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बुधवार, 19 मार्च 2014

पंतजलि: योगसूत्र--(भाग-1) प्रवचन--14

बीज ही फूल है--प्रवचन--चौदहवां

दिनांक 4 जनवरी, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।
प्रश्‍न सार:

1—कृपया समझायें कि समय के अतराल के बिना एक बीज कैसे विकसित हो सकता है?

 2—क्या ईश्वर को समर्पण करना और गुरु को समर्पण करना एक ही है?

 3—क्या सतोरी के पश्चात गुरु की आवश्यकता होती है?

 4—श्रवण की कला क्या होती है? कृपया मार्गदर्शन करें।

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--42)

श्रद्या का क्षितिज: साक्षी का सूरज—प्रवचन—बारहवां

दिनांक 22 नवंबर, 1976 ओशो
प्रशन  :

श्रद्धा और साक्षित्व में कोई आंतरिक संबंध है क्या? साक्षित्व तो आत्मा का स्वभाव है, क्या श्रद्धा भी? और क्या एक को उपलब्ध होने के लिए दूसरे का सहयोग जरूरी है?

 श्रद्या का अर्थ है मन का गिर जाना। मन के बिना गिरे साक्षी न बन सकोगे। श्रद्धा का अर्थ है संदेह का गिर जाना। संदेह गिरा तो विचार के चलने का कोई उपाय न रहा। विचार चलता तभी तक है जब तक संदेह है। संदेह प्राण है विचार की प्रक्रिया का।
लोग विचार को तो हटाना चाहते हैं, संदेह को नहीं। तो वे ऐसे ही लोग हैं जो एक हाथ से तो पानी डालते रहते हैं वृक्ष पर और दूसरे हाथ से वृक्ष की शाखाओं को उखाड़ते रहते हैं, पत्तों को तोड़ते रहते हैं। वे स्व—विरोधाभासी क्रिया में संलग्न हैं।

मंगलवार, 18 मार्च 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--41)

सहज है सत्‍य की उपलब्‍धि–प्रवचन—ग्‍यारहवां

दिनांक 21 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र:

अष्‍टावक्र उवाच:

श्रद्यत्‍स्‍व तात श्रघ्‍दत्‍स्‍व नात्र मोह कुस्थ्य भो:।
ज्ञानस्वरूपो भगवानात्मा त्वं प्रकृते पर:।। 133।।
गणै: संवेष्टितो देहस्तिष्ठत्यायाति याति च।
आत्मा न गंता नागता किमेनमनुशोचति।। 134।।
देहस्तिष्ठतु कल्पांत: गच्छत्वद्यैव वा पुन:।
क्व वृद्धि: क्‍व च वा हानिस्तव चिन्मात्ररूपिण।। 135।।
त्वथ्यनन्तमहाम्मोधौ विश्ववीचि: स्वभावत:।
उदेतु वास्तमायातु न ते वृद्धिर्न वा क्षति:।। 136।।


तात चिन्यात्ररूपोऽमि न ते भिन्नमिदं जगत।
अथ: कस्थ कथं क्‍व हेयोपादेय कल्पना।। 138।।
एकस्मिन्नव्यये शांते बिदाकाशेऽमले त्वयि।
कुतो जन्म कुछ: कर्म कुतोउहंकार एव च।।139।।

शनिवार, 15 मार्च 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--40)

धर्म अर्थात उत्‍सव—प्रवचन—दसवां

 दिनांक 20 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न :

आपने बताया कि प्रेम के द्वारा सत्य को उपलब्ध हुआ जा सकता है। कृपया बताएं क्या इसके लिए ध्यान जरूरी है?

