दे रहे हो? इसमें कुछ सार तो है नहीं; पानी का बबूला है।
बहुत
कम लोग प्रौढ़ हो पाते हैं।
तुमने
छोटे बच्चों को देखा न! साबुन घोल कर उसके झाग में बबूले उठाते हैं और बड़े आनंदित
होते हैं,
बड़े
पुलकित होते हैं। मगर बूढ़े भी यही कर रहे हैं। इनकी साबुन का पानी जरा और, जरा सूक्ष्म, बबूले ये भी उठा रहे हैं।
मरते दम तक यही फिक्र रहती है कि किसी तरह नाम छूट जाए। और तुम्हीं नहीं बचोगे तो
नाम के छूटने का भी क्या अर्थ है? जब
तुम्हीं न बच सके तो नाम कैसे बच सकेगा? कितने लोग इस जमीन पर हुए, तुम्हें पता है? वैज्ञानिक कहते हैं कि जिस
जगह तुम बैठे हो,
उस जगह
कम से कम दस लाशें गढ़ी हैं। सारी जमीन मरघट है। मरघट से डरना वगैरह छोड़ दो, क्योंकि तुम जहां भी हो वहीं
मरघट है;
सब जगह
आदमी दफनाया गया है। करोड़ों वर्ष से आदमी जमीन पर है; जहां बस्तियां हैं अब, कभी मरघट थे; जहां अब मरघट हैं, कभी बस्तियां थीं। ऐसी कोई
जमीन का टुकड़ा नहीं, जहां
आदमी दफनाया नहीं गया। जहां आज खंडहर हैं, कभी राजधानियां थीं।
एक
ध्यान-शिविर मैंने लिया इंदौर के पास मांडू में। एक मित्र मेरे साथ ठहरे थे, उन्हें एक नया मकान बनाना था।
वे आए ही इसलिए थे। वे आए इसलिए थे कि मुझे अपने मकान का नक्शा बता दें। उनको
ध्यान-शिविर से कुछ लेना-देना नहीं था। मैं वहां मिल जाऊंगा, सुविधा से मुझे बता सकेंगे, और बड़ा मकान बनना है और मेरा
आशीर्वाद चाहते थे। मैंने कहा कि मुझे कुछ अड़चन नहीं। आशीर्वाद देने में कुछ लगता
ही नहीं। इसलिए तो महात्मा लोग आशीर्वाद देते हैं। और तो बेचारों के पास देने को
कुछ है भी नहीं और आशीर्वाद में कुछ लगता नहीं। तुम कहो तो मैं इस पर लिख दूं
आशीर्वाद,
दस्तखत
कर दूं,
कोई
अड़चन नहीं। लेकिन तुम जरा सोचो तो, जरा बाहर देखो तो! उन्होंने कहा: बाहर क्या
है? मैंने कहा कि जरा बाहर जा कर
देखो। मांडू कभी बड़ी राजधानी थी। कहते हैं नौ लाख लोग रहते थे। अब रहते हैं नौ सौ
लोग। और जरूर नौ लाख लोग रहते रहे होंगे, कितना फैलाव है मांडू का! ऐसे खंडहर हैं!
ऐसी मस्जिदें हैं जिन में दस-दस हजार लोग इकट्ठी नमाज पढ़ सकते थे। ऐसी धर्मशालाओं
के खंडहर हैं जिनमें दस-दस हजार ऊंट एक साथ ठहर सकते थे। बड़ी राजधानी थी। सारे
एशिया के काफिले मांडू से गुजरते थे। मांडू तो अब है उसका नाम, तब उसका नाम था मांडवगढ़ मांडू
हो गया। जैसे सेठ चंदूलाल, चंदू
हो जाते हैं जब दिवाला निकल जाता है, ऐसा मांडवगढ़, मांडू हो गया। अब उसको
मांडवगढ़ कहना ठीक भी नहीं मालूम पड़ता। कहां का गढ़! "मांडव' जरा बड़ा हो जाएगा।
मैंने
कहा, जा कर बस स्टैंड पर तखती लगी
है, उस पर देखो, नौ सौ लोग रहते हैं, नौ सो कुछ...! कभी नौ लाख
रहते थे,
अब नौ
सौ रह गए। कभी बड़े महल थे; महल अब
भी खड़े हैं खंडहर हो कर। मीलों तक फैलाव था। तुम जरा बाहर जा कर देखो, फिर तुम मुझसे आशीर्वाद ले
लेना। आशीर्वाद तो मैं दे दूंगा।
वे
बाहर देख कर लौटे। उनकी आंखें गीली थीं, आंसू आ गए। उन्होंने कहा कि लाइए वह फाड़ कर
फेंक दें,
क्या
सार! मैंने कहा,
यह
ज्यादा ठीक आशीर्वाद हुआ। ठीक है मकान बना लो, रह भी लो; मगर ऐसी कल्पनाएं न बांधो। ये
बाहर इतने-इतने बड़े महल जिन्होंने बनाए थे, बड़ी कल्पनाएं बांधी होंगी। न बनाने वाले रहे
न महल रहे,
सब
खंडहर हो गए। उल्लू विश्राम कर रहे हैं खंडहरों में। मैं कितना ही आशीर्वाद दूं, किसी न किसी दिन उल्लू
विश्राम करेंगे।
एक
कसौटी जीवन में रख लेनी चाहिए कि जो भी हम कर रहे हैं, वह कुछ थिर रहने वाला है? धन कमा लेंगे, वह रहेगा? यश, पद, प्रतिष्ठा रहेगी? शरीर, जिसके लिए हम इतने दीवाने रहते
हैं, टिकेगा, रहेगा? आज नहीं कल चला जाएगा। जो
जाने ही वाला है उसमें बहुत मन को मत उलझाओ। उसमें ऐसे ही टिके रहो जैसे आदमी
धर्मशाला में टिकता है। सुबह उठ कर चल पड़ता है, पीछे लौट कर भी नहीं देखता।
दिखावे
के हैं सब ये दुनिया के मेले
भरी
बज्म में हम रहे हैं अकेले।
भीड़
बहुत है,
लेकिन
तुम अकेले हो। असलियत में तुम अकेले हो। वस्तुतः तुम अकेले हो।
दिखावे
के हैं सब ये दुनिया के मेले
भरी
बज्म में हम रहे हैं अकेले।
यह भीड़
में बहुत खो मत जाना। ये दिखावे और ये मेले, इनका कोई मूल्य नहीं है, कोई चिरस्थायी मूल्य नहीं है।
और जिसका चिरस्थायी मूल्य नहीं है, उसका कोई मूल्य ही नहीं है।
लेकिन
तुम भविष्य की योजनाएं बनाते हो। न केवल भविष्य की, तुम अतीत तक की योजनाएं बनाते
हो कि अगर ऐसा किया होता तो कैसा होता।
तुम
जरा सोचो आदमी का पागलपन! अतीत तो अब हो चुका, अब कुछ किया नहीं जा सकता। लेकिन कितनी बार
नहीं तुमने अपने को नहीं पकड़ा है अतीत को बदलते हुए! जो कि हो चुका, अब कुछ हो ही नहीं सकता--किसी
ने गाली दी थी,
अब तुम
बैठे सोच रहे हो कि उस वक्त याद न आया, इस तरह का जवाब दिया होता।
मार्क
ट्वेन पश्चिम का एक बहुत बड़ा लेखक हुआ। एक जगह व्याख्यान करके लौट रहा है। पत्नी
उसे लेने आई थी। व्याख्यान पूरा हुआ तो उसे ले कर घर लौट चली। रास्ते में पत्नी ने
पूछा कि कैसा रहा व्याख्यान? तो
मार्क ट्वेन ने कहा: कौन सा व्याख्या? जो मैंने तैयार किया था, वह? या जो मैंने वस्तुतः दिया, वह? या जो मैं सोच रहा हूं कि
मैंने दिया होता,
वह? कौन सा व्याख्यान पूछ रही है? क्योंकि कई व्याख्यान हैं। एक
तो मैंने तैयार किया था, वह तो
सब चौपट हो गया।
जब
लोगों की तुम भीड़ देखते हो, सब
चौपट हो जाता है। कुछ का कुछ आदमी बोलने लगता है।
"एक मैंने दिया और एक अभी मैं
सोच रहा हूं कि दिया होता तो अच्छा होता। कौन सा व्याख्यान?'
