दिनांक
20 नवंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
प्रश्नसार:
पहला
प्रश्न :
आपने
बताया कि
प्रेम के
द्वारा सत्य
को उपलब्ध हुआ
जा सकता है।
कृपया बताएं
क्या इसके लिए
ध्यान जरूरी
है?
फिर
प्रेम का तुम
अर्थ ही न
समझे। फिर
प्रेम से कुछ
और समझ गए।
बिना ध्यान के
प्रेम तो संभव
ही नहीं है।
प्रेम भी
ध्यान का एक
ढंग है। फिर
तुमने प्रेम
से कुछ अपना
ही अर्थ ले
लिया।
तुम्हारे प्रेम
से अगर सत्य
मिलता होता तो
मिल ही गया
होता।
तुम्हारा
प्रेम तो तुम
कर ही रहे हो; पत्नी
से, बच्चे
से, पिता
से, मां से,
मित्रों
से। ऐसा प्रेम
तो तुमने जन्म—जन्म
किया है। ऐसे
प्रेम से सत्य
मिलता होता तो
मिल ही गया
होता।
मैं
किसी और ही
प्रेम की बात
कर रहा हूं।
तुम देह की
भाषा ही समझते
हो। इसलिए जब
मैं कुछ कहता
हूं तुम अपनी
देह की भाषा
में अनुवाद कर
लेते हो; वहीं
भूल हो जाती
है। प्रेम का
मेरे लिए वही
अर्थ है जो
प्रार्थना का
है।
एक
पुरानी कहानी
तुमसे कहूं—झेन
कथा है। एक
झेन सदगुरु के
बगीचे में कद्दू
लगे थे। सुबह—सुबह
गुरु बाहर आया
तो देखा, कद्दूओ
में बड़ा झगड़ा
और विवाद मचा
है। कद्दू ही
ठहरे! उसने
कहा : 'अरे कद्दूओ
यह क्या कर
रहे हो? आपस
में लड़ते हो !' वहा दो दल हो
गए थे कद्दूओं
में और मारधाड़
की नौबत थी।
झेन गुरु ने
कहा 'कद्दूओ,
एक—दूसरे को
प्रेम करो।' उन्होंने
कहा 'यह हो
ही नहीं सकता।
दुश्मन को
प्रेम करें? यह हो कैसे
सकता है !' तो
झेन गुरु ने
कहा, 'फिर
ऐसा करो, ध्यान
करो।' कदुओं
ने कहा. 'हम कद्दू
हैं, हम
ध्यान कैसे
करें ?' तो
झेन गुरु ने 'कहा : 'देखो—भीतर
मंदिर में
बौद्ध
भिक्षुओं की
कतार ध्यान
करने बैठी थी—देखो
ये कद्दू इतने
कद्दू ध्यान
कर रहे हैं।' बौद्ध
भिक्षुओं के
सिर तो घुटे
होते हैं, कदुओं
जैसे ही लगते
हैं।’तुम
भी इसी भांति
बैठ जाओ।' पहले
तो कद्दू हंसे,
लेकिन सोचा 'गुरु ने कभी
कहा भी नहीं; मान ही लें, थोड़ी देर
बैठ जाएं।' जैसा गुरु
ने कहा वैसे
ही बैठ गए—सिद्धासन
में पैर मोड़
कर आंखें बंद
करके, रीढ़
सीधी करके।
ऐसे बैठने से
थोड़ी देर में शांत
होने लगे।
सिर्फ
बैठने से आदमी
शांत हो जाता
है। इसलिए झेन
गुरु तो ध्यान
का नाम ही रख
दिये हैं.
झाझेन। झाझेन
का अर्थ होता
है. खाली बैठे
रहना, कुछ
करना न।
कद्दू
बैठे—बैठे शांत
होने लगे, बड़े
हैरान हुए, बड़े चकित भी
हुए! ऐसी शांति
कभी जानी न
थी।
चारों
तरफ एक अपूर्व
आनंद का भाव
लहरें लेने लगा।
फिर गुरु आया
और उसने कहा : 'अब
एक काम और करो,
अपने— अपने
सिर पर हाथ
रखो।’ हाथ
सिर पर रखा तो
और चकित हो
गए। एक
विचित्र अनुभव
आया कि वहा तो
किसी बेल से
जुड़े हैं। और
जब सिर उठा कर
देखा तो वह
बेल एक ही है, वहां दो
बेलें न थीं, एक ही बेल
में लगे सब कद्दू
थे। कदुओं ने
कहा : 'हम भी
कैसे मूर्ख!
हम तो एक ही के
हिस्से हैं, हम तो सब एक
ही हैं, एक
ही रस बहता है
हमसे—और हम
लड़ते थे।’ तो
गुरु ने कहा. 'अब प्रेम
करो। अब तुमने
जान ?? कि एक
ही हो, कोई
पराया नहीं।
एक का ही
विस्तार है।’
वह
जहां से कदुओं
ने पकड़ा अपने
सिर पर, उसी
को योगी
सातवां चक्र
कहते हैं :
सहस्रार। हिंदू
वहीं चोटी
बढ़ाते हैं।
चोटी का मतलब
ही यही है कि
वहा से हम एक
ही बेल से
जुड़े हैं। एक
ही परमात्मा
है। एक ही
सत्ता, एक
अस्तित्व, एक
ही सागर लहरें
ले रहा है। वह
जो पास में
तुम्हारे लहर
दिखाई पड़ती है,
भिन्न नहीं,
अभिन्न है;
तुमसे अलग
नहीं, गहरे
में तुमसे
जुड़ी है। सारी
लहरें
संयुक्त हैं।
तुमने
कभी एक बात
खयाल की? तुमने
कभी सागर में
ऐसा देखा कि
एक ही लहर उठी हो
और सारा सागर शांत
हो? नहीं, ऐसा नहीं
होता। तुमने
कभी ऐसा देखा,
वृक्ष का एक
ही पत्ता
हिलता हो और
सारा वृक्ष मौन
खड़ा हो, हवाएं
न हों? जब
हिलता है तो
पूरा वृक्ष
हिलता है। और
जब सागर में
लहरें उठती
हैं तो अनंत
उठती हैं, एक
लहर नहीं
उठती।
क्योंकि एक
लहर तो हो ही
नहीँ सकती।
तुम सोच सकते
हो कि एक
मनुष्य हो
सकता है
पृथ्वी पर? असंभव है।
एक तो हो ही
नहीं सकता। हम
तो एक ही सागर
की लहरें हैं,
अनेक होने
में हम प्रगट
हो रहे हैं।
जिस दिन यह
अनुभव होता है,
उस दिन
प्रेम का जन्म
होता है।
प्रेम
का अर्थ है :
अभिन्न का बोध
हुआ,
अद्वैत का
बोध हुआ। शरीर
तो अलग— अलग
दिखाई पड ही
रहे हैं, कद्दू
तो अलग— अलग
हैं ही, लहरें
तो ऊपर से अलग—अलग
दिखाई पड़ ही
रही हैं— भीतर
से आत्मा एक
है।
प्रेम
का अर्थ है. जब
तुम्हें किसी
में और अपने
बीच एकता का
अनुभव हुआ। और
ऐसा नहीं है
कि तुम्हें जब
यह एकता का
अनुभव होगा तो
एक और
तुम्हारे बीच
ही होगा; यह
अनुभव ऐसा है
कि हुआ कि
तुम्हें तत्क्षण
पता चलेगा कि
सभी एक हैं।
भ्रांति टूटी
तो वृक्ष, पहाड़—पर्वत,
नदी—नाले, आदमी—पुरुष,
पशु —पक्षी,
चांद—तारे
सभी में एक ही
कैप रहा है।
उस एक के कंपन
को जानने का
नाम प्रेम है।
प्रेम
प्रार्थना
है। लेकिन तुम
जिसे प्रेम
समझे हो वह तो
देह की भूख है;
वह तो प्रेम
का धोखा है वह
तो देह ने
तुम्हें चकमा
दिया है।
मांगती
हैं भूखी
इंद्रियां
भूखी
इंद्रियों से
भीख!
और
किससे तुम
मांगते हो भीख, यह
भी कभी तुमने
सोचा? —जो
तुमसे भीख
मांग रहा है।
भिखारी
भिखारी के
सामने भिक्षा—पात्र
लिए खड़े हैं।
फिर तृप्ति
नहीं होती तो
आश्चर्य कैसा?
किससे तुम
मांग रहे हो? वह तुमसे
मांगने आया
है। तुम पत्नी
से मांग रहे
हो, पत्नी
तुमसे मांग
रही है; तुम
बेटे से मांग
रहे हो, बेटा
तुमसे मांग
रहा है। सब
खाली' हैं,
रिक्त हैं।
देने को कुछ भी
नहीं है; सब
मांग रहे हैं।
भिखमंगों की
जमात है।
मांगती
हैं भूखी
इंद्रियाँ
भूखी
इंद्रियों से
भीख
मान
लिया है स्खलन
को
ही तृप्ति का
क्षण!
नहीं
होने देता
विमुक्त
इस
मरीचिका से
अघोरी मन
बदल—बदल
कर मुखौटा
ठगता
है चेतना का
चिंतन
होते
ही पटाक्षेप, बिखर
जाएगी
अनमोल
पंचभूतो की
भीड़।
यह
तुमने जिसे
अपना होना
समझा है, यह तो
पंचभूतो की
भीड़ है। यह तो —हवा,
पानी, आकाश
तुममें मिल गए
हैं। यह तुमने
जिसे अपनी देह
समझा है, यह
तो केवल संयोग
है; यह तो
बिखर जाएगा।
तब जो बचेगा
इस संयोग के
बिखर जाने पर,
उसको
पहचानो, उसमें
डूबो, उसमें
डुबकी लगाओ।
वहीं से प्रेम
उठता है। और
उसमें डुबकी
लगाने का ढंग
ध्यान है। अगर
तुमने ध्यान
की बात ठीक से
समझ ली तो
प्रेम अपने—
आप जीवन में
उतरेगा या
प्रेम की समझ
ली तो ध्यान
उतरेगा—ये एक
ही बात को
कहने के लिए
दो शब्द हैं।
ध्यान से समझ
में आता हो तो
ठीक, अन्यथा
प्रेम। प्रेम
से समझ में
आता हो तो ठीक,
अन्यथा
ध्यान। लेकिन
दोनों अलग
नहीं हैं।
अकबर
शिकार को गया
था। जंगल में
राह भूल गया, साथियों
से बिछड़ गया।
सांझ होने लगी,
सूरज ढलने
लगा, अकबर
डरा हुआ था।
कहा रुकेगा
रात! जंगल में
खतरा था, भाग
रहा था। तभी
उसे याद आया
कि सांझ का
वक्त है, प्रार्थना
करनी जरूरी
है। नमाज का
समय हुआ तो बिछा
कर अपनी चादर
नमाज पढ़ने
लगा। जब वह
नमाज पढ़ रहा
था तब एक
स्त्री भागती
हुई, अल्हड़
स्त्री—उसके
नमाज के
वस्त्र पर से
पैर रखती हुई,
उसको धक्का
देती हुई वह
झुका था, गिर
पड़ा। वह भागती
हुई निकल गई।
अकबर
को बड़ा क्रोध
आया। सम्राट
नमाज पढ़ रहा
है और इस
अभद्र युवती
को इतना भी
बोध नहीं है!
जल्दी—जल्दी
नमाज पूरी की, भागा
घोड़े पर, पकड़ा
स्त्री को।
कहा : 'बदतमीज
है! कोई भी
नमाज पढ़ रहा
हो, प्रार्थना
कर रहा हो तो
इस तरह तो
अभद्र व्यवहार
नहीं करना
चाहिए। फिर
मैं सम्राट
हूं! सम्राट
नमाज पढ़ रहा
है और तूने इस
तरह का
व्यवहार किया।’
उसने
कहा. '
क्षमा करें,
मुझे पता
नहीं कि आप
वहा थे। मुझे
पता नहीं कि कोई
नमाज पढ़ रहा
था। लेकिन
सम्राट, एक
बात पूछनी है।
मैं अपने
प्रेमी से
मिलने जा रही
हूं तो मुझे
कुछ नहीं
दिखाई पड़ रहा
है। मेरा
प्रेमी राह
देखता होगा तो
मेरे तो प्राण
वहा अटके हैं।
तुम परमात्मा
की प्रार्थना
कर रहे थे, मेरा
धक्का
तुम्हें पता
चल गया! यह
कैसी प्रार्थना?
यह तो अभी
प्रेम भी नहीं
है, यह
प्रार्थना
कैसी? तुम
लवलीन न थे, तुम
मंत्रमुग्ध न
थे, तुम
डूबे न थे, तो
झूठा स्वांग
क्यों रच रहे
थे? जो
परमात्मा के
सामने खड़ा हो,
उसे तो सब
भूल जाएगा।
कोई तुम्हारी
गर्दन भी उतार
देता तलवार से
तो भी पता न
चलता तो
प्रार्थना।
मुझे तो कुछ भी
याद नहीं।
क्षमा करें!'
अकबर
ने अपनी
आत्मकथा में
घटना लिखवाई
है और कहा है
कि उस दिन
मुझे बड़ी चोट
पड़ी। सच में
ही,
यह भी कोई
प्रार्थना है?
