दिनांक
18 नवंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्न
सार:
पहला
प्रश्न :
आपने
शास्त्र—पाठ
की महिमा
बताई। लेकिन
ऐसे कुछ लोग
मुझे मिले हैं
जिन्हें गीता
या रामायण
कंठस्थ है और
जो प्राय:
नित्य उसका
पाठ करते हैं, लेकिन
उनके जीवन में
गीता या
रामायण की
सुगंध नहीं।
तो क्या पाठ
और पाठ में
फर्क है? और
सम्यक पाठ
कैसे हो?
निश्चय
ही पाठ और पाठ
में फर्क है।
यंत्रवत दोहरा
लेना पाठ
नहीं। कंठस्थ
कर लेना पाठ
नहीं। हृदयस्थ
हो जाये तो ही
पाठ। और हृदय
तक पहुंचाना
हो तो अत्यंत
जागरूकता से
ही यह घटना घट
सकती है। कंठस्थ
कर लेना तो
जागने से बचने
का उपाय है।
जिस
काम को करने
में तुम कुशल
हो जाते हो
उसमें
जागरूकता की
जरूरत नहीं रह
जाती। नये—नये
कार चलाओ, नया—नया
तैरने जाओ, नई—नई
साइकिल चलानी
सीखो, तो
बड़ा होश रखना
पड़ता है; जरा
चूके कि गिरे।
चूक महंगी
पड़ती है। होश
रखना जरूरी हो
जाता है।
लेकिन जैसे ही
साइकिल चलानी
आ गई, कार
चलानी आ गई, तैरना आ गया,
फिर वैसे—वैसे
होश मद्धिम हो
जाता है, फिर
कोई जरूरत
नहीं रहती।
फिर तुम
सिग्रेट पीयो,
गाना गाओ, रेडियो सुनो
और कार चलाओ; मित्र से
बात करो, हजार
बातें सोचो..।
धीरे— धीरे
कार चलाना
इतना यंत्रवत
हो जाता है कि
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
कभी—कभी
ड्राइवर आख भी
झपका कर क्षण
भर को सो लेता है
और गाड़ी चलती
रहती है। करीब
अधिकतम
दुर्घटनायें
तीन और चार
बजे के बीच होती
हैं रात में।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि उस
क्षण गहरी
नींद का क्षण
है : ड्राइवर
की आख झपक
जाती है और वह
सोचता है सपने
में कि उसे
राह दिखाई पड़
रही है, तब
दुर्घटना घट
जाती है।
जैसे
—जैसे व्यक्ति
कुशल हो जाता
है किसी काम
में वैसे—वैसे
होश की जरूरत
नहीं रह जाती।
तो पाठ कुशलता
के लिए नहीं
कहा है मैंने कि
तुम कंठस्थ कर
लेना। उसी
कुशलता में तो
यह देश मरा। यहां
ऐसे लोग थे
जिन्हें वेद
कंठस्थ था, लेकिन
जीवन में कोई
वेद का
प्रस्फुटन न
हुआ, फूल न
खिले, सुगंध
न आई।
कहते
हैं,
सिकंदर वेद
की एक संहिता
को यूनान ले
जाना चाहता था
और उसने पंजाब
के एक गांव
में पता लगाने
की कोशिश की
कि वेद की
प्रति कहां
मिल सकेगी।
पता चल गया।
एक वृद्ध
ब्राह्मण के
पास ऋग्वेद की
संहिता थी।
उसने घर घेर
लिया। और उसने
ब्राह्मण से
कहा कि वेद की
संहिता मुझे
सौंप दो
अन्यथा घर, तुम, संहिता,
सबको जला
डाला जायेगा।
ब्राह्मण ने
कहा. इतने
परेशान होने की
जरूरत नहीं है,
कल सुबह
सौंप दूंगा, पहरा आप
रखें।
रात
भर का समय
क्यों चाहते
हो?
सिकंदर ने
पूछा। उसने
कहा कि रात भर
का समय चाहता
हूं ताकि पूजा—पाठ
कर लूं
पीढ़ियों से यह
संहिता हमारे
घर में रही है
तो इसे ठीक से
सम्मान से
विदा देना
होगा न! सुबह
आप को भेंट कर
देंगे। रात भर
हम पूजा—पाठ
कर लें, सुबह
आप ले लेंगे।
सिकंदर ने
सोचा. हर्ज भी
कुछ नहीं है।
पहरा तो लगा
था, भाग
कहीं सकता न
था ब्राह्मण।
लेकिन सिकंदर
ने यह सोचा भी
न था कि भागने
के और कोई
सूक्ष्म उपाय
भी हो सकते हैं।
यज्ञ की वेदी
पर हवन किया
और उसने
ऋग्वेद का पाठ
करना शुरू
किया।
सुबह
जब सिकंदर
पहुंचा तो
ऋग्वेद की
संहिता का
आखिरी पन्ना
ब्राह्मण के
हाथ में था।
वह एक—एक
पन्ना पढ़ता
गया और आग में
डालता गया।
उसका बेटा
बैठा सुन रहा
था। जब सिकंदर
पहुचा तो उसने
कहा. 'मेरे बेटे
को ले जाएं, इसे ऋग्वेद
कंठस्थ करवा
दिया है। यह
संहिता है।
शास्त्र तो
मैं दे नहीं
सकता था, उसकी
तो गुरु से
मनाही थी; लेकिन
बेटा मैं दे
सकता हूं,
इसकी कोई
मनाही नहीं
है!
सिकंदर
को तो भरोसा न
आया कि सिर्फ
एक बार दोहराने
से और पूरा
ऋग्वेद बेटे
को कंठस्थ हो गया
होगा! उसने और
पंडित बुलवाए, परीक्षा
करवाई—चकित
हुआ : वेद
कंठस्थ हो गया
था। स्मृति को
व्यवस्थित
करने के बहुत
उपाय खोजे गए
थे, इसलिए
बहुत दिनों तक
तो भारत में
हमने वेद को लिखे
जाने के लिए —स्वीकृति
नहीं दी; जरूरत
न थी। मनुष्य
का मन इस
भांति हमने
व्यवस्थित
किया था, ऐसी
प्रणालियां
खोजी थीं कि
जरूरत नहीं थी
कि किताब लिखी
जाए; मन पर
अंकित हो सकता
था।
मन
छोटी चीज नहीं
है। मस्तिष्क
बड़ी घटना है—संसार
में सबसे बड़ी
घटना है।
जितने परमाणु
हैं पूरे जगत
में उतनी
सूचनाएं
तुम्हारे
छोटे—से
मस्तिष्क में
समा सकती हैं।
जितने
पुस्तकालय
हैं सारे जगत
के,
सुविधा और
समय मिले तो
एक आदमी के
मस्तिष्क में
सब समा सकते
हैं। तुम अपने
मस्तिष्क का
कोई उपयोग
थोड़े ही करते
हो।
श्रेष्ठतम
दार्शनिक, विचारक,
मनीषी, वैज्ञानिक
भी दस—पंद्रह
प्रतिशत
हिस्से का
उपयोग करता है,
पच्चासी
प्रतिशत तो
ऐसे ही चला
जाता है। इस
पूरे मन को
व्यवस्थित
करने के उपाय
थे, इस
पूरे मन का
उपयोग करने के
उपाय थे।
स्मृति का
विज्ञान पूरा
खोजा गया था।
वेद कंठस्थ हो
जाते थे
यंत्रवत।
जैसे टेप पर
रिकार्ड हो
जाता है, ऐसे
ही स्मृति पर
रिकार्ड हो जा
सकते हैं। लेकिन
इससे कोई ज्ञानी
नहीं हो गया।
वेद कंठस्थ हो
गया, इसका
अर्थ इतना ही
हुआ कि मनुष्य
यंत्रवत दोहरा
सकता है; तोता
हो गया, ज्ञानी
नहीं हो गया।
उद्दालक
ने अपने बेटे
श्वेतकेतु को
कहा है कि बेटा
एक बात स्मरण
रखना, तू जा
रहा है गुरु
के घर, उसको
जान कर लौटना
जिसको जानने
से सब जान
लिया जाता है।
बेटा बहुत
परेशान हुआ।
उसने सब जान लिया,
लेकिन उसका
तो कोई पता न
चला जिसको
जानने से सब
जान लिया जाता
है। वह
निष्णात होकर,
वेद में
पारंगत होकर,
सभी
शास्त्रों का
ज्ञाता होकर
घर लौटा। बाप
ने आते ही
पहला प्रश्न किया—वह
डरा भी था मन
में कि कहीं
वही बात न
पूछे—'उसे
जान लिया जिसे
जानने से सब
जान लिया जाता
है?'
श्वेतकेतु
ने कहा : क्षमा
करें, गुरु जो
भी जानते थे, सब जान कर आ
गया हूं।
जितने भी
शास्त्र
उपलब्ध हैं सब
जान कर आ गया
हूं आप
परीक्षा ले
लें। परीक्षा
देकर आया हूं।
उत्तीर्ण हुआ
तो लौट सका
हूं। लेकिन उसका
तो कोई पता
नहीं चल सका
कि जिसको
जानने से सब
जान लिया जाता
है। तो उसके
बाप ने कहा :
फिर से जा
वापिस; क्योंकि
हमारे घर में
नाममात्र के
ब्राह्मण नहीं
हुए। हमारे
परिवार में
सदा से
वस्तुत: ब्राह्मण
होते रहे हैं;
नाममात्र
के ब्राह्मण
नहीं। जो
ब्रह्म को जाने,
वही वस्तुत:
ब्राह्मण है!
नाममात्र का
ब्राह्मण वेद
को जानता है, ब्रह्म को
नहीं। और
ब्रह्म को न
जाना .तो वेद को
जानने का कोई
भी अर्थ नहीं।
तू वापिस जा, कूड़ा—कर्कट
लेकर आ गया!
उसको जान कर आ
जिसको जानने से
सब जान लिया
जाता है।
कंठस्थ
कर लेना एक
बात है, इसमें
कुछ बहुत गुण
नहीं है; जागना
बिलकुल दूसरी
बात है।
कंठस्थ करने
से तुम्हारी
सूचनाओं का
संग्रह बढ़
जाता है, जागने
से तुम्हारे
चैतन्य में
क्राति घटती है।
जागने से दीया
जलता है।
जागने से तुम
प्रकाशित, आलोकित
होते हो।
जागने से तुम
बुद्ध होते
हो। जागने से
वेद कंठस्थ हो
या न हो; तुम
जो कहते हो
वही वेद हो
जाता है, तुम्हारा
शब्द—शब्द वेद
बन जाता है।
तो
पाठ पाठ में
भेद है। तुम
पढ़ सकते हो
गीता, कुरान, बाइबिल; और
ऐसे पढ़ते रहो
रोज—रोज तो
लकीर पर लकीर
पड़ती रहेगी।
रसरी आवत जात
है, सिल पर
पड़त निशान। वह
तो कुएं पर भी,
पत्थर पर भी
निशान बन जाता
है—कोमल—सी
रस्सी के आने—जाने
से। रोज—रोज
दोहराओगे तो
निशान बन
जाएंगे, तुम्हारे
मस्तिष्क में
धारे खिच
जाएंगे, उन
धारों के कारण
स्मृति पैदा
हो जाएगी।
स्मृति बोध
नहीं है, ज्ञान
नहीं है। तो
फिर कैसे पाठ
करोगे? पाठ
ऐसे करना कि
जब दोहराओ वेद
को तो दोहराना
न बने। यह
दोहराना न हो।
जब आज फिर पढ़ो
तुम गीता या
कुरान को तो
ऐसे पढ़ना जैसे
फिर नया, जैसे
कभी जाना ही
नहीं। और जाना
है भी नहीं। जान
ही लेते तो
पढ़ने की आज
जरूरत क्या
पड़ती! अब तक
नहीं जाना, इसीलिए तो
पाठ की जरूरत
है। जाना नहीं
है। कल तक चूक
गये, आज
फिर प्रयास
करते हो।
प्रयास नया
हो। प्रयास बहुत
जागरूक हो।
वेद को दोहराओ
या कुरान को, दोहराते
वक्त पीछे
साक्षी खड़ा
रहे। दोहराने में
खो मत जाना।
साक्षी पीछे
खड़ा रहे और
देखता रहे कि
तुम वेद पढ़
रहे, कुरान
पढ़ रहे, दोहरा
रहे। साक्षी
पीछे खड़ा
देखता रहे तो
कभी जब पढ़ते —पढ़ते
साक्षी पूरा
होता है..।
तो
तुम जो पढ़ते
हो,
उससे थोड़े
ही ज्ञान होने
वाला है। तो
पढ़ना तो बहाना
था, निमित्त
था, वह जो
पीछे जाग कर
खड़ा है, उसके
जागते —जागते
ज्ञान होता
है। इसलिए
जरूरी नहीं है
कि तुम वेद ही
पढ़ो, पक्षियों
के गीत भी सुन
लोगे अगर जाग
कर रोज, पाठ
हो जायेगा; झरने की कल—कल
सुन लोगे अगर
बैठ कर रोज तो
पाठ हो
जायेगा।
खयाल
रखना, वेद के
पढ़ने से थोड़े
ही ज्ञान का
जन्म होता है।
पढ़ना तो एक
निमित्त है।
कोई निमित्त
तो बनाना ही
होगा, ताकि
साक्षी बने।
साक्षी को
जगाने के लिए
निमित्त है।
और वेद से
प्यारा
निमित्त कहां
खोजोगे! कुरान
से और ज्यादा
मधुर निमित्त
कहां खोजोगे!
क्योंकि
कुरान आया
किसी ऐसे
व्यक्ति के
चैतन्य से जो ज्ञान
को उपलब्ध हो
गया था; कुरान
के उन वचनों
में मुहम्मद
की चेतना थोड़ी
न थोड़ी लिपटी
रह गई है।
मुहम्मद का स्वाद
इनमें होगा
ही। मुहम्मद
के शून्य से
उठे हैं ये
स्वर।
मुहम्मद का
संगीत इनमें
होगा ही। वेद
उठे हैं
ऋषियों की
अंतःप्रज्ञा
से, तो
जहां से उठती
है चीज, वहां
की कुछ खबर तो
रखती ही होगी।
गंगा कितनी ही
गंदी हो जाये
तो भी
गंगोत्री के
जल का कुछ हिस्सा
तो शेष रहता
ही है।
अच्छे
उपकरण हैं, लेकिन
ध्यान रखना :
उपकरण हैं।
असली काम
जागने का है।
इधर गीत
दोहराते रहना,
वेद का, कुरान
का, बाइबिल
का। उधर पीछे
जाग कर देखते
रहना। डूब मत
जाना, बेहोश
मत हो जाना, नहीं तो पाठ
हो जायेगा, स्मृति भी
बन जायेगी, एक दिन ऐसी
घड़ी आ जायेगी
कि तुम बिना
किताब को सामने
रखे दोहरा
सकोगे—लेकिन
उससे
तुम्हारे
जीवन में क्रांति
घटित न होगी।
पाठ पाठ में
निश्चित ही
भेद है।
बेहोशी में जो
भी बीत रहा है
वह बेहोशी को
मजबूत कर रहा
है। जो होश
में बीतता है
वह होश को मजबूत
करता है।
इसलिए जितने
ज्यादा से
ज्यादा क्षण
होश में बीतें
उतना शुभ है।
भोजन करो तो
होश पूर्वक।
इसलिए
तो कबीर कहते
हैं : 'उठूं —बैठूं?
