दिनांक
21 नवंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सारसूत्र:
अष्टावक्र
उवाच:
श्रद्यत्स्व
तात श्रघ्दत्स्व
नात्र मोह
कुस्थ्य भो:।
ज्ञानस्वरूपो
भगवानात्मा
त्वं प्रकृते
पर:।। 133।।
गणै:
संवेष्टितो
देहस्तिष्ठत्यायाति
याति च।
आत्मा
न गंता नागता
किमेनमनुशोचति।।
134।।
देहस्तिष्ठतु
कल्पांत:
गच्छत्वद्यैव
वा पुन:।
क्व
वृद्धि: क्व
च वा हानिस्तव
चिन्मात्ररूपिण।।
135।।
त्वथ्यनन्तमहाम्मोधौ
विश्ववीचि:
स्वभावत:।
उदेतु
वास्तमायातु
न ते
वृद्धिर्न वा
क्षति:।। 136।।
तात
चिन्यात्ररूपोऽमि
न ते भिन्नमिदं
जगत।
अथ:
कस्थ कथं क्व
हेयोपादेय
कल्पना।। 138।।
एकस्मिन्नव्यये
शांते
बिदाकाशेऽमले
त्वयि।
अलबर्ट
आइंस्टीन के
पूर्व
अस्तित्व को
दो भागों में
बांट कर देखने
की परंपरा थी.
काल और आकाश; टाइम
और काल और
आकाश भिन्न—भिन्न
नहीं, स्पेस।
अलबर्ट
आइंस्टीन ने
एक
महाक्रांति की।
उसने कहा, एक
ही सत्य के दो
पहलू हैं।
एक
नया शब्द गढ़ा
दोनों से 'मिला
कर. 'स्पेसियोटाइम' कालाकाश।
इस
संबंध में
थोड़ी बात समझ
लेनी जरूरी है
तो ये सूत्र
समझने आसान हो
जायेंगे।
बहुत कठिन है
यह बात खयाल
में ले लेनी
कि समय और
आकाश एक ही
हैं।
आइंस्टीन ने
कहा कि समय
आकाश का ही एक आयाम, एक
दिशा है, एक
डायमेंशन है।
समय की तरफ से
जो जगत
देखेंगे उनकी
दृष्टि अलग
होगी और जो
आकाश की तरफ
से जगत को
देखेंगे उनकी
दृष्टि अलग
होगी। समय की
तरफ से जो जगत
को देखेगा
उसके लिए कर्म
महत्वपूर्ण
मालूम होगा, क्योंकि समय
है गति, किया
है
महत्वपूर्ण।
जो आकाश की
तरफ से जगत को
देखेगा, उसके
लिए कर्म
इत्यादि
व्यर्थ हैं।
आकाश है शून्य
: वहां कोई गति
नहीं। जो समय
की तरफ से जगत को
देखेगा उसके
लिए जगत द्वैत,
वस्तुत:
अनेक मालूम
होगा।
मैं
हूं कल नहीं
था,
कल फिर नहीं
हो जाऊंगा।
मेरे मरने से
तुम न मरोगे; न मेरे जन्म
से तुम्हारा
जन्म हुआ।
निश्चित ही
मैं अलग, तुम
अलग। वृक्ष
अलग, पहाड़—पर्वत
अलग, सब
अलग— अलग। समय
में प्रत्येक
चीज परिभाषित
है, भिन्न—भिन्न
है। आकाश में
सभी चीजें एक
हैं। आकाश एक
है। समय की
धारा चीजों को
खंडों में बांट
देती है। समय
विभाजन का
स्रोत है।
इसलिए जिसने
समय की तरफ से
अस्तित्व को
देखा, वह
देखेगा अनेक;
जिसने आकाश
की तरफ से
देखा, वह
देखेगा एक।
जिसने समय की
तरफ से देखा
वह सोचेगा
भाषा में—साधना
की, सिद्धि
की। चलना है, पहुंचना है,
गंतव्य है
कहीं'; श्रम
करना है, संकल्प
करना है, चेष्टा
करनी है, प्रयास
करना है—तब
कहीं पहुंच
पायेंगे। जो
आकाश की तरफ
से देखेगा, उसके लिए
कहीं कोई
गंतव्य नहीं।
सिद्धि
मनुष्य का
स्वभाव है।
आकाश तो यहां
है,
कहीं और
नहीं। जाने को
कहां है! तुम जहां
हो वहीं आकाश
है। आकाश तो
बाहर— भीतर
सबमें
व्याप्त है!
आकाश तो सदा
से है, एक
क्षण को भी खोया
नहीं। समय में
चलना हो सकता
है, आकाश
में कैसा
चलना! कहीं भी
रही, उसी
आकाश में हो।
तो आकाश में
यात्रा का कोई
उपाय नहीं; समय में
यात्रा हो
सकती है। इस
बात को खयाल
में लेना।
महावीर
की परंपरा
कहलाती है
श्रमण।’श्रमण'
का अर्थ
होता है.
श्रम। श्रम
करोगे तो पा
सकोगे। बिना
श्रम के
परमात्मा
नहीं पाया जा
सकता, न
सत्य पाया जा
सकता है।
हिंदू परंपरा
कहलाती है
ब्राह्मण।
उसका अर्थ है
कि ब्रह्म तुम
हो, पाने
की कोई बात
नहीं। जागना
है, जानना
है। हो तो तुम
हो ही, स्वभाव
से हो। ब्रह्म
तो तुम्हारे
भीतर बैठा ही
हुआ है। यह
आकाश की तरफ
से देखना है।
तुम चकित
होओगे, महावीर
ने तो आत्मा
को भी जो नाम
दिया है वह है समय।
इसलिए महावीर
की समाधि का
नाम है सामायिक।
मैं
तो एक जैन घर
में पैदा हुआ।
उस संप्रदाय
का नाम है 'समैया'। वह समय से
बना शब्द है।
महावीर तो
कहते हैं. समय
में लीन हो
जाओ तो ध्यान
लग गया, सामायिक
हो गई, समय
में ठहर जाओ
तो पहुंच गये।
हिंदू परंपरा
समय को मूल्य
नहीं देती, इसलिए श्रम
को भी मूल्य
नहीं देती।
आकाश का मूल्य
है।
ये
सारे
अष्टावक्र के
सूत्र आकाश के
सूत्र हैं। और
जैसा अलबर्ट
आइंस्टीन
कहता है, आकाश
और समय एक ही
अस्तित्व के
दो पहलू हैं, दोनों तरफ
से पहुंचना हो
सकता है। जो
समय को मान कर
चलेगा, उसके
लिए समर्पण
संभव नहीं—संघर्ष,
संकल्प। जो
आकाश को मान
कर चलेगा, वह
अभी झुक जाये,
यहीं झुक
जाये—समर्पण
संभव है।
श्रद्धा! श्रम
की कोई बात
नहीं। बोध
मात्र काफी
है। कुछ करना
नहीं है। जो समय
को मान कर
चलेगा, उसे
शुभ और अशुभ
में संघर्ष
है। अशुभ को
हटाना है, शुभ
को लाना है।
बुरे को
मिटाना है, भले को लाना
है। इसलिए जैन
विचार बहुत
नैतिक हो गया—होना
ही पड़ेगा।
अंधेरे को
काटना है, प्रकाश
को लाना है तो
योद्धा बनना
होगा। इसलिए
तो वर्द्धमान
का नाम महावीर
हो गया। वे
योद्धा थे।
उन्होंने
जीता, विजय
की।’जैन' शब्द का
अर्थ होता है :
जिसने जीता।
अगर भक्त से
पूछो तो वह
कहेगा, यह
बात ही गलत; जीतने से
कहीं
परमात्मा
मिलता है, हारने
से मिलता है!
हारो! उसके
सामने
समर्पित हो
जाओ! छोड़ो
संघर्ष! हारते
ही मिल जाता
है।
ये
दो अलग
भाषायें हैं।
दोनों सही हैं, याद
रखना। दोनों
तरफ से लोग
पहुंच गये
हैं। तुम्हें
जो रुच जाये, बस वही
तुम्हारे लिए
सही है।
हालांकि यह मन
में वृत्ति
होती है कि जो
एक धारणा को
मानता है, दूसरे
को गलत कहने
की वृत्ति
स्वाभाविक
है। जो मानता
है संकल्प से
मिलेगा, वह
कैसे मान सकता
है कि समर्पण
से मिल सकता
है! अगर वह मान
ले कि समर्पण
से मिल सकता
है तो फिर संकल्प
की जरूरत क्या
रही? और जो
मानता है
समर्पण से ही
मिलता है, वह
अगर मान ले कि
संकल्प से भी
मिल सकता है
तो फिर समर्पण
का क्या मूल्य
रह गया? इसलिए
दोनों एक
दूसरे का खंडन
करते रहेंगे,
एक—दूसरे का
विरोध करते
रहेंगे।
तुम
चकित होओगे यह
बात जान कर.
हिंदू और
मुसलमान में
उतना विरोध
नहीं है, उनकी
पद्धति तो एक
ही है; जैन
और हिंदू में
बहुत विरोध है,
उनकी
पद्धति मौलिक
रूप से भिन्न
है। मुसलमान भी,
ईसाई भी, हिंदू भी—वे
सब, अगर
गौर से समझो, तो आकाश की
धारणा को मान
कर चलते हैं।
थोड़े—बहुत
भाषा के भेद
होंगे, लेकिन
मौलिक अंतर
नहीं है।
लेकिन बुद्ध—महावीर
आकाश की भाषा
को
मान कर नहीं
चलते, समय की
भाषा को मान
कर चलते हैं।
सारे
जगत के धर्मों
को श्रमण और
ब्राह्मण में बांटा
जा सकता है।
और इस बात को
मैं फिर से
दोहरा दूं कि
दोनों तरफ से
लोग पहुंच गये
हैं। इसलिए
तुम इस चिंता
में मत पड़ना
कि दूसरा गलत
है;
तुम तो इतना
ही देख लेना, —तुम्हारा
किससे संबंध
बैठ जाता है।
तुम्हारे
भीतर का 'स्व'
किसके साथ
छंदोबद्ध हो
जाता है, बस
इतना काफी है;
इससे
ज्यादा
विचारणीय
नहीं है।
हिंदू
परंपरा की
आत्यंतिक
पराकाष्ठा
पहुंची
अद्धैत पर; लेकिन
महावीर
अद्धैत पर
नहीं जा सकते,
क्योंकि
अद्धैत का तो
मतलब हो
जायेगा, फिर
पाने को कुछ नहीं
बचता। दूसरा
तो चाहिए ही।
संघर्ष करने
को भी कुछ
नहीं बचता, अगर दूसरा न
हो। हराने को
भी कुछ नहीं
बचता, अगर
दूसरा न हो।
योद्धा के लिए
अकेले होने
में क्या
प्रयोजन रह
जायेगा! लिए
तलवार कमरे
में नाच रहे, कूद रहे—युद्ध
नहीं रह
जायेगा, नाच
हो जायेगा।
योद्धा को तो
दूसरा
चाहिएं।
जिसकी चुनौती
में जूझ सके। तो
महावीर कहते
हैं. संसार
अलग, परमात्मा
अलग; और
दोनों में
संघर्ष है; चेतना और
पदार्थ में
संघर्ष है।
इसलिए महावीर
अद्वैतवादी
नहीं हैं, द्वैतवादी
हैं। जीवन और
चेतना एक लोक,
पदार्थ, जड़
अलग दूसरा
लोक। और दोनों
में कभी कोई
मिलना नहीं
होता। दोनों
भिन्न हैं।
महावीर
की ये
धारणायें
तुम्हें
अष्टावक्र को
समझने में
सहयोगी हो
सकती हैं।
उनकी पृष्ठभूमि
में
अष्टावक्र
साफ हो
सकेंगे।
अष्टावक्र
की धारणा है
अद्धैत की, एक
ही है, आकाश
जैसा! उसी का
सब खेल है।
वही एक अनेक—
अनेक रूपों
में प्रगट हो
रहा है। वही
तुम्हारे
भीतर सदा से मौजूद
है; तुम
झपकी ले रहे
हो, सो रहे
हो—एक बात। आख
खोलते ही तुम
उसे पा लोगे।
उसके पाने में
और तुम्हारी
स्थिति में
इंच भर का
फासला नहीं है,
जिसे
यात्रा करनी
हो। ऐसा ही
समझो कि सूरज
निकला है तुम
आख बंद किए
बैठे हो। रोशनी
चारों तरफ झर
रही है, लेकिन
तुम अंधेरे
में हो। तुमने
पलक खोली, रोशनी
से भर गये।
कहीं जाना न
था। रोशनी पलक
पर ही विराजी
थी; तुम्हारी
पलक पर ही
दस्तक दे रही
थी। पलक खुली
कि सब खुल
गया। प्रकाश
ही प्रकाश हो
गया। सहज है
सत्य की
उपलब्धि। और
समाधि श्रम—साध्य
नहीं है, समाधि
समर्पण—साध्य
है, श्रद्धा
से है।
महावीर
और बुद्ध में
तुम्हें बहुत
तर्क मिलेगा, बारीक
तर्क मिलेगा।
महावीर में
ऐसी कोई धारणा
नहीं है जो
तर्क से सिद्ध
न होती हो।
महावीर कोई
ऐसी बात नहीं
कहते जिसे
तार्किक रूप
से प्रमाणित न
किया जा सके।
इसलिए महावीर
परमात्मा की
बात ही नहीं
करते, न
बुद्ध करते
हैं। बुद्ध तो
और एक कदम आगे
गये—वे आत्मा
की बात भी
नहीं करते, क्योंकि उसे
भी तर्क से
सिद्ध करने का
कोई उपाय
नहीं।
पश्चिम
के एक बहुत
बड़े विचारक
लुडविग
विडगिस्टीन
ने इस सदी की
एक बहुत
महत्वपूर्ण
किताब लिखी
है। उस किताब
का एक सूत्र
है : 'जो कहा न जा
सके उसे भूल
कर कहना नहीं
है। जो वाणी
में न आ सके, उसे लाने की
कोशिश भी मत
करना। अन्यथा
अन्याय होता
है, अत्याचार
होता है।’
विडगिस्टीन
ठीक महावीर और
बुद्ध की
परंपरा में
पड़ता है—वही
तर्क—दृष्टि।
महावीर ऐसी
कोई बात नहीं
कहते जिसको
तर्क से सिद्ध
न किया जा
सके।
इसलिए
महावीर में
काव्य बिलकुल
नहीं है, क्योंकि
कविता को कैसे
सिद्ध करोगे!