यह तो अभी
प्रेम भी
नहीं।
प्रेम
का ही विकास, आत्यंतिक
विकास, प्रार्थना
है।
अगर
तुम्हें किसी
व्यक्ति के
भीतर
परमात्मा का
अनुभव होने
लगे और किसी
के भीतर
तुम्हें अपनी
ही झलक मिलने
लगे तो प्रेम
की किरण फूटी।
तुम जिसे अभी
प्रेम कहते हो, वह
तो मजबूरी है।
उसमें
प्रार्थना की
सुवास नहीं
है। उसमें तो
भूखी
इंद्रियों की
दुर्गंध है।
लहर
सागर का नहीं
श्रृंगार
उसकी
विकलता है।
गंध
कलिका का नहीं
उदगार
उसकी
विकलता है।
कूक
कोयल की नहीं
मनुहार
उसकी
विकलता है।
गान
गायक का नहीं
व्यापार
उसकी
विकलता है।
राग
वीणा की नहीं
झंकार
उसकी
विकलता है।
अभी
तो तुम जिसे
प्रेम कहते हो, वह
विकलता है। वह
तो मजबूरी है,
वह तो पीड़ा
है। अभी तुम
संतप्त हो।
अभी तुम भूखे
हो। अभी तुम
चाहते हो कोई
सहारा मिल
जाए। अभी तुम
चाहते हो कहीं
कोई नशा मिल
जाए। इसे मैंने
प्रेम नहीं
कहा। प्रेम तो
जागरण है।
विकलता नहीं,
विक्षिप्तता
नहीं। प्रेम
तो परम जाग्रत
दशा है। उसे
ध्यान कहो।
अगर
तुमने प्रेम
की मेरी बात
ठीक से समझी
तो यह प्रश्न
उठेगा ही नहीं
कि अगर प्रेम
से सत्य मिल
सकता है तो
फिर ध्यान की
क्या जरूरत है? प्रेम
से सत्य मिलता
है तभी जब
प्रेम ही
ध्यान का एक
रूप होता है, उसके पहले
नहीं।
दूसरी
तरह के लोग भी
हैं,
वे भी आ कर
मुझसे पूछते
हैं कि अगर
ध्यान से सत्य
मिल सकता है
तो फिर प्रेम
की कोई जरूरत
है? उनसे
भी मैं यही
कहता हूं कि
अगर तुमने
मेरे ध्यान की
बात समझी तो
यह प्रश्न
पूछोगे नहीं।
जिसको ध्यान
जगने लगा, प्रेम
तो जगेगा ही।
बुद्ध
ने कहा है :
जहां—जहॉ
समाधि है, वहां
—वहा करुणा
है। करुणा
छाया है समाधि
की।
चैतन्य
ने कहा है.
जहां—जहां
प्रेम, जहां—जहां
प्रार्थना, वहां—वहां
ध्यान। ध्यान
छाया है प्रेम
की। ये तो कहने
के ही ढंग
हैं। जैसे तुम्हारी
छाया तुमसे
अलग नहीं की
जा सकती, ऐसे
ही प्रेम और
ध्यान को अलग
नहीं किया जा
सकता। तुम
किसको छाया
कहते हो, इससे
भी कोई फर्क
नहीं पड़ता। ये
तो पद्धतियां हैं।
दो
पद्धतियां
हैं सत्य को
खोजने की। जो
है,
उसे जानने
के दो ढंग हैं—या
तो ध्यान में
तटस्थ हो जाओ,
या प्रेम
में लीन हो
जाओ। या तो
प्रेम में इतने
डूब जाओ कि
तुम मिट जाओ, सत्य ही बचे; या ध्यान
में इतने जाग
जाओ कि सब खो
जाए, तुम
ही बचो। एक बच
जाए किसी भी
दिशा से। जहां
एक बच रहे, बस
सत्य आ गया।
कैसे तुम उस
एक तक पहुंचे,
'मैं' को
मिटा कर
पहुंचे कि 'तू' को मिटा
कर पहुंचे, इससे कुछ
भेद नहीं पड़ता
है।
लेकिन
मन बड़ा बेईमान
है। अगर मैं
ध्यान करने को
कहता हूं तो
वह पूछता है 'प्रेम
से नहीं होगा?'
क्योंकि
ध्यान करने से
बचने का कोई
रास्ता चाहिए।
प्रेम से हो
सकता हो तो
ध्यान से तो
बचें फिलहाल,
फिर
देखेंगे! फिर
जब मैं प्रेम
की बात कहता हूं, तो तुम
पूछते हो : ' ध्यान
से नहीं हो
सकेगा?' तब
तुम प्रेम से
बचने की फिक्र
करने लगते हो।
तुम मिटना
नहीं चाहते—और
बिना मिटे कोई
उपाय नहीं; बिना मिटे
कोई गति नहीं।
हम
भी सुकरात हैं
अहदे—नौ के
तस्नालब
ही न मर जाएं
यारो
जहर
हो या मय—आतशीं
हो
कोई
जामे—शहादत तो
आए।
कोई
मरने का मौका
तो आए।
हिम्मतवर
खोजी तो कहता
हैं.
हम
भी सुकरात हैं
अहदे —नौ के
हम
भी सत्य के
खोजी हैं
सुकरात जैसे।
अगर जहर पीने
से मिलता हो
सत्य, तो हम
तैयार हैं। मय—
आतशीं पीने से
मिलता हो तो
हम तैयार हैं।
विष पीने से
मिलता हो या
शराब पीने से
मिलता हो, हम
तैयार हैं।
कोई
जामे—शहादत तो
आए।
कोई
शहीद होने का, मिटने
का, कुर्बान
होने का मौका
तो आए।
मैं
तुम्हारे लिए
शहादत का मौका
हूं। तुम बचाव
न खोजो। ध्यान
से मरना हो
ध्यान से मरो, प्रेम
से मरना हो
प्रेम से मरो—मरो
जरूर! कहीं तो
मरो, कहीं
तो मिटो!
तुम्हारा
होना ही अड़चन
है। तुम्हारी
मृत्यु ही
परमात्मा से
मिलन होगी।
सत्य
की खोज को ऐसा
मत सोचना जैसे
धन की खोज है कि
तुम गए और धन
खोज कर आ गए और
तिजोडिया भर
लीं। सत्य की
खोज बड़ी
अन्यथा है।
तुम गए—तुम गए
ही। तुम कभी
लौटोगे न, सत्य
लौटेगा! ऐसा
नहीं एं कि
सत्य को तुम
मुट्ठियों
में भर कर ले आओगे,
तिजोडियो
में रख लोगे।
तुम कभी सत्य
के मालिक न हो
सकोगे। सत्य
पर किसी की
कोई मालकियत
नहीं हो सकती।
जब तक तुम्हें
मालिक होने का
नशा सवार है, तब तक सत्य
तुम्हें
मिलेगा नहीं।
जिस दिन तुम चरणों
में गिर जाओगे,
विसर्जित
हो जाओगे, तुम
कहोगे 'मैं
नहीं हूं—उसी
क्षण सत्य है।
तुम सत्य को न
खोज पाओगे; तुम मिटोगे
तो सत्य
मिलेगा।
तुम्हारा
होना बाधा है।
तो
ऐसे बचते मत
रहो। मैं
ध्यान की कहूं
तो तुम प्रेम
की कहो, मैं
प्रेम की कहूं
तो तुम ध्यान
की कहो—ऐसा
पात—पात
फुदकते न रहो।
ऐसे ही तो जनम—जनम
तुमने गंवाए।
मेरे
साथ कठिनाई है
थोड़ी। अगर तुम
बुद्ध के पास
होते तो बच
सकते थे, क्योंकि
बुद्ध ध्यान
की बात कहते, प्रेम की
बात नहीं
कहते। तुम कह
सकते थे : मेरा मार्ग
तो प्रेम है।
तुम उपाय खोज
लेते। तुम चैतन्य
के पास बच
सकते थे, क्योंकि
चैतन्य प्रेम
की बात कहते; तुम कहते कि
हमारा उपाय तो
ध्यान है। तुम
मुझसे न बच कर
भाग सकोगे। तुम
कहो प्रेम से
मरेंगे—मैं
कहता हूं : चलो।’
ध्यान से
मरना है'—मैं
कहता हूं :
ध्यान से मरो।
मरना
मूल्यवान है।
इसलिए
तुम अगर मेरे
साथ उलझ गए हो
तो शहीद हुए बिना
चलेगा नहीं।
शहादत का मौका
आ ही गया है।
देर — अबेर कर
सकते हो, थोड़ी—बहुत
देर यहां—वहां
उलझाए रख सकते
हो, लेकिन
ज्यादा देर
नहीं। फिर इस
देर— अबेर में
तुम कोई सुख
भी नहीं पा
रहे हो। सिवाय
दुख के और कुछ
भी नहीं है।
बिना सत्य को
जाने सुख हो
भी कैसे सकता
है? सुख तो
सत्य की ही
सुरभि है, उसकी
ही सुगंध है।
सुख तो सत्य
का ही प्रकाश
है।
दूसरा
प्रश्न :
ज्ञाता, ज्ञान
और ज्ञेय से
परे स्वयं में
जो स्थित होना
है, क्या
उस अवस्था में
आजीवन जीया जा
सकता है? जिस
तरह झील कभी
शांत, कभी
चंचल और कभी
तूफानी
अवस्था में
होती है, क्या
उसी तरह
आत्मज्ञानी
सांसारिक
परिस्थितियों
से प्रभावित
नहीं होता है?
प्रभु
अज्ञान हरें!
पहली तो
बात:
'ज्ञाता, ज्ञान
और ज्ञेय से
परे स्वयं में
जो स्थित होना
है, क्या
उस अवस्था में
आजीवन जीया जा
सकता है?'
'आजीवन' भ्रांत
मन का फैलाव
है। एक क्षण
से ज्यादा
तुम्हारे पास
कभी होता ही
नहीं। दो क्षण
नहीं होते, आजीवन की
बात कर रहे हो!
जब होता है
हाथ में, एक
छोटा—सा क्षण
होता है। इतना
छोटा कि तुमने
जाना नहीं कि
वह गया। एक
क्षण से
ज्यादा तो कभी
हाथ में होता
नहीं। इसलिए
तो बुद्ध ने
अपनी जीवन—पद्धति
को क्षणवाद कहा।
कहा कि एक क्षण
है तुम्हारे
हाथ में और
तुम आजीवन का
हिसाब बांध
रहे हो! दो
क्षण
तुम्हारे हाथ
में कभी इकट्ठे
मिलते नहीं।
अगर तुम एक
क्षण भी तटस्थ
और कूटस्थ हो
सकते हो तो हो
गए सदा के
लिए। एक ही क्षण
तो मिलेगा जब
भी मिलेगा। और
तुम्हें एक क्षण
में शांत होने
की कला आ गई तो
सारे जीवन में
शांत होने की
कला आ गई।
अब
यह नई चिंता
मत पैदा करो।
ये मन की
तरकीबें हैं।
मन नई—नई
झंझटें पैदा
करता है। अगर
तुम शांत हो
जाओ तो मन
कहता है. 'इससे
क्या होना है?
अरे, सदा
रहेगा? कल
रहेगा? परसों
रहेगा? अभी
हो गए शांत, मान लिया, घड़ी— भर बाद
अशांत हो
जाओगे, फिर
क्या?' मन
ने यह प्रश्न
उठा कर इस
क्षण की शांति
भी छीन ली। यह
प्रश्न में इस
क्षण की शांति
भी छितर—बितर
हो
गई, नष्ट
हो गई। यह
प्रश्न तो बड़ी
चालबाजी का
हुआ।
सुख
उठता है, कभी
ध्यान में बड़ी
महिमा का क्षण
आ जाता है, लेकिन
मन तत्क्षण
प्रश्न—चिह्न
लगा देता है
कि 'क्या
मस्त हुए जा
रहे हो, यह
कोई टिकने
वाला है? सपना
है!' दुख पर
मन कभी प्रश्न—चिह्न
नहीं लगाता, सुख पर सदा
लगा देता है।
कह देता है ' क्षणभंगुर
है! ज्यादा मत
उछलो—कूदो।
ज्यादा मत
नाचो। अभी दुख
आता है।’ और
तुमने अगर यह
सुन लिया और
प्रश्न को
स्वीकार कर
लिया तो दुख आ
ही गया। इस
प्रश्न ने 'तुम्हारे
चित्त की
समस्वरता को
तोड़ दिया, वह
एकरसता जो
बंधती—बंधती
होती थी, खो
गई।
'आजीवन' का
प्रश्न क्यों
पूछते हो? यह
किसी लोभ से
उठती है बात।
मन लोभी है।
एक क्षण
पर्याप्त
नहीं है? काश,
तुम्हें यह
बात समझ में आ
जाए कि एक
क्षण ही
तुम्हारे पास
है, तो एक
क्षण में ही
शांत हो जाना
आ जाना चाहिए।
लाओत्सु
कहा करता था :
एक आदमी तीर्थ—यात्रा
को जा रहा था।
कई वर्षों से
योजना करता था, लेकिन
बहाने आ जाते
थे, अड़चनें
आ जाती थीं, नहीं निकल
पाता था। फिर
हिम्मतकरके
एक रात को
निकल पड़ा।
ज्यादा दूर भी
न था तीर्थ, दस ही मील था—पहाड़ी
पर। और सुबह—सुबह
जल्दी निकलना
पड़ता था, ताकि
धूप चढ़े, चढ़ते—चढ़ते
आदमी पहुंच
जाए। तो वह
तीन बजे रात
निकल पड़ा।
गांव के बाहर
अपनी लालटेन
को लेकर पहुंचा।
गाव के बाहर
जाकर दिखाई
पड़ा—दूर तक
फैला हुआ
भयंकर अंधकार!
उसे एक शंका
उठी कि यह
छोटी—सी
लालटेन, तीन—चार
कदम इससे
रोशनी पड़ती है,
दस मील के
अंधेरे को यह
काट सकेगी? वह बैठ गया।
उसने कहा. 'यह
तो खतरा लेना
है। दस मील
लंबा अंधेरा
है, सारे
पहाड़ अंधेरे
से भरे हैं!
मैं इस छोटी—सी
लालटेन के
भरोसे निकल पड़ा
हूं। यह हो
नहीं सकता।’ उसने गणित
.बिठाया।
दूकानदार था,
गणित लगाना
आता था। उसने
कहा : 'तीन—चार
कदम रोशनी
पड़ती है, दस
मील का अंधेरा
है—सोचो भी तो
यह हल कैसे
होगा?'