तुम
अपने को कई बार पाओगे अतीत को बदलते हुए, लीपते-पोतते हुए: "ऐसा कहा होता, ऐसा किया होता! चूक गए।' पागलपन समझते हो? अतीत तो गया। अब कुछ किया
नहीं जा सकता;
जो हो
गया हो गया,
अनकिया
नहीं हो सकता। अब अतीत में लौटने का कोई उपाय ही नहीं है। यह समय का पक्षी तो
तुम्हारे हाथ से उड़ गया। चिड़िया चुग गई खेत, अब पछताए होत का! लेकिन आदमी अतीत के बाबत
भी विचार करता रहता है। भविष्य के बाबत सोचता है, वह भी पागलपन है; क्योंकि जो अभी आया नहीं है, उसके बाबत तुम क्या सोच कर
करोगे?
जो जा
चुका उसके बाबत सोच कर क्या करोगे? जो है, इसको जी लो। यह क्षण जो मिला है, इसको जी लो। और इस क्षण में
ऐसे रहो "जैसो वास सराय को'।
नाकाम-एत्तमन्ना
दिल इस सोच में रहता है
यूं
होता तो क्या होता, यूं
होता तो क्या होता।
--बस सोचते रहते हैं इसी तरह की
बातें: "यूं होता तो क्या होता, यूं होता तो क्या होता! या ऐसा हो जाए!' कभी-कभी तो तुम ऐसी पागलपन की
बातें सोचते हो,
चुनाव
में खड़े ही नहीं हुए और सोचते रहे हो कि अगर जीत जाएं...। लॉटरी का टिकट खरीदा ही
नहीं है और सोच रहे हो कि अगर मिल जाए। न केवल सोच रहे हो कि मिल जाए, बल्कि मान ही लेते हो कभी-कभी
कि मिल गई,
अब
क्या करें?
इस धन
का क्या करें?
मकान
खरीद लें,
कार
खरीद लें,
क्या
करें इस धन का?
तुम
बहुत बार अपने को इस तरह पकड़ोगे। पकड़ना, क्योंकि अगर यह मन की दशा रहे तो तुम कभी
जाग न सकोगे। इन्हीं झूठों में, इसी
अफीम में आदमी दबा है। इसी अफीम के बाहर आदमी आ नहीं पाता, इसलिए जाग नहीं पाता।
बुद्ध
कहते हैं: आत्मस्मृति, सम्यक
स्मृति!
कबीर
कहते हैं: सुरति।
नानक
कहते हैं: सुरति।
जागो, स्मरण करो, क्या कर रहे हो? क्या सोच रहे हो? अगर तुम थोड़े होश से सोचो, तुम्हारे सोचने में से
निन्यानबे बातें पागलपन की होंगी, उनको
तो काट कर फेंक दो। उसमें समय मत गंवाओ। जो एक बचेगी बात, वह व्यर्थ तो नहीं होगी; लेकिन परम रूप से सार्थक नहीं
है। अभी कामचलाऊ है। बस काम उसका ले लो और सराय के बाहर निकल जाओ।
अलख को
लख, भुला मत अपने को
सत्य
को शोध,
सुला
मत सपने को।
सपनों
को मत बुलाते रहो,
मत
सजाते रहो। लोरियां मत गाते रहो। बाहर आओ बचपने के। खिलौने लिए हुए छातियों से मत
बैठे रहो। छोड़ो ये खिलौने! इन्हीं खिलौनों का नाम संसार है।
"जैसो मोती ओस को, तैसो यह संसार।
विनसि
जाय छिन एक में,
दया
प्रभू उर धार।।'
जैसो
मोती ओस को! देखते हैं न सुबह, कैसा
चमकता है ओस का मोती! कैसा रंगीन, कैसा
इंद्रधनुषी! कभी सूरज की किरण पड़ जाती है आड़ी-तिरछी तो हीरों को मात कर दे। पर
"जैसो मोती ओस को'। अभी
है अभी गया। सूरज उगा नहीं कि उड़ने लगा। सूरज जागा नहीं कि सब मोती तिरोहित हो गए; सब ओस उड़ गई, भाप हो गई।
"जैसो मोती ओस को'। यह जीवन ऐसा ही है।
महावीर
ने भी कहा है: कैसे घास के तिनके पर सम्हला हुआ ओस का बिंदु। जरा सा हवा चलेगी, घास का तिनका कंपेगा, ओस का बिंदु सरक कर मिट्टी
में खो जाएगा। ऐसा ही आदमी है। जरा देर तुम, जरा सी देर के लिए घास के तिनके पर टिके हो।
हवा चलेगी,
घास का
तिनका कंपेगा,
ओस का
बिंदु सरक कर मिट्टी में खो जाएगा। ऐसा ही आदमी है। जरा देर तुम, जरा सी देर के लिए घास के
तिनके पर टिके हो। हवा चलेगी, मौत
आएगी, खिसक जाओगे, खो जाओगे। कितने लोग तुमसे
पहले खो गए! इन खोए हुए लोगों से तुम्हें कोई स्मरण नहीं मिलता?
च्वांगत्सु
सदा अपने पास एक मुर्दे की खोपड़ी रखे रहता था। बड़ा ज्ञानी! उसके शिष्य पूछते कि और
तो सब ठीक है गुरुदेव, यह
खोपड़ी आप क्यों रखे रहते हैं? इसे
देख कर मन में बड़ी जुगुप्सा पैदा होती है, बड़ी ग्लानि पैदा होती है। च्वांगत्सु कहता:
"इसीलिए!...जब भी मेरी खोपड़ी में गलत-सलत बातें चलने लगती हैं तो मैं इसको
देख लेता हूं कि यह हालत होने वाली है। खोपड़ी की बातों में ज्यादा मत पड़ो। बस इसको
देखते ही मैं होश में आ जाता हूं। इसको मैं साथ रखता हूं। यह मेरी गुरु है।
क्योंकि आज नहीं कल यही हालत हो जाएगी। और आज नहीं कल रास्ते पर ठोकरें खाता हुआ
यह सिर पड़ा होगा।
इस
खोपड़ी ने मुझे खूब बचाया! एक दिन यह खोपड़ी रखी थी, एक आदमी आया और नाराज हो कर
जूता उठा लिया और मुझे मारने को हो गया। मैं भी क्रोध में आने ही आने को था कि तभी
संयोगवशात यह खोपड़ी दिख गई, मैं
ढीला पड़ गया। मैंने कहा मैं कल मर जाऊंगा और लोग मेरे सिर को अगर जूते मारेंगे तो
मैं क्या करूंगा?
मैंने
उस आदमी से कहा,
भाई तू
मार ही ले;
तेरा
मन पूरा कर ले। वह भी चौंका। उसने कहा, क्या मतलब? मैंने कहा, मतलब यह कि यह जो खोपड़ी है, इसने मुझे याद दिला दी कि
जूते तो पड़ेंगे ही, कितने
दिन तक बचाऊंगा?
आज
नहीं कल मरघट पर यह खोपड़ी पड़ी होगी, लोगों की लातें खाएगी। सदियों-सदियों तक धूल
में पड़ी रहेगी,
लोग
चलेंगे इस पर। तो यह होने वाला है। तू भाई मार ही ले। इसके पहले कि खोपड़ी गिर जाए, तू भी अपना मन भर ले। तेरी
तृप्ति हो जाए,
यह भी
क्या कम! हमारा कुछ खोएगा नहीं और तेरा मन तृप्त हो जाएगा।
उस
आदमी ने जूता भी फेंक दिया, वह
च्वांगत्सु के चरणों में गिर पड़ा। उसने कहा: खूब गजब की खोपड़ी रखी है! मुझे भी याद आता है कि बात तो ठीक ही है, क्या मारना, क्या बचाना! मैं भी नाराज
होकर आया था। नाराजगी का भी क्या सार है! दो दिन का बसेरा है! यहां किससे झगड़ना और
किससे नाराज होना और किसको नाराज करना! बीत जाएगी बात।
होश से
कोई गुजरे तो जिंदगी की कालख लग नहीं पाती। होश से कोई गुजरे तो जीवन की पवित्रता
बची रह जाती है।
"जैसो मोती ओस को, तैसो यह संसार'।
संसार
है खुली आंखों देखा सपना। और सपनों में अपना कुछ भी नहीं है। सपने अपने नहीं हैं।
अपने को पाना है तो सपनों के पार देखना पड़े, सपनों के पीछे जो छिपा खड़ा साक्षी है उसको
देखना पड़े। सपनों की ही भीड़ में तो छिप गया है साक्षी। और तुम्हें याद ही नहीं कि
तुम कौन हो। तुम्हें अपना विस्मरण हो गया है।
"विनसि जाय छिन एक में, दया प्रभू उर धार'।
तो दया
कहती है,
यह तो
एक क्षण में नष्ट हो जाएगा। फिर क्षण अगर सत्तर साल लंबा भी हो तो क्या फर्क पड़ता
है! यह तो एक क्षण में नष्ट हो ही जाने वाला है। यह नष्ट होगा, इतना सुनिश्चित है। तो फिर
ऐसी हालत में हृदय में उन बातों को रखना जो नष्ट ही हो जाने वाली हैं, हृदय को अपवित्र करना है। और
फिर ऐसे जाने वाले मेहमानों के लिए क्यों हृदय को अपवित्र करना? फिर उसी को बसा लें जो सदा
रहता है। दया प्रभू उर धार! इसलिए अब परमात्मा को ही बसा लेना उचित है, जो सदा रहेगा।
उसको
पकड़ो जो शाश्वत है। उसको पकड़ो जो सनातन है; जो सदा से है; अभी है, फिर भी होगा। तिनकों को मत
पकड़ो। तिनकों को पकड़ने से कुछ बचता नहीं। कागज की नावों में मत तैरो। नाव ही बनानी
है तो प्रभु की बना लो, प्रभु-नाम
की बना लो। अगर पकड़ना ही है तो प्रभु के चरण पकड़ लो। अगर कुछ पकड़ने का ही मोह है
तो कुछ ऐसा पकड़ो जो कभी तुमसे छूटेगा नहीं, छुड़ाया न जाएगा।
"दया प्रभू उर धार'। और अगर ऐसी तुम्हारी धारा
प्रभु की तरफ बहने लगे, संसार
से हटे और प्रभु की तरफ बहने लगे, व्यर्थ
से हटे और सार्थक की तरफ बहने लगे--तो चढ़ जाओगे उत्तुंग शिखरों पर।
थाम
शिखा का आंचल
कलुष
बन गया काजल।
अगर
तुम इस शिखा का आंचल थाम लो, स्मरण
का, इस बोध का कि अब तो शाश्वत पर
ही समर्पित होंगे,
क्षणिक
पर नहीं...
