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बुधवार, 19 मार्च 2014

पंतजलि: योगसूत्र--(भाग-1) प्रवचन--14

बीज ही फूल है--प्रवचन--चौदहवां

दिनांक 4 जनवरी, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।
प्रश्‍न सार:

1—कृपया समझायें कि समय के अतराल के बिना एक बीज कैसे विकसित हो सकता है?

 2—क्या ईश्वर को समर्पण करना और गुरु को समर्पण करना एक ही है?

 3—क्या सतोरी के पश्चात गुरु की आवश्यकता होती है?

 4—श्रवण की कला क्या होती है? कृपया मार्गदर्शन करें।


पहला प्रश्‍न:

कृपया समझायें कि समय के अंतराल के बिना एक बीज कैसे विकसित हो सकता है?

 बीज तुम वह हो ही, समय की जरूरत पड़ती। तो समय लेने वाली विधि जरूर होगी। बीज विकसित लर हो सकता है बिना अंतराल के, बिना बीज वाले समयांतर के, क्योंकि बीज विकसित ही है। तुम वह हो ही, जो तुम हो सकते हो। यदि ऐसा न होता, तो बीज बिलकुल अभी खिल न सकता। तब समय की जरूरत पड़ती। तब झेन संभव न होता। तब केवल पतंजलि का मार्ग होता। यदि तुम्हें कुछ होना हो, तो समय लेने वाली विधि जरूरी होगी। लेकिन यही है बात समझ लेने की—जिन्होंने जाना है उन्होंने यह भी जाना कि कुछ होने की संभावना एक स्वप्न है। तुम अंतस सत्ता ही हो; तुम जैसे हो संपूर्ण हो।
अपूर्णता प्रकट हुई लगती है क्योंकि तुम गहरी नींद में हो। फूल खिल ही रहा है, केवल तुम्हारी आंखें बंद हैं। अगर बीज को फूल होने तक बढ़ना होता, तब ज्यादा समय की जरूरत होती। और यह कोई साधारण फूल नहीं; परमात्मा को खिलना है तुममें। तब शाश्वतता भी पर्याप्त न होगी, तब यह लगभग असंभव है। यदि तुम्हें खिलना हो, तब तो यह लगभग असंभव है। यह घटने वाला नहीं; यह घट सकता नहीं। अनंतकाल की आवश्यकता होगी।
नहीं, बात यह नहीं है। यह बिलकुल अभी घट सकता है इसी क्षण। एक क्षण भी नहीं गंवाना है। प्रश्न बीज के फूल होने का नहीं है, प्रश्न है आख खोलने का। तुम बिलकुल अभी अपनी आख खोल सकते हो, और तब तुम पाओगे कि फूल तो सदा से खिलता रहा है। वह कभी अन्यथा न था; यह दूसरे ढंग से हो नहीं सकता था।
परमात्मा सदा तुम्हारे भीतर होता है। जरा ध्यान से देखो और वह प्रकट हो जाता है। ऐसा नहीं है कि वह बीज में छिपा हुआ था; तुम्हीं उसकी ओर नहीं देख रहे थे। तो केवल इतने भर की जरूरत होती है कि तुम उसकी ओर ध्यान से देख लो। जो कुछ भी तुम हो, उस ओर देख लो, उसके प्रति जागरूक हो जाओ। नींद में चलने वाले की भांति मत चलो—फिरो।
इसीलिए ऐसा बतलाया जाता है कि बहुत सारे झेन गुरु जब वे संबोधि को उपलब्ध हुए, ठहाका मारकर हंसने लगे थे। उनके शिष्य समझ न सकते थे, उनके सहयात्री नहीं समझ सकते थे कि क्या घट गया। क्यों वे पागलपन से अट्टहास कर रहे हैं? क्यों है यह हंसी? वे हंस रहे होते हैं इस सारे बेतुकेपन पर। वे उसे खोज रहे थे जो मिला ही हुआ है; वे उस चीज के पीछे भाग रहे थे जो पहले ही उनके भीतर थी; वे कहीं और खोज रहे थे उसे, जो स्वयं खोजने वाले में ही छिपा था।
खोजी ही है खोज्य यात्री स्वयं ही है मंजिल। तुम्हें कहीं और नहीं पहुंचना है। तुम्हें केवल स्वयं तक पहुंचना है। ऐसा केवल एक क्षण में घट सकता है; एक क्षणांश भी काफी होता है। यदि बीज को फूल होना होता, तब तो अनंतकाल पर्याप्त न था क्योंकि फूल है परमात्मा। यदि परमात्मा तुममें पहले से ही है, तो बस मुड़कर देखना, जरा भीतर झांक लेना और यह घट सकता है।
फिर पतंजलि की जरूरत क्या? पतंजलि की जरूरत है तुम्हारे कारण। तुम इतना लंबा समय लेते हो तुम्हारी नींद में से निकलने के लिए! तुम इतना लंबा समय लेते हो तुम्हारे सपनों में से बाहर आने के लिए! तुम इतने उलझे हुए हो सपनों में! तुमने अपना इतना कुछ लगा दिया है सपनों में, कि इसीलिए समय की जरूरत है। समय की जरूरत इसलिए नहीं है कि बीज को फूल होना है, समय की जरूरत इसलिए है क्योंकि तुम अपनी आंखें नहीं खोल सकते। तुम बंद आंखों के इतने ज्यादा आदी हो गये हो कि यह एक गहरी आदत बन चुकी है। केवल यही नहीं—तुम बिलकुल भूल गये हो कि तुम बंद आंखों सहित जी रहे हो। इसे तुम बिलकुल ही भूल गये हो। तुम सोचते हो, 'कैसी नासमझी की बात है यह! मेरी आंखें तो खुली ही हुई हैं।और तुम्हारी आंखें हैं बंद।
यदि मैं कहता हूं ' अपने सपनों से बाहर आ जाओ', तो तुम कह देते हो, 'मैं जागा ही हुआ हूं।लेकिन यह भी एक सपना है। तुम सपना ले सकते हो कि तुम जागे हुए हो; तुम सपना ले सकते हो कि तुम्हारी आंखें खुली हैं। तब अधिक समय की जरूरत होगी। ऐसा नहीं है कि फूल पहले से ही नहीं खिला हुआ था, बल्कि यह तुम्हारे जाग जाने की बात ही इतनी कठिन थी।
तुम्हारे बहुत सारे न्यस्त स्वार्थ हैं। इनको समझ लेना है। अहंकार बुनियादी स्वार्थ है। यदि तुम अपनी आख खोल लो, तो तुम तिरोहित हो जाते हो। आख का खुलना मृत्यु की भांति प्रतीत होता है। ऐसा है। इसीलिए तुम इसके बारे में बातें करते हो; तुम इसकी चर्चा सुनते हो, तुम इसके बारे में सोचते हो, लेकिन तुम अपनी आख कभी नहीं खोलते क्योंकि तुम भी जानते हो कि यदि तुम वास्तव में अपनी आख खोल लो तो तुम मिट जाओगे। तब कौन होओगे तुम? एक न—कुछ। एक शून्यता। शून्यता यहां है, यदि तुम अपनी आंखें खोल लो तो। इसलिए यह सोचना बेहतर होता है कि तुम्हारी आंखें खुली ही हुई हैं। और तब तुम 'कुछ' बने रहते हो।
अहंकार पहला न्यस्त स्वार्थ है। अहंकार केवल तभी बना रह सकता है जब तुम सोये हुए हो। जैसे कि सपने केवल तभी बने रह सकते हैं जब तुम सोये हुए हो—आध्यात्मिक रूप से सोये हुए, अस्तित्वगत रूप से सोये हुए। आंखें खोलो अपनी। पहले तुम मिटते हो; फिर परमात्‍मा प्रकट होता है—यह है समस्या। और तुम भयभीत हो कि तुम कहीं मिट न जाओ। लेकिन वही है द्वार। तो तुम इसके बारे में चर्चा सुनते हो, तुम सोचते हो इसके बारे में, लेकिन तुम स्थगित किये चलते कल, और कल और कल के लिए।
इसलिए पतंजलि की आवश्यकता है। पतंजलि कहते हैं, तुरंत आख खोलने की कोई जरूरत नहीं, बहुत सारे सोपान हैं। तुम सोपानों द्वारा क्रमश: तुम्हारी नींद से बाहर आ सकते हो। कुछ चीजें तुम आज कर सकते हो कुछ चीज कल कर सकते हो, फिर कुछ चीजें परसों कर सकते हो, और इस सबमें लंबा समय लगने ही वाला है। पतंजलि तुम्हें रुचते हैं क्योंकि वे तुम्हे सोने को समय देते हैं। वे कहते हैं बिलकुल अभी तुम्हें अपनी नींद से बाहर आने की कोई जरूरत नहीं, बस करवट भर बदलना भी काम देगा। फिर थोड़ा सो लेना; फिर कुछ और कर लेना। फिर कुछ समय बाद, क्रम में चीजें घटेंगी।