वह
उदास बैठा था, तभी
उससे भी छोटी
रोशनी लिए हुए
एक आदमी पास से
निकला। उसने
कहा. 'भाई, कहां जाते
हो? भटक
जाओगे, और
तुम्हारी
रोशनी तो
मुझसे भी छोटी
है, छोटी—सी
लालटेन लिए
हो। अंधेरा तो
देखो कितना है,
मीलों तक
फैला हुआ है; और तुम्हारी
रोशनी तो दो
कदम पड़ती है!' उस आदमी ने
कहा. 'पागल
हुए हो! दो कदम
चल लिए, तब
दो कदम और आगे
रोशनी पड़
जाएगी। ऐसे —ऐसे
तो हजार मील
पार हो
जाएंगे। यह
गणित करके
बैठे हो? यह
गणित भ्रांत
है। कोई दस
मील लंबी
रोशनी ले कर
चलेंगे, तब
पहुंचेंगे? तो चलना ही
मुश्किल हो
जाएगा। इतना
बड़ा रोशनी का
इंतजाम.. चलना
असंभव हो
जाएगा। दो कदम
पर्याप्त
हैं। दो कदम
दिख जाता है, दो कदम चल
लेते हैं; फिर
दो कदम दिखने
लगता है, फिर
दो कदम चल
लेते हैं।
लाओत्सु
ने कहा है. एक—एक
कदम चल कर दस
हजार मील की
यात्रा पूरी
हो जाती है।
एक
क्षण
तुम्हारा मन शांत
हो गया, पर्याप्त
है। एक ही
क्षण तो मिलता
है, फिर एक
क्षण मिलेगा।
तुम्हें क्षण
में शांत होने
की कला आ गई, दूसरे क्षण
में भी तुम
शांत होने की
कला का उपयोग
कर लेना।
तुम्हें गीत
गुनगुनाना आ
गया, इस
क्षण
गुनगुनाया, अगले क्षण
भी गुनगुना
लेना। ऐसे—ऐसे
एक जन्म में
क्या, जन्मों
—जन्मों बीत
जाएं, कोई
अंतर नहीं
पड़ता।
मैं
तुमसे कहता
हूं. एक क्षण
के लिए जो शांत
होना सीख गया, वह
सदा के लिए शांत
हो गया।
क्योंकि एक
क्षण में उसने
समय पर पकड़ बांध
ली। अब समय
उसे न हरा
सकेगा। अब तो
समय तभी हरा
सकता है जब
समय एक साथ दो
क्षण तुम्हें
दे दे। तब तुम
मुश्किल में
पड़ जाओगे कि
एक क्षण तो
शांत हो जाएगा
और एक क्षण.? लेकिन समय
कभी दो क्षण
तुम्हें एक
साथ देता
नहीं। दो पल
किसे मिलते
हैं!
दूसरी
बात. 'जिस तरह झील
कभी शांत, कभी
चंचल और कभी
तूफानी
अवस्था में
होती है, क्या
उसी तरह
आत्मज्ञानी
सासारिक
परिस्थितियों
से प्रभावित
नहीं होता है?'
हमारे
मन में
आत्मज्ञान के
संबंध में बड़ी
भ्रांत
धारणाएं हैं।
पहली तो बात, आत्मज्ञानी
का अर्थ होता
है जो बचा
नहीं। तो शांत
होता है, अशांत
होता है—यह
प्रश्न
व्यर्थ है। यह
तो ऐसे ही हुआ
कि कोई आदमी
पूछे कि 'कमरे
में हमने दीया
जलाया, फिर
अंधेरे का
क्या होता है?
फिर अंधेरा कहां
जाता है?' हम
कहेंगे.
अंधेरा बचता
ही नहीं।
'सिकुड़ कर
छिप जाता है
किसी कोने—कातर
में? कुर्सी
के पीछे?
दरवाजे के
बाहर
प्रतीक्षा
करता है? कहां
चला जाता है? क्योंकि जब
हम दीया
बुझाते हैं, फिर आ जाता
है—तो कहीं
जाता होगा, आता होगा!'
सारी
बातें धात
हैं। अंधेरा
है ही नहीं।
अंधेरा तो
केवल प्रकाश
के न होने का
नाम है।
समझो:
तुम हो
क्योंकि
अज्ञान है।
जैसे ही ज्ञान
हुआ,
तुम गए। शांत
होने को भी
कोई नहीं बचता,
अशांत होना
तो दूर की बात
है। जब तुम
नहीं बचते, उस अवस्था
का नाम शांति
है। ऐसा थोड़े
ही है कि तुम शांत
हो गए। ऐसा
थोड़े ही है कि
तुम रहे और फ़
शांति। तुम
रहे तब तो
अशांति।
तुम्हारा
होना अशांति
का पर्यायवाची
है। तुम नहीं
रहे तो शांति।
फिर कैसे अशांत
होओगे? मैं
तुमसे यह भी
नहीं कह रहा
हूं कि तुम शांत
हो गए हो। मैं
तो कह रहा हूं
तुम नहीं हो
गए हो। इसलिए
तो कहता हूं :
शहादत का मौका
है, मिटने
की तैयारी
करनी है। तुम्हारी
आकांक्षा यह
है कि हम तो
बचें और शांत
होकर बचें।
बैठे हैं महल
में शांत! तुम
बचे तो शांत
बच ही नहीं
सकते।
तुम
गए नदी के
किनारे या
समुद्र के
किनारे और तुमने
देखा कि बड़ा
तूफान है, सागर
पर बड़ी लहरें
हैं, बड़ा
तूफान है। फिर
तुमने देखा, तूफान चला
गया। तो लोग
कहते हैं :
तूफान शांत हो
गया। लेकिन यह
भाषा ठीक
नहीं। इससे
ऐसा लगता है
कि तूफान अब
भी है और शांत
होकर है। लोग
कहते हैं :
तूफान शांत हो
गया। कलना
चाहिए. तूफान
नहीं हो गया।
वस्तुत: तूफान
शांत हो गया, इसका इतना
ही अर्थ है कि
तूफान अब नहीं
है। तुम शांत
हो गए, इसका
इतना ही अर्थ
है कि तुम अब
नहीं हो। तो कोन
विचलित होगा?
विचलित
होने के लिए
होना तो
चाहिए! कोन
डावांडोल
होगा! आएं
तूफान, जाएं
तूफान, गुजरें
तूफान—तुम
शून्य हो गए।
बाहर
तो वसंत और
आएगा नहीं
मन
रे,
भीतर कोई
वसंत पैदा कर!
वसंत
यानी मौसम और
मिजाज के बीच
समरसता।
निदाग
हो तब भी
फूलों
के लिए रोना
नहीं।
पक्षी
सारे उड़ गए
अब
डालियां सूनी
हैं
यह
सोच कर
ग्लानि
में खोना
नहीं।
हर
मौसम में
नीरव
और निश्चित
रहना
वसंत
की नदी की
भांति
मंद—मंद
बहना!
वसंत
यानी मौसम और
मिजाज के बीच
समरसता।
शांति
का क्या अर्थ
है?
शांति का
अर्थ है.
तुम्हारे और
अस्तित्व के
बीच समरसता। न
मैं रहा, न
तू रहा; दोनों
जुड़ गए और एक
हो गए। अब
तुम्हें कोन
विचलित करेगा?
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं कि ' ध्यान
असंभव है। घर
में करने
बैठते हैं तो
पत्नी जोर से
थालियां
गिराने लगती
है, बर्तन
तोड्ने लगती
है, बच्चे
शोर—गुल मचाने
लगते हैं, ट्रेन
निकल जाती है,
रास्ते पर
कारें हार्न
बजाती हैं—ध्यान
करना बहुत
मुश्किल है, सुविधा नहीं
है।’ तुम
ध्यान जानते
ही नहीं।
ध्यान का अर्थ
यह नहीं है कि
पत्नी बर्तन न
गिराए, बच्चे
रोएं न, सड़क
से गाड़ियां न
निकलें, ट्रेन
न निकले, हवाई
जहाज न गुजरे।
अगर तुम्हारे
ध्यान का ऐसा
मतलब है, तब
तो तुम अकेले
बचो तभी ध्यान
हो सकता है...
पशु—पक्षी भी
न बचें।
क्योंकि
एक आदमी ऐसा
ध्यानी था, वह
घर छोड़ कर भाग
गया। वह जा कर
एक वृक्ष के
नीचे बैठा।
उसने कहा, अब
यहां तो ध्यान
होगा। एक कोए
ने बीट कर दी, बौखला उठा।
उसने कहा : 'हद
हो गई! किसी
तरह पत्नी से
छूटे, यह कोआ
मिल गया।
पत्नी का तो
कुछ बिगाड़ा भी
हो कभी, इस कोए
का क्या
बिगाड़ा है!' कोए को पता
नहीं कि
ध्यानी नीचे
बैठा है। कोए
को कुछ लेना—देना
नहीं है।
तुम्हारा
ध्यान अगर इस
भांति का है
कि हर चीज बंद
हो जानी चाहिए
तब तुम्हारा
ध्यान होगा, तो
होगा ही नहीं,
असंभव है।
जगत में बड़ी
गति चलती है।
जगत गति है।
इसलिए तो जगत
कहते हैं। जगत
यानी जो गत; जा रहा है; भागा जा रहा
है। जिसमें
गति है, वही
जगत। गतिमान
को जगत कहते
हैं।
संस्कृत
के शब्द बड़े
अनूठे हैं। वे
सिर्फ शब्द
नहीं हैं, उनके
भीतर बड़े अर्थ
हैं। जो भागा
जाता है, वही
जगत है।
तो
इस जगत में तो
सब तरफ गति हो
रही है—नदिया
भाग रही हैं, पहाड़
बिखर रहे, वर्षा
होगी, बादल
घुमडेंगे, बिजली
चमकेगी—स्ब
कुछ होता
रहेगा। इससे
तुम भागोगे
कहा? तो
तुमने ध्यान
की गलत धारणा
पकड़ ली। ध्यान
का अर्थ यह
नहीं है कि
बर्तन न गिरे।
ध्यान का अर्थ
है कि बर्तन
तो गिरे, लेकिन
तुम भीतर इतने
शून्य रहो कि
बर्तन गिरने
की आवाज गंजे
और निकल जाए।
कभी किसी शून्य—घर
में जा कर
तुमने जोर से
आवाज की? क्या
होता है? सूने
घर में आवाज
थोड़ी देर
गूंजती है और चली
जाती है; सूना
घर फिर सूना
हो जाता है, कुछ विचलित
नहीं होता।
तो
ध्यान को तुम
स्वीकार
बनाओ।
तुम्हारा ध्यान
अस्वीकार है, तो
हर जगह अड़चन
आएगी। अक्सर
ऐसा होता है
कि घर में
एकाध आदमी
ध्यानी हो जाए
तो घर भर की
मौत हो जाती
है। क्योंकि
वे पिताजी
ध्यान कर रहे
हैं तो बच्चे
खेल नहीं सकते,
शोरगुल
नहीं मचा
सकते। पिताजी
ध्यान कर रहे
हैं, जैसे
पिताजी का
ध्यान करना
सारी दुनिया
की मुसीबत है!
और अगर जरा—सी
अड़चन हो जाए
तो पिताजी
बाहर निकल आते
हैं अपने
मंदिर के और
शोरगुल मचाने
लगते हैं कि
ध्यान में
बाधा पड़ गई।
जिस
ध्यान में
बाधा पड़ जाए, वह
ध्यान नहीं।
वह तो अहंकार
का ही खेल है, क्योंकि
अहंकार में
बाधा पड़ती है।
तुम वहां अकड़
कर बैठे थे
ध्यानी बने, तुम अहंकार
का मजा ले रहे
थे। जरा—सी
बाधा कि तुम आ
गए।
तुमने
देखा!
तुम्हारी ही
बात नहीं है, तुम्हारे
बड़े—बड़े ऋषि—मुनि
जरा—सी बात
में नाराज हो
जाते हैं, दुर्वासा
बन जाते हैं, क्रोध से
उत्तप्त हो
जाते हैं। यह
कोई ध्यान नहीं
है। ध्यान का
तो अर्थ इतना
ही है कि अब जो
भी होगा वह
मुझे स्वीकार
है। मैं नहीं
है; जो रहा
है, हो रहा
है; जो हो
रहा है, होता
रहेगा। तुम
खाली बैठे।
बर्तन टूटा, आवाज आई, गंजी,
तुमने सुनी,
जरूर सुनी;
लेकिन
तुमने इससे
कुछ विरोध न
किया कि ऐसा
नहीं होना
चाहिए था।
तुमने जैसे ही
कहा कि ऐसा
नहों होना
चाहिए था कि
विध्न हुआ, बाधा पड़ी।
बर्तन के
टूटने से बाधा
नहीं पड़ रही—तुम्हारी
दृष्टि विरोध
की कि ऐसा
नहीं होना था......।
बच्चा रोया, तुम्हें
बाधा पड़ी—यह
नहीं होना था।
कोई बच्चे को
रोके, कोई
नहीं रोक रहा
है—और बाधा
पड़ी! तुम
ध्यान कर रहे
हो और किसी को
तुम्हारे
ध्यान की
फिक्र नहीं
है! तुम महान
कार्य कर रहे
हो संसार के
हित के लिए।
और लोग अपने ढंग
से चले जा रहे
हैं, कोई
हार्न ही बजा
रहा है।
तुम
गलत दृष्टि से
ध्यान करने
बैठे हो।
तुम्हारा
ध्यान अहंकार
की ही सजावट
है। वास्तविक
ध्यान तो जो
हो रहा है हो
रहा है, तुम
शांत बैठे देख
रहे हो।
तुम्हारा कोई
अस्वीकार— भाव
नहीं है।
ध्यान
एकाग्रता
नहीं है; ध्यान
सर्व —स्वीकार
है। पक्षी
गाएंगे, आवाज
करेंगे, राह
पर लोग चलेंगे
कोई बात करेगा,
बच्चे
हसेंगे—सब
होता रहेगा, तुम वहां
शून्यवत बैठे
रहोगे। सब
तुममें से
गुजरेगा भी—ऐसा
भी नहीं है कि
तुम्हारे कान
बहरे हो गए हैं
कि तुम्हें
सुनाई नहीं
पड़ेगा—तुम्हें
और भी अच्छी
तरह सुनाई
पड़ेगा। ऐसा पहले
कभी नहीं पड़ा
था, क्योंकि
मन में हजार
उलझनें थीं, तो कान सुन
भी लेते थे, फिर भी मन तक
नहीं पहुंचता
था। अब बिना
उलझन के बैठे
तुम्हारी
संवेदनशीलता
बड़ी प्रगाढ़ हो
जाएगी।
वसंत
यानी मौसम और
मिजाज के बीच
समरसता।
ध्यान
यानी
तुम्हारे और
समस्त के बीच
समरसता। समरस
हो गए। ठीक है
जो है, बिलकुल
ठीक है, स्वीकार
है। कहीं कोई
अस्वीकार
नहीं, कहीं
कोई विरोध
नहीं। जो रहा
है, शुभ हो
रहा है। यही
आस्तिकता है,
यही ध्यान
है। ऐसा ध्यान
स्वभावत: एक
नई ही अनुभूति
में तुम्हें
ले जाएगा।
तूफान उठेंगे,
तूफान रुक
नहीं जाएंगे
तुम्हारे
ध्यान करने से।
ध्यान करने से
शरीर में
बीमारियां
आनी बंद नहीं
हो जाएंगी।
बीमारियां
आएंगी, शरीर
में कभी कांटा
भी चुभेगा।
रमण को कैंसर
हो गया
रामकृष्ण को
भी. तो बड़े
तूफान आए!