थाम
शिखा का आंचल
कलुष
बन गया काजल।
...तो फिर कलुष भी काजल जैसा हो
जाता है। फिर जो अशुद्ध है वह भी शुद्ध हो जाता है; जो अपवित्र है, पवित्र हो जाता है। और जहां
अभी सिवाय हड्डी,
मांस-मज्जा
के कुछ भी समझ में नहीं आता, वहीं
छिपी हुई अंतर्धारा दिखाई पड़ने लगती है। अपूर्व सौंदर्य का जन्म होता है, अपूर्व आनंद का भी।
आनंद छाया
है सत्य की। सुख परिणाम है सत्य का।
"तात मात तुमरे गए, तुम भी भये तयार।
आज
काल्ह में तुम चलो, दया
होहु हुसियार।।'
मां गई, पिता गए, "तुम भी भये तयार'! जिसको हम जीवन कहते हैं, यह तो मौत के दरवाजे पर लगा
क्यू है। क्यू रोज सरक रहा है। क्योंकि कुछ लोग भीतर प्रवेश करते जा रहे हैं। तुम
करीब आते जा रहे हो। जल्दी तुम्हारा नंबर भी आ जाएगा। इसके पहले कि मौत तुम्हें आ
कर पकड़ ले,
तुम
परमात्मा को समर्पित हो जाओ। तो फिर तुम्हारी कोई मौत न होगी। क्योंकि तुमने खुद
ही समर्पित कर दिया, मौत के
लिए कुछ बचेगा नहीं छीनने को। मौत वही छीनती है जो क्षणभंगुर है। मौत का वश
क्षणभंगुर तक है। मौत शाश्वत को छू भी नहीं पाती। तुम्हारे भीतर जो शाश्वत छिपा है
उसको मौत छू भी नहीं सकती। तुम्हारी देह ले लेगी। तुम्हारा धन, पद, यश, प्रतिष्ठा सब ले लेगी। लेकिन
तुम्हारे भीतर जो चैतन्य की धारा है, वह अछूती निकल जाएगी। मगर तुम्हारी तो कोई
उससे पहचान ही नहीं है। तुमने तो उसकी तरफ पीठ कर रखी है। तुम तो मूल को भूल गए
हो।
"तात मात तुमरे गए, तुम भये तयार।
आज
काल्ह में तुम चलो, दया
होहु हुसियार।।'
यह
शब्द "होशियार' समझना।
तुम तो उन लोगों को होशियार कहते हो जो चालाक हैं। तुम तो उनको होशियार कहते हो जो
दुनियादारी में बड़े कुशल हैं; कहते
हो, बड़े होशियार लोग हैं! ज्ञानी
उनको होशियार नहीं कहता; ज्ञानी
तो उनको महामूढ़ कहता है। क्योंकि उनकी सब चालाकी लाएगी क्या? कुछ ठीकरे! उनकी सब चालाकी
लाएगी क्या?
कुछ
पानी के बबूले! उनकी सारी चालाकी का अंतिम परिणाम क्या है? मौत तो उनकी सारी चालाकी की
संपदा को छीन लेगी। नहीं, वह
होशियारी नहीं है। वे दूसरे को धोखा दे रहे हैं, ऐसा ही नहीं है, वे खुद को भी धोखा दे रहे
हैं।
होशियार
तो वही है जो उस दिशा में लग जाए जहां वास्तविक संपदा है। तुम उनको होशियार कहते
हो जो संपत्ति के नाम पर सिर्फ विपत्ति को बढ़ाए चले जाते हैं। तुम उनको होशियार
कहते हो,
जिन्होंने
संपदा तो जानी ही नहीं; विपदा
को ही संपत्ति समझ रहे हैं, संपदा
समझ रहे हैं।
"दया होहु हुसियार'। क्या कहती है दया? होशियार होने से क्या इशारा
है? एक ही होशियारी है कि मौत के
प्रति सजग हो जाओ। जो मौत के प्रति जाग गया, ज्यादा देर नहीं है उसको, वह परमात्मा के प्रति भी जाग
ही जाएगा,
जागना
ही पड़ेगा! अगर दुनिया में मौत न होती तो धर्म न होता। क्योंकि लोग जागते ही नहीं, जगाने का उपाय ही न होता। देखो
तो तुम,
मौत है
तो भी लोग नहीं जागते मौत न होती तब तो कोई भी न जागता। इस जगत में जो थोड़े से
जागरण की संभावना है, वह मौत
के कारण है। क्योंकि मौत के होते हुए सिर्फ अति मूढ़ आदमी ही अपने को भुलावे में
डाल सकता है। जिसको थोड़ी सी भी समझ है, वह भी तो देखेगा यह मौत चली आ रही है, यह किसी भी क्षण बात घट
जाएगी। कल सुबह होगी या नहीं, पक्का
नहीं है। एक क्षण और मेरे हाथ में होगा या नहीं, पक्का नहीं है। जहां इतना
अनिश्चय है,
वहां
क्या घर बनाना?
जहां
इतना तीव्रता से,
त्वरा
से परिवर्तन हो रहा है, जहां
एक ही नदी में दुबारा उतरना भी संभव नहीं है, वहां क्या विश्राम हो सकता है, क्या आनंद हो सकता है? वहां ठहरने का कोई उपाय नहीं।
तो
होशियार वही है जो मौत का इशारा समझ लेता है और तत्क्षण खोज में लग जाता है शाश्वत
की।
तुमने
देखा, जितने लोग इस जगत में जागे
हैं, उनको जगाने का मौलिक कारण
मृत्यु है! बुद्ध ने एक मरे हुए आदमी को देखा और अपने सारथी से पूछा: इसे क्या हो
गया है?
