दिनांक
2 जनवरी; 1975
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार:
1—पतंजलि
की तुलना में
हेराक्लतु
क्राइस्ट और झेन
बचकाने लगते
हैं।
हेराक्लतु
क्राइस्ट और
झेन अंतिम चरण
को निकट—सा
बना देते हैं
और पतंजलि
प्रथम चरण को
भी असंभव
बनाते हैं!
ऐसा क्यों
लगता है?
2—संदेह
और विश्वास के
बीच झूलने
वाला हमारा मन
इन दो छोरों
से पार उठकर
श्रद्धा तक
कैसे पहुंचे?
पहला
प्रश्न:
आप
जो हेराक्लतु
क्राइस्ट और
झेन के विषय
में कहते रहे
हैं वह पतंजलि
की तुलना में
शिशुवत लगता
है।
हेराक्लतु
क्राइस्ट और
झेन अंतिम चरण
को निकट—सा
बना देते हैं
पतंजलि पहले
चरण को भी
लगभग असंभव
दिखता बना
देते हैं। ऐसा
लगता है कि
जितना कार्य
करना है उसे
पश्चिम के
लोगों ने
मुश्किल से ही
स्पष्ट अनुभव
करना शुरू
किया है।
लाओत्सु
का कहना है, 'अगर
ताओ पर हंसा
नहीं जा सकता
तो वह ताओ
नहीं होता।’
और
मैं तुमसे
कहना चाहता
हूं कि अगर
तुम मेरा गलत
अर्थ न लगाते, तो
तुम तुम ही न
होते।
तुम्हें कुछ
का कुछ समझना
ही होता है।
जो मैंने कहा
हेराक्लतु
झेन और जीसस
के विषय में
वह तुमने नहीं
समझा है। और
यदि
हेराक्लतु
झेन और जीसस
को नहीं समझ
सकते, तो
तुम पतंजलि को
भी न समझ
पाओगे।
समझने
का पहला नियम
है तुलना न
करना। तुम
तुलना कैसे कर
सकते हो? तुम
हेराक्लतु या
बाशो या बुद्ध
या जीसस या पतंजलि
के अंतरतम की
अवस्था के
विषय में क्या
जानते हो? तुम
तुलना करने
वाले हो कौन? तुलना एक
निर्णय है।
तुम निर्णय
करने वाले हो
कौन? लेकिन
मन करना चाहता
है निर्णय
क्योंकि
निर्णय में मन
कहीं ऊंचा
अनुभव करता है।
तुम निर्णायक
बन जाते हो, इसलिए
तुम्हारा
अहंकार बहुत
अच्छा अनुभव
करता है। तुम—अहंकार
को पोषित करते
हो। निर्णय और
तुलना द्वारा
तुम सोचते हो
कि तुम जानते
हो।
वे
सब विभिन्न
प्रकार के फूल
हैं—अतुलनीय।
तुम गुलाब की
तुलना कमल से
कैसे कर सकते
हो?
क्या तुलना
करने की कोई
संभावना है? इसकी कोई
संभावना नहीं,
क्योंकि
दोनों
विभिन्न
संसार हैं।
तुम चंद्रमा
की तुलना
सूर्य से कैसे
कर सकते हो? कोई संभावना
नहीं। वे
विभिन्न आयाम
हैं।
हेराक्लतु
जंगल के फूल
हैं, पतंजलि
एक परिष्कृत
बगीचे हैं।
पतंजलि
तुम्हारी
बुद्धि के
ज्यादा निकट
होंगे।
हेराक्लतु
तुम्हारे
हृदय के
ज्यादा निकट
होंगे। लेकिन
जैसे—जैसे तुम
और गहराई में
जाते हो, भेद
खो जाते हैं।
जब तुम स्वयं
खिलने लगते हो,
तब एक नयी
समझ का
सूर्योदय
तुममें प्रकट
होता है—यह
समझ, कि
फूल अपने रंग
में भिन्न
होते हैं, सुगंध
में भिन्न
होते हैं, बनावट
में भिन्न, रूप में
भिन्न होते
हैं लेकिन
खिलने में वे
अलग नहीं होते।
वह खिलना, वह
घटना कि वे
खिल गये हैं, वही होती है।
हेराक्लतु
निस्संदेह
अलग हैं; ऐसा
उन्हें होना
ही है।
प्रत्येक व्यक्ति
बेजोड़ है, और
पतंजलि भिन्न
हैं। तुम उन्हें
एक श्रेणी में
नहीं रख सकते।
कोई कोष्ठ
अस्तित्व
नहीं र छते, जहां तुम
उन्हें
जबरदस्ती ला
सको या उन्हें
श्रेणीबद्ध
कर सको। पर
अगर तुम भी
खिलते हो, तो
तुम समझ पाओगे
कि विकसित
होना, खिलना
वही होता है; चाहे वह फूल कमल
हो या गुलाब, इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। ऊर्जा
के उत्सव तक
पहुंचने की
अंतरतम घटना
वही है।
वे
अलग ढंग से
बात कहते हैं; उनके
मन के ढांचे
विभिन्न हैं।
पतंजलि
वैज्ञानिक
विचारक हैं।
वे एक
व्याकरणविद
हैं, भाषाविद
हैं।
हेराक्लतु एक
आदिम, एक
उद्दाम कवि है।
वे व्याकरण और
भाषा और रूप
की चिंता नहीं
करते। और जब
तुम कहते हो
कि पतंजलि पर
मेरे विचार सुनते
हुए तुम अनुभव
करते हो कि
हेराक्लतु और
क्राइस्ट और
झेन बचकाने
लगते हैं, बाल—शिक्षण
की भांति तो
तुम पतंजलि या
हेरास्लतु के
बारे में कुछ
नहीं कह रहे
तुम अपने ही
बारे में कुछ
कह रहे हो।
तुम कह रहे हो
कि तुम
मस्तिष्क में
जीने वाले व्यक्ति
हो।
पतंजलि
को तुम समझ
सकते हो; हेराक्लतु
तो एकदम
तुम्हारी समझ
में नहीं आते
हैं। पतंजलि
ज्यादा ठोस
हैं। उनके साथ
तुम पकड़ पा
सकते हो।
हेराक्लतु एक
बादल हैं, तुम
उन पर कोई पकड़
नहीं बना सकते।
पतंजलि से तुम
तर्क—संगतता
के कुछ ओर—छोर
जुटा सकते हो;
वे बुद्धि
संगत लगते हैं।
तुम
हेराक्लतु का
या बाशो का
क्या करोगे? नहीं, वे
एकदम
अतार्किक ही
हैं। उनके
विषय में
सोचते हुए, तुम्हारा मन
नितांत
नपुंसक हो
जाता है। जब
तुम ऐसी बातें
कहते हो, जब
तुम तुलनाएं करते
हो, निर्णय
बनाते हो, तब
तुम कुछ कहते
हो अपने बारे
में ही; उस
बारे में जो
कि तुम हो।
पतंजलि
समझे जा सकते
हैं;
इसमें कोई
मुश्किल नहीं।
वे बिलकुल
तर्कसंगत हैं।
उनके पीछे चला
जा सकता है; इसमें कोई
समस्या नहीं।
उनकी सारी
विधियां काम
में लायी जा
सकती हैं क्योंकि
वे तुम्हें
देते हैं, 'कैसे'। और 'कैसे'
को समझना
हमेशा आसान
होता है। क्या
करना है, कैसे
करना है? वे
तुम्हें
विधियां देते है।
पूछो
बाशो या
हेराक्लतु से
कि क्या करना
है,
और वे यही
कह देंगे कि
करने को कुछ
है नहीं। तब
तुम हार ही
जाते हो। यदि
कुछ किया जाना
हो तो तुम इसे
कर सकते हो, लेकिन यदि
कुछ न किया
जाना हो तो
तुम किंकर्तव्यविमूढ़
हो जाते हो।
फिर भी तुम
बार—बार पूछते
चले जाओगे, 'क्या करना
है? इसे
कैसे करना है?
जो आप कह
रहे हैं उसे
प्राप्त कैसे
करना है?'
वे
परम सत्य की
बात कहते हैं
बिना उस मार्ग
की कहते हुए, जो
वहां तक ले
जाता है।
पतंजलि मार्ग
की बात कहते
है, लक्ष्य
की हरगिज नहीं।
पतंजलि का
संबंध साधनों
से है, हेराक्लतु
का साध्य से।
साध्य
रहस्यपूर्ण
.होता है। वह
एक कविता है, वह कोई गणित
का हल नहीं है।
वह एक रहस्य
होता है। पर
मार्ग, विधि,
कैसे की
जानकारी, एक
वैज्ञानिक
बात है, यह
तुम्हें
आकर्षित करती
है। लेकिन यह
तुम्हारे
बारे में कुछ
बता देती है, पतंजलि या
हेराक्लतु के
बारे में नहीं।
तुम
मस्तिष्कोसुख
व्यक्ति हो, मनोग्रसित
व्यक्ति हो।
इसे देखने की
कोशिश करो, पतंजलि और
हेराक्लतु की
तुलना मत करो।
सिर्फ बात को समझने
की कोशिश करो,
कि यह
तुम्हारे
बारे में कुछ
दिखाती है। और
यदि तुम्हारे
बारे में कुछ
दिखाती है, तो तुम कुछ
कर सकते हो।
मत
सोचना कि तुम
जानते हो
पतंजलि क्या
हैं और हेराक्लतु
क्या हैं। तुम
तो बगीचे के
एक साधारण फूल
को भी नहीं
समझ सकते, और
वे तो
अस्तित्व में
घटित परम
खिलावट हैं।
जब तक तुम उसी
ढंग से न खिलो, तुम समझ
नहीं पाओगे।
पर तुम तुलना
कर सकते हो, तुम निर्णय
कर सकते हो, और निर्णय
द्वारा तुम
सारी बात ही
गंवा दोगे।
तो
समझने का पहला
नियम है—निर्णय
कभी न देना।
निर्णय कभी मत
दो और बुद्ध, महावीर,
मोहम्मद, क्राइस्ट, कृष्ण की
तुलना हरगिज
मत करो। कभी
मत करो तुलना।
वे तुलना के
पार के आयाम
में अस्तित्व
रखते हैं। और
जो कुछ तुम
उनके बारे में
जानते हो, वस्तुत:
कुछ नहीं है—मात्र
टुकड़े भर हैं।
तुम उनसे एक
समग्र बोध
नहीं पा सकते
हो। वे इतने
पार हैं।
वास्तव में, तुम अपने मन
के जल में
उनके
प्रतिबिंब भर
ही देखते हो।
तुमने चांद को
नहीं देखा है;
तुमने झील
में चांद को
देख लिया है।
तुमने यथार्थ
को नहीं देखा
है, तुमने
मात्र दर्पण
के प्रतिबिंब
को देखा है, और
प्रतिबिंब
दर्पण पर
निर्भर करता
है। यदि दर्पण
दोषपूर्ण है,
तो
प्रतिबिंब
अलग होता है।
तुम्हारा मन
तुम्हारा
दर्पण है।
जब
तुम कहते हो
कि पतंजलि
बहुत बड़े लगते
हैं,
कि उनका
शिक्षण बहुत
महान है, तब
तुम इतना ही
कह रहे हो कि
तुम
हेराक्लतु को बिलकुल
भी नहीं समझ
सकते। और यदि
तुम नहीं समझ
सकते, तो
यह बात ही
दर्शाती है कि
वे पतंजलि से
भी कहीं बहुत
ज्यादा
तुम्हारे पार
हैं; वे और
आगे चले गये
हैं पतंजलि के।
कम
से कम तुम
इतना भर समझ
सकते हो कि
पतंजलि कठिन
दिखते हैं। अब
ध्यान से मुझे
समझो। यदि कोई
चीज कठिन होती
है,
तो तुम उससे
जूझ सकते हो।
कितनी ही कठिन
क्यों न हो, तुम उसमें
जुट सकते हो।
ज्यादा कठिन
प्रयास की
आवश्यकता
होती है, लेकिन
वह किया तो जा
सकता है।
हेराक्लतु
सरल नहीं हैं, वे
असंभव ही हैं।
पतंजलि कठिन
हैं, और जो
कठिन है उसे
तुम समझ सकते
हो। तब तुम
कुछ कर सकते
हो। तुम
तुम्हारा
संकल्प, तुम्हारा
प्रयास, तुम्हारी
सारी ऊर्जा
इसमें ला सकते
हो। तुम कुछ
कर सकते हो, और कठिन को
हल किया जा
सकता है, कठिन
सरल बनाया जा
सकता है, ज्यादा
सूक्ष्म
विधियां पायी
जा सकती हैं।
लेकिन असंभव
का क्या करोगे
तुम? उसे
सरल नहीं
बनाया जा सकता।
फिर भी तुम
स्वयं को धोखा
दे सकते हो।
तुम कह सकते
हो, इसमें
तो कुछ नहीं; यह बचकाना
है! और तुम तो
इतने बड़े हो
गये हो इसलिए
यह तुम्हारे
लिए नहीं है।
यह बच्चों के
लिए है, न
कि तुम्हारे
लिए।
यह
मन की चालाकी
है असंभव से
बचने की।
क्योंकि तुम
जानते हो, तुम
इसका सामना न
कर पाओगे। तो
सवर्तधक सरल
रास्ता है
सिर्फ कह देना
कि 'यह
मेरे लिए नहीं
है; यह
मुझसे नीचे है—एक
बाल शिक्षा है।’
और तुम एक
विकसित
परिपक्व
व्यक्ति हो।
तुम्हें
चाहिए विश्वविद्यालय,
तुम्हें
बाल—विद्यालय
नहीं चाहिए।
पतंजलि
तुम्हें
जंचते हैं, पर वे बहुत
कठिन लगते हैं।
फिर भी वे हल
किये जा सकते
हैं। लेकिन
असंभव को हल
नहीं किया जा
सकता है।
यदि
तुम
हेराक्लतु को
समझना चाहते
हो,
तो कोई
रास्ता नहीं
सिवाय इसके, कि तुम अपना
मन पूरी तरह
गिरा दो। यदि
तुम पतंजलि को
समझना चाहते
हो, तो एक
क्रमिक मार्ग
है। वे
तुम्हें
सीढियां देते
हैं, जिनसे
तुम काम चला
लेते हो। लेकिन
ध्यान रहे, आखिरकार, अंततः वे भी
तुमसे कहेंगे,
'मन को गिरा
दो।’ जो
हेराक्लतु
प्रारंभ में
कहते हैं, वे
उसे अंत में
कहेंगे; लेकिन
मार्ग पर, रास्ते
पर, तुमसे
चक्कर लगवाया
जा सकता है।
अंत में वे
वही बात कहने
वाले हैं, पर
फिर भी वे
बोधगम्य
होंगे।
क्योंकि वे
क्रम निर्मित
करते हैं। और
तब वह छलांग
की भांति नहीं
दिखती अगर
तुम्हारे पास
सीढ़ियां हो।
यह
है वस्तुस्थति।
हेराक्लतु
तुम्हें अगाध
खाई तक ले आते
हैं और कहते
हैं,
'लगाओ छलांग।’
तुम नीचे
देखते हो, तुम्हारा
मन समझ ही
नहीं सकता कि
वे क्या कह रहे
हैं। यह
आत्मघाती जान
पड़ता है। कोई
सीढ़ियां नहीं
हैं, और
तुम पूछते हो,
'कैसे?' वे
कहते हैं, 'कोई
कैसे नहीं है।
तुम बस छलांग
लगा दो।’ वहां
कोई 'कैसे'
हो कैसे हो
सकता है? क्योंकि
चरण नहीं हैं,
सीढ़ियां
नहीं है, 'कैसे'
की
व्याख्या की
नहीं जा सकती।
तुम छलांग ही
लगा दो। वे
कहते हैं, ' अगर
तुम तैयार हो
तो मैं
तुम्हें धकेल
सकता हूं पर
विधियां नहीं
है।’ छलांग
लगाने की कोई
विधि है क्या?