 फिर प्रेम का तुम अर्थ ही न समझे। फिर प्रेम से कुछ और समझ गए। बिना ध्यान के प्रेम तो संभव ही नहीं है। प्रेम भी ध्यान का एक ढंग है। फिर तुमने प्रेम से कुछ अपना ही अर्थ ले लिया। तुम्हारे प्रेम से अगर सत्य मिलता होता तो मिल ही गया होता। तुम्हारा प्रेम तो तुम कर ही रहे हो; पत्नी से, बच्चे से, पिता से, मां से, मित्रों से। ऐसा प्रेम तो तुमने जन्म—जन्म किया है। ऐसे प्रेम से सत्य मिलता होता तो मिल ही गया होता।

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

पंतजलि: योगसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--13

समग्र संकल्‍प या समग्र समर्पण—प्रवचन—तैहरवां

      दिनांक 3 जनवरी, 1975;
      श्री रजनीश आश्रम पूना।
     
योगसूत्र:

 तीव्रसंवेगानामासन्न:।। 21।।

सफलता उनके निटकतम होती है जिनके प्रयास तीव्र, प्रगाढ़ और सच्चे होते हैं।

 मृदुमध्याधिमात्रत्वात्ततो'ऽपि विशेष:।। २२।।

प्रयास की मात्रा मृदु मध्यम और उच्च होने के अनुसार सफलता की संभावना विभिन्न होती है।

 ईश्वरप्रणिधानाद्वा।। 23।।

सफलता उन्हें भी उपलब्ध होती है जो ईश्वर के प्रति समर्पित होते है।

            क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।। 24।।

ईश्वर सवोंत्कृष्ट है। वह दिव्य चेतना की वैयक्तिक इकाई है। वह जीवन के दुखों से तथा कर्म और उसके परिणाम से अछूता है।

            तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्।। २५।।

ईश्वर में बीज अपने उच्चतम विस्तार में विकसित होता है।

बुधवार, 12 मार्च 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--39)

विषयों में विरसता मोक्ष है—प्रवचन—नौवां

दिनांक 19, नवंबर; 1976
श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र सार:

यथातथोयदेशेन कृतार्थ: सत्त्वबुद्धिमान्।
आजीवमयि जिज्ञासु: परस्तत्र विमुह्यति!। 126।।
मोक्षो विषयवैरस्यं बधो वैषयिको रस:।
एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु।। 127।।
वाग्मिप्राज्ञमहोद्योगं जनं मूकजडालसम्।
करोति तत्त्वबोधोउयमतस्लक्तो बुभुक्षिभि।। 128।।
न त्वं देहो न ते देहो भोक्ता कर्ता न वा भवान्।
चिद्रूयोउसि सदा साक्षी निरपेक्ष: सुख चर।। 129।।
रागद्वेषौ मनोधमौं न मनस्ते कदाचन।
निर्विकल्योऽसि बोधात्मा निर्विकार: सुख चर।। 130।।

मंगलवार, 11 मार्च 2014

पंतजलि: योगसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--12

अहंकार को दु:साध्‍य का आकर्षण—प्रवचन—बारहवां  

दिनांक 2 जनवरी; 1975
श्री रजनीश आश्रम, पूना। 

प्रश्‍नसार:

1—पतंजलि की तुलना में हेराक्लतु क्राइस्ट और झेन बचकाने लगते हैं। हेराक्लतु क्राइस्ट और झेन अंतिम चरण को निकट—सा बना देते हैं और पतंजलि प्रथम चरण को भी असंभव बनाते हैं! ऐसा क्यों लगता है?

  2—संदेह और विश्वास के बीच झूलने वाला हमारा मन इन दो छोरों से पार उठकर श्रद्धा तक कैसे पहुंचे?