सो
परिक्रमा!' अब मंदिर
जाने की और
परिक्रमा
करने की भी
कोई बात न
रही। अब तो
उठता—बैठता
हूं तो वह भी
परिक्रमा है।’खाऊं—पीऊं
सो सेवा!' अब
कोई परमात्मा
की उपासना
करने की जरूरत
नहीं, मंदिर
में जा कर भोग
लगाने की भी
कोई जरूरत
नहीं। खुद भी
खाता—पीता हूं
वह भी सेवा हो
गई है।
क्योंकि जो
खुद भी खा—पी
रहा हूं वहां
भी जाग कर देख
रहा हूं कि यह
भी परमात्मा
को ही दिया
गया। यहां
परमात्मा के अतिरिक्त
कुछ और है ही
नहीं। जाग कर
देखने लगोगे
तो प्रत्येक
कृत्य पूजा हो
जाता है और
प्रत्येक
विचार और
प्रत्येक तरंग
उसी के चरणों
में समर्पित
हो जाती है।
सभी उसका
नैवेद्य बन
जाता है और
सारा जीवन
अर्चना हो
जाती है।
लो
एक क्षण और
बीता
हम
हारे, युग
जीता।
बेहोशी
में गया क्षण
तो हार गये।
लो
एक क्षण और
बीता
हम
हारे, युग
जीता।
होश
में गया क्षण
कि तुम जीते, युग
हारा।
लो
एक क्षण और
बीता
हम
हारे, युग
जीता
होंठों
के सारे गम
आंखों
में कैद
चांदनी
के सिर का
एक
बाल और हुआ
सफेद
धूप
की नजर का
एक
अंग और बढ़ गया
सपने
के पैरों में
एक
कांटा और गड़
गया
रोते
रहे राम
अतीत
में समा गई
सीता
खतम
हुई रामायण
अब
शुरू करो
गीता।
लो
एक क्षण और
बीता
हम
हारे, युग
जीता।
लेकिन
चाहे रामायण
खतम करो और
चाहे गीता
शुरू करो, सोये—सोये
चला तो सब
व्यर्थ चला
जायेगा। सोया
सो खोया, जागा
सो पाया।
तो
जब मैं पाठ की
महिमा के लिए
कहता हूं तो
ध्यान रखना।
मैं तो चाहता
हूं तुम्हारा
पूरा जीवन पाठ
बने। गीता, कुरान,
बाइबिल
सुंदर हैं, लेकिन उतने
से काम न
चलेगा। जीवन
तो एक अविच्छिन्न
धारा है, घड़ी
भर सुबह पाठ
कर लिया और
फिर तेईस घंटे
भटके रहे, भूले
रहे, बेहोश
रहे—यह पाठ
काम न आयेगा।
यह तो ऐसा हुआ
कि घर का एक कोना
साफ कर लिया
और सारा घर
गंदा रहा, कूड़ा—कर्कट
उड़ता रहा—यह
कोना कहीं साफ
रहेगा? यह
तो ऐसा हुआ कि
सारा शरीर तो
गंदा रहा, मुंह
पर पानी के
छींटे मार लिए,
मुंह साफ—सुथरा
कर लिया। यह
कुछ धोखा
दूसरे को दे
रहे हो वह दे
दो; यह खुद
को धोखा काम न
आयेगा।
धर्म
तो
अविच्छिन्न
धारा बननी
चाहिए। सुबह
उठे तो उठने
में होश।
स्नान किया तो
स्नान में
होश। फिर बैठ
कर पूजा की, पाठ
किया तो पाठ
में, पूजा
में होश।
सुंदर कृत्य
है। फिर दूकान
गये तो दूकान
पर होश। बाजार
में रहे तो
बाजार में होश।
घर आये तो घर
में होश। सोने
लगे तो सोते आखिरी—आखिरी
क्षण तक होश।
शुरू—शुरू
में तो ऐसा
रहेगा कि
जागने में भी
होश खो—खो
जायेगा। कई
बार पकड़ोगे, छूट—छूट
जायेगा।
मुट्ठी
बंधेगी न, बिखर—बिखर
जायेगा। पारे
जैसा है होश; बांधो कि
छितर—छितर
जाता है।
लेकिन धीरे—
धीरे मुट्ठी
बंधेगी। तब
तुम चकित
होओगे कि जागने
में तो होश
बना ही रहता है;
एक दिन
अचानक तुम
चौंक कर पाओगे
कि नींद लग गई और
होश बना है।
उस दिन ऐसा
अभूतपूर्व
आनंद होता है!
उस दिन बांसुरी
बज उठी! उस दिन
बैकुंठ के
द्वार खुले!
उस दिन स्वर्ग
तुम्हारा
हुआ। जिस दिन
तुम सो जाओगे
रात में और
होश की धारा
बहती ही रही; तुमने देखा
अपनी देह को
सोए हुए, अपने
मन को शलथ, थका
हुआ, हारा
हुआ, पड़े
हुए; जिस
दिन तुम नींद
में भी जाग
जाओगे—बस फिर
कुछ करने को न
रहा, परिक्रमा
पूरी हो गई।
जागने में तो
अब जाग ही जाओगे,
जब सोने में
जाग गये...।
साधारणत: तो
हम जागे भी जागे
नहीं, सोये
हैं। होना
इससे उल्टा
चाहिए।
कहता
हूं. रे मन, अब
नीरव हो जा
ससर
सर्प के
सदृश्य
जहां
है उत्स वहीं
पर सो जा
साखी
बन कर देख
देह
का धर्म सहज
चलने दे
जो
तेरा गंतव्य
वहा
तक चल कर कोन
गया है
गल
जाने दे
स्वर्ण
रूप
में उसे स्वयं
ढलने दे।
जाना
कहीं है भी
नहीं। कब कोन
गया है! अगर
तुम सहज
साक्षी बन जाओ
तो स्वर्ण खुद
ढल जाता है, आभूषण
बन जाते हैं।
परमात्मा खुद
ढल आता है, सरक
आता है और तुम
दिव्य हो जाते
हो, तुम
बुद्ध हो जाते
हो।
कहता
हूं रे मन अब
नीरव हो जा
ससर
सर्प के
सदृश्य
जहां
है उत्स वहीं
पर सो जा।
और
उत्स तो
तुम्हारा
चैतन्य है।
उत्स तो
तुम्हारा
जागरण भाव है।
आये हो तुम
गहन जागृति से, उतरे
हो परमात्मा
से। वहीं है
तुम्हारी
जड़ों का
फैलाव।
जहां
है उत्स वहीं
पर सो जा
साखी
बन कर देख
देह
का धर्म सहज
चलने दे।
साखी
तुम बन जाओ।
ये दो शब्द
समझ लेने जैसे
हैं. साखी और
सखी। बस दो ही
मार्ग हैं—या
तो सखी बन जाओ, वह
प्रेम का
मार्ग है; या
साखी बन जाओ, साक्षी बन
जाओ, वह ज्ञान
का मार्ग है।
और जरा ही सा
फर्क है सखी
और साखी में, एक मात्रा
का फर्क है, कुछ बड़ा
फर्क नहीं।
तो
जो मैंने कहा
पाठ के लिए, वह
साक्षी बनने
को कहा।
साक्षी बन
जाओ। और तब तुम
चकित होओगे।
तब तुम्हारा
कोई झगड़ा न रह
जाएगा कि कोई
गीता पढ़ रहा
है, कोई
कुरान, कोई
धम्मपद, कोई
झगड़ा न रहा।
अगर तीनों ही
साखी को साध
रहे तो कोई
झगड़ा न रहा, क्योंकि
घटना तो साखी
से घटने वाली
है, कुरान
पढ़ने से नहीं,
न गीता पढ़ने
से। फिर क्या
झगड़ा है? अभी
तक झगड़ा रहा
है। झगड़ा रहा
है, क्योंकि
गीता वाला
कहता है, गीता
पढ़ने से ज्ञान
होगा; और
कुरान वाला
कहता है, कुरान
पढ़ने से होगा,
गीता पढ़ने
से कभी हुआ? कैसे हो
सकता है! मैं
तुमसे कहता
हूं. न तो गीता से
ज्ञान होता है
न कुरान से; ज्ञान होता
है साक्षी—
भाव से पाठ
करने से। फिर
बात बदल गई।
फिर तुम अगर
गीता को
साक्षी— भाव
से पढ़ो तो
गीता से हो
जाएगा; कुरान
को पढ़ो, कुरान
से हो जाएगा।
तुम
चकित होओगे यह
जान कर कि
कृष्णमूर्ति
जासूसी
उपन्यास के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
पढ़ते। जासूसी
उपन्यास से भी
हो जाएगा, साक्षी
की बात है।
तुम चकित ही
होओगे कि जासूसी
उपन्यास और
कृष्णमूर्ति!
पर कृष्णमूर्ति
ने कभी कुछ और
पढ़ा ही नहीं।
वे तो कहते
हैं मैं
सौभाग्यशाली
हूं कि मैंने
गीता, कुरान,
बाइबिल
नहीं पढ़े।
क्योंकि इतने
अभागे लोग उलझे
हैं, यह
देख कर बात तो
ठीक ही लगती
है। तो जासूसी
उपन्यास ही
पढ़ते रहे। पर
वहीं से हो जाएगा
अगर
होशपूर्वक
पढ़ा। अगर तुम
फिल्म भी होशपूर्वक
देख लो जाकर
तो ध्यान हो
रहा है। तुम
कहां हो, क्या
कर रहे, इससे
कोई भी संबंध
नहीं; कैसे
हो, जागे
हो कि सोये, बस इतना
स्मरण रहे।
अगर जागे नहीं
हो तो परमात्मा
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक देता है
और लौट—लौट
जाता है, तुम्हें
सोया पाता है।
तुम दस्तक
सुनते ही नहीं।
तुम नींद में
सुनते भी हो
तो कुछ का कुछ
समझ लेते हो।
आ
कर चले गए
क्षण
बार—बार
हो
कर उदार
कब
कितने छले गए!
बजी
खिड़कियां
हिली
पखुडिया
कलियों
पर कुछ छाये
मैंने
देखा
सूर्य
किरण से
दौड़
द्वार तक आए
किंतु
लगे दरवाजे
देखे
ठिठक
गए वे मौन
गुपचुप
के संवादों
जैसे
लौट गए
वे कोन!
सूरज
ढले गए
आ
कर चले गए
वे
खा कर चोट गए
वे
आए लौट गए
क्षण
बार—बार
होकर
उदार
कब
कितने छले गए!
प्रभु
तो आता है
प्रतिपल, तुम
जागते नहीं, मिलन नहीं
हो पाता।
प्रभु तो आता
है प्रति किरण,
प्रति श्वास,
प्रति धड़कन
हृदय की; लेकिन
तुम सोये होते,
मिलन नहीं
हो पाता। जैसे
मैं तुम्हारे
घर आऊं और तुम
गहरे सोये और
घर्राटे भरते
हो, तो
मिलन कैसे
होगा? प्रभु
से मिलना हो
तो जैसा प्रभु
जागा है ऐसा ही
तुम्हें
जागना होगा।
जागने का
जागने से मिलन
होगा। जागते
का सोते से
मिलन नहीं
होता। तुम
सोये पड़े, मैं
तुम्हारे पास
बैठा, तुम्हारे
सिर पर हाथ
रखे बैठा, तो
भी मिलन नहीं
होता—तुम सोये,
मैं जागा।
दो सोये
व्यक्तियों
के बीच मिलन
होता नहीं। एक
जागे और एक
सोये के बीच
भी मिलन नहीं
होता। दोनों
जागे तो मिलन
होता है।
साक्षी
बनो। और तब
तुम पाओगे कि
जो भी तुम कर
रहे,
धीरे—धीरे
सभी पाठ हो
गया।
दूसरा
प्रश्न :
मानव—जीवन
में झूठ से
लेकर बलात्कार
और हत्या तक
के अपराध फैले
हैं। आदिकाल
से संत
महापुरुषों
ने सदकर्म की प्रेरणा
दी है। इस
संदर्भ में
कृपा कर
समझाये कि आज
का प्रबुद्ध
वर्ग मानव—जीवन
की विकार—जनित
समस्याओं का
समाधान कैसे करे?
पहली
तो बात : भीड़
जैसी है वैसी
ही रही है और
वैसी ही रहेगी; इसमें
तुम अपने को
उलझाना मत।
जीवन के जो
परम सत्य हैं;
वे केवल
व्यक्तियों
को उपलब्ध हुए
हैं, भीड़
को नहीं। भीड़
को हो सकते
नहीं। कोई
उपाय नहीं।
भीड़ तो
मूर्च्छित
लोगों की है।
वहां तो धर्म
के नाम पर भी
पाप ही चलेगा।
वहां पाप ही
चल सकता है। वहां
तो अच्छे—
अच्छे नारों
के पीछे भी
हत्या ही
चलेगी। हिंदू
मुसलमानों को
काटेंगे, मुसलमान
हिंदुओं को
काटेंगे।
ईसाई मुसलमानों
को मारेंगे, मुसलमान
ईसाइयों को
मारेंगे। हिंदुओं
ने बौद्धों को
उखाड़ डाला, समाप्त कर
दिया।
आज
इस बात को कोई
उठाता भी नहीं
कि कितने बौद्ध
भिक्षु
हिंदुओं ने
जलाये, कितने
मठों में आग
लगाई। इस बात
को उठाने में भी
झंझट—झगड़ा खड़ा
हो सकता है।
इस बात को कोई
उठाता भी नहीं।
महावीर का
इतना बड़ा
प्रभाव था, जैनी सिकुड़—सिकुड़
कर थोड़े—थोड़े
कैसे होते चले
गये? कितने
जैन मुनि मारे
गये, जलाये
गये, कितने
मंदिर मिटाये
गये—इसका कोई
हिसाब नहीं।
हिसाब रखने की
सुविधा भी
नहीं। बात भी
उठानी ठीक
नहीं; उपद्रव
तन्धण खड़ा हो
जाये।
आदमी
ने धर्म के
नाम पर जितने
पाप किए, किसी
और चीज के नाम
पर नहीं किए।
राजनीति भी
पिछड़ जाती है
उस मामले में।
जितने लोग
धर्म के नाम
पर मारे गये और
मरे, उतने
तो लोग राज्य
के नाम पर भी
नहीं मारे गये
और मरे। अगर
पाप का ही
हिसाब रखना हो
तो एक बात तय
है कि धर्म से
बड़े पाप हुए
दुनिया में, और किसी चीज
से नहीं हुए।
और जिनको तुम
साधु —महात्मा
कहते हो, वे
ही जड़ में हैं
सारे उपद्रव
की; वे ही
तुम्हें
भड़काते हैं; वे ही
तुम्हें
लड़ाते हैं।
लेकिन नारे
सुंदर देते
हैं। नारे ऐसे
देते हैं कि
जंचते हैं।
अब
अगर सिक्ख
गुरु कह दे कि
गुरुद्वारा
खतरे में है, तो
मरने—मारने की
बात हो ही गई; जैसे कि
आदमी
गुरुद्वारा
को बचाने के
लिए था! अगर
मुसलमान
चिल्ला दें कि
इस्लाम खतरे
में है तो
मुसलमान पागल
हो जाते हैं—इस्लाम
को बचाना है!
यह बड़े मजे की
बात है। इस्लाम
को तुम्हें
बचाना है कि
इस्लाम
तुम्हें बचाता
था? कि कोई
गया और उसने
किसी के गणेश
जी तोड़ दिए, अब वह वैसे
ही बैठे थे
टूटने को
तैयार, इतना
भारी सिर, कोई
धक्का ही दे
दिया होगा, वे चारों
खाने चित्त हो
गये! खतरा हो
गया। हिंदू
धर्म खतरे में
हो गया! अब यह
जो मिट्टी के
गणेश जी गिर
गये या पत्थर
के गणेश जी
गिर गये, इनके
कारण न मालूम
कितने जीवित
गणेशों की
हत्या होगी।
और मजा यह है
कि इन गणेश की
तुमने पूजा की
थी कि ये
हमारी रक्षा
करेंगे, अब
इनकी रक्षा
तुम्हें करनी
पड़ रही है! यह
तो खूब अजीब
मजा हुआ। यह
तो खूब
विरोधाभास
हुआ।
तुम्हें
परमात्मा की
रक्षा करनी
पड़ती है? तुम्हें
धर्म की रक्षा
करनी पड़ती है?