छलांग
आकस्मिक है।
विधियां
विद्यमान
रहती हैं, जब
कोई चीज, कोई
प्रक्रिया
क्रमिक होती
है। इसे असंभव
पाकर तुम
बिलकुल
विपरीत दिशा
में मुड़ते हो।
पर स्वयं को
सांत्वना
देने को, कि
तुम इतने
दुर्बल
व्यक्ति नहीं
हो, तुम
कहते हो, 'यह
बच्चों के लिए
है। यह तो
काफी कठिन
नहीं है।’ यह
तुम्हारे लिए
नहीं।
पतंजलि
तुम्हें उसी
अगाध खाई तक
ले आते हैं, लेकिन
उन्होंने
सीढ़ियां
बनायी हैं। वे
कहते हैं, एक
समय में एक सीढ़ी।
यह पसंद आता
है। तुम समझ
सकते हो। गणित
सीधा है, तुम
एक चरण उठा
सकते हो, फिर
दूसरा। कोई
छलांग नहीं है।
पर खयाल रहे, देर—अबेर वे
तुम्हें उस
बिंदु तक ले
जायेंगे जहां से
तुम्हें
छलांग लगानी
होती है।
उन्होंने
सीढ़ियां
निर्मित कर ली
हैं, लेकिन
वे तलहटी तक नहीं
जातीं, वे
तो बस मध्य
में हैं। और
तलहटी इतनी
दूर है कि तुम
कह सकते हो कि
यह एक अतल
अगाध खाई है।
तो
कितनी
सीढ़ियां तुम
चलते हो, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। खाई
वैसी ही बनी
रहती है। वे
तुम्हें
निन्यानबे
चरणों द्वारा
पहुचायेंगे
और तुम बहुत
प्रसन्न होते
हो—जैसे कि
तुमने खाई पार
कर ली है, और
अब तलहटी
ज्यादा पास
चली आ रही है!
नहीं, तलहटी
उतनी ही दूर
बनी रहती है
जितनी कि पहले
थी। ये
निन्यानबे
चरण तो
तुम्हारे मन
को उलझाये रहते
हैं, मात्र
तुम्हें एक
विधि, एक 'कैसे' देने
को। फिर सौवें
चरण पर वे
कहते है, ' अब
छलांग लगा दो।’
और अगाध
शून्य वैसा ही
बना रहता है; शून्य फैलाव
वही है।
कोई
अंतर नहीं है
क्योंकि खाई
असीम है, परमात्मा
असीम है। धीरे—
धीरे उससे
कैसे मिल सकते
हो? लेकिन
ये निन्यानबे
चरण तुम्हें
उलझाये रखेंगे।
पतंजलि
ज्यादा
होशियार हैं।
हेराक्लतु
सीधे—सच्चे
हैं। वे इतना
ही कहते हैं, 'यह है चीज, खाई यहां है।
लगा दो छलांग।’
वे तुम्हें
इसके लिए
फुसलाते नहीं;
वे तुम्हें
बहकाते नहीं।
वे केवल कहते
हैं, 'यही
है
वास्तविकता।
यदि तुम छलांग
लगाना चाहते
हो, लगा दो
छलांग; यदि
तुम छलांग
नहीं लगाना
चाहते, तो
चले जाओ।’
और
वे जानते हैं
कि चरण
निर्मित करना
व्यर्थ है
क्योंकि
अंततः छलांग
लगानी होती है।
पर मैं समझता
हूं तुम्हारे
लिए पतंजलि का
अनुगमन करना
अच्छा होगा
क्योंकि धीरे—
धीरे वे
तुम्हें
प्रलोभन देते
हैं। तुम कम
से कम एक चरण
चल सकते हो, तो
दूसरा आसान हो
जाता है, फिर
तीसरा। और जब
तुम
निन्यानबे
सीढ़ियां तय कर
चुके होते हो,
तो वापस
जाना कठिन
होगा।
क्योंकि तब
वापस जाना
तुम्हारे
अहंकार के विपरीत
होगा।
क्योंकि तब
सारा संसार
हंसेगा कि तुम
इतने बड़े
महात्मा हो
गये हो, और
तुम वापस
संसार में लौट
रहे हो? तुम
इतने महायोगी
थे—बड़े योगी, तो वापस
क्यों आ रहे
हो? अब तुम
पकड़ लिये गये
हो, और तुम
वापस नहीं जा
सकते।
हेराक्लतु
सीधे हैं, निर्दोष।
उनका शिक्षण
बाल—विद्यालय
का नहीं है, पर वे बालक
हैं यह सही है—बच्चे
की भांति
निर्दोष, बच्चे
की भांति
बुद्धिमान भी।
पतंजलि चालाक
हैं, होशियार
हैं। लेकिन
पतंजलि
तुम्हें उपयुक्त
लगेंगे
क्योंकि
तुम्हें
चाहिए कोई, जो तुम्हें
चालाक ढंग से
उस बिंदु तक
ले जा सके
जहां से तुम
वापस न जा सको।
यह एकदम असंभव
हो जाता है।
गुरजिएफ
कहा करते थे
कि दो प्रकार
के गुरु होते
है. एक
निर्दोष और
सरल;
दूसरे छली
और चालाक। उसने
स्वयं कहा, 'मैं दूसरी
श्रेणी से
संबंध रखता
हूं।’ पतंजलि
स्रोत हैं, सारे चालाक
गुरुओं के। वे
गुलाब वाटिका
की ओर ले चलते
हैं और फिर
अचानक खाई की
ओर! और तुम
अपने ही
द्वारा बनायी
पकड़ में इस
तरह आ फंसते
हो कि तुम
वापस नहीं जा
सकते। तुमने
ध्यान किया, तुमने संसार
त्यागा, पत्नी
और बच्चों को
छोड़ दिया।
वर्षों से तुम
आसन लगा रहे
थे, ध्यान
कर रहे थे, और
तुमने
तुम्हारे
चारों ओर ऐसा
वातावरण निर्मित
कर लिया कि
लोग तुम्हें
पूजने लगे।
लाखों
व्यक्तियों
ने भगवान की
भांति तुम्हें
देखा और अब
आता है अगाध
शून्य। अब
इज्जत रखने को
ही तुम्हें
छलांग लगानी
होती है; मात्र
तुम्हारी
इज्जत बचाने
को ही। जाते
कहां हो? अब
तुम नहीं जा
सकते।
बुद्ध
सरल हैं; पतंजलि
चालाक हैं।
सारा विज्ञान
चालाकी है।
इसे समझ लेना
है, और मैं
यह किसी अनादर
भाव से नहीं
कह रहा हूं खयाल
रहे; मैं
इसकी निंदा
नहीं कर रहा
हूं। सारा
वितान चालाकी
है।
ऐसा
कहा जाता है
कि लाओत्सु का
एक अनुयायी—स्व
बूढ़ा आदमी, एक
किसान कुएं से
पानी खींच रहा
था, और बैल
या घोड़ों का
उपयोग करने की
बजाय वह खुद—बूढ़ा
आदमी—और उसका
बेटा, वे
बैलों की
भांति काम कर
रहे थे और
कुएं से पानी
ढो रहे थे, पसीने
से लथपथ।
मुश्किल से
सांस ले पा
रहे थे। बूढ़े
व्यक्ति के
लिए यह कठिन
था।
कन्फ्यूशियस
का एक अनुयायी
वहां से गुजर
रहा था। वह इस
वृद्ध से कहने
लगा,
'क्या तुमने
सुना नहीं? यह बहुत
असभ्य है, पुराना
है। तुम अपनी
श्वास क्यों
नष्ट कर रहे
हो? अब बैल
इस्तेमाल
किये जा सकते
हैं, घोड़े
इस्तेमाल
किये जा सकते
हैं। क्या
तुमने सुना
नहीं है कि
नगरों में, शहरों में, कोई इस तरह
काम नहीं करता
जिस तरह कि
तुम कर रहे हो?