रामकृष्ण
को कैंसर हो
गया गले का, तो
भोजन न कर
सकते थे, पानी
न पी सकते थे।
तो
विवेकानंद
ने उन्हें कहा
कि आपके हाथ
में क्या
नहीं! आप
क्यों नहीं
प्रभु से
प्रार्थना
करते कि इतना
तो कम से कम कर, कि
कम से कम भोजन
और पानी तो
जाने दे! हम
पीड़ित होते
हैं आपको
तड़पते देख कर।
रामकृष्ण
ने कहा कि अरे, यह
तो मुझे खयाल
ही न आया कि
प्रभु से
प्रार्थना
करूं। जिसकी
प्रार्थना पूरी
हो गई, उसे
कैसे खयाल
आएगा कि प्रभु
से इसके लिए
प्रार्थना
करूं!
विवेकानंद
ने बहुत आग्रह
किया तो
उन्होंने आख
बंद की और फिर
हंसने लगे और
कहा कि तू
नहीं मानता तो
मैंने कहा।..
मैं जानता हूं,
कहा नहीं होगा,
क्योंकि
प्रार्थना
करने वाला
प्रार्थना कर ही
नहीं सकता। सब
प्रभु पर छोड़
दिया, अब
उससे और क्या
शिकायत कि ऐसा
कर वैसा कर, कि गले में
पानी जाने दे।
यह भी कोई बात
है? यह कोई
कहने जैसी बात
है? रामकृष्ण
ने कही होगी? नहीं, लेकिन
रामकृष्ण ने
विवेकानंद के
संतोष के लिए
कहा कि मैंने
कहा। तो
विवेकानंद
बड़ी उत्कुल्लता
से बोले : 'क्या
कहा परमात्मा
ने?' तो
उन्होंने कहा
: 'परमात्मा
ने कहा कि अरे
पागल, अब
इसी कंठ से
पानी पीता
रहेगा? और
सब कंठों से
पी! इसी कंठ से
भोजन करता
रहेगा? अब
और कंठों से
कर! यह शरीर तो
जाने का क्षण
आ गया।’
तो
रामकृष्ण ने
कहा. 'अब
विवेकानंद, तुम्हारे
कंठ से पानी
पी लेंगे, तुम्हारे
कंठ से भोजन
कर लेंगे। यह
कंठ तो गया।
प्रभु ने ऐसा
कहा।’
यह
मैं मानता हूं
कि रामकृष्ण
ने पूछा नहीं
होगा, पूछ
सकते नहीं।
जाग्रत
पुरुष को
कैंसर नहीं
होगा, ऐसा
नहीं है, हो
सकता है।
क्योंकि
कैंसर कोई
तुम्हारी जागृति
और गैर—जागृाrते से नहीं
चलता; वह
तो शरीर के
गुणधर्म से
चलता है। वह
तो शरीर की
अलग यात्रा चल
रही है। तुम
जाग गए तो पैर
में काटा नहीं
गड़ेगा, ऐसा
नहीं है।
तूफान तो आते
रहेंगे, आंधिया
आती रहेंगी, छप्पर गिरते
रहेंगे, लेकिन
अब तुम्हें
कोई फर्क नहीं
पड़ता। तुम्हें
स्वीकार है।
पूछा
है. 'क्या उस
अवस्था में
आजीवन जीया जा
सकता है? जिस
तरह झील कभी
शांत, कभी
चंचल, कभी
तूफानी
अवस्था में
होती है, क्या
उसी तरह
आत्मज्ञानी
सांसारिक
परिस्थितियों
से प्रभावित
नहीं होता है?'
नहीं, आत्मज्ञानी
होता ही नहीं—इसलिए
प्रभावित और
अप्रभावित का
कोई अर्थ नहीं।
जो कहे कि
प्रभावित
होता हूं वह
तो आत्मज्ञानी
है ही नहीं।
और जो कहे कि
मैं
अप्रभावित रहता
हूं, वह भी
आत्मज्ञानी
नहीं है।
क्योंकि
प्रभाव—
अप्रभाव
दोनों एक ही
दिशा में हैं।
उनमें दोनों
में तुम तो
मौजूद हो—कोई
प्रभावित
होता है, कोई
प्रभावित
नहीं होता।
लेकिन अकड़ तो
मौजूद है, अहंकार
तो मौजूद है।
और अगर तुम
मुझसे पूछो तो
मैं कहता हूं :
जो प्रभावित
होता है, वही
सरल है। जो
अप्रभावित
रहता है वह
कठिन, कठोर
है, जड़ है।
प्रभावित न
होने से तो
प्रभावित
होना ही बेहतर
है, कम से
कम तरल तो हो।
तूफान आते हैं
हिलते—डुलते
तो हो; पत्थर
की तरह तो
नहीं हो।
लेकिन ये
दोनों ही अवस्थाएं
आत्मज्ञान की
नहीं हैं।
आत्मज्ञान
की अवस्था में
तो तुम हो ही
नही—जो होता
है,
होता है। न
कोई प्रभावित
होने को बचा, न कोई
अप्रभावित
रहने को बचा।
आर—पार सब
खाली है, पारदर्शी
हो गए। किरण
आती, गुजर
जाती, कहीं
कोई रुकावट
नहीं पड़ती।
आज
तो यह असंभव
लगेगा। आज तो
यह बिलकुल
असंभव लगेगा।
आज तो ऐसा
लगता है कि
अप्रभावित
होना ही बड़ी
दूर की मंजिल
है। प्रभावित
तो हम होते हैं
हर पल छोटी—छोटी
बात से, अप्रभावित
होने को हमने
लक्ष्य बना
रखा है। और
मैं कह रहा
हूं : उसके भी
पार जाना है।
टहलना
छोड़ दूं
यह
हो सकता है
लेकिन
टहलूं
और
जमीन से पांव
न लगें
यह
अनहोनी बात
है।
पानी
से दूर रहूं
यह
संभव है
लेकिन
पानी में
तैरें
और
वस्त्र न
भीगें,
यह
करिश्मा कोन
कर सकता है!
अगर
यह कमजोरी है
तो
इसका राज क्या
है?
अगर
यह बीमारी है
तो
इसका इलाज
क्या है?
तब
भी तेरी महिमा
अपार है।
तू
चाहे
तो
यह असमर्थता
भी
हर
सकता है।
इसलिए
तो ऐसे लोग
हैं
जो
पांव छुलाए
बिना
जमीन
पर चलते हैं
और
आग में
खड़े
होकर भी नहीं
जलते हैं।
लेकिन
तुम ध्यान
रखना, यह जो
चमत्कार है—आत्यंतिक
चमत्कार—यह
तभी घटता है
जब तुम होते
ही नहीं, जलने
वाला होता ही
नहीं, तभी
यह चमत्कार
घटता है। जब
तक तुम हो, तब
तक तो तुम
जलोगे ही।
चाहे दिखाओ
चाहे न दिखाओ,
बताओ कि न
बताओ, प्रगट
करो कि न
प्रगट करो; लेकिन जब तक
तुम हो तब तक
तो तुम जलोगे
ही। और जब तक
तुम हो, पानी
पर चलोगे, तो
पैर में पानी
छुएगा ही।
लेकिन यह
करिश्मा भी
घटता है। उसकी
महिमा अपार
है! यह
तुम्हारे किए
नहीं घटता; यह तुम्हारे
मिटे घटता है।
तू
जो चाहे, तो
यह
असमर्थता भी
हर सकता है।
इसलिए
तो ऐसे लोग
हैं
जो
पांव छुलाए
बिना
जमीन
पर चलते हैं
और
आग में खड़े
होकर भी
नहीं
जलते हैं।
ध्यान
रखना, मैं
वस्तुत: आग के
अंगारों पर
चलने वालों की
बात नहीं कर
रहा हूं और न
ही पानी पर
चलने वाले योगियों
की बात कर रहा
हूं। मैं तो
जीवन की उस परम
महिमा की बात
कर रहा हूं, जहां तुम
जीवन में होते
हो, फिर भी
तुम्हें कुछ
छूता नहीं।
बाजार में खड़े
और तुम मंदिर
में ही होते
हो। दूकान पर
बैठे, ग्राहक
से बात करते, तुम किसी
परलोक में
होते हो। उठते—बैठते,
घर—द्वार
सम्हालते, बच्चे—पत्नी
की चिंता—फिक्र
करते—फिर भी
निश्चित रहते
हो! जल में
कमलवत! मैं तो
उस महा
चमत्कार की
बात कर रहा
हूं। अंगारों
पर चलना तो
बच्चों का खेल
है। वह तो
सीखा जा सकता
है, किया
जा सकता है।
और शायद कभी
आदमी पानी पर
चलने का भी
उपाय कर ले, उसका भी
आयोजन हो सकता
है। लेकिन इन
सब की मैं बात
नहीं कर रहा
हूं।
झेन
फकीर बोकोजू
अपने शिष्यों
के साथ एक नदी
के किनारे
पहुंचा।
शिष्य बहुत
दिन से
प्रतीक्षा
करते थे कभी
कि बोकोजू के
साथ नदी पार
करने का मौका
मिल जाए। क्योंकि
बोकोजू सदा
कहता था कि
मैं अगर नदी
से गुजरूं तौ
मेरे पैर में
पानी न छुएगा।
तो शिष्य बड़े
उत्सुक थे यह
चमत्कार
देखने को।
लेकिन जब बोकोजू
पानी में चला
तो जैसे उनके
पैर भीग रहे
थे,
उसके पैर भी
भीग रहे थे।
वे तो बड़े
हैरान हुए।
उन्होंने कहा 'गुरुदेव, यह क्या
मामला है? आप
तो सदा कहते
थे कि मैं
पानी में चलूं
तो मेरे पैर न
भीगेंगे।’ और
बोकोजू हंसने
लगा। उसने कहा
तो फिर तुम
समझे नहीं।
मैं तो अभी भी
नहीं भीग रहा —हूं;
और जो भीग
रहा है, वह
मैं नहीं हूं।
यह देह मैं
नहीं हूं यही
तो मैं
तुम्हें सुबह
से सांझ
समझाता हूं।
तुम
मूर्खचित्त, कब चेतोगे? मैं तो अभी
भी अनभीगा हूं
और मेरे भीगने
का कोई उपाय
नहीं है। और
तुम भी अनभीगे
हो, सिर्फ
तुम्हें इसका
पता नहीं चल
रहा है, मुझे
पता चल रहा है—
भेद इतना ही
है।
जिसे
भीतर की
शून्यता की
प्रतीति होने
लगी,
तूफान आएं,
निश्चित ही
शरीर तो कपेगा,
कंपन होंगे,
लेकिन भीतर
उस शून्य में
कुछ भी न
होगा। जो मिट
गया, उसे
कुछ हो कैसे
सकता है!
इसलिए तो
ज्ञानी को हम
कहते हैं—जों
जीते—जी मर
गया; जो
मरा हुआ जी
रहा है; जिसके
भीतर अब कुछ
बचा नहीं।
अष्टावक्र
का सूत्र देखा
: 'बोलने वाले,
वाचाल, मौन
हो जाते हैं।
बड़े कर्मठ
आलसी जैसे हो
जाते हैं।’ उसी में तुम
जोड़ दे सकते
हों—जीवित मृत
जैसे हो जाते
हैं, जडू—सम!
मृत जैसे हो
जाते हैं।
बाहर सब चलता
रहता है। भेद
इतना ही पड़
जाता है कि
बाहर अब नाटक
होता है, अभिनय
होता है। भीतर
तुम जानते हो
कि बाहर जो हो
रहा है, अभिनय
है, तुम
इसके कर्ता
नहीं हो। एक 'पार्ट' है
जो पूरा कर
देना है।
मेरे
पास अभिनेता
आते हैं, मुझसे
पूछते हैं कि
हमें बताएं कि
हमारी अभिनय
की कला कैसे
कुशल हो जाए? तो उनसे मैं
कहता हूं :
मेरे पास एक
सूत्र है। अभिनय
की कला करते
हो, अभिनेता
हो, तो
अभिनय ऐसे
करना कि भूल
जाना कि यह
अभिनय है, कर्ता
हो जाना, तो
सच्चा हो
जाएगा अभिनय
और तब उसमें
प्राण पड़
जाएंगे। और
यही मैं कहता
हूं सभी से कि
जीवन में इस
तरह चलना कि
जैसे अभिनय
है। शिथिल हो
जाएंगे हाथ, संबंध ढीले
हो जाएंगे। अगर
अभिनय को
सच्चा करके
दिखलाना हो, तो कर्ता बन
जाना और अगर
सच्चाई को
माया सिद्ध कर
देना हो, तो
अकर्ता बन
जाना, अभिनय
मान लेना।
तुम
जरा कोई काम
करके तो देखो—अभिनेता
की तरह। तुम
बड़े हैरान
होओगे, अपूर्व
रस झरेगा, बड़ी
भीनी— भीनी
गंध उठेगी। आज
घर जाओ लौट कर
तो तय कर लेना
कि तीन घंटे
अभिनेता की
तरह करेंगे।
पत्नी को गले
लगाएंगे, मगर
ऐसे जैसे
अभिनेता
लगाता है।
भोजन करेंगे जैसे
अभिनेता करता
है। बच्चों को
पुचकारेंगे, दुलारेगे, जैसे
अभिनेता करता
है, जैसे
अपने बच्चे
नहीं हैं, एक
नाटक कर रहे
हैं। तुम जरा
करके तो देखो।
अगर क्षण भर
को भी तुम्हें
अभिनय का भाव
आ जाएगा, तो
तुम चकित हो
जाओगे। अभिनय
का भाव आते ही
सब शांत हो
जाता है, फिर
कोई अशांति
नहीं। इसलिए
हिंदू कहते
हैं. जगत लीला
है। इसे खेल
समझो, गंभीर
मत हो जाओ।
तीसरा
प्रश्न :
कल
का प्रवचन
सुनते हुए
मुझे लगा कि
आपमें 'चार्वाक—सखं
जीवेत' और 'अष्टावक्र—सुखं
चर' एक साथ
बोल रहे हैं।
और जाने क्यों
वह मुझे प्रीतिकर
भी लगा। लेकिन
यदि भोग से
विरस होने के
लिए यानी
मुक्ति के लिए
भोग से पूरी
तरह गुजर जाना
जरूरी है तो
क्या अच्छा
नहीं होगा कि
धर्म—साधना के
इतने बड़े
गोरखधंधे की
जगह चार्वाक—दर्शन
को भरपूर मौका
दिया जाए?
सच्चाई
तो यही है कि
जो भोग में
गहरा गया वही
योग को उपलब्ध
हुआ। सच्चाई
तो यही है कि
जो सपने में
गहरा उतरा, वही
जागा। सच्चाई
तो यही है कि
अनुभव के
अतिरिक्त इस
जगत में
वैराग्य के
पैदा होने का
कोई उपाय न
कभी था, न
है, न
होगा। इसलिए परमात्मा
जगत को बनाए
चला जाता है
और तुम्हें जगत
में धकाए चला
जाता है।
क्योंकि जगत
में उतर कर ही
तुम जान पाओगे
कि पार होना
क्या है! जगत में
डुबकी लगा कर
ही तुम जगत के
ऊपर उठने की
कला सीख
पाओगे।
ईश्वर
भी निश्चित ही
चार्वाक और
अष्टावक्र दोनों
का जोड़ है।
चार्वाक को
मैं धर्म—विरोधी
नहीं
मानता।
चार्वाक को
मैं धर्म की
सीढ़ी मानता हूं।
सभी
नास्तिकता को
मैं आस्तिकता
की सीडी मानता
हूं। तुमने
धर्मों के बीच
समन्वय करने
की बातें तो
सुनी होंगी—हिंदू
और मुसलमान एक; ईसाई
और बौद्ध एक।
इस तरह की बात
तो बहुत चलती
है। लेकिन
असली समन्वय
अगर कहीं करना
है तो वह है
नास्तिक और
आस्तिक के
बीच।
यह
भी कोई समन्वय
है—हिंदू और
मुसलमान एक!
ये तो बातें
एक ही कह रहे हैं, इनमें
समन्वय क्या
खाक करना? इनके
शब्द अलग
होंगे, इससे
क्या फर्क
पड़ता है?
मैं
एक आदमी को
जानता था, उसका
नाम
रामप्रसाद
था। वह
मुसलमान हों
गया, उसका
नाम
खुदाबक्या हो
गया। वह मेरे
पास आया। मैने
कहा : 'पागल!
इसका मतलब वही
होता है—रामप्रसाद।
खुदाबक्या
होकर कुछ हुआ
नहीं। खुदा
यानी' राम;
बक्या यानी
प्रसाद।’ वह
कहने लगा. 'यह
मुझे कुछ खयाल
न आया।’
भाषा
के फर्क हैं, इनमें
क्या समन्वय
कर रहे हो? असली
समन्वय अगर
कहीं करना है
तो नास्तिक और
आस्तिक के बीच;
पदार्थ और
परमात्मा के
बीच; चार्वाक
और अष्टावक्र
के बीच। मैं
तुमसे उसी असली
समन्वय की बात
कर रहा हूं।
जिस दिन नास्तिकता
मंदिर की सीढ़ी
बन जाती है, उस दिन
समन्वय हुआ।
उस दिन तुमने
जीवन को
इकट्ठा करके
देखा, उस
दिन द्वैत
मिटा।
मैं
तुमसे परम
अद्वैत की बात
कर रहा हूं।
शंकर ने भी
तुमसे इतने
परम अद्वैत की
बात नहीं की, वे
भी चार्वाक के
विरोधी हैं।
इसका मतलब
क्या होता है?
इसका मतलब
होता है : आखिर
चार्वाक भी है
तो परमात्मा
का हिस्सा ही।
तुम कहते हो
सभी में
परमात्मा है;
फिर
चार्वाक में
नहीं है? फिर
चार्वाक से जो
बोला, वह
परमात्मा
नहीं बोला? फिर चार्वाक
का खंडन कर
रहे हो—क्या
कह रहे हो? क्या
कर रहे हो? अगर
वास्तविक
अद्वैत है तो
तुम कहोगे.
चार्वाक की
वाणी में भी
प्रभु बोला।
यही मैं तुमसे
कहता हूं। और
वाणी उसकी
मधुर है, इसलिए
चार्वाक नाम
पड़ा। चार्वाक
का अर्थ होता
है : मधुर वाणी
वाला। उसका
दूसरा नाम है.
लोकायत।
लोकायत का
अर्थ होता है.
जो लोक को
प्रिय है; जो
अनेक को प्रिय
है। लाख तुम
कहो ऊपर से
कुछ, कोई
जैन है, कोई
बौद्ध है, कोई
हिंदू है, कोई
मुसलमान—यह सब
ऊपरी बकवास है;
भीतर गौर से
देखो, चार्वाक
को पाओगे। और
तुम अगर इन
धार्मिको के स्वर्ग
की तलाश करो
तो तुम पाओगे
कि सब स्वर्ग
की जो योजनाएं
हैं चार्वाक
ने ही बनाई
होंगी। स्वर्ग
में जो आनंद
और रस की धारे
बह रही हैं, वे चार्वाक
की ही धारणाएं
हैं।
सुखं
जीवेत!
चार्वाक कहता
है : सुख से
जीयो। इतना
मैं जरूर
कहूंगा कि
चार्वाक सीढ़ी
है। और जिस
ढंग से
चार्वाक कहता
है,
उस ढंग से
सुख से कोई जी
नहीं सकता।
क्योंकि चार्वाक
ने ध्यान का
कोई सूत्र
नहीं दिया।
चार्वाक
सिर्फ भोग है,
योग का कोई
सूत्र नहीं है;
अधूरा है।
उतना ही अधूरा
है जितने
अधूरे योगी
हैं। उनमें
योग तो है
लेकिन भोग का
सूत्र नहीं
है। इस जगत
में कोई भी
पूरे को
स्वीकार करने
की हिम्मत
करता नहीं
मालूम पड़ता—आधे—
आधे को। मैं
दोनों को
स्वीकार करता
हूं। और मैं
कहता हूं :
चार्वाक का
उपयोग करो और
चार्वाक के
उपयोग से ही
तुम एक दिन
अष्टावक्र के
उपयोग में समर्थ
हो पाओगे।
जीवन
के सुख को
भोगो। उस सुख
में तुम पाओगे, दुख
ही दुख है।
जैसे—जैसे
भोगोगे वैसे—वैसे
सुख का स्वाद
बदलने लगेगा
और दुख की
प्रतीति होने
लगेगी। और जब
एक दिन सारे
जीवन के
सभी
सुख दुख—रूप
हो जाएंगे, उस
दिन तुम जागने
के लिए तत्पर
हो जाओगे। उस
दिन कोन
तुम्हें रोक
सकेगा? उस
दिन तुम जाग
ही जाओगे। कोई
रोक नहीं रहा
है। रुके
इसलिए हो कि
लगता है शायद
थोड़ा सुख और हो,
थोड़ा और सो
लें। कोन
जाने...। एक
पन्ना और उलट
लें संसार का।
इस कोने से और
झांक लें! इस
स्त्री से और
मिल लें! उस
शराब को और पी
लें! कोन जाने
कहीं सुख छिपा
हो, सब तरफ
तलाश लें!
मैं
कहता भी नहीं
कि तुम बीच से
भागो। बीच से
भागे, पहुंच न
पाओगे, क्योंकि
मन खींचता
रहेगा। मन बार—बार
कहता रहेगा।
ध्यान करने
बैठ जाओगे, लेकिन मन
में प्रतिमा
उठती रहेगी
उसकी, जिसे
तुम पीछे छोड़
आए हो। मन
कहता रहेगा. 'क्या कर रहे
हो मूर्ख बने
यहां बैठे? पता नहीं
सुख वहा होता।
तुम देख तो
लेते, एक
दफा खोज तो
लेते!
इसलिए
मैं कहता हूं.
संसार को जान
ही लो, उघाड़ ही
लो! जैसे कोई
प्याज को
छीलता चला जाए—तुम
बीच में मत
रुकना, छील
ही डालना
पूरा। हाथ में
फिर कुछ भी
नहीं लगता। ही,
अगर पूरा न
छीला तो प्याज
बाकी रहती है।
तब यह डर मन
में बना रह
सकता है, भय
मन में बना रह
सकता है. 'हो
सकता है
कोहिनूर छुपा
ही हो!' तुम
छील ही डालो।
तुम सब छिलके
उतार दो। जब
शून्य हाथ में
लगे, छिलके
ही छिलके गिर
जाएं—संसार
प्याज जैसा है,
छिलके ही
छिलके हैं, भीतर कुछ भी
नहीं। छिलके
के भीतर छिलका
है, भीतर
कुछ भी नहीं।
जब भीतर कुछ
भी नहीं पकड़
में आ जाएगा, फिर तुम्हें
रोकने को कुछ
भी न बचा।
चार्वाक
की किताब पूरी
पढ़ ही लो, क्योंकि
कुरान, गीता
और बाइबिल उसी
के बाद शुरू
होते हैं।
चार्वाक
पूर्वार्ध है,
अष्टावक्र
उत्तरार्ध।
तो
ठीक ही लगा।
मेरी सारी
चेष्टा यही है
कि तुम्हें
सुख से भगाऊं
न, तुम्हें सुख
के वास्तविक
स्वरूप का
दर्शन करा
दूं।
तुम्हारे
अनुभव से ही
तुम्हें पता
चल जाए कि
जहां तुमने
हीरे—मोती
समझे, वहा
कंकर—पत्थर भी
नहीं हैं।
लेकिन
धर्मगुरु इस
पक्ष में नहीं
होंगे। शंकराचार्य
और पोप और
पुरोहित इस
पक्ष में नहीं
होंगे।
क्योंकि उनका
तो सारा का
सारा धंधा इस
बात पर खडा है
कि वे तुम्हें
भोग के विपरीत
समझाएं। उनकी
तो सारी दूकान
तुम्हारे
कच्चे होने पर
चलती है। जो
व्यक्ति
संसार से पक
कर बाहर
निकलेगा वह
किसी
शंकराचार्य, किसी
पोप के पास
थोड़े ही जाने
वाला है, वह
तो सीधा
परमात्मा के
पास जा रहा
है। अब उसके
बीच में किसी
एजेंट की कोई
भी जरूरत नहीं
है। संसार
व्यर्थ हो गया,
अब तो
परमात्मा ही
बचा, अब तो
कहीं और जाना
नहीं। वह
हिंदू
मुसलमान, ईसाई
थोड़े ही बनेगा,
वह तो सिर्फ
धार्मिक
होगा। उसका
धर्म तो बिलकुल
अनूठा होगा, विशेषण—शून्य
होगा। लेकिन
ये सारे धर्म—गुरु
तो विशेषण से
जीते हैं। ये
तो चाहते हैं कि
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा की
तरफ जाने की
सीधी दौड़ न हो
जाए शुरू, अन्यथा
इनका क्या
होगा! ये जो
बीच में पड़ाव
हैं, बीच
में दूकानें
हैं, ये जो
बीच में ठहराव
हैं, बीच
में
धर्मशालाएं
हैं—इनका क्या
होगा! नहीं, ये चाहते
हैं कि तुम इन
पर रुकते हुए
जाओ। सच तो
यही है, ये
चाहते हैं, तुम इनसे
पार कभी न जाओ,
तुम यहीं
रुके रहो।
चार्वाक
के विपरीत हैं
तुम्हारे
धर्मगुरु।
क्योंकि एक
बात पक्की है
कि अगर
चार्वाक का ठीक—ठीक
अनुसरण किया
जाए,
तो तुम आज
नहीं कल, कल
नहीं परसों, जाग ही
जाओगे। और जो
जागता है वह
परमात्मा में
जागता है। हो,
जो सोए—सोए
उठ कर चलने
लगते हैं, उनमें
से कोई पुरी पहूंच
जाता, कोई
हज का यात्री
होकर काबा
पहुंच जाता है,
कोई
जेरुसलम, कोई
गिरनार, कोई
काशी। ये जो
नींद में सोये—सोये
चल रहे लोग
हैं, ये
कहीं न कहीं
जा कर उलझ
जाते हैं।
इसलिए
कोई धर्मगुरु, कोई
धर्मपंथ
मनुष्य को
पूरी
स्वतंत्रता
नहीं देता—बांध
कर रखता है।
मनुष्य की
स्वतंत्रता
के पक्ष में
बहुत थोड़े लोग
हैं।
स्वतंत्रता
को इस तरह के
लोग कहते हैं —
उच्छृंखलता।
अष्टावक्र
जैसी हिम्मत
बहुत कम लोगों
ने की है, जो
कहते हैं.
स्वच्छंद हो
जा, अपने
भीतर के
स्वभाव से जी,
और कोई
समझौता मत कर।
इतना ही जान
ले, इतना
ही ज्ञान है
कि तू सब
कालिख—कलुष के
पार है। इतना
ही ध्यान, इतना
ही योग, इतनी
ही सारी धर्म
की प्रक्रिया
है कि तू पहचान
ले कि जागरण
तेरा स्वभाव
है, चैतन्य
तेरा स्वभाव
है, निर्विकल्प,
असंग तेरा
स्वभाव है।
इतना जान ले, फिर तुझे जो
करना है कर!