कविता सिद्ध
थोड़े ही होती
है। कोई उसकी
मस्ती में आ
जाये, आ
जाये; न
आये तो सिद्ध
करने का कोई
उपाय नहीं है।
और सिद्ध करने
कविता को चलो
तो मर जाती है
कविता। अगर
कोई तुमसे पूछ
ले इस कविता
का अर्थ क्या,
तो भूल कर
अर्थ मत
बताना।
क्योंकि अर्थ
अगर बताने में
लगे और
विश्लेषण
किया उसी में
तो कविता मर
जाती है। पकड़
में आ जाये, झलक में आ
जाये, तो
ठीक; न आये
तो बात गई।
फिर उसे पकड़
में लाने का
उपाय नहीं।
महावीर
साफ—सुथरे हैं, तर्कयुक्त
हैं; बुद्ध
भी। श्रद्धा
की कोई बात
नहीं है।
मानने का कोई
सवाल नहीं है।
जो भी है, वह
जाना जा सकता
है। इसलिए
बुद्धि की, मेधा की
पूरी चेष्टा
आवश्यक है।
ब्राह्मण—विचार
में बुद्धि की
चेष्टा ही
बाधा है। तुम
जब तक बुद्धि
से चेष्टा
करते रहोगे तब
तक तुम्हारी
चेष्टा ही
तुम्हारा
कारागृह बनी
रहेगी।
क्योंकि कुछ
है जो बुद्धि
से जाना जा
सकता है, कुछ
है जो बुद्धि
से जाना नहीं
जा सकता, क्योंकि
कुछ बुद्धि के
आगे है और कुछ
बुद्धि के
पीछे है। एक
बात तो तय है
कि तुम बुद्धि
के पीछे हो।
तुम बुद्धि के
आगे नहीं हो।
तुम्हारे ही
पीछे खड़े होने
के कारण तो बुद्धि
चलती है। तो
तुम्हें तो
बुद्धि नहीं
समझ सकती; पीछे
लौटकर
तुम्हें कैसे
समझेगी? तुम्हारे
सहारे ही
समझती है, तो
तुम्हारे
बिना तो चल ही
नहीं सकती।
जैसे
कि मैं हाथ
में एक चमीटा
ले लूं तो
चमीटे से मैं
कोई भी चीज पकड़
सकता हूं; लेकिन
उसी चमीटे से,
जिस हाथ ने
चमीटे को पकड़ा
है, उसे
थोड़े ही पकड़
सकूंगा। उसको
पकड़ने की
कोशिश में तो
चमीटा भी गिर
जायेगा, और
मेरे हाथ में
न रहा तो
चमीटा तो कुछ
भी नहीं पकड़
सकता।
बुद्धि
भी तुम्हारी
है,
तुम्हारे
चैतन्य का
हिस्सा है—चैतन्य
के हाथ में
चमीटा है।
उससे तुम सब
पकड़ लो, चैतन्य
छूट जायेगा।
चैतन्य को
पकड़ना हो तो
चमीटा छोड़
देना पड़े।
चमीटे का अगर
ज्यादा मोह रखा
तो मुश्किल
में पड़ोगे।
फिर तुम सब
समझ लोगे, अपने
को नहीं समझ
पाओगे।
इसलिए
विज्ञान सब
समझे ले रहा
है,
सिर्फ
स्वयं, मनुष्य
की स्वयंता को
भूले जा रहा
है। मनुष्य की
अंतस चेतना भर
पकड़ में नहीं
आ रही; और
सब पकड़ में
आया जा रहा
है।
विज्ञान
महावीर और
बुद्ध से बहुत
राजी है। इस बात
की बहुत
संभावना है कि
अगर
वैज्ञानिक
महावीर को पढ़ेगे
तो बड़े चकित
होंगे, क्योंकि
जो वे आज कह
रहे हैं वह
महावीर ने ढाई
हजार साल पहले
कहा है।
महावीर की पकड़
तर्क की बड़ी
साफ और पैनी
है, लेकिन
जो भूल
वैज्ञानिक कर
रहा है वह भूल
महावीर ने
नहीं की। इतना
तो कहा कि जो
जाना जा सकता है,
तर्क से
जाना जा सकता
है और जो
अतर्क्य है
उसकी कोई बात
नहीं की।
लेकिन अपने
साधकों को
धीरे— धीरे
अतर्क्य की
तरफ चुपचाप ले
गये, उसकी
कोई चर्चा
नहीं चलाई, उसका कोई
सिद्धात नहीं
बनाया। लेकिन
वह जाना भी
तर्क की गहन
संघर्षणा के
द्वारा। जब
तर्क उस जगह
पहुंच जाये—किनारे
पर, जहॉ
आगे पंख न उड़ा
सके, जब
आगे कोई गति न
रह जाये और
तर्क अपने—आप
से गिर जाये, पंख कट
जायें तर्क के—तब
जिसका तुम
साक्षात
करोगे.।
ब्राह्मण
कहते हैं. तो
यह तर्क की
इतनी दूर की यात्रा
भी व्यर्थ है।
अगर तर्क यहीं
गिर जाये पहले
कदम पर तो
मंजिल यहीं आ
जाती है।
ब्राह्मण—शास्त्र
कहता है कि जब
तर्क गिरता है
तभी मंजिल आ
जाती है। तुम
कहते हो, आखिर
में गिरायेगे,
तुम्हारी
मर्जी। अभी
गिरा दो तो
अभी मंजिल आ जाती
है। यह
तुम्हारी
मौज। अगर तुम
कुछ दिन तक इसको
ढोना चाहते हो
तो ढोते रहो।
ऐसा नहीं है कि
किसी खास जगह
गिराने से
मंजिल आती है,
जहां तुम
गिरा देते हो
वहीं मंजिल आ
जाती है। गिराने
से मंजिल आती
है। उस तर्क
के गिराने का
नाम श्रद्धा
है।
आज
के सूत्र बड़े
अनूठे हैं।
बहुत खयाल से
समझने की बात
है।
पहला
सूत्र. 'हे
सौम्य, हे
प्रिय!
श्रद्धा कर, श्रद्धा कर!
इसमें मोह मत
कर। तू
ज्ञानरूप है,
भगवान है, परमात्मा है,
प्रकृति से
परे है।’
'हे सौम्य!'
'सौम्य' का
अर्थ होता है
समत्व को
उपलब्ध, सौंदर्य
को उपलब्ध, समता को
उपलब्ध, प्रसाद
को उपलब्ध, समाधि के
बहुत करीब है
जो।’सौम्य'
शब्द बड़ा
प्यारा है!
संतुलन को
उपलब्ध! जो
भीतर ठहरा—ठहरा
हो रहा है, ठहरा
जा रहा है, आखिरी
तरंग भी खोई
जा रही है, जल्दी
ही कोई तरंग न
रह जायेगी झील
पर। समाधि बस
करीब है। जैसे
क्षण भर की
देर है पलक
खुलने को। बस
इतना ही फासला
है।
अब
तक अष्टावक्र
ने जनक के लिए
इस शब्द का
उपयोग न किया
था,
अब वे उपयोग
करते है। वे
कहते हैं : 'हे
सौम्य! हे
समाधि के निकट
पहुंच गये
जनक! हे समता
में ठहरने
वाले जनक!' और
जब कोई समता
को उपलब्ध
होता है तो
सुंदर हो जाता
है। सौंदर्य
समता की ही
छाया है। अगर
कभी शरीर भी
किसी का सुंदर
मालूम होता है
तो इसीलिए
मालूम होता है
कि शरीर में
एक अनुपात है,
एक समत्व है;
शरीर में एक
सिमिट्री है।
कोई अंग बहुत
बड़ा, कोई
अंग बहुत छोटा—ऐसा
नहीं; सब
समतुल है, जैसा
होना चाहिए
वैसा है।
सौंदर्य
का यही अर्थ
है कि सब
चीजें ठीक—ठीक
अनुपात में
हैं और एक—दूसरे
के साथ
समस्वरता है।
ऐसा मत सोचना
तुम कि किसी
सुंदर नाक को
ले लो, किसी
सुंदर आख को
ले लो, किसी
सुंदर बालों
को ले लो, सुंदर
हाथों को ले
लो और सबके
जोड़ से तुम
सुंदर स्त्री
या सुंदर आदमी
बना सकोगे!
ऐसा मत सोचना।
शायद उससे
ज्यादा कुरूप
कोई और चीज ही
न होगी। क्योंकि
सौंदर्य न तो
नाक में है, न आख में है, न बाल में है;
सौंदर्य तो
समत्व में है।
सौंदर्य तो
समग्र की एक
अनुपात
व्यवस्था में,
छंद्धोबद्धता
में है। तुम
बहुत—सी सुंदर
चीजों को
इकट्ठा करके
सौंदर्य को
जन्मा न सकोगे।
सौंदर्य को
स्मरण रखो—स्व
छंद है, लयबद्धता
है, मात्रा—मात्रा
तुली है।
तो
शरीर का
सौंदर्य होता
है;
और फिर मन
का भी सौंदर्य
होता है, और
फिर आत्मा का
सौंदर्य भी
होता है। मन
का सौंदर्य तब
होता है जब
किसी व्यक्ति
में गुणों में
एक समस्वरता
होती है, विरोधाभास
नहीं होता। एक
चीज दूसरी चीज
की विपरीत
नहीं होती। सब
चीजें एक ही
धारा में बहती
हैं। एक गहरी
संगति और
संगीत होता
है।
मन
का सौंदर्य
होता है जब मन
एक ही दिशा
में गतिमान
होता है। ऐसा
नहीं कि आधा
हिस्सा पूरब
जा रहा है, आधा
पश्चिम जा रहा,
आधा यहीं
पड़ा; कुछ
कहीं जा रहा, कुछ कहीं जा
रहा; कई
घोड़ों पर सवार,
ऐसा नहीं; अनेक नावों
पर सवार, ऐसा
नहीं—स्व ही
यात्रा है, एक ही
गंतव्य है, और सारा
चित्त एकजुट
.है। जब भी कभी
तुम ऐसा व्यक्ति
पाओगे जिसका
चित्त एक धारा
में बह रहा है,
छिन्न—भिन्न
नहीं है, तब
तुम पाओगे एक
मन का
सौंदर्य। एक
प्रसाद उस व्यक्ति
के पास
मिलेगा।
फिर
आत्मा का
सौंदर्य है।
आत्मा का
सौंदर्य तब है
जब आत्मा
जागती है और
समाधि के करीब
आने लगती है।
जनक
को अष्टावक्र
कहते हैं 'हे
सौम्य!' यह
वैसी दशा है
जैसी कभी—कभी
सुबह तुम्हें
होती है; अभी
जाग भी नहीं
गये हो और
सोये भी नहीं
हो। थोड़े—
थोड़े जाग भी
गये हो, थोड़े—
थोड़े सोये भी
हो—अलसाये हो।
आवाजें भी
सुनाई पड़ने
लगीं बाहर की।
दूध वाला
दस्तक दे रहा
है द्वार पर
वह भी पता चल
रहा है। बच्चे
स्कूल जाने की
तैयारी करने
लगे, दौड़—
धूप कर रहे हैं,
वह भी स्मरण
में आ रहा है।
पत्नी चाय
बनाने लगी, केतली की
आवाज भी धीमी—
धीमी कान में
पड़ने लगी, गंध
भी नाकों में
आने लगी। शायद
खिड़की से सूरज
की किरण भी आ
रही है, वह
भी चेहरे पर
पड़ रही है और
ताप मालूम
होने लगा है।
फिर भी अभी
अलसाये हो।
अभी पूरे जाग
नहीं गये।
नींद सरकती—सरकती
विदा हो रही
है। ऐसी
अवस्था जब
आदमी के आत्यंतिक
जगत में, आतरिक
जगत में घटती
है, तब
आदमी सौम्य
होता है। अभी
आत्मा पूरी
जाग नहीं गई
है, बस
जागने के करीब
है। लगने तो
लगा है कुछ—कुछ,
स्वाद थोड़ा—
थोड़ा आने लगा
है, खबर
मिलने लगी है
अपने स्वभाव
की; लेकिन
अभी पूरा
पर्दा नहीं
उठा। एक झलक
मिली, एक
खिड़की खुली है;
छलांग नहीं
लगी।
’है सौम्य! हे
प्रिय......।’
और
गुरु के लिए
शिष्य तभी
प्यारा होता
है जब वह
सौम्य हो जाता
है,
जब वह समाधि
के करीब आने
लगता है।
यही
तो गुरु की
सारी चेष्टा
है कि सोये को 'जगा
दे; कि
खोये को उसका
स्मरण दिला दे;
कि भटके को
राह पर ला दे।
और जब देखता
है कि कोई आने
लगा मंजिल के
करीब. और जनक
ने जैसी
अभिव्यक्ति
दी है, जैसे
उत्तर दिए हैं
अष्टावक्र को.