यह बहुत
पुराना ढंग है।
वितान ने तेजी
से उन्नति की
है।’
वृद्ध
व्यक्ति बोला, 'ठहरो,
और इतने जोर
से मत बोलो।
जब मेरा बेटा
चला जाये, तो
मैं जवाब
दूंगा।’ जब
बेटा कुछ काम
करने चला गया
तो वह बोला, अब तुम एक
खतरनाक आदमी
हो। अगर मेरा
बेटा इसके
बारे में कभी
सुन ले, तो
तुरंत वह कह
देगा, 'ठीक
है। तो मैं
इसे खींचना
नहीं चाहता।
मैं बैलों का
यह काम नहीं
कर सकता।
बैलों की
जरूरत है।’
कन्फ्यूशियस
का शिष्य कहने
लगा,
'उसमें गलत
क्या है? 'बूढ़ा
आदमी बोला, 'हर चीज गलत
है इसमें, क्योंकि
यह चालाकी है।
यह बैल को
धोखा देना हुआ,
यह घोड़े को
धोखा देना हुआ।
और एक बात ले
जाती है दूसरी
बात तक। अगर
यह लड़का जो
जवान है और
विवेकपूर्ण
नहीं है, एक
बात जान लेता
है कि जानवरों
के साथ चालाक
हुआ जा सकता
है, तो वह
संदेह करेगा
कि क्यों कोई
मनुष्य के साथ
चालाक नहीं हो
सकता? एक
बार वह जान
लेता है कि
चालाकी
द्वारा कोई शोषण
कर सकता है, तो मैं नहीं
जानता वह कहां
रुकेगा।
इसलिए कृपया
आप यहां से
जाइए, और
इस सड़क पर कभी
मत लौटना। और
ऐसी चालाकी की
बातें इस गांव
में न लाना।
हम प्रसन्न
हैं।’
लाओत्सु
विज्ञान के
विरुद्ध है।
वह कहता है, विज्ञान
चालाकी है। यह
प्रकृति को
धोखा दे रहा
है, सृष्टि
से अनुचित लाभ
उठा रहा है।
चालाक तरीकों
द्वारा
प्रकृति को
तोड़ रहा है।
और आदमी जितना
ज्यादा
वैज्ञानिक
बनता है, उतना
ज्यादा वह
चालाक होता है,
स्वभावत:।
एक निर्दोष
व्यक्ति वैज्ञानिक
नहीं हो सकता;
यह कठिन है।
लेकिन आदमी
चतुर और चालाक
हो गया है। और
पतंजलि अच्छी
तरह जानते हैं
कि वैज्ञानिक होना
चालाकी है।
इसलिए वे यह
भी जानते हैं कि
मनुष्य नयी
चाल द्वारा ही,
एक नयी
चालाकी
द्वारा अपने
स्वभाव तक
वापस लाया जा
सकता है।
योग
अंतस आत्मा का
विज्ञान है
क्योंकि तुम
निर्दोष नहीं
हो,
तुम्हें
चालाक तरीके
द्वारा
स्वभाव तक
वापस लाना
होता है। अगर
तुम निर्दोष
होते हो, तो
साधनों की
जरूरत नहीं है,
किन्हीं
विधियों की
जरूरत नहीं है।
केवल सीधी—सादी
समझ, बाल
सुलभ समझ—और
तुम
रूपांतरित हो
जाओगे। लेकिन
तुम्हारे पास
यह है नहीं।
इसीलिए तुम
अनुभव करते हो
कि पतंजलि
बहुत महान जान
पड़ते हैं। ऐसा
होता है
तुम्हारे सिर
में जी रहे मन
के कारण और
तुम्हारी
चालाकी के
कारण।
दूसरी
चीज याद रखने
की है—वे कठिन
प्रतीत होते
हैं। और तुम
सोचते हो
हेराक्लतु
सरल हैं? चूंइक
पतंजलि कठिन
प्रतीत होते
हैं, यह
बात भी अहंकार
के लिए एक
आकर्षण बन
जाती है।
अहंकार हमेशा
वह कुछ करना
चाहता है जो
कठिन हो, क्योंकि
कठिन के
मुकाबले तुम
अनुभव करते हो,
तुम कुछ हो।
अगर कुछ बहुत
सरल होता है
तो इसके
द्वारा अहंकार
पोषित कैसे हो
सकता है 2:
मेरे
पास लोग आते
हैं और वे
कहते, 'कई बार
आप समझाते हैं
कि मात्र बैठ
जाने और कुछ न
करने द्वारा
बात घट सकती
है। यह इतनी
सहज कैसे हो
सकती है?' च्चांगत्सु
कहता है, 'सरल
बात सही होती
है', लेकिन
ये लोग कहते
हैं, 'नहीं।
यह इतनी सरल
कैसे हो सकती
है? यह
कठिन होनी
चाहिए, बहुत—बहुत
कठिन, दुःसाध्य।’
तुम
कठिन बातें
करना चाहते हो
क्योंकि जब
तुम कठिनाई के
विरुद्ध लड
रहे होते हो, धारा
के विरुद्ध, तब तुम
अनुभव करते हो
कि तुम कुछ हो—एक
विजेता हो।
अगर कोई चीज
सहज—सरल होती
है, अगर
कोई चीज इतनी
आसान होती है
कि एक बच्चा
भी इसे कर सके,
तब
तुम्हारा
अहंकार कहां
खड़ा होगा? तुम
बाधाओं के लिए
मांग करते हो,
कठिनाइयों
की पूछते हो, और अगर
कठिनाइयां
नहीं होतीं तो
तुम उन्हें निर्मित
कर लेते हो
जिससे कि तुम
लड़ सको, जिससे
कि तुम हवा के
विरुद्ध उड़
सको और अनुभव करो,
'मैं कुछ
हूं एक विजेता
हूं।‘
पर
इतने होशियार
मत बनो। तुम
वह मुहावरा 'स्मार्ट
एलेक' जानते
हो? तुम
शायद नहीं
जानते हो कि
यह कहां से
आया है—यह
एलेक्जेंडर
दि पेट से आया
है।’एलेक'
शब्द
एलेक्जेंडर
से आता है; यह
एक संक्षिप्त
रूप है। इसका
अर्थ होता है,
स्मार्ट
एलेक्जेंडर
मत होओ। सहज
रहो, विजेता
होने की कोशिश
मत करो, क्योंकि
यह छूता है।
कुछ होने की
कोशिश मत करो।
लेकिन
पतंजलि जंचते
हैं। पतंजलि
अहंकार को
बहुत ज्यादा
आकर्षित करते हैं।
तो भारत ने
संसार के
सूक्ष्मतम
अहंकारी निर्मित
किये। तुम
इससे ज्यादा
सूक्ष्म
अहंकारी
संसार भर में
कहीं और नहीं
खोज सकते, जितने
कि भारत में।
सरल—चित्त
योगी को खोजना
लगभग असंभव है।
योगी सरल नहीं
हो सकता।
क्योंकि वह
इतने सारे आसन
किये जा रहा
है, इतनी
सारी मुद्राएं
वह इतना कठिन
काम कर रहा है,
तो कैसे हो
सकता है वह
सीधा? वह
स्वयं को एक
ऊंचाई पर
समझता है—एक
विजेता। सारे
संसार को उसके
आगे झुकना
होता है, वह
सर्वोत्तम
व्यक्ति है—जीवन
का नमक, सारभूत।
जाओ
और योगियों को
देखो—तुम
उनमें बहुत
सूक्ष्म
अहंकार पाओगे।
उनका आंतरिक
मंदिर अब भी
खाली है; ईश्वर
भीतर नहीं आया।
मंदिर अब तक
सिंहासन है
उनके अपने
अहंकारों के
लिए ही। उनके
अहंकार बहुत
सूक्ष्म हो
गये होंगे, वे इतने
सूक्ष्म हो
गये होंगे कि
ये योगी बहुत
विनम्र दिख
सकते हैं।
लेकिन उनकी
विनम्रता में
भी, अगर
तुम ध्यान से
देखो, तो
तुम अहंकार
पाओगे।
वे
सजग हैं कि वे
विनम्र हैं, यही
है कठिनाई। एक
वास्तविक
विनम्र
व्यक्ति को यह
बोध नहीं होता
कि वह विनम्र
है। एक
वास्तविक
विनम्र
व्यक्ति तो बस
विनम्र होता
है, विनम्रता
के प्रति सजग
नहीं। और
वास्तविक
विनम्र
व्यक्ति कभी
दावा नहीं करता
कि मैं विनम्र
हूं क्योंकि
सारे दावे अहंकार
के होते हैं।
विनम्रता का
दावा नहीं
किया जा सकता।
विनम्रता कोई
दावा नहीं है,
यह होने की
एक अवस्था है।
और सारे दावे
अहंकार की
परिपूर्ति
करते हैं। यह
क्यों घटित
हुआ? भारत
क्यों बहुत
सूक्ष्म
अहंकारी देश
हो गया? और
जब अहंकार
होता है, तुम
अंधे हो जाते
हो।
भारतीय
योगियों से
बात करो और
तुम देखोगे, वे
सारे संसार की
निंदा कर रहे
हैं। वे कहते
हैं, पश्चिम
भौतिकवादी है;
केवल भारत
आध्यात्मिक
है। सारा
संसार
भौतिकवादी है,
वे कहते हैं।
जैसे कि यह
कोई एकाधिकार
है! और वे इतने
अंधे हैं, वे
इस तथ्य को
नहीं देख पाते
कि
वास्तविकता
एकदम विपरीत
है।
जितना
ज्यादा मैं
भारतीय और
पश्चिमी मन को
देखता रहा हूं
उतना ज्यादा
अनुभव करता
रहा हूं कि
पश्चिमी मन कम
भौतिकवादी है
भारतीय मन से।
भारतीय मन
ज्यादा भौतिकवादी
है। यह चीजों
से ज्यादा
चिपका रहता है।
यह बांट नहीं
सकता; यह
कंजूस है।
पश्चिम ने
इतनी ज्यादा
भौतिक
संपन्नता
निर्मित कर ली
है इसका मतलब
यह नहीं है कि
पश्चिम भौतिकवादी
है। और भारत
गरीब है तो
इसका यह अर्थ
नहीं है कि भारत
अध्यात्मवादियों
का देश है।
अगर
गरीबी
आध्यात्यिकता
होती है तो
नपुंसकता ब्रह्मचर्य
होगी। नहीं, गरीबी
आध्यात्मिकता
नहीं है; न
ही संपन्नता
भौतिकता है।
भौतिकवादिता
चीजों से
संबंध नहीं
रखती, यह
अभिवृत्तियों
से संबंध रखती
है। न ही
आध्यात्मिकता
गरीबी से
संबंधित होती
है; यह
अंतर से संबंध
रखती है—उनसे
संबंध रखती है
जो अनासक्त
हैं, बांटने
वाले हैं।
भारत में तुम
किसी को कोई
चीज बांटते
हुए नहीं पा
सकते। कोई
परस्पर बांट
नहीं सकता, हर कोई जमा
करता रहता है।
और चूंकि वे
ऐसे जमाखोर
हैं, इसीलिए
वे गरीब हैं।
थोडे—से लोग
बहुत अधिक
संचय करते हैं,
इसलिए बहुत सारे
लोग गरीब हो
जाते हैं।
पश्चिम
आपस में
बांटता रहा है।
इसीलिए सारा
समाज गरीबी से
अमीरी तक
उन्नत हुआ है।
भारत में, थोड़े—से
लोग अत्यधिक
धनवान हो गये
हैं। तुम ऐसे
धनवान लोग
कहीं और पा
नहीं सकते—लेकिन
थोड़े—से इने—गिने।
और सारा समाज
स्वयं को
गरीबी में
घसीटता रहता
है, और
अंतर भारी है।
तुम कहीं इतना
अंतर नहीं पा
सकते। एक
बिड़ला और एक
भिखारी के बीच
का अंतर बहुत
बड़ा है। ऐसा
अंतर कहीं
नहीं बना रह
सकता और कहीं
विद्यमान है
भी नहीं।
पश्चिम में
धनवान
व्यक्ति हैं,
पश्चिम में
गरीब व्यक्ति
हैं, पर
अंतर इतना बड़ा
नहीं है। यहां
तो अंतर असीम
ही है। तुम
ऐसे भेद की
कल्पना नहीं
कर सकते।
यह
कैसे संयुक्त
किया जा सकता
है?
यह परस्पर
जोड़ा नहीं जा
सकता क्योंकि
लोग भौतिकवादी
हैं। वरना यह
भेद हो ही
कैसे सकता है?
क्यों है यह
अंतर? क्या
तुम बांट नहीं
सकते? यह
असंभव होता है।
लेकिन भारतीय
अहंकार कहता
है कि संसार, सारा संसार
भौतिकवादी है।
ऐसा हुआ है
क्योंकि लोग
पतंजलि की ओर
और उन लोगों
की ओर आकर्षित
थे, जो
कठिन विधियां
दे रहे थे।
पतंजलि के साथ
कुछ गलत नहीं
है, लेकिन
भारतीय
अहंकार ने
सुंदर, सूक्ष्म
बहाना खोज
लिया अहंकारी
होने के लिए।
यही
तुम्हारे साथ
घट रहा है।
पतंजलि
तुम्हें
जंचते हैं
क्योंकि वे
कठिन हैं।
हेराक्लतु 'बाल—शिक्षण'
है क्योंकि
वह इतना सरल
है! सरलता
अहंकार को कभी
नहीं जंचती।
लेकिन ध्यान
रहे, यदि
सरलता का
आकर्षण बन सके,
तो मार्ग
लंबा नहीं है।
अगर कठिनाई का
आकर्षण बनता
है, तब
मार्ग बहुत
लंबा हो जाने
वाला है
क्योंकि
बिलकुल आरंभ
से ही, अहंकार
को गिराने की
बजाय तुमने
इसे संचित और पुष्ट
करना शुरू कर
दिया है।
तुम
और ज्यादा
अहंकारी न बनी
इसलिए मैं
पतंजलि पर बोल
रहा हूं।
देखना और
ध्यान रखना।
मुझे सदा भय
है पतंजलि के
बारे में
बोलने से। मैं
कभी भयभीत
नहीं हूं
हेराक्लतु
बाशो या बुद्ध
के बारे में
बोलने से; मुझे
भय है
तुम्हारे
कारण। पतंजलि
सुंदर हैं, पर तुम गलत
कारणों से
आकर्षित हो
सकते हो। और
यह एक गलत
कारण होगा—अगर
तुम सोचो कि
वे कठिन हैं।
तब वह कठिनाई
ही आकर्षण
बनती है। किसी
ने एडमंड हिलेरी
से पूछा, जिसने
माउंट
एवरेस्ट को
विजय किया—सबसे
ऊंची चोटी को,
पर्वत की
एकमात्र चोटी
जो अविजित थी—तो
किसी ने उससे
पूछा, 'क्यों?