पहला प्रश्‍न:

आप जो हेराक्‍लतु क्राइस्ट और झेन के विषय में कहते रहे हैं वह पतंजलि की तुलना में शिशुवत लगता है। हेराक्लतु क्राइस्ट और झेन अंतिम चरण को निकट—सा बना देते हैं पतंजलि पहले चरण को भी लगभग असंभव दिखता बना देते हैं। ऐसा लगता है कि जितना कार्य करना है उसे पश्चिम के लोगों ने मुश्किल से ही स्पष्ट अनुभव करना शुरू किया है।

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--38)

जागते—जागते जाग आती है—प्रवचन—आठवां

दिनांक 18 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

आपने शास्त्र—पाठ की महिमा बताई। लेकिन ऐसे कुछ लोग मुझे मिले हैं जिन्हें गीता या रामायण कंठस्थ है और जो प्राय: नित्य उसका पाठ करते हैं, लेकिन उनके जीवन में गीता या रामायण की सुगंध नहीं। तो क्या पाठ और पाठ में फर्क है? और सम्यक पाठ कैसे हो?

 निश्चय ही पाठ और पाठ में फर्क है। यंत्रवत दोहरा लेना पाठ नहीं। कंठस्थ कर लेना पाठ नहीं। हृदयस्थ हो जाये तो ही पाठ। और हृदय तक पहुंचाना हो तो अत्यंत जागरूकता से ही यह घटना घट सकती है। कंठस्थ कर लेना तो जागने से बचने का उपाय है।

सोमवार, 10 मार्च 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--37)

जगत उल्‍लास है परमात्‍मा का—प्रवचन—सातवां

दिनांक 17 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, कोरेगांव पार्क पूना।
सूत्र सार :

जनक उवाच।

            प्रकृत्या शून्यचित्तो य: प्रमादादभावभावन:।
निद्रितो बोधित इव क्षीणसंसरणे हि सः।। 122।।
क्‍व धनानि क्‍व मित्राणि क्‍व मे विषयदस्यव:।
क्‍व शास्त्र क्‍व च विज्ञानं यदा मे गलिता स्पृहा।। 123।।
विज्ञाते साक्षिपुरुषे परमात्मनि चेश्वरे।
नैराश्ये बंधमोक्षे च न चिंता मुक्तये मम।। 124।।
अंतर्विकल्यशून्यस्य बहि: स्वच्छंदचारिण:।
भ्रांतस्येव दशास्तास्तास्तादृशा एव जानते।। 125।।

ज के सूत्र महावाक्‍य हैं, साधारण वक्‍तव्‍य नहीं है, असाधारण गहराई में पाए गए मोती हैं। बहुत ध्यानपूर्वक समझोगे तो ही समझ पाओगे। और फिर भी समझ बौद्धिक ही रहेगी।

रविवार, 9 मार्च 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--36)

संन्‍यास: अभिनव का स्‍वागत—प्रवचन—छटवां

दिनांक 16 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।
प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

क्या प्रेम के द्वारा सत्य को उपलब्ध हुआ जा सकता है?

 प्रेम और सत्‍य दो घटनाएं नहीं हैं, एक ही घटना के दो पहलू है। सत्‍य को पा लो तो प्रेम प्रगट हो जाता है। प्रेम को पा लो तो सत्य का साक्षात हो जाता है। या तो सत्य की खोज पर निकलो; मंजिल पर पहुंच कर पाओगे, प्रेम के मंदिर में भी प्रवेश हो गया। खोजने निकले थे सत्य, मिल गया प्रेम भी साथ—साथ। या प्रेम की यात्रा करो। प्रेम के मंदिर पर पहुंचते ही सत्य भी मिल जाएगा। वे साथ—साथ हैं। प्रेम और सत्य परमात्मा के दो नाम हैं।

शनिवार, 8 मार्च 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--35)

अचुनाव में अतिक्रमण—प्रवचन पांचवां  

      दिनांक 15 नवंबर, 1976;
      श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सूत्र:
जनक उवाच
अकिंचनभवं स्वास्थ्य कौयीनत्वेऽपि दुर्लभम्।
त्यागदाने विहायास्मादहमासे यथासुखम्।। 115।।
कुत्रायि खेद: कायस्थ जिह्वा कुत्रायि खिद्यते)
मन: कुत्रापि तत्त्वक्ला पुरुषार्थे स्थित: सुखम्।। 116।।
कृतं किमपि नैव स्थादिति संचिक्क तत्वत:।
यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वाउसे यथासुखम्!। 117।।
कर्मनैष्कर्म्यनिर्बधंभावा देहस्थ योगिनः।
संयोगायोगविरहादहमासे यथासुखम्।। 118।।  
अर्थानथौं न मे स्थित्या नत्या वा शयनेन वा।
तिष्ठन् गच्छन् स्वयंस्तस्मादहमासे यथासुखम्।। 119।।

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--34)

धार्मिक जीवन—सहज, सरल, सत्‍य–प्रवचन—चौथा

दिनांक 14 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

एक ओर आप साधकों को ध्यान —साधना के लिए प्रेरित करते हैं और दूसरी ओर कहते हैं कि सब ध्यान—साधनाएं गोरखधंधा हैं। इससे साधक दुविधा में फंस जाता है। वह कैसे निर्णय करे कि उसके लिए क्या उचित है?

 ब तक दुविधा हो तब तक गोरख धंधे में रहना पड़े। जब तक दुविधा हो तब तक ध्यान करना पड़े। दुविधा को मिटाने का ही उपाय है ध्यान। दुविधा का अर्थ है:  मन दो हिस्सों में बंटा है। मन के दो हिस्सों को करीब लाने की विधि है ध्यान। जहां मन एक हुआ, वहीं मन समाप्त हुआ।

अष्टावक्र को सुनते समय यह बात ध्यान में रखना कि अष्टावक्र ध्यान के पक्षपाती नहीं हैं, न समाधि के, न योग के—विधि मात्र के विरोधी हैं।

मंगलवार, 4 मार्च 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--33)

हर जगह जीवन विकल है—प्रवचन—तीसरा

      दिनांक 13 नवंबर 1976
      श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सूत्र:

कायकृत्यासह: पूर्व ततो वाग्विस्तरासह।
अद्य चितासह स्तस्मादेवमेवाहमास्थित:।। 107।।
प्रीत्यभावेन शब्दादेरद्वश्यत्वेन चात्यनः।
विक्षेयैकाग्रहदय श्वमेवाहमास्थित।। 108।।
समाध्यासादिविक्षिप्तौ व्यवहार: समाधये।
एवं विलोक्य नियमेवमेवाहमास्थित:।। 109।।
हेयोयादेयविरहादेव हर्षविषादयो:।
अभावादद्य हे ब्रह्माब्रेबमेवाहमास्थित!। 110।।
आश्रमानाश्रमं ध्यानं चित्तस्वीकृतवर्जनम्।
विकल्प मम वीक्यैतैरवमेवाहमास्थित:।। 111।।

सोमवार, 3 मार्च 2014

पंतजलि: योग--सूत्र--(भाग--1) प्रवचन--11

समाधि का अर्थ—प्रवचन—ग्‍यारह  

दिनांक 1 जनवरी, 1975
श्री रजनीश आश्रम,पूना।

योगसूत्र:

            वितर्कविचारानदास्मितानुगमात्सप्रज्ञातः।। १७।।

सप्रज्ञातसमाधि वहसमाधिहैजोवितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता के भावसेयुक्‍तहोतीहै।

            विरामप्रत्ययाथ्यासपूर्व: संस्कारशेषोऽन्य :।। १८।।

असंप्रज्ञात समाधि में सारी मानसिक क्रिया की समाप्ति होती है और मन केवल अप्रकट संस्कारों को धारण किये रहता है।

 भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्।। ११।।

विदेहियो और प्रकृतिलयों को असंप्रज्ञात समाधि उपलब्ध होती है क्योंकि अपने पिछले जम्प में उन्होंने अपने शरीरों के साथ तादात्थ बनाना समाप्त कर दिया था। वे फिर जन्म लेते हैं क्योंकि इच्छा के बीज बने रहते हैं।

रविवार, 2 मार्च 2014

आत्म पूजा उपनिषद--प्रवचन-02

प्रवचन—दूसरा (प्रश्‍न एवं उत्तर)