फिर जैसे—तैसे
तुझे जीना है
जी। फिर कोई
बंधन नहीं है।
इतनी
क्रांति, इतनी
स्वतंत्रता
तो धर्मगुरु
नहीं दे सकता।
इसलिए तो
अष्टावक्र का
कोई पंथ न बन
सका और अष्टावक्र
का कोई मंदिर
खड़ा न हो सका, और
अष्टावक्र के
पुरोहित न हुए,
और
अष्टावक्र
अकेला खड़ा रह
गया। इतनी
स्वच्छंदता
के लिए समाज
तैयार नहीं।
समाज गुलामों
का है और समाज
चाहता है गुलामी
को कोई सजाने
वाला मिल जाए—जों
सजा कर बता दे
कि गुलामी
बहुत भली है
तो निश्चित हो
गए, गहरी
नींद में सो
जाएं। जगाने
वालों से पीड़ा
होती है।
लेकिन, जो
मुझे समझने की
चेष्टा में रत
हैं, उन्हें
जान लेना
चाहिए. मैं
परमात्मा को
पूरा का पूरा
स्वीकार करता
हूं उसके
चार्वाक रूप
में भी! और जगत
में मुझे कुछ
भी अस्वीकार
नहीं है।
सिर्फ एक बात
ध्यान रहे कि कोई
चीज अटकाए न।
हर चीज का
उपयोग कर लेना
और बढ़ जाना।
हर पत्थर पर
पैर रख लेना, सीढ़ी बना
लेना, और
ऊपर उठ जाना।
मार्ग पर जो
पत्थर पड़े हैं
वे सीढ़ियां भी
बन सकते हैं।
तुम उन्हें
अटकाव न बना
लेना।
चार्वाक
अटकाव बन सकता
है, अगर
तुम छोड़ो कि
बस, चार्वाक
पर सब समाप्त
हो गया। वह
केवल पूर्वार्ध
है, उसे
अंत मत मान
लेना, उससे
आगे जाना है।
लेकिन उससे
आगे उससे होकर
ही जाना है, गुजर कर ही
जाना है।
मैंने
सुना है, एक
पुरानी सूफी
कथा है। एक
लकड़हारा रोज
जंगल में लकड़ी
काटता था। एक
सूफी फकीर
बैठता था
ध्यान करने, उसने इसे
देखा : जन्मों—जन्मों
से यह काटता
रहा हो, ऐसा
मालूम पड़ता
है। जीर्ण —शीर्ण
देह, का हो
गया। और इससे
एक दफा रोटी
भी मुश्किल से
मिल पाती
होगी। तो उससे
कहा. 'देख, तू इस जंगल
में रोज आता
है, तुझे
कुछ पता नहीं।
तू थोड़ा आगे
जा।’ उसने
कहा : 'आगे
क्या है?' उसने
कहा. 'तू
थोड़ा आगे जा, खदान मिलेगी।’
वह आगे गया,
वहां एक
तांबे की खदान
मिली। वह बड़ा
हैरान हुआ।
उसने कहा : मैं
सदा यहां आता
रहा, जरा
आगे न बढ़ा, बस,
लकड़ियां
काटीं और जाता
रहा। जरा ही
कुछ थोड़े ही
कदम चल कर
खदान थी।
तांबा ले गया,
तो लकड़ी के
बेचने से तो
एक दफे रोटी
मिलती थी, एक
दफा तांबा
बेचने से इतना
पैसा मिलने
लगा कि महीने
भर का भोजन चल
जाए। जब
दुबारा फिर
आया तो उस
फकीर ने कहा
कि देख, अटक
मत जाना; थोड़ा
और आगे। तो
उसने कहा. 'अब
आगे और क्या
करना है जा कर?'
उसने कहा: 'तू जा तो! सुन,
मेरी सीख
मान। मैं यह
पूरा जंगल
जानता हूं।’
वह
और थोड़े आगे
गया तो चांदी
की खदान मिल
गई। वह बोला. 'मैं
भी खूब पागल
था। उस
फकीर
की स्कार न
मानता तो अटक
जाता तांबे पर।’ चांदी
बेच दी तो साल
भर के लायक
भोजन मिलने
लगा, बड़ा
मस्त था। एक
दिन फकीर ने
कहा कि देख, ज्यादा मस्त
मत हो, और
थोड़ा आगे।
उसने कहा : ' अब
छोड़ो भी, अब
मुझे कहीं न
भेजो। अब बस
काफी है, बहुत
मिल गया।’ फकीर
ने कहा. 'वैसे
तेरी मर्जी है,
लेकिन
पछताएगा।’ बात
मन में चोट कर
गई। थोड़ा और
आगे गया, सोने
की खदान मिल
गई। अब तो एक
दफा ले आया तो
जन्म भर के
लिए काफी था।
फिर तो उसने
जंगल आना ही
बंद कर दिया।
फकीर
एक दिन उसके
घर पहुंचा, पूछा
: 'पागल, मैं
तेरी राह
देखता हूं अभी
थोड़ा और आगे।’
उसने कहा. 'अब छोड़ो, अब
तुम मुझे मत
भरमाओ।’ उसने
कहा : 'तू
पिछले अनुभव
से तो कुछ
सीख। जितना
आगे गया उतना
मिला। थोड़ा और
आगे।’ रात
भर सो न सका।
कई दफे सोचा : 'अब जाने में
सार क्या है!
और आगे हो भी
क्या सकता है!
सोना—आखिरी
बात आ गई।’ पर
नींद भी न लगी;
सोचा कि
फकीर शायद कुछ
कहता हो, शायद
कुछ और आगे
हो। तो और आगे
गया। हीरों की
खदान मिल गई।
सोचा कि बुरा
होता हाल मेरा
अगर न आता।
अब
तो वह एक दफे
ले आया तो
जन्मों—जन्मों
के लिए काफी
था। फिर तो कई
दिन दिखाई ही
न पड़ता था वह।
घर भी फकीर
आता तो मिलता
नहीं था। कभी
होटल में, कभी
सिनेमागृह
में। वह कहॉ
अब, उसका
पता कहां चले!
अब तो वह भागा—
भागा था। फकीर
उसको खोजता
फिरे, उसका
पता न चले। एक
दफे मिल गया
वेश्यालय के द्वार
पर। उसने कहा. '
अरे पागल, बस तू यहीं
रुक जाएगा? अभी थोड़ा और
आगे।’ उसने
कहा. 'अब
क्षमा करो, मैं मजे में
हूं। अब मुझे
और झंझट में न
डालो।’ पर
फकीर ने कहा : 'एक बार और
मान ले। रुक
मत।’
वह
और आगे गया।
अब तुम सोचो :
और आगे क्या
मिला होगा? और
आगे फकीर मिला,
वह बैठा था
ध्यान में। उस
आदमी ने पूछा : 'अब यहां तो
कुछ और दिखाई
नहीं पड़ता।’ उसने कहा : 'यहां खदान
भीतरी है। अब
तू मेरे पास
बैठ जा। अब
जरा आख बंद
कर। अब जरा
शांत हो कर
बैठ। अब यहां
ध्यान की खदान
है। अब यहां
परमात्मा
मिलेगा, पागल!
अब बाहर की
चीज हो चुकी
बहुत, अब
भीतर खोद!'
जीवन
में और आगे
चलते जाना है, कहीं
रुकना मत! धन
के आगे ध्यान
है। चार्वाक के
आगे
अष्टावक्र
है। सुख के
आगे आनंद है।
पदार्थ के आगे
परमात्मा है।
विरोध मेरा
किसी से भी
नहीं है, इंकार
किसी बात का
नहीं। बस, एक
बात ध्यान रहे
कि तुम्हारे
जीवन की सरिता
बहती रहे, तुम
कहीं अटको न, डबरे न बनो।
डबरे बने कि
सड़े। डबरे बने
कि गंदे हुए।
डबरे बने कि
सागर तक
पहुंचने का
उपक्रम बंद
हुआ, अभियान
समाप्त हुआ, फिर तुम गए।
बहते
रहो! सागर तक
चलना है।
संसार से
गुजरना है, परमात्मा
तक पहुंचना
है। और जिस
दिन तुम पहुंचोगे,
उस दिन तुम
चकित होओगे।
उस दिन पीछे
लौट कर देखोगे
तो तुम पाओगे
सब जगह
परमात्मा ही
छिपा था। जहां—जहां
सुख की झलक
मिली थी, वहा
—वहां ध्यान
की कोई न कोई
किरण थी, इसीलिए
मिली थी। यह
मैं तुमसे
अपनी साक्षी
की तरह कहता
हूं मैं इसका
गवाह हूं। तुमने
अगर कामवासना
में कभी थोड़ी—सी
सुख की झलक
पाई थी तो वह
झलक कामवासना
की न थी, कामवासना
के क्षण में
कहीं ध्यान
उतर आया था, जरा—सा सही।
बड़ी दूर से एक
गज आ गई थी,
लेकिन
वह थी ध्यान
की। यह तो तुम
आखिर में पाओगे।
अगर कभी यश पा
कर तुम्हें
कुछ रस मिला
था तो वह भी
ध्यान की ही
झलक थी।
तुम्हें जहां
भी सुख मिला
था,
वह परमानंद
की ही कुछ न
कुछ किरण थी।
बहुत दूर की
थी, शायद
प्रतिफलन था।
आकाश में चांद
है और तुमने झील
में उसकी छाया
देखी थी, सिर्फ
परछाईं देखी
थी—लेकिन थी तो
परछाईं उसी
की। काम में
जिसकी झलक है,
वह
राम की परछाईं
है।
पत्थर
के फर्श
कगारों में,
सीखो
की कठिन
कतारों में,
खंभों, लोहों
के द्वारों में,
इन
तारों में, दीवारों
में,
कुंडी, ताले,
संतरियों में,
इन
पहरों की
हुंकारों में,
गोली
की इन बौछारों
में,
इन
वज बरसती
मारों में,
इन
सुर शरमीले, गुण—गर्वीले
कष्ट
सहीले वीरों
में,
जिस
ओर लखूं तुम
ही
तुम
हो प्यारे इन
विविध शरीरों
में!
जिस
ओर लखूं तुम
ही तुम हो
प्यारे
इन विविध
शरीरों में।
लेकिन
यह तो पीछे से
है। जब तुम
जीवन की पूरी
किताब पढ़
जाओगे, तब
तुम लौट कर
देखोंगे कि
अरे, यह
कथा एक ही थी!
कहीं अटक जाते
तो यह कभी समझ
में न आता। यह
आज तुम्हें
मेरी बात अनेक
बार उल्टी
मालूम पड़ती
है। मैं तुमसे
कहता हूं :
कामवासना में
जो तुम्हें
सुख मिला है
वह भी
ब्रह्मचर्य
की झलक है। अब
तुम चकित
होओगे यह बात
सुन कर। लेकिन
मैं तुम्हें
समझाने की
कोशिश करूं, अभी तो यह
ऊपर—ऊपर
बुद्धि के ही
खयाल में
आएगा।
कामवासना
उठती है, उत्तप्त
ज्वर घेर लेता
है, मन
डावांडोल
होता है, धुएं
से भर जाता
है। फिर जब
तुम कामवासना
में उतरते हो
तो एक घड़ी आती
है जहां
कामवासना
तृप्त हो जाती
है। उस तृप्ति
के क्षण में
फिर कोई काम—विकार
नहीं रह जाता।
उस क्षण में
ब्रह्मचर्य
की अवस्था
होती है। चाहे
क्षण भर को
सही, कोई
विकार नहीं रह
जाता। वह झलक
तो ब्रह्मचर्य
की है, जिससे
सुख मिल रहा
है; लेकिन
तुम सोचते हो
कामवासना से
मिल रहा है। घड़ी
आधा घड़ी को तो
फिर संसार में
कोई कामवासना नहीं
रह जाती। घड़ी
आधा घड़ी को तो
तुम फिर काम—
भावना से
घिरते ही
नहीं। घड़ी आधा
घड़ी को कामवासना
से छुटकारा हो
जाता है।
तुम
भोजन कर लेते
हो,
भूख लगी थी,
पीड़ा हो रही
थी—भोजन कर
लिया, तृप्ति
हो गई। उस
तृप्ति के
क्षण में
उपवास का रस
है। उतनी थोड़ी—सी
देर के लिए
फिर भोजन की
कोई याद नहीं
आती। और उपवास
का अर्थ ही यह
है कि भोजन की
याद न आए। जब
देह बिलकुल
स्वस्थ होती
है, जब
देह
तरंगित होती
है,
तब थोड़ी देर
को विदेह की
झलक मिलती है।
तुम
कभी
खिलाड़ियों से
पूछो, दौड़ाको
से पूछो, तैराकों
से पूछो।
तैरने वाले को
कभी—कभी ऐसी
घड़ी आती है, सूरज की
रोशनी में, लहरों के
साथ तैरते हुए,
एक क्षण को
देह ऐसी
तरंगित होने
लगती है, ऐसा
आनंद— भाव
उठता है देह
में, ऐसा
सुख बरसता है
कि देह भूल
जाती है, विदेह
हो जाता है।
वह सुख विदेह
का है। कभी दौड़ते
समय, दौड़ने
वाले को एक
ऐसी घड़ी आती
है जब कि भीतर
का मिजाज और
बाहर का मौसम
समरस हो जाता
है। भागता हुआ
पसीने से
तरबतर, लेकिन
चित्त शांत हो
जाता है, विचार
रुक गए होते
हैं। हवाओं के
झरोखों में? शीतल हवा
में, वृक्ष
के तले खड़े हो
कर छाया में
एक क्षण को देह
भूल जाती है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
खिलाड़ी को जो
मजा है वह देह
से मुक्त होने
का है। नहीं
तो कोई पागल
है,
लोग इतना
दौड़ते, इतना
तैरते—किसलिए?
तुम सोचते
हो सिर्फ
पुरस्कार के
लिए? लेकिन
बहुत लोग हैं
जो बिना
पुरस्कार के
दौड़ रहे हैं।
तुम्हें भी
शायद कभी ऐसा
मौका आया हो, घूमने गए हो
और एक घड़ी को
जैसे शरीर न
रहा, ऐसी
तरतमता हो गई,
बस उसी वक्त
सुख मिला! तुम
दूसरों से
कहते हो कि
बड़ा सुख मिलता
है घूमने में.!