क्यों तुम
इतनी अधिक
मुसीबत उठाते
हो? जरूरत
क्या है? और
अगर तुम चोटी
तक पहुंच भी
जाओ, तो
करोगे क्या
तुम? तुम्हें
लौटना तो
पड़ेगा ही।’
हिलेरी
ने कहा, 'यह एक
चुनौती है
मानव—अहंकार
के लिए। एक
अविजित शिखर
को जीतना ही
होता है। इसका
कोई और लाभ
नहीं है।’ क्या
किया उसने? वह गया वहां,
झंडा लगाया
और वापस लौट
आया! कितनी
निरर्थक बात
है! और बहुत
सारे व्यक्ति
मर गये इसी
प्रयास में।
लगभग सौ
वर्षों से
बहुत सारे दल
कोशिश करते रहे
थे। बहुत मर.
गये। वे अतल
खाई में जा
गिरे और नष्ट
हो गये और कभी
लौट कर न आये।
लेकिन यह
पहुंचना
जितना ज्यादा
कठिन हुआ, आकर्षण
उतना ज्यादा
बना।
चांद
पर क्यों जाते
हो?
क्या करोगे
तुम वहां? क्या
पृथ्वी काफी
नहीं है? पर
नहीं, मानव—अहंकार
इसे बरदाश्त
नहीं कर सकता
कि चांद अजेय
बना रहे। आदमी
को वहां
पहुंचना ही
चाहिए
क्योंकि यह बहुत
ज्यादा कठिन
है। इसे जीतना
ही है। तो तुम
गलत कारणों से
आकर्षित हो
सकते हो। अब
चांद पर जाना
कोई काव्यमय
प्रयत्न नहीं
है। यह छोटे
बच्चों की भांति
नहीं जो अपने
हाथ ऊपर उठा
देते हैं और
चांद को पकड़ने
की कोशिश करते
हैं।
जब
से मनुष्यता
अस्तित्व में
आयी,
हर बच्चा
चांद पर
पहुंचने के
लिए तरसा। हर
बच्चे ने
कोशिश की है, लेकिन भेद
समझ लेना है
गहराई से।
बच्चे की
कोशिश सुंदर
है। चांद इतना
सुंदर है। इसे
छूना, इस
तक पहुंचना एक
काव्यात्मक
प्रयास है।
इसमें कोई
अहंकार नहीं
है। यह एक
सीधा—सादा
आकर्षण है, एक प्रेम—संबंध।
हर बच्चा इस
प्रेम—संबंध
में पड़ता है।
वह बच्चा ही
क्या, जो
चांद द्वारा
आकर्षित न हो?
चांद
एक सूक्ष्म
कविता
निर्मित करता
है,
एक सूक्ष्म
आकर्षण। कोई
इसे छूना
चाहेगा और
महसूस करना चाहेगा;
कोई चांद पर
जाना चाहेगा।
लेकिन
वैज्ञानिक का
यह कारण नहीं
है।
वैज्ञानिक के
लिए चांद एक
चुनौती की
भांति है। यह
चांद साहस
कैसे करता है
कि वहां सतत
एक चुनौती की
भांति रहे! और
आदमी यहां है
और वह पहुंच नहीं
सकता! उसे पहुंचना
ही है।
तुम
गलत कारणों से
आकर्षित हो
सकते हो। दोष
चांद का नहीं
है,
और न ही
पतंजलि का कोई
दोष है। लेकिन
तुम्हें गलत
कारणों से
आकर्षित नहीं
होना चाहिए।
पतंजलि कठिन
हैं—सबसे अधिक
कठिन—क्योंकि
वे संपूर्ण
मार्ग का
विश्लेषण
करते है। हर
खंड बहुत कठिन
प्रतीत होता
है, लेकिन
कठिनाई कोई
आकर्षण नहीं
बननी चाहिए—इस
बात को खयाल
में लेना। तुम
पतंजलि के
द्वार से गुजर
सकते हो। फिर
भी तुम्हें
कठिनाई के
प्रेम में
नहीं पड़ना है,
बल्कि उस
अंतर्दृष्टि
के प्रेम में
पड़ना है—वह
प्रकाश जिसे
पतंजलि मार्ग
पर उतारते हैं।
तुम्हें प्रकाश
के प्रेम में
पड़ना है, मार्ग
की कठिनाई के
प्रेम में
नहीं। वह एक
गलत कारण होगा।
जो आप हेराक्लतु
क्राइस्ट और
झेन के बारे
में कहते रहे
हैं वह पतंजलि
की तुलना में
बाल—शिक्षा की
भांति लगता
है।
इसलिए
कृपा करके
तुलना मत करना।
तुलना भी
अहंकार ही है।
अस्तित्व में
चीजें बगैर
किसी तुलना के
होती हैं। एक
वृक्ष जो आकाश
में चार सौ
फीट तक उठ आया
है,
और एक बहुत
छोटा—सा घास
का फूल, दोनों
एक ही हैं
जहां तक कि
अस्तित्व का
संबंध है।
लेकिन तुम
जानते हो और
तुम कहते हो, 'यह एक बड़ा
वृक्ष है। और
यह क्या है? मात्र एक
साधारण घास का
फूल! ' तुम तुलना को
बीच में ले
आते हो, और
जहां कहीं
तुलना आती है,
वहां
कुरूपता होती
है। इसके
द्वारा तुमने
एक सुंदर घटना
को नष्ट कर दिया
है।
वृक्ष
अपने 'वृक्ष—पन'
में महान था
और घास अपने 'घास—पन' में
महान थी।
वृक्ष चार सौ
फीट ऊंचा उठ आया
होगा। इसके
फूल उच्चतम
आकाश में खिल
सकते होंगे, और घास तो बस
धरती से ही
लिपट रही है।
इसके फूल बहुत—बहुत
छोटे होंगे।
कोई जानता भी
न होगा, जब
वे खिलते और
जब वे कुम्हला
जाते हैं।
लेकिन जब इस
घास के फूल
खिलते हैं, तो खिलने की
घटना वही होती
है, उत्सव
वही होता है, और जरा भी
भेद नहीं होता।
इसे ध्यान में
रखना।
अस्तित्व में
कोई तुलना
नहीं होती। मन
लाता है तुलना।
यह कहता है, 'तुम ज्यादा
सुंदर हो? 'क्या तुम
इतना भर नहीं
कह सकते, 'तुम
सुंदर हो?' इस
'ज्यादा' को बीच में
क्यों लाना?
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
सी के प्रेम
में पड़ा हुआ
था,
और जैसी कि स्त्रियां
होती है, जब
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
उसे चूमा तो
उस सी ने पूछा,
'क्या तुम
मुझे पहली स्त्री
की हैसियत से
चूम रहे हो? क्या मैं
पहली सी हूं
जिसे तुम चूम
रहे हो? क्या
मुझसे पहले
किसी और सी को
तुम्हारा
पहला चुंबन
दिया जा चुका
है? 'नसरुद्दीन
बोला, 'हां,
पहला और
सबसे मधुर।’
तुलना
तुम्हारे खून
में घुस गयी
है। जैसी चीज
होती है उसके
साथ तुम नहीं
बने रह सकते।
वह सी भी
तुलना की मांग
कर रही है; वरना
चिंता क्या
करनी कि यह
पहला चुंबन है
या कि दूसरा
है? हर
चुंबन ताजा और
कुंआरा होता
है। इसका कोई
संबंध नहीं
होता अतीत के
या भविष्य के
किसी दूसरे
चुंबन के साथ।
हर चुंबन की
स्वयं में एक
सत्ता है। यह
अस्तित्व
रखता है केवल
इसकी
एकान्तिकता में
ही। यह स्वयं
में एक शिखर
है, यह एक इकाई
है—किसी भी
रूप में अतीत
या भविष्य के
साथ संबंधित
नहीं है।
पूछना क्यों.
क्या यह पहला
है? और उस
पहले चुंबन
में ऐसा कौन—सा
सौंदर्य होता
है? क्या
दूसरा या
तीसरा चुंबन
उतना सुंदर
नहीं हो सकता?
लेकिन
मन चाहता है
तुलना करना।
मन क्यों
चाहता है
तुलना करना? क्योंकि
तुलना द्वारा
अहंकार पोषित
होता है। यह
अनुभव कर सकता
है, 'मैं
हूं पहली सी।
यह है पहला
चुंबन।’ तुम्हारे
लिए चुंबन का
महत्व नहीं, चुंबन की
गुणवत्ता का
महत्व नहीं।
इस क्षण चुंबन
ने हृदय में
एक द्वार खोल
दिया है, लेकिन
तुम्हें
उसमें
दिलचस्पी
नहीं है।
तुम्हारे लिए
वह कुछ है ही
नहीं। तुम
रुचि रखते हो
इसमें कि यह
पहला है या
नहीं? अहंकार
सदा तुलना में
रुचि रखता है
और अस्तित्व
किसी तुलना को
जानता नहीं।
और हेराक्लतु
तथा पतंजलि
जैसे लोग
अस्तित्व में
रहते है, मन
में नहीं।
उनकी तुलना मत
करना।
बहुत
लोग मेरे पास
आते है और वे
पूछते है, 'कौन
ज्यादा महान
है, बुद्ध
या क्राइस्ट?'
कितनी
मूर्खता है
पूछना। मैं
उनसे कहता हूं
बुद्ध ज्यादा
महान है क्राइस्ट
से और
क्राइस्ट
ज्यादा महान
हैं बुद्ध से।
क्यों तुम
किये जाते हो
तुलना? कोई
सूक्ष्म चीज
वहां काम कर
रही है। अगर
तुम क्राइस्ट
के अनुयायी हो,
तो तुम
क्राइस्ट को
सबसे महान
कहना चाहोगे।
क्योंकि
क्राइस्ट
सबसे महान हों
तो तुम महान
हो सकते हो।
यह तुम्हारे
अपने अहंकार
की
परिपूर्णता
है। कैसे
तुम्हारा
गुरु सबसे
महान नहीं हो
सकता? उसे
होना ही है
क्योंकि तुम
इतने महान
शिष्य हो! और
अगर क्राइस्ट
सबसे महान
नहीं, तो
कहां जायेंगे,
क्या
करेंगे ईसाई?
अगर बुद्ध
सबसे महान न
हों, तब
क्या होगा
बौद्धों के
अहंकार का 2:
प्रत्येक
जाति, प्रत्येक
धर्म, प्रत्येक
देश, स्वयं
को सबसे अधिक
महान समझता है—इसलिए
नहीं कि कोई
देश महान होता
है; इसलिए
नहीं कि कोई
जाति महान
होती है। इस
अस्तित्व में
तो हर चीज
महानतम है।
अस्तित्व केवल
महानतम का
निर्माण करता
है। हर जीव
बेजोड़ है।
लेकिन मन को
यह बात जंचती
नहीं क्योंकि
तब तो महानता
एक सामान्य—सी
बात हो जाती
है। हर कोई
महान है! तब
इसका लाभ क्या
मे किसी को ज्यादा
नीचे होना
चाहिए।
पदानुक्रम
निर्मित करना
पड़ता है।
अभी
एक रात, मैं
एक किताब पढ़ता
था जॉर्ज
माइक्स की, और उसने कहा
है कि
बुडापेस्ट
में, हंगरी
में, जहां
वह पैदा हुआ, एक अंग्रेज
महिला उसके
प्रेम में पड़
गयी। उसे कुछ
ज्यादा प्रेम
वगैरह न था, लेकिन वह
अभद्र भी नहीं
होना चाहता था।
इसलिए जब उसने
पूछा, 'क्या
हम विवाह नहीं
कर सकते?' तो
वह बोला, 'यह
कठिन होगा
क्योंकि मेरी
मां मुझे ऐसा
करने न देगी।
और अगर मैं एक
विदेशी से
विवाह करूं तो
वह खुश न होगी।’
वह अंग्रेज
महिला बहुत
ज्यादा नाराज
हुई। वह बोली,
'क्या? मैं,
और विदेशी?
मैं विदेशी
नहीं हूं। मैं
अंग्रेज हूं।
तुम हो विदेशी
और तुम्हारी
मां भी।’ माइक्स
ने कहा, 'बुडापेस्ट
में, हंगरी
में, क्या
मैं विदेशी
हूं?' वह
कहने लगी, 'हां।
सत्य भूगोल पर
निर्भर नहीं
करता है।’
हर
कोई इसी ढंग
से सोचता है।
मन कोशिश करता
है। अपनी
इच्छाओं को
पूरा करने की; वह
सबसे अधिक
ऊंचा होने की
कोशिश करता है।
धर्म हो, जाति
हो, देश हो,
हर चीज में
व्यक्ति को
सचेत रहना
होता है। केवल
तभी तुम
अहंकार की इस
सूक्ष्म घटना
के पार जा
सकते हो।
'हेराक्लतु
क्राइस्ट और
झेन के वचनों
से अंतिम चरण
निकट प्रतीत
होता है।
पतंजलि पहले
चरण को भी
लगभग असंभव—सा
बनाते हैं।’ —क्योंकि वह
दोनों है। वह
निकटतम से भी
ज्यादा निकट
है और वह
दूरतम से भी
दूर है—यही
उपनिषद कहते
हैं। वह निकट
और दूर दोनों
है। उसे होना
ही है, अन्यथा
कौन होगा दूर?