वे बड़े लुभावने हैं। वे तुम्हें तुम्हारी नींद में से बाहर आने को फुसलाते हैं। झेन तुम्हारी नींद से तुम्हें झटके से बाहर लाता है। इसीलिए एक झेन गुरु तुम्हारे सिर पर चोट कर सकता है, लेकिन पतंजलि कभी नहीं। एक झेन गुरु तुम्हें खिड़की से बाहर फेंक सकता है, लेकिन पतंजलि कभी नहीं। एक झेन गुरु चौंकानेवाली विधि का उपयोग करता है। तुम झटके द्वारा तुम्हारी नींद में से बाहर लाये जा सकते हो, तो क्यों कोई तुम्हें राजी करने की कोशिश करता रहे? क्यों समय गंवाना?
पतंजलि थोड़ा— थोड़ा करके, धीरे— धीरे तुले साथ—साथ ले आते हैं। वे तुम्हें नींद से बाहर लाते हैं, और तुम जान भी नहीं पाते वे क्या कर रहे है। वे मां की भांति हैं। वे बिलकुल विपरीत बात करते हैं, लेकिन वे इसे करते हैं मां की भांति ही। मां बच्चे को सोने के लिए राजी करती है, वे तुम्हें नींद से बाहर आने के लिए राजी करते हैं। वह लोरी गा सकती है बच्चे को महसूस कराने को कि वह मौजूद है वहां, इसलिए उसे डरने की जरूरत नहीं। एक ही पंक्ति बार—बार दोहराने से, बच्चा नींद में बहला दिया जाता है। वह मां का हाथ थामे नींद में उतर जाता है। उसे चिंता करने की जरूरत नहीं होती। मां है और वह गा रही है, और गाना सुंदर है। और मां नहीं कह रही कि 'सो जाओ', क्योंकि वह बात अड़चन देगी। वह अप्रत्यक्ष रूप से ही राजा करवा रही है। और वह बच्चे को कम्बल ओढ़ा देगी और कमरे से बाहर चली जायेगी, और बच्चा गहरी नींद सो जायेगा।
बिलकुल यही पतंजलि करते हैं विपरीत क्रम में। धीरे— धीरे वे तुम्हें तुम्हारी नींद से बाहर ले आते हैं। इसीलिए समय की जरूरत पड़ती है; वरना फूल तो पहले से ही खिला हुआ है। देखो! यह पहले से ही है वहां। आख खोलो और वह वहां होता ही है; द्वार खोलो और वह वहां खड़ा प्रतीक्षा कर रहा है तुम्हारी। वह सदा से वहां खडा है।
यह निर्भर करता है तुम पर। यदि तुम्हें चौंकाने वाली विधि पसंद है, तब झेन है मार्ग। यदि तुम पसंद करते हो बहुत धीरे— धीरे होने वाली प्रक्रिया, तब योग है मार्ग। चुन लेना। चुनने में भी तुम बहुत चालाक हो। तुम मुझसे कहते हो 'कैसे चुन सकता हूं मैं?' यह भी एक चालाकी है। हर चीज साफ है। यदि तुम्हें समय की जरूरत है, पतंजलि को चुन लेना। यदि तुम झटकों से भयभीत हो, चुन लेना पतंजलि को। लेकिन चुन लेना। अन्यथा गैर—चुनाव स्थगन बन जायेगा। फिर तुम कह देते हो, 'चुनना कठिन है, लेकिन जब तक मैं चुन न लूं मैं कैसे आगे बढ सकता हूं!'
झटका देने की विधि सीधी होती है। यह फौरन तुम्हें सहज यथार्थ तक उतार देती है। मेरी अपनी विधियां चौंकाने वाली है। वे क्रमबद्ध नहीं हैं। मेरे साथ तुम इसी जन्म में प्राप्त करने की आशा कर सकते हो; पतंजलि के साथ बहुत—से जन्मों की आवश्यकता होगी। मेरे साथ तुम बिलकुल अभी प्राप्त कर लेने की आशा भी रख सकते हो। लेकिन फिर भी तुम्हें बहुत सारी चीजें करनी होंगी इससे पहले कि तुम प्राप्त करो।
तुम जानते हो अहंकार मिट जायेगा, तुम जानते हो कामवासना तिरोहित हो जायेगी। तब कामवासना की कोई संभावना नहीं होती। एक बार तुम उपलब्ध हो जाओ, ये बातें बेतुकी हो जाती हैं, हास्यास्पद। तो तुम सोचते हो, ' थोड़ी देर और। प्रतीक्षा करने में हर्ज क्या है? मुझे थोड़ा और रस लेने दो।क्रोध संभव न होगा, हिंसा की संभावना नहीं हलोई, ईर्ष्या नहीं होगी, मालकियत, चालाकियोभरी योजनाएं नहीं होंगी। वे सारी चीजें तिरोहित हो जायेंगी।
तुम अचानक अनुभव करते हो, 'यदि ये सब मिट जायेंगी, तो मैं क्या रहूंगा?' क्योंकि इन सबके सम्मिश्रण के, इन सबकी गठरी के अतिरिका तुम कुछ हो नहीं। यदि ये सब मिट जायें, तो केवल शून्यता बची रहती है। वह शून्यता तुम्हें डरा देती है। यह अगाध खाई जैसी जान पड़ती है। तुम अपनी आंखें बंद कर लेना चाहते हो और थोड़ी देर और सपने देख लेना चाहते हो। यह ऐसे है जैसे जब तुम सुबह उठते हो, और पांच मिनट के लिए दूसरी तरफ करवट लेना चाहते हो और थोड़ी ज्यादा देर सपना देखना चाहते हो क्योंकि इतना सुंदर था वह सपना।
एक रात मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी पत्नी को जगाया और उससे बोला, 'मेरा चश्मा फौरन लाओ। मैं इतना सुंदर सपना देख रहा था, और उससे भी ज्यादा अच्छे का आश्वासन था।
इच्छाएं हमेशा तुम्हें विश्वास दिलाये जा रही हैं। अधिक का हमेशा आश्वासन है। वे कहती हैं, यह कर लो। वह कर लो। जब संबोधि हमेशा संभव है तो क्यों जल्दी करनी? तुम कभी भी प्राप्त कर सकते हो; कोई जल्दी नहीं है। तुम इसे स्थगित कर सकते हो। यह अनंतकाल का प्रश्न है, अनंतकाल से संबंधित है, तो क्यों न इस क्षण आनंद मना लें? तुमने कभी आनंद मनाया नहीं, क्योंकि बिना आंतरिक समझ वाला आदमी किसी चीज का आनंद मना नहीं सकता है। वह सिर्फ पीड़ा भोगता है, हर चीज उसके लिए पीड़ा बन जाती है। प्रेम, प्रेम जैसी चीज—उसमें भी वह पीड़ा पाता है। सोये हुए आदमी के लिए सबसे अधिक सुंदर घटना संभव है प्रेम की, लेकिन वह उसके द्वारा भी पीड़ा भोगता है। जब तुम सोये हुए होते हो तो इससे बेहतर बात संभव नहीं। प्रेम महानतम संभावना है, लेकिन तुम इसके द्वारा भी पीड़ा पाते हो। क्योंकि सवाल प्रेम का या दूसरी किसी चीज का नहीं है। नींद है पीड़ा; अत: जो कुछ भी घटता है, उससे तुम पीड़ा पाओगे। नींद हर स्वप्‍न को दुःस्वम्न में बदल देती है। यह बड़े सुंदर ढंग से शुरू होता है, लेकिन कोई न कोई चीज हमेशा गलत हो जाती है कहीं न कहीं। अंत में तुम नरक तक पहुंच जाते हो।
हर इच्छा नरक तक ले जाती है। कहते हैं कि हर रास्ता रोम तक ले जाता है। मैं इस बारे में नहीं जानता, लेकिन एक चीज के प्रति निश्चित हूं—हर इच्छा नरक तक ले जाती है। आरंभ में इच्छा तुम्हें बहुत आशा देती है, सपने देती है—वही चालाकी है। इसी तरह तो तुम जाल में फंसते हो। यदि बिलकुल प्रारंभ से ही इच्छा कह दे, 'सजग रहना; मैं तुम्हें नरक की ओर ले जा रही हूं, तो तुम उसके पीछे चलोगे नहीं। इच्छा तुम्हें विश्वास दिलाती है स्वर्ग का, और यह तुम्हें विश्वास दिलाती है कि मात्र कुछ कदम चलने से तुम इस तक पहुंच जाओगे। यह कहती है, 'बस, मेरे साथ चलो।यह तुम्हें लुभाती है, तुम्‍हें सम्मोहित करती और तुम्हें बहुत सारी चीजों का आश्वासन देती, और तुम पीड़ा में होने के कारण सोचते हो, 'कोशिश करने में क्या बुराई है? मुझे थोड़ा इस इच्छा को भी आजमा लेने दो।