लेकिन अगर
दूसरा तुम्हारी
मान कर जाए और
रास्ते में
पूरे वक्त
सोचता रहे कि
कब मिले, कब
मिले सुख, अब
मिले, अभी
तक नहीं मिला—वह
खाली हाथ लौट
आएगा! क्योंकि
सुख मिलता है
देह को भूल
जाने में।
पीछे
जब तुम कभी
लौट कर देखोगे
तो तुम पाओगे
कि काम में भी
जो सुख मिला
था,
वह भी क्षण
भर को
कामवासना से
मुक्त हो जाने
के कारण मिला
था। और भोजन
में भी जो सुख
मिला था, वह
भी क्षण भर को
भूख से मुक्त
हो जाने में
मिला था। क्षण
भर को वासना
क्षीण हो गई
थी, जरूरत
न रही थी। देह
से भी जो सुख
जाने, वे
सुख तभी मिले
थे जब देह भूल
गई थी और
विदेह चित्त
हो गया था।
मगर यह तो
पीछे समझ में
आएगा, जब
राम का अनुभव
हो जाएगा।
पीछे लौट कर
देखोगे तो तुम
पाओगे : अरे, सब जगह यही
स्वाद था!
उमड़ता
मेरे दुर्गो
में
बरसता
घनश्याम में
जो
अधर
में मेरे खिला
नव
इंद्रधनु
अभिराम में जो
बोलता
मुझमें वही
जग मौन
में जिसको
बुलाता
जो
न हो कर भी बना
सीमा क्षितिज
वही
रिक्त हूं मैं
विरति
में भी
चिर
विरत की बन गई
अनुरक्ति
हूं मैं
बोलता
मुझमें वही
जग
मौन में जिसको
बुलाता!
लेकिन
जब तुम मौन
होओगे, तभी
समझोगे कि
तुम्हारे मौन
में परमात्मा
ही बोला है।
कोई और बोल ही
नहीं सकता, कोई और है ही
नहीं।
तुम्हारे
प्रेम में भी
वही था, तुम्हारे
काम में भी
वही, तुम्हारे
राम में भी
वही, तुम्हारी
प्रार्थना
में भी वही।
सब उसकी ही झलकें
हैं। अनेक—
अनेक रूपों
में वही है। इसे
मैं कहता हूं.
अद्वैत! मेरा
ब्रह्म माया के
विरोध में
नहीं है। मेरा
ब्रह्म माया
में छिपा छिया—छी
कर रहा है।
मेरा ब्रह्म
माया में अनेक—
अनेक रूपों
में प्रगट है।
इश्क
का जौके —नजारा
मुफ्त में
बदनाम है
हुस्न
खुद बेताब है
जलवे दिखाने
के लिए।
यह
जो फूलों में से
झांक रहा है, यह
परमात्मा
उत्सुक है
जलवे दिखाने
के लिए। यह जो
किसी स्त्री
के चेहरे से
सुंदर हो कर
प्रगट हुआ है—
हुस्न
खुद बेताब है
जलवे दिखाने
के लिए।
यह
जो किसी बच्चे
की सरल, निर्दोष
आंखों में
झलका है, यह
खुद परमात्मा
उत्सुक है, आमंत्रण दे
रहा है। यह तो
तुम पीछे
समझोगे। आज तो
और कठिनाई बढ़
गई है बहुत।
तुम्हारे
धर्मगुरुओं
ने तुम्हें जो
सिखाया है, वह कुछ ऐसा
मूढ़तापूर्ण
है कि हर चीज
में बंधन का
डर. खड़ा कर
दिया है। हर
चीज में
घबड़ाहट पैदा कर
दी है, अपराध—
भाव पैदा कर
दिया है। अगर
तुम किसी के
प्रेम में
अनुरक्त हुए,
तो भीतर
अपराध होता है
कि यह क्या
पाप कर रहा हूं।
कोई आख
तुम्हें
सुंदर लगी, आकर्षक लगी
तो घबड़ाहट
पैदा होती है
कि जरूर पाप
हो रहा है।
ऋषि—मुनि सदा
कहते रहे : बचो!
मैं
तुमसे कहता
हूं इस आख में
थोड़े गहरे
उतरो। थोड़े और
आगे चलो।
तांबा मिलेगा, माना,
चांदी भी है,
सोना भी है,
हीरे —जवाहरात
भी हैं। और
थोड़ा आगे चलो,
धन के पार
ध्यान भी है।
जो हृदय
व्योमवत, विगत
कलुष
उभरेगा
उसमें
इंद्रधनुष
रचना
का कारण शून्य
स्वयं
मम
त्वम से जिसका
मुक्त अहं।
'मैं' और 'तू से मुक्त
हो जाओ। इसी
के लिए सारा
संसार आयोजन
है। इतनी पीड़ा
मिलती है 'मैं'
— 'तू' के
कारण, फिर
भी तुम मुक्त
नहीं होते।
इतना दुख पाते,
इतने शूल
छिदते, छाती
छलनी हो जाती—फिर
भी तुम मुक्त
नहीं होते। और
तुम्हें कोन
मुक्त कर
पाएगा? अगर
पीड़ा
तुम्हारी
गुरु नहीं है
तो और कोन
तुम्हारा
गुरु हो सकेगा?
संसार
गुरु है। जो
भी अनुभव हो
रहा है उसका
जरा हिसाब—किताब
रखो। जहां—जहां
दुख हो जरा
गौर से देखना, पाओगे
खड़े अपने 'मैं'
को। जहां—जहां
पीड़ा हो, वहीं
तुम पाओगे खड़े
अपने 'मैं'
को। तो धीरे—
धीरे कब तक
सोए रहोगे? कभी तो जाग
कर देखोगे कि
यह शूल की तरह
छिदा है अहंकार,
यही मेरे
प्राणों की पीड़ा
है। जिस दिन
कोई इस अहंकार
को हटा कर रख
देता.. और रखना
तुम्हारे हाथ
में है। सच तो
यह है, यह
कहना ठीक नहीं
कि रखना
तुम्हारे हाथ
में है। तुम
सम्हालो न तो
यह अभी गिर
जाए। तुम
सहयोग न करो
तो यह अभी
विसर्जित हो
जाए। यह
तुम्हारे
सहयोग से
सम्हला है।
यह
बड़े मजे की
बात है, तुम
अपने दुख को
खुद ही
सम्हाले खड़े
हो। तुम अपने
नर्क के
निर्माता
हो।
इस 'मैं' — 'तू
के जरा पार
चलने की बात
है। बस 'मैं'
— 'तू के पार
उठे, चाहे
प्रेम से उठो
चाहे ध्यान से,
दोनों से 'मैं' — 'तू
के पार उठना
है।
मिट्टी
में गड़ा हुआ
मैं तुम्हारा
मूल हूं
तुम
मेरे फूल हो
जो आकाश में
खिला है
मिट्टी
से जो रस मैं
खींचता हूं
वह
फूल में लाली
बन कर छाता है
और
तुम जो सौरभ
बनाते हो
यहां
नीचे भी उसका
सुवास उगता है
अदेह
की विभा देह
में झलक मारती
है,
और
देहक ज्योति
अदेह की आरती
उतारती है
द्वैताद्वैत
से परे मेरी
यह विनम्र टेक
है
प्रभु!
मैं और तुम
दोनों एक हैं।
वह
जो फूला खिला
है ऊपर शिखर
पर उसमें, और
वह जो जड़ छिपी
है गहरे
अंधकार में
भूमि के, उसमें
भेद नहीं, दोनों
एक हैं। बुद्ध
में और तुममें,
अज्ञानी
में और ज्ञानी
में, असाधु
और साधु में
कोई मौलिक
अंतर नहीं है,
कोई
आधारभूत अंतर
नहीं है। होगा
संत खिला हुआ फूल
जैसा, ऊपर
शिखर पर आकाश
में प्रगट, और होगा
असाधु दूर
अंधेरे में
भूइम के दबा
हुआ जड़ जैसा...
मिट्टी
में गड़ा हुआ
मैं तुम्हारा
मूल हूं
तुम
मेरे फूल हो
जो आकाश में
खिला है
मिट्टी
से जो रस मैं
खींचता हूं
वह
फूल में लाली
बन कर छाता है
और
तुम जो सौरभ
बनाते हो
यहां
नीचे भी उसका
सुवास आता है
अदेह
की विभा देह
में झलक मारती
है,
और
देहक ज्योति
अदेह की आरती
उतारती है।
द्वैताद्वैत
से परे मेरी
यह विनम्र टेक
है,
प्रभु!
मैं और तुम
दोनों एक हैं।
इस
संसार में तुम
दो को भूलना
शुरू करो, 'मैं'—
'तू को
भूलना शुरू
करो और जैसे
भी बने, जहां
से भी बने, जहां
से भी थोड़ी
झलक उठ सके एक
की—उस झलक को
पकड़ो। वे ही
झलकें
सघनीभूत हो—हो
कर एक दिन
समाधि बन जाती
हैं।
पांचवां
प्रश्न :
कल
आपने कहा कि
भोग की यात्रा
अंतत: योग पर
पहुंचा देती
है। कृपा करके
समझाइये, क्या
योग की यात्रा
जीवन की
वर्तलाकार
गति के कारण
पन: भोग पर पहुंचा
देती है? क्या
भोग—योग से
अतिक्रमण जैसा
कुछ भी नहीं
है? कृपा
करके
अष्टावक्र के
संदर्भ में
हमें समझाइए।
भोग
की यात्रा योग
पर पहुंचा
देती है अगर
रुके न कहीं।
जरूरी नहीं कि
पहुंच ही जाओ।
अगर अटक गए
तांबे की खदान
पर तो तांबे पर
अटके रहोगे।
भोग की यात्रा
पहुंचा देती
है,
ऐसा मै नहीं
कहता—पहुंचा
सकती है। खोजे
जाओ, अटकी
मत, रुको
मत, बढ़े
जाओ, चले
जाओ—तो भोग की
यात्रा
पहुंचा देती
है योग पर।
फिर योग में
अटक गये अगर—तो
प्रश्नकर्ता
ने ठीक बात
पूछी है—अगर
योग में अटक
गए तो फिर भोग
में गिर
जाओगे।
इसीलिए
तो योगी
स्वर्ग पहुंच
जाता है।
स्वर्ग यानी
भोग। कमा लिया
पुण्य, पहुंच
गए स्वर्ग, खर्चा करने
लगे। इसलिए तो
जैन—बौद्ध
कथाएं बड़ी' महत्वपूर्ण
हैं। जैन—बौद्ध
कथाएं कहती
हैं कि जब
स्वर्ग में
पुण्य चुक जाता
है, फिर
फेंक दिए जाते
हैं, फिर
संसार में।
स्वर्ग से कोई
मुक्त नहीं
होता, मुक्त
तो मनुष्य से
ही होता है।
ये बातें बड़ी महत्वपूर्ण
हैं। इसका
अर्थ यह हुआ
कि अगर योग में
अटक गए तो फिर
भोग में
गिरोगे।
कितनी देर तक
योग चलेगा!
वर्तुलाकार
है जीवन की
गति। तो जैसा
मैंने तुमसे
कहा. भोग में
मत अटकना तो
योग। अगर योग
में न अटके तो
अतिक्रमण। तो
तुम साक्षी—.
भाव में
प्रवेश कर
जाओगे।
तो
न तो भोग में
अटकना, क्योंकि
भोग में भी
अटकाने के
बहुत कारण हैं,
बड़े सुंदर
सपने हैं। और
योग में भी
बड़े सुंदर सपने
हैं, पतंजलि
ने उन्हीं का
वर्णन किया
विभूतिपाद
में। बड़ी
विभूतियां
हैं, बड़ी
सिद्धियां है—उन
सिद्धियों
में अटक
जाओगे। तो जो
योग में अटका,
वह आज नहीं
कल भोग में
गिरेगा।
तुमने
शब्द सुना
होगा
योगभ्रष्ट।
योगभ्रष्ट का
क्या अर्थ
होता है? योगभ्रष्ट
का अर्थ होता
है. जो भोग से
बढ़ कर योग तक पहुंच
गया था, लेकिन
फिर योग में
अटक गया। जो
अटका वह फिर
गिरेगा, वह
योगभ्रष्ट
होगा, वह
नीचे आ जाएगा।
योग में कोई
रुक नहीं
सकता। या तो
नीचे आओगे या
पार जाओगे।
रुकना होता
नहीं है; या
तो आगे बढ़ो, या पीछे
फेंक दिए
जाओगे। जगत
गति है, इसमें
रुक नहीं
सकते। इसमें रुके
कि या तो पीछे
हटने लगोगे, या आगे बढ़ना
पड़ेगा।
एडिंग्टन
ने लिखा है कि
जगत में
स्थिति जैसी कोई
स्थिति .नहीं
है। यहां कोई
चीज स्थिर तो
है ही नहीं।
अब ये वृक्ष
हैं,
या तो बढ़
रहे हैं या घट
रहे हैं!
बच्चा बड़ा हो
रहा है, जवान
घट रहा है, का
घट रहा है; लेकिन
घटना—बढ़ना चल
रहा है। तुम
ऐसा नहीं कह
सकते कि एक आदमी
जवानी में रुक
गया है। रुकना
यहां होता ही नहीं।
जो जवानी में
है, वह का
हो ही रहा है—पता
चले न चले, आज
पता क्ले कल
चले। लेकिन जो
जवान है वह का
हो रहा है। जो
बच्चा है वह
जवान हो रहा
है। जो बूढ़ा
है वह मरने
में उतर रहा
है। जो मरने
में उतर रहा
है वह नए जन्म की
तलाश कर रहा
है।
वर्तुलाकार
घूम रहा है
जीवन का चक्र।
बढ़ते
जाओ। योग से
बढ़ना है आगे।
उसी स्थिति का
नाम साखी, साक्षी,
अतिक्रमण।
उसके पार कुछ
भी नहीं है, क्योंकि
साक्षी के पार
होने का कोई
उपाय ही नहीं।
साक्षी का
अर्थ है.