क्योंकि
बुद्ध को उसके पहले तक कभी मरा आदमी देखने को नहीं मिला था। महलों में छिपा कर रखे
गए थे। बाप को बचपन में ज्योतिषियों ने कहा था कि इस लड़के को कुछ चीजों से बचाना, नहीं तो यह संन्यासी हो
जाएगा। कौन सी चीजें? तो
ज्योतिषियों ने कहा था कि इसको एक तो बुढ़ापे से बचाना, कोई बूढ़ा इसके सामने न आए।
दूसरा,
कोई
बीमार इसके सामने न आए। तीसरा, मुर्दा
इसके सामने न आए। और चौथा, कोई
संन्यासी इसके सामने न आए।
बाप भी
थोड़े चौंके थे। उन्होंने कहा, और तो
सब मेरी समझ में आया कि बूढ़ा कि बीमार कि मौत इसके सामने न आए, ठीक बात है, क्योंकि ये बातें चौंका देती
हैं। और ज्योतिषियों ने कहा था, अगर यह
चौंक गया तो यह घर छोड़ देगा। और एक ही बेटा था शुद्धोधन का। और बुढ़ापे में हुआ था।
और यही राज्य का मालिक था। तो वे डरे हुए थे। फिर ज्योतिषियों ने यह भी कहा कि अगर
यह रुक गया तो यह चक्रवर्ती सम्राट होगा, सारे संसार का सम्राट होगा। अगर चला गया तो
यह महा संन्यासी होगा। दो इसकी संभावनाएं हैं। रोक लेना।
तो बाप
ने सब इंतजाम किया था। लेकिन बाप ने भी थोड़ा ज्योतिषियों से पूछा था कि और समझ में
आया, लेकिन संन्यासी! तो उन्होंने
कहा था: संन्यासी! जिसने मौत को पहचान लिया वही तो संन्यास लेता है! संन्यासी देख
कर भी इसके मन में सवाल उठेगा कि इस आदमी को क्या हो गया? यह जिंदगी में और लोगों जैसा
नहीं दिखाई पड़ता। न धन जोड़ रहा है, न पद जोड़ रहा है, न प्रतिष्ठा जोड़ रहा है। यह
आदमी कुछ और ढंग का आदमी है, इसको
क्या हो गया! और संन्यासी को अगर यह समझने जाएगा तो मौत की बात आनी अनिवार्य हो
जाएगी। क्योंकि बिना मौत के कारण कोई संन्यासी कभी होता ही नहीं। जिसने मौत को देख
लिया वही तो संन्यासी होता है। तुम्हें पता है, पुराने दिनों में संन्यासी को विवाह इत्यादि
में निमंत्रित नहीं करते थे! क्योंकि जिसने मौत को देख लिया, अब उसको ऐसे उत्सव में बुलाना
खतरनाक है। वह मरा हुआ आदमी है। वह मर चुका; पुरानी दुनिया से मर चुका। इसलिए तो पुराने
दिनों में संन्यासी का सिर घोट देते थे, जैसे मुर्दे का घोंटते हैं। उसको वस्तुतः
चिता पर लिटा देते थे, आग लगा
देते थे। और गुरु मंत्र पढ़ता था और गुरु कहता था कि अब तुम समझो कि तुम्हारा
पुराना सब नष्ट हो चुका, राख हो
चुका; अब तुम वही नहीं हो जो तुम कल
तक थे। न तुम अब किसी के पिता हो, न किसी
के पति,
न किसी
के भाई,
न किसी
के बेटे। वह जो आदमी अब तक था जा चुका। उसे हमने चढ़ा दिया चिता पर, वह जल चुका। अब तुम बाहर निकल
आओ। अब तुम दूसरे आदमी हो, तुम
द्विज हुए। इसलिए उसको गैरिक वस्त्र देते थे। गैरिक वस्त्र अग्नि के प्रतीक हैं, कि यह आदमी अग्नि से गुजर
चुका, यह मर चुका। ये लपटें हैं
गैरिक वस्त्र--चिता की लपटें!
...तो ज्योतिषियों ने कहा कि
संन्यासी को मत देखने देना। क्योंकि संन्यासी तो सबूत ही है इस बात का कि दुनिया
में मौत है। नहीं तो कोई संन्यास क्यों ले! संन्यास इस बात का सबूत है कि मौत को
देख कर कोई चौंक गया, चौंकना
हो गया,
होशियार
हो गया।
बहुत
छिपाया बुद्ध के बाप ने, लेकिन
कब तक छिपाते! ये चीजें कुछ छिपाने की तो नहीं। और ऐसा थोड़े ही है कि बुद्ध के बाप
ही छिपाते हैं,
तुम भी
छिपाते हो;
सब बाप, सब माताएं छिपाती हैं। अगर
दरवाजे के बाहर से अर्थी निकलती है तो मां बेटे को भीतर बुला कर दरवाजा बंद कर
लेती है। देखते हो न तुम कि "भीतर आ जा, कोई मर गया'! बेटा कहीं देख न ले! सभी
मां-बाप डरते हैं कि कहीं बेटा असमय में मौत को न देख ले, नहीं तो संन्यासी हो जाएगा।
सोचा-विचारा कि तुम गए संन्यास की यात्रा पर। सिर्फ बुद्धू ही रह सकते हैं बिना
संन्यासी हुए। जिनको थोड़ा बोध है, वे रुक
नहीं सकते।
संन्यास
का इतना ही अर्थ है कि यह जीवन जीवन नहीं है। यह जीवन तो मौत के हाथों में रखा है।
यह तो ऐसे ही है कि जैसे मौत के जबड़े में हम बंद हैं, कभी भी मुंह बंद हो जाएगा और
खतम हो जाएंगे;
लेकिन
थोड़ी देर को मजा ले लें, गीत
गुनगुना लें कि नाच लें, थोड़ी
देर को भूल जाएं।
बौद्धों
की एक बड़ी प्राचीन कथा है। उसके बहुत-बहुत अर्थ हैं; एक अर्थ यह भी है। एक आदमी
भाग रहा है,
एक शेर
उसका पीछा करता है और वह घबड़ा कर एक ऐसी जगह पहुंच जाता है कि आगे जाने का रास्ता
नहीं है;
खड्ड आ
गया, महाखड्ड है! नीचे झांक कर
देखता है तो कूद भी नहीं सकता। लेकिन कूदने की भी सोचे, शायद एक आशा है कि बच जाए, लंगड़ा-लूला हो जाएगा, तो नीचे भी दो शेर खड़े हैं।
वे ऊपर की तरह देख रहे हैं। और पीछे से शेर हुंकारता चला आ रहा है। तो वह एक वृक्ष
की जड़ों को पकड़ कर लटक जाता है। यही उपाय है। ऊपर सिंह आ कर खड़ा हो जाता है, वह दहाड़ता है। नीचे दो सिंह
दहाड़ रहे हैं। और वह आदमी वृक्ष की जड़ों को पकड़े हुए लटका है। और वृक्ष की जड़े
कमजोर हैं,
पुरानी
जराजीर्ण हैं;
कभी भी
टूट सकती हैं। इतना ही नहीं, जब वह
गौर से देखता है तो वह पाता है कि दो चूहे जड़ों को काट रहे हैं। एक सफेद और एक
काला चूहा--दिन और रात! समय उनको काट रहा है। और ज्यादा देर नहीं है। और उसके हाथ
भी जकड़े जा रहे हैं। ठंडी सुबह है और उसके हाथ ठंडे हुए जा रहे हैं। और जल्दी ही
उसकी समझ में आ रहा है कि हाथ पकड़ नहीं सकेगा, छूट जाएगा। हाथ सरक रहे हैं। और तभी उसकी
नजर ऊपर पड़ती है,
मधुमक्खियों
ने एक छत्ता लगा रखा और उसमें से एक बूंद टपकने को है। तो वह अपनी जीभ फैला कर उस
बूंद को अपनी जीभ पर ले लेता है। जब बूंद उसकी जीभ पर गिरती है तो मीठा
स्वाद--"अहा! मीठा स्वाद!' उस
क्षण में वह सब भूल जाता है। न तो शेर दहाड़ रहा है उस समय, न नीचे शेर खड़े हैं, न चूहे काट रहे हैं। एक क्षण
को वह बड़ा प्रसन्न है। और फिर दूसरी बूंद की आशा करने लगता है, क्योंकि फिर एक बूंद टपक रही
है।
बौद्ध
कथा महत्वपूर्ण है। ऐसी दशा है आदमी की। इधर मौत, उधर मौत। सब तरफ मौत। बीच-बीच
में एकाध बूंद टपक जाती है मधु के छत्ते से, तुम बड़े प्रसन्न! तुम बड़े आनंदित। और समय के
चूहे जड़ों को काटे जा रहे हैं। कोई उपाय बचने का नहीं है। बच सकते ही नहीं, क्योंकि कोई कभी बचा नहीं है।
बचना असंभव है। बचना होता ही नहीं। बचना प्रकृति का नियम नहीं है। मरना तो होगा
ही।
तो जो
नासमझ है वह मौत को ढांके रखता है; वह कहता है जब होगी तब होगी। अभी तो थोड़ी
मधु-बूंदें और चख लो! जो समझदार है वह मौत को गौर से देखता है; वह कहता है, ऐसा मधु-बूंदें चख-चख कर समय
को बिताना तो नशा है। कुछ कर लो इसके पहले कि मौत आ धमके। कुछ कर लो--कुछ उपाय।
बाहर तो भागने का कोई भी उपाय नहीं है, यह बात सच है। वह आदमी लटका है। अब तुम से
भी कोई पूछे कि क्या करोगे, ऐसी
हालत में,
भागने
का उपाय क्या है?
ऊपर
सिंह, नीचे सिंह। चूहे जड़ें काट रहे
हैं, जड़ें पुरानी टूटने के करीब और
हाथ ठंडे पड़े जा रहे हैं। करोगे क्या? भागोगे कहां?