तो यह धर्म
न हुआ, यह
तो तुम्हारा
ही फैलाव हुआ,
तुम्हारे
ही मन के जाल
हुए। और ये तो
बहाने हुए
लडने—लड़ाने,
मारने—मराने
के। फिर बड़े
आश्वासन दिए
जाते हैं। इस्लाम
के मौलवी
समझाते हैं कि
अगर धर्म—युद्ध
में मारे गये, जेहाद
में, तो
स्वर्ग
निश्चित है।
खूब प्रलोभन
दिए जाते हैं
कि जो धर्म—युद्ध
में मरा वह तो
प्रभु का
प्यारा हो
गया। कोई लौट
कर तो कहता
नहीं। लौट कर
कुछ पता चलता नहीं।
लेकिन मारने—मरने
से कोई कैसे
प्रभु का
प्यारा हो
जायेगा? प्रभु
का प्यारा तो
आदमी प्रेम से
होता है, किसी
और कारण से
नहीं। प्रभु
का तो जीवन है।
जो जीवन को
बढ़ाता, जिसकी
ऊर्जा जीवन
में सौभाग्य
के नये—नये
द्वार खोलती
है, जो
जीवन के लिए
वरदान—स्वरूप
है—उससे ही
प्रभु
प्रसन्न हैं।
जो उसके जीवन
के पक्ष में
है, उसी से
प्रभु
प्रसन्न हैं।
जो जितना
सृजनात्मक है
उतना धार्मिक
है।
भीड़
तो सदा उपद्रव
करती रही। भीड़
उपद्रव किए
बिना रह नहीं
सकती।
मनस्विद कहते
हैं कि ऐसी
मूर्च्छा है
भीड़ की कि उसे
कोई न कोई
बहाना चाहिए
ही लड़ने—मारने
को। तुमने
देखा!
हिंदुस्तान
में हिंदू—मुसलमान
इकट्ठे थे तो
हिंदू—मुसलमान
लड़ते थे! सोचा
था कि
हिंदुस्तान—पाकिस्तान
बंट जायेंगे
तो झगड़ा खतम
हो गया। झगड़ा
खतम नहीं हुआ।
जब हिंदू—मुसलमान
लड़ने को न रहे—लड़ने
वाले तो मिट
नहीं गये, आदमी
तो वही के वही
रहे—तो
गुजराती
मराठी से लड़ने
लगा। तो हिंदी
भाषी गैर
हिंदी भाषी से
लड़ने लगा। तो
एक जिला कर्नाटक
में हो कि
महाराष्ट्र
में, इस पर
छुरे चलने
लगे। अब यह
बड़े मजे की
बात है! पहले
तो सवाल था कि
हिंदू —मुसलमान
चलो विपरीत
धर्म हैं तो
झगड़ा है; अब
हिंदू हिंदू
से लड़ने लगा!
गुजराती भी
हिंदू है, मराठी
भी हिंदू है; लेकिन बंबई
पर किसका
कब्जा हो! तो
छुरे चलने लगे।
ऐसा लगता है, आदमी वही का
वही है।
तुम
जरा छोड़ दो, गुजराती
को अलग कर दो
बंबई से—मराठी
मराठी से
लड़ेगा।
देशस्थ है कि
कोकणस्थ?
विनोबा
से किसी ने
पूछा कि आप
देशस्थ
ब्राह्मण हैं
कि कोकणस्थ? विनोबा
ने कहा. 'मैं
स्वस्थ
ब्राह्मण हूं।’
बात तो ठीक
है, लेकिन
बहुत ठीक
नहीं। स्वस्थ
होना काफी है,
ब्राह्मण
जैसे गंदे
शब्द को बीच में
क्यों लाए? इतना ही कह
देते, मैं
स्वस्थ हूं।
स्वस्थ होने
का मतलब ही
ब्राह्मण
होता है।
स्वयं में जो
स्थित हो गया,
स्वस्थ, वह
ब्राह्मण। यह
पुनरुक्ति
काहे को की कि
मैं स्वस्थ
ब्राह्मण हूं?
क्योंकि
इसमें खतरा
है। कल स्वस्थ
ब्राह्मण अलग
झंडा लेकर खड़े
हो जाते हैं
कि मारो
कोकणस्थों को,
मारो
देशस्थों को,
हम स्वस्थ
ब्राह्मण हैं!
मगर ब्राह्मण
हैं! विनोबा
कृपा करते, ब्राह्मण को
और काट देते, स्वस्थ होना
काफी है। आदमी
स्वस्थ हो, बस पर्याप्त
है। स्वयं में
हो, बस
पर्याप्त है!
मगर बहुत थोड़े
—से व्यक्ति
ही स्वयं में
हो पाते हैं, भीड़ नहीं हो
पाती, भीड़
हो भी नहीं
सकती।
देखा
है भीड़ को
ढोते
हुए अनुशासन
का बोझ
उछालते
हुए अर्थहीन
नारे
लड़ते
हुए दूसरों का
युद्ध
खोदते
हुए अपनी
कब्रें
पर
नहीं सुना कभी
तोड़
लिया हो किसी
भीड़
ने बलात
व्यक्ति
की
अंतश्चेतना
में खिला
अनुभूति
का अम्लान
पारिजात!
व्यक्ति
की चेतना के
जो फूल हैं, वे
भीड़ ने कभी
नहीं तोड़े, भीड़ तोड़
सकती नहीं।
भीड़ कभी बुद्ध
नहीं बनती। कोई
व्यक्ति
बुद्ध बनता
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं कि आप
समाज के लिए
कुछ क्यों
नहीं करते? व्यक्ति
के लिए ही कुछ
किया जा सकता
है, समाज
के लिए कुछ किया
नहीं जा सकता।
और जैसे ही
तुम समाज के
लिए कुछ करने
को तत्पर होते
हो वैसे ही
तुम राजनीति
में उतर जाते
हो। धर्म का
संबंध
व्यक्ति से है,
समाज का
संबंध
राजनीति से
है। धर्म का
कोई संबंध
समाज से नहीं
है। धर्म तो
असामाजिक है।
धर्म तो
व्यक्तिवादी
है। क्योंकि
धर्म तो
व्यक्ति की
परिपूर्ण
स्वतंत्रता
में भरोसा
करता है, स्वच्छंदता
में।
पूछते
हो : 'मानव—जीवन
में झूठ से
लेकर
बलात्कार और
हत्या तक के
अपराध फैले
हैं।’
सदा
फैले रहे हैं, सदा
फैले रहेंगे।
यह तो ऐसा ही
है जैसे कि
कोई मेरे पास
आ कर कहे कि
देखते हैं आप
अस्पताल में
टी. बी. से लेकर
कैंसर तक की
बीमारियां
फैली हैं। अब
अस्पताल में
तो फैली ही
रहेंगी, अस्पताल
में न फैलेंगी
तो कहां
फैलेंगी? अस्पताल
तो है ही
इसीलिए।
अस्पताल में
कोई स्वस्थ
लोग थोड़े ही
रहेंगे! वहां
तो बीमारियां
ही रहेंगी। जो
बीमारी में है
वही तो
अस्पताल में
है। इसी को
अगर तुम पूरब
की मनीषा से
पूछो तो पूरब
की मनीषा कहती
है : जो पाप में
है वही तो भेजा
जाता है संसार
में। इनमें से
कुछ थोड़े—से
लोग इस सत्य
को समझ कर भीड़
के पार उठ
जाते हैं, कमलवत
हो जाते हैं।
फिर दुबारा
उनका आना नहीं
होता।
यह
संसार जिसको
तुम कहते हो, अस्पताल
है पापियों के
लिए। इसलिए तो
भारत में हमने
कभी आवागमन की
आकांक्षा
नहीं की। जो
जानते हैं वे
कहते हैं. 'हे
प्रभु, आवागमन
से छुडाओ! हे
कुंभकार, अब
इस मिट्टी को
मुक्त करो!
तुम्हारे चाक
पर घूम—घूम कर
हम थक गए। अब
छुट्टी दो।’ मोक्ष का
अर्थ क्या है?
इतना ही
अर्थ है कि
देख लिया बहुत,
यहां रोग ही
रोग हैं, इस
पार रोग ही
पलते है—अब उस
पार वापिस
बुला लो!
यह
तो किसी
व्यक्ति को
दिखाई पड़ता
है। भीड़ तो
दौड़ी जाती है
अंधों की
भांति—लोभ में, धन
में, पद
में, मर्यादा
में— भाग रही, दौड़ रही! इस
भीड़ के बीच
कोई एकाध छिटक
पाता है। वह
भी आश्चर्य है
कि कोई कैसे
छिटक पाता है।
भीड़ का जाल
बहुत मजबूत
है। भीड़ अपने
से बाहर किसी
को हटने नहीं
देती। भीड़ सब
तरह से तुम्हारी
छाती पर सवार
है और गर्दन
को पकड़े है।
कल
ही एक मित्र
पूछते थे कि ' आप
कहते हैं
निसर्ग से
जीएं, सहजता
से, स्वच्छंदता
से। बड़ी
मुश्किल है, क्योंकि फिर
समाज है, राज्य
है, अगर हम
स्वच्छंद भाव
से जीएं, अपने
ही भीतर के
छंद से जीएं, तो कई
अड़चनें खड़ी
होंगी।’
ठीक
पूछते हैं।
अड़चनें तो
होने वाली
हैं। वही अड़चन
तपश्चर्या
है। उनसे
मैंने कहा :
जहां तक बने
अपने स्वभाव
से जीयो और
जहां ऐसा लगे
कि जीना असंभव
ही हो जाएगा
वहां नाटक करो, वहां
अभिनय करो, वहा गंभीरता
से मत लो, वहां
नाटक.......।
सम्यक—चेता
व्यक्ति जीता
सहजता से है।
लेकिन चूंकि
जीना भीड़ के
साथ है और सभी
भीड़ से भाग
नहीं सकते...
भागेंगे कहां!
अगर सभी भाग
गये तो वहीं
भीड़ हो
जायेगी।
इसलिए कोई
उपाय
नहीं
है। वहीं सब
उपद्रव शुरू
हो जायेंगे।
जहां भीड़ है
वहा उपद्रव
है। और अकेले
होने से भी उपद्रव
मिट नहीं
जाता।
क्योंकि अगर
भीड़ सिर्फ
बाहर ही होती
तो तुम जंगल
चले जाते, उपद्रव
मिट जाता। भीड़
तुम्हारे
भीतर घुस गई है।
तुम जंगल में
भी जा कर
हिंदू रहोगे,
तो भीड़ तो
तुम्हारे
भीतर घुस गई।
तुम जंगल में
भी जा कर राम
का नाम लोगे
या अल्लाह का
नाम लोगे, तो
भीड़ तुम्हारे
भीतर घुस गई।
तुम जंगल में
भी बैठ कर
अपने भीड़ के
संस्कारों से
थोड़े ही छूट
पाओगे। भीड़
बाहर होती तो
बड़ा आसान था, भीड़ भीतर तक
चली गई है।
उसने तुम्हारे
भीतर घर कर
लिया है।
इसलिए अब एक
ही उपाय है :
रहो भीड़ में जहां
तक बने।
और
नब्बे
प्रतिशत तुम
सहजता से जी
सकते हो, दस
प्रतिशत अड़चन
होगी। उस अड़चन
को नाटक और
अभिनय मानना।
उसको खेल
समझना। जैसे
कि रास्ते पर बायें
चलो का नियम
है, अब
तुम्हारा
स्वच्छंद भाव
हो रहा है कि
बीच में चलें,
तो भी मत
चलना, क्योंकि
उससे कोई सार
नहीं है। उस
स्वच्छंदता
से कुछ लेना—देना
भी नहीं है।
तुम बायें ही
चलना।
क्योंकि अगर
सभी स्वच्छंद
चलें तो राह
पर चलना ही
मुश्किल हो
जायेगा। नियम
से भी चलो तो
भी कितनी झंझट
है, राह से
चलना मुश्किल
हो रहा है।
नियम से ही
चलना। वह सहज
स्वीकार है।
वह भी
बोधपूर्वक
स्वीकार करना
कि इतनी हम कीमत
चुकाते हैं
भीड़ के साथ
रहने की।
नब्बे प्रतिशत
हम अपने को
मुक्त करते
हैं और प्रभु
के लिए अर्पित
होते हैं, दस
प्रतिशत कीमत
चुकाते हैं
भीड़ के साथ
रहने की।
कीमत
तो चुकानी
पड़ती है हर
चीज के लिए।
बिना मूल्य तो
कुछ भी नहीं
है। लेकिन एक
बात ध्यान
रखना कि धर्म
का संबंध भीड़
से नहीं है, धर्म
का संबंध तो
सहजता से है।
सहजता
व्यक्ति की
है। आत्मा
व्यक्ति के
पास है; भीड़
के पास कोई
आत्मा नहीं
है।
पूछा
है. 'आदिकाल से
संत
महापुरुषों
ने सदकर्म की
प्रेरणा दी है।’
अधिकतर
तो उपद्रव का
कारण ये संत
महापुरुष ही हैं।
इनमें सभी ज्ञान
को उपलब्ध
व्यक्ति नहीं
हैं।
तुम्हारे सौ
संत
महापुरुषों
में शायद एकाध
जीवन मुक्त है, बाकी
तो भीड़ के ही
हिस्से हैं।
बाकी का तो
धर्म से कोई
संबंध नहीं
है।
सच्चरित्र
होंगे। लेकिन
सच्चरित्र का
क्या अर्थ
होता है? सच्चरित्र
का अर्थ होता
है : जो समाज की
मान कर चलता
है, समाज
ने जो नियम
निर्धारित
किये हैं, जो
उनकी मर्यादा
को स्वीकार
करता है।
इसलिए
तुम देखते हो, राम
की बड़ी
प्रतिष्ठा है!
कृष्ण का लोग
नाम भी लेते
हैं तो भी जरा
डरे —डरे।
कृष्ण का भक्त
भी कृष्ण की
बात करता है तो
चुनाव करता
है। जैसे
सूरदास कृष्ण
के केवल बचपन
के गीत गाते
हैं, जवानी
तक जाने में
सूरदास डरते
मालूम पड़ते हैं।
क्योंकि
जवानी में फिर
खतरा है। बचपन
तक ठीक है।
दूध की
दुहनिया तोड़
रहे, ठीक
है। लेकिन
जवान जब
तोड्ने लगता
है तो फिर
झंझट है। तो
सूरदास चुनाव
कर लेते हैं —बालकृष्ण!
बस वहा से आगे
नहीं बढ़ते वे।
बस बालक को ही
फुदकाते रहते
हैं। पांव की
पैजनिया—और
फुदक रहे
बालक! उससे
आगे नहीं जाने
देते, क्योंकि
वहां तक वे
छेडूखान करें,
चलेगा।
लेकिन जब वे
जवान हो जाते
हैं और स्त्रियों
के कपड़े चुरा
कर वृक्षों पर
बैठने लगते
हैं, तब
जरा अड़चन आती
है, वहा
सूरदास झिझक
जाते हैं।
अधिकतर तो लोग
कृष्ण की
मान्यता गीता
के कारण करते
हैं। बस गीता
तक उनके कृष्ण
पूरे हैं; भागवत
तक नहीं जाते।
भागवत में
खतरा है। गीता
के कृष्ण
स्वीकार हैं;
वहा कुछ
अड़चन नहीं है।
लेकिन
राम पूरे के
पूरे स्वीकार
हैं। तुमने इस
फर्क को देखा? राम
शुरू से ले कर
अंत तक
स्वीकार हैं।
वे मर्यादा—पुरुषोत्तम
हैं। वे ठीक
वैसा करते हैं
जैसा करना
चाहिए। कृष्ण
भरोसे के नहीं
हैं। कृष्ण बहुत
स्वच्छंद हैं,
स्वचेतना
से जीते हैं।
लेकिन
अगर तुम
समझोगे तो
जिन्होंने
जाना, उन्होंने
राम को तो कहा
है अंशावतार
और कृष्ण को
कहा
पूर्णावतार।
मतलब साफ है।
राम में तो अंशरूप
में ही
परमात्मा है,
कृष्ण में
पूरे रूप में
है। क्योंकि
स्वच्छंदता
पूर्ण है। राम
में तो कहीं—कहीं
छींटे हैं
परमात्मा के;
कृष्ण तो
पूरी गंगा
हैं। लेकिन
कृष्ण को
अंगीकार करने
की सामर्थ्य
चाहिए।
जिनको
तुम संत
महापुरुष
कहते हो, आमतौर
से तो
तुम्हारी
धारणाओं के
अनुकूल चलने
वाले लोग होते
हैं। जैसे जैन
है, वह
किसी को संत
कहता है, उसकी
अपनी परिभाषा
है संत की।
रात भोजन नहीं
करता, पानी
छान कर पीता
है, एक ही
बार भोजन करता
है—उसकी अपनी
परिभाषा है।
यही परिभाषा
हिंदुओं की
नहीं है, तो
हिंदू को कोई
अड़चन नहीं है।
दिगंबर जैन की
परिभाषा है कि
संत नग्न रहता
है। अब वह
दिगंबर जैन की
परिभाषा है।
तो जो नग्न न
हो तब तक संत नहीं
है; जैसे
ही नग्न हुआ
कि वह संत
हुआ। चाहे वह
पागलपन में ही
नग्न क्यों न हो
गया हो, लेकिन
वह संत हो
गया। इसीलिए
तो जैन बुद्ध
को भगवान नहीं
कहते, महात्मा
कहते हैं, भगवान
तो महावीर को
कहते हैं, बुद्ध
को महात्मा क्वते
हैं. 'ठीक
हैं, कामचलाऊ,
कुनकुने, कोई अभी
पूरी अवस्था
उपलब्ध नहीं
हुई। पूरी
अवस्था में तो
दिगंबरत्व है!'