आखिरी जगह आ
गई। जिसके
द्वारा तुम सब
देखते हो, अब
उसे देखने का
तो कोई उपाय
नहीं है। तुम
आखिरी पड़ाव पर
आ गए, केंद्र
पर आ गए।
तो
तीन
स्थितियां
हैं भोगी की, योगी
की, और जो
अतिक्रमण कर
गया—कहो, महायोगी
की या महाभोगी
की। कोई भी
शब्द उपयोग कर
सकते हो, लेकिन
वह दोनों से
भिन्न है।
जिंदगी
न जन्म के साथ
पैदा होती है,
न
मृत्यु के साथ
मरती है
जन्म
ले कर वह जिसे
खोजती है
मर
कर भी उसी की
तलाश करती है
और
ईश्वर आसानी
से हमारी पकड़
में नहीं आता
उसकी
कृपा यह है
कि
वह हमें जन्म
देता और फिर
मारता है
जन्म
और मरण दोनों
खराद के चक्के
हैं
ईश्वर
हमें तराश—तराश
कर संवारता है
और
जब हम पूरी
तरह संवर जाते
हैं
ईश्वर
अपने— आपको
हमें सौंप
देता है
हमारी
मुक्तिया
केंद्र से अलग
नहीं रहती
ईश्वर
या तो उनमें
विलय होता है
या
उन्हें अपने
में लीन कर
लेता है।
वह
जो अतिक्रमण
की दशा है, वहां
दो घटनाएं
हैं। वह भी दो
कहने को, एक
ही घटना है।
क्योंकि बूंद
सागर में गिरी
कि सागर बूंद
में गिर गया
है, क्या
फर्क पड़ता है,
एक ही बात
है। या तो
ईश्वर साक्षी
में लीन हो जाता
है या साक्षी
ईश्वर में लीन
हो जाता है।
कबीर
ने कहा है:
हेरत
हेरत हे सखि
रह्या कबीर
हेराई
बुंद
समानी समुंद
में सो कत
हेरी जाई।
खोजते
—खोजते कबीर
खो गया। खोजने
वाला खो गया
और बूंद सागर
में समा गई।
लेकिन तब
उन्हें खयाल
आया कि कुछ
बात चूक गई
इसमें, तो
उन्होंने फिर
से यह पद लिखा :
हेरत
हेरत हे सखि
रह्या कबीर
हेराई
समुंद
समाना बुंद
में सो कत
हेरी जाई।
खोजते—खोजते
खोजने वाला खो
गया,
कबीर खो गया
और अब समुद्र
बूंद में समा
गया, अब
उसे कैसे
निकाला जाए!
दोनों
बातें सच हैं।
बूंद समुद्र
में समा गई—यह
पहला अनुभव।
क्योंकि यह
बूंद की तरफ
से अनुभव है।
हम तो अभी
बूंद हैं। जब
पहली दफा घटना
घटेगी तो हमें
ऐसे लगेगा कि
बूंद सागर में
समा
गई। सागर इतना
बड़ा,
हम इतने
छोटे, सागर
तो हममें कैसे
समाएगा? हमारी
पुरानी
छोटेपन की
बुद्धि आखिरी
तक खड़ी रहेगी।
तो बूंद सागर
में समा गई।
लेकिन एक बार
जब बूंद सागर
में समा गई, तब हमें
दिखाई पड़ेगा
कि अरे कोन
छोटा, कोन
बड़ा! यहां तो
एक ही है। तब
हम यह भी कह
सकते हैं कि सागर
बूंद में समा
गया।
अतिक्रमण
हो जाए, तो या
तो तुम प्रभु
में समा जाते
हो या प्रभु तुममें
समा जाता है।
दोनों एक ही
बात के कहने के
दो ढंग हैं।
रुकना
भर नहीं। रुके
कि सड़े। कहीं
भी मत रुकना। जहां
तक बन सके
चलते ही चले
जाना। एक ऐसी
बड़ी आती है कि
फिर जाने को ही
कोई जगह नहीं
रह जाती। वही
जगह परमात्मा
है,
जिसके आगे
फिर जाने को
कुछ नहीं
बचता। जब जाने
को कोई स्थान
ही न बचे, तभी
रुकना। अगर
तुम्हें जरा—सी
भी जगह दिखाई
पड़ती हो कि
अभी थोड़ा जाने
को आगे है, तो
चले जाना। जब तक
जाने के लिए
अवकाश रहे, रुकना मत।
तो यात्रा
पूरी हो
जाएगी। और
जिसकी यात्रा
पूरी हुई, वही
घर आता है। घर
आता है—यानी
परमात्मा में
वापिस लौट आता
है।
आखिरी
प्रश्न :
आप
निरंतर अपने
संन्यासियों को
हंसते रहने का
उपदेश करते
हैं। लेकिन आप
दीक्षा में जो
माला उन्हें
देते हैं, उसके
लाकेट में लगा
आपका तो चित्र
गंभीर मद्रा लिए
है। यह
गंभीरता
क्यों?
फिर तुम्हें
हंसाने का
विज्ञान ही
समझ में नहीं
आया। अगर मैं
तुम्हें
हंसाने की कुछ
बात कहूं और
खुद ही हंस
दूं तो तुम
चूक जाओगे, फिर
तुम न हंस
सकोगे। अगर
मुझे तुम्हें
हंसाना है तो
मुझे गंभीर
रहना पड़ेगा।
जितना ज्यादा
मैं गंभीर
होता हूं,
उतनी ही
तुम्हें
हंसने की
सुविधा होती
है। और जब मैं
तुमसे कहता
हूं हंसों, तो मैं बड़ी
गंभीरता से कह
रहा हूं कि
हंसो। यह कोई
हंसी की बात
नहीं है। इसे
तुम हंसी—हंसी
में कही मत
समझ लेना। इसे
मैंने बड़ी गंभीरता
से कहा है।
क्योंकि
हंसने को मैं
साधना बना रहा
हूं।
मुस्कुराते
हुए तुम
परमात्मा के
द्वार तक
पहुंचो, तुम
जल्दी
स्वीकार हो
जाओगे।
एक
आदमी मरा।
उसके सामने ही
रहने वाला एक
दूसरा आदमी भी
मरा। एक ही
साथ दोनों
मरे। दोनों परमात्मा
के सामने
मौजूद हुए।
लेकिन बड़ा
चकित हुआ वह
आदमी। उसको
स्वर्ग मिला,
यह
तो ठीक था। यह
सामने वाला
आदमी, इसको
स्वर्ग
किसलिए मिल
रहा है! वह तो
सदा प्रार्थना
किया था; इसने
तो कभी
प्रार्थना भी
न की। वह तो
सदा पूजा किया;
इसने कभी
पूजा भी न की।
उसने प्रभु से
पूछा कि यह
जरा अन्याय
है। यह निहायत
पापी, सांसारिक!
इसको किसलिए
स्वर्ग मिल
रहा है? मैं
तो निरंतर
पूजा किया, प्रार्थना
किया। कभी एक
दिन को तुझे
भूला नहीं।
सुबह याद किया
दोपहर याद
किया, सांझ
याद किया, रात
याद किया, याद
कर—करके मर
गया। जिंदगी
भर तेरी याद
में गुजारी!
तो
परमात्मा ने
कहा. 'इसीलिए।
क्योंकि इस
आदमी ने मुझे
बिलकुल सताया
नहीं। इसने न
मुझे सुबह
जगाया, न
दोपहर जगाया,
न रात जगाया—इसने
मुझे सताया ही
नहीं। तू
जिंदगी भर
मेरी खोपड़ी
खाता रहा।
तुझे नरक नहीं
भेजा, यही
काफी है।
पूर्ण न्याय
मांगता हो, तो तुझे नरक
भेजना पड़े, निश्चित
अन्याय हो रहा
है। अन्याय यह
हो रहा है कि
तुझे भेजना तो
नरक था।
तुम्हारे
उदास, रोते
हुए चेहरे
परमात्मा को
स्वीकार न
होंगे। तुम
फूल की भांति
जाना! तुम
नाचते हुए
जाना। तुम
नाचते हुए
अंगीकार हो
जाओगे। तुम
नाचते गए तो
तुम्हारे
हजार पाप
क्षमा हो
जाएंगे। तुम उदास,
गंभीर, रोते
हुए गए तो
तुम्हारे
हजार पुण्य भी
काम नहीं
आएंगे। और
पुण्य ही क्या
जो तुम्हें
उदास कर जाए?
इसलिए
जब मैं हंसने
के लिए कह रहा हूं,
तो बड़ी
गंभीरता से कह
रहा हूं। इसे
हंसी—हंसी में
मत ले लेना।
और मुझे तो
गंभीर रहना पड़े
तुम्हारी
खातिर। नहीं
तो तुम समझोगे
हंसी—हंसी में
कही थी बात।
तुम शायद उसे
गहरे में न लो।
लेकिन तुम अगर
मुझे
पहचानोगे तो
तुम पाओगे
मुझसे ज्यादा
गैर—गंभीर
आदमी खोजना
मुश्किल है।
तुम अगर थोड़ा
मुझमें झांकोगे
तो निश्चित
पाओगे कि वहां
सिवाय नृत्य और
हंसी के कुछ
भी नहीं है।
जो
मैं तुमसे
कहता हूं जो
मैं तुम्हें
होने को कहता
हूं, वह
हो कर ही कह
रहा हूं।
हालांकि मैं
तुम्हारी
तकलीफ भी
जानता हूं।
तुम्हें
हंसने में
कठिनाई होती
है। तुम हंसते
हो कंजूसी से।
रोने में तुम
बड़े मुक्त—हस्त
होते हो।
हंसते हो तुम
बामुश्किल
क्षण भर को; फिर हंसी खो
जाती है, सूख
जाती है। रोने
लगो तो तुम
घड़ियों रोते
हो। रोने लगो
तो दूसरे
समझाएं तो भी
तुम नहीं
समझते। दूसरे
पुचकारें—
थपकाएं, तो
भी तुम नहीं
मानते, और
रोते चले जाते
हो। हंसते हो
तो बस जरा—जैसे
जबर्दस्ती; जैसे
मुश्किल से, जैसे हंसना
पड़ा सो हंस
लिए—फिर खो
जाती है हंसी।
जानता हूं
कारण भी, जीवन
में तुम्हारे
सिवाए दुख के
और कुछ भी नहीं
है।
इतना
रोया हूं गम—ए—दोस्त
जरा—सा हंस कर
मुस्कुराते
हुए लमहात से
जी डरता है।
तुम
इतने रोए हो, इतने
दुखी हुए हो
कि तुम घबड़ाते
हो। हंसना तुम्हें
मौजू नहीं
मालूम पड़ता; तुम्हारे
साथ ठीक—ठीक
नहीं बैठता—विजातीय
मालूम पड़ता है,
अजनबी
मालूम पड़ता
है। रोने से
तुम्हारा साथ—संग
है, परिचय
है पुराना, हंसने से
तुम्हारा कोई
संबंध नहीं।
और अगर कभी
तुम हंसते भी
हो, तो
तुम्हारी
हंसी में भी
कुछ रुदन की
छाप होती है, कुछ रोना
होता है।
तुम्हारी
हंसी भी मुक्त
नहीं होती है,
तुम्हारी
हंसी भी शुद्ध
नहीं होती, कुंआरी नहीं
होती; उस
पर दाग होते
हैं आंसुओ के।
तुम गौर करना,
तुम्हारी
हंसी ठीक हृदय
से नहीं उठती,
शून्य से
नहीं आती।
तुम
मेरे भीतर
झांकोगे, तो
एक बात
निश्चित है कि
मैं तुम्हारे
जैसा नहीं
हंसता।
तुम्हारे
जैसा हंसने के
लिए मुझे
तुम्हारे
जैसा होना
पड़े। मेरी हंसी
किसी और तल पर
है। तुम उस तल
पर आओगे तो
पहचानोगे।
अष्टावक्र
कहते हैं. उस
अवस्था को
जानने के लिए
वैसी ही
अवस्था
चाहिए। ईसाई
कहते हैं जीसस
कभी हंसे
नहीं। यह बात
झूठी है। मगर
ईसाई भी ठीक
ही कहते हैं, क्योंकि
जिस तल पर वे
हंसी को समझ
सकते हैं, उस
तल पर ईसा कभी
नहीं हंसे।
जिस तल पर मैं
हंसी को समझता
हूं, मैं
जानता हूं ईसा
खिलखिलाते
रहे, सूली
पर भी हंस रहे
थे।
तुमने
बुद्ध की
हंसती हुई
मूर्ति देखी? असंभव।
तुमने महावीर
की खिलखिलाहट
सुनी?
असंभव। अगर
महावीर की
हंसती हुई
मूर्ति बना दो,
जैनी तुम पर
मुकदमा चला
देंगे, अदालत
में घसीटेंगे
कि इन्होंने
हमारे महावीर
का चेहरा
बिगाड़ दिया।
महावीर, और
हंसते हुए? यह हो ही
नहीं सकता! एक
बात ठीक भी है,
तुम्हारे
जैसे महावीर
कभी हंसे भी
नहीं। तुम्हारी
हंसी में तो
रोने की छाप
है! महावीर की
हंसी बड़ी मौन
है, शांत
है—महावीर
जैसी शांत है,
निर्विकार
है। शायद हंसी
में
खिलखिलाहट
नहीं है।
खिलखिलाहट हो
भी नहीं सकती।
शून्य से उठती
है, शून्य
का स्वाद लिए
है। लेकिन
हंसी निश्चित
है। पर तुम
तभी जान पाओगे,
जब तुम उन
दशाओं को
उपलब्ध
होओगे।
रचना
का दर्द छटपटाता
है
ईश्वर
बराबर अवतार
लेने को
अकुलाता है
दूसरों
से मुझे जो
कुछ कहना है
वह
बात प्रभु
पहले मुझसे
कहते हैं
करुण—काव्य
लिखते समय
कवि
पीछे रोता है,
भगवान
पहले रोते
हैं।
अगर
मुझे तुम्हें
रुलाना हो तो
मुझे तुमसे पहले
रोना होगा। और
मुझे अगर
तुम्हें
हंसाना हो तो
मेरे प्राणों
में हंसी
चाहिए, अन्यथा
मैं तुम्हें
हंसा भी न
सकूंगा।
लेकिन तुम्हारे
और मेरे ढंग
अलग होंगे, यह सच है।
कभी मैं ठीक
तुम्हारे
जैसा था। और कभी
तुम ठीक मेरे
जैसे भी हो
जाओगे, ऐसी
आशा है। इस
आशा के साथ
तुम्हें इस
शिविर से विदा
करता हूं।
हरि
ओंम तत्सत्।
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