यह बात भी तुम्हें नरक तक ले जायेगी क्योंकि इच्छा अपने में ही नरक का मार्ग है। इसीलिए बुद्ध कहते हैं, 'जब तक इच्छाविहीन नहीं हो जाते, तुम आनंदमय नहीं हो सकते।इच्छा है पीड़ा, इच्छा है स्वप्न। और इच्छा तभी विद्यमान होती है जब तुम सोये हुए होते हो। जब तुम जागे हुए और सजग होते हो, तब इच्छाएं तुम्हें मूर्ख नहीं बना सकतीं। तब तुम उनके पार देख सकते हो। तब हर चीज इतनी स्पष्ट होती है कि तुम मूर्ख नहीं बनाये जा सकते। तब पैसा तुम्हें कैसे मूर्ख बना सकता है और कह सकता है कि जब धन हो तो तुम बहुत—बहुत खुश होओगे? धनी व्यक्तियों की ओर देख लो—वे भी नरक में हैं—शायद समृद्ध नरक में हों, लेकिन समृद्ध नरक बदतर ही होने वाला है दरिद्र नरक से। अब उन्होंने धन प्राप्त कर लिया है, और वे एकदम निरंतर बेचैनी की अवस्था में ही हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने बहुत धन इकट्ठा कर लिया, और फिर वह एक अस्पताल में दाखिल हुआ क्योंकि वह सो न सकता था। वह घबड़ाया हुआ था और निरंतर कंपता हुआ और डरा हुआ—किसी एक खास बात से डरा हुआ नहीं। एक गरीब आदमी भयभीत होता है किसी विशेष कारणवश; एक धनी आदमी तो मात्र भयभीत होता है। यदि तुम किसी विशेष बात के लिए भयभीत होते हो, तो किया जा सकता है कुछ। लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन तो बस भयभीत मात्र था और वह जानता नहीं था कि ऐसा क्यों है। क्योंकि जब उसके पास हर चीज थी तो भयभीत होने की कोई जरूरत न थी, लेकिन वह तो एकदम भयभीत था और कंप रहा था।
वह अस्पताल में दाखिल हुआ, और सुबह नाश्ते में कुछ चीजें लायी गयीं। उन कुछ चीजों में हिलते—कंपते जिलेटिन का एक कटोरा था। वह बोला, 'नहीं, मैं नहीं खा सकता इसे।डॉक्टर ने पूछा, तु_म इस बारे में इतनी जिद क्यों करते हो?' वह बोला, 'मैं अपने से अधिक बेचैन चीज को नहीं खा सकता।
धनी व्यक्ति बेचैन होता ही है। कौन—सी है उसकी घबड़ाहट, उसका भय? वह क्यों इतना डरा हुआ है? क्योंकि हर इच्छा पूरी हो चुकी है, और फिर भी हताशा बनी हुई है। अब वह सपना भी नहीं देख सकता, क्योंकि उन सारे सपनों में से गुजर चुका है और उसने देख लिया है कि वे कहीं नहीं ले जाते हैं। वह सपना नहीं देख सकता और न ही आख खोलने का साहस जुटा सकता है, क्योंकि न्यस्त स्वार्थ हैं। उसने अपनी नींद में बहुत सारी चीजों का वचन दिया हुआ है।
जब एक रात बुद्ध अपने महल से चले गये, वे अपनी पली को बता देना चाहते थे कि वे जा रहे हैं। वह उस बच्चे को सहलाना चाहते थे जो एक दिन पहले ही पैदा हुआ था, क्योंकि उन्हें फिर वापस न आना था। वे कमरे के एकदम द्वार तक गये। उन्होंने अपनी पत्नी की ओर देखा। वह गहरी निद्रा में सोयी हुई थी। वह जरूर सपना देख रही होगी। बालक को बाहों में लिये उसका चेहरा सुंदर था, मुसकुराता हुआ। उन्होंने कुछ क्षण प्रतीक्षा की द्वार पर, फिर वे लौट गये। वे कहना चाहते थे कि वे जा रहे हैं, लेकिन फिर वे भयभीत हो गये। यदि वे कुछ कह देते, तो पत्नी जरूर रोने लगती और चीखने लगती और एक तमाशा बना डालती।
और वे स्वयं से भी भयभीत थे, क्योंकि यदि वह रो पड़ती और चीखने—चिल्लाने लगती, तब शायद उन्हें अपने उन वचनों का खयाल आ जाता कि 'मैं तुम्हें हमेशा और हमेशा प्रेम करता रहूंगा, और मैं हमेशा—हमेशा के लिए तुम्हारे साथ रहूंगा।और यह बच्चा जो मात्र एक दिन का है इसका क्या करना होगा? वह तो, निस्संदेह, बच्चे को मेरे सामने ले आयेगी, उन्होंने सोचा, और वह कहेगी, 'देखो जरा, तुम मेरे साथ क्या कर रहे हो! फिर तुमने इस बच्चे को पैदा ही क्यों होने दिया था? और अब कौन होगा इसका पिता? क्या सिर्फ मैं ही इसके लिए जिम्मेदार हूं? तुम कायर की तरह भाग रहे हो।ये सारे विचार उनके मन में आये, क्योंकि नींद में तो हर कोई वचन देता है। हर कोई वचन दिये चला जाता है यह न जानते हुए कि वह उन्हें कैसे पूरा कर सकता है। लेकिन नींद में ऐसा होता है क्योंकि किसी को होश नहीं होता कि क्या हो रहा है।
अकस्मात वे सजग हो आये कि ये—ये बातें कही जायेंगी और फिर सारा परिवार इकट्ठा हो जायेगा—पिता और सब दूसरे। और वे पिता के इकलौते बेटे थे, और पिता उनकी ओर देख रहे होंगे; और अपनी नींद में उन्होंने वचन दिये हैं उन्हें भी। इसलिए वे बस निकल भागे। वे एकदम चोर की भांति भाग आये।
बारह वर्ष के पश्चात, जब वे वापस लौटे तो पहली बात जो पत्नी ने पूछी वह ठीक वही थी जिसके बारे में घर छोड़ने की रात उन्होंने सोचा था कि उसके मन में आयेगी। पत्नी ने उनसे पूछा, 'आपने मुझसे कह क्यों न दिया? यही पहली बात मैं आपसे पूछना चाहूंगी। इन बारह वर्षों से मैं आपकी प्रतीक्षा कर रही थी। आपने मुझसे कहा क्यों नहीं मे किस प्रकार का है यह प्रेम? आप तो मुझे एकदम छोड़ गये। आप कायर है।
बुद्ध शांतिपूर्वक सुनते रहे। जब पत्नी शांत हुई, चुप हो गयी तो वे बोले, 'ये सारे विचार मुझमें उठे थे। मै बिलकुल द्वार तक आ गया था, मैने द्वार खोल भी दिया था। मैंने तुम्हारी ओर देखा था। नींद में मैंने बहुत सारी चीजों का आश्वासन दिया था। लेकिन यदि मुझे जागना था, यदि मैं नींद से बाहर आने ही वाला था, तब मैं नींद में दिये वचनों को पूरा नहीं कर सकता था। और यदि मैंने वचनों को पूरा करने की कोशिश की होती, तो मैं जाग न सकता था।
'तो तुम ठीक ही हो। तुम सोच सकती हो कि मैं कायर हूं; तुम सोच सकती हो कि मैं महल से पलायन कर गया चोर की भांति; योद्धा की भांति नहीं, साहसी व्यक्ति की भांति नहीं। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं ठीक विपरीत है सचाई। क्योंकि जब मैं पलायन कर रहा था, मेरे लिए वह क्षण महानतम वीरता का क्षण था, क्योंकि मेरा संपूर्ण अंतस कह रहा था, यह अच्छा नहीं, कायर मत बनो। और यदि मैं रुक गया होता, यदि मैंने अपने सोये हुए अस्तित्व की सुन ली होती, तो फिर मेरे जाग जाने की कोई संभावना न होती।
'और अब मैं तुम्हारे पास आया हूं। अब मैं कुछ पूरा कर सकता हूं। केवल वही व्यक्ति जो संबोधि को उपलब्ध है, कुछ पूर्ण कर सकता है। वह व्यक्ति जो अज्ञानी होता है, कैसे कुछ पूर्ण कर सकता है? अब मैं तुम्हारे पास आया हूं। यदि मैं उस क्षण ठहर गया होता तो मैं तुम्हें कुछ न दे सकता था, लेकिन अब मैं एक विशाल निधि लाया हूं अपने साथ, और अब मैं इसे तुम्हें दे सकता हूं। रोओ—चिल्लाओ मत। अपनी आंखें खोलो और मेरी ओर देखो। मैं वही व्यक्ति नहीं हूं जो उस रात चला गया था। एक बिलकुल अलग मनुष्य आया है तुम्हारे द्वार। मैं तुम्हारा पति नहीं हूं। तुम मेरी पत्नी हो सकती हो, क्योंकि वह तुम्हारा भाव है, लेकिन मेरी ओर देखो। मैं समग्र रूप से अलग व्यक्ति हूं। अब मैं तुम्हारे लिए खजाना लाया हूं। मैं तुम्हें भी जाग्रत और बुद्ध बना सकता हूं।
पत्नी सुनती थी सब। वही समस्या हमेशा हर एक को आती है। उसने बच्चे के बारे में सोचना शुरू कर दिया। अगर वह संन्यासी हो जाती है और इस भिक्षु के साथ चल देती है, अपने पुराने पति के साथ, यदि उसके साथ चल पड़े, तो क्या होगा इस बालक का? वह कुछ न बोली थी पर बुद्ध बोले, 'मैं जानता हूं क्या सोच रही हो तुम, क्योंकि मैं उस कालावधि से गुजर चुका हूं जहां निद्राभरी अवस्था में वचन दिये जाते हैं जो सब भीड़ की तरह इकट्ठे हो जाते है और कहने लगते हैं. क्या कर रहे हो तुम? तुम सोच रही हो, जरा यह बच्चा कुछ बड़ा हो जाये। फिर इसका विवाह हो जाये। फिर वह महल और राज्य का भार ले सकता है, और फिर मैं तुम्हारा अनुगमन करूंगी। लेकिन ध्यान रहे, कोई भविष्य नहीं, कोई कल नहीं। या तुम बिलकुल अभी मेरे पीछे आओ या आना ही मत पीछे।
लेकिन सी का मन पुरुष—मन की अपेक्षा ज्यादा सोया हुआ है। और इसके कारण हैं। सी ज्यादा बड़ी स्‍वप्‍नजीवी होती है। वह सपनों में और आशाओं में ज्यादा जीती है। उसे गहन निद्रा में होना ही होता है अन्यथा उसका मां के रूप में उपयोग करना प्रकृति के लिए कठिन होगा। सी का गहन सम्मोहित अवस्था में रहना जरूरी होता है। केवल तभी वह नौ महीने तक बच्चे को गर्भ में संभाल सकती है और कष्ट पा सकती है। और फिर इस बच्चे का पालन—पोषण कर सकती है और दुख उठा सकती है। और फिर एक दिन यह बच्चा उसे छोड़ जाता है और दूसरी सी के पास चला जाता है, और वह व्यथित होती है।
यह एक इतना लंबा दुख है, कि एक सी के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह पुरुष की अपेक्षा अधिक नींद में हो। अन्यथा कोई कैसे इतनी लंबी पीड़ा झेल सकता है? और वह सदा आशा रखती है। फिर दूसरे बच्चे को लेकर आशा करती है, और फिर तीसरे बच्चे को लेकर, और उसका सारा जीवन व्यर्थ हो जाता है।
इसलिए बुद्ध ने कहा, 'मैं जानता हूं तुम क्या सोच रही हो। और मैं जानता हूं तुम मुझसे ज्यादा बड़ी स्वप्‍नद्रष्टा हो। लेकिन अब मैं आया हूं तुम्हारी निद्रा की तमाम जड़ों को काट देने के लिए। बच्चे को ले आओ। कहां है मेरा बेटा? ले आओ उसे।स्‍त्री—मन फिर एक चाल चल गया। वह राहुल को ले आयी, वह बच्चा जो अब बारह वर्ष का हो गया था, और वह कहने लगी, 'ये हैं तुम्हारे पिता। इनकी ओर देखो, ये भिखारी हो गये हैं! पूछो इनसे, क्या है इनका दाय? क्या दे सकते हैं ये तुम्हें? ये तुम्हारे पिता हैं। कायर हैं, चोर की भांति चले गये थे मुझसे कुछ कहे बिना ही। और वह एक दिन के शिशु को छोड़ चले गये थे। उनसे पूछो, देने को क्या है उनकी संपत्ति?'
बुद्ध हंस पडे और वह आनंद से बोले, 'मेरा भिक्षा पात्र लाओ।उन्होंने भिक्षा पात्र राहुल को दे दिया, और वह बोले, 'यह है मेरी कुल संपत्ति। मैं तुम्हें भिक्षु बनाता हूं। तुम दीक्षित हुए। तुम अब एक संन्यासी हो।और उन्होंने अपनी पत्नी से कहा, 'मैंने जड़ ही काट दी हैं। अब सपने देखने की कोई जरूरत न रही। तुम भी जाग्रत हो जाओ क्योंकि यही है जड़। राहुल संन्यासी हो ही गया है, इसलिए तुम भी जाग जाओ। यशोधरा, तुम भ?ऐाई जाग जाओ और संन्यासी हो जाओ।
ऐसा समय सदा आता है जब तुम उस संक्रमण—काल में होते हो जहां से निद्रा जागरण में परिवर्तित होती है। सारा अतीत तुम्हें रोकेगा। और अतीत शक्तिशाली होता है। भविष्य निर्बल होता है निद्रागत व्यक्ति के लिए। वह आदमी जो सोया हुआ नहीं है उसके लिए भविष्य शक्तिशाली होता है, उस आदमी के लिए जो गहरी निद्रा में है, अतीत शक्तिशाली होता है। जो आदमी गहरी नींद सोया है, उसकी पहचान केवल उन सपनों से है जो उसने अतीत में देखे थे। वह किसी भविष्य के प्रति जागरूक नहीं है। यदि वह भविष्य के बारे में सोचता भी है, तो वह सिर्फ अतीत का ही प्रतिबिंब होता है। अतीत ही फिर से प्रक्षेपित हो जाता है। जो व्यक्ति जागरूक है केवल वही भविष्य के प्रति जागरूक होता है। तब अतीत कुछ नहीं रहता।
इसे जरा खयाल में ले लेना। तुम शायद बिलकुल अभी न समझ पाओ लेकिन किसी दिन तुम समझ सकते हो। सोये हुए आदमी के लिए, कारण अधिक शक्तिशाली होता है परिणाम की अपेक्षा; फूल की अपेक्षा बीज अधिक शक्तिशाली होता है। जो व्यक्ति जागा हुआ है उसके लिए, कार्य अधिक शक्तिशाली होता है कारण से, फूल अधिक शक्तिवान होता है बीज से।
निद्रा का तर्क यही है कि कारण निर्मित करता है कार्य को, बीज निर्मित करता है फूल को। जागरण का तर्क इसके बिलकुल विपरीत है। वह है कि फूल निर्मित करता है बीज को, कार्य निर्मित करता है कारण को। यह भविष्य ही होता है जो उत्‍पन्‍न करता है अतीत को; न कि अतीत उलन्न करता है भविष्य को। लेकिन निद्रामय—चित्त के लिए, अधिक शक्तिशाली होता है अतीत, मृत, व्यतीत—जो कि है नहीं।
जो अभी होने को है, वह अधिक शक्तिशाली है। जो अभी जन्मने को है वह अधिक शक्तिशाली है क्योंकि जीवन रहता है वहां। अतीत के कोई प्राण नहीं। कैसे हो सकता है वह शक्तिशाली? अतीत तो पहले से ही कब्रिस्तान है। जीवन तो पहले से ही वहां से जा चुका है इसलिए यह होता है बीता हुआ। जीवन इसे छोड़ चुका। लेकिन कब्रिस्तान शक्तिशाली होते हैं तुम्हारे लिए। जो व्यक्ति जागरूकता के लिए है उसके लिए अभी जो होने को है, जो जन्म लेने को है अभी, ताजा, वह जो होने जा रहा है, ज्यादा शक्तिशाली बन जाता है। अतीत उसे रोके नहीं रख सकता।
अतीत रोकता है। तुम सदा पीछे की वचनबद्धताओं के बारे में सोचते हो; तुम सदा कब्रिस्तान के इर्द—गिर्द मंडराते रहते हो। तुम फिर—फिर जाते कब्रिस्तान की यात्रा करने और मृत को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने। हमेशा अपनी श्रद्धा उसे दो, जो होने को है क्योंकि जीवन वहां होता है।
'कृपया समझायें कि बिना समय के अंतराल के बीज विकसित कैसे हो सकता है?'
हां, यह विकसित हो सकता है क्योंकि यह विकसित है ही; खिला हुआ ही है। फूल निर्मित करता है बीज को, न कि बीज फूल को। फूल जो खिल रहा है, उसने संपूर्ण बीज का निर्माण किया है। लेकिन तुम्हें ध्यान में रख लेना है कि केवल द्वार खोलने की आवश्यकता होती है। खोलो द्वार; सूर्य वहां प्रतीक्षा कर रहा है। वस्तुत: यथार्थ में जीवन विकास नहीं है। निद्रा में यह विकास जैसा प्रतीत होता है।
अंतस सत्ता (बीईंग) वहां पहले से ही है। हर चीज जैसी है, पूर्ण ही है; पहले से ही परम है, आनंदमयी है। कोई चीज जोड़ी नहीं जा सकती; इसे संशोधित करने का कोई तरीका नहीं। फिर जरूरत किसकी होती है? केवल एक चीज की, कि तुम बोधपूर्ण हो जाओ और इसे देखो। ऐसा दो ढंग से घट सकता है या तो तुम्हें झटके से तुम्हारी नींद से बाहर लाया जा सकता है—जो है झेन। या तुम्हें नींद से बाहर लाने के लिए राजी किया जा सकता है, जो है योग। को। बीच में ही लटके मत रहना।

दूसरा प्रश्‍न:

क्या ईश्वर को समर्पण करना और गुरु को समर्पण करना एक ही है में

 मर्पण, विषय पर निर्भर नहीं करता। यह एक गुणवत्ता है खे तुम अपने अस्तित्व में ले आते हो। किसे करते हो तुम समर्पण, इससे कुछ संबंध नहीं। विषय कोई भी हो सकता है। तुम एक वृक्ष को कर सकते हो समर्पण; तुम नदी को कर सकते हो समर्पण; तुम किसी को कर सकते हो समर्पण—तुम्हारी पत्नी को, तुम्हारे पति को; तुम्हारे बच्चे को। पात्र की समस्या नहीं; किसी भी पात्र से बात बनेगी। समस्या है समर्पण करने की।
घटना घटती है समर्पण के कारण, तुम किसे समर्पण करते हो इस कारण नहीं। और यह सबसे सुंदर चीज है समझ लेने की—तुम जिस किसी को करते हो समर्पण, वह पात्र ईश्वर हो जाता है। ईश्वर को समर्पण करने का प्रश्न नहीं है। समर्पण करने के लिए ईश्वर को कहां पाओगे? तुम उसे कभी न पाओगे। समर्पण करो और जिसे भी तुम समर्पण करते हो, ईश्वर वहां है। बच्चा बन जाता है भगवान, पत्नी बन जाती है भगवान, गुरु बन जाता है भगवान, एक पत्थर भी हो सकता है भगवान।
पत्थरों के द्वारा भी लोग उपलब्ध हुए हैं, क्योंकि तुम किसे समर्पण करते हो इसका बिलकुल कोई सवाल ही नहीं। तुम समर्पण करते हो और वही सब कुछ उत्‍पन्न कर देता है, द्वार खोल देता है। समर्पण, समर्पण करने का प्रयास एक खुलापन ले आता है तुम तक। और अगर तुम एक पत्थर के प्रति खुले होते हो, तो तुम संपूर्ण अस्तित्व के प्रति खुले हो जाते हो, क्योंकि यह केवल खुलने की बात है। जब एक बार तुम खुलेपन को जान जाते हो और जो सुख—बोध यह घटना ले आती है उसका आनंद, वह आनंदोल्लास—जो मात्र एक पत्थर के प्रति खुले होने से घटता है, उसे पा लेते हो एक बार, तो तुम इतना नासमझ व्यक्ति नहीं खोज सकते जो तुरंत बाकी के सारे अस्तित्व के प्रति स्वयं को बंद कर लेगा। जब एक पत्थर के प्रति खुलना भी इतना आनंदपूर्ण अनुभव दे सकता है, तो फिर क्यों न संपूर्ण के प्रति खुले हो जाओ?
आरंभ में व्यक्ति किसी को समर्पण करता है, और फिर समस्त को समर्पण कर देता है। गुरु को समर्पण करने का यही अर्थ है; समर्पण करने के अनुभव में तुम एक सूत्र जान लेते हो, अब तुम सभी को समर्पण कर सकते हो। गुरु तो एक मार्ग बन जाता है गुजर जाने के लिए। वह एक द्वार बन जाता है, और उस द्वार के द्वारा तुम देख सकते हो संपूर्ण आकाश को।
ध्यान रहे, तुम समर्पण करने के लिए ईश्वर को नहीं पा सकते। लेकिन बहुत लोग इस ढंग से सोचते हैं। वे बहुत चालाक लोग हैं। वे सोचते हैं, 'जब ईश्वर हो तब हम समर्पण करेंगे।यह असंभव है क्योंकि ईश्वर केवल तभी होता है जब तुम समर्पण करते हो। समर्पण किसी चीज को भगवान बना देता है। समर्पण तुम्हें आख देता है। और हर चीज जो इस आख तक आती है दिव्य हो जाती है। दिव्यता, भगवत्ता समर्पण द्वारा दी गयी गुणवत्ता है।
भारत में ईसाई, यहूदी और मुसलमान हिंदुओं पर हंसते हैं क्योंकि वे वृक्ष की पूजा कर सकते है और वे पत्थर की पूजा कर सकते है। यह चाहे गढ़ा हुआ भी न हो; यह चाहे मूर्ति भी न बना हो। वे सड़क के किनारे का पत्थर खोज सकते हैं और फौरन इसी को ईश्वर बना सकते है। किसी कलाकार की आवश्यकता नहीं, किसी मूल्यवान प्रकार के पत्थर की भी नहीं; संगमरमर की भी नहीं। कोई साधारण पत्थर जो उपेक्षित हो चुका हो, वह भी काम दे देगा। शायद ऐसा हो कि यह पत्थर बाजार में न बिक सकता हो और इसीलिए यह वहां सड़क के किनारे पड़ा हुआ हो, लेकिन हिंदू तुरंत इसको ईश्वर बना सकते हैं। यदि तुम समर्पण कर सको तो यह दिव्य हो जाता है। समर्पण की दृष्टि दिव्य के अतिरिका कोई दूसरी चीज खोज ही नहीं सकती।
गैर—हिंदू हंसते रहे; वे नहीं समझ सकते थे। वे समझते हैं कि ये लोग पत्थर—पूजक हैं, मूर्तिपूजक। वे नहीं हैं। हिंदुओं को समझने में गलती हुई। वे मूर्तिपूजक नहीं हैं। उन्होंने कुंजी खोल ली है, और वह कुंजी यह है कि अगर समर्पण कर दो तो तुम किसी चीज को दिव्य बना सकते हो। और यदि तुम समर्पण नहीं करते तो तुम लाखों जन्मों तक ईश्वर को खोजते रह सकते हो, लेकिन तुम उससे कभी न मिलोगे, क्योंकि तुम्हारे पास वह गुणवत्ता नहीं है जिसका मिलन होता है; जो मिल सकती है, जो पा सकती है। तो प्रश्न है आत्मगत समर्पण का, समर्पण करने वाले विषय या पात्र का नहीं।
लेकिन निस्संदेह समस्‍याएं हैं। तुम ऐसे अकस्मात पत्थर को समर्पण नहीं कर सकते क्योंकि तुम्हारा मन कहे चला जाता है, 'यह तो मात्र एक पत्थर है। कर क्या रहे हो तुम? ' और अगर मन कहता ही जाये, 'यह तो पत्थर ही है, इस प्रकार क्या कर रहे हो तुम? '— तो तुम नहीं कर सकते समर्पण क्योंकि समर्पण को आवश्यकता होती है तुम्हारी समग्रता की।
इसीलिए गुरु की सार्थकता है। गुरु का अर्थ है वह, जो सीमा पर खड़ा हुआ—मनुष्य और दिव्यता की सीमा पर। वह जो तुम्हारी तरह मानवप्राणी रहा है, लेकिन जो अब तुम्हारी भांति नहीं रहा। वह जिसे कुछ और घट गया है, जो अतिरिका है—एक मनुष्य और कुछ और। इसलिए यदि तुम उसके अतीत को देखते हो, तो वह तुम्हारी तरह ही होता है लेकिन यदि तुम उसके वर्तमान और भविष्य को देखते हो, तब तुम उस 'कुछ और' को, अतिरिका को देखते हो। तब वह दिव्यता होता है।
पत्थर को, नदी को समर्पण करना कठिन है, बहुत—बहुत कठिन। यदि गुरु को समर्पण करना भी इतना कठिन है तो पत्थर को समर्पण करना जरूर बहुत कठिन होगा ही; क्योंकि जब कभी तुम गुरु को देखते हो तो फिर तुम्हारा मन कह देता है, 'यह मेरी तरह का मनुष्य—प्राणी है, तो उसे समर्पण क्यों करना? ' ुम्हारा मन वर्तमान को नहीं देख सकता; मन केवल अतीत को देख सकता है कि वह आदमी तुम्हारी तरह पैदा हुआ था, कि वह तुम्हारी तरह भोजन करता है और वह तुम्हारी तरह सोता है, तो क्यों करना उसे समर्पण? वह तो बिलकुल तुम्हारी तरह ही है।
वह तुम्हारी तरह है और फिर भी वह नहीं है। वह जीसस और क्राइस्ट दोनों है। जीसस जो मानव है, मानव—पुत्र और क्राइस्ट—अतिरिका, कुछ और। यदि तुम केवल प्रकट दृश्य को देखते हो, तो वह पत्थर की भांति होता है। तब तुम समर्पण नहीं कर सकते। यदि तुम प्रेम करते हो, यदि तुम आत्मीय हो जाते हो, यदि तुम उसकी मौजूदगी को अपने में गहरे उतरने देते हो, यदि तुम गहन एकात्मता खोज सकते हों—यही है सही शब्द, उसके अस्तित्व के साथ गहन एकात्मता (रैपर्ट) —तब अचानक तुम उस 'कुछ और' के प्रति जागरूक हो जाते हो। वह मनुष्य से कुछ ज्यादा होता है। किसी अज्ञात ढंग से, उसके पास कुछ है जो तुम्हारे पास नहीं। किसी अदृश्य ढंग से, वह मनुष्य की सीमा के पार उतर चुका है। लेकिन इसे तुम तभी महसूस कर सकते हो जब एक गहन एकात्मता हो।
यही है जिसे पतंजलि कहते हैं, श्रद्धा; श्रद्धा एकात्मता निर्मित करती है। एकात्मता (रैपर्ट) आंतरिक समस्वरता है दो अदृश्यों की। प्रेम है एक घनिष्ठता। किसी के साथ तुम्हारा एकदम तालमेल बैठ जाता है जैसे कि तुम दोनों एक—दूसरे के लिए ही उलन्न हुए। तुम इसे प्रेम कहते हो। एक क्षण में, पहली दृष्टि में ही, बस किसी का तुम्हारे साथ तालमेल हो जाता है, जैसे कि तुम साथ—साथ निर्मित हुए और अलग हुए, और अब तुम फिर मिल गये हो।
दुनिया भर के पुराणों की कथाओं में यह कहा गया है कि सी और पुरुष एक साथ बनाये गये। भारतीय पौराणिक कथाओं में एक बहुत सुंदर कथा है। वह पौराणिक कथा है कि पत्नी और पति की रचना बिलकुल प्रारंभ से जुड़वों की भांति की गयी; भाई और बहन की भांति। वे पति और पत्नी एक साथ उलन्न हुए थे जुड़वां की भांति; एक गर्भ में साथ—साथ। बिलकुल प्रारंभ से ही एक आत्मीयता थी। पहले क्षण से ही गहन एकात्म था। वे गर्भ में साथ—साथ थे एक—दूसरे को थामे हुए— और यही घनिष्ठता है। फिर, किसी दुर्भाग्य के कारण, वह घटना पृथ्वी पर से मिट गयी।
लेकिन पौराणिक कथा कहती है कि अब तक खी और पुरुष के बीच एक नाता बना हुआ है। पुरुष यहां पैदा हो जाये और सी हो सकता है अफ्रीका में, अमरीका में पैदा हो, लेकिन एक गहरा संबंध होता है। और जब तक वे एक—दूसरे को खोज नहीं लेते, कठिनाई रहेगी। और उनके लिए एक—दूसरे को खोज लेना बहुत कठिन होता है। संसार इतना बड़ा है, और तुम जानते नहीं कहां खोजना है और कहां पता लगाना है। अगर यह घटता है, तो यह संयोगवशांत घटता है।
अब वैज्ञानिक भी मानते हैं कि कभी न कभी हम इस रैपर्ट को, इस एकात्‍म्‍य को औक लेंगे वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा। और इससे पहले कि कोई विवाह करे, उस जोड़े को प्रयोगशाला में जाना होगा जिससे वे पता लगा सकें कि उनकी जीव—ऊर्जा का मेल बैठता है या नहीं। यदि यह ठीक नहीं बैठता, तो वे भ्रम में पड़े हैं। यह विवाह चल नहीं सकता। वे शायद सोच रहे हों कि वे बहुत सुखी रहेंगे, लेकिन वे नहीं रह सकते क्योंकि भीतर की जीव—ऊर्जा का तालमेल नहीं बैठता।
इसलिए हो सकता है शायद तुम्हें खी की नाक पसंद आये और सी को तुम्हारी आंखें पसंद आ सकती हैं, लेकिन उसमें कोई मतलब नहीं है। आंखें पसंद करना मदद न देगा, नाक पसंद करना काम न देगा, क्योंकि दो दिन के बाद कोई नहीं देखता नाक की तरफ और आंखों की तरफ। फिर तो जीव—ऊर्जा की समस्या हो जाती है। आंतरिक ऊर्जाएं एक—दूसरे से घुलती—मिलती रहनी चाहिए, अन्यथा वे दोनों विद्रोह कर देंगी। यह बिलकुल ऐसा है जैसे कि तुम रकादान लो, तो या तो तुम्हारी देह इसे ग्रहण कर लेती है या फिर उसे अस्वीकृत कर देती है। क्योंकि रका के कई प्रकार होते हैं। यदि रका उसी प्रकार का होता है, केवल तभी शरीर इसे ग्रहण करता है; वरना यह एकदम अस्वीकृत ही कर देता है।
यही विवाह में घटता है। यदि जीव—ऊर्जा स्वीकार करती है तो यह स्वीकार होता है। और कोई सचेतन ढंग नहीं है इसे जानने का। प्रेम बहुत भांति पैदा करवाता है क्योंकि प्रेम सदा किसी खास चीज पर केंद्रित होता है। सी की आवाज अच्छी हो, और तुम मोहित हो जाते हो। लेकिन पूरी बात यह नहीं है। यह एक आशिक चीज है। संपूर्ण का तालमेल होना चाहिए। दो जीव—ऊर्जाओं को इतनी समग्रता से एक—दूसरे को ग्रहण करना चाहिए कि गहन तल पर तुम एक प्राण हो जाओ। यह होती है एकात्मता। ऐसा बहुत कम घटता है प्रेम में क्योंकि सही साथी को खोजने की समस्या है। यह तो और भी दुःसाध्य है। मात्र प्रेम में पड़ना पकी कसौटी नहीं है। हजार प्रेम—संबंधों में से नौ सौ निन्यानबे बार प्रेम असफल होता है। प्रेम एक असफलता सिद्ध हुआ है।
इससे कहीं ज्यादा गहन आत्मीयता घटती है गुरु के साथ। यह प्रेम से ज्यादा बड़ी होती है। यह श्रद्धा है। केवल तुम्हारे प्राण—ऊर्जा का ही नहीं, बल्कि तुम्हारी आला का ही समग्र तालमेल बैठ जाता है। इसीलिए जब कभी कोई शिष्य हो जाता है तो सारा संसार सोचता है कि वह पागल है; क्योंकि संसार समझ नहीं सकता कि बात क्या है। क्यों तुम पागल हुए जा रहे हो इस आदमी के पीछे? और तुम उसे समझा भी नहीं सकते, क्योंकि यह समझाया नहीं जा सकता है। शायद तुम चेतन रूप से जान भी न पाये हो कि क्या घट गया, लेकिन किसी पर अचानक तुम्हारी श्रद्धा हो जाती है। अकस्मात कुछ मिल जाता है, एक हो जाता है। यह है रैपर्ट—एकात्‍म्‍य।
वह एकात्‍म्‍य पत्थर के साथ होना कठिन है। क्योंकि जीवित गुरु के साथ भी वह एकात्‍म्‍य हो पाना कठिन होता है तो इसे तुम पत्थर के साथ कैसे पा सकते हो? लेकिन यदि ऐसा होता है तो तत्‍क्षण गुरु भगवान हो जाता है। शिष्य के लिए गुरु हमेशा भगवान होता है। वह गुरु और किसी के लिए भगवान न भी हो, लेकिन यह महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन इस शिष्य के लिए वह भगवान है और उसके द्वारा भगवत्ता के द्वार खुलते हैं। तब तुम चाबी पा लेते हो। चाबी है यह आंतरिक घनिष्ठता, यही समर्पण। तुम इसे आजमा सकते हो। उदाहरण के लिए, किसी नदी को समर्पण कर दो।
तुमने पढ़ी होगी हरमेन हेस की 'सिद्धार्थ'। सिद्धार्थ बहुत सारी बातें सीखता है नदी से। तुम उन्हें बुद्ध से नहीं सीख सकते। वह बस नदी को देखता रहता, नदी की अनेक—अनेक भाव भंगिमाओं को। उसके आस—पास की हजारों जलवायु परिवर्तनों को देखते—देखते वह नाविक हो जाता है। कई बार नदी खुश होती और नाच रही होती। और कई बार बहुत—बहुत उदास होती, जैसे कि बिलकुल निश्चल हो। कई बार वह बहुत क्रोध में होती—सारे अस्तित्व के विरुद्ध, और कई बार बहुत प्रशांत और शांतिमय होती बुद्ध की भांति। और सिद्धार्थ मात्र एक नाविक है। वह नदी से गुजरता है, नदी के करीब रहता है, नदी को देखता है। कुछ और करने को नहीं है। यह बात एक गहरा ध्यान और गहन एकाक्य बन जाता है। और नदी द्वारा तथा उसकी 'नदीमयता' द्वारा वह प्राप्त कर गया। वह उसी झलक को उपलब्ध हो गया जैसी हेराक्लतु को मिली।
तुम उसी नदी में उतर सकते हो और नहीं भी उतर सकते। नदी वही है और वही नहीं भी है। यह एक बहाव है, और नदी तथा उसमें बनी आत्मीयता के द्वारा वह सारे अस्तित्व को नदी के रूप में जान पाया—नदीमयता के रूप में।
ऐसा किसी भी चीज के साथ घट सकता है। बुनियादी चीज है समर्पण; इसे ध्यान में रखो।
'क्या ईश्वर को समर्पण करना और गुरु को समर्पण करना एक ही बात है? ' ां। समर्पण हमेशा वही होता है। यह तुम पर निर्भर है कि तुम किसे समर्पण कर पाओ। व्यक्ति को ढूंढो, नदी को खोजो, और समर्पण कर दो। यह एक जोखम है। बड़े से बड़ा जोखम है। तुम अशांत प्रदेश में विचर रहे होते हो और तुम इतनी ज्यादा शक्ति दे रहे होते हो उस व्यक्ति को या उस चीज को, जिसे कि तुम समर्पण करते हो।
यदि तुम मुझे समर्पण करते हो तो तुम मुझे समग्र शक्ति दे रहे हो। तब मेरी हां तुम्हारी हां है, मेरी नहीं तुम्हारी नहीं है। यदि मैं दिन में भी कहता हूं यह रात है, तुम कहते हो, 'हां, यह रात है।तुम किसी को समग्र शक्ति दे रहे हो। अहंकार रोकता है। मन कहता है, यह अच्छा नहीं। स्वयं पर नियंत्रण रखो। कौन जाने यह आदमी तुम्हें कहां ले जाये? कौन जाने, वह कह दे, पहाड़ के शिखर से कूद पड़ी। और फिर तुम मर जाओगे। कौन जाने, यह आदमी तुम्हें चालाकी से चलाये, तुम पर नियंत्रण करे, तुम्हारा शोषण करे। मन ये तमाम चीजें बीच में ले आयेगा। यह एक जोखम है, और मन सुरक्षा के सारे उपाय कर लेता है।
मन कहता है, 'सचेत रहना। इस आदमी को थोडा और परख लो।यदि तुम मन की सुनते हो, तो समर्पण संभव नहीं। मन ठीक कहता है। यह एक जोखम है। लेकिन जब कभी तुम समर्पण करते हो, यह एक जोखम ही बनने वाला है। जांचना—परखना कोई बहुत मदद न देगा। तुम सदा ही जांच करते रह सकते हो और शायद तुम निर्णय न ले सको क्योंकि मन कभी निर्णय नहीं ले सकता। मन उलझाव है। यह कभी निर्णायक नहीं होता। तुम्हें मन से बच निकलना होता है किसी न किसी दिन, और तुम्हें मन से कहना ही होता है, 'तुम ठहरो, मैं जाऊंगा, मैं कूद जाऊंगा और देखूंगा क्या घटता है!'
वस्तुत: क्या खोना है तुम्हें? मैं हमेशा आश्चर्य करता हूं कि तुम्हारे पास है क्या, जिसे खोने में तुम इतने भयभीत हो? जब तुम समर्पण करते हो तो तुम ला क्या रहे हो? कुछ नहीं है तुम्हारे पास। तुम इससे कुछ पा सकते हो, लेकिन तुम कुछ भी गंवा नहीं सकते क्योंकि तुम्हारे पास कुछ है नहीं गंवाने को।
तुमने सुना होगा कार्ल मार्क्स का प्रसिद्ध घोषवाक्य— 'दुनिया के मजदूरों, एक ,हो जाओ क्योंकि तुम्हारे पास गंवाने को कुछ भी नहीं, सिवाय तुम्हारी जंजीरों के।शायद यह सच हो, शायद यह सच न हो। लेकिन एक खोजा के लिए ठीक यही बात है। तुम्हारे पास खोने को है क्या, सिवाय तुम्हारी जंजीरों के, तुम्हारे अज्ञान के, तुम्हारे दुःख के? लेकिन लोग अपने दुख के प्रति भी बड़े आसक्त हो जाते हैं। अपने दुख से ही वे यूं चिपकते हैं जैसे कि यह कोई खजाना हो! यदि कोई उनका दुख दूर करना चाहे, वे हर तरह की अड़चनें खड़ी कर देते हैं।
मैं हजारों लोगों को देखता रहा हूं जिनके साथ ये अड़चनें और ये चालाकियां लगी हैं। यदि तुम उनका दुख दूर करना भी चाहो, तो वे चिपके रहते हैं। यह बात किसी तथ्य की ओर इशारा करती है—उनके पास कुछ और नहीं है। यही है एकमात्र 'खजाना' जो उनके पास है, इसलिए वे सोचते हैं, 'इसे मत ले जाओ क्योंकि कुछ भी न होने से हमेशा बेहतर होता है कुछ पास में होना।यह उनका तर्क है। कुछ पास में होना हमेशा बेहतर होता है कुछ भी पास न होने की अपेक्षा। कम से कम यह दुख तो होता है वहां।
यद्यपि तुम दुखी हो, तो भी तुम कुछ तो हो। तुम नरक लिये हुए हो तुम्हारे भीतर, लेकिन कम से कम तुम्हारे पास कोई चीज है तो! लेकिन इसे जरा देखना, इसका निरीक्षण करना। और जब तुम समर्पण करते हो तो ध्यान रखना कि तुम्हारे पास कुछ और नहीं है देने को। गुरु तुम्हारा दुख लेता है, और कुछ नहीं। वह तुम्हारा जीवन नहीं ले रहा; तुम्हारे पास यह है नहीं। वह केवल तुम्हारी मृत्यु ले रहा है। वह कोई मूल्यवान चीज नहीं ले रहा तुमसे। वह तो तुम्हारे पास है ही नहीं। वह केवल रही—कूडा ले रहा है; वह कबाड़खाना, जो तुमने बहुत जन्मों से इकट्ठा किया है और तुम बैठे हुए उस कूडे—कबाड़े के ढेर पर, सोचते हो कि यह तुम्हारा राज्य है!
कुछ नहीं ले रहा है वह। यदि तुम तैयार हो अपना दुख देने को, तो तुम उसका आशीष पाने के योग्य हो जाओगे। यह है समर्पण। और तब गुरु भगवान हो जाता है। कोई चीज, कोई व्यक्ति जिसे तुम समर्पण कर दो, वह दिव्य हो जाता है। समर्पण दिव्यता निर्मित करता है। समर्पण एक सृजनात्मक शक्ति है।

तीसर प्रश्‍न:

 क्या सतोरी के पश्चात गुरु की आवश्यकता होती है?

 हां। कुछ ज्यादा ही। क्योंकि सतोरी मात्र झलक है। और झलक खतरनाक होती है क्योंकि अब तुम अज्ञात क्षेत्र में प्रवेश करते हो। इससे पहले गुरु आवश्यक न था। इससे पहले तुम शांत संसार में बढ़ रहे थे। केवल सतोरी के बाद वह परम रूप से आवश्यक हो जाता है। क्योंकि अब किसी की आवश्यकता है जो तुम्हारा हाथ थामे और तुम्हें उसकी ओर ले जाये जो मात्र झलक नहीं है, बल्कि जो परम यथार्थ बन जाता है। सतोरी के बाद तुमने स्वाद पा लिया है। और स्वाद, और आकांक्षा निर्मित करता है। और स्वाद इतना चुंबकीय बन जाता है कि तुम इसमें पागलों की भांति तेजी से बढ़ जाना चाहोगे। अब होती है गुरु की आवश्यकता।
सतोरी के बाद और बहुत चीजें घटने वाली हैं। सतोरी ऐसी है जैसे एवरेस्ट के, गौरीशंकर के शिखर को साफ—साफ देख लेना। एक दिन किसी निर्मल स्वच्छ सुबह, उज्वल सुबह, जब धुंध नहीं होती, तुम हजारों मील दूर से देख सकते हो ऊंचे, खुले आकाश में उठते गौरीशंकर के सुंदर शिखर को। यह होती है सतोरी। अब वास्तविक यात्रा आरंभ होती है। अब सारा संसार व्यर्थ जान पड़ता है।
यह एक क्रांतिकारी मोड होता है। अब वह सब व्यर्थ हो जाता है जो तुम जानते थे। वह सब जो तुम्हारे पास था, एक बोझ हो जाता है। अब वह संसार, वह जीवन जिसे तुमने अब तक जीया था, एकदम तिरोहित हो जाता है स्वप्‍न की भांति, क्योंकि अब विराट घट गया है। और यह केवल सतोरी है, एक झलक। जल्दी ही धुंध वहां होगी, और शिखर दिखायी न देता रहेगा। बादल चले आयेंगे और शिखर खो जायेगा। अब तुम चेतना की एक नितांत अनिश्चित अवस्था में होओगे।
पहली बात समझने की होगी कि जो कुछ तुमने देखा, वास्तविक था या मात्र एक सपना था, क्योंकि कहां चला गया अब वह? वह तिरोहित हो गया। वह तो बस एक झरोखा था, मात्र एक अंतराल था। और तुम वापस आ गये हो, तुम्हारी अपनी दुनियां की ओर फेंक दिये गये हो।
संदेह उठ खड़े होंगे। जो कुछ देखा है तुमने, क्या वह सच था? क्या यह वस्तुत: था या कि तुमने उसका सपना देखा या उसकी कल्पना की? और कल्पना करने की संभावनाएं होती हैं। बहुत लोग्र कल्पना कर लेते हैं, अत: आशंका गलत नहीं होती है। बहुत बार तुम कल्पना करोगे। और तुम भेद नहीं कर सकते इसका कि क्या वास्तविक है और क्या अवास्तविक है। केवल गुरु बता सकता है, 'हां, चिंतित मत होओ। यह वास्तविक था', या गुरु कह सकता है, 'छोड़ो इसे। फेंको इसे। यह मात्र काल्पनिक बात थी।
केवल वही जिसने शिखर को जान लिया— और केवल दूर मैदान पर रह कर ही नहीं जाना, वह स्वयं शिखर को पा गया है; केवल वही जो स्वयं शिखर हो गया है, बता सकता है तुम्हें, क्योंकि उसके पास है कसौटी, उसके पास है निष्कर्ष। वह कह सकता है, 'फेंको भी इसे। कूड़ा—करकट है यह। केवल तुम्हारी कल्पना है यह।क्योंकि जब खोजी इन चीजों के बारे में सोचता चला जाता है, तो मन सपने देखना शुरू कर देता है।
बहुत लोग आते हैं मेरे पास। उनमें से केवल एक प्रतिशत के पास होती है वास्तविक चीज; निन्यानबे प्रतिशत लोग अवास्तविक बातें ले आते हैं। लेकिन यह कठिन होता है उनके लिए निर्णय लेना—कठिन ही नहीं, असंभव। वे नहीं निर्णय कर सकते। अकस्मात ऊर्जा का उफान अनुभव करते हो रीढ़ में, पीठ के मेरुदंड में। कैसे तुम इसका निर्णय करोगे कि यह वास्तविक है या अवास्तविक? तुम इसके बारे में बहुत ज्यादा सोचते रहे हो, तुम इसकी आकांक्षा भी करते रहे हो। अचेतन रूप से तुम इसके बीज बोते रहे हो कि ऐसा घटना चाहिए—कुंडलिनी जगनी चाहिए। और तुम पढ़ते रहे हो पतंजलि को, और तुम इस बारे में बातें करते रहे हो, और फिर तुम लोगों से मिलते हो जो कहते हैं कि उनकी कुंडलिनी जग गयी है।
तुम्हारा अहंकार बीच में चला आता है, और तब हर चीज मिश्रित हो जाती है। अकस्मात एक दिन तुम ऊर्जा का उफान अनुभव करते हो, लेकिन यह मन के निर्माण के सिवाय कुछ नहीं है। मन तुम्हें संतुष्ट करना चाहता है