महावीर
नग्न खड़े हो
जाते हैं।
जैन
कृष्ण को तो
महात्मा भी
नहीं कह सकते।
उनको तो नरक
में डाला हुआ
है—सातवें नरक
में! क्योंकि
कृष्ण ने
युद्ध करवा दिया।
महाभारत की
सारी हिंसा
कृष्ण के ऊपर
है। अर्जुन तो
बेचारा भाग
रहा था। वह तो
जैनी होना
चाहता था। वह
तो कह रहा था. 'जाने
दो महाराज, यह हिंसा
मुझे नहीं
सोहती। मैं
जंगल चला जाऊंगा,
झाडू के
नीचे बैठ कर
ध्यान करूंगा।’
वह —तो
तैयार ही था, भाग— भागा
था। क्या उसको
खींच—खींच कर
जबर्दस्ती
समझा—बुझा कर
उलझा दिए—गरीब
आदमी को! तो
हिंसा—हत्या,
इसका
जुम्मा किस पर
है? यह जो
महाभारत में
इतना खून हुआ,
इसका
जुम्मा किस पर
है?
निश्चित ही
अर्जुन पर तो
नहीं है।
कृष्ण पर ही
हो सकता है।
कोई भी अदालत
अगर निर्णय
देगी तो कृष्ण
पर ही जुम्मा
जायेगा।
अर्जुन
ज्यादा से
ज्यादा
सहयोगी था, लेकिन
प्रधान
केंद्र तो कृष्ण
ही हैं सारे
उपद्रव के। तो
जैनों ने उनको
सातवें नर्क
में डाला है।
अब
जैनों की
संख्या
ज्यादा नहीं, इसलिए
हिंदुओं से
डरते भी हैं, इसलिए
गुंजाइश भी
रखी है कि
अगले कल्प में,
फिर जब
सृष्टि का
निर्माण होगा,
तब तक तो
कृष्ण को नर्क
में रहना
पड़ेगा; लेकिन
वे आदमी कीमत
के हैं, यह
बात भी सच है, तो अगली
सृष्टि में वे
पहले
तीर्थंकर
होंगे। ऐसे
हिंदुओं को भी
खुश कर लिया
है। अगली
सृष्टि में, कभी अगर
होगी, तो
वे पहले
तीर्थंकर
होंगे, लेकिन
तब तक नर्क
में पड़े
सडेंगे।
कोन
संत है, कोन
महात्मा है? बड़ा मुश्किल
है कहना।
कृष्ण तक को
जैन मानने को
राजी नहीं कि
वे संत हैं।
मुहम्मद को
तुम संत कहोगे?
तलवार हाथ
में! तुम जीसस
को संत कहोगे?
एक
जैन मुनि से
मेरी बात हो
रही थी।
उन्होंने कहा
कि आप जीसस की
इतनी प्रशंसा
क्यों करते हैं? उनको
फांसी लगी! तो
मैंने कहा :
निश्चित लगी।
तो वे कहने
लगे : फांसी तो
तभी लगती है,जब पिछले
जन्म में कोई
बड़ा पाप किया
हो, नहीं
तो फांसी कैसे
लगे? बात
तो ठीक लगती
है। काटा भी
गड़ता है तो
कर्म के फल से
गड़ता है; फांसी
लगती तो..। तो
जैन हिसाब में
फांसी देने वाले
उतने
जुम्मेवार
नहीं हैं, जितना
कि लगने वाला
जुम्मेवार है,
क्योंकि
इसने कुछ
महापाप किए
होंगे। इसको
महात्मा कैसे
कहना!
जैनों
का तो हिसाब
यह है कि
महावीर अगर
चलते हैं
रास्ते पर और
कांटा सीधा
पड़ा हो तो
जल्दी से
उल्टा हो जाता
है करवट ले
कर। महावीर आ
रहे हैं, उनको
तो काटा गड़
नहीं सकता; कोई पाप
किया ही नहीं;
फांसी फूल
बन जाती है।
गले में लगा
फंदा फूल की
माला हो जाता
अगर महावीर को
लगी होती। तो
ईसा को. .कैसे
महात्मा! कठिन
है।
ईसाई
से पूछें।
ईसाई कहता है :
तुम्हारे ये
महावीर और
बुद्ध और ये
सब... इनमें
क्या रखा है? इनको
जीवन की कुछ
पड़ी ही नहीं
है। ये सब
स्वार्थी
हैं। बैठे हैं
अपने—अपने
झाड़ों के नीचे,
अपना—अपना
ध्यान कर रहे
हैं। जीसस को
देखो, सबके
कल्याण के लिए
चेष्टारत हैं
और सबके कल्याण
के लिए सूली
लगवाने को
तैयार हुए, क्योंकि
सबकी मुक्ति
इससे होगी!
अपना बलिदान दिया!
ये महात्मा
हैं, शहीद!
परिभाषाओं
की बात है।
लेकिन एक बात
मैं तुमसे
कहता हूं : अगर
तुम बहुत गौर
से देखोगे और
सारी
परिभाषाओं को
हटा कर देखोगे
तो सौ
महात्माओं
में कभी एक
तुम्हें सच
में महात्मा
मालूम पड़ेगा। कोन
महात्मा है? जिसका
परमात्मा के
हाथ में हाथ
है—वही। बड़ा
कठिन है उसे
देखना। जब तक
तुम हिंदू हो,
तब तक तुम्हें
हिंदू
महात्मा को
महात्मा
मानने की वृत्ति
रहेगी। जब तक
जैन हो, तब
तक जैन
महात्मा को
महात्मा
मानने की
वृत्ति
रहेगी। ये
पक्षपात
तुम्हें
महात्मा को
पहचानने न
देंगे। तुम
सारे पक्षपात
हटाओ, फिर
आख खोल कर
देखो। तुम
चकित हो
जाओगे. तुम्हारे
सौ महात्माओं
में से
निन्यानबे तो
राजनीतिज्ञ
हैं और समाज
की सेवा में
तत्पर हैं।
उनका काम वैसा
ही है जैसा पुलिस
वाले का है।
वे समाज को ही
सम्हालने में
लगे हुए हैं।
वह जो काम
पुलिस वाला
करता है, वही
वे अच्छे ढंग
से कर रहे
हैं। जो
मजिस्ट्रेट
करता है वही
तुम्हारा
महात्मा भी कर
रहा है।
मजिस्ट्रेट
कहता है, जेल
भेज देंगे, महात्मा
कहता है, नर्क
जाओगे अगर पाप
किया।
महात्मा कहता
है : अगर पुण्य
किया तो
स्वर्ग
मिलेगा। वे
तुम्हारे लोभ
और भय को उकसा
रहे हैं।
तो
तुम जो कहते
हो. 'आदिकाल से
संत
महापुरुषों
ने सदकर्म की
प्रेरणा दी
है.....।’
पहले
तो यह पक्का
नहीं है कि
उनमें से
कितने संत महापुरुष
हैं। और दूसरा
सदकर्म की
प्रेरणा में ही
असदकर्म की
चुनौती छिपी
हुई है।
वास्तविक महात्मा
कर्म की
प्रेरणा ही
नहीं देता; वह
तो अकर्ता
होने की
प्रेरणा देता
है। इसे समझना।
यही तो
अष्टावक्र की
गीता का सार
है। वह यह
नहीं कहता :
अच्छा कर्म
करो। वह कहता
है : अकर्ता हो
जाओ! कर्म
तुमने किया
नहीं, कर्म
तुम कर नहीं
रहे—ऐसे
साक्षी— भाव
में हो जाओ, साखी बनो।
वास्तविक
संत तो निरंतर
यह कहता है कि
कर्म तो
परमात्मा का
है,
तुम्हारा
है ही नहीं।
तुम
निमित्तमात्र
हो! तुम देखते
रहो। यह खेल
प्रकृति और
परमात्मा का
चलने दो। यह छिया—छी
चलने दो, तुम
जागे देखते
रहो। तुम
इसमें पक्ष भी
मत लो कि यह
बुरा और यह
अच्छा; यह
मैं करूंगा और
यह मैं नहीं
करूंगा। जो
होता हो होने
दो, तुम
मात्र
निर्विकार—
भाव से देखते
रहो। दर्पण की
भांति तुममें
प्रतिफलन बने,
लेकिन कोई
निर्णय न बने
अच्छा—बुरा।
वास्तविक
महात्मा तो
तुम्हें
अकर्ता बनाता है।
तुम जिनको
महात्मा कहते
हो,
मैं भी समझ
गया बात, वे
तुम्हें
सदकर्म की
प्रेरणा देते
हैं। सदकर्म
का मतलब क्या
होता है? जिसको
समाज असदकर्म
कहता है।
समझ
लो। एक
लाओत्सु का शिष्य
मजिस्ट्रेट
हो गया चीन
में। पहला ही
मुकदमा आया।
एक आदमी ने
चोरी की एक
धनपति के घर में
और उसने दोनों
को सजा दे दी छ: —छ:
महीने की—धनपति
को भी और चोर
को भी। धनपति
ने कहा : 'तुम्हारा
मस्तिष्क ठीक
है? तुम्हें
कुछ नियम—कानून
का पता है? मुझे
किसलिए दंड
दिया जा रहा
है? मेरी
चोरी, उल्टे
मुझे दंड! यह
तो हद हो गई।’
सम्राट
के पास मामला
गया। सम्राट
भी जरा हैरान
हुआ कि इस
आदमी को सोच—समझ
कर रखा था, बुद्धिमान
आदमी है, यह
क्या बात है!
ऐसा कभी सुना
कि जिसके घर
चोरी हुई उसको
भी सजा!
सम्राट ने
पूछा कि
तुम्हारा प्रयोजन
क्या है? उसने
कहा : 'प्रयोजन
साफ है। इस
आदमी ने इतना
धन इकट्ठा कर
लिया है कि
चोरी नहीं
होगी तो क्या
होगा? यह
आदमी चोरों को
पैदा करने का
कारण है। जब
तक यह आदमी
सारे गांव का
धन बटोरता जा
रहा है, तब
तक चोर को ही
जिम्मेदार
ठहराना ठीक
नहीं। लोग
भूखे मर रहे
हैं, लोगों
के पास वस्त्र
नहीं हैं और
यह आदमी इकट्ठा
करता जा रहा
है। इसके पास
इतना इकट्ठा
हो गया है कि
अब चोरी को
पाप कहना ठीक
नहीं। इसके घर
चोरी को पाप
कहना तो
बिलकुल ठीक
नहीं। अपराध
भी तो किसी
विशेष संदर्भ
में अपराध
होता है। ही, किसी गरीब
के घर इसने
चोरी की होती
तो अपराध हो
जाता, इसके
घर चोरी में
क्या अपराध है?
और यह खुद
चोर है। इतना
धन इकट्ठा
कैसे हुआ? इसलिए
अगर मुझे आप
पद पर रखते
हैं तो मैं
दोनों को सजा
दूंगा। न यह
धन इकट्ठा
करता न चोरी
होती।’
अब
तुम्हारा
महात्मा क्या
कहता है? महात्मा
कहता है. चोरी
मत करना! और
इसलिए धनपति
महात्मा के
पक्ष में है
सदा। धनपति
कहता है :
बिलकुल ठीक कह
रहे हैं
महात्मा जी, चोरी कभी
नहीं करना!
क्योंकि चोरी
धनपति के खिलाफ
पड़ती है।
इसलिए सदियों
से जिनके पास
है, वे
महात्मा के
पक्ष में हैं;
और महात्मा
उनको
आशीर्वाद दे
रहा है जिनके
पास है। और
महात्मा
तरकीबें खोज
रहा है ऐसी—ऐसी
जालभरी, चालाकी—
भरी कि जिससे
जिसके पास हो
उसकी सुरक्षा
होती है। वह
कहता है : 'तुम
गरीब हो, क्योंकि
तुमने पिछले
जन्म में पाप
किए। वह आदमी
अमीर है, क्योंकि
उसने पिछले
जन्म में
पुण्य किए हैं।’
अब
एक बड़ी मजे की
बात है! वह आदमी
अभी चूस रहा
है,
इसलिए अमीर
है; यह
आदमी चूसा जा
रहा है, इसलिए
गरीब है।
लेकिन तरकीब
यह बताई जा
रही है कि
पिछले जन्म
में तुमने पाप
किए हैं, इसलिए
तुम गरीब हो।
और पिछले
जन्मों का
किसी को कोई
पता नहीं।
पिछला जन्म तो
सिर्फ कहानी
है—हो न हो!
पिछले जन्म के
आधार पर यह जो
चालबाजी चली
जा रही है, तो
फिर मार्क्स
ठीक मालूम
पड़ता है कि
धर्म को लोगों
ने अफीम का
नशा बना रखा
है; गरीबों
को पिलाये
जाते हैं अफीम,
उनको
समझाये चले
जाते हैं कि
तुम अपने
कर्मों का फल
भोग रहे हो।
फिर
अड़चनें भी आती
हैं यहां।
यहां हम देखते
हैं रोज, जो
बेईमान है, चार सौ बीस
है, वह धन
कमा रहा है, पाप का फल तो
नहीं भोग रहा
है। जो
ईमानदार है, वह भूखा मर
रहा है। तो भी
महात्मा समझाये
जाता है कि
ठहरो, उसके
घर देर है, अंधेर
नहीं। अब यह
देर किसने खोज
ली? 'उसके
घर देर है, अंधेर
नहीं।’ कहते
हैं 'जरा
ठहरो! इस जन्म
में कर लेने
दो, अगले
जन्म में
देखना, जो
बेईमान है वह
सडेगा!' यह
बड़ी हैरानी की
बात है, आग
में हाथ डालो
तो अभी जल
जाता है, जरा
देर नहीं है; चोरी करो तो
अगले जन्म में
पाप का फल
मिलता है! ईमानदारी
करो तो अभी
जीवन में सुख
नहीं मिलता, अगले जन्म
में मिलता है!
कहीं यह चार
सौ बीसी और
तरकीब तो नहीं?
यह कहीं
समाज के
शोषकों का जाल
तो नहीं है?
किसको
तुम महात्मा
कहते हो? तुम्हारे
अधिकतर
महात्मा समाज
की जड़ शोषण से भरी
व्यवस्था के
पक्षपाती रहे
हैं। सदकर्म वे
उसी को बताते
हैं जो समाज
की स्थिति—स्थापकता
को कायम रखता
है, असदकर्म
उसी को बताते
हैं जो समाज
की स्थिति को
तोड़ता है—जिनके
पास है उनकी
स्थिति
डावाडोल न हो
जाये।
इसलिए
तो मैंने कहा
कि सेठ जी और
संन्यासी में
एक संबंध है
और इसलिए
तुम्हारा
संन्यासी सत्यानाशी
है।
इस
देश में कोई
क्राति नहीं
घट सकी
सामाजिक तल
पर। नहीं घट
सकी,
क्योंकि
हमने ऐसी
तरकीबें खोज
लीं कि क्राति
असंभव हो गई।
हमने क्राति—विरोधी
तरकीबें खोज
लीं। हमारे
अनेक सिद्धात
क्रांति—विरोधी
तरकीबें हैं।
तो तुम्हारे
महात्मा कहते
रहे, माना;
लेकिन
तुम्हारे जो
महात्मा कहते
रहे, उसमें
बहुत बल नहीं
है, वह
धोखा है। इसलिए
उसका कोई
परिणाम भी
नहीं हुआ है।
फिर
तुम्हारे
महात्मा जो
कहते रहे, वह
प्रकृति और
स्वभाव के
अनुकूल नहीं
मालूम पड़ता है,
प्रतिकूल
है। अब लोगों
को उल्टी—सीधी
बातें समझाई
जा रही हैं, जो नहीं हो
सकतीं, जो
उनकी प्रकृति
के अनुकूल
नहीं पड़ती। जब
नहीं हो सकतीं
तो उनके मन
में अपराध का
भाव पैदा होता
है। जैसे आदमी
को भूख लगती
है, अब तुम
उपवास समझाते
हो; तुम
कहते हो. 'उपवास——सदकर्म!