और उसे निकट
भी होना है, अन्यथा कौन
होगा
तुम्हारे
निकट? वह
तुम्हारी
त्वचा को
स्पर्श करता
है, और वह
किन्हीं
सीमाओं के पार
फैला हुआ है।
वह दोनों है।
हेराक्लतु
निकटता पर जोर
देते हैं
क्योंकि वे एक
सरल व्यक्ति
हैं। और वे
कहते हैं कि
वह इतना निकट
है कि उसे
निकट लाने को
कुछ करने की
जरूरत नहीं है।
वह वहां होता
ही है। वह तो
तुम्हारे
द्वार पर खड़ा
ही है; खटखटा
रहा है
तुम्हारा द्वार,
तुम्हारे
हृदय के निकट
प्रतीक्षा कर
रहा है, कुछ
नहीं करना है।
तुम बस, मौन
हो जाना और
जरा देखना; केवल शांत, मौन होकर
बैठ जाओ और
देखो। तुमने
उसे कभी नहीं
खोया। सत्य
निकट है।
वास्तव
में,
यह कहना कि
वह निकट है, गलत है
क्योंकि
तुम्हीं सत्य
हो। निकटता भी
काफी दूर
प्रतीत होती
है। निकटता भी
दर्शाती है कि
एक पृथकता है,
एक भेद है, एक अंतर है।
वह अंतर भी
वहां नहीं है;
तुम हो वह।
उपनिषद कहता
है, 'वह
तुम्हीं हों—तत्त्वमसि
श्वेतकेतु।’ तुम वह हो ही।’वह निकट है', ऐसा कहना
गलत है
क्योंकि उतनी
दूरी भी नहीं
है वहां।
हेराक्लतु
और झेन चाहते
हैं कि तुम
तुरंत छलांग
लगा दो, प्रतीक्षा
न करो। पतंजलि
कहते है कि वह
बहुत दूर है।
वे भी सही हैं;
वह बहुत दूर
भी है। और
पतंजलि
तुम्हें
ज्यादा
आकर्षित
करेंगे, क्योंकि
यदि वह इतना
निकट है और
तुमने उसे पाया
नहीं, तो
तुम बहुत—बहुत
पराजित और
उदास अनुभव
करोगे। यदि वह
इतना निकट है,
बस किनारे
पर ही, खड़ा
ही है
तुम्हारे
पहलू में, अगर
वही एकमात्र
पड़ोसी है, अगर
हर तरफ से वह
तुम्हें घेरे
हुए है और
तुमने उसे
पाया नहीं, तो तुम्हारा
अहंकार बहुत
ज्यादा
पराजित अनुभव
करेगा।
तुम्हारे
जैसा इतना
महान व्यक्ति,
और वह इतना
निकट है और
तुम उसे चूक
रहे हो? यह
बात बहुत
पराजित करने
वाली मालूम
पड़ती है।
लेकिन अगर वह
बहुत दूर है, तब तो सब ठीक
है क्योंकि तब
समय की जरूरत
रहती है, प्रयास
की जरूरत होती
है, फिर
तुम्हारी कोई
गलती नहीं है;
वही इतनी
दूर है।
दूरी
इतनी विराट
चीज है। तुम
समय लोगो, तुम
चलते जाओगे, तुम बढ़ोगे
और एक दिन तुम
पा लोगे। यदि
वह निकट है, तो तुम
अपराधी अनुभव
करोगे। तब तुम
उसे क्यों
नहीं पा रहे? हेराक्लतु
और बाशो और
बुद्ध को पढ़ते
हुए, कोई
अशुविधा
अनुभव करता है।
ऐसा पतंजलि के
साथ कभी नहीं
होता। उनके
साथ व्यक्ति
निशित अनुभव
करता है।
जरा
मन के
विरोधाभास को
देखो। सबसे
आसान बात के
साथ व्यक्ति
बेचैनी अनुभव
करता है।
अशुइवधा
तुम्हारे
कारण ही आती
है। हेराक्लतु
या जीसस के
साथ चलना बहुत
अशुविधाजनक
है क्योंकि वे
जोर दिये जाते
है कि प्रभु
का राज्य
तुम्हारे भीतर
ही है। और तुम
जानते हो कि
सिवाय नरक के
तुम्हारे भीतर
कुछ विद्यामन
नहीं है।
लेकिन वे जोर
देते है कि
प्रभु का
राज्य तुम्हारे
भीतर है, इसलिए
यह बात कष्टकर
हो जाती है।
यदि
प्रभु का
राज्य
तुम्हारे
भीतर है तो
तुम्हारे साथ
ही कुछ गड़बड़
है। क्यों तुम
इसे देख नहीं
सकते? और अगर
यह इतना अधिक
मौजूद है, तो
यह बिलकुल इसी
क्षण क्यों
नहीं घट सकता?
यही है झेन
का संदेश—कि
यह तात्कालिक
है।
प्रतीक्षा
करने की कोई
जरूरत नहीं।
कोई जरूरत
नहीं समय
गंवाने की। यह
बिलकुल अभी घट
सकता है, इस
क्षण ही। वहां
कोई बहाना
नहीं। यह बात
तुम्हें
लज्जित बना
देती है। तुम
बेचैनी अनुभव
करते हो, क्योंकि
तुम कोई बहाना
नहीं ढूंढ
सकते। पतंजलि
के साथ तो तुम
लाखों बहाने
खोज सकते हो, कि वह बहुत
दूर है। लाखों
जन्मों तक
प्रयास करने
की जरूरत है।
ही, इसे
पाया जा सकता
है, पर
हमेशा भविष्य
में ही। तब
तुम निश्चित
होते हो इसके
बारे में कोई
बहुत
तात्कालिकता नहीं
होती है, और
जैसे तुम अभी
हो, वैसे
ही रह सकते हो।
कल सुबह तुम
मार्ग पर बढ़ना
शुरू करोगे!
.और कल कभी आता
नहीं।
पतंजलि
तुम्हें समय
देते हैं, भविष्य
देते हैं। वे
कहते है, 'यह
करो और वह करो,
और ऐसा करो।
और धीरे—धीरे
तुम पहुंचोगे
किसी दिन। कब?
यह कोई
जानता नहीं।
पहुंचेंगे
भविष्य की
किसी जिंदगी
में।’ तब
तुम सुख—चैन
में होते हो; कोई बड़ी
जरूरत नहीं।
तुम वैसे रह
सकते हो जैसे
तुम हो; कोई
जल्दी नहीं है।
ये
झेन के लोग, ये
तुम्हें पागल
बना देते हैं।
और मै तुम्हें
ज्यादा पागल
बना देता हूं
क्योंकि मै
दोनों ओर से
बोलता हूं। यह
मात्र एक ढंग
है। यह एक
कोआन है, पहेली
है। यह सिर्फ
एक तरीका है
तुम्हें
मतवाला बना
देने का। मैं
हेराक्लतु का
उपयोग करता
हूं मैं पतंजलि
का उपयोग करता
हूं लेकिन ये
युक्तियां
है तुम्हें
मतवाला बना
देने की।
तुम्हें
बिलकुल शिथिल
नहीं होने
दिया जा सकता।
जब कभी भविष्य
होता है, तुम्हें
ठीक लगता है।
तब मन
परमात्मा की
आकांक्षा कर
सकता है। और
तुम्हारी कोई
गलती नहीं है।
यह घटना ही
ऐसी है कि यह
समय लेगी! यह
बात एक बहाना
बन जाती है।
पतंजलि
के साथ तुम
स्थगित कर
सकते हो, तैयार
हो सकते हो, झेन के साथ
तुम स्थगित
नहीं कर सकते।
अगर तुम
स्थगित करते
हो, तो यह
तुम ही हो जो
स्थगित कर रहे
हो, परमात्मा
नहीं। पतंजलि
के साथ तुम
स्थगित कर
सकते हो, तैयार
हो सकते हो, क्योंकि
परमात्मा का
स्वभाव ही ऐसा
है कि वह केवल
क्रमिक
मार्गों
द्वारा पाया
जा सकता है।
वह बहुत—बहुत
कठिन है।
इसीलिए
कठिनाई के साथ
तुम सुविधा
अनुभव करते हो।
और यही है
विरोधाभास :
जो कहते हैं
कि यह आसान है
उनके साथ तुम
असुविधा
अनुभव करते हो;
जो कहते हैं
कि यह कठिन है
उनके साथ तुम
सुविधा अनुभव
करते हो। होना
तो उलटा चाहिए।
लेकिन
दोनों सत्य
हैं,
इसलिए यह
तुम पर निर्भर
करता है। अगर
तुम स्थगित
करना चाहते हो,
तैयार होना
चाहते हो, तो
पतंजलि
श्रेष्ठ है।
अगर तुम इसे
यहीं और अभी
चाहते हो, तो
झेन को सुनना
होगा और
तुम्हें
निर्णय लेना होगा।
क्या तुम बहुत
तात्कालिकता
में हो? क्या
तुमने
पर्याप्त दुख
नहीं उठा लिया
है? क्या
तुम और दुख
उठाना चाहते
हो? तो
पतंजलि
श्रेष्ठ हैं।
तुम पतंजलि के
पीछे चलो। तब
कहीं दूर, आगे
भविष्य में
तुम आनंद
प्राप्त कर
लोगे।
पर
यदि तुमने
पर्याप्त दुख
उठाया है, तो
यह अभी घट
सकता है। और
यही होती है
परिपक्वता—समझ
लेना कि तुमने
पर्याप्त दुख
उठा लिया है।
और
तुम
हेराक्लतु और
झेन को. 'बच्चों
जैसा' कह
देते हो।’बाल—शिक्षा,
किंडरगार्टन
न; ' मैने
काफी दुख उठा
लिया इसके बोध
से भर जाना ही
एकमात्र
परिपक्वता है।
अगर तुम ऐसा
अनुभव करते हो,
तो एक
तात्कालिकता निर्मित
हो जाती है; तब अग्रि
निर्मित हो
जाती है। कुछ
कर लेना है, बिलकुल अभी!
तुम इसे
स्थगित नहीं
कर सकते।
स्थगित करने
और तैयार होने
में कोई अर्थ
नहीं। तुम इसे
काफी स्थगित
कर चुके हो।
लेकिन यदि तुम
भविष्य चाहते
हो, अगर
तुम थोड़ा और
दुख उठाना
चाहते हो,अगर
तुम नरक के
साथ आसक्त हो
गये हो, अगर
तुम एक दिन और
चाहते हो वैसा
ही बने रहने को,
या अगर तुम
सिर्फ कुछ
चाहते हो
मामूली
रूपांतरण, तो
पतंजलि के
पीछे हो लेना।
इसीलिए
पतंजलि कहते
हैं,
'यह करो, वह
करो—धीरे—धीरे।
एक चीज करो, फिर दूसरी
चीज करो। 'लाखों
चीजें हैं जो
करनी होती
हैं। और
उन्हें तुरंत
किया नहीं जा
सकता। तो तुम
स्वयं को
थोड़ा— थोड़ा
परिवर्तित
किये चले जाते
हो। आज तुम
प्रतिज्ञा
करते हो कि तुम
अहिंसात्मक
रहोगे; कल
तुम दूसरी
प्रतिज्ञा
करोगे। फिर
परसों तुम
ब्रह्मचारी
बन जाओगे, और
इस तरह ये
बातें चलती
चली जाती हैं।
तब लाखों
चीजों को
गिराना होता
है—झूठ बोलना
गिराना होता
है, हिंसा
गिरानी होती
है; धीरे—धीरे,
क्रोध, घृणा,
ईर्ष्या, परिग्रह आदि
लाखों
चीजें—जो
तुम्हारे पास
हैं।
लेकिन
इस बीच तुम
वही रहते हो।
कैसे तुम
क्रोध गिरा
सकते हो, यदि
तुमने घृणा को
नहीं गिरा
दिया है? यदि
तुमने
ईर्ष्या को
नहीं गिरा
दिया है, तो
कैसे तुम
क्रोध गिरा
सकते हो? कैसे
तुम क्रोध
गिरा सकते हो
यदि तुमने
आक्रामकता को
नहीं गिराया '
वे
अंतर्संबंधित
है। तुम कहते
हो कि अब तुम
और क्रोधित
नहीं होओगे, लेकिन क्या
कह रहे हो तुम?