झेन
फकीर जापान में इसको ध्यान की एक विधि की तरह उपयोग करते हैं। गुरु शिष्य को कह
देता है,
सोचो
यह तुम्हारी हालत है। बैठ जाओ ध्यान में, सोचो कि तुम लटके हो, अब रास्ता निकालो। रास्ता तो
निकालना ही पड़ेगा। कोई रास्ता तो होगा ही। तो साधक बैठता है आंख बंद करके, सोचता है, सोचता है। रोज आता है उत्तर
ले कर कि यह रास्ता है। कभी कोई रास्ता निकालता है कभी कोई रास्ता। मगर गुरु इनकार
करता जाता है कि ये रास्ते कोई रास्ते नहीं हैं। क्या रास्ता निकालोगे? कभी कहता है कि और जड़ें पास
में हैं,
जब ये
कट जाएंगी तो उनको पकड़ लेंगे। गुरु कहता है, वह भी ज्यादा देर तो नहीं चलेगा। चूहे उनको
भी काट रहे हैं। चूहे कुछ थोड़े-थोड़े ही हैं दुनिया में, आदमियों से कई गुने ज्यादा
हैं। चूहे उनको भी काट रहे हैं। समय तो सब जगह काट रहा है।
तुम
उपाय खोज कर लाओगे कि हाथों को मल लेंगे किसी तरह से कि थोड़ा हाथों को गरम कर
लेंगे,
कि पैर
के बल लटक जाएंगे,
कि
जैसा सर्कस में लोग लटक जाते हैं। आखिर तुम यही सब बातें सोचोगे न! महीनों तक
शिष्य सोच-सोचकर लाएगा कि ऐसा करेंगे, ऐसा करेंगे। और गुरु कहता है, सब नासमझी है। इससे कुछ नहीं
होने वाला। जब हाथ से न बच सके तो पैर से लटक कर कितनी देर बचोगे? और यह कोई सर्कस थोड़े ही है।
नीचे कोई जाल थोड़े ही फैला रखा है कि गिरे तो बचा लिए जाओगे। यह कोई सर्कस नहीं
है--जिंदगी है।
वह सब
तरह के उपाय लाता है खोज-खोज कर, सब
उपाय व्यर्थ होते जाते हैं। तब तक गुरु प्रतीक्षा करता है जब तक वह वास्तविक उपाय
नहीं खोज लेता। वास्तविक उपाय क्या है? जिस दिन वह कहता है, आंख बंद करके भीतर सरक
जाएंगे। बाहर तो भागने का कोई उपाय नहीं है। बाहर तो जाने की कोई जगह नहीं है। मगर
भीतर जाने की तो जगह है। मौत करीब आ रही है, आंख बंद कर लेंगे, ध्यान में उतर जाएंगे। शून्य
भाव में प्रवेश कर जाएंगे। चलने लगेंगे भीतर की तरफ। वहां तो कोई सिंह नहीं है। और
वहां तो कोई समय के चूहे जड़ें नहीं काट रहे। और वहां तो हाथ-पैर के ठंडे होने का
सवाल नहीं है। वहां तो शाश्वत विराजमान है।
प्रभु
को पकड़ने का अर्थ है भीतर सरक जाना।
"आज काल्ह में तुम चलो, दया होहु हुसियार।'
होशियार
यानी ध्यान,
जागरूकता, अवेयरनेस।
ज्ञान
की संभूति आधि व्याधि
ध्यान
की विभूति चिर समाधि।
समाधि
में द्वार है,
समाधि
में समाधान है। इसलिए तो समाधि को हमने "समाधि' नाम दिया है। समाधि का अर्थ
होता है जहां समाधान है; जहां
सब समस्याएं तिरोहित हो जाती हैं। ज्ञान से हल न होगी बात। ज्ञान की संभूति
आधि-व्याधि! ज्ञान से तो और नए तरह के उपद्रव, नए प्रश्न, नई समस्याएं, नई झंझटें, आधि-व्याधि खड़े होते हैं।
ध्यान की विभूति चिर समाधि! ध्यान में उतरोगे तो...। प्रार्थना कहो, प्रभु कहो, परमात्मा कहो--नाम हैं। मगर
अंतर्यात्रा पर जाओगे तो सब समाधान उपलब्ध हो जाएंगे, सब समस्याएं गिर जाएंगी।
"बड़ो पेट है काल को, नेक न कहूं अघाय।
राजा
राना छत्रपति,
सब कूं
लीले जाय।।'
"बड़ो पेट है काल को'। यह भी समझना, सिर्फ भारत अकेला देश है जहां
मृत्यु को और समय को हमने एक ही नाम दिया है: "काल'। ऐसे ही नहीं दे दिया है।
अकेला देश है जहां टाइम और डैथ के लिए एक ही शब्द उपयोग करते हैं: "काल'। समय को भी कहते हैं काल और
मृत्यु को भी कहते हैं काल। क्योंकि समय ही मृत्यु है। जो समय में जी रहा है वह
मृत्यु के पंजे में जी रहा है। जो समय के बाहर हो गया, वह मृत्यु के बाहर हो गया।
तुमने
खयाल किया,
जो दिन
बीत गया उसको हम कहते हैं: "कल'। और जो दिन आनेवाला है उसको भी कहते हैं:
"कल'। सिर्फ इस देश में ही ऐसा
है। सारी दुनिया की भाषाओं में दोनों के लिए अलग-अलग शब्द हैं। लोग थोड़े चौंकते भी
हैं कि दोनों के लिए एक ही शब्द, तो पता
कैसे लगाते होओगे कि किसकी बात कर रहे हो! लेकिन हम जो बीत गया, उसको भी कल कहते हैं; वह भी मौत के हाथ में चला गया; काल का ग्रास हो गया--कल। और
जो अभी आया नहीं,
वह भी
अभी मौत के मुंह में है, वह भी
मौत के ही मुंह में है। समय यानी मौत के मुंह में है। तो अभी जो वर्तमान का क्षण
है, यही केवल मौत के बाहर है। कल
भी मौत के मुंह में चला गया और आने वाला कल भी मौत के मुंह में छिपा है। अतीत भी
मौत, भविष्य भी मौत। सिर्फ वर्तमान
में मौत नहीं है। यह जो क्षण है अभी इसी वक्त, यह भर मौत के बाहर है। इसी क्षण का अगर कोई
ठीक से उपयोग कर ले, कुंजी
है यह क्षण,
इससे
दरवाजा खोल ले तो शाश्वत में प्रवेश हो जाए।
वर्तमान
समय का हिस्सा नहीं है। आमतौर से तुम कहते हो कि समय तीन विभागों में बांटा जाता
है: वर्तमान,
अतीत, भविष्य। गलत है बात। वर्तमान
समय का हिस्सा नहीं है; समय के
हिस्से हैं अतीत और भविष्य। वर्तमान शाश्वत का हिस्सा है; समय के पार है--समयातीत, कालातीत।
"बड़ो पेट है काल को'। यह जो समय की धारा है, यह क्षणभंगुर है। इसका पेट
बड़ा है,
यह
कितनों को ही समाए जाती है। यह अघाता ही नहीं समय। लीलता चला जाता है। जो भी पैदा
हुआ है,
मरेगा।
जो भी बना है,
मिटेगा।
जो भी शुरुआत हो गई है, वह अंत
को उपलब्ध होगी। सब प्रक्रियाएं शून्य में खो जाएंगी--समय के शून्य में खो जाएंगी।
इसलिए समय में बहुत उत्सुकता मत लेना। समय में बहुत ज्यादा रस मत लेना। समय के पार
चलना।
तुमने
खयाल किया होगा,
पश्चिम
के देशों में समय का बड़ा बोध है, बड़ी
टाइम-कांशसनेस! क्यों? क्योंकि
जितना ही कोई देश भौतिकवादी होगा, उतना
ही समय का बोध ज्यादा होता है। जितना ही कोई व्यक्ति आध्यात्मिक होगा, उतना ही समय का बोध कम हो
जाता है। आध्यात्मिक का तो अर्थ ही है कि हम समय के बाहर जाने लगे, समय के बाहर सरकने लगे।
तुमने
कभी कोई ऐसे क्षण जाने हैं जब समय मिट गया हो? तो वही क्षण परमात्मा के क्षण हैं। कभी सूरज
को उगते देख कर सुबह तुम ऐसे तिरोहित हो गए ध्यान में, बंध गई रस की धार कि भूल गए
समय को,
कि याद
ही न रहा कि कितना समय बीता! कि कभी चांद को देखते हुए, या कभी संगीत को सुनते हुए, या कभी अपने प्रियजन के पास
बैठ कर हाथ में हाथ लिए, भूल गए
समय को! या कभी अकेले ही, बिना
किसी कारण,
खाली
बैठे हुए,
भूल गए
समय को,
याद ही
न रहा कि समय बीता, कितना
बीता! क्षण कब आए,
कब गए!