भूख—पाप!
उपवास—सदकर्म!
तो उपवास करो!'
अब यह शरीर
का गुणधर्म है
कि भूख लगती
है। यह स्वाभाविक
है। इसमें
कहीं कोई पाप
नहीं है। और उपवास
में कहीं कोई
पुण्य नहीं
है। अब यह एक
ऐसी खतरनाक बात
है, अगर
सिखा दी गई कि
उपवास करो, यही पुण्य
है, तो तुम
सीख बैठे। अब
तुम उपवास
करोगे तो
परेशानी में
पड़ोगे, क्योंकि
भूख लगेगी—तो
लगेगा. कैसा
पापी हूं मुझे
भूख लग रही है!
अगर भोजन
करोगे तो
अपराध— भाव
मालूम पड़ेगा कि
मैं भी कैसा
हूं कि अभी तक
उपवास करने
में सफल नहीं
हो पाया! अब
तुमको डाल
दिया एक ऐसे
जाल में जहां
से तुम बाहर न
हो सकोगे।
'कामवासना
पाप है!' कामवासना
से तुम पैदा
हुए हो। जीवन
का सारा खेल
कामवासना पर
खड़ा है।
तुम्हारा रोआं—रोआं
कामवासना से
बना है। कण—कण
तुम्हारी देह
का काम— अणु से
बना है। अब
तुम कहते हो.
कामवासना पाप
है!
मेरे
पास युवक आ
जाते हैं। वे
कहते हैं : बड़े
बुरे विचार उठ
रहे हैं। मैं
उनसे पूछता
हूं. 'तुम मुझे
कहो भी तो कोन—से
बुरे विचार
उठते हैं!' वे
कहते हैं. 'अब
आपसे क्या
कहना, आप
सब समझते हैं।
बड़े बुरे
विचार उठ रहे
हैं!' यह
तुम्हारे
साधु—महात्माओं
की कृपा है।
और जब पूछताछ
करता हूं उनसे
जब बहुत खोदता
हूं तो वे
कहते हैं कि
स्त्रियों का
विचार मन में
आता है। इसमें
क्या बुरा
विचार उठ रहा
है? तुम्हारे
पिता के मन
में नहीं आता
तो तुम कहां
होते? इसमें
बुरा कहां है?
नैसर्गिक
है। इससे पार
हो जाना जरूर
महत्वपूर्ण
है, लेकिन
इसमें बुरा
कुछ भी नहीं
है। इसमें पाप
कुछ भी नहीं
है; यह
प्राकृतिक
है। इससे पार
हो जाना जरूर
महिमापूर्ण
है, क्योंकि
प्रकृति के
पार जो हुआ
उसकी महिमा होनी
ही चाहिए। तो
जो
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
जाए, उसकी
महिमा है; जो
न उपलब्ध हो
सके, उसकी
निंदा नहीं।
मेरी
बात को ठीक से
समझना। जो
कामवासना में
है,
प्राकृतिक
है, स्वस्थ
है, सामान्य
है; कोई
निंदा की बात
नहीं; जो
होना चाहिए, वही हो रहा
है। लेकिन जो
कामवासना के
पार होने लगा—और
बड़ी घटना घटने
लगी, प्रकृति
का और कोई ऊपर
का नियम इसके
जीवन में काम
करने लगा। यह
शुभ है। इसका
स्वागत करना।
मेरी दृष्टि
में ऊपर की
सीढ़ियों का
स्वागत तो होना
चाहिए, नीचे
की सीढ़ियों की
निंदा नहीं।
क्योंकि
निंदा का
दुष्परिणाम
होता है। नीचे
की सीढ़ियों की
निंदा करने से
ऊपर की
सीढ़ियां तो नहीं
मिलतीं, नीचे
की सीढ़ियों पर
भी ऐसी कठिन
विक्षिप्तता पैदा
हो जाती है कि
पार करना ही
असंभव हो जाता
है।
अगर
तुमने
कामवासना को
सहज भाव से
स्वीकार कर लिया, तुम
एक दिन उसके पार
हो जाओगे।
साखी बनो!
साक्षी बनो!
रोओ— धोओ मत, चिल्लाओ मत!
बुरा— भला मत
कहो, गाली—
गलौज मत बको!
परमात्मा ने
अगर कामवासना
दी है तो कोई
प्रयोजन
होगा।
निष्प्रयोजन
कुछ भी नहीं
हो सकता। उसने
सभी को
कामवासना दी
है, तो
जरूर कोई महत
प्रयोजन
होगा।
और
तुमने कभी सुना, कोई
नपुंसक कभी
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुआ है?
तुमने कभी
यह बात सुनी? नहीं, क्योंकि
वही काम—ऊर्जा
बुद्धत्व
बनती है। वही
काम—ऊर्जा जब
धीरे— धीरे
वासना से
मुक्त होती है,
वही काम—ऊर्जा
जब काम से
मुक्त होती है,
तो राम बन
जाती है।
सोना
मिट्टी में
पड़ा है, खदान
में पड़ा है।
शुद्ध करना है,
यह भी सच
है। लेकिन
मिट्टी से सने
पड़े सोने की कोई
निंदा नहीं
है। यही ढंग
है शुरू होने
का। खदान से
ही तो निकलेगा
सोना। जब खदान
से निकलेगा तो
कचरा—कूड़ा भी
मिला होगा।
फिर आग से गुजारेंगे,
कचरा—कूड़ा
जल जाएगा; जो
बचना है बच
रहेगा।
जीवन
की आग से अगर
कोई साक्षीपूर्वक
गुजरता रहे, तो
जो —जो गलत है, अपने—आप
विसर्जित हो
जाता है, उससे
लड़ना नहीं
पड़ता।
तुम्हारे
साधु—महात्माओं
ने तुम्हारी फांसी
लगा दी है।
उन्होंने
तुम्हें इतना
घबरा दिया है—'सब
पाप, सब
गलत!' इस
कारण तुम इतनी
आत्मनिंदा से
भर गए हो कि
तुम्हारे
जीवन में
विषाद ही
विषाद है और कहीं
कोई सूरज की
किरण दिखाई
नहीं पड़ती।
जीवन
को स्वीकार
करो! जीवन
प्रभु का है।
जैसा उसने
दिया, वैसा
स्वीकार करो।
और उस स्वीकार
में से ही धीरे—
धीरे तुम
पाओगे, जागते—जागते
जाग आती है और
सब रूपांतरित
हो जाता है।
तुम्हारे
साधु—संतो ने
तुम्हें
दुष्कर्मों
से मुक्त नहीं
किया है, तुम्हें
सिर्फ पापी
होने का अपराध—
भाव दे दिया
है। और अपराध—
भाव जब पैदा
हो जाए तो
जीवन में बड़ी
अड़चन हो जाती
है—छाती पर
पत्थर रख गए।
अब
मैं देखता
हूं. तुम अपनी
पत्नी को
प्रेम भी करते
हो और साथ में यह
भी सोचते हो
कि इसी के
कारण नर्क में
पड़ा हूं! अब यह
प्रेम भी संभव
नहीं हो पाता; क्योंकि
जिसके कारण
तुम नर्क में
पड़े हो उसके साथ
प्रेम कैसे
होगा! तुम
पत्नी को गले
भी लगाते हों—स्व
हाथ से गले
लगा रहे, दूसरे
से हटा रहे
हो। तृप्ति भी
नहीं मिलती गले
लगाने से।
तृप्ति मिल
जाती तो पार
हो जाते।
तृप्ति मिलती
नहीं, क्योंकि
गले कभी पूरा
लगा नहीं पाते;
बीच में
साधु—संत खड़े
हैं। तुम
पत्नी को गले
लगा रहे हो, बीच में
साधु—संत खड़े
हैं। वे कह
रहे हैं : 'यह
क्या कर रहे
हो? दुष्कर्म
हो रहा है।’ तो उनके
कारण कभी तुम
पत्नी को पूरा
गले भी नहीं
लगा पाते। और
जिसने पत्नी
को पूरा गले
नहीं लगाया, वह कभी
स्त्री से
मुक्त न हो
सकेगा।
मुक्ति
हमारी होती है
ज्ञान से। जो
भी जान लिया
जाता है, उससे
हम मुक्त हो
जाते हैं। जान
लो ठीक से। और जानने
के लिए जरूरी
है कि अनुभव
कर लो। और अनुभव
में जितने
गहरे जा सको, चले जाओ।
अनुभव को पूरा
का पूरा जान
लो। जानते ही
मुक्त हो
जाओगे; फिर
कुछ जानने को
बचेगा नहीं।
जब जानने को
कुछ भी नहीं
बचता तो
मुक्ति हो
जाती है।
साधु
—संतो के कारण
ही तुम
कामवासना से
मुक्त नहीं हो
पा रहे हो। और
साधु—संतो के
कारण ही तुम जीवन
की बहुत—सी बातों
से मुक्त नहीं
हो पा रहे हो, क्योंकि
वे तुम्हें
जानने ही नहीं
देते। वे तुम्हें
अटकाये हुए
हैं। वे
तुम्हें
उलझाये हुए
हैं।
तो
तुम पूछते हो
कि 'साधु —संतो
ने सदा से
सदकर्म की
प्रेरणा दी
है...।’
उन्हीं
की प्रेरणा के
कारण तुम भटके
हो। मैं तो
सिर्फ उनको
सतपुरुष कहता
हूं
जिन्होंने साक्षी
होने की
प्रेरणा दी; सदकर्म
की नहीं।
क्योंकि
सदकर्म में तो
दुष्कर्म का
भाव आ गया।
सदकर्म में तो
निंदा आ गई, मूल्य आ
गया। मूल्य—मुक्त
होने का
जिन्होंने
तुम्हें पाठ
सिखाया, उन्हीं
को मैं कहता
हूं संत।
अष्टावक्र को
मैं कहता हूं
संत। जनक को
मैं कहता हूं
संत। इनकी बात
समझो। ये तो
कहीं नहीं कह
रहे कि क्या
बुरा है, क्या
भला है। ये तो
इतना ही कह
रहे हैं, जो
भी है जैसा भी
है, जाग कर
देख लो। जागना
एकमात्र बात
मूल्य की है।
कर्म नहीं—अकर्ता
— भाव।
हम
कहते हैं बुरा
न मानो
यौवन
मधुर सुनहली
छाया
सपना
है,
जादू है, छल है ऐसा
पानी
पर मिटती—बनती
रेखा—सा
मिट—मिट
कर दुनिया
देखे रोज
तमाशा
यह
गुदगुदी यही
बीमारी
मन
हलसावे, छीजे
काया
हम
कहते हैं बुरा
न मानो
यौवन
मधुर सुनहली
छाया।
है
तो छाया, पर
बड़ी मधुर, बडी
सुनहली! निंदा
नहीं है
इसमें। है
सुंदर, सुनहली,
बड़ी मधुर!
पर है छाया! है
माया! पानी पर
खींची रेखा!
खींच भी नहीं
पाते, मिट
जाती है। बंद
आख में देखा
गया सपना!
शायद सपनों
में देखा गया
सपना!
कभी
तुमने सपने
देखे, जब तुम
सपने में सपना
देखते हो? रात
सोये, सपना
देखा कि अपने
सोने
के कमरे में
खड़े हैं और
सोने जा रहे
हैं। लेटे
बिस्तर पर, लेट
गये बिस्तर पर,
नींद लग गई
और सपना देखने
लगे। सपने में
सपना और भी
सपना हो सकता
है।
यह
पूरा जीवन ही
एक सपना है, फिर
इस सपने में
और छोटे—छोटे
सपने हैं—कोई
धन का देखता, कोई पद का
देखता, कोई
काम का देखता।
फिर छोटे सपने
में और छोटे—छोटे
सपने हैं। बीज
सपने का है, फिर उसमें
शाखायें हैं,
वृक्ष हैं,
फल हैं, फूल
हैं—वे सभी
सपने हैं—। और
सब सुंदर हैं।
क्योंकि है तो
माया उसी की।
है तो प्रभु
की ही माया।
यह खेल भी
किसी बड़ी गहरी
सिखावन के लिए
है, कोई
बड़ी देशना
इसमें छिपी है।
तो
मैं तुमसे यह
नहीं कहता कि
यह गलत है, न
तुमसे मैं
कहता, यह
सही है। मैं
तुमसे इतना ही
कहता हूं,
यह सपना है, तुम जागो तो
यह टूटे।
सदकर्म
की प्रेरणा का
अर्थ है. तुम
सपने में बने
थे चोर, कोई
महात्मा आया,
उसने कहा, 'देखो चोर
बनना बहुत
बुरा है, साधु
बनो।’ तुम
सपने में साधु
बन गये। अब
सपने में चोर
थे कि साधु थे,
क्या फर्क
पड़ता है! सुबह
उठ कर सब
बराबर हो जायेगा।
तुम पानी पर
लिख रहे थे
भजन कि गाली—गलौज,
क्या फर्क
पड़ता है! पानी
पर सब खींची
रेखायें मिट
जाती हैं। तुम
यह तो न कह
सकोगे कि मेरी
न मिटे, क्योंकि
मैं भजन लिख
रहा था! तुम यह
तो न कह सकोगे
कि दूसरे की मिट
गई, ठीक, क्योंकि वह
तो गाली लिख
रहा था; मैं
तो भजन लिख
रहा था, राम—राम
लिख रहा था, मेरी तो
नहीं मिटनी
चाहिए थी।
लेकिन पानी पर
कोई भी रेखा
खींचो, शुभ—
अशुभ, सब
बराबर है।
इस
संसार में
सदकर्म —
असदकर्म सब बराबर
हैं। यह
आत्यंतिक
उदघोषणा है।
और यह उदघोषणा
जहां मिले
वहीं जानना कि
तुम सतपुरुष
के करीब आये।
अगर
सतपुरुष यह कह
रहा हो : अच्छे
काम करो! अच्छे
काम का मतलब—ब्लैक
मार्केट मत
करो,
चोरी मत करो,
टैक्स समय
पर चुकाओ, तो
यह राष्ट्र —संत
है। इनका मतलब
राजनीति से है।
यह सरकारी
एजेंट है। यह
कह रहा है कि
ऐसा—ऐसा करो
जैसा सरकार
चाहती है। मैं
यह नहीं कह रहा
कि तुम ब्लैक
मार्केट करो।
मैं यह भी
नहीं कह रहा
कि तुम टैक्स
मत भरो। मैं
तुमसे यह कह रहा
हूं : जो तुमसे
ऐसा कहे वह
राजनीतिक
चालबाज है।
इसलिए
तो
राजनीतिज्ञ
किन्हीं—किन्हीं
संतो के पास
जाते हैं। जिन
संतो से
उन्हें सहारा
मिलता है
राजनीति में, उन्हीं
के पास जाते
हैं। स्वभावत:
सांठ—गांठ है।
जो संत कहता
है देश में
अनुशासन रखो,
तो जो सत्ता
में होता है
वह उसके पास
जाता है कि
बिलकुल ठीक।
लेकिन जो
सत्ता में
नहीं है वह उससे
दूर हट जाता
है; वह
कहता है, 'यह
तो हद हो गई!
अगर अनुशासन
रहा तो हम
सत्ता में
कैसे
पहुंचेंगे?'
तो
जो सत्ता में
है वह अनुशासन
वाले संत के
पास जाता है, जो
कहता है कि
अनुशासन रखना
बड़ा अच्छा है।
और जो सत्ता
में नहीं है
वह क्रांतिकारी
संत के पास
जाता है, जो
कहता है, 'तोड़—फोड़
कर डालो सब, मिटा डालो
सब।’ सत्ता
में पहुंच कर
यह भी संत को
बदल लेगा। सत्ता
में पहुंच कर
यह भी अनुशासन
वाले के पास जायेगा।
और जो सत्ता
में था, सत्ता
से नीचे उतर
आये तो वह भी
उपद्रव में भरोसा
करने लगेगा, तब उपद्रव
का नाम
क्रांति, उपद्रव
का नाम प्रजातंत्र,
लोकतंत्र—
अच्छे—अच्छे
नाम! लेकिन
इनका संतत्व
से कुछ लेना—देना
नहीं है।
या
संत तुम्हें
छोटे—मोटे
जीवन के आचरण
सिखाता है. 'अणुव्रत......।
ऐसा मत करो, वैसा मत करो!'
सुविधा
सिखाता है
जीवन की। नहीं,
इनसे भी कुछ
लेना—देना
नहीं है। ये
सामाजिक
व्यवस्था के,
सामाजिक
सरमाये के
हिस्सेदार
हैं। वास्तविक
संत तुमसे यह
कहता ही नहीं
कि तुम क्या
करो। वास्तविक
संत तो इतना
ही कहता है कि
तुम यह जान लो
कि तुम कोन
हो। फिर उस
जानने के बाद
जो होगा वही
ठीक होगा और
उसको न जानने
से जो भी हो
रहा है वही
गलत होगा।
इस
बात को खूब
ठीक से समझ
लेना। नासमझी
की पूरी
गुंजाइश है।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं कि आप
हमें बता दें, कि
हम क्या करें?
मैं उनसे
कहता हूं मेरा
तुम्हारे
करने से कुछ लेना—देना
नहीं है। मैं
तो इतना ही
बता सकता हूं
कि तुम कैसे
जागो। मैं तो
इतना ही बता
सकता हूं कि तुम्हें
कैसे पता चले
कि तुम कोन हो!
तुम्हें यह
पता चल जाए कि
तुम कोन हो, तुम्हें
थोड़ा अंतस—साक्षात्कार
हो जाए, तुम्हें
जरा भीतर की
चेतना का
स्वाद लग जाए—बस
फिर तुम जो
करोगे वह ठीक
होगा। फिर तुम
गलत कर न
सकोगे, क्योंकि
गलत करने के
लिए मूर्च्छा
चाहिए।
इसको
ऐसा समझें।
तुम्हें अब तक
अधिकतर यही
समझाया गया है
कि तुम ठीक
करोगे तो संत
हो जाओगे। मैं
तुमसे कहता
हूं : तुम संत
हो जाओ तो
तुमसे ठीक होने
लगेगा।
तुम्हें अब तक
यही समझाया
गया है कि तुम
अगर सदाचरण
करोगे तो तुम
साधु हो
जाओगे। मैं
तुमसे कहता
हूं. तुम साधु
हो जाओ, तुमसे
सदाचरण होगा।
सदाचरण बाहर
है, साधुता
भीतर है। जो
भीतर है, उसे
पहले लाना
होगा।
अंतःकरण बदले
तो आचरण बदलता
है। और
अंतःकरण बदल
जाने के बाद
जो अपूर्व
घटना घटती है,
वही
मूल्यवान है।
तुम स्वच्छंद
हो जाते हो और फिर
भी तुम्हारे
कारण किसी को
कोई हानि नहीं
होती। तुम
अपने छंद से
जीने लगते हो।
तुम्हारा अपना
राग, तुम्हारा
अपना गीत, तुम्हारी
अपनी धुन—और
फिर भी
तुम्हारे
कारण किसी को
हानि नहीं होती!
अब
ये दो तरह के
लोग हैं। एक
तो वे हैं, जो
दूसरों की
हानि करते हैं;
इनको तुम
कहते हो
दुष्कर्मी, पापी। और एक
वे हैं जो दूसरों
के हित में
अपनी हानि
करते हैं; इनको
तुम कहते हो
साधु —संत। इन
दोनों में
बहुत फर्क
नहीं है। एक
दूसरे को हानि
पहुंचाता है
और एक खुद को
हानि पहुंचाता
है—मगर दोनों
हानि
पहुंचाते
हैं। मैं उसे
संत कहता हूं
जो किसी को
हानि नहीं
पहुंचाता—न
किसी और को, न अपने को।
ऐसी अपूर्व
घटना जब घटती
है तो ही धर्म
की किरण उतरी।
भीड़ को यह
घटना नहीं
घटती—नहीं घट
सकती है।
फिर
पूछा है : 'इस
संदर्भ में
कृपा कर
समझाएं कि आज
का प्रबुद्ध
वर्ग मानव—जीवन
की विकार—जनित
समस्याओं का
समाधान कैसे
करे?'
प्रबुद्ध
किसको कहते हो? विश्वविद्यालय
से डिग्री मिल
गई, इसलिए?
कि दो चार
लेख दो—कोड़ी
के अखबारों
में लिख लिए, इसलिए? प्रबुद्ध
किसको कहते हो?
कि थोड़ी
बकवास कर लेते
हो तर्कयुक्त
ढंग से, इसलिए?
प्रबुद्ध
किसको कहते हो?
'प्रबुद्ध' शब्द बहुत
बड़ा शब्द है।
बुद्धिजीवी
को प्रबुद्ध
कहते हो? क्योंकि
स्कूल में
मास्टर है? कॉलेज में
प्रोफेसर है?
बुद्धिजीवी
एक बात है, प्रबुद्ध
बड़ी और बात
है। प्रबुद्ध
का अर्थ है. जो
जागा; जो
बुद्ध हुआ; जिसका भीतर
का दीया जला!
और जिसके भीतर
का दीया जला, वह पूछेगा
कि मानव—जीवन
की विकार—जनित
समस्याओं का
समाधान कैसे
करें? तो
फिर प्रबुद्ध
क्या खाक हुए?
कोई
कहे कि मेरे
घर में दीया
जल रहा है, अब
मुझे यह बताएं
कि अंधेरे को
कैसे बाहर
करें, तो
हम उसको क्या
कहेंगे? हम
कहेंगे तुम
किसी भांति
में पड़े हो, दीया जल
नहीं रहा
होगा। दीया जब
जलता है तो अंधेरा
बाहर हो जाता
है। अभी तुम
पूछ रहे हो
अंधेरे को
कैसे बाहर
करें, तो
तुम्हारा
दीया बुझा हुआ
होगा; तुमने
सपना देखा
होगा कि दीया
जल गया, दीया
जला नहीं है।
दीया उधार
होगा, किसी
और का ले आए हो
उठा कर। तुमने
अपने प्राणों
से उसमें
ज्योति नहीं
डाली।
तुम्हारी आत्मा
नहीं जल रही
है, प्रकाशित
नहीं हो रही
है।
प्रबुद्ध
बनो! यही तो
सारी चेष्टा
है। न तो शिक्षा
से कोई
प्रबुद्ध
बनता है, न
बुद्धिवादी
बनने से कोई
प्रबुद्ध
बनता है, न
तर्क की
क्षमता से कोई
प्रबुद्ध
बनता है। प्रबुद्ध
तो बनता है
कोई साक्षी
होने से। और
तब, तब तुम
नहीं पूछते कि
विकार—जनित
जीवन की समस्याओं
का कैसे
समाधान करें!
तब तुम्हें एक
बात दिखाई पड़
जाती है कि
साक्षी होने
में समाधान है।
तुम्हें जैसा
समाधान हुआ, वैसे ही
दूसरों को भी
समाधान होगा।
तब तुम लोगों
को साक्षी
बनाने की
चेष्टा में
संलग्न होते
हो। यही तो
महावीर ने
किया चालीस
वर्षों तक, बुद्ध ने
किया। क्या
सिखा रहे थे
लोगों को? सिखा
रहे थे कि हम
जाग गए, तुम
भी जाग जाओ।
बस जागने में
समाधान है।
यही
मैं कर रहा
हूं। मैं
तुमसे कुछ भी
नहीं कहता कि
तुम कैसा आचरण
बनाओ। बकवास
है आचरण की बात।
खूब की जा
चुकी, तुम बना
नहीं पाये। उस
करने के कारण
ही तुम उदास आत्महीनता
से भर गये।
मैं तुमसे
कहता हूं : जागो!
एक बात मैंने
देखी है कि
जागने से सब
समस्याओं का
समाधान हो
जाता है और
बिना जागे
किसी समस्या
का समाधान
नहीं होता।
ज्यादा से
ज्यादा तुम
समस्याएं बदल
सकते हो। एक
समस्या की जगह
दूसरी बना
लोगे, दूसरी
की जगह तीसरी
बना लोगे; पर
इससे कुछ फर्क
नहीं पड़ता, समस्या अपनी
जगह खड़ी रहती
है। जागने में
समाधान है।
लेकिन तुम
दूसरों को तभी
जगा सकोगे जब तुम
जाग गये हो, इसके पहले
नहीं। बुझी
आत्मा का
व्यक्ति किसी की
आत्मा को जगा
नहीं सकता।
अड़चन
है।
जिन्होंने
पूछा है, उनकी आकांक्षा
है लोगों की
विकार—जनित
समस्याओं को
दूर करें। तुम
अपनी कर लो। फिर
तुम्हें समझ
आयेगी।
बुद्ध
के पास एक
आदमी आया और
उसने कहा कि
मुझे बतायें
कि मैं कैसे
लोगों की सेवा
करूं? बुद्ध
ने उसकी तरफ
देखा और कहते
हैं, ऐसा
कभी न हुआ था, उनकी आख में
एक आंसू आ
गया। वह आदमी
थोड़ा घबराया।
उसने कहा कि
आपकी आख में आंसू
मामला क्या है?
बुद्ध ने
कहा : तुम पर
मुझे बड़ी
करुणा आ रही
है। अभी तूने
अपनी ही सेवा
नहीं की, तो
दूसरों की
सेवा कैसे
करेगा?
अक्सर
ऐसा होता है
कि दूसरों की
सेवा करने वाले
वे ही लोग हैं
जो अपनी
समस्याओं से
भागना चाहते
हैं। मैं बहुत
से समाज—सेवकों
को जानता हूं।
इनके जीवन में
कोई शांति
नहीं है, मगर
ये दूसरों के
जीवन में शॉंति
लाने में लगे
हैं। और अक्सर
इनके कारण
दूसरों के
जीवन में
अशांति आती है,
शांति
नहीं। अगर
दुनिया के
समाज—सेवक
कृपा करके
अपनी— अपनी
जगह बैठ जायें
तो काफी सेवा
हो जाये। मगर
वे बड़ा उपद्रव
मचाते हैं [
मैंने
सुना है, एक
ईसाई पादरी ने
अपने स्कूल
में बच्चों को
कहा कि कम से
कम प्रतिदिन
एक अच्छा काम
करना ही चाहिए।
दूसरे दिन
उसने पूछा कि
कोई अच्छा काम
किया? तीन
लड़के खड़े हो
गये। उसने
पहले से पूछा :
तुमने क्या अच्छा
काम किया? उसने
कहा. मैंने एक
की स्त्री को
सड़क पार करवाई।
दूसरे से पूछा;
उसने कहा.
मैंने भी एक
बूढ़ी स्त्री
को सड़क पार करवाई।
पादरी को लगा
कि दोनों को
की स्त्रियां
मिल गईं! फिर
उसने कहा कि
हो सकता है, कोई की
स्त्रियों की
कमी तो है
नहीं। तीसरे
से पूछा कि तूने
क्या किया? उसने कहा कि
मैंने भी एक
की स्त्री को
सड़क पार करवाई।
उसने कहा. तुम
तीनों को की
स्त्रियां मिल
गईं? उन्होंने
कहा. तीन नहीं
थीं, एक ही
बूढ़ी स्त्री
थी। और सड़क
पार होना भी
नहीं चाहती थी,
बामुश्किल
करवा पाये।
मगर करवा दी!
ये
जो जिनको तुम
समाज—सेवक
कहते हो, ये
तुम्हारी
फिक्र ही नहीं
करते कि तुम
पार होना भी
चाहते हो कि
नहीं, ये
तुमको पार
करवा रहे हैं!
ये कहते हैं :
हम तो पार
करवा कर
रहेंगे। ये
तुम्हारी तरफ
देखते ही नहीं
कि तुम सेवा
करवाने को
राजी भी हो!
मैं
राजस्थान में
यात्रा पर था, उदयपुर
से लौटता था।
कोई दो बजे
रात होंगे, कोई आदमी
गाड़ी में चढ़
आया। वह एकदम
मेरे पैर दाबने
लगा। मैंने
कहा : 'भाई, तू सोने भी
दे!'
उसने
कहा. 'आप सोये, मगर
हम तो सेवा
करेंगे।’
'तू सेवा
करेगा तो हम
सो कैसे
पायेंगे?'
उसने
कहा : '
अब आप बीच
में न बोलें।
उदयपुर में भी
मैं आया था, लेकिन लोगों
ने मुझे अंदर
न आने दिया।
तो मैंने कहा,
आप लौटोगे
तो ट्रेन से, मेरे गांव
से तो
गुजरोगे! अब
मैं दों—तीन
स्टेशन तो
सेवा करूंगा
ही। आप बीच
में बोलें ही
मत।’
मैंने
कहा : 'तब ठीक है, तब मामला ही
नहीं है कोई।
अगर यह सेवा
है तो फिर तू
कर।’
अक्सर
जो तुम्हारी
सेवा कर रहे
हैं,
कभी तुमने
गौर से देखा
कि तुम करवाना
भी चाहते हो? जिनकी सेवा
कर रहे हैं, वे सेवा
करवाना चाहते
हैं?
एक
मित्र मेरे
पास आये, वे
आदिवासियों
को शिक्षा
दिलवाने का
काम करते हैं,
स्कूल
खुलवाते हैं।
जीवन लगा
दिया। बड़े
उससे भरे थें—सर्टिफिकेट
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री
के! और इन
लोगों का काम
ही है सर्टिफिकेट
देना, कुछ
और काम दिखाई
पड़ता नहीं। सब
रखे थे फाइल बना
कर। कहा कि
मैंने इतनी
सेवा की। वे
मुझसे भी
चाहते थे।
मैंने कहा कि
मैं नहीं
दूंगा कोई सर्टिफिकेट,
क्योंकि
मैं पहले उनसे
पूछूं—आदिवासियों
से—कि वे
शिक्षित होना
चाहते हैं? उन्होंने
कहा. 'आपका
मतलब?' मैंने
कहा : 'मतलब
मेरा यह है कि
जो शिक्षित
हैं, उनसे
तो पूछो कि
शिक्षा मिल कर
मिल क्या गया
उनको? रो
रहे हैं! और
तुम बेचारे
गरीबों को, उनको भी
शिक्षित .किए
दे रहे हो। वे
भले हैं। न उनमें
महत्वाकांक्षा
है न दिल्ली
जाने का रस
है। तुम उनको
शिक्षा देने
में लगे हो।
तुम
जबर्दस्ती
उनको पिला रहे
हो शिक्षा।
तुम पहले यह
तो पक्का कर
लो कि जो
शिक्षित हो
गये हैं उनके
जीवन में कोई
फूल खिले हैं?'
वे
थोड़े बेचैन
हुए।
उन्होंने कहा.
'यह मैंने
कभी सोचा नहीं।’
मैंने
कहा. 'कितने साल
से सेवा कर
रहे हो?'
'कोई चालीस
साल हो गए।’
सत्तर
साल के करीब
उनकी उम्र है।
मैंने कहा. चालीस
साल सेवा करते
हो गए, सेवा
करने के पहले
तुमने यह भी न
सोचा कि शिक्षा
लाई क्या है
दुनिया में!
उधर अमरीका
में दूसरी
हालत चल रही है।
वहां बड़े से
बड़े शिक्षा—शास्त्री
कह रहे हैं कि
बंद करो।
डी
एच. लारेंस ने
लिखा है कि सौ
साल के लिए सब
विश्वविद्यालय
और सब स्कूल
बंद कर दो तो
आदमी के करीब—करीब
नब्बे
प्रतिशत
उपद्रव बंद हो
जाएं।
इवान
इलिच ने अभी
घोषणा की है, वह
एक नयी योजना
है उसकी : 'डीस्कूलिग
सोसायटी'।
वह कहता है, स्कूल
समाप्त करो।
स्कूल से समाज
को मुक्त करो।
मैंने
उनसे पूछा : 'चालीस
साल सेवा करने
के शुरू करते
वक्त यह तो सोचा
होता कि तुम
इनको दोगे
क्या! आदिवासी
तुमसे ज्यादा
प्रसन्न है, तुमसे
ज्यादा मस्त,
प्रकृति के
तुमसे ज्यादा
करीब, रूखी—सूखी
से राजी, अकिंचन
में बड़ा धनी, सांझ तारों
में नाच लेता
है, रात सो
जाता है—ऐसे
अहोभाव से!'