बड़ी छूता की
बात। तुम घृणा
से भरे रहोगे,
तुम
आक्रामक बने
रहोगे, तुम
फिर भी शासन
जमाना चाहोगे,
तुम फिर भी
एकदम ऊंचाई पर
रहना चाहोगे,
और तुम गिरा
रहे हो क्रोध
को? कैसे
तुम इसे गिरा
सकते हो? वे
बातें
अंतर्संबधित
हैं।
झेन
यही कहता है
कि यदि तुम
किसी चीज को
गिराना चाहते
हो,
तो इस घटना
को समझ लेना
कि हर चीज
संबंधित है।
या तो तुम इसे
अभी गिरा दो, या फिर तुम
इसे कभी न
गिराओगे।
स्वयं को धोखा
मत दो। तुम
मात्र
लीपा—पोती कर
सकते हो— थोड़ी
यहां, एक
मरम्मत वहां,
और पुराना
घर इसके
पुरानेपन
सहित बना रहता
है। और जब तुम
काम किये चले
जाते हो, दीवारों
को रंगते हो
और सुराखों को
भरते हो और यह
करते हो और वह
करते हो, तो
तुम सोचते हो
कि तुम कोई
नया जीवन
निर्मित कर
रहे हो। और इस
बीच तुम वही
बने रहते हो।
और जितना
ज्यादा इसे
तुम किये जाते
हो, यह
उतनी ज्यादा
गहरी जड़ें जमा
लेता है।
धोखा
मत देना। यदि
तुम समझ सकते
ढ़ो,
तो समझना
तुरंत होता
है। यही है
झेन का संदेश।
अगर तुम नहीं
समझ सकते, तो
कुछ करना होता
है, और
पतंजलि ठीक
रहेंगे। तब
तुम पतंजलि का
अनुसरण करते
हो। किसी न
किसी दिन, तुम्हें
समझ तक पहुंच
जाना होगा, जहां तुम
देखोगे कि यह
सारी बात एक
चालाकी रही—
बच निकलने की
तुम्हारे मन
की एक चालाकी,
वास्तविकता
को टाल जाने
की, टालने
की और पलायन
की चालाकी—और
उस दिन अकस्मात
तुम गिरा
दोगे।
पतंजलि
क्रमिक हैं, झेन
अकस्मात है।
यदि तुम
अकस्मात नहीं
हो सकते, तो
बेहतर है
क्रमिक हो
जाना। कुछ न
होने की बजाय—न
तो यह, न ही
वह—बेहतर होगा
तुम क्रमिक ही
हो जाओ।
पतंजलि भी
—तुम्हें इसी
स्थिति तक
लायेंगे, लेकिन
वे तुम्हें
थोड़ा समय
देंगे। यह
ज्यादा सुविधापूर्ण
है; कठिन
है, पर
ज्यादा
सुविधापूर्ण
है। किसी
तात्कालिक रूपांतरण
की मांग नहीं
की जाती, और
क्रमिक विकास
के साथ मन ठीक
बैठ सकत है। '
हेराक्लतु
क्राइस्ट और
झेन के द्वारा
अंतिम चरण
निकट प्रतीत
होता है, पतंजलि
पहले चरण को
भी लगभग
असंभव—सा बना
देते हैं। ऐसा
लगता है, स्वयं
पर कितना काम
करना है इसका
अनुमान पाश्रिमात्य
लोग शायद ही
लगा पाते हों।'
यह
तुम पर निर्भर
है। यदि तुम
काम करना
चाहते हो, तो
तुम कर सकते हो
इसे। अगर तुम
जानना चाहते
हो बिना काम
किये, वह
भी संभव है।
वह भी है सभव।
यह चुनाव
तुम्हारा है।
अगर तुम कठिन
श्रम करना चाहते
हो तो मैं
तुम्हें
दूंगा कठिन
श्रम। मै तो
और ज्यादा
सोपान भी
निर्मित कर
सकता हूं।
पतंजलि और
लंबाये भी जा
सकते है।
उन्हें और
फैलाया जा
सकता है। मैं
लक्ष्य को और
ज्यादा दूर भी
रख सकता हूं; मैं तुम्हें
करने को असंभव
चीजें दे सकता
हूं। यह
तुम्हारी
पसंद होती है।
या अगर तुम
वास्तव में
जानना चाहते
हो, तो यह
इसी क्षण घट
सकता है। यह
तुम पर है।
पतंजलि देखने
का एक ढंग हैं,
हेराक्लतु
भी देखने का
एक ढंग है।
एक
बार ऐसा हुआ
कि मैं एक सड़क
पर से गुजरता
था और मैंने
एक छोटे बच्चे
को बहुत बड़ा
तरबूज खाते
देखा। उसके
लिहाज से वह
तरबूज बहुत
बड़ा था। मैंने
देखा और मैंने
ध्यान दिया, और
मैने जाना कि
उसे खत्म करना
उसे कुछ कठिन
लग रहा था। सो
मैंने उससे
कहा, 'यह तो
सचमुच बहुत
बड़ा लगता है, न? 'उस
लड़के ने मेरी
तरफ देखा और
कहा, 'नहीं।
मैं ही छोटा
पड़ता हूं।’
वह
भी ठीक है। हर
चीज दो
दृष्टिकोणों
से देखी जा
सकती है।
परमात्मा
निकट है और
दूर है। अब यह
तुम पर है
निर्णय लेना
कि तुम कहां
से छलांग
लगाना चाहोगे—निकट
से या दूर से।
अगर तुम दूर
से छलांग
लगाना चाहते
हो,
तब सारी
विधियां चली
आती हैं।
क्योंकि वे
तुम्हें दूर
ले जायेंगी, और वहां से
तुम छलांग
लगाओगे। यह
बिलकुल इस
भांति है, जैसे
तुम सागर के
इस किनारे खड़े
हो। सागर यहां
है और वहां भी
है दूसरे
किनारे पर, जो कि पूरी
तरह अदृश्य है—बहुत—बहुत
दूर। तुम इस
किनारे से
छलांग लगा
सकते हो
क्योंकि यह
वही सागर है, लेकिन यदि
तुम दूसरे
किनारे से
छलांग लगाने का
निर्णय लेते
हो तो पतंजलि
तुम्हें नाव
दे देते हैं।
सारा
योग एक नाव है
दूसरे किनारे
तक ले जाने के
लिए,
जहां से तुम
छलांग लगा सको।
यह तुम पर है।
तुम यात्रा का
मजा ले सकते
हो; इसमें
गलत नहीं है
कुछ। मैं नहीं
कह रहा, यह
गलत है। यह
तुम पर है।
तुम नाव ले
सकते हो और
दूसरे किनारे
पर जा सकते हो,
और तुम वहां
से लगा सकते
हो छलांग।
लेकिन वही
सागर है वहां।
क्यों न इसी
किनारे से
छलांग लगा दो?
छलांग वही
होगी, सागर
तो वही होगा, और तुम भी
वही होगे।
इससे क्या
फर्क पड़ता है,
अगर तुम
दूसरे किनारे
पर जाते हो? वहां दूसरे
किनारे पर लोग
हो सकते हैं
और वे यहां
आने की कोशिश
कर रहे होंगे।
वहां भी कई
पतंजलि होते
हैं; उन्होंने
वहां नावें
बना ली हैं।
वे यहां आ रहे
हैं बड़ी दूर
से छलांग
लगाने के लिए।
ऐसा
हुआ कि एक
आदमी सड़क पार
करने की कोशिश
कर रहा था। वह
भीड़ का समय था, और
सड़क पार करना
कठिन था। बहुत—सी
कारें बहुत
तेज दौड़ी जा
रही थीं। वह
बहुत धीमा
आदमी था। उसने
बहुत बार
कोशिश की और
फिर लौट आया।
फिर उसने मुल्ला
नसरुद्दीन को
देखा—स्व
पुराना
परिचित, जो
दूसरी ओर था।
वह चिल्लाया,
'नसरुद्दीन,
तुमने कैसे
सड़क पार की? 'नसरुद्दीन
बोला, 'मैंने
कभी नहीं पार
की। मैं तो
पैदा हुआ इस
ओर।’
लोग
है जो सदा
सोचते रहते
हैं दूर के
किनारे की।
दूर की बात
हमेशा सुंदर
लगती है। दूर
का एक अपना ही
चुंबकीय
आकर्षण होता
है,
क्योंकि यह
धुंध में
लिपटा होता है।
लेकिन सागर
वही है। यह
तुम पर है
चुनना। उस
किनारे पर
जाने में कुछ
गलत नहीं है
लेकिन जाओ सही
कारणों से। हो
सकता है, तुम
इस किनारे से
छलांग लगाना
सिर्फ टाल ही
रहे होओ। अगर
नाव तुम्हें
दूसरे किनारे
तक ले भी जाती है,
तो जिस क्षण
तुम उस किनारे
पर पहुंचते हो,
तुम इस
किनारे की
सोचने लगोगे,
क्योंकि तब
यह बात बहुत
दूर की बात
होगी। और बहुत
बार, बहुत
जन्मों से
तुमने यही
किया है।
तुमने किनारे
बदल लिये हैं,
लेकिन
तुमने छलांग
नहीं लगायी है।
मैंने
देखा है
तुम्हें इस ओर
से उस ओर तक
सागर पार करते
हुए और उस ओर
से इस ओर पार
करते हुए। यही
है समस्या—वह
किनारा बहुत
दूर है
क्योंकि तुम
यहां हो, और जब
तुम वहां होते
हो तो यह
किनारा बहुत
दूर हो जायेगा।
और तुम एक ऐसी
नींद में हो
कि तुम बार—बार
बिलकुल भूल ही
जाते हो कि
तुम उस किनारे
तक भी जा चुके
हो। जिस समय
तक तुम दूसरे
किनारे पर
पहुंचते हो, तुम उस
किनारे को भूल
जाते हो, जिसे
तुम पीछे छोड़
चुके होते हो।
जिस समय तक
तुम पहुंचते
हो, विस्मरण
अधिकार जमा
लेता है, तुम
पर।
तुम
दूर की ओर
देखते, और
फिर कोई कह
देता, ' श्रीमान,
यह रही नाव।
आप जा सकते हो
दूसरे किनारे
पर, और आप
लगा सकते हो
वहां से छलांग
क्योंकि परमात्मा
बहुत—बहुत दूर
है।’ और
तुम फिर
तैयारी शुरू
कर देते उस
किनारे को छोड़ने
की। पतंजलि
तुम्हें
दूसरे किनारे
पर जाने के
लिए नाव देते
हैं। लेकिन जब
तुम दूसरे पर
पहुंच चुके
होते हो, तो
झेन सदा छलांग
देगा तुम्हें।
अंतिम छलांग
झेन द्वारा
होती है। इस
बीच तुम बहुत
सारी चीजें कर
सकते हो, वह
कोई सार नहीं
है। जब कभी
तुम छलांग
लगाओगे, वह
अचानक छलांग
होगी। यह
क्रमिक नहीं
हो सकती।
इस
किनारे से उस
किनारे तक
जाना यही सारी
क्रमिकता है।
लेकिन इसमें
गलत कुछ भी
नहीं है। अगर
तुम यात्रा का
आनंद लेते हो
तो यह सुंदर है, क्योंकि
'वह' यहीं
है, वह
मध्य में है, वह उस
किनारे पर भी
है। दूसरे
किनारे पर
जाने की जरूरत
नहीं है। तुम
मध्य से भी
छलांग लगा
सकते हो, नाव
से ही। तब नाव
ही किनारा बन
जाती है। जहां
कहीं से तुम
छलांग लगाते
हो वही किनारा
है। किसी क्षण
तुम लगा सकते
हो छलांग, तब
जिस बिंदु से
तुम छलांग
लगाते हो, वह
किनारा बन
जाता है। अगर
तुम छलांग
नहीं लगाते, तो वह जगह
फिर किनारा
नहीं होती। यह
तुम पर निर्भर
करता है; इसे
ठीक से ध्यान
में रख लेना।
इसलिए
मैं सारे
परस्पर—विरोधी
दृष्टिकोणों
पर बोल रहा
हूं जिससे कि तुम
हर तरफ से समझ
सको और तुम हर
तरफ से देख
सको वास्तविकता
को। फिर तुम
निर्णय ले
सकते हो। अगर
तुम
प्रतीक्षा
करने का
निर्णय लेते
हो,
तो सुंदर।
अगर तुम
बिलकुल अभी
छलांग लगाने
का निर्णय लेते
हो, तो
सुंदर। मेरे
देखे, हर
चीज सुंदर और
महान है, और
मेरा कोई
चुनाव नहीं है।
मैं तो बस
तुम्हें दे
देता हूं सारे
चुनाव, सारे
विकल्प। अगर
तुम कहते हो, मैं थोड़ी और
प्रतीक्षा
करना चाहूंगा,
तो मैं कहता
हूं शुभ! मैं
आशीष देता हूं।
करो थोड़ी
प्रतीक्षा।
अगर तुम कहते
हो, मैं
तैयार हूं और
मैं छलांग
लगाना चाहता
हूं तो मैं
कहता हूं 'छलांग
लगा दो, मेरे
आशीष सहित।’
मेरे
लिए कोई चुनाव
नहीं—न तो
हेराक्लतु न
ही पतंजलि।
मैं तो केवल
द्वार खोल रहा
हूं तुम्हारे
लिए इस आशा
में कि शायद
तुम किसी
द्वार में
प्रवेश कर जाओ।
लेकिन याद
रखना मन की
चालाकियां।
जब मैं
हेराक्लतु पर
बोलता हूं तो
तुम सोचते हो, 'यह
बहुत धुंधला
है, बहुत
रहस्यपूर्ण, बहुत सरल! 'जब मैं
पतंजलि पर
बोलता हूं तो
तुम सोचते हो,
'यह बहुत
कठिन है; लगभग
असंभव।’ मैं
द्वार खोल देता
हूं और तुम
व्याख्या बना
लेते हो। तुम
निर्णय कर
लेते हो। और
तुम स्वयं को
रोक लेते हो।
द्वार खुला है
लेकिन
तुम्हारे
निर्णय देने को
नहीं, तुम्हारे
प्रवेश करने
के लिए।
विश्वास
से बढ़कर
श्रद्धा तक
पहुंचने के
विषय में आपने
कहा है? संदेह
और विश्वास के
बीच झुलने
वाले हमारे मन
का उपयोग हम
इन दो छोरों
के पार जाने
के लिए किस
तरह कर सकते
हैं?