तो उन्हीं क्षणों में तुम्हें समाधि का पहला स्वाद मिलेगा।
समय के
बाहर अगर तुम थोड़े भी सरक गए तो तुम परमात्मा में सरक गए।
समय
यानी संसार। और परमात्मा यानी शाश्वतता।
"बड़ो पेट है काल को, नेक न कहूं अघाय।
राजा
राना छत्रपति,
सब को
लीले जाय।।'
और फिर
यह भी मत सोचो। समय की धारा न तो गरीब की फिक्र करती है न अमीर की। मौत बड़ी
समाजवादी है। वह यह नहीं देखती कि कौन अमीर, कौन गरीब; कि कौन पदवाला, कौन पद-हीन। वह यह भी नहीं
देखती कि कौन नैतिक, कौन
अनैतिक। वह यह भी नहीं देखती, कौन
साधु कौन असाधु। मौत सबके साथ सम व्यवहार करती है। इसलिए मौत बड़ी समाजवादी है।
चाहे राजा हो चाहे रंक, दोनों
को उठा ले जाती है। दोनों को एक सा उठा ले जाती है।
"राजा राना छत्रपति, सबको लीले जाय'।
इसलिए
तुम यह मत सोचना कि कोई उपाय हो सकता है। सिकंदर के पास सब उपाय था, बचा न सका अपने को। कितने
सम्राट इस पृथ्वी पर हुए, सब
उनके पास उपाय थे! बड़े फौज-फांटे थे, बड़े किले की दीवालें थीं। फिर भी मौत आई और
ले गई।
मैंने
सुना है कि एक सम्राट ने अपने को बचाने लिए एक महल बनाया। उस महल में सिर्फ एक
दरवाजा रखा। एक दूसरी खिड़की भी नहीं रखी, ताकि कोई दुश्मन घुस न जाए--चोर, लुच्चे-लफंगे, कोई हत्यारा, कोई प्रवेश न कर पाए। सब तरफ
से बंद,
सीलबंद
महल था;
सिर्फ
एक दरवाजा जिससे खुद का आनाजाना हो सके। उसका पड़ोसी सम्राट उसके महल को देखने आया, सुन कर कि बड़ी अदभुत चीज बनाई
है। वह भी प्रभावित हुआ। एक द्वार था, पांच सौ पहरेदार थे--एक के बाद एक, एक के बाद एक। असंभव था किसी
का प्रवेश करना। पड़ोसी सम्राट जब महल को देख कर लौटने लगा बाहर, रथ पर सवार होने लगा तो उसने
उस मकान के मालिक को कहा कि पसंद तो मुझे भी बहुत पड़ा। खतरे के बिलकुल बाहर है।
कोई दुश्मन नहीं आ सकता। कोई बगावती, कोई हत्यारा भीतर प्रवेश नहीं कर सकता। मैं
भी सोचूंगा इसी तरह का महल बनाने के लिए।
जब यह
बात चलती थी तो एक भिखारी, जो राह
के किनारे बैठा था, खिलखिला
कर हंसने लगा। तो मकान के मालिक सम्राट ने पूछा कि पागल, तू क्यों हंस रहा है, क्या हुआ, तेरी हंसी का कारण? जवाब दे, अन्यथा तेरी मौत के लिए तैयार
हो जा। सम्राटों के बीच बात में हंसना नहीं चाहिए। तुझे इतना भी पता नहीं है?
उसने
कहा कि मौत के कारण ही हंस रहा हूं। चलो और यह मेरी भी आ गई, ठीक ही हुआ।
सम्राट
ने कहा कि तू अपनी बात ठीक-ठीक साफ कर। उसने कहा कि मैं भी इसीलिए हंसा कि यह एक
दरवाजा खतरनाक है,
इससे
मौत अंदर आ जाएगी। आप ऐसा करो, भीतर
चले जाओ और यह दरवाजा भी चुनवा दो। फिर मौत भी भीतर नहीं जा सकती। अभी यह पूर्ण
सुरक्षित नहीं है। अभी थोड़ी असुरक्षा है। ये पहरेदार ठीक हैं। आदमियों को रोक
लेंगे,
लेकिन
मौत को?
इनकी
तलवारें मौत को तो न रोक सकेंगी। इनकी संगीनें मौत को तो न रोक सकेंगी पांच सौ
नहीं, पांच लाख भी खड़े कर लो, मौत तो आ जाएगी, घुस जाएगी। तुम ऐसा करो, भीतर चले जाओ और बाहर से
चुनवा दो,
दीवाल
को बंद करवा दो। फिर तुम बिलकुल सुरक्षित हो।
सम्राट
बोला, तू पागल है। फिर तो हम मर ही
गए। जब भीतर हम चले गए और बाहर से चुनवा दी दीवाल, तो बचने का भी क्या मतलब? फिर तो मर ही गए, अभी मर गए। मौत जब आएगी, तू हमें अभी मरने का उपाय बता
रहा है।
वह
फकीर बोला,
इसलिए
तो मैं हंस रहा हूं कि मर तो तुम गए। निन्यानबे प्रतिशत मर गए, एक ही प्रतिशत बचे, क्योंकि एक ही दरवाजा है। अगर
सौ दरवाजे होते तो तुम सौ प्रतिशत जीवित होते। यह तुम्हारा ही गणित है। तुम कहते
हो, यह एक दरवाजा और बंद हो जाए
तो तुम बिलकुल मर गए। तो काफी तो तुम मर ही गए हो, एक ही दरवाजा बचा है। एक
प्रतिशत तुम जीवित हो। यह कोई मौत से बचने का उपाय है?
उस
फकीर ने कहा,
कभी
मैं भी सम्राट था। यही सोच कर कि धन से तो कुछ मौत को रोका नहीं जा सकता, ध्यान की तलाश कर रहा हूं।
शक्ति से तो मौत को रोका नहीं जा सकता, इसलिए शून्य की तलाश कर रहा हूं। जाना मुझे
भी मौत के पार है,
लेकिन
यात्रा मेरी अलग,
तुम्हारी
अलग।
उस
फकीर ने ठीक कहा। किसी को भी मौत से बचने की कोई सुविधा नहीं है। लेकिन कुछ लोग बच
गए। साधारण मौत से तो कोई नहीं बचा। लेकिन कुछ लोग मरते क्षण में भी जागरूक थे, जागते रहे। सब मर गया, लेकिन चैतन्य तो कभी मरता
नहीं। उनके होश के कारण मौत के द्वार से वे परमात्मा में प्रविष्ट हो गए। मौत का
दरवाजा बेहोश आदमी के लिए नए जन्म का दरवाजा बन जाता है और होश वाले आदमी के लिए
मोक्ष का द्वार बन जाता है। फिर कोई नया जन्म नहीं। फिर कोई आवागमन नहीं।
"दया होहु हुसियार'।
"बिनसत बादर बात बसि, नभ में नाना भांति।
इमि नर
दीसत काल बस,
तऊ न
उपजै सांति।।'
"बिनसत बादर बात बसि'। तुमने कभी देखा, आकाश में बादल घिरे होते हैं
और हवाएं उन्हें प्रतिक्षण बदलती रहती हैं! कभी तुमने देखा, आकाश में बादलों का रूप एक
क्षण को भी ठहरता नहीं, आकार
ठहरता नहीं! हवाएं उनको हिलाए रखती हैं। अभी लगता था कि यह बादल हाथी जैसा, और क्षणभर नहीं बीतता कि सूंड
नदारद हो गई,
कि पैर
खो गए कि अब हाथी जैसा नहीं रहा। गडमड हो गया। थोड़ी देर देखते रहो, बादल बदलता जाता है। धुआं ही
तो है बादल। भाप है बादल। हवाएं उसे डुलाती रहती हैं। जैसे सागर की सतह पर लहरें
डोलती रहती हैं,
हवाएं
सागर को डुलाए रखती हैं, ऐसी ही
हवाएं बादल को बिखेरती रहती हैं, बनाती
रहती हैं।
"बिनसत बादर बात बसि'! और जैसे बादल वायु के कारण
बिनसता रहता है,
बनता-बिगड़ता
रहता है--"नभ में नाना भांति। इमि नर दीसत काल-बस, तऊ न उपजै सांति।।'--और इसी तरह आदमी मौत के झोंके
खा-खा कर बनता-बिगड़ता रहता है। "इमि नर दीसत कालबस'। वह जो काल है, मौत है, उसके धक्के खा-खा कर आदमी
बनता-बिगड़ता रहता है। कभी तुम हाथी थे, कभी घोड़े थे; कभी पक्षी हुए, कभी वृक्ष बने; कभी स्त्री कभी पुरुष; कभी सुंदर, कभी कुरूप। न मालूम कितने रूप
तुम्हारा बादल ले चुका है। तुम कुछ नए नहीं हो। यही तो पूरी की पूरी भारत की अनूठी
खोज है कि आदमी ने न मालूम कितने जन्म ले लिए हैं। सब योनियों में हो आया है।
चौरासी करोड़ योनियां, उनमें
सबमें आदमी भटकता रहा है। मौत धक्के देती रही और बादल न मालूम कितने रूप लेता रहा।
दया ने
बड़ा मीठा प्रतीक चुना है: "बिनसत बादर बात बसि'। और जैसे हवाओं के झोंके
बादल को बदलते रहते हैं "नभ में नाना भांति। इमि नर दीसत कालबस, तऊ न उपजै सांति।।' और इसी तरह आदमी धक्के खाखा
कर मौत के कभी कुछ बन जाता है, कभी
कुछ बन जाता है। और जब तक यह होता रहेगा, तब तक शांति कैसे संभव है? जब तक तुम थिर नहीं, शांति कैसे संभव है? जब तक ये हवा के झोंके बंद