किताब में तो
सिर्फ उत्तर
हैं। उत्तर से
भी बहुत खबर
मिलती है, लेकिन
अष्टावक्र के
सामने तो जनक
स्वयं मौजूद
थे—आख से, मुख—मुद्रा
से, हावभाव
से, उठने—बैठने
से, हर चीज
से खबर मिल
रही होगी समता
आ रही; समाधि
करीब आ रही।
जैसे.
तुम किसी
बगीचे के करीब
जाते हो, अभी
दूर से दिखाई
नहीं पड़ता
बगीचा, फिर
भी हवायें
ठंडी हो जाती
हैं। हवाओं
में थोड़ी
फूलों की गंध
आ जाती है।
इत्र तैरने
लगता है।
तुम्हें अभी
बगीचा दिखाई
भी नहीं पड़ता,
लेकिन तुम
कह सकते हो कि
ठीक दिशा में
हो। ठंडक बढ़ती
जाती है, शीतलता
बढ़ती जाती है,
गंध प्रखर
और तीव्र होती
जाती है। तुम
जानते हो कि
बगीचा ठीक
करीब है और
तुम ठीक दिशा
में हो। ऐसी
ही दशा होगी।
मस्ती छाई
जाती होगी, आंखों में
खुमार आने लगा
होगा। यह
परमात्मा की
शराब बूंद—बूंद
गिरने लगी जनक
के हृदय में।
यह घड़ी आ गई जब
गुरु शिष्य को
प्रिय कहे। यह
करीब आ गई घड़ी
जब गुरु शिष्य
को अपने पास
बिठाने के
योग्य मानेगा।
यह घड़ी आने
लगी करीब, जब
गुरु और शिष्य
में फर्क न रह
जायेगा।’प्रिय'
उसका सूचक
है।’प्रिय'
का मतलब
होता है. अब
मैं तुम्हें
अपने हृदय के करीब
लेता हूं; अब
मैं तुम्हें
अपने समान
स्वीकार करता
हूं; अब
तुम मेरे ही
तुल्य हो गये,
होने लगे; अब मुझमें
और तुझमें कोई
भेद नहीं।
जल्दी ही कौन
गुरु, कौन
शिष्य—पता
लगाना संभव न
रह जायेगा।
प्रेम
जिससे भी
तुम्हें होता
है,
तुम उसे
अपने समान
स्वीकार कर
लेते हो। यही
फर्क है।
प्रेम की अनेक
कोटियां हैं।
बाप का अपने
बेटे पर प्रेम
होता है, उसे
हम कहते हैं
वात्सल्य; प्रेम
नहीं कहते।
वात्सल्य का
अर्थ है. बाप
बहुत ऊपर, बेटा
बहुत नीचे; वहां से
उंडेल रहा।
बेटा पात्र की
तरह है—बहुत
नीचे रखा; बाप
के प्रेम की
धारा पड़ रही
है। गुरु के
प्रति प्रेम
होता है—उसे
हम श्रद्धा
कहते हैं, आदर
कहते हैं, सम्मान
कहते हैं, उसे
भी हम प्रेम
नहीं कहते
हैं। क्योंकि
गुरु ऊपर बैठा
है। और हमारा
प्रेम और
श्रद्धा जैसे
किसी ने धूप
बाली हो और
धूप का धुंआ
चढ़ने लगे ऊपर
की तरफ, ऐसा
ऊपर की यात्रा
पर जा रहा है।
लेकिन जब तुम किसी
के प्रेम में
पड़ जाते हो तो
प्रेम कहते हो।
प्रेम का अर्थ
होता है : तुम
जिसके प्रेम
में हो वह ठीक
तुम्हारे ही
साथ खड़ा है।
इसीलिए
तो ऐसा अक्सर
होता है। मेरे
पास कोई पति
आकर संन्यासी
हो जाता है तो
वह कहता है :
मैं चाहता हूं
मेरी पत्नी भी
आ जाये; लेकिन
मैं लाख उपाय
करूं कि वह
सुनती नहीं
है। मैं उससे
कहता हूं : तू
भूल कर मत
करना उपाय, ऐसा कभी हुआ
ही नहीं। तू न
ला सकेगा, क्योंकि
जिसके साथ
प्रेम किया
उसके साथ सम—
भाव स्वीकार
कर लिया। अब
वह तुझे गुरु
नहीं मान
सकती।
ऐसे
ही पत्नी भी आ
जाती है कभी
मेरे पास और
संन्यस्त हो
जाती है, दीक्षित
हो जाती है—चाहती
है पति को भी
ले आये। वह
चाह भी
स्वाभाविक है—जो
हमें मिला, वह उनको भी
मिल जाये
जिन्हें हम
प्रेम करते
हैं। लेकिन यह
हो नहीं हो
पाता। पति और
अकड़ने लगता
है। पत्नी को
गुरु माने, यह जरा कठिन
है।
इसलिए
पति और पत्नी
एक—दूसरे को
कभी भी राजी
नहीं कर पाते, बहुत
मुश्किल
मामला है।
जितना राजी
करने की कोशिश
करेंगे उतनी
दूरी बढ़ती
जाती है; उतनी
नाराजगी बढ़ती
जाती है, राजी
कोई नहीं
होता। तो मैं
उनसे कहता हूं;
इस झंझट में
पड़ना ही मत।
जिसको एक बार
स्वीकार कर
लिया अपने
समान, जिसको
प्रेम दिया, अब उसके तुम
गुरु बनना
चाहो. और यह
गुरु बनना है।
तुम मार्ग
दिखाते हो।
तुम कहते हो, चलो, कहीं
मुझे मिला
वहां तुम भी
चलो। वह यह
मान ही नहीं
सकती कि तुम
उससे आगे हो
सकते हो।
लेकिन
एक ऐसी घड़ी
आती है, जब
गुरु शिष्य से
कहता है, 'हे
प्रिय', जब
गुरु का प्यार
शिष्य पर
बरसता है।
वात्सल्य के
दिन गये, प्रेम
के दिन आ गये।
अब गुरु अनुभव
कर रहा है कि
शिष्य उसी
अवस्था में
आया जाता है
जिसके लिए
चेष्टा चलती
थी, गुरु
की ही अवस्था
को उपलब्ध हुआ
जाता है। गुरु
तभी तृप्त
होता है जब
शिष्य भी गुरु
हो जाता है।
'हे प्रिय!
श्रद्धा कर, श्रद्धा कर!'
श्रद्धा
का अर्थ समझ
लेना।
श्रद्धा का
अर्थ विश्वास
नहीं है, बिलीफ
नहीं है।
क्योंकि जिस
श्रद्धा का
अर्थ विश्वास
होता है वह तो
श्रद्धा ही
नहीं है।
विश्वास का
अर्थ होता है :
किसी धारणा
में, किसी
सिद्धात में,
किसी
शास्त्र में
भरोसा।
श्रद्धा का
अर्थ होता है
स्वभाव में, सत्य में, सिद्धात में
नहीं, जीवन
में, अस्तित्व
में। और यह
घड़ी है जब जनक
जागने के करीब
हो रहे हैं, अगर जरा भी
संदेह पैदा हो
जाये तो नींद
फिर लग
जायेगी। अगर
जरा भी डर पकड़
जाये कि यह
क्या हो रहा
है, मैं तो
सदा सोया रहा,
सब ठीक चल
रहा था, अब
यह जागना और
एक नया काम
शुरू हो रहा
है और पता
नहीं जागने से
सुख मिलेगा कि
नहीं मिलेगा;
जागना उचित
है या नहीं; यह जो घट रहा
है, यह इतना
बड़ा है, इसके
साथ जाऊं या
लौट पडूं; वह
अपना पुराना,
पहचाना, परिचित
लोक ठीक था, यह तो
अनजान
अपरिचित
रास्ता आ गया, कोई
नक्शा हाथ
नहीं....!
श्रद्धा
का अर्थ होता
है. जब अशांत
तुम्हारे
द्वार
खटखटाये तो
साथ चल पड़ना।
विश्वास तो
अज्ञात होता
ही नहीं, विश्वास
तो ज्ञात है।
तुम हिंदू हो —यह
विश्वास है।
तुम मुसलमान
हो—यह विश्वास
है। तुम
धार्मिक
बनोगे तो
श्रद्धा।
विश्वास
का अर्थ है.
कुरान में
विश्वास है, इसलिए
तुम मुसलमान
हो। महावीर
में विश्वास है
इसलिए जैन हो।
अभी जीवन में
विश्वास नहीं
आया, क्योंकि
जीवन का
विश्वास तो न
महावीर से
संबंधित है, न कुरान से, न बुद्ध से, न कृष्ण से।
जीवन तो यहां
घेरे हुए है
तुम्हें बाहर—
भीतर, सब
तरफ। और जीवन
के पास कोई
सिद्धात नहीं
है, कोई
शास्त्र नहीं
है। जीवन तो
स्वयं ही अपना
सिद्धात है।
ऐसा समझो कि
एक आदमी यहां
आकर चिल्ला दे
: ' आग! आग लग
गई? आग!' अनेक
लोग भाग खड़े
होंगे, चाहे
आग लगी हो
चाहे न लगी
हो। उन्होंने
शब्द पर भरोसा
कर लिया। अब 'आग' शब्द
जला नहीं
सकता। मैं लाख
चिल्लाऊं आग
आग आग, उससे
तुम जलोगे
नहीं, लेकिन
अंगारा
तुम्हारे हाथ
पर रख दूं तो
जलोगे। तो
शब्द ' आग' आग नहीं है।
और परमात्मा का
कोई सिद्धात
परमात्मा
नहीं है, कोई
शब्द
परमात्मा
नहीं है।
जीवन
के संबंध में
जितनी
धारणायें हैं, वे
सब मनुष्य की
भाषायें हैं—अज्ञात
को शांत बनाने
की चेष्टा है;
किसी तरह
अपरिभाषित को
परिभाषा देने
का उपाय है।
नाम लगा दिया
तो थोड़ी राहत
मिलती है कि
चलो हमने जान
लिया। अब
परमात्मा
इतनी बड़ी घटना
है, किसने
कब जाना! कौन
जान सकता है!
जानने का तो
मतलब होगा
परमात्मा को
आर—पार देख
लिया। आर—पार
देखने का तो
मतलब होगा
उसकी सीमा है।
जिसकी सीमा है,
वह
परमात्मा
नहीं। जो असीम
है, जिसका
पारावार नहीं
है न प्रारंभ
है न अंत है—तुम
उसको पूरा—पूरा
कैसे जानोगे?
कभी नहीं
जानोगे! उसका
रहस्य तो
रहस्य ही रहेगा।
विज्ञान
कहता है : हम दो
शब्द मानते
हैं—ज्ञात और
अज्ञात; नोन
और अननोन।
विज्ञान कहता
है : ज्ञान वह
है जो हमने
जान लिया और
अज्ञात वह है
जो हम जान लेंगे।
धर्म कहता है.
हम तीन शब्द
मानते हैं—ज्ञात,
अज्ञात और
अज्ञेय।
ज्ञात वह है
जो हमने जान
लिया। अज्ञात
वह है जो हम
जान लेंगे।
अज्ञेय, वह
जो हम कभी
नहीं जान
पायेंगे।
परमात्मा
अज्ञेय है। उस
अज्ञेय में
श्रद्धा.। सभी
जानने पर समाप्त
नहीं हो जाता, इस
भाव का नाम
श्रद्धा है।
जो जान लिया
वह तो क्षुद्र
हो गया। जो
अनजाना रह गया
है, वही
विराट है। इस
बात का नाम
श्रद्धा है।
अब तक श्रद्धा
की बात नहीं
उठाई थी
अष्टावक्र ने,
आज अचानक
श्रद्धा की
बात आ गई।
उगैर एक बार
नहीं, दो
बार दोहराते
हैं, कहते
हैं. 'श्रद्धा
कर, श्रद्धा
कर!'