संदेह
और विश्वास
भिन्न नहों
हैं। वे एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
पहले इसे समझ
लेना है, क्योंकि
लोग सोचते हैं
कि जब वे
विश्वास करते हैं,
तो वे संदेह
के पार जा
चुके होते हैं।
विश्वास
संदेह के समान
ही है क्योंकि
दोनों मन के
विषय हैं।
तुम्हारा मन
बहस करता, नहीं
कहता, हां
कहने में मदद
देने को कोई
प्रमाण नहीं
जुटाता, तो
तुम संदेह
करते हो। फिर
तुम्हारा मन
हां कहने के
लिए युइका
खोजता है, प्रमाण
खोजता है, तो
तुम विश्वास
कर लेते हो। लेकिन
दोनों
अवस्थाओं में
तुम तर्क में
विश्वास करते
हो; दोनों
अवस्थाओं में
तुम युइका में
विश्वास करते
हो। भेद तो
मात्र सतह पर
ही है, नीचे
गहरे में तुम
तर्क में ही
विश्वास करते
हो; और
श्रद्धा है
तर्क के बाहर
हो जाना।
श्रद्धा
पागल है, अबौद्धिक
है, बेतुकी
है।
और
मैं कहता हूं
श्रद्धा
विश्वास नहीं
है;
श्रद्धा
व्यक्तिगत
साक्षात्कार
है। विश्वास
फिर दिया हुआ
ही होता है या
उधार लिया
होता है। वह
एक संस्कार है।
विश्वास एक
संस्कार है, जिसे माता—पिता,
सभ्यता, समाज
तुम्हें देता
है। तुम इसकी
परवाह नहीं
करते; तुम
इसे व्यक्तिगत
विषय नहीं
बनाते। यह एक
दी हुई चीज है।
एक चीज जो दी
गयी है और जो
एक व्यक्तिगत
विकास नहीं है,
मात्र एक
ऊपरी चीज होती
है; एक
नकली चेहरा, रविवारीय
चेहरा।
छह
दिन तुम अलग
होते हो, फिर
रविवार को तुम
चर्च में
प्रवेश करते
हो और तुम
मुखौटा चढ़ा
लेते हो। जरा
देखना, लोग
चर्च में कैसे
व्यवहार करते
हैं। इतनी
नरमाई से, इतने
मानवीय होकर—वही
लोग! अगर एक
खूनी भी चर्च
में आ जाता है
और प्रार्थना
करता है, तो
उसके चेहरे को
देखना—वह इतना
सुंदर और
निर्दोष लगता
है। और इसी
आदमी ने कत्ल
किया है। चर्च
में तुम्हारे
पास उपयोग
करने को एक उपयुक्त
चेहरा होता है,
और तुम
जानते हो उसे
कैसे उपयोग
करना है। यह
एक
संस्कारबद्धता
रही है।
बिलकुल बचपन
से ही इसे
तुम्हें दे
दिया गया है।
विश्वास
दिया जाता है; आस्था
एक विकास है।
तुम
वास्तविकता
से
साक्षात्कार
करते हो, तुम
वास्तविकता
का सामना करते
हो, तुम
वास्तविकता
को जीते हो, और धीर— धीरे
तुम एक समझ तक
आ पहुंचते हो
कि संदेह ले जाता
है नरक तक, दुख
तक। जितना
ज्यादा तुम
संदेह करते हो,
उतने
ज्यादा दुखी
तुम हो जाते
हो। यदि तुम
पूरी तरह से
संदेह कर सकी,
तो तुम
संपूर्ण दुख में
होओगे। अगर
तुम संपूर्ण
दुख में नहीं
हो, तो इसी
कारण कि पूरी
तरह संदेह
नहीं कर सकते।
तुम अभी आस्था
रखते हो। एक
नास्तिक भी
आस्था रखता है।
वह व्यक्ति भी,
जो संदेह
करता है कि
ईश्वर है या
नहीं, वह
भी आस्था रखता
है, वरना
वह जी नहीं
सकता; जिंदगी
असंभव हो जायेगी।
यदि
संदेह समग्र
हो जाता है, तो
तुम एक पल भी न
जी पाओगे। तुम
कैसे सांस ले
सकते हो यदि
तुम संदेह करो?
यदि तुम
वास्तव में
संदेह करते हो,
तो कौन
जानता है कि
सांस जहरीली
नहीं है। कौन
जानता है कि
लाखों कीटाणु
भीतर नहीं
पहुंच रहे!
कौन जानता है
कि कैंसर नहीं
आ रहा सांस द्वारा।
अगर तुम
वास्तव में
संदेह करते हो,
तो तुम सांस
भी नहीं ले
सकते। तुम
क्षण भर को
नहीं जी सकते
हो, तुम
फौरन मर जाओगे।
संदेह
आत्मघात है।
पर तुम कभी
संपूर्णतया
संदेह नहीं
करते, अत:
तुम विलंब
किये जाते हो।
तुम देर लगाते
रहते हो; किसी
तरह तुम चलाये
चलते हो।
लेकिन
तुम्हारा
जीवन समग्र
नहीं होता।
जरा सोचो अगर
समग्र संदेह
आत्मघात होता
है, तो
समग्र
श्रद्धा एक
परम जीवन की
संभावना है।
यही
है जो घटता है
श्रद्धावान
को। वह श्रद्धा
करता है। और
जितनी ज्यादा
वह श्रद्धा
करता है, उतना
ज्यादा वह
श्रद्धा करने
के योग्य बनता
है। जितना
ज्यादा वह
श्रद्धा रखने
में सक्षम बनता
है, उतना
ज्यादा जीवन
खुलता है। वह
ज्यादा अनुभव
करता है, वह
ज्यादा जीता
है, पूर्णरूपेण
जीता है। जीवन
एक प्रामाणिक
आनंद बन जाता
है। अब वह
अधिक श्रद्धा
कर सकता है।
ऐसा नहीं है
कि वह धोखा
नहीं खाता है।
अगर तुम
श्रद्धा करते
हो, इसका
मतलब यह नहीं
कि कोई
तुम्हें धोखा
देने ही वाला
नहीं। वस्तुत:
ज्यादा लोग
तुम्हें धोखा
देंगे क्योंकि
तुम
असुरक्षित बन
जाते हो। अगर
तुम श्रद्धा
करते हो, तो
ज्यादा लोग
तुम्हें धोखा
देंगे, लेकिन
कोई तुम्हें
दुखी नहीं बना
सकता; यही
समझने की बात
है। वे धोखा
दे सकते हैं, वे तुम्हारी
चीजें चुरा
सकते हैं, वे
रुपया उधार ले
सकते हैं और
उसे कभी नहीं
लौटाते, लेकिन
कोई तुम्हें
दुखी नहीं बना
सकता। यह
असंभव हो जाता
है। अगर वे
तुम्हें मार
भी डालें तो
भी वे तुम्हें
दुखी नहीं बना
सकते।
तुम
आस्था रखते हो।
और आस्था
तुम्हें
असुरक्षित
बना देती है
लेकिन परम
विजेता भी, क्योंकि
कोई तुम्हें
हरा नहीं सकता।
वे धोखा दे
सकते हैं, वे
चुरा सकते हैं।
हो सकता है
तुम भिखारी बन
जाओ, पर
फिर भी तुम
सम्राट रहोगे।
श्रद्धा
भिखारियों को
सम्राट बना
देती है और संदेह
सम्राटों को
भिखारी बना
देता है।
जरा
किसी सम्राट
को तो देखो; वह
श्रद्धा नहीं
कर सकता, वह
सदा ही भयभीत
रहता है। वह
अपनी पत्नी पर
आस्था नहीं रख
सकता, वह
अपने बच्चों
पर आस्था नहीं
रख सकता, क्योंकि
एक सम्राट
इतने अधिक का
स्वामी होता है
कि बेटा उसे
मार डालेगा, पत्नी उसे
जहर दे देगी।
वह किसी पर
भरोसा नहीं रख
सकता। वह इतने
संदेह से भरा
है, वह
पहले से ही
नरक में है।
अगर वह सोता
भी है, तो
वह आराम नहीं
कर सकता। कौन
जानता है कि
क्या
घटनेवाला है!
श्रद्धा
तुम्हें
ज्यादा और
ज्यादा खुला
बना देती है।
निस्संदेह, जब
तुम खुले होते
हो, तो
बहुत सारी
चीजें संभव हो
जायेंगी। जब
तुम खुले होते
हो तो मित्र
तुम्हारे
हृदय तक
पहुंचेंगे, लेकिन
निस्संदेह
शत्रु भी
तुम्हारे
हृदय तक पहुंच
पायेंगे।
द्वार खुला है।
अत: दोनों
संभावनाएं
हैं। यदि तुम
सुरक्षित
होना चाहते हो,
तो पूरी तरह
दरवाजा बंद कर
दो। सांकल लगा
दो और भीतर
छिप जाओ। अब
कोई शत्रु
नहीं आ सकता, लेकिन कोई
मित्र भी नहीं
आ सकता। अगर
परमात्मा भी आ
जाये, तो
वह प्रवेश
नहीं कर सकता।
अब कोई
तुम्हें धोखा
नहीं दे सकता,
लेकिन सार
क्या? तुम
कब में हो।
तुम मरे ही
हुए हो। कोई
तुम्हें मार
नहीं सकता, बल्कि तुम
पहले से ही
मरे हुए हो; तुम बाहर
नहीं आ सकते।
तुम सुरक्षा
में जीते हो
निस्संदेह ही,
पर किस
प्रकार का है
यह जीवन? तुम
बिलकुल ही
नहीं जीते।
फिर तुम द्वार
खोलते हो।
संदेह
है द्वार का
बंद करना; श्रद्धा
है द्वार का
खोलना। जब तुम
द्वार खोलते
हो, तो कई
विकल्प संभव
हो जाते हैं।
मित्र प्रवेश
कर सकते हैं, शत्रु
प्रवेश कर
सकते हैं। हवा
बह आयेगी, फूलों
की सुगंध ले
आयेगी। लेकिन
यह रोग के
कीटाणु भी ले
आयेगी। अब हर
चीज संभव है— अच्छी
और बुरी।
प्रेम आयेगा,
घृणा भी
आयेगी। अब
परमात्मा आ
सकता है और
शैतान भी आ
सकता है। डर
यह है कि हो
सकता है कुछ
गलत हो जाये, तो बंद करो
द्वार। लेकिन
फिर हर चीज
गलत हो जाती
है। द्वार
खोलो तो
संभावना हो
सकती है कि
कोई चीज गलत
हो जाये, लेकिन
तुम्हारे लिए कुछ
गलत नहीं, यदि
तुम्हारी
श्रद्धा
समग्र है तो।
शत्रु में भी
तुम मित्र पा
लोगे और शैतान
में भी तुम ईश्वर
पा लोगे।
श्रद्धा एक
ऐसा रूपांतरण
है कि तुम
बुरा पा ही
नहीं सकते
क्योंकि
तुम्हारा सारा
दृष्टिकोण ही
बदल गया है।
यही
है जीसस के
कथन का अर्थ, 'अपने
शत्रुओं से
प्रेम करो। ' तुम कैसे
अपने शत्रुओं
से प्रेम कर
सकते हो? यह
एक उलझन में
डालने वाली
समस्या रही है
ईसाई
धर्मविदों के
लिए एक गढ़
पहेली। कैसे
तुम अपने
शत्रु से
प्रेम कर सकते
हो? लेकिन
एक
श्रद्धावान
यह कर सकता है
क्योंकि श्रद्धामय
व्यक्ति किसी
शत्रु को नहीं
जानता।
श्रद्धावान
केवल मित्र को
जानता है। जिस
किसी रूप में
वह आये उससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। यदि वह
चुराने आता है
तो वह मित्र
है; यदि वह
कुछ ले जाने
को आता है तो
वह मित्र है; —यदि वह देने
आता है, तो
वह मित्र
है—जिस किसी
रूप में भी वह
आये।
ऐसा
हुआ कि
अलहिल्लाज
मंसूर—स्व बड़ा
रहस्यवादी, एक
महान सूफी, उनका कत्त
कर दिया गया, उन्हें मार
डाला गया। जिस
समय वे आसमान
की ओर देखने
लगे, उनके
अंतिम शब्द थे,
'तुम मुझे
धोखा नहीं दे
सकते। ' बहुत
लोग थे वहां, और
अलहिल्लाज
मुसकुरा रहे
थे। वे आसमान
की ओर देखकर
कहते थे, 'तुम
मुझे धोखा
नहीं दे सकते।
'तो किसी
ने पूछा, 'तुम्हारा
मतलब क्या है?