नहीं होते,
तब तक
तुम कैसे आनंद को उपलब्ध हो सकते हो। तो न मालूम कितने-कितने रूपों में तुमने दुख
ही पाया है। कभी घोड़े की तरह दुख पाया, कभी हाथी की तरह दुख पाया; कभी चींटी की तरह दुख पाया, कभी आदमी की तरह; कभी स्त्री की तरह कभी पुरुष
की तरह--और तुम दुख ही दुख पाते रहे हो! ये सारी योनियां दुख-योनियां हैं।
मौत के
बाहर होने की विधि है: "दया होहु हुसियार'। थोड़ा होश साधो। होश साधने का अर्थ है, जागकर देखो कि मैं शरीर नहीं
हूं। होश साधने का अर्थ है, जागकर
देखो कि मैं मन नहीं हूं। होश का अर्थ है, जागकर देखो कि मैं केवल साक्षी-भाव हूं। मैं
सिर्फ साक्षी-मात्र हूं। जैसे ही यह होश सधने लगेगा, तुम पाओगे कि मौत तुम्हारे
शरीर को डांवाडोल कर देती है, तुम्हारे
मन को भी डांवाडोल कर देती है; लेकिन
तुम्हारे साक्षीभाव को जरा भी डांवाडोल नहीं कर पाती। साक्षी-भाव मौत के बाहर है।
वहां मृत्यु नहीं पहुंचती। और जहां मृत्यु नहीं पहुंचती वहां परमात्मा का वास है।
जहां मृत्यु नहीं पहुंचती वहीं सत्य का निवास है। जहां मृत्यु नहीं पहुंचती उसी
चैतन्यदशा को हमने मोक्ष कहा है।
मोक्ष
कोई भूगोल में नहीं है। तो यह मत सोचना कि कहीं भूगोल में मोक्ष है, कि कहीं किसी न किसी दिन
वैज्ञानिक पहुंच जाएंगे अपने यानों को लेकर और मोक्ष को खोज लेंगे। मोक्ष तुम्हारी
अंतर्दशा का नाम है; भूगोल
नहीं, तुम्हारे चैतन्य का आकाश।
जिस
दिन तुम जानने लगे, जागने
लगे कि तुम शरीर नहीं हो, मन
नहीं हो,
उसी
दिन तुम पार हो गए। फर्क समझो, आकाश
में बादल घिरते हैं, बनते-मिटते, कभी आते कभी जाते, वर्षा में घिर जाते, फिर खो जाते, फिर घिर जाते; लेकिन आकाश सदा वहीं का वहीं
है। बादल बनते-मिटते हैं, आकाश
वहीं का वहीं है। और हवा के झोंके भी बादलों का रूप बदल पाते हैं, आकाश का रूप नहीं बदल पाते।
आकाश का क्या रूप बदलेंगे! आकाश पर हवा के झोंकों का कोई असर नहीं है। हवा बहती
रहती है,
चलती
रहती है,
आकाश
अछूता खड़ा रहता,
कुंआरा, अस्पर्शित।
जैसे
बाहर आकाश है,
ऐसे ही
भीतर आत्मा है। आत्मा भीतर के आकाश का नाम है। आकाश बाहर फैली हुई आत्मा का नाम
है। जिस दिन बीच में शरीर की धारणा टूट गई कि मैं शरीर नहीं हूं, उसी दिन भीतर और बाहर का आकाश
मिल जाता है। उस बाहर-भीतर के आकाश के मिलने की घड़ी समाधि है, या ब्रह्म-मिलन, या ईश्वर-मिलन, या जो भी नाम तुम्हें रुचिकर
हो।
एक बात
खयाल में रहे,
जब तक
इस आकाश की प्रतीति न होगी, तुम
शांत न हो सकोगे। "तऊ न उपजै सांति'। इसीलिए तो शांति पैदा नहीं हो रही, तुमने बादल से अपने को एक समझ
रखा है। और बादल प्रतिक्षण बदल रहा है, तुम रो रहे हो। अभी बदला, फिर बदला, फिर बदला! अभी सोचते थे, सब ठीक जा रहा है, और क्षण भर नहीं लगा और सब
गड़बड़ हो गया।
निशि-दिन
मन भरमाए है माया का अनुराग।
दुनिया
को तजना भला,
सीतल
हो यह आग।।
यह जो
आग है तभी शीतल होगी जब तुम जाग कर यह देख लो कि तुम संसार नहीं हो, शरीर नहीं हो, मन नहीं हो, तुम इनके पार हो।
शांति
का एक ही उपाय है कि तुम किसी भांति उसको खोज लो जो सदा से है और जिसका कभी कोई
रूपांतरण नहीं होता।
फैले
पंख बंद हुए
निबंध
अब छंद हुए।
जब
तुम्हारी वासना के फैले पंख बंद हो जाएंगे, तुम और वासना के जगत में उड़ना न चाहोगे। जब
तुम्हारे विचार के कौवों की कांव-कांव शांत हो जाएगी, जब तुम जान लोगे कि यह मैं
नहीं हूं,
मैं
सिर्फ द्रष्टामात्र, साक्षीमात्र, तब तुम अचानक पाओगे: निबंध अब
छंद हुए! तुम्हारे भीतर एक धारा बहेगी आनंद की, गीत की संगीत की, उत्सव की। रोआं-रोआं तुम्हारे
अस्तित्व का पुलकित हो आएगा। और ऐसा ही नहीं है कि जब यह आनंद तुम्हारे भीतर उठेगा
तो सिर्फ आत्मा में रहेगा, यह
तुम्हारे मन पर भी फैल जाएगा। यह मन को भी रंग डालेगा। यह तुम्हारे शरीर पर भी फैल
जाएगा। यह तुम्हारे शरीर को भी रंग डालेगा। यह तुम्हारे शरीर के बाहर उछल-उछल कर
दूसरों को भी रंगने लगेगा। इसलिए तो बुद्ध के पास इतने लोग रंग गए, महावीर के पास इतने लोग रंग
गए! उनके पास जो आया, रंग
गया। एक बार इसका पता चल जाए तो यह तो अपूर्व संपदा है, अनंत स्रोत है।
टूट
गया पैमाना
अंजुलि
भर पीऊंगा
जीवन-जल
मनमाना।
अभी
तुम इस तरह पी रहे हो जीवन के जल को एक छोटे से पैमाने में। शरीर, मन की छोटी सी पात्रता है।
इससे जीवन के विराट सागर को पीने की कोशिश कर रहे हो। भर नहीं पाता मन। जिस दिन
शरीर और मन छूट गया, पैमाना
टूट गया,
उस दिन
तुम सागर में हो।
मैंने
सुना है,
यूनान
के फकीर डायोजनीज ने सब छोड़ दिया, वस्त्र
भी छोड़ दिए,
महावीर
जैसा नग्न हो गया। पश्चिम में महावीर के मुकाबले एक ही आदमी हुआ है: डायोजनीज।
लेकिन एक छोटा सा पात्र उसने पास बचा लिया था जल इत्यादि पीने को। एक दिन प्यासा
नदी की तरफ जा रहा है अपने पात्र को लेकर। पहुंचा है तट पर, अपने पात्र को साफ कर रहा है
कि पानी पीए,
तभी एक
कुत्ता भागता हुआ आया। प्यासा। छलांग लगाई उसने पानी में, झटपट पानी पिया और चल पड़ा। ये
अभी अपना बर्तन ही साफ कर रहे थे। इन्हें बड़ी हैरानी हुई कि कुत्ते ने मुझे हरा
दिया! मैं भी क्या पात्र में उलझा बैठा हूं! फेंक दिया पात्र डायोजनीज ने। उसने
कहा, जब कुत्ता बिना पात्र के मजे
से गुजार रहा है,
तो मैं
क्यों पात्र से बंधा हूं! इसको साफ करो, यह करो वह करो, पंचायत। चोरी का भी डर रहता
है। रात सोओ तो एक-दो दफे देख लेना पड़ता है टटोल कर कि कोई ले तो नहीं गया! उसने
पात्र उसी वक्त फेंक दिया और कुत्ते को साष्टांग दंडवत किया और कहा कि तू मेरा
गुरु है। एक मोह रह गया था।
टूट
गया पैमाना
अंजुलि
भर पीऊंगा
जीवन-जल
मनमाना।
अब कोई
रुकावट न रही। जहां मन और शरीर के पात्र के तुम बाहर हो गए, तुम जीवन के सागर में उतर गए।
शून्य
के धनुष पर
समय का
सर धर
बेध
दिया क्षर को
मुक्त
हुआ अक्षर।
शून्य
के धनुष पर
समय का
सर धर
बेध
दिया क्षर को
मुक्त
हुआ अक्षर।
शून्य
के धनुष को साधना है। और समय का तीर शून्य के धनुष पर रख कर छोड़ देना है, ताकि तुम समय से मुक्त हो जाओ
और समय तुमसे मुक्त हो जाए।
वेध
दिया क्षर को
मुक्त
हुआ अक्षर।
और
जैसे ही तुम्हारा बोध क्षर को वेध देता है, वैसे ही तुम्हारे भीतर जो अक्षर है, आकाश है, उसकी प्रतीति हो जाती है, उसका साक्षात्कार हो जाता है।
यह भीतर छिपा आकाश जिसने जान लिया, उसने ही जीवन जाना। जिसने यह न जाना, वह व्यर्थ ही जीया।
मिलना
किस काम का अगर दिल न मिले
क्या
लुत्फ सफर से हो जो मंजिल न मिले?