 यह कह कर कि, 'चिंतित मत होओ—इतने ज्यादा मत होओ चिंतित। जरा देखो। तुम्हारी कुंडलिनी तो जाग गयी।और यह है मन की कल्पना मात्र। तो कौन करेगा निर्णय? और कैसे करोगे तुम निर्णय? तुम सच को जानते नहीं। केवल सत्य का अनुभव कसौटी बन सकता है कि यह सत्य है या कि असत्य यह निर्णय करने के लिए।
प्रथम सतोरी के पश्चात गुरु की जरूरत ज्यादा ही होती है। तीन होती हैं सतोरी। पहली सतोरी तो मात्र झलक है। यह कई बार नशों के द्वारा भी संभव होती है; यह संभव हो जाती है दूसरी बहुत सारी चीजों द्वारा; कई बार दुर्घटनाओं द्वारा भी। कई बार जब वृक्ष पर चढ़ते हुए, तुम नीचे गिर जाते हो, और यह ऐसा झटका होता है कि मन क्षण भर को ठहर जाता है। तब झलक होती है वहां, और तुम इतना सुख—बोध अनुभव करते हो कि तुम देह से बाहर ले जाये जाते हो। तुम कुछ जान लेते हो।
एक पल के भीतर तुम लौट आते हो। मन फिर सक्रिय हो उठता है। यह एक आघात मात्र था। बिजली के आघात द्वारा ऐसा सम्भव होता है, ईक्ष्लन के आघात द्वारा ऐसा सम्भव होता है, नशों द्वारा यह सम्भव होता है। कई बीमारियों में भी हो जाता है ऐसा। तुम इतने दुर्बल होते हो कि मन सक्रिय नहीं हो सकता, अत: अचानक तुम झलक पा लेते हो। कामवासना द्वारा यह सम्भव होता है। कामोन्माद में, जब सारा शरीर कैप जाता है, तब यह सम्भव हो जाता है।
जरूरी नहीं है कि पहली झलक आध्यात्मिक प्रयास द्वारा ही मिले। इसीलिए एल एस डी, मैस्कलीन, मारिजुआना, इतनी महत्वपूर्ण और आकर्षक हो उठी हैं। पहली झलक सम्भव है। और तुम नशे की पकड़ में आ सकते हो पहली झलक के कारण। यह स्थायी नशा बन सकती है, लेकिन तब यह बहुत खतरनाक होती है।
झलकियां मदद न देंगी। वे मदद कर सकती हैं लेकिन जरूरी नहीं कि कोई मदद उनसे पहुंचे। वे मदद कर सकती हैं केवल गुरु के आसपास ही, क्योंकि तब वह कहेगा, ' अब झलक के पीछे मत पड़े रहो। तुम्हें मिल गयी झलक, तो अब शिखर तक पहुंचने के लिए यात्रा शुरू करो।लक्ष्य केवल शिखर तक पहुंचने भर का ही नहीं है, अंततः स्वयं शिखर होना होता है।
तो ये तीन अवस्थाएं हैं। पहली है झलक पाना। यह बहुत तरीकों द्वारा सम्भव है, जरूरी नहीं कि वे धार्मिक किस्म के ही तरीके हों। एक नास्तिक भी पा सकता है झलक, वह व्यक्ति जो धर्म में रुचि नहीं रखता उसे मिल सकती है झलक। नशे, रासायनिक द्रव्य तुम्हें दे सकते हैं झलक। किसी ऑपरेशन के बाद भी जब तुम क्लोरोफार्म से बाहर आ रहे होते हो, तुम झलक पा सकते हो। और जब तुम्हें क्लोरोफार्म दी जा रही होती है और तुम गहरे से गहरे जा रहे होते हो, तुम झलक पा सकते हो।
बहुत लोग उपलब्ध हुए पहली सतोरी को; यह कोई बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हैं। यह दूसरी सतोरी तक पहुंचने के लिए एक पिछले चरण की तरह उपयोग की जा सकती है। दूसरी सतोरी संयोगवशात कभी नहीं घटती। वह घटती है केवल विधियों, तरकीबों और रहस्य विद्यालयों में गहन अभ्यास द्वारा क्योंकि दूसरी सतोरी तक पहुंचना एक लम्बा प्रयास होता है।
और फिर होती है तीसरी सतोरी, जिसे पतंजलि कहते हैं समाधि। वह तीसरी है, स्वयं शिखर हो जाना। दूसरी से भी तुम नीचे पहुंच सकते हो। तुम पहुंच जाते हो शिखर तक, और शायद यह असहनीय हो जाये।
      आनन्द भी कई बार बरदाश्त के बाहर होता है—केवल दर्द ही नहीं, बल्कि आनन्द भी। यह बहुत ज्यादा हो सकता है, अत: व्यक्ति वापस समतल में लौट आता है।
ऊंचे शिखर पर रहना कठिन है, बहुत कठिन। कोई वापस लौट आना चाहेगा। जब तक कि तुम स्वयं शिखर ही नहीं बन जाते, जब तक अनुभवकर्त्ता अनुभव नहीं बन जाता, यह बात खो सकती है। इसलिए तीसरी सतोरी तक, समाधि तक गुरु की आवश्यकता है। केवल जब अंतिम समाधि, वह परम समाधि घटती है तभी गुरु की आवश्यकता नहीं रहती।

चौथा प्रश्‍न:

 आपको सुनते हुए छत बार कुछ शब्द गहरे उतर जाते हैं और अकस्मात एक स्पष्टता तथा समझ होती है 1 जब मैं आपके द्वारा बोले शब्दों के प्रति स्तुत एकाग्र रहूं तभी ऐसा होता है फिर भी आपके शब्दों की ओर खास ध्यान दिये बिना आपको सुन रहे हों तो शांति उतरती है। वह भी उतनी ही आनन्ददायिनी होती है लेकिन तब शब्द और उनके अर्थ खो जाते है। कृपया आपको सुनने की कला के विषय में हमारा मार्गदर्शन कीजिए क्योंकि यह आपके श्रेष्ट ध्यानों में से एक है।

 ब्दों और उनके अर्थों की बहुत फिक्र मत लेना। यदि तुम शब्दों और उनके अर्थोंपर ज्यादा मनोयोग लगाते हो तो यह एक बौद्धिक चीज है। निस्संदेह कई बार तुम स्पष्टता प्राप्त कर लोगे। अचानक बादल छंट जाते हैं और सूर्य होता है वहां, लेकिन ये केवल क्षणिक बातें होंगी और यह स्पष्टता ज्यादा मदद न देगी। अगले पल यह जा चुकी होती है। बौद्धिक स्पष्टता ज्यादा काम की नहीं होती।
यदि तुम सुनते हो शब्दों और उनके अर्थों को तो हो सकता है तुम बहुत सारी चीजें समझ लो, लेकिन तुम मुझे न समझ पाओगे और तुम स्वयं को भी न समझ पाओगे। वे बहुत सारी चीजें बहुत लाभप्रद नहीं हैं। शब्दों की और अर्थ की फिक्र मत करना। मुझे सुनो जैसे कि मैं वक्ता नहीं हूं बल्कि एक गायक हूं जैसे कि मैं शब्दों में नहीं बोल रहा तुमसे, बल्कि ध्वनियों में बोल रहा हूं जैसे कि मै कोई कवि हूं।
अर्थ खोजने की जरा भी आवश्यकता नहीं कि मेरा अर्थ क्या है। शब्दों और अर्थों पर कोई ध्यान दिये बगैर मात्र मुझे सुनते हुए, स्पष्टता की अलग गुणवत्ता तुम्हारे पास चली आयेगी। तुम आनन्दमय अनुभव करोगे। तुम शांति, मौन और चैन अनुभव करोगे। यह है वास्तविक अर्थ।
मैं यहां तुम्हें निश्‍चित बातें समझा देने को नहीं हूं बल्कि तुम्हारे अस्तित्व के भीतर एक निश्‍चित गुणवंत्ता का सृजन कर देने को यहां हूं। मैं व्याख्या करने के लिए तुमसे बातें नहीं कर रहा हूं मेरा बोलना एक सृजनात्मक घटना है। मैं तुम्हें कोई चीज समझाने की कोशिश नहीं कर रहा। वह बात तुम पुस्तकों द्वारा भी कर सकते हो। लाखों दूसरे ढंग हैं ऐसी बातों को समझने के। मैं यहां हूं तुम्हें रूपांतरित करने के लिए।
मुझे सुनो सरलता से, निदोंषतापूर्वक, शब्दों और उनके अर्थों के बारे में कोई चिंता बनाये बिना। उस स्पष्टता को गिरा दो; वह बहुत काम की नहीं है। जब तुम सिर्फ मुझे सुनते हो, पारदर्शी रूप से, बुद्धि अब वहां न रही—हृदय से हृदय, गहराई से गहराई, अंतस से अंतस—तब बोलने वाला खो जाता है और सुनने वाला भी। तब मैं यहां नहीं होता और तुम भी यहां नहीं रहते। एक गहन एकात्‍म्‍य बनता है; सुनने वाला और बोलने वाला एक बन जाते हैं। और उस एकात्‍म्‍य में तुम रूपांतरित हो जाओगे। उस एकल को उपलब्ध होना ध्यान है। इसे ध्यान बनाओ—न कि चिंतन—मनन, न कि वैचारिक प्रक्रिया; तब शब्दों से ज्यादा बड़ी कोई चीज सम्प्रेषित होती है—अर्थों से परे की कोई चीज। वास्तविक अर्थ, परम अर्थ अवतरित होता है, चला आता है—कोई वह चीज जो शाखों में नहीं है और हो नहीं सकती।
तुम स्वयं पढ सकते ही पतंजलि को। थोड़ा—सा प्रयास और तुम समझ जाओगे उसे। मैं यहां इसलिए नहीं बोल रहा कि इस प्रकार तुम पतंजलि को समझने के योग्य हो जाओगे; नहीं, यह तो बिलकुल उद्देश्य नहीं है। पतंजलि तो एक बहाना भर हैं, एक खूंटी। मैं उन पर कुछ ऐसा टांग रहा हूं जो शास्त्रों के पार का है।
यदि तुम मेरे शब्दों को सुनते हो तो तुम पतंजलि को समझ जाओगे; एक स्पष्टता होगी। लेकिन यदि तुम मेरे नाद को सुनते हो, यदि शब्दों को नहीं बल्कि मुझे सुनते हो, तब वास्तविक अर्थ तुम्हारे लिए उद्घाटित हो जायेंगे। और उस अर्थ का पतंजलि से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। वह शाखों से पार का सम्प्रेषण है।

आज इतना ही।

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