बर्ट्रेंड
रसेल ने लिखा
है कि जब पहली
दफा मैंने एक
जंगल में
आदिवासियों
को देखा तो
मेरे मन में
ईर्ष्या पैदा
हो गई कि काश
मैं भी ऐसा ही
नाच सकता, लेकिन
अब तो मुश्किल
है! काश, इसी
तरह घुंघरू
बांध कर ढोल
की थाप पर
मेरे पैर भी
फुदकते!
नाचते
आदिवासियों
को देख कर
ईर्ष्या नहीं
होती? उनकी आंखों
की सरलता देख
कर ईर्ष्या
नहीं होती?
जहां—जहां
शिक्षा
पहुंची है
वहां—वहां
सारा उपद्रव
पहुंचा।
बस्तर में आज
से तीस साल
पहले तक कोई
हत्या नहीं
होती थी आदिवासियों
में। और अगर
कभी हो जाती
थी तो जो हत्या
करता था वह
खुद सौ पचास
मील चल कर
मजिस्ट्रेट
को खबर कर
देता था जा कर
पुलिस में कि
मैंने हत्या
की,
मुझे जो दंड
देना हो वह दे
दें। चोरी
नहीं होती थी।
लोगों के पास
पहली तो बात
कुछ था ही
नहीं कि चुरा
लो और वस्तुओं
का कोई मूल्य
नहीं था। जहां
जीवन का मूल्य
है, वहा
वस्तुओं का
क्या मूल्य
है! मगर ये
समाज—सेवक
हैं!
वे
तो बहुत घबरा
गए। वे कहने
लगे : 'आपका मतलब
है कि मैंने
जीवन व्यर्थ
गंवाया!'
मैंने
कहा : 'व्यर्थ नहीं
गंवाया है, बड़े खतरनाक
ढंग से गंवाया
है। दूसरों की
जान ली! तुम
अपना गंवाते,
तुम्हारा
जीवन है।’
वे
बोले कि आप
मुझे बहुत
उदास किए दे
रहे हैं। मैं
बहुत लोगों के
पास गया, सबने
मुझे
सर्टिफिकेट
दी है।
मैंने
कहा. 'उनकी भी
गलती है। वे
भी तुम्हारे
जैसे ही समाज—सेवक
हैं
जिन्होंने
तुम्हें
सर्टिफिकेट
दी है।’
दूसरे
की सेवा करने
जाना मत, जब तक
अपने घर का
दीया न जल गया
हो; जब तक
बोध बिलकुल
साफ न हो जाये,
जब तक
तुम्हारे
भीतर का प्रभु
बिलकुल निखर न
आये—तब तक भूल
कर भी सेवा मत
करना। भूल कर
उपदेश मत देना।
भूल कर किसी
की समस्या का
समाधान मत करना।
तुम्हारा
समाधान और भी
महंगा पड़ेगा।
बीमारी ठीक, तुम्हारी
औषधि और जान
लेने वाली हो
जाएगी। शायद
बीमार कुछ दिन
जिंदा रह लेता;
तुम्हारी
औषधि बिलकुल
मार डालेगी।
अगर
तुम दो सौ साल
पहले के बड़े—बड़े
विचारकों की
किताबें उठा
कर पढ़ो तो वे
सब कहते थे :
जिस दिन विश्व
में सभी लोग
शिक्षित हो
जायेंगे, परम
शाति का राज्य
हो जाएगा। अब
पश्चिम
में
सब शिक्षित हो
गये,
इससे
ज्यादा अशांति
का कभी कोई
समय नहीं रहा।
अब यह बड़ी
हैरानी की बात
है।
जिन्होंने
कहा, होश
में नहीं थे, बेहोश थे।
शिक्षा से
शाति का क्या
लेना—देना!
शिक्षा तो
अशांति लाती
है, क्योंकि
शिक्षा
महत्वाकांक्षा
देती है।
तो
तुम पूछते हो
कि 'विकार—जनित
समस्याएं हैं,
इनका
प्रबुद्ध
वर्ग कैसे
समाधान करे!'
अधिकतर
सौ में
निन्यानबे
समस्याएं तो
इस प्रबुद्ध
वर्ग के कारण
ही हैं। यह
प्रबुद्ध
वर्ग कृपा करे
और अपनी
प्रबुद्धता
का प्रचार न
करे तो कई
समस्याएं तो
अपने— आप समाप्त
हो जाएं। करीब—करीब
मामला ऐसा है.
प्रबुद्ध
वर्ग ही
समस्या पैदा
करता है, प्रबुद्ध
वर्ग ही उसको
हल करने का
उपाय करता है।
मैंने
सुना है, एक
आदमी गाव में
जाता, रात
में लोगों की
खिड़कियों पर
कोलतार फेंक
देता— कांच पर,
दरवाजों
पर। तीन—चार
दिन बाद उसका
पार्टनर—स्व
ही धंधे में
थे—उस गांव
में आता और
चिल्लाता :
किसी की खिड़की
पर कोलतार तो
नहीं है, साफ
करवा लो!
करवाना ही
पड़ता, क्योंकि
वह लोगों की
खिड़की पर
कोलतार...।
किसी को यह
पता भी नहीं
चलता कि दोनों
साझेदार हैं,
एक ही धंधे
में हैं; आधा
काम पहला करता
है, आधा
दूसरा करता
है। जब एक
सफाई करता
रहता है एक
गांव में, तो
दूसरा दूसरे
गांव में तब
तक कोलतार
फेंक देता है।
ऐसे धंधा खूब
चलता है।
प्रबुद्ध
वर्ग, जिसको
तुम कहते हो, वही
समस्याएं
पैदा करता है,
वही
समस्याओं के
हल करता है।
प्रबुद्ध
वर्ग प्रबुद्ध
वर्ग नहीं है।
प्रबुद्धों का
वर्ग हो भी
नहीं सकता।
सिंहों के
नहीं लेहड़े, संतो की
नहीं जमात!
कभी बुद्ध
होता है कोई
एकाध व्यक्ति।
वर्ग होता है?
जमात! कोई
भीड़— भाड़ होती
है? एक
बुद्ध काफी
होता है और
करोड़ों दीये
जल जाते हैं।
तुम इसके पहले
कि किसी के घर
में रोशनी लाने
की चेष्टा करो,
ठीक से टटोल
लेना, तुम्हारे
भीतर रोशनी है?
इसलिए मेरा
सारा ध्यान और
सारा जोर एक
ही बात पर है.
तुम्हारे
चैतन्य का
जागरण! इसलिए
ध्यान पर मेरा
इतना जोर है।
लोग
मेरे पास आते
हैं,
वे कहते हैं
कि इतनी
समस्याएं हैं
और आप ध्यान
में ही मेहनत
लगाये रखते
हैं! और
समस्याओं में
उलझा है समाज,
इनको हल
करवाइये!
मैं
उनको कहता हूं
कि वह कोई हल
होने वाली नहीं, जब
तक कि ध्यान न
फैल जाये।
ध्यान फैले तो
संभव है कि
समस्याओं का
समाधान हो
जाये।
ध्यान
करो,
ध्यान
करवाओ!
आखिरी
प्रश्न :
मेरे
एक वरिष्ठ
मित्र हैं, उन्हें
आदर करता हूं।
धर्म में गहरी
रुचि है उनकी
और उन्हें
आपका सत्संग
भी कभी उपलब्ध
हुआ था। मैं
जब भी उनसे
मिलता हूं तो
बातचीत के कम
में वे मुझे
बहुत मित्रतापर्वक
तुलसीदास का
यह वचन सुना
देते हैं : 'मूरख
हृदय न चेत जो
गुरु मिलहि
विरंचि सम।’ और इधर कुछ समय
से मुझे आपके
प्रसंग में तुलसीदास,
का यह वचन
स्मरण हो आता
है, यद्यपि
मानने का जी
नहीं होता।
अपनी मूर्खता से
कैसे निपट
भगवान?
निपटने
की उतनी बात
नहीं, स्वीकार
करने की बात
है। निपटने
में तो फिर जाल
फैल जायेगा।
तो मूर्ख
ज्ञानी बन
सकता है, मगर
अज्ञान न
मिटेगा।
स्वीकार की
बात है। स्वीकार
कर लो कि मैं
अज्ञानी हूं।
और
जैसे ही तुमने
स्वीकार किया, उसी
विनम्रता में,
उसी
स्वीकार में
ज्ञान की किरण
आनी शुरू होती
है। अज्ञान को
स्वीकार करना ज्ञान
की तरफ पहला
कदम है—अनिवार्य
कदम है।
तो
अगर यह मानने
का मन नहीं
होता कि मैं
और मूरख., तो
फिर तुम जो भी
करोगे वह गलत
होगा।
क्योंकि फिर
तुम यही कोशिश
करोगे कि
इकट्ठा कर लो
कहीं से ज्ञान,
थोड़ा
संग्रह कर लो
ज्ञान, छिपा
लो अपने
अज्ञान को, ढांक लो
वस्त्रों में,
सुंदर
गहनों में ओढ़ा
दो। लेकिन
इससे कुछ मिटेगा
नहीं, भीतर
अज्ञान तो बना
ही रहेगा।
स्वीकार कर
लो! अंगीकार
कर लौ! सचाई
यही है।
और
इसको तुलना के
ढंग से मत
सोचो कि तुम
मूरख हो और
दूसरे ज्ञानी
हैं। कोई
ज्ञानी नहीं
है। दुनिया
में दो तरह के
अज्ञानी हैं—एक, जिनको
पता है; और
एक, जिनको
पता नहीं।
जिनको अपने
अज्ञान का पता
है उन्हीं को
ज्ञानी कहा
जाता है, और
जिनको अपने
अज्ञान का पता
नहीं, उन्हीं
को अज्ञानी
कहा जाता है।
बाकी दोनों अज्ञानी
हैं।
सुकरात
ने कहा है कि
जब मैंने जान
लिया कि मैं कुछ
भी नहीं जानता
हूं उसी दिन
प्रकाश हो
गया।
उपनिषद
कहते हैं. जो
कहे मैं जानता
हूं जान लेना
कि नहीं
जानता। जो कहे
मुझे कुछ पता
नहीं, उसका
पीछा करना, हो सकता है
उसें पता हो!
जिंदगी
बड़ी पहेली है।
तुम
एक बार अज्ञान
को स्वीकार तो
करो! और सत्य को
स्वीकार न
करोगे तो
करोगे क्या? कब
तक झुठलाओगे 2:
बात साफ है कि
हमें कुछ भी
पता नहीं। न
हमें पता है
हम कहां से
आते; न
हमें पता है
हम कहां जाते;
न हमें पता
है हम कोन है—अब
और क्या चाहिए
प्रमाण के लिए?
रास्ते
पर कोई आदमी
मिल जाए
चौराहे पर और
तुम उससे पूछो
कहां से आते
हो;
वह कहता है
पता नहीं; तुम
कहो, कहां
जाते; वह
कहता है, पता
नहीं—तो
तुम्हें कुछ
शक होगा कि
नहीं? और
तुम पूछो तुम
हो कोन; वह
कहे कि पता
नही—तो तुम
क्या कहोगे इस
आदमी को? 'तू
पागल है! तुझे
यह भी पता
नहीं कहां से
आता है, कहां
जाता है। खैर
इतना तो पता
होगा कि तू कोन
है!' वह कहे
कि मुझे कुछ
पता नहीं। 'नाम— धाम
ठिकाना?' कुछ
पता नहीं। तो
तुम कहोगे कि
यह आदमी या तो
पागल है या
धोखा दे रहा है।
हमारी
दशा क्या है? जीवन
के चौराहे पर
हम खड़े हैं।
जहां खड़े हैं,
वहीं
चौराहा है, क्योंकि हर
जगह से चार
राहें फूटती
हैं, हजार
राहें फूटती
हैं। जहां खड़े
हैं वहीं
विकल्प हैं।
कोई तुमसे
पूछे कहां से
आते हो, पता
है? झूठी
बातें मत
दोहराना।
सुनी बातें मत
दोहराना। यह
मत कहना कि
हमने गीता में
पढ़ा है। उससे
काम न चलेगा।
गीता में पढ़ा
है, उससे
तो इतना ही
पता चलेगा कि
तुम्हें कुछ
भी पता नहीं
है; नहीं
तो गीता में
पढ़ते? अगर
तुम्हें पता
होता कहां से
आते हो, तो
पता होता, गीता
की क्या जरूरत
थी? तुम यह
मत कहना कि
कुरान में सुना
है कि कहां से
आते, कि
भगवान के घर
से आते। न
तुम्हें
भगवान का पता
है न तुम्हें
उसके घर का
पता है—तुम्हें
कुछ भी पता
नहीं।
लेकिन
आदमी का
अहंकार बड़ा
है। अहंकार के
कारण वह
स्वीकार नहीं
कर पाता कि
मैं अज्ञानी
हूं। और
अहंकार ही
बाधा है।
स्वीकार कर लो, अहंकार
गिर जाता है।
अज्ञान की
स्वीकृति से
ज्यादा और
महत्वपूर्ण
कोई मौत नहीं
है, क्योंकि
उसमें मर जाता
है अहंकार, खतम हुआ, अब
कुछ बात ही न
रही। तुम
अचानक पाओगे
हलके हो गये!
अब कोई डर न
रहा। सच्चे हो
गये!
अब
लोग सिखलाते
हैं. झूठ मत
बोलो। और जो
सिखलाते हैं
झूठ मत बोलो, उनसे
बड़ा झूठ कोई
बोलता दिखाई
पड़ता नहीं।
झूठ मत बोलो, समझाते हैं।
और उनसे पूछो,
दुनिया
किसने बनाई? वे कहते हैं :
भगवान ने
बनाई। जैसे ये
मौजूद थे।
थोड़ा सोचो तो
कि झूठ की भी
कोई सीमा होती
है! दूसरे लोग
झूठ बोल रहे
हैं, छोटी—मोटी
झूठ बोल रहे
हैं। कोई कह रहा
है कि हमारे
पास दस हजार
रुपये हैं और
हैं हजार
रुपये, कोई
बड़ा झूठ नहीं
बोल रहा है।
हजार रुपये तो
हैं! सभी ऐसा
झूठ बोलते
हैं। घर में
मेहमान आ जाता
है, पड़ोस
से सोफा मांग
लाते हैं, उधार
दरी ले आते
हैं, सब
ढंग—ढौंग कर
देते हैं। झूठ
बोल रहे हो।
तुम यह बतला
रहे हो मेहमान
को कि बहुत है
अपने पास।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
नई—नई दूकान
खोली तो इसी
तरह सामान सजा
लिया। फोन तक
ले आया किसी
मित्र के घर
से माग कर, रख
लिया वहां।
कोई कनेक्शन
तो था नहीं।
एक आदमी आया।
समझ कर कि
ग्राहक है, उसने कहा :
बैठो। जल्दी
से फोन उठा कर
वह जरा बात
करने लगा कि 'हो —हा, लाख
रुपये का सौदा
कर लो। ठीक है,
लाख का कर
लो।’ फोन
नीचे रख कर
उसने उस आदमी
से कहा : 'कहिए,
क्या बात है?'
उसने कहा कि
मैं फोन कंपनी
से आता हूं
कनेक्शन
लगाने आया
हूं। ये लाख
रुपये की बात
कर रहे थे।
आदमी चेष्टा
करता है
दिखलाने की जो
नहीं है। मगर
ये कोई बड़े
झूठ नहीं हैं,
छोटे—छोटे
झूठ हैं और
क्षमा—योग्य
हैं और इनसे
जिंदगी में
थोड़ा रस भी
है। इसमें कुछ
बहुत अड़चन
नहीं, इनको
झूठ क्या
कहना!
लेकिन
कोई तुमसे
पूछता है :
दुनिया किसने
बनाई? छोटा
बच्चा तुमसे
पूछता है कि
पिताजी, दुनिया
किसने बनाई? तुम कहते हो : 'भगवान ने
बनाई।’ कितना
बड़ा झूठ बोल
रहे हो! कुछ तो
सोचो! तुम्हें
पता है? और
किससे बोल रहे
हो! उस नन्हें
छोटे बच्चे से,
जो तुम पर
भरोसा करता
है! किसको
धोखा दे रहे
हो—जिसकी
श्रद्धा तुम
पर है और
जिसका अगाध
विश्वास है कि
तुम झूठ न
बोलोगे!