वस्त-ए-दरिया
में गर्क होना अच्छा
इससे
कि करीब आ के साहिल न मिले।
जो लोग
बिना इस अंतर-आकाश को जाने जी रहे हैं, बेहतर हो वे डूब जाएं। क्योंकि किनारे के
पास आ कर भी उनको किनारा मिलने वाला नहीं है।
मिलना
किस काम का अगर दिल न मिले?
अगर
भीतर का अंतरतम,
अगर
भीतर की आत्मा न मिले...क्या लुत्फ सफर से हो जो मंजिल न मिले? चल तो तुम रहे हो बहुत दिनों
से, यात्रा तो बड़ी पुरानी हो गई
है। मंजिल की कभी झलक भी नहीं मिलती।
क्या
लुत्फ सफर से हो जो मंजिल न मिले?
वस्त-ए-दरिया
में गर्क होना अच्छा
इससे
कि करीब आ के साहिल न मिले।
जो लोग
बिना इस अंतर-आकाश को जाने जी रहे हैं, बेहतर हो वे डूब जाएं। क्योंकि किनारे के
पास आ कर भी उनको किनारा मिलने वाला नहीं है।
मिलना
किस काम का अगर दिल न मिले?
अगर
भीतर का अंतरतम,
अगर
भीतर की आत्मा न मिले...क्या लुत्फ सफर से हो जो मंजिल न मिले? चल तो तुम रहे हो बहुत दिनों
से, यात्रा तो बड़ी पुरानी हो गई
है। मंजिल की कभी झलक भी नहीं मिलती।
क्या
लुत्फ सफर से हो जो मंजिल न मिले?
वस्त-ए-दरिया
में गर्क होना अच्छा
इससे
कि करीब आ के साहिल न मिले।
रोज-रोज
तुम्हें लगता है कि आ गए करीब, आ गए
करीब; और जैसे ही करीब आते हो, पता चलता है: कोई साहिल नहीं, कोई किनारा नहीं। जैसे
क्षितिज हटता चला जाता है, तुम
पास आते हो और हट जाता है दूर, ऐसी ही
मृगमरीचिका जैसा है जीवन। तो बेहतर डूब जाना है।
मगर, अगर डूबने की हिम्मत हो तो
मिलना भी हो जाता है। डूबने का साहस हो, तुम्हें कोई परमात्मा को पाने से रोक नहीं
सकता। क्योंकि जो डूबने को तत्पर है, उसका अर्थ हुआ, उसने मौत को अंगीकार कर लिया; वह कहता है, मैं मरने को राजी हूं।
संन्यास का यही अर्थ है। संन्यास का इतना ही अर्थ है कि जो मरेगा, उसे मैं स्वयं ही छोड़ता हूं; जो मिटेगा, उससे मैं स्वयं ही अपने को
अलग जानने लगा हूं। क्षणभंगुर से मैंने अपने नाते अलग कर लिए। अब मैं रहूंगा इस
संसार में,
लेकिन
सराय से ज्यादा इसे न समझूंगा।
मुझसे
लोग पूछते हैं,
संन्यास
का क्या अर्थ है?
मैं
उनसे कहता हूं,
संसार
को सराय की भांति मानना, सराय
की भांति जानना। रहोगे तो यहीं, रहना
तो यहीं है,
जाओगे
भी कहां! लेकिन एक ढंग है ऐसा रहने का कि यहां रह कर भी यहां से मुक्ति हो जाती
है। सराय की भांति! होशपूर्वक! "दया होहु हुसियार'।
कीर्ति
बिना खोज भी मिलती है
मगर
पहले कोई काम तो करो
नाम
करने से पहले
एकांत
में आराम तो करो।
हर
खाली वक्त पर मुलाकात
और हर
खाली कोने में गमले मत धरो
कोई
घड़ी ऐसी भी होनी चाहिए जब तुम
अपने
देवता से बात करो।
देवता
नीरवता में आते हैं
और मन
जब शोर करता है,
वे
चुपके से लौट जाते हैं।
नीरव
बनो। थोड़े शांति के क्षण खोजो। थोड़े निर्विचार में उतरो। कभी-कभी शांत बैठे-बैठे, कुछ न करते हुए अचानक तुम
पाओगे कि धन्य हो उठे! प्रसाद बरसेगा। परमात्मा तुम्हें सब तरफ से घेर लेगा। यह
कुछ तुम्हारे करने की बात नहीं है, कुछ ऐसा नहीं है कि तुम बड़ा व्यायाम करोगे
तब होगा। तुम जब कुछ करोगे तब तो यह होगा ही नहीं, क्योंकि तुम करने में बने
रहोगे। करना यानी अहंकार, मैं।
परमात्मा
प्रयास से नहीं मिलता--प्रसाद से। तुम कभी बैठे-बैठे चुपचाप ऐसी घड़ियां खोजो जब
कुछ करने को न हो। बैठ गए बगीचे में वृक्ष के तले कि नदी के तट पर, कि रात खुले आकाश के नीचे, चांदत्तारों के पास, बैठ गए, कुछ न किए, खाली बैठे रहें, नीरव! विचार आएंगे, जाएंगे, आने-जाने दिए। उन में ज्यादा
रस न लिए,
न पक्ष
में न विपक्ष में,
आए तो
ठीक, न आए तो ठीक। जैसे राह चलती
है, शोरगुल भी होता है, ऐसा होने दिया; तुम अपने दूर तटस्थ भाव में
रहें। खाली बैठे रहें। कभी-कभी ऐसा होने लगेगा। एक क्षण को विचार ठहरे होंगे, उसी क्षण तुम पाओगे, उतरी किरण। अंधेरे को कोई तोड़
गया, झकझोर गया। उसी क्षण तुम
पाओगे,
एक
बूंद टपकी अमृत की; मौत के
पार का दर्शन हुआ। फिर धीरे-धीरे ये क्षण बढ़ते जाते हैं। फिर धीरे-धीरे जैसे-जैसे
स्वाद लगता जाता है, तुम्हारे
भीतर की यात्रा सघन होने लगती है, सुगम
होने लगती है। फिर एक दिन ऐसा होता है कि तुम जहां चाहो तहां, जब चाहो तब, आंख भी बंद न करो, तो भी परमात्मा तुम्हें घेरे
रहता है। तब हर चीज उसी की मौजूदगी बन जाती है। और जब तक ऐसा न हो जाए तब तक जानना
कि अभी मंजिल नहीं मिली। और मंजिल पानी है। मंजिल का अर्थ: इस भांति परमात्मा को
पाना है कि छूटने का उपाय न रह जाए।
इस
संसार को तो क्षण में विनसने वाला जानना। "विनसि जाय छिन एक में, दया प्रभू उर धार'। इस संसार को तो मृत्यु के
द्वार पर लगा हुआ क्यू जानना।
"तात मात तुमरे गए, तुम भी भये तयार।
आज काल्ह में तुम चलो, दया होहु हुसियार।।'
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें