दिनांक
22 नवंबर, 1976 ओशो
प्रशन :
प्रशन :
श्रद्धा
और साक्षित्व
में कोई आंतरिक
संबंध है क्या? साक्षित्व
तो आत्मा का
स्वभाव है, क्या
श्रद्धा भी? और क्या एक
को उपलब्ध
होने के लिए
दूसरे का सहयोग
जरूरी है?
श्रद्या
का अर्थ है मन
का गिर जाना।
मन के बिना
गिरे साक्षी न
बन सकोगे।
श्रद्धा का
अर्थ है संदेह
का गिर जाना।
संदेह गिरा तो
विचार के चलने
का कोई उपाय न
रहा। विचार
चलता तभी तक
है जब तक
संदेह है। संदेह
प्राण है
विचार की
प्रक्रिया
का।
लोग
विचार को तो
हटाना चाहते
हैं,
संदेह को
नहीं। तो वे
ऐसे ही लोग
हैं जो एक हाथ से
तो पानी डालते
रहते हैं
वृक्ष पर और
दूसरे हाथ से
वृक्ष की
शाखाओं को
उखाड़ते रहते
हैं, पत्तों
को तोड़ते रहते
हैं। वे स्व—विरोधाभासी
क्रिया में
संलग्न हैं।
जहां
संदेह है वहां
विचार है।
संदेह विचार
को उठाता है।
संदेह भीतर के
जगत में
तरंगें उठाता
है। इसलिए तो
विज्ञान
संदेह को आधार
मानता है, क्योंकि
विचार के बिना
खोज कैसे होगी?
तो विज्ञान
का आधार है
संदेह। संदेह
करो, जितना
कर सको उतना
संदेह करो, ताकि तीव्र
विचारणा का
जन्म हो। उसी
विचारणा से
खोज हो।
धर्म
कहता है.
श्रद्धा करो।
श्रद्धा का
अर्थ है—संदेह
नहीं। संदेह
गया कि विचार
अपने से ही
शांत होने
लगते हैं।
संदेह के बिना
विचार करने को
कुछ बचता ही
नहीं। प्रश्न
ही नहीं बचता
तो विचार कैसे
बचेगा?
जो
लोग सोचते हैं
विचार को शांत
कर लें और श्रद्धा
करने को राजी
नहीं, वे कभी
सफल न होंगे।
वे जड़ों को तो
बचाये रखना चाहते
हैं, पत्तों
को तोड़ना
चाहते हैं।
जड़ें नये
पत्ते भेज
देंगी। जड़ें
यही काम कर
रही हैं—नये
पत्तों को
जन्माने का
काम कर रही
हैं। जड़ें तो
गर्भ हैं, जहां
से नये पत्तों
का आगमन होता
रहेगा।
श्रद्धा
का अर्थ है.
मेरा कोई
प्रश्न नहीं।
और प्रश्न
नहीं तो विचार
की तरंग नहीं
उठती। जैसे
झील के किनारे
तुम बैठे, एक
पत्थर उठा कर
शांत झील में
फेंक दो।
फेंकते तो एक
पत्थर हो, लेकिन
अनंत लहरें उठ
आती हैं, लहर
पर लहर उठती
चली जाती है।
एक संदेह अनंत
विचारों का
जन्मदाता हो
जाता है।
प्रश्न उठा कि
यात्रा शुरू
हुई।
श्रद्धा
का अर्थ है :
प्रश्न को गिरा
दो,
प्रश्न मत
उठाओ। जो है, है; जो
नहीं है, नहीं
है—इस
भाव
में राजी हो
जाओ। इस
राजीपन में ही
साक्षी का
जन्म होगा। इस
परम स्वीकार—
भाव में ही
साक्षी के भाव
का उदय होता
है। तो श्रद्धा
के क्षितिज पर
ही साक्षी का
सूरज निकलता
है,
साक्षी की
सुबह होती है।
श्रद्धा के
बिना तो
साक्षी जन्म
ही नहीं सकता।
ऐसा
समझो. संदेह—तो
तुम विचारक हो
जाओगे; साक्षी—तो
तुम मनीषी हो
जाओगे। संदेह—तो
तुम
तर्कयुक्त हो
जाओगे।
श्रद्धा—तो
तुम
तर्कशून्य हो
जाओगे। विचार
उपयोगी है अगर
दूसरे के
संबंध में कुछ
खोज करनी है।
जाना पड़ेगा, यात्रा करनी
पड़ेगी, तरंगों
पर सवार होना
होगा। दूसरा
तो दूर है, अपने
और उसके बीच
सेतु बनाने
होंगे। तो
विचार के सेतु
फैलाने
होंगे। लेकिन
स्वयं पर आने
के लिए तो कोई
सेतु बनाने की
जरूरत नहीं।
स्वयं पर आने
के लिए तो कोई
मार्ग भी नहीं
चाहिए। वहा तो
तुम हो ही।
साक्षी
का इतना ही
अर्थ है. उसे
जानने की
चेष्टा, जो हम
हैं। उसे
जानने की
चेष्टा में
किसी विचार की
कोई तरंगों का
उपयोग नहीं
है। पर ध्यान
रखना, जब
मैंने
श्रद्धा के
संबंध में
तुम्हें समझाया
तो बार—बार
कहा कि
श्रद्धा
विश्वास का
नाम नहीं है।
विश्वास तो
फिर संदेह ही
है।
एक
आदमी कहता है
मैं ईश्वर में
विश्वास करता
हूं। अगर इसके
भीतर ठीक से
छानबीन करोगे
तो तुम पाओगे
इसका ईश्वर
में संदेह है।
नहीं तो
विश्वास की
क्या जरूरत? विश्वास
तो संदेह को
दबाने का नाम
है, छिपाने
का नाम है।
विश्वास तो
ऐसा है जैसे
कपड़े। तुम
नग्न हो, कपड़ों
में ढांक लिया—ऐसा
लगने लगता है
कि नंगे नहीं
रहे। कपड़ों के
भीतर नंगे ही
हो। कपड़े
पहनने से
नग्नता थोड़े ही
मिटती है; दूसरों
को दिखाई नहीं
पड़ती। ऐसे ही
विश्वास के
वस्त्र हैं।
इससे संदेह
नहीं मिटता।
इससे तर्क भी
नहीं मिटता।
इससे विचार भी
नहीं मिटता।
तो
तुम अधार्मिक
को,
नास्तिक को
भी विचार करते
पाओगे, धार्मिक
को भी विचार
करते पाओगे।
एक ईश्वर के विपरीत
विचार करता है,
एक ईश्वर के
पक्ष में
विचार करता है,
लेकिन
विचार से
दोनों का कोई
छुटकारा
नहीं। एक
प्रमाण
जुटाता है कि
ईश्वर नहीं है,
एक प्रमाण
जुटाता है कि
ईश्वर है।
ईश्वर के लिए
प्रमाण की
जरूरत है? जिसके
लिए प्रमाण की
जरूरत है वह
तो ईश्वर नहीं।
और जो मनुष्य
के प्रमाणों
पर निर्भर है
वह तो ईश्वर
नहीं। जिसका
सिद्ध— असिद्ध
होना मेरे ऊपर
निर्भर —है, वह दो कौड़ी
का हो गया।
ईश्वर तो है; तुम चाहे
प्रमाण पक्ष
में जुटाओ, चाहे विपक्ष
में जुटाओ, इससे कुछ
भेद नहीँ
पड़ता। ईश्वर
के —होने में
भेद नहीं
पड़ता। ईश्वर —यानी
अस्तित्व।
ईश्वर यानी
होने की यह जो
घटना है; बाहर—
भोतर जो मौजूद
है यह मौजूदगी,
यह
उपस्थिति
चैतन्य की—यही
ईश्वर है।
इसके लिए
प्रमाण की कोई
जरूरत नहीं
है।
श्रद्धा
विश्वास नहीं
है। विश्वास
तो प्रमाण
जुटाता है, श्रद्धा
तो आख खोल कर
देख लेने का
नाम है। श्रद्धा
दर्शन है।
इसलिए जैन
परिभाषा में
तो दर्शन और
श्रद्धा एक ही
अर्थ रखते
हैं। दर्शन को
ही श्रद्धान
कहा है महावीर
ने और श्रद्धा
को ही दर्शन
कहा है।
श्रद्धा तो आख
खोल कर देख
लेना है। ऐसा
समझो कि एक
अंधा आदमी है।
वह टटोल—टटोल
कर रास्ता
खोजता है, पूछ—पूछ
कर चलता है, हाथ में
लकड़ी लिये
रहता है। फिर
उसकी आंखें
ठीक हो गयीं।
अब वह लकड़ी
फेंक देता है।
वह लकड़ी
विश्वास जैसी
थी। उसके
सहारे टटोल—टटोल
कर चल लेता
था। अब तो आख
हो गयी, अब
लकड़ी की. कोई
जरूरत नहीं
है।
श्रद्धा
को उपलब्ध
व्यक्ति
विश्वास को
फेंक देता है।
वह न हिंदू रह
जाता, न
मुसलमान, न
ईसाई। अब तो
आख मिल गयी।
अब तो प्रमाण
की कोई जरूरत
न रही। आख
काफी प्रमाण
है। तुम, सूरज
है, इसके
लिए तो प्रमाण
नहीं देते
फिरते। न कोई
खंडन करता है,
न कोई मंडन
करता है। न तो
कोई कहता है
कि मैं सूरज
में मानता हूं
न कोई कहता है
कि मैं सूरज
में नहीं
मानता हूं।
सूरज है, मानने
न मानने की
क्या बात? आंखें
खुली हैं, तो
सूरज दिखाई पड़
रहा है।
ऐसे
ही जब भीतर की
आख खुलती है
तो उसका नाम
श्रद्धा है।
श्रद्धा अंतस—चक्षु
है। उस अंतस—चक्षु
से जो दिखाई
पड़ता है, वही
परमात्मा है।
तो श्रद्धा
विश्वास नहीं
है। श्रद्धा
तो एक आत्मक्रांति
है, विचार
से मुक्ति; प्रश्न से
मुक्ति; संदेह
से मुक्ति—जो
है, उसके
साथ राजी हो
जाना, लयबद्ध
हो जाना। और
इसी अवस्था
में साक्षी का
बोध होगा।
अगर
कर्ता बनना हो
तो विचार की
जरूरत है।
विचारक बनना
हो तो विचार
की जरूरत है, क्योंकि
विचार भी
सूक्ष्म
कृत्य है।
साक्षी में
कर्ता तो बनना
नहीं, कुछ
करना तो है
नहीं। जो है, सिर्फ उसके
साथ तरंगित
होना है। जो
है, उससे
भिन्न नहीं; उसके साथ
अभिन्न भाव से
एक होना है।
करने को तो कुछ
है नहीं
साक्षी में—सिर्फ
जागने को है, देखने को
है।
पूछा
है,
' श्रद्धा
और साक्षित्व
में कोई आंतरिक
संबंध है?'
निश्चित
ही। श्रद्धा
द्वार है; साक्षी—मंदिर
में विराजमान
प्रतिमा।
श्रद्धा के बिना
कोई कभी
साक्षी तक
नहीं पहुंचा,
न सत्य तक
पहुंचा है।
श्रद्धा के बिना
तुम पंडित हो
सकते हो, ज्ञानी
नहीं।
श्रद्धा के
बिना तुम
विश्वासी हो
सकते हो, अनुभवी
नहीं।
तो
दुनिया में दो
तरह के भटकते
हुए लोग हैं।
एक,
जिनको हम
नास्तिक कहते
हैं, एक, जिनको हम
आस्तिक कहते
हैं। दोनों
भटकते हैं। दोनों
विश्वास से
भरे हैं—एक
पक्ष में, एक
विपक्ष में। न
नास्तिक को
पता है कि
ईश्वर है, न
आस्तिक को पता
है कि ईश्वर
है।
इसलिए
मैं धार्मिक
को दोनों से
अलग रखता हूं; वह
तो न नास्तिक
है, न
आस्तिक है।
उसने तो धीरे—
धीरे देखने की
चेष्टा की।
तुम्हारी
धारणाओं की
कोई जरूरत ही
नहीं है देखने
में।
तुम्हारी धारणाएं
बाधा बनती हैं,
तुम्हारे
पक्षपात अड़चन
लाते हैं। तुम
कुछ मान कर चल
पड़ते हो, उसके.
कारण ही देखना
शुद्ध नहीं रह
जाता।
तुमने
अगर पहले से
ही मान लिया
है तो तुम
वैसा ही देख
लोगे जैसा मान
लिया है। बिना
माने, बिना
भरोसा किये, बिना
विश्वास किये,
बिना किसी
धारणा में रस
लगाये, जो
खाली, शांत
मौन देखता रह
जाता है .....। जो
है, उसे
जानना है। अभी
हमें उसका पता
नहीं है तो मानें
कैसे?
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे कहते
हैं. ईश्वर को
कैसे मानें? मैं उनसे
कहता हूं:
तुमसे मैं
कहता नहीं कि
तुम मानो।
इतना तो मानते
हो कि तुम हो? इसे कोई
मानने की
जरूरत ही नहीं
है।
वे
कहते हैं. यह
तो हमें पता
है कि हम हैं।
तुमने
ऐसा आदमी देखा
जो मानता हो
कि मैं नहीं हूं? ऐसा
आदमी तुम कैसे
पाओगे? क्योंकि
यह मानने के
लिए भी कि मैं
नहीं हूं मेरा
होना जरूरी
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने घर में
छिपा बैठा है।
किसी आदमी ने
द्वार पर
दस्तक दी।
उसने संध से देखा
कि आ गया वही
दूकानदार
जिसको पैसे
चुकाने हैं।
उसने जोर से
चिल्ला कर
भीतर से कहा:
'मैं
घर में नहीं
हूं।’ वह
दूकानदार
हंसा। उसने
कहा. 'हद हो
गयी! फिर यह
कौन कह रहा है
कि मैं घर में
नहीं हूं?' मुल्ला
ने कहा : 'मैं
कह रहा हूं कि
मैं घर में
नहीं हूं,
सुनते हो कि
नहीं?'
लेकिन
यह तो प्रमाण
है घर में
होने का। मैं
घर में नहीं
हूं ऐसा कहा
नहीं जा सकता।
कौन कहेगा? आज
तक दुनिया में
किसी ने नहीं
कहा कि मैं
नहीं हूं।
क्यों? क्योंकि
'मैं' का
तो प्रत्यक्ष
अनुभव हो रहा
है, इसे
इनकासे कैसे,
इसे झुठलाओ
कैसे! सारी
दुनिया भी
तुमसे कहे कि
तुम नहीं हो, तौ भी संदेह
पैदा नहीं
होगा। तुम
कहोगे. पता नहीं,
दुनिया
कहती है ऐसा!
मुझे तो भीतर
से स्पर्श हो
रहा है, अनुभव
हो रहा है, प्रतीति
हो रही है कि
मैं हूं। और
अगर मैं नहीं
हूं तो तुम
किसको समझा
रहे हो? कम
से कम समझाने
के लिए तो
इतना मानते हो
कि मैं हूं।
यह
जो भीतर: 'मैं'
का बोध है, अभी धुंधला—
धुंधला है। जब
प्रगाढ़ हो कर
प्रगट हो
जायेगा तो यही
'मैं ' का
बोध परमात्म—बोध
बन जाता है।
इसी धुंधले —से
बोध को, धुएं
में घिरे बोध
को प्रगाढ़
करने के लिए
श्रद्धा में
जाना जरूरी
है।
श्रद्धा
का अर्थ फिर
दोहरा दूं—विश्वास
नहीं; जो है, उसको भरी आख
से देखना, खुली
आख से देखना।
तुम हो!
परमात्मा
तुम्हारे भीतर
तुम्हारी तरह
मौजूद है।
कहां भटकते हो?
कहां खोजते
हो? कहीं
खोजना नहीं
है। कहीं जाना
नहीं है। सिर्फ
भरी आख, भीतर
जो मौजूद ही
है, उसे
देखना है।
देखते ही
द्वार खुल
जाते हैं मंदिर
के। साक्षी
अनुभव में आता
है—श्रद्धा के
भाव से।
साक्षी
का अर्थ है : मन
को लुटाने की
कला,
मन को
मिटाने की
कला।
कलियां
मधुवन में गंध
गमक मुसकाती
हैं,
मुझ
पर जैसे जादू —सा
छाया जाता है।
मैं
तो केवल इतना
ही सिखला सकता
हूं—
अपने
मन को किस
भांति लुटाया
जाता है!
तुमने
कभी देखा, बाहर
भी जब सौंदर्य
की प्रतीति
होती है तो
तभी, जब
थोड़ी देर को
मन विश्राम
में होता है!
आकाश में
निकला है
पूर्णिमा का
चांद, शरद
की घे, और
तुमने देखा और
क्षण भर को उस
सौंदर्य के
आघात में, उस
सौंदर्य के
प्रभाव में, उस सौंदर्य
की तरंगों में
तुम शांत हो
गये! एक क्षण
को सही, मन
न रहा। उसी
क्षण एक
अपूर्व
सौंदर्य का, आनंद का
उल्लास— भाव
पैदा होता है।
फूल को देखा, संगीत को
सुना, या
मित्र के पास
हाथ में हाथ
डाल कर बैठ
गये—जहां भी
तुम्हें सुख
की थोड़ी झलक
मिली हो, तुम
पक्का जान
लेना, वह
सुख की झलक
इसीलिए मिलती
है कि कहीं भी
मन अगर ठिठक
कर खड़ा हो गया,
तो उसी क्षण
साक्षी— भाव
छा जाता है।
वह इतना
क्षणभंगुर
होता है कि
तुम उसे पकड़
नहीं पाते—आया
और गया।
ध्यान
में हम उसी को
गहराई से
पकड़ने की चेष्टा
करते हैं। वह
जो सौंदर्य दे
जाता है, प्रेम
दे जाता है, सत्य की
थोड़ी
प्रतीतिया दे
जाती हैं, जहां
से थोड़े—से
झरोखे खुलते
हैं अनंत के
प्रति—उसे हम
ध्यान में और
प्रगाढ़ हो कर
पकड़ने की कोशिश
करते हैं।
और
यही इस जगत
में बड़े से
बड़ा कृत्य है।
ध्यान रखना
मैं कहता हूं
कृत्य। कृत्य
यह है नहीं।
क्योंकि
कर्ता इसमें
नहीं है।
लेकिन भाषा का
उपयोग करना
पड़ता है। यह
जगत में सबसे
बड़ा कृत्य है
जो कि बिलकुल
ही करने से
नहीं होता—होने
से होता है।
माना
कि बाग जो भी
चाहे लगा सकता
है
लेकिन
वह फूल किसके
उपवन में
खिलता है?
—जिसके
रंग तीनों
लोकों की याद
दिलाते हैं
और
जिसकी गंध
पाने को देवता
भी ललचाते
हैं।
वह
है साक्षी का
फूल। बगिया तो
सभी लगा लेते
हैं—कोई धन की, कोई
पद की। बगिया
तो सभी लगा
लेते हैं।
लेकिन वह फूल
किसके बगीचे
में खिलता है,
जिसके लिए
देवता भी
ललचाते हैं? वह तो खिलता
है, जब तुम
खिलते हो। वह
तो तुम्हारा
ही फूल है—तुम्हारा
ही सहस्र—दल
कमल, तुम्हारा
ही सहस्रार; तुम्हारे ही
भीतर छिपी हुई
संभावना जब
पूरी खिलती
है। साक्षी
में खिलती है।
क्योंकि कोई बाधा
नहीं रह जाती।
जब
तक तुम कर्ता
हो,
तुम्हारी
शक्ति बाहर
नियोजित रहती
है। विचारक हो
तो शक्ति मन
में नियोजित
रहती है।
कर्ता हो तो
शरीर से बहती
रहती है, विचारक
हो तो मन से
बहती रहती है।
ऐसे तुम बूंद—बूंद
झरते रहते हो।
तुम कभी
संग्रह नहीं
हो पाते ऊर्जा
के। तुम्हारी
बाल्टी में
छेद हैं—स्ब
बह जाता है।
साक्षी
का इतना ही
अर्थ है कि न
तो कर्ता रहे, न
चिंतक रहे; थोड़ी देर को
कर्ता, चिंता
दोनों छोड़
दीं। कर्ता न
रहे तो शरीर
से अलग हो गये;
चिंतक न रहे
तो मन से अलग
हो गये। इस
शरीर और मन से
अलग होते ही
तुम्हारी
जीवन—ऊर्जा
संगृहीत होने
लगती है। गहन
गहराई आती है।
उस गहराई में
जो जाना जाता,
उसे ज्ञानी
साक्षी कहते;
भक्त
परमात्मा
कहते। वह शब्द
का भेद है।
दूसरा
प्रश्न :
आप
अष्टावक्र के
बहाने इतने
ऊंचे आकाश की
चर्चा कर रहे
हैं कि सब सिर
के ऊपर से बहा
जा रहा है। आप
जरा हमारी ओर
तो निहारिये!
हम त्रिशंकु की
भांति हैं। न
धरती पर हमारे
पैर जमे हैं, न
आकाश में उड़ने
की सामर्थ्य
है। कृपया
हमें देख कर
कुछ कहिये!
प्रश्न
महत्वपूर्ण
है। तुम्हें
देख कर ही कह
रहा हूं।
लेकिन अगर
तुमसे पार की
कोई बात न
कहूं तो कहने
में कुछ अर्थ
ही नहीं है।
अगर उतना ही कहूं
जितना तुम समझ
सकते हो तो
व्यर्थ है।
उतना तो तुम
समझते ही हो।
तुम्हें ही
देख कर कह रहा हूं,
इसलिए आकाश की
बात कर रहा
हूं। आकाश की
बात करूंगा, तो ही शायद
तुम आंखें
उठाकर आकाश की
तरफ देखो।
आकाश
तुम्हारा है।
तुम मालिक हो।
और तुम जमीन
पर आंखें
गड़ाये चल रहे
हो। जमीन पर आंखें
गड़ी होने के
कारण जगह—जगह
टकराते हो, जगह—जगह
गिरते हो।
जमीन
तुम्हारी है,
यह भी सच
है। आकाश भी
तुम्हारा है।
तुम्हारी आख
जमीन में ही
घिर कर समाप्त
न हो जाये, इसलिए
आकाश की बात
करनी जरूरी
है। तुम्हें
ही देख कर
आकाश की बात
कर रहा हूं।
निश्चित
ही बहुत कुछ
तुम्हारे सिर
के ऊपर से बह
जायेगा। जब
सिर के ऊपर से
कुछ बहता हो
तभी कुछ
संभावना है।
अगर तुम्हें
जो मैं कहूं
पूरा—पूरा समझ
में आ जाये तो
व्यर्थ हो
गया। उतना तो
तुम समझते ही
थे,
मैंने
तुम्हें कुछ
बढ़ाया नहीं, कुछ जोड़ा
नहीं।
तुम्हारी समझ
में बिलकुल न
आये तो भी
मेरा बोलना
व्यर्थ गया, तुम्हारी
समझ में पूरा
आ जाये तो भी
व्यर्थ गया।
अगर बिलकुल
समझ में न आये
तो बोला न
बोला बराबर हो
गया। बिलकुल
समझ में आ
जाये तो बोलना
व्यर्थ ही था,
बोलने की
कोई जरूरत ही
न थी; उतनी
तुम्हारी समझ
पहले से ही
थी।
तो
मुझे कुछ इस
ढंग से बोलना
होगा कि कुछ—कुछ
तुम्हारी समझ
में आये और
कुछ—कुछ
तुम्हारी समझ
में न आये। जो
समझ में आ
जाये उसके
सहारे उसकी
तरफ बढ़ने की
कोशिश करना जो
समझ में न आये।
तो विकास होगा, अन्यथा
विकास नहीं
होगा।
तुम
तो चाहोगे कि
मैं वही बोलूं
जो तुम्हारी समझ
में आ जाये।
तो फिर तुम
आगे कैसे
बढ़ोगे? थोड़ा—
थोड़ा तुम्हें
आगे सरकाना
है। इंच—इंच
तुम्हें आगे
बढ़ाना है। यह
भी मैं ध्यान
रखता हूं कि
तुम्हें
बिलकुल भूल ही
न जाऊं। ऐसा न हो
कि मैं इतने
आगे की बात
कहने लग कि
तुमसे उसका
संबंध ही न
जुड़ सके।
तुमसे संबंध
भी जुड़े और
तुमसे पार भी
जाती हो बात—इस
ढंग से ही
बोलना होगा।
सदगुरु
का यही अर्थ
है. तुमसे
कहता है, लेकिन
तुम्हारी
नहीं कहता।
तुमसे कहता है
और परमात्मा
की कहता है।
तो सदगुरु के
पास थोड़ी अड़चन
तो रहेगी।
सदगुरु कोई
तुम्हारा
मनोरंजन नहीं
कर रहा है, कि
तुमसे कुछ
बातें कह दीं,
तुम्हें
मजा आया, तुम्हें
आनंद आया, तुम्हें
रस मिला, तुम
चले गये।
तुमने कहा 'समय ठीक से
कटा। और वही
कहा जो मैं
पहले से समझता
हूं।’ तुम्हारी
अकड़ और गहरी
हो गयी।
तुम्हारा
अहंकार और
मजबूत हुआ कि
यह तो मैं
पहले से ही
समझता था।
सदगुरु
न तो तुम्हारा
मनोरंजन करता
है;
क्योंकि
मनोरंजन क्या
करना है? मनोभंजन
करना है।
मनोरंजन तो
बहुत हो चुका।
मनोरंजन कर—करके
ही तो तुम ने
गंवाए न मालूम
कितने जन्म, न मालूम
कितने जीवन!
मनोरंजन कर—करके
ही तो तुम
भटके हो सपने
में। अब तो
सपना तोड़ना
है। लेकिन
इतने झटके से
भी नहीं तोड़ना
है कि तुम
दुश्मन हो जाओ,
आहिस्ता—
आहिस्ता
तोड़ना है; धीरे
— धीरे तोड़ना
है।
तुम्हें
जगाना है।
तुम्हें
जगाना है, तो
यह बात ध्यान
रखनी होगी, तुम्हारा
ध्यान रखना
होगा और जहां
तुम्हें जगाना
है, जिस
परमलोक में
तुम्हें
उठाना है, उसका
भी ध्यान रखना
होगा।
जब
मैं तुमसे बोल
रहा हूं तो
तुमसे भी बोल
रहा हूं और
तुम्हारे पार
भी बोल रहा
हूं। जब मैं देखता
हूं बात बहुत
पार जाने लगी
तो मुल्ला नसरुद्दीन
को निमंत्रण
कर लेता हूं।
वह तुम्हारे
जगत में
तुम्हें खींच
लाता है। तुम
थोड़ा हंस लेते
हो,
तुम थोड़ा
मनोरंजित हो
जाते हो। जैसे
ही मैंने देखा
कि तुम हंस
लिये, फिर
आश्वस्त हो
गये; फिर
तुम्हें
हिलाने लगता
हूं। फिर
तुम्हें ऊपर
की तरफ ले
जाने की बात
कर रहा हूं।
आकाश की बात
करूंगा, तो
ही शायद तुम आंखें
उठाकर आकाश की
तरफ देखो।
आकाश
तुम्हारा है।
तुम मालिक हो।
और तुम जमीन
पर आंखें
गड़ाये चल रहे
हो। जमीन पर आंखें
गड़ी होने के
कारण जगह—जगह
टकराते हो, जगह—जगह
गिरते हो।
जमीन
तुम्हारी है,
.यह भी सच
है। आकाश भी
तुम्हारा है।
तुम्हारी आख
जमीन में ही
घिर कर समाप्त
न हो जाये, इसलिए
आकाश की बात
करनी जरूरी
है। तुम्हें
ही देख कर
आकाश की बात
कर रहा हूं।
निश्चित
ही बहुत कुछ
तुम्हारे सिर
के ऊपर से बह
जायेगा। जब
सिर के ऊपर से
कुछ बहता हो
तभी कुछ
संभावना है।
अगर तुम्हें
जो मैं कहूं
पूरा—पूरा समझ
में आ जाये तो
व्यर्थ हो
गया। उतना तो
तुम समझते ही
थे;
मैंने
तुम्हें कुछ
बढ़ाया नहीं, कुछ जोड़ा
नहीं।
तुम्हारी समझ
में बिलकुल न
आये तो भी
मेरा बोलना
व्यर्थ गया; तुम्हारी
समझ में पूरा
आ जाये तो भी
व्यर्थ गया।
अगर बिलकुल
समझ में न आये
तो बोला न
बोला बराबर हो
गया। बिलकुल
समझ में आ जाये
तो बोलना
व्यर्थ ही था,
बोलने की
कोई जरूरत ही
न थी; उतनी
तुम्हारी समझ
पहले से ही
थी।
तो
मुझे कुछ इस
ढंग से बोलना
होगा कि कुछ—कुछ
तुम्हारी समझ
में आये और
कुछ—कुछ तुम्हारी
समझ में न
आये। जो समझ
में आ जाये
उसके सहारे
उसकी तरफ बढ़ने
की कोशिश करना
जो समझ में न आये।
तो विकास होगा, अन्यथा
विकास नहीं
होगा।
तुम
तो चाहोगे कि
मैं वही बोलूं
जो तुम्हारी समझ
में आ जाये।
तो फिर तुम
आगे कैसे
बढ़ोगे? थोड़ा—
थोड़ा तुम्हें
आगे सरकाना
है। इंच—इंच
तुम्हें आगे
बढ़ाना है। यह
भी मैं ध्यान
रखता हूं कि
तुम्हें
बिलकुल भूल ही
न जाऊं। ऐसा न
हो कि मैं
इतने आगे की
बात कहने लग
कि तुमसे उसका
संबंध ही न
जुड़ सके।
तुमसे संबंध
भी जुड़े और
तुमसे पार भी
जाती हो बात—इस
ढंग से ही
बोलना होगा।
सदगुरु
का यही अर्थ
है : तुमसे
कहता है, लेकिन
तुम्हारी
नहीं कहता।
तुमसे कहता है
और परमात्मा
की कहता है।
तो सदगुरु के
पास थोड़ी अड़चन
तो रहेगी।
सदगुरु कोई
तुम्हारा
मनोरंजन नहीं
कर रहा है, कि
तुमसे कुछ
बातें कह दीं,
तुम्हें
मजा आया, तुम्हें
आनंद आया, तुम्हें
रस मिला, तुम
चले गये। तुमने
कहा. 'समय
ठीक से कटा।
और वही कहा जो
मैं पहले से
समझता हूं।’ तुम्हारी
अकड़ और गहरी
हो गयी।
तुम्हारा
अहंकार और
मजबूत हुआ कि
यह तो मैं
पहले से ही
समझता था।
सदगुरु न तो
तुम्हारा
मनोरंजन करता
है, क्योंकि
मनोरंजन क्या
करना है पर
मनोभंजन करना
है। मनोरंजन
तो बहुत हो
चुका।
मनोरंजन कर—करके
ही तो तुम ने
गंवाए न मालूम
कितने जन्म, न मालूम
कितने जीवन!
मनोरंजन कर—करके
ही तो तुम
भटके हो सपने
में। अब तो
सपना तोड़ना
है। लेकिन
इतने झटके से
भी नहीं तोड़ना
है कि तुम
दुश्मन हो जाओ,
आहिस्ता—आहिस्ता
तोड़ना है; धीरे—
धीरे तोड़ना
है।
तुम्हें
जगाना है।
तुम्हें
जगाना है, तो
यह बात ध्यान
रखनी होगी, तुम्हारा
ध्यान रखना
होगा और जहां
तुम्हें जगाना
है, जिस
परमलोक में
तुम्हें
उठाना है, उसका
भी ध्यान रखना
होगा।
जब
मैं तुमसे बोल
रहा हूं तो
तुमसे भी बोल
रहा हूं और
तुम्हारे पार
भी बोल रहा
हूं। जब मैं
देखता हूं बात
बहुत पार जाने
लगी तो मुल्ला
नसरुद्दीन को
निमंत्रण कर
लेता हूं। वह
तुम्हारे जगत
में तुम्हें
खींच लाता है।
तुम थोड़ा हंस
लेते हो, तुम
थोड़ा मनोरंजित
हो जाते हो।
जैसे ही मैंने
देखा कि तुम
हंस लिये, फिर
आश्वस्त हो
गये; फिर
तुम्हें
हिलाने लगता
हूं। फिर
तुम्हें ऊपर
की तरफ ले
जाने लगता हू।
मैं
जानता हूं जो
तुम्हारे हित
में है, वह
रुचिकर नहीं;
और जो
तुम्हें
रुचिकर है, वह तुम्हारे
हित में नहीं।
तुम्हें जहर
खाने की आदत
पड़ गयी है।
तुम्हें गलत
के साथ जीने
की.. वही
तुम्हारी
जीवन—शैली हो
गयी है। उससे
तुम्हें
हटाने के लिए
बड़ी कुशलता
चाहिए। और कुशलता
का जो
महत्वपूर्ण
हिस्सा है, वह यही है कि
तुमसे बात ऐसी
भी न कही जाये
कि तुम भाग ही
खड़े होओ; और
तुमसे बात ऐसी
भी न कही जाये
कि तुम बिलकुल
ही समझ लो।
तुम्हें
धक्का देना
है। तुम्हें आकाश
की तरफ ले
चलना है।
और
मैं पृथ्वी—विरोधी
नहीं हूं
ध्यान रखना।
पृथ्वी भी
आकाश का ही
हिस्सा है।
पृथ्वी आकाश
के अंगों में
एक अंग है। तो
मैं पृथ्वी
विरोधी नहीं
हूं। मैं तुम्हें
पृथ्वी से
उखाड़ नहीं
लेना चाहता।
मैं तो चाहता हूं,
पृथ्वी में भी
तुम्हारी
जड़ें गहरी
जायें, तभी
तो तुम्हारा
वृक्ष बादलों
से बातें कर
सकेगा, ऊंचा
उठेगा, आकाश
की तरफ चलेगा।
इसलिए
मैंने
संन्यास को
संसार के
विरोध में नहीं
माना है। तुम
बाजार में
रहो। तुम जहां
हो,
जैसे हो, जो तुम्हारी
पृथ्वी बन गयी
है, वहीं
रहो। इतना ही
ध्यान रखो कि
पृथ्वी में जड़ें
फैलाने का एक
ही प्रयोजन है
कि आकाश में
पंख फैल
जायें।
पृथ्वी से रस
लो आकाश में
उड़ने का।
पृथ्वी का
सहारा लो।
पृथ्वी के
सहारे अडिग
खड़े हो जाओ, अचल खड़े हो
जाओ। लेकिन
सिर तो आकाश
में उठना चाहिए।
जब तक बादल
सिर के पास न
घूमने लगें, तब तक समझना
कि जीवन अकारथ
गया; तुम
कृतार्थ न हुए।
मैं
तुम्हारी
अड़चन समझता
हूं तुम्हारी
कठिनाई समझता
हूं। लेकिन
तुम्हें धीरे —
धीरे इस नये
रस के लिए
राजी करना है।
अभी जो तुम्हारे
सिर पर से बहा
जाता है, एक
दिन तुम पाओगे
तुम्हारे
हृदय से बहने
लगा।
छोटा
बच्चा स्कूल
जाता है, तो
उससे हम कोई
विश्वविद्यालय
की बातें नहीं
करते। पहली
कक्षा के
विद्यार्थी से
पहली कक्षा की
ही बात करते
हैं। लेकिन
जैसे—जैसे
दूसरी कक्षा
में जाने का
समय करीब आने
लगता है वैसे—वैसे
उससे हम थोड़ी—सी
दूसरी कक्षा
की भी बात
करते हैं। वह
उसकी समझ में
नहीं आती। आती
भी है, नहीं
भी आती।
धुंधली— धुंधली
आती है। लेकिन
उसकी बात करनी
पड़ती है। अब दूसरी
कक्षा में
जाने का समय आ
गया। जो
विद्यार्थी
उस दूसरी
कक्षा में
जाने की बात न
समझ पायेंगे,
उन्हें फिर
पहली कक्षा
में अगले वर्ष
लौट आना पड़ेगा।
जो थोड़ा—सा रस
दूसरी कक्षा
में जाने का
उठा लेंगे, वे दूसरी
कक्षा में
प्रविष्ट हो
जायेंगे! ऐसे
धीरे— धीरे
फिर तीसरी
कक्षा है, और
कक्षाएं हैं,
और कक्षाएं
हैं।
तुम्हारे
सिर पर से बात
निकल जाती है, उसका
क्या अर्थ? उसका इतना
अर्थ है कि
तुमने अब तक
उतनी ऊंचाई तक
अपने सिर को
उठाने की
कोशिश नहीं
की। अब दो उपाय
हैं. या तो मैं
अपनी बात को
नीचे ले आऊं
ताकि
तुम्हारे
हृदय से निकल
जाये..।
तुम्हारे
हृदय से फिल्म
निकल जाती है, नाटक
निकल जाता है;
अष्टावक्र
नहीं निकलते।
फिल्म में
बुद्ध से बुद्ध
आदमी भी रस—विमुग्ध
हो कर बैठ
जाता है। तीन
घंटे भूल ही जाता
है। सब निकल
जाता है।
देखते हो तुम,
फिल्म भी
ऊपर नहीं उठ
पाती।
'विजयानंद' मेरे पास
आते हैं। तो
उनको मैंने
कहा. कुछ थोड़ा
ऊपर इसे
खींचो।
उन्होंने कहा
: ऊपर खींचो तो चलती
नहीं। लोग
नीची से नीची
बात चाहते
हैं। फिर भी
मैंने उनसे
कहा थोड़ी
.हिम्मत करो।
उन्होंने
हिम्मत की, तो दिवाला
डावांडोल हो गया।
दों—तीन
फिल्में
बनायीं कि जरा
ऊंचा ले जायें,
लेकिन वे
चलती नहीं।
कोई देखने
नहीं आता। तुम
वही देखना
चाहते हो जो
तुम हो। तुम
अपनी ही प्रतिछवि
देखना चाहते
हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
फिल्म देखने
गया। उसमें एक
दृश्य आता है
कि एक स्त्री
अपने वस्त्र उतार
रही है तालाब
के किनारे।
मुल्ला बड़ी
उत्सुकता से
देख रहा है।
रीढ़ सीधी कर
ली। बिलकुल
ध्यानस्थ हो
गया—जैसा
बुद्ध वगैरह
बैठते हैं, जब
वे परमात्मा
के निकट
पहुंचते हैं,
तब रीढ़ सीधी
हो जाती है, श्वास ठहर
जाती है, अपलक
आंखें नहीं
झुकती, नहीं
हिलती। वह
बिलकुल अपलक
हो गया। वही
नहीं हो गया, पूरा सिनेमा
हॉल हो गया।
सब अपनी सीटों
पर सध कर बैठ
गये, हठयोगी
हो गये एक
क्षण को। वह
आखिरी वस्त्र
उतारने जा रही
थी, बस
आखिरी वस्त्र
रह गया था, तभी
एक ट्रेन
धड़धड़ाती हुई
निकल गयी। वह
स्त्री उस तरफ
पड़ गयी, तालाब
उस तरफ पड़
गया। सब बड़े
उदास और थके
मन से वापिस
अपनी
कुर्सियों से
टिक कर बैठ
गये। लेकिन
मुल्ला ने
जाने का नाम न
लिया। यह पहला
शो था। वह
दूसरे में भी
बैठा रहा। वह
तीसरे में भी
बैठा रहा।
आखिर मैनेजर
आया। उसने कहा
: 'क्या
विचार है? क्या
यहीं रहने का
तय कर लिया?' उसने कहा
कभी तो ट्रेन
लेट होगी। मैं
जाऊंगा नहीं!
कभी... भारतीय
ट्रेनें हैं,
इनका क्या
भरोसा! कभी
आधा घड़ी भी
लेट हो गयी, क्षण भर की
बात है!
वह
नग्न स्त्री
को देखने का......।
ट्रेन तो निकल
जाती है, तब तक
वह स्त्री
तालाब में तैर
रही है। तब
उसका सिर ही
दिखाई पड़ता है,
कुछ और
दिखाई पड़ता
नहीं।
फिल्म
तुम्हारे
हृदय से निकल
जाती है।
फिल्मी गाना
तुम्हारे
हृदय से निकल
जाता है। अगर
धर्म की बात
भी कभी
तुम्हारे
हृदय से
निकलती है तो
वह भी जब तक
नीचे तल पर न आ
जाये तब तक
नहीं निकलती
है।
इसलिए
तो लोग रामायण
पढ़ते हैं, अष्टावक्र
की गीता नहीं
पढ़ते। रामायण
पुराने ढंग की
फिल्मी बात
है। वह पुरानी
कथा है। वही
ट्राइएंगल
सभी फिल्मों
में है—दो
प्रेमी और एक
प्रेयसी।
तुम
जरा रामायण की
कथा का गणित
तो समझो—वही
का वही है, जो
हर फिल्म का
गणित है। दो
प्रेमी एक
प्रेयसी के
लिए लड़ रहे
हैं। सारा
संघर्ष है, ट्राइएंगल,
त्रिकोण चल
रहा है। वह
जरा पुराने
ढंग की शैली
है। पुराने
दिन में लिखी
गयी है। लेकिन
मामला तो वही
है।
राम, रावण,
सीता की कथा
खूब लोग देखते
रहे सदियों
से। राम—कथा
चलती ही रहती
है। रामलीला
चलती रहती है
गांव—गांव, अष्टावक्र
की गीता कौन
पढ़ता है! वहां
कोई त्रिकोण
नहीं है। कृष्ण
की गीता में
भी थोड़ा रस
मालूम होता है,
क्योंकि
युद्ध है, हिंसा
है और सनसनी
है। सनसनीखेज
है! महाभारत का
पूरा दृश्य
बड़ा सनसनीखेज
है।
तुमने
देखा, जब
युद्ध होने
लगता है तो
तुम
ब्रह्ममुहूर्त
में उठ कर ही
एकदम अखबार
पूछने लगते हो,
'अखबार कहां?
क्या हुआ? भारत—पाकिस्तान
के बीच क्या
हो रहा है? इजिप्त—इजरायल
के बीच क्या
हो रहा है?' कहीं
युद्ध चल पड़े
तो लोगों की आंखों
में चमक आ
जाती है। कहीं
किसी की छाती
में छुरा भुंकने
लगे 'तो बस,
तुम तल्लीन
हो कर रुक
जाते हो। राह
पर देखा—मां
की दवा लेने
जाते थे
साइकिल पर
भागे—दो आदमी
लड़ रहे थे।
भूल गये मां
और सब, टिका
दी साइकिल और
खड़े हो गये
देखने के लिए
कि क्या हो
रहा है। बड़ा
रस आता है!
जहं।
युद्ध है, हिंसा
है, कामवासना
है, वहा
तुम्हारा रस
है। लेकिन
इससे जागरण तो
नहीं होगा!
इससे तुम 'ऊपर
तो नहीं
उठोगे। इसी से
तो तुम जमीन
के कीड़े बन
गये और जमीन
पर घिसट रहे
हो। तुम्हारी
रीढ़ ही टूट
गयी है।
तो
मुझे तुमसे
कुछ बात कहनी
हो तो दो उपाय
हैं. या तो मैं
सारी बात को
उस तल पर ले
आऊं जहां तुम समझ
सकते हो।
लेकिन तब मुझे
कहने में रस
नहीं है, क्योंकि
क्या प्रयोजन
है? वह तो
फिल्में
तुमसे कह रही
हैं; नाटककार
तुमसे कह रहे
हैं, रामलोलाए
तुमसे कह रही
हैं। वह तो
कोई भी कह देगा।
सारी दुनिया
उसे कह रही
है। उसके लिए
कहीं तुम्हें
जाने की जरूरत
नहीं है। सारी
दुनिया
तुम्हें खींच
कर बुला रही
है कि आओ, यहां
कह देंगे।
दूसरा उपाय यह
है कि तुम्हें
मैं समझाऊं कि
तुम्हारा सिर
इतना नीचा
नहीं है जितना
तुमने मान रखा
है। जरा सीधे
खड़े होओ, झुकना
छोड़ो। जो अभी
सिर के ऊपर से
निकला जा रहा
है, जरा
सिर को ऊंचा
करो तो सिर के
भीतर से
निकलने लगेगा।
और एक बार सिर
के भीतर से
निकलने लगे तो
थोड़े और ऊंचे
उठो। तुम्हारी
ऊंचाई का कोई
अंत है!
तुम्हारे
भीतर भगवान
छिपा बैठा है।
आखिरी ऊंचाई
तुम्हारी
मालकियत है—तुम्हारी
नियति है, तुम्हारा
भाग्य है। तुम
इतने ऊंचे हो
सकते हो जितनी
ऊंचाई हो सकती
है—गौरीशंकर
पीछे छूट
जायें, हिमालय
छोटे पड़
जायें! जब
बुद्धों के
सिर ने आकाश
की अंतिम
ऊंचाई को छुआ
है, तो सब
हिमालय छोटे
पड़ गये। और
हिमालय की
शीतलता
साधारण हो
गयी। तुम इतने
ही ऊंचे होने
की संभावना
लिये बैठे हो।
अभी दिखाई
नहीं पड़ती, मानता हूं।
तुम्हें भी
समझ में नहीं
आती। कितना ही
कहूं, तब
भी समझ में
नहीं आती।
किसी
बीज से कहो कि 'घबरा
मत, तू
छोटा नहीं है,
महावृक्ष
हो जायेगा; तेरे नीचे
हजार
बैलगाड़ियां
ठहर सकेंगी, ऐसा वट—वृक्ष
हो जायेगा।
घबरा मत! —हजारों
पक्षी तुझ पर
विश्राम
करेंगे। और
थके—मांदे
यात्री तेरे
नीचे छाया में
ठहरेंगे, राहत
लेंगे, धन्यवाद
देंगे।’ वह
बीज
कसमसायेगा।
वह कहेगा.
छोड़ो भी, किसकी
बातें कर रहे
हो? मुझे
देखो तो, इतना
छोटा, जरा—सा
कंकड़ जैसा—
क्या होने
वाला है?
तुम
अभी बीज हो।
तुम्हें अपनी
ऊंचाई का पता
नहीं। तुम वट—वृक्ष
हो सकते हो।
तो सारी
चेष्टा यह है
कि तुम वट—वृक्ष
होने में लगो।
निश्चित ही
इतनी दूर की
बात भी नहीं
करता कि तुम्हें
सुनाई ही न
पड़े। तुम्हें
सुनाई पड़ जाये, इतने
करीब लाता हूं;
लेकिन
बिलकुल समझ
में आ जाये, इतने नीचे
नहीं लाता। तो
बस तुम्हारे
सिर के ऊपर से
निकालता हूं।
इतने करीब है
कि तुम्हारा मन
होगा कि जरा
झपट कर ले ही लें
हाथ में। कोई
ज्यादा दूर भी
नहीं मालूम पड़ती,
हाथ बढ़ाया
कि मिल
जायेगी।
वह
देखो, आदमी
हाथ बढ़ाता है
तो सब मिल
जाता है! चांद
पर हाथ बढ़ाया
तो चांद मिल
गया। सपने सच
हो जाते हैं।
तो मैं तो जो
कह रहा हूं उसके
लिए किसी
उपकरण की
जरूरत नहीं है,
कोई बड़ी
टेक्यालॉजी की
जरूरत नहीं
है।
अष्टावक्र जो
कह रहे. हैं, उसका पूरा
उपकरण ले कर
तुम पैदा हुए
हो। जरा—सी आख
को ऊपर उठाओ।
मंसूर
को सूली लगायी
गयी,
तो जब उसे
सूली के तख्ते
पर लटकाया गया
तो वह हंसने
लगा। तो भीड़
में से किसी
ने पूछा. 'मंसूर,
हम समझते
नहीं, तुम
हंस क्यों रहे
हो? यह कोई
हंसने का वक्त
है? लोग
पत्थर फेंक
रहे हैं, जूते
फेंक रहे हैं,
सड़े टमाटर
फेंक रहे हैं;
गालियां दे
रहे हैं। और
हाथ—पैर
तुम्हारे
काटे जा रहे
हैं और तुम
मरने के करीब
हो। गर्दन
उतार ली
जायेगी
जल्दी। तुम हंस
रहे हो?' उसने
कहा. मैं
इसलिए हंस रहा
हूं कि मैंने
प्रभु से कहा
है कि हे
प्रभु, ये
बेचार—कोई लाख
आदमी इकट्ठे
हो गये थे—इन्होंने
कभी आकाश की
तरफ नहीं
देखा। चलो मेरे
बहाने, मुझे
सूली पर लटका
देखने के लिए
ये ऊपर तो देख रहे
हैं! चलो मेरे
बहाने
इन्होंने जरा
ऊपर तो देखा!
अगर
तुमने ईसा को
सूली पर लटकते
समय जरा ऊपर
देखा, तो भी
तुम पाओगे कि
ऊपर तुम देख
सकते हो। तुम्हारी
गर्दन में
लकवा नहीं लगा
हुआ है, सिर्फ
आदत खराब है।
तो
जो तुम्हारी
समझ में आ
जाये, उसकी तो
फिक्र मत
करना। जो
तुम्हारी समझ
में न आये, उससे
चुनौती लेना।
उसे समझने की
कोशिश करना—आयेगा!
आ कर रहेगा!
आना ही चाहिए!
क्योंकि जब
अष्टावक्र को आ
सकता है तो
तुम्हें
क्यों नहीं? आठों अंग
टेढ़े थे, उनकी
अक्ल में आ
गया।
तुम्हारे तो
आठों अंग टेढ़े
नहीं हैं। सब
तरफ से झुके
होंगे, आठ
अंग टेढ़े थे, उनको आकाश
दिखाई पड़ गया,
तो तुम तो
सीधे खड़े हो, भले —चंगे, तुम्हें आकाश
दिखाई न पड़ेगा?
जनक को समझ
में आ गया
सारे राग—रंग
के बीच, सारे
वैभव, उपद्रव
के बीच, बाजार
के बीच—तो
तुम्हें समझ
में न आयेगा? तुम पर तो
प्रभु की बड़ी
कृपा है. उतना
राग—रंग भी
नहीं दिया, उतना बाजार
भी नहीं दिया,
जितना जनक
को था। जनक को
भी समझ में आ
गया, तुम्हें
भी आ सकता है।
जो
एक आदमी को
हुआ वह सभी को
हो सकता है।
जो एक आदमी की
क्षमता है, वह
सभी आदमियों
की क्षमता है।
आदमी— आदमी एक—सा
स्वभाव ले कर
आये हैं, एक—सी
संभावना ले कर
आये हैं।
तो
मैं तुम्हारे
ऊपर की थोड़ी
बात कहूं तो
तुम नाराज मत
होना।
हालांकि यह
मैं खयाल रखता
हूं कि बात
बहुत ऊपर न
चली जाये; बिलकुल
ही, तुम्हारी
समझ के बिलकुल
बाहर न हो
जाये। थोड़ा तुम्हारी
समझ को खनकाती
रहे। दूर की
ध्वनि की तरह
तुम्हें
सुनाई पड़ती
रहे। पुकार
आती रहे। तो
तुम धीरे—
धीरे इस रस्सी
में बंधे..।
माना कि यह
धागा बड़ा पतला
है, मगर इस
धागे में अगर
तुम बंध गये
तो खींच लिये
जाओगे।
तुम
जहां हो अभी, चाहता
हूं कि
तुम्हें समझ
में आ जाये कि
तुम कारागृह
में हो।
राजमहल
का पाहुन जैसा
तृण—कुटिया
वह भूल न पाये
जिसमें
उसने हों बचपन
के
नैसर्गिक
निशि—दिवस
बिताये
मैं
घर की ले याद
कड़कती
भड़कीले
साजों में
बंदी
तन
के सौ सुख सौ
सुविधा में
मेरा
मन बनवास दिया—सा।
सुभग
तरंगें उमग
दूर की
चट्टानों
को नहला आतीं
तीर—नीर
की सरस कहानी
फेन
लहर फिर—फिर
दोहराती
औ' जल
का उच्छवास
बदल
बादल
में कहा—कहा
जाता है!
लाज
मरा जाता हूं
कहते
मैं
सागर के बीच
प्यासा
तन
के सौ सुख सौ
सुविधा में
मेरा
मन बनवास दिया—सा!
तुम्हें
इतनी भर याद आ
जाये—तुम्हारे
निसर्ग की, तुम्हारे
स्वभाव की, तुम्हारे
असली घर की! यह
जो तुमसे कहे
चला जाता हूं
तुम्हारे
असली घर की
प्रशंसा में
है। यह जो
तुम्हें आज
सपना—सा लगता
है, सपना
ही सही, लेकिन
तुम्हें पकड़
ले, तुम्हें
झकझोर दे।
इसकी पुकार
तुम्हारे प्राणों
में यात्रा का
एक आवाहन बन
जाये—स्व
उदघोष, एक
अभियान!
तुम्हें इतनी
ही याद आ जाये
कि निसर्ग से
तुम आनंद को
ही उपलब्ध हो;
वही
तुम्हारा
असली घर है।
और जहां तुमने
घर बना लिया
वह परदेश है।
धर्मशाला को
घर समझ लिया
है। सराय को
घर समझ लिया
है। सराय छोड़ने
को भी नहीं कह
रहा हूं कि
तुम सराय को
छोड़ दो। कहता
हूं : इतना ही
जान लो कि
सराय है। इतना
जानते ही सब
रूपांतरण हो
जायेगा।
निश्चित
ही अड़चन भी
होगी।
क्योंकि जब भी
कोई जीवन को
बदलने की
कोशिश करता है
तो अड़चन भी
होती है। यह
सब सुविधा—सुविधा
से नहीं भी हो
सकता है।
रास्ते पर फूल
ही फूल नहीं, कांटे
भी हैं। और
तुम नहीं समझ
पाते बहुत—सी
बातें—सिर्फ
इसीलिए कि तुम
नहीं समझना
चाहते, नहीं
कि तुम्हारी
समझ अधूरी है।
तुम डरते हो कि
अगर समझ लिया
तो फिर चलना
पड़े।
मैं
एक गांव में
था। जिनके घर
मैं मेहमान था, उनका
मुझमें बड़ा रस
था। लेकिन मैं
चकित हुआ कि
उनकी पत्नी
कभी आकर बैठी
नहीं। उसने, जब मैं आया
द्वार पर तो
फूलमाला से
मेरा स्वागत
किया, दीये
से आरती उतारी,
लेकिन फिर
जो गुमी तो
पता नहीं चला।
तीन दिन वहां
था। किसी सभा
में नहीं आयी,
किसी बैठक
में नहीं आयी।
घर पर न मालूम
कितने लोग आये—गये,
लेकिन
पत्नी का पता
नहीं। चलते
वक्त वह फिर
फूलमाला ले कर
आ गयी, तब
मुझे खयाल
आया। मैंने
पूछा कि आते
वक्त तेरा
दर्शन हुआ था,
अब जाते
वक्त हो रहा
है; बीच
में तू दिखाई
नहीं पड़ी।
उसने कहा अब
आपसे क्या
कहूं मैं डरती
हूं। आपकी बात
सुन ली तो फिर
करनी पड़ेगी।
मैं डरती हूं।
अभी मेरे छोटे—छोटे
बच्चे हैं। और
मैं तो बड़ी
भयभीत रहती
हूं। मैं तो
अपने पति को
भी समझाती हूं
कि तुम भी सुनो
मत। नहीं कि
बात गलत है, बात ठीक ही
होगी। बात में
आकर्षण है, बुलावा है—ठीक
ही होगी। मगर
मैं अपने पति
को भी कहती
हूं तुम सुनो
मत! लेकिन पति
मानते नहीं।
मैंने
कहा तू उनकी
फिक्र मत कर।
वे तो मुझे कई साल
से सुनते हैं, कुछ
हुआ नहीं। वे
तो चिकने घड़े
हैं, खतरा
तेरा है।
चिकने घड़े
हैं! वे तो आदी
हो गये सुनने
के। या उलटे
रखे हैं; वर्षा
होती
रहती है, वे
खाली के खाली
रह जाते हैं।
मैंने
कहा. कारण भी
है। वे मुझे
सुनते है, उस
सुनने में
धर्म की
जिज्ञासा
नहीं है। साहित्यकार
हैं वे। और जो
मैं कहता हूं
उसमें साहित्यिक
रस है उन्हें।
अब
यह बिलकुल अलग
बात हो गयी।
यह तो ऐसा ही
हुआ कि मिठाई
रखी है और
कारपोरेशन का
इंस्पेक्टर
आया। उसे
मिठाई में रस
नहीं है। वह
मिठाई के
आसपास देख रहा
है कि कोई मक्खी—मच्छर
तो नहीं चल
रहे?
ढांक कर रखी
गयी है कि
नहीं? बिक
सकती है कि
नहीं? उसका
अलग रस है।
एक
वनस्पतिशास्त्री
बगीचे में आ
जाये तो वह ये
फूल नहीं
देखता जो
सुंदर हो कर
खिले हैं, कलियां
नहीं देखता जो
तैयार हो रही
हैं, जल्दी
ही गंध
बिखरेगी। वह
यह कुछ नहीं
देखता। उसे
दिखाई पड़ता है
वनस्पति कौन—सी
जाति की है? नाम क्या? पता क्या?
अलग—अलग
लोगों की अलग—
अलग पकड़ है।
एक
चमार बैठा
रहता है
रास्ते पर। वह
तुम्हें नहीं
देखता, तुम्हारा
चेहरा नहीं, वह जूते
देखता रहता है,
वह जूतों से
पहचानता रहता
है, कैसा
आदमी है। अगर
जूते की हालत
अच्छी है तो आदमी
की आर्थिक
हालत अच्छी
है। दर्जी
कपड़े देखता है,
तुम्हें
थोड़े ही देखता
है! कपड़े देख
कर पहचान लेता
है।
हर
आदमी के अपने
देखने के ढंग
हैं।
मैने
कहा. वे मुझे
सुनते हैं, लेकिन
उनके सुनने
में कोई
धार्मिक
अभिरुचि नहीं
है। वे किसी
जीवन—क्रांति
के लिए उत्सुक
नहीं हैं।
उन्हें सुनने
में अच्छा लगता
है। सुनने में
उन्हें रस है;
जो मैं कह
रहा हूं,
उसमें रस नहीं
है। वे कहते
हैं कि आपके
कहने की शैली
मधुर है। शैली
में रस है।
शैली का क्या
खाक करोगे? चाटोगे? ओढोगे,
बिछाओगे, खाओगे—क्या
करोगे शैली का?
थोड़ी देर
मंत्र—मुग्ध
कर जावेगी, फिर तुम
खाली के खाली
रह जाओगे।
उन्हें सत्य में
रस नहीं है, सत्य की
अभिव्यक्ति
में रस है।
इसलिए तू उनके
लिए तो घबड़ा
मत, लेकिन
तू सावधान
रहना।
और
यही हुआ। जब
दोबारा मैं
गया तो उनकी
पत्नी ने
संन्यास
लिया। पति तो
बोले कि बड़ी
हैरानी की बात
है,
तू तो कभी
सुनती नहीं!
उसने कहा. मैं
चोरी—छिपे
पढ़ती हूं। जब
कोई नहीं देख
रहा होता, तब
मैं पढ़ती हूं।
मैं डरी—डरी
पढ़ती हूं कि
ये बातें तो
ठीक हैं।
लेकिन पिछली बार
जब उन्होंने
कहा कि तेरे
लिए खतरा है, तब से बात
चोट कर गयी।
पति अभी भी
संन्यासी नहीं
हैं, पत्नी
संन्यासी हो
गयी। कभी सुना
नहीं, कभी
ज्यादा करीब
आयी नहीं।
ध्यान
रखना, अड़चन
है। तुम कई
बातें सुनना
नहीं चाहते।
इसीलिए तुम
सिर को झुका
लेते हो और
ऊपर से निकल
जाने देते हो।
अगर तुम सुनना
चाहो तो तुम
सिर को ऊंचा
उठा लोगे और
सिर में से
निकलने दोगे।
अगर तुम
वस्तुत: सुनना
चाहो तो तुम
इतने ऊंचे खड़े
हो जाओ कि वे
ही बातें हृदय
से निकलने
लगेंगी। और जब
तक बातें हृदय
से न निकल
जायें तब तक क्रांति
नहीं आती; यद्यपि
हृदय से निकलें
तो बड़ा उपद्रव
मचता है, अराजकता
फैलती है।
ठीक
है,
मैंने ही
तेरा नाम ले
कर पुकारा था
पर
मैंने यह कब
कहा था कि यूं
आ कर मेरे दिल
में जल?
मेरे
हर उद्यम में
उघाड़ दे मेरा
छल
मेरे
हर समाधान में
उछाला कर सौ —सौ
सवाल अनुपल
नाम? नाम
का एक तरह का
सहारा था
मैं
थका—हारा था, पर
नहीं था किसी
का गुलाम
पर
तूने तो आते
ही फूंक दिया
घर—बार
हिया
के भीतर भी
जगा दिया नया
हाहाकार
ठीक
है,
मैंने ही
तेरा नाम ले
कर पुकारा था
पर
मैंने यह कब
कहा था कि यूं
आ कर मेरे दिल
में जल?
जब
तुम सुन लोगे
तो जलोगे। जब
सुन लोगे तो
एक ज्योति
उठेगी। जो
रोशनी तो
बनेगी बहुत
बाद में, पहले
तो जलन बनेगी।
खयाल
किया तुमने, प्रकाश
के दो अंग हैं :
एक तो है
जलाना और एक
है रोशन करना।
पहले तो जब
रोशनी
तुम्हारे
जीवन में
आयेगी तो तुम
जलोगे, क्योंकि
तुम उससे
बिलकुल
अपरिचित हो।
पहले तो वह
सिर्फ गरमी
देगी; उबालेगी
तुम्हें; वाष्पीभूत
करेगी। फिर
बाद में जब
तुम उससे राजी
होने लगोगे तो
धीरे — धीरे
रोशनी बनेगी।
पहले तो किरण
अंगार की तरह
आती है, दीया
तो बहुत बाद
में बनती है।
तो तुम डरते
हो।
तुममें
से कई को मैं
देखता हूं सिर
झुकाये सुन
रहे हो। ऊपर
से निकल जाने
देते हो कि
जाने दो, अभी
अपना समय नहीं
आया है। और
सबके अपने—
अपने बहाने
हैं बचने के।
तुम अगर कभी
प्रभु का नाम
भी पुकारते
हो.......।
नाम? नाम
का एक तरह का
सहारा था
मैं
थका—हारा था, पर
नहीं था किसी
का गुलाम
पर
तूने तो आते
ही फूंक दिया
घर—बार
हिया
के भीतर भी
जगा दिया नया
हाहाकार।
कबीर
ने कहा है. जो
घर बारे आपना
चले हमारे संग।
घर जलाने की
हिम्मत हो तो
ये बातें समझ
में आयेंगी।
जहां तुम बस
गये हो वहां
से उखड़ने का साहस
हो तो ये
बातें समझ में
आयेंगी, तो
तुम सुनोगे; तो तुम
गुनोगे। और
गुनते ही
तुम्हारे
जीवन में क्रांति
शुरू हो जायेगी।
ये
बात सिर्फ
बातें नहीं
हैं;
ये क्रांति.
के सूत्र हैं।
लेकिन मैं
जानता हूं बड़ी
अड़चन .है।
अड़चन
तुम्हारी तरफ
से 'है।
ऊंचे से ऊंचा
तुम्हारी पकड़
के भीतर है।
पहुंच के भीतर
भला न हो, मगर
पकड़ के भीतर
है। बात को
खयाल में ले
लेना। जब मैं
कहता हूं
पहुंच के भीतर
नहीं है, तो
उसका अर्थ
इतना है कि
तुमने अब तक
प्रयास नहीं
किया है। तुम
वहा तक अपना
पहुंचा नहीं
ले गये, नहीं
तो पहुंच के
भीतर हो जाते।
तुम पहुंचा नीचे
डाले हो? इसलिए
पहुंच के भीतर
नहीं है।
लेकिन पकड़ के
भीतर तो है
ही। जब भी तुम
पकड़ना चाहोगे,
पकड़ लोगे।
इस
जगत मैं ऐसा
कोई सत्य कभी
नहीं कहा गया
है और कहा
नहीं जा सकता
जो मनुष्य—मात्र
की पकड़ के
भीतर न हो।
लेकिन
बड़ी घबराहटें
हैं। बुद्धों
की बातें सुननी, समझनी—दाव
लगाना है, जुआरी
का दाव।
एक
व्यक्ति पातक
इसलिए करता है
कि
सबके भीतर पाप
के भाव भरे
हैं
जहां
भी पुण्य की
वेदी है, मैं
मारू का धुआं
हूं
मंडप
से झूलता
फूलों का
बंदनवार हूं
और
जो पाप करके
लौटा है उसके
पातक का
मैं
बराबर का
हिस्सेदार
हूं
एक
उपकारी सबके
गले का हार है
और
जिसने मारा या
जो मारा गया
है
उनमें
से हरेक
हत्यारा है
और
हरेक हत्या का
शिकार है
मैं
दानव से छोटा
नहीं, न वामन
से बड़ा हूं
सभी
मनुष्य एक ही
मनुष्य हैं
सबके
साथ मैं
आलिंगन में
खड़ा हूं
वह
जो हार कर बैठ
गया
उसके
भीतर मेरी ही
हार है
वह
जो जीत कर आ
रहा है
उसकी
जय में मेरी
ही जयजयकार
है।
जब
बुद्ध कहते
हैं,
तुम बुद्ध
हो—तो यह बात
प्रीतिकर
लगती है, लेकिन
इसका एक दूसरा
हिस्सा भी है
जो अप्रीतिकर
है। वह
अप्रीतिकर यह
है कि जब
बुद्ध कहते
हैं तुम बुद्ध
हो, तो वे
यह भी कह रहे
हैं कि तुम
महापापी भी
हो। क्योंकि
हम सब संयुक्त
हैं, जुड़े
हैं।
कहते
हैं,
बुद्ध को जब
ज्ञान हुआ और
जब ब्रह्मा ने
उनसे पहली बार
पूछा कि आप
ज्ञान को
उपलब्ध हो गये?
तो बुद्ध ने
कहा. मैं! मैं
ही नहीं, मेरे
साथ सारा जगत
शान को उपलब्ध
हो गया। के पत्ते
और पहाड़ों के
पत्थर और नदी—झरने
और मनुष्य और
पशु—पक्षी सब
मेरे साथ
मुक्त
वृक्षों हो
गये, क्योंकि
मैं जुड़ा हूं।
ब्रह्मा
को बात समझ
में न आयी।
फिर अंतिम
कहानी है। यह
तो प्रथम
कहानी हुई; बुद्ध
को ज्ञान हुआ,
तब घटी। फिर
अंतिम कहानी
है कि बुद्ध
जब स्वर्ग के
द्वार पर गये,
द्वार खोला,
ब्रह्मा
स्वागत को आया,
तो वे वहीं
अड़े रह गये।
ब्रह्मा ने
कहा : भीतर आयें।
हम प्रतीक्षा
कर रहे हैं।
बुद्ध
ने कहा. मैं
कैसे भीतर आऊं
न: जब तक एक भी
बाहर है, मेरा
भीतर आना कैसे
हो सकता है? हम सब साथ
हैं। जब सारा
जगत भीतर
आयेगा तभी मैं
भीतर आऊंगा।
ये
दो कहानियां
दो कहानियां
नहीं, एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
तो
जब कोई तुमसे
कहता है
तुम्हारे
भीतर भगवान है, तो
तुम्हारा
अहंकार इसको
तो स्वीकार भी
कर ले कि ठीक, यह कुछ
विपरीत बात
नहीं; लेकिन
जब कोई कहेगा,
तुम्हारे
भीतर महापापी
से महापापी भी
है, तब
बेचैनी होती
है। जब यह कहा
जाता है कि एक
ही है, तब
तुम बार—बार
सोचने लगते हो,
राम से अपना
संबंध जुड़
गया। रावण से
भी जुड़ गया—जब
एक ही है! तो
तुम रावण भी
हो
और राम भी हो।
जब कहा जाता
है कि
तुम्हारा जीवन
एक सीढ़ी है, तो
यह तो सोच
लेते हो कि
सीढ़ी स्वर्ग
पर लगी है।
लेकिन एक पाया
नीचे नर्क में
टिका है और एक
पाया स्वर्ग
में टिका है।
ये दोनों
द्वार खुलते
हैं।
मनुष्य
नीचे भी जा
सकता है, ऊपर
भी जा सकता है।
ऊपर जाने की
संभावना
इसीलिए है कि
नीचे गिर जाने
की भी संभावना
है। और सीढ़ी
तो निरपेक्ष
है, निष्पक्ष
है। सीढ़ी यह न
कहेगी कि नीचे
न जाओ; सीडी
यह न कहेगी कि
ऊपर न जाओ। यह
फैलाव बहुत बड़ा
है। नीचे —ऊपर
दोनों तरफ अतल
दिखाई पड़ता
है। तुम घबड़ा
जाते हो। तुम
कहते हो. अपने
पायदान पर, अपने सोपान
पर बैठे रहो
आख बंद किये, यहीं भले
हो। यह तो बड़ा
लंबा मामला
दिखता है। कहां
जाओगे? यहां
तो पत्नी है, बच्चे हैं, घर—द्वार है;
बैंक में
बैलेंस भी है
छोटा—मोटा। सब
काम ठीक चल
रहा है। कहां
जाते हो नीचे!
नीचे
दिखता है महा
अंधकार। वह भी
घबड़ाता है।
ऊपर. ऊपर
दिखता है महा
प्रकाश। वह भी
आंखों को
चौंधियाता
है। तुम दोनों
से घबड़ा कर
अपने ही
पायदान को जोर
से पकड़ लेते
हो। तो तुम
सुनना नहीं
चाहते। सुनना
चाहो तो सिर
ऊपर उठने लगेगा।
सुनना चाहो।
इसलिए
इस ढंग से
कहता हूं कि
कुछ—कुछ
तुम्हारा मन
भी तृप्त होता
रहे कि तुम
भाग ही न जाओ।
लेकिन अगर तुम्हारा
मन ही तृप्त
करता रहूं तो
फिर मैं सदगुरु
नहीं। फिर तो
एक मनोरंजन
हुआ। वही
मनोरंजन चल
रहा है दुनिया
में। लोग कथा
सुनने जाते हैं, क्योंकि
कथा में रस
आता है। यह भी
कोई बात हुई? यह तो ऐसा
हुआ कि हीरे —जवाहरात
ले गये और
बाजार में बेच
कर कुछ सड़ी
मछलियां खरीद
लाये, क्योंकि
मछलियों में
रस आता है। रस—रस
की बात है।
मैंने
सुना, एक
स्त्री गांव
से लौटती थी
बेचकर अपनी
मछलियां, धूप
तेज थी, थकी—मांदी
थी, गिर
गयी, बेहोश
हो गयी। भीड़
लग गयी। जहां
वह गिर कर
बेहोश हुई, वह गधियों
का बाजार था, सुगंध बिकती
थी। एक गंधी
भागा हुआ आया
और उसने कहा
कि यह इत्र
इसे सुघा दो, इससे ठीक हो
जायेगी। उसने
इत्र
सुंघाया। बड़ा कीमती
इत्र था, राजा—महाराजाओं
को मुश्किल से
मिलता था।
लेकिन गरीब
औरत के लिए
दया करके वह
ले आया। वह तो
तड़पने लगी। वह
तो हाथ—पैर
फेंकने लगी।
पास ही भीड़
में कोई एक
मछुआ खड़ा था, तो उसने कहा : 'महाराज, आप
मार डालेंगे।
हटाओ इसको!
मैं मछुआ हूं, मैं जानता
हूं कौन—सी
गंध उसके
पहचान की है।’
उसने
जल्दी से अपनी
टोकरी..... वह भी
मछलियां बेच
कर लौटा था, उसकी
टोकरी थी गंदी
जिसमें
मछलियां लाया
था, उसमें
उसने थोड़ा—सा
पानी छिड़का और
उस स्त्री के
सिर पर रख
दिया, मुंह
पर रख दिया।
उसने गहरी
सांस ली, वह
तप्क्षण होश
में आ गयी।
उसने कहा कि
बड़ी कृपा की।
किसने यह कृपा
की? यह कोई
मुझे मारे
डालता था! ऐसी
दुर्गंध मेरे नाक
में डाली..।
सुगंध
दुर्गंध हो
जाती है अगर
आदी न होओ।
दुर्गंध
सुगंध मालूम
होने लगती है
अगर आदी होओ।
तो
एकदम
तुम्हारी नाक
के सामने
परमात्मा का इत्र
भी नहीं रख
सकता हूं। और
तुम लाख चाहो
कि तुम्हारी
मछलियां और
उनकी गंध और
टोकरी पर पानी
छिड़क कर
तुम्हारे सिर
पर रखूं—वह भी
नहीं कर सकता
हूं। तो धीरे—धीरे
तुम्हें
परमात्मा की
तरफ ले जाना
है मछलियों की
गंध से। तुम
जिनके आदी हो, उनका
मुझे पता है।
वहा मैं भी
रहा हूं।
इसलिए तुमसे
मेरा पूरा
परिचय है। तुम
जहां हो वहा
मैं था।
तुम्हारी
जैसी
आकांक्षा, रस
है, वैसा
मेरा था। अब
मैं जहां हूं
वहां से मैं
जानता हूं कहा
तुम्हें भी
होना चाहिए।
तुम्हारे
होने में और
तुम्हारे
होने चाहिए
में फासला है।
उस फासले
को
धीरे— धीरे तय
करना है।
चौथा
प्रश्न :
आप
अक्सर कहते
हैं कि
प्रत्येक
आदमी अनूठा है, मौलिक
है और यह कि
प्रत्येक की
जीवन—यात्रा
और नियति अलग—
अलग है। शुरू
में मैं एक
सुखी—संपन्न
गृहस्थ होने
के सपने देखता
था। फिर लेखक,
पत्रकार, राजनीतिज्ञ
बनने के हौसले
सामने आये।
सर्वत्र
सफलता थोड़ी और
विफलता अधिक
हाथ आयी। और
जीवन की
संध्या में
आकर उस हाथ पर
राख ही राख
दिखाई देती
है। सुखद
आश्चर्य है कि
देर कर ही सही,
भटकते—
भटकते आपके
पास आ गया हूं
और कुछ
आश्वस्त
मालूम पड़ता
हूं। और अब
मैं जानना
चाहता हूं कि
मेरी निजी गति
और गंतव्य
क्या है?
परमात्मा
की बड़ी कृपा
है कि
तुम्हारे
सपने कभी सफल
नहीं हो पाते।
सफल हो जायें
तो तुम परमात्मा
से सदा के लिए
वंचित रह
जाओगे।
परमात्मा की
बड़ी अनुकंपा
है कि तुम इस
जगत में
वस्तुत: सफल
नहीं हो पाते; सफलता
का भ्रम ही
होता है, असफलता
ही हाथ लगती
है! हीरे—जवाहरात
दूर से दिखाई
पड़ते हैं, हाथ
में आते— आते
सब राख के ढेर
हो जाते हैं।
यह अनुकंपा है
कि इस जगत में
किसी को सफलता
नहीं मिलती।
इसी विफलता से,
इसी पराजय
से परमात्मा
की खोज शुरू
होती है। इसी
गहन हार से, इसी पीड़ा से,
इसी विकलता
से सत्य की
दिशा में आदमी
कदम उठाता है।
अगर
सपने सच हो
जायें तो फिर
सत्य को कौन
खोजे? सपने
सपने ही रहते
हैं, सच तो
होते ही नहीं,
सपने भी
नहीं रह जाते,
टूट कर बिखर
जाते हैं, खंड—खंड
हो जाते हैं।
चारों तरफ
टुकड़े पड़े रह
जाते हैं।
यह
तो शुभ हुआ कि
होना चाहते थे
सफल गृहस्थ, न
हो पाये। कौन
हो पाता है? तुमने सफल
गृहस्थ देखा?
अगर सफल
गृहस्थ देखा
होता तो बुद्ध
घर छोड़ कर न
जाते। तो
महावीर घर
छोड्कर न
जाते। तुमने
सफल गृहस्थ
देखा कभी? आशाएं
है। जब
किन्हीं दो
व्यक्तियों
की शादी होती
है,
स्त्री—पुरुष
की,
तो पुरोहित
कहता है कि
सफल होओ! मगर
कोई कभी हुआ? यह तो
शुभाकांक्षा
है। यह तो
पुरोहित भी
नहीं हुआ सफल!
यह बड़े —बूढ़े
तुमको देते
हैं आशीर्वाद
कि सफल होओ
बेटा! इनसे तो
पूछो कि आप
सफल हुए? कोई
सफल हुआ संसार
में? सिकंदर
भी खाली हाथ
जाता है!
अच्छा हुआ
गृहस्थी में
सफल न हो सके, अन्यथा घर
मजबूत बन जाता;
फिर तुम
मंदिर खोजते
ही न।
अच्छा
हुआ कि
प्रसिद्धि
में सफल न हुए; लेखक—पत्रकार
बन जाते तो
अहंकार मजबूत
हो जाता। अहंकार
जितना मजबूत
हो जाये उतना
ही परमात्मा
की तरफ जाना
मुश्किल हो
जाता है। पापी
भी पहुंच जाये,
अहंकारी
नहीं पहुंचता
है। पापी भी
थोड़ा विनम्र
होता है, कम
से कम अपराध
के कारण ही
विनम्र हो —गया
होता है .कि
मैं पापी हूं।
लेकिन जिसने
दो —चार
किताबें लिख
लीं, अखबार
में नाम छप
जाता है—लेखक
हो गया, कवि
हो गया, चित्रकार,
मूर्तिकार—वह
तो अकड़ कर खड़ा
हो जाता है।
तुमने
कभी खयाल किया
कि अक्सर लेखक, चित्रकार,
कवि
नास्तिक होते
हैं—अक्सर!
पत्रकार
अक्सर
क्षुद्र
बुद्धि के लोग
होते हैं।
उनके जीवन में
कोई विराट कभी
महत्वपूर्ण
नहीं हो पाता।
बड़ी अकड़.....!
अच्छा
हुआ,
हारे!
तुम्हारी हार
में परमात्मा
की जीत है।
तुम्हारे
मिटने में ही
उसके होने की
गुंजाइश है।
और फिर
राजनीतिज्ञ
होना चाहते थे—वह
तो बड़ी कृपा
है उसकी कि न
हो' पाये।
क्योंकि
मैंने सुना
नहीं कि
राजनीतिज्ञ
कभी स्वर्ग
पहुंचा हो। और
राजनीति
स्वर्ग की तरफ
ले भी नहीं जा
सकती।
राजनीति का
पूरा ढांचा
नारकीय है।
राजनीति की
पूरी दाव—पेंच,
चाल—कपट—सब
नर्क का है।
नर्क का एक
बड़े से बड़ा
कष्ट यह है कि
वहां तुम्हें
सब
राजनीतिज्ञ
इकट्ठे मिल जायेंगे।
आग—वाग से मत
डरना—वह तो सब
पुरानी कहानी
है। आग तो ठीक
ही है। आग में
तो कुछ हर्जा
नहीं है बड़ा।
लेकिन सब तरह
के
राजनीतिज्ञ
वहा मिल जायेंगे
तुम्हें।
उनके दाव—पेंच
में सताये
जाओगे। नर्क
का सबसे बड़ा
खतरा यह है कि
सब
राजनीतिज्ञ
वहा हैं।
हालाकि जब भी
कोई
राजनीतिज्ञ
मरता है, हम
कहते हैं, स्वर्गीय
हो गये। अभी
तक सुना नहीं।
एक
दफा,
कह्ते हैं,
एक राजनीतिज्ञ
किसी भूल—चूक
से स्वर्ग
पहुंच गया।
चाल—तिकडम से
पहुंच गया हो।
जब वह पहुंचा
स्वर्ग पर, उसी वक्त दो
साधु भी मर कर
पहुंचे थे।
साधु बड़े
हैरान हुए।
उन्हें तो हटा
कर खड़ा कर
दिया गया। और
राजनीतिज्ञ
का बड़ा स्वागत
हुआ। लाल दरियां
बिछायी गयीं।
बैंड—बाजे
बजे! फूल
बरसाये गये!
साधुओं के
हृदय में तो
बड़ी पीड़ा हुई
कि यह तो हद हो
गयी। यही पापी
वहां भी मजा कर
रहे थे, जमीन
पर भी, यही
मजा यहां भी
कर रहे हैं।
और हम तो कम से
कम इस आशा में
जीये थे, कम
से कम स्वर्ग
में तो स्वागत
होगा; यहां
भी पीछे खड़े
कर दिये गये।
तो वह जो जीसस
ने कहा है कि
जो यहां अंतिम
हैं प्रथम होंगे,
सब बकवास
है। जो यहां
प्रथम हैं वे
वहां भी प्रथम
रहते हैं—ऐसा
मालूम होता
है। कम से कम
यहां तो इसको
पीछे कर देना
था, हमें
आगे ले लेना
था।
लेकिन
चुप रहे। अभी
नये—नये आये
थे। एकदम कुछ
बात करनी ठीक
भी न थी। बड़ी
देर लगी।
स्वागत—समारोह, सारंगी
और तबले और सब
वाद्य बजे और
अप्सराएं नाची।
खड़े देखते रहे
दरवाजे पर, उनको तो
भीतर भी किसी
ने नहीं
बुलाया। जब
राजनीतिज्ञ
चला गया सारे
शोर सपाटे के
बाद और फूल
पड़े रह गये
रास्तों पर, तब उन्हें
भी अंदर ले
लिया। सोचते
थे कि शायद अब
हमारा भी
स्वागत होगा,
लेकिन कोई
स्वागत
इत्यादि न
हुआ। न बैड—बाजे,
न कोई फूल—माला
लाया। आखिर हद
हो गयी। पूछा
द्वारपाल से कि
यह मामला क्या
है? कहीं
कुछ भूल—चूक
तो नहीं हुई
है, ऐसा तो
नहीं है, स्वागत
का इंतजाम
हमारे लिए
किया था और हो
गया उसका? और
अगर भूल—चूक
नहीं हुई है, ऐसा ठीक ही
हुआ है तो जरा
रहस्य हमें
समझा दो, यह
मामला क्या है?
उस
द्वारपाल ने
कहा परेशान मत
हों,
साधु तो सदा
स्वर्ग आते
रहे, यह
राजनीतिज्ञ
पहली दफा आया
है, इसलिए
स्वागत..! और
फिर कभी आयेगा
दोबारा, इसकी
भी कोई
संभावना नहीं
है। तो किसी
भूल—चूक से हो
गयी बात, हो
गयी।
राजनीति
से बच गये, यह
तो शुभ हुआ, यह तो
महाशुभ हुआ।
इन सब से बच
गये, क्योंकि
हार गये। हार
सौभाग्य है।
उसे वरदान समझना।
हारे को
हरिनाम! वह जो
हारा, उसी
के जीवन में
हरिनाम का
अर्थ प्रगट
होता है। जीता,
तो अकड़ जाता
है। तो यह
प्रभु की कृपा,
सौभाग्य कि
हार गये। और
शायद उसी हार
के कारण यहां
मेरे पास आ
गये हो।
अब
पूछते हो कि ' आपके
पास आ गया, कुछ
आश्वस्त हुआ
मालूम पड़ता
हूं। और अब
जानना चाहता
हूं कि मेरी
निजी गति और
गंतव्य क्या
है?'
अब
यहां आ गये तो
अब यह निजपन
भी छोड़ दो।
निजपन के छोड़ते
ही तुम्हारे
गंतव्य का
आविर्भाव हो
जायेगा। यह मैं
—पन छोड़ दो। इस
मैं —पन में
अभी भी थोड़ी—सी
धूमिल रेखा
पुराने
संस्कारों की
रह गयी है। वह
जो राजनीतिज्ञ
होना चाहता था, वह
जो लेखक, पत्रकार,
प्रसिद्ध
होना चाहता था,
वह जो सुखी—संपन्न
गृहस्थ होना
चाहता था, उसकी
थोड़ी—सी रेखा,
थोड़ी—सी
कालिख रह गयी
है। इस निजपन
को भी छोड़ दो।
इसको भी हटा
दो।
यह
सब हार गया, अब
तक जो तुमने
किया, लेकिन
अभी भीतर थोडा—सा
रस अस्मिता का
बचा है, 'मैं'
का बचा है।
वह भी जाने
दो। उसके जाते
ही प्रकाश हो
जायेगा। और तब
पूछने की
जरूरत न रहेगी
कि गंतव्य क्या
है? गंतव्य
स्पष्ट होगा।
तुम्हारी आख
खुल जायेगी।
गंतव्य कहीं
बाहर थोड़े ही
है! गंतव्य
कहीं जाने से
थोड़े ही.। कल
सुना नहीं, अष्टावक्र
कहते हैं :
आत्मा न तो
जाती, न
आती। गता नहीं
है आत्मा। तो
गंतव्य कैसा?
आत्मा वहीं
है जहां होना
चाहिए। तुम
ठीक उसी जगह
बैठे हो जहां
तुम्हारा
खजाना गड़ा है।
तुम्हारे
स्वभाव में
तुम्हारा
साम्राज्य
है। बस यह
थोड़ी—सी जो
रेखा रह गयी
है, वह भी
स्वाभाविक
है। इतने दिन
तक उपद्रव में
रहे तो वह
उपद्रव थोड़ी—बहुत
छाप तो छोड़ ही
जाता है। उस
छाप को भी
पोंछ डालो। अब
यहां तो भूल
ही जाओ अतीत
को। यह अतीत
की याददाश्त
भी जाने दो।
जो नहीं हुआ, नहीं हुआ।
अब तो समग्र
भाव से यहां
हो तो बस यहीं
के हो रहो। न
आगा न पीछा—यही
क्षण सब कुछ
हो जाये, तो
इसी क्षण में
परम शांति
प्रगट।
उस शाति में
सब प्रगट हो
जायेगा, सब
स्पष्ट हो
जायेगा।
रस
तो अनंत था, अंजुरी
भर ही पिया
जी में
वसंत था, एक
फूल ही दिया
मिटने
के दिन आज
मुझको यह सोच
है
कैसे
बड़े युग में
कैसा छोटा
जीवन जिया!
यहां
तो मैं चाहता
हूं कि
तुम्हारे
पूरे जीवन का
वसंत खिल उठे।
तुम इक्के—दुक्के
फूलों की मांग
मत करो, नहीं
तो पीछे
पछताओगे।
विराट हो सकता
था और तुम
छोटे की मांग
करते रहे।
तुम्हारी
अड़चन भी मैं
समझता हूं।
मेरे पास लोग
आ जाते हैं।
एक मित्र आये, संन्यास
लिया।
संन्यास जब ले
रहे थे, तभी
मुझे थोड़ा—सा
बेबूझ मालूम
पड़ रहा था; क्योंकि
उनके चेहरे पर
संन्यास का
कोई भाव न था।
पैर भी छुए थे;
लेकिन पैर
छूने में
परंपरागत आदत
मालूम पड़ी थी,
प्रसाद न
था। मांगते थे
संन्यास तो
मैंने दे दिया।
संन्यास लेते
ही उन्होंने
क्या कहा—कहा
कि मैं बड़ी
उलझन में पड़ा
हूं उसी लिए
आया हूं। मेरी
बदली करवा
दें। पठानकोट
में पड़ा हूं और
शची जाना है।
यही सोचकर
भगवान आपके
चरणों में आ
गया हूं कि
अगर, इतना
आप न करेंगे, ऐसा कैसे हो
सकता है! इतना
तो आप करेंगे
ही।
मैंने
उनसे पूछा. सच—सच
कहो,
संन्यास
इसलिए तो नहीं
लिया? रिश्वत
की तरह तो
नहीं लिया कि
चलो संन्यास
ले लिया तो यह
कहने का हक
रहेगा?
कहने
लगे. अब आप तो
सब जानते ही
हैं,
झूठ भी कैसे
कहूं? संन्यास
इसीलिए ले
लिया है... कि
संन्यास लेने
से तो मेरे हो
गये, अब तो
मैं फिक्र
करूं!
लेकिन
क्या फिक्र
करवा रहे हो? पठानकोट
से राची! क्या
फर्क पड़
जायेगा? क्या
मांग रहे हो? इतने स्पष्ट
रूप से शायद
बहुत लोगों की
मांग नहीं भी
होती है, लेकिन
गहरे में
खोजोगे, अचेतन
में झाकोगे तो
ऐसी ही मांगें
छिपी पाओगे।
विद्यार्थी
आ जाते हैं, वे
कहते हैं कि
ध्यान करना है
ताकि स्मृति
ठीक हो जाये।
तुम्हारी
स्मृति से
करना क्या है?
बड़े—बड़े
स्मृति वाले
क्या कर पाये
हैं? परीक्षा
पास करनी है, कि प्रथम
आना है, कि
गोल्ड मेडल
लाना है—तो ध्यान
कर रहे हैं!
कोई
आ जाता है, शरीर
रुग्ण है। वह
कहता है, शरीर
रुग्ण रहता
है। डॉक्टर
कहता है कि
कुछ मानसिक
गड़बड़ है, इसलिए
रुग्ण है। तो
ध्यान कर रहे
हैं!
तुम
क्षुद्र मांग
रहे हो विराट
से। तुम्हें क्षुद्र
तो मिलेगा ही
नहीं, विराट
से भी चूक
जाओगे।
रस
तो अनंत था, अंजुरी
भर ही पिया
जी
में वसंत था, एक
फूल ही दिया
मिटने
के दिन आज
मुझको यह सोच
है
कैसे
बड़े युग में
कैसा छोटा
जीवन जिया!
पीछे
पछताओगे! 'मैं'
के आसपास
खड़ी हुई कोई
भी मांग मत
उठाओ।’मैं'
के पार कुछ
मांगो। आज फिर
एक बार मैं
प्यार को जगाता
हूं
खोल
सब मुंदे द्वार
इस
मारू, धूम, गंध
रुंधे
सोने के घर के
हर कोने को
सुनहली
खुली धूप में
नहलाता हूं
आज
फिर एक बार
तुमको बुलाता
हूं
और
जो मैं हूंn
जो
जाना—पहचाना, जीया
अपनाया
है,
मेरा है,
धन
है,
संचय है,
उसकी
एक—एक कनी को
न्योछावर
लुटाता हूं।
जो
अब तक जीया, जाना,
पहचाना सब
न्योछावर करो,
लुटा दो!
भूलो, बिससे!
अतीत को जाने
दो। जो नहीं
हो गया, नहीं
हो गया। राह
खाली करो ताकि
जो होने को है,
वह हो। यह
कूड़ा— कर्कट
हटाओ।
आज
फिर एक बार
तुमको बुलाता
हूं
और
जो मैं हूं
जो
जाना—पहचाना, जीया
अपनाया
है,
मेरा है
धन
है,
संचय है,
उसकी
एक—एक कनी को
न्योछावर
लुटाता हूं।
प्रभु
के द्वार पर
तो जब तुम
नंगे, रिक्त
हाथ, इतने
रिक्त हाथ कि
तुम भी नहीं, केवल एक
शून्य की
भांति खड़े हो
जाते हो—तभी
तुम्हारी
झोली भर दी
जाती है।
मंदिर
तुम्हारा है, देवता
हैं किसके?
प्रणति
तुम्हारी है, फूल
झरे किसके?
नहीं—नहीं
मैं झरा, मैं
झुका
मैं
ही तो मंदिर
हूं औ' देवता
तुम्हारा
वहां
भीतर पीठिका
पर टिके
प्रसाद
से भरे
तुम्हारे हाथ
और
मैं यहां
देहरी के बाहर
ही सारा रीत
गया।
जिस
दिन तुम देहरी
के बाहर ही
सारे रीत
जाओगे, उस
दिन प्रभु के 'प्रसाद भरे
हाथ बस
तुम्हारी
झोली में ही
उंडल जाते
हैं।
वहां
भीतर पीठिका
पर टिके
प्रसाद
से भरे
तुम्हारे हाथ
और
मैं यहां
देहरी के बाहर
ही सारा रीत
गया!
रीतो, यदि
भरना चाहो।
मिटो, अगर
होना चाहो।
शून्य को ही
पूर्ण का
आतिथ्य मिलता
है।
आखिरी
प्रश्न :
आपकी
पुस्तकें
पढ़ने से ऊब
आती है। ध्यान
करने की इच्छा
भी नहीं होती।
और टेपबद्ध
प्रवचन सुनने
की इच्छा नहीं
के बराबर है।
आपके प्रवचन
में भी मुझे
पता चल जाता
है कि आप ऐसा
ही कहेंगे। फिर
भी रूपांतरण
नहीं होता, ऐसा
क्यों? और
रूपांतरण
नहीं हुआ है
तो फिर पढ़ने, सुनने और
ध्यान करने
में ऊब क्यों
अनुभव होती है?
और प्रभु, रोज—रोज एक
ही बात
दोहराने में
क्या आपको ऊब
नहीं आती?
ऊब को
समझना चाहिए।
ऊब क्या है? ऊब
के बहुत कारण
हो सकते हैं।
पहला कारण : जो
तुम्हारी समझ
में न आये, और
उसे बार—बार
सुनना पड़े, तो ऊब
स्वाभाविक
है। बार—बार
सुनने से ऐसा
समझ में भी
आने लगे कि
समझ में आ गया,
.और समझ में
न आये, क्योंकि
समझ में आ
जाना कि समझ
में आ गया—समझ
में आ जाना
नहीं है। बार—बार
सुनने से ऐसा
लगने लगता है,
परिचित
शब्द हैं, परिचित
बात है। मेरी
शब्दावली कोई
बहुत बड़ी तो
नहीं है—मुश्किल
से तीन—चार सौ
शब्द। मैं कोई
पंडित तो हूं
नहीं! उन्हीं—उन्हीं
शब्दों का बार—बार
उपयोग करता
हूं।
तो
बार—बार सुनने
से तुम्हें
समझ में आने
लगता है कि समझ
में आ गया। और
समझ में कुछ
भी नहीं आया।
क्योंकि समझ
में आ जाये तो
रूपांतरण हो
जाये। समझ तो
क्रांति है।
तो जब तक क्रांति
न हो,
तब तक समझना
अभी समझ में
नहीं आया।
और
तुम्हें जब तक
समझ में न आये, तब
तक मुझे
दोहराना
पड़ेगा।
तुम्हें समझ
में न आये और
मैं आगे का
पाठ करने लगू
तो बात गड़बड़
हो जायेगी। तब
तो तुम कभी भी
न समझ पाओगे।
अभी तो पहला
पाठ ही समझ
में नहीं आया।
तुमने
महाभारत की
कथा सुनी
होगी। पहला
पाठ द्रोण ने
पढ़ाया है।
अर्जुन पढ़ कर
आ गया, दुर्योधन
पढ़ कर आ गया, सब
विद्यार्थी
पढ़ कर आ गये।
युधिष्ठिर ने
कहा कि अभी
मैं नहीं
तैयार कर पाया,
कल करूंगा।
कल भी बीत गया,
परसों भी
बीत गया, दिन
पर दिन बीतने
लगे। द्रोण तो
बहुत हैरान हुए,
क्योंकि
सोचा था
युधिष्ठिर
सबसे
प्रतिभाशाली
होगा। वह शांत
था, सौम्य
था, विनम्र
था। सब
विद्यार्थी
आगे बढ़ने लगे।
कोई दसवें पाठ
पर पहुंच गया,
कोई
बारहवें पाठ
पर पहुंच गया—यह
पहले पर अटका
है। यह तो बड़ी
गड़बड़ हो गयी।
एक सप्ताह
बीतते —बीतते
तो गुरु का
धैर्य भी टूट
गया। और
उन्होंने
पूछा कि मामला
क्या है? पहले
पाठ में ऐसी
अड़चन क्या है?
युधिष्ठिर
ने कहा. जैसा
और करके आये
हैं,
अगर वैसा ही
मुझसे भी करने
को कहते हों
तो कोई अड़चन
नहीं है।
पहला
पाठ था, उसमें
वचन था : सत्य
बोलो। सब याद
करके आ गये कि पहला
पाठ, सत्य
बोलो।
युधिष्ठिर ने
कहा, लेकिन
तब से मैं
सत्य बोलने की
कोशिश कर रहा
हूं अभी तक सध
नहीं पाया, अभी झूठ हो
जाता है। तो
जब तक सत्य
बोलना न आ जाये,
दूसरे पाठ
पर हटना कैसे?
तब
शायद द्रोण को
लगा होगा कि
कैसी भ्रांत
बात उन्होंने
सोच ली थी
इसके लिए! सब
बच्चे याद
करके आ गये थे—सत्य
बोलो—जैसा
तोता याद कर
लेता है। तोते
को याद करवा
दो,
सत्य
बोलो, सत्य
बोलो, तो
दोहराने
लगेगा। लेकिन
सत्य बोलो, यह दोहराने
से सत्य बोलना
थोड़े ही शुरू
होता है! उससे
तो मतलब ही न
था किसी को।
किसी ने पाठ
को उस गहराई
से तो लिया ही
न था।
युधिष्ठिर ने
कहा कि प्रभु,
अगर पूरे
जीवन में यह
एक पाठ भी आ
जायेगा तो
धन्य हो गया!
अब दूसरे पाठ
तक जाने की
जरूरत भी क्या
है? सत्य
बोलो—बात हो
गयी। अब तो
मुझे इस पहले
पाठ में रम
जाने दें, रसमग्न
हो जाने दें।
तुम
सुनते हो —वही
शब्द, वही
सत्य की ओर
इशारे।
तुम्हें बार—बार
सुन कर लगता
है समझ में आ
गया।
युधिष्ठिर बनो।
समझ में तभी
मानना जब जीवन
में आ जाये।
और जब तक
तुम्हारे
जीवन में न आ
जाये, अगर
मैं दूसरे
पाठों पर बढ़
जाऊं, तो
तुमसे मेरा
संबंध छूट
जायेगा।
और
फिर एक और
अड़चन की बात
है। जो मैं
तुम्हें सिखा
रहा हूं उसमें
दूसरा पाठ ही
नहीं है, बस एक
ही पाठ है। इस
पुस्तक में
कुल एक ही पाठ
है। तुम मुझसे
जिस ढंग से
चाहो कहलवा
लो। कभी
अष्टावक्र के
बहाने, कभी
महावीर के, कभी बुद्ध
के, कभी
पतंजलि के, कबीर के, मुहम्मद
के, ईसा के—तुम
जिस ढंग से
चाहो मुझसे
कहलवा लो। मैं
तुमसे वही
कहूंगा। पाठ
एक है। थोड़े —बहुत
यहां —वहां
फर्क हो जायेंगे
तुम्हें
समझाने के, लेकिन जो
मैं समझा रहा
हूं वह एक है।
तुम चाहो किसी
भी उंगली से
कहो, मैं
जो बताऊंगा वह
चांद एक है।
उंगलियां पाच
हैं मेरे पास,
दस हैं—कभी
इस हाथ से बता
दूंगा, कभी
इस हाथ से बता
दूंगा; कभी
एक उंगली से, कभी दूसरी
उंगली से; कभी
मुट्ठी बांध
कर बता दूंगा—लेकिन
चांद तो एक
है। उस चांद
की तरफ ले
जाने की बात
भी अनेक नहीं
हो सकती।
तो
जो समझ से भरे
हैं,
जो थोड़े
समझपूर्वक जी
रहे हैं, वे
तो आह्रादित
होंगे कि मैं
वही—वही बात
बहुत—बहुत
रूपों में
उनसे कहे जा
रहा हूं। जगह—जगह
से चोट कर रहा
हूं। लेकिन कील
तो एक ही
ठोकनी है। नये—नये
बहाने खोज रहा
हूं, लेकिन
कील तो एक ही
ठोकनी है।
लेकिन
जो केवल
बुद्धि से
सुनेंगे और
सुन कर समझ
लेंगे समझ में
आ गया—क्योंकि
सुन तो लिये
शब्द, जान तो
लिये शब्द—उनको
अड़चन होगी, वे ऊबने
लगेंगे। तो एक
तो ऊब इसलिए
पैदा हो जाती
है।
दूसरी
ऊब का कारण और
भी है। जब तुम
मेरे पास पहली
दफा सुनने आते
हो तो अक्सर
जो मैं कह रहा
हूं उसमें
तुम्हारी
उत्सुकता कम
होती है, जिस
ढंग से कह रहा
हूं उसमें
ज्यादा होती
है। लोग बाहर
जा कर कहते
हैं खूब कहा!
क्या कहा, उससे
मतलब नहीं है।
कहने के ढंग
से मतलब है। अब
ढंग तो मेरा, मेरा ही
होगा। रोज—रोज
तुम सुनोगे, धीरे — धीरे
तुम्हें लगने
लगेगा कि यह
शैली तो पुरानी
पड़ गयी। यह भी
स्वाभाविक
है। अगर
तुम्हारा शैली
में रस था तो
आज नहीं कल ऊब
पैदा हो
जायेगी।
फिर
बहुत लोग हैं, जो
सिर्फ केवल
मैं जो कभी
छोटी—मोटी
कहानियां बीच में
कह देता हूं
उन्हीं को
सुनने आते
हैं। मेरे पास
पत्र तक लिख
कर भेज देते
हैं कि आपने
दो—तीन दिन से
मुल्ला
नसरुद्दीन को
याद नहीं किया?
मैं महावीर
पर बोल रहा हूं, वे मुल्ला
नसरुद्दीन को
सुन रहे हैं।
मैं मुहम्मद
पर बोल रहा
हूं वे मुल्ला
नसरुद्दीन को
सुन रहे हैं।
मैं मूसा पर
बोल रहा हूं
वे मुल्ला
नसरुद्दीन को
सुन रहे हैं।
मैं मनु पर
बोल रहा हूं, वे मुल्ला
नसरुद्दीन को
सुन रहे हैं।
यह
तो ऐसे हुआ कि
मैंने भोजन
तुम्हारे लिए
सजाया और तुम
चटनी—चटनी
खाते रहे।
चटनी
स्वादिष्ट है, माना;
लेकिन चटनी
से पुष्टि न
मिलेगी। ठीक
था, रोटी
के साथ लगा कर
खा लेते।
इसीलिए चटनी
रखी थी कि
रोटी
तुम्हारे गले
के नीचे उतर
जाये। चटनी तो
बहाना थी, रोटी
को गले के
नीचे ले जाना
था। बिना चटनी
के चली जाती
तो— अच्छा, नहीं
जाती तो चटनी
का उपयोग कर
लेते। तुम
रोटी भूल ही
गये, तुम
चटनी ही चटनी
मांगने लगे।
तो
धीरे— धीरे
ऐसा आदमी भी
ऊब जायेगा।
क्योंकि वह
देखेगा यह
आदमी तो रोटी
खिलाने पर जोर
दे रहा है। तुम
चटनी के लिए
आये,
मेरा जोर
रोटी पर है।
चटनी का उपयोग
भी करता हूं
तो सिर्फ रोटी
कैसे
तुम्हारे गले
के भीतर उतर
जाये।
तुम्हारे आने
के कारण तुम
जानो; मेरा
काम मैं जानता
हूं कि
तुम्हारे गले
के नीचे कोई
सत्य उतारना
है। बाकी सब
आयोजन है सत्य
को उतारने का।
अगर तुम रूखा—सूखा
उतारने को
राजी हों—सुविधा,
सरलता से हो
जायेगा।
अन्यथा पकवान
बनायेंगे, बहाना
खोजेंगे; लेकिन
डालेंगे तो
वही जो डालना
है। तो उससे
भी ऊब पैदा हो
जाती है।
फिर
जिसने पूछा
है. 'समाधि' ने
पूछा है। एक
वक्त था, मैं
सारे देश में
घूम रहा था।
मेरे बोलने का
ढंग दूसरा था।
भीड़ से बोल
रहा था। भीड़
मेरे साथ किसी
तरंग में बंधी
हुई नहीं थी।
हजार तरह के लोग
थे। तल लोगों
का स्वभावत:
लोगों का तल
था। भीड़ से
बोलना हो तो
भीड़ की तरह
बोलना होता
है। सारे देश
में घूम रहा
था। एक गांव
में कभी फिर
आता साल भर
बाद, दो
साल बाद। उस
समय जिन लोगों
ने मुझे सुना
उनको बातें
ज्यादा समझ
में आ जाती
थीं—उनके तल
की थीं। लेकिन
मैं किसी और
प्रयोजन से
घूम रहा था।
उनके मनोरंजन
के लिए नहीं
घूम रहा था।
मैं तो इस
प्रयोजन से
घूम रहा था कि
कुछ लोगों को
इनमें से चुन
लूंगा, खोज
लूंगा; द्वार—द्वार
दस्तक दे
आऊंगा। फिर जो
सच में ही
यात्रा पर
राजी है, वह
मेरे पास
आयेगा। तब मैं
तुम्हारे पास
आया था। अब
मैं तुम्हारे
पास नहीं आता;
अब तुम्हें
मेरे पास आना
है।
'समाधि' उन्हीं
दिनों में
मुझमें
उत्सुक हुई
थी। उन दिनों
जो लोग मुझमें
उत्सुक हुए थे,
उनमें से
बहुत से लोग
चले गये।
जायेंगे ही, क्योंकि
उनकी
उत्सुकता का
कारण समाप्त
हो गया। तब
मैं जो बोल
रहा था, वह
सनसनीखेज था।
अब जो मैं बोल
रहा हूं वह
अति गंभीर है।
तब मैं जो बोल
रहा था, वह
भीड़ के लिए था;
अब जो मैं
बोल रहा हूं
वह क्लास के
लिए है, वह
एक विशिष्ट
वर्ग के लिए
है—संस्कारनिष्ठ।
तब जो मैं बोल
रहा था, वह
कुतूहल जिनको
था, उनके
लिए भी ठीक
था। आज तो
उनके लिए बोल
रहा हूं जो
जिज्ञासा से
भरे हैं। और
वस्तुत: उनके
लिए बोल रहा
हूं जो
मुमुक्षा से
भरे हैं।
तो
फर्क पड़ गया
है। तो उन
दिनों जो लोग
मेरे पास आये
थे,
उनमें से
निन्यानबे
प्रतिशत लोग
चले गये। मैं
जानता ही था
कि वे चले
जायेंगे।
उनके लिए मैं
बोला भी न था।
वह तो एक
प्रतिशत जो बच
गये, उन्हीं
के कारण मुझे
निन्यानबे
प्रतिशत से भी
बोलना पड़ा था।
उन एक को
मैंने चुन
लिया है।
अब, अब
यहां भीड़ से
बात नहीं हो
रही। अब मैं
तुम्हारी तरफ बहुत
ध्यान दे कर
नहीं बोलता
हूं। अब इसकी
फिक्र नहीं
करता हूं कि
तुम्हें
रुको।, नहीं
रुचेगा; तुम्हें
जँचेगा, नहीं
जंचेगा। अब
तुम पर ध्यान
रख कर नहीं
बोलता। अब तो
जो मुझे बोलना
है, उस पर
ज्यादा ध्यान
है।
और
मैं धीरे—
धीरे चाहूंगा, जिन
लोगों को
रुचिकर न लगता
हो, ऊब आती
हो—वे हटें, वे विदा हो
जायें।
क्योंकि मैं
तो धीरे— धीरे
और गहरा होता
जाऊंगा।
जल्दी ही ऐसी
घड़ी आयेगी, यहां बहुत थोड़े
—से पक्षी रह
जायेंगे। और
जब वे थोड़े —से
पक्षी रह
जायेंगे, तो
मुझे जो ठीक—ठीक
कहना है, वही
उनसे कह
सकूंगा।
देखा, प्राइमरी
स्कूल में तो
हजारों, लाखों
विद्यार्थी
भरती होते हैं,
मिडल स्कूल
में छंट जाते
हैं, हाई
स्कूल में और
छंट जाते हैं,
कालेज में आ
कर और छंट
जाते हैं; विश्वविद्यालय
में और छंट
जाते हैं —छंटते
जाते हैं।
आखिर में तो
बहुत थोड़े —से
लोग रह जाते
हैं।
मेरे
बोलने में यह
सब सीढ़ियां
पार हुई हैं।
इसमें कई तरह
की झंझटें भी
हो गयीं। कुछ
प्राइमरी
स्कूल के
विद्यार्थी
भी अटके रह
गये। लगाव बन
गया उनका
मुझसे; रुक
गये, जा न
सके। कुछ मिडल
स्कूल के
विद्यार्थी
भी रह गये; उनका
लगाव बन गया, वे न जा सके।
अब उनकी बड़ी
अड़चन है। अब
उनकी बड़ी फांसी
लगी है। अब वे
जा नहीं सकते,
क्योंकि
मुझसे लगाव बन
गया है। और अब
उनकी समझ में
भी नहीं आता
कि क्या हो
रहा है। यह
क्या कहा जा
रहा है? यह
उनसे बहुत पार
पड़ रहा है।
जिसको
भी ऊब आती हो—या
तो अपने को
बदलो या मुझे
छोड़ो। दो ही
उपाय हैं। मैं
बदलने को नहीं
हूं। अब मैं
कुछ ऐसी बात न
कहूंगा जिससे
तुम्हारी वह
ऊब कम हो। सच
तो यह है, जो
आखिर में बच
जायेंगे उनके
लिए मैं इस
तरह से
बोलूंगा कि
उसमें ऊब ही
ऊब होगी।
तुम
शायद जानते न
होओ,
लेकिन ऊब
ध्यान का एक
प्रयोग है।
बचकानी आदत है
कि सदा नया
खिलौना चाहिए;
नयी चीज
चाहिए; नयी
पत्नी चाहिए;
नया मकान
चाहिए।
बचकानी आदत
है। यह बचपना
है, प्रौढ़ता
नहीं है।
सदियों
से सदगुरुओं
ने प्रयोग
किया है ऊब
का। झेन आश्रम
में जापान में
सारी व्यवस्था
बोरडम की है, ऊब
की है। तीन
बजे रात उठ
आना पड़ेगा, नियम से, घड़ी
के काटे की
तरह। स्नान
करना होगा।
बंधे हुए
मिनिट मिले
हुए हैं। चाय
मिल जायेगी—वही
चाय जो तुम
बीस वर्ष से
पी रहे हो, उसमें
रत्ती भर फर्क
नहीं होगा।
फिर ध्यान के लिए
बैठ जाना है —वही
ध्यान जो तुम
वर्र्षो से कर
रहे हो, वही
आसन। साधुओं
के सिर घोंट
देते हैं ताकि
उनके चेहरों
में ज्यादा
भेद न रह
जाये। घुटे
सिर करीब—करीब
एक—से मालूम
होने लगते हैं—खयाल
किया तुमने? अधिकतर
चेहरे का फर्क
बालों से है।
सिर घोंट डालो
सबके, तुम्हें
अपने मित्र भी
पहचानने
मुश्किल हो
जायेंगे।
जैसे
मिलिट्री में
चले जाओ तो एक—सी
वर्दी—ऐसी एक—सी
वर्दी साधुओं
की।
देखते
हैं,
मैंने
गेरुआ पहना
दिया है! उससे
व्यक्तित्व क्षीण
होता है। तो
बौद्ध भिक्षु
एक—सा वस्त्र
पहनता है, सिर
घुटे होते, एक—से कृत्य
करता है, एक—सी
चाल चलता है।
वही रोज। फिर
ध्यान चल कर
करना है, फिर
बैठ कर करना
है, फिर चल
कर करना है।
दिन भर ध्यान...!
फिर वही गुरु,
फिर वही
प्रश्न, फिर
वही उत्तर, फिर वही
प्रवचन, फिर
वही बुद्ध के
सूत्र, फिर
रात, फिर
ठीक समय पर सो
जाना है। वही
भोजन रोज!
तुम
चकित होओगे कि
झेन आश्रमों
में उन्होंने
वृक्ष तक हटा
दिये हैं।
क्योंकि
वृक्षों में रूपांतरण
होता रहता है।
कभी पत्ते आते, कभी
झर जाते; कभी
फूल खिलते, कभी नहीं
खिलते। मौसम
के साथ
बदलाहट
होती है। तो
इतनी बदलाहट
भी पसंद नहीं की।
झेन आश्रमों
में उन्होंने
रेत और चट्टान
के बगीचे
बनाये हैं।
उनके ध्यान—मंदिर
के पास जो
बगीचा होता है, रॉक
गार्डन, वह
पत्थर और
चट्टान का बना
होता है, और
रेत। उसमें
कभी कोई
बदलाहट नहीं
होती है। वह
वैसा का वैसा
प्रतिदिन।
तुम फिर आये, फिर आये—वही
का वही, वही
का वही! क्या
प्रयोजन है यह?
इसके पीछे
कारण है। जब
तुम वही—वही
सुनते, वही—वही
करते, वही—वही
चारों तरफ बना
रहता तो धीरे—
धीरे
तुम्हारी नये
की जो
आकांक्षा है
बचकानी, वह
विदा हो जाती
है। तुम राजी
हो जाते हो।
तो मन का
कुतूहल मर
जाता है और
कुछ उत्तेजना
खोजने की आदत
खो जाती है।
ऊब
से गुजरने के
बाद एक ऐसी
घड़ी आती है
जहां शाति उपलब्ध
होती है। नये
का खोजी कभी शांत
नहीं हो सकता।
नये का खोजी
तो हमेशा झंझट
में रहेगा।
क्योंकि हर
चीज से ऊब
पैदा हो
जायेगी। तुम
देखते नहीं, एक
मकान में रह
लिये, जब
तक नया था, दो
—चार दिन ठीक, फिर पंचायत
शुरू। फिर यह
कि कोई दूसरा
मकान बना लें,
कि दूसरा
खरीद लें। एक
कपडा पहन लिया,
अब फिर
दूसरा बना
लें।
स्त्रियां, देखते
हो साड़ियों पर
साड़िया रखे
रहती हैं। घंटों
लग जाते हैं
उन्हें, पति
हॉर्न बजा रहा
है नीचे।
ट्रेन पकड़नी,
कि किसी
जलसे में जाना,
कि शादी हुई
जा रही होगी
और ये अभी
यहीं घर से नहीं
निकले हैं और
पत्नी अभी यही
नहीं तय कर पा
रही है... एक
साड़ी निकालती,
दूसरी
निकालती।
साड़ी का इतना
मोह! नये का, बदलाहट का!
जो साड़ी एक
दफा पहन ली, फिर रस नहीं
आता। वह तो
दिखा चुकी उस
साड़ी में अपने
रूप को, अब
दूसरा रूप
चाहिए। बाल के
ढंग बदली। बाल
की शैली बदलो।
नये आभूषण
पहनो। कुछ नया
करो!
यही
तो बचकाना
आदमी है। यही
आग्रह ले कर
अगर तुम यहां
भी आ गये कि
मैं तुमसे रोज
नयी बात कहूं
तो तुम गलत
जगह आ गये।
मैं तो वही
कहूंगा। मेरा
स्वर तो एक
है। सुनते—सुनते
धीरे— धीरे
तुम्हारे मन
की यह चंचलता—नया
हो—खो जायेगी।
इसके खोने पर
ही जो घटता है, वह
शांति है। ऊब
से गुजर जाने
के बाद जो
घटता है वह
शाति है।
तो
यह प्रवचन
सिर्फ प्रवचन
नहीं है, यह तो
ध्यान का एक
प्रयोग भी है।
इसलिए तो रोज बोले
जाता हूं।
कहने को इतना
क्या हो सकता
है? करीब
तीन साल से
निरंतर रोज
बोल रहा हूं।
और तीस साल भी
ऐसे ही बोलता
रहूंगा, अगर
बचा रहा। तो
कहने को नया
क्या हो सकता
है? तीन सौ
साल भी बोलता
रह सकता हूं।
इससे कुछ अंतर
ही नहीं पड़ता।
यह तो ध्यान
का एक प्रयोग
है। और जो
यहां बैठ कर
मुझे सच में
समझे हैं, वे
अब इसकी फिक्र
नहीं करते कि
मेरे शब्द
क्या हैं, मैं
क्या कह रहा
हूं —अब तो उनके
लिए यहां
बैठना एक
ध्यान की
वर्षा है।
फिर
अगर तुम पहले
से कुछ सुनने
का आग्रह ले
कर आये हो तो
मुश्किल हो
जाती है। तुम
अगर मान कर चले
हो कि ऐसी बात
सुनने को
मिलेगी, कि
मनोरंजन होगा,
कि ऐसा होगा,
वैसा होगा—तो
अड़चन हो जाती
है। तुम अगर
खाली—खाली आये
हो कि जो होगा
देखेंगे, तो
अड़चन नहीं
होती।
एक
दिन मुल्ला
नसरुद्दीन
अपनी पत्नी से
झगड़ कर काम पर
जा रहा था।
गुस्से में था, गुस्से
से भरा था कि
रास्ते में
किसी ने पूछा : बड़े
मियां, आपकी
घड़ी में समय
क्या है? वह
बोला तुमको
इससे
क्या मतलब?
झगड़े
से भरा आदमी!
कोई घड़ी में
समय भी पूछ ले
तो वह कहता है : 'तुमको
इससे क्या
मतलब?' बजा
होगा जो बजा
होगा मेरी घड़ी
में। घड़ी मेरी
है, तुम्हें
इससे क्या
मतलब? एक
धुआं है उसकी
आख पर—उससे ही
चीजों को
देखने की
वृत्ति होती
है।
तो
तुम अगर कुछ
धुआं ले कर आ
गये हो—किसी
भी तरह का धुआं
लगाव का, विरोध
का—तो अड़चन
होगी। अगर तुम
इसलिए भी आ
गये हो कि कुछ
नया सुनने को
मिलेगा तो
अड़चन होगी।
मैंने कुछ ऐसा
आश्वासन दिया
नहीं। तुम अगर
खाली—खाली आ
गये हो कि
मेरे पास
बैठना
मिलेगा। घड़ी भर
मेरे पास होने
का मौका
मिलेगा।
बोलना तो बहाना
है। सुनना तो
बहाना है।
थोड़ी देर साथ—साथ
हो रचेंगे, एक धारा में
बह लेंगे—तो
फिर जो भी तुम
सुनोगे वही
सार्थक होगा।
उसी में रसधार
बहेगी। तो
तुम्हारे
सुनने पर निर्भर
करता है।
और
यह बात तो 'समाधि'
को भी समझ
में आती है कि
रूपांतरण
नहीं हुआ है।
'तो फिर पढ़ने,
सुनने और
ध्यान करने
में ऊब क्यों अनुभव
होती है?'
शायद
रूपांतरण
तुमने चाहा भी
नहीं है अभी।’समाधि'
को मैं
जानता हूं।
शायद
रूपांतरण की
अभी चाह भी
नहीं है। चाह
शायद कुछ और
है। और वह चाह
पूरी नहीं हो
रही। किसी को
धन चाहिए; धन
नहीं मिल रहा
है, सोचता
है चलो धर्म
में ध्यान लगा
दें। मगर भीतर
तो चाह धन की
है। किसी को
प्रेम चाहिए;
प्रेम नहीं
मिल रहा है, वह सोचता है
चलो, किसी
तरह अपने को
धर्म में उलझा
लें ध्यान में
लगा लें—लेकिन
भीतर तो प्रेम
की खटक बनी
है। तो अपने भीतर
खोजो।
रूपांतरण
जिसको चाहिए
उसका हो कर
रहेगा। लेकिन
तुम्हें
चाहिए ही न हो, तुम
कुछ और चाहते
होओ और यह
रूपांतरण की
बात केवल ऊपर—ऊपर
से लपेट ली हो,
यह केवल
आभूषण मात्र
हो, यह
केवल बहाना हो
कुछ छिपा लेने
का—तो अड़चन हो
जायेगी। फिर
यह न हो
सकेगा। फिर तुम
वही सुनना
चाहोगे जो तुम
सुनना चाहते
हो।
अभी
ऐसा हुआ कि
बुद्ध के
सूत्रों पर जब
मैं बोल रहा
था,
तो बुद्ध ने
तो ऐसी बातें
कही हैं जो कि
पश्चिम से आने
वाले
यात्रियों को
नहीं जंचती
हैं। उसके
पहले मैं हसीद
फकीरों पर बोल
रहा था। तो हसीद
फकीर तो ऐसी
बात कहते हैं
जो पश्चिम के
यात्री को जंच
सकती हैं।
हसीद फकीर तो
कहते हैं, परमात्मा
का है यह
संसार। सब राग—रंग
उसका। पत्नी—बच्चे
भी ठीक। भोग
में ही
प्रार्थना को
जगाना है। भोग
भी प्रार्थना
का ही एक ढंग
है। तो जम रहा
था। फिर बुद्ध
के वचन आये।
और बुद्ध के
वचनों में
बुद्ध ने ऐसी
बातें कही हैं
कि स्त्री क्या
है? हड्डी,
मांस, मज्जा
का ढेर! चमड़े
का एक बैग, थैला,
उसमें भरा
है कूड़ा—कबाड़,
गंदगी!
तो
अनेक पश्चिमी
मित्रों ने
पत्र लिख कर
भेजे कि बुद्ध
की बात हमें
जमती नहीं और
बड़ी तिलमिलाती
है। एक स्त्री
ने तो लिख कर
भेजा कि मैं
छोड़ कर जा रही
हूं। यह भी
क्या बात है!
मैं तो यहां इसलिए
आयी थी कि
मेरा प्रेम
कैसे गहरा हो? और
यहां तो विराग
की बातें हो
रही हैं।
अब
अगर तुम प्रेम
गहरा करने आये
हो तो निश्चित
ही बुद्ध की
बात बड़ी
घबराहट की
लगेगी। वह स्त्री
तो नाराजगी
में छोड़ कर
चली भी गयी।
यह तो पत्र
लिख गयी कि यह
बात मैं सुनने
आयी नहीं हूं न
मैं सुनना
चाहती हूं।
शरीर तो सुंदर
है और ये कहते
हैं,
कूडा—कर्कट,
गंदगी भरी
है। बुद्ध
के
वचन सुनने हों
और अगर तुम
प्रेम की खोज
में आये हो तो
बड़ी मुश्किल
हो जायेगी।
'समाधि' ने
अभी संसार
जीया नहीं—जीने
की आकांक्षा
है। और जीने
की हिम्मत भी
नहीं।
मेरे
पास युवक आ
जाते हैं, जो
कहते हैं
कामवासना से छुटकारा
दिलवाइये।
ब्रह्मचर्य
की बात जंचती है।
अभी युवक हैं।
अभी कामवासना
का दुख भी नहीं
भोगा, तो
छुटकारा कैसे
होगा? और
कामवासना में
जाने की
हिम्मत भी
नहीं है। क्योंकि
वे कहते हैं
उत्तरदायित्व
हो जायेगा; शादी कर ली, बच्चे हो
जायेंगे, फिर
संन्यास का
क्या होगा? फिर निकल
पायेंगे कि
नहीं निकल
पायेंगे? झंझट
से डरे भी
हैं। और झंझट
झंझट है, ऐसा
अभी स्वयं का
अनुभव भी नहीं
है।
तो
मैं तो उनसे
कहता हूं.
झंझट उठा लो।
धर्म इतना
सस्ता नहीं
है। धर्म तो
जीवन के अनुभव
से ही आता है।
तो
तुम अगर कुछ
सुनने आये हो, तुम्हारी
कुछ मान्यता
है, कुछ
धारणा है, भीतर
कोई रस है, उससे
मेल न खायेगी
बात, तो
तुम ऊबोगे, परेशान
होओगे।
तुम्हें
लगेगा व्यर्थ
की बकवास चल
रही है। लेकिन
अगर तुम खाली
आये हो, खोज
की घड़ी आ गयी
है, फल पक
गया है, तो
हवा का जरा—सा
झोंका, और
फल गिर
जायेगा! यह जो
मैं तुमसे कह
रहा हूं
तूफानी हवा
बहा रहा हूं।
अगर फल जरा भी पका
है तो गिरने
ही वाला है।
अगर नहीं
गिरता है तो
कच्चा है और
अभी गिरने का
समय नहीं आया
है।
पको!
जल्दी है भी
नहीं। मत सुनो
मेरी बात। जहां
से ऊब आती हो, सुनना
ही क्यों? जाना
क्यों? छोड़ो!
जहां रस आता
हो वहां जाओ।
अगर जीवन में
रस आता हो तो
घबराओ मत। ऋषि—मुनियों
की मत सुनो!
जाओ जीवन में
उतरो! नरक को भोगोगे
तो ही नरक से
छूटने की आकांक्षा
पैदा होगी।
दुख को जानोगे
तो ही रूपांतरण
का भाव उठेगा।
यह
क्रांति
सस्ती नहीं
है। केवल
उन्हीं को
होती है जिनके
स्वानुभव से
ऐसी घड़ी आ जाती
है,
जहां
उन्हें लगता
है, बदलना
है। नहीं कि
किसी ने
समझाया है, इसलिए बदलना
है। जहां खुद
ही के प्राण
कहते हैं.
बदलना है! अब
बिना बदले न
चलेगा।
मेरी
बातें
तुम्हें नहीं
बदल देंगी।
तुम बदलने की
स्थिति में आ
गये तो मेरी
बातें
चिनगारी का
काम करेंगी; तुम्हारे
घर में आग लग
जायेगी।
एक
आदमी मर गया।
स्वर्ग
पहुंचा।
परमात्मा ने उससे
पूछा. नीचे की
दुनिया में
क्या—क्या
किया? उसने
कहा. मैं साधु
पुरुष था, मैंने
कुछ किया
नहीं।
परमात्मा
ने पूछा. शराब
पी?
उसने
कहा : आप भी
कैसी बातें कर
रहे हैं! सदा
दूर रहा!
'स्त्रियों
से संबंध
बनाये?'
उसने
कहा. मैं यह
सोच भी नहीं
सकता कि
परमात्मा और
ऐसे प्रश्न
पूछेगा! अरे
रामायण का कोई
प्रश्न पूछो
कि गीता का, जो
मैं कंठस्थ
करता रहा। यह
भी क्या बात!
परमात्मा
ने कहा अच्छा
सिगरेट तो पी
ही होगी?
वह
आदमी नाराज हो
गया। उसने कहा
: बंद करो बकवास!
मैं साधु—पुरुष......!
तो
परमात्मा ने
कहा कि भले
आदमी! तब तुझे
नीचे भेजा ही
क्यों था, झख
मारने को? तो
इतने दिन क्या
करता रहा? कहां
रहा तू इतने
दिन? और
करता क्या था?
और अगर यह
कुछ भी नहीं
किया तो तेरी
साधुता का कितना
मूल्य होगा? तेरी साधुता
एक तरह की
कायरता है। तू
वापिस जा।
साधुता
तो फल है—बड़े
विकास का!
जीवन की सारी
पीड़ाओं, सारे
संकटों, सारे
संघर्षों से
गुजर कर
साधुता का फल
लगता है।
तो
मैं जो बातें
कह रहा हूं
तभी तुम्हारे
हृदय में
प्रवेश
करेंगी, हृदय
उनकी मंजूषा
बनेगा—वह
तुमने जीवन को
जाग कर देखा, भोगा, तपे,
भटके, द्वार—द्वार
ठोकरें खायी।
हजार द्वारों
पर ठोकरें खा
कर ही कोई
मंदिर के
द्वार तक आ
पाता है। और फिर
तुम कहीं भी
हो, फिर
उसकी अहर्निश
ध्वनि सुनाई
पड़ने लगती है।
तन
त्रस्त कहीं
मन मस्त वहीं
जिस
ठौर की मौजे
रागों की
रस
के सागर से
झूल झपट
जीवन
के तट पर
टकराती।
तन
त्रस्त कहीं
मन मस्त वहीं
जिस
ठौर लहरियां
रागों की
रस
के मानस की
गोदी में
चिर
सुषमा का सावन
गातीं।
फिर
तन कहीं भी
हो। फिर
तुम्हारा
शरीर कहीं भी
हो,
कैसी—ही दशा
में हो...।
तन
त्रस्त कहीं
मन मस्त वहीं
जिस
ठौर की मौजे
रागों की
रस
के सागर से
झूल झपट
जीवन
के तट पर
टकराती।
तन
त्रस्त कहीं
मन मस्त वहीं
जिस
ठौर लहरियां
रागों की
रस
के मानस की
गोदी में
चिर
सुषमा का सावन
गातीं।
लेकिन
तन के रास्ते
से गुजरना
होगा। बिना
गुजरे नहीं
कुछ मिल
सकेगा। क्रांति
घटेगी, निश्चित
घटेगी, लेकिन
सस्ती नहीं
घटती—अर्जित
करनी है।
यहां
दूसरा वर्ग भी
है सुनने
वालों का, जो
पक कर आया है।
उसकी बात कुछ
और हो जाती
है।
एक
मित्र ने लिखा
है :
तेरे
मिलन में एक
नशा है गुलाबी
उसी
को पी कर के
चूर हूं मैं
अब
खो गया हूं
होश में
बेहोश
होने का गरूर
है मुझे।
एक
दूसरे मित्र
ने लिखा है.
हे
प्रभु, अहोभाव
के आंसुओ में
डूबे मेरे
प्रणाम
स्वीकार करें
और पाथेय व
आशीष दें कि
अचेतन में
छिपी वासनाओं
के बीज दग्ध
हो जायें।
एक
और मित्र ने
लिखा खै :
मैं
अज्ञानी मूढ़
जनम से
इतना
भेद न जाना
किसको
मैं समझूं
अपना
किसको
समझूं बेगाना
कितना
बेसुर था यह
जीवन
डाल
न पाया इसको
लय में
इन
अधरों पर हंसी
नहीं थी
चमक
नहीं थी इन आंखों
में
लेकिन
आज दरस प्रभु
का पा
सब
कुछ मैंने
पाया!
निर्भर
करता है—तुम्हारी
चित्त—दशा पर
निर्भर करता
है। कुछ हैं
जो ऊब जायेंगे, कुछ
हैं जिन्हें
प्रभु का दरस
मिल जायेगा।
कुछ हैं जो ऊब
जायेंगे; कुछ
हैं जिनके लिए
मंदिर के
द्वार खुल
जायेंगे। सब
तुम पर निर्भर
है।
हरि ओंम
तत्सत्!
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