फिर
अगर बड़े हो कर
यह बेटा तुम
पर श्रद्धा खो
दे तो रोना मत, क्योंकि
एक न एक दिन तो
इसे पता चलेगा
कि पिताजी को
भी पता नहीं
है, माताजी
को भी पता
नहीं है। वे
पिताजी—माताजी
के जो गुरुजी
हैं, उनको
भी पता नहीं।
पता किसी को
भी नहीं है और
सब दावा कर
रहे हैं कि पता
है। जिस दिन
यह बेटा
जानेगा उस दिन
इसकी श्रद्धा
अगर खो जाए तो
जुम्मेवार कोन?
तुम्हीं हो
जुम्मेवार!
तुमने ऐसे झूठ
बोले जिनका
तुम प्रमाण न
जुटा सकोगे।
बात
क्या थी? क्या
तुम इतनी—सी
बात कहने में
लजा गए कि
बेटा, मुझे
पता नहीं! काश,
तुम इतना कह
सकते! और जो बाप
अपने बेटे से
कह सकता है कि
बेटा मुझे पता
नहीं, तू
भी खोजना, मैं
भी अभी खोज
रहा हूं अगर
तुझे कभी पता
चल जाए तो
मुझे बता देना,
मुझे पता
चलेगा तो तुझे
बता दूंगा; लेकिन मुझे
पता नहीं, किसने
बनाई, बनाई
कि नहीं बनाई,
परमात्मा
है या नहीं, मुझे कुछ
पता नहीं! हो
सकता है, आज
तुम्हें अड़चन
मालूम पड़े, लेकिन बेटा
समझेगा, एक
दिन समझेगा और
तुम्हारे
प्रति कभी आदर
न खोयेगा!
तुम्हारे
प्रति
श्रद्धा बढ़ती
ही जाएगी। जब
जवान होगा तब
समझेगा कि
कितना कठिन है
अज्ञान को
स्वीकार कर
लेना, क्योंकि
उसका अहंकार
उसे बतायेगा
कि अज्ञान को स्वीकार
करना बड़ा कठिन
है, लेकिन
मेरे पिता ने
अज्ञान
स्वीकार किया
था। तुम्हारी
छाप उस पर
अनूठी रहेगी।
तुम्हारे प्रति
श्रद्धा के
खोने का कोई
कारण नहीं है।
लेकिन लोग
झूठी बातें
कहे चले जाते
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने बेटे से
कह रहा था...। स्कूल
से आया बेटा।
पास नहीं हुआ
क्लास में। तो
कहा : 'तुझे पता है
कि तेरी उम्र
में बिथोवन ने
कितना संगीत
जन्मा दिया था
और माइकल
एंजिलो ने
कैसी—कैसी
मूर्तियां
बना दी थीं! और
तेरी क्या
हालत है 2: '
उस
बेटे ने बाप
की तरफ देखा
और कहा : 'ठीक।
और आपकी उम्र
में पिताजी
माइकल एंजिलो
कहां थे? कहां
तक पहुंच गए
थे? आप
कहां पहुंचे
हैंत्र? ' लेकिन तब
दुख होता है, तब पीड़ा
लगती है, तब
अड़चन होती है।
धर्म
के नाम पर बड़े
झूठ चलते हैं।
इन झूठों को गिरा
देना धार्मिक
आदमी का लक्षण
है। इसलिए तो
मैं कहता हूं :
धार्मिक आदमी
हिंदू
मुसलमान, जैन,
बौद्ध नहीं
हो सकता।
धार्मिक आदमी
तो सरल होगा, सहज होगा।
वह तो जो
जानता है उतना
ही कहेगा, वह
भी झिझक कर
कहेगा; जो
नहीं जानता, उस का तो कभी
दावा नहीं
करेगा। वह तो
अपने को खोल
कर रख देगा कि
ऐसा—ऐसा, इतना
मैं जानता हूं
थोड़ा—बहुत मैं
जानता हूं।
एक
मां अपनी बेटी
से कह रही थी
कि जब मैं
तुम्हारी
उम्र की थी तो
मैंने किसी
पुरुष का
स्पर्श भी
नहीं किया था
और तुम
गर्भवती होकर
आ गई कॉलेज से!
यह तो बताओ कि
जब तुम्हारे
बच्चे होंगे, तुम
उनसे क्या
कहोगी?
उस
लड़की ने कहा : 'कहेंगे
तो हम भी यही, लेकिन जरा
संकोच से
कहेंगे, आप
बड़े निस्संकोच
से कह रही हैं।’
समझे
मतलब? उस लड़की
ने कहा : 'कहेंगे
तो हम भी यही
कि तुम्हारी
उम्र में हमारा
कुंवारापन
बिलकुल
पवित्र था, हमने किसी
पुरुष को छुआ
भी नहीं था, कहेंगे तो
हम भी यही जो
आप कह रही हैं;
लेकिन हम
इतने
निस्संकोच
भाव से न कह
सकेंगे जितने
निस्संकोच
भाव से आप कह
रही हैं। हम
थोड़े
झिझकेंगे।’
यह
झूठ है। यह
झूठ मत कहें।
जैसा है वैसा
ही कहें। जो
है वही कहें।
जितना जाना
उसमें रत्ती भर
मत जोड़े, सजायें
भी मत। ऐसा
निपट सत्य के
साथ जो जीता है,
उसे अगर
किसी दिन
महासत्य मिल
जाता है तो
आश्चर्य क्या!
इंच
भर झूठे दावे
न करें। दावे
करने की बड़ी आकांक्षा
होती है, क्योंकि
अहंकार झूठे
दावों से जीता
है। अहंकार
झूठ है और झूठ
से उसका भोजन
है, झूठ से
उसको भोजन
मिलता है। और
इसलिए
तुम्हारे झूठ
को कोई जरा
टटोल दे, झझकोर
दे, तो तुम
कितने नाराज
होते हो!
अब
तुम कहते हो, भगवान
ने बनाई
दुनिया। और
बेटा पूछ ले : ' भगवान को
किसने बनाया?'
बस भन्ना
जाते हो, नाराज
हो जाते हो।
कहते हो : 'यह
बात मत पूछो।
जब बड़े होओगे,
तुम समझ
लोगे।’ और
तुम्हें भी
पता है कि बड़े
हो गये तुम भी,
अभी समझे
कुछ नहीं। यह
कैसे समझ लेगा?
यही
तुम्हारे बाप
तुमसे कहते
रहे कि बड़े हो
जाओगे, समझ
लोगे। बड़े तुम
हो गये, अभी
तक कुछ समझे
नहीं। यही तुम
इससे कह रहे, यही यह अपने
बेटों से कहता
रहेगा। ऐसे
झूठ चलते पीढ़ी—
दर—पीढ़ी और
जीवन विकृत
होता चला जाता
है।
तुम
सच हो जाओ।
अज्ञान
बिलकुल
स्वाभाविक है, पता
हमें नहीं है।
इसका एक पहलू
तो यह है कि
हमें पता नहीं
है; इसका
दूसरा पहलू यह
है कि जीवन
रहस्य है, पता
हो ही 'नहीं
सकता। इसका एक
पहलू तो यह है
कि मुझे पता नहीं
है, इसका
दूसरा पहलू यह
है कि जीवन
अज्ञात रहस्य
है, पहेली
है, इसलिए
पता हो कैसे
सकता है!
इसलिए जिसने
जाना कि मैं
नहीं जानता
वही जानने में
समर्थ हो जाता
है, क्योंकि
वह जान लेता
है : जीवन परम
गुह्य रहस्य
है।
परमात्मा
रहस्य है, कोई
सिद्धात
नहीं। जो कहता
है परमात्मा
है, वह यह
थोड़े ही कह
रहा है कि
परमात्मा कोई
सिद्धात है; वह यह कह रहा
है कि हम समझ
नहीं पाये, समझ में आता
नहीं, ज्ञात
होता नहीं—अज्ञेय
है। इस सारी
बात को हम एक
शब्द में रख रहे
हैं कि
परमात्मा है।
परमात्मा
शब्द में इतना
ही अर्थ है कि
सब रहस्य है
और समझ में
नहीं आता; सूझ—बूझ
के पार है; बुद्धि
के पार है; तर्क
के अतीत है; जहां विचार
थक कर गिर
जाते हैं, वहां
है, अवाक जहां
हो जाती है
चेतना, जहां
आश्चर्यचकित
हम खड़े रह
जाते हैं...।
कभी
तुम किसी
वृक्ष के पास
आश्चर्यचकित
हो कर खड़े हुए
हो?
जीवन कितने
रहस्य से भरा
है! लेकिन
तुम्हारे ज्ञान
के कारण तुम
मरे जा रहे हो,
रहस्य को
तुम देख नहीं
पाते। और
जिसने रहस्य नहीं
देखा, वह
क्या खाक धर्म
से संबंधित
होगा! एक छोटा—सा
बीज वृक्ष बन
जाता है और
तुम नाचते
नहीं, तुम
रहस्य से नहीं
भरते! रोज
सुबह सूरज
निकल आता है, आकाश में
करोड़ों—करोड़ों
अरबों तारे
घूमते हैं, पक्षी हैं, पशु हैं, इतना
विराट
विस्तार है
जीवन का—इसमें
हर चीज
रहस्यमय है, किसी का कुछ
पता नहीं है!
और जो—जो
तुम्हें पता
है वह कामचलाऊ
है।
विज्ञान
बहुत दावे
करता है कि
हमें पता है।
पूछो कि पानी
क्या है? तो वह
कहता है
हाइड्रोजन और
आक्सीजन का
मेल है। लेकिन
हाइड्रोजन
क्या है? तो
फिर अटक गये।
फिर झिझक कर
खड़े हो गये।
तो वह कहता है :
हाइड्रोजन
क्या है, अब
यह जरा
मुश्किल है।
क्योंकि
हाइड्रोजन तो तत्व
है। दो का
संयोग हो तो
हम बता दें।
पानी दो का
संयोग है—हाइड्रोजन
और आक्सीजन का
जोड़, एच टू
ओ। लेकिन
हाइड्रोजन तो
सिर्फ
हाइड्रोजन
है।
अब
कोई तुमसे
पूछे, पीला
रंग क्या है? तो अब क्या
खाक कहोगे कि
पीला रंग क्या
है! पीला रंग
यानी पीला
रंग। हाइड्रोजन
यानी
हाइड्रोजन।
अब कहना क्या
है? मगर यह
कोई उत्तर हुआ
कि हाइड्रोजन
यानी हाइड्रोजन?
नहीं, विज्ञान
भी कोई उत्तर
देता नही; थोड़ी
दूर जाता है, फिर ठिठक कर
खड़ा हो जाता
है। सब
शास्त्र थोडी दूर
जाते हैं, फिर
ठिठक कर गिर
जाते हैं।
मनुष्य की
क्षमता सीमित
है और असीम है
जीवन—जाना
कैसे जा सकता
है! इसलिए
जिसने जान
लिया कि नहीं
जानता, वही
ज्ञानी है।
तो
घबराओ मत।
स्वीकार करो।
स्वीकार से ही
विसर्जन है।
मूल्य—मुक्त
कर ले चल
मुइाको तू
अमूल्य की ओर
संशय—निश्चय
दोनों दुविधा, इनसे
परे विकास
मृगमरीचिका
क्षितिज, स्वयं
की सीमा है
आकाश
समय
समय है भोले
दृग की छलना
संध्या— भोर
पूर्ण
नहीं है वस्तु, भाव
में केवल उसका
भास
बांध
सके चिन्मय को, ऐसा
किस भाषा का
पाश!
कुंभ
कूप तक पहुंचे
इतना कर सकती
बस डोर
कंचन
नहीं, अकिंचन
की ही दुर्लभ
है पहचान
पंचभूत
तो नग्न, तत्व
ने पहन लिया
परिधान
छुड़ा
तुला की कारा, पकडूं
मैं अमूल्य का
छोर
मूल्य—मुक्त
कर ले चल
मुझको तू
अमूल्य की ओर
मूल्य
आदमी के बनाये
हैं;
अमूल्य
परमात्मा का
है। सब
तुलायें—तराजू
हमारे हैं; परमात्मा
अनतौला है, अमित; कोई
माप नही—अमाप!
जो
भी जाना जा
सकता है वह
सीमित है—जानने
से ही सीमित
हो गया।
क्षुद्र ही
जाना जा सकता
है,
विराट
नहीं।
बांध
सके चिन्मय को, ऐसा
किस भाषा का
पाश!
शब्द
में,
भाषा में, सिद्धात में,
बंधेगा
नहीं...।
कुंभ
कूप तक पहुंचे
इतना कर सकती
बस डोर
कुएं
में डाला गगरी
को तो जो डोरी
है,
वह पानी तक
पहुंचा दे
गगरी को, और
क्या कर सकती
है! तर्क और
विचार और
बुद्धि बस
परमात्मा तक
पहुंचा देती
है, और कुछ
नहीं कर सकती।
वहां जा कर
जाग आती है। बस
वहां डोर खतम
हो जाती है। जहां
बुद्धि की डोर
खतम होती है, वहीं प्रभु
का जल है। जहां
विचार, तर्क
की क्षमता
टूटती है, गिरती
है, बिखरती
है, वहीं
चिन्मय का
आकाश है।
अज्ञान सिर्फ
इस बात का
सबूत है कि
परमात्मा
रहस्य है।
ज्ञान इस बात
का सबूत होता
है कि
परमात्मा
भी रहस्य नहीं, पढा
जा सकता है, खोला जा
सकता है। नहीं,
उसके महल
में प्रवेश तो
होता है; बाहर
कोई नहीं
निकलता।
उसमें डुबकी
तो लगती है, लौटता कोई
भी नहीं है।
रामकृष्ण
कहते थे. दो
नमक के पुतले
एक मेले में
भाग लेने गये
थे। समुद्र के
तट पर लगा था
मेला। कई लोग
विचार कर रहे
थे कि समुद्र
की गहराई कितनी
है। कोई कहता
था,
अतल है! गए
कोई भी न थे।
अतल तो तभी कह सकते
हैं जब तल तक
गये और तल न
पाया। यह तो
बड़ी मुश्किल
बात हो गई।
कोई कहता था, तल है, लेकिन
बहुत गहराई पर
है। लेकिन वे
भी गये न थे।
नमक
के पुतलों ने
कहा : 'सुनो जी, हम
जाते हैं, हम
पता लगा आते
हैं।’ वे
दोनों कूद
पड़े। वे चले
गहराई में। वे
जैसे—जैसे
गहरे गए वैसे—वैसे
पिघले। नमक के
पुतले थे, सागर
के जल से ही
बने थे, सागर
में ही गलने
लगे। पहुंच तो
गए बहुत गहराई
में, लेकिन
लौटें कैसे!
तब तक तो खो
चुके थे, कभी
लौटे नहीं।
लोग कुछ दिन
तक प्रतीक्षा
करते रहे। फिर
लोगों ने कहा,
अरे पागल
हुए हो, नमक
के पुतले कहीं
पता लाएंगे!
खो गए होंगे।
ऐसी
ही संतो की
गति है।
परमात्मा में
डुबकी तो मार
गए,
लेकिन
परमात्मा से
ही बने हैं, जैसे नमक का
पुतला सागर से
ही बना है। तो
डुबकी तो लग
जाती है। फिर
चले गहराई की
तरफ। जैसे —जैसे
गहरे होते हैं,
वैसे—वैसे
पिघलने लगे, खोने लगे।
एक दिन पता तो
चल जाता है
गहराई का; लेकिन
जब तक पता
चलता है तब तक
खुद मिट जाते
हैं, लौटने
का उपाय नहीं
रह जाता।
कोई
प्रभु से कभी
लौटा? लौटने
का कोई उपाय
नहीं। इसलिए
कोई उत्तर नहीं
है। निरुत्तर
है आकाश, निरुत्तर
है अस्तित्व।
इस निरुत्तर
अस्तित्व के
सामने तुम मौन
हो कर झुको, अकिंचन हो
कर झुको।
अज्ञान को
स्वीकार कर
झुके।। वहीं
प्रकाश की
किरण उतरेगी।
तुम मिटे कि प्रकाश
हुआ। तुम मिटे
कि परमात्मा
प्रगट हुआ।
तुम्हारे
होने में बाधा
है।
हरि ओंम
तत्सत्!
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