जब
कोई छलांग
लगाने को हो
रहा है तो
अतीत पकड़ता है
पूरा, रोकता
है। अतीत का
बड़ा बल है!
जन्मों—जन्मों
तक तुम जिसके
साथ जीये हो, उस आदत का
बड़ा बल है। वह
आदत खींचती है
जंजीर की तरह।
वह कहती है. 'कहां जाते? किस अनजान
रास्ते पर
जाते? भटक
जाओगे। जाने
परिचित में
चलो। ऐसे
रास्ते से मत
उतरो। यह जो
राजमार्ग है,
इस पर ही
चलो। सभी इस
पर चलते रहे
हैं। हिंदू हो
तो हिंदू रहो।
मुसलमान हो तो
मुसलमान रहो।
कुरान पढ़ते
रहे तो कुरान
पढ़ते रहो, गीता
दोहराते रहे
तो गीता
दोहराते रही।
यह परिचित है।
यह तुम कहां
उतरे जाते हो?
जीवन! जीवन
बहुत
बड़ा है।
अस्तित्व!
अस्तित्व
विराट है। तुम
बहुत छोटे हो।
बूंद की तरह
खो जाओगे सागर
में,
पता भी न
चलेगा, लौट
भी न सकोगे
फिर। सम्हल
जाओ!' अतीत
पूरे जोर से
खींचता है।
इस
घड़ी को सामने
खड़ा देख कर
अष्टावक्र —कहने
लगे '
श्रद्धत्स्व!
श्रद्धा कर, श्रद्धा कर।’
श्रद्यत्स्व
तात श्रद्यत्स्व
नात्र मोह
कुरुत्स्व
भो:।
'हे प्रिय, हे सौम्य!
श्रद्धा की
घड़ी आ गई, श्रद्धा
कर। और मोह मत
कर।’
मोह
होता है अतीत
का और श्रद्धा
होती है भविष्य
की। मोह होता
है उससे जिसके
साथ हम रहे
हैं। श्रद्धा
होती है उसकी
जिसके साथ हम
कभी नहीं रहे।
मोह तो कायर
को भी होता है; श्रद्धा
केवल साहसी को
होती है। मोह
तो अज्ञानी को
भी होता है, श्रद्धा तो
सिर्फ ज्ञान
के खोजी को
होती है।
तुम
कहते हो, मैं
हिंदू हूं—यह
तुम्हारा मोह
है या
तुम्हारी
श्रद्धा? फर्क
करना। समझने
की कोशिश
करना। अगर तुम
हिंदू घर में
पैदा न हुए
होते, बचपन
से ही तुम्हें
मुसलमान घर
में रखा गया
होता तो, तौ
तुम मुसलमान
होते। और
मुसलमान होने
में तुम्हारा
इतना ही मोह
होता जितना
अभी हिंदू होने
में है। अगर
हिंदू—मुस्लिम
दंगा होता तो
तुम मुसलमान
की तरफ से लड़ते,
हिंदू की
तरफ से नहीं।
अभी तुम हिंदू
की तरफ से
लड़ोगे, लेकिन
क्या तुमको
पक्का है कि
तुम हिंदू घर
में पैदा हुए
थे? मुसलमान
घर में पैदा
हुए और हिंदू
घर में रख दिए
गये हो, कौन
जाने? यह
विश्वास है।
मोह
विश्वास है।
मोह के कोई
आधार नहीं
हैं। मोह का
तो सिर्फ
संस्कार है।
बार—बार
दोहराया गया
तो मोह बन
गया। तुम्हें
पक्का पता नहीं
है। इस मोह
में आदत तो है, लेकिन
इस मोह में
कोई बोध नहीं
है। श्रद्धा
बड़ी
बोधपूर्वक
होती है।
श्रद्धा का
अर्थ है. जो हो
चुका हो चुका,
जो जा चुका
जा चुका। मैं
तैयार हूं
उसके लिए जो
होना चाहिए।
संभव के लिए
मेरे द्वार
खुले हैं और
मैं संभावना
का सूत्र पकड़
कर बढूगा—जहां
ले जाये
परमात्मा, जो
दिखाये, जो
कराये, खोना
हो तो खो
जाऊंगा! वह
खोना भला
श्रद्धा के साथ।
मोह के साथ
बने रहने में
कुछ सार नहीं।’रह कर तो देख
लिया मोह के
साथ बहुत—क्या
मिला? कभी
हिसाब भी तो
लगाओ! कितने
विश्वासों से
भरे हों—क्या
मिला? बस
विश्वास ऐसे
हैं जैसे ' आग'
शब्द जलाता
नहीं।
विश्वास ऐसे
हैं जैसे ' अमृत'
शब्द। अब ' अमृत' शब्द
को लिखते रहो,
घोंट—घोंट
कर लिखते —रहो,
पी जाओ घोंट—घोंट
कर, तो भी
कुछ अमृत को
उपलब्ध नहीं
हो जाओगे।
श्रद्धा
उसकी तलाश है—जो
है। श्रद्धा
सत्य की खोज
है। श्रद्धा
का विश्वास से
दूर का भी
नाता नहीं है।
और विश्वासी
अपने को समझ
लेता है मैं
श्रद्धालु
हूं तो बड़ी
भ्रांति में
पड़ जाता है।
विश्वास तो
झूठा सिक्का है।
यह तो कमजोर
की आंकाक्षा
है। श्रद्धा
असली सिक्का
है;
हिम्मतवर
की खोज है।’हे सौम्य, हे प्रिय!
श्रद्धा कर, श्रद्धा कर!
इसमें मोह मत
कर। तू
ज्ञानरूप है,
भगवान है, परमात्मा है,
प्रकृति से
परे है।’
डर
मत,
सीमा में
उलझ मत। जो
बीत गया उस
सीमा को अपनी
सीमा मत मान।
समझें।
तुमने अब तक
जाना तो अपने
को मनुष्य है।
मनुष्य भी
पूरा कहां!
कोई हिंदू है, कोई
ईसाई है, कोई
जैन है —उसमें
भी खंड हैं।
फिर हिंदू भी
पूरा कहां!
उसमें भी कोई
ब्राह्मण है,
कोई शूद्र
है, कोई
क्षत्रिय है,
कोई वैश्य
है। फिर
ब्राह्मण भी
पूरा कहां!
कोई देशस्थ, कोई कोकणस्थ
फिर ऐसा कटता
जाता, कटता
जाता। फिर
उसमें भी
स्त्री—पुरुष।
फिर उसमें भी
गरीब—अमीर।
फिर उसमें भी
सुंदर—कुरूप।
फिर उसमें भी
जवान—बूढ़ा।
कितने खंड
होते चले जाते
हैं! आखिर में बचते
हो तुम—बड़े
क्षुद्र, बड़ी
सीमा में बंधे,
हजार—हजार
सीमाओं में
बंधे! यह
तुमने जाना
है। आज अचानक
मैं तुमसे
कहता हूं 'तुम
भगवान हो', श्रद्धा
नहीं होती।
तुम कहते हो : ' भगवान और
मैं! कहां की
बात कर रहे. आप!
मैं तो जैसा
अपने को जानता
हूं र महापापी
हूं। हजार पाप
करता हूं चोरी
करता हूं जुआ
खेलता हूं
शराब पीता हूं।’
फिर भी मैं
कहता हूं. तुम
भगवान हो! ये
तुमने जो सीमायें
अपनी मान रखी
हैं, ये
तुम्हारी
मान्यता में
हैं। और जिस
दिन तुम हिम्मत
करके इन सीमाओं
के ऊपर सिर
उठाओगे, अचानक
तुम पाओगे कि
सब सीमायें
गिर गईं। तुम्हारा
वास्तविक
स्वरूप असीम
है।
जब
जागने की घड़ी
आती है, तब
गुरु को बड़े
जोर से यह
तुमसे कहना
पड़ता है कि
तुम भगवान हो।
क्योंकि
सीमायें
पुरानी हैं, उनके
संस्कार लंबे
हैं, अति
प्राचीन हैं—और
यह जो नई किरण
उतर रही, बड़ी
नई और बड़ी
कोमल है! अगर
अतीत से मोह
पकड़ लिया और
कहा कि मैं तो
पापी हूं
मैंने तो कैसे—कैसे
पाप किए हैं...!
मेरे
पास कोई आता
है। वह कहता
है. 'मैं संन्यास
के योग्य नहीं।’
मैं कहता
हूं : 'तुम
फिक्र छोड़ो!
मैं तुम्हें
योग्य मानता
हूं। तुम मेरी
सुनो।’ वह
कहता है कि
नहीं, आप
कुछ भी कहें, मैं संन्यास
के योग्य
नहीं। मैं तो
सिगरेट पीता
हूं। तो मैं
कहता हूं :
पीयो भी। अगर
संन्यास ऐसा
छोटा—मोटा हो
कि सिगरेट
पीने से खराब
हो जाये तो दो कौड़ी
का है। उसका
कोई मूल्य ही
नहीं। यह भी
कोई संन्यास
हुआ कि सिगरेट
पी ली तो खत्म
हो गया! अगर
संन्यास में
कुछ बल है तो
सिगरेट
जायेगी, सिगरेट
के बल से
संन्यास
रोकोगे?
कोई
आ जाता है। वह
कहता है : 'मैं
शराब पीता हूं।’
मैं कहता
हूं तू फिक्र
छोड़, पी।
हम कुछ बड़ी
शराब तुझे
देते हैं, अब
देखें कौन
जीतता है।
जब
भी अतीत और
भविष्य में
संघर्ष हो, भविष्य
की सुनना।
क्योंकि
भविष्य है—जो
होना है। अतीत
तो वह है जो हो
चुका। अतीत तो
वह है जो मर
चुका, राख
है। अब अंगार
वहां नहीं रहा;
अब वहा से
तो सब जीवन हट
गया। अब तो
पिटी—पिटाई
लकीर रह गई है,
जिस पर तुम
चले थे कभी।
उड़ती धूल रह
गई, कारवां
तो निकल गया।
अतीत की मत
सुनना। अतीत
की सुनने की वृत्ति
होती है, क्योंकि
उसे हम जानते
हैं।
हमारी
हालत करीब—करीब
ऐसी है जैसे
कोई आदमी कार
चलाता हो और
आगे देखता ही
न हो। वह जो
रीयर—ब्यू
मिरर लगा होता
है बगल में, बस
उसी में देख
कर कार चलाता
हो, पीछे
की तरफ देखता
हो और आगे
देखता ही न
हो। उसके जीवन
में दुर्घटना
न होगी तो
क्या होगा! हम
जीवन को ऐसे
ही चला रहे
हैं—पीछे की
तरफ देखते हैं
और आगे की तरफ
जा रहे हैं।
देख सकते हो
पीछे की तरफ, जाना तो आगे
की तरफ ही
पड़ेगा। तो अगर
आंखें पीछे
लगी रहीं और
जाना आगे हुआ,
दुर्घटना न
होगी तो क्या
होगा! यह तो
अंधी हो गई
यात्रा।
जहां
जा रहे हो, वहीं
देखो भी—इसका
नाम श्रद्धा
है। भविष्य
में जा रहे
हो। भविष्य है
अनजाना, अपरिचित।
उस पर श्रद्धा
रखो। अगर
डांवांडोल हुए,
घबड़ाये, तो
तुम मोह से भर
जाओगे।
जेलखाने
से बीस वर्ष
के बाद अगर
कोई कैदी छूटता
है तो अपनी
हथकड़ियों की
तरफ भी मोह से
देखने लगता
है। बीस साल
कोई छोटा वक्त
नहीं होता।
फ्रांस
में क्रांति
हुई तो फ्रांस
का जो सबसे
बड़ा किला था
बेस्तिले का, वह
तोड़ दिया क्रांतिकारियो
ने। वहां
आजन्म कैदी ही
रहते थे। कोई
पचास साल से
कैद था। एक तो
ऐसा कैदी था जो
सत्तर साल से
कैद था। सत्तर
साल तक
हथकड़ियां —बेड़ियां!
और बेस्तिले
में जो कैदी
भरती होते थे,
उनकी
हथकड़ियों में
ताला नहीं
होता था, क्योंकि
वे तो आजन्म
कैदी थे; वह
तो हथकड़ी बंद
कर दी जाती थी,
बेड़ी जोड़ दी
जाती थी। वे
तो मरेंगे तभी
पैर काट कर
निकलते थे, हाथ काट कर
निकलते थे।
जिंदा में तो
उनको छूटना
नहीं है।
सत्तर साल तक
जो आदमी बेड़ी—हथकड़ियों
में बंधा हुआ
एक काली कोठरी
में पड़ा रहा
है, जहां
सूरज की रोशनी
नहीं आई, उसको
तुम सोचो, अचानक
तुम छोड़ दो..!