किससे
बातें कर रहे
हो तुम?' वे
बोले 'मैं
अपने ईश्वर से
बातें कर रहा
हूं। जिस किसी
रूप में तुम
आते हो, तुम
मुझे धोखा
नहीं दे सकते।
मैं तुम्हें
खूब जानता
हूं। अब तुम
मौत की तरह
आये हो। तुम
मुझे धोखा
नहीं दे सकते।
'
एक
श्रद्धावान
व्यक्ति धोखा
नहीं पा सकता
है। जो कुछ
आता है, जिस
किसी रूप में,
उस तक हमेशा
परमात्मा ही
पहुंच रहा है
क्योंकि
श्रद्धा हर
चीज को पावन
बना देती है।
श्रद्धा एक
कीमिया है। यह
केवल तुम्हें
ही रूपांतरित
नहीं करती, यह तुम्हारे
लिए सारे
संसार को
रूपांतरित कर
देती है। जहां
कहीं तुम
देखते हो, तुम
'उसे' ही
पाते हो—मित्र
में, शत्रु
में, दिन
में, रात
में। हां, हेराक्लतु
सही है।
परमात्मा
ग्रीष्म और
शीत है, दिन
और रात है, परमात्मा
परितृप्ति है
और भूख है। यह
है श्रद्धा।
पतंजलि
श्रद्धा को आधार
बना देते
हैं—सारे
विकास का
आधार।
'आप विश्वास
से श्रद्धा की
ओर बढ़ने की
कहते हैं.। 'विश्वास वह
है जो दिया
जाता है; श्रद्धा
वह है जो पायी
जाती है।
विश्वास तुम्हारे
माता—पिता
द्वारा दिया
जाता है, श्रद्धा
तुम्हारे
द्वारा पायी
जाती है। विश्वास
समाज द्वारा दिया
जाता है; श्रद्धा
की तलाश
तुम्हें करनी
होती है; खोजना
होता है और
इसके बारे में
पता लगाना होता
है। श्रद्धा
व्यक्तिगत
होती है, आंतरिक
होती है, विश्वास
उपयोगी वस्तु
की भांति होता
है। इसे तुम
बाजार से खरीद
सकते हो।
जब
मैं ऐसा कहता
हूं तो मैं
इसे बहुत समझ
कर कहता हूं।
तुम जाकर
मुसलमान बन
सकते हो; तुम
जाकर हिंदू बन
सकते हो। आर्य
समाज में जाओ
और तुम एक
हिंदू में
परिवर्तित
किये जा सकते हो।
कोई कठिनाई
नहीं।
विश्वास
बाजार में खरीदा
जा सकता है।
मुसलमान से
तुम हिंदू बन
सकते हो; हिदू
से तुम जैन बन
सकते हो। यह
इतना आसान है
कि कोई भी
नासमझ
पंडित—पुरोहित
कर सकता है।
लेकिन
श्रद्धा कोई
वस्तु नहीं
है। तुम जाकर
इसे बाजार में
नहीं पा सकते,
तुम इसे
खरीद नहीं
सकते।
तुम्हें बहुत
सारे अनुभवों
में से गुजरना
पड़ता है।
धीरे—धीरे यह
उदित होती है;
धीरे—धीरे
यह तुम्हें
परिवर्तित
करती है। एक
नयी गुणवत्ता,
एक नयी
ज्योति तुम्हारे
अस्तित्व में
आ पहुंचती है।
जब
तुम देखते हो
कि संदेह दुख
है,
तो आती है
श्रद्धा। जब
तुम देखते हो
कि विश्वास
मृत है, तब
आती है
श्रद्धा। यदि
तुम एक ईसाई
हो, एक
हिंदू हो, एक
मुसलमान हो, तो क्या
तुमने ध्यान
दिया कि तुम बिलकुल
मर गये हो? किस
तरह के ईसाई
हो तुम? अगर
तुम वास्तव
में ईसाई हो, तो तुम
क्राइस्ट
होओगे उससे
जरा भी कम
नहीं। श्रद्धा
तुम्हें
क्राइस्ट बना
देगी, विश्वास
बनायेगा
तुम्हें ईसाई
और वह एक बहुत दरिद्र
विकल्प है।
किस तरह के
ईसाई हो तुम? तुम चर्च
जाते, तुम
बाइबिल पढ़ते,
इसलिए तुम
ईसाई हो? तुम्हारा
विश्वास कोई
अनुभूति नहीं
है। यह एक
अज्ञान है।
ऐसा
हुआ कहीं
रोटरी क्लब
में,
कि एक बड़ा
अर्थशास्त्री
बोलने को आया।
वह अर्थशास्त्र
की खास भाषा
में बोला। नगर
का एक पादरी
भी उपस्थित था
उसे सुनने को।
भाषण के पश्र्चात,
वह उसके पास
आया और बोला, 'यह एक सुंदर
भाषण था जो
आपने दिया, लेकिन
स्पष्ट कहूं
तो मैं एक
शब्द भी नहीं
समझ सका। 'वह
अर्थशास्त्री
बोला, 'इस
स्थिति में
आपसे मैं वहीं
कहूंगा जो आप
कहते हो अपने
श्रोताओं
से—विश्वास
रखो।'
जब
तुम नहीं समझ
सकते, जब तुम
अज्ञानी होते
हो, तो सारा
समाज कहता है,
'विश्वास
रखो। ' मैं
तुमसे कहूंगा
झूठा विश्वास
रखने से तो संदेह
करना बेहतर
है। संदेह
करना बेहतर है,
क्योंकि
संदेह दुख
निर्मित
करेगा।
विश्वास एक
सांत्वना है;
संदेह दुख
निर्मित
करेगा। और अगर
दुख होता है तो
तुम्हें
श्रद्धा
खोजनी ही
पड़ेगी। यही है
समस्या, दुविधा,
जो संसार
में घटी है
विश्वास के ही
कारण। श्रद्धा
को किस तरह
खोजना होता है,
यह तुम भूल
चुके हो।
विश्वास के
कारण तुम श्रद्धाहीन
बन गये हो।
विश्वास के
कारण तुम
लाशें ढोते
रहते हों—तुम
ईसाई हो, हिंदू
हो, मुसलमान
हो, और
सोचते हो कि
तुम धार्मिक
हो! तब खोज रुक
जाती है।
ईमानदार
संदेह बेहतर
होता है
बेईमान
विश्वास से।
तुम्हारा
विश्वास
मिथ्या है। और
सारे विश्वास
बनावटी हैं, अगर
तुम इसमें
विकसित नहीं
हुए, अगर
यह तुम्हारी
अनुभूति नहीं,
तुम्हारा
आस्तित्व
नहीं और
तुम्हारा
अनुभव नहीं।
सारे विश्वास
झूठे हैं।
ईमानदार होओ।
करो संदेह।
दुख उठाओ। केवल
दुख तुम्हें
समझ तक ले
आयेगा। अगर
तुम सच ही दुख
उठाते हो, तो
एक न एक दिन
तुम समझ जाओगे
कि यह संदेह
है, जो
तुम्हें दुखी
बना रहा है।
और फिर
रूपांतरण संभव
हो जाता है।
तुम
मुझसे पूछते
हो,
'मन जो
संदेह से
विश्वास तक झूलता
रहता है तो इन
दो छोरों के
पार जाने के
लिए उस मन का
उपयोग कैसे
करें?'
तुम
इसका उपयोग
नहीं कर सकते, क्योंकि
तुमने कभी
ईमानदारी से
संदेह किया ही
नहीं।
तुम्हारा
विश्वास झूठा
है, संदेह
गहरे तल पर
छिपा हुआ है।
मात्र सतह पर
विश्वास का
रंग—रोगन होता
है। गहरे तल
पर तुम
संदेहपूर्ण
होते हो।
लेकिन यह
जानने में
तुम्हें भय
होता है कि
तुम
संदेहवादी हो,
अत: तुम
विश्वास से
चिपके रहते हो,
तुम
विश्वास के
कृत्य किये
चले जाते हो।
तुम कर सकते
हो कृत्य, लेकिन
कृत्यों
द्वारा तुम
वास्तविकता
को नहीं पा
सकते। तुम जा
सकते हो और झुक
सकते हो
तीर्थ—मंदिर
में; तुम
उस आदमी के
कार्य कर रहे
हो जो श्रद्धा
करता है।
लेकिन तुम
विकसित नहीं
होओगे, क्योंकि
गहरे में कोई
श्रद्धा नहीं
है, केवल
संदेह है।
विश्वास तो
बाह्य—आरोपण
मात्र है।
यह
तो ऐसे
व्यक्ति का
चुंबन करने
जैसा है, जिसे
तुम प्रेम
नहीं करते।
बाहर से तो हर
चीज वैसी ही
है, तुम चुंबन
लेने की
क्रिया कर रहे
हो।
वैज्ञानिक कोई
अंतर नहीं खोज
सकता। अगर तुम
किसी का चुंबन
लेते हो, तो
उसका
छायाचित्र, शारीरिक
घटना, होठों
की एक जोड़ी से
दूसरी तक
लाखों
कीटाणुओं का
पहुंचना—हर
चीज ठीक वैसी
ही होती है, चाहे तुम
प्रेम करो या
नहीं। अगर
वैज्ञानिक
देखे और
निरीक्षण करे,
तो क्या
होगा भेद? कोई
भेद नहीं; रत्ती
भर भेद नहीं।
वह कहेगा कि
दोनों ही चुंबन
हैं और ठीक एक
समान ही है।
लेकिन
तुम जो जानते
हो कि जब तुम
किसी को प्रेम
करते हो तो
कुछ अदृश्य
घटता है, जिसका
पता किसी उपकरण
द्वारा नहीं
लगाया जा
सकता। जब तुम
किसी व्यक्ति
से प्रेम नहीं
करते, तो
तुम दे सकते
हो चुंबन, लेकिन
कुछ घटित नहीं
होता। कोई
ऊर्जाअक संप्रेषण
नहीं घटता, कोई मिलन
नहीं घटता।
ऐसा ही
विश्वास और
श्रद्धा के
साथ है।
श्रद्धा है
प्रेममय
चुंबन, जो
अत्यंत
प्रेममय हृदय
का होता है, और विश्वास
है एक
प्रेमविहीन
चुंबन।
तो
कहां से शुरू
करना होता है? पहली
बात है, संदेह
की जांच—पड़ताल
करना। झूठे
विश्वास को फेंक
दो। एक
ईमानदार
संदेहकर्ता
हो जाओ—वास्तविक।
तुम्हारी
ईमानदारी मदद
देगी।
क्योंकि अगर
तुम ईमानदार
हो तो तुम इस
महत्व की बात
को कैसे भुला
सकते हो कि
संदेह दुख निर्मित
करता है। अगर
ईमानदार होते
हो तो तुम्हें
जानना होता ही
है। देर— अबेर
तुम पूरी तरह
समझ जाओगे कि
संदेह अधिक
दुख निर्मित
करता रहा है।
जितना ज्यादा
तुम संदेह में
चले जाते हो, उतना ज्यादा
दुख होगा। और
केवल दुख द्वारा
कोई विकसित
होता है।
और
जब तुम उस
बिंदु तक
पहुंच जाते हो
जहां दुख सहन
करना असंभव हो
जाता है। जब
यह असहनीय हो
जाता है, तुम
इसे गिरा देते
हो। ऐसा नहीं
है कि तुम वास्तव
में ही इसे
गिरा देते हो,
असहनीयता
ही गिराना बन
जाती है।
और
एक बार जब
संदेह नहीं
रहता, तुम
इसके द्वारा
दुख उठा चुके
होते हो, तब
तुम श्रद्धा
की ओर बढ़ना
शुरू कर देते
हो।
श्रद्धा
रूपांतरण है।
और पतंजलि
कहते हैं कि श्रद्धा
सारी
समाधियों का
आधार है; दिव्य
के परम अनुभव
का आधार।
आज
इतना ही।
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