बंबईदिनांक 16 फरवरी, 1972, रात्रि

पहला प्रश्‍न--
     
      भगवान श्री रजनीश, कल रात्रि आपने कहा कि जो कोई शून्य हो जाते हैं वे घाटी की तरह जो जाते हैं। वे प्रतिक्रिया नहीं करते, वरन संवेदनशील करते हैं, और ऐसे जो ज्योतिर्मय लोग हैं उनके प्रतिसंवेदन अलग-अलग होते हैं। घाटी अपनी-अपनी महान निजता व व्यक्तिगत रूप में प्रतिध्वनि करेगी। अब यह प्रश्‍न उठता है कि जो लोग पूर्ण शून्य को प्राप्त हो गए हैं--मिट गए हैं--उनकी अभी भी निजता और व्यक्तित्व बना रहता है। यदि ऐसा है तो कृपया समझाए कि ऐसा कैसे संभव हो पाता है?
     
      यह अध्यात्म जीवन के विरोधाभासों में से एक है। जितना ही कोई परमात्मा में लीन हो जाता है, उतना ही विशिष्ट वह हो जाता है। यह उसके व्यक्तित्व का विलय नहीं है, वरन उसके अहं का विलय है। यह विलय उसकी निजता का नहीं, वरन उसके अहंकार का विलय है। जितने आप अहंकार-जन्य होते हैं, उतने ही आप दूसरे के जैसे होते हैं, क्योंकि प्रत्येक अहंकारी है।

शनिवार, 1 मार्च 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--31)

अष्‍टावक्र महागीता—(भाग—3)
ओशो



(ओशो द्वारा अष्‍टावक्र—संहिता के 99—151 सूत्रों पर प्रश्‍नोत्‍तर सहित दिनांक 11 से 25 नवंबर 1976 तक ओशो कम्‍यून इंटरनेशनल, पूना में दिए गए पंद्रह अमृत प्रवचनों का संकलन।)



मनुष्‍य है एक अजनबी—प्रवचन—एक

दिनांक 11 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र:
भावाभावविकारश्च स्वभावादिति निश्चयी।
निर्विकारो गतक्लेश सुखेनैवोयशाम्मति।। 99।।
ईश्वर: सर्वनिर्माता नेहान्य हील निश्चयी।
अंतर्गलित सर्वाश: शांत: क्यायि न सज्जते।। 100।।
आयद: सैयद: काले दैवादेवेति निश्चयी।
तृप्त: स्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वाच्छति न शोचति।। 101।।
सुखदु:खे जन्ममृत्यु दैवादेवेति निश्चयी।
साध्यादर्शी निरायाम कुर्वन्नपि न लिप्यते।। 102।।
चिंतया जायते दुःख नान्यथैहेति निश्चयी।
तथा हीन: सुखी शांत: सर्वत्र गलितस्थृह।। 103।।
नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी।
कैवल्यमिव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम्।। 104।।

पतंजलि: योग—सूत्र (भाग-1) प्रवचन—10

साक्षी और वैराग्‍य—प्रारंभ भी, अंत भी—प्रवचन—दसवां

      दिनांक 4 जनवरी, 1974; संध्‍या।
      वुडलैण्‍डस, बंबई।

प्रश्‍न सार:

1—हमारे मन की समस्याओं को, आप मन के पार होकर भी कैसे समझते हैं?

 2—योगी बनने के लिए हठीले योद्धा के भाव की क्या जरूरत है?

 3—अगर वैराग्य ही मुका कर सकता है तो फिर योगानुशासन का क्या प्रयोजन है?


पहला प्रश्‍न:

यह कैसे संभव हुआ है कि आपने हमारे जीने के ढंग को आप जिसके परे जा हैं इतने सही रूप में और हर ब्योरे में वर्णित कर दिया है जबकि हम इसके प्रति इतने अनजान रहते हैं? क्या यह विरोधाभासी नहीं है?