क्रांतिकारियों
ने तो सोचा कि
हम बड़ी कृपा
कर रहे हैं।
उन्होंने बेस्तिले
का किला तोड़
दिया और सारे
कैदियों को—कोई
तीन—चार हजार
कैदी थे—सबको
मुक्त कर
दिया। वे तो
समझे कि हम
बड़े मुक्तिवाहक
हो कर आये हैं, कल्याण
करने आये हैं,
कैदी हमसे
प्रसन्न
होंगे। लेकिन
कैदी प्रसन्न
न हुए और
कैदियों ने
कहा : हमें यह
पसंद नहीं है,
हम बिलकुल
ठीक हैं, हम
जैसे हैं ठीक
हैं। लेकिन क्रांतिकारी
तो जिद्दी
होते हैं। वे
तो यह सुनते
ही नहीं कि
तुम्हें क्रांति
करवानी है कि
नहीं करवानी।
उन्होंने तो
जबर्दस्ती
हथकडिया
तुड़वा कर बाहर
निकाल दिया।
रात
चकित हुए, आधी
रात होते —होते
आधे कैदी
वापिस लौट आये
और उन्होंने
कहा हमें नींद
भी नहीं आ
सकती बिना
हमारी
हथकड़ियों के।
पचास साल, साठ
साल, सत्तर
साल हथकड़ियां
हाथ में रहीं,
बेड़ियां
पैर में रहीं
तो ही हम सो
पाये, अब
तो हमें नींद
भी नहीं आ
सकती। वह वजन
चाहिए, उस
वजन के बिना
नींद नहीं
आती। उस वजन
के बिना हम
नंगे —नंगे मालूम
होते हैं, कुछ
खाली—खाली
मालूम होते
हैं। और अब
जायें कहां? बाहर बहुत
डर लगता है। आंखें
अंधेरे की आदी
हो गई हैं।
रोशनी घबडाती
है।
बेस्तिले
की कथा बड़ी
महत्वपूर्ण
है। यह वास्तविक
घटना है और
बेस्तिले के
कैदी तो सत्तर
साल,
पचास साल ही
रहे थे, मनुष्य
की कैद' तो
बड़ी प्राचीन
है, सनातन
है। जन्मों —जन्मों
से हम सीमा
में रहे हैं।
कभी वृक्ष की सीमा
थी, कभी
जानवर की, सीमा
थी, कभी
पक्षी की सीमा
थी। अब आदमी
की सीमा है।
हम सीमा में
ही रहे हैं
अनंत— अनंत
काल से। हम
बेस्तिले में
कैद हैं अनंत—
अनंत काल से, आज अचानक जब
घड़ी आयेगी
मुक्ति की और
कोई
अष्टावक्र
हमें मुक्त
करने आ जायेगा
तो स्वाभाविक
है कि हमारा
मोह प्रबल हो
उठे, हमारी
पुरानी आदत
कहे 'यह
क्या करते हो?
नहीं, रुक
जाओ। अज्ञात
में मत रखो
चरण। अंधेरे
में मत जाओ।
अतीत की रोशनी
जरूरी है।
परंपरा में जीयो।’
ध्यान
रखना, श्रद्धा
बड़ी क्रांतिकारी
घटना है।
आमतौर से लोग
उल्टा समझते
हैं। आमतौर से
लोग समझते हैं
जो श्रद्धालु
है, वह
परंपरागत, ट्रेडिशनल
है। इससे
ज्यादा
मूढ़तापूर्ण
कोई बात नहीं
हो सकती।
श्रद्धावान
व्यक्ति बिलकुल
ही
नानट्रेडिशनल
होता है, उसकी
कोई परंपरा हो
ही नहीं सकती।
श्रद्धा की—और
परंपरा!
परंपरा तो
होती है अतीत
की। अतीत का
होता है
विश्वास।
श्रद्धा तो
होती है भविष्य
की, उसकी
परंपरा कहां!
परंपरा तो
होती है भीड़
की, समाज
की। श्रद्धा
तो होती है
व्यक्ति की, अकेले की।
'हे सौम्य, हे प्रिय!
श्रद्धा कर, श्रद्धा कर!
इसमें मोह मत कर।
तू ज्ञानरूप
है, भगवान
है, परमात्मा
है, प्रकृति
से परे है।’
ये
उदघोषणायें
बड़ी घबडाती
हैं। ये हमें
बड़ा बेचैन कर
देती हैं।
किसी को कहो
कि तुम भगवान
हो तो वह
सोचता है शायद
मजाक तो नहीं
कर रहे, कोई
व्यंग्य तो
नहीं किया जा
रहा है।
तुम्हारे
धर्मगुरुओं
ने तो तुम्हें
सिखाया है कि
तुम पापी हो।
तुम्हारे धर्मगुरुओं
ने तो सिखाया
है कि तुम
नारकीय हो। तुम्हारे
धर्मगुरुओं
ने तो तुम्हें
सिखाया कि तुम
मनुष्य होने
के भी काबिल
नहीं हो; तुम
तो पशुओं से
गये—बीते हो!
लेकिन जिसने
तुम्हें ऐसा
सिखाया, धर्मगुरु
तो दूर, उसे
धर्म का कोई
भी पता नहीं
है। वह
तुम्हारी
सीमाओं को मजबूत
कर रहा है। वह
तुम्हारी
जंजीरों को
मजबूत कर रहा
है। वह
तुम्हारे
कारागृह को
मजबूत कर रहा
है। वह
तुम्हें
मुक्त न होने
देगा। वास्तविक
धर्मगुरु
तुमसे कहता है
कि तुम मुक्त
हो! मुक्ति
तुम्हारा
स्वभाव है।
'तात, हे सौम्य!
भो! हे प्रिय!
श्रद्धा कर!
श्रद्धा कर!'
अत्र
मोह न कुरुक्ल
जरा
भी मोह में मत
पड़ना अब। पड़ने
का भाव उठेगा, पड़ना
मत, सजग
रहना।
'भगवान' शब्द
बड़ा
महत्वपूर्ण
है। इसका अर्थ
होता है : भाग्यवान।
इसका अर्थ
होता है :
भाग्यशाली।
तुम भगवान हो,.
इसका अर्थ
तुम भाग्यशाली
हो। भाग्य का
अर्थ होता है :
तुम्हारा भविष्य
है। भाग्य का
अर्थ होता है
तुम वहीं समाप्त
नहीं जहां तुम
हो, तुम्हारा
भविष्य है।
एक
पत्थर है, एक
कंकड़ है—उसका
कोई भविष्य
नहीं। कंकड़
भगवान नहीं।
वह कंकड़ ही
रहेगा। उसी के
पास एक बीज
पड़ा है, बीज
भगवान है; उसका
भविष्य है।
कंकड़ को, बीज
को दोनों को
मिट्टी में
डाल दो, थोड़े
दिन बाद कंकड़
तो कंकड़ ही
रहेगा, बीज
उमग आयेगा, पौधा बन
जायेगा। बीज
का भविष्य है।
जहां भविष्य
है, वहीं
भगवान छिपा
है।
भाग्य
का अर्थ होता
है : तुम
भविष्य के
मालिक हो।
अतीत पर तुम
समाप्त नहीं
हो गये हो। जो
हुआ है, उस पर
तुम चुक नहीं
गये हो। अभी
बहुत कुछ होने
को है। यह
मतलब होता है
भगवान का।
भगवान का अर्थ
होता है :
समाप्त मत समझ
लेना, पूर्ण
विराम नहीं आ
गया है। अभी
कथा आगे जारी रहेगी।
सच तो यह है कि
कथा कभी
समाप्त नहीं
होगी। भगवान
का अर्थ है.
तुम कुछ भी हो
जाओ, सदा
होने को शेष
रहेगा।
संभावना बनी
ही रहेगी। बीज
फूटता ही
रहेगा। वृक्ष
बड़ा होता ही
रहेगा। फूल
लगते ही
रहेंगे। फूल
पर फूल, फूल
पर फूल लगते
रहेंगे। कमल
पर कमल खिलते
चले जायेंगे—जिनका
कोई अंत नहीं!
अंतहीन है
तुम्हारी
संभावना।
तुम्हारा
भविष्य
विस्तीर्ण
है।
'भगवान' शब्द
का अर्थ समझो।
ईसाइयों और
मुसलमानों के कारण
भगवान शब्द का
अर्थ बड़ा ओछा
हो गया, उसका
अर्थ हो गया :
जिसने दुनिया
को बनाया। निश्चित
ही जनक ने
दुनिया को
नहीं बनाया
है। तो अष्टावक्र
का भगवान का
यह अर्थ तो हो
ही नहीं सकता
है कि जिसने
दुनिया को बनाया।
भारत में
भगवान के बड़े
अनूठे अर्थ
थे। उस शब्द
की महिमा को
समझो। उसका
अर्थ होता है : जिसे
चुकाया न जा
सके; जिसकी
संभावना को
परिपूर्ण रूप
से कभी वास्तविक
न बनाया जा
सके। क्योंकि
जिस दिन
संभावना पूरी
की पूरी चुक
गई। उस दिन
बीज कंकड़ हो
गया, फिर
इसके बाद कुछ
नहीं हो सकता
है। जिसमें
विकास और
विकास सदा
संभव है, वही
भगवान है।
'तू भाग्यवान
है।’
भविष्य
है तेरा।
विकास है
तेरा।
संभावना है तुझमें
छिपी। तू बीज
है,
कंकड़ नहीं।
एक
और शब्द है 'ईश्वर'। वह शब्द भी
बड़ा अदभुत है।
अंग्रेजी के
शब्द गॉड में
वह मजा नहीं
है, वह
खूबी नहीं है
जो ईश्वर में
या भगवान में
है। अंग्रेजी
का शब्द गॉड
बहुत गरीब है।
ईश्वर का अर्थ
होता है.
ऐश्वर्य है
जिसका, आनंद
है जिसका, सच्चिदानंद
की संपदा है
जिसकी।
ऐश्वर्य से बनता
है ईश्वर। जो
महा ऐश्वर्य
को लिए छिपा
बैठा है
तुम्हारे
भीतर, कि
प्रगट होगा तो
उसके
साम्राज्य की
कोई सीमा न
होगी, उसका
साम्राज्य
विराट है—ऐसे
तुम ईश्वर हो!
ऐश्वर्य
तुम्हारा
स्वभाव है।
भिखारी तुम बन
गये—यह
तुम्हारी भूल
है। ऐश्वर्य
तुम्हारा
स्वभाव है।
भिखमंगे तुम
बन गये हो, क्योंकि
अतीत से तुमने
संबंध जोड़
लिया है; भगवान
तुम हो जाओगे अगर
भविष्य से
संबंध जोड़ लो।
सतत गतिमान, सतत
प्रवाहमान जो
है, वही
भगवान है। अगर
तुम बढ़ रहे हो
तो भगवान है, अगर रुक गये
तो तुम पत्थर
हो गये।
लेकिन
तुमने भगवान
की पत्थर की
मूर्तियां
बना रखी हैं।
पत्थर की भूल
कर भगवान की
मूर्ति मत
बनाना, क्योंकि
पत्थर में
बहाव तो
बिलकुल नहीं
है। हिंदू
बेहतर थे; नदी
को पूज लेते
थे, सूरज
को पूज लेते
थे—उसमें कहीं
ज्यादा
भगवत्ता है।
झाडू को पूज लेते
थे, उसमें
कहीं ज्यादा
भगवत्ता है।
तुम जरा फर्क समझना।
झाडू कम—से—कम
बढ़ता तो है, गतिमान तो
है। नदी बहती
तो है, प्रवाहमान
तो है। सूरज निकलता
तो है, उगता
तो है, बढ़ता
तो है, वृद्धिमान
तो है। तुमने
बना ली
संगमर्मर की मूर्ति;
वह मुर्दा
है, उसमें
कहीं कोई गति
नहीं है।
तुमने कंकड़ों
की मूर्तियां
बना लीं, बीज
की मूर्ति
बनानी थी।
जब
पश्चिम से
पहली दफा लोग
आये और
उन्होंने हिंदुओं
को देखा कि
वृक्षों की
पूजा कर रहे
हैं,
उन्होंने
कहा कि अरे, बड़े अविकसित
असभ्य! उन्हें
समझ में नहीं
आ सका।
हिंदुओं को
समझने के लिए
बड़ी गहराई
चाहिए, क्योंकि
हिंदू हजारों
साल से जीवन
की आत्यंतिक
गहराई में
डुबकी लगाते
रहे हैं।
मैं
एक ट्रेन में
सवार था।
प्रयाग के पास
से जब ट्रेन
गंगा के ऊपर
से गुजरने लगी
तो ग्रामीण जो
डब्बे में
बैठे थे, पैसे
फेंकने लगे।
एक पढ़े—लिखे
सज्जन बैठे
थे। पीछे पता
चला कि बनारस
हिंदू
विश्वविद्यालय
में प्रोफेसर
हैं। मुझसे
बोले कि क्या
गंवारपन है!
ये मूढ़ गंगा
में पैसे फेंक
रहे हैं, इससे
क्या सार है!
मैंने उनसे
कहा, ऊपर
से तो दिखता
है कि ये मूड
हैं और ये
शायद मूढ़ हैं
भी और इनको
कुछ पता भी
नहीं है गंगा
में पैसा
फेंकना...।
लेकिन थोड़ा
गहरे झांकने
की, थोड़ी
सहानुभूति से
झांकने की
कोशिश करो।
गंगा
प्रवाहमान
है। बहती है
हिमालय से
महासागर तक।
कहीं रुकती
नहीं, कहीं
ठहरती नहीं।
हिंदुओं ने
अपने सारे
तीर्थ गंगा के
किनारे बनाये
हैं—या नदियों
के किनारे
बनाये हैं। वे
प्रवाह के प्रतीक
हैं। वे
जीवंतता के
प्रतीक हैं।
ये जो गंगा
में पैसा फेंक
रहे हैं, फेंकने
वाला ठीक कर
रहा है, यह
मैं नहीं कह
रहा; लेकिन
इसमें भीतर
कहीं कुछ राज
तो छिपा है।
वह इसे चाहे
भूल भी गया है;
लेकिन
जिसने पहली
दफा गंगा में
पैसा फेंका होगा,
वह यह कह
रहा है कि
मेरा सब धन
तुच्छ है तेरे
प्रवाह के
सामने। इसका
मूल्य तो
समझो! मेरा धन
तो मुर्दा है,
तेरा धन
ज्यादा बड़ा
है। मैं अपने
धन को तेरे धन
के सामने
झुकाता हूं।
मैं अपने धन
को तेरे चरणों
में रखता हूं।
वृक्ष
की पूजा में
कहीं ज्यादा
भगवत्ता का लक्षण
है। ईसाई
पूजते हैं
क्रॉस को—मरी
हुई चीज को!
वह
बढ़ती नहीं।
इससे तो बेहतर
वृक्ष है; कम
से कम बढ़ता तो
है; नये
पात तो लगेंगे;
नये फूल तो
खिलेंगे!
वृक्ष का कोई
भविष्य तो है!
और वृक्ष का
कुछ ऐश्वर्य
भी है। जब फूल
खिलते हैं
वृक्ष में तो
देखा..।
जीसस
ने अपने
शिष्यों से
कहा कि देखो
खेत में खिले
लिली के फूलों
को! सोलोमन, सम्राट
सोलोमन अपनी
परिपूर्ण
गरिमा में भी
इतना सुंदर न
था। और ये फूल
लिली के न तो
श्रम करते, न मेहनत
करते, इनकी
महिमा कहां से
आती है! कौन
इन्हें इतना
सौंदर्य दे जाता
है! कहां से
बरसता है यह
प्रसाद!
ऐश्वर्य
तुम्हारा
स्वभाव है।
भगवान होना तुम्हारी
नियति है। तुम
अपने ऐश्वर्य
को प्रगट करो।
तुम अपनी
भगवत्ता की
घोषणा करो। और
ध्यान रखना, तुम्हारी
भगवत्ता की
घोषणा में
सारे अस्तित्व
की भगवत्ता की
घोषणा छिपी
है। कहीं तुमने
अपने भगवान
होने की घोषणा
की और सोचा कि
और कोई भगवान
नहीं है, मैं
भगवान हूं—तो
तुम भूल में
पड़ गये, तो
यह अहंकार की
घोषणा हो गई।
तो यह भगवान
से तो तुम
बहुत दूर चले
गये; बिलकुल
विपरीत छोर पर
पहुंच गये।
क्योंकि भगवान
होने की घोषणा
में तो अहंकार
बिलकुल नहीं
है। ऐश्वर्य
वहीं है जहां
तुम नहीं हो।
और भगवान वहीं
है जहां 'मैं'
का सारा भाव
खो गया। तब
तुम भी भगवान
जैसे विराट, असीम अनंत!
'गुणों से
लिपटा हुआ
शरीर आता है
और जाता है। आत्मा
न जाने वाली
है और न आने
वाली है। इसके
निमित्त तू
किसलिए सोच
करता है?'
तै:
संवेष्टितो
देहस्तिष्ठत्यायाति
याति च
आत्मा
न गता नागंता
किमेनमनुशोचति।
'गुणों
से लिपटा हुआ
शरीर आता और
जाता है।’
ऐसा
समझो कि तुम
एक घड़ा बाजार
से खरीद कर
लाये तो घड़े
के भीतर आकाश
है—घटाकाश।
थोडा—सा आकाश
घड़े के भीतर
है। जब तुम घर
की तरफ चल पड़े
तो घड़ा तो
तुम्हारे साथ
आता है, क्या
तुम सोचते हो
घड़े के भीतर
का आकाश वही
रहता है? आकाश
बदलता रहता
है। आकाश तो
अपनी जगह है, कहीं आता—जाता
नहीं।
तुम्हारा घड़ा
तुम खींच कर
घर ले आते हो।
वही आकाश नहीं
आता घड़े में
जो तुमने बाजार
में खरीदा था,
तब था! वह
आकाश तो वहीं
रह गया। आकाश
तो अपनी जगह
है। तुम घड़े
को ले आये घर।
भीतर की खाली
जगह तो न आती न
जाती कहीं।
आत्मा
आकाश जैसी है।
शरीर का
गुणधर्म है।
शरीर तो घड़ा
है—मिट्टी का
घड़ा है। तुम
गये,
तुम चले—शरीर
चलता है, तुम्हारी
आत्मा नहीं
चलती है।
ऐसा
ही समझो, मुल्ला
नसरुद्दीन एक
ट्रेन में
सवार था और तेजी
से डब्बे में
चल रहा शा।
किसी ने पूछा
कि नसरुद्दीन
मामला क्या है?
उसने कहा, मुझे जल्दी
पहुंचना है।
पसीने से लथपथ
हो रहा था। अब
ट्रेन का
डब्बा भागा जा
रहा है; तुम
उसमें चलो या
बैठो, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। और जब
ट्रेन चलती है
तो तुम्हारे
चलने का कोई
प्रयोजन ही
नहीं है। तुम
थोड़े ही चलते
हो! ट्रेन चलती
है, तुम
बैठे रहते हो।
तुम तो वही के
वही होते हो।
तुम्हारा
शरीर जब चलता
है,
तब भी तुम
वही के वही
होते हो। भीतर
कुछ भी नहीं
चलता; भीतर
का शून्य आकाश
वैसा का वैसा,
वही का वही
है। तुम यहां
से उठे, वहा
बैठ गये, वहां
से उठे, कहीं
और बैठ गये; गरीब थे, अमीर
हो गये; कुछ
न थे, राष्ट्रपति
हो गये; जमीन
पर बैठे थे, सिंहासन पर
बैठ गये—लेकिन
तुम्हारे
भीतर जो छिपा
है वह तो कहीं
आता—जाता
नहीं। उसे
पहचानो! वह न
भोजन करते, भोजन करता; न राह चलते, चलता; न
रात सोते, सोता—सदा
वैसा का वैसा
है! एकरस!
'गुणों से
लिपटा हुआ
शरीर आता और
जाता; आत्मा
न जाने वाली
है और न आने
वाली है।’
इसके
लिए सोच का
कोई कारण ही
नहीं, क्योंकि
सोच का कोई
अर्थ ही नहीं।
यह तो मुल्ला
नसरुद्दीन
जैसे ट्रेन
में चल रहा, ऐसे तुम सोच
कर रहे हो।
व्यर्थ ही सोच
रहे हो। इसका कोई
प्रयोजन नहीं
है। जैसे ही
यह बात समझ
में आ जाती है,
सोच छोड़ना
नहीं पड़ता, सोच छूट
जाता है। अगर
मुल्ला को यह
बात समझ में आ
जाए कि तेरे
चलने से कुछ
अर्थ नहीं
होता, ट्रेन
चल रही है, उतना
ही चलना हो
रहा है, तू
नाहक अलग से
चलने की कोशिश
कर रहा है, इससे
कुछ जल्दी
नहीं पहुंच
जायेगा—तो
मुल्ला बैठ
जायेगा। समझ
में आ जाये।
बस बात समझ की
है; कुल की
नहीं है, सिर्फ
बोध की है।
गुण:
संवेष्ठित
देह: तिष्ठति...
गुणों
से लिपटा हुआ
शरीर निश्चित
आता—जाता, जन्मता,
बचपन, जवानी,
बुढ़ापा, बीमारी,
स्वास्थ्य,
हजार
घटनायें
घटतीं—लेकिन
भीतर जो छिपा
है घड़े के, वह
तो वैसा का
वैसा है।
तुमने
देखा, मिट्टी
का घड़ा खरीद
लाओ, उस पर
सोने की पर्त
चढ़ा दो, हीरे—जवाहरात
लगा दो; मगर
भीतर का
खालीपन तो
वैसा का वैसा
है। सोने के
घड़े के भीतर
तुम सोचते हो
किसी और तरह
का आकाश होता
है? मिट्टी
के घड़े से
भिन्न होता है?
भीतर का
सूनापन, भीतर
का खालीपन
सोने के घड़े
में हो कि
मिट्टी के घड़े
में, एक
जैसा है। तो
कुरूप देह हो
कि सुंदर, क्या
फर्क पड़ता है!
देह ही ऊपर
कुरूप और
सुंदर होती
है। खूब
आवेष्ठित
गहनों से हो
कि नग्न खड़ी हो,
कोई फर्क
नहीं पड़ता।
आत्मा
न गता न अहाता
किं एनं
अनुशोचति
फिर
सोच क्या! जब
कुछ होता ही
नहीं अंतर के
जगत में, कुछ
कभी हुआ ही
नहीं; जैसा
है वैसा ही है
सब वहां; अंतस्तम
पर, आखिरी
केंद्र पर न
कोई गति है, न कोई खोना, न कोई बढ़ना, न कुछ होना..।
आकाश जैसा है—कभी
बादल घिरते, वर्षा होती;
फिर बादल
चले जाते, कभी
खुला आकाश
होता, —कभी
मेघाच्छादित
होता। रात आती,
अंधेरा हो
जाता; दिन
आता, प्रकाश
फैल जाता।
लेकिन आकाश
वैसा का वैसा
है! यह आकाश की
दृष्टि है।
इसे तुम समय
की दृष्टि से
मत मेल
बिठाना।
अन्यथा
मुश्किल
पड़ेगी।
समय
की दृष्टि
कहती है.
तुमने बुरे
कर्म किए, उनको
ठीक करो, पाप
किये उनको
सुधारो; तुमने
चोरी की, दान
करो, तुमने
किसी को दुख
दिया, सेवा
करो।
समय
की दृष्टि
कहती है : कर्म
को बदलो। आकाश
की दृष्टि
कहती है :
साक्षी को
पहचानो। कर्म
का कुछ लेना—देना
नहीं; कर्म तो
स्वन्नवत है।
'देह चाहे
कल्प के अंत
तक रहे, चाहे
वह अभी चली
जाये, तुम
चैतन्यरूप
वाले की कहा
वृद्धि है, कहां नाश है!'
क्व
वृद्धि: क्व
च वा हानिस्तव
चिन्मात्ररूपिण:।
तुम
तो
चैतन्यमात्र
हो। तुम्हारी
कोई वृद्धि
नहीं, कोई हास
नहीं!
'तुम अनंत
महासमुद्र
में विश्वरूप
तरंग अपने
स्वभाव से उदय
और अस्त को
प्राप्त होती
है; परंतु
तेरी न वृद्धि
है और न नाश है।’
जो
हो रहा है, वह
प्रकृति के
स्वभाव से हो
रहा है। भूख
लगती, तृप्ति
होती, जवानी
आती, वासना
जगती; बुढ़ापा
आता, वासना
तिरोहित हो
जाती—न तो
तुम्हारी
वासना है और न
तुम्हारा ब्रह्मचर्य
है। यह आकाश
की दृष्टि है।
कभी तुम चोर
बनते, कभी
साधु बन जाते।
यह सब प्रकृति
से हो रहा है।
इसमें कुछ
करने जैसा
नहीं है, कुछ
छोड़ने जैसा
नहीं है। कुछ
चुनाव नहीं
करना है।
कृष्णमूर्ति
जिसे
च्चॉइसलेस
अवेयरनेस कहते
हैं। चुनाव—रहित।
निर्विकल्प
बोधमात्र।
त्वम्पनंतमहाम्भोधौ
विश्ववीचि
स्वभावत:।
'इस संसार—सागर
में जो लहरें
उठ रही हैं, वह संसार का
स्वभाव है।’
उदेतु
वास्तुमायातु
न ते
वृद्धिर्न वा
क्षति:।
'न तो तेरी
क्षति है न
तेरी वृद्धि
है।’
यह
अपने से हो
रहा है, इसे
होने दे। यह
नाच चल रहा है,
इसे चलने
दे। तू देखता
रह।
'हे तात, तू
चैतन्यरूप
है। तेरा यह
जगत तुझसे
भिन्न नहीं
है। इसलिए हेय
और उपादेय की
कल्पना किसकी
और क्यों कर
और कहां हो
सकती है?'
तात
चिन्मात्र
रूपोउसि न ते
भिन्नमिद
जगत्।
अथ:
कस्य कथं
कुत्र
हेयोपादेय
कल्पना।।
'तू
चैतन्यरूप
है। तेरा यह
जगत तुझसे भिन्न
नहीं है।’
और
यहां हम जो
भिन्नतायें
देख रहे हैं, वे
सब
भिन्नतायें
ऊपर—ऊपर हैं, भीतर हम
अभिन्न हैं।
देखा बैलगाड़ी
का चाक, आरे
लगे होते; परिधि
पर तो आरे सब
अलग होते, लेकिन
केंद्र पर जा
कर सब जुड़ गये
होते हैं। और
एक मजा देखा
कि चाक घूमता
है, कील
नहीं घूमती! कील
वैसी ही खड़ी
रहती है। जिस
पर घूमता है, वह नहीं
घूमती। अगर
कील घूम जाये
तो चाक गिर जाये।
कील को नहीं
घूमना है।
यह
जो सारा जगत
गतिमान है—परमात्मा
के शून्य, ठहरे
होने पर है।
यह तुम्हारा
जो शरीर चल
रहा है—तुम्हारी
आत्मा की कील
पर, जो
ठहरी हुई है।
यह जो शरीर का
चाक चलता है—बचपन,
जवानी, बुढ़ापा,
सुख—दुख, हार—जीत, सफलता—असफलता,
मान—अपमान—यह
चाक घूमता
रहता है। इसके
आरे घूमते
रहते हैं।
लेकिन
तुम्हारी कील
खड़ी है। उस
कील को पहचान
लेना
समाधिस्थ हो
जाना है। और
यहां कोई भी भिन्न
नहीं है।
फर्क
देखना।
महावीर
कहते हैं. स्वयं
के और जगत के
भेद को जान
लेना ज्ञान
है। इसलिए
महावीर का
शास्त्र
कहलाता है :
भेद—विज्ञान।
ठीक—ठीक जान
लेना कि
पदार्थ मैं
नहीं हूं वह
जो बाहर है, वह
मैं नहीं हूं;
वह जो जगत
है, वह मैं
नहीं हूं। अलग
हो जाना भेद—विज्ञान
है।
तुम
चकित होओगे यह
जान कर कि
महावीर की
भाषा में योग
का अर्थ ही
अलग है।
महावीर कहते
हैं : अयोग को
उपलब्ध होना
है,
योग को
नहीं। इसलिए
जो परम अवस्था
है, उसको
कहते हैं :
अयोग केवली।
निश्चित ही
महावीर किसी
और ही भाषा का
उपयोग कर रहे
हैं। पतंजलि
कहते है:
योग
को उपलब्ध
होना है। योग
यानी दो मिल
जायें। और
महावीर कहते
हैं अयोग को
उपलब्ध होना है
कि दो अलग हो
जायें।
पतंजलि विवाह
के लिए चेष्टा
कर रहे हैं; महावीर
तलाक के लिए।
दो टूट जायें।
अलग— अलग हो
जायें। जहां
दो टूट गये, जहां जान
लिया—'शरीर
और मैं अलग, संसार और
मैं अलग'—वहीं
ज्ञान है।
आकाश की
दृष्टि में—जहां
जान लिया सब
एक, अभिन्न—वहीं
ज्ञान है।
इसलिए
बड़ी कठिनाई
होती है, जो
लोग जैन
शास्त्र के
आदी हैं, उनको
अष्टावक्र
समझना
मुश्किल हो
जाता है, क्योंकि
बड़ी उल्टी
बातें हैं। जो
लोग अष्टावक्र
के आदी हैं, उनको जैन
शास्त्र
समझना
मुश्किल हो
जाता है। पारिभाषिक
शब्दावली है।
अब हिंदुओं के
लिए योग से
बड़ा कोई शब्द
नहीं है। योग
बड़ा मूल्यवान
शब्द है, महिमावान
शब्द है।
महावीर के लिए
योग ही पाप है।
भोग तो पाप है
ही। महावीर तो
कहते हैं, भोग
ही इसलिए चल
रहा है कि योग
है; तुम
जुड़े हो, इसलिए
भोग चल रहा
है। जोड़ को
तोड़ दो। वह जो
आइडेन्टिटी
है, जोड़ है,
उसको तोड़ दो,
उखाड़ दो, अलग हो जाओ, बिलकुल अलग
हो जाओ!
हिंदू
कहते हैं : तुम
अलग हो, यही
तुम्हारा
अहंकार है।
तुम जुड़ जाओ, तुम इस
विराट के साथ
एक हो जाओ।
जरा भी भेद न
रह जाये। भेद
मात्र खो
जाये। अभेद हो
जाये।
'हे तात, तू
चैतन्यरूप है।
तेरा यह जगत
तुझसे भिन्न
नहीं। इसलिए
हेय और उपादेय
की कल्पना
किसकी, क्यों
कर और कहां?'
सुनना
इस क्रांतिकारी
वचन को।
अष्टावक्र
कहते हैं : फिर
क्या बुरा और
क्या भला! हेय
क्या, उपादेय
क्या! अच्छा
क्या! शुभ
क्या, अशुभ
क्या—जों हो
रहा है, हो
रहा है। जो हो
रहा है, जैसा
हो रहा है, वैसा
ही होगा। होने
दो। न कुछ
अच्छा है न
कुछ बुरा है।
जो हो रहा है, स्वाभाविक
है। अगर ऐसी
बात खयाल में
आ जाये तो परम
शाति उदय हो
जायेगी। नहीं
तो दो तरह की
अशांतिया
हैं। एक असाधु
की अशांति है;
वह सोचता है,
साधु कैसे
बनें? वह
चेष्टा में लगा
है। हार—हार
जाता है। बार—बार
आत्मविश्वास
खो देता है।
बार—बार फिर
डुबकी लग जाती
है अंधेरे
में। फिर तड़पता
है, पछताता
है, सोचता
है : कैसे साधु
बनूं? एक
साधु है; वह
साधु बन गया
है, लेकिन
भीतर भाव चलता
रहता है कि
पता नहीं असाधु
मजा लूट रहे
हों!
मैंने
न मालूम कितने
साधुओं से
मुलाकात की
होगी, न मालूम
कितने साधुओं
को मिला हूं।
सदा यह पाया
है कि उनके
भीतर कहीं न
कहीं भीतर यह
भाव बना है. 'कहीं ऐसा तो
नहीं है कि हम
मूर्ख बन गये
हों! अपने हाथ
से छोड़ बैठे, दूसरे मजा
कर रहे हों!'
एक
जैन साधु हैं :
कनक विजय। एक
बार मेरे घर
मेहमान हुए।
दो—चार दिन जब
उन्होंने
मुझे समझ लिया
और लगा कि मेरे
मन में कोई
हेय—उपादेय
नहीं है, तो
उन्होंने कहा
: 'अब आपसे
एक बात कह
दूं। किसी और
से तो कह ही
नहीं सकता।
क्योंकि और तो
दूसरे तत्क्षण
पकड़ लेंगे कि
यह साधु और
ऐसी बात! आपसे
कह दूं कि मैं
नौ साल का था, तब मैं साधु
हुआ। मेरे
पिता साधु हुए,
मां मर गई।’
अक्सर
तो ऐसे ही
साधु होते हैं
लोग। पत्नी मर
गई तो पिता
संन्यासी हो
गये। अब एक ही
बेटा था घर
में। अब वह
क्या करे! नौ
साल का बच्चा।
तो उसका भी
सिर मूड लिया, उसको
भी संन्यासी
कर दिया। अब
नौ वर्ष का बच्चा
संन्यासी हो
जाये तो अड़चन
तो आने वाली
है—और वह भी
जैन
संन्यासी!
तो वे हो तो
गये हैं साठ
साल के, लेकिन
उनकी बुद्धि
नौ साल पर
अटकी है। अटकी
ही रहेगी, क्योंकि
जीवन का मौका
नहीं मिला।
जीवन को जानने
का अवसर नहीं
मिला। भोग की
पीड़ा झेलने की
सुविधा नहीं
मिली। वह
झेलना जरूरी
है। बुरा करने
का अवसर नहीं
मिला तो बुरा
अटका रह गया
है। वह चुभता
है। पता नहीं
दूसरे लोग मजा
लूट रहे हों!
नौ साल का
बच्चा!
तुम
थोड़ा सोचो, दूसरे
बच्चे
आइसक्रीम खा
रहे हैं, नौ
साल का
संन्यासी चला
जा रहा है, वह
आइसक्रीम
नहीं खा सकता।
जरा दया करो
नौ साल के
बच्चे पर! सब
सिनेमा के
बाहर लाइन लगाये
खड़े हैं, बड़े—बड़े
दिगज टिकिट
खरीदने खड़े
हैं, नौ
साल का
संन्यासी चला
जा रहा है, वह
टिकिट नहीं
खरीद सकता
सिनेमा की!
उन्होंने
मुझसे कहा कि
अब आपसे मैं
कह दूं; किसी
और से मैं कह
ही नहीं सकता,
क्योंकि
आपको मैं अनुभव
करता हूं कि
आप मेरी निंदा
न करेंगे।
मैंने कहा.
तुम कहो, क्या?
उन्होंने
कहा कि मुझे
सिनेमा देखना
है।
'पागल हो गये
हो? अब साठ
साल की उम्र
में सिनेमा!'
कहने
लगे कि बस
मेरे मन में
यह रहता है
किं पता नहीं
भीतर क्या
होता है! इतने
लोग जब देखते
हैं और लाइनें
लगी हैं और
लोग लड़ाई—झगड़ा
करते हैं, मार—पीट
हो जाती है
टिकिट के लिए,
तो भीतर
क्या है!
कभी
सिनेमा देखा
नहीं।
स्वाभाविक
जिज्ञासा है।
तुम्हें हंसी
आती है!
क्योंकि
तुमने देखा है, इसलिए
तुम्हें कुछ
अड़चन नहीं
मालूम होती कि
इसमें मामला
क्या है!
लेकिन तुम जरा
उस आदमी की
सोचो, उसकी
तरफ से सोचो।
मुझे
बात समझ में
आई। मैंने कहा
कि ठीक है। मेरे
पास एक जैन
श्रावक आते थे, मैंने
उनसे कहा कि
देखें, इनको
सिनेमा दिखा
दें। बेचारे
बुढ़ापे में यही
भाव ले कर मरे
तो अगले जन्म
में सिनेमा
में चौकीदारी
करेंगे! इनको
बचा लें! इनको
उबार लें!
वे
तो जैन थे। वे
तो घबरा गये।
उन्होंने कहा
कि आप मुझे
फसायेंगे।
अगर समाज को
पता चल गया कि
मैं इनको ले
गया हूं
सिनेमा तो मैं
तक झंझट में
पडूगा। आप
कहते हैं, मेरी
बात समझ में आ
गई। मैं आपको
सुनता हूं इसलिए
समझ में भी
आता है; मगर
मैं नहीं ले
जा सकता।
मैंने
कहा,
कोई तो ले
जाये इनको।
किसी तरह तो
इनको दिखा ही
दो। इनको
समझो।
उन्होंने
कहा,
मेरी समझ
में आती है।
फिर मैंने कहा,
कुछ उपाय
करो।
उन्होंने कहा,
फिर एक ही
उपाय कर सकते
हैं। तो जो
कैनटोनमेट एरिया
है, वहा
अंग्रेजी
फिल्में चलती
हैं वहा कोई
जैन वगैरह
रहते नहीं और
जाते भी नहीं,
वहां इनको
दिखा सकता
हूं। मगर
अंग्रेजी
इनकी समझ में
नहीं आती।
मैंने उनसे
पूछा कि कनक
विजय जी, क्या
विचार है? उन्होंने
कहा कि कुछ भी
हो, अंग्रेजी
हो कि चीनी हो
कि जापानी हो,
मुझे दिखा
दो।
कनक
विजय अभी
जिंदा हैं, उनसे
आप पूछ ले
सकते हैं। उनको
ले गये वे, दिखा
लाये वे। दिखा
कर आये, बहुत
हल्के हो कर
आये। वे कहने
लगे कि एक बोझ
उतर गया, अब
कुछ भी नहीं
है वहा। लेकिन
अभी तक मैं एक
बोझ से दबा
था।
जीवन
अनभोगा बीत
जाये तो बहुत—सा
कचरा—कूड़ा
इकट्ठा हो
जाता है। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
भोग से ही तुम
मुक्त हो
जाओगे। अगर
भोगे भी सोये—सोये
तो कभी मुक्त
न होओगे। ऐसे
लोग हैं जो साठ
साल से निरंतर
सिनेमा देख
रहे हैं, फिर
भी जा रहे
हैं। तो यह
नहीं कह रहा
हूं कि जिन्होंने
देख लिया, वे
मुक्त हो गये
हैं।
जिन्होंने
देख लिया, वे
मुक्त हो सकते
हैं अगर थोड़ी
भी समझ हो। जिन्होंने
नहीं देखा, उनकी तो बड़ी
अड़चन है। समझ
भी हो तो भी
मुक्त होना
कठिन है।
क्योंकि जो
जाना ही नहीं,
उससे मुक्त
कैसे होए? उससे
उठें कैसे? उसका
अतिक्रमण
कैसे हो?
अष्टावक्र
कहते हैं : न
कुछ बुरा है न
कुछ भला है।
जो होता हो, उसे
हो जाने देना।
इसके लिए बड़ी
हिम्मत चाहिए!
इसके लिए
अपूर्व साहस
चाहिए! जो होता
हो, हो
जाने देना। मत
रोकना। मत
जीवन की धारा
के विपरीत
लड़ना। बह जाना
धारा में। जो
होता हो, हो
जाने देना।
क्या है खोने
को यहां? क्या
है पाने को यहां?
और एक बार
तुम अगर
हिम्मत से, साहस से बह
गये और जागे
रहे, देखते
रहे जो हो रहा
है—एक दिन
पाओगे कि तुम
साक्षी हो
गये। जो हो
रहा है वह
प्रकृति की
लीला है. वह सब
स्वभाव है। तरंगें
उठ रही हैं!
'हे तात, तू
चैतन्यरूप
है। तेरा यह
जगत तुझसे
भिन्न नहीं।
इसलिए हेय और
उपादेय की
कल्पना किसकी,
क्यों कर और
कहां?'
'तुझ एक
निर्मल अविनाशी
शांत और
चैतन्यरूप
आकाश में कहां
जन्म है, कहां
कर्म है, कहां
अहंकार है!'
सुनो
इस वचन को!
एकस्मिन्नव्यये
शाते
चिदाकाशेउमले
त्वयि।
कुतो
जन्म कुत:
कर्म
कुतोउहंकार
एव च।
एकस्मिन—तू
एक! क्योंकि
एक ही है। कोई
द्वैत नहीं।
तेरे एक में
ही सब समाया
हुआ है। और तू
सब में समाया
हुआ है। अमले—और
तू कभी भी मल
को उपलब्ध
नहीं हुआ। कभी
तू दोषी नहीं
हुआ। कभी
तुझसे कुछ पाप
नहीं हुआ। क्योंकि
पाप हो नहीं
सकता।
क्योंकि तू
कर्ता नहीं है, तू
केवल साक्षी
है। तू तो
दर्पण की तरह
है। इसके
सामने किसी ने
किसी की हत्या
कर दी तो दर्पण
थोड़े ही पापी
होता है; दर्पण
को थोड़े ही
अदालत में ले
जाओगे कि इसके
सामने हत्या
हुई, कि यह
दर्पण भी पापी
हो गया, कि
यह दर्पण भी
दूषित हो गया।
जो हुआ है, वह
प्रकृति में
हुआ है। हत्या
हुई, साधु
बने, असाधु
बने—वह सब
शरीर की
प्रकृति है।
और तुम्हारे
भीतर जो चैतन्य
का दर्पण है—अमलेयं—
उसका कोई मल
नहीं है।
निर्मल है।
अव्यये—अविनाशी
है। शाते—शांत
है। चिदाकाशे—चैतन्यरूप
आकाश है।
चिदाकाशे!
यह
पूरी की पूरी
ब्राह्मणधारा
का सार— भाव है—चिदाकाशे।
जन्म
कुत:।
कहा
तो तेरा जन्म? हो
ही नहीं सकता।
शरीर ही
जन्मता है और
शरीर ही मरता
है, तू तो न
जन्मता है और
न मरता है।
कर्म
कुत:।
और
कर्म भी तुझसे
नहीं हो सकता, तो
कैसा अच्छा
कर्म, कैसा
बुरा कर्म? कैसा
दुष्कर्म? कर्म
तुझसे हो नहीं
सकता।
च
एव अहकार कुत:।
और
अहंकार भी
कैसा? मैं हूं
यह भाव भी तभी
हो सकता है जब 'तू' हो।
जब दो नहीं हैं
तो कैसा
अहंकार?
'तू एक
निर्मल
अविनाशी शांत
चैतन्यरूप
आकाश है। कहा
जन्म, कहां
कर्म, कहां
अहंकार?'
ऐसा
जान कर, ऐसा
बोध को जगा कर,
ऐसी
श्रद्धा में
डूब कर—समाधि
उपलब्ध होती
है। समाधि का
अर्थ है : समाधान।
समाधि का अर्थ
है : गईं
समस्यायें, खुल गया
रहस्य। समाधि
का अर्थ है.
नहीं रहे
प्रश्न, नहीं
मिला उत्तर; खो गये
प्रश्न। मिलन
हो गया
अस्तित्व से।
क्योंकि
उत्तर अगर न
मिलें तो फिर
नये प्रश्न
खड़े हो
जायेंगे। हर
उत्तर से नये
प्रश्नों के
पत्ते लगते
हैं। समाधि का
अर्थ उत्तर
नहीं है कि मिल
गया तुम्हें
उत्तर। समाधि
का इतना ही
अर्थ है कि सब
प्रश्न गिर
गये; प्रश्नों
के साथ
स्वभावत: सब
उत्तर भी गिर
गये। तुम
निर्विकार
हुए, निर्विचार
हुए! न कोई
प्रश्न है न
कोई उत्तर है।
ऐसा जीवन है।
और ऐसे जीवन
की सहज
स्वीकृति है
और साक्षी—
भाव है।
जो
हो रहा है
बाहर, होने
दो। चुनो मत।
निर्णय मत लो।
बुरा— भला
विभाजन मत
करो। जो हो
रहा है, तुम
होने दो। तुम
सिर्फ देखते
रहो।
खयाल
में आती है
बात?
तुम सिर्फ
देखते रहो।
हमारी सारी
शिक्षा इसके
विपरीत है।
हमारी सारी
शिक्षा कहती
है : क्रोध हो
तो दबाओं, रोको,
क्रोध मत
करो, क्रोध
बुरा है।
प्रेम हो तो
प्रगट करो, बताओ, प्रेम
अच्छा है।
हमारी सारी
शिक्षा
विकल्प में, चुनने की है,
चुनाव करने
की है।
इसलिए
मेरे देखे, दुनिया
में ब्राह्मण
परंपरा की कोई
बहुत गहरी छाप
नहीं पड़ी, श्रमण
परंपरा की
गहरी छाप पड़ी।
तुम चकित होओगे,
क्योंकि
श्रमण परंपरा
को मानने वाले
बहुत लोग नहीं
हैं और
ब्राह्मण
परंपरा को
मानने वाले
बहुत लोग हैं—ईसाई
हैं, हिंदू
हैं, मुसलमान
हैं, बड़ी
संख्या है!
लेकिन फिर भी
श्रमण परंपरा
की संख्या
ज्यादा नहीं
है तो भी उसकी
छाप बहुत गहरी
पड़ी, क्योंकि
श्रमण परंपरा
का तर्क
मनुष्य की बुद्धि
में जल्दी समझ
में आता है।
भारत
में जैनों की
कोई संख्या
नहीं है; लेकिन
फिर भी तुम
चकित होओगे कि
जैनों का संस्कार
भारत पर जितना
गहरा है उतना
हिंदुओं का नहीं
है। महात्मा
गांधी बात
गीता की करते
हैं, लेकिन
व्याख्या
पूरी जैन की
है। बात गीता
की है, लेकिन
व्याख्या
पूरे जैन की
है, बात
गीता की नहीं
है। महात्मा
गांधी नब्बे
प्रतिशत जैन हैं,
दस प्रतिशत
हिंदू होंगे।
कुछ आश्चर्य
की बात है।
क्यों ऐसा हुआ
है? इसके
पीछे कारण साफ
है। जैन
परंपरा या
श्रमण परंपरा
का तर्क बहुत
स्पष्ट है, गणित बहुत
साफ है। और यह
जगत गणित का
है और तर्क का
है। और यह बात
समझ में आती
है, सभी को
समझ में आती
है। राजनीतिक
को भी समझ में
आती है, धर्मगुरु
को भी समझ में
आती है, पुरोहित—पंडित
को भी समझ में
आती है कि
बुरा छोडो, अच्छा करो।
फिर भी बुरा
छोड़ो, अच्छा
करो—यह समझाते—समझाते
हजारों
सदियां बीत
गईं, बुरा
हो रहा है और
अच्छा नहीं हो
रहा है। यह
बड़ी हैरानी की
बात है। कोई
धारणा इस बुरी
तरह पराजित
नहीं होती, लेकिन फिर
भी हावी रहती
है, बुरी
तरह हार गई है!
तुम
अपने जीवन में
देखो, तुमने
लाख उपाय किए
कि बुरा छोड़े
और अच्छा करें,
फिर भी करते
तुम बुरा हो।
संत
अगस्तीन ने
कहा है कि हे
प्रभु, जो मुझे
करना चाहिए वह
मैं कर नहीं
पाता और जो
मुझे नहीं
करना चाहिए
वही मैं करता
हूं। और मैं
जानता हूं
भलीभांति कि
क्या नहीं
करना चाहिए, फिर भी वही
करता हूं। ऐसा
भी नहीं कि
मुझे पता नहीं
है; मुझे
सब मालूम है
कि ठीक क्या
है, वही
नहीं होता। और
जो ठीक नहीं
है, वही होता
है।
हजारों
साल के इस
शिक्षण के
बावजूद भी
आदमी वैसा का
वैसा है। थोड़ा
सोचो। शायद
अष्टावक्र के वचन
में कोई मूल्य
हो।
अष्टावक्र
कहते हैं. क्रांति
घटित होती है—अच्छे—बुरे
में चुनाव
करके नहीं, अच्छे—बुरे
दोनों के
साक्षी हो
जाने से।
तुम्हें क्रोध
आये तो क्रोध
के साक्षी हो
जाओ। एक
प्रयोग करके
देख लो। एक साल
भर के लिए
हिम्मत करके
देख लो, श्रद्धा
करके देख लो।
एक साल भर के
लिए क्रोध आये,
साक्षी हो
जाओ, रोको
मत, दबाओ
मत, होने
दो। और चोरी
हो तो चोरी
होने दो और
साधुता हो तो
साधुता होने
दो। जो हो
होने दो। और
जो परिणाम हों,
वे होने दो।
और तुम शांत
भाव से सब
स्वीकार किए
चले जाओ। साल
भर में ही जैसे
एक झरोखा खुल
जायेगा। तुम
अचानक पाओगे.
बुरा होना
अपने — आप धीरे —धीरे
क्षीण हो गया
और भला होना
अपने—आप घिर
हो गया। जैसे—जैसे
तुम साक्षी हो
जाते हो वैसे—वैसे
बुरा अपने—आप
विदा हो जाता
है; क्योंकि
बुरा होने के
लिए साक्षी की
मौजूदगी बाधा
है; भला
होने के लिए
साक्षी की
मौजूदगी खाद
है, पोषण
है।
तो
यह मैं तुमसे
आखिरी
विरोधाभास
कहूं : तुम अच्छा
करना चाहते हो, नहीं
हो पाता; तुम
बुरे से छूटना
चाहते हो, नहीं
छूट पाते।
क्योंकि
तुम्हारी
धारणा यह है
कि तुम कर्ता
हो; वहीं
धारणा में भूल
हो रही है।
साक्षी की
धारणा कहती है
: न तो तुम छोड़ो
न तुम पकड़ो; तुम सिर्फ
जागे हुए
देखते रहो। और
एक अदभुत अनुभव
आता है कि
जागते—जागते
बुरा छूटने
लगता है और
भला होने लगता
है।
मेरी
तो परिभाषा
यही है :
साक्षी— भाव
से जो हो वही
शुभ और साक्षी—
भाव में जो न
हो,
वही अशुभ।
ऐसा ही समझो
कि अगर तुम
मुझसे पूछो कि
अंधेरा क्या
है तो मैं
कहूंगा : दीया
जलाने पर जो न
बचे वह अंधेरा;
और दीया न
जलाने पर जो
बचे, वह
अंधेरा। दीये
के जलते ही
अंधेरा खो
जाता है।
कर्ता के
मिटते ही
बुरापन अपने—
आप खो जाता
है। तुम्हारे
हटाये न हटेगा,
तुम्हारे
हटाने में तो
मौलिक भूल
मौजूद बनी है।
आकाशवत हो
जाओ!
एकस्मिन्नव्यये
शाते
चिदाकाशेउमले
त्वयि।
कुतो
जन्म कुछ:
कर्म
कुतोग्हंकार
एव च।।
हरि ओंम
तत्